मोदी सरकार के फैसले धीरेधीरे घुन की तरह समाज, अर्थव्यवस्था, कानून, संविधान में सभी को खोखला करते नजर आ रहे हैं. जिन उम्मीदों के साथ 2014 में नए बदलावों और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार की आशा जगी थी, अब धूमिल ही नहीं हो गई, जो पिछले 6 सालों में हुआ है, वह दशकों तक तंग करता रहेगा.

नोटबंदी का फैसला तो बेमतलब का साबित हो चुका है. बजाय धन्ना सेठों के घरों से कमरों के कमरे वाले धन के मिलने के महज 50 दिन में जो नोट बदलने की बंदिश लगाई गई थी उस से आज भी महिलाएं तब दर्द की टीस सहती हैं जब उन के कपड़ों, किताबों, अलमारियों के नीचे से, गद्दों के बीच से 500 या 1000 के पुराने नोट निकलते हैं. यह रकम सरकार के लिए बड़ी नहीं क्योंकि 15.41 लाख करोड़ नोटों में से 99.3 फीसदी वापस आ ही गए हैं पर जिस घर में पूंजी हजारों की हो, वहां 2000-4000 की भी बहुत कीमत होती है.

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अब दूसरी आजादी, जीएसटी, की मार सरकार और जनता को सहनी पड़ रही है. अरुण जेटली ने अपने कागज के पैड पर अंदाजा लगा लिया था कि कर संग्रह 14 फीसदी बढ़ेगा हर साल, क्योंकि कर चोरी बंद हो जाएगी. पर जीएसटी कर तो बचा ले गई, लेकिन धंधे चौपट कर गई. न धंधे बढ़े, न कर संग्रह. केंद्र सरकार ने राज्यों को जो एक कर का खमियाजा देने का वादा किया था, उस में 1,56,000 करोड़ से ज्यादा की भरपाई का पैसा ही नहीं है.

लोगों को आज रिटर्न भरने में ज्यादा समय लगाना पड़ता है, व्यापार करने में कम. सरकार पंडों की तरह हर समस्या का उपाय एक और हवन, एक और तीर्थयात्रा, एक और धागे बांधने की तरह एक और रिटर्न का सुझाव दे डालती है. इस सरकार के दिमाग में भरा है कि ज्यादा प्रपंच, ज्यादा लाभ. मेहनत तो सरकार के मंत्रियों और संतरियों ने कभी न खुद की, न करने वालों की उन्होंने कदर की.

अब संविधान से एक के बाद एक खिलवाड़ करे जा रहे हैं कि कट्टरपंथियों को खुश रखा जा सके. ऊंचे पौराणिकपंथी चाहे उस से खुश हो जाएं, पर मेहनतकशों को क्षणिक गुस्से या खुशी के अलावा कोई फर्क नहीं पड़ता. जिन मुसलमानों को निशाना बना कर सरकार पूरा कार्यक्रम चला रही है, वे हर तरह का जोखिम सहने के आदी हैं. वे उन पिछड़ों व दलितों से ही मुसलमान बने हैं जो सदियों से सामाजिक अत्याचार सहते रहे हैं.

हां, ये सब फैसले उन्हें सरकार से नाराज कर देंगे. अगर भाजपा नहीं भी रहती, जैसा राज्यों में हो रहा है, इन बदलावों का असर रहेगा. घुन खाई लकड़ी पर दवा छिड़क दो तो घुन चाहे मर जाए पर जो लकड़ी खोखली हो चुकी है, वह तो खोखली ही रहेगी.

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हकों को कुचला

सरकार अब हक की जगह फर्ज का पाठ पढ़ाने में लग गई है. संविधान व कानूनों में बदलाव के बाद जो गुस्सा फूटा है उस से मुकाबला करने के लिए सरकार को लग रहा है कि पाठ पढ़ाया जाए कि नागरिकों के कोई हक नहीं हैं, सिर्फ फर्ज हैं. यह शासन करने का पुराना तरीका है. हर पुलिस थाने में, हर पंचायत में, हर घर में यही होता है.

यह हमारे समाज की देन है कि हम बात ही फर्ज की करते हैं, मान जाने की करते हैं, चुप रहने की करते हैं, जिस के पास ताकत है उस की आंख मूंद कर सुनने की करते हैं. यही फर्ज है और उस के आगे सारे हक खत्म हो जाएं.

सदियों से औरतों को, पिछड़े कामगारों को, किसानों को, मजदूरों को, समाज से बाहर रह रहे अछूत दलितों को अपने फर्जों की लिस्ट पकड़ाई गई है, हकों की नहीं. आज संविधान है पर बात बारबार उस में दिए गए हकों को कुचलने की की जाती है. ऐसे कानून बनाए जाते हैं जो एक के या दूसरे के हक छीन लें, ऐसे भाषण दिए जाते हैं, जिन में इस संविधान के हकों की जगह फर्जों की बात की जाती है.

यह जानबू झ कर करा जाता है ताकि हैसियत वाले नेता, अफसर, मंत्री, सेठ, घर में आदमी अपनी मनमानी कर सके. अब जब जनता ने नोटबंदी, जीएसटी और नागरिकता कानूनों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं तो उन्हें फर्ज का पाठ पढ़ाया जा रहा है, जबकि फर्ज का पाठ तो सरकार को पढ़ना था.

सरकारों का फर्ज था कि लोग खुश रहे. 6 साल कम नहीं होते खुशी लाने में. अगर 1947 से 2014 तक कुछ भी अच्छा नहीं हुआ तो सरकार ने जनता के बारे में 2014 से कौन से फर्ज पूरे किए.

सरकार ने रेलों की भीड़ नहीं कम की, हां, एयरकंडीशंड महंगी ट्रेनें चालू रखीं. सरकार ने गंदी  झोंपड़पट्टी खत्म नहीं की, हां, ऊंचेऊंचे मौल जरूर बन गए. दिल्ली जैसे शहर में 750 बस्तियों में सीवर नहीं हैं, पर हां, सरकार ने आरओ की बोतल वाले पानी को हर अमीर घर में पहुंचा दिया. सरकार ने नदियों की सफाई नहीं की जहां से मछुआरे मछली पकड़ सकते थे, हां, नदियों के किनारे घाट पक्के बनवा दिए जहां पौराणिक पाखंडबाजी का बाजार चालू है.

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सरकार ने अपने फर्ज में पढ़ेलिखे नौजवानों को रोजगार नहीं दिया, हां, जिस ने भगवा दुपट्टा ओढ़ लिया उसे धौंस जमाने का हक दे दिया. सरकार ने कारखानों के बारे में नई तकनीक का फर्ज पूरा नहीं किया, हां, पटेल की चीन से बनवा कर ऊंची मूर्ति लगवा दी, जहां अब अमीर लोग सैरसपाटे के लिए शेरों की सफारी देखने जा रहे हैं.

सरकार किस मुंह से कहती है कि जनता को हकों की नहीं फर्जों की सोचनी चाहिए. सरकारें लोकतंत्र में जनता के हकों को बचाने के लिए बनती हैं और जनता के बारे में अपने फर्ज पूरे करने के लिए बनती हैं. अपनी जिम्मेदारी जनता के सिर मढ़ने की कोशिश गलत है.

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