नेपाल-भारत रिश्तों में दरार डालता चीन

नेपाल ने भारत के 3 इलाकों को अपने नक्शे में शामिल कर भारत के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है. नेपाली सरकार ने इस सिलसिले में एक विधेयक संसद में पेश किया था, जिस पर 18 जून, 2020 को नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने दस्तखत कर दिए.

इस बिल को नेपाल के मुख्य विरोधी दल नेपाली कांग्रेस ने भी समर्थन दिया है. नए नक्शे में नेपाल ने भारत के कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा इलाके को अपना दिखाया है. इन इलाकों के अलावा भारत के गुंजी, नाभी और कुटी गांव को भी नेपाली नक्शे में दिखाया गया है.

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नेपाल ने भारत के जिन इलाकों को अपने नक्शे में दिखाया है, वह तकरीबन 395 वर्गकिलोमीटर का इलाका है. नेपाली संविधान का यह दूसरा संशोधन है, जिस में राजनीतिक नक्शे और राष्ट्रीय प्रतीक को बदला गया है.

गौरतलब है कि जब भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने लिपुलेख से कैलाश मानसरोवर जाने वाली लिंक रोड का उद्घाटन किया था, तो नेपाल ने उस का विरोध किया था. उस के बाद ही 18 मई, 2020 को नेपाल ने नए नक्शे में भारत के इस हिस्से को अपने में दिखाने का बखेड़ा खड़ा कर दिया. भारत कालापानी को उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का हिस्सा मानता है, जबकि नेपाल उसे अपने धरचुला जिले का हिस्सा बताता है.

भारत का मानना है कि चीन के बहकावे में आ कर नेपाल ने अपने नक्शे में बदलाव किया है. गौरतलब है कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली वामपंथी हैं और भारत विरोधी सियासत और सोच के लिए जाने जाते हैं.

पिथौरागढ़ और नेपाल की सीमा पर तकरीबन 80 किलोमीटर की छोटी सड़क ने ही बड़ा बवाल मचा दिया है. यह सड़क लिपुलेख के कालापानी से होती हुई कैलाश मानसरोवर तक जाती है. इस कच्ची सड़क को भारत ने पक्का कर दिया और राजनाथ सिंह ने उद्घाटन किया तो नेपाल में सियासी हलचल मच गई.

वैसे, इस मसले को ले कर नेपाल में भी प्रदर्शन शुरू हो चुका है. नेपाल के सत्तारूढ़ दल के सहअध्यक्ष पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ भारत विरोधी प्रदर्शन को हवा दे रहे हैं. ‘प्रचंड’ ने दहाड़ लगाई कि भारत को सबक सिखाना जरूरी हो गया है. वहीं प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने नेपाल में कोरोना वायरस के फैलाव के लिए भी भारत को जिम्मेदार ठहराया है और चीन को क्लीनचिट दी है.

गौरतलब है कि साल 1981 में भारत और नेपाल के बीच सीमा तय करने के लिए एक जौइंट कमेटी बनाई गई थी. इस कमेटी ने 98 फीसदी सीमा तय कर ली थी, केवल सुस्ता और कालापानी का मसला लटका रह गया था.

जब भारत ने कैलाश मानसरोवर तक सड़क बनाई, तो नेपाल ने भारत से बातचीत कर मामले को सुल झाने के बजाय आननफानन नया नक्शा छाप कर भारत के कई हिस्से को अपना साबित करने की कोशिश की है.

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साल 1962 के भारत और चीन की लड़ाई के समय भी नेपाल ने इस सड़क पर अपना दावा ठोंका था, पर नेपाल को कामयाबी नहीं मिली और उस हिस्से पर भारत का कब्जा अब तक बरकरार रहा है.

साल 2015 में जब भारत और चीन ने लिपुलेख इलाके से व्यापार रास्ते का करार किया, तो उस समय भी नेपाल ने विरोध जताया था.

इसी बीच नेपाल की केपी शर्मा ओली की सरकार को उन की ही पार्टी के नेता ‘प्रचंड’ उखाड़ने में लगे हुए हैं. ‘प्रचंड’ खुद प्रधनमंत्री बनने की ताक में हैं और ओली की जड़ें खोद रहे हैं. इसी वजह से उन्होंने भारत विरोध के अपने पुराने हथकंडे को फिर से सुलगा दिया है और नेपाल की सियासत को कंटीले तारों में उल झा दिया है.

गहरी पैठ

मोबाइल रिपेयर शौप खुली रखने पर खड़े हुए झगड़े में तमिलनाडु के थूथुकुड़ी शहर के एक थाने में 2 जनों, बापबेटे दुकानदारों, की पुलिस थाने में बेहद पिटाई की गई. उन्हें लिटा कर उन के घुटनों पर लाठियां मारी गईं. उन के गुदा स्थल में डंडा डाल दिया गया. उन को घंटों पीटा गया और पुलिस वालों ने बारीबारी कर के पीटा. पुलिस को अपनी हरकतों पर इतना भरोसा था कि अगले दिन उन की झलक भर दिखा कर मजिस्ट्रेट से रिमांड ले कर फिर पीटा गया और उस दिन दोनों की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई.

पुलिस अत्याचार इस देश में तो क्या दुनियाभर में कहीं भी नई बात नहीं है. अमेरिका आजकल मिनियापोलिस नाम के शहर में 20 डौलर के विवाद में फंसे एक काले युवक की गोरे पुलिसमैन के घुटनों के नीचे गरदन दबाने से हुई मौत पर उबल रहा है. हमारे यहां भी पुलिस का वहशीपन वैसा ही है जैसा तानाशाही देशों में या पुलिस को ज्यादा भाव देने वाले देशों में होता है. पुलिस में भरती होने के बाद जो पहला पाठ पढ़ाया जाता है वह बेदर्दी से पीटने का है और उस में न बच्चों को छोड़ा जाता है, न बूढ़ों को और न औरतों को.

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हमारे यहां सोशल मीडिया में तमिलनाडु से बढ़ कर वहशीपन के साथ सड़कों पर हो रही पुलिस के हाथों पिटाई के वीडियो भरे हैं पर कहीं किसी पुलिस वाले के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया जाता. सरकार ही नहीं अदालतें भी पुलिस वालों से डरती हैं और उन्हें खुली छूट देती रहती हैं.

जो बरताव अमेरिका में गोरे पुलिस वाले कालों से करते हैं वैसा ही हमारे यहां ऊंची जातियों के पुलिस वाले निचली जातियों के साथ करते हैं. हर देश का कानून पुलिस के हाथ बांधता है पर लगभग हर देश में चलती है पुलिस की मनमानी ही. पुलिस गरीब या कमजोर को ही नहीं बुरी तरह मारतीपीटती है, वह अपने खिलाफ खड़े हुए किसी के साथ भी बहुत बुरी तरह पेश आ सकती है. थूथुकुड़ी शहर में बापबेटे ने पुलिस वालों पर कुछ कमैंट कस दिया था जिस का बदला लेने के लिए नाडर जाति के इन दुकानदारों को सही सबक सिखाने के लिए पुलिस ने उन की हड्डीपसली इस तरह तोड़ी कि उन की जान ही चली गई.

2019 में कम से कम 1,731 लोग तो पुलिस हिरासत में पिटाई की वजह से मौत के घाट उतारे गए थे. ज्यादा से ज्यादा पुलिस वालों को सस्पैंड किया जाता है या ट्रांसफर किया जाता है. आम जनता आमतौर पर हर देश में पुलिस के वहशीपन पर चुप रहती है कि यही पुलिस उस की सुरक्षा की गारंटी है और यही तरीका है किसी से अपराध उगलवाने का. वैसे भी आम जनता भी अपने झगड़े मारपीट से निबटाने की कला जानती है. बचपन में ही मांबाप पिटाई का सहारा लेने लगते हैं. गलियों में खेल के दौरान और स्कूलों में डीलडौल वालों को धमका कर मारपीट कर के अपनी चलाने की क्लासें लगा दी जाती हैं. घरों में मारपीट आम है, चाहे उस में पुलिस वाला वहशीपन न हो.

पुलिस के वहशीपन के खिलाफ आवाज बड़ी दबी हुई सी उठती है क्योंकि आम जनता और पुलिस के बीच खड़ी अदालतों का रुख पुलिस वालों के बारे में हमेशा नरम ही रहा?है. जमानत तक आमतौर पर आसानी से नहीं मिलती. समाज ने अपने बचाव के लिए पुलिस बनाई थी, पर असल में यह केवल सत्ता को बचाने और खुद को बनाए रखने का काम करती है. इस से छुटकारा मिलना नामुमकिन है.

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चीन के साथ अब चाहे पूरी तरह लड़ाई न हो, झड़पें जरूर होती रहेंगी. हमारी सेना को 24 घंटे मुस्तैदी से बर्फीले तूफानों वाली सीमा पर लगे रहना होगा, जहां पहुंचना भी मुश्किल है और एक रात काटना भी. यह देश के बहादुर जवानों की बदौलत है कि आज देश चीन के साथ आंख से आंख मिला रहा है और हालात कतई 1962 वाले नहीं हैं जब माओ त्से तुंग की भेजी फौजों ने बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया था.

तब से अब तक सरकारों ने लगातार चीन से अपनी सुरक्षा की तैयारी की है. ऊंचे पहाड़ों में सड़कें बनाई गई हैं, पुल बने हैं, सुरंगें बनी हैं, हवाई पट्टियां बनी हैं, बैरकें बनी हैं. दिल्ली में बैठे नेता चीन को मनाने में भी लगे रहे कि वह कभी कोई गलत हरकत न करे और लगातार बदलती राजनीति के बावजूद पिछले 2-3 साल से पहले कभी ज्यादा कुछ नहीं हुआ.

चीन का कहना है कि वह कश्मीर के कानूनी ढांचे में संविधान के अनुच्छेद 370 के बदलाव से चिंतित है. उस का यह भी कहना है कि भारतीय फौजों ने कोविड 19 की आड़ में कुछ ज्यादा करना चाहा, पर हकीकत है कि भारत अपनी ही जमीन पर था. हालांकि दूसरे बड़े दलों के साथ हुई एक बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत की जमीन पर कोई घुसपैठ नहीं हुई है, पर यह भी सही नहीं लगता. सैटेलाइट पिक्चरों से साफ है कि जो जमीन अब तक हम अपनी कहते रहे हैं वह शायद हमारे कब्जे में नहीं है. मामला इतना जरूर है कि अब यह ठंडा पड़ने वाला मसला नहीं है.

लड़ाई हमेशा महंगी होती?है. जानें भी जाती हैं, पैसा भी जाता है. हमारे 20 जवान अपनी जान खो चुके हैं, कितने ही घायल हैं. हमें तुरंत सारी दुनिया से फौजी सामान खरीदना पड़ रहा है. चीन से घरेलू सामान, जो सस्ता होता था, अब नहीं आ सकेगा. बहुत सी मशीनें नहीं आ पाएंगी. दवाओं की भारी कमी हो जाएगी.

अगर भारत और चीन के नेता समझदारी से काम लेते तो 260 करोड़ जनता इस बेकार के झगड़े से बच सकती थी. चीन की 130 करोड़ जनता का तो मालूम नहीं, पर हमारी 130 करोड़ जनता को देश की सरहद को बचाने के लिए कुरबानी को तैयार रहना होगा.

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जो 20 जवान अभी शहीद हुए हैं, वे बिहार रैजिमैंट के हैं और उन्होंने चाहे जान दी पर बहादुरी से मुकाबला करा. उम्मीद की जाए कि बिहार रैजिमैंट और देश की कुरबानियों को देश के नेता चुनावों के लिए या जनता का ध्यान भटकाने का जरीया नहीं बनाएंगे. पूरा देश आज सेना के साथ है पर देश के कुरसी पर बैठे नेता देश की सोच रहे हैं, यह भी पक्का होना चाहिए. जिस तरह से इन नेताओं ने बिहार और उत्तर प्रदेश के मजदूरों से लौकडाउन के दौरान बरताव किया है, उस से तो कुछ और ही नजर आता है. नेता राजधानियों में मौज करते रहे, अपनी कोठियों में दुबके रहे और मजदूर भूखेप्यासे दरदर भटकते रहे. यही हाल चीन से 2-2 हाथ में न हो.

गांव में बेबस मजदूर

लौकडाउन का 3 महीने से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी सरकार प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के अलावा रोजगार का कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखा पाई है. एक मनरेगा योजना कितने मजदूरों का सहारा बन पाती?

ऐसे में गरीब लोगों का गांव से शहर की ओर जाना मजबूरी बन कर रह गया है. जिस शहर से भूखे, नंगे, प्यासे और डरे हुए लोग भागे थे, अब वे उन्हीं शहरों की ओर टकटकी लगा कर देख रहे हैं. रोजगार के तमाम दावों के बाद भी गांव लोगों का सहारा नहीं बन पाए हैं.

शहरों से वापस लौटते प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक तसवीरें अभी भी भुलाए नहीं भूल रही हैं. गांव आए ये मजदूर वापस शहर जाने की सोच भी सकते हैं, यह उम्मीद किसी को नहीं थी.

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गांव की बेकारी से परेशान प्रवासी मजदूर वापस अब शहरों की तरफ जाने के रास्ते तलाशने लगे हैं. अपने दर्द को भूल कर इन के कदम शहरों की तरफ बढ़ चुके हैं.

मजदूरों को गांव में रोकने और वहीं पर रोजगार देने के वादे पूरी तरह से  झूठे साबित हो गए हैं. बेकारी के हालात का शिकार लोगों के मन से अब कोरोना का डर भी पहले के मुकाबले कम हो चुका है. ऐसे में वे वापस शहर की ओर लौटने लगे हैं.

जान जोखिम में डाल कर गांव से शहर की तरफ मजदूरों के वापस आने की सब से बड़ी वजह जाति और गरीबी है. गांव में गरीब एससी और बीसी तबके के पास न खेती के लिए जमीन है और न ही रहने के लिए घर.

शहरों में थोड़ी सी सुविधाओं के लिए ये मजदूर कोरोना संकट में भी गांव से शहरों की तरफ मुड़ रहे हैं. शहरों में कोरोना का संकट खत्म नहीं हुआ है. मजबूरी में मजदूरों को शहरों की संकरी गलियों में बने दमघोंटू मकानों में ही रहना पड़ेगा. अब फैक्टरियों की मनमानी सहन करते हुए काम करना पड़ेगा.

कोरोना से बचाव के उपाय के नाम पर ज्यादातर फैक्टरियों में केवल दिखावा हो रहा है. दवाओं के छिड़काव से ले कर मास्क और सैनेटाइजर का इस्तेमाल दिखावा भर रह गया है.

बहुत सारे उपायों के बाद जब अस्पतालों में काम करने वाले डाक्टर कोरोना का शिकार हो रहे हैं, तो फैक्टरियों में काम करने वाले मजदूर कैसे बच पाएंगे? अब अगर इन मजदूरों को कोरोना हो गया, तो इन की देखभाल करने वाला भी नहीं मिलेगा.

कोरोना संकट ने शहरों में कमाई करने गए लोगों को ‘प्रवासी मजदूर’ बन कर वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया था. सरकार ने इन को रोजगार दिलाने के लिए मनरेगा का सहारा लिया.

मनरेगा योजना के अलावा सरकार के पास रोजगार देने का कोई दूसरा उपाय नहीं है. मनरेगा के अलावा गांव में गरीबों के पास दूसरा काम नहीं है. गांव के लोग नोटबंदी से परेशान थे. गांव में जमीनों के सौदे बंद हो चुके हैं. खेतों में काम करने वालों को मजदूरी नहीं मिल रही है. ज्यादा तादाद में प्रवासी मजदूरों के गांव वापस आने से बेरोजगार लोगों की आबादी बढ़ गई.

बेरोजगारी के अलावा गांव में सुखसुविधाओं और आजादी की भी कमी है. शहरी जिंदगी के आदी हो चुके लोग गांव में वापस तो आ गए थे, पर यहां रहना उन के लिए आसान नहीं रह गया था.

इस से बेकारी के बो झ से कराह रहे गांव और भी दब गए. परिवार के साथ वापस गांव रहने आए लोगों में उन की पत्नी और बच्चों का गांव में तालमेल नहीं बैठ रहा था. कई ने तो पहली बार गांव में इतने ज्यादा दिन बिताए हैं.

पहले होलीदीवाली वगैरह की छुट्टियों में जब ये लोग गांव आते थे, तो घरपरिवार का बरताव कुछ और ही होता था, पर अब यह बदला सा नजर आ रहा है. जिस सरकारी सुविधा के लालच में गांव आए थे, उस की पोल भी यहां खुल चुकी है.

बेकारी के बो झ ने परिवार के बीच तनाव को बढ़ा दिया है. अब ये लोग कोरोना संकट के बावजूद वापस किसी भी तरह से शहर जाने के लिए मजबूर हो गए हैं. प्रवासी मजदूरों के रूप में समाज से इन को जिस तरह की हमदर्दी मिली थी, अब उस की भी कमी है.

लखनऊ के रामपुर गांव में दिनेश का संयुक्त परिवार रहता है. मुंबई से लौकडाउन में गांव आए तो यह सोचा कि अब मुंबई नहीं जाएंगे. यहीं गांव के पास बाजार में कोई दुकान खोल कर काम करेंगे. दिनेश के साथ उस का एक छोटा भाई और बेटा भी काम करता था. अब सब बेरोजगार हो चुके हैं.

इन लोगों की पत्नियां भी मुंबई में रहती थीं. गांव आ कर वे संयुक्त परिवार में रहने लगी हैं. यहां घर में चूल्हे पर खाना बनाना पड़ता है. वैसे, घर में एक गैस का चूल्हा भी है, जिस का इस्तेमाल सिर्फ चाय बनाने के लिए होता है.

मुंबई में ये लोग गैस पर खाना बनाते  थे. अब देशी चूल्हे पर खाना बनाने में औरतों को दिक्कत हो रही है. दिनेश पर पत्नी का दबाव बढ़ने लगा है. मुंबई में दिनेश की फैक्टरी काम शुरू करने वाली है. दिनेश बताते हैं, ‘‘हमें गांव में रोजगार की कोई उम्मीद नहीं है. ऐसे में परिवार में तनाव बढ़ाने से अच्छा है कि हम सब को ले कर मुंबई वापस चले जाएं.’’

बढ़ गई आपसी होड़

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में खेतापुर गांव के रहने वाले रमेश चौरसिया 30 साल पहले गुजरात के सूरत में कमाई करने गए थे. गांव में उन के पास जमीन नहीं थी. गांव में केवल कच्चा घर बना था. वहां न तो कोई कामधंधा था और न ही किसी तरह की इज्जत मिल रही थी.

सूरत में कुछ साल कमाई करने के बाद रमेश ने गांव में पक्की छत और घर बनवा लिया. उन का पूरा परिवार धीरेधीरे सूरत पहुंच कर रहने लगा. रमेश के मांबाप और पत्नी ही गांव में रहते थे. दोनों बेटे रमेश के साथ ही काम करने लगे थे.

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लौकडाउन के दौरान जब रमेश और उन के दोनों बेटे अपने गांव आए, तो यहां रोजगार का कोई साधन नहीं था. मनरेगा योजना में दोनों बेटों को केवल 5-5 दिन काम करने का मौका मिला, जिस से उन को 1-1 हजार रुपए मिले, जो उन की जरूरत के हिसाब से काफी कम थे.

रमेश कहते हैं कि शहर और गांव के रहनसहन में बहुत फर्क है. ऐसे में यहां रहना आसान नहीं है. जिस बेकारी को दूर करने के लिए 30 साल पहले गांव छोड़ कर गए थे, वह अब भी यहां बनी हुई है. इस के अलावा गांव में आपसी लड़ाई झगड़े शहरों के मुकाबले ज्यादा हैं. बाहर से आने वाले लोगों के प्रति गांव के लोगों में कोई हमदर्दी नहीं है.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि इन लोगों के बाहर रहने से गांव के दूसरे लोग इन की जमीन और खेत का इस्तेमाल करते थे, पर अब इन के वापस गांव आने के बाद जमीन और खेत को छोड़ना उन के लिए मुश्किल हो गया है. ऐसे में आपस में तनाव बढ़ गया है.

अपनेअपने गांव से रोजीरोजगार, इज्जत और पैसों की तलाश में जो लोग कमाई करने परदेश गए थे, वे कोरोना के संकट में वापस अपने गांवघर आने को मजबूर हो गए. कोरोना संकट के समय में ‘प्रवासी मजदूर’ का नाम इन की पहचान बन गया.

सरकार की तरफ  से ऐसे दावे किए गए कि प्रवासी मजदूरों को रोजगार के पूरे साधन दिए जाएंगे, पर प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने के नाम पर मनरेगा के अलावा सरकार के पास कोई दूसरा साधन नहीं था.

मनरेगा में एक दिन की मजदूरी के लिए 200 रुपए की दिहाड़ी मिलती है. सरकार ने कोरोना संकट के समय में मनरेगा के काम को बढ़ाने की कोशिश की. प्रवासी मजदूरों के रूप में नए लोगों के गांव आ जाने से मनरेगा में रोजगार घट गया.

गांव में काम के सीमित साधन हैं. जिस गांव में एक काम को 10 लोग करते थे, उसी काम को करने के लिए जब 15 लोग मिल गए तो एक मजदूर के खाते में आने वाले दिनों की तादाद घट गई, जिस से मजदूर के कुल रोजगार के दिनों की तादाद भी घट गई. गांव में पहले से रहने वाले लोगों ने मजदूरी के दिन घटने के लिए इन प्रवासी मजदूरों को जिम्मेदार माना.

मनरेगा की बढ़ी जिम्मेदारी

मनरेगा यानी ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ को साल 2005 में लागू किया गया था. इस के जरीए देश के गांवों में रहने वाले मजदूरों को रोजगार दिया जाता है. पहले इस का नाम ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ था. महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर, 2009 से इस को मनरेगा के नाम में बदल दिया गया.

इस योजना का मकसद वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के बालिग सदस्यों को 100 दिन का रोजगार मुहैया कराना था. मनरेगा से गांवों में तरक्की के रास्ते खुले थे और गांवों में लोगों की खरीदारी करने की ताकत बढ़ी थी.

इस योजना के तहत गांव में रहने वाली औरतों को भी रोजगार दिया जाता है. 2005 में मनरेगा को शुरू करने का काम कांग्रेस और वामपंथी दलों के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने किया था. फरवरी, 2006 में 200 जिलों से यह योजना शुरू की गई थी और साल 2008 तक यह योजना 593 जिलों में पहुंच गई.  मनमोहन सरकार के बाद साल 2014 में केंद्र में बनी मोदी सरकार ने मनरेगा को दरकिनार करने का काम किया था.

साल 2020 में जब कोरोना का संकट आया और पूरे देश में लौकडाउन किया गया. इस से शहरों से बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर अपनेअपने गांवों को लौटने के लिए मजबूर हुए.

उस समय सब से बड़ी समस्या गांवों में उन को रोजगार देने की आई. गांव में लोगों को रोजगार देने और ग्रामीणों को सहारा देने के लिए मोदी सरकार को उसी मनरेगा का सहारा लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिस की वह बुराई करती थी.

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मोदी सरकार ने मनरेगा के बजट में कटौती की थी. सरकार के समर्थक इस योजना को बेकारी बढ़ाने वाला मानते थे. मनरेगा का विरोध करने वाले मानते थे कि इस योजना से गांव में भ्रष्टाचार और बेकारी बढ़ रही है. इस की वजह पूरी तरह से राजनीतिक थी.

मनरेगा पर राजनीतिक लड़ाई

मनमोहन सरकार की मनरेगा योजना को मोदी सरकार ने कोई अहमियत नहीं दी. इस की वजह राजनीतिक थी. प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार की यह योजना जनता में लोकप्रिय हो गई थी और साल 2009 में भी जनता ने उन को वोट दे कर दोबारा सरकार बनाने की ताकत दे दी थी.

मनमोहन सरकार की जीत में मनरेगा का भी बड़ा हाथ माना जाता है. साल 2014 में केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार ने मनरेगा योजना को हाशिए पर ले जाने का काम किया. इस के बजट में कमी की गई और मनरेगा के होने पर  भी सवाल उठाने शुरू कर दिए. मनरेगा के अप्रभावी होने से भारत के ग्रामीण इलाकों में मंदी का दौर बढ़ने लगा.

बजट 2020-21 में मनरेगा के लिए 61,500 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया, जबकि 2019-20 में यह बजट 71,001.81 करोड़ रुपए था. महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का बजट तकरीबन 15 फीसदी तक घटा दिया है.

अर्थव्यवस्था की जो हालत है, उस के हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में आमदनी और मांग बढ़ाए जाने की जरूरत है, लेकिन सरकार ने ग्रामीण विकास मंत्रालय के कुल बजट आवंटन को भी कम कर दिया. बजट 2019-20 का संशोधित अनुमान 1,22,649 करोड़ रुपए था, जबकि बजट 2020-21 में इसे घटा कर 1,20,147.19 करोड़ रुपए कर दिया गया है.

जानकार मानते हैं कि मनरेगा का बजट बढ़ेगा, तो ग्रामीणों तक पैसा पहुंचेगा और उन की अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकता है. मनरेगा के बजट में हर साल 20 फीसदी हिस्सा पुराने रुके हुए भुगतान को करने में निकल जाता है. मनरेगा के बजट में कटौती करने के बाद केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में मामूली बढ़ोतरी की.

साल 2019-20 के बजट में पीएमजीएसवाई के लिए 19,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था. 2020-21 के लिए 19,500 करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान लगाया गया.

पंचायती राज संस्थानों के बजट में भी मामूली सी बढ़ोतरी की गई.

2019-20 में पंचायती राज संस्थानों के लिए 871 करोड़ रुपए का अनुमान लगाया गया था. अब नए बजट में इसे बढ़ा कर 900 करोड़ कर दिया गया है.

गांव में नहीं रोजगार

प्रवासी मजदूरों को गांव में केवल मनरेगा में काम दे कर नहीं रोका जा सकता. गांव में बरसात के मौसम में कामधंधे पूरी तरह से बंद हो जाएंगे. ऐसे में मनरेगा के तहत मिलने वाला काम और भी कम हो जाएगा, जिस से गांव में फैली बेकारी और भी ज्यादा बढ़ जाएगी.

अपने खेतों में काम कर रहे सतीश पाल बताते हैं कि शहरों में जो सुविधा मिलती है, वह गांवों में नहीं है. बिजली और सड़क के बाद भी यहां पर अच्छी तरह से जिंदगी नहीं बिताई जा सकती है. खेतों में काम करने के बाद भी मुनाफा नहीं होता है.

नीलगाय द्वारा और दूसरी तरह के तमाम नुकसान के बाद भी जब फसल अच्छी हो भी जाए, तो उस की सही कीमत नहीं मिलती है. अभी तो सूरत में हमारी फैक्टरी वाले हमें बुला रहे हैं. अगर किसी और ने हमारा काम करना शुरू कर दिया तो वापस काम भी नहीं मिलेगा. ऐसे में कोरोना से डर कर गांव में रहने से अच्छा है कि सूरत में रह कर कोरोना से मुकाबला करें.

प्रवासी मजदूरों को अब लगता है कि शहरों में रहना और काम करना आसान है, जबकि गांव में कोरोना के डर से छिप कर रहना मुश्किल है. उस से आसान है कि शहर जा कर कोरोना से मुकाबला करते हुए रोजगार करें.

दिनेश को इस बात का भी डर है कि अगर फैक्टरियों में काम शुरू होने के बाद मजदूर नहीं पहुंचे तो दूसरे लोगों को काम मिल जाएगा. ऐसे में उन का रोजगार चला जाएगा.

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बहुत सारी उम्मीदों के साथ शहरों से गांव लौटे मजदूर गांव की बेकारी से डर कर वापस शहरों में जाना चाह रहे हैं. ऐसे में साफ है कि प्रवासी मजदूरों को गांव में रोकने के लिए सरकार ने जो दावे किए थे, वे सब फेल होते दिख रहे हैं.

एससीबीसी के निकम्मे नेता

अव्वल तो वे अपनी पैदाइश से ही सब से पीछे रहते हैं, लेकिन लौकडाउन के 70 दिनों में देशभर के बीसीएससी (बैकवर्ड व शैड्यूल कास्ट) 70 साल पीछे पहुंच गए हैं, क्योंकि सब से ज्यादा रोजगार इन्हीं से छिना है और इसी तबके के लोगों ने लौकडाउन के दौरान सब से ज्यादा कहर और मुसीबतें झेली हैं.

भूखेप्यासे और गरमी से बेहाल बीसीएससी वाले, जिन्हें सरकारी और सामाजिक तौर पर गरीब कह कर अपनी जिम्मेदारियों से केंद्र और राज्य सरकारों ने पल्ला झाड़ लिया, वे मवेशियों से भी बदतर हालत में सैकड़ोंहजारों मील पैदल भागते रहे, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगनी थी, सो नहीं रेंगी.

जूं रेंगती भी क्यों और कैसे, क्योंकि इन के नेता तो अपने आलीशान एयरकंडीशंड घरों में बैठे काजूकिशमिश चबाते टैलीविजन पर दूसरों के साथ इस भागादौड़ी का तमाशा देख रहे थे. अपनों की हालत देख कर इन का भी दिल नहीं पसीजा तो गैरों को कोसने की कोई वजह समझ नहीं आती, जिन्होंने वही सुलूक किया जो सदियों से करते आए हैं. फर्क इतनाभर रहा कि इस बार उन के पास कोरोना नाम की छूत की बीमारी का बहाना था.

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इक्कादुक्का छोड़ कर देश के किसी बीसीएससी नेता के मुंह से अपने तबके के लोगों के लिए हमदर्दी और हिमायत के दो बोल भी नहीं फूटे.

जिन्हें प्रवासी मजदूर के खिताब से नवाज दिया गया है, उन में से 90 फीसदी बीसीएससी और मुसलमान हैं, ऊंची जाति वालों की तादाद तकरीबन 10 फीसदी है. लेकिन चूंकि केंद्र सरकार और मीडिया दोनों ने इन्हें गरीब कहना शुरू कर दिया था, इसलिए किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया और न जाने दिया गया कि दरअसल भाग रहे ये लोग वे बीसीएससी हैं जिन्हें धार्मिक किताबों में शूद्र और अछूत करार दिया गया है. इन पर खुलेआम जुल्मोसितम ढाने की बातें धर्म की किताबों में बारबार कही गई हैं और कई जगह तो इस तरह की गई हैं मानो इन पर जुल्म न करना दुनिया का सब से बड़ा पाप है.

लौकडाउन में जो जुल्म इन पर किए गए, वे रोजमर्रा के जुल्मों से कम नहीं थे, लेकिन चालाकी यह रही कि कोई खुल कर यह आरोप सीधे ऊंची जाति वालों पर नहीं लगा सका, क्योंकि उन्होंने इस बार न तो किसी बीसीएससी हिंदू को कुएं से पानी भरने से रोका था और न किसी दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार होने पर कूटा था, न ही किसी को मंदिर में दाखिल होने और धर्मकर्म के नाम पर पीटा था.

मुंह मोड़ा मायावती ने

सरकार ने किया कम ढिंढोरा ज्यादा पीटा, पर खुद बीसीएससी के नेता क्या कर रहे थे और बीसीएससी के साथ जो ज्यादातियां हुईं, उन पर खामोश क्यों रहे? इस सवाल का जवाब साफ है कि इन्हें वोट लेने और कुरसी हासिल करने के लिए ही अपने लोगों की सुध आती है. इस के बाद बीसीएससी को उन के हाल पर छोड़ दिया जाता है.

इस की सब से बड़ी मिसाल दलितों की सब से बड़ी नेता मानी जाने वाली बसपा प्रमुख मायावती हैं, जिन की भाजपा से बढ़ती नजदीकियां किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई हैं.

देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से सब से बड़ी तादाद में बीसीएससी तबका पेट पालने के लिए दूसरे राज्यों का रुख करता है, जो कभी बसपा का वोट बैंक हुआ करता था, लेकिन बाद में उस से धीरेधीरे कट कर वह दूसरी पार्टियों को वोट करने लगा. इन में भी भाजपा का नाम सब से ऊपर आता है.

यहां गौरतलब है कि बसपा के संस्थापक कांशीराम ने सवर्णों और उन के जुल्मों के खिलाफ ‘तिलक, तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार’ का नारा दिया था. इसी नारे के चलते बीसीएससी का भरोसा बसपा पर कायम हुआ था और वे नीले झंडे के तले इकट्ठा होने लगे थे.

मायावती इन को एकजुट नहीं रख पाईं. अपने मुख्यमंत्री रहते उन्होंने बीसीएससी के रोजगार या भले के लिए कुछ नहीं किया, इसलिए उत्तर प्रदेश से ये लोग रोजीरोटी की तलाश में बदस्तूर बाहरी राज्यों में जाते रहे.

इस ओर ऐसी कई बातों का फर्क यह पड़ा कि बसपा उत्तर प्रदेश में कमजोर पड़ती गई और जितनी कमजोर पड़ी उतनी ही भाजपा मजबूत होती गई. एक वक्त तो ऐसा भी आया कि मायावती ने भगवा गैंग के सामने घुटने टेक दिए और आज भी हालत यही है.

इस का एहसास जून के दूसरे हफ्ते में भी हुआ, जब जौनपुर और आजमगढ़ में बीसीएससी के लोगों पर हुए जोरजुल्म पर उन्होंने यह कहते हुए अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली कि सरकार फौरन कुसूरवारों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करे.

योगी सरकार ने कार्यवाही कर दी तो 12 जून को मायावती ने योगी और उन की सरकार की फुरती की भी तारीफ कर डाली. ऐसा लगा मानो आदित्यनाथ ने कोई एहसान पीडि़तों पर कर दिया हो और वे मायावती के कहने का ही इंतजार कर रहे थे.

लगता ऐसा भी है कि यह सब सियासी फिक्सिंग है, जिस में आदित्यनाथ और मायावती एकदूसरे की इमेज चमका रहे हैं. दरअसल, इस फिक्सिंग की तह में मायावती की अकूत दौलत है, जो उन्होंने बीसीएससी वोटों का सौदा कर के बनाई है. 18 जुलाई, 2019 को मायावती के मायावी चेहरे का एक घिनौना सच उस वक्त उजागर हुआ था, जब इनकम टैक्स विभाग ने उन के भाई आनंद कुमार का एक प्लाट जब्त किया था, जिस की कीमत 400 करोड़ थी. जब्ती की कार्यवाही बेनामी संपत्ति लेनदेन निषेध अधिनियम 1988 की धारा 24 (3) के तहत की गई थी, जिस में कुसूरवार को 7 साल की कैद की सजा व जायदाद की बाजारी कीमत के हिसाब से 25 फीसदी जुर्माने का इंतजाम है.

फिर जो सच सामने आया उस के मुताबिक नोएडा के इस बेशकीमती प्लाट के अलावा आनंद कुमार, उन की पत्नी यानी मायावती की भाभी विचित्रलेखा के पास तकरीबन 1,316 करोड़ रुपए की जायदाद है.

आनंद कुमार कभी नोएडा अथौरिटी में क्लर्क हुआ करता था, फिर वह रातोंरात खरबपति कैसे बन गया? इस सवाल का जवाब भी आईने की तरह साफ है कि 2007 से ले कर 2012 तक मायावती के मुख्यमंत्री रहते इन भाईबहन ने जम कर घोटाले और भ्रष्टाचार कर तबीयत से चांदी काटी.

आनंद कुमार ने अपनी पत्नी विचित्रलेखा के नाम से तकरीबन 49 फर्जी कंपनियां बना रखी थीं, जिन के जरीए वह चारसौबीसी कर जमीनें खरीदता था. नोएडा वाले प्लाट को, जो सैक्टर-94 में है, साल 2011 में महज 6 करोड़ रुपए में उस ने खरीदा था. इस के बाद एक बोगस कंपनी की तरफ से इस का 400 करोड़ रुपए का भुगतान शेयर प्रीमियम की बिना पर किया गया था.

जब इनकम टैक्स विभाग ने आनंद कुमार से इस बाबत पूछा तो उस ने कोई साफ जवाब नहीं दिया था कि यह पैसा आखिर किस का है, इसलिए इसे बेनामी जायदाद मान लिया गया था.

इस के पहले आनंद कुमार तब भी सुर्खियों में आया था, जब नोटबंदी के तुरंत बाद उस ने अपने बैंक खाते में नकद 1 करोड़, 43 लाख रुपए जमा किए थे.

यह और ऐसी कई जायदादें मायावती ने फर्जीवाड़ा करते हुए बनाईं लेकिन अब इन मामलों के कहीं अतेपते नहीं हैं, तो इस की वजह साफ है कि मायावती ने जेल जाने से बचने के लिए मोदीशाह और योगी की तिकड़ी से कांशीराम की मुहिम और बीसीएससी वोटों का सौदा कर डाला है.

विधानसभा और लोकसभा चुनाव के टिकटों की नीलामी के आरोप भी मायावती पर लगते रहे हैं. इस का खुलासा 1 अगस्त, 2019 को खुलेआम एक प्रोग्राम में राजस्थान के बसपा विधायक राजेंद्र गुढ़ा ने यह कहते हुए किया था कि बसपा में टिकट उस को ही दिया जाता है, जो ज्यादा पैसे देता है और अगर कोई उस से बड़ी रकम देने को तैयार हो जाए तो पहले वाले को दरकिनार करते हुए दूसरे को उम्मीदवार बना दिया जाता है.

टिकट बिक्री से मायावती ने कितनी माया एससी वोटरों के समर्थन को बेच कर बनाई, इस का और दूसरे घपलेघोटालों का जिक्र अब कोई नहीं करता क्योंकि फाइलें दबाए रखने के एवज में वे बिक चुकी हैं. कहा तो यह भी जाता है कि जितनी दौलत अकेली मायावती और उन के सगे वालों के पास है, उस का 10वां हिस्सा भी उत्तर प्रदेश क्या हिंदीभाषी राज्यों के तकरीबन

10 करोड़ एससी तबके की कुल जमीनजायदाद मिलाने के बाद भी नहीं है. दौलत की इस हवस का खमियाजा बेचारा बीसीएससी भुगत रहा है, जिस की लौकडाउन के दौरान बदहवासी सभी ने देखी.

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लौकडाउन का समय मायावती के लिए अपनी खोई साख और समर्थन दोबारा हासिल करने का अच्छा मौका था, लेकिन वे पूरे वक्त भाजपा के सुर में सुर मिलाती नजर आईं. जब कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मजदूरों के लिए एक हजार बसों का इंतजाम किया, तब भी मायावती मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ खड़ी थीं. इस पर झल्लाई कांग्रेस ने उन्हें भाजपा का प्रवक्ता तक कह दिया था.

सियासी पंडितों की यह राय माने रखती है कि सियासी वजूद बनाए और बचाए रखने के लिए मायावती अपना बचाखुचा वोट बैंक नहीं खोना चाहती हैं और उन्होंने एससी तबके की कई जातियों की जानबूझ कर इतनी अनदेखी कर दी कि वे भाजपा से जा मिले.

माहिरों की राय में यह भाजपा को सत्ता में बनाए रखने और अपनी दौलत बचाए रखने का एक सौदा है, जो बसपा के दरवाजे ब्राह्मणों के लिए खुलने के बाद से परवान चढ़ा.

अफसोस तो उस वक्त हुआ, जब मायावती लौकडाउन के वक्त में बीसीएससी के हक में न कुछ बोलीं और न ही कर पाईं. 14 अप्रैल को ‘अंबेडकर जयंती’ के दिन ही उन्होंने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों पर मजदूरों की अनदेखी का इलजाम लगाया और एक बात, जो सभी जानते हैं, कह दी कि आज भी जातिवादी सोच नहीं बदली है.

इस दिन भी उन का मकसद बीसीएससी के हक में दिखावे का ज्यादा था, नहीं तो वे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को कोसती नजर आईं कि उन्होंने एससी तबके को लालच दे कर उन के वोट तो ले लिए, लेकिन लौकडाउन में उन्हें भागने से नहीं रोका. यानी उन्हें तकलीफ एससी तबके द्वारा बसपा को दिल्ली में भी नकारे जाने की थी.

उन्होंने यह नहीं सोचा कि खुद इस तबके के लिए ऐसा क्या कारनामा कर दिखाया है, जिस के चलते वे लोग उन की आरती उतारते रहें और पैदल चलने वाले कांवडि़यों पर हैलीकौप्टर से फूलों की बरसात करवाने वाले योगी आदित्यनाथ ने दलित मजदूरों को उत्तर प्रदेश लाने के लिए कहां के हवाईजहाज उड़वा दिए थे, जो वे उन का बचाव करती रहीं, जबकि इस बाबत और जौनपुर व आजमगढ़ के मामलों पर तो उन्हें सब से ज्यादा हमलावर उन्हीं पर होना चाहिए था.

साफ दिख रहा है कि मायावती अब कहने भर की बीसीएससी नेता रह गई हैं, जिन्होंने लौकडाउन में उन के लिए न तो खुद कुछ किया और जो नेता थोड़ाबहुत कर रहे थे, उन्हें भी नहीं करने दिया.

गलतियां अखिलेश की

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव लौकडाउन के दूसरे दिन से ही भाजपा पर हमलावर रहे कि सरकार मजदूरों के लिए कुछ नहीं कर रही है, बेरोजगार नौजवान खुदकुशी कर रहे हैं, सरकार कोरोना पीडि़तों को 10-10 लाख रुपए दे और उत्तर प्रदेश योगी राज में लगातार बदहाल हो रहा है वगैरह.

अखिलेश यादव ने कुछ ऐसे मामलों का भी जिक्र किया, जिन में मजदूरों को अपने घर की औरतों के गहने तक बेचने पड़े थे. उन की सब से अहम घोषणा यह थी कि उत्तर प्रदेश में किसी भी मजदूर की मौत पर सपा एक लाख रुपए का मुआवजा देगी. 19 मई को की गई इस घोषणा के बाद 15 जून तक ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया था, जिस में सपा ने कोई मुआवजा किसी मजदूर को दिया हो. सपा कार्यकर्ताओं पर भी अपने मुखिया की इस अपील का कोई असर नहीं पड़ा कि वे गरीब मजदूरों की मदद करें.

विदेश में पढ़ेलिखे अखिलेश यादव को अपने पिता मुलायम सिंह की तरह जमीनी राजनीति का कोई खास तजरबा नहीं है कि जो मजदूर बाहर पेट पालने जाते हैं, उन में से तकरीबन 30 फीसदी उन पिछड़ी जातियों के होते हैं, जिन के दम पर यादव कुनबे की सियासत परवान चढ़ी थी.

अपनी जवानी के दिनों में मुलायम सिंह यादव बसपा संस्थापक कांशीराम की तरह साइकिल से गांवगांव घूम कर बीसीएससी वालों की सुध लेते हुए उन के दुखदर्द साझा करते थे, इसलिए उन्हें दोनों तबकों का सपोर्ट मिलता रहा था. लेकिन अखिलेश यादव अब सिर्फ पैसे वाले पिछड़ों की राजनीति कर मायावती की तरह ही भाजपा को फायदा पहुंचा रहे हैं. उन की रोज की बयानबाजी कोई रंग नहीं खिलाने वाली, क्योंकि कभी मजदूरों के तलवों के छालों पर मरहम लगाने या उन के कंधे पर हाथ रखने के लिए वे खुद नहीं गए.

सुस्ताते रहे आजाद

चंद्रशेखर आजाद रावण एससी राजनीति में तेजी से उभरता नाम है, जिस से इस समाज को काफी उम्मीदें हैं. इस में कोई शक नहीं है कि नौजवान चंद्रशेखर मायावती के लिए बड़ा सिरदर्द और चुनौती बन चुके हैं, इसलिए कांग्रेस उन पर डोरे भी डाल रही?है, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि ये उन गलतियों को नहीं दोहरा रहे हैं, जिन के चलते मायावती को एससी तबके ने दिलोदिमाग से उखाड़ फेंका है और एससी ने उन्हें हाथोंहाथ लेना शुरू कर दिया है. इस में भी कोई शक नहीं है कि चंद्रशेखर की ट्रेन अभी छूटी नहीं है, लेकिन लौकडाउन में एससी मजदूर जब कराह रहे थे, तब वे घर में बैठे सुस्ता रहे थे.

अपनी अलग आजाद समाज पार्टी बना चुके भीम आर्मी के इस मुखिया ने लौकडाउन के दिनों में दलितों के लिए कुछ करना तो दूर की बात है, उन से हमदर्दी जताते दो बोल भी नहीं बोले, जिस से एससी मजदूरों को यह लगता कि कोई तो उन के साथ है. कहने को तो भीम आर्मी एससी नौजवानों की फौज?है, जिस ने लौकडाउन में किसी भूखे को रोटी या प्यासे को पानी नहीं दिया, उलटे उस के रंगरूट 13 मई को बिहार के किशनगंज में अपने ही समुदाय के उन लोगों को मारते नजर आए, जो पूजापाठ करने जा रहे थे.

बिलाशक पूजापाठ कोरोना से भी ज्यादा घातक छूत की बीमारी है, जिस की गिरफ्त में एससी तबके को आने से बचना चाहिए, लेकिन मंदिरों में तोड़फोड़ करने से और शिवलिंग के बजाय भीमराव अंबेडकर के पूजनपाठ से एससी तबके का कोई भला होगा या उन में जागरूकता आएगी, इस से इत्तिफाक रखने की कोई वजह नहीं है.

होना तो यह चाहिए था कि एससी तबके की परेशानी के दिनों में चंद्रशेखर और उन की आर्मी दलितों की मदद करती नजर आती. नेतागीरी चमकाने के लिए जरूरी यह भी है कि चंद्रशेखर परेशान हाल एससी के भले के लिए कुछ करते बजाय किसी दलित सैनिक को शहीद का दर्जा दिलाने के लिए बवंडर मचाते. इस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला.

ये भी गरजे, पर…

भारतीय रिपब्लिकन पार्टी बहुजन महासंघ के अध्यक्ष प्रकाश अंबेडकर को पूरे फख्र से खुद को संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर का पोता कहलाने का हक है. पेशे से वकील प्रकाश अंबेडकर लौकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर खूब गरजे कि सरकार की गलती से हजारों लोगों की जानें गई हैं. लिहाजा, नरेंद्र मोदी पर धारा 302 के तहत हत्या का मामला दर्ज होना चािहए.

उन्होंने सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि उस ने विदेशों से अमीरों के साथसाथ कोरोना आने देने का गुनाह किया है. बकौल प्रकाश अंबेडकर, अगर मजदूरों को वक्त रहते घर भेज दिया जाता तो वे भुखमरी से बच जाते.

देखा जाए तो उन्होंने गलत कुछ नहीं कहा, लेकिन हकीकत में उन्होंने या उन की पार्टी ने भी मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया, दूसरे वे अब मार्क्सवादी किस्म की राजनीति करते हुए मजदूरों को दलित कहने से ही परहेज करने लगे हैं मानो उन के साथ धार्मिक भेदभाव और जाति की बिना पर जुल्म खत्म हो गए हों, जबकि हकीकत उन के ही 9 जून को दिए एक बयान ने उजागर कर दी.

इस दिन प्रकाश अंबेडकर ने नागपुर की तहसील नरखेड़ के गांव पिम्पलधारा के एक एससी कार्यकर्ता अरविंद बसोड़ की संदिग्ध मौत की सीबीआई जांच की मांग की. यह मांग भी उन्होंने ट्वीट के जरीए की, वे खुद पिम्पलधारा की हकीकत जानने और विरोध दर्ज कराने नागपुर तक नहीं आए. बीसीएससी के लोगों का इस डिजिटल हमदर्दी से कोई भला होगा, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं.

अस्त होते उदित राज

आजकल कांग्रेसी प्रवक्ता बन गए उदित राज एससी तबके के पढ़ेलिखे और सब से बुद्धिमान नेता माने जाते हैं, जिन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने खेमे में मिला लिया था. 2019 में उन्हें भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो वे कांग्रेस में शामिल हो गए.

भाजपा छोड़ते वक्त उन्होंने उसे एससी विरोधी करार देते हुए पानी पीपी कर कोसा था, लेकिन अप्रैलमई के महीने में जब घर भागते एससी भूखप्यास से बेहाल थे, तब उदित राज भी खामोश थे और जो वे बोल रहे थे उस के कोई माने नहीं थे. मसलन यह कि अयोध्या, जहां आलीशान राम मंदिर बन रहा है, वह बौद्ध स्थल था. मायावती की तरह यह जरूर उन्होंने कहा कि लौकडाउन का सब से बुरा असर एससी पर पड़ रहा है और घर लौटने के बाद मजदूर जमींदारों और साहूकारों की गुलामी ढोने के लिए मजबूर हो जाएंगे.

अब तक एससी कोई शाही जिंदगी नहीं जी रहे थे और न ही उदित राज ने उन्हें गुलामी के इस दलदल से बाहर निकालने के लिए कुछ किया, उलटे जब भी मौका मिला अपने एससी होने का फायदा कुरसी के लिए उठाया.

उदित राज जैसे नेताओं को सोचना यह चाहिए कि ब्राह्मणों ने बुद्ध को दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया था और जब वश नहीं चला तो उन्हें अवतार कह कर पूजना शुरू कर दिया था. उस के बाद से पूरा एससी समाज ठोकरें खा रहा है और उस के नेता बौद्ध मंदिरों की बात कर रहे हैं, जिस के अपने अलग पंडेपुजारी होने लगे हैं.

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ऐसी तमाम हकीकत से मुंह मोड़े रहने वाले उदित राज की बीसीएससी के लोगों के लिए खुद कुछ न कर पाने की खीज 12 जून को खुल कर सामने आई, जब उन्होंने फिल्म कलाकार सोनू सूद के किए गए काम पर सवाल उठाते हुए सीबीआई जांच की मांग कर डाली. बकौल उदित राज, सोनू सूद के पीछे कोई और है.

सोनू सूद ने तो सवर्ण होते हुए भी मजदूरों के लिए काफीकुछ कर डाला, लेकिन क्या उदित राज एक मजदूर को भी घर पहुंचा सके? इस सवाल का जवाब वे शायद ही दे पाएं, फिर किस मुंह से वे किसी और के किए को चैलेंज कर रहे हैं?

रामदास आठवले बने भोंपू

महाराष्ट्र के दलित नेता और रिपब्लकिन पार्टी के मुखिया रामदास आठवले इन दिनों भाजपा के भोंपू बने हुए हैं, क्योंकि वह उन्हें केंद्र में मंत्री बनाए हुए है. बजाय यह मानने और कहने के कि न केवल लौकडाउन, बल्कि उस से पहले से भी एससी बदहाल रहे हैं, उन्होंने सरकार की तारीफों में कसीदे गढ़ते हुए झूठ बोलने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पछाड़ दिया.

बकौल रामदास आठवले, बीसीएससी के लिए मोदी सरकार ने बहुत काम किए हैं. बात खोखली न लगे इसलिए उन्होंने मुद्रा योजना, जनधन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना और उज्ज्वला योजनाओं के नाम गिना दिए.

अगर गरीबों को इन योजनाओं से कुछ मिला होता या मिल रहा होता तो वे रोजीरोटी के जुगाड़ के लिए इधरउधर भागते ही क्यों? इस सवाल का जवाब रामदास आठवले तो क्या एससी तबके का रहनुमा बना कोई नेता नहीं दे सकता.

भोंपू नंबर 2

रामदास आठवले के बाद लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान दूसरे कद्दावर एससी नेता हैं, जिन्हें भाजपा अपनी गोद में बैठाए हुए है. लौकडाउन के दौरान वे भी घर में पड़ेपड़े बहैसियत खाद्य मंत्री बयानबाजी करते रहे कि 8 करोड़ मजदूरों को 2 महीने तक मुफ्त राशन देने में कोई परेशानी नहीं आएगी.

जाहिर है, अप्रैल और मई के महीने में प्रवासी मजदूरों की भूख रामविलास पासवान को भी नजर नहीं आई, इस के पहले कभी आई थी ऐसा कहने की भी कोई वजह नहीं है. निजी तौर पर उन्होंने या उन की पार्टी ने एससी के लिए कुछ नहीं किया, यह जरूर हर किसी को नजर आया.

जिन एससी वोटों की सीढ़ी चढ़ कर रामविलास पासवान सत्ता की छत तक बेटे चिराग पासवान के साथ पहुंचे हैं, उन वोटों की सौदेबाजी उन्होंने बिहार चुनाव सिर पर देख कर फिर शुरू कर दी है. अफसोस वाली बात यह है कि अपनी तरफ से एक दाना भी उन्होंने किसी एससी को नहीं दिया.

भाजपा को मायावती की तरह मजबूती देने वाले रामविलास पासवान 12 जून को आरक्षण के एक मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर भी एक बेतुकी बात यह कह बैठे कि आरक्षण को ले कर अब सभी बीसीएससी दलों को साथ आ जाना चाहिए.

गौरतलब है कि अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को मौलिक अधिकार मानने से इनकार कर दिया है, जिस से आरक्षित तबकों के मन में बैठा यह शक यकीन में बदलता जा रहा है कि भाजपा आरक्षण को खत्म करना चाह रही है.

रामविलास पासवान को कहना तो यह चाहिए था कि सभी बीसीएससी वाले एकजुट हो जाएं और सोचना यह चाहिए था कि अगर बीसीएससी की हिमायती पार्टियां एक होतीं तो इतनी सारी पार्टियां होती ही क्यों?

नहीं दिखे कन्हैया कुमार

पिछड़े तबके के हमदर्द माने जाने वाले नेता कन्हैया कुमार को बेहतर मालूम होगा कि प्रवासी मजदूरों में खासी तादाद छोटी जाति वाले पिछड़ों की भी रहती है. अतिपिछड़ों और एससी की हालत और हैसियत में कोई खास फर्क नहीं होता है. लौकडाउन में जब इस तबके के लोग भी भाग रहे थे, तब कन्हैया कुमार मीडिया वालों को इंटरव्यू देते हुए जबान बघार रहे थे कि जो हो रहा है, गलत है. सोशल मीडिया के जरीए उन्होंने मजदूरों की बदहाली पर चिंता जताई, लेकिन खुद मैदान में जा कर कुछ नहीं किया.

क्यों नहीं किया? इस सवाल का जवाब कतई हैरान नहीं करता, बल्कि एक हकीकत बयां करता है कि बीसीएससी तबका क्यों सदियों से लौकडाउन सरीखी जिंदगी जी रहा है और उस के नेता दौलत और शोहरत मिलते ही अपने ही लोगों के साथ ऊंची जाति वालों जैसा बरताव करने लगते हैं.

इन की हरमुमकिन कोशिश यह रहती है कि बीसीएससी तबका अगर वाकई जागरूक और गैरतमंद हो गया तो इन को अपनी दुकानों के शटर गिराने पड़ जाएंगे, इसलिए बातें बढ़चढ़ कर करो, लेकिन हकीकत में कुछ मत करो, क्योंकि धर्म और उस के ठेकेदारों ने यही इंतजाम कर रखे हैं.

यहां बताए बड़े नेता ही नहीं, बल्कि और भी छोटेबड़े नेता हैं, जो चाहते तो अपनों की मदद कर सकते थे, खासतौर से वे जिन के हाथ में सत्ता थी. इन में एक अहम नाम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का है.

लेकिन वे 84 दिनों तक अपने ही घर में बंद रहते हुए चुनावी जोड़तोड़ और तैयारियों में जुटे रहे. जिन तबकों के वोटों से बिहार में सरकार बनती है, उन के लिए उन्होंने घर से बाहर पैर रखना भी मुनासिब नहीं समझा.

इस पर जब राजद नेता तेजस्वी यादव ने तंज कसा तो जवाब में उन्होंने सफाई दी कि लौकडाउन में सभी को घर रहने की हिदायत थी. यह जवाब उन लाखों मजदूरों के भागने पर उन्हें जाने क्यों नहीं सूझा.

लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष और अपने जमाने के धाकड़ नेता रहे जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, भाजपा सांसद संजय पासवान सहित छेदी पासवान और भोला पासवान ने भी अपने तबके के लोगों की कोई मदद नहीं की.

यही हाल कांग्रेसी खेमे के नामी एससी नेताओं मुकुल वासनिक, पीएल पुनिया, कुमारी शैलजा, मल्लिकार्जुन खडगे और भालचंद्र मुंगेकर का रहा.

भाजपा के दिग्गज एससी नेता थावर चंद्र गहलोत, नरेंद्र जाधव, अर्जनराम मेघवाल और जितेंद्र सोनकर जैसे दर्जनों नेता खुद इतनी हैसियत और कूवत रखते हैं कि अगर एससी के लिए कुछ ठान लेते तो फिल्म हीरो सोनू सूद के हिस्से की वाहवाही लूट सकते थे, लेकिन इन में न तो जज्बा था और न ही जज्बात थे, इसलिए ये इतमीनान से गरीबों के भागते कारवां का गुबार देखते रहे.

तेजी से नाम कमाने वाले पिछड़े तबके के युवा नेता जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल भी मुंह चलाते नजर आए. इन्होंने भी अपने पैरों को तकलीफ  नहीं दी.

यह कहता है धर्म

लौकडाउन के दौरान बीसीएससी की जो बेबसी, बदहाली और उन के ही नेताओं की बेरुखी उजागर हुई, उस का कनैक्शन धार्मिक किताबों में लिखी गई बातों से भी?है जिन के हिसाब से समाज आज भी चलता है.

इन में से कुछेक पर नजर डालें तो बहुत सी बातें साफ हो जाती हैं. ‘मनुस्मृति’ वह धार्मिक किताब है, जिस के मुताबिक हिंदू समाज जीता है और जिस के चलते भगवा गैंग पर यह इलजाम लगता रहता है कि वह मनुवाद थोपना चाहती है और इस के लिए संविधान मिटाने पर भी आमादा है.

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इस में लिखी इन कुछ बातों पर नजर डालें तो तसवीर कुछ यों बनती है :

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।

शुश्रुषैव तु शुद्रस्य धर्मों नैश्रेयस: पर:।।  (अध्याय 9, श्लोक 333)

यानी शूद्र का धर्म ही वेद के जानने वाले विद्वान, यशस्वी एवं गृहस्थ ब्राह्मणों की सेवा करना है.

शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्योधनसञ्चय:।

शूद्रो हि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव बाधते।। (अध्याय 10, श्लोक 126)

यानी समर्थ होने पर भी शूद्र को धन संचय में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि धनवान हो जाने पर शूद्र ब्राह्मण को कष्ट पहुंचाने लगता है, जिस से उस का और अध:पतन होता है.

उच्छिष्टमन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च।

पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदा:।। (अध्याय 10, श्लोक 122)

यानी शूद्र सेवक को खानेपीने से बचा अन्न, पुराने वस्त्र, बिछाने के  लिए धान का पुआल और पुराने बरतन देने चाहिए.

विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते।

यदतोऽन्यद्धि कुरुते तद्भवत्यस्य निष्फलम्।। (अध्याय 10, श्लोक 120)

यानी ब्राह्मणों की सेवा करना शूद्र के सभी कर्मानुष्ठानों से अतिविशिष्ट कार्य है. इस के अतिरिक्त शूद्र जोकुछ भी करता है, वह सब निष्फल होता है.

ऐसी कई हिदायतों से धार्मिक किताबें भरी पड़ी हैं, जिन में ऊपर लिखी बातों का तरहतरह से दोहराव भर है कि शूद्र ऊंची जाति वालों खासतौर से ब्राह्मणों की सेवा करने के लिए ही ब्रह्मा के पैर से पैदा हुआ है. उसे पैसा इकट्ठा करने का हक नहीं है. उसे सजधज कर रहने यानी साफसुथरे रहने का भी हक नहीं है और न ही खुश होने का हक है. हिदायतें तो ये भी हैं कि जो शूद्र इन बातों को मानने से इनकार करे, वह सजा का हकदार होता है.

अपनी बदहाली दूर न कर पाने वाले बीसीएससी तबके को यह लगने लगा है कि भगवान का पूजापाठ करो, इस से सारे पाप धुल जाएंगे तो उन्होंने अपने मंदिर बना कर धर्मकर्म करना शुरू कर दिया. काली, भैरों और शनि के छोटे मंदिर दलित बस्तियों में इफरात से बन गए हैं लेकिन दलितों की हालत ज्यों की त्यों है, उलटे उन्हें भी मंदिर में पूजापाठ करने और दानदक्षिणा की लत लग गई है, जिस से वे और गरीब हो रहे हैं.

सवर्णों की मोहताजी

ज्यादतियों और भेदभाव वाली इन्हीं धार्मिक किताबों का विरोध करते कुछ पढ़ेलिखे दलित अपने तबके के नेता तो बन जाते हैं, लेकिन जब उन्हें दौलत और शोहरत मिलने लगती हैं, तो वे उन्हें बनाए रखने के लिए कहने भर को विरोध करते हैं.

ऊंची जाति वाले भी इन्हें गले लगाने लगते हैं, जिस से बड़ी तादाद में बीसीएससी वाले धर्म की हकीकत न समझने लगें. इस से उन्हें लगता है कि वे वाकई छोटी जाति में पैदा होने की सजा भुगत रहे हैं, क्योंकि वे पैदाइशी पापी हैं और जब तक ये पाप धुल नहीं जाएंगे, तब तक उन की हालत नहीं सुधर सकती.

इतना सोचते ही वे अपनी बदहाली को किस्मत मानते हुए तरक्की के लिए हाथपैर मारना बंद कर देते हैं. यही ऊंची जाति वाले चाहते हैं कि बीसीएससी का कभी अपनेआप पर भरोसा न बढ़े, नहीं तो वे गुलामी ढोने से मना करने लगेंगे, इसीलिए उन्हें तरहतरह से बारबार यह एहसास कराया जाता है कि तुम तो दलित हो, तुम्हारे बस का कुछ नहीं. और जब इस साजिश में गाहेबगाहे बीसीएससी नेता भी शामिल हो जाते हैं, तो उन का काम और भी आसान हो जाता है.

गांवदेहात में ऊंची जाति वाले दबंगों के कहर से तो इन्हें शहर जा कर छुटकारा मिल जाता है, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं कि जिस की नौकरी वे कर रहे हैं, वह दरअसल में कोई ऊंची जाति वाला ही है. फर्क इतना भर आया है कि खेतों की जगह कारखानों और फैक्टरियों ने ले ली है और जो इन का मालिक है, उस ने धोतीकुरता और जनेऊ की जगह सूटबूट और टाई जैसे शहरी कपड़े पहन लिए हैं.

लौकडाउन में यह बात गौर करने लायक थी कि भाग रहे बीसीएससी को जो थोड़ाबहुत खाना और दूसरी इमदाद मिली, वह सवर्णों ने ही दी थी. इन में से मुमकिन है कि कुछ की मंशा पाकसाफ रही हो, पर हकीकत में इस से मैसेज यही गया कि यह तबका अभी इतना ताकतवर नहीं हो पाया है कि अपने ही तबके के लोगों की मुसीबत के वक्त में मदद कर सके.

दलित नेताओं की पोल तो लौकडाउन में खुली ही, लेकिन खुद बीसीएससी की बेचारगी भी किसी से छिपी नहीं रह सकी.

गहरी पैठ

देशभर से करोड़ों मजदूर जो दूसरे शहरों में काम कर रहे थे कोरोना की वजह से पैदल, बसों, ट्रकों, ट्रैक्टरों, साइकिलों, ट्रेनों में सैकड़ों से हजारों किलोमीटर चल कर अपने घर पहुंचे हैं. इन में ज्यादातर बीसीएससी हैं जो इस समाज में धर्म की वजह से हमेशा दुत्कारेफटकारे जाते रहे हैं. इस देश की ऊंची जातियां इन्हीं के बल पर चलती हैं. इस का नमूना इन के लौटने के तुरंत बाद दिखने लगा, जब कुछ लोग बसों को भेज कर इन्हें वापस बुलाने लगे और लौटने पर हार से स्वागत करते दिखे.

देश का बीसीएससी समाज जाति व्यवस्था का शिकार रहा है. बारबार उन्हें समझाया गया है कि वे पिछले जन्मों के पापों की वजह से नीची जाति में पैदा हुए हैं और अगर ऊंचों की सेवा करेंगे तो उन्हें अगले जन्म में फल मिलेगा. ऊंची जातियां जो धर्म के पाखंड को मानने का नाटक करती हैं उस का मतलब सिर्फ यह समझाना होता है कि देखो हम तो ऊंचे जन्म में पैदा हो कर भगवान का पूजापाठ कर सकते हैं और इसीलिए सुख पा रहे हैं.

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अब कोरोना ने बताया है कि यह सेवा भी न भगवान की दी हुई है, न जाति का सुख. यह तो धार्मिक चालबाजी है. ऐसा ही यूएन व अमेरिका के गोरों ने किया था. उन्होंने बाइबिल का सहारा ले कर गुलामों को मन से गोरों का हुक्म मानने को तैयार कर लिया था. जैसे हमारे बीसीएससी अपने गांव तक नहीं छोड़ सकते थे वैसे ही काले भी यूरोप, अमेरिका में बिना मालिक के अकेले नहीं घूम सकते थे. अगर अमेरिका में कालों पर और भारत में बीसीएससी पर आज भी जुल्म ढाए जाते हैं तो इस तरह के बिना लिखे कानूनों की वजह से. हमारे देश की पुलिस इन के साथ उसी वहशीपन के साथ बरताव करती है जैसी अमेरिका की गोरी पुलिस कालों के साथ करती है.

कोरोना ने मौका दिया है कि ऊंची जातियों को अपने काम खुद करने का पूरा एहसास हो. आज बहुत से वे काम जो पहले बीसीएससी ही करते थे, ऊंची जातियां कर रही हैं. अगर बीसीएससी अपने काम का सही मुआवजा और समाज में सही इज्जत और बराबरी चाहते हैं तो उन्हें कोरोना के मौके को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए.

कोरोना की वजह से आज करोड़ों थोड़ा पढ़ेलिखे, थोड़ा हुनर वाले लोग, थोड़ी शहरी समझ वाले बीसीएससी लोग गांवों में पहुंच गए हैं. ये चाहें तो गांवों में सदियों से चल रहे भेदभाव के बरताव को खत्म कर सकते हैं. इस के लिए किसी जुलूस, नारों की जरूरत नहीं. इस के लिए बस जो सही है वही मांगने की जरूरत है. इस के लिए उन्हें उतना ही समझदार होना होगा जितना वे तब होते हैं जब बाजार में कुछ सामान खरीदते या बेचते हैं. उन्हें बस यह तय करना होगा कि वे हांके न जाएं, न ऊंची जातियों के नाम पर, न धर्म के नाम पर, न पूजापाठ के नाम पर, न ‘हम एक हैं’ के नारों के नाम पर.

आज कोई भी देश तभी असल में आगे बढ़ सकता है जब सब को अपने हक मिलें. सरकार ने अपनी मंशा दिखा दी है. यह सरकार खासतौर पर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार व केंद्र की सरकार इन मजदूरों को गाय से भी कम समझती हैं. इतनी गाएं अगर इधर से उधर जातीं तो ये सरकारें रास्ते में खाना खिलातीं, पानी देतीं. मजदूरों को तो इन्होंने टिड्डी दल समझा जिन पर डंडे बरसाए जा सकते हैं. विषैला कैमिकल डाला जा सकता है.

जैसे देश के मुसलमानों को कई बार भगवा अंधभक्त पाकिस्तानी, बंगलादेशी कह कर भलाबुरा कहते हैं, डर है कि कल को नेपाली से दिखने वालों को भी भक्त गालियां बकने लगें. हमारे भक्तों को गालियां कहना पहले ही दिन से सिखा दिया जाता है. कोई लंगड़ा है, कोई चिकना है, कोई लूला है, कोई काला है, कोई भूरा है. हमारे अंधभक्तों की बोली जो अब तक गलियों और चौराहों तक ही रहती थी, अब सोशल मीडिया की वजह से मोबाइलों के जरीए घरघर पहुंचने लगी है.

सदियों से नेपाल के लोग भारतीय समाज का हिस्सा रहे हैं. उस का अलग राजा होते हुए भी नेपाल एक तरह से भारत का हिस्सा था, बस शासन दूसरे के हाथ में था जिस पर दिल्ली का लंबाचौड़ा कंट्रोल न था. अभी हाल तक भारतीय नागरिक नेपाल ऐसे ही घूमनेफिरने जा सकते थे. आतंकवाद की वजह से कुछ रोकटोक हुई थी.

अब नरेंद्र मोदी सरकार जो हरेक को नाराज करने में महारत हासिल कर चुकी है, नेपाल से भी झगड़ने लगी है. नेपाल ने बदले में भारत के कुछ इलाके को नेपाली बता कर एक नक्शा जारी कर दिया है. इन में कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा शामिल हैं जो हमारे उत्तराखंड में हैं.

नेपाल चीन की शह पर कर रहा है, यह साफ दिखता है, पर यह तो हमारी सरकार का काम था, न कि वह नेपाल की सरकार को मना कर रखती. नेपाल की कम्यूनिस्ट पार्टी हमारी भारतीय जनता पार्टी की तरह अपनी संसद का इस्तेमाल दूसरे देशों को नीचा दिखाने के लिए कर रही है.

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दिल्ली और काठमांडू लड़तेभिड़ते रहें, फर्क नहीं पड़ता, पर डर यह है कि सरकार की जान तो उस की भक्त मंडली में है जो न जाने किस दिन नेपाली बोलने वालों या उस जैसे दिखने वालों के खिलाफ मोरचा खोल ले. ये कभी पाकिस्तान के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ बातें करते रहते हैं, कभी उत्तरपूर्व के लोगों को चिंकी कह कर चिढ़ाते हैं, कभी कश्मीरियों को अपनी जायदाद बताने लगते हैं, कभी पत्रकारों के पीछे अपने कपड़े उतार कर पड़ जाते हैं. ये नेपाली लोगों को बैरी मान लें तो बड़ी बात नहीं.

आज देश में बदले का राज चल रहा है. बदला लेने के लिए सरकार भी तैयार है, आम भक्त भी और बदला गुनाहगार से लिया जाए, यह जरूरी नहीं. कश्मीरी आतंकवादी जम्मू में बम फोड़ेंगे तो भक्त दिल्ली में कश्मीरी की दुकान जला सकते हैं. चीन की बीजिंग सरकार लद्दाख में घुसेगी तो चीन की फैक्टरी में बने सामान को बेचने वाली दुकान पर हमला कर सकते हैं.

इन पर न मुकदमे चलते हैं, न ये गिरफ्तार होते हैं. उलटे इन भक्त शैतानी वीरों को पुलिस वाले बचाव के लिए दे दिए जाते हैं. कल यही सब एक और तरह के लोगों के साथ होने लगे तो मुंह न खोलें कि यह क्या हो रहा है!

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गहरी पैठ

अपने घर को अपनों ने गिराया है. इस देश की आज जो हालत कोरोना की वजह से हो रही है उस के लिए हमारी सरकार ही नहीं, वे लोग भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने धर्म और जाति को देश की पहली जरूरत समझा और फैसले उसी पर लेने के लिए उकसाया. आज अगर कोरोना के कारण पूरे देश में बेकारी फैल रही है तो इस की जड़ों में ?वे फैसले हैं जो सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी के लिए ही नहीं, बहुत तरीके से छोटेछोटे फैसले भी लिए जिन में धर्म के हुक्म सब से ऊपर थे.

लोगों ने 2014 में अगर सत्ता पलटी तो यह सोच कर कि जो हिंदू की बात करेगा वही राज करेगा तो ही देश सोने की चिडि़या बनेगा. यह देश सोने की चिडि़या केवल तब था जब देश पर कट्टरपंथी हिंदू राज ही नहीं कर रहे थे. 1947 से पहले देश में अंगरेजों का राज था. उस से पहले मुगलों का था. उस से पहले शकों, हूणों, बौद्धों का राज था. हां, घरों पर राज हिंदू सोचसमझ का था और वही देश को आगे बढ़ने से रोकता रहा. 2014 में सोचा गया था कि हिंदू राज मनमाफिक होगा, पर इस ने न केवल सारे मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर दिया, दलित, पिछड़े, औरतें चाहे सवर्णों की क्यों न हों, कमजोर कर दिए गए.

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कोरोना ने तो न सिर्फ जख्मों पर लात मारी है, उन को इस तरह खोल दिया है कि आज सारा देश लहूलुहान है. करीब 6 करोड़ मजदूर शहरों से गांवों की ओर जाने लगे हैं. जो लोग 24 मार्च, 2020 को चल दिए थे उन की छठी इंद्री पहले जग गई थी. उन्होंने देख लिया था कि जिस हिंदू कहर से बचने के लिए वे गांवों से भागे थे वह शहरों में पहुंच गया है. महाराष्ट्र में जो मराठी मानुष का नाम ले कर शिव सेना बिहारियों को बाहर खदेड़ना चाहती थी, वह मराठी लोगों के ऊंचे होने के जिद की वजह से था.

आजादी से पहले भी, पर आजादी के बाद, ज्यादा ऊंची जातियों ने शहरों में डेरे जमाने शुरू किए और अपनी बस्तियां अलग बनानी शुरू कीं. गांवों से तब तक दलितों को निकलने ही नहीं दिया था. काफी राजाओं ने तो दलितों पर इस तरह के टैक्स लगा रखे थे कि एक भी जना भाग जाए तो बाकी सब पर जुर्माना लग जाता था. अब ये लोग गांवों से आजादी पाने के लिए शहरों में आए तो शहरों में मौजूद ऊंची जातियों के लोगों ने इन्हें न रहने की जगह दी, न पानी, न पखाने का इंतजाम किया. ये लोग नालों के पास रहे, पहाडि़यों में रहे, बंजर जमीन पर रहे.

1947 से 2014 तक राजनीति में इन की धमक थी क्योंकि ये पार्टियों के वोट बैंक थे. फिर धार्मिक सोच वालों ने मीडिया, सोशल मीडिया, अखबारों, पुलिस पर कब्जा कर लिया. इन्हीं दलितों, पिछड़ों और इन की औरतों को धार्मिक रंग में रंग दिया और इन्हें लगने लगा कि भगवान के सहारे इन का भाग्य बदलेगा. मुसलमानों को डरा दिया गया और हिंदू दलितों को बहका दिया गया कि उन की नौकरियां उन्हें मिल जाएंगी.

पर हमेशा की तरह सरकारी फैसले गलत हुए. 1947 के बाद भारी टैक्स लगा कर सरकारी कारखाने लगाए गए जिन में पनाह मिली निकम्मे ऊंची जातियों के अफसरों, क्लर्कों, मजदूरों को. वे अमीर होने लगे. सरकारी कारखाने चलाने के लिए टैक्स लगे जो गांवों में भूखे किसानों और उन के मजदूरों के पेट काट कर भरे गए. मरते क्या न करते वे शहरों को भागे.

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शहरों में उन्हें बस जीनेभर लायक पैसे मिले. वे कभी उस तरह अमीर नहीं हो पाए जैसे चीन से गए मजदूर अमेरिका में हुए. जाति का चंगुल ऐसा था कि वह शहरों तक गलीगली में पहुंच गया. गरीबों की झुग्गी बस्तियों में शराब, जुए, बीमारी की वजह से गरीबों की जो थोड़ी बचत थी, लूट ली गई. महाजन शहरों में भी पहुंच गए.

कोरोना ने तो बस अहसास दिलाया है कि शहर उन के काम का नहीं. अगर गांवों में ठाकुरों, उन के कारिंदों की लाठियां थीं तो शहरों में माफियाओं और पुलिस का कहर पनपने लगा. जब नौकरी भी न हो, घर भी न हो, इज्जत भी न हो, आंधीतूफान से बचाव भी न हो तो शहर में रह कर क्या करेंगे?

कोरोना ने तो यही अहसास दिलाया है कि धर्म का ओढ़ना उन्हें इस बीमारी से नहीं बचाएगा क्योंकि वे अमीर जो रातदिन पूजापाठ में लगे रहते हैं, कोरोना से नहीं बच पाए हैं. कोरोना की वजह से धर्म की दुकानें बंद हो गई हैं. चाहे छोटामोटा धर्म का व्यापार घरों में चलता रहे. कोरोना की वजह से ऊंची जातियों की धौंस खत्म हो गई है. शायद इतिहास में पहली बार ऊंची जातियों के लोग निचलों की गुलामी को नकारने को मजबूर हुए हैं कि कहीं वे एक अमीर से दूसरे अमीर तक कोरोना वायरस न ले जाएं. कोरोना इन गरीबों को छू रहा है पर ये उसे ऐसे ही ले जा रहे हैं जैसे कांवडि़ए गंगा जल ले जाते हैं जिसे छूने की मनाही है. कोरोना अमीरों में ही ज्यादा फैल रहा है.

कोरोना ने देश की निचलीपिछड़ी जातियों और ऊंची जातियों की औरतों के काम अब ऊंची जाति वालों को खुद करने को मजबूर किया है. अगर देश में हिंदूहिंदू या हिंदूमुसलिम या आरक्षण खत्म करो, एससीएसटी ऐक्ट खत्म करो की आवाजें जोरजोर से नहीं उठ रही होतीं तो लाखोंकरोड़ों मजदूर अपने गांवों की ओर न भागते. इस शोर ने उन्हें समझा दिया था कि वे शहरों में भी अब बचे हुए नहीं हैं. पुलिस डंडों की मार ये ही लोग खाते रहते हैं. 1,500 किलोमीटर चल रहे इन लोगों को ऊंची जातियों के आदेशों पर किस तरह पुलिस ने रास्ते में पीटा है यह साफ दिखाता है कि देश में अभी ऊंची जातियों का दबदबा कम नहीं हुआ है. गिनती में चाहें ऊंची जातियां कम हों पर उन के पास पैसा है, अक्ल है, लाठियां हैं, बंदूकें हैं, जेलें हैं. जब अंगरेज भारत में थे वे कभी भी 20,000 से ज्यादा गोरी फौज नहीं रख पाए थे, उन्हें जरूरत ही नहीं थी. उन के 1,500 आदमी हिंदुस्तान के 50,000 आदमियों पर भारी पड़ते थे.

देश के दलितों, पिछड़ों, गरीब मजदूरों ने कैसे एकसाथ फैसला कर लिया कि उन की जान तो अब गांवों में बच सकती है, यह अजूबा है. यह असल में एक अच्छी बात है. यह पूरे देश को नया पाठ पढ़ा सकता है. अब शहरों में महंगे मजदूर मिलेंगे तो उन्हें ढंग से ट्रेनिंग दी जाएगी. गांवों में जो शहरी काम करते मजदूर पहुंचे हैं, वे जम कर मेहनत से काम भी करेंगे और अपने को लूटे जाने से भी बचा सकेंगे. गांवों में ऊंची दबंग जातियां तो अब न के बराबर बची हैं. वे काम करेंगी तो इन के साथ.

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कोरोना वायरस दोस्त साबित हो सकता है. शर्त है कि हम धर्म की दुकानों को बंद ही रहने दें. कारखाने खुलें, लूट की पेटियां नहीं.

कोरोना वायरस: बीमारी को शोषण और उत्पीड़न का जरिया बनाने पर आमादा सरकार

देश मे आर्थिक इमरजेंसी लगाने की बाते करना भाजपा सरकार की जरूरत हो सकती है, लेकिन देश की जरूरत कतई नही है. सरकार कोरोना वायरस को शोषण का जरिया बनाने पर आमादा है.

जिनकी मदद करनी थी, उनसे ही मदद मांग रहे है, किसानों से,छात्रों से, कर्मचारियो से अर्धसैनिक बलों से मदद मांग रहे है.

जो पीड़ित है, और बीमारों का इलाज करने में लगे हुए है, उनका वेलफेयर फ़ंड मांग रहे है. बेशर्मी के तमाम रिकॉर्ड ही तोड़ दिए है.

कर्मचारियो का डी ए जुलाई 2021 तक फ्रीज कर दिया है, 4 %  जो जनवरी ड्यू था वह नही दिया और आगे को तीन बार का डीए नही मिलेगा यानि कुल मिलाकर वेतन का 15 % के आस पास डीए कट जाएगा. इनकमटैक्स कट ही चुका है. अब भी कट ही रहा है.

टीए न देने का आदेश कर ही चुके है, एक दिन का वेतन एक वर्ष तक काटकर पीएम केयर फ़ंड में देने के आदेश कर दिये है.

निजी कंपनियों को तो उपदेश दिए जाते हैं कि किसी का वेतन न रोकें पर उनके बकाए भुगतान को भी रोका जा रहा है और खुद कर्मचारियों के वेतन काटे जा रहे हैं.

कर्मचारी संगठनों ने इस कटौती का विरोध किया है पर जब तक पंडे पूजारी और उनके इशारे पर चलने वाले टीवी हैं, सरकार को डर नहीं. फिर भाजपा का आईटी सैल भी रात-दिन एक कर मोदी के गुणगान में लगा है ताकि धर्म और उससे चल रहे जातीय भेदभाव बना रहे.

रिटायर्ड फौजी सुप्रीम कोर्ट चले गए है. रिटायर्ड फौजियों का डीए काटना घोर अनर्थ है. उन्होंने कोर्ट में चुनौती दी है. इन्हीं फौजियों का नाम लेकर चुनाव जीते जाते हैं पर अब हाल में चुनाव नहीं हो रहे तो उन्हें कुर्बान कर दिया गया है.

कर्मचारी संगठन, किसान संगठन, मजदूर संगठन और छोटे दुकानदारों के संगठन मिलकर अडानी अम्बानी की सेवक सरकार का खुलकर विरोध कभी नहीं कर पाएंगे क्योंकि उनके नेता ऊंची जातियों के ही हैं.

पुलिस को फटकार

दिल्ली की जिला अदालत ने भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर को जमानत पर रिहा करने का आदेश तो दिया पर जो फटकार पुलिस को लगाई वह मजेदार है. आजकल पुलिस की आदत बन गई है कि किसी पर भी शांति भंग करने, देशद्रोह, भावनाएं भड़काने का आरोप लगा दो और जेल में बंद कर दो. आमतौर पर मजिस्ट्रेट पुलिस की बात बिना नानुकर किए मान जाते हैं और कुछ दिन ऐसे जने को जेल में यातना सहनी ही पड़ती है.

जिला न्यायाधीश कामिनी लाऊ ने पुलिस के वकील से पूछा कि क्या जामा मसजिद के पास धरना देना गुनाह है? क्या धारा 144 जब मरजी लगाई जा सकती है और जिसे जब मरजी जितने दिन के लिए चाहो गिरफ्तार कर सकते हो? क्या ह्वाट्सएप पर किसी आंदोलन के लिए बुलाना अपराध हो गया है? क्या यह संविधान के खिलाफ है? क्या बिना सुबूत कहा जा सकता है कि कोई भड़काऊ भाषण दे रहा था? पुलिस के वकील के पास कोई जवाब न था.

दलितों के नेता चंद्रशेखर से भाजपा सरकार बुरी तरह भयभीत है. डरती तो मायावती भी हैं कि कहीं वह दलित वोटर न ले जाए. छैलछबीले ढंग से रहने वाला चंद्रशेखर दलित युवाओं में पसंद किया जाता है और भाजपा की आंखों की किरकिरी बना हुआ है. वे उसे बंद रखना चाहते हैं.

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सहारनपुर का चंद्रशेखर धड़कौली गांव के चमार घर में पैदा हुआ था और ठाकुरों के एक कालेज में छुटमलपुर में पढ़ा था. कालेज में ही उस की ठाकुर छात्रों से मुठभेड़ होने लगी और दोनों दुश्मन बन गए. जून, 2017 में उसे उत्तर प्रदेश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया और महीनों तक बेबात में जेल में रखा और कानूनी दांवपेंचों में उलझाए रखा. कांग्रेस ने उसे सपोर्ट दी है और प्रियंका गांधी उस से मिली भी थीं, जब वह जेल के अस्पताल में था. उसे बहुत देर बाद रिहा किया गया था और फिर नागरिक कानून पर हल्ले में पकड़ा गया था.

पुलिस का जिस तरह दलितों और पिछड़ों को दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, यह कोई नया नहीं है. हार्दिक पटेल भी इसी तरह गुजरात में महीनों जेल में रहा था. नागरिकता संशोधन कानून के बारे में सरकार ने मुसलिमों के साथ चंद्रशेखर की तरह बरताव की तैयारी कर रखी थी, पर जब असल में हिंदू ही इस के खिलाफ खड़े हो गए और दलितपिछड़ों को लगने लगा कि यह तो संविधान को कचरे की पेटी में डालने का पहला कदम है तो वे उठ खड़े हुए हैं. चंद्रशेखर को पकड़ कर महीनों सड़ाना टैस्ट केस था. फिलहाल उसे जमानत मिल गई है, पर कब उत्तर प्रदेश या कहीं और की पुलिस उस के खिलाफ नया मामला बना दे, कहा नहीं जा सकता.

सरकारों के खिलाफ जाना आसान नहीं होता.

जब पूर्व गृह मंत्री व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को 100 दिन जेल में बंद रखा जा सकता है तो छोटे नेताओं को सालों बंद रखने में क्या जाता है. अदालतें भी आमतौर पर पुलिस की मांग के आगे झुक ही जाती हैं.

देश दिवालिएपन की ओर

देश के छोटे व्यापारियों को किस तरह बड़े बैंक, विदेशी पूंजी लगाने वाले, सरकार, धुआंधार इश्तिहारबाजी और आम जनता की बेवकूफी दिवालिएपन की ओर धकेल रही है, ओला टैक्सी सर्विस से साफ है. उबर और ओला 2 ऐसी कंपनियां हैं, जो टैक्सियां सप्लाई करती हैं. कंप्यूटरों पर टिकी ये कंपनियां ग्राहकों को कहीं से भी टैक्सी मंगाने के लिए मोबाइल पर एप देती हैं और इच्छा जाहिर करने के 8-10 मिनट बाद कोई टैक्सी आ जाती है, जिस का नंबर पहले सवारी तक पहुंच जाता है और सवारी का मोबाइल नंबर ड्राइवर के पास.

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पर यह सेवा सस्ती नहीं है. बस, मिल जाती है. इस ने कालीपीली टैक्सियों का बाजार लगभग खत्म कर दिया है और आटो सेवाओं को भी धक्का पहुंचाया है. इन्होंने जवान, मोबाइल में डूबे, अच्छे जेबखर्च पाने वालों का दिल जीत लिया है. वे अपनी खुद की बाइक को भूल कर अब ओलाउबर पर नजर रखते हैं.

अब इतनी बड़ी कंपनियां हैं तो इन्हें मोटा मुनाफा हो रहा होगा? नहीं. यही तो छोटे व्यापारियों के लिए आफत है. ओला कंपनी ने 2018-19 में 2,155 करोड़ रुपए का धंधा किया, पर उस को नुकसान जानते हैं कितना है? 1,158 करोड़ रुपए. इतने रुपए का नुकसान करने वाले अच्छेअच्छे धन्ना सेठ दिवालिया हो जाएं पर ओलाउबर ही नहीं अमेजन, फ्लिपकार्ट, बुकिंगडौटकौम, नैटफिलिक्स जैसी कंपनियां भारत में मोटा धंधा कर रही हैं, जबकि भारी नुकसान में चल रही?हैं. उन का मतलब यही है कि भारत के व्यापारियों, धंधे करने वालों, कारीगरों, सेवा देने वालों की कमर इस तरह तोड़ दी जाए कि वे गुलाम से बन जाएं.

ओलाउबर ने शुरूशुरू में ड्राइवरों को मोटी कमीशनें दीं. ज्यादा ट्रिप लगाने पर ज्यादा बोनस दिया. ड्राइवर 30,000-40,000 तक महीना कमाने लगे, पर जैसे ही कालीपीली टैक्सियां बंद हुईं, उन्होंने कमीशन घटा दी. अब 10-12 घंटे काम करने के बाद भी 15,000-16,000 महीना बन जाएं तो बड़ी बात है.

यह गनीमत है कि आटो और ईरिकशा वाले बचे हैं, क्योंकि उस देश में हरेक के पास क्रेडिट कार्ड नहीं है और यहां अभी भी नकदी चलती है. ओलाउबर मोबाइल के बिना चल ही नहीं सकतीं. आटो, ईरिकशा 2 या 4 की जगह 6 या 10 जनों तक बैठा सकते हैं और काफी सस्ते में ले जा सकते है. यही हाल आम किराने की दुकानों का है. जो सस्ता माल, चाहे कम क्वालिटी का हो, हाटबाजार में मिल सकता है वह अमेजन और फ्लिपकार्ट पर नहीं मिल सकता, पर ये अरबों नहीं खरबों का नुकसान कर के छोटे दुकानदारों को सड़क पर ला देना चाहते हैं और सड़कों से अपना आटो और ईरिकशा चलाने वाले लोगों को भगा देना चाहते हैं.

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यह अफसोस है कि सरकार गरीबों की न सोच कर मेढकों की तरह छलांग लगाने के चक्कर में देश को साफ पानी तक पहुंचाने की जगह लूट और बेईमानी के गहरे गड्ढे में धकेलने में लग गई है.

जाति की राजनीति में किस को फायदा

इस देश में शादीब्याह में जिस तरह जाति का बोलबाला है वैसा ही राजनीति में भी है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ मिल यादवोंपिछड़ों को दलितों के साथ जोड़ने की कोशिश की थी पर चल नहीं पाई. दूल्हे को शायद दुलहन पसंद नहीं आई और वह भाजपा के घर जा कर बैठ गया. अब दोनों समधी तूतू मैंमैं कर रहे हैं कि तुम ने अपनी संतान को काबू में नहीं रखा.

इस की एक बड़ी वजह यह रही कि दोनों समधियों ने शादी तय कर के मेहनत नहीं की कि दूल्हेदुलहन को समझाना और पटाना भी जरूरी है. दूसरी तरफ गली के दूसरी ओर रह रही भाजपा ने अपनी संतान को दूल्हे के घर के आगे जमा दिया और आतेजाते उस के आगे फूल बरसाने का इंतजाम कर दिया, रोज प्रेम पत्र लिखे जाने लगे, बड़ेबड़े वायदे करे जाने लगे कि चांदतारे तोड़ कर कदमों में बिछा दिए जाएंगे. वे दोनों समधी अपने घर को तो लीपनेपोतने में लगे थे और होने वाले दूल्हेदुलहन पर उन का खयाल ही न था कि ये तो हमारे बच्चे हैं, कहना क्यों नहीं मानेंगे?

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अब दूल्हा भाग गया तो दोष एकदूसरे पर मढ़ा जा रहा है. यह सांप के गुजर जाने पर लकीर पीटना है. मायावती बेवकूफी के बाद महाबेवकूफी कर रही हैं. यह हो सकता है कि पिछड़ों ने दलितों को वोट देने की जगह भाजपा को वोट दे दिया जो पिछड़ों को दलितों पर हावी बने रहने का संदेश दे रही थी.

इस देश की राजनीति में जाति अहम है और रहेगी. यह कहना कि अचानक देशभक्ति का उबाल उबलने लगा, गलत है. जाति के कारण हमारे घरों, पड़ोसियों, दफ्तरों, स्कूलों में हर समय लकीरें खिंचती रहती हैं. देश का जर्राजर्रा अलगअलग है. ब्राह्मण व बनियों में भी ऊंचनीच है. कुंडलियों को देख कर जो शादियां होती हैं उन में न जाने कौन सी जाति और गोत्र टपकने लगते हैं.

जाति का कहर इतना है कि पड़ोसिनें एकदूसरे से मेलजोल करने से पहले 10 बार सोचती हैं. प्रेम करने से पहले अगर साथी का इतिहास न खंगाला गया हो तो आधे प्रेम प्रसंग अपनेआप समाप्त हो जाते हैं. अगर जाति की दीवारें युवकयुवती लांघ लें तो घर वाले विरोध में खड़े हो जाते हैं. घरघर में फैला यह महारोग है जिस का महागठबंधन एक छोटा सा इलाज था पर यह नहीं चल पाया. इसका मतलब यह नहीं कि उसे छोड़ दिया जाए.

देश को जाति की दलदल से निकालने के लिए जरूरी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपना अहंकार छोड़ें और पिछड़े और दलित अपनी हीनभावना को. अखिलेश यादव और मायावती ने प्रयोग किया था जो अभी निशाने पर नहीं बैठा पर उन्होंने बहुत देर से और आधाअधूरा कदम उठाया. इस के विपरीत जाति को हवा देते हुए भाजपा पिछले 100 सालों से इसे हिंदू धर्म की मूल भावना मान कर अपना ही नहीं रही, हर वर्ग को सहर्ष अपनाने को तैयार भी कर पा रही है.

अखिलेश यादव और मायावती ने एक सही कदम उठाया था पर दोनों के सलाहकार और आसपास के नेता यह बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं.

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भीड़ को नहीं है किसी का डर

मामला परशुराम के पिता का पुत्रों को मां का वध करने का हो, अहिल्या का इंद्र के धोखे के कारण अपने पति को छलने का या शंबूक नाम के एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर राम के हाथों वध करने का, हमारे धर्म ग्रंथों में तुरंत न्याय को सही माना गया है और उस पर धार्मिक मुहर लगाई गई है. यह मुहर इतनी गहरी स्याही लिए है कि आज भी मौबलिंचिंग की शक्ल में दिखती है. असम में तिनसुकिया जिले में भीड़ ने पीटपीट कर एक पति व उस की मां को मार डाला, क्योंकि शक था कि उस ने अपनी 2 साल की बीवी और 2 महीने की बेटी को मार डाला.

मजे की बात तो यह है कि जब पड़ोसी और मृतक बीवी के घर वाले मांबेटे की छड़ों से पिटाई कर रहे थे, लोग वीडियो बना कर इस पुण्य काम में अपना साथ दे रहे थे.

देशभर में इस तरह भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने और भीड़ में खड़े लोगों का वीडियो बनाना अब और ज्यादा बढ़ रहा है, क्योंकि शासन उस तुरंत न्याय पर नाकभौं नहीं चढ़ाता. गौरक्षकों की भीड़ों की तो सरकारी तंत्र खास मेहमानी करते हैं. उन्हें लोग समाज और धर्म का रक्षक मानते हैं.

तुरंत न्याय कहनेसुनने में अच्छा लगता है पर यह असल में अहंकारी और ताकतवर लोगों का औरतों, कमजोरों और गरीबों पर अपना शासन चलाने का सब से अच्छा और आसान तरीका है. यह पूरा संदेश देता है कि दबंगों की भीड़ देश के कानूनों और पुलिस से ऊपर है और खुद फैसले कर सकती है. यह घरघर में दहशत फैलाने का काम करता है और इसी दहशत के बल पर औरतों, गरीबों, पिछड़ों और दलितों पर सदियों राज किया गया है और आज फिर चालू हो गया है.

जब नई पत्नी की मृत्यु पर शक की निगाह पति पर जाने का कानून बना हुआ है तो भीड़ का कोई काम नहीं था कि वह तिनसुकिया में जवान औरत की लाश एक टैंक से मिलने पर उस के पति व उस की मां को मारना शुरू कर दे. यह हक किसी को नहीं. पड़ोसी इस मांबेटे के साथ क्यों नहीं आए, यह सवाल है.

लगता है हमारा समाज अब सहीगलत की सोच और समझ खो बैठा है. यहां किसी लड़केलड़की को साथ देख कर पीटने और लड़के के सामने ही लड़की का बलात्कार करने और उसी समय उस का वीडियो बनाने का हक मिल गया है.

यहां अब कानून पुलिस और अदालतों के हाथों से फिसल कर समाज में अंगोछा डाले लोगों के हाथों में पहुंच गया है, जो अपनी मनमानी कर सकते हैं. पिछले 100-150 साल के समाज सुधार और कानून के सहारे समाज चलाने की सही समझ का अंतिम संस्कार जगहजगह भीड़भड़क्के में किया जाने लगा है. यह उलटा पड़ेगा पर किसे चिंता है आज. आज तो पुण्य कमा लो.

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सतर्क रहना युवती का पहला काम

शराब बलात्कारों का दरवाजा खोलती है, क्योंकि शराब के नशे में न तो लड़कियों को सुध रहती है कि उन के साथ क्या हो रहा है न बलात्कारियों को. देशी एयरलाइनों में काम करने वाली एअरहोस्टेसें अपनेआप में खासी मजबूत होती हैं और यात्रियों से डील करतेकरते उन्हें दिलफेंक लोगों को झिड़कना आता है. उन की ट्रेनिंग ऐसी होती है कि वे छुईमुई नहीं होतीं और उन के मसल्स मजबूत होते हैं.

ऐसे में कोई एअरहोस्टेस पुलिस में शिकायत करे कि उस के साथ बलात्कार हुआ तो यह काफी जोरजबरदस्ती और शराब के साथ नशीली दवा के कारण ही हुआ होगा. हैदराबाद में रहने वाली इस युवती की शिकायत है कि वह कुछ ड्रिंक्स लेने अपने सहयोगी के साथ गई थी और फिर उस के साथ उस के घर चली गई. वहां सहयोगी और 2 अन्य ने उसे बेहोश कर के उस के साथ बलात्कार किया.

इस दौरान उस का मंगेतर और पिता लगातार फोन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे और जब सुबह उस के होश आने पर उस ने फोन उठाया और पिता व मंगेतर से बात की तो पुलिस कंप्लेंट फाइल की.

बलात्कार के बारे में अकसर यह कह दिया जाता है कि उस में लड़की की सहमति होगी जो बाद में मुकर गई पर इस पर प्रतिप्रश्न यही है कि यदि उस ने पहले सहमति से अपने सुख के लिए संबंध बनाया तो वह आगे भी संबंध बनाएगी न कि शिकायतें करेगी. वह शिकायत तो तभी करेगी जब उस से जबरदस्ती करी जाए.

यह कुछ ऐसा ही है कि यदि दोनों में से एक दोस्त दूसरे की लंबे दिनों तक आर्थिक सहायता करता रहे पर एक दिन जब वह मना कर दे तो क्या सहायता मांगने वाले के पास देने वाले का पर्स चोरी करने का अधिकार है? हां, शराब के नशे में दोस्त दोस्त का पर्स साफ कर जाए तो संभव है पर यह भी अपराध ही है. पैसे का अपराध छोटा है, शारीरिक अपराध बड़ा है. एक घूंसा मारने पर लोग बदले में दूसरे पर गोली तक चला देते हैं. यह अपने अधिकारों का इस्तेमाल है.

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अपने बारे में सतर्क रहना हर युवती का पहला काम है. यदि उसे किसी से सैक्स संबंध बनाने पर एतराज नहीं है तो उसे खुली छूट है कि वह रात उस के घर जाए, उस के साथ नशा करे. पर यदि किसी कारण उसे किसी युवक दोस्त के साथ रहना पड़े तो शराब का रिस्क तो वह ले ही नहीं सकती. अपनी सुरक्षा पहले अपने हाथ में है. छुईमुई न बनें, पर बेमतलब रिस्क भी न लें. रात अंधेरे में आदमी भी जेब में पर्स और मोबाइल लिए चलने में घबराते हैं, यह न भूलें.

धान खरीदी के भंवर में छत्तीसगढ़ सरकार!

छत्तीसगढ़ की राजनीतिक फिजा में आज सिर्फ एक ही मुद्दा है धान खरीदी और किसान का. छत्तीसगढ़ की सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस ने जो मास्टर स्ट्रोक चला था वह अब धीरे-धीरे कांग्रेस और भूपेश सरकार के लिए बढ़ते सर दर्द और ब्लड प्रेशर का हेतु बन रहा है. कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव से पूर्व धान की खरीदी 2500 रूपये क्विंटल खरीदने और कर्जा मुआफी का वादा किया था. किसानों की कृपा से छत्तीसगढ़ में यह कार्ड चल गया और भूपेश बघेल की सरकार बहुत ताकत के साथ बन गई 67 विधायक चुन लिए गए मगर एक वर्ष बाद जब पुन: खरीफ फसल का समय आया है तो भूपेश सरकार के हाथ पांव फूलने लगे हैं और मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी से रियायते चाहते हैं.

भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री बनते ही जो वादा किया था उसे पूरा करने का ऐलान कर दिया किसानों की जेबें भर गई यही नहीं किसानों को किया गया असीमित कर्जा भी उन्होंने भामाशाह की तरह माफ कर दिया जबकि मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं हुआ. छत्तीसगढ़ की आर्थिक स्थिति इन्हीं कारणों से बदतर होती चली गई कर्ज पर कर्ज लेकर भूपेश सरकार एक खतरनाक ‘भंवर’ मे फंसती दिखाई दे रही है. जिसका अंजाम क्या होगा यह मुख्यमंत्री के रूप में एक कुशल रणनीतिक होने के कारण या तो प्रदेश को उबार ले जाएंगे अथवा छत्तीसगढ़ की आने वाले समय में बड़ी दुर्गति होगी यह बताएगा.

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मोदी सरकार से अपेक्षा !

भूपेश बघेल की सरकार किसानों से धान 2500 रूपये क्विंटल में खरीदने को कटिबद्ध है क्योंकि पीछे हटने का मतलब किसानों का रोष और छवि खराब होने की चिंता है .ऐसे में दो ही रास्ते हैं एक छत्तीसगढ़ सरकार शुचिता बरते, सादगी के साथ सिर्फ किसानों के हित साधती रहे और दूसरे दिगर विकास के कामों में ब्रेक लगा दे या फिर केंद्र के समक्ष हाथ पसारे.

भूपेश बघेल की शैली भीख मांगने यानी हाथ पसारने की कभी नहीं रही. भूपेश बघेल को एक आक्रमक छत्तीसगढ़ के चीते के स्वभाव वाला राजनीतिक माना गया है. ऐसे में उनकी सरकार मोदी सरकार के समक्ष हाथ पसारने की जगह सीना तान कर खड़ी हो गई है और केंद्र सरकार से मांग की जा रही है केंद्र को चेतावनी दी जा रही है की धान खरीदी में सहायता करो. छत्तीसगढ़ के एक मंत्री जयसिंह अग्रवाल ने मोदी सरकार को चेतावनी दी केंद्र धान नहीं खरीदेगी तो हम छत्तीसगढ़ से होने वाले कोयले का परिवहन बंद कर देंगे .इस आक्रमकता  से यह दूध की तरह साफ हो चुका है कि भूपेश सरकार, नरेंद्र दामोदरदास मोदी के समक्ष झुकने को तैयार नहीं बल्कि झुकाने की ख्यामख्याली पाले हुए हैं.

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आज होगा आमना सामना

भूपेश बघेल को 14 जनवरी को देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलने का समय मिला था. छत्तीसगढ़ सरकार ने पूरी तैयारी कर रखी थी की दिल्ली पहुंचकर राष्ट्रपति से मिल केंद्र सरकार को घेरेगे और प्रदेश की जनता के मध्य यह संदेश प्रसारित होगा की केंद्र छत्तीसगढ़ की उपेक्षा कर रही है. मगर ऐन मौके पर चाल पलट गई. राष्ट्रपति भवन से 13 नवंबर की रात को संदेश आ गया की राष्ट्रपति महोदय से मुलाकात को निरस्त कर दिया गया है.

भूपेश बघेल सरकार नरेंद्र मोदी से मिलना चाहती थी मगर प्रधानमंत्री कार्यालय से भी लाल झंडी दिखाई दे रही है ऐसे में भूपेश बघेल स्वयं अपने चुनिंदा मंत्रियों के साथ केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान व केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिलकर आग्रह करेंगे की 85 लाख मैट्रिक टन धान खरीद पर केंद्र समर्थन मूल्य प्रदान करें । 32 लाख मैट्रिक धान का एफ सी  आई गोदाम में रखने की अनुमति दी जाए और समर्थन मूल्य पर बोनस पर केंद्र की लगी रोक को थिथिल किया जाए.

राजनीतिक प्रशासनिक चातुर्य की कमी  !

संपूर्ण प्रकरण पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट हो जाता है की भूपेश बघेल सरकार में जहां राजनीतिक चातुर्य की कमी है वहीं प्रशासनिक दक्षता जैसी दिखाई देनी चाहिए वह भी दृष्टिगोचर नहीं हो रही है. किसानों के खातिर तलवार भांजने वाली छत्तीसगढ़ सरकार यह कैसे भूल गई की विधानसभा में 68 सीटों का तोहफा देने वाली जनता और किसानों ने लोकसभा चुनाव में भूपेश बघेल की ऊंची ऊंची हांकने की हवा निकाल दी और बमुश्किल 11 में 9 सीटों पर दावा करने वाली कांग्रेस को 2 सीटें ही मिल पाई.

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किसानों का संपूर्ण कर्जा माफी करना भी भूपेश सरकार के गले का फंदा बन गया. अगरचे मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार से थोड़ा सबक सिखा होता तो प्रदेश की आर्थिक स्थिति डांवाडोल नहीं होती .वहीं केंद्र सरकार को आंख दिखाने की हिमाकत छत्तीसगढ़ सरकार को उल्टी न पड़ जाए. डॉक्टर रमन सिंह पूर्व मुख्यमंत्री कहते हैं,- केंद्र से सम्मान और विनय के साथ आग्रह करने की जगह जैसे भूपेश बघेल दो-दो हाथ करने का बॉडी लैंग्वेज दिखा रहे हैं यह गरिमा के अनुकूल नहीं है.

छत्तीसगढ़ के मंत्री, धान खरीदी के मुद्दे पर केंद्र को झुकाना चाहते हैं और केंद्र सरकार, भूपेश बघेल को धान के मुद्दे पर निपटाना चाहती है.! देखिए इस सोच में कौन कहां गिरता है और कहां उखडता है.

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