Satyakatha: सिंह बंधुओं से 200 करोड़ ठगने वाला ‘नया नटवरलाल’ सुकेश चंद्रशेखर- भाग 1

सौजन्य- सत्यकथा

Writer- निखिल

नटवरलाल भले ही अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उस की ठगी के किस्से आज भी मशहूर हैं.

नटवरलाल को 20वीं सदी में हिंदुस्तान का सब से बड़ा ठग कहा गया. उस का असली नाम मिथलेश श्रीवास्तव था.

वह बिहार का रहने वाला था. वह अपनी बातों से ही लोगों को ऐसा प्रभावित करता था कि लोग उस की ठगी के जाल में फंस जाते थे. उस ने कभी खूनखराबा नहीं किया. अपनी बुद्धि की ताकत पर वह लोगों से ठगी करता था. और तो और, उस ने संसद भवन और ताजमहल तक का सौदा कर दिया था.

अपने ठगी के कारनामों से वह इतना मशहूर हो गया कि लोग उसे उस के असली नाम से नहीं, बल्कि नटवरलाल के नाम से जानते थे. नटवरलाल का मतलब ठगी करने वाला.

21वीं सदी में भारत में भी तरहतरह के ठग पैदा हो गए. अब रोजाना नएनए तरीकों से ठगी के किस्से सामने आते हैं. आजकल सब से ज्यादा साइबर ठग सक्रिय हैं. खास बात है कि अनपढ़ और बहुत कम पढ़ेलिखे लोग जब मंत्रियों, आईएएस/आईपीएस अफसरों और जजों के अलावा नामी उद्योगपतियों तक को अपना शिकार बनाते हैं तो ताज्जुब होता है.

इन साइबर ठगों को साइलेंट किलर कहा जा सकता है, जो बिना कोई खूनखराबा किए लोगों का पैसा हड़प लेते हैं.

अब एक नया नटवरलाल सामने आया है. नाम है सुकेश चंद्रशेखर. सिर्फ 12वीं तक पढ़ेलिखे सुकेश की ठगी के किस्से इन दिनों हिंदुस्तान की हाई सोसायटी में सब से ज्यादा मशहूर हो रहे हैं.

मासूम सा नजर आने वाला सुकेश देश के नामी उद्योगपतियों और बिजनेसमैन के परिवारों के अलावा नेताओं से अब तक सैकड़ों करोड़ रुपए की ठगी कर चुका है.

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सुकेश अभी मुश्किल से 32 साल का है, लेकिन वह जवान होने से पहले से ही ठगी कर रहा है, जब वह महज 17 साल का था, तब सब से पहले उस का नाम एक करोड़ रुपए से ज्यादा की ठगी में सामने आया था.

इस के बाद 15 साल के अपनी ठगी के जीवन में वह करीब 5 साल का समय जेलों में बिता चुका है. उस ने जेल में रहते हुए ही 200-250 करोड़ रुपए की ठगी कर ली.

वह इतना शातिर है कि एक फिल्मी हीरोइन उस की पत्नी है. बौलीवुड के अलावा दक्षिण की कई फिल्मों में काम कर चुकी उस की हीरोइन पत्नी भी अब उस के अपराधों में भागीदार है.

सुकेश अब जेल में रहते हुए बौलीवुड की एक नामी हीरोइन पर डोरे डाल रहा था. यह नामी हीरोइन अब जांच एजेंसियों के दायरे में है.

यह कहानी हिंदुस्तान के नए महाठग सुकेश चंद्रशेखर की है. पिछले साल यानी 2020 की बात है. भारत की जनता का पहली बार कोरोना महामारी से वास्ता पड़ा था. पूरे देश में लोग संक्रमित हो रहे थे. लगातार मौतें हो रही थीं. सरकारी और गैरसरकारी इलाज के इंतजाम कम पड़ गए थे.

जून के महीने में कोरोना का तांडव चरम पर था. तभी एक दिन दिल्ली में अदिति सिंह के फोन की घंटी बजी. फोन करने वाली एक महिला थी. उस महिला ने बहुत शालीनता से अफसरी लहजे में अदिति सिंह से कहा, ‘‘कैन आइ टाक टू अदिति सिंह मैम.’’

‘‘यस, मैं अदिति बोल रही हूं.’’ अदिति सिंह ने जवाब दिया.

‘‘मैम, केंद्रीय कानून मंत्रालय के सचिव अनूप कुमार जी आप से बात करेंगे.’’ दूसरी ओर से महिला बोली.

‘‘हां, बात कराइए,’’ अदिति सिंह ने कहा.

लाइन कनेक्ट होने पर दूसरी ओर से किसी पुरुष की आवाज आई, ‘‘मैम, मैं अनूप कुमार बोल रहा हूं. ऊपर से आप की मदद करने के लिए आदेश आया है. कोविड के इस दौर में पीएम और होम मिनिस्टर चाहते हैं कि आप सरकार के साथ मिल कर काम करें, क्योंकि आप के पति हेल्थ सेक्टर के नामीगिरामी आदमी हैं.’’

‘‘ठीक है सर, आप क्या मदद कर सकते हैं और हमें इस के लिए क्या करना होगा.’’ अदिति सिंह ने फोन करने वाले अनूप कुमार से पूछा.

‘‘मैम, आप को अभी कुछ नहीं करना है. मैं मंत्रीजी और हमारे बड़े अफसरों से बात कर आप को जल्दी ही दोबारा काल करूंगा.’’ अनूप कुमार बोला.

फोन डिसकनेक्ट होने के बाद अदिति सिंह कुछ महीने पुरानी यादों में खो गईं.

कभी अरबोंखरबों के साम्राज्य की मालकिन रही अदिति सिंह रैनबेक्सी कंपनी के पूर्व प्रमोटर शिविंद्र मोहन सिंह की पत्नी हैं.

रैनबेक्सी एक समय में देश की सब से बड़ी फार्मा कंपनी थी. इस कंपनी के प्रमोटर 2 भाइयों मलविंदर मोहन सिंह और शिविंद्र मोहन सिंह की कारपोरेट जगत में अलग पहचान थी. बाद में 2008 में रैनबेक्सी को जापानी कंपनी दायची ने खरीद लिया था.

इस सौदे के बाद जापानी कंपनी ने सिंह बंधुओं पर रैनबेक्सी के बारे में गलत जानकारी दे कर महंगी कीमत वसूलने का आरोप लगा कर केस कर दिया था.

इस बीच, सिंह बंधुओं ने रैनबेक्सी कंपनी अपने हाथ से निकलने के बाद फोर्टिस हेल्थकेयर की शुरुआत की. इस कंपनी ने देशभर में शानदार अस्पतालों की शृंखला बनाई. सिंह बंधुओं ने इस के अलावा वित्तीय और दूसरे क्षेत्रों में काम करने के लिए रेलिगेयर फिनवेस्ट कंपनी शुरू की.

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वर्ष 2016 में सिंह बंधुओं ने फोर्ब्स की 100 सब से अमीर भारतीयों की सूची मे 92वें नंबर पर जगह बनाई थी. उस वक्त दोनों भाइयों की संपत्ति 8 हजार 864 करोड़ रुपए बताई गई थी.

बाद में सिंह बंधुओं पर कंपनियों से धोखाधड़ी कर फंड निकालने के आरोप लगे. दोनों कंपनियां संकट में आईं तो उन के शेयर धारकों ने दोनों सिंह बंधुओं को निदेशक पद से हटा दिया. बाद में रेलिगेयर फिनवेस्ट और रेलिगेयर इंटरप्राइज ने दोनों सिंह बंधुओं के खिलाफ 237 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी की शिकायत पुलिस में दर्ज करा दी.

इस से पहले अक्तूबर 2015 में सिंह बंधुओं की कहानी में अध्यात्म का ट्विस्ट आ गया. अक्तूबर 2015 में फोर्टिस की आम बैठक में शिविंद्र मोहन सिंह ने कंपनी का काम छोड़ने और अध्यात्म तथा समाज सेवा की ओर मुड़ने की घोषणा की.

फिर वे कंपनी की गतिविधियों से अलग हो कर राधास्वामी सत्संग (ब्यास) से जुड़ गए. शिविंद्र की मां निम्मी सिंह पहले से इस डेरे से जुड़ी हुई थीं.

दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा ने रेलिगेयर फिनवेस्ट में धोखाधड़ी के मामले में अक्तूबर 2019 में दोनों भाइयों को गिरफ्तार कर लिया था. सिंह बंधुओं की गर्दिश के दिन रैनबेक्सी कंपनी बेचने के बाद ही शुरू हो गए थे. हालांकि उन्होंने फोर्टिस के 66 हौस्पिटल की शृंखला बना कर अपने पैर जमाने की कोशिश की थी, लेकिन वित्तीय गड़बडि़यों और कई गलतियों ने उन्हें जेल की सींखचों के पीछे पहुंचा दिया.

बाद में उन पर दूसरे मामले भी जुड़ते गए. इस कारण दोनों सिंह बंधु अक्तूबर 2019 से दिल्ली की जेल से बाहर नहीं निकल सके. उन की जमानत की कोशिशें बेकार हो गईं.

हालांकि गिरफ्तारी से पहले ही दोनों भाइयों में मतभेद हो गए थे. फिर भी दोनों भाइयों के परिवार अपनेअपने तरीकों से उन को जेल से बाहर निकालने की कोशिशों में जुटे हुए थे.

अरबों रुपए की संपत्तियां होने और भारत ही नहीं कई देशों में मंत्रियों, संतरियों से ले कर टौप ब्यूरोक्रेट्स से अच्छे संबंध होने के बावजूद वह पैसा उन के कोई काम नहीं आ पा रहा था.

ठग सुकेश चंद्रशेखर 2017 से दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद था. उस के तिहाड़ जेल पहुंचने की कहानी आप आगे पढ़ेंगे. जेल में बंद सुकेश को जब सिंह बंधुओं की अकूत दौलत और जमानत की सारी कोशिशें बेकार होने का पता चला तो उस ने उन के घरवालों को ठगने की योजना बनाई.

इस के लिए योजनाबद्ध तरीके से ही अदिति सिंह को कानून मंत्रालय के सचिव अनूप कुमार के नाम से फोन किया गया.

कुछ दिन बाद फिर उसी शख्स का फोन अदिति सिंह के पास आया. ट्रूकालर पर फोन नंबर प्रधानमंत्री कार्यालय में सलाहकार पी.के. मिश्रा का प्रदर्शित हो रहा था.

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सत्य असत्य- भाग 2: क्या था कर्ण का असत्य

उस समय भैया नाश्ता कर रहे थे. शायद कौर गले में अटक गया था, क्योंकि उसी क्षण उन्होंने मुझ से पानी मांगा.

उस दिन निशा अपने घर गई हुईर् थी. मां बोलीं, ‘‘इस लड़की ने तो मुझे अपाहिज बना दिया है, किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने देती. इस के जाने के बाद मैं घर का कामकाज कैसे करूंगी.’’

पिताजी बोले, ‘‘उसे यहीं रख लो, मुझे भी बहुत प्यारी लगती है.’’

तभी अनायास मैं बोल उठी, ‘‘वह किसी और को पसंद करती है. उस का ब्याह वहीं होना चाहिए, जहां वह चाहे, यह बिना सिरपैर की इच्छा उस से मत बांधो.’’

‘‘किसी और को, पर किसे? उस ने हमें तो कुछ नहीं बताया.’’

‘‘बताया तो उस ने अपने पिता को भी नहीं था. मुझे भी नहीं बताया. परंतु उस से क्या होता है. सत्य तो सत्य ही है न.’’

‘‘तुम ने उसे किसी के साथ देखा है क्या?’’ हाथ का काम छोड़ मां समीप चली आईं. वे सचमुच उसे बहू बनाने को आतुर थीं.

‘‘भैया ने देखा है. और मैं इसे बुरा भी नहीं मानती. निशा वहीं जाएगी, जहां वह चाहेगी.’’

उस समय भैया के चेहरे पर कई रंग आजा रहे थे.

‘‘ऐसी बात है तो मैं आज ही निशा से बात करता हूं,’’ पिताजी बोले.

‘‘नहीं, उस से बात मत कीजिए. वैसे, विजय भी अच्छा लड़का है.’’

‘‘अगर विजय अच्छा लड़का है तो आप कौन से बुरे हैं. आप क्यों नहीं? साफसाफ बताइए भैया, वह लड़का कौन है, जिस के साथ आप ने उसे

देखा था?’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर

में पूछा.

‘‘बोलो कर्ण, कुछ तो बताओ?’’ पिताजी ने भी उन का कंधा हिलाया.

‘‘गीता, कैसी बेकार की बात करती हो. वह मुझे ‘भैया’ कह के पुकारती है. और…’’

‘‘कुछ तो कहेगी न. जब उसे पता चलेगा कि आप उस से प्रेम करते हैं तो हो सकता है, ‘भैया’ न कहे. फिलहाल यह बताइए कि  वह लड़का कौन था, जिसे आप ने…’’

‘‘चुप भी करो गीता, क्यों इस के पीछे पड़ी हो,’’ मां ने मुझे टोक दिया.

‘‘मैं ने कहा न, विजय उस के लिए…’’ भैया बोले तो मैं ने उन की बात काटते हुए कहा, ‘‘आप यह निर्णय करने वाले कौन होते हैं? मैं आज खुद निशा से पूरी बात खोलूंगी, चाहे उसे बुरा ही लगे.’’

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‘‘नहीं, उस से कुछ मत पूछना,’’ भैया ने रोका और पिताजी बुरी तरह चीख उठे, ‘‘इस का मतलब है, तुम झूठ बोलते हो. उसे किसी के साथ जरूर देखा था. कहीं तुम्हीं तो उस के पिता को फोन नहीं करते रहे?’’ पिताजी के होंठों से निकला एकएक शब्द सच निकलेगा, मैं ने कभी सोचा नहीं था.

तभी पिताजी ने भैया की गाल पर जोरदार थप्पड़ दे मारा, ‘‘तुझे उस मासूम लड़की पर दोष लगाते शर्म नहीं आई. अरे, हमारी भी बेटी है. यही सब हमारे साथ हो तो तुझे कैसा लगेगा?’’

उस क्षण मां ने बेटे की तरफ नफरत से देखा.

‘‘पिताजी, मैं ने झूठ नहीं बोला था,’’ भैया ने शायद सारी शक्ति बटोरते हुए कहा, ‘‘जो देखा, वह सच था, लेकिन.’’

‘‘लेकिन क्या. अब कुछ बकोगे भी?’’

‘‘जी…जो…जो समझा, वह झूठ था. उस रात अस्पताल में निशा के पिता को देखा तो पता चला कि उस के साथ सदा वही होते थे. वे इतने कम उम्र लगते थे कि मैं धोखा…’’

यह सुनते ही मां ने माथे पर जोर से हाथ मारा, ‘‘सच, तुम्हारी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई.’’

उस पल हम चारों के लिए वक्त जैसे थम गया. सचाई जाने बिना उस के पिता को फोन कर के शिकायत करने की भला क्या आवश्यकता थी? आंखों देखा भी गलत हो सकता है और इतना घातक भी, यह मैं ने पहली बार देखासुना था.

पिताजी दुखी स्वर में बोले, ‘‘कैसा जमाना आ गया है. पितापुत्री साथसाथ कहीं आजा भी नहीं सकते. पता नहीं इस नई पीढ़ी ने आंखों पर कैसी पट्टी बांध ली है.’’

उस दिन भैया अपने कार्यालय नहीं जा सके, अपने कमरे में ऐसे बंद हुए कि शाम को ही बाहर निकले.

निशा तब तक नहीं लौटी थी, इसलिए सभी परेशान थे. भैया मोटरसाइकिल निकाल कर बाहर निकल गए और पिताजी खामोशी से उन्हें जाते हुए देखते रहे.

उस दिन हमारे घर में खाना भी नहीं बना. एक शर्म ने सब की भूख मार रखी थी. सहसा पिताजी बोले, ‘‘दोष तुम्हारा भी तो है. कम से कम निशा से साफसाफ पूछतीं तो सही, सारा दोष कर्ण को कैसे दे दूं. तुम भी बराबर की दोषी हो.’’

लगभग डेढ़ घंटे बाद भैया हड़बड़ाए से लौटे और बोले, ‘‘प्रोफैसर सुरेंद्र की पत्नी ने बताया कि वह तो दोपहर को ही चली गई थी.’’

‘‘वह कहां गई होगी?’’ पिताजी ने मेरी ओर देखा.

‘‘चलो भैया, वहीं दोबारा चलते हैं,’’ मैं उन के साथ निशा के घर गई. द्वारा खोला, घर साफसुथरा था, यानी वह सुबह यहां आई थी. पूरा घर छान मारा, पर निशा दिखाई न दी.

अचानक भैया बोले, ‘‘उसे कुछ हो गया तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा. मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, ऐसा अपराध कर बैठूंगा. अब मैं कहां जाऊं?’’

सामने मेज पर एक सुंदर पुरुष की तसवीर पर ताजे फूलों का हार चढ़ा था. मैं तसवीर के नजदीक जा कर सोचने लगी कि निशा ने सच ही कहा था कि उस के पिता बहुत सुंदर थे. भैया को गलतफहमी हो गई होगी, शायद मुझे भी हो जाती.

‘‘अब क्या होगा गीता, तुम्हीं कुछ सोचो?’’ तभी भैया भी उस के पिता की तसवीर के पास आ कर बोले, ‘‘यह देखो गीता, यही तो थे.’’

मैं कुछ और ही सोचने लगी थी. चंद क्षणों बाद बोली, ‘‘भैया, निशा से शादी कर लो. यह तो सत्य ही है कि आप उस से बेहद प्यार करते हैं.’’

‘‘क्या उसे सचाई न बताऊं?’’

‘‘और कितना दुख दोगे उसे? क्या उस से बात और नहीं बिगड़ जाएगी?’’

‘‘क्या निशा के साथ एक झूठा जीवन जी पाऊंगा?’’

‘‘जीवन तो सच्चा ही होगा भैया, परंतु यह जरा सा सत्य हम चारों को सदा छिपाना पड़ेगा, क्योंकि हम उसे और किसी तरह भी अब सुख नहीं दे सकते.’’

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भारी मन में हम घर लौट आए. मगर सामने ही बरामदे में निशा को देख हैरान रह गए. एक लंबे समय के बाद मैं ने उसे हंसते देखा था. सामने मेज पर कितने ही पैकेट पड़े थे. डबडबाई आंखें लिए पिताजी उसे एकटक निहार रहे थे. वह उतावले स्वर में बोली, ‘‘गीता, मुझे नौकरी मिल गई.’’

‘‘वह तो ठीक है, मगर तुम बिना हम से कुछ कहे…पता भी है, 3 घंटे से भटक रहा हूं. तुम कहां चली गई थीं?’’ भैया की डूबती सांसों में फिर से संजीवनी का संचार हो गया था.

निशा ने बताया, ‘‘12 बजे घर से निकली तो सोचा, पिताजी के विभाग से होती जाऊं. वहां पता चला कि मेरी नियुक्ति कन्या विद्यालय में हो चुकी है.’’

‘‘लेकिन अब तक तुम थीं कहां?’’ इस बार मैं ने पूछा.

‘‘बता तो रही हूं, मैं विद्यालय देखने चली गई. आज ही उन्होंने मुझे रख भी लिया. 4 बजे वहां से निकली, तब यह सामान खरीदने चली गई. यह देखो. तुम सब के लिए स्वेटर लाई हूं.’’

‘‘तुम्हारे पास इतने पैसे थे?’’ मैं हैरान रह गई.

‘‘आज घर की सफाई की तो पिताजी के कपड़ों से 10 हजार रुपए मिले. उसी दिन वेतन लाए थे न.’’

Satyakatha: फरीदाबाद- नफरत का खतरनाक अंजाम- भाग 2

सौजन्य- सत्यकथा

Writer- शाहनवाज

यह सुन कर नीरज ने सक्षम के कंधे पर हाथ रखा और घर के अंदर आ गया. सक्षम को यह देख कर थोड़ा अजीब लगा. उस ने अपने पिता को रोकना चाहा, लेकिन वह कहां रुकने वाला था. उन दोनों के अंदर घुसते ही बाहर से एक और आदमी मकान में आ घुसा.

यह शख्स नीरज का दोस्त लेखराज था. लेखराज के अंदर आते ही उस ने भीतर से मुख्य दरवाजे की कुंडी बंद कर दी और भाग कर पहली मंजिल पर जा पहुंचा.

लेखराज को देखते ही इस से पहले कि सक्षम कुछ कहता, नीरज ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया और उसे अपनी गोद में उठा कर उस कमरे की ओर चल पड़ा, जहां पर उस की पत्नी आयशा और उस की सास सुमन सोए हुए थी.

एक तरफ नीचे ग्राउंड फ्लोर पर नीरज अपने बेटे के साथ था तो दूसरी ओर लेखराज पहली मंजिल पर गगन और राजन के कमरे में था. लेखराज ने अपनी कमर से एक देसी तमंचा निकाल कर सोते हुए राजन पर गोली चला दी.

गोली चलने की आवाज सुन कर गगन नींद से जाग गया और उस की नजर लेखराज और उस के हाथ में तमंचे पर पड़ी. गगन के अवचेतन दिमाग ने खुद को बचाने के लिए बिस्तर किनारे रखे फोन को लेखराज की ओर जोर से फेंका. वह फोन लेखराज के चेहरे पर जा कर लगा और कुछ पलों के लिए उस का ध्यान गगन से हट गया.

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इतने में गगन भाग कर दरवाजे की ओर से निकलने ही वाला था कि लेखराज ने गगन पर पीछे से गोली चला दी, जोकि उस की कमर पर लगी. गोली लगते ही वह गिर पड़ा.

गगन के शरीर से निकला खून पूरे फर्श पर फैल चुका था, जिसे देख लेखराज को लगा कि वह मर गया है, क्योंकि गगन के शरीर से किसी तरह की कोई हरकत नहीं हो रही थी.

पहली मंजिल पर गोली चलने की आवाज सुन कर 12 साल का छोटा बच्चा इस से पहले कि कुछ समझ पाता, नीरज ने उसे नीचे उतार दिया. फिर उस ने अपने थैले में से तमंचा बाहर निकाल कर अपनी सास सुमन पर निशाना साधते हुए 2 गोलियां चला दीं.

नीरज की पत्नी आयशा जो गहरी नींद में सो रही थी, बाहर होने वाले शोर से वह भी जाग गई. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती, नीरज ने मौका देख कर एक गोली अपनी पत्नी की छाती पर दाग दी. गोली मारने के बाद नीरज ने इधरउधर देखा तो सक्षम वहां मौजूद नहीं था.

नीरज ने जब उसे अपनी गोद से उसे नीचे उतारा था, तब वह भाग कर बाथरूम में चला गया था. उस ने खुद को बाथरूम में बंद कर लिया. सक्षम इतनी दहशत में था कि उस ने बाथरूम में किसी तरह की कोई हरकत करने की हिम्मत नहीं दिखाई.

इतने में लेखराज अपना काम पूरा कर के नीचे आया और उस ने नीरज से पूछा, ‘‘काम हो गया, अब आगे क्या करना है?’’

नीरज ने अपने थैले में से 2 धारदार चाकू निकाले और एक उस के हाथ में थमाते हुए बोला, ‘‘ये दोनों किसी भी कीमत पर जिंदा नहीं रहने चाहिए. इन्होंने मेरा जीना हराम कर दिया है, इसलिए इन्हें पूरी तरह से खत्म कर दो.’’

कहते हुए लेखराज और नीरज दोनों सुमन और आयशा की लाश की ओर बढ़े और दोनों उन के शरीर पर चढ़ कर उन के शरीर पर लगातार चाकू से वार करने लगे. उन्होंने उन का शरीर गोदने के बाद महसूस किया कि मकान में उन का नौकर भी रहता है, उस नौकर को भी उन्होंने ठिकाने लगाना जरूरी समझा. उसी समय उन्होंने महसूस किया कि कोई मकान का मेन दरवाजा खोल रहा है.

वह उस मकान में काम करने वाला नौकर शिवा ही था. उसे देख कर नीरज उस की ओर अपना तमंचा ले कर दौड़ा. शिवा अपनी जान बचाने के लिए तेजी से भागा और दीवार फांदते हुए वह मकान के इर्दगिर्द खाली पड़े प्लौट को पार करते हुए भाग निकला.

इस बीच नीरज ने उस की ओर निशाना साध कर गोली भी चलाई थी, लेकिन गोली के तमंचे में फंस जाने की वजह से शिवा अपनी जान बचाने में कामयाब रहा. नीरज और लेखराज सक्षम को छोड़ घर में सभी को गोली मारने के बाद तुरंत वहां से नौ दो ग्यारह हो गए.

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नीरज और लेखराज ने सभी को गोली तो मार दी थी, लेकिन उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि गगन को गोली लगने के बाद भी वह बच जाएगा. गगन को उस की कमर पर गोली लगी थी, उस का खून भी काफी बह चुका था लेकिन वह जिंदगी और मौत के बीच लटक गया था.

नीरज और लेखराज के वहां से निकल जाने के बाद सक्षम रोताबिलखता एकएक कर अपने परिवार के पास जा कर उन्हें देख रहा था, तभी उस ने देखा कि उस के मामा के शरीर में हरकत हो रही थी. यह देख कर फोन ले कर वह भागते हुए अपने मामा गगन के पास पहुंचा.

गगन ने 100 नंबर डायल कर पुलिस को फोन लगाया और पुलिस को कराहती आवाज में जल्द ही अपने घर पर आने के लिए कहा.

सुबह के करीब साढ़े 3 बज रहे थे, जब इस घटना की सूचना फरीदाबाद में धौज थाना क्षेत्र को मिली. धौज थाना गगन के नए घर से मात्र 5 मिनट की दूरी पर ही था.

मामले की सूचना मिलते ही धौज थानाप्रभारी दयानंद अपनी टीम के साथ कुछ ही देर में गगन के घर जा पहुंचे और उन्होंने सब से पहले मकान में गगन को ढूंढ निकाला और उसे पास के अस्पताल ले गए. उसी दौरान उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों को इस मामले की सूचना दी.

सूचना मिलने पर थोड़ी देर में जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और फोरैंसिक टीम भी वहां पहुंच गई. फोरैंसिक टीम द्वारा अपना काम निपटाने के बाद पुलिस ने दोनों लाशें पोस्टमार्टम के लिए भेज दीं.

इस के बाद उच्चाधिकारियों के निर्देश पर थानाप्रभारी ने जांच शुरू कर दी. पुलिस ने सक्षम से उस के पिता का मोबाइल नंबर ले कर टैक्निकल टीम को दे दिया. टीम ने ट्रेसिंग कर के नीरज की लोकेशन का पता लगा लिया.

घटना के 9 घंटे बाद डीएलएफ और धौज की क्राइम ब्रांच की टीमों ने 22 अक्तूबर को एनआईटी फरीदाबाद से दोनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया.

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औरत एक पहेली- भाग 3: विनीता के मृदु स्वभाव का क्या राज था

कभी ऐसा भी हो जाता कि विनीता अपने किसी निजी कार्यवश संदीप को कार में बैठा कर कहीं ले जातीं. संदीप घंटों के पश्चात प्रसन्न मुद्रा में वापस लौटते और बताते कि वह किसी बड़े होटल में विनीता के साथ भोजन कर के आ रहे हैं.

मेरे अंदर की औरत यह सब सहन नहीं कर पा रही थी. मैं यह सोच कर ईर्ष्या से जलती भुनती रहती कि विनीता की खूबसूरती ने संदीप के मन को बांध लिया है. अब उन्हें मैं फीकी लगने लगी हूं. उन के मन में मेरा स्थान विनीता लेती जा रही है.

कभी मैं क्षुब्ध हो कर सोचने लगती, इस शहर में मकान बनवाने से मेरा जीवन ही नीरस हो गया. एक शहर में रहते हुए संदीप और विनीता का साथ कभी नहीं छूट पाएगा. अब संदीप मुझे पहले की भांति कभी प्यार नहीं दे पाएंगे. विनीता अदृश्य रूप से मेरी सौत बन चुकी है, हो सकता है दोनों हमबिस्तर हो चुके हों. आखिर होटलों में जाने का और मकसद भी क्या हो सकता है?’

हमारा मकान पूरा बन गया तो मुहूर्त्त करने के पश्चात हम अपने घर में आ कर रहने लगे.

विनीता का आनाजाना और संदीप के साथ घुलमिल कर बातें करना कम नहीं हो पाया था.

एक दिन मेरे मन का आक्रोश जबान पर फूट पड़ा, ‘‘अब इस औरत के यहां आनाजाना बंद क्यों नहीं कर देते? मकान कभी का बन कर पूरा हो चुका है, अब इस फालतू मेलजोल का समापन हो जाना ही बेहतर है.’’

‘‘कैसी स्वार्थियों जैसी बातें करने लगी हो. विनीताजी ने हमारी कितनी सहायता की थी, अब हम उन का तिरस्कार कर दें, क्या यह अच्छा लगता है?’’

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‘‘तब क्या जीवन भर उसे गले से लगाए रहोगे.’’

‘‘तुम्हें जलन होती है उस की खूबसूरती से,’’ संदीप मेरे क्रोध की परवा न कर के मुसकराते रहे. फिर लापरवाही से बाहर चले गए.

क्रोध और उत्तेजना से मैं कांप रही थी. जी चाह रहा था कि अभी जा कर उस आवारा, चरित्रहीन औरत का मुंह नोच डालूं.

अपने अपाहिज पति की आंखों में धूल झोंक कर पराए मर्दों के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती है. अब तक न मालूम कितने पुरुषों के साथ मुंह काला कर चुकी होगी.

मुझे उस अपरिचित अनदेखे व्यक्ति से गहरी सहानुभूति होने लगी, जिस की पत्नी बन कर विनीता उस के प्रति विश्वासघात कर रही थी.

मैं सोचने लगी, ‘अगर यह कांटा अभी से उखाड़ कर नहीं फेंका गया तो मेरा मन जख्मी हो कर लहूलुहान हो जाएगा. इस से पहले कि मामला और आगे बढ़े मुझे विनीता के पति के पास जा कर सबकुछ साफसाफ बता देना चाहिए कि वे अपनी बदचलन पत्नी के ऊपर अंकुश लगाना शुरू कर दें. वह दूसरों के घर उजाड़ती फिरती है.’

उन के घर का पता मुझे मालूम था. एक बार मैं संदीप के साथ घर के बाहर तक जा चुकी थी. उस वक्त विनीता घर पर नहीं थीं. नौकर के बताने पर हम बाहर से ही लौट आए थे.

घर के सभी काम बच्चों पर छोड़ कर मैं विनीता के घर जाने के लिए तैयार हो गई. एक रिकशे में बैठ कर मैं उन के घर पहुंच गई.

विनीता घर में नहीं थीं. नौकर से साहब का कमरा पूछ कर मैं दनदनाती हुई सीढि़यां चढ़ कर ऊपर पहुंची.

नौकर ने कमरे के अंदर जा कर साहब को मेरे आगमन की सूचना दे दी. फिर मुझे अंदर जाने का इशारा कर के वह किसी काम में लग गया.

दरवाजे पर लहराता परदा एक ओर खिसका कर मैं ने अंदर प्रवेश किया तो सभी शब्द मेरे हलक में ही सूख गए. सामने कुरसी पर एक ऐसा इनसान बैठा हुआ था, जिस की कमर के नीचे दोनों टांग गायब थीं. उसे इनसान न कह कर सिर्फ एक धड़ कहा जाए तो बेहतर होगा.

‘‘आ जाओ, रेखा, मुझे विश्वास था  जीवन में दोबारा तुम से मुलाकात अवश्य होगी,’’ एक दर्दीला चिरपरिचित स्वर गूंज उठा.

उस पुरुष को पहचान कर मेरा रोंआरोंआ सिहर उठा था. पैरों तले जमीन खिसकती जा रही थी.

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यह कोई और नहीं, मेरे भूतपूर्व पति सूरज थे. इन से वर्षों पहले मेरा तलाक हो चुका था. फिर मैं ने संदीप के साथ नई दुनिया बसा ली थी और संदीप को अपने अतीत से हमेशा अनभिज्ञ रखा था.

अब सूरज को देख कर मेरे कड़वे अतीत का वह काला पन्ना फिर से उजागर हो गया था, जिस की यादें मेरे मन की गहराइयों में दफन हो चुकी थीं.

वर्षों पहले मांबाप ने बड़ी धूमधाम से मेरा विवाह सूरज के साथ किया था. सूरज एक कुशल वास्तुकार थे. घर भी संपन्न था. विवाह के प्रथम वर्ष में ही मैं एक सुंदर, स्वस्थ बेटे की मां बन गई थी.

फिर हमारी खुशियों पर एकाएक वज्रपात हुआ. एक सड़क दुर्घटना में सूरज की दोनों टांगों की हड्डियां टूट कर चूरचूर हो गई थीं. जान बचाने हेतु डाक्टरों को उन की टांगें काट देनी पड़ी थीं.

एक अपाहिज पति को मेरा मन स्वीकार नहीं कर पाया. मैं खिन्न हो उठी. बातबात पर लड़ने, चिड़चिड़ाने लगी. मन का असंतोष अधिक बढ़ गया तो मैं सूरज को छोड़ कर मायके  में जा कर रहने लगी थी.

मायके वालों के प्रयासों के बाद भी मैं ससुराल जाने को तैयार नहीं हो पाई तो सब ने मुझे दुखी देख कर मेरा तलाक कराने के लिए कचहरी में प्रार्थनापत्र दिलवा दिया. मैं सूरज से छुटकारा पा कर किसी समर्थ पूर्ण पुरुष से विवाह करने के लिए अत्यंत इच्छुक थी.

एक दिन हमेशा के लिए हमारा संबंधविच्छेद हो गया. कानून ने सूरज की विकलांगता के कारण हमारे बेटे विक्की को मेरी सुपुर्दगी में दे दिया.

विक्की की वजह से मेरे पुनर्विवाह में अड़चनें आने लगीं. बच्चे वाली स्त्री से विवाह करने के लिए कौन पुरुष तैयार हो सकता था. मेरे मायके वाले भी विक्की की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लादने के लिए तैयार नहीं हो पाए.

इन सब बातों की जानकारी हो जाने पर एक दिन सूरज की माताजी मेरे मायके आ पहुंचीं. उन्होंने रोरो कर विक्की को मुझ से ले लिया.

सूरज की माताजी प्रसन्न मन से वापस लौट आईं. मेरा बोझ हलका हो गया था. विक्की की जुदाई के गम से अधिक मुझे दूसरे विवाह की अभिलाषा थी.

एक दिन मेरा विवाह संदीप से संपन्न हो गया. हम दोनों का यह दूसरा विवाह था. संदीप विधुर थे. विवाह की पहली रात ही हम दोनों ने अपनेअपने अतीत को हमेशा के लिए भुला देने की प्रतिज्ञा कर ली थी.

फिर एक दिन मायके जाने पर मुझे मालूम हुआ कि सूरज की माताजी सूरज और विक्की को ले कर किसी अन्य शहर में चली गई हैं.

‘‘बैठो, रेखा. खड़ी क्यों हो? लगता है, मुझे अचानक देख कर हैरान रह गई हो. तुम ने तो समझ लिया होगा मैं कहीं मरखप गया होऊंगा.’’

‘‘नहीं, सूरज, ऐसा मत कहो. सभी को जीवित रहने का पूरापूरा अधिकार है,’’ मेरे मुंह से अचानक निकल गया और मैं एक कुरसी पर निढाल सी बैठ गई.

‘‘मेरे जीवित रहने का अधिकार तो तुम छीन कर ले गई थीं. रेखा, तुम छोड़ कर चली गईं तो मैं लाश बन कर रह गया था. अगर विनीता का सहारा नहीं मिलता तो मैं अब तक अवश्य मर चुका होता. आज विनीता की बदौलत ही मैं इतनी बड़ी फर्म का मालिक बना बैठा हूं.’’

बहुत प्रयत्न करने के बाद भी मेरे आंसू रुक नहीं पाए. मैं ने मुंह फेर कर रूमाल से अपना चेहरा साफ किया.

सूरज कहते जा रहे थे, ‘‘तुम्हें वह नर्स याद है जो मेरी देखभाल के लिए मां ने घर में रखी थी. वह शर्मीली सी छुईमुई लड़की विनी.’’

‘ओह, अब मैं समझी कि मुझे विनीताजी का चेहरा इतना जानापहचाना क्यों लग रहा था.’

‘‘तुम विनी को नहीं पहचान पाईं, परंतु विनी ने पहली बार देख कर ही तुम्हें पहचान लिया था. उस ने मुझे तुम्हारे बारे में, तुम्हारी आर्थिक स्थिति और रहनसहन के बारे में सभी कुछ बतला दिया था. मैं तुम्हारी यथासंभव सहायता करने के लिए तुरंत तैयार हो गया था. मेरे आग्रह पर विनीता ने कदमकदम पर तुम्हारी और तुम्हारे पति की मदद की थी.

‘‘मेरे पैर मौजूद होते तो मैं खुद चल कर तुम्हारे घर आता. तुम्हारे सामने दौलत के ढेर लगा कर कहता, ‘जितनी दौलत की आवश्यकता हो, ले कर अपनी भूख मिटा लो. तुम इसी वजह से मुझे छोड़ कर गई थीं कि मैं अपाहिज हूं. दौलत पैदा करने में असमर्थ हूं…तुम्हें पूर्ण शारीरिक सुख नहीं दे पाऊंगा…’’ कहतेकहते सूरज का गला भर आया था.

‘‘बस, रहने दो सूरज, मैं और अधिक नहीं सुन सकूंगी,’’ मैं रो पड़ी, ‘‘एक जहरीली चुभती हुई यादगार ही तो हूं, भुला क्यों नहीं दिया मुझे.’’

‘‘कैसे भुला पाता कि मेरे विक्की की तुम मां हो…’’

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‘‘विक्की कहां है, सूरज? वह कैसा है, क्या मैं उसे देख सकती हूं,’’ मैं व्यग्र हो कर कुरसी से उठ कर खड़ी हो गई.

सूरज अपनेआप को संयत कर चुके थे, ‘‘विक्की यानी विकास से तुम विनीता के दफ्तर में मिल चुकी हो. वह विनीता के बराबर वाली कुरसी पर बैठ कर दफ्तर के कामों में उस का हाथ बंटाता है. अब वह एक प्रसिद्ध वास्तुकार है. तुम्हारे मकान का नक्शा उसी ने तैयार किया था.’’

‘‘सच, वही मेरा विक्की है,’’ हर्ष व उत्तेजना से मैं गद्गद हो उठी. मेरी आंखों के सामने वह गोरा, स्वस्थ युवक घूम गया, जिस से मैं कई बार मिल चुकी थी, बातें कर चुकी थी. मेरे मकान के मुहूर्त पर वह विनीता के साथ मेरे घर भी आया था.

अचानक मेरे मन में एक अनजाना डर उभर आया, ‘‘क्या विक्की जानता है कि मैं उस की मां हूं?’’

‘‘नहीं, वह उस मां से नफरत करता है जो उस के अपाहिज पिता को छोड़ कर सुख की तलाश में अन्यत्र चली गई थी. वह विनीता को ही अपनी सगी मां मानता है. जानती हो रेखा, वह मुझे कितना चाहता है, मेरे बिना भोजन भी नहीं करता.’’

‘‘सूरज, मेरी एक बात मानोगे.’’

‘‘कहो, रेखा.’’

‘‘विक्की से कभी मत कहना कि मैं उस की मां हूं. यही कहना कि विनीता ही उस की असली मां है,’’ रोती हुई मैं सूरज के कमरे से बाहर निकल आई.

जिस पौधे को मैं उजाड़ कर चली गई थी, विनीता ने उसे जीवनदान दे कर हराभरा कर दिया था, मैं सोचती रह गई कि स्वार्थी विनीता है या मैं. कितना गलत समझ बैठी थी मैं विनीता को. इस महान नारी ने 2 बार मेरा घर बसाया था. एक बार अपाहिज सूरज और मासूम बेसहारा विक्की को अपनाकर और दूसरी बार मेरा मकान बनवा कर.

मैं सीढि़यां उतर कर नीचे आ गई.

घर वापस लौटी तो मेरे चेहरे की उड़ी हुई रंगत देख कर बच्चे और संदीप सब सोच में पड़ गए. एकसाथ ही मुझ से कारण पूछने लगे. मैं ने एक गिलास पानी पिया और इत्मीनान से बिस्तर पर बैठ कर संदीप से कहने लगी, ‘‘सुनो, तुम विनीताजी के दफ्तर में जा कर उन्हें और उन के पूरे परिवार को रात के खाने के लिए आमंत्रित कर आओ. उन्होंने हमारे लिए इतना सब किया है, हमारा भी तो उन के प्रति कुछ फर्ज है.’’

बच्चे हैरानी से एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए. संदीप मेरी ओर ऐसे देखने लगे, जैसे कह रहे हों, ‘औरत सचमुच एक पहेली होती है. उसे समझ पाना असंभव है.’

सत्य असत्य- भाग 3: क्या था कर्ण का असत्य

उस के समीप जा कर मैं ने उस का हाथ पकड़ा, ‘‘पिताजी की आखिरी तनख्वाह इस तरह उड़ा दी.’’

‘‘मेरे पिताजी कहीं नहीं गए. वे यहीं तो हैं,’’ उस ने मेरे पिता की ओर इशारा किया, ‘‘इस घर में मुझे सब मिल गया है. आज जब मैं देर से आई तो इन्होंने मुझे बहुत डांटा. मेरी नौकरी की बात सुन रोए भी और हंसे भी. पिताजी होते तो वे भी ऐसा ही करते न.’’

‘‘हां,’’ स्नेह से मैं ने उस का माथा चूम लिया.

‘‘बहुत भूख लगी है, दोपहर को क्या बनाया था?’’ निशा के प्रश्न पर मैं कुछ कहती, इस से पहले ही पिताजी बोल पड़े, ‘‘आज तुम नहीं थीं तो कुछ नहीं बना, सब भूखे रहे. जाओ, देखो, रसोई में. देखोदेखो जा कर.’’

निशा रसोई की तरफ लपकी. जब वहां कुछ नहीं मिला तो हड़बड़ाई सी बाहर चली आई, ‘‘क्या आज सचमुच सभी भूखे रहे? मेरी वजह से इतने परेशान रहे?’’

‘‘जाओ, अब दोनों मिल कर कुछ बना लो और इस नालायक को भी खिलाओ. इस ने भी कुछ नहीं खाया.’’

निशा ने गहरी नजरों से भैया की ओर देखा.

उस रात हम चारों ही सोच में डूबे थे. खाने की मेज पर एक वही थी, जो चहक रही थी.

‘‘बेटे, तुम्हारे उपहार हमें बहुत पसंद आए,’’ सहसा पिताजी बोले, ‘‘परंतु हम बड़े, हैं न. बच्ची से इतना सब कैसे ले लें. बदले में कुछ दे दें, तभी हमारा मन शांत होगा न.’’

‘‘जी, यह घर मेरा ही तो है. आप सब मेरे ही तो हैं.’’

‘‘वह तो सच है बेटी, फिर भी तुम्हें कुछ देना चाहते हैं.’’

‘‘मैं सिरआंखों पर लूंगी.’’

‘‘मैं चाहता हूं, तुम्हारी शादी हो जाए. मैं ने विजय के पिता से बात कर ली है. वह अच्छा लड़का है.’’

‘‘जी,’’ निशा ने गरदन झुका ली.

हम सब हैरानी से पिताजी की ओर देख रहे थे कि तभी वे बोल उठे, ‘‘झूठ नहीं कहूंगा बेटी, सोचा था तुम्हें अपनी बहू बनाऊंगा, परंतु मेरा बेटा तुम्हारे लायक नहीं है. मैं हीरे को पत्थर से नहीं जोड़ सकता. परंतु कन्यादान कर के तुम्हें विदा जरूर करना चाहता हूं. मेरी बेटी बनोगी न?’’

‘‘जी,’’ निशा का स्वर रुंध गया.

‘‘बस, अब आराम से खाना खाओ और सो जाओ,’’ मुंह पोंछ पिताजी उठ गए और पीछे रह गई प्लेट पर चम्मच चलने की आवाज.

उस के बाद कई दिन बीत गए. भैया की भूल की वजह से मां और पिताजी ने उन से बात करना लगभग छोड़ रखा था. निशा विद्यालय जाने लगी थी. शाम के समय हम सब चाय पीने साथसाथ बैठते.

एक शाम पिताजी ने फिर से सब को चौंका दिया, ‘‘निशा, कल विजय आने वाला है. आज मैं उस से मिला था. तुम कल जल्दी आ जाना.’’

तभी भैया बोल उठे, ‘‘विजय आज मुझ से भी मिला था, लेकिन उस ने तो नहीं बताया कि आप उस से मिले थे?’’

‘‘तो इस में मैं क्या करूं?’’ पिताजी का स्वर रूखा था, ‘‘मैं पिछले कई दिनों से उस से मिल रहा हूं. निशा के विषय में उस से पूरी बात की है. उस ने तुम से क्यों बात नहीं की, यह तुम जानो.’’

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‘फिर भी उसे मुझ से बात तो करनी चाहिए थी, मुझे भी तो वह हर रोज मिलता है.’’

‘‘चलो, उस ने नहीं की, अब तुम्हीं कर लेना. और अपने साथ ही लेते आना.’’

‘‘मैं क्यों उस से बात करूं? हमारा बचपन का साथ है, क्या उसे अपनी शादी की बात मुझ से नहीं करनी चाहिए थी. क्या उस का यह फर्ज नहीं था?’’

‘‘फर्जों की दुहाई मत दो कर्ण, फर्ज तो उस से पूछने का तुम्हारा भी था. निशा कोई पराई नहीं है. कम से कम तुम भी तो आगे बढ़ते.’’

‘‘लेकिन पिताजी, उस ने एक  बार भी निशा का नाम नहीं लिया, दोस्ती में इतना परदा तो नहीं होता.’’

दोस्ती के अर्थ जानते भी हो, जो इस की दुहाई देने लगे हो. फर्ज और दोस्ती बहुत गहरे शब्द हैं, जिन का तुम ने अभी मतलब ही नहीं समझा. सदा अपना ही सुख देखते हो, तुम्हें क्या करना चाहिए, बस, यही सोचते हो. तुम्हें क्या नहीं मिला, हमेशा उस का रोना रोते हो. यह नहीं सोचते कि तुम्हें क्या करना चाहिए था. उस ने बात नहीं की, तो तुम ही पूछ सकते थे. अपनेआप को इतना ज्यादा महत्त्व देना बंद करो.’’

उसी रात मैं ने आखिरी प्रयास किया. निशा से पहली बार पूछा, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’

परंतु कुछ न बोल वह खामोश रही.

‘‘निशा, बोलो, क्या इस रिश्ते से तुम खुश हो?’’

उस की चुप्पी से मैं परेशान हो गई.

‘‘भैया पसंद नहीं हैं क्या? मैं तो यही चाहती हूं कि तुम यहीं रहो, इसी घर में. कहीं मत जाओ. भैया तुम से बहुतबहुत प्यार करते हैं,’’ कहते हुए मैं ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा. फिर जल्दी से बत्ती जलाई. उस की सूजी आंखों में आंसू भरे हुए थे.

सुबह पिताजी के कमरे से भैया की आवाज आई, ‘‘निशा इसी घर में रहेगी.’’

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‘‘क्या उस की शादी नहीं होने दोगे? विजय का नाम तुम ने ही सुझाया था न, आज क्या हो गया?’’

‘‘मैं…मैं तब बड़ी उलझन में था, आत्मग्लानि ने मुझे तोड़ रखा था. मैं खुद को उस के काबिल नहीं पा रहा था.’’

‘‘काबिल तो तुम आज भी नहीं हो. जिस से जीवनभर का नाता जोड़ना चाहते हो, क्या उस के प्रति ईमानदार हो? तुम ने उस का कितना बड़ा नुकसान किया है, क्या उसे यह बात बता सकते हो?’’

अब भैया खामोश हो गए.

Crime: और एक बार फिर साबित हो गया “कानून के हाथ” लंबे होते हैं

आज आपको इस रिपोर्ट में हम एक ऐसे सनसनीखेज घटना बता रहे हैं जिसमें एक नारी ही नारी की दुश्मन बन गई एक मां ने अपनी नवजात बालिका की अपने ही हाथों से हत्या कर दी.

यह एक सर्वमान्य सिद्धांत माना गया है कि पूत कपूत हो सकता है मगर मां कभी कुमाता नहीं हो सकती.मां अपने बच्चों के साथ, उनके साथ अत्याचार, भेदभाव नहीं करती. मगर  आज  21 वीं शताब्दी के भारत में कुछ एक ऐसी घटनाएं घट जाती है जो इस धारणा को ध्वस्त कर देती हैं की एक नारी, एक मां अपनी औलाद को अपने ही हाथों से नहीं मारती. वह भी सिर्फ इसलिए कि वह एक लड़की है!

जी हां!! एक ऐसा ही दर्दनाक दुखद घटना क्रम आज हम आपको इस रिपोर्ट में बताने जा रहे हैं. किस किस तरह मां ने अपने पहले बच्चे को जो एक लड़की पैदा हुई थी को अपने ही हाथों से इस लिए मार डाला कि वह लड़का नहीं थी. समाज में लड़कों और लड़कियों के भेदभाव पर हमेशा प्रश्न चिन्ह खड़ा होता रहा है और अब तो यह भी कहा जा रहा है कि लड़कियां लड़कों से कहीं ज्यादा काबिल, संवेदनशील, कर्तव्य परायण और अपने मां पिता को आगे चलकर के संरक्षण देने में योग्य साबित हुई है.

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इस सब के बावजूद एक मां ने जब उसे लड़की पैदा हुई तो उसकी हत्या के लिए आज के सबसे बड़े हथियार “गूगल” का इस्तेमाल किया और उससे पूछा कि हत्या का तरीका क्या हो सकता है?

मासूम  की दुखदाई मौत

उज्जैन,  मध्य प्रदेश में तीन माह की मासूम के हत्या के मामले में सनसनीखेज खुलासा पुलिस ने किया  है.  बच्ची की मां स्वाति ने पुलिस को बताया  कि वह बेटा चाहती थी! पिंकी के जन्म के बाद से ही उसे नफरत करने लगी थी.मानसिक रूप से अपने आप को उसकी हत्या के लिए तैयार करती रही.

पुलिस के मुताबिक अपनी ही बच्ची की हत्यारी स्वाति बहुत शातिर किस्म की औरत है. वह बार-बार बयान बदल रही है. वह पुलिस को लगातार गुमराह कर रही है. पुलिस यह रिपोर्ट लिखे जाने के समय तक उसके साथ पूछताछ कर रही थी और वह कभी उसको कभी कुछ कर रही थी, पड़ताल के बाद और भी तथ्य सामने आएंगे.

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हमारे संवाददाता को पुलिस अधिकारियों ने बताया

मासूम पिंकी परिवार की लाड़ली बेटी थी, मगर  उसकी मां स्वाति  उसे पसंद नहीं करती थी. वह लगातार उसकी उपेक्षा करती थी.उसके सभी काम भी परिवार के दूसरे सदस्य ही करते थे. दरअसल, स्वाति बेटा चाहती थी, लेकिन बेटी होने के बाद से ही वह परेशान रहने लगी थी. पुलिस अधिकारी आकाश भूरिया के मुताबिक पुलिस के पास पर्याप्त सबूत हैं कि पिंकी को स्वाति ने ही मारा है. और सबूतों के आधार पर स्वाति को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया है, लेकिन बहुत सारे तथ्य हम सार्वजनिक नहीं कर सकते. स्वाति से अर्पित की शादी दो साल पहले  2019 में हुई थी.

बच्ची की आसान हत्या कैसे होगी?

स्वाति इतना होने के बावजूद अपनी कोख से जन्म लेने वाली पिंकी की हत्या के लिए जो काम किया उसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे स्वाति ने पिंकी की हत्या के लिए गूगल में सर्च किया और यह जानना चाहा कि कैसे हत्या करती हो वह आसानी से बच सकती है इस हत्याकांड के बाद पुलिस अधिकारियों ने विवेचना की और स्वाति को अपराधी पाया है संपूर्ण कहानी कुछ इस तरह सामने आई है. दरअसल,

पति अर्पित ने 5 दिन पहले ही पत्नी स्वाति  को एक नया स्मार्टफोन  दिलाया था. मोबाइल हाथ में आते ही सबसे पहले स्वाति ने गूगल पर अकाउंट बनाया. इसके बाद अगले 3 दिन  इंटरनेट पर वह बच्ची को मारने की तरीके ही सर्च करती रही.

आखिरकार  उसने बच्ची को पानी की हौद में डुबोकर मार दिया. उसने कुछ ऐसे सवाल ऑनलाइन सर्च किए थे- जैसे, बच्ची को कैसे मारें, कैसे बच्चों को आसानी से मारा जा सकता है? ऐसा क्या करें कि मारने वाला पकड़ा न जाए? सबसे आसान मौत क्या हो सकती है? बच्चों को कैसे मारें कि उनके शरीर पर कोई चोट के निशान न हो? कैसे मारें कि पोस्टमार्टम में किसी पर शक न हो?

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जैसे अनेक सवाल स्वाति ने गूगल पर सर्च किए  और अंततः 20 मिनट में  पिंकी की हत्या पानी में डालकर कर दी. घटना के वक्त घर पर कोई नहीं था  दोपहर 1.20 से 1.40 बजे के दौरान घर में से लापता हुई थी. उस समय पति घर के नीचे दुकान पर था.उसके पिता कुछ समय पहले बाहर गए थे. घर में स्वाति और उसकी सास अनीता भटेवरा के अतिरिक्त कोई नहीं था.

कहते हैं कि कानून के हाथ लंबे होते हैं अपराधी बच नहीं सकता यहां भी यह सत्य सिद्ध हुआ.

जांच की गई तो आखिर स्वाति शंका के घेरे में आ गई.

अंततः पुलिस ने उसे हिरासत में लेकर न्यायालय में पेश किया है जहां से उसे जेल भेज दिया गया है.

सुलझती जिंदगियां- भाग 3: आखिर क्या हुआ था रागिनी के साथ?

‘‘अपने हाथ से एक पंछी निकलता देख वे बौखला उठे और तुम्हारे जाने के महीने भर बाद ही मुझे अपनी हवस का शिकार बना लिया. उस दिन मां ने मुझे पड़ोस में आंटी को राजमा दे कर आने को कहा. हमेशा की तरह कभी यह दे आ, कभी वह दे आ. मां पर तो अपने बनाए खाने की तारीफ  सुनने का भूत जो सवार रहता था. हर वक्तरसोई में तरहतरह के पकवान बनाना और लोगों को खिला कर तारीफें बटोरना यही टाइम पास था मां का.

‘‘उस दिन आंटी नहीं थीं घर पर… अंकल ने मुझ से दरवाजे पर कहा कि अांटी किचन में हैं, वहीं दे आओ, मैं भीतर चली गई. पर वहां कोई नहीं था. अंकल ने मुझे पास बैठा कर मेरे गालों को मसल कर कहा कि वे शायद बाथरूम में हैं. तुम थोड़ी देर रुक जाओ. मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था. मैं उठ कर जाने लगी तो हाथ पकड़ कर बैठा कर बोले कि कितने फालतू के गेम खेलती हो तुम… असली गेम मैं सिखाता हूं और फिर अपने असली रूप में प्रकट हो गए. कितनी देर तक मुझे तोड़तेमरोड़ते रहे. जब जी भर गया तो अपनी अलमारी से एक रिवौल्वर निकाल कर दिखाते हुए बोले कि किसी से भी कुछ कहा तो तेरे मांबाप की खैर नहीं.

‘‘मन और तन से घायल मैं उलटे पांव लौट आई और अपने कमरे को बंद कर देर तक रोती रही. मां की सहेलियों का जमघट लगा था और वे अपनी पाककला का नमूना पेश कर इतरा रही थीं और मैं अपने शरीर पर पड़े निशानों को साबुन से घिसघिस कर मिटाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘धीरेधीरे मैं पढ़ाई में पिछड़ती चली गई और मैं 10वीं कक्षा में फेल हो गई. मां ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाई, मगर कभी मेरी पीड़ा न सुनी. मैं गुमसुम रहने लगी. सोती तो सोती ही रहती उठने का मन ही न करता. मां खाना परोस कर मेरे हाथों में थमा देती तो खा भी लेती अन्यथा शून्य में ही निहारती रहती. सब को लगा फेल होने का सदमा लग गया है, किसी ने सलाह दी कि मनोचिकित्सक के पास जाओ.

3-4 सीटिंग के बाद जब मैं ने महिला मनोचिकित्सक को अपनी आपबीती बताई तो उन्होंने मां को बुला कर ये सब बताया. मगर वे मानने को ही तैयार न हुईं. कहने लगीं कि साल भर तो पढ़ा नहीं, अब उलटीसीधी बातें बना रही है. इस की वजह से हमारी पहले ही कम बदनामी हुई है, जो अब पड़ोसी को ले कर भी एक नया तमाशा बनवा लें अपना… जब मेरी कोई सुनवाई ही नहीं तो मैं भी चुप्पी लगा गई. मुझे ही आरोपी बना कर कठघरे में खड़ा कर दिया गया था. फिर इंसाफ  किस से मांगती?

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‘‘तब से अपना मुंह बंद कर जीना सीख लिया. मगर इस दिल और दिमाग का क्या करूं. जो अब भी चीखचीख कर इंसाफ  मांगता है जब दर्द बरदाश्त से बाहर हो जाता है तो नशा ही मेरा सहारा है, उन गोलियों को खा बेहोशी में डूब जाती हूं. तू ही बता कोई इलाज है क्या इस का तेरे पास?’’ रागिनी ने सीमा के हाथों को अपने हाथों में ले कर पूछा.

‘‘हां है… हर मुसीबत का कोई न कोई हल जरूर होता है. बस उसे ढूंढ़ने की कोशिश जारी रहनी चाहिए. इस बार तेरे मायके मैं भी साथ चलूंगी और उस शख्स के भी घर चल कर, बलात्कारियों की सजा पर चर्चा करेंगे. बलात्कारियों को खूब कोसेंगे, गाली देंगे और बातों ही बातों में उस शख्स के चेहरे पर लगे मुखौटे को उस की पत्नी के समक्ष नोंच कर फेंक देंगे.

‘‘उन्हें भी तो पता चले उन के पतिपरमेश्वर की काली करतूत…देखो बलात्कारी की पत्नी उस की कितनी सेवा करती हैं… उन का बुढ़ापा नर्क बना कर छोड़ेंगे… रोज मरने की दुआ मांगता न फिरे वह तो मेरा नाम बदल देना,’’ सीमा ने रागिनी के हाथों को मजबूती से थाम कर बोला.

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रागिनी के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. तभी रमन ने आ कर रागिनी के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बचपन की सहेली क्या मिल गई, तुम तो एकदम बदल ही गई. यह मुसकराहट कभी हमारे नाम भी कर दिया करो.’’

सीमा ने रागिनी के हाथों को रमन के हाथों में सौंपते हुए कहा, ‘‘अब से यह इसी तरह मुसकराएगी, आप बिलकुल फिक्र न करें… इस के कंधे से कंधा मिलाने के लिए मैं जो वापस आ गई हूं इस की जिंदगी में.’’

Satyakatha: विदेशियों से साइबर ठगी- भाग 2

सौजन्य- सत्यकथा

‘‘मगर क्यों?’’ यश ने सिर्फ इतना ही पूछा कि लैपटौप संभालने वाले पुलिसकर्मी ने कहा, ‘‘यहां छापेमारी हुई है. तुम्हारे काल सेंटर के खिलाफ कंप्लेन है. जो कुछ भी कहना है, वह थाने में कहना. चलो, लाओ तुम्हारा अपना मोबाइल फोन कहां है? वह भी दो.’’

‘‘जी, वो तो आप ने ले रखा है.’’ यश बोला.

‘‘…और कंपनी का मोबाइल?’’ पुलिसकर्मी ने सवाल किया.

‘‘जी, वह चार्ज हो रहा है.’’ दाईं ओर चार्जर पौइंट की ओर इशारा करते हुए यश बोला. पुलिस ने उस मोबाइल को भी अपने कब्जे में ले लिया.

‘‘कंपनी का कोई दूसरा डिवाइस या फाइल वगैरह भी है?…उसे भी दो.’’

‘‘कोई और डिवाइस नहीं है सर, सिर्फ एक फाइल है,’’ बैड के नीचे से नीले रंग की एक फाइल निकालते हुए यश बोला.

थोड़ी देर में पुलिस यश को रिसौर्ट के रिसैप्शन पर ले आई. वहां उस के कुछ और साथियों को पुलिस ने पकड़ रखा था. उन्हीं में रवि भी था. वहीं उसे मालूम हुआ कि दोनों रिसौर्ट में पुलिस ने छापेमारी की है और कुल 18 लोगों को पकड़ लिया है.

छापेमारी कथित काल सेंटर द्वारा फरजीवाड़ा करने की शिकायत पर की गई थी. पुलिस हिरासत में लिए गए युवाओं में एक युवती भी थी. सभी के लैपटौप, मोबाइल और हेडफोन के अलावा माडम, राउटर एवं दूसरे उपकरण भी जब्त कर लिए गए थे.

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दरअसल, अजमेर जिले में स्थित पुष्कर की पुलिस को जयपुर हेडक्वार्टर से सूचना मिली थी कि वहां 2 रिसौर्ट में फरजी काल सेंटर चलाया जा रहा है. सेंटर के कर्मचारी वर्क फ्रौम होम के तहत जौब कर रहे हैं.

वे विदेशियों से औनलाइन फ्रौड के धंधे में लिप्त हैं. काल सेंटर के कर्मचारी उन्हें अमेजन का प्रतिनिधि बताते हैं. कुछ कर्मचारी खुद को इनकम टैक्स का अधिकारी भी बताते हैं.

इसी शिकायत के आधार पर पुलिस ने दोनों रिसौर्ट पर दबिश दी थी और सेंटर के कर्मचारियों को पकड़ लिया था. उन की ठगी का शिकार होने वाले अमेरिका और आस्ट्रेलिया के लोग थे.

पुलिस सभी को पुष्कर थाने ले आई. उन से पूछताछ से मालूम हुआ कि सभी 10वीं-12वीं तक ही पढ़े हैं, लेकिन वे फर्राटेदार अंगरेजी बोलते हैं. कुछ तो अमेरिकन और ब्रिटिश अंगरेजी दोनों बोलने में माहिर थे.

हैरानी की बात यह थी उन में से कोई भी स्थानीय नहीं था. यहां तक कि जयपुर का भी नहीं था. सभी दिल्ली, गजियाबाद, मुंबई, कोटा, पटना, नागौर और गुजरात के आनंद के थे. उन्हें सेंटर में कुछ माह पहले ही जौब मिली थी. सभी लंबे समय से बेरोजगार थे.

फरजीवाड़े के लिए सेंटर के संचालक ने विदेशी साइटों पर जा कर उन का डेटा खरीदा था. फिर काल या मैसेजिंग के जरिए उन से संपर्क किया और विविध औफर के साथ ठगी को अंजाम दिया. इस काम के लिए नियुक्त किए गए युवाओं को 25 हजार रुपए मंथली सैलरी पर रखा गया था. साथ ही उन्हें इंसेंटिव भी मिलता था.

इस तरह से एक कर्मचारी को 70-80 हजार रुपए तक मिल जाते थे. कुछ लोग एक महीने में एक लाख रुपए तक इंसेंटिव पा चुके थे. यह उन के द्वारा क्लाइंट के संतुष्ट होने और उन के काम से ठगी गई रकम पर निर्भर करता था.

सभी के नाम दोनों रिसौर्ट के अलगअलग कमरे बुक थे. एक तरह से उन का वही औफिस और रहने का ठिकाना था. कमरे में ही खानेपीने की तमाम सुविधाएं उपलब्ध करवा दी गई थीं. सेंटर के ये सारे इंतजाम पिछले जून माह से किए गए थे.

अगस्त के महीने में जयपुर की पुलिस को उस सेंटर की संदिग्ध गतिविधियों की सूचना मिली थी. उस के बाद से ही जयपुर पुलिस ने अजमेर और पुष्कर की पुलिस को अलर्ट कर दिया था. इस की तहकीकात की जिम्मेदारी एएसपी (ग्रामीण) सुमित मेहरड़ा, आईपीएस को सौंपी गई थी.

उस के बाद ही मौका देख कर पुलिस ने 7 अक्तूबर को दोनों रिसौर्ट पर अचानक रेड डाली, जिस में सेंटर के कर्मचारी पकड़े गए और उन से ठगी के कई दस्तावेज भी हाथ लगे.

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उन दस्तावेजों और लैपटौप से मिली जानकारियों के आधार पर ठगी का पूरा मामला सामने आ गया. ठगी के तरीके का खुलासा हो गया. कुछ बातें जौब करने वाले सेंटर के कर्मचारियों ने बताईं. हालांकि कर्मचारियों की आईडेंटिटी में किसी भी तरह की हेराफेरी या फरजीवाड़ा नहीं किया गया था.

पूछताछ में पुलिस को मालूम हुआ कि वे ठगी को किस तरह से अंजाम देते थे. दूर बैठे विदेशियों को फोन पर इस तरह की बातें करते थे, जिस से वे सेंटर द्वारा बुने गए ठगी के जाल में फंस जाते थे. हालंकि इस की पूरी जानकारी सेंटर के उन युवाओं को भी नहीं होती थी कि उन के काम से कोई ठगा जा रहा है.

उन के सभी क्लाइंट आस्ट्रेलिया और अमेरिका के थे. उन्हें वे इनकम टैक्स औफिसर की हैसियत से फोन करते थे या फिर मैसेज भेजते थे. वे कहते थे कि उन के 4-5 साल की औडिट रिपोर्ट में कई खामियां हैं, उसे वे तुरंत सही करवा लें, वरना उन्हें भारी जुरमाना भरना पड़ सकता है.

इसी के साथ उन्हें एक राशि बताई जाती थी और कहा जाता था, वह उन की पिछली गलतियों के लिए निर्धारित किया गया फाइन है. उसे भर देने पर वित्तीय कानून के मुताबिक भविष्य में किसी भी तरह के मुकदमे की काररवाई से बचे रहेंगे.

उस के बाद विदेश में बैठा वह व्यक्ति सेंटर के खाते में पैसा ट्रांसफर कर देता था, जो लाखों में होता था.

अमेरिका के लिए ठगी का तरीका अलग तरह का था. वहां के क्लाइंट के लिए सेंटर के कर्मचारी खुद को अमेजन कंपनी के रिप्रजेंटेटिव कहते थे.

इस के लिए सेंटर के संचालक द्वारा पहले से कर्मचारियों को अलगअलग एग्जीक्यूटिव के रूप में पोस्ट बंटे होते थे. उन से कहा जाता था कि आप ने अमेजन कंपनी का जो सामान खरीदा है, उस बारे वे कुछ विशेष जानकारी बताना चाहते हैं.

उन के द्वारा मना करने पर कहा जाता था कि उन का सिस्टम पहले सामान की खरीद के बारे में दिखा रहा है. इस तरह से उन्हें बातोंबातों किसी गिफ्ट या पहले के किसी औफर को ठुकराने या लौटाने का जिक्र कर उलझा देते थे.

कुछ समय में ही क्लाइंट उस के झांसे में आ जाता था. फिर अमेजन अकाउंट हैक होने की बात कर उस का आईपी एड्रेस आदि ले लेते थे. यहां तक कि एनीडेस्क का इस्तेमाल कर सीधे उस के कंप्यूटर, लैपटौप या मोबाइल में घुस जाते थे.

इस घुसपैठ के बाद क्लाइंट को हैकिंग का भय दिखाया जाता था और छुटकारा पाने के एवज में एक रकम मांगी जाती थी. बदले में उन्हें अमेजन के कूपन का औफर दिया जाता था और उन का यूनिक नंबर ले कर डालर में मोटी राशि सेंटर के अकाउंट में ट्रांसफर करवा ली जाती थी.

अगले भाग में पढ़ें- राहुल ने बताया कि कोरोना काल में उस के बिजनैसमैन पिता की मौत हो गई थी

लौटती बहारें- भाग 5: मीनू के मायके वालों में क्या बदलाव आया

अब तक आप ने पढ़ा:

शादी के बाद मीनू ससुराल आई तो घर के लोगों ?की सोच काफी पुरानी थी. उसे बातबात पर नीचा दिखाने की कोशिश की जाती थी. फिर भी मीनू सब को उचित सम्मान देती थी, सब का खयाल रखती थी.

कुछ दिनों बाद वह अपने मायके आई तो वहां भी खुद के लिए घर वालों का व्यवहार बदला पाया. छोटा भाई जहां लफंगे दोस्तों के साथ घूमने लगा था, वहीं छोटी बहन रेनू गलत सोहबत में पड़ गई थी.

यह सब देख कर मीनू उदास तो हुई पर फिर मन ही मन ठान लिया कि वह अपनी बहन और भाई को सही रास्ते पर ला कर ही दम लेगी.

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मैं अचानक अपने कमरे में जा कर अपने सामान की दोनों गठरियां उठा लाई. कपड़े तो मैं ने घर में काम करने वाली को देने के लिए आंगन में ही रख दिए पर पुस्तकों को जा कर मां के बड़े संदूक में रख आई.

मैं ने बड़े चाव से पापा व मम्मी की पसंद का खाना बनाया. मैं किचन से निकल ही रही थी कि मम्मी मुझे आवाज दे कर बुलाने लगीं. वहां जा कर देखा कि मम्मी पापा के रिटायरमैंट में मिले उपहारों का अंबार लगाए बैठी थीं. देखते ही बोलीं, ‘‘मीनू इधर आ कर देख. तुझे क्याक्या ले जाना है… तेरे जाने की तैयारी कर रही थी.

मैं सोच रही थी तुझ से पूछ कर ही तेरा सामान पैक करूं?’’

मैं हैरान रह गई कि मुझ से पूछे बिना ही मेरी जाने की तैयारी शुरू हो गई. मैं मन ही मन टूट सी गई, क्योंकि मैं तो 8 दिन रहने का सपना संजो कर आई थी. यहां तो चौथे दिन ही विदा करने का मन बना लिया.

अनुभवी मां ने शायद हम तीनों भाईबहनों के ऊपर गहराते तनाव के बादल और गहरे होते देख लिए थे. मैं ने समझदारी से काम लेते हुए चेहरे पर निराशा का भाव न लाते हुए बड़ी सहजता से कहा, ‘‘अरे नहीं मम्मी, अभी 2 महीने पहले ही तो सब कुछ ले कर विदा हुई हूं. आप फिर शुरू हो गईं?’’

मम्मी ने चुपचाप पापा को मिले उपहारों में से कुछ उपहार छांट कर एक ओर रख दिए और बोलीं, ‘‘तूने तो कह दिया कुछ नहीं चाहिए, पर हमें तो अपने मानसम्मान का ध्यान रखना है… तेरी ससुराल वाले कहेंगे बेटी को खाली हाथ भेज दिया.’’

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मैं ने चुप रहने में ही भलाई समझी. चुपचाप सामान देखने लगी. कुछ सामान घरगृहस्थी के उपयोग का था. कुछ कपड़े थे. मैं ने सारा सामान समेटा और अपने सूटकेस में रखने जाने लगी. आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. शुक्र है कमरे में कोई नहीं था. अटैची खोली तो बड़े चाव से साथ लाए कपड़े मुंह चिढ़ाने लगे मानो पूछ रहे हों कितने अवसर मिले हमें पहनने के?

मन की वेदना कम करने के लिए अपनी सब से प्रिय सखी चित्रा को फोन किया पर वह भी शहर से बाहर गई हुई थी. समय काटे नहीं कट रहा था. जिस मायके आने के लिए इतनी ज्यादा उतावली हो रही थी वहां अब 1-1 पल गुजारना कठिन हो रहा था. समय जैसे रुक गया था.

कुछ देर पापा के पास बैठ कर उन से उन के आगे के प्लान पूछने लगी. वे भी निराश से ही थे. इतनी महंगाई में केवल पैंशन से गुजारा होना कठिन था. पापा भी हमेशा से स्वाभिमानी, गंभीर और मितभाषी रहे हैं. चाहते तो किसी अकाउंट विभाग में नौकरी कर सकते हैं, पर बेचारे कहने लगे, ‘‘मीनू मैं जानता हूं कि पैंशन के पैसे रोजमर्रा के खर्चों के लिए कम पड़ेंगे पर क्या करूं? सिफारिश का जमाना है. इस उम्र में नौकरी के लिए किस के आगे हाथ जोड़ूं?’’

यह सुन मन बहुत दुखी हो गया. मैं रोष से बोली, ‘‘आप लोगों ने मेरी शादी की बहुत जल्दी मचाई वरना उस समय मुझे अपने ही कालेज में लैक्चररशिप मिल रही थी. मैं ने आप लोगों से शादी न करने की कितनी जिद की थी पर आप दोनों माने ही नहीं.’’

पापा बोले, ‘‘मीनू बेटा कब तक तेरी शादी न करता बता? एक दिन तो तुझे जाना ही था. पराया धन कोई कब तक अपने घर में रख सकता है.’’

पापा की बात सुन कर मन फिर से खिन्न हो गया. यहां पर भी पराई और ससुराल में भी पराई… मन हाहाकार कर उठा. तो फिर मेरा कौन सा घर है? मैं हूं किस की? आंखें फिर बरसने लगी थीं. बड़ी कठिनाई से स्वयं को संभाल कर मम्मी के साथ किचन में हाथ बंटाने लगी.

मम्मी कहने लगीं, ‘‘आराम से बैठ. मैं सब कर लूंगी. अब तो अकेले ही सब करने की आदत पड़ गई है. रेनू तो किचन में झांकती भी नहीं. बस कालेज, पढ़ाई और कुछ नहीं.’’

मन तो हुआ कि रेनू की बात बता कर मम्मी को सजग कर दूं पर घर का माहौल और खराब न हो जाए, यह सोच कर चुप रही.

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अगले दिन सवेरे जल्दी उठ कर नहाधो कर तैयार हो गई. मन उचाट सा हो गया था. दिल कर रहा था जल्दी से निकल जाऊं. कम से कम घर का माहौल तो सामान्य हो जाए. जल्दीजल्दी नाश्ता किया. राजू ही छोड़ने जा रहा था. नीचे औटो आ गया तो मैं सब से मिलने लगी. मैं ने बड़े प्यार से आगे बढ़ कर रेनू को गले लगाया. वह अनमनी सी मेरे जाने के इंतजार में खड़ी थी. उस ने जल्द ही मुझे अपने से अलग कर लिया और सिर झुका कर खड़ी हो गई.

एक बार फिर मैं मम्मीपापा के गले लग कर रो पड़ी. उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेर कर चुप कराया. मैं भावों का और अधिक प्रदर्शन न करते हुए सीढि़यां उतर गई. राजू ने औटो में सामान रख दिया. पापा तो नीचे ही आ गए थे, परंतु मम्मी और रेनू ऊपर बालकनी में ही खड़ी थीं. मैं ने औटों में बैठ कर हाथ हिलाया. ऊपर से भी हाथ हिलते नजर आए. देखतेदेखते सब आंखों से ओझल हो गए.

इस प्रकार मायके से मेरी दूसरी बार विदाई हुई. बसस्टैंड पर बस खड़ी थी. राजू ने मुझे बस में बैठाया फिर बोला, ‘‘दीदी कालेज को देर हो रही है,’’ और फिर नीचे उतर गया.

उतर कर राजू ने एक बार बस की खिड़की की ओर पलट कर देखा. मैं उसी की ओर देख रही थी.

‘‘बाय,’’ कह वह तेजी से चलता हुआ भीड़ में गुम हो गया.

राजू के जाते ही मन में एक गहरी टीस उठी. मैं बस में बैठी सोचने लगी कि समय कैसे बदलता है. मैं रेनू और राजू दोनों की चहेती दीदी थी. हर काम में मुझ से सलाह मांगते थे. मुझ से पूछे बिना एक कदम भी नहीं उठाते थे. आज दोनों कैसे पराए से हो गए थे. मेरे मन में दोनों के गुमराह होने की शंका किसी नाग की तरह फन फैला रही थी.

ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही याद आया कि मायके से 8-10 दिन रहने की अनुमति ले कर गई थी पर 4 दिनों में ही लौट आई. कोई बहाना ही बनाना होगा. मेरे दिमाग ने काम किया. रवि भैया ने जैसे ही दरवाजा खोला मैं ने नकली मुसकान का मुखौटा ओढ़ लिया.

रवि हैरानी से बोला, ‘‘भाभी इतनी जल्दी कैसे? फोन कर देतीं. मैं लेने आ जाता.’’

हमारी आवाज सुन कर पापाजी आ गए.

मैं ने पापाजी के पैर छुए, फिर यभासंभव आवाज थोड़ी तेज कर के कहा, ‘‘वहां पापामम्मी का परिवार सहित भारतभ्रमण का कार्यक्रम पहले से ही तय था. वे सब मुझ से भी साथ चलने का अनुरोध कर रहे थे, पर मैं ने तो इनकार कर दिया. इसलिए जल्दी आना पड़ा.’’

मैं चाह रही थी कि अंदर कमरे में बैठी अम्मांजी भी सुन लें ताकि मुझे बारबार झूठ न बोलना पड़े. वैसे मेरा मन मुझे यह झूठ बोलने के लिए धिक्कार रहा था. अंदर अम्मां से जा कर भी मिली. उन्होंने बताया कि नीलम यहीं थी. कल ही गई है. दरअसल, कुछ दिन बाद उस की बचपन की सहेली दिव्या की शादी है. वह पड़ोस में ही रहती है, इसलिए वह शादी में शामिल होने के लिए 2-3 दिनों के लिए फिर आएगी.

मैं थोड़ी देर पापाजी और अम्मां के पास बैठी रही. वे रिटायरमैंट के कार्यक्रम के विषय में पूछते रहे. किसी ने भी चाय तो क्या पानी को भी नहीं पूछा. मेरा सिर थकावट व तनाव से फटा जा रहा था. फिर किचन में जा कर सब के लिए चाय बना कर लाई. चाय पी कर थोड़ा तरोताजा हो रात के खाने की तैयारी में जुट गई.

2 दिन बाद ये भी मुंबई से लौट आए. इन का काम भी वहां जल्दी खत्म हो गया था. शेखर भी मुझे जल्दी आया देख कर चौंक गए. मैं ने मन में उठती टीस को दबाते हुए जबरन मुसकराते हुए कहा, ‘‘मुझे वहां आप के आने की महक आने लगी थी, इसलिए भागीभागी चली आई.’’

ये भी मूड में आ गए. मुझे पकड़ने दौड़े तो मैं हंसते हुए किचन में घुस गई.

जिंदगी फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगी. मैं बारबार ससुराल में अपनेपन का सुबूत पेश करने की कोशिश में लगी रहती और ससुराल वाले उन सुबूतों को झूठा साबित करने के प्रयास में रहते. यही करतेकरते थोड़ा समय और बीत गया.

2 दिन बाद नीलम जीजी आने वाली थीं. उन के पति व्यस्त थे. उन्हें शादी में बरात के समय ही शामिल होना था. परंतु नीलम जीजी सभी कार्यक्रमों में शामिल होना चाहती थीं, इसलिए 2 दिन पहले ही आ रही थीं. नीलम जीजी के आने की खबर से घर में उत्साह की लहर फैली थी. उन की सहेली के परिवार वाले निमंत्रणपत्र देने आए तो बारबार सभी से विवाह में शामिल होने की मनुहार कर रहे थे.

ससुराल शहर में ही थी, इसलिए नीलम जीजी शाम को ही औटो से आईं. राहुल भी साथ था और बहुत सा सामान भी. घर में मैं और अम्मां ही थे. मैं किचन में लगी थी. वे सारा सामान अकेले ही ले कर अंदर आ गईं. सहेली के विवाह में शामिल होने आई थीं, इसलिए बहुत अच्छे मूड में थीं. मैं ने आगे बढ़ कर उन्हें गले लगाया. उन्होंने फिर पहले की तरह मुसकान दी और स्वयं को मुझ से अलग करते हुए अम्मां के पास चली गईं.

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अगले दिन दोपहर से संगीत का कार्यक्रम था. मुझे लगा कि मुझे भी नीलम साथ ले कर जाएंगी, इसलिए मैं जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी.

अचानक अम्मांजी की आवाज आई, ‘‘बहू, मेरा और नीलम का खाना मत बनाना. हमारा खाना वहीं होगा.’’

मैं आहत सी हो गई. मैं नईनवेली दुलहन पर मुझे तो कोई किसी योग्य समझता ही नहीं. मन मार कर काम में लग गई. तभी अचानक नीलम जीजी की जोरजोर से रोने की आवाजें आने लगीं. मैं डर गई कि क्या हुआ. कहीं राहुल को चोट तो नहीं लग गई. मैं आटे से सने हाथों को जल्दी से धो कर अंदर कमरे की ओर दौड़ी. अंदर जा कर देखा नीलम जीजी अपना सामान बिखराए रो रही थीं. अम्मांजी बैग खोल कर कुछ ढूंढ़ रही थीं. पूछने पर मालूम चला कि नीलम दीदी का एक बैग शायद जल्दबाजी में औटोरिकशा में ही छूट गया. उस में उन के जेवर भी थे.

यह सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा. अब तो औटोचालक की ईमानदारी पर ही उम्मीद लगाई कि शायद पुलिस स्टेशन में जमा करा दे अथवा घर आ कर लौटा जाए. नीलम को न तो औटो का नंबर याद था और न ही चालक का चेहरा. इस से परेशानी और बढ़ गई. घर में गहरा तनाव छा गया था.

पापाजी ने इन्हें भी औफिस से बुलवा लिया था. दोनों पुलिस स्टेशन रपट लिखवाने गए. पर वहां जा कर भी कोई ऐसी तसल्ली नहीं मिली जिस से तनाव कम हो जाता. बेटी का मायके आ कर जेवर खो देना मायके वालों के लिए बहुत बदनामी काकारण था. शेखर और रवि दोनों मिल कर जीजी को दिलासा दे रहे थे. नीलम जीजी एक ही प्रलाप किए जा रही थीं कि ससुराल जा कर क्या मुंह दिखाऊंगी. अम्मां औटो वाले को कोस रही थीं. मैं और पापाजी दोनों बेबस से खड़े थे.

उस दिन किसी ने खाना नहीं खाया. मैं ने बड़ी कठिनाई से राहुल को दूध व बिस्कुट खिलाए. अगले दिन शाम तक न पुलिस स्टेशन से कोई खबर आई और न ही औटोचालक का ही कुछ अतापता मिला. सभी निराश हो चले थे. मुझे नीलम जीजी की दशा देख कर बहुत दुख हो रहा था. कितने उत्साह से विवाह में शामिल होने आई थीं और किस परेशानी में घिर गईं. अगर कभी मायके जा कर मेरे साथ यह घटना हो जाती तो? यह सोच मैं मन ही मन कांप गई. मेरे मन में विचारों की उधेड़बुन चल रही थी कि कैसे नीलम जीजी की परेशानी दूर करूं.

अचानक दिमाग में बिजली कौंधी. मैं दृढ़ कदमों से अपने कमरे में गई और अपनी अलमारी से सारे जेवर निकाल लाई. जेवरों का डब्बा मैं ने नीलम जीजी को देते हुए कहा, ‘‘लो जीजी, ये जेवर आज से आप के हुए. मेरे तो फिर बन जाएंगे… अभी आप का जेवरों के कारण कोई अपमान नहीं होना चाहिए.’’

सभी हैरानी से मेरा मुंह देखने लगे मानो उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा हो.

कुछ ही क्षणों बाद घर के सभी सदस्य गहने लेने से इनकार करने लगे तो मैं ने सधे स्वर में कहा, ‘‘मैं जेवर, नीलम जीजी को दे कर कोई एहसान नहीं कर रही हूं. आप सब मेरा परिवार हैं. आप के मानअपमान में मैं भी बराबर की हिस्सेदार हूं. आजकल आएदिन लूटपाट की खबरें आती रहती हैं. गहने तो अधिकतर लौकरों की शोभा ही बढ़ाते हैं,’’ यह कह मैं किचन की ओर चल दी.

तभी नीलम जीजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगीं, ‘‘नहींनहीं भाभी मैं अपनी लापरवाही की सजा आप को नहीं दे सकती,’’ और फिर से जेवर वापस करने लगीं.

इस बार मैं ने उन्हें राहुल का वास्ता दे कर जेवर ले लेने को कहा. कोई चारा न देख कर उन्होंने जेवर ले लिए.

शेखर और रवि भैया मुझे प्रशंसाभरी नजरों से देख रहे थे.

पापा ने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘बहू, इस समय जो तुम ने हमारे लिए किया उसे हम जीवन भर नहीं भुला पाएंगे.’’

हर समय पराए घर की और पराया खून की रट लगाने वाली अम्मांजी लज्जित सी सिर झुकाए बैठी थीं. जेवरों का यों खो जाना कोई मामूली चोट न थी. फिर भी फिलहाल उस पर मरहम लगा दिया. सभी बेमन से थोड़ाबहुत खा कर सो गए.

नीलम जीजी जैसेतैसे सहेली की शादी निबटा कर चली गईं. ससुराल में जा कर बताया कि भाभी के जेवर नए डिजाइन के थे, इसलिए उन से बदल लिए. उन की ससुराल वाले खुले विचारों के लोग थे. अत: उन्होंने कोई पूछताछ नहीं की.

इस घटना के बाद से सब का मेरे प्रति व्यवहार बदल गया. शेखर बाहर घुमाने भी ले जाने लगे. खाना बन जाने पर रवि भैया और शेखरजी डाइनिंगटेबल पर प्लेटें, डोंगे रखवाने में मेरी मदद करते. खाने के समय सब मेरा इंतजार करते.

एक दिन तो अम्मां ने यहां तक कह दिया, ‘‘बहू रोटियां बना कर कैसरोल में रख लिया करो. सब के साथ ही खाना खाया करो.’’

मैं मन ही मन इस बदलाव से खुश थी. पर मन में रेनू और राजू की चिंता, किसी फांस की तरह चुभती रहती. मैं ऊपर से सामान्य दिखने का प्रयत्न करती रहती.

मुझे सहारनपुर से लौटे लगभग 2 महीने होने को आए थे.

पापा का 2-3 बार कुशलमंगल पूछने के लिए फोन आ चुका था. मम्मी से भी बात हो गई थी. रेनू और राजू से एक बार भी बात नहीं हो पाई. उन के बारे में जब भी पूछा, पापा ने घर पर नहीं हैं कह कर बहाना बना दिया. हो सकता है वे दोनों बात करना न चाहते हों.

कल रात जब खाना बना रही थी तो सहारनपुर से पापा का फोन आया. घबराए हुए थे. उन्होंने कहा, ‘‘मीनू बेटी, तेरी मम्मी की तबीयत खराब है, उन्हें पीलिया हो गया है. तुम्हें बहुत याद कर रही हैं.’’

मैं समझ गई मम्मी की तबीयत ज्यादा ही खराब होगी. तभी पापा ने मुझे फोन किया वरना नहीं करते. मेरी आंखें भर आईं. मैं ने पापा को आने का आश्वासन दे कर फोन काट दिया.

पीछे मुड़ी तो कमरे में अम्मां और पापाजी खड़े थे. मेरे चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर पूछने लगे, ‘‘बहू, मायके में सब कुशलमंगल तो है?’’

मम्मी की तबीयत के बारे में बतातेबताते मैं रो पड़ी.

अम्मां ने मुझे सांत्वना दी. पापाजी ने कहा, ‘‘तुम सुबह ही शेखर को ले कर चली जाओ. मम्मी की देखभाल करो. शेखर के पास छुट्टियां कम हैं पर 1-2 दिन रह कर लौट आएगा. तुम जितने दिन चाहो रह लेना.’’

अगले दिन मैं और शेखर सहारनपुर जा पहुंचे. सारा घर अस्तव्यस्त हो रखा था. मैं ने मम्मी को देखा तो हैरान रह गई. वे बहुत कमजोर हो गई थीं. आंखों में बहुत पीलापन आ गया था.

इलाज तो चल ही रहा था, पर मुझे तसल्ली न हुई. मैं और शेखर मम्मी को दूसरे डाक्टर के पास ले गए. शहर में इन का अच्छे डाक्टरों में नाम आता था. मुआयना करने के बाद डाक्टर ने कहा कि मर्ज काफी बढ़ गया है, पर परहेज और आराम करने से सुधार आ सकता है.

घर पहुंचने पर पाया रेनू और राजू भी आ गए थे. मुझे देख कर दोनों के चेहरे उतर गए, पर मैं भी उन से औपचारिक बातें ही करती.

चौथे दिन मम्मी के स्वास्थ्य में सुधार दिखने लगा. पापा के चेहरे पर भी रौनक लौट आई. यह देख बहुत अच्छा लगा. दोपहर को मैं मम्मी को खिचड़ी खिलाने लगी. घर में कोई नहीं था. मम्मी ने खिचड़ी खा कर प्लेट एक ओर रख कर मेरे दोनों हाथ पकड़ कर मुझे पलंग पर अपने पास ही बैठा लिया. उन की आंखों में आंसू थे.

वे रोते हुए बोलीं, ‘‘मीनू, बेटी पिछली बार हम से तुम्हारा बड़ा अपमान हो गया था. मुझे माफ कर दे बेटी. मैं मजबूर हो गई थी,’’ और फिर मेरे सामने हाथ जोड़ने लगीं.

मुझे बहुत बुरा लगा. मैं ने उन के हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मम्मी, आप यह क्या कर रही हैं? आप न तो पिछली बातें सोचेंगी और न ही कहेंगी. बस अपनी सेहत पर ध्यान दें.’’

धीरेधीरे मां खुलती गईं. अपनी मन की पीड़ा से मुझे अवगत कराने लगीं. उन्होंने बताया कि रेनू किस तरह घर के प्रति लापरवाह हो गई है. जब से बीमार हुईं हूं सवेरे ही कुछ बना कर डाइनिंगटेबल पर रख जाती है. शाम को भी यही हाल है. जल्दबाजी में कुछ भी कच्चापक्का बना कर दे देती है. कुछ कहो या पूछो तो गुस्सा हो जाती है.

10 साल- भाग 3: क्यों नानी से सभी परेशान थे

Writer- लीला रूपायन

तो साहब, मुसीबत आ ही गई. इधर परिवार बढ़ा, उधर वृद्धावस्था बढ़ी. हम ने अपनेआप को बिलकुल ढीला छोड़ दिया. सोचा, जो कुछ किसी को करना है, करने दो. अच्छा लगेगा तो हंस देंगे, बुरा लगेगा तो चुप बैठ जाएंगे. हमारी इस दरियादिली से पति समेत सारा परिवार बहुत खुश था. बेटेबहुएं कुछ भी करें, हम और उत्साह बढ़ाते. हुआ यह कि सब हमारे आगेपीछे घूमने लगे. हमारे बिना किसी के गले के नीचे निवाला ही नहीं उतरता था. हम घर में न हों तो किसी का मन ही नहीं लगता था. हम ने घर की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी और पति के साथ घूमने की, पति को खुश करने की पूरी आजादी उन्हें दे दी थी. नौकरों से सब काम वक्त पर करवाती और सब की पसंद का खयाल रखती. हमारा खयाल था, यही तरीका है जिस से हम, सब को पसंद आएंगे. प्रभाव अच्छा ही पड़ा. हमारी पूछ बढ़ गई. हम ने सोचा, लोग यों ही वृद्धावस्था को बदनाम करते हैं. उन्हें वृद्ध बन कर रहना ही नहीं आता. कोई हमें देखे, हम कितने सुखी हैं. सोचती हूं, वृद्धावस्था में कितना प्यार मिलता है. कमबख्त 10 साल पहले क्यों नहीं आ गया.

हमारे व्यवहार और नीति से हमारे बेटे बेहद खुश थे. वे बाहर जाते तो अपनी बीवियों को कह कर जाते, ‘‘अजी सुनती हो, मां को अब आराम करने दो. थक जाएंगी तो तबीयत बिगड़ जाएगी. मां को फलों का रस जरूर पिला देना.’’ और हमारी बहुएं सारा दिन हमारी वह देखभाल करतीं कि हमारा मन गदगद हो जाता. ‘सोचती, ‘हमारी सास भी अपनी आंखों से देख लेतीं कि फूहड़ बहू सास बन कर कितनी सुघड़ हो गई है.’ हमारा परिवार बढ़ने लगा. हम ने सोचा, अब फिर समय है मोरचा जीतने का. अपनी बढ़ती वृद्धावस्था को बालाए ताक रख कर हम ने फिर से अपनी मोरचाबंदी संभाल ली. बहू से कहती, ‘‘मेहनत कम करो, अपना खयाल अधिक रखो.’’ थोड़ा नौकरों को डांटती, थोड़ा बेटे को समझाती, ‘‘इस समय जच्चा को सेवा और ताकत की जरूरत है. अभी से लापरवाही होगी तो सारी जिंदगी की गाड़ी कैसे खिंचेगी?’’ और हम ने बेटे के हाथ में एक लंबी सूची थमा दी. मोरचा फिर हमारे हाथ रहा. बेटे ने सोचा, मां बहू का कितना खयाल रखती हैं.

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दादी बनने का हक हम ने पूरी तरह निभाया. न तो हम ने अपने कपड़ों का ध्यान रखा, न ही चश्मे का. गीता हम इसलिए नहीं पढ़ते थे कि असली गीतापाठ तो यही है, सारा परिवार हमारे कर्मों से खुश रहे. हम पूरी तरह बच्चों को संभालने में रम गए. बहुओं को यह कह कर छुट्टी दे दी, ‘‘अभी तुम लोगों के खानेपीने के दिन हैं, मौज करो, बालगोपाल को हम संभाल लेंगे.’’ हम ने इस बात का बहुत खयाल रखा कि हम बच्चों को इतना प्यार भी न दें कि वे बिगड़ जाएं और हमारे बेटों को सुनना पड़े, ‘तुम्हारी मां ने तुम लोगों को तो इंसान बना दिया था, पर हमारे बच्चों को क्यों जानवर बना डाला?’ बच्चे बड़े हुए तो बहुत डर लगा, अब तक तो सब ठीक था. अब हुआ हमारे बुढ़ापे का कबाड़ा, न चश्मा मिलेगा, न कोई किताब, न ही चप्पलें. मसलन, हमें दिनभर अपने सामान की चिंता करनी पड़ेगी. अब सास की बड़ी याद आई, जिस ने हमारे बच्चों से परेशान हो कर हमें कहा था, ‘जब तुम सास बनो तो तुम्हारी भी ऐसी ही दुर्गति हो.’

हम ने सास के अनुभव को याद कर के बड़ा फायदा उठाया. सास बच्चों को ले कर हमें कोसती थी. लेकिन मैं ने सोचा, ‘मैं बहुओं को नहीं कोसूंगी. उन से प्यार करूंगी. वे स्वयं अपने बालगोपाल को संभाल लेंगी.’ मेरा नुस्खा कारगर साबित हुआ. मैं कहीं भी चीज रख कर भूल जाती तो बच्चों से उन की मां कहती, ‘‘देखें, दादी मां को चीज ढूंढ़ कर कौन देता है.’’ असर यह हुआ कि वे हमारी चीज बिना गुमे ही ढूंढ़ने लगते. तुतला कर पूछते, ‘‘दादी मां, तुच्छ दुमा तो नहीं. धूंध लाऊं.’’ मुझे खानेपीने में देर हो जाती तो वे हम से रूठ जाते. हमारे मुंह में बिस्कुट डाल कर कहते, ‘‘पहले हमाला बिचकत था लो, नहीं तो हम तुत्ती कल देंगे.’’ और अपना हिस्सा खुशीखुशी हमारे पोपले मुंह में डाल देते. मैं खुश हो कर सोचती, ‘अब यह वृद्धावस्था बनी ही रहे तो अच्छा है. कहीं जल्दी चली न जाए.’ अब तो विजयश्री पूरी तरह मेरे हाथ थी. छोटे से ले कर बड़े तक हमारे गुण गाते नहीं थकते थे. आतेजाते के सामने हमारी प्रशंसा होती. पतिदेव की खुशी का ठिकाना नहीं था. हमेशा याद दिलाते, ‘‘तुम्हारी बुद्धिमत्ता से अपनी वृद्धावस्था बड़े मजे में कट रही है.’’ हम ने भी बच्चों को खुश रखने का गुण सीख लिया है. रात को सोने से पहले उन्हें कहानी जरूर सुनाता हूं.

अब घर में कुछ भी आता, हमारा हिस्सा जरूर होता. सब के कपड़ों के साथ हमारे कपड़े भी बनते, जिसे हम खुशी से बहुओं में ही बांट देते. हमारे बालगोपाल तो हमारा इतना ध्यान रखते कि हमें अकेला छोड़ कर वे अपने मांबाप के साथ भी कहीं जाने को तैयार नहीं होते थे.

हम नन्हेमुन्नों को कहानियां ही ऐसी सुनाते थे कि फलां परी का पोता, अपनी दादी से इतना प्यार करता था, उस का इतना खयाल रखता था कि सब उस की तारीफ करते थे. सभी उस बच्चे को बहुत प्यार करते थे. अब बच्चों में होड़ लग जाती कि कौन हमारा सब से अधिक खयाल रखता है ताकि आनेजाने वालों के सामने उस की प्रशंसा की जाए और उसे शाबाशी मिले. दूसरा काम मैं ने यह किया कि बच्चों को यह सिखा दिया कि अपने मम्मीडैडी का सब से पहले कहना मानना चाहिए. हमें डर था कि कहीं बच्चे सिर्फ हमारा ही कहना मानते रहे तो हो सकता है, हमारे खिलाफ बगावत हो जाए और हम मोरचा हार जाएं. गजब तो उस दिन हुआ, जब इतना ज्यादा प्यार हमारे दिल को सदमा दे गया. हुआ यह कि हमारे नन्हेमुन्नों की मां एक बहुत सुंदर साड़ी लाई थी. वह हमें भी दिखाई गई. उस समय नन्हा भी मौजूद था. यह तो मैं बताना भूल ही गई कि घर में जो कुछ भी आता था, सब से पहले हमें दिखाया जाता था, क्योंकि हम ने अपनी बहुओं को बातोंबातों में कई बार जता दिया था कि हम तो अपनी सासजी को दिखाए बगैर कुछ पहनते ही नहीं थे. जब वे देख लेतीं तब हम उस वस्तु को अपनी अलमारी में शरण देते थे. सो, बहुओं की भी यह आदत बन गई थी. हमें पता था, हमारी सास तो जिंदा है नहीं, जो वे उस से वास्तविकता पूछने जाएंगी.

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मैं बता रही थी न कि हमें साड़ी बहुत पसंद आई थी. नन्हा बोला, ‘‘दादी मां, यह तुम्हें अच्छी लगी है?’’

‘‘हां, बेटा, बहुत अच्छी है,’’ हम ने प्यार करते हुए कहा.

‘‘तो यह तुम ले लो,’’ वह हमारे गले में बांहें डालता हुआ बोला.

‘‘मेरे तो बाल सफेद हो गए, बेटा. मैं इसे अब क्या पहनूंगी,’’ मैं ने मायूसी से कहा.

‘‘तो ऐसा करते हैं, दादी मां, इसे हम तुम्हारे लिए रख लेते हैं,’’ प्यार से बोला वह.

‘‘मेरे लिए क्यों रख लोगे?’’ मैं ने विस्मय से पूछा.

‘‘हम तुम्हारे ऊपर कफन डालेंगे,’’ वह भोलेपन से बोला था.

‘‘क्या बकवास कर रहा है, जानता है कफन क्या होता है?’’ मम्मी ने उसे डांटा.

‘‘हांहां, जानता हूं, सोमू की दादी मरी थी तो तुम ने डैडी से नहीं कहा था, ‘बहूबेटे ने अपनी मां पर बहुत अच्छा कफन डाला था.’ नन्हा झिड़की खा कर रोंआसा हो गया था. बस, इसी बात का सदमा मेरे मन में बैठ गया है. मैं सोचती हूं इतना प्यार भी किस काम का, जो मरने से पहले कफन भी संजो कर रखवा दे. मुन्ने ने जब से अपनी मां से साड़ी का कफन बनाने के लिए कहा था, वह साड़ी रख दी गई थी, शायद मुन्ने की मां के मन में कफन का नाम सुन कर वहम आ गया था. शायद इसीलिए उस ने उसे नहीं पहना. मेरी परेशानी का अंत नहीं है. मैं अब किस से कहूं, किस नीति का सहारा लूं? कहने से भी डरती हूं. परिवार वाले तो अलग, अपने पति से भी नहीं कह सकती कि मेरा कफन आ गया है. सोचती हूं, क्या कहेंगे, ‘कहां वृद्धावस्था आने से पहले ही मरना चाहती थी. अब जीवन से इतना मोह हो गया है कि मरना ही नहीं चाहती.’  अब तो मुन्ने पर गुस्सा कर के मन ही मन यही कहती हूं. ‘तेरा इतना प्यार भी किस काम का. काश, तू 10 साल बाद पैदा होता ताकि इतनी जल्दी मेरे कफन की व्यवस्था तो न होती.’

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