बलात्कार की मानसिकता के पीछे है गंदी गालियां

हैदराबाद की महिला डाक्टर के साथ सामूहिक दुष्कर्म कर उस के शव को जला दिया गया. अखबार की सुर्खियों और सोशल मीडिया पर जनआवेश से खबर लोगों तक पहुंची तो क्या सैलिब्रिटी और क्या आम आदमी, सभी ने अपना रोष जताया.

27 वर्षीया पीडि़ता पशु अस्पताल में असिस्टैंट पशु चिकित्सक थी. 27 नवंबर को वह अस्पताल से देर में घर पहुंची और शाम 5.50 के करीब दूसरे क्लीनिक जाने के लिए घर से निकल गई. उस ने टोंडुपल्ली टोल प्लाजा के पास अपनी स्कूटी खड़ी की.

पुलिस को दिए बयान में पीडि़ता की बहन ने बताया कि उसे रात 9.22 बजे उस का फोन आया जिस में उस ने कहा कि वह अभी भी टोल प्लाजा में ही है जहां उस की स्कूटी का टायर पंक्चर हो गया है. उस ने यह भी बताया कि कुछ लोग उस की मदद करने के लिए कह रहे हैं लेकिन उसे उन से डर लग रहा है. पीडि़ता की बहन ने उसे 9.44 बजे फोन किया. लेकिन फोन स्विचऔफ बता रहा था. इस के बाद घरवालों ने पुलिस से संपर्क किया.

अगले दिन चटनपल्ली हाईवे पर जला हुआ शव मिला. पीडि़ता के घरवालों ने सैंडल और कपड़ों से लाश की शिनाख्त की. आरोपी ट्रक ड्राइवर मोहम्मद आसिफ, क्लीनर जे शिवा, जे नवीन, चेन्ना केश्वुलु को साइबराबाद पुलिस ने गिरफ्त में लिया. अदालत ने चारों आरोपियों को न्यायिक हिरासत में भेज दिया. पुलिस के अनुसार, कथित 6 दिसंबर के दिन तड़के सुबह तीनों आरोपियों को घटनास्थल पर दुष्कर्म की जांच करने के सिलसिले में ले जाया गया जहां उन्होंने भागने की कोशिश की और पुलिस के साथ गोलीबारी के एनकाउंटर में चारों की मौत हो गई.

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यह अपनी तरह का पहला मामला नहीं है. आएदिन महिलाओं के साथ दुष्कर्म के मामले सामने आते रहते हैं. फर्क, बस, इतना है कि कुछ मामले सुर्खियों में आते हैं और लोगों की जबान पर चढ़ जाते हैं तो कुछ अखबार के एक कोने में 100 शब्दों की रिपोर्ट में सिमटे रहते हैं.

न रुकने वाले मामले

  • 27 नवंबर को केरल के कोच्चि के पास रहने वाली 42 वर्षीया महिला के साथ बलात्कार कर उस के शव को एक दुकान के सामने फेंक दिया गया. दुकान के बाहर लगे सीसीटीवी कैमरे की मदद से पुलिस आरोपी तक पहुंची. पुलिस के अनुसार महिला के शरीर पर कम से कम चोटों के 30 निशान थे व उस के चेहरे को इस तरह बिगाड़ दिया गया था कि पहचाना भी न जा सके.
  • दिल्ली के गुलाबी बाग थाना क्षेत्र में रहने वाली अविवाहिता 55 वर्षीया महिला का 22 वर्षीय धर्मराज ने बलात्कार किया व गला दबा कर हत्या कर दी. महिला पूजा सामग्री और चाय की छोटी सी दुकान चलाती थी. यह दुकान महिला के पैतृक घर में थी जिस में वह अकेली रहती थी. आरोपी के अनुसार, महिला ने उस से कुछ पैसे उधार लिए थे जिन्हें वह वापस नहीं दे रही थी. दोनों में कुछ देर बहस हुई और महिला ने धर्मराज के मुंह पर थूक दिया. पहले से ही नशे में धर्मराज इस बेइज्जती को  झेल नहीं पाया और बदला लेने की मंशा से उस ने इस घटना को अंजाम दिया.
  • तेलंगाना के रहने वाले 21 वर्षीय लड़के ने अपनी 19 वर्षीया गर्लफ्रैंड का रेप किया जिस के कारण उस की मौके पर ही मौत हो गई. 27 नवंबर को सुबह लड़के ने लड़की को उस के बर्थडे पर विश करने के लिए बुलाया. वह उसे अपनी कार में बैठा कर दूर सुनसान जगह ले गया जहां उस ने उस का रेप किया. रेप के दौरान ही कार्डिएक अरैस्ट या सदमे से लड़की की मौत हो गई. लड़के ने उसे शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर किया व लड़की के मना करने पर वह जबरदस्ती पर उतर आया. लड़की की मौत के बाद लड़के ने उस के कपड़े बदले क्योंकि वह खून से लथपथ थे, फिर उस के शव को उस के घर के पास फेंक दिया जिस से यह लगे कि मौत प्राकृतिक है.

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  • राजस्थान के टोंक जिले में 6 वर्षीया बच्ची का रेप कर, स्कूल बैल्ट से उस का गला दबा कर मौत के घाट उतार दिया गया. पहली कक्षा में पढ़ने वाली इस बच्ची के शरीर पर चोटों को देख कर स्पष्ट था कि किस दरिंदगी से उस का बलात्कार किया गया. बच्ची की लाश अलीगढ़ शहर के एक छोटे से जिले में  झाडि़यों में पड़ी मिली जिसे गांव के कुछ लोगों ने देख कर पुलिस को खबर दी.

बलात्कार के ये वे मामले हैं जिन का घटनाक्रम हैदराबाद घटना के साथ हुए हादसे के आसपास का ही है. ये मामले जनाक्रोश का हिस्सा नहीं बने. इन मामलों पर कैंडललाइट मार्च नहीं हुए. न ही बड़े नेता, अभिनेता ने इन पर ट्वीट कर संवेदना जताई. क्यों? क्योंकि ये मामले ट्रैंड नहीं बने.

भारत में प्रतिवर्ष एक ऐसा मामला सामने आता है जिस पर जनाक्रोश उमड़ता है, ट्वीट्स, कविताएं, पोस्ट्स डाले जाते हैं, हर तरफ बातें की जाती हैं, नारे लिखे जाते हैं और फांसी की गुहार लगाई जाती है. लेकिन, क्यों लोगों को, सरकार को जागने के लिए हर साल एक ऐसे मामले की जरूरत पड़ती है? क्यों बाकी सभी मामलों के लिए एकजैसे न्याय की मांग नहीं होती? क्यों बदलाव की गूंज साल में एक बार ही सुनाई देती है और क्यों कोई बदलाव असल में होता ही नहीं?

बलात्कार में भी फर्क है

भारत में हर बलात्कार एकजैसा नहीं है. जिस पर लोग सड़कों पर उतार आए हों वह ‘इंपोर्टेंट बलात्कार’ है. उस पर कार्रवाई जल्द होनी चाहिए, फैसले जल्दी होने चाहिए, सजा जल्द मिलनी चाहिए. लेकिन, जिस पर बात नहीं हो रही वह मामला चाहे सदियों अदालत में कागजों में बंद धूल खाता रहे, उस पर किसी को चिंता नहीं. क्या यही है हमारी मौडर्न न्यायिक शैली?

कांग्रेस नेत्री अल्का लांबा ने एक न्यूज चैनल पर वादविवाद के दौरान कहा, ‘‘एडीआर का सर्वे उठाइए, 2019 के चुनाव में 45 प्रतिशत अतिगंभीर बलात्कारियों को भाजपा ने टिकट दिए, आप ने वोट दिया, सांसद बना दिया. आज उन सांसदों से उम्मीद करते हैं. एक विधायक हैं, बेटी (पीडि़ता) का ऐक्सिडैंट करवा दिया. वह विधायक उन्नाव का है, जेल में है, बेटी ट्रौमा में है. दूसरा, चिन्मयानंद पूर्व सांसद, पूर्व मंत्री, बेटी आरोप लगाती है, बेटी जेल में है, चिन्मयानंद अस्पताल में है. लानत है ऐसे कानून पर, ऐसी पार्टी, ऐसे विधायकों पर, ऐसे सांसद, ऐसी जनता पर जिन्होंने इन को वोट दे कर हमारे सिर पर बैठा दिया.’’

क्या जो अल्का ने कहा, वह सही नहीं है? क्या इन बलात्कारियों को फांसी की सजा मुकर्रर नहीं होनी चाहिए? इन के हाथ में शासन की डोर देना क्या उस जंजीर की छोर पकड़ाना जैसा नहीं है जिस में वे लड़कियों को जकड़े रखना चाहते हैं? बात वहीं आ कर रुक जाती है कि सजा हर गुनाहगार को मिलनी ही चाहिए और वक्त पर मिलनी चाहिए. लेकिन, जिस ‘ट्रैंड’ को अपनाया जाने लगा है वह सही नहीं है.

बलात्कार तो बलात्कार ही है, एक मामले को उठा कर बाकी सभी को नीचे दबा देना, एक मामले के आगे हर उस लड़की के साथ अन्याय होते देना जिस के साथ हुआ हादसा ‘इंपोर्टेंट बलात्कार’ की श्रेणी में नहीं आता, गलत है. जब एक मामले पर लोग फांसी की गुहारें इस तरह लगाते हैं तो आसाराम, राम रहीम जैसे बलात्कारियों को इतना आश्रय क्यों?

ये कथन उन लोगों के हैं जिन से हम सभी भलीभांति परिचित हैं. यही कारण है कि समाज का बड़ा हिस्सा इन जानेमाने लोगों द्वारा कहे गए बयानों पर उन पर माफी मांगने का दबाव बनाता है. लेकिन, ये तो कुछ गिनेचुने बयान हैं, क्या ऐसे बयान हम हर दिन खुद कहतेसुनते नहीं?

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‘अरे, वह देख, माल जा रहा है,’ ‘भाई, भाभी क्या पटाखा लग रही है,’ ‘बहन… इस को तो मैं बताता हूं,’ ‘तेरी मां की….., तेरी बहन की…..’ जैसी चीजें क्या हम आएदिन नहीं सुनते? ये गालियां, ये अपशब्द निरर्थक हैं जो अधिकतर महिला व पुरुष के गुप्तांगों से जुड़े हैं. जिन में ज्यादातर गालियां महिलाओं के संदर्भ में दी जाती हैं. लोगों की जबान कैंची की तरह चलती है और हर दिन लड़कियों के पर काटती है. और जब वह किसी हादसे का शिकार हो जाती है तो यही लोग न्याय की गुहार लगाते नजर आते हैं. यहां मुद्दा स्पष्ट है कि बदलाव के लिए चीखने वाले स्वयं खुद को नहीं बदल सकते तो देश के अन्य लोगों को कैसे बदलेंगे.

बड़े कालेजों में पढ़ रहे युवाओं के मुंह पर चौबीसों घंटे गाली रहती है. उन के मुंह से खुशी में गाली, दुख में गाली, मौजमस्ती में गली, फेल हो तो गाली, पास हो तो गाली बिना आसपास देखे निकलती है. ये युवा सिर्फ लड़के नहीं हैं, इन में लड़कियां भी हैं. खुद लड़कियां एकदूसरे को मांबहन की गालियों से संबोधित करती हैं. ये युवा किसी चीज में पीछे नहीं हैं. ये पढ़ेलिखे सम झदार हैं और देश का भविष्य भी हैं.

देश में बलात्कार की घटना घटने पर सब से पहले इंस्टाग्राम पर पोस्ट और स्टोरी भी इन्हीं की अपडेट होती है. कहने का अर्थ साफ है कि संवेदनशीलता अपराध घटने के बाद ही क्यों प्रकट की जाए. जब हम अपशब्दों का सुबह से शाम तक हजार बार प्रयोग करते हैं तो क्या वह संवदेनशीलता भंग करना नहीं है?

बदलाव ऐसा हो

हैदराबाद दुष्कर्म के बाद एक और ट्रैंड ने जोर पकड़ा है. युवाओं ने अपने फेसबुक और इंस्टाग्राम पर कुछ इस तरह के पोस्ट्स को शेयर करना शुरू कर दिया है जिन पर लिखा है, ‘अगर मेरी किसी भी दोस्त को कभी कोई खतरा महसूस होता है तो वह बिना  िझ झक मु झ से संपर्क कर सकती है.’ मेरी फेसबुक वाल पर भी मु झे इसी तरह का एक पोस्ट नजर आया जिसे मेरे ही कालेज के एक सीनियर ने शेयर किया था.

यह वही लड़का है जो हर दूसरी लड़की को गाली दे कर बुलाता था, जो लड़कियों को ‘देगी क्या’ वाले मैसेज करता था, जो अपनी गर्लफ्रैंड के साथ बिताए अंतरंग पलों का बखान अपने दोस्तों के सामने सीना ठोक कर करता था, जो लड़कियों को देख उन के स्तनों के आकार पर हंस कर टिप्पणी किया करता था. क्या यह लड़का खुद उस विकृत मानसिकता का शिकार नहीं है, जो लड़कियों को भोगविलास की वस्तु सम झता है? क्या यह सोच स्वीकार्य है? क्या ऐसे लोगों से माफी नहीं मंगवानी चाहिए?

जब तक लोगों की कथनी और करनी अलग रहेगी तब तक बदलाव नहीं आएगा. रेप रुक नहीं रहे, इसलिए नहीं कि सजा के प्रावधान कम हैं बल्कि इसलिए की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं है. छोटे कपड़े पहने हुए लड़की आज भी ललचाई आंखों से देखी जाती है, उस पर कमैंट पास किए जाते हैं, उसे चालू सम झा जाता है.

रेप की घटनाओं के बाद सिर्फ नेताअभिनेता ही नहीं, बल्कि देश के लाखों लोग ऐसी बातें कहते सुने जा सकते हैं जिन में पूरा दोष लड़की का ही माना जाता है. हैदराबाद में बलात्कार के बाद मौत की शिकार हुई लड़की ने क्या भड़काऊ कपड़े पहने हुए थे? और ये भड़काऊ कपड़े होते क्या हैं? क्या इन लोगों से भी कोई माफी मंगवाने वाला है? क्या इन का इलाज माफी मंगवाना है? नहीं. इलाज है बदलाव.

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यह बदलाव सड़कों पर नारे लगाने से, न्यायिक प्रणाली पर दोषारोपण करने से नहीं आएगा. यह बदलाव खुद को बदलने से आएगा. यौनांगों पर गालियां बनाने, ठहाके लगाने से नहीं आएगा. एक समय था जब सम झा जाता था कि गरीब और निचला वर्ग ही ऐसा है जो गालीगलौज करता है जबकि बड़े लोगों की पहचान ही है शालीनता. अब समय बदल चुका है.

अब गालियों का लैवल बदल चुका है. अब प्यारमोहब्बत का सलीका बदल चुका है. लोग अपशब्द खूब एंजौय करते हैं. हां, बलात्कार होने पर दोष खुद को नहीं देते. वे होते वहां तो शायद रोक लेते यह सब. बिलकुल वैसे ही जब राह चलती लड़कियों पर कमैंट करते या बस में खड़ी महिला पर बारबार गिरते आदमी को रोक लेते हैं.

संतान प्राप्ति का झांसा, तांत्रिक से बच कर!

छत्तीसगढ़ के  जिला धमतरी में एक शख्स  महिलाओं को “तंत्र मंत्र” के जरिये गर्भवती करने का झूठा  दावा  करता था.इस शख्स  के जाल में ऐसी महिलाएं आसानी से आ जाती थी जिनकी गोद सूनी होती थी. संतान सुख के खातिर अनेक  महिलाएं वह सब कुछ करने को तैयार हो जाती थी जैसा की  शख्स अर्थात  कथित  तांत्रिक बाबा फरमान जारी किया करते था.

पुलिस के अनुसार  बांझपन से पीड़ित अनेक  महिलाओं को इस बाबा ने अपने मायाजाल में फांसकर उनका दैहिक शोषण किया.कभी लोक-लाज के भय से तो कभी अन्य सामाजिक  कारणों से पीड़ित महिलाओं ने अपना मुँह सी रखा था. मगर  कुछ ऐसी महिलाएं बाबाजी के संपर्क में आई जिन्होंने उसको उसकी असलियत  समाज के सामने  रखने की  ठान ली साहस  का परिचय  देते हुए इन महिलाओं ने पुलिस के समक्ष सच्चाई को रख दिया के बाद पुलिस हरकत में आई और एक दिन कथित तांत्रिक बाबा जेल  के सींखचों के पहुंच गया.  महिलाओं की हिम्मत का सबब यह बना की बाबाजी पुलिस के हत्थे चढ़ गए.अब कई पीड़ित महिलाएं अपनी आपबीती पुलिस को सुना रही है.

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झाड़ फूंक से होगी संतान!

पुलिस ने जो सनसनीखेज भंडाफोड़ किया है उसके  अनुसारछत्तीसगढ़ के धमतरी जिला के  मगरलोड थाना क्षेत्र में 7 जनवरी को दो बाबा एक नि:संतान दंपत्ति के घर पहुंचे. उन्होंने तंत्र मंत्र व झाड़-फूंक से संतान प्राप्ति कराने का झांसा देते हुए महिला से तंत्र साधना के नाम  पर पहले तो 2100 रूपये ऐंठ लिए. बाबाजी यही नहीं रुके रकम जेब में डालने के बाद उन्होंने घर के ही एक कमरे में उस महिला को देख उनकी लार टपकने लगी फिर वे साथ अश्लील हरकत करने लगे .

यह महिला बाबाजी की मंशा और असलियत पहचान गई  उसने इस अश्लील हरकत का प्रतिरोध कर कथित बाबा को थपपड़ रसीद कर दी.इस पर मजे की बात यार की अपने बचाव में पाखंडी बाबा ने उसे श्राप देने की चेतावनी देनी शुरू  कर  दी.  चेतावनी में उसने उसके पति एवं सास-ससुर की मृत्यु हो जाने का भय दिखाया और कई अपशगुन को लेकर  डराया धमकाया .मगर बहादुर महिला के तांत्रिक बाबाओं की फेर में ना आने पर  दोनों ही बाबा घटनास्थल से भाग खड़े हुए.

अंततः पुलिस ने धर दबोचा

जब कथित तांत्रिक बाबा अपनी मंशा में सफल नहीं हुए और भाग खड़े हुए तब महिला ने घर के परिजनों को बाबा के करतूत की जानकारी दी.

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घटना के उपरांत पीड़ित महिला ने मामले की जानकारी अपने पति एवं पड़ोसियों को दी  तब पीड़ित महिला ने थाना मगरलोड़ में उपस्थित होकर दोनों पाखंडी तांत्रिक  बाबाओ की सचाई  पुलिस को बताई .पुलिस ने दोनों ही आरोपियों के खिलाफ धारा 385, 417, 454, 354, 506, 34 भादवि एवं 6, 7 टोनही प्रताड़ना निवारण अधिनियम पंजीबद्ध कर विवेचना में लिया  और अंततः ठगी और महिला के यौन शोषण के मामले में

पुलिस अधिक्षक बी पी राजभानु के निर्देश पर थाना प्रभारी मगरलोड की टीम ने आरोपी बाबाओं को खोज निकाला . पुलिस ने हमारे संवाददाता को जानकारी दी कि गिरफ्त में आये बाबा का असली नाम हिंदराज जोशी पिता रामबली जोशी उम्र 45 साल एवं घनश्याम जोशी उम्र 35 साल ग्राम सलोन थाना सलोन जिला रायबरेली उत्तर प्रदेश का निवासी  है .गिरफ्तारी के बाद दोनों तांत्रिक  बाबाओं को अदालत में प्रस्तुत किया गया  और जेल भेज दिया गया.

निर्भया गैंगरेप के गुनहगारों को सुनाया सजा-ए-मौत का फैसला, 22 जनवरी को दी जाएगी फांसी

जिस पल का इंतजार देश की जनता को आठ सालों से था वो जाकर अब आया है. दिल्ली के चर्चित निर्भया गैंगरेप मामले में अदालत ने चारों आरोपियों को सजा ए मौत की सजा सुनाई है. वर्ष 2012 में चलती बस में सामूहिक दुष्कर्म और उसकी मौत के गुनहगारों के खिलाफ दिल्ली की एक अदालत ने मंगलवार को ‘डेथ वारंट’ जारी कर दिया. पटियाला हाउस कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश सतीश कुमार अरोड़ा ने डेथ वारंट जारी करते हुए दोषियों को 22 जनवरी की सुबह 7 बजे दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी देने का निर्देश दिया है.

पवन गुप्ता, मुकेश सिंह, विनय शर्मा और अक्षय ठाकुर मामले में दोषी पाए गए हैं. दोषियों के वकीलों ने कहा है कि वे सुप्रीम कोर्ट में एक क्यूरेटिव याचिका दायर करेंगे. सभी दोषी राष्ट्रपति के पास दया याचिका भी दायर कर सकते हैं.

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16 दिसंबर, 2012 को 23 वर्षीय महिला के साथ चलती बस में बेरहमी से सामूहिक दुष्कर्म किया गया था, जिसके चलते बाद में उसकी मौत हो गई थी. मामले में छह आरोपियों को पकड़ा गया था. इन सभी में से एक आरोपी नाबालिग था. उसे जुवेनाइल जस्टिस कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया गया था. वहीं, एक अन्य आरोपी राम सिंह ने तिहाड़ जेल में फांसी लगाकर खुदकुशी कर दी थी.

बाकी बचे चारों आरोपियों को ट्रायल कोर्ट ने दोषी माना और सितंबर 2013 में मौत की सजा सुनाई. इसके बाद 2014 में दिल्ली की हाईकोर्ट ने फैसले को बरकरार रखा और मई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने भी निर्णय को सही माना. सुप्रीम कोर्ट ने मामले में पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी थी.

निर्भया की मां ने मीडिया से बातचीत में कहा कि, मेरी बेटी को न्याय मिल गया. 4 दोषियों की फांसी देश की महिलाओं को सशक्त बनाएगी. इस फैसले के बाद लोगों का कानून में विश्वास बढ़ेगा.निर्भया के पिता ने कोर्ट के फैसले पर कहा, मैं कोर्ट के फैसले से खुश हूं. दोषियों को 22 जनवरी की सुबह 7 बजे फांसी दी जाएगी. यह फैसला इस तरह के अपराध करने की हिमाकत करने वालों में डर पैदा करेगा.

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निर्भया के दोषियों के वकील एपी सिंह ने फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए मीडिया से कहा है कि हम सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव पिटीशन दाखिल करेंगे.

एनआरसी से खौफजदा भारत के नागरिक

नैशनल रजिस्टर सिटीजन्स औफ इंडिया यानी एनआरसी में नाम दर्ज कराने का मामला शहर से ले कर गांव तक में खासकर मुसलिम समुदाय में चर्चा का मुद्दा बना हुआ है. बहुत से लोगों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है और वे दहशत में जी रहे हैं. कुछ भक्तगण इस मुगालते में हैं कि ऐसे मुसलिम, जिन के पास कोई दस्तावेज नहीं हैं, वे पाकिस्तान और बंगलादेश वापस चले जाएंगे. उन की सारी जमीनजायदाद हम लोगों की हो जाएगी.

इस मामले पर शाक्य बीरेंद्र मौर्य का कहना है, ‘‘भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी औफ इंडिया’ में, राहुल सांस्कृत्यायन ने ‘वोल्गा से गंगा’ किताब में और तकरीबन सभी इतिहासकारों ने इस बात को माना है कि आर्य बाहर से आए हुए हैं और विदेशी हैं.

‘‘21 मई, 2001 को ‘टाइम्स औफ इंडिया’ ने छापा था कि आर्य विदेशी हैं. इन का डीएनए भारत के लोगों से मैच नहीं करता. इन सब पुरानी बातों के अलावा साल 2018 में एक नए शोध में फिर इस बात की तसदीक हुई कि आर्य बाहर से आए हुए हैं और विदेशी हैं.

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‘‘जब इतिहासकारों और मैडिकल साइंस ने मान लिया है कि आर्य विदेशी हैं, तो इन विदेशी नागरिकों का एक बार फिर से डीएनए टैस्ट करा कर इन की पहचान कर, इन को वापस भेजना चाहिए. लेकिन दुख की बात है कि भारत में जो खुद विदेशी हैं, आज वही नागरिकता का सर्टिफिकेट बांट रहे हैं और मूल भारतीय सांसद, विधायक, नेता, मंत्री सब मूकदर्शक बने तमाशा देख रहे हैं. अगर आप में जरा भी राष्ट्र प्रेम बचा है तो लोकसभा और राज्यसभा में इस मुद्दे को बेबाकी से उठाइए.’’

प्रोफैसर अलखदेव प्रसाद अचल ने बताया, ‘‘केंद्र सरकार द्वारा 10 करोड़ मुसलिम, ओबीसी, एससी व एसटी की नागरिकता खत्म करने की कोशिश की जा रही है. कैसे आप की नागरिकता खत्म होगी?

‘‘भारत सरकार सभी नागरिकों से कोई ऐसा दस्तावेज देने के लिए कह रही है, जिस से यह साबित हो पाए कि वह या उस के पूर्वज साल 1971 से पहले भी भारत के नागरिक थे. बहुत से लोगों के पास ऐसा कोई दस्तावेज नहीं होगा, जिसे वे सुबूत के रूप में पेश कर सकें.

‘‘जो लोग साल 1971 के बाद पैदा हुए, जिन के पास जमीनजायदाद होगी या जो लोग जमींदार थे, जिन की जमीनजायदाद है और खतियान में उन का नाम है, वे तो खतियान निकाल कर साबित कर देंगे कि 1971 से पहले भी भारत के नागरिक थे. लेकिन बाकी लोग ऐसा साबित नहीं कर पाएंगे.

‘‘भारत के नागरिकों में कितने लोग थे, जिन के पास साल 1971 से पहले जमीनजायदाद रही होगी? चंद लोगों के पास 1971 से पहले जमीन रही होगी. सिर्फ मुसलिम ही नहीं, बल्कि पिछडे़ और दलितों का एक बहुत बड़़ा तबका नागरिकता के इस पचड़े में फंस जाएगा.

‘‘फिर लोग अपनी नागरिकता बचाने के लिए सरकारी दफ्तरों में दौड़ लगाएंगे और भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं के सामने हाथपैर जोड़ेंगे कि उन की नागरिकता बचा ली जाए.’’

क्या कहता है संविधान

अनुच्छेद 5 में बताया गया है कि जब संविधान लागू हो रहा था तो उस वक्त कौन भारत का नागरिक होगा. अगर कोई व्यक्ति भारत में जनमा था या जिस के माता या पिता में से कोई भारत में जनमा हो या अगर कोई व्यक्ति संविधान लागू होने से पहले कम से कम 5 सालों तक भारत में रहा हो, तो वह भारत का नागरिक होगा.

नागरिकता का अधिकार

ऐसे में भ्रष्ट कर्मचारियों और अधिकारियों को एक अधिकार दिया गया है कि कैसे वे लोगों से पैसा ले कर उन की नागरिकता बहाल कर दें. सिटीजनशिप ऐक्ट के जरीए उन्हें यह अधिकार दिया गया है.

सिटीजनशिप ऐक्ट में कोई भी व्यक्ति यह घोषणा कर सकता है कि वह नागरिक नहीं तो कम से कम इस देश में शरणार्थी तो है ही. फिर वह सिटीजनशिप ऐक्ट में नागरिकता के लिए आवेदन करे. अगर वह मुसलिम नहीं है तो उस के आवेदन पर विचार किया जाएगा.

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अगर वह मुसलिम है तो आवेदन ही नहीं कर सकता, क्योंकि सिटीजनशिप ऐक्ट में ही ऐसा प्रावधान है कि इस ऐक्ट में सिर्फ उन्हीं लोगों को नागरिकता दी जाएगी, जो मुसलिम नहीं हैं.

मुसलिमों को नागरिकता देने का प्रावधान इस कानून के अंदर है ही नहीं, इसलिए मुसलिम आवेदन भी नहीं कर पाएंगे.

फिर करोड़ों दलित, आदिवासी और पिछडे़, जिन के पास 1971 से पहले कोई जमीनजायदाद नहीं थी, उन्हें शरणार्थी घोषित कर के सालों तक उन से वोट

देने का अधिकार भी छीन लिया जाएगा और उन से नागरिकता के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगवाए जाएंगे.

यह चक्कर कब खत्म होगा, कोई नहीं जानता, क्योंकि राजीव गांधी के जमाने से ऐसा ही चक्कर असम के लोग लगा रहे हैं और पिछले 30 सालों से उन्हें वोट देने के अधिकार को बहाल रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.

आने वाले 50 साल तक भूमिहीन याद रखें, इस में वे सभी भूमिहीन लोग शामिल हैं, जो 1971 से पहले भूमिहीन थे, 1971 के बाद जिन लोगों ने आरक्षण पा कर नौकरी पाई और खुद जमीन खरीद ली, वे भी नागरिकता नहीं बचा पाएंगे क्योंकि आप को 1971 से पहले के दस्तावेज देने हैं. पिछडे़ व दलित और पूरे देश में अपनी नागरिकता को बहाल रखने के लिए संघर्ष करते दिख जाएंगे. इस का क्या नतीजा होगा, पता नहीं.

लेकिन उन के संघर्ष करने का एक अवसर होगा. मुसलिमों के पास ऐसा कोई अवसर नहीं होगा, क्योंकि कानून में ही उन को आवेदन देने का प्रावधान नहीं है. जिन मुसलिमों के पास साल 1971 से पहले अपने पूर्वज को इस देश का नागरिक साबित करने का कोई कानूनी दस्तावेज नहीं होगा, उन्हें बंगलादेशी घोषित कर दिया जाएगा. उन के सारे नागरिक अधिकार खत्म हो जाएंगे.

हो सकता है कि उन के घर या मकान भी सरकार कब्जे में ले ले. ऐसे शरणार्थी लोगों को शहर के किसी बाहरी इलाकों में डिटैंशन सैंटर में डाल दिया जाएगा.

इस बारे में इंजीनियर सनाउल्लाह अहमद रिजवी ने बताया, ‘‘आप कल्पना नहीं कर सकते कि लोगों को कितनी परेशानी होगी. कितने शर्म की बात है कि आजादी के 70 साल बाद भी इस देश के नागरिक को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी.

‘‘जिन लोगों के भूकंप, बाढ़ जैसी आपदा में कागजात खो गए हों या किसी गरीब ने अपनी अशिक्षा के चलते न बना पाया हो, उन बेचारों पर तो जैसे मुसीबत आ पड़ी है.’’

ऐसा नहीं है कि सिर्फ मुसलिम नहीं फंसेंगे. असम में 19 लाख में से तकरीबन 14 लाख गैरमुसलिम हैं, वैसे ही हर राज्य में उन की तादाद होगी.

तब गैरमुसलिमों यानी हिंदुओं को भी नहीं बख्शा जाएगा और रिफ्यूजी मान कर ही कुछ दिनों की नागरिकता दी जाएगी. वे बैठेबिठाए पाकिस्तानी या बंगलादेशी बन जाएंगे.

जरा गौर से सोचिए और इस काले कानून का विरोध कीजिए. खुश होने वाले यह जान लें कि जिस तरह गांधी, मौलाना, आजाद, भगत सिंह व अशफाकउल्ला ने मिल कर हमें अंगरेजों से नजात दी थी, वैसे ही आज उन के ख्वाबों के साथ जीने वाले लोग मिल कर इन काले अंगरेजों से भी लडें़गे और इस काले कानून का विरोध करेंगे.

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बरसों से अपने गांवकसबों से दूर रह रहे लोग, सारे कामकाज छोड़ कर जमीनों की मिल्कीयत और रिहाइश के सुबूत लेने के लिए अपने गांव आएंगे. इन में से कुछ यह भी पाएंगे कि कर्मचारी व पदाधिकारी से सांठगांठ कर के लोगों ने अपनी जमीनों की मिल्कीयत बदल दी है. बहुत बडे़ पैमाने पर संपत्ति के विवाद सामने आएंगे. खूनखराबा भी होगा.

ये दस्तावेज नहीं होंगे मान्य

आधारकार्ड, पैनकार्ड दिखा कर आप अपनी नागरिकता साबित नहीं कर सकते. जो लोग यह सम झ रहे हैं कि एनआरसी के तहत सरकारी कर्मचारी घरघर आ कर कागज देखेंगे, यह उन की भूल होगी. नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी व्यक्ति की होगी, सरकार की नहीं.

इस के अलावा जिस की नागरिकता जहां से सिद्ध होगी, उसे शायद हफ्तों वहीं रहना पडे़. करोड़ों लोगों के कामकाज छोड़ कर लाइनों में लगे होने से देश का उद्योग, व्यापार और वाणिज्य, और सरकारी व गैरसरकारी दफ्तरों का कामकाज चौपट होगा.

अर्थव्यवस्था पर असर

सनक में लाई गई नोटबंदी और जल्दबाजी में लाए गए जीएसटी ने पहले ही हमारी अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है. इक्कादुक्का घुसपैठियों को छोड़ कर ज्यादातर वास्तविक लोग ही परेशान होंगे.

श्रीलंकाई, नेपाली और भूटानी मूल के लोग, जो सदियों से इस पार से उस पार आतेजाते रहते हैं, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने में दांतों से पसीना आ जाएगा. जाहिर है, इन में से ज्यादातर हिंदू ही होंगे.

लगातार अपनी जगह बदलते रहने वाले आदिवासी समुदायों को तो सब से ज्यादा दिक्कत आने वाली है. वन क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोग वहां की जमीनों पर वन अधिकार कानून के तहत अपना कब्जा तो साबित कर नहीं पा रहे हैं, वे नागरिकता कैसे साबित करेंगे?

दूरदराज के पहाड़ी और वन क्षेत्रों में रहने वाले लोग, घुमंतू समुदाय, अकेले रहने वाले बुजुर्ग, अनाथ बच्चे, बेसहारा महिलाएं, विकलांग लोग और भी इस से प्रभावित होंगे.

इन की होगी चांदी

इस में कुछ लोगों की पौबारह भी हो जाएगी. बडे़ पैमाने पर दलाल सामने आएंगे. जिस के पास पैसा है, वे नागरिक न होने के बावजूद फर्जी कागजात बनवा लेंगे. नागरिकता साबित करने में सब से ज्यादा दिक्कत उसे होगी, जो सब से ज्यादा लाचार, बेबस और वंचित हैं.

बनेंगे डिटैंशन सैंटर

जो लोग अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाएंगे, उन के लिए देश में डिटैंशन सैंटर बनेंगे. इन सैंटरों को बनाने और चलाने में देश के अरबों रुपए खर्च होंगे. कुलमिला कर देश के सामाजिक, माली और राजनीतिक हालात बेहाल हो जाएंगे.

अगर फार्म भरना पड़े

वकील शेख बिलाल का सु झाव है कि सभी नियमों को बहुत ही ध्यान से पढे़ं और भरें. धर्म वाले कौलम में मुसलिम लोग इसलाम लिखें और समुदाय के कौलम में मुसलिम लिखें. इस के अलावा कुछ भी न जोडें़ जैसे शिया, सुन्नी, अहले, हदीस, तबलीग जमात वगैरह.

किसी फार्म को भरने के लिए किसी अधिकारी या कर्मचारी पर निर्भर न रहें. अपना नाम और बाकी डिटेल खुद ही भरें या अपने किसी भरोसेमंद आदमी से भरवाएं. फार्म भरने में बाल पैन का इस्तेमाल करें.

देश के सभी राज्यों में एनआरसी और कैब का विरोध स्वयंसेवी संगठन, शिक्षण संस्थान और राजनीतिक दल के साथसाथ लेखक व पत्रकार अपनेअपने लैवल से कर रहे हैं. इसे सुप्रीम कोर्ट में भी ले जाया गया है.

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देश को आजाद कराने वाले और अपनी जान की कुरबानी देने वाले स्वतंत्रता सेनानी व हमारे राष्ट्रभक्तों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस आजादी के लिए हम सबकुछ लुटा रहे हैं, उस भारत का हश्र यह होगा. गुजरात में नर्मदा किनारे सैकड़ों मीटर की ऊंचाईर् पर खड़े पटेल अपने सपनों के भारत को बरबाद होता देखते रहेंगे.

असम में जो दस्तावेज मांगे गए

असम में रहने वाले लोगों को सूची ए में दिए गए कागजातों में से कोई एक जमा करना था. इस के अलावा दूसरी सूची बी में दिए गए दस्तावेजों में से किसी एक को दिखाना था जो कि आप अपने पूर्वजों से संबंध साबित कर सकें. लिस्ट ए में मांगे गए मुख्य दस्तावेजों की लिस्ट :

द्य 1951 का एनआरसी. द्य 24 मार्च, 1971 तक का मतदाता सूची में नाम. द्य जमीन का मालिकाना हक या किराएदार होने का रिकौर्ड. द्य नागरिकता प्रमाणपत्र. द्य स्थायी निवास प्रमाणपत्र. द्य शरणार्थी पंजीकरण प्रमाणपत्र. द्य किसी भी सरकारी प्राधिकरण द्वारा जारी लाइसैंस. द्य सरकार या सरकारी उपक्रम के तहत सेवा या नियुक्ति को प्रमाणित करने वाला दस्तावेज. द्य राज्य के ऐजूकेशन बोर्ड या यूनिवर्सिटी के प्रमाणपत्र. द्य अदालत के आदेश रिकौर्ड. द्य पासपोर्ट. द्य कोई भी एलआईसी पौलिसी.

ऊपर दिए गए दस्तावेजों में से कोई भी 24 मार्च, 1971 के बाद का नहीं होना चाहिए. अगर किसी नागरिक के पास इस तारीख से पहले का दस्तावेज नहीं है तो 24 मार्च, 1971 से पहले का अपने पिता या दादा के डौक्यूमैंट्स में से किसी एक को दिखा कर अपने पिता या दादा से संबंध स्थापित करना होगा. दी गई लिस्ट बी डौक्यूमैंट में उन का नाम होना चाहिए:

जन्म प्रमाणपत्र, भूमि दस्तावेज, बोर्ड या विश्वविद्यालय का प्रमाणपत्र, बैंक, एलआईसी, पोस्ट औफिस रिकौर्ड, राशनकार्ड, मतदाता सूची में नाम.

कानूनी रूप से स्वीकार किए गए दूसरे दस्तावेज-

शादीशुदा औरतों के केस में सर्कल अधिकारी या ग्राम पंचायत सचिव द्वारा दिया गया प्रमाणपत्र.

पर्यावरण पर भारी धर्म की दुकानदारी

पास जा कर देखने पर महसूस हुआ कि उस पीपल के पेड़ के तने पर सैकड़ों की तादाद में बड़ीबड़ी कीलें ठुकी हुई थीं. जाहिर था कि हर बार किसी की मौत होने पर नई कील ठोंकी जा रही थी और परंपरा के नाम पर पीपल के तने को छलनी किया जा रहा था.

मैं ने जब वहां मौजूद कुछ बुजुर्गों से इस बारे में जानने की कोशिश की तो उन में से किसी के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं था.

80 साल के एक गांव के संबंधी ने बताया कि पंडितजी बताते हैं कि किसी के मरने के बाद उस की आत्मा पीपल के पेड़ में निवास करती है, इसलिए इन अस्थियों को पेड़ पर लटकाया जाता है.

दरअसल, इस तरह की परंपराओं का पालन कराने में हर धर्म व संप्रदाय के वे दुकानदार जिम्मेदार हैं, जिन की दुकानदारी इन से चलती है. पीपल और बरगद के पेड़ पर भूतप्रेत का निवास बताने वाले पंडेपुजारी वट सावित्री अमावस्या पर औरतों से इन्हीं पेड़ों की पूजा कराने की कह कर दानदक्षिणा बटोर कर अपनी जेब भरते नजर आते हैं.

समाज में ठीक न होने वाली बड़ी बीमारियों की तरह फैले इन रीतिरिवाजों को कराने से धर्मगुरुओं की रोजीरोटी चलती है. लोगों को कर्म करने का ज्ञान देने वाले तथाकथित उपदेशक खुद ही गद्दी पर बैठ कर बिना कर्म किए मलाई खाते हैं.

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इस तरह के तमाम उपदेशक और पंडेपुजारी अब दलितों और पिछड़ों में अमरबेल की तरह पनप रहे हैं. इन का काम लोगों को धर्म का डर दिखा कर जनता से पैसा ऐंठना रह गया है.

अंधविश्वास की जड़ें इनसानों से निकल कर अब पेड़पौधों को बरबाद करने तक पहुंच चुकी हैं. ‘पेड़ लगाओ जीवन बचाओ’ के नारे को अंधविश्वास ने  झूठा साबित कर दिया है. कुछ ढोंगी ओ झा व भगत पेड़ के दुश्मन बन गए हैं.

हैरानी की बात तो यह है कि पढ़ेलिखे लोग भी पेड़ों को बचाने के बजाय काटने पर तुले हैं. पेड़ों को ले  कर समाज में आज भी कई तरह की गलतफहमियां फैली हुई हैं. दरवाजे पर अशोक के पेड़ लगाना अपशकुन माना जाता है, पीपल का पेड़ अगर दरवाजे पर है तो सम िझए, आप के दरवाजे पर भूत का साया है.

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक गांव के किसान रामनारायण सिंह ने एक पंडित के कहने पर अपने घर के सामने लगे नारियल के पेड़ को कटवा दिया, क्योंकि पंडित के मुताबिक इस से उन के वंश पर बुरा असर पड़ रहा था.

रामनारायण सिंह के कोई औलाद न होने के चलते पंडित ने उन्हें बताया था कि जिस घर में नारियल के पेड़ होते हैं, वहां वंश की बेल रुक जाती है.

ऐसे ही तथाकथित पंडेपुजारी के  झांसे में आ कर एक शिक्षक ने अपने घर के पिछवाड़े में लगा कटहल का हराभरा पेड़ कटवा दिया, जबकि गुरुजी पास के एक स्कूल में बच्चों को पर्यावरण का पाठ पढ़ाते हैं.

गांव वालों में भी यह गलतफहमी फैली हुई है कि दरवाजे पर नारियल, नीम, कटहल, गूलर, बरगद, पीपल का पेड़ नहीं लगाना चाहिए. इस से घर पर बुरा साया पड़ जाता है और परिवार को हमेशा मुसीबतों का सामना करना पड़ता है, लेकिन उस के पास इसे साबित करने का कोई सुबूत नहीं है.

पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे डाक्टरी पेशे से जुड़े नीरज श्रीवास्तव इस बारे में कहते हैं कि पेड़पौधे कहीं से भी नुकसानदायक नहीं हैं. पर्यावरण

और मानव जाति के लिए तो पौधे हमेशा वरदान साबित हुए हैं. लेकिन कुछ लोग अंधविश्वास के जरीए लोगों के दिमाग को भटका कर पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं.

धार्मिक अंधभक्ति

हमारे धर्मग्रंथों और तथाकथित धर्मगुरुओं ने लोगों के मन में पापपुण्य को ले कर ऐसी बातें भर दी हैं कि चाहे जितने पाप करो, पर अगर नदियों में डुबकी लगा कर देवीदेवताओं की पूजा और पंडितों को दान करोगे, तो सीधे स्वर्ग पहुंच जाओगे.

स्वर्ग जाने की कामना में भक्त नदियों के जल को प्रदूषित करने के साथसाथ पेड़पौधों को रौंद कर अपनेआप को धन्य सम झ रहे हैं.

महाशिवरात्रि पर बेलपत्र, शमि यानी सफेद कीकर की पत्तियों, गेहूं की बालें, चने की घेंटी, धतूरा चढ़ा कर हम पुण्य कमाने के चक्कर में टनों चीजें बरबाद तो कर ही रहे हैं, साथ ही पर्व के बाद कचरा बनती यही चीजें नदियों, तालाबों में बहा कर धड़ल्ले से हम पर्यावरण को भी गंदा कर रहे हैं.

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दशहरे पर सोना लूटने के नाम पर शमि के पत्तों की लूटखसोट की जाती है, तो कभी आंवला नवमी पर औरतों द्वारा पूजन के नाम पर उस के तने पर लपेटे जाने वाले धागे से आंवले के पेड़ को नुकसान पहुंचाया जाता है.

धार्मिक कर्मकांड की दुकान सजा बैठे धर्म के स्वयंभू ठेकेदार सवा लाख शिवलिंग बनाने के नाम पर भक्तों से लाखों रुपए का चढ़ावा वसूलते हैं और फिर कार्यक्रम के बाद बड़ेबड़े ट्रकों में भर कर यही चीजें नदियों में छोड़ दी जाती हैं.

खास बात यह है कि बेसिरपैर की धार्मिक मान्यताओं और अंधविश्वास के नाम पर पर्यावरण को भी निशाना बनाया जा रहा है.

अंधविश्वास की जड़ें गांवदेहात के इलाकों के साथसाथ शहरी इलाकों में भी काफी गहराई तक अपना पैर पसारे हुए हैं. यह काम पंडेपुजारियों द्वारा धड़ल्ले से किया जा रहा है.

धर्म के दुकानदार भक्तों को बताते हैं कि सावन महीने के सोमवार को 1008 बेलपत्र चढ़ाने से भगवान शिव खुश हो जाते हैं और भक्तगण बेल के पेड़ की बड़ीबड़ी डालियों को बेरहमी से काट लाते हैं.

ऐसा नहीं है कि लोग धर्म के प्रति आस्थावान हैं, बल्कि वे धर्म के डर के चलते यह ढोंग करते हैं. आज जहां देश के कई इलाकों में पीने के पानी का संकट है, वहीं दुर्गा उत्सव और गणेशोत्सव के नाम पर ज्यादा तादाद में प्रतिमाएं रखने की होड़ और प्लास्टर औफ पैरिस से बनी मूर्तियों के जल स्रोतों में विसर्जन की परंपरा आज पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी?है.

प्रथाएं और भी हैं

मध्य प्रदेश और बुंदेलखंड के तमाम गांवदेहातों में आज भी यह प्रथा प्रचलित है कि लड़केलड़कियों की शादी में मंडप के नीचे आम के पेड़ की लकड़ी से बने खाम यानी मंडप का उपयोग किया जाता है. मान्यता और रीतिरिवाज के अनुसार खाम के चारों ओर फेरे लेने का रिवाज है.

आज गांवदेहात में आम के पेड़ों का कत्लेआम कर के खाम के लिए लकड़ी काटी जाती है. मंडप बनाने के लिए आम और जामुन के पत्तों और डालियों का इस्तेमाल कर के उन्हें नुकसान पहुंचाया जाता है.

अंधविश्वास के नाम पर पेड़पौधों पर होने वाली यह बर्बरता चिंता की बात है. ऐसी परंपराओं को तोड़ने की हिम्मत गांव वालों के सामने किसी चुनौती से कम नहीं है.

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विज्ञान के आविष्कारों ने भले ही जिंदगी के हर क्षेत्र में अपनी दस्तक से तरक्की की इबारत लिख दी हो, पर हम अपने अंदर वैज्ञानिक सोच पैदा करने में नाकाम रहे हैं. धार्मिक कथापुराणों में लिखी गई अप्रमाणिक बातें आज भी लोगों के सिर चढ़ कर बोल रही हैं.

आज भी धार्मिक आस्था के नाम पर देवीदेवताओं को चढ़ाने वाली चीजों का उपयोग न केवल पेड़पौधों को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि पर्यावरण के संतुलन को भी प्रभावित कर रहा है. पेड़पौधे हमें छांव, फल, फूल देते हैं, पर हम पेड़ लगाने के बजाय उन का खात्मा करने पर तुले हुए हैं.

विज्ञान भी इस बात को सच साबित कर चुका है कि नीम, बरगद और पीपल वायुमंडल में औक्सिजन देते हैं. नीम का पेड़ कीटाणुनाशक है. जिस दरवाजे पर नीम का पेड़ है, वहां की हवा बिलकुल शुद्ध और जीवाणुमुक्त रहती है. इस से आसपास के लोगों को शुद्ध हवा के साथ संक्रामक बीमारियों से सुरक्षा भी मिल जाती है.

विज्ञान के इस युग में हम भले ही अंतरिक्ष को मुट्ठी में करने और चांद से ले कर मंगलग्रह तक घर बसाने की सोच रहे हों, लेकिन इस तरक्की के बावजूद हम दिमागी रूप से अब तक तरक्की नहीं कर पाए हैं और अंधविश्वास जैसी सामाजिक बुराइयों का साथ आज भी नहीं छोड़ पा रहे हैं.

अब तो अंधविश्वास के चलते पेड़पौधों और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा है. जैसेजैसे विज्ञान तरक्की कर रहा है, वैसेवैसे अंधविश्वास पर हमारा विश्वास और भी मजबूत होता जा रहा है.

उम्मीद की किरण

मध्य प्रदेश की पिछली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने गांवगांव में करोड़ों रुपए वृक्षारोपण के नाम पर स्वाहा कर दिए, लेकिन कोई पौधा पेड़ की शक्ल नहीं ले पाया.

तमाम विरोधाभासों व अंधविश्वासों के बावजूद भी समाज में कुछ लोग ऐसे भी मौजूद हैं, जो न केवल अंधविश्वासों को तोड़ रहे हैं, बल्कि पर्यावरण की चिंता कर पेड़ लगाने का काम कर रहे हैं.

नरसिंहपुर जिले की गाडरवारा तहसील की ‘कदम’ संस्था ने पिछले 15 सालों में हजारों पौधों को पेड़ बना कर खड़ा कर दिया है. जन्मदिन हो या वैवाहिक वर्षगांठ वगैरह अवसरों पर उत्सव मना कर ये पेड़ लगाए जा रहे हैं.

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इसी तरह साईंखेड़ा कसबे की ‘कल्पतरू’ संस्था ने पिछले 2 साल में 1,000 से ज्यादा पेड़ लगा कर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में लोगों को जागरूक करने का काम किया है. सालीचैका रेलवे स्टेशन की ‘वृक्षमित्र’ संस्था भी प्रकृति को हरियाली की चुनरी ओढ़ाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ रही है. मौजूदा समय में इस तरह की कोशिशों की ही जरूरत है, जो धर्म की दुकानदारी को खत्म कर लोगों में पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत कर सकें.

“अंधविश्वास” ने ली, रुद्र की ‘नरबलि’

आज भी सैकड़ों साल पहले कि अंधविश्वास, रूढ़िवादिता के कारण लोगों की जान जा रही है. छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिला में एक नाबालिग़  रुद्र की नर बलि की घटना से यह साबित हो जाता है कि छत्तीसगढ़ में अभी भी किस तरह अशिक्षा के कारण, लोग अंधविश्वास में अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे हैं और मासूम बालक की हत्या, खून से अपने हाथ रंग  रहे हैं .

जी हाँ,नाबालिग रुद्रनारायण देशमुख की हत्या मामले में यह चौंकाने वाला सनसनीखेज खुलासा पुलिस ने किया है.पुलिस के  अनुसार  रुद्र की हत्या नहीं एक “नर बलि” थी. अशिक्षा से घिरे अंधविश्वास के फेरे में हत्यारों ने टोना-टोटका के चक्कर में पड़, ढेर सारा पैसा कमाने के लिए अपने ही मासूम रिश्तेदार की हत्या  कर दी थी. पुलिस ने जानकारी दी है कि हत्यारों के अंदर अंधविश्वास इस कदर भरा हुआ था कि उन्होंने अपने ही दूर के रिश्तेदार , एक बच्चें की जान ले ली है.

पुलिस ने जब इस मामले में हत्या के आरोपी पंचुराम देशमुख व धनराज नेताम को गिरफ्तार किया तो पूरे मामले का खुलासा हो गया . पंचुराम देशमुख इस नरबलि कांड  मामले का मुख्य आरोपी बनाया गया  है. वहीं मृतक बालक रुद्र पंचुराम  का  साला था. रुद्र की लाश पुलिस अंडा थाना क्षेत्र के आलबरस गाँव में जली अवस्था मिली थी. इस नरबलि घटना के खुलासे के बाद यह सिद्ध हो गया है कि छत्तीसगढ़ किस तरह शिक्षा एवं अंधविश्वास के मकड़जाल में अभी भी सांसे ले रहा है.

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अंधविश्वास को लेकर जन चर्चा उफान पर

पुलिस ने जब मामले की पड़ताल शुरू की तो 48 घंटे के भीतर नरबलि के इस हत्याकांड  के रहस्य से पर्दा उठ गया.  दुर्ग जिला सहित छत्तीसगढ़ में यह जन चर्चा का विषय बन गया कि कैसे आज भी अंधविश्वास फैला हुआ है.  अशिक्षित आदमी पैसों के लिए किस तरह अपनों की ही हत्या कर सकता है.आज भी लोग अंधविश्वासी हैं कि वे नर बलि जैसी घटना को अंजाम देने में भी गुरेज  नहीं  कर रहें  हैं.

पुलिस के अनुसार  हत्या के मामले में गिरफ्तार धनराज नेताम ने अपने मित्र पंचुराम देशमुख को “फांसी की रस्सी” से पूजा पाठ कर पैसा झड़ने की बात बताई थी और उसे हत्या के लिए प्रेरित किया था पंचू राम को इसके बाद रुपए मिलने की बड़ी आशा थी. इस जानकारी के बाद पंचु टोना-टोटका के जरिए पैसा कमाने के चक्कर में पड़ गया था था.

वह कई दिनों तक फांसी की रस्सी की जुगाड़ में लगा रहा.  रस्सी  मिलने उसने अपने रिश्तेदार नाबालिग साले रुद्र की हत्या की योजना बनाई

लाश के पास से मिले साक्ष्य को परिजनों से पहचान कराई गई. परिजनों लापता रुद्र नारायण देशमुख के तौर पर ही लाश की पहचान की. पूछताछ में पता चला की  पंचु के साथ ही  मडई मेला घुमने के लिए  के गया  था.

हत्या के बाद उड़ गए होश

दोनों आरोपियों ने हत्या के बाद फांसी की रस्सी से साधना प्रारंभ की, मगर हाथ कुछ नहीं आया उसके बाद दोनों के होश उड़ गए. इधर पंचुराम घटना के बाद गायब था. पुलिस ने शक के आधार पर पंचु की तलाश शुरू की.

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पुलिस को पड़ताल के दौरान जानकारी मिली कि पंचुराम धमतरी जिले में बोराई गाँव में देखा गया है. पुलिस ने वहाँ  दबिश दी और पंचुराम  पुलिस गिरफ्त में आ गया. पंचुराम  से पूछतात में उसकी इकबालिया बयान में खुलासा हुआ कि इस  नरबलि कांड  में उसका साथी धनराज नेताम भी शामिल है. पंचुराम  ने बताया कि धनराज नेताम से उसकी दोस्ती कुछ  साल पहले हुई थी.

धनराज ने धन  कमाने का यह तरीका उसे  बताया था. उसने कहा था कि “फांसी की रस्सी” लाकर दोगो  तो मैं  तुम्हें लखपति, करोड़पति बना सकता हूँ . इस तरह पंचूराम धनराज के झांसे में आ गया और  रुद्रनारायण देशमुख (15वर्ष)  की हत्या कर अपने हाथ, अपने ही रिश्तेदार के बच्चे के खून से रंग लिए . छत्तीसगढ़ की दुर्ग पुलिस ने आरोपी के पास घटना  मे प्रयुक्त रस्सी, कागज अन्य समान जब्त कर लिया है.

इस घटना ने  छत्तीसगढ़ के जनमानस  को झकझोर दिया  है  और यह  विचारने को मजबूर कर दिया कि आधुनिक युग मेकुछ  लोग ऐसे भी हैं जो अंधविश्वास के फेर मे पढ़कर अपना और मासूमों का जीवन बर्बाद कर देते  हैं. दुर्ग पुलिस ने दोनों आरोपियों को न्यायिक रिमांड में जेल भेज दिया है.

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दम तोड़ते परिवार

समाज की सब से अहम इकाई परिवार है और हर साल 15 मई को पूरी दुनिया में ‘अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस’ मनाया जाता है. पर हमारी शहरी जिंदगी ने लोगों को इतने बड़े सपने दिखा दिए हैं कि उन्हें पूरा करने के लिए वे किसी भी हद तक चले जाते हैं, पर जब वे सपने पूरे नहीं होते हैं या परिवार का ही कोई हमारी पीठ में छुरा घोंपता है, तो नतीजा दर्दनाक भी हो जाता है.

हाल ही में नोएडा, उत्तर प्रदेश में एक परिवार के फैसले ने सब को हैरान कर दिया. पैसे की तंगी के चलते 33 साल के भरत ने 13 दिसंबर, 2019 को दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू मैट्रो स्टेशन पर ट्रेन के आगे कूद कर जान दे दी.

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बात यहीं खत्म नहीं हुई. भरत के इस तरह दुनिया छोड़ने का गम उस की 31 साल की पत्नी शिवरंजनी सहन न कर सकी और अपनी जान देने से पहले उस ने 5 साल की बेटी जयश्रीता को एक कमरे में फांसी लगा कर मार दिया और फिर दूसरे कमरे में आ कर खुद भी फंदे से  झूल गई.

चेन्नई के रहने वाले भरत एक चाय कंपनी में जनरल मैनेजर थे और सितंबर महीने में ही नोएडा आए थे.

दिसंबर, 2019 की 3 तारीख को गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके में गुलशन वासुदेवा नाम के एक शख्स ने अपने परिवार के साथ खुदकुशी कर ली और इस का जिम्मेदार अपने साढ़ू को ठहराया कि उस ने उन्हें पैसों का चूना लगाया था.

गुलशन वासुदेवा ने पहले अपने दोनों बच्चों को मारा. इस के बाद अपनी तथाकथित 2 पत्नियों के साथ 8वीं मंजिल से कूद कर खुदकुशी कर ली.

21 जून, 2019 की रात को दिल्ली के महरौली इलाके के सुरेश अपार्टमैंट में रहने वाले कैमिस्ट्री के ट्यूटर उपेंद्र शुक्ला ने अपनी पत्नी अर्चना शुक्ला के साथ 8 साल की बेटी रान्या, 6 साल के बेटे रौनक व डेढ़ महीने के बेटे राजा की चाकू से गला रेत कर सिर्फ इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि घर की माली हालत ठीक नहीं थी.

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इसी तरह 1 जुलाई, 2019 की देर रात गुरुग्राम, हरियाणा के सैक्टर 49 के उप्पल साउथऐंड एस ब्लौक में रहने वाले सन फार्मा कंपनी में साइंटिस्ट ऐंड रिसर्च ऐंड डेवलपमैंट ब्रांच में हैड रहे डाक्टर श्रीप्रकाश सिंह ने अपनी पत्नी डाक्टर सोनू, बेटी अदिति व बेटे आदित्य की तेज धार हथियार से बेरहमी से हत्या कर दी थी और बाद में खुद भी पंखे से लटक कर खुदकुशी कर ली थी. वैसे, इस परिवार की माली हालत खराब थी, ऐसी कोई वजह सामने नहीं आई थी.

इस तरह की बहुत सी वारदातें अब शहरी जीवन में बड़ी आम सी होने लगी हैं. अखबार भरे रहते हैं ऐसी खबरों से. लेकिन इस की वजह क्या है? क्यों हम जिंदगी में थोड़ा सा फेल होते ही खुद को खत्म करने पर आमादा हो जाते हैं?

इसे जानने से पहले हम इस बात पर गौर करने से चूक जाते हैं कि जब भी किसी परिवार का मुखिया ऐसा फैसला लेता है तो वह पहले हाथ उन के खून से रंगता है, जिन को उस ने खुद जन्म दिया होता है.

पहले मामले में पति भरत की खुदकुशी में हुई मौत का सदमा उस की पत्नी शिवरंजनी सहन नहीं कर पाई और उस ने अपनी बेटी जयश्रीता को मार कर खुद को भी खत्म कर लिया.

शिवरंजनी ने तो बचकाना फैसला लिया, लेकिन इस में 5 साल की जयश्रीता की क्या गलती थी? उसे किस बात की सजा दी गई? ऐसी ही कुछ नाइंसाफी दूसरे मामलों में उन बच्चों के साथ हुई, जिन्हें परिवार की माली हालत से कोई लेनादेना नहीं था और शायद वे जिंदा रहते तो अपनी जिंदगी को बेहतर बना सकते थे. पर गुलशन वासुदेवा, उपेंद्र शुक्ला और डाक्टर श्रीप्रकाश सिंह ने अपने कलेजे के टुकड़ों को उन की जिंदगी नहीं जीने दी.

कानून ऐसी हत्याओं पर किसी को सजा नहीं दे सकता है, क्योंकि मारने वाला ही खुद को खत्म कर चुका होता है, लेकिन ऐसे लोग यह नहीं सम झते हैं कि अगर किसी महल्ले या सोसाइटी में ऐसा डरावना कांड हो जाता है तो दूसरे लोगों खासकर उन के बड़े होते बच्चों पर इस का क्या असर पड़ता है? देखते ही देखते आप के पड़ोस में कोई हंसताखेलता परिवार खत्म हो गया और आप शांति से रह लोगे? बिलकुल नहीं. पूरा इलाका ही बदनाम हो जाता है. वहां नए लोग मकान खरीदने से डरते हैं. लोग अपने रिश्तेदारों से मिलने में कतराते हैं. बच्चे उस घर के आसपास होने पर ही घबराने लगते हैं.

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आज के नए दौर में सब से बड़ी समस्या तो हमारे परिवारों के टूटने की है. यह किसी अच्छे समाज की निशानी नहीं है. ठीक है कि पैसा हमारे सपनों को पूरा करता है, पर यह जो जल्दी से जल्दी और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की हवस है न, वह हमें या तो अपराध की तरफ धकेलती है या खुद को खत्म करने के लिए उकसाती है.

गांवदेहात में भी जिस किसान की जमीन बिक गई और अचानक अंटी में ढेर सारा पैसा आ गया तो उस की भी मति मारी जाती है. फिर ऊलजुलूल खर्चे बढ़ जाते हैं, उधार लेनेदेने का चलन हो जाता है. महंगी गाड़ी खरीद कर उसे फुजूल में सड़कों पर दौड़ाने की ऐसी गंदी आदत पड़ती है कि अंटी कब खाली हुई पता ही नहीं चलता है. इस के बाद खर्चे पूरे करने के लिए कई लोग अपराध की डगर पकड़ लेते हैं या फिर कर्ज के मारे अपने परिवार को ही खत्म कर देते हैं.

इस सब से बचने का एक ही तरीका है जोश में होश न खोना, क्योंकि हर इनसान की जिंदगी में उतारचढ़ाव आते हैं. अमिताभ बच्चन इस की सब से बड़ी मिसाल हैं. फिल्मों में खूब दाम और नाम कमाया, फिर ऐसा दौर भी आया जब उन का हाथ इस कदर तंग हुआ कि ठनठन गोपाल हो गए. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी या अपने परिवार को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया, बल्कि फिर दोगुने दम से मेहनत की, बौलीवुड में नाम कमाया और आज 77 साल के होने के बावजूद उन नौजवानों से दोगुना काम करते हैं, जो या तो अपनी बेरोजगारी का रोना रोते रहते हैं और अपराध के नाम पर किसी औरत की चेन  झपट लेते हैं.

14 फरवरी का ‘वैलेंटाइन डे’ तो सब याद रख लेते हैं और अपना प्यार पाने के लिए कुछ भी कर जाते हैं, फिर परिवार भी बना लेते हैं, पर 15 मई का ‘परिवार दिवस’ अपने जेहन में ही नहीं आने देते हैं, जो हमारे समाज और देश के लिए बहुत जरूरी है. और जो इनसान अपने परिवार को याद रखता है, वह उसे खत्म करने की सोच भी नहीं सकता है, फिर चाहे उस का कंगाली में आटा ही क्यों न गीला हो जाए.

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डाक्टर के बजाय चपरासी क्यों बनना चाहते हैं युवा

2017 में मध्य प्रदेश और 2018 में उत्तर प्रदेश के बाद इस साल खबर गुजरात से आई है कि गुजरात हाईकोर्ट और निचली अदालतों में वर्ग-4 यानी चपरासी की नौकरी के लिए 7 डाक्टर और 450 इंजीनियरों सहित 543 ग्रेजुएट और 119 पोस्टग्रेजुएट चुने गए. इस खबर के आते ही पहली आम प्रतिक्रिया यह हुई कि क्या जमाना आ गया है जो खासे पढ़ेलिखे युवा, जिन में डाक्टर भी शामिल हैं, चपरासी जैसी छोटी नौकरी करने के लिए मजबूर हो चले हैं. यह तो निहायत ही शर्म की बात है.

गौरतलब है कि चपरासी के पदों के लिए कोई 45 हजार ग्रेजुएट्स सहित 5,727 पोस्टग्रेजुएट और बीई पास लगभग 5 हजार युवाओं ने भी आवेदन दिया था. निश्चितरूप से यह गैरमामूली आंकड़ा है, लेकिन सोचने वालों ने एकतरफा सोचा कि देश की और शिक्षा व्यवस्था की हालत इतनी बुरी हो चली है कि कल तक चपरासी की जिस पोस्ट के लिए 5वीं, 8वीं और 10वीं पास युवा ही आवेदन देते थे, अब उस के लिए उच्चशिक्षित युवा भी शर्मोलिहाज छोड़ कर यह छोटी नौकरी करने को तैयार हैं. सो, ऐसी पढ़ाईलिखाई का फायदा क्या.

शर्म की असल वजह

जाने क्यों लोगों ने यह नहीं सोचा कि जो 7 डाक्टर इस पोस्ट के लिए चुने गए उन्होंने डाक्टरी करना गवारा क्यों नहीं किया. वे चाहते तो किसी भी कसबे या गांव में क्लीनिक या डिस्पैंसरी खोल कर प्रैक्टिस शुरू कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसी तरह इंजीनियरों के लिए भी प्राइवेट कंपनियों में 20-25 हजार रुपए महीने वाली नौकरियों का टोटा बेरोजगारी बढ़ने के बाद भी नहीं है, लेकिन उन्होंने सरकारी चपरासी बनना मंजूर किया तो बजाय शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा के गिरते स्तर को कोसने के, इन युवाओं की मानसिकता पर भी विचार किया जाना चाहिए.

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दरअसल, बात शर्म की इस लिहाज से है कि इन उच्चशिक्षित युवाओं ने अपनी सहूलियत और सरकारी नौकरी के फायदे देखे कि यह नौकरी गारंटेड है जिस में एक बार घुस जाने के बाद आसानी से उन्हें निकाला नहीं जा सकता. तनख्वाह भी ठीकठाक है और ट्रांसफर का भी ?ां?ाट नहीं है. अलावा इस के, सरकारी नौकरी में मौज ही मौज है जिस में पैसे काम करने के कम, काम न करने के ज्यादा मिलते हैं. रिटायरमैंट के बाद खासी पैंशन भी मिलती है और छुट्टियों की भी कोई कमी नहीं रहती. घूस की तो सरकारी नौकरी में जैसे बरसात होती है और इतनी होती है कि चपरासी भी करोड़पति बन जाता है.

इन युवाओं ने यह भी नहीं सोचा कि उन के हाथ में तकनीकी डिगरी है और अपनी शिक्षा का इस्तेमाल वे किसी भी जरिए से देश की तरक्की के लिए कर सकते हैं. निश्चित रूप से इन युवाओं में स्वाभिमान नाम की कोई चीज या जज्बा नहीं है जो उन्होंने सदस्यों को चायपानी देने वाली, फाइलें ढोने वाली और ?ाड़ ूपोंछा करने वाली नौकरी चुनी.

देश में खासे पढ़ेलिखे युवाओं की भरमार है लेकिन डिगरी के बाद वे कहते क्या हैं, इस पर गौर किया जाना भी जरूरी है. इन्फौर्मेशन टैक्नोलौजी के इस युग में करोड़ों युवा प्राइवेट कंपनियों में कम पगार पर नौकरी कर रहे हैं जो कतई शर्म की बात नहीं क्योंकि वे युवा दिनरात मेहनत कर अभावों में रह कर कुछ करगुजरने का जज्बा रखते हैं और जैसेतैसे खुद का स्वाभिमान व अस्तित्व दोनों बनाए हुए हैं.

ऐसा नहीं है कि उन युवाओं ने एक बेहतर जिंदगी के ख्वाब नहीं बुने होंगे लेकिन उन्हें कतई सरकारी नौकरी न मिलने का गिलाशिकवा नहीं. उलटे, इस बात का फख्र है कि वे कंपनियों के जरिए देश के लिए कुछ कर रहे हैं.

इस बारे में इस प्रतिनिधि ने भोपाल के कुछ युवाओं से चर्चा की तो हैरत वाली बात यह सामने आई कि मध्य प्रदेश के लाखों युवाओं ने चपरासी तो दूर, शिक्षक, क्लर्क और पटवारी जैसी मलाईदार सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन ही नहीं किया. उन के मुताबिक, इस से उन की पढ़ाई का मकसद पूरा नहीं हो रहा था.

एक नामी आईटी कंपनी में मुंबई में नौकरी कर रही 26 वर्षीय गुंजन का कहना है कि उस के मातापिता चाहते थे कि वह भोपाल के आसपास के किसी गांव में संविदा शिक्षक बन जाए. लेकिन गुंजन का सपना कंप्यूटर साइंस में कुछ करगुजरने का था, इसलिए उस ने विनम्रतापूर्वक मम्मीपापा को दिल की बात बता दी कि अगर यही करना था तो बीटैक में लाखों रुपए क्यों खर्च किए, बीए ही कर लेने देते.

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यही रोना भोपाल के अभिषेक का है कि पापा चाहते थे कि वह एमटैक करने के बाद कोई छोटीमोटी सरकारी नौकरी कर ले जिस से घर के आसपास भी रहे और फोकट की तनख्वाह भी मिलती रहे. लेकिन उन की बात न मानते हुए अभिषेक ने प्राइवेट सैक्टर चुना और अब नोएडा स्थित एक नामी सौफ्टवेयर कंपनी में अच्छे पद और पगार पर काम कर रहा है.

गुंजन और अभिषेक के पास भले ही सरकारी नौकरी न हो लेकिन एक संतुष्टि जरूर है कि वे ऐसी जगह काम कर रहे हैं जहां नौकरी में मेहनत करनी पड़ती है और उन का किया देश की तरक्की में मददगार साबित होता है. सरकारी नौकरी मिल भी जाती तो उस में सिवा कुरसी तोड़ने और चापलूसी करने के कुछ और नहीं होता.

लेकिन इन का क्या

गुजरात की खबर पढ़ कर जिन लोगों को अफसोस हुआ था उन्हें यह सम?ाना बहुत जरूरी है कि गुजरात के 7 डाक्टर्स और हजारों इंजीनियर्स के निकम्मेपन और बेवकूफी पर शर्म करनी चाहिए.

इन लोगों ने मलाईदार रास्ता चुना जिस में अपार सुविधाएं और मुफ्त का पैसा ज्यादा है. घूस भी है और काम कुछ करना नहीं है. डाक्टर्स चाहते तो बहुत कम लागत में प्रैक्टिस शुरू कर सकते थे, इस से उन्हें अच्छाखासा पैसा भी मिलता और मरीजों को सहूलियत भी रहती. देश डाक्टरों की कमी से जू?ा रहा है गांवदेहातों के लोग चिकित्सकों के अभाव में बीमारियों से मारे जा रहे हैं और हमारे होनहार युवा डाक्टर सरकारी चपरासी बनने को प्राथमिकता दे रहे हैं.

क्यों इन युवाओं ने किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी की नौकरी स्वीकार नहीं कर ली, इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि इन की मंशा मोटी पगार वाली सरकारी चपरासी की नौकरी करने की थी. यही बात इंजीनियरों पर लागू होती है जिन्हें किसी बड़े शहर में 30-40 हजार रुपए महीने की नौकरी भार लगती है, इसलिए ये लोग इतनी ही सैलरी वाली सरकारी चपरासी वाली नौकरी करने के लिए तैयार हो गए. हर साल इन्क्रिमैंट और साल में 2 बार महंगाईभत्ता सरकारी नौकरी में मिलता ही है जिस से चपरासियों को भी रिटायर होतेहोते 70 हजार रुपए प्रतिमाह तक सैलरी मिलने लगती है.

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गुंजन और अभिषेक जैसे देशभर के लाखों युवाओं के मुकाबले ये युवा वाकई किसी काम के नहीं, इसलिए ये सरकारी चपरासी पद के लिए ही उपयुक्त थे. इन्हीं युवाओं की वजह से देश पिछड़ रहा है जो अच्छी डिगरी ले कर कपप्लेट धोने को तैयार हैं लेकिन किसी प्रोजैक्ट इनोवेशन या नया क्रिएटिव कुछ करने के नाम पर इन के हाथपैर कांपने लगते हैं, क्योंकि ये काम और मेहनत करना ही नहीं चाहते.  इस लिहाज से तो बात वाकई शर्म की है.

क्यों भाती है बाथरूम में नहाती लड़की

अपने जमाने के मशहूर हीरो, डायरैक्टर और फिल्मकार राज कपूर दर्शकों की कमजोर नब्ज पर हाथ रख कर फिल्में बनाना जानते थे, तभी तो वे हीरोइन को झरने के नीचे या बाथरूम में नहाते हुए कुछ इस तरह दिखाते थे कि देखने वालों की सांस थम जाए, गला सूखने लगे और वे सीन को टकटकी लगाए देखने पर मजबूर हो जाएं.

राज कपूर ने अपनी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में सिमी ग्रेवाल को नदी में कपड़े बदलते दिखाया था. इस फिल्म में राज कपूर के बचपन का रोल उन के बेटे ऋषि कपूर ने निभाया था, जो एक स्कूली छात्र था. वह अपनी नहाती हुई टीचर को चोरीछिपे देखता है, तो उस की सांसें धोंकनी की तरह चलने लगती हैं और वह बड़ी मुश्किल से अपनेआप पर काबू रख पाता है. सिमी ग्रेवाल की नंगी पीठ, छाती और अधनंगा बदन देख कर दर्शकों की भी यही हालत हुई थी.

राज कपूर ने हीरोइनों को नहाते हुए दिखाने का यह सिलसिला फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक बदस्तूर जारी रखा. इस फिल्म में हीरोइन मंदाकिनी को एक झरने के नीचे कुछ इस तरह से नहाते हुए दिखाया गया था कि साड़ी से चिपके उस के अंग ढक कम रहे थे, दिख ज्यादा रहे थे. पानी में आग लगाते इस सीन को भी दर्शकों ने परदे पर आंखें गड़ाए देखा था.

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इसी तरह फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में भी उन्होंने हीरोइन जीनत अमान को झरने के नीचे नहाते दिखा कर खूब दौलत और शोहरत बटोरी थी.

राज कपूर के इस कामयाब फार्मूले को बाद में हर किसी ने आजमाया. रमेश सिप्पी के डायरैक्शन में बनी फिल्म ‘सागर’ में डिंपल कपाडि़या को समंदर में नहाते देखने का लुत्फ भी दर्शकों ने उठाया.

साल 1983 में आई अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘पुकार’ में भी जीनत अमान ने समंदर में नहाते हुए जम कर अंग प्रदर्शन किया था. इस फिल्म में अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गाना ‘समुंदर में नहा के और भी नमकीन हो गई हो….’ आज तक लोग गुनगुनाते हैं.

हकीकत में भी कम नहीं

बाथरूम या नदी, झरने में नहाती लड़कियों को चोरीछिपे देखने का मजा हर मर्द उठाना चाहता है, बशर्ते उसे इस का मौका मिले. लेकिन यह मजा कभीकभार सजा भी बन जाता है. आजकल नदी, झरने तो बचे नहीं, लिहाजा मनचले मर्दों ने बाथरूम में ताकनाझांकना शुरू कर दिया है.

भोपाल के टीटी नगर इलाके में रहने वाला जयेश शर्मा एक प्राइवेट कंपनी में इंजीनियर था. 8 अक्तूबर, 2019 को जब पड़ोस में रहने वाली 17 साला एक लड़की अपनी छोटी बहन के साथ बाथरूम में नहा रही थी तो जयेश उन दोनों को छत पर जा कर देखने लगा. बाथरूम की छत चूंकि खुली हुई थी, इसलिए वह इतमीनान से उन्हें नहाते हुए देख रहा था. तभी उन लड़कियों की नजर उस पर पड़ी और उन्होंने हल्ला मचा दिया.

लड़कियों के शोर मचाने पर जयेश भागा, लेकिन लड़कियों के घर वालों ने पकड़ कर उसे न केवल सबक सिखा दिया, बल्कि छेड़छाड़ की रिपोर्ट भी टीटी नगर थाने में दर्ज करा दी.

ऐसा ही एक और दूसरा मामला 6 अगस्त, 2019 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव के कैंट इलाके में देखने में आया था. बाथरूम में नहा रही एक फौजी की लड़की की नजर रोशनदान पर पड़ी तो उस ने देखा कि पड़ोस में रहने वाले 2 लड़के उसे नहाते हुए न केवल देख रहे थे, बल्कि उस की वीडियो क्लिप भी बना रहे थे.

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घबराई लड़की ने शोर मचाया तो लड़के भाग गए, लेकिन घर वालों ने उन का पीछा नहीं छोड़ा और कैंट थाने में मामला दर्ज करा दिया, जिस से वीडियो क्लिप अगर बनी हो तो जब्त हो जाए, नहीं तो उन्हें यह डर था कि अगर वीडियो क्लिप वायरल हुई तो बेटी के साथसाथ उन की भी बदनामी होगी.

ऐसे मामले अब आएदिन उजागर होने लगे हैं, जिन में लड़कों से ले कर बड़ी उम्र के लोग भी चोरीछिपे बाथरूम में नहाती लड़कियों को देखते हैं और मौका मिले तो वीडियो क्लिप भी बना लेते हैं, जिस से अकेले में उसे देख सकें. कइयों की मंशा तो लड़की को ब्लैकमेल करने की भी होती है.

भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में तो इसी साल 27 मई, 2019 को एक और गजब मामला देखने में आया था. यहां के एक गर्ल्स होस्टल में लड़कियों को बाथरूम में नहाते देख एक लड़का 30 फुट ऊपर सीवर पाइप पर चढ़ गया था.

अमन कुमार मंडल नाम का यह लड़का भागलपुर से भोपाल से आया था और एक दुकान में काम करता था. दुकान के ऊपर ही गर्ल्स होस्टल था, जहां लड़कियों को नहाते देख वह पाइप के सहारे दूसरी मंजिल तक चढ़ गया और नहाती लड़की को देखने लगा था.

इस मामले में भी लड़की की नजर खिड़की से उस पार लड़के पर पड़ गई और उस ने शोर मचा दिया. अमन कुमार पाइप के सहारे उतर कर भागा, लेकिन तब तक होस्टल की सारी लड़कियां इकट्ठा हो गई थीं, जिन्होंने उसे पकड़ कर पहले तो जम कर धुना और फिर पुलिस के हवाले कर दिया.

मजे की वजह

छत या रोशनदान से देखें या फिर पाइप लाइन से चढ़ कर जाएं, लेकिन मर्द अगर बाथरूम में नहाती लड़कियों को देखने का जोखिम उठाते हैं तो इस की असल वजह समझ पाना कोई मुश्किल काम नहीं है. अगर तमाम मर्दों से यह पूछा जाए कि उन्हें लड़की या औरत को किस हालत में देखने पर जोश ज्यादा आता है तो आधों से ज्यादा का जवाब यही होगा कि नहाते हुए देखने में जोश ज्यादा आता है.

ऐसा क्यों? इस का सटीक जवाब शायद ही कोई दे पाए, लेकिन मर्दों की फितरत तो यही रहती है कि वे नहाती हुई लड़कियों को देखें. ऐसी हालत में उन के अंग कहने को ही ढके रहते हैं और चोरीछिपे देखे जाने में एक अलग सुख का अहसास होता है. इस फितरत पर यह कहावत लागू होती है कि खरीदे गए आमों से ज्यादा मजा चोरी किए गए आम खाने में आता है.

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आमतौर पर हमारे देश में नहाने को ले कर या तो बेहद बंदिशें हैं या फिर इतना खुलापन है कि नदी किनारे गांवों में कुओं और तालाबों पर औरतों को नहाते हुए देखा जाना आम बात है. धार्मिक जगहों पर नदी किनारे औरतें बेहिचक नहाते दिख जाती हैं, लेकिन उन्हें खुलेआम देखने में लोगों को वह मजा नहीं आता जो चोरीछिपे देखने में आता है.

कविताओं, कहानियों में कई जगह लड़की की खूबसूरती की तारीफों में कसीदे गढ़े गए हैं. शेरोशायरी में भी भीगे बदन और जुल्फों से बहते पानी पर शेर कहे गए हैं, जिन से लगता है कि यह कोई नई बात नहीं है.

गलत है यह

भोपाल के जयेश शर्मा जैसे लोगों को सही नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि उन की मांग और नीयत में खोट थी. एक तरह से देखा जाए तो यह लड़कियों की बेइज्जती है, जो कानूनन छेड़छाड़ के दायरे में आती है.

आजकल तो हर हाथ में मोबाइल फोन है और मनचले टाइप के लड़के चोरीछिपे नहाती लड़कियों की वीडियो क्लिप बना लेते हैं और अगर यह वायरल हो जाए तो बदनामी लड़की की ही होती है. ब्लैकमेलिंग का भी यह बड़ा जरीया बनता जा रहा है कि नहाती लड़की की वीडियो क्लिप चोरी से बना लो और फिर उसे वायरल कर बदनाम करने की धमकी दे कर उसे ब्लैकमेल करो.

इस पर पूरी तरह से रोक लगना मुमकिन नहीं है, पर एहतियात लड़कियों को भी बरतनी चाहिए. ऐसे लोगों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट जरूर दर्ज करानी चाहिए, नहीं तो वे फिर किसी दूसरी लड़की को भी इसी तरह ब्लैकमेल करेंगे.

नहाते समय बरतें सावधानी

* अगर बाथरूम की छत नहीं है तो सुबह जल्दी अंधेरे में नहा लिया जाए तो बेहतर रहेगा.

* किसी तिरपाल की आड़ हो सके तो जरूर करा लें.

* अपनी किसी छोटी बहन या मां से कह सकती हैं कि वे आसपास नजर रखें.

* नहाते समय खुद भी सतर्क रहें. कोई देख रहा है तो उसे तुरंत फटकार लगा दें.

* अगर बाथरूम में दरवाजा नहीं है तो चुन्नी या चादर से खुली जगह को ढक दें.

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* पूरे कपड़े उतार कर न नहाएं. गांवदेहात में बहुत सी औरतें पेटीकोट अपनी छाती पर बांध कर नहाती हैं. लड़कियां भी वैसा ही कुछ तरीका अपना सकती हैं.

* बहुत सी लड़कियों को कोई गाना गाते हुए नहाने की आदत होती है. ऐसा करने से बचें, क्योंकि इस से मनचलों का ध्यान खिंचता है.

* अगर बाथरूम घर से दूर है या छत पर है तो उस के बाहरभीतर अच्छी तरह से देख लें कि किसी ने कोई मोबाइल कैमरा तो नहीं छिपा रखा है. बाहर की किसी आहट पर भी ध्यान दें कि कोई छिप कर तो नहीं देख रहा है.

अलविदा 2019: इस साल क्रिकेट की दुनिया में रहा इन महिला खिलाड़ियों का बोलबाला

भारतीय महिला क्रिकेट टीम के चर्तित युवा महिला क्रिकेटर जो किसी स्तर पर पुरुष क्रिकेटर से कम नहीं है, तो आइये 2019 के कुछ प्रसिद्ध क्रिकेटरों के बारे में जानते है .

* मिताली राज :- भारतीय कप्तान मिताली राज 200 वनडे इंटरनेशनल क्रिकेट मैच खेलने वाली पहली महिला क्रिकेटर बन गई, लेकिन इस धुरंधर खिलाड़ी के लिए 200 वनडे महज एक आंकड़ा है. मिताली ने जनवरी 1999 में इंग्लैंड के खिलाफ वनडे क्रिकेट में डेब्यू किया था. कप्तानी करने उतरी मिताली ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में अपना 20वां साल पूरा किया.

* स्मृति मंधाना :- स्मृति मंधाना को मिली आईसीसी महिला वनडे और टी20 टीम ऑफ द ईयर में बनाया है. वनडे क्रिकेट में स्मृति मंधाना का रिकॉर्ड काफी जबरदस्त है. उन्होंने 51 वनडे मुकाबलों में 43.08 की प्रभावी औसत से 2,025 रन बनाए हैं. इसमें उनके नाम चार शतक और 17 अर्धशतक उनके नाम है.

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All set for the home series against South Africa 😇 See you soon Surat!! 🤩

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*झूलन गोस्वामी :- यह वुमन टीम इंडिया की कपिल देव हैं . पिछले कई सालों से लगातार बेहतरीन गेंदबाजी करके कई रिकौर्ड अपने नाम किया है. 225 वनडे विकेट, 321 इंटरनेशनल विकेट का महान रिकौर्ड भी उन्हें नाम है. इस साल आईसीसी ने महिला वनडे और टी20 टीम ऑफ द ईयर में उन्हें भी स्थान दिया है.

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* पूनम यादव- भारतीय महिला क्रिकेट टीम की लेग स्पिनर पूनम यादव को इस वर्ष का अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया गया. वह इस वर्ष आईसीसी महिला वनडे और टी20 टीम ऑफ द ईयर स्थान बनाने में कमयाब हुई है.

* शिखा पांडे :- शिखा पांडे भारतीय महिला सीनियर क्रिकेटर में मशहूर नाम में एक है. . उन्होंने 9 मार्च 2014 को बांग्लादेश के खिलाफ खेलते हुए अपने अंतरराष्ट्रीय ट्वेंटी 20 की शुरुआत किया था . कई रिकॉर्ड इनके नाम है. शिखा पांडे ने इस महिला विश्व कप में अपनी गेंदबाजी से सभी का दिल जीत लिया था. इस वर्ष आईसीसी महिला वनडे और टी20 टीम औफ द ईयर की सूची में इनका भी नाम है.

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* दीप्ति शर्मा: भारतीय महिला क्रिकेट टीम की स्पिनर दीप्ति शर्मा ने इस एक अद्भुत रिकॉर्ड अपने अपने नाम किया है. चार ओवर के स्पैल में 8 रन देकर तीन विकेट चटकाए. इसके साथ ही वह एक टी-20 मैच में इतने मेडन डालने वाली पहली भारतीय हैं. इस साल आईसीसी महिला टी20 टीम की सूची में दीप्ति शर्मा इकलौती भारतीय महिला क्रिकेटर हैं.

 

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Feeling energetic after today’s training at NCA

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