चरम पर बेरोजगारी : काम न आया पाखंडी सरकार का जयजयकार

मामला : 01

(नौकरी नहीं मिलने से 3 युवकों ने की एकसाथ खुदकुशी)

पिछले दिनों राजस्थान में 3 युवकों ने नौकरी न मिलने से हताश हो कर एकसाथ आत्महत्या कर ली. तीनों युवक जान देने के लिए ट्रेन के आगे कूद गए. जिस से तीनों की मौके पर ही मौत हो गई. घटना के चश्मदीदों की मानें तो ट्रेन के आगे कूदने से पहले ये युवक कह रहे थे कि नौकरी तो लगेगी नहीं, तो फिर जीने का क्या मतलब? ऐसे जी कर क्या करेंगे?

घटना राजस्थान के अलवर जिले की है. यहां पर नौकरी न मिलने से हताश हो कर 5 दोस्तों ने एकसाथ जान देने का प्लान बनाया था. इस योजना के समय 2 युवा ट्रेन के आगे कूदने से डर गए और पीछे हट गए. वहीं 3 अन्य दोस्तों ने एकसाथ ट्रेन के आगे छलांग लगा दी. ये तीनों युवक शहर के एफसीआई गोदाम के पास ट्रेन के आगे कूद गए. ट्रेन के आगे कूदने से इन  की मौके पर ही मौत हो गई.

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बाकी जिन 2 दोस्तों ने मौके पर आत्महत्या न करने का फैसला लिया उन की जान बच गई. उन्होंने बताया कि नौकरी न लगने से सभी परेशान थे. सभी युवकों का मानना था कि नौकरी नहीं लगेगी ये तो तय है लेकिन बिना नौकरी के जीवन कैसे गुजरेगा? ऐसे में ज़िंदा रह कर क्या करेंगे? ट्रेन के आगे कूदने से जान गंवाने वाले युवकों में से एक सत्यनारायण मीणा ने घटना से कुछ घंटे पहले अपने फेसबुक अकाउंट पर आत्महत्या का वीडियो- ‘माही द किलर’ नाम से डाला था.

मामला : 02

(पति की बेकारी से परेशान पत्नी ने दी जान)

जयपुर के गांधी नगर रेलवे स्टेशन पर पिछले शुक्रवार की सुबह एक महिला ने चलती ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली. ट्रेन की चपेट में आने पर महिला का शरीर 2 हिस्सों में बंट गया. घटना के बाद  स्टेशन पर हड़कंप मच गया. सूचना पर पहुंची पर पुलिस ने शव को कब्जे में ले कर इस की सूचना परिजनों को दी.

पुलिस के मुताबिक महिला का पति राजेश पिछले एक साल से बेरोजगार है. वह नौकरी की तलाश में हैं और घर का खर्च मरने वाली महिला शीतल के जिम्मे ही था. शीतल एक प्राईवेट कंपनी में नौकरी कर जैसेतैसे परिवार का खर्च उठा रही थी, लेकिन कोरोना के चलते लोकडाउन ने उस की यह नौकरी भी छीन ली. कामधंधे की बात को ले कर उन के बीच अकसर झगड़े हुआ करते थे. खुदकुशी के दिन की सुबह भी उन में कहासुनी हुई थी.

मामला : 03

(पति की बेकारी से तंग पत्नी ने की खुदकुशी की कोशिश)

अजमेर निवासी विनोद अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ गौतम नगर में किराये के मकान में रहता है. विनोद एक लंबे अरसे से बेरोजगार है. घर का खर्च चलाने में दिक्कत होने के कारण उस की पत्नी हमेशा तनाव में रहती थी. पिछले रविवार की सुबह विनोद किसी काम से घर के बाहर गया था और रंजना अपने दोनों बच्चों के साथ घर में ही थी.

इसी बीच उस ने कमरे के पंखे से लटक कर खुदकशी की कोशिश की. यह देख बच्चों ने शोर मचा दिया, जिस से आसपडोस के लोग जुट गए. उन्होंने तत्काल महिला को फंदे से उतार कर बचा लिया. महिला ने बताया कि पति की बेरोजगारी से तंग आ कर उस ने जान देने की कोशिश की थी. बेरोजगारी के अलावा पति से उसे किसी और तरह की कोई शिकायत नहीं है.

मामला : 04

(बेकारी की वजह से रिश्ता पहुंचा टूटने की कगार पर)

रोहित व रंजना की शादी दिसंबर 2018 में हुई थी. 6-7 माह तक पतिपत्नी का रिश्ता ठीक रहा. रोहित बेरोजगार है और पत्नी खर्चे के लिए पैसे मांगती है. बेरोजगारी के चलते वह पैसे नहीं दे पाता. इस से दोनों के बीच में कहासुनी और झगड़ा होता रहता है. झगड़े में कई बार रोहित अपनी पत्नी पर हाथ भी उठा चुका है.

परिजनों ने बातचीत से कई बार मामला शांत किया, लेकिन कुछ दिन सब ठीक रहता और फिर से वही स्थिति बन जाती. हालात ऐसे बन गए कि मामला थाने तक पहुंच गया. महिला थाने में जिला महिला संरक्षण एवं बाल विवाह निषेध अधिकारी पतिपत्नी के टूटते रिश्ते को जोड़ने का प्रयास कर रही है.

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बेकारी की वजह से रिश्ता टूटने की कगार पर पहुंचा यह अकेला ऐसा मामला नहीं है. इस तरह के हर दिन 4 से 5 केस पुलिस तक पहुंच रहे हैं. ये तो वे केस हैं जो कि घरों से बाहर रहे हैं. बहुत से केस तो घरों की चारदीवारी (परिवारों में आपसी बातचीत या पंचायतें हो रही हैं) में ही चल रहे हैं.

जयपुर जिला महिला संरक्षण एवं बाल विवाह निषेध अधिकारी सरिता लांबा की मानें तो कुल केस मेें 70 फीसदी केस बेरोजगारी की वजह से हैं. वहीं 20 प्रतिशत केस में पति द्वारा नशा करना वजह सामने आया है. कुछ केस दहेज या अवैध संबंधों के चलते हो रहे हैं. कुछ वैवाहिक संबंध दो माह भी ठीक से नहीं चल पाते. एक मामला पुलिस तक पहुंचने के बाद 50 प्रतिशत रिश्ते ही दोबारा जुड़ पाते हैं.सरिता लांबा के कहे अनुसार रिश्ते बिगड़ने की सब से बड़ी वजह बेरोजगारी रही है.

बेकारी से तंग युवाओं के अवसान का दौर

आज का युवा सड़कों पर उतर आया है तो उस के पीछे ठोस वजहें है. हालिया नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंंकड़े भी यह दर्शाते हैं कि देश के युवाओं का दुर्दिन चल रहा है. तभी तो बेरोजगार युवा अवसाद में आ कर मौत को गले लगा रहा. लेकिन बदकिस्मती देखिए, लोकतांत्रिक परिपाटी के सब से बड़े संवैधानिक देश में युवा एक अदद नौकरी न मिलने के कारण अवसादग्रस्त हो रहे और सियासी व्यवस्था उन्हें सियासत की कठपुतली बना सर्कस में नचा रही है. इतना ही नहीं देश की युवा जमात भी सियासतदानों के बनाए मौत के कुएं में चक्कर काट रही है.  युवाओं को भी अपने मुद्दों का भान नहीं रहा. तभी तो वे राजनीति के भंवर में कठपुतली बन नाच रहे और सियासी दल उन का फायदा उठा रहे.

आज युवाओं की सब से बड़ी जरूरत क्या है ? उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले, बेहतर रोजगार के अवसर मुहैया हों, ताकि उन्हें मौत को गले न लगाना पडे. लेकिन देश के युवा भी गुमराह हो गए हैं. आज का युवा हर मायने में राजनीतिक दल का काम करने लगा है और राजनीतिक दल उन के कंधे पर सवार हो कर चैन की बंशी बजा रहे, जो कतई उचित नहीं. युवाओं की पहली प्राथमिकता शिक्षा और नौकरी है, फिर क्यों युवा उस मुद्दे को ले कर आंदोलित न हो कर राजनीतिक दलों का काम आसान कर रहे है.

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में औसतन प्रतिदिन 36 बेरोजगार युवाओं ने खुदकुशी की, जो किसान आत्महत्या से भी ज्यादा है. यह उस दौर में हुआ, जब देश के प्रधानसेवक भारत को न्यू इंडिया/डिजिटल इंडिया बनाने का दिवास्वप्न दिखा रहे थे. विश्वगुरु बनने की दिशा में बातों ही बातों में लफ्जाजियों का गोता लगाया जा रहा था. देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन बनाने का संकल्प रोजाना दोहराया जा रहा था. 56 इंच की छाती पर गुमान यह कह कर किया जा रहा था कि भारत एक महाशक्ति बनने जा रहा है.

ऐसे में जब 21वीं सदी के भारत में डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और स्किल इंडिया जैसे ढेरों सरकारी कार्यक्रम चल रहे हो, उस दौर में बेरोजगारी से तंग आ कर देश के युवा जान दे रहे हो तो फिर सरकारी नीतियों और उन की नीयत पर सवालिया निशान खड़े होना वाजिब है.

एनसीआरबी के आंंकड़े के मुताबिक साल 2018 में ऐसे मौत को गले लगाने वाले बेरोजगार हताश युवाओं की संख्या 12,936 रही. यानी औसतन हर 2 घंटों में 3 लोगों की जान बेरोजगारी ने ली. ऐसे में यह कहीं न कहीं संविधान के अनुच्छेद- 21 में मिले जीवन जीने की स्वतंत्रता का हनन करना है और इस के लिए दोषी पूरा का पूरा राजनीतिक परिवेश है.

बेरोजगार युवा: सरकार की गलत नीतियों का नतीजा

हालिया दौर में भारत के पास जितना युवा धन है, उतना दुनिया के किसी भी मुल्क के पास नही है मगर सच्चाई यह भी है कि सब से ज़्यादा बेरोज़गार युवाओं का सैलाब भी हमारे ही मुल्क में है. यह सब कुछ वर्तमान सरकार की गलत नीतियों का नतीजा है. पिछले 60-70 सालों में बेरोज़गारी को ले कर जितनी बातें नहीं हुई हैं, उस से कहीं अधिक बीते 6 सालों से सुनाई पड़ रही है. सतासीन सरकार ने सत्ता हासिल करने के लिए युवाओं को हर साल 2 करोड़ रोज़गार गारंटी का वादा कर छला था.

आज मुल्क के कई संस्थानों का लगातार निजीकरण होना यह साबित करता है कि वर्तमान सरकार विफल है. इसी वजह से हर रोज़ लाखों की तादाद में युवाओं की नोकरियां दाव पर लगी रहती हैं. जिस से युवाओं में लगातार डिप्रेशन बढ़ रहा है. आज इन्हीं गलत नीतियों की वजह से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाला युवा चपरासी की नौकरी भी करने को तैयार है. हद तो यह है कि वह भी उसे नहीं मिल रही है. इस से भी कहीं ज़्यादा चौंकाने वाले मामले  अनेक शहरों में उस वक्त सामने आएं, जब म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में सफाई कर्मियों की नौकरी के लिए गैजुएट एवं पोस्ट गैजुएट के साथ इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाले युवाओं का तांता लग गया.

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जिस तरह से हर भरती पेपरलीक या कोर्ट के चक्कर में लंबित पड़ी है, उस से साफ़ है कि सरकार और सरकार में बैठे अधिकारी इन भर्तियो को ले कर संवेदनशील नही है. हर साल लाखोकरोड़ों की संख्या में इंटर, ग्रेजुएशन पास करने वाले बच्चे जब किसी सरकारी नौकरी की लिखित परीक्षा दे कर वापस अपने घर तक नही पहुंंच पाते तब तक परीक्षा संबंधी वेबसाइट पर पेपरलीक/परीक्षा स्थगित होने की जानकारी अपलोड कर दी जाती है.

भरती चाहे स्थगित हो अथवा कोर्ट में जाए पर इन सभी बातो का दुष्परिणाम अभ्यर्थी को ही भुगतना पड़ता है, वह अभ्यर्थी जो सालोसाल, दिनरात मेहनत कर के एक अदद सी नौकरी के सपने देखता है परन्तु उसे पेपर लीक/स्थगित होने से निराशा ही हाथ लगती है.

जिस युवाशक्ति के दम पर देश का मुखिया विश्वभर में इतराते घूमता है, देश की वही युवाशक्ति एक नौकरी के लिए दरदर भटकने को मजबूर है. ताजा रिपोर्टो के मुताबिक, जिन युवाओ के दम पर हम भविष्य की मजबूत इमारत की आस लगाए बैठे है, उस की नीव की हालत बेहद निराशाजनक है. 21वीं सदी में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी अपनाने के बाद भी देश एक ऐसा सिस्टम नही खड़ा कर पाया है जो एक भरती परीक्षा को सकुशल संपन्न करा सके. बेरोजगारी नाम का शब्द दरअसल देश का ऐसा सच है, जिस से राजनीतिज्ञों, खुद को देश का रहनुमा समझने वालो ने अपनी आंंखे मूंद ली हैं.

हद पर बेकारी का दर्द

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते साल अक्टूबर, 2019 में 40.07 करोड़ लोग काम कर रहे थे, लेकिन इस साल अगस्त माह में यह आंकड़ा 6.4 फीसदी घट कर 36.70 करोड़ रह गया. इस से पहले अंतररष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी अपनी एक रिपोर्ट में देश में रोजगार के मामले में हालात बदतर होने की चेतावनी दी थी. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बीते 6 सालों के दौरान रोजाना साढ़े 6 सौ जमीजमाई नौकरियां खत्म हुई हैं.

46 साल के अशोक कुमार एक निजी कंपनी में बीते 22 साल से काम कर रहे थे. लेकिन बीते साल नवंबर माह में एक दिन अचानक कंपनी ने खर्चों में कटौती की बात कह कर उन की सेवाएं खत्म कर दीं. अभी उन के बच्चे छोटेछोटे थे. महीनों नौकरी तलाशने के बावजूद जब उन को कहीं कोई काम हीं मिला तो मजबूरन वह अपनी पुश्तैनी दुकान में बैठने लगे. अशोक कहते हैं, “इस उम्र में नौकरी छिन जाने का दर्द क्या होता है, यह कोई मुझ से पूछे. वह तो गनीमत थी कि पिताजी ने एक छोटी दुकान ले रखी थी. वरना भूखों मरने की नौबत आ जाती.”

अशोक अब वहीं पूरे दिन बैठ कर परचून और घरेलू इस्तेमाल की दूसरी चीजें बेच कर किसी तरह अपने परिवार का गुजरबसर करते हैं. वह बताते हैं कि पहले वेतन अच्छा था. लिहाजा वह बड़े मकान में किराए पर रहते थे. बच्चे भी बढ़िया स्कूलों में पढ़ते थे. लेकिन एक झटके में नौकरी छिनने के बाद उन को अपने कई खर्चों में कटौती करनी पड़ी. पहले मकान छोटा लिया. फिर बच्चों का नाम एक सस्ते स्कूल में लिखवाया. अब हालांकि उन की जिंदगी धीरेधीरे पटरी पर आ रही है. लेकिन अशोक को अब तक अपनी नौकरी छूटने का मलाल रहता है.

जयपुर के एक छोटे कसबे के रहने वाले  हेमंत ने एक प्रतिष्ठित कालेज से बीए (आनर्स) की पढ़ाई करने के बाद नौकरी व बेहतर भविष्य के सपने देखे थे. लेकिन नौकरी की तलाश में बरसों एड़ियां घिसने के बाद उन का मोहभंग हो गया. आखिर अब वह अपने कसबे के बाजार ही में सब्जी की दुकान लगाते हैं. हेमंत बताते हैं, “कालेज से निकलने के बाद मैंने 5 साल तक नौकरी की कोशिश की. लेकिन कहीं कोई नौकरी नहीं मिली. जो मिल रही थी उस में पैसा इतना कम था कि आनेजाने का किराया व जेबखर्च भी पूरा नहीं पड़ता. यही वजह है कि मैंने सब्जी व फल बेचने का फैसला किया. कोई भी काम छोटाबड़ा नहीं होता.

सीएमआईई ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि नोटबंदी के बाद रोजगार में कटौती का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अब कोरोनाकाल में चरम पर है. इस दौरान श्रम सहभागिता दर 48 फीसदी से घट कर तीन साल के अपने निचले स्तर 36.70 फीसदी पर आ गई है. यह दर काम करने के इच्छुक वयस्कों के अनुपात का पैमाना है. रिपोर्ट में बेरोजगारी दर में इस भारी गिरावट को अर्थव्यवस्था व बाजार के लिए खराब संकेत करार दिया गया है.

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बेरोजगारी पर अब तक जितने भी सर्वेक्षण आए हैं, उन में आंकड़े अलगअलग हो सकते हैं. लेकिन एक बात जो सब में समान है वह यह कि इस क्षेत्र में नौकरियों में तेजी से होने वाली कटौती की वजह से हालात लगातार बदतर हो रहे हैं. बीते दिनों अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की ओर से प्रकाशित एक सर्वेक्षण में कहा गया था कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में ज्यादातर लोगों का वेतन अब भी 8-10 हजार रुपए महीने से कम ही है. इस सर्वेक्षण रिपोर्ट में दावा किया गया था कि रोजगार के क्षेत्र में विभिन्न कर्मचारियों के वेतन में भारी अंतर है. इस खाई को पाटना जरूरी है. एक अन्य सर्वे में कहा गया है कि भारत में 14 करोड़ युवाओं के पास फिलहाल कोई रोजगार नहीं है.

बेअसर तालीथाली की प्रतिक्रांति

देश के बेरोजगार युवाओं द्वारा 5 सितंबर को शाम 5 बजे 5 मिनट तक बेरोज़गारी की थालीताली पीटने के देशव्यापी अभियान के बाद 9 सितंबर को रात्रि 9 बजे 9 मिनट तक अँधेरे के खिलाफ़ मशाल जला कर देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किया गया. माना रहा है कि बेरोजगार युवाओं अपने हक की बात अर्थात नौकरी/नियुक्ति की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित कराने के लिए तालीथाली की प्रतिक्रांति को अंजाम दिया.

दरअसल, किसी भी समाज व देश की युवापीढ़ी क्रांति की बुनियाद होती है. जब युवा पीढ़ी ही अपने ढोंगी राजा के ढोंग में रंग कर उसी हथियार से क्रांति करने की राह पर आ जाएं तो समझा जाना चाहिए कि उसी रंग में रंग चुके है अर्थात मानसिक स्तर बराबर का हो चुका है.

मगर अफसोस, कुछ अरसे पहले देश व समाज के चुनिंदा बुद्धिजीवी व तार्किक लोग युवाओं के हकों अर्थात हर साल 2 करोड़ रोजगार के वादे को ले कर सरकार से सवाल कर रहे थे, उन को गालियां ये तालीथाली भक्त युवा ही दे रहे थे कि पहले वालों ने क्या कर दिया? मोदीजी के नेतृत्व में देश मजबूत किया जा रहा है तो तुम लोग देशद्रोह का कार्य कर रहे हो ?  तब कह रहे थे कि 70 साल के गड्ढे भरने में समय तो लगेगा ही. तुम वामपंथी/पाकपरस्त लोगों को जलन हो रही है. जब गरीब भातभात कर के भूख से मर रहे थे और लोग सवाल खड़ा कर रहे थे तो इन्हीं मोदीभक्त युवाओं द्वारा कहा जा रहा था कि देश को जबरदस्ती बदनाम किया जा रहा है.

असल बात यह है कि जब कैग, सीवीसी, सीबीआई, ईडी आदि को हड़पा जा रहा था, तब ये युवा समझ रहे थे कि समस्याओं की जड़ यही है और इन के खत्म होने में ही भलाई है. जब सरकारी संस्थानों, ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदले जा रहे थे तब इन युवाओं को लग रहा था कि अतिप्राचीन महान सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित किया जा रहा है और ऐसा रामराज्य स्थापित होगा कि डीजलपेट्रोल की महंगाई से भयमुक्त हो कर बंदरों की तरह हम खुद ही उड़ लेंगे. जब मी लार्ड अरूण मिश्रा जस्टिस बने तो लगा कि न्यायपालिका का भ्रष्टाचार मिटाया जा रहा है. जब रंजन गोगोई राज्यसभा के रंग में रंगे तो लगा कि दुग्गल साहब ने कहा कि राज्यसभा मे हमारा बहुमत नहीं है, शायद बहुमत का जुगाड़ कर के हमारी समस्याओं का समाधान किया जाएगा.

संसद के वित्तीय पावर को जीएसटी कौंसिल को ट्रांसफर किया गया तो इन्हीं युवाओं को लगा कि संसद में देशद्रोही विपक्ष सरकार को काम करने नहीं देते इसलिए कोई रास्ता खोजा जा रहा है. विपक्ष को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के इन्हीं होनहार युवाओं ने निपटाया है और आज हालात यह है कि सत्ता कह रही है संसद में विपक्ष सवाल पूछ कर क्या करेगा. वो फोटो याद है न जब देश के मुखिया ने संसद की सीढ़ियों को चूम कर ही संसद में प्रवेश किया था, मगर वो बात भूल गये कि गोडसे ने गांधी को खत्म करने के लिए भी पहले दंडवत प्रणाम किये थे.

जो पिछले 3 दशक से वैज्ञानिक सोच को मात देने के लिए चमत्कारिक, ढोंगी, अल्लादीन के चिराग पैदा हुए उन को बड़ा बनाने में भारत के युवाओं ने महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई है. जितने भी सत्ताधारी लोग है उन की सोच को देखते हुए लग रहा है कि युवाओं ने देश की सत्ता चलाने के नौकर नियुक्त नहीं किये बल्कि अवतारी पुरुष पैदा किये है. साहब को सुन कर लगता था कि पढ़ालिखा होना जरूरी है मगर लाल जिल्द वाली पोटली लिए मैडम को देखा तो लगा कि पढ़ने का क्या फायदा.

जब स्वतंत्र निकाय को हड़पा जा रहा था तब भी राष्ट्रभक्त युवा खुश थे. पुलिस-सेना से ले कर न्यायपालिका तक का रंगरोगन किया जा रहा था तब भी खुश थे. जब सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किया जा रहा था, जब सरकारी कर्मचारियों को कामचोर, भ्रष्ट, बेईमान कह कर निकाला जा रहा था तब भी मोदीभक्त युवा मौन समर्थक थे.

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जब अमेठी के एक युवा ने पकौड़े का ठेला लगाने के लिए लोन मांगा था तो बैंक ने कहा कि तुम्हारे पास कोई एसेट नहीं है, इसलिए लोन नहीं मिलेगा. अब उस युवा को कौन समझाए कि एसेट तो युवाओं की सोच थी जो चाचा नसीब वाले को भेंट कर दी थी, अब रोजगार किस से व किस तरह का मांग रहे हो.

5 सितंबर को तालीथाली बजा लेने व 9 सितंबर को दीयाबाती करने या अब अगले पड़ाव पर शंख बजा लेने से कुछ हासिल नहीं होगा. अमिताभ बच्चन ने भी खूब तालीथाली व शंख बजाया बावजूद कोरोना पॉजिटिव हो गए थे. देश के बेरोजगार युवा जिन से तालीथाली बजा कर रोजगार मांगने जा रहे है, दरअसल वे इस धंधे के ये माहिर खिलाड़ी है. युवाओं का मानसिक स्तर अपने हिसाब से सेट कर चुके है. अब युवा विरोध/आंदोलन/क्रांति नहीं करने वाले क्योंकि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने इन की सोच का दायरा सीमित कर दिया है. अब ये तालीथाली बजाने लायक ही बचे है.

आत्महत्या का दौर और राहत

दुनिया में कोरोना वायरस संक्रमण फैलने के बाद लोगों में अवसाद की स्थिति अपनी चरम पर देखी जा रही है. दुनिया भर में त्रस्त, भयभीत होकर आत्महत्या का दौर जारी है. हमारे देश में भी और छत्तीसगढ़ में भी. हाल ही में छत्तीसगढ़ के एम्स हॉस्पिटल में जहां कोरोना से ग्रस्त एक शख्स का इलाज जारी था. उसने उपरी मंजिल से कूदकर अपनी जान दे दी. यह एक वाकया बताता है कि कोरोना पेशेंट किस तरह का व्यवहार कर रहे हैं. उन्हें कैसा सहानुभूति पूर्ण व्यवहार मिलना चाहिए.

आज हम इस आलेख में यही बता रहे हैं कि किस तरह  लोग आत्महत्या कर रहे हैं. और बचाव के क्या उपाय हो सकते हैं-

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पहला मामला- कोरोना के मरीज ने एक दिन अचानक घर में पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली. घटना छत्तीसगढ़ के मुंगेली शहर में घटित हुई.

दूसरा मामला- छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में एक महिला ने विष खाकर आत्महत्या कर ली. वह चिट्ठी लिख गई की इसका कोई दोषी नहीं है. बताया गया कि वह कोरोना संक्रमण से भयभीत  थी और उसे जिंदगी निसार लग रही थी.

तीसरा मामला- दुनिया में फैलते कोरोना संक्रमण से भयभीत होकर एक डॉक्टर ने अंबिकापुर में आत्महत्या कर ली. तथ्य सामने आए की वह कोरोना संक्रमण से अवसाद ग्रस्त हो गई थी और जिंदगी का उसे अब कोई मायने नहीं लग रहा था.

फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के बाद देश में आए दिन यह सुनने में आ रहा है कि फलां ने आत्महत्या कर ली. आखिर इस आत्महत्या करने का मनोविज्ञान आदमी की मानसिक बुनावट क्या है? इस पर गौर करना अति आवश्यक है.हालांकि आत्महत्या एक अवसाद का क्षण होता है जिससे अगर आप ऊबर गए तो सब कुछ ठीक हो गया अन्यथा इहलीला समाप्त.मगर इन दिनों कोरोना वायरस के संक्रमण काल के पश्चात आत्महत्याओं के दौर में एक बड़ी वृद्धि देखी जा रही है आए दिन यह समाचार आ रहे हैं कि कोरोना के कारण अवसाद में आकर अथवा भयभीत होकर फलां ने आत्महत्या कर ली. हाल ही में छत्तीसगढ़ के एम्स में कोरोना संक्रमित व्यक्ति ने उपरी मंजिल से नीचे कूदकर आत्महत्या कर ली. ऐसे ही घटनाओं के संदर्भ में कहा जा सकता है कि दरअसल यह जल्दी में उठाए कदम होते हैं.अगर ऐसी सोच के लोगों को सही समय पर किसी का साथ और संबल मिल जाए तो वह अवसाद की परिस्थितियों से निकल सकता है. आज इस आलेख में हम इन्हीं विसंगतियों पर चर्चा कर रहे हैं.

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जरूरत हौसला बढ़ाने की

छत्तीसगढ़ के आईपीएस वर्तमान में सरगुजा के पुलिस महानिरीक्षक रतनलाल डांगी कहते हैं -कोरोना संक्रमित लोगों का आत्महत्या जैसा कदम उठाना बेहद चिंता का सबब है. इसके लिए आवश्यकता है की हम सब ऐसे अवसाद ग्रस्त लोगों का हौसला बढ़ाएं.

देश व प्रदेश मे कोरोना संक्रमित लोगों के द्वारा आत्महत्या करने की खबरें आज नेशनल मीडिया में सुर्खियां बन रही हैं.आत्महत्या करने वाले युवक जरा सोचें कि जिस वायरस जनित बिमारी में 90% रिकवरी रेट के बावजूद आपको  अपनी जीवनलीला समाप्त करने जैसे कदम उठाने की क्या आवश्यकता है.

रतनलाल डांगी कहते हैं-हम सबकी जिम्मेदारी है कि ऐसी घटनाओं को रोके. इसमें  सबसे बड़ी है भूमिका परिवार,मित्र,पड़ौसी, डॉक्टर और समाज की है. और यही नहीं रतनलाल डांगी सोशल मीडिया के माध्यम से भी जन जागरूकता अभियान चला रहे हैं जिसे अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है.
डॉक्टर गुलाब राय पंजवानी बताते हैं-

संक्रमित व्यक्ति का मनोबल बढ़ाना परिवार का दायित्व है. अगर परिवार ऐसे समय में संबल बन जाए तो कोई भी आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम नहीं उठाएगा.

अधिवक्ता बी के शुक्ला के अनुसार ऐसे अवसाद ग्रस्त व्यक्ति के साथ सहानुभूति पूर्वक चर्चा करके उसके अपने बल को बढ़ाना चाहिए कभी भी किसी भी प्रकार का कटाक्ष नहीं करना चाहिए.उसको हिम्मत दे कि यह ऐसी बीमारी है जिसमें कुछ समय के परहेज से बिल्कुल ठीक हो जाते है.

डॉक्टर उत्पल अग्रवाल के अनुसार जब किसी कोरोना संक्रमित को अस्पताल में भर्ती कराया गया हो तो परिजनों को चाहिए कि समय समय पर उससे मोबाइल पर विडिओ,चैटिंग से सम्पर्क बनाए रखे.उसका मनोबल बढ़ाएं.

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आईपीएस रतनलाल डांगी के शब्दों में कोरोना संक्रमित मरीजों के साथ आसपास के लोगों  को भी उस परिवार व संक्रमित व्यक्ति के प्रति सहानुभूति दिखानी चाहिए,किसी प्रकार का सामाजिक बहिष्कार जैसी चीजें न बातचीत मे आए और न ही अपने व्यवहार मे लाएं।भौतिक दूरी रखें न कि सामाजिक दूरी.
जैसे ही मित्रों को जानकारी मिले उनकों भी अपने मित्र से बातचीत करना चाहिए उसे अकेलापन  महसूस नहीं होना चाहिए. यही नही अस्पताल मे यदि रखा गया हो तो संक्रमित व्यक्ति की काउंसलिंग की जानी चाहिए.

कोरोना एक सामान्य संक्रमण

कुल मिलाकर सच्चाई यह है कि कोरोना वायरस बड़ी अन्य बीमारियों की अपेक्षा एक संक्रमणकारी बीमारी है जो चर्चा का बयास बनी हुई है.जबकि सच्चाई यह है कि कुछ सामान्य बातों को ध्यान में रखकर हम इससे आसानी से बच सकते हैं दिन में हाथ धोना फिजिकल डिस्ट्रेसिंग आदि है और अगर यह संक्रमण हो भी जाता है तो अब यह बहुत हद तक काबू में  आने वाला संक्रमण है. ऐसे में भला करके आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाना नादानी ही कही जा सकती है. यहां यह भी तथ्य सामने आए हैं कि शासकीय हॉस्पिटल में डॉक्टर सुबह नर्सिंग स्टाफ का व्यवहार करोना पेशेंट के साथ मानवीय नहीं होता. कई जगहों पर तो डाक्टर और स्टाफ हाथ खड़ा कर लेता है और अच्छा व्यवहार नहीं करता. मगर यह बहुत ही रेयर है हमारे देश और दुनिया में लगातार यह बात सामने आई है कि मेडिकल स्टाफ कोरोना वायरस के खिलाफ जंग में अपनी आहुति दे रहा है और लोगों का इलाज कर रहा है.

ऐसे में यह कहा जा सकता है कि डॉक्टर  व‌ स्टाफ का बर्ताव भी नम्र,शालीन व आत्मीय होने से व्यक्ति को संबल मिलता है. हॉस्पिटल का माहौल अगर बेहतर है तो व्यक्ति को आत्मशक्ति की अनुभूति होती है. सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि ऐसे लोगों को‌ चाहे वो घर में हो या अस्पताल मे ऐसे व्यक्ति को व्यस्त रखा जाए.जिससे उसके दिमाग मे निराशाजनक विचार न आ पाएं.

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प्रतिदिन स्वस्थ होने वालों की जानकारी साझा करने से भी मानसिक रूप से ताकत मिलती है और मनोबल बढ़ता है. इसलिए यहां पर पुलिस अधिकारी रतनलाल डांगी के यह शब्द महत्व रखते हैं कि हमारे छोटे छोटे प्रयास भी कई जानें बचा सकता है इसलिए हम अपने आसपास के लोगों के प्रति संवेदनशील  रहें और स्वयं भी जागरूक रह कर यह काम अब अपरिहार्य रूप से करें.

दम तोड़ते परिवार

समाज की सब से अहम इकाई परिवार है और हर साल 15 मई को पूरी दुनिया में ‘अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस’ मनाया जाता है. पर हमारी शहरी जिंदगी ने लोगों को इतने बड़े सपने दिखा दिए हैं कि उन्हें पूरा करने के लिए वे किसी भी हद तक चले जाते हैं, पर जब वे सपने पूरे नहीं होते हैं या परिवार का ही कोई हमारी पीठ में छुरा घोंपता है, तो नतीजा दर्दनाक भी हो जाता है.

हाल ही में नोएडा, उत्तर प्रदेश में एक परिवार के फैसले ने सब को हैरान कर दिया. पैसे की तंगी के चलते 33 साल के भरत ने 13 दिसंबर, 2019 को दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू मैट्रो स्टेशन पर ट्रेन के आगे कूद कर जान दे दी.

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बात यहीं खत्म नहीं हुई. भरत के इस तरह दुनिया छोड़ने का गम उस की 31 साल की पत्नी शिवरंजनी सहन न कर सकी और अपनी जान देने से पहले उस ने 5 साल की बेटी जयश्रीता को एक कमरे में फांसी लगा कर मार दिया और फिर दूसरे कमरे में आ कर खुद भी फंदे से  झूल गई.

चेन्नई के रहने वाले भरत एक चाय कंपनी में जनरल मैनेजर थे और सितंबर महीने में ही नोएडा आए थे.

दिसंबर, 2019 की 3 तारीख को गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके में गुलशन वासुदेवा नाम के एक शख्स ने अपने परिवार के साथ खुदकुशी कर ली और इस का जिम्मेदार अपने साढ़ू को ठहराया कि उस ने उन्हें पैसों का चूना लगाया था.

गुलशन वासुदेवा ने पहले अपने दोनों बच्चों को मारा. इस के बाद अपनी तथाकथित 2 पत्नियों के साथ 8वीं मंजिल से कूद कर खुदकुशी कर ली.

21 जून, 2019 की रात को दिल्ली के महरौली इलाके के सुरेश अपार्टमैंट में रहने वाले कैमिस्ट्री के ट्यूटर उपेंद्र शुक्ला ने अपनी पत्नी अर्चना शुक्ला के साथ 8 साल की बेटी रान्या, 6 साल के बेटे रौनक व डेढ़ महीने के बेटे राजा की चाकू से गला रेत कर सिर्फ इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि घर की माली हालत ठीक नहीं थी.

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इसी तरह 1 जुलाई, 2019 की देर रात गुरुग्राम, हरियाणा के सैक्टर 49 के उप्पल साउथऐंड एस ब्लौक में रहने वाले सन फार्मा कंपनी में साइंटिस्ट ऐंड रिसर्च ऐंड डेवलपमैंट ब्रांच में हैड रहे डाक्टर श्रीप्रकाश सिंह ने अपनी पत्नी डाक्टर सोनू, बेटी अदिति व बेटे आदित्य की तेज धार हथियार से बेरहमी से हत्या कर दी थी और बाद में खुद भी पंखे से लटक कर खुदकुशी कर ली थी. वैसे, इस परिवार की माली हालत खराब थी, ऐसी कोई वजह सामने नहीं आई थी.

इस तरह की बहुत सी वारदातें अब शहरी जीवन में बड़ी आम सी होने लगी हैं. अखबार भरे रहते हैं ऐसी खबरों से. लेकिन इस की वजह क्या है? क्यों हम जिंदगी में थोड़ा सा फेल होते ही खुद को खत्म करने पर आमादा हो जाते हैं?

इसे जानने से पहले हम इस बात पर गौर करने से चूक जाते हैं कि जब भी किसी परिवार का मुखिया ऐसा फैसला लेता है तो वह पहले हाथ उन के खून से रंगता है, जिन को उस ने खुद जन्म दिया होता है.

पहले मामले में पति भरत की खुदकुशी में हुई मौत का सदमा उस की पत्नी शिवरंजनी सहन नहीं कर पाई और उस ने अपनी बेटी जयश्रीता को मार कर खुद को भी खत्म कर लिया.

शिवरंजनी ने तो बचकाना फैसला लिया, लेकिन इस में 5 साल की जयश्रीता की क्या गलती थी? उसे किस बात की सजा दी गई? ऐसी ही कुछ नाइंसाफी दूसरे मामलों में उन बच्चों के साथ हुई, जिन्हें परिवार की माली हालत से कोई लेनादेना नहीं था और शायद वे जिंदा रहते तो अपनी जिंदगी को बेहतर बना सकते थे. पर गुलशन वासुदेवा, उपेंद्र शुक्ला और डाक्टर श्रीप्रकाश सिंह ने अपने कलेजे के टुकड़ों को उन की जिंदगी नहीं जीने दी.

कानून ऐसी हत्याओं पर किसी को सजा नहीं दे सकता है, क्योंकि मारने वाला ही खुद को खत्म कर चुका होता है, लेकिन ऐसे लोग यह नहीं सम झते हैं कि अगर किसी महल्ले या सोसाइटी में ऐसा डरावना कांड हो जाता है तो दूसरे लोगों खासकर उन के बड़े होते बच्चों पर इस का क्या असर पड़ता है? देखते ही देखते आप के पड़ोस में कोई हंसताखेलता परिवार खत्म हो गया और आप शांति से रह लोगे? बिलकुल नहीं. पूरा इलाका ही बदनाम हो जाता है. वहां नए लोग मकान खरीदने से डरते हैं. लोग अपने रिश्तेदारों से मिलने में कतराते हैं. बच्चे उस घर के आसपास होने पर ही घबराने लगते हैं.

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आज के नए दौर में सब से बड़ी समस्या तो हमारे परिवारों के टूटने की है. यह किसी अच्छे समाज की निशानी नहीं है. ठीक है कि पैसा हमारे सपनों को पूरा करता है, पर यह जो जल्दी से जल्दी और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की हवस है न, वह हमें या तो अपराध की तरफ धकेलती है या खुद को खत्म करने के लिए उकसाती है.

गांवदेहात में भी जिस किसान की जमीन बिक गई और अचानक अंटी में ढेर सारा पैसा आ गया तो उस की भी मति मारी जाती है. फिर ऊलजुलूल खर्चे बढ़ जाते हैं, उधार लेनेदेने का चलन हो जाता है. महंगी गाड़ी खरीद कर उसे फुजूल में सड़कों पर दौड़ाने की ऐसी गंदी आदत पड़ती है कि अंटी कब खाली हुई पता ही नहीं चलता है. इस के बाद खर्चे पूरे करने के लिए कई लोग अपराध की डगर पकड़ लेते हैं या फिर कर्ज के मारे अपने परिवार को ही खत्म कर देते हैं.

इस सब से बचने का एक ही तरीका है जोश में होश न खोना, क्योंकि हर इनसान की जिंदगी में उतारचढ़ाव आते हैं. अमिताभ बच्चन इस की सब से बड़ी मिसाल हैं. फिल्मों में खूब दाम और नाम कमाया, फिर ऐसा दौर भी आया जब उन का हाथ इस कदर तंग हुआ कि ठनठन गोपाल हो गए. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी या अपने परिवार को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया, बल्कि फिर दोगुने दम से मेहनत की, बौलीवुड में नाम कमाया और आज 77 साल के होने के बावजूद उन नौजवानों से दोगुना काम करते हैं, जो या तो अपनी बेरोजगारी का रोना रोते रहते हैं और अपराध के नाम पर किसी औरत की चेन  झपट लेते हैं.

14 फरवरी का ‘वैलेंटाइन डे’ तो सब याद रख लेते हैं और अपना प्यार पाने के लिए कुछ भी कर जाते हैं, फिर परिवार भी बना लेते हैं, पर 15 मई का ‘परिवार दिवस’ अपने जेहन में ही नहीं आने देते हैं, जो हमारे समाज और देश के लिए बहुत जरूरी है. और जो इनसान अपने परिवार को याद रखता है, वह उसे खत्म करने की सोच भी नहीं सकता है, फिर चाहे उस का कंगाली में आटा ही क्यों न गीला हो जाए.

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