सुरक्षित चलें और सुरक्षित रहें

हमारे देश में यातायात के साधनों में नित्य प्रगति आ रही है, जीवन में  शहरों से गाँव की दूरियां निरंतर घाट रही है ,लेकिन इसके साथ यातायात में होने वाले दुर्घटनाओं की संख्या में भी निरंतर वृद्धि हो रहा है.  हमें समाज में जागरूपता लेकर तय समय के अंदर इस दुर्घटनाओं को रोकना होगा.  ताकि हम सुरक्षित चले और  सुरक्षित रहे. सड़क सुरक्षा के लिए यातायात पुलिस तो अपना काम कर रही रही है , हमें भी जगरूप रहना होगा. यातायात नियमों और कानूनों का पालन करें और सड़क दुर्घटनाओं से खुद को और अपने परिवारों को बचाएं. अन्य लोगों को भी सड़क सुरक्षा नियमों से अवगत कराना हमारी सड़कों को सुरक्षित बना सकता है.

ये भी पढ़ें- T-20 फौर्मेट में गेंदबाजों के आगे फीके पड़े बल्लेबाजों के तेवर, देखें दिलचस्प रिकॉर्ड

यातायात नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि हर मनुष्य की जान अपने परिवार के लिए बहुत जरूरी है देश के लिए जरूरी है कई सारी सड़क दुर्घटनाओं में हमारे देश के ऐसे महान व्यक्तित्व भगवान को प्यारे हो गए हैं. जिनकी क्षतिपूर्ति आज तक कोई नहीं कर पाया है . इसलिए सड़क दुर्घटनाओं में प्रत्येक महा कई हजार की संख्या में इंसानों की जान जा रही है .

तेज गति से वाहन चलाना शराब पीकर वाहन चलाना सीट बेल्ट ना लगाना दो पहिया वाहन पर हेलमेट ना लगाना यातायात नियमों का पालन करना इन सब कारणों से कई घरों के दिए बुझ गए हैं . जो मनुष्य के लिए पश्चाताप के अलावा कुछ नहीं छोड़ जाते इसलिए मेरा अपना मानना है. यातायात नियमों का पालन कानून से डर के नहीं बल्कि स्वयं की जिम्मेदारी समझकर अपना फर्ज समझते हुए ,ठीक उसी प्रकार करना चाहिए जैसे मनुष्य भगवान की भक्ति अपना फर्ज समझकर करता है.

ये भी पढ़ें- हर मोर्चे पर विफल हो रही टीम इंडिया, क्या पूरा हो पाएंगा टी-20 विश्व कप जीतने का सपना

ड्रिंक और  ड्राइव

हमारे देश में शराब पी कर गाड़ी चलना आम बात लगता है. लेकिन इससे होने वाले दुर्घटनाओं का आकंड़ा चौकाने वाला  हैं. आंकड़ों से पता चलता है कि‍ एक्‍सि‍डेंट का सबसे प्रमुख कारण शराब पीकर ड्राइविंग करना है. भारत में इसका आंकड़ा दुनि‍या में सबसे ज्‍यादा है, जहां हर साल करीबन डेढ़ लाख लोग रोड एक्‍सि‍डेंट में मारे जाते हैं. इसमें से 70 फीसदी  मामलों में इसकी वजह शराब पीकर गाड़ी चलाना रहता है.

ड्रिंक करने के उपरांत मनुष्य का मस्तिष्क एवं उसका शरीर ड्राइव करने के लायक नहीं रहता हैं , डिसबैलेंस रहता है ,इसलिए दुर्घटना के प्रबल चांस रहते हैं.  मुख्य कारण यही है, कि  इंसान को जब अपनी जान प्यारी है ,तो उसे सामने वाले की जान की भी उतनी ही वैल्यू समझनी चाहिए. इसलिए कभी भी ड्रिंक करने के उपरांत ड्राइवर नहीं करनी चाहिए.  मनुष्य की जान अनमोल हैं.

ये भी पढ़ें- DCP किरण बेदी! के समय भी यही हाल था जो आज दिल्ली पुलिस और वकीलों के बीच है

सीट बेल्ट और सुरक्षित ड्राइव

सीट बेल्ट लगाना वाहन चलाते समय नितांत आवश्यक है, जिससे वाहन में बैठे चालक एवं सवारियों की जान सुरक्षित है यदि सड़क दुर्घटना होती है तो मनुष्य अर्थात उसमे बैठा व्यक्ति सीट बेल्ट के कारण सीट से ही चिपका रहता है अचानक से झटका लगने के कारण वह व्यक्ति आगे डेस्क बोर्ड अथवा सीसे में नहीं लगता उसके सीने एवं सिर में चोट आने से बस जाती है जिससे मनुष्य की जान सड़क दुर्घटना में बचने के प्रबल चांस रहते हैं

ओवर स्पीड से बचे

ओवर स्पीड से बचना कोई लापरवाही नहीं बल्कि समझदारी का परिचायक हैं.  समझदार इंसानों ने कहा है ,दुर्घटना से देर भली अर्थात हम अपने मंजिल पर कुछ समय विलंब से पहुंच जाएं,  परंतु सुरक्षित पहुंच जाएं.  यह जरूरी है ,सुरक्षित पहुंचना बहुत आवश्यक हैं.  दुर्घटना ओवर स्पीड के कारण अक्सर होती हैं.  जिनसे वाहन में बैठे व्यक्तियों की जान तक चली जाती है.

अपना वाहन क्षतिग्रस्त हो जाता है , सामने वाले व्यक्ति की जान को भी खतरा रहता है. उनकी भी जान चली जाती है,  हर  इंसान के जान की वैल्यू है.   इसलिए ओवर स्पीड चलना, स्वयं की जान को खतरे में डालना एवं दूसरों की जान से खेलना बिल्कुल अनुचित है.

ये भी पढ़ें- क्या करें जब लग जाए आग

वाहन चलाते समय मोबाइल का प्रयोग न करे

वाहन चलाते समय मोबाइल का प्रयोग करना अपनी और  सामने वाले की जान से खेलना है. किसी भी सूरत में वाहन चलाते समय मोबाइल फोन पर बातें न करे और नहीं  ईयर फोन लगाकर सॉन्ग सुनने.  इससे मनुष्य अथवा वाहन चालक अपनी सामने वाले की जान से खेलता है, क्योंकि ईयर फोन लगाने से मनुष्य का ध्यान उस सॉन्ग के वर्णन एवं ख्यालों में रहता है, पीछे वह सामने से आने वाले वाहन के होरन पर ध्यान नहीं रहता है . जिससे सड़क दुर्घटनाएं बढ़ती है.  जान तक चली जाती हैं.

वाहन चलाते समय मोबाइल पर बात करने से भी मनुष्य का ध्यान वाहन चलाने से हट जाता है एवं मोबाइल पर चल रही बातों एवं सामने से जो दूसरा व्यक्ति दूसरी तरफ से मोबाइल पर बात कर रहा होता है. उस पर चला जाता है,उसकी बातों पर ध्यान चला जाता है चालक वाहन तो चला रहा होता है, परंतु हमारा मस्तिष्क पूर्णरूपेण हमारे शरीर के साथ नहीं रहता है, इसलिए सड़क दुर्घटना होने के प्रबल चांस रहते हैं और ऐसी घटनाएं बहुत सारी हुई है. जिनका उदाहरण भारतीय इतिहास में लिखा जा चुका है.

अभी हाल में ही  उत्तरप्रदेश के सहारनपुर में बस ड्राइवर द्वारा मोबाइल पर बात करते समय, बस को खाई में गिरा देना.  जिससे कई व्यक्तियों की मृत्यु हुई.  ऐसी कई सारी उत्तर प्रदेश में अन्य राज्यों में दुर्घटनाएं हुई है मात्र एक व्यक्ति चालक की लापरवाही से कई सारे जाने चली गई है प्रत्येक जान अनमोल है इसलिए कभी भी स्वयं की व अन्य व्यक्ति की जान से ना खेले. वाहन चलाते समय मोबाइल का प्रयोग बिलकुल न करें.

ये भी पढ़ें- दहेज में जाने वाले दैय्यत बाबा

(हर एक जीवन का महत्व हैं. सड़क सुरक्षा उपायों का अभ्यास करना पूरे जीवन में सभी लोगों के लिए बहुत अच्छा और सुरक्षित है. सड़क पर चलते या चलते समय सभी को दूसरों का सम्मान करना चाहिए और उनकी सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए. -उत्तर प्रदेश पुलिस  के सब इंस्पेक्टर वरुण पँवार )

फांसी से बचाने के लिए सालाना खर्च करते हैं 36 करोड़ रुपए

हर देश का अपना अलगअलग कानून होता है. कहींकहीं, खासतौर पर अरब देशों में कानून बहुत सख्त है. पाकिस्तान को ही ले लीजिए, वहां एक बच्ची से रेप और हत्या के दोषी को 2 महीने में फांसी की सजा सुना दी गई, लेकिन हमारे यहां देश के सब से चर्चित मामले निर्भया रेप और हत्या के मामले में दोषी साबित हो जाने के बाद भी मुजरिमों को जेल में पाला जा रहा है.

अगर ऐसा अरब देशों में हुआ होता तो मुजरिमों को अब से 6 साल पहले फांसी हो चुकी होती. सख्त कानून के चलते अरब देशों में यह भी कानून है कि अगर कोई व्यक्ति किसी की हत्या कर देता है और शरिया कानून के अंतर्गत उसे फांसी की सजा हो जाती है तो फांसी से बचने के लिए उस के पास एक ही उपाय होता है, पीडि़त परिवार से सौदेबाजी.

ये भी पढ़ें- किसान का जीवन एक हवनशाला

अगर पीडि़त परिवार उस से इच्छित रकम ले कर उसे माफ कर देता है तो अदालत फांसी की सजा को रद्द कर देती है. लेकिन सौदेबाजी की यह रकम इतनी बड़ी होती है, जिसे चुकाना आसान नहीं होता. इस रकम को वहां ब्लड मनी कहा जाता है.

दुबई में रहने वाले भारतीय मूल के बड़े बिजनैसमैन एस.पी.एस. ओबराय ऐसे व्यक्ति हैं, जो लोगों को फांसी से बचाने के लिए प्रतिवर्ष 36 करोड़ रुपए खर्च करते हैं. यानी फांसी पाए लोगों को बचाने के लिए ब्लड मनी खुद देते हैं. अब तक वह 80 से ज्यादा युवाओं को फांसी से बचा चुके हैं, जिन में से 50 से ज्यादा भारतीय थे. ये ऐसे लोग थे, जो काम की तलाश में सऊदी अरब गए थे और हत्या या अन्य अपराधों में फंसा दिए गए.

2015 में भारत के पंजाब से अबूधाबी जा कर काम करने वाले 10 युवकों से झड़प के दौरान पाकिस्तानी युवक की हत्या हो गई. अबूधाबी की अल अइन अदालत में केस चला, जहां 2016 में दसों युवकों को फांसी की सजा सुनाई गई. बाद में जब इस सिलसिले में याचिका दायर की गई तो अदालत ब्लड मनी चुका कर सजा को माफी में बदलने के लिए तैयार हो गई.

ये भी पढ़ें- सदियों के श्रापों की देन कलयुगी बलात्कार

सौदेबाजी में मृतक का परिवार 6 करोड़ 50 लाख रुपए ले कर माफी देने को तैयार हुआ. यह ब्लड मनी चुकाई एस.पी.एस. ओबराय ने.

इस तरह दसों युवक फांसी से बच गए. ओबराय साहब यह काम सालों से करते आ रहे हैं और उन के अनुसार जीवन भर करते रहेंगे.

किसान का जीवन एक हवनशाला

भारत के गांवों में ज्यादातर लोग खेती पर ही निर्भर रहते हैं. हमारे देश के किसान कर्ज में ही जन्म लेते हैं और जिंदगीभर कर्जदार ही बने रहते हैं. किसान अपना खूनपसीना बहा कर अनाज पैदा करते हैं. पुराने समय में गांव के जमींदार लोग छोटेछोटे किसानों का खून चूस कर अपना पेट फुलाए बैठे रहते थे. तब सारा काम करने वाले किसानों को कपड़ा व भरपेट भोजन भी नहीं मिल पाता था. मीठू का पिता धनो किसान था. वह अपनी जिंदगी को किसी तरह चला रहा था. वह दिनभर हल चलाता रहता और शाम को घर आने पर उस की बीवी चुनियां उसे कुछ खाने को देती. खाने के बाद वह अपने बैलों को खिलानेपिलाने में लग जाता. शाम को उस की हुक्का पीने की आदत थी. चुनियां हुक्का भर कर देती थी. एक दिन शाम को गांव का सेठ उस के दरवाजे पर आ गया और उस से बोला, ‘‘क्यों रे धनो, मेरा हिसाब कब करेगा?’’

उस बेचारे का हुक्का पीना बंद हो गया. वह बोला, ‘‘मालिक, अभी तो खाने के लिए भी पैसा नहीं है, हिसाब कैसे चुकता करूं? पैसा होने पर सब चुका दूंगा.’’ सेठ धनो को उसी समय अपने आदमियों से बंधवा कर साथ ले गया और उसे मारपीट कर वापस भेज दिया. मार खा कर धनो अधमरा हो गया. मीठू अपने पिता की हालत देख कर बहुत परेशान हो गया. वह डाक्टर को बुलाने गया, लेकिन डाक्टर के आने तक धनो मर गया. पिता की मौत के बाद मीठू गांव छोड़ कर शहर चला गया. उसे वहां नौकरी मिल गई. पैसा कमा कर उस ने वहीं अपना घर बसा लिया. यह किसानों के जीवन की एक आम झलक है.

ये भी पढ़ें- सदियों के श्रापों की देन कलयुगी बलात्कार

सरकार द्वारा दिए गए अनुदान भी किसानों को नहीं मिल पाते हैं. सरकारी मुलाजिम सब खापी जाते हैं. ज्यादातर किसानों की सेहत दिनोंदिन गिरती जाती है. आखिर में वे भुखमरी या किसी बीमारी का शिकार हो कर  दुनिया से चले जाते हैं. वे खेत रूपी हवनशाला में अपनी जिंदगी को चढ़ा देते हैं. ज्यादातर किसान मवेशी भी पालते हैं. सुबह से ले कर शाम होने तक वे उन की देखभाल करते हैं और रात को जो कुछ रूखासूखा मिलता है, उसे खा कर सो जाते हैं. हमारे देश में कम जोत वाले किसानों को ज्यादा खराब समय बिताना पड़ता है. उन की सेहत तो ठीक रहती नहीं, उन्हें पेट भरने के लिए अलग से मजदूरी करनी पड़ती है.

किसानों के 3 तबके हैं. पहले तबके के किसानों के पास थोड़ी सी जमीन होती है. वे किसी तरह खेती कर के काम चलाने की कोशिश करते हैं. उन के पास काफी मात्रा में पूंजी व साधन नहीं होते हैं. वे खेती के अलावा मजदूरी भी कर लेते हैं. इस तबके के किसान जब बीमार पड़ते हैं, तो उन्हें गांव के महाजन से सूद पर पैसा लेना पड़ता है, जो जल्दी ही बढ़ कर बहुत ज्यादा हो जाता है. महाजन का कर्ज चुकाने के लिए ऐसे किसानों को अपनी जमीन तक बेचनी पड़ती है, लेकिन उस से भी वे पूरा कर्ज नहीं चुका पाते. उन का न तो ढंग से इलाज हो पाता है, न ही समय पर कर्ज दे पाते हैं. नतीजतन, सही इलाज न हो पाने के चलते किसान मर जाते हैं और उन के बच्चे कर्जदार बने रहते हैं.

दूसरे तबके के किसानों के पास कुछ जमीन और पूंजी होती है. पूंजी से वे मवेशी पालते हैं. वे लोग खेती करने के लिए एक जोड़ी बैल रखते हैं, जिस से हल चला कर समय पर खेती कर लेते हैं. इन की जिंदगी कुछ हद तक ठीक रहती है. इस तरह के किसान दूध भी बेचते हैं, जिस से नकद आमदनी भी होती है. ऐसे किसान पैसे कमाने के चक्कर में खुद दूध का इस्तेमाल नहीं करते. अच्छा भोजन न मिल पाने के चलते ये बीमारी से पीडि़त हो जाते हैं. ऐसी हालत में ये जमीन बेच कर अपना इलाज कराते हैं. मजबूरी में इन्हें काफी कम दामों पर जमीन बेचनी पड़ती है. तीसरे तबके के किसान ज्यादा पैसे वाले होते हैं. ये मजदूरों से जम कर काम लेते हैं और समय पर पैसा भी नहीं देते. ये इन किसानों को दुत्कारते और ताने देते रहते हैं. इन की हालत पहले और दूसरे तबके के किसानों से काफीबेहतर होती है.

ये भी पढ़ें- लिव इन रिलेशनशिप का फंदा

लेकिन कुलमिला कर सभी तबकों के किसानों की हालत खराब है. चूंकि तीसरे तबके के किसान खुद खेतों में काम नहीं करते हैं, इसलिए उन की फसल अच्छी नहीं हो पाती, जिस के चलते उन की घरगृहस्थी डूबने लगती है. आज किसानों को नएनए तरीके से खेती करनी पड़ रही है. इस के लिए उन्हें काफी पैसों की जरूरत होती है. जब समय पर पैसा नहीं जुट पाता है, तो किसान अपनी जमीन बेच कर पैसों का इंतजाम करते हैं. खेती के लिए हर किसान के पास अपने साधन होने बेहद जरूरी हैं, लेकिन सभी तबकों के किसानों के सामने पैसों की कमी की समस्या बनी रहती है. माली तंगी के चलते किसानों की हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है, जिस की वजह से हमारे देश के किसान मेहनती होते हुए भी कामयाब नहीं हो पाते हैं. सरकार किसानों को अनुदान के रूप में जो खादबीज देती है, वह भी उन्हें समय पर नहीं मिल पाता है और खेत खाली पडे़ रहते हैं.

आमतौर पर अनुदान की चीजों को बेच कर सरकारी मुलाजिम अपनी जेबें भर लेते हैं. बेचारे किसान दिनभर चिलचिलाती धूप, बरसात और ठंड सहने को मजबूर होते हैं. आमतौर पर भारतीय किसान बहुत ही मेहनती होते हैं. वे अपनी मेहनत के बल पर हम लोगों को अनाज मुहैया कराते हैं. वे खुद मामूली जिंदगी बिताते हैं, जिस के जरीए दूसरों का पेट भरते हैं. इस तरह यह सच ही कहा गया है कि भारत के किसान दूसरों की भलाई करतेकरते खुद को हवनशाला में झोंक देते हैं.

ये भी पढ़ें- रेव पार्टीज का बढ़ता क्रेज

सदियों के श्रापों की देन कलयुगी बलात्कार

आसाराम व रामरहीम के बाद वीरेंद्र देव दीक्षित नाम का हिंदुत्व का नया वाहक पिछले दिनों प्रकट हुआ है. धर्म की नफरतों की दीवारों पर रंगाईपुताई करता अध्यात्म का यह नया देवता अवतारी बन कर उभरा तो देशभर में चर्चा का विषय बन गया. बने भी क्यों नहीं, क्योंकि अब तक जितने भी बाबा के नाम मीडिया ने उछाले हैं, वे ज्यादातर गैरब्राह्मण थे और यह ब्राह्मण है.

ब्राह्मण बाबा मीडिया व ब्राह्मणवादी उद्योगपतियों की मदद से बचते रहे हैं, लेकिन यह मामला कुछ ज्यादा ही बड़ा हो गया. इसलिए जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए कानून के लूपहोल में खेल रहे हैं.

अब तक तकरीबन 500 लड़कियां इस हैवान के चंगुल से छुड़ाई जा चुकी हैं. वीरेंद्र देव दीक्षित नाम का यह तथाकथित नया अवतारी अपनेआप को कृष्ण अवतार बता रहा है. वह 5 हजार से अधिक लड़कियों से बलात्कार का टारगेट पूरा कर चुका है और उस का असली टारगेट, 16,000 लड़कियों का बलात्कार कर हासिल करना था, लेकिन इस बीच उस की करतूत का परदाफाश हो गया. देश की पुलिस व कानूनी एजेंसियां बाबा को खोजने में अभी तक नाकाम रही हैं.

वैसे, हिंदू धर्म में बलात्कार को अनैतिक नहीं बताया गया है. पुराण भरे पड़े हैं श्रापों व देवदासियों के बहाने महिलाओं के शोषण के किस्सों से. मत्स्यगंधा जैसी मैलीकुचैली महिलाओं को भी ऋषि पाराशर जैसे लोगों ने नहीं छोड़ा. ऐसे में आप सोच सकते हैं कि थोड़ा सा भी खुलापन ले कर शृंगार करने वाली महिलाओं की उस दौर में क्या हालत होती रही होगी.

हवस के तो ये इतने भूखे थे कि गौतम को बेवकूफ बना कर नहाने भेज दिया और पीछे अहल्या के साथ बलात्कार कर डाला. क्या तभी इन लोगों ने नारा चलाया कि ब्रह्ममुहूर्त में नहाना शुभ रहता है, क्योंकि पति अंधेरे में नदीतालाब में नहाने चला जाए और इन को पीछे मौका मिल जाए.

ये भी पढ़ें- लिव इन रिलेशनशिप का फंदा

शंकर तपस्या में थे और पीछे, पार्वती के गणेश पैदा हो गए. तर्क तो देखो इनके कि मैल से पैदा हो गए. जैसे पार्वती सदियों से नहीं नहाई हों और मैल को उतार कर पुतला बना लिया हो. कुंती व माद्री के जो 6 लड़के हुए उन में भी पांडु की कोई भूमिका नहीं थी. एक तो शादी से पहले ही पैदा हो गया. बता दिया गया कि महर्षि दुर्वासा ने कुंती को वरदान दे रखा था कि वह जब चाहे जिस देवता को बुला कर बच्चा पैदा कर सकती थी.

धर्म को बुला कर युधिष्ठिर पैदा कर लिया, वायुदेव से भीम पैदा करवा लिया व इंद्र को बुला कर अर्जुन पैदा करवा लिया. फिर यह वरदान माद्री को ट्रांसफर कर दिया, जिस के बूते माद्री ने अश्विनी को बुला कर नकुल व सहदेव पैदा करवा लिए.

ऋषि दुर्वासा तो तीनों युगों में पाए जाते हैं. आदमी थे या कुछ और? हर कालखंड में ऐसे मामलों के इर्दगिर्द ही नजर आता था. कहीं यह वीरेंद्र देव दीक्षित महर्षि दुर्वासा का कलियुगी रूप तो नहीं है. जब इन तथाकथित देवताओं, ऋषिमुनियों की मौज कम होने लगी तो इन लोगों ने वर्तमान को कलियुग कहना शुरू कर दिया. इन को तो वह वाला सतयुग चाहिए जहां ये कभी भी किसी भी महिला को पकड़ कर आनंद की अनुभूति ले सकें और किसी भी प्रकार की रोकटोक न हो.

वीरेंद्र देव दीक्षित ने क्या गुनाह किया है. अपने पूर्वजों की तरह जीवन जीने की कोशिश की थी. अब असली शिलाजीत मिली नहीं, तो कुछ नकली दवाइयां खा ली थीं, इसलिए टारगेट थोड़ा हाई रख लिया था.

इस में इस की गलती थोड़े ही है. यह तो कलियुगी दवाइयां ही खराब निकली हैं. सत्यवती, वाचा, अंबिका, अंबालिका, अहल्या, कुंती, माद्री आदि को एक जगह एकत्रित कर रहा था बेचारा. जब इस के पास आतीं तो उम्र 16 से 19 साल तय थी, लेकिन जब उम्रसीमा क्रौस हो जाती तो वह दूसरों के इस्तेमाल के लिए भी तो व्यवस्था करता था. देवदासियों की तरह खानेपीने का इंतजाम कर के वह अपने शिष्यों व अन्य संगी देवताओं के लिए भी तो माकूल बंदोबस्त किया था.

आप लोग कितने ही नाटक कर लो, लेकिन धर्म में इस तरह के कारनामे हर ग्रंथ में बोलते हैं. मध्ययुग में राम महिमा गातेगाते तुलसीदास को औरत ने मना कर दिया तो दुनिया की सारी महिलाओं को ताड़न की वस्तु बता दिया और ये लोग गोस्वामी तुलसीदासजी की चौपाइयां हर गलीमहल्ले में ले कर घूम रहे हैं. ये गागा कर बता रहे हैं कि महिलाएं सिर्फ उपभोग के लिए हैं, उपयोग में लें और लताड़ लगाएं.

ये भी पढ़ें- रेव पार्टीज का बढ़ता क्रेज

अब वीरेंद्र देव दीक्षित उस स्वर्णकाल के हिसाब से, अपने ग्रंथों के हिसाब से लड़कियों को उपयोग में ही तो ले रहा था. अब बालिगनाबालिग की सीमा तो इन्होंने तय की नहीं थी न. ये तो कलियुगी चोंचले हैं. क्या औरतों के बिकने की मंडियां लगने वाला रामराज्य चाहिए, देवदासियों के रूप में मंदिरों को नईनई लड़कियों का इंतजाम वाला स्वर्णयुग चाहिए?

स्वर्णकाल का भोग

यह ब्राह्मण देवता यानी वीरेंद्र देव दीक्षित गिरफ्त में इतनी आसानी से नहीं आएगा क्योंकि इस ने बहुत सारे देवताओं के लिए इंतजाम किए होंगे. इस का टारगेट तो 16,000 महिलाओं से बलात्कार करने का था, इसलिए एक बार श्राप दिया और आगे बढ़ गया होगा. फिर तो शिष्यों के लिए यही वरदान बन जाता होगा. आध्यात्मिक विश्वविद्यालय बनाया है व जगहजगह उस की शाखाएं खोली गई थीं तो यह काम अकेला ब्राह्मण देवता तो कर नहीं सकता.

कलियुग गुप्तकाल के बाद ही तो आया है. 1200-1300 साल तो छद्म कलियुग के थे, असली कलियुग तो आजादी के बाद ही आया है. अब देखो, बेचारा छिप कर स्वर्णकाल का भोग कर रहा था और हम लोगों ने हंगामा कर दिया. जिस तरह के छापे, जांच व मीडिया कवरेज हो रही है, उस के हिसाब से वीरेंद्र देव दीक्षित नामक ब्राह्मण देवता सोने की तरह तप कर, बेदाग हो कर निकलेगा.

ये भी पढ़ें- शराबी बाप और जवान बेटियां

लिव इन रिलेशनशिप का फंदा

आइए आपको आज छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर का एक लिव इन रिलेशनशिप का मामला परत दर प्रदत दिखाने महसूस करने का एक छोटा सा प्रयास करते हैं शायद इससे लोगों का भविष्य बन जाए और कभी इस अवधारणा के फंदे में न फंसे. दरअसल यह एक अजीब फंडा है जो कब फंदा बन जाता है पता ही नहीं चलता और इंसान इसके मकड़जाल में फंस कर अपना जीवन तबाह कर लेता है दरअसल हुआ यह कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक जोड़ा

एक साल तक लिव इन रिलेशनशिप में रहता हैं. बाद में बात  दोनों के संबंध खराब होते  चले जाते है,  तब युवती युवक पर दुष्कर्म का आरोप लगा देती है. हद तो तब हो जाती है जब मामला कोर्ट तक पहुंच  जाता है. मगर अब कोर्ट ने युवती को बड़ा  करंट  दिया है. युवती द्वारा लगाए गए गंभीर आरोप को माननीय न्यायालय ने खारिज कर दिया. कोर्ट में दुष्कर्म का अपराध साबित नहीं होने पर युवक को दोषमुक्त कर दिया गया है. साथ ही सिंदूर भरकरशादी करने का आश्वासन देकर जबरदस्ती दुष्कर्म करने के आरोप को भी संदेहजनक माना है.

ये भी पढ़ें- रेव पार्टीज का बढ़ता क्रेज

आधुनिक प्यार की कहानी कुछ ऐसी है

आधुनिक प्यार या कहें लव इन रिलेशनशिप की  कहानी दरअसल कुछ ऐसी है- राजधानी रायपुर के मोवा निवासी आशीष होरा के खिलाफ करीब दो साल पहले 31 वर्षीय युवती ने पंडरी थाने में दुष्कर्म, मारपीट और धमकी का अपराध दर्ज कराया था. युवती आशीष के साथ 15 सितंबर 2016 से 23 मई 2017 तक “लिव इन रिलेशनशिप” में रहती रही. दोनों  खुशी खुशी दलदल सिवनी स्थित नेचुरा अपार्टमेंट में आशीष के फ्लैट में रहते थे.  अचानक 24 मई 2017 को पंडरी थाने में युवती ने आशीष के खिलाफ दुष्कर्म का अपराध दर्ज कराया.

युवती ने आरोप लगाया था कि मांग में सिंदूर भरकर, शादी करने का विश्वास दिलाकर आशीष दुष्कर्म    उससे  करता रहा, फिर एक माह पहले शादी करने से इनकार कर दिया. और हद यह है कि  मारपीट करते हुए जान से मारने की धमकी दी है . पुलिस ने मामले में जांच पड़ताल की बयान लिए अंत में न्यायालय में चालान पेश किया.

मामला फास्ट ट्रैक कोर्ट अपर सत्र न्यायाधीश पूजा जायसवाल के कोर्ट में विचाराधीन था. इसकी सुनवाई के दौरान युवती पक्ष के वकील धोखा देकर या जबरदस्ती दुष्कर्म करना साबित नहीं कर पाए. एफआईआर में दर्ज कराए गए आरोप भी साबित नहीं हो पाए.

ये भी पढ़ें- शराबी बाप और जवान बेटियां

इसके चलते कोर्ट ने आशीष होरा को दुष्कर्म के अपराध से अंततः दोषमुक्त कर दिया. दरअसल युवती के एक दफे शादी करके तलाक  के चलते उसका केस कमजोर होता चला  गया.  न्यायालय ने आरोपी युवक के पक्ष में निर्णय दिया.

नहीं फंसना, लव इन रिलेशन में

दरअसल भारतीय सभ्यता और समाज की जैसी संरचना है उसको समझ कर आज की युवा पीढ़ी अदर लव इन रिलेशनशिप से बचती है तो उसमें युवा पीढ़ी का भला है  हमारे पुरखों ने सैकड़ों वर्ष पूर्व बहुत अनुभव के पश्चात विवाह की संस्था को जन्म दिया है और यह संस्था लगभग सभी देशों में अलग-अलग स्वरूप में पाई जाती है ऐसे में लव इन रिलेशनशिप एक ऐसा नासूर है जो सिर्फ लोगों को दुख दर्द और दंश ही देता है.

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के अधिवक्ता बीके शुक्ला इस संबंध में कहते हैं-” आस-पास दुष्कर्म के कई ऐसे मामले सामने आ रहे हैं, जिसमें पीड़िता अपनी सहमति से संबंध बनाती है. बाद में जबरदस्ती या शादी का झांसा देकर दुष्कर्म करने का मामला दर्ज कराती है. और अंत में युवतियां या फिर युवक न्यायालय से परितोष चाहते हैं जो उन्हें कई महत्वपूर्ण कारणों से नहीं मिल पाता.”

ऐसे में समझदारी यही है कि लव इन रिलेशनशिप के फंदे से आप अपने आप को बचाए रखें.

ये भी पढ़ें- धर्म बना देता है जीवन को गुलाम

दूसरी जाति में शादी, फायदे ही फायदे

किसी ब्राह्मण परिवार में पलाबढ़ा अर्जुन जाति के फर्क या भेदभाव को नहीं मानता था. अपनी पढ़ाई पूरी करतेकरते उसे एक दूसरी जाति की लड़की से प्यार हो गया. उस ने अपने परिवार को बताया, तो घर में कुहराम मच गया. अर्जुन के पिता ने डांटते हुए कहा, ‘‘तुम्हें ब्राह्मण लड़की से ही शादी  करनी है, नहीं तो हम तुम्हारे टुकड़ेटुकड़े कर देंगे.’’ अर्जुन ने अपने मातापिता को बहुत समझाया, पर किसी ने उस की एक न सुनी. उसे समझ आ गया कि परिवार का साथ नहीं मिलेगा और उन्हें एकदूसरे से दूर कर दिया जाएगा. अर्जुन उस लड़की रीता को ले कर मिरजापुर से दिल्ली आ गया, जहां वह कुछ दिन अपने दोस्त के घर रहा और वहीं उन्होंने आर्यसमाज रीति से शादी कर ली. उस के दोस्त ने उसे नौकरी भी दिलवा दी.

अर्जुन का कहना है, ‘‘सब को छोड़ कर हमें यहां आना पड़ा. मैं अब किसी को अपना पता भी नहीं दे सकता. अगर पता दे दिया, तो आज भी समस्या खड़ी हो सकती है. ‘‘मैं ने सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं से मदद चाही, पर किसी से कोई मदद नहीं मिली. ऐसा कोई कानून नहीं है, जो मेरे जैसे लोगों की मदद करे. हमारा कानून दूसरी जाति में शादी करने की इजाजत देता है, पर उन लोगों की हिफाजत नहीं कर पाता, जो अपनी जाति से बाहर शादी कर लेते हैं.

‘‘जाति और धर्म के नाम पर प्यार को कब तक दबाया जाता रहेगा  आजादी के इतने साल बाद भी यही सुनने को मिलता है कि ब्राह्मण लड़के को ब्राह्मण लड़की से ही शादी करनी है, नीची जाति की लड़की से नहीं. ‘‘जीवनसाथी चुनने का हक सब को मिलना चाहिए. धर्म और जातिवाद की इस सामाजिक बुराई ने कई जिंदगी बरबाद की हैं.’’

ये भी पढ़ें- अंधविश्वास करे शर्मसार

दूसरी जाति में शादी करने का तो भारतीय समाज की एकता बढ़ाने में बड़ा योगदान हो सकता है. ऐसी शादियों से नुकसान तो कुछ है ही नहीं, फायदे ही फायदे हैं, जैसे:

* दूसरी जाति में शादी के चलन को अपना कर समाज में छोटी मानी जाने वाली जातियों को भी ऊपर उठने का मौका दिया जा सकता है.

* ऐसी कामयाब शादियां आने वाली पीढ़ी को भी धार्मिक पाखंडों और आडंबरों से छुटकारा दिलाने में मददगार होती हैं.

* दूसरी जाति में शादी करने वाले ही अपने समाज के साथसाथ दूसरे समाज के प्रति भी सब्र के साथ अपने विचार रखते हैं.

* सामाजिक विरोध का सामना करने के लिए ऐसे पतिपत्नी को बहुत मजबूत होना पड़ता है. एकदूसरे का साथ देते हुए जिंदगी में आगे बढ़ते हुए यह रिश्ता मजबूत होता चला जाता है. भारत को धर्मनिरपेक्ष बनाने के लिए समाज में ऐसी शादियां खुशी से स्वीकार कर लेनी चाहिए.

* लड़कालड़की दोनों ने अपनी मरजी से शादी की होती है, इसलिए वे रिश्ता निभाने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते. दोनों ही यह सोचते हैं कि उन्हें ही एकदूसरे का साथ देना है. परिवार वालों से कोई उम्मीद नहीं होती और किसी को अपने फैसले का मजाक उड़ाने का मौका नहीं देना होता है. पतिपत्नी ज्यादा ईमानदारी से यह रिश्ता निभाने की कोशिश करते हैं.

* इन के बच्चे भी हर धर्म का आदर करना सीख जाते हैं. दोनों धर्मों के बुरे रीतिरिवाज छोड़ कर पतिपत्नी अपनी सुखी शादीशुदा जिंदगी के लिए नई दुनिया बसा कर केवल सुखदायी बातों पर ही ध्यान देते हैं.

ये भी पढ़ें- अंजलि इब्राहिम और लव जेहाद!

* समाज में फैले अंधविश्वास, पाखंड, आडंबर जैसी कुरीतियों को मिटाने के लिए ऐसी शादियां बड़ी फायदेमंद साबित होती हैं.

* सामाजिक भेदभाव, एकदूसरे के धर्म को नीचा दिखाना, यह सब रोकने के लिए समाज को दूसरी जाति में शादी स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए.

* दोनों धर्मों के त्योहारों का मजा ले कर जिंदगी में एक जोश सा बना रहता है, मिलजुल कर एकदूसरे के रंग में रंग कर जीने का मजा ही कुछ और होता है.

* आजकल के बच्चे तो गर्व से अपने दोस्तों को बताते हैं कि उन के मम्मीपापा ने दूसरी जाति में शादी की है. ऐसे नौजवान अपने मातापिता को आदर से देखते हैं. उन के मातापिता ने यह रिश्ता जोड़ने के लिए कितने सुखदुख झेले हैं, यह बात उन्हें भावनात्मक रूप से मजबूत बनाती है.

* जहां औनर किलिंग जैसी शर्मनाक बातें समाज को गिरावट की ओर ले जाती हैं, वहीं ऐसी शादियों के समर्थन में उठे कदम उम्मीद की किरण बन कर राह भी दिखाते हैं.

* बड़े शहरों में तो अब उतना विरोध नहीं दिखता, पर छोटे शहरों, कसबों में आज भी होहल्ला मचाया जाता है. धर्म की जंजीरों में जकड़े लोग दूसरे समुदाय को अच्छी नजर से देख ही नहीं पाते. हर धर्म अपने को ही अच्छा कहता है. ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना कहीं देखने को नहीं मिलती, फिर जब यह कहा जाता है कि छोटा शहर, छोटी सोच, तो ऐसे लोगों को बुरा भी बहुत लगता है, पर अपने को बदलने के लिए भी ये लोग कतई तैयार नहीं हैं.

ये भी पढ़ें- महुआ के पेड़ का अंधविश्वास

* दूसरी जाति में शादी करने वालों के बच्चों में भी दूसरों के मुकाबले ज्यादा मजबूत जींस होते हैं. ये बच्चे एक ही जाति के पतिपत्नी के बच्चों से ज्यादा होशियार होते हैं.

* ऐसी शादियों का एक बड़ा फायदा यह भी है कि दहेज प्रथा का यहां कोई वजूद नहीं रहता.

* जहां एक ओर अपनी जातबिरादरी में शादी तय करते समय लड़की की बोली लगाई जाती है, वहीं दूसरी तरफ ऐसी शादी सिर्फ प्यार, विश्वास और समर्पण पर टिकी होती है. दहेज, रुपएपैसे से इन्हें कोई मतलब नहीं होता. मिलजुल कर घर बसाते हैं. न कोई लालच, न किसी से कोई उम्मीद.

तो जब समाज की बेहतरी के लिए दूसरी जाति में शादी करने के इतने फायदे हैं, तो लोगों को एतराज क्यों है ? वैसे भी ‘जब मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी’ की तर्ज पर प्यार करने वालों का साथ दे कर उन्हें सुखी शादीशुदा होने की शुभकामनाएं ही क्यों न दें. समाज से धार्मिक आडंबर, जातिवाद, पाखंड, अंधविश्वास, दहेज मिट जाएगा, तो भला तो सब का ही होगा न.

ये भी पढ़ें- धोखाधड़ी: क्लर्क से बना कल्कि अवतार

महुआ के पेड़ का अंधविश्वास

अंधविश्वास की बेडि़यों में समाज के केवल अनपढ़ या निचले और थोड़े ऊंचे तबके के लोग ही नहीं जकड़े हुए हैं, बल्कि अपनी काबिलीयत का दंभ भरने वाले पढ़ेलिखे और ऊंचे तबके के लोग भी इस की गिरफ्त में हैं.

लोगों की आदत कुछ इस तरह हो गई है कि अखबार और पत्रपत्रिकाओं को पढ़ने के बजाय वे सोशल मीडिया में आने वाली खबरों पर यकीन करने लगे हैं. लोग किसी खबर या घटना के सही या गलत होने की पड़ताल न कर के कहीसुनी बातों पर भरोसा कर के भेड़चाल चलने लगे हैं.

इसी भेड़चाल का नजारा नवरात्र के मौके पर मध्य प्रदेश के हिल स्टेशन पिपरिया, पचमढ़ी से लगे सतपुड़ा टाइगर रिजर्व क्षेत्र में देखने को मिला. पिपरिया से तकरीबन 17 किलोमीटर दूर नयागांव ग्राम पंचायत के तहत कोड़ापड़रई गांव के जंगल में एक महुआ के पेड़ को महज छूने भर से लोगों की शारीरिक और मानसिक परेशानियां दूर होने की खबर सोशल मीडिया पर क्या वायरल हुई, हजारों की तादाद में अंधभक्तों की भीड़ वहां जमा होने लगी.

ये भी पढ़ें- धोखाधड़ी: क्लर्क से बना कल्कि अवतार

हमारे देश में गरीबी की एक वजह यह भी है कि यहां लोग कामधंधा छोड़ कर चमत्कारों के पीछे भागने लगते हैं.

महुआ के चमत्कारिक पेड़ का राज जानने के लिए शरद पूर्णिमा के दिन मैं अपने पत्रकार दोस्त के साथ वहां पहुंचा तो वहां का नजारा देख कर हम दंग रह गए. सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच कोरनी और कुब्जा नदी को पार कर हम वहां पहुंच गए.

महुआ के पेड़ के चारों ओर हजारों की तादाद में मर्दऔरतों की भीड़ जमा थी. पेड़ के आसपास नारियल, अगरबत्ती के खाली पैकेट और प्लास्टिक की पन्नियों का ढेर लगा था. लोग अपने हाथों में जलती हुई अगरबत्ती और नारियल ले कर महुआ के पेड़ के चक्कर लगा रहे थे.

उस महुआ पेड़ के पास उसे छोटेछोटे दूसरे पेड़ों की शाखाओं पर लोगों द्वारा अपनी मुराद पूरी होने के लिए धागा, कपड़ा और प्लास्टिक की पन्नी बांधने का सिलसिला चल रहा था. पास जा कर देखा तो उस पेड़ के पास देवीदेवताओं की मूर्तियां और फोटो रखे थे, जिन पर फूल, बेलपत्र और नारियल चढ़ाने के लिए लोग धक्कामुक्की कर रहे थे.

ये भी पढ़ें- 2 आदिवासी औरतें: एक बनी कटी पतंग, दूसरी चढ़ी आसमान पर

वहां पर आसपास के पत्रकारों और टैलीविजन चैनलों के प्रतिनिधि भी जमा थे, जो महुआ पेड़ के चमत्कार को बढ़चढ़ कर पेश कर रहे थे.

हम ने वहां मौजूद लोगों से बातचीत का सिलसिला शुरू किया तो पता चला कि नवरात्र के तकरीबन एक हफ्ते पहले एक आदिवासी चरवाहा जंगल में बकरी चराने गया था, जिस को जोड़ों के दर्द के चलते चलनेफिरने में परेशानी होती थी. उस शख्स ने अनजाने ही पेड़ को छू लिया तो उस के जोड़ों की पीड़ा दूर हो गई.

जब यह बात आदिवासी इलाकों में फैली तो वहां के अनपढ़ आदिवासी सतरंगी  झंडे और औरतें कलश ले कर उस जगह पर पहुंच गए और पेड़ को पूजने लगे.

सोशल मीडिया पर जब यह घटना वायरल हुई, तो मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा, बैतूल, नरसिंहपुर, रायसेन, होशंगाबाद जिले के अंधभक्तों की भीड़ वहां जमा होने लगी. भीड़ के मनोविज्ञान का फायदा प्रसाद बेचने वाले दुकानदारों ने जम कर उठाना शुरू कर दिया.

इस जगह पर ऐसी तमाम दुकानें लग रही हैं. चायनाश्ते की दुकानों पर धड़ल्ले से सिंगल यूज प्लास्टिक के डिस्पोजल का ढेर संरक्षित जंगल को प्रदूषित कर रहा है.

एक पंडित वहां आए लोगों को कुमकुम का तिलक लगा कर 10-10 रुपए दक्षिणा ले कर अपना आशीर्वाद बांट रहे थे.

कुछ पंडेपुजारी तंत्रमंत्र के नाम पर लोगों को बरगला कर महुआ के पेड़ के चमत्कार को महिमामंडित कर अपनी दानदक्षिणा बटोरने में लग गए थे.

ये भी पढ़ें- सुरक्षित चलें और सुरक्षित रहें

पूरे वन क्षेत्र में मेले जैसा नजारा देखने को मिल रहा था. 2-3 दुकानों पर बाकायदा महुआ के पेड़ पर अंकित देवीदेवताओं के चित्र वाले फोटो 50-50 रुपए में बेचे जा रहे थे और लोग उन्हें खरीद भी रहे थे.

हर दिन भीड़ के बढ़ने से आसपास की सड़कों पर जाम लगने लगा तो पुलिस प्रशासन हरकत में आया. तहसील के एसडीएम और तहसीलदार पुलिस टीम के साथ वहां पहुंचे तो भीड़तंत्र के सामने वे भी मायूस हो गए.

वन्य जीवों की सिक्योरिटी के नजरिए से इस क्षेत्र को प्रतिबंधित किया गया है. लेकिन हैरानी की बात यह रही कि वन विभाग का अमला अंधभक्तों की भीड़ को रोकने में नाकाम ही रहा.

वन विभाग के रेंजर पीआर पदाम अपनी गाड़ी में लगे माइक से प्रतिबंधित क्षेत्र का हवाला देते हुए लोगों को आगे न बढ़ने की सम झाइश दे रहे थे, लेकिन भीड़ पर इस का कोई असर नहीं पड़ रहा था.

सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के एसडीओ लोकेश नैनपुरे का कहना था कि वहां पर कोई चमत्कार नहीं हो रहा है, लेकिन हम बलपूर्वक लोगों को हटा नहीं सकते हैं.

पिपरिया स्टेशन रोड थाने के प्रभारी सतीश अंधवान अपने स्टाफ के साथ सिविल ड्रैस में पहुंचे और अंधविश्वास को रोकने के बजाय वे भी भीड़तंत्र का हिस्सा बन गए.

छिंदवाड़ा जिले के तामिया के बाशिंदे सोमनाथ ठाकुर महुआ के पेड़ के इस चमत्कार की बात सुन कर अपनी मां को ले कर यहां आए थे, जो पिछले 2 सालों से लकवे के चलते बिस्तर पर पड़ी थीं. पर यहां आ कर उन्हें निराश ही होना पड़ा.

ये भी पढ़ें- DCP किरण बेदी! के समय भी यही हाल था जो आज दिल्ली पुलिस और वकीलों के बीच है

कोड़ापड़रई गांव के इस चमत्कारिक पेड़ की अफवाह पर यकीन कर टिमरनी के रायबोर गांव का बबलू बट्टी आज जिंदगी और मौत के बीच जू झ रहा है.

13 अक्तूबर, 2019 को बबलू बट्टी ने पेड़ की परिक्रमा की और ठीक होने की मंशा से घर वापस आ गया, लेकिन उस की हालत बिगड़ गई और उसे आननफानन भोपाल के बड़े अस्पताल में भरती कराना पड़ा.

रायबोर गांव के राजू दीक्षित ने बताया कि अभी बबलू बट्टी की हालत गंभीर है और उसे आईसीयू में रखा गया है.

छिंदवाड़ा चावलपानी की 30 साला बुधिया बाई ठाकुर के मुंह में कैंसर हो गया और उस का पति रामविलास ठाकुर डाक्टरों को छोड़ उस पेड़ के पास ले कर आया.

हरदा के राजेंद्र मेहरा, बरेली के सुलतान खान, शबीना बी समेत अनेक लोग अपनी गंभीर बीमारी ठीक होने की कामना करते हुए वहां आ रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई भी शख्स ऐसा नहीं मिला जिस ने खुल कर कहा हो कि उसे महुआ के पेड़ को छूने से कोई राहत मिली है.

उस पेड़ को ले कर हर रोज नईनई अफवाहें चल रही हैं और रोज ही हजारों लोग उस पेड़ को देखने जा रहे हैं, जिसे लोग चमत्कारी मान रहे हैं.

आसपास के इलाकों के लोगों से बातचीत में यह पता चला कि असल में नयागांव के 30 साला रूप सिंह ठाकुर ने अफवाह उड़ाई कि उसे उस महुआ के पेड़ ने खींच कर चिपका लिया और तकरीबन 10 मिनट तक चिपकाए रखा.

इस के बाद वह रोजाना ही उस पेड़ के पास जाता रहा और ठीक हो गया, लेकिन गांव वालों ने यह नहीं बताया कि उसे कौन सी बीमारी थी.

ये भी पढ़ें- क्या करें जब लग जाए आग

वन विभाग के बीट प्रभारी ने इस अफवाह उड़ाने वाले को पहचान लिया है. रूप सिंह पढ़ालिखा नहीं है और लोग उस की बातों में आ कर दर्शनों के लिए वहां आने लगे और देखते ही देखते यह तादाद हजारों में पहुंच गई.

गंभीर बीमारी में आराम लगने की चाह से बहुत दूरदूर के लोग महुआ के इस पेड़ के पास पहुंच रहे हैं. बनखेड़ी से 15 किलोमीटर दूर और पिपरिया से 17 किलोमीटर दूर इस जगह का किराया भी वाहन चालक जम कर वसूल रहे हैं. यहां आ कर यह देखने को मिला कि पढ़ेलिखे सभ्य समाज के लोग कैसे एक अनपढ़ आदमी द्वारा फैलाई गई अफवाह के चक्कर में अपना कीमती समय और पैसा खर्च कर रहे हैं.

प्रतिबंधित सतपुड़ा के जंगल में चूल्हा जला कर बाटीभरता और हलवापूरी का भंडारा चल रहा है. इस से जंगल का तापमान भी बढ़ गया है. पेड़ों के नीचे सूखे हुए पत्तों और लकडि़यों का ढेर लगा है, जो कभी किसी बड़ी अग्नि दुर्घटना की वजह भी बन सकता है. अभी तक प्रशासन की ओर से लोगों को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है. धर्म के नाम पर लोगों की आस्था से खिलवाड़ किया जा रहा है.

ये भी पढ़ें- दहेज में जाने वाले दैय्यत बाबा

गहरी पैठ

महाराष्ट्र, हरियाणा की विधानसभाओं और 51 विधानसभा सीटों के चुनावों के नतीजों से भारतीय जनता पार्टी के सुनहरे रंग की परत तो उतर गई है. भाजपा पहले भी हारी थी पर फिर बालाकोट के कारण और मायावती के पैतरों के कारण लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत गई. जीतने के बाद उस का गरूर बढ़ गया और उस ने किसानों, कामगारों, छोटे व्यापारियों की फिक्र ही छोड़ दी. आजकल ये काम वे पिछड़े लोग कर रहे हैं जो पहले शूद्रों की गिनती में आते थे, पर भाजपा ने जिन्हें भगवा चोले पहना दिए और कहा कि भजन गाओ और फाके करो.

इन लोगों ने जबरदस्त विद्रोह कर दिया. हरियाणा में जाटों, अहीरों, गुर्जरों ने और महाराष्ट्र में मराठों ने भाजपा को पूरा नहीं तो थोड़ा सबक सिखा ही दिया. दलित और मुसलिम वोट बंटते नहीं तो मामला कुछ और होता. दलित ऊंचे सवर्णों से ज्यादा उन पिछड़ों से खार खाए बैठे हैं जिन्हें वे रोज अपने इर्दगिर्द देखते हैं. उन्हें पता ही नहीं रहता कि असली गुनाहगार वह जातिवाद है जो पुराणों की देन है, न कि उन के महल्ले या गांव के थोड़े खातेपीते लोग, जिन्हें वे दबंग समझते हैं.

ये भी पढ़ें- नोटबंदी, GST और 370 हटानाः दिखने में अच्छे, असल में बेहद नुकसानदेह

हरियाणा में दुष्यंत चौटाला ने 10 सीटें पाईं और भारतीय जनता पार्टी से उपमुख्यमंत्री पद झटक लिया. कांग्रेस ताकती रह गई पर उसे अब उम्मीद है कि दूसरे राज्यों में जहां जाटों, पिछड़ों की पार्टियां नहीं हैं वहां उसे फायदा पहुंचेगा. भाजपा को यह समझना चाहिए पर वह समझेगी नहीं कि किसी भी देश को आगे बढ़ने के लिए ज्यादा सामान पैदा करना होता है. अमीरी कठोर मेहनत से आती है चाहे वह खेतों में हो या कारखानों में. मंदिरों में तो पैसा और समय बरबाद होता है.

भाजपा को तो राम मंदिर, पटेल की मूर्ति, चारधाम की देखभाल, अयोध्या की दीवाली की पड़ी रहती है. इन सब में पौबारह होती है तो इन का रखरखाव करने वाले भगवाधारियों की. वे पिछड़े जो काम कर रहे हैं, खूनपसीना बहा रहे हैं, वे व्यापारी जो रातदिन दुकानें खोले बैठे हैं, दफ्तरों में काम कर रहे वे लोग जो कंप्यूटरों पर आंखें खराब कर रहे हैं, वे औरतें जो बच्चों को पढ़ा रही हैं ताकि वे अपना कल सुधार सकें, को इन पूजापाठों से क्या फायदा होगा?

ये भी पढ़ें- पटना में भरा पानी

भाजपा ने किसानों की परेशानियों को समझा ही नहीं. भाजपा तो सोनिया गांधी के जमीन अधिग्रहण कानून को खत्म करना चाहती है जिस से किसानों की जमीनें उन की अपनी पक्की मिल्कीयत बनी थीं. भाजपा ने जीएसटी लागू कर के उन लाखों पिछड़े वर्गों के दुकानदारों का काम बंद कर दिया जो छोटा काम करने लगे थे. नोटबंदी के बाद छोटे लोगों के पास पैसा बचा ही नहीं. बैंकों में रखा पैसा खतरे में है. भाजपा इस मेहनतकश जमात की सुन नहीं रही है तो इस ने चपत लगाई है, अभी हलकी ही है. महाराष्ट्र, हरियाणा में काफी कम सीटें जीतीं और विधानसभा उपचुनावों में बोलबाला नहीं रहा. यहां तक कि गुजरात के 6 उपचुनावों में से 3 कांग्रेस जीत गई जबकि कांग्रेस का तो कोई नेता ही नहीं है. राहुल फिलहाल सदमे में है, सोनिया बीमार हैं. नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अब चुनावी बिजली का शौक लगा है. अब सरकारें और लड़खड़ाएंगी.

सेना के गुणगान तो हमारे देश में बहुत किए जाते हैं पर ये दिखावा ज्यादा हैं, यह पक्का है. सैनिकों की शिकायतों को किस तरह नजरअंदाज किया जाता है, यह दिखता रहता है. यह तो साफ है यदि ऊंची जाति का ऊंचा अफसर सेना के खिलाफ अदालत में जाए तो भी उस के खिलाफ कुछ नहीं होता. हो सकता है, उसे मंत्री भी बना दिया जाए पर पिछड़ी जाति का कोई अदना सिपाही कुछ गलत कर दे तो पूरी फौज उस के पीछे हाथ धो कर पड़ जाती है.

सुरेंद्र सिंह यादव को आर्मी में सेना में सिपाही की नौकरी दी गई थी और 26 अप्रैल, 1991 में उस ने नौकरी जौइन की. कुछ दिन बाद उस के आवेदन खंगालते समय पता चला कि उस के माध्यमिक शिक्षा मंडल, ग्वालियर के दिए मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट पर कुछ शक है. उसे आर्मी ऐक्ट की धारा 44 पर चार्जशीट दी गई और जब वह साबित नहीं कर पाया कि सर्टिफिकेट असली ही है तो उसे नौकरी से निकाल भी दिया गया और 3 महीने की जेल भी दे दी गई.

ये भी पढ़ें- चालान का डर

यह तो पक्का है कि उस ने बाकी टैस्ट और फिजिकल जांच पूरी की होगी, क्योंकि सिर्फ मैट्रिक के सर्टिफिकेट के बल पर तो सेना में नौकरी नहीं मिलती. शायद इसीलिए रिव्यूइंग अथौरिटी ने समरी कोर्ट मार्शल का आदेश रद्द कर दिया और उसे फिर 27 नवंबर, 1992 को बहाल कर दिया. पर चूंकि वह अदना सिपाही था, गरीब था, यादव था, उस की छानबीन रिकौर्ड औफिस ने चालू रखी. उसे शो कौज नोटिस दिया गया और 10 जुलाई, 1993 को फिर निकाल दिया.

जिस देश में मंत्री, प्रधानमंत्री के सर्टिफिकेट का अतापता न हो वहां एक पिछड़े वर्ग के सिपाही के पीछे सेना हाथ धो कर पड़ गई. वह हाईकोर्ट गया जिस ने मामला आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल को सौंप दिया. सालों के बाद आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल ने 2016 में सिपाही के खिलाफ फैसला दिया और डिस्चार्ज को सही ठहराया.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

सुरेंद्र सिंह यादव अब सुप्रीम कोर्ट में आया कि उस पर एक ही गुनाह के लिए 2 बार कार्यवाही हुई, पहले समरी कोर्ट मार्शल और वहां से बहाल होने पर शो कौज नोटिस दे कर. उस पर किसी और गलती या गुनाह का आरोप नहीं था. अपने हक के लिए लड़ रहे आम सैनिक के लिए सुप्रीम कोर्ट में सेना ने सीनियर एडवोकेट आर. बालासुब्रमण्यम के साथ 5 और वकील खड़े किए. सिपाही सुरेंद्र सिंह यादव के साथ केवल एक वकील सुधांशु पात्रा था.

जब सुप्रीम कोर्ट में भारीभरकम फौज के भारीभरकम वकील हों तो अदना सिपाही को हारना ही था. सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि समरी कोर्ट मार्शल का फैसला दोबारा कार्यवाही करने में कोई रुकावट पैदा नहीं करता. वैसे आम कानून यही कहता है कि एक गुनाह पर 2 बार मुकदमा नहीं चल सकता और फिर यह तो पिछड़ी जाति का सीधासादा सिपाही था, उस की हिम्मत कैसे हुई कि अफसरों के खिलाफ खड़ा हो. यह कोई वीके सिंह थोड़े ही है जिस की 2-2 जन्मतिथियां रिकौर्ड में दर्ज हों, जो सेना में जनरल बना और फिर मंत्री.

ये भी पढ़ें- आज भी इतनी सस्ती है दलितों और पिछड़ों की जिंदगी!

धोखाधड़ी: क्लर्क से बना कल्कि अवतार

तब मेरी उम्र 14-15 साल रही होगी. मेरी मौसी के बेटे की शादी थी. गरमी की छुट्टियां थीं तो वहां जाना कोई बड़ा मसला नहीं था. एक दिन की बात है. खेतों में गेहूं की कटाई चल रही थी. मौसी का पूरा परिवार खेत में था.

दोपहर में कोई नौजवान बाबा वहां आया और सब के हाथ देख कर भविष्य बताने लगा. मेरे बारे में उस बाबा ने 2 अहम बातें कही थीं.

पहली यह कि मैं 84 साल तक जिऊंगा और दूसरी यह कि बड़ा हो कर मैं वकील बनूंगा. बाद में मौसी ने उस बाबा को खाना और अनाज दिया था.

ये भी पढ़ें- 2 आदिवासी औरतें: एक बनी कटी पतंग, दूसरी चढ़ी आसमान पर

अब उस बाबा की भविष्यवाणी पर आते हैं. मेरी उम्र के बारे में बाबा ने शिगूफा छोड़ा था, क्योंकि यह तो कोई नहीं बता सकता कि कोई कितना जिएगा, पर बाबा की कही दूसरी बात भी गलत ही साबित हुई. मैं वकील नहीं बना. मतलब, मेरे मन में कभी दूरदूर तक खयाल नहीं आया कि इस फील्ड में हाथ आजमाया जाए.

लेकिन उस बाबा की कही ये बातें आज भी मेरे मन में क्यों उमड़घुमड़ रही हैं? शायद उस बाबा के गेटअप का असर था. दाढ़ीमूंछ, भगवा कपड़े, हाथ में लाठी और कमंडल. उस बाबा के बात करने का तरीका भी लुभावना था और चूंकि उसे किसी के भी भविष्य को बताने या उस की मुसीबतों से छुटकारा दिलाने का धार्मिक लाइसैंस मिला हुआ था, इसलिए इधरउधर की हांक कर वह अपने 2-4 दिन के खाने का जुगाड़ कर गया था, बिना अपने शरीर या दिमाग को कष्ट दिए.

यह तो हुआ एक अनजान बाबा का किस्सा. अब आप को एक ऐसे आदमी से रूबरू कराते हैं, जिस ने खुद को कल्कि अवतार बता कर लोगों से इतना पैसा ऐंठा कि भगवान के साथसाथ वह धन्ना सेठ भी हो गया.

मजे की बात तो यह है कि उस ने ऐसे लोगों को अपना भक्त बनाया जो अच्छेखासे पढ़ेलिखे हैं और समाज में जिन का रुतबा भी है.

हम बात कर रहे हैं 70 साल के वी. विजय कुमार नायडू की, जो कभी एलआईसी में क्लर्क था. बाद में नौकरी छोड़ कर उस ने एक ऐजुकेशनल संस्थान बनाया था, पर जब वह संस्थान नहीं चला तो वह अंडरग्राउंड हो गया. इस के बाद साल 1989 में वह खुद को विष्णु का 10वां अवतार कल्कि भगवान बताते हुए चित्तूर में प्रकट हुआ.

ये भी पढ़ें- सुरक्षित चलें और सुरक्षित रहें

अब तमिलनाडु के उसी अवतार के यहां 600 करोड़ रुपए की बेनामी जायदाद मिली है. इस में 20 करोड़ के अमेरिकी डौलर हैं और 44 करोड़ रुपए की भारतीय करंसी है. 88 किलो सोना बरामद हुआ है. 1271 कैरेट के बेशकीमती हीरे भी मिले हैं. कैश की रसीदें मिली हैं जिन से पता चलता है कि उस के पास 600 करोड़ रुपए की बेनामी जायदाद है.

नए जमाने के इस कल्कि भगवान के 40 ठिकानों पर रेड चली थी, जिन में उस के नाम पर बनी एक यूनिवर्सिटी और एक आध्यात्मिक स्कूल शामिल है. इस बाबा का मुख्य आश्रम आंध्र प्रदेश में चित्तूर जिले के वैरादेहपलेम इलाके में है.

इनकम टैक्स डिपार्टमैंट के सूत्रों के मुताबिक, आश्रम के ऊपर जमीनों को हड़पने और टैक्स चोरी के आरोप हैं. इस के अलावा कल्कि ट्रस्ट के फंड में भी गड़बडि़यां हो सकती हैं.

क्लर्क से कल्कि बने इन महाशय ने दूसरे तमाम बाबाओं की तरह अध्यात्म को ही अपना हथियार बनाया. उस ने अपना मायाजाल लाखों भारतीय लोगों के साथसाथ कई विदेशियों पर भी फेंका और उन्हें जम कर ठगा. बाद में कमाई का यह धंधा फलताफूलता गया और कल्कि भगवान देखते ही देखते करोड़पति बन गया.

ये भी पढ़ें- T-20 फौर्मेट में गेंदबाजों के आगे फीके पड़े बल्लेबाजों के तेवर, देखें दिलचस्प रिकॉर्ड

कुछ अलगअलग वैबसाइट से पता चलता है कि इस कल्कि भगवान के आशीर्वाद से बहुत से लोगों के बच्चों के अच्छे संस्थाओं में दाखिले हो गए. यह इतना दयालु था कि इस के चमत्कारों से बहुत से लोगों के डूबे हुए पैसे वापस मिल गए.

यहां तक कि बाबा की कृपा से बहुत से भक्तों के सारे बरतन अपनेआप साफ हो गए. कुछकुछ वैसे ही, जैसे कभी निर्मल बाबा की बरसती कृपा से लोगों की जिंदगी में खुशहाली आ जाती थी. वह समोसे खिला कर लोगों को भरमाता था तो यह अपनी चिकनीचुपड़ी बातों से लोगों की जेब हलकी कर देता था.

इस कल्कि भगवान ने खुद को और पत्नी पद्मावती को देवीदेवता के समान बताया था. इस के आश्रमों में देश के अमीर लोगों के अलावा विदेशी और एनआरआई लोगों की भी कतारें लगती थीं. यही वजह थी कि इस कल्कि भगवान के साधारण दर्शन के लिए लोगों को 5,000 रुपए और विशेष दर्शन के लिए 25,000 रुपए देने पड़ते थे.

देखा जाए तो अब सरकारी महकमे की दबिश पड़ने के बाद ही पता चला कि दक्षिण भारत के एक छोटे से इलाके में कोई रईस कल्कि भगवान रहता है. इस के अलावा न जाने कितने ऐसे तथाकथित भगवान अपनीअपनी दुकान लगाए लोगों के दुखों का कारोबार कर रहे हैं और मजे की जिंदगी गुजार रहे हैं. बहुत से कानून के शिकंजे में फंस कर जेल की हवा तक खा रहे हैं, पर जनता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

ये भी पढ़ें- हर मोर्चे पर विफल हो रही टीम इंडिया, क्या पूरा हो पाएंगा टी-20 विश्व कप जीतने का सपना

अभी हाल ही में जब हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए थे, तब हर पार्टी का नेता चाहता था कि राम रहीम के अनुयायी उसे ही वोट दें. सब ने उन्हें लुभाने की पूरी कोशिश की थी, जबकि राम रहीम अभी रेप के सिलसिले में जेल में बंद है.

ऐसे बाबा लोग आम जनता की उस दुखती रग पर हाथ रखते हैं, जैसी रग कभी उस अनजान बाबा ने खेत में आ कर हमारे परिवार के लोगों की पकड़ी थी. उसे पता था कि वह  झूठ बोल रहा है या तुक्का मार रहा है, लेकिन साथ ही उसे यह भी पता था कि ये लोग उस के तुक्के को तीर सम झ कर उस की रोजीरोटी का इंतजाम तो कर ही देंगे.

यह तो पता नहीं कि मेरी भविष्यवाणी बताने वाले उस बाबा का आगे क्या हुआ, लेकिन अगर कहीं उस की गोटी सैट बैठ गई होगी तो किसी छोटे से गांव के मंदिर में उस ने यकीनन ऐश की जिंदगी गुजारी होगी, वहां का कल्कि भगवान बन कर.

ये भी पढ़ें- DCP किरण बेदी! के समय भी यही हाल था जो आज दिल्ली पुलिस और वकीलों के बीच है

2 आदिवासी औरतें: एक बनी कटी पतंग, दूसरी चढ़ी आसमान पर

मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश के शिवपुरी और बैतूल जिले की आदिवासी समाज की ये 2 औरतें देश की 2 सब से बड़ी राजनीतिक पार्टियों के इस्तेमाल की चीज बन कर रह गई हैं.

ये भी पढ़ें- सुरक्षित चलें और सुरक्षित रहें

इस से बड़ी ट्रैजिडी और क्या होगी कि शिवपुरी जिले के कोलारस विधानसभा क्षेत्र की ग्राम पंचायत रामपुरी के गांव लुहारपुरा की अनपढ़ जूली अपने हक को नहीं जानती थी, इसलिए शिवपुरी की जिला पंचायत अध्यक्ष और राज्यमंत्री का दर्जा पाने के बाद भी वह अपनी 18 बीघा जमीन के मामले में ठगी का शिकार बनी. उस का राजनीतिक इस्तेमाल करने वाले नेताओं ने उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंका.

वहीं दूसरी औरत ज्योति धुर्वे रायपुर जैसे महानगर की दुर्ग यूनिवर्सिटी से राजनीति में एमए की तालीम लेने के बाद साल 2008 में अनुसूचित जनजाति आयोग की अध्यक्ष बनी और कैबिनेट मंत्री का दर्जा पाने के बाद लंबी उड़ान पर निकल पड़ी. वह 2 बार सांसद बनने के बाद आज भाजपा की राष्ट्रीय सचिव बन बैठी है. साथ ही, अपने ऊपर लगे फर्जी आदिवासी व विधवा होने के आरोप के बावजूद उस ने जायदाद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

करोड़ों रुपए में खेलने वाली भाजपा की इस पूर्व सांसद ज्योति धुर्वे का मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार बाल भी बांका नहीं कर सकी है. वजह, इस भाजपा सांसद के संरक्षक प्रदेश भाजपा कोषाध्यक्ष व पूर्व सांसद हेमंत खंडेलवाल हैं. इन के कांग्रेस की कमलनाथ सरकार के बैतूल जिले की मुलताई विधानसभा से विधायक और प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री सुखदेव पांसे से गहरे संबंधों के चलते ज्योति धुर्वे का फर्जी आदिवासी का मामला ठंडे बस्ते में जा पहुंचा है.

ये भी पढ़ें- T-20 फौर्मेट में गेंदबाजों के आगे फीके पड़े बल्लेबाजों के तेवर, देखें दिलचस्प रिकॉर्ड

एक करोड़ों में तो दूसरी कंगाल

मध्य प्रदेश की राजनीति में दोनों ही औरतें भाजपा व कांग्रेस के पूर्व विधायकों की करीबी रही हैं. जहां जूली कांग्रेस के पूर्व विधायक, जो अब नहीं रहे, राम सिंह यादव के फार्महाउस में काम करती थी तो ज्योति धुर्वे भाजपा के पूर्व सांसद, जो अब नहीं रहे, विजय कुमार खंडेलवाल, प्रदेश भाजपा कोषाध्यक्ष की भारतीय जनता पार्टी महिला मोरचा की अध्यक्ष थी.

ज्योति धुर्वे ने अपने कांग्रेसी पति पूर्व जनपद सदस्य भैसदेही जनपद प्रेम सिंह धुर्वे, जो अब नहीं रहे, की राजनीति में विपक्षी पार्टी के साथ दो कदम आगे बढ़ाए तो जूली के पति मांगीलाल ने मजदूरी करने वाली अपनी बीवी को फार्महाउस के मालिक राम सिंह यादव की कठपुतली बनने पर मजबूर कर दिया.

इन दोनों आदिवासी औरतों का राजनीतिक सफर व खात्मा भाजपा के बीते 15 सालों के राज में हुआ है. लालबत्ती लगी गाड़ी में घूमने वाली इन दोनों औरतों का एक कड़वा सच यह भी है कि दोनों में से एक असली तो दूसरी नकली आदिवासी है.

ये भी पढ़ें- हर मोर्चे पर विफल हो रही टीम इंडिया, क्या पूरा हो पाएंगा टी-20 विश्व कप जीतने का सपना

एक है एमए दूसरी अंगूठाछाप

एक फटी, मटमैली साड़ी में लिपटी, वहीं दूसरी महंगे कपड़ों और गहनों से लदी हुई. दोनों की राजनीति में शुरुआत साल 2005 और साल 2008 में हुई.

मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले की जूली को वहां के पूर्व विधायक और नेता राम सिंह यादव ने जिला पंचायत का सदस्य बना दिया था. कुछ समय बाद क्षेत्र के दूसरे पूर्व विधायक वीरेंद्र रघुवंशी ने जूली को राज्यमंत्री का दर्जा दिलवा कर उसे जिला पंचायत के अध्यक्ष का पद सौंप दिया.

साल 2005 से साल 2009 तक जिला पंचायत अध्यक्ष रही जूली के पति मांगीलाल राम सिंह यादव के फार्महाउस पर काम करता था. जूली भी अपने पति के साथ वहीं पर रहती थी और पूर्व विधायक के फार्महाउस पर काम करती थी.

जूली के पास उस के पिता के गांव रामगढ़ में पट्टे की जमीन थी. 9-9 बीघा जमीन पर पूर्व विधायक राम सिंह यादव के बेटे महेंद्र यादव ने भूमि विकास बैंक से ट्रैक्टर उठाया और बैंक की किस्त जमा न करने पर जब भूमि विकास बैंक ने उस के बैंक में बंधक 9-9 बीघा जमीन के पट्टे को नीलाम किया तो पूर्व विधायक राम सिंह यादव के बेटे महेंद्र यादव ने बैंक से वह पट्टे वाली 18 बीघा जमीन खरीद ली.

ये भी पढ़ें- DCP किरण बेदी! के समय भी यही हाल था जो आज दिल्ली पुलिस और वकीलों के बीच है

जूली अब अपना सबकुछ गंवाने के बाद बकरियां चरा रही है. वर्तमान समय में जूली के साथ न तो कोई विधायक है और न पूर्व विधायक. और तो और जिस पार्टी की ओर से वह जिला पंचायत अध्यक्ष बनी थी, उस पार्टी का कोई कार्यकर्ता से ले कर पदाधिकारी भी उस के दुख में साथी बनने को तैयार नहीं है.

जहां जूली की जाति पर किसी ने सवाल नहीं उठाया, तो वहीं दूसरी ओर ज्योति धुर्वे अपनेआप को असली आदिवासी साबित नहीं कर सकी है.

मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल बैतूल जिले के भाजपा सांसद व प्रदेश भाजपा कोषाध्यक्ष विजय कुमार खंडेलवाल ने ज्योति धुर्वे को साल 2008 में मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग की अध्यक्ष की कुरसी और कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिलवा दिया था.

विजय कुमार खंडेलवाल की साल 2007 में हुई मौत के बाद उन के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में उन के छोटे बेटे हेमंत खंडेलवाल साल 2008 में लोकसभा के उपचुनाव में सांसद बने, लेकिन इस बीच बैतूल लोकसभा सीट आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हो जाने के चलते उस सीट पर उन की राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में ज्योति धुर्वे की ताजपोशी हुई.

ज्योति धुर्वे ने साल 2009 में लोकसभा का चुनाव लड़ा और उन का आदिवासी का जाति प्रमाणपत्र विभाजित मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ से साल 2009 में जारी किया गया.

उस समय ज्योति, पिता महादेव ठाकुर का पता समता कालोनी, रायपुर था. रायपुर जिला कलक्टर सुबोध सिंह के समय बने जाति प्रमाणपत्र में ज्योति धुर्वे को पिता की जाति के आधार पर आदिवासी बताया गया. इसी प्रमाणपत्र को ग्राम पंचायत चिल्कापुर, तहसील भैसदेही ने अटैस्ट किया और उस आधार पर एसडीएम भैसदेही ने साल 2009 में नया जाति प्रमाणपत्र पिता के बदले पति की जाति के आधार पर जारी कर दिया.

ये भी पढ़ें- क्या करें जब लग जाए आग

2 बार सांसद रही ज्योति धुर्वे की साल 2014 में घोषित संपत्ति 2 करोड़, 62 लाख रुपए थी. वे वर्तमान में भाजपा की राष्ट्रीय सचिव हैं और ग्राम चिल्कापुर, गुदगांव में उन का एक पैट्रोल पंप भी है.

जाने कहां गए वे दिन

जिला पंचायत अध्यक्ष के साथ ही जूली को एक बार शासन की ओर से राज्यमंत्री का दर्जा भी मिल गया था. फिर क्या था, लालबत्ती की कार में घूमने वाली जूली का रुतबा काफी बढ़ गया था. बड़ेबड़े अफसर और मुलाजिम ‘मैडम’ कह कर उस का आदर करने लगे थे. पद जाते ही मानो जूली की पूरी जिंदगी बदल गई.

एक समय पर इज्जत और सुख के साथ जीने वाली इस औरत की जिंदगी अंधकार और परेशानियों से भर गई. अब गुजरबसर के लिए जूली लुहारपुरा में

रह कर बकरी चराने को मजबूर हो गई है. इन दिनों वह गांव की तकरीबन 50 बकरियां चराने का काम करती है.

जूली के मुताबिक, हर बकरी के लिए उसे 50 रुपए हर महीने मिलते हैं. इस से जो कमाई होती है, उसी के दम पर वह घरपरिवार का पालनपोषण करती है.

पश्चिम बंगाल

कटखने कुत्तों का कहर

देश के सारे बड़े शहरों की तरह पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से सटे हावड़ा जिले में कटखने कुत्तों के कहर से निबटने के लिए हर साल सरकार को लाखों रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं.

ये भी पढ़ें- दहेज में जाने वाले दैय्यत बाबा

हावड़ा जिला स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े बताते हैं कि हर साल जिले में 20,000 से ज्यादा लोग कुत्ते के काटने का शिकार होते हैं. इस से उन्हें अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. इस के बावजूद किसी भी नगरनिगम, नगरपालिका, ग्राम पंचायत या ब्लौक की ओर से कुत्तों की बढ़ती तादाद पर काबू पाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है.

हावड़ा नगरनिगम द्वारा 2 साल पहले 50 कुत्तों की नसबंदी कराई गई थी, लेकिन इस का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला. रात को हर मोड़ व नुक्कड़ पर दर्जनों आवारा कुत्ते मिल जाते हैं. प्रशासन का कहना है कि ऐसे कुत्तों की हत्या नहीं की जा सकती है, लेकिन उन के पास इन की तादाद कंट्रोल करने के लिए इतनी बड़ी मैडिकल व्यवस्था भी नहीं है.

हावड़ा जिला स्वास्थ्य विभाग ने कुत्तों द्वारा लोगों को काटे जाने का जो आंकड़ा जारी किया है, उस के मुताबिक, साल 2014 में 20,689, साल 2015 में 21,133, साल 2016 में 19,632, साल 2017 में 20,842, साल 2018 में 23,621 और साल 2019 में अप्रैल महीने तक 8,341 लोगों को कुत्तों ने काटा यानी 6 साल में 1 लाख, 14 हजार, 258 लोगों को कुत्ते काट चुके हैं.

इन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हर साल औसतन 19,043 लोग कुत्तों के काटने का शिकार होते हैं. इस से बचने के लिए सरकार के जहां लाखों रुपए रेबिज इंजैक्शन पर खर्च हुए हैं, वहीं लोग खुद को महफूज नहीं कर पा रहे हैं. स्वास्थ्य विभाग ने यह स्वीकार किया है कि कुत्तों द्वारा काटे गए लोगों को बचाने के लिए सरकार को हर साल लाखों रुपए खर्च करने पड़ते हैं.

ये भी पढ़ें- कैसे कैसे बेतुके वर्ल्ड रिकौर्ड

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें