समस्या: बिजली गुल टैंशन फुल

अनंत सितारों से भरे आकाश की तरह समस्याएं भी अनंत को छू रही हैं. मोबाइल फोन की बैटरी मौत के कगार पर है. बिजली कब आएगी, यह सवाल भूखे गांव वालों की जबान पर तैर रहा है.

यह नजारा राजस्थान में अघोषित बिजली संकट की भयावहता की ओर इशारा कर रहा है. कमोबेश 4-5 दिनों से रोजाना हम इन हालात से गुजर रहे हैं. गरमी में पसीने से लथपथ हर किसी के मन में राज्य सरकार की बदइंतजामी को ले कर काफी गुस्सा है.

गौरतलब है कि जोधपुर डिस्कौम के गांवदेहात के इलाके में 3 से 4 घंटे तक की बिजली कटौती की जा रही है. इतना ही नहीं, सभी नगरपालिका क्षेत्रों (जिला हैडक्वार्टर को छोड़ कर) में दिन में एक घंटे की बिजली कटौती हो रही है. जयपुर की कालोनियों में भी 4 घंटे से 7 घंटे तक बिजली कटौती की घोषणा की गई है.

ऐसे में गांवों की हालत बद से बदतर है. वहां लोगों को 8 से 9 घंटे अघोषित बिजली कटौती का सामना करना पड़ रहा है. इस की वजह साफ है और सरकार ने भी माना है कि देश में कोयला संकट गहराता जा रहा है.

कोयला संकट गहराने का सीधा असर बिजली के प्रोडक्शन पर पड़ रहा है, क्योंकि देश में ज्यादातर बिजली कोयले से पैदा होती है.

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कोयले की कमी के चलते राजस्थान में गहराते बिजली संकट पर ऊर्जा विभाग काफी चिंतित है. इस चिंता के बीच सोलर एनर्जी प्रोडक्शन के इस्तेमाल को बिजली संकट से जोड़ कर देखा जा रहा है.

याद रहे कि राजस्थान सोलर एनर्जी प्रोडक्शन में देश में पहले नंबर पर होने के बावजूद शहरी और गांवदेहात के इलाकों में अघोषित बिजली कटौती करनी पड़ रही है.

राजस्थान 7,738 मैगावाट सौर ऊर्जा क्षमता उत्पादन कर देश में पहले पायदान पर है. इस आंकड़े से लगता है कि राजस्थान में बिजली की कोई कमी नहीं है, फिर भी बिजली उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली नहीं मिल पा रही.

विभाग को यह भी पता है कि ऊर्जा के विभिन्न माध्यमों में सोलर एनर्जी प्रोडक्शन सब से सस्ता होता है, लेकिन इस उपलब्धि का सही इस्तेमाल नहीं होने के पीछे राजनीतिक वजह ज्यादा मानी जा रही है.

राजस्थान में सोलर एनर्जी उत्पादन की सरकारी इकाइयां कम और बाहरी निवेशकों की ज्यादा हैं. निवेशकों को सोलर सैक्टर में निवेश की छूट दी गई, लेकिन उन से सस्ती बिजली लेने की दिशा में कोई ठोस कोशिश नहीं की गई. इसी वजह से ज्यादा निवेशक अपनी बिजली दूसरे राज्यों में बेचते हैं.

कोयले से बिजली बनाने की लागत काफी महंगी होती है. इस के बावजूद राजस्थान की ज्यादातर उत्पादन इकाइयां थर्मल आधारित हैं. यही वजह है कि कोयले की कमी से बारबार उत्पादन प्रभावित होता है.

कोयले के संकट की वजह से 15 से 20 रुपए प्रति यूनिट की दर से महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है, जिस का बोझ आम उपभोक्ता पर ही पड़ता है.

अगर देश की बात करें, तो देश में 135 बिजली संयंत्र हैं, जहां कोयले से बिजली का उत्पादन होता है.

कोयला उत्पादन पर एक नोट के मुताबिक, 1 अक्तूबर को इन 135 बिजली संयंत्रों में से 72 के पास 3 दिनों से भी कम का स्टौक था, वहीं 4 दिनों से 10 दिनों का स्टौक रखने वाले बिजलीघरों की संख्या 50 है.

अगस्तसितंबर, 2019 में बिजली की खपत 106.6 अरब यूनिट थी, जबकि इस साल अगस्तसितंबर में 124.2 बीयू की खपत हुई थी.

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इसी अवधि के दौरान कोयले से बिजली का उत्पादन साल 2019 में 61.91 फीसदी से बढ़ कर 66.35 फीसदी हो गया. अगस्तसितंबर, 2019 की तुलना में इस साल के समान 2 महीनों में कोयले की खपत में 18 फीसदी की बढ़ोतरी हुई.

मार्च, 2021 में इंडोनेशिया से आने वाले कोयले की कीमत 60 डालर प्रति टन थी, लेकिन सितंबरअक्तूबर में इस की कीमत में 200 डालर प्रति टन की बढ़ोतरी हुई. इस से कोयले का आयात कम हो गया. मानसून के मौसम में कोयले से चलने वाली बिजली की खपत बढ़ गई, जिस से बिजली स्टेशनों में कोयले की कमी हो गई.

दरअसल, कोविड महामारी की दूसरी लहर के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी आई है और बिजली की मांग भी अचानक से बढ़ गई है. पिछले 2 महीनों में अकेले बिजली की खपत में साल 2019 की तुलना में 17 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.

इस बीच दुनियाभर में कोयले की कीमतों में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जबकि भारत का कोयला आयात 2 सालों में अपने सब से निचले लैवल पर है.

हालांकि, भारत के पास दुनिया में कोयले का चौथा सब से बड़ा भंडार है, लेकिन खपत के मामले में भारत कोयले के आयात में दुनिया में दूसरे नंबर पर है.

आमतौर पर आयातित कोयले पर चलने वाले बिजली प्लांट अब देश में उत्पादित कोयले पर निर्भर हैं. इस वजह से पहले से ही कमी से जूझ रही कोयले की सप्लाई और भी ज्यादा दबाव में आ गई है.

हाल के सालों में भारत अपनी तकरीबन 140 करोड़ की आबादी की जरूरतों को कैसे पूरा कर सकता है और भारी प्रदूषण वाले कोयले पर अपनी निर्भरता को कैसे कम कर सकता है, यह सवाल सरकारों के लिए एक चुनौती रहा है.

फिलहाल तो सरकार ने कहा है कि वह उत्पादन बढ़ाने, सप्लाई और खपत के बीच की खाई को पाटने और ज्यादा खनन करने के लिए कोल इंडिया के साथ काम कर रही है.

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सरकार को भी बंधक खदानों से कोयला मिलने की उम्मीद है. ये वे खदानें हैं, जो कंपनियों के कंट्रोल में होती हैं और उन से उत्पादित कोयले का इस्तेमाल वही कंपनियां करती हैं.

इन खदानों को सरकार के साथ समझौते की शर्तों के तहत कोयला बेचने की इजाजत नहीं है. भारत शौर्टटर्म उपायों से मौजूदा संकट से किसी तरह निकल सकता है, लेकिन देश की बढ़ती ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत को लंबी मीआद के उपायों में निवेश करने की दिशा में काम करना होगा.

Satyakatha: Sex Toys का स्वीट सीक्रेट

‘दूसरे देशों में सैक्स टौयज की दुकानें काफी तड़कभड़क वाली होती हैं, लेकिन हम ने अपनी दुकान कोसादा रखा है,’ नीरव मेहता बताते हैं, ‘हमारी दुकान के ग्राहक हमेशा जल्दी में रहते हैं इसलिए हम ने दुकान में कुरसी तक नहीं रखी है. लेकिन हम ने जानबूझ कर इसे आकर्षक या अंधेरे भूमिगत काल कोठरी की तरह नहीं बनाया है. हम ने इसे मैडिकल स्टोर की तरह बनाया और हमारे सभी सर्टिफिकेट दीवार पर टंगे हुए हैं. ऐसा हम ने किसी भी तरह के राजनैतिक विरोध से बचने के लिए किया है.’

यहां बात देश के मशहूर पर्यटन स्थल गोवा की हो रही है, जहां देश की पहली लीगल औनलाइन सैक्स टौयज की दुकान खुली है जिस का नाम है ‘ब्रिक एंड मोर्टार’. इस की लांचिंग बीती 14 फरवरी यानी वैलेंटाइंस डे पर हुई थी.

ऐसा नहीं है कि देश में सैक्स टौयज नहीं बिकते हों, लेकिन अभी वे चोरीछिपे गुमनाम दुकानों से बिक रहे हैं. मानो सैक्स टौय न हुए एके 47 जैसे हथियार हों.

नीरव ने प्रशासन से अनुमति ले कर दुकान खोल कर एक राह देश भर के बेचने वालों को दिखा दी है कि सैक्स टौयज की बढ़ती मांग को वे कानूनी रूप से दुकान खोल कर भी पूरा कर सकते हैं.

भारतीय समाज में सैक्स शिक्षा तो दूर की बात है सैक्स की चर्चा को भी वर्जित माना गया है, पर अब वक्त बदल रहा है, समाज बदल रहा है इसलिए सैक्स टौयज की मांग भी बढ़ रही है.

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लौकडाउन के दौरान जब लोग घरों में कैद थे, तब सैक्स टौयज की मांग हैरतंगेज तरीके से 65 फीसदी तक बढ़ी थी. लोग अपने पार्टनर तक नहीं पहुंच पा रहे थे और सैक्स की तलब जिन्हें सता रही थी, उन्होंने खूब औनलाइन सैक्स टौयज मंगा कर सैक्स को एंजौय किया था.

दैट्स पर्सनल डौट काम की एक विश्लेषण रिपोर्ट में विस्तार से इस का खुलासा किया गया था, जिस में बताया गया था कि सब से ज्यादा सैक्स टौयज महाराष्ट्र के लोग खरीदते हैं.

दूसरा नंबर कर्नाटक और तीसरा तमिलनाडु का है. बड़े शहरों में मुंबई के लोग सब से ज्यादा सैक्स टौय खरीदते हैं दूसरे और तीसरे नंबर पर दिल्ली और बेंगलुरु आते हैं.

इस विश्लेषण की एक चौंका देने वाली बात उत्तर प्रदेश के पुरुषों द्वारा सब से ज्यादा सैक्स टौयज खरीदने की रही. इस सर्वे के मुताबिक महिलाओं की खरीदारी का पसंदीदा वक्त दोपहर 12 से 3 बजे तक और पुरुषों का रात 9 बजे के बाद का है.

सैक्स टौयज सब से ज्यादा 25 से 34 साल के बीच की उम्र के लोग खरीदते हैं, लेकिन इन्हें बेचने वाली वेबसाइट्स पर ज्यादा वक्त गुजारने वाले लोग 18 से 25 साल के बीच की उम्र के हैं. सर्वे के एक दिलचस्प खुलासे के मुताबिक सैक्स प्रोडक्ट्स से 33 फीसदी शादियां टूटने से बची हैं.

दैट्स पर्सनल डौट काम के सीईओ समीर सरैया की मानें तो इन उत्पादों का बाजार तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि लोग झिझक छोड़ रहे हैं और प्रयोग करने व नए उत्पादों को आजमाने के लिए उत्साहित हैं.

ऐसा भी नहीं है कि बड़ी तादाद में पुरुष ही सैक्स टौयज खरीदते हों बल्कि महिलाएं भी पीछे नहीं हैं. विजयवाड़ा, वड़ोदरा , बेलगाम और जमशेदपुर जैसे शहरों में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा सैक्स टौयज खरीदती हैं. लौकडाउन के दौरान छोटे शहरों में भी सैक्स सुख देने वाले इन खिलौनों की बिक्री बढ़ी थी.

इन शहरों में शिलांग, पानीपत, भटिंडा, हरिद्वार, पणजी, राउरकेला और डिब्रूगढ़ प्रमुखता से शामिल हैं. औनलाइन खरीदारी में 66 फीसदी पुरुष और 34 फीसदी महिलाएं थीं. महिलाओं ने ज्यादातर मसाजर का और्डर दिया तो पुरुषों ने मेल पंप मंगाया.

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इस सर्वे के मुताबिक सैक्स टौय इस्तेमाल करने वाले 86 फीसदी पुरुषों ने पूर्ण संतुष्टि मिलने की बात स्वीकारी. जबकि ऐसी महिलाओं का प्रतिशत 89 था, जिन्होंने सैक्स टौय के इस्तेमाल से संतुष्टि के साथसाथ आर्गेज्म को भी महसूस किया.

पुरुषों को ले कर दिलचस्प बात यह सामने आई कि खुद हस्तमैथुन करने से संतुष्ट पुरुषों की तादाद 54 फीसदी थी, लेकिन जब हस्तमैथुन सैक्स टौय के जरिए किया गया तो 71 फीसदी को संतुष्टि मिली. महिलाओं में तो यह अनुपात हैरतंगेज तरीके से बड़ा पाया गया. बिना सैक्स टौय के हस्तमैथुन करने वाली संतुष्ट महिलाओं की संख्या महज 28 फीसदी थी, लेकिन सैक्स टौय से हस्तमैथुन करने वाली 83 फीसदी महिलाओं ने संतुष्टि मिलना बताया.

सैक्स टौयज का सालाना कारोबार कितना है, इस के ठीकठाक आंकड़े किसी के पास नहीं. लेकिन यह तय है कि यह बाजार बहुत तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि बड़ी उम्र तक शादी न करने वालों की तादाद बढ़ रही है और कोई भी रेडलाइट इलाकों में जाने और अवैध संबंधों के बाद के खतरे और जोखिम नहीं उठाना चाहता.

अकेले रह कर नौकरी कर रहे युवक युवतियों के लिए भी सैक्स टौय वरदान साबित हो रहे हैं, जिन का इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर कभी भी किया जा सकता है यानी अपने सीक्रेट ड्रीम पूरे किए जा सकते हैं, जिस का औसत खर्च 5 हजार रुपए से भी कम है.

काठमांडू के न्यू बाजार में स्थित स्वीट सीक्रेट दुकान सैक्स खिलौनों के लिए मशहूर है. यह दुकान भी रजिस्टर्ड है जिस में खुशबूदार कंडोम से ले कर बड़े आकार की गुडि़या जैसे कोई डेड़ सौ छोटेबड़े प्रोडक्ट मिलते हैं. सैक्स टौय के ज्यादातर आइटम चीन से मंगाए जाते हैं.

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मंजीत पौडेल और प्रवीण ढकाल नाम के युवकों ने इस दुकान को साल 2010 में खोला था. दुकान खूब चली और प्रतिदिन 5 लाख रुपए से भी ज्यादा की बिक्री होती है.

प्रवीन सैक्स टौय की दुकान खोलते वक्त चिंतित थे कि कहीं इस का विरोध न हो, पर यह आशंका फिजूल निकली और दुकान में रोजाना सौ के लगभग ग्राहक आते हैं, जिन में 10 महिलाएं होती हैं. दुकान से एकतिहाई बिक्री औनलाइन होती है.

मंजीत पौडेल के मुताबिक उन के ग्राहकों में ज्यादातर ऐसे होते हैं जिन का पार्टनर काम के सिलसिले में बाहर रहता है. किस उम्र के लोग ज्यादा सैक्स टौय खरीदते हैं, इस सवाल के जबाब में वह कहते हैं, ‘35 की उम्र के लगभग के लोग ज्यादा आते हैं. ये लोग कंडोम, वाइब्रेटर और सैक्स डौल ज्यादा खरीदते हैं. कई लोग तो सैक्स टौय घर में रह रही अकेली पत्नी के लिए खरीदते हैं.

यानी सैक्स टौय का इस्तेमाल युवा दंपति विवाहेतर संबंधों से बचने के लिए भी कर रहे हैं. यह एक सुखद बात सामाजिक लिहाज से है. वैसे भी देखा जाए तो सैक्स टौयज का इस्तेमाल किसी भी लिहाज से नुकसानदेह नहीं होता.

कानून: नौमिनी महज संरक्षक, उत्तराधिकारी नहीं

Writer- साधना शाह

अकसर हम अपने बैंक अकाउंट और बीमा पौलिसी के लिए अपने किसी करीबी को नौमिनी बना कर बेफिक्र हो जाते हैं, यह सोच कर कि अचानक मृत्यु हो गई तो नामित व्यक्ति को बैंक अकाउंट या बीमा पौलिसी की रकम मिल जाएगी. यह हमारा एक भ्रम है.

दरअसल, बीमा हो या बैंक अकाउंट, नौमिनी व्यक्ति उस का महज संरक्षक होता है, कानूनी उत्तराधिकारी नहीं होता. हमारे देश का कानून यही कहता है. बीमा संबंधित मामले की एडवोकेट देवस्मिता बसाक कहती हैं कि हमारे देश में नौमिनी या मनोनीत व्यक्ति कानूनीतौर पर उत्तराधिकारी नहीं होता है. बचत या निवेश का मालिकाना हक कानूनीतौर पर उसे प्राप्त नहीं हो सकता है. जिस व्यक्ति को नौमिनी बनाया गया है, अगर उसे कानूनीतौर पर अपने निवेश या बचत का मालिकाना हक दिलाना है तो नौमिनी बनाने के साथ उस के नाम पर वसीयत करना भी जरूरी है. यानी बचत-निवेश में किसी रिश्तेदार को नौमिनी बनाना काफी नहीं है.

नौमिनी बनाने या मनोनीत करने का अर्थ यही है कि खाताधारक या निवेशक के अचानक मर जाने पर बैंक खाते व निवेश की रकम को कोई मनोनीत व्यक्ति प्राप्त कर सकता है. लेकिन वह उस निवेश या अकाउंट की रकम का उत्तराधिकारी नहीं होता है.

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उदाहरण के तौर पर, किसी व्यक्ति ने बीमा पौलिसी लेते समय अपनी मां को नौमिनी बनाया. अगर वह व्यक्ति विवाहित है और मां के जीवित रहते उस व्यक्ति की अचानक मृत्यु हो जाती है तो बीमा की रकम उस की मां को नहीं मिलेगी, बल्कि वह रकम उस व्यक्ति के कानूनी उत्तराधिकारी यानी उस की पत्नी को मिलेगी. देवस्मिता बताती हैं कि नौमिनी व्यक्ति अगर कानूनीतौर पर उत्तराधिकारी नहीं है तो उस बीमा पौलिसी की रकम पर उस का अधिकार नहीं हो सकता. हमारे यहां यह एक बहुत आम समस्या है. अपने जीवित रहते हुए अकसर लोग अपना उत्तराधिकारी तय करने के बारे में सोचते ही नहीं हैं. जाहिर है, नौमिनेशन कानून के इस पक्ष से लोग बेखबर होते हैं. इसीलिए देश की तमाम अदालतों में इस से संबंधित बहुत सारे मामले लंबित पड़े हैं.

मध्यवर्ग की त्रासदी है कि वह जीवनभर पेट काटकाट कर थोड़ाबहुत बचत तो कर लेता है लेकिन जहां तक वसीयत बनाने का सवाल है, एक आम सामाजिक धारणा यह है कि यह काम तो रईस लोग करते हैं. एक या दो कमरे के फ्लैट, थोड़ी सी बचत व निवेश की एक छोटी सी रकम के लिए वसीयत करने के बारे में कम ही लोग सोचते हैं. जबकि, सचाई यह है कि वसीयत न होने पर पारिवारिक सदस्यों को संपत्ति व बीमा रकम प्राप्त करने में अदालतों के चक्कर लगाने के साथ बहुत सारे पापड़ बेलने पड़ते हैं.

तमाम तरह के दूसरे प्रमाणपत्रों के साथ उत्तराधिकारी प्रमाणपत्र यानी सक्सैशन सर्टिफिकेट भी जमा करने पड़ते हैं. यह सक्सैशन सर्टिफिकेट जुगाड़ करने में कई बार चप्पलें घिस जाती हैं. ऐसे में देवस्मिता का कहना है कि अगर आप अपनी मृत्यु के बाद अपने परिवार को किसी ऐसे झमेले में नहीं पड़ने देना चाहते हैं तो आप को नौमिनेशन की भूमिका और वसीयत के महत्त्व के बारे में विस्तार से जान लेना चाहिए.

बैंक अकाउंट

किसी बैंक में अकाउंट खोलने के समय हम लोग अपने परिवार में से किसी न किसी को अपना नौमिनी तय कर देते हैं. लेकिन अकसर होता यह है कि नौमिनी के मामले में किसी तरह का बदलाव होने पर हम बैंक में अपडेट करना भूल जाते हैं. ऐसा मामला अकसर युवा खाताधारक के मामले में होता है. आजकल 25-30 साल की उम्र में इन्हें मोटी रकम की सैलरी मिलने लगती है. अविवाहित होने पर ये लोग अकसर अपने मातापिता या भाईबहन को नौमिनी बनाते हैं. लेकिन विवाह हो जाने पर बैंक अकाउंट में अपडेट करना यानी पत्नी को अपना नौमिनी बनाना भूल जाते हैं.

ऐसे मामले में ग्राहक की मृत्यु हो जाने पर बैंक नौमिनी को रकम थमा कर अपनी जिम्मेदारी से फारिग हो जाता है. यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि नौमिनी केवल बैंक की रकम का संरक्षक मात्र होता है. अगर उस व्यक्ति ने किसी अन्य को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर रखा है तो वह उत्तराधिकारी नौमिनी को कानूनी चुनौती दे कर उस रकम पर अपना दावा कर सकता है.

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जीवन बीमा

जीवन बीमा के मामले में भी कानून लगभग एक ही है. बीमा क्षेत्र में नौमिनी की भूमिका ट्रस्टी की होती है. बीमा कानून 1939 की धारा 39 में साफतौर पर कहा गया है कि बीमा पौलिसी धारक की मृत्यु हो जाने पर पौलिसी की रकम नौमिनी को जाएगी. लेकिन 1983 में शरबती देवी बनाम उषा देवी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बीमा के मामले में नौमिनी बीमा की रकम का अधिकारी नहीं हो सकता, बल्कि नौमिनी बीमाधारक के कानूनी उत्तराधिकारी के ट्रस्टी के रूप में बीमा की रकम को प्राप्त कर सकता है.

बीमा कंपनी से प्राप्त रकम को बीमाधारक द्वारा वसीयत में तय किए गए कानूनी उत्तराधिकारी को सौंप देने की जिम्मेदारी नौमिनी की होगी. अगर वसीयत न हो, तो बीमाधारक उत्तराधिकारी रकम की प्राप्ति के लिए कानूनी रास्ता अपना सकता है.

म्यूचुअल फंड

म्यूचुअल फंड के मामले में भी नौमिनी की हैसियत महज निवेश के संरक्षक की होती है. निवेशक की मृत्यु होने पर निवेश की रकम म्यूचुअल फंड कंपनी नौमिनी के हाथों में सौंप देती है. लेकिन अगर नौमिनी और कानूनी उत्तराधिकारी एक ही व्यक्ति नहीं हुआ तो कानूनी उत्तराधिकारी ही उस रकम का उपभोग कर सकता है. यानी नौमिनी को वह रकम कानूनी उत्तराधिकारी को सौंपनी होगी. संयुक्त खाताधारक के मामले में पहले खाताधारक के रहते दूसरे की मृत्यु होने पर म्यूचुअल फंड के यूनिट पहले खाताधारक के नाम हो जाएंगे. पर डीमैट अकाउंट होने की सूरत में नियम अलग हो जाते हैं. डीमैट अकाउंट के नौमिनी व्यक्ति को म्यूचुअल फंड के नौमिनी की तरह लिया जाएगा.

चूंकि म्यूचुअल फंड को फिर से फिजिकल यूनिट में परिवर्तित किया जा सकता है, इसीलिए म्यूचुअल फंड कंपनी नौमिनेशन रद्द नहीं करती. फिजिकल यूनिट ट्रांसफर किए जाने पर ही नौमिनेशन लागू होगा.

जौइंट डीमैट अकाउंट के मामले में पहले खाताधारक की मृत्यु होने पर नियमानुसार प्राथमिक खाताधारक का नाम तालिका से हटा दिया जाता है. दूसरा खाताधारक प्राथमिक खाताधारक में परिवर्तित हो जाता है. दूसरी ओर, दूसरे खाताधारक की भी मृत्यु होने पर पूरी संपत्ति नौमिनी व्यक्ति को चली जाती है. अगर निवेशक ने किसी को नौमिनी नहीं बनाया है, तो कानूनी उत्तराधिकारी को वह रकम चली जाएगी.

शेयर

शेयर के मामले में नियम थोड़े अलग हैं. 2012 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से नियम में तबदीली आई. किसी व्यक्ति ने अपने डीमैट अकाउंट के लिए अपनी भतीजी को नौमिनी बनाया था. व्यक्ति की मृत्यु के बाद उस की पत्नी ने डीमैट अकाउंट के शेयर पर अपना दावा अदालत में पेश किया. मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया. मामले पर अपना फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कंपनी कानून के अनुसार वसीयत के तहत तय किया गया उत्तराधिकारी नहीं, बल्कि डीमैट अकाउंट का नौमिनी व्यक्ति ही शेयर का हकदार होगा. इसीलिए पत्नी डीमैट अकाउंट के शेयर की हकदार नहीं हो सकती.

साफ है कि  कंपनी कानून के अनुसार डीमैट अकाउंट के लिए अगर किसी व्यक्ति को नौमिनी बनाया गया और वसीयत में किसी और व्यक्ति का नाम है, तो भी डीमैट अकाउंट के नौमिनी को ही शेयर का मालिकाना हक प्राप्त होगा. वसीयत में तय किए गए कानूनी उत्तराधिकारी को शेयर का हक नहीं मिलेगा. इसी तरह संयुक्त खाताधारक यानी जौइंट अकाउंट के मामले में केवल दूसरे खाताधारक को ही शेयर का मालिकाना हक प्राप्त होगा.

कोऔपरेटिव  हाउसिंग सोसाइटी

कोऔपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी के मामले में भी नियम अलग है. इस मामले में किसी व्यक्ति का फ्लैट सोसाइटी का महज एक यूनिट होता है. कोऔपरेटिव सोसाइटी में फ्लैट के लिए एक नौमिनी तय करना जरूरी है. लेकिन यहां भी नौमिनी संपत्ति यानी फ्लैट का केवल एक केयरटेकर होता है. फ्लैट का मालिकाना हक केवल कानूनी उत्तराधिकारी को ही मिलेगा.

मुंबई में ऐसा ही एक मामला लगभग 29 सालों तक चला. अंत में 2009 में बौंबे हाईकोर्ट ने उत्तराधिकारी मामले को स्पष्ट करते हुए कहा कि कोऔपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी में किसी को केवल नौमिनी बनाया गया तो कानूनीतौर पर उस व्यक्ति को फ्लैट का मालिकाना हक नहीं मिलेगा. फ्लैट के मालिक की मृत्यु होने पर उस के कानूनी उत्तराधिकारी को ही फ्लैट का मालिकाना हक प्राप्त होगा, नौमिनी को नहीं.

अन्य संपत्तियों के मामलों में वसीयत न होने पर देश के उत्तराधिकारी कानून के तहत संपत्ति का वितरण होता है. दरअसल, जमीन या मकान के मामले में नौमिनी तय करने का कोई चलन है ही नहीं. लेकिन निवेश और अन्य किस्म की बचतों में नौमिनी तय किया जाता है. कुल मिला कर लब्बोलुआब यही है कि अगर हम चाहते हैं कि हमारे बाद तमाम बचत व निवेश की रकम हमारे नौमिनी को मिले तो केवल नौमिनी बनाना काफी नहीं होगा, उसे अपना उत्तराधिकारी भी बनाना होगा. तभी नौमिनी बनाने का  मकसद पूरा होगा और अपने पीछे रह गए पारिवारिक सदस्य को सहूलियत होगी.

समलैंगिकता मिथक बनाम सच

Writer- प्रेक्षा सक्सेना

भारत में समलैंगिकता आज भी हंसीमजाक का हिस्सा मात्र है. कानून बनने के बाद भी लोग समलैंगिकता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे कई मिथक हैं जिन के चलते समलैंगिक लोगों के लिए वातावरण दमघोंटू बना हुआ है.

पिछले वर्ष फरवरी में एक फिल्म आई थी, ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’. उस में समलैंगिक जोड़े को अपनी शादी के लिए परिवार, समाज और मातापिता से संघर्ष करते हुए दिखाया गया था. वह कहीं न कहीं हमारे समाज की सचाई और समलैंगिकों के प्रति होने वाले व्यवहार के बहुत करीब थी.

अब जबकि समलैंगिकता गैरकानूनी नहीं रही है, ऐसे में समलैंगिक लोग खुल कर सामने आ रहे हैं. पहले अपने रिश्तों को स्वीकारने में ऐसे जोड़ों को जो  िझ झक होती थी अब वह कम हुई है. कानून कुछ भी कहे पर समाज में अभी भी ऐसे जोड़ों को स्वीकृति नहीं मिली है. लोग ऐसे जोड़ों को स्वीकारने में संकोच करते हैं क्योंकि उन के मन में इन लोगों को ले कर कई प्रकार की धारणाएं और पूर्वाग्रह हैं.

मिथक- यह वंशानुगत है.

सच- समलैंगिकता वंशानुगत नहीं होती, इस के लिए कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं. कई लोग बचपन से ही अपने मातापिता या भाईबहन पर भावनात्मक रूप से निर्भर रहते हैं, इस के कारण उन की रुचि पुरुष या महिलाओं में हो सकती है और वे समलैंगिकता अपना सकते हैं. जैंडर आइडैंटिटी डिसऔर्डर भी इस की एक वाजिब वजह है. यह एक ऐसी बीमारी है जो समलैंगिकता के लिए जिम्मेदार है.

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इस बारे में कई थ्योरी हैं जिन के आधार पर बात की जाती है. अभी सहीसही कारणों का पता तो नहीं लग पाया है, फिर भी यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि समान सैक्स के लिए शारीरिक आकर्षण अप्राकृतिक तो नहीं है. वैसे भी, स्वभाव से मनुष्य बाइसैक्सुअल होता है. ऐसे में उस की रुचि किसी में भी हो सकती है.

डा. रीना ने बताया कि मेरे पास आने वाले जोड़ों में किसी के घर में कोई समलैंगिक नहीं था. उन के अनुसार, किसी को समलैंगिक बनाया नहीं जा सकता. समलैंगिक होना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना एक स्त्री और पुरुष के बीच का रिश्ता.

मिथक- ये लोग असामान्य होते हैं.

सच- मनोचिकित्सकों की मानें तो ये लोग आप की और हमारी तरह ही सामान्य बुद्धि के होते हैं, बस, अंतर है सैक्स की रुचि का. बाकी अगर देखा जाए तो बुद्धि इन की भी सामान्य ही होती है. भावनाओं की बात करें तो ये बहुत अधिक भावुक होते हैं, क्योंकि हर वक्त इन्हें अपने स्वीकार्य को ले कर चिंता बनी रहती है. इन के लिए विरोध की पहली शुरुआत घर से ही हो जाती है क्योंकि मातापिता और परिवार समलैंगिकता को सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते हैं.

हरेक के लिए सामान्य होने की अलग परिभाषा होती है पर समलैंगिकों की बात करें तो इन के रिश्ते में संतानोत्पत्ति सामान्य तरीके से संभव नहीं. इसलिए इस रिश्ते को समाज सामान्य नहीं मानता. वंश को आगे बढ़ाना हमारी सामाजिक सोच का हिस्सा है, जिस की पूर्ति इस से संभव नहीं, पर मनोचिकित्सकों की मानें तो यहां बात सामान्य होने की नहीं बल्कि सैक्स में उन की रुचि की है.

यदि कोई व्यक्ति समान सैक्स के प्रति आकर्षण महसूस करता है तो यह पूरी तरह सामान्य बात है. मुंबई के हीरानंदानी अस्पताल के मनोचिकित्सक डा. हरीश शेट्टी के अनुसार, अपने ही सैक्स के व्यक्ति के साथ रुचि रखना एक सामान्य बात है क्योंकि ऐसे लोगों को विपरीत सैक्स के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता.

मनोचिकित्सक कहते हैं कि एक समलैंगिकता स्वाभाविक तौर पर होती है जो खुद की चुनी हुई होती है और एक परिस्थितिजन्य होती है जिस में किसी अनजान भय, जैसे कि मैं विपरीत सैक्स वाले के साथ होने पर उसे संतुष्टि दे सकूंगा/सकूंगी या नहीं. यह छद्म समलैंगिकता है.

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मिथक- इन्हें यौन संक्रमण ज्यादा होता है.

सच- कुछ लोगों का मत है कि सैक्सवर्कर्स, किन्नरों, नशे के इंजैक्शन लेने वाले नशेडि़यों और समलैंगिकों में एड्स व अन्य यौनजनित रोग होने की संभावना अधिक होती है. अभी कुछ समय पहले तक हमारे यहां समलैंगिकता को कानूनी रूप से मान्यता न होने के चलते समलैंगिक कपल घर बसा कर साथ नहीं रह पाते थे.

ऐसे में शारीरिक आवश्यकताओं के कारण एक से अधिक लोगों के साथ संबंध बन जाना इस का मुख्य कारण है. हालांकि, ऐसा नहीं है कि एसटीडी केवल समलैंगिकों को होती है. यह तो हेट्रोसैक्सुअल लोगों में भी होती है. यौन संबंधों में सुरक्षा का खयाल न रखा जाए तो भी ऐसे रोगों का खतरा होता है. इसलिए यह एक मिथक ही है कि समलैंगिकों में सैक्सुअल ट्रांसमिटेड डिसीज ज्यादा होती हैं.

मिथक- शादी इस का हल है

सच- समलैंगिकों से जुड़ा सब से बड़ा मिथक यह है कि इन की शादी करा दी जाए तो सब ठीक हो जाएगा. जबकि, ऐसा बिलकुल भी नहीं है. कई बार मातापिता दबाव डाल कर शादी कर देते हैं, ऐसे में जिस से शादी होती है उस का जीवन तो खराब होता ही है बल्कि दूसरे का जीवन खराब करने का अपराधबोध उन के बच्चे को भी अवसादग्रस्त कर देता है.

सब मिला कर शादी इस का हल नहीं है. यदि आप के बच्चे ने आप को अपनी सैक्सुअल वरीयता के बारे में बता रखा है तो ऐसे में उस पर दबाव डाल कर शादी करने की भूल कभी न करें क्योंकि इस से 2 जीवन खराब होंगे. ऐसी शादियां सिवा असंतुष्टि के कुछ नहीं देतीं क्योंकि ऐसे लोगों में विपरीत सैक्स के प्रति कोई भावना नहीं पनप पाती. ऐसे में वह अपने साथी के साथ रिश्ते बनाने में असमर्थ होता है नतीजतन शादी टूट जाती है.

मिथक- ये वंशवृद्धि में असमर्थ होते हैं.

सच- लोग कहते हैं कि अगर ऐसी शादी होगी तो वंश का क्या होगा, क्योंकि प्राकृतिक तरीके से संतानोत्पत्ति संभव नहीं होगी, पर सच यह है कि यदि बच्चे की इच्छा है तो आजकल आईवीएफ द्वारा यह किया जा सकता है. बच्चा गोद लेना भी एक अच्छा विकल्प है. यदि ऐसा व्यक्ति जो विपरीत सैक्स के प्रति  झुकाव महसूस नहीं करता वह अपने साथी के साथ रहता है और अपना जैविक बच्चा चाहता है तो एग डोनेशन या स्पर्म डोनेशन और सरोगेसी इस का अच्छा उपाय है. मनोचिकित्सकों के अनुसार, सैक्स सिर्फ बच्चा पैदा करने का जरिया नहीं है बल्कि यह भावनात्मक लगाव दर्शाने का और अपने साथी का प्यार पाने का तरीका भी है.

Diwali Special: जुआ खेलना जेब के लिए हानिकारक है

कहते हैं जुए की लत में जर, जोरू और जमीन, सब दांव पर लग जाते हैं. महाभारत से ले कर आज के भारत में जुए की गंदी लत ने न जाने कितने घरों को बरबाद किया है, कितने घरों में अशांति फैलाई है. क्या आप भी इस की लत में सबकुछ खोने को तैयार हैं?

तीजत्योहारों पर धार्मिक रीतिरिवाजों के नाम पर कई कुरीतियां भी हम ने पाल रखी हैं, जैसे होली पर शराब और भांग का नशा करना और दीवाली पर जुआ खेलना, जिस के पीछे अफवाह यह है कि आप अपनी किस्मत और आने वाले साल की आमदनी आंक सकते हैं. दीवाली पर जुए के पीछे पौराणिक कथा यह है कि इस दिन सनातनियों के सब से बड़े देवता शंकर ने अपनी पत्नी पार्वती के साथ जुआ खेला था, तब से यह रिवाज चल पड़ा.

बात सौ फीसदी सच है कि जिस धर्म के देवीदेवता तक जुआरी हों, उस के अनुयायियों को भला यह दैवीय रस्म निभाने से कौन रोक सकता है. महाभारत का जुए का किस्सा और भी ज्यादा मशहूर है जिस में कौरवों ने पांडवों से राजपाट तो दूर की बात है, उन की पत्नी द्रौपदी तक को जीत लिया था. मामा शकुनी ने ऐसे पांसे फेंके थे कि पांडव बेचारे 12 साल जंगलजंगल भटकते यहांवहां की धूल फांकते रहे थे. महाभारत की लड़ाई, जिस में हजारोंलाखों बेगुनाह मारे गए थे, के पीछे वजह यही जुआ था.

जुए के नुकसान आज भी ज्यों के त्यों हैं, फर्क इतना है कि युग, सतयुग, त्रेता या द्वापर न हो कर कलियुग है और किरदार यानी जुआरी आम लोग हैं जो पांडवों की तरह दांव पर दांव हारे हुए जुआरी की तरह लगाए चले जाते हैं लेकिन सुधरते नहीं. भोपाल के अनिमेश का ही उदाहरण लें जो पुणे में एक सौफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर हैं. पिछले साल दीवाली पर लौकडाउन के चलते घर नहीं आ पाए थे, सो दीवाली अपने किराए के फ्लैट में दोस्तों के साथ मनानी पड़ी. शाम को जम कर जाम छलके, फिर रात 9 बजे के करीब प्रशांत ने जुआ खेलने का प्रस्ताव रिवाज का हवाला देते रखा तो सभी पांचों दोस्तों ने हां कर दी.

दुनिया का सब से प्रचिलित खेल ‘तीन पत्ती,’ जिस का एक और नाम फ्लैश है, शुरू हुआ तो यों ही था लेकिन खत्म यों ही नहीं हुआ. सुबह होतेहोते अनिमेष एकदो महीने की नहीं, बल्कि पूरे सालभर की सैलरी हार चुका था. 60 हजार तो नकदी गए और तकरीबन 2 लाख अनिमेश ने तुरंत औनलाइन ट्रांसफर किए, बाकी बचे और 2 लाख उस ने 6 महीनों की किस्तों में चुकाए. सालभर की बचत एक  झटके में ठिकाने लग गई.

अनिमेश बताता है कि ये सेविंग के पैसे थे, जिन से वह पापा की मदद करना चाहता था. बड़ी बहन की शादी कभी भी तय हो सकती है, इस के लिए उस ने पापा से कह रखा था कि वह 5 लाख रुपए देगा. दीदी की शादी जल्द हो जाए, यह मनाते रहने वाला यह युवा अब रोज मन्नत मांगता है कि शादी अभी तय न हो क्योंकि वह दोबारा पैसे इकट्ठे कर रहा है जिस में करीब एक साल लगेगा.

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अफसोस उसे है, लेकिन इस बात का ज्यादा है कि उस ने पक्की रन पर बेवजह लंबी चालें चलीं जबकि सामने वाला गुलाम की ट्रेल रख कर खेल रहा था. कई रात उसे नींद नहीं आई. सोते वक्त उसे अपनी पक्की रन और प्रशांत की ट्रेल ही दिखती रही जो चाल डबल किए जा रहा था. तब जाने क्यों उसे यह सम झ नहीं आया कि सामने वाले के पास बड़ा पत्ता हो सकता है. अगली बार के लिए उस ने यह सबक नहीं लिया है कि जो हुआ सो हुआ लेकिन अब जुआ नहीं खेलना है बल्कि वह सोच यह रहा है कि फड़ के पैसे फड़ से ही वसूलेगा.

अब कौन उसे बताए और सम झाए कि महाभारत के जुए में युधिष्ठिर ने भी हर बार यही सोचा था कि बस, इस बार दांव लग जाए, फिर तो पौ बारह है. युधिष्ठिर हार कर भी धर्मराज कहलाया लेकिन अनिमेश जैसे लोगों को क्या कहा जाए जो दिनरात की मेहनत से कमाया पैसा एक रात में गंवा देते हैं पर फिर भी जुए का लालच छोड़ नहीं पाते.

सिगरेट सरीखा ऐब 

इस में शक नहीं कि जुए के खेल का अपना अलग रोमांच है लेकिन यह लत या शौक लगता कैसे है, इस सवाल का जवाब बहुत साफ है कि अधिकतर घरों में दीवाली का जुआ एक तरह से मान्य है. बच्चे हर साल बड़ों को रोशनी के इस त्योहार के दिनों में बड़े चाव से जुआ खेलते देखते हैं तो उन में भी जिज्ञासा पैदा हो जाती है और वे इस खेल के दांवपेंच भी जल्द सीख जाते हैं. बड़े होने पर होस्टल या अपने ही शहर की किसी फड़ पर वे भी भविष्य आजमाने लगते हैं.

यह बिलकुल सिगरेट की लत जैसा काम है जिस का पहला कश चोरीछिपे लिया जाता है. फिर धीरेधीरे यह आदत और फिर लत बन जाती है. चूंकि बड़े खुद गलत होते हैं, इसलिए बच्चों को यह कहते रोक नहीं पाते कि यह गलत है. गलत कहेंगे तो बच्चे के इस सवाल का जवाब वे नहीं दे पाएंगे कि अगर गलत है  तो फिर आप क्यों खेलते हो.

अनिमेष का कहना है कि जब वह छोटा था तो पापा लंबी ब्लाइंड के बाद उस से ही पत्ते खुलवाते थे. इस के पीछे उन का अंधविश्वास यह था कि बच्चा पत्ते खोलेगा तो सामने वाले से बड़े ही निकलेंगे. कभीकभार ऐसा हो भी जाता था तो उन का अंधविश्वास और गहरा जाता

था और अगर हार जाते थे तो समय को कोसते अगली चाल का इंतजार करने लगते थे.

भाग्यवादी और अंधविश्वासी बनाता जुआ

जैसे सिगरेट के नुकसान जानते हुए भी लोग स्मोकिंग करते हैं वैसा ही हाल जुए का है. लोग इस के नुकसान जानते हैं लेकिन इस के भी कश चाल की शक्ल में लगाते जाते हैं. एक हकीकत अनिमेश के उदाहरण से साबित भी होती है कि जुआ शुद्ध भाग्य और अंधविश्वास को पालतापोसता खेल है. अनुमान लगाना सहज मानवीय स्वभाव है. लेकिन हर अनुमान को सच होते देखना निरी बेवकूफी है. जुआ पूरी तरह अनुमान आधारित खेल है, इसलिए इस में रोमांच है.

लेकिन रोमांच से ज्यादा रोल किस्मत नाम की चीज का है जिस की आड़ ले कर इस की लत लगती है. लक्ष्मी अगर पूजा करने से आती होती तो देशदुनिया में कोई गरीब न होता. ठीक इसी तरह अगर किस्मत जुए से चमकती होती तो देश के कोई 30-40 करोड़ लोग बड़े भाग्यवान होते जो दीवाली की रात बतौर रस्म और बतौर लत जुआ खेलते हैं.

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जुआ लोगों को विकट का अंधविश्वासी भी बना देता है जो बुजदिली का दूसरा नाम है. जैसे, क्रिकेट और टैनिस सहित दूसरे खेलों के खिलाडि़यों के अपने मौलिक अंधविश्वास होते हैं कि कोई बल्ला उलटा पकड़ कर मैदान में आता है तो कोई बाएं पैर में पैड पहले बांधता है. इसी तरह जुआरियों के तो लाखों तरह के अंधविश्वास होते हैं. मसलन, कोई मन में गायत्री मंत्र बुदबुदा रहा होता है तो कोई पत्तों को उठाने से पहले उन्हें चूमता है तो कोई पहले उंगलियां चटका कर पत्ते खोलता है.

अब तो इस अंधविश्वासी मानसिकता पर बाकायदा बिजनैस भी करने वाले दुकान खोल कर धंधा करने लगे हैं. जुए में जीतने की शर्तिया तावीज बिकने लगी हैं तो  कहीं सिद्ध बंगाली टाइप बाबा तांत्रिक क्रियाएं कर जुए में जितवाने की गारंटी लेने लगे हैं.

कोई गुरुजी सौ से ले कर 10 हजार रुपए तक जुए में जीतने का मंत्र बताने लगा है तो कई तो शकुनी की तरह कौड़ी यानी ताश के पत्ते भी सिद्ध कर देने लगे हैं. यह बकबास जुआरियों की अंधविश्वासी मानसिकता पर खूब फलफूल रही है. बस, बाजार में जुए का व्रत आना ही बाकी रह गया है कि इस अमावस या पूर्णिमा यह धूत व्रत रखो तो जीत पक्की है.

कैसे बचें 

जुए की महिमा अपरंपार है जिस में जुआरी घंटों प्राकृतिक जरूरतों को दबाए बड़ी लगन से बैठा रहता है. लगातार हारते रहने के बाद भी उस की बुद्धि काम नहीं करती और जीत की उम्मीद में वह बहुतकुछ दांव पर लगा देता है. यह सोचना भी बेमानी है कि जो जीतते हैं, वाकई लक्ष्मी उन पर मेहरबान होती है और वे पैसे का सही इस्तेमाल करते हैं.

जीता हुआ पैसों को फुजूलखर्ची और गलत कामों में लगाता है क्योंकि उसे भी यह एहसास रहता है कि यह पैसा उस ने मेहनत से नहीं कमाया बल्कि जुए में जीता है. अनिमेश से जीतने के बाद प्रशांत ने कोई एक लाख रुपए तो शराबकबाब की पार्टियों में ही उड़ा दिए थे.

अब लाख टके का सवाल यह कि जुए से बचा कैसे जाए? इस के लिए कोई उपाय ढूंढ़ना मुश्किल है सिवा इस के कि दीवाली का कीमती वक्त अपनों के साथ आतिशबाजी चलाते और तरहतरह के पकवान खाते मनाया जाए. किसी फड़ पर जा कर जुआ खेलना एक बड़ा जोखिम वाला काम भी है. अगर पुलिस के छापे में पकड़े गए तो इज्जत तो मिट्टी में मिल ही जाती है, साथ ही 2-3 साल कोर्टकचहरी के चक्कर काटना उस से भी ज्यादा तकलीफदेह तजरबा साबित होता है.

दीवाली का जुआ सिर्फ दीवाली की रात ही नहीं होता, बल्कि 15 दिनों पहले से शुरू हो कर 15 दिन बाद तक चलता है और जो लोग फड़ का आयोजन करते हैं वे पहले से ही माहौल बनाना यानी उकसाना शुरू कर देते हैं कि क्या यार, साल में एक ही तो मौका आता है किस्मत आजमाने का और अगर दोचार हजार हार भी गए तो कोई कंगाल तो नहीं हो जाओगे. तुम तो किस्मत वाले हो, हो सकता है जीत  ही जाओ.

इस तरह की बातों और इस तरह की बातें बनाने वालों से दूर रहना ही बचाव है. नहीं तो जेब खाली होनी तय है. सिगरेट का पहला कश ही उस की लत की शुरुआत होती है. यही थ्योरी जुए पर भी लागू होती है कि एक बार फड़ पर बैठ गए तो पांडव बनने में देर नहीं लगती. इस के बाद भी मन न माने तो शंकर की तरह अपनी पार्वती के साथ जुआ खेलें. इस से घर का पैसा घर में तो रहेगा.

वर्जनिटी: चरित्र का पैमाना क्यों

हमारे शास्त्रों और सामाजिक व्यवस्था ने वर्जिनिटी यानी कौमार्य को विशेष रूप से महिलाओं के चरित्र के साथ जोड़ कर उन के लिए अच्छे चरित्र का मानदंड निर्धारित कर दिया है.

हमारे समाज में वर्जिनिटी की परिभाषा इस के बिलकुल विपरीत है. दरअसल, समाज और शास्त्रों के अनुसार इस का अर्थ है कि आप प्योर हैं. हम किसी चीज या वस्तु की प्युरिटी की बात नहीं कर रहे हैं वरन लड़की की प्युरिटी की बात कर रहे हैं. लड़की की वर्जिनिटी को ही उस की शुद्धता की पहचान बना दी गई है. लड़कों की वर्जिनिटी की कहीं कोई बात नहीं करता. बात केवल लड़कियों की वर्जिनिटी की करी जाती है.

आज भी कई जगह वर्जिनिटी टैस्ट के लिए सुहाग रात को सफेद चादर बिछाई जाती है. 2016 में महाराष्ट्र के अहमद नगर में खाप पंचायत के द्वारा लड़के द्वारा लड़की को जबरन वर्जिनिटी टैस्ट के लिए विवश किया गया और जब लड़की इस में फेल हुई तो दोनों को अलग करने के लिए सामदामदंडभेद सबकुछ अजमाया गया, परंतु लड़के ने हार नहीं मानी और कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां से उसे न्याय मिला.

वर्जिन नहीं तो जिंदगी नर्क

समाज में न जाने इस तरह के कितने मामले हैं, जिन में लड़कियों का जीवन इसलिए नर्क बन जाता है, क्योंकि वे लड़की वर्जिन नहीं होतीं शादी से पहले उन्होंने किसी के साथ संबंध इच्छा या अनिच्छा से बनाया हो, इसी वजह से उन्हें कैरेक्टरलैस और बदचलन मान लिया जाता है.

डा. ईशा कश्यप कहती हैं कि वर्जिनिटी को ले कर हमारा समाज बहुत छोटी सोच रखता है. जिस के कारण आज भी लड़कियों की स्थिति काफी दयनीय है. यहां तक कि कई बार तलाक तक हो जाता है और लड़की की आवाज को अनसुना कर दिया जाता है.

कल्याणपुर की नलिनी सिंह का कहना है कि आज भी अगर लड़की वर्जिन नहीं है तो शादी के बाद उसे उस के पति और समाज की घटिया सोच का शिकार होना पड़ता है.

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इंजीनियरिंग कालेज की छात्रा अखिला पुरवार ने कहा कि जब लड़कों की वर्जिनिटी कोई माने नहीं रखती तो फिर लड़कियों की वर्जिनिटी को ले कर इतना बवाल क्यों?

हम सब अपने को चाहे कितना मौडर्न कह लें, लेकिन अपनी सोच में बदलाव नहीं ला पा रहे हैं. यदि वर्जिनिटी पर सवाल उठाना ही है तो पहले लड़के की वर्जिनिटी पर सवाल उठाना होगा क्योंकि वह किसी भी समय किसी भी लड़की को शिकार बना कर उस की वर्जिनिटी को जबरदस्ती भंग कर देता है. लेकिन जब शादी का सवाल आता है तो वह किसी लड़की को अपना जीवनसाथी बनाने के पहले उस के चरित्र पर बदचलन का दाग लगाने में एक पल भी नहीं लगता है.

धार्मिक बातों में विरोधाभास

हिंदू धर्म में परस्पर विरोधी बातें कही गई हैं. एक ओर तो कुंआरी कन्या को देवी मानते हुए कंजिका पूजन की प्रथा का आज भी चलन है. सामान्यतया सभी परिवारों में नवरात्रि में छोटी कन्या को भोजन और भेंट देने का रिवाज है. दूसरी ओर शास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत सभी समवेत स्वर में कहते हैं कि स्त्री आजादी के योग्य नहीं है या वह स्वतंत्रता के लिए अपात्र है.

मनु स्मृति में तो स्पष्ट कहा है-

‘पिता रक्षंति कौमारे, भर्ता रक्षित यौवने

रक्षंति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातंत्र महेति’ (मनुस्मृति 9-3)

स्त्री जब कुमारी होती है तो पिता उस की रक्षा करते हैं, युवावस्था में पति, वृद्धावस्था में पति नहीं रहा तो पुत्र उस की रक्षा करता है. तात्पर्य यह है कि जीवन के किसी भी पड़ाव पर स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है. बात केवल मनुस्मृति तक सीमित नहीं है, महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस में इस की पुष्टि करते हुए कहा है कि स्वतंत्र होते ही स्त्री बिगड़ जाती है.

‘महावृष्टि चलि फूटि कियारी जिमि भये बिगरहिं नारी’

महाभारत में भी कहा गया है कि पति चाहे बूढ़ा, बदसूरत, अमीर या गरीब हो, परंतु स्त्री के लिए वह उत्तम आभूषण होता है. गरीब, कुरूप, निहायत बेवकूफ या कोढ़ी हो, पति की सेवा करने वाली स्त्री को अक्षय लोक की प्राप्ति होती है.

मनुस्मृति में स्पष्ट है कि पति चरित्रहीन, लंपट, अवगुणी क्यों न हो साध्वी स्त्री देवता की तरह उस की सेवा करे वाल्मीकि रामायण में भी इसी तरह का उल्लेख है.

हिंदुओं का सब से लोकप्रिय महाकाव्य ऐसी स्त्री को सच्ची पतिव्रता मानता है, जो स्वप्न में भी किसी परपुरुष के बारे में न सोचे. तुलसी दासजी यहां भी नहीं रुके. उन्होंने उसी युग को कलियुग कह दिया, जब स्त्री अपने सुख की कामना करने लगती है.

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इन्हीं धार्मिक मान्यताओं के प्रभाव से आज हमारे समाज में विवाह से पूर्व कौमार्य का भंग होना बेहद शर्मनाक माना जाता है.

इसी यौनशुचिता की रक्षा में हमारा न सिर्फ पूरा बचपन और कैशोर्य कैद कर दिया जाता है वरन हमारी बुनियादी आजादी भी हम सब से छीन ली जाती है.

क्यों बुना गया यह जाल

वर्जिनिटी को बचाने का सारा टंटा सिर्फ इसलिए है कि महिलाएं अपने पति को यह मानसिक सुख दे सकें कि वही उन के जीवन का पहला पुरुष है. यह वही है, जिस के लिए आप ने स्वयं को सालों तक दूसरे लड़कों और पुरुषों से बचा कर रखा है.

शादी से पहले लड़कियों को हजारों तरह के निर्देश दिए जाते हैं कि यहां नहीं जाओ, उस से मत मिलो, लड़कों से दूरी बना कर रखो, उन से दोस्ती मत करो, रिश्तेदारों के यहां अकेले मत जाओ, शाम से पहले घर लौट आना आदिआदि. ये सारे प्रतिबंध सिर्फ कौमार्य की रक्षा को दिमाग में रख कर ही लगाए जाते हैं.

सूरत की असिस्टैंट प्रोफैसर कहती हैं कि हम यह भी कह सकते हैं कि वर्जिनिटी हमारी है, लेकिन हमारी हो कर भी हमारे लिए नहीं है. इसलिए आजकल लड़कियों का कहना है कि जब यहां हमारे लिए है ही नहीं तो इसे बचाने का क्या फायदा?

हालांकि आज 21वीं सदी में वर्जिनिटी को बचाए रखने का चलन अब फुजूल की बात होती जा रही है, परंतु आज भी ऐसी लड़कियों की कमी नहीं है, जो इसे कुछ भी न मानते अपनी वर्जिनिटी तोड़ने की हिम्मत नहीं कर पातीं हैं. इन में से कुछ के आड़े अपने संस्कार की हैवी डोज या फिर अगर किसी को पता चल गया तो क्या होगा? या कई बार सही मौका नहीं मिल पाना भी इस की वजह बन जाता है.

वैसे अच्छी बात यह हो गई है कि अब लड़कियां उन्हें बुरा नहीं मानती, जिन्होंने अपनी मरजी से वर्जिनिटी खोने को चुना है.

मार्केटिंग प्रोफैशनल इला शर्मा बीते कई सालों से मुंबई में रहती हैं. वे कहती हैं कि यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है, जिस पर इतना बवाल मचाया जाए. यदि लड़के वर्जिन लड़की चाहते हैं तो उन्हें भी पहले अपनी वर्जिनिटी को संभाल कर रखना चाहिए. लड़कियों की वर्जिनिटी के लिए पूरा समाज सजग है और सब यही चाहते हैं कि लड़कियां वर्जिन ही रहें, लेकिन लड़कों के बारे में ऐसा नहीं सोचा जाता. मु झे समाज के इस दोहरे पैमाने से बहुत तकलीफ होती है.

मगर वर्जिनिटी को ले कर मुखर निशा सिंह एक चौंकाने वाली बात कहती हैं कि आप यह कैसे मान सकते हैं कि 1-2 सैंटीमीटर की कोई नाजुक सी  िझल्ली, 5 फुट की लड़कियों के पूरे अस्तित्व पर भारी पड़ सकती है? यह सुनने में अजीब सा लगता है, परंतु अफसोस कि सच यही है. एक पतली सी  िझल्ली जिसे विज्ञान की भाषा में ‘हाइमन’ कहा जाता है, हम लड़कियों के पूरे अस्तित्व को किसी भी पल कठघरे में खड़ा कर सकती है.

निशा कहती हैं कि उन की उम्र 40 साल होने जा रही है, लेकिन वे आज भी वर्जिन हैं. कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि इतने सालों से घर से बाहर रहने के बावजूद दिमाग की कंडीशनिंग काफी हद तक वैसी ही है. सच तो यह है कि कई बार अपने को आजाद छोड़ने के बाद भी अपने को सहज या नौर्मल नहीं पाती हूं. मु झे लगता है कि मेरे संस्कार और मांपापा का भरोसा तोड़ने से जुड़े अपराधबोध के डर से ही मैं आज तक चाहेअनचाहे वर्जिन हूं.

नोएडा की एक विज्ञापन कंपनी में काम करने वाली नीलिमा घोष वर्जिनिटी पर महिलाओं की सोच की थोड़ी स्पष्ट तसवीर दिखाती हैं कि मु झे लगता है कि लड़के चाहते तो हमेशा यही हैं कि उन की पत्नी वर्जिन हो, अगर नहीं हो तो भी चल जाता है. यह चला लेना ही बताता है कि अंदर ही अंदर लड़कों को इस बात से फर्क पड़ता है, इसलिए उन्हें सच बताना आफत मोल लेना है. इसलिए पति हो या बौयफ्रैंड से  झूठ बोलना ही ज्यादा सही है वरना इस बात को ले कर किसी भी समय कोई भी सीन क्रिएट कर सकते हैं. इसलिए अपने सुखी भविष्य के लिए  झूठ बोलना ही अकलमंदी है.

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मौडर्न को भी वर्जिन की चाह

वैसे तो आज के समय में सम झदार लोगों के लिए वर्जिनिटी का कोई मतलब नहीं रह गया है, परंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि आज भी यदि किसी वजह से कोई लड़की अपनी वर्जिनिटी खो चुकी है तो लोगों के लिए ‘खेली खाई’ है और वह सर्वसुलभ है. उस के लिए लोगों का सोचना होता है कि जब एक बार किसी के साथ मजे ले चुकी है तो फिर दूसरों के साथ भला क्या दिक्कत है.

तलाकशुदा महिलाएं अकसर इस की शिकार होती हैं. मेरठ के एक प्राइवेट स्कूल की अध्यापिका बुलबुल आर्य कहती हैं कि मु झे लगता है कि कई लोग यह सोचते हैं कि मैं उन के लिए आसानी से उपलब्ध हूं. उन की तरफ से ऐसा कोई भी इशारा पाए बिना ही सब यह मान कर चलते हैं कि शादी के बाद मैं सैक्स की हैबिचुअल हो चुकी हूं और अब पति मेरे साथ नहीं हैं, इसलिए वे इस कमी को पूरी करने के लिए आतुर रहते हैं.’ ऐसी सोच मेरे लिए बहुत डिस्गस्टिंग है कि सिर्फ मेरी वर्जिनिटी खत्म होने से मैं उन सब के लिए उपलब्ध लगती हूं.

बुलबुल जैसी लड़कियों के लिए व्यक्तिगत रूप से वर्जिनिटी कोई बड़ा मुद्दा न होते हुए भी बड़ा हो जाता है.

यौनशुचिता को ले कर चली आ रही सोच का पोषण करते हुए विज्ञान ने हाइमन की सर्जरी जैसे उपायों को भी चलन में ला दिया है. यद्यपि अपने देश में यह अभी शुरुआती दौर में है और काफी महंगी भी है, परंतु यह इशारा करता है कि हम विवाहपूर्व भी अपनी सैक्सुअल लाइफ को जीना और ऐंजौय करना चाहती हैं. लेकिन अपनी ‘अच्छी लड़की’ वाली इमेज कभी नहीं टूटने नहीं देना चाहती हैं ताकि पति की तरफ से वर्जिन पत्नी को मिलने वाली इज्जत और प्यार मिल सके.

समाज की गंदी सोच

वास्तविकता यह है कि वर्जिनिटी के सवाल पर हम सुविधा में हैं. वर्जिनिटी पर हम एक ही समय पर 2 तरह से सोचते हैं. एक ओर तो ऐसे सभी कैरेक्टर सर्टिफिकेट्स को चिंदीचिंदी कर के फाड़ कर फेंक देना चाहते हैं, जिन्हें वर्जिनिटी जारी करती है और दूसरी तरफ हम खुद ही चाहेअनचाहे उसे बचा कर रखना चाहते हैं. हमारा समाज और हम सभी अभी भी इस सोच से ग्रस्त हैं कि वर्जिनिटी खो चुकी लड़कियां गंदी होती हैं.

मांबाप अपनी बेटियों को विवाहपूर्व यौन संबंधों से बचाने के लिए अकसर ‘हम तुम पर बहुत भरोसा करते हैं.’ जैसे भावनात्मक हथियार का प्रयोग करते हैं. ऐसे में यदि कोई लड़की अपनी वर्जिनिटी खत्म करती भी है तो वह अपने मांबाप का भरोसा तोड़ने के अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती है.

वैसे अब लड़कियों में यह चाह तो जगने लगी है कि जैसे लड़कों के लिए वर्जिनिटी खोना कोई मसला नहीं है वैसे ही लड़कियों के लिए भी न हो, परंतु अभी तो बहुत कोशिशों के बाद भी हमारा समाज इस मसले पर सहज नहीं है. बस अब इस पर होने वाले बवाल से बचने के लिए लड़कियां  झूठ बोलने में अवश्य सहज हो गई हैं.

इस संदर्भ में ‘पिंक’ मूवी का उल्लेख करना चाहूंगी जो स्त्री की यौनस्वतंत्रता के प्रति समाज की मानसिकता को जगाने का प्रयास करती है.

देह उपयोग को ले कर स्त्री की अपनी इच्छाअनिच्छा को भी उसी अंदाज में स्वीकार करना होगा जैसेकि पुरुष की इच्छाअनिच्छा को समाज सदियों से स्वीकार करता आ रहा है. इस विचार से ‘पिंक’ एक फिल्म नहीं वरन एक मूवमैंट?? है. यदि स्त्री को अपने अधिकार के लिए लड़ना है तो आवश्यक है कि समाज में माइंड सैट बदलना होगा.

समाज की धारणा को बदलने के लिए पहले स्त्री को स्वयं अपनी सोच को बदलने की आवश्यकता है.  \

‘‘हम सब अपने को चाहे कितना मौडर्न कह लें, लेकिन अपनी सोच में बदलाव नहीं ला पा रहे हैं. यदि वर्जिनिटी पर सवाल उठाना ही है तो पहले लड़के की वर्जिनिटी पर सवाल उठाना होगा क्योंकि वह किसी भी समय किसी भी लड़की को शिकार बना कर उस की वर्जिनिटी को जबरदस्ती भंग कर देता है…’’

‘‘वैसे तो आज के समय में सम झदार लोगों के लिए वर्जिनिटी का कोई मतलब नहीं रह गया है, परंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि आज भी यदि किसी वजह से कोई लड़की अपनी वर्जिनिटी खो चुकी है तो लोगों के लिए ‘खेली खाई’ है और वह सर्वसुलभ है…’’

नारी हर दोष की मारी

लेखक- रोचिका अरुण शर्मा

आज भी स्त्रियों के लिए सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताएं जैसे उन्हें निगलने के लिए मुंह बाए खड़ी हैं. कई योजनाएं बनती हैं, लेख लिखे जाते हैं, कहानियां गढ़ी जाती हैं, प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं और सब से खास प्रतिवर्ष महिला दिवस भी मनाया जाता है. किंतु हकीकत यह है कि घर की चारदीवारी में महिलाएं बचपन से ले कर बुढ़ापे तक समाज एवं धर्म की मान्यताओं में बंधी कसमसा कर रह जाती हैं.

कुंआरी लड़की एवं विधवा दोष

कुछ महीने पहले की ही बात है  झुन झुनवाला की 25 वर्षीय बिटिया के विवाह की बात चल रही थी, लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया था. लेकिन फिर बात आगे न बढ़ सकी, जब  झुन झुनवाला से पूछा गया कि मिठाई कब खिला रही हैं तो कहने लगीं, ‘‘क्या करें हम तो तैयार बैठे हैं मिठाई खिलाने के लिए पर बिटिया की कुंडली में ही दोष है, कोई रिश्ता बैठता ही नहीं.’’

कैसे दोष? पूछने पर कहने लगीं कि लड़के वालों ने पंडितजी को दिखाई थी बिटिया की कुंडली, कहने लगे कुंडली में ग्रहों की स्थिति बताती है कि बिटिया का विधवा योग है. विवाह के कुछ बरसों पश्चात ही वह विधवा हो जाएगी. तो भला कौन अपने लड़के को हमारी बिटिया से ब्याहेगा? उन के माथे पर चिंता की लकीरें गहरा गई थी.

अनब्याही में मांगलिक दोष

पुणे में रहने वाली स्मिता कहती हैं कि उन का विवाह बड़ी उम्र में हुआ, क्योंकि कुंडली में मांगलिक दोष था. कहा जाता है कि मांगलिक दोष वाली युवती के ग्रह मांगलिक दोष वाले पुरुष से मिलने चाहिए तभी विवाह का सफल होना संभव है अन्यथा या तो दोनों में से एक की मृत्यु हो जाती है या फिर तलाक. कुल मिला कर किसी भी कारण से विवाह असफल ही रहता है. ऐसे में अकसर मांगलिक युवतियां बड़ी उम्र तक कुंआरी रह जाती हैं या फिर इस मंगल दोष को हटाने के लिए पूजा एवं समाधान बताए जाते हैं, उन कार्यों को संपन्न करने पर ही ऐसी युवतियों का विवाह होता है. बढ़ती उम्र तक यदि विवाह न हो तो समाज ताने देने से नहीं चूकता.

तलाकशुदा स्त्री

हैदराबाद में रहने वाली संजना का अपने पति से विवाह के करीब 5 वर्ष बाद 30 की उम्र में ही तलाक हो गया था. उस  समय उन का बेटा था जिसे संजना ने अपने पास ही रखा. तलाक के कुछ वर्षों बाद उन के पति ने तो पुनर्विवाह कर लिया, किंतु संजना अब 50 वर्ष की हैं और एकाकी जीवन जी रही हैं. वैसे तो वे स्वयं आईटी इंडस्ट्री में कार्यरत हैं सो आर्थिक स्थिति अच्छी ही है फिर भी जब उन से पुनर्विवाह के बारे में पूछा गया तो कहने लगीं, ‘‘अब इस उम्र में कौन करेगा मु झ से विवाह और जब जवान थी तब एक बच्चे की मां से कौन करता विवाह? कोई दूसरे के बच्चे की जिम्मेदारी लेता है भला?’’

इस तरह के न जाने कितने मामले देखने को मिल जाएंगे जिन में लड़की में दोष बता कर उसे एकाकी, पाश्चिक या निम्न स्तर की जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया जाता है.

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विधवा स्त्री

इसी तरह एक मामला देखने को मिला जिस में एक पढ़ीलिखी, सुंदर, स्मार्ट महिला के पति की कम उम्र में मृत्यु हो गई. क्योंकि पति सरकारी नौकरी में थे, महिला को उन की मृत्यु के पश्चात अच्छी रकम मिली. महिला का एक नवजात बेटा भी था.

किसी कारणवश महिला को ससुराल वालों का सपोर्ट नहीं मिली तो वह मायके में रहने लगी. मायके में भाईभाभी की नजर में वह खटकती. यह देख कर उस के मातापिता ने पढ़ालिखा अच्छा कमाने वाला तलाकशुदा पुरुष देख कर उस का पुनर्विवाह कर दिया. कुछ समय तो ठीकठाक चला, किंतु फिर अकसर महिला के बच्चे को ले कर पतिपत्नी में अनबन रहने लगी. सास की नजर महिला के पहले पति की मृत्यु उपरांत प्राप्त धनराशि पर रहती. अब जब घर में कुछ  झगड़ा होता, बारबार महिला को ताना दिया जाता कि एक तो विधवा वह भी एक बच्चे की मां से विवाह किया. रोजरोज के  झगड़ों एवं तानों से परेशान हो इस महिला ने स्वयं ही अपने दूसरे पति से तलाक ले लिया.

अब यहां सोचने वाली बात यह है कि वह विधवा हुई उस में उस का क्या दोष? बच्चा भी नाजायज नहीं? उस के पति से संबंध के फलस्वरूप हुआ जबकि दूसरा पति तो तलाकशुदा था, हो सकता है उसी का या उस के परिवार का व्यवहार बुरा रहा हो जिस के चलते उस की पहली पत्नी से उस का तलाक हुआ हो. लेकिन बारबार महिला को विधवा होने का दोष देना कहां तक उचित है?

इस मामले में तो पढ़ीलिखी स्मार्ट महिला थी सो पुनर्विवाह हुआ और न जमने पर उस ने तलाक ले लिया. यदि यहां गांव की, मजबूर, कम पढ़ीलिखी, आर्थिक रूप से कमजोर स्त्री होती तो उस की दुर्दशा होनी तय थी.

सशक्त वीरांगना

इसी तरह का एक और महिला का उदाहरण है जिस में महिला का पति फौज में था और शहीद हो गया. नवविवाहित महिला पढ़ीलिखी है, उस का एक बच्चा भी है. उसे अपने पति के बदले में नौकरी मिल गई सो वह आर्थिक रूप से सशक्त रही. एक बच्चा था जिसे उस ने बड़ी ही लगन और मेहनत से पालपोस कर बड़ा किया.

किंतु समस्या तब आती जब सबकुछ होते हुए भी वह एकाकी जीवन जीती. मन कहीं रमणीय स्थल पर घूमने जाना चाहता है, क्योंकि कम उम्र में पति शहीद हुए, सुखद वैवाहिक जीवन के सपने तो उस ने भी देखे थे, वह भी अच्छे वस्त्र पहन कर अपने पति की बांहों में बांहें डाले किसी फिल्मी अभिनेत्री की तरह घूमनाफिरना चाहती थी, तसवीरें खिंचवाना चाहती थी.

सोशल मीडिया का जमाना है. अपनी तसवीरें वह भी दूसरों के साथ शेयर करना चाहती थी. किंतु पति के न रहने पर वह किस के साथ घूमेफिरे? कैसे खुशियां बटोरे? यदि उम्र ज्यादा होती तो शायद वह इस जीवन को जी चुकी होती, उस के शौक पूरे हुए होते, किंतु बच्चा छोटा होने से वह अकेली तो पड़ ही गई. सो मन मान कर जीने पर मजबूर हो गई. क्योंकि ऐसे में न तो कोई रिश्तेदार और न ही कोई मित्र अपने परिवार में किसी अन्य का दखल पसंद करता है और न ही कोई उस की जिम्मेदारी लेना चाहता है.

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परित्यक्त स्त्री

ऐसा ही एक उदाहरण है परित्यक्त स्त्री का जिसे उस के पति ने  झगड़ा कर घर से निकाल दिया. उस की 5 वर्षीय बेटी भी मजबूरन उस के साथ अपने ननिहाल में आ गई. वह महिला अपने मायके में आ कर नौकरी करने लगी. मातापिता ने सोचा आखिर कब तक वह उसे सहारा देंगे? उन की भी तो उम्र बढ़ती जा रही है. सो उन्होंने उस की बेटी को ददिहाल भेज दिया, सोचा कि बेटी के लिए मां की आवश्यकता पड़ेगी तो ससुराल वाले उसे बुला लेंगे. किंतु ऐसा नहीं हुआ, बल्कि उस महिला के मातापिता ने उस का तलाक करवाया और एक ऐसे पुरुष से विवाह कर दिया जिस की पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी और उस के 2 बच्चे व मरणासन्न बूढ़ी मां थी.

यह विवाह तो हो गया, किंतु क्या वह महिला इस विवाह में अपनी बेटी को अपने साथ नहीं रख सकती? जब वह अपने दूसरे पति के बच्चे पालती होगी तो क्या उसे अपनी बेटी याद नहीं आती होगी? क्या उस 5 वर्षीय बच्ची के साथ अन्याय नहीं हुआ?

जबकि महिला के दोनों पति तो अपनी जिंदगी आराम से जीते रहे. इस केस में मु झे महसूस होता है दूसरे विवाह के समय उस महिला को पत्नी का नहीं अपितु परिचारिका का दर्जा दिया गया था वरना उस की बेटी को भी सहर्ष स्वीकार करना चाहिए था. इस से मांबेटी बिछड़ती नहीं.

कुंडली में दोष एवं उपाय

कई बार तो ऐसा भी देखने को मिलता है कि लड़की की कुंडली में दोष बताया जाता है फिर किसी न किसी पूजा, यज्ञ, हवन के माध्यम से उसे दोषमुक्त किया जाता है. तब कहीं जा कर उस के विवाह की बात आगे बढ़ती है.

इसी तरह विधवा महिलाओं के लिए कई मान्यताएं एवं धारणाएं तय कर दी गई हैं जो उन के जीवन को अति निम्न स्तर का, नारकीय एवं पाश्चिक बना देती हैं. किसी भी स्त्री का विधवा होना किसी अभिशाप से कम नहीं है.

वैदिक ज्योतिष कुंडली के अनुसार विवाह, वैवाहिक जीवन एवं विवाह की स्थिति के लिए सप्तम भाव का अध्ययन किया जाता है. इस के अनुसार किसी स्त्रीपुरुष के विवाह के बाद वैवाहिक जीवन में आने वाली स्थितियों का अध्ययन किया जा सकता है. इन भावों के स्वामियों से संबंध बनाना वैवाहिक जीवन के सुखों में कमी करता है.

सप्तम भाव के अध्ययन के अनुसार इस भाव में मंगल एवं पाप ग्रहों की स्थिति कन्या की कुंडली में होने पर विधवा योग बनते हैं.

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विभिन्न भावों, कुंडली में चंद्रमा के स्थान व राहू की दशा के अनुसार कन्या का निश्चित रूप से विधवा होना तय है.

कुछ कुंडली दोष कहते हैं कि स्त्री विवाह के उपरांत 7-8 वर्ष के अंदर विधवा हो जाती है. लग्न एवं सप्तम दोनों में पाप ग्रह हो तो स्त्री के विवाह के 7वें वर्ष में पति का देहांत हो जाता है.

इस तरह के अनेक योग व दशा ज्योतिषियों द्वारा समयसमय पर लिखी व कही गई हैं और अब तो यह जानकारी इंटरनैट पर भी उपलब्ध है.

सिर्फ इतना ही नहीं इस तरह की जानकारी के साथ विभिन्न शहरों में रहने वाली महिलाओं के नाम के साथ उन के कुंडली दोष व विधवा होने की स्थिति का जिक्र भी किया गया है ताकि लोग उसे सत्य मान कर स्वीकार करें और कुंडली में भरोसा करें.

इन सब के अलावा इंटरनैट पर मेनका गांधी एवं सोनिया गांधी की कुंडली का जिक्र किया गया है और यह भी बताया गया है कि उन की कुंडलियों के अध्ययन से पता चलता है कि कितनी कम उम्र में उन्हें वैधव्य प्राप्त होगा और वह हुआ भी. साथ ही यह भी लिखा गया है कि यदि शनिमंगल का उपाय कर लिया जाए तो वैधव्य योग टल सकता है.

विधवा स्त्री के लिए विधवा व्रत

शास्त्रों में जिस तरह स्त्री के लिए पविव्रत धर्म है उसी प्रकार विधवा स्त्री के लिए विधवा व्रत का विधान है जिस में विधवा को किस तरह का जीवन जीना चाहिए इस के लिए मानक तय हैं:

विधवा स्त्री को पुरुषों के साथ अथवा अपने मायके में ही रहना चाहिए.

विधवा स्त्री को शृंगार, अलंकरण यहां तक कि सिर धोना भी छोड़ देना चाहिए.

विधवा स्त्री को सिर्फ एक ही समय भोजन करना चाहिए और एकादशी के दिन अन्न का पूर्ण त्याग करना चाहिए.

विधवा स्त्री को खट्टामीठा नहीं खाना चाहिए, सिर्फ साधारण खाना खाना चाहिए.

सार्वजनिक कार्यों, शुभकार्यों, विवाह, गृहप्रवेश आदि में नहीं जाना चाहिए.

विधवा स्त्री को भगवान शिव की उपासना करनी चाहिए और अपनी संतानकी देखरेख करनी चाहिए और उस के लिए व्रत करने चाहिए.

विधवा से विवाह करने वाला नर्क में जाता है.

इस के अलावा यदि कोई स्त्री विधवा नहीं है, किंतु उस का पति परदेस में रहता है तो उसे भी विधवा व्रत का विधान मानना चाहिए.

वीडियो भी उपलब्ध

कुंडली, ज्योतिष, विधवा व्रत आदि पर न सिर्फ लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऐसे वीडियो भी मिल जाएंगे जिन में बताया गया है कि विधवा स्त्री को पुनर्विवाह करना चाहिए या नहीं?

विधवा स्त्री के हाथ से कोई शुभ कार्य नहीं करवाया जाता? विधवा स्त्री को सफेद साड़ी क्यों पहनाई जाती है? घर के दोष से भी औरत हो सकती है विधवा.

स्त्री को आशीर्वाद दिया जाता है ‘अखंड सौभाग्यवती भव’’ यानी जब तक वह जीवित रहे उस का सुहाग अखंड रहे. सोचने की बात यह है कि यह आशीर्वाद पुरुष को नहीं दिया जाता, क्योंकि पुरुष तो स्त्री के न रहने पर पुनर्विवाह का हकदार है. यदि उस के 2-3 बच्चे भी हों तो भी कोई न कोई स्त्री उस से विवाह कर ही लेगी. किंतु यदि कोई स्त्री विधवा हो गई तो हमारे समाज और धर्म की मान्यताएं तो जैसे उस के मनुष्य जीवन पर ऐसा कुठाराघात करेंगी कि उस का जीना जैसे नर्क हो.

सोचने की बात यह है कि यदि पुरुष की मृत्यु हो तो उस का दोष स्त्री की कुंडली को. पति की मृत्यु की सजा उस की पत्नी को. क्या यह हमारे समाज के नियमों का दोष नहीं? क्या इस दोष का कोई उपाय नहीं होना चाहिए?

आज जहां हम एक तरफ विज्ञान में नई खोज, आविष्कार, तरक्की की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर विधवा, परित्यक्त, अविवाहित स्त्री के जीवन में सुधार की बातें क्यों दबी रह जाती हैं? क्यों ऐसी स्त्रियां घुटनभरा जीवन जीने पर मजबूर होती हैं? सिर्फ मंचों पर कार्यक्रम से कुछ नहीं होने वाला है. आवश्यकता है खुले मन से उन्हें स्वीकारने की. वे जैसी भी हैं, जिस स्थिति में हैं, इंसान वे भी हैं.

कथित धर्म ध्वजा वाहक राम रहीम की “उम्र कैद का संदेश”

एक समय में धर्म की नाव में बैठकर लाखों लोगों को भ्रमित करने वाले बाबा राम रहीम ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा और न ही उनके  किसी कथित भक्त ने सोचा  होगा कि देश दुनिया में “सच्चा डेरा” की एक समय में धूम मचाने वाले गुरमीतसिंह उर्फ बाबा राम रहीम को एक दिन उसके अपराध की सजा भी मिलेगी.

अब  ऐसा हो गया है, सीबीआई की विशेष अदालत ने बाबा राम रहीम को उम्र कैद की सजा सुना दी है अब बाबा राम रहीम के ऊपर ऐसे  प्रकरण और सजाएं हैं कि वह  जिंदगी में शायद ही कभी खुली हवा में सांस ले सकें, बाहर आ सकें और डेरा सच्चा सौदा का संचालन कर पाएंगे.

इस  विशेष रिपोर्ट में हम आपको स्वयं को सर्व शक्तिमान घोषित करने वाले बाबा राम रहीम के कुछ महत्वपूर्ण जानने योग्य तथ्य बताने जा रहे हैं.

दरअसल, एक संत और बाबा का चोला पहनने वाले कथित बाबा राम रहीम समेत 5 को उम्र कैद की सजा‌ उनके अपने सहयोगी रंजीत सिंह के हत्या केस में  पंचकूला की विशेष सीबीआई कोर्ट ने  सुनाई है. राम रहीम के साथ अन्य 4 दोषियों को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है.

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यहां आपको हम बताते चलें कि राम रहीम का एक बाबा के रूप में बड़ा ही जलवा था वह फिल्म बनाते थे, वह ऐसे ऐसे करतब  किया करते थे की सदैव मीडिया में चर्चा बनी रहती थी, धर्म की कथित आड़ में जाने कितने दुष्कर्म और अपराध करते रहे जिसकी गिनती कोई नहीं कर पाया और यह सदा चर्चा में रही. मगर कहते हैं ना अपराध कभी न कभी सर चढ़कर बोलता है और अपराधी कानून के शिकंजे में अंततः आ ही जाता है अंतिम समय जेल की चक्की पीसने में ही गुजर जाता है, बाबा राम जी के साथ हो रहा है.

यह भी सच है कि मामला मुकदमा दर्ज होने पर भी यह सब अपने आप को सर्व शक्तिमान समझता था और यह संदेश देता था कि मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. साथ ही सहयोगी महिला  हनीप्रीत के साथ भी कितनी ही किस्से कहानियां चर्चा में रही हैं.

मामला संवेदनशील होने के कारण राम रहीम की पेशी कोर्ट में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए की‌ जाती थी पूरे जिले में धारा 144 लगा दी जाती थी कहीं भी 5 से ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने की इजाजत नहीं थी. बाबा राम रहीम ने धर्म के उन्माद को इतना ज्यादा जगा दिया था की स्थिति कभी भी असामान्य हो सकती थी. यहां उल्लेखनीय है कि सन् 2002 में रंजीत सिंह की हत्या के लिए राम रहीम सहितइन लोगों को नामजद किया गया था

डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख को मिला सच्चा सौदा!

जैसा कि सारी दुनिया जानती है डेरा सच्चा सौदा के बाबा गुरमीत सिंह यानी राम रहीम के मुख्य प्रबंधन का कार्य डेरा सच्चा सौदा से संचालित होता था. जहां सैकड़ों एकड़ भूमि पर कथित बाबा का वर्चस्व था यहां उनकी अनुमति के बगैर परिंदा भी पर नहीं मार पाता था. एक प्रकार से उनका अपना शासन स्थापित था. धर्म के नाम पर जो इंतेहा यहां बाबा राम रहीम ने की वह सालों बाद धीरे-धीरे छन कर  बाहर आई और उसकी क्रूरता के किस्से भी सार्वजनिक हो गए.

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जैसा कि कभी ना कभी पाप का घड़ा तो फूटता ही है 2002 में  रंजीत सिंह जो डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम के समर्थक थे की 10 जुलाई 2002 को  हत्या कर दी गई थी. इसी मामले में गुरमीतसिंह सहित पांच लोगों को अब जेल के सीखचों पड़ेगा.

लगभग 20 साल बाद!

राम रहीम के द्वारा किए गए अपराधों की लंबी जांच के बाद मामला अंततः न्यायालय में पहुंचा और सभी के साक्ष्य लिए  जाने लगे. वह बाबा जो कभी अपने सच्चा सौदा के प्रतिष्ठान से लोगों को धर्म का ज्ञान देता था मगर स्वयं धर्म के रास्ते को छोड़ कर के अपराध की राह पर चल पड़ा था आखिरकार कानून की जद में आ ही गया.

यहां यह बताना जरूरी होगा कि राम रहीम की पेशी कोर्ट में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए कानून-व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए होती रही और राम रहीम फिला वक्त रोहतक की सुनारिया जेल में बंद है वहीं से उसकी वर्चुअली पेशी कोर्ट में की जाती रही वहीं चार अन्य दोषियों को अंबाला जेल से कड़ी सुरक्षा के बीच पंचकूला कोर्ट लाया गया था.

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3 दिसंबर 2003 को पुलिस में एफआईआर दर्ज हुई थी और आगे सीबीआई ने रणजीत सिंह हत्या मामले में प्राथमिकी दर्ज की थी. न्यायालय में  याचिका रंजीत सिंह के बेटे जगसीर सिंह ने दायर कर इंसाफ की फरियाद की थी. इसके बाद बाबा राम रहीम पर कानून का शिकंजा कसता ही चला गया और यह भ्रम टूट गया कि अगर कोई धर्म का चोला पहन कर अपराध करता है तो बहुत दिनों तक बच सकता है.

वर्जिनिटी: टूट रही हैं बेडि़यां

लेखिका- आशा शर्मा

आदिकाल से ही औरतों के लिए शुचिता यानी वर्जिनिटी एक आवश्यक अलंकार के रूप में निर्धारित कर दी गई है. यकीन न हो, तो कोई भी पौराणिक ग्रंथ उठा कर देख लीजिए.

अहल्या की कहानी कौन नहीं जानता. शुचिता के मापदंड पर खरा नहीं उतरने के कारण जीतीजागती, सांस लेती औरत को पत्थर की शिला में परिवर्तित हो जाने का श्राप मिला था. पुराणों के अनुसार, उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि वह अपने पति का रूप धारण कर छद्मवेश में आए छलिए इंद्र को उस के स्पर्श से पहचान न सकी.

शुचिता के सत्यापन का कितना दबाव  औरतों पर हुआ करता था, इस का उदाहरण भला कुंती से बेहतर कौन हो सकता है. कुंती, जिसे अपनी शुचिता का प्रमाण विवाह के बाद अपने पति को देना था, ने विवाहपूर्व सूर्यपुत्र कर्ण को जन्म देने के बाद उसे नदी में प्रवाहित कर दिया ताकि उस की शुचिता पर आंच न आए.

क्या है शुचिता

शुचिता यानी यौनिक शुद्धता का पैमाना. स्त्री योनि के भीतर एक पतली गुलाबी  िझल्ली होती है जिसे हाइमन कहा जाता है. माना जाता है कि प्रथम समागम के दौरान इस के फटने से रक्तस्राव होता है. जिन स्त्रियों को यह स्राव नहीं होता उन का कौमार्य शक के घेरे में आ जाता है. यह जानते हुए भी कि इस  िझल्ली के फटने के कई अन्य कारण भी होते हैं.

सामाजिक तानाबाना कुछ इस कदर बुना गया है कि स्त्री का शरीर सिर्फ उस के पति के भोग के लिए है और उस का कौमार्य उस के पति की अमानत. अकसर यही पाठ हर स्त्री को पढ़ाया जाता है. यह पाठ स्त्रियों को रटारटा कर इतना कंठस्थ करा दिया जाता है कि इस लकीर से बाहर निकले कदम अपराध की श्रेणी में रख दिए जाते हैं और इस अपराध की सजा स्त्री को ताउम्र भुगतनी पड़ती है.

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राजस्थान के सांसी समुदाय में स्त्रियों की वर्जिनिटी जांचने के लिए एक अत्यंत घिनौनी प्रथा प्रचलित है, जिसे कूकड़ी प्रथा कहा जाता है. इस प्रथा के अनुसार, शादी की पहली रात को स्त्री के बिस्तर पर सफेद धागों का गुच्छा रख दिया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में कूकड़ी कहते हैं. शारीरिक संबंध बनाने के बाद बिस्तर की सफेद चादर और उस कूकड़ी की जांच होती है. यदि वह रंगदार नहीं है यानी उस में खून के धब्बे नहीं हैं तो यह माना जाता है कि स्त्री के शारीरिक संबंध शादी से पहले कहीं और स्थापित हो चुके हैं. सो, स्त्री को चरित्रहीन करार दे दिया जाता है. इसी आधार पर परिवार और समाज को उसे लांछित और प्रताडि़त करने का अधिकार भी मिल जाता है.

अमानवीयता की पराकाष्ठा यह होती है कि सुहागरात से पहले यह निश्चित किया जाता है कि कमरे में किसी तरह की कोई नुकीली या धारदार वस्तु न हो ताकि किसी तरह की चोट लगने के कारण रक्तस्राव की संभावना भी न हो. यहां तक कि लड़की के बालों से पिन तक हटा ली जाती है और उस की चूडि़यों को कपड़े से बांध दिया जाता है. इसी तरह का शुचिता परीक्षण महाराष्ट्र के कंजरभाट समाज और गुजरात के छारा समाज में भी प्रचलित है.

स्त्री साथी या संपत्ति

सदियों से यह कहावत प्रचलन में है कि संसार में लड़ाई झगड़े और युद्ध के सिर्फ 3 ही कारण होते हैं- जर, जोरू और जमीन यानी धन, स्त्री और जमीन. पति का शाब्दिक अर्थ मालिक ही होता है. इस रिश्ते से पत्नी को पति की संपत्ति माना जाता है. शायद इसी तर्क के आधार पर और महाभारत की कथानुसार युधिष्ठिर ने द्रौपदी को अपनी संपत्ति मानते हुए जुए में दांव पर लगा दिया था.

समय बेशक बदलता हुआ प्रतीत हो रहा है लेकिन परिस्थितियां आज भी कमोबेश वही हैं. आज भी स्त्री पुरुष की संपत्ति ही सम झी जाती है जिस की अपनी कोई स्वतंत्र विचारधारा नहीं हो सकती. जिस के हर व्यक्तिगत फैसले पर पुरुष की सहमति की मुहर आवश्यक सम झी जाती है. ऐसा न करने वाली स्त्रियां चरित्रहीन की श्रेणी में गिनी जाती हैं. आज भी स्त्रियों की यौनिक शुचिता को उन पर शासन करने या उन्हें नियंत्रित करने का हथियार सम झा जाता है.

अकसर 2 दलों के आपसी  झगड़े का शिकार महिलाएं बन जाती हैं. लोग अपना बदला चुकता करने के लिए एकदूसरे की बहनबेटियों से बलात्कार तक कर डालते हैं.

दंगों के दंश भी महिलाएं ही  झेलती हैं. पुरुष अपनी खी झ उतारने के लिए भी बलात्कार करते हैं मानो इस तरह वे उस स्त्री के शरीर पर नहीं बल्कि उस के पूरे वजूद पर अपना अधिकार जमा लेंगे. मुखर या हावी होती दिखती महिलाओं के साथ भी यही कुकर्म किया जाता है. मांबहन की गालियां भी तो इसी का उदाहरण हैं.

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पर कतरने की साजिश

कई कार्यालयों में जहां महिलाएं अधिक प्रतिभाशाली होती हैं, अकसर वे चारित्रिक उत्पीड़न का शिकार पाई जाती हैं. उन के सहकर्मी जब उन के द्वारा कुशलता से संपादित होने वाले कार्यों की अनदेखी कर उन का चारित्रिक मूल्यांकन करने लगते हैं तो कहीं न कहीं वे मानसिक रूप से टूटती ही हैं.

यही तो पुरुष को चाहिए. स्त्री को तोड़ कर उसे अपने अंकुश में रखना ही तो उस का ध्येय है.

इस बात में दोराय नहीं कि हर क्षेत्र में स्त्रियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. प्रतिभा यदि पुरुष से कमतर है तब तक पुरुष को उस की तारीफ से गुरेज नहीं लेकिन जहां कहीं वह पुरुष से 21 हुई, सारा बवाल शुरू हो जाता है. ऐसे अनेक उदाहरण हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं.

सीमा मेरी कालोनी में ही रहती है. पतिपत्नी दोनों सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं. सीमा अपने पति से जूनियर है, इस नाते स्कूल से संबंधित मामलों में उस की सलाह लेती रहती थी. पति का अहं संतुष्ट होता रहता था. अपनी मित्रमंडली में वह सीमा की तारीफ करते नहीं अघाता था.

पिछले साल सीमा प्रतियोगी परीक्षा पास कर के प्रधानाध्यापक क्या बन गई, एक ही  झटके में उस की सारी प्रतिभा धूल में मिल गई. सीमा को दूसरे शहर में पोस्ंिटग मिली, जो उन के घर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर था.

पहले तो उस पर रोजाना आनेजाने के लिए दबाव बनाया गया. फिर, उस के दृढ़ता से मना करने पर, उस पर जौइन न करने का दबाव बनाया गया. विरोध करने पर पति ने सीधा उस के चरित्र पर निशाना साध लिया.

‘‘होगा कोई, जिस के लिए घर छोड़ने को तैयार है ताकि जम कर मस्ती की जा सके,’’ कह कर पति ने तुरुप का पत्ता फेंक कर उस का मनोबल तोड़ने की कोशिश की.

यह तो सीमा हिम्मत वाली निकली जिस ने पति की परवा न कर अपना नया पदभार ग्रहण कर लिया वरना अधिकतर महिलाओं को तो अपने कैरियर से अधिक अपनी शुचिता ही प्यारी लगती है.

हावी है पुरातन सोच

अतिआधुनिक कहे जाने वाले आज के कितने ही युवा हैं जो अपनी पत्नियों के विवाहपूर्व प्रेम प्रसंग को सहजता से स्वीकार कर सकें? शायद, एक भी नहीं. भले ही वे स्वयं अपने प्रेम के किस्से कितना ही रस ले कर पहली रात अपनी नवविवाहिता को सुनासुना कर उस पर अपनी मर्दानगी का रोब  झाड़ें लेकिन पत्नी का किसी के प्रति एकतरफा लगाव उन्हें कतई गवारा नहीं.

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बेशक स्त्रियों को पढ़नेलिखने, घूमनेफिरने या फिर अपना मनचाहा कैरियर चुनने की आजादी मिली है लेकिन आज भी उन की कमाई पर उन्हें भी पूरा अधिकार नहीं है. अपने पर किए गए खर्च को भी उन के चरित्र से जोड़ दिया जाता है. यही कारण है कि विधवा या तलाकशुदा स्त्री का हलका सा शृंगार भी समाज की आंखों में खटकने लगता है.

एक जाल है यह

बचपन में मैं ने दादी को गाय दुहते हुए देखा है. वे गाय को दुहने से पहले एक पतली सी रस्सी से उस के दोनों पांव बांध देती थीं.

मैं कहती, ‘दादी, इतनी बड़ी गाय को इतनी पतली सी रस्सी से कैसे बांध लिया आप ने?’

तब दादी कहतीं, ‘बेटा, इसे रस्सी की आदत हो गई है. पतलीमोटी से कोई फर्क नहीं पड़ता.’

ठीक ऐसी ही आदत महिलाओं को भी हो चुकी है. अपनी शुचिता को अपनी उपलब्धि सम झने की, अपनेआप को पुरुष के संरक्षण में रखने की, पहले पिता, फिर भाई, उस के बाद पति और अंत में बेटे की. स्त्रियों के संरक्षक समाज ने तय कर दिए, वही लकीर वे आज भी पीटे जा रही हैं या यों कहें कि उन्हें इस की आदत हो गई है.

बहुत सी महिलाओं को इस में कोई बुराई भी नहीं दिखती, बल्कि उन्हें अच्छा लगता है कि कोई उन का खयाल रख रहा है. इस के पीछे छिपी गुलामी की मानसिकता उन्हें दिखाई नहीं दे रही.

आज भी कुछ खेल, कुछ प्रोफैशन महिलाओं के लिए उचित नहीं सम झे जाते, जैसे सेना, पर्वतारोहण, साइकिल चलाना आदि. वहीं, कुछ खेल और व्यवसाय महिलाओं के लिए उत्तम सम झे जाते हैं, जैसे टीचिंग, बैंक आदि.

मौजूदा दौर में हालांकि वर्जनाएं टूट रही हैं लेकिन उन का प्रतिशत उंगलियों पर गिननेभर जितना ही है.

बदलाव की बयार

फिल्में समाज का आईना सम झी जाती हैं. कुछ फिल्में वही दिखाती हैं जो समाज में घटित हो रहा है, तो कुछ फिल्मों को देख कर समाज उन का अनुसरण करता है. पुरानी फिल्में देखें तो नायिका को शुचिता की मूर्ति दिखाया जाता था. यौनिक शुद्धता इतना हावी रहता था कि नायिका के मुंह से कहलाया जाता था कि मैं ने फलां पुरुष को अपना सर्वस्व सौंप दिया है. किसी अन्य पुरुष के साथ शादी के बारे में सोचना भी अब मेरे लिए पाप है.

इसी तरह यदि किसी फिल्म में नायिका से यह कथित पाप यानी विवाहपूर्व गर्भ ठहर गया हो तो स्त्री को ही उम्रभर इस पाप को ढोते हुए दिखाया जाता था.

दूसरी तरफ, आज की फिल्में या वैब सीरीज की बात करें तो इन में विवाहपूर्व के शारीरिक संबंध बहुत ही सहज दर्शाए जा रहे हैं. इस तरह के समागम के पश्चात नायिका को किसी गिल्ट, अपराधबोध या शर्मिंदगी का एहसास नहीं होता, बल्कि वह अगली सुबह न तो शरमाती हुई उठती है और न ही लाज से उस के गाल गुलाबी होते हैं. वह आम दिनों की ही भांति सहजता से अपना दिनभर का काम निबटाती है.

यह बदलाव की ठंडी बयार सुकून देने वाली है. यदि पुरुष को इस तरह के संबंध के बाद गिल्ट नहीं है तो स्त्री ही क्यों इस गठरी को ढोए?

स्त्री अपनी ऊर्जा शुचिता को सलामत रखने में जाया नहीं करती, बल्कि ‘जो हो गया वह मेरी मरजी’ कह कर हवा में उड़ा देती है. वह अब ब्रेकअप के बाद आंसू भी नहीं बहाती. लिवइन रिलेशन के रिश्ते इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं.

आजकल शादियां देर से होती हैं और शरीर की अपनी मांग होती है. ऐसे में सिर्फ शादी के बाद पति के सामने शुचिता के सत्यापन के लिए आज की लड़कियां अपने आज के रोमांच को खत्म नहीं करना चाहतीं.

लड़कियों का बढ़ता आत्मविश्वास उन्हें हर अपराधबोध से बाहर ला रहा है. उन्हें खुल कर जीने का न्यौता दे रहा है और वे इसे स्वीकार भी कर रही हैं.

सरकार भी उन के पक्ष में कानून बना कर उन के पंखों को मजबूती दे रही है. आज महिलाएं अकेली यात्राएं कर रही हैं, अपनी संपत्ति बना रही हैं, पहाड़ों पर चढ़ रही हैं, आसमान में उड़ रही हैं, सागर की गहराई नाप रही हैं आदिआदि.

सब से बड़ी और सकारात्मक बात यह है कि बलात्कार और एसिड अटैक जैसे हादसों के बाद भी महिलाएं आज मुसकरा कर जी रही हैं, यानी, शुचिता के सत्यापन को नकार रही हैं और शुचिता की आड़ में अपने ऊपर जबरन शासन किए जाने को अस्वीकार कर रही हैं. यही बदलाव तो चाहिए था.

जानकारी: जब होटल रेड में पकड़े जाएं

यह उन दोनों के लिए वैलेंटाइन डे का खास दिन है. यह दिन उन्होंने अपने जवान जज्बातों की प्यास बुझाने के लिए चुना था. वे पूरी तरह से एकदूसरे के जिस्म में खो जाना चाहते थे. घर से दूर किसी होटल में ठहरना उन के लिए सुरक्षित था, इसलिए वे इस होटल में आए थे.

वे दोनों होटल के कमरे में घुसते हैं. लड़का लाइट जलाता है. यह पहली बार है, जब उन दोनों को इतना एकांत मिला है, जहां समाज की तिरछी निगाहें उन्हें नोटिस नहीं कर सकतीं.

वे दोनों एकदूसरे के करीब बढ़ते हैं. शुरुआत घबरा कर छूने से होती है, फिर धीरेधीरे चुंबन और फिर गले लगते हुए बिस्तर में वे एकदूसरे से लिपट जाते हैं, फिर उन की सिसकियां उन्हें और भी मदहोश करती हैं और वे एकदूसरे में पूरी गहराई से डूब जाते हैं.

तभी दरवाजे से गुस्सैल आवाज आती है, ‘‘क्या पंचायत चल रही है यहां… दरवाजा खोलो…’’ यह आवाज और भी कड़क होती जाती है, ‘‘खोलो दरवाजा… खोलो… तोड़ दो दरवाजा…’’

लड़का घबरा कर झट से उठता है. वह अपने कपड़े ढूंढ़ता है, लड़की सहमी सी एक चादर को अपने बदन पर ओढ़ लेती है.

वे दोनों संभल पाते, इस से पहले दरवाजा टूटता है और 4 पुलिस वाले कमरे के भीतर घुस जाते हैं.

‘‘क्या भसड़ मचा रखी है यहां, पूरा बाजार बना दिया है…’’ एक पुलिस वाला गुस्से से कहता है.

महिला कांस्टेबल झट से लड़की के बाल पकड़ लेती है और सीनियर पुलिस वीडियो बनाने लगता है.

‘‘नाम बोल… नाम…’’ इंस्पैक्टर लड़की पर जोर से चिल्लाता है.

लड़की डरीसहमी चुप रहती है. इतने में महिला कांस्टेबल उस के बाल जोर से खींच कर नाम बताने को कहती है.

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‘‘देवी…’’ लड़की आखिरकार अपना नाम कहती है.

‘‘तो देवी, तुम्हारी जिंदगी तो अब कंडम हो गई… कहां से आई है? मड़वाड़ी से या नेपाल से?’’

‘‘नहीं सर, आप गलत समझ रहे हैं…’’ देवी कहती है और रोने लगती है. उसे लगने लगा है कि अब सिर्फ बदनामी उस के आगे खड़ी है.

इस के आगे बताने की जरूरत नहीं कि पुलिस ने देवी और उस के परिवार को किस तरह ब्लैकमेल किया होगा.

साल 2015 में डायरैक्टर नीरज घेवाण की फिल्म ‘मसान’ में यह सारा घटनाक्रम शुरुआती 7 मिनट में घटता है. फिल्म कुछकुछ हकीकत के नजदीक दिखाई देती है.

आज के दौर में सभी अनब्याहे जोड़े अपनेअपने पार्टनर के साथ एकांत में समय बिताना चाहते हैं. इस के लिए उन्हें होटल ऐसी बेहतर जगह दिखाई देती है, जहां कोई पहचान का न हो और प्राइवेसी भी मिल जाए, पर वे इसे रिस्की भी मानते हैं. इस की वजह है पुलिस की जबतब पड़ने वाली रेड और इस से होने वाली बदनामी.

ऐसे जोड़े इस बात को ले कर काफी डरे रहते हैं कि होटल में ठहरने के दौरान अगर वहां पुलिस आ धमकती है तो वे क्या करेंगे? वे कैसे इस मामले से निबटेंगे? अगर बात घरपरिवार तक चली गई तो क्या होगा या वे पुलिस द्वारा ब्लैकमेल का शिकार तो नहीं हो जाएंगे?

खबरों में भी इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, जहां कुंआरे जोड़े पुलिस रेड के दौरान पकड़े जाते हैं और फिर किन्हीं दिक्कतों के चलते उन्हें थाने में लंबा समय बिताना पड़ जाता है. इस दौरान जिन चीजों से बचने के लिए वे होटल आए थे, वे चीजें सामने मुसीबत की तरह आ खड़ी होती हैं यानी बात घर तक पहुंच ही जाती है.

30 अगस्त को उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में भगवतीगंज शहर के एक होटल में पुलिस ने छापेमारी कर 3 कुंआरे जोड़ों को पकड़ा था. उन जोड़ों का जुर्म था कि वे अपने लिए थोड़ी प्राइवेसी चाहते थे. पुलिस उन्हें पकड़ कर थाने ले गई. पूछताछ के बाद लड़कियों को हिदायत दे कर उन के परिवार वालों के सुपुर्द कर लड़कों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर दी गई.

इसी तरह इस साल फरवरी महीने में आगरा के होटल एआर पैलेस में 9 प्रेमी जोड़ों को पुलिस ने रेड के दौरान पकड़ा. उन में कुछ छात्राएं थीं, जो अपने प्रेमियों के साथ होटल आई थीं. इन का भी यही गुनाह था कि वे अपने प्रेमियों के साथ समय बिताने आई थीं, खुल कर कहें तो सैक्स करने आई थीं. उन लड़कियों के भी परिवार वालों को थाने बुलाया गया और फिर उन के सुपुर्द किया गया.

पकड़े जाने वाले इन ज्यादातर मामलों में जो सब से बड़ी दिक्कत होती है वह यह कि ऐसे जोड़े अपनी पहचान छिपा कर या पहचान नहीं बता कर कमरा लेते हैं. बहुत से बिना रजिस्टर्ड वाले होटलों में कमरे किराए पर लेते हैं, जिस वजह से उन्हें पुलिस स्टेशन जाने की नौबत आ जाती है या धरपकड़ में वे भी धरे जाते हैं.

भारत में शादी से पहले सैक्स करना एक तरह का पाप माना जाता है. शादी से पहले सैक्स करना घर, समाज, शासन और प्रशासन के लिए इतनी बड़ी बात बन जाती है कि इस का पता चलते ही सब की जिंदगी में मानो भूचाल आ जाता है. समाज से ले कर पुलिस प्रशासन तक इसे अनैतिक मानता है, जिस का खमियाजा प्रेमी जोड़ों को भुगतना पड़ जाता है.

हालांकि, पिछले कुछ दशकों से भारत एक देश और एक समाज के रूप में तेजी से आधुनिकीकरण की ओर बढ़ रहा है, पर एक बात जो अभी भी जस की तस है वह यह कि प्यार में क्या करें व क्या न करें वाले सवाल अभी भी समाज के तथाकथित रखवालों द्वारा बनाई गई सीमाओं में ही बंधे हुए हैं.

ये वे सीमाएं हैं, जो हम ने सदियों से बनाई हैं. हाथ में हाथ डाल कर चलने वाले प्रेमी जोड़े या पार्कों में दिखने वाले जोड़े सोसाइटी को बेहद ही असहज दिखाई देते हैं. वहीं प्राइवेसी की तलाश करने के लिए अगर कोई प्रेमी जोड़ा कुछ घंटों के लिए होटल का कमरा बुक करता है, तो उसे हिकारत से देखा जाता है.

यहां तक कि सरकारी मशीनरी, जिसे इन मौकों पर समझदारी से काम लेने की जरूरत है, वह भी इन का शोषण करने वालों में शामिल होती है. यहां तक कि यह सारी सिचुएशन एक जोड़े को एहसास दिलाती है कि समाज के नजरिए से एक कुंआरे जोड़े का साथ रहना या कहीं पकड़े जाना बेहद गलत और अनैतिक है.

आज हम ऐसे जोड़ों के लिए एक बेहद जरूरी जानकारी ले कर आए हैं, जो अपने पार्टनर के साथ होटलों में जाने की इच्छा तो रखते हैं, पर वहां जाने से कतराते हैं.

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पहली बात, कुंआरे जोड़ों द्वारा कमरा किराए पर लेना भारत में अपराध नहीं है. साल 2019 के दिसंबर महीने में मद्रास हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि होटल के कमरे में रहने वाले कुंआरे जोड़े को अपराधी नहीं माना जाएगा. हाईकोर्ट ने इसे इस बात के संदर्भ में देखा कि 2 बालिगों के लिवइन रिलेशनशिप को अपराध नहीं माना जाता है तो ऐसे में होटल में रूम शेयर करने को कैसे अपराध माना जा सकता है?

यह फैसला कोयंबटूर के एक होटल को सील किए जाने के बाद आया था, जब एक कुंआरे जोड़े को उसी के एक कमरे में पाया गया था.

इस का मतलब यह है कि पुलिस के पास होटल जैसी निजी संपत्ति पर छापा मारने का अधिकार तो है, पर उन के पास एक कुंआरे जोड़े को इस आधार पर गिरफ्तार करने का हक नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट विनय कुमार गर्ग का कहना है कि कुंआरे जोड़े को एकसाथ होटल में रहने और आपसी रजामंदी से शारीरिक संबंध बनाने का मौलिक अधिकार है. हालांकि इस के लिए दोनों का बालिग होना जरूरी है.

इस बारे में सुप्रीम कोर्ट साफ कह चुका है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकार से अपनी मरजी से किसी के साथ रहने और शारीरिक संबंध बनाने का अधिकार आता है. इस के लिए शादी के बंधन में बंधना जरूरी नहीं है.

इस का एक मतलब यह हुआ कि अगर कोई बालिग जोड़ा बिना शादी किए होटल में एकसाथ रहता है, तो यह अपराध में नहीं आता.

एडवोकेट विनय कुमार गर्ग का कहना है कि होटल में ठहरने के दौरान कुंआरे जोड़े को अगर पुलिस परेशान या गिरफ्तार करती है, तो पुलिस की इस कार्यवाही के खिलाफ ऐसा जोड़ा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद 226 के तहत सीधे हाईकोर्ट जा सकता है.

आमतौर पर पुलिस ऐसे मामलों में होटल में देह धंधे के शक के चलते रेड करती है. चूंकि भारत में देह धंधा अपराध है, तो यह करना पड़ता है. पर ऐसे में अगर पुलिस किसी कुंआरे जोड़े के कमरे में आती है तो ऐसे हालात में वे अपने साथ आईडी प्रूफ जरूर रखें, ताकि पहचान हो सके और नौबत पुलिस स्टेशन जाने की न आ जाए.

घबराए नहीं, क्योंकि आप कोई जुर्म नहीं कर रहे हैं. पुलिस अगर होटल में रेड मारती है तो उसे अपना काम करने दें, क्योंकि उन पर अपराधियों को पकड़ने की जिम्मेदारी होती है. पर उस के बावजूद भी अगर पुलिस ब्लैकमेल करती हो तो बेहिचक संबंधित पुलिस वाले के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं.

होटल में रूम लेने से पहले सारी सावधानियां बरतें. कानूनी तरीके से या होटल के नियमों के हिसाब से होटल  में जाएं.

होटल रूम ऐसे बुक करें

भारत में कुंआरे जोड़ों के लिए ऐसे कई होटल हैं, जो बिना किसी परेशानी के उन्हें कमरे किराए पर देते हैं. आजकल औनलाइन होटल बुकिंग के कई सेफ तरीके आ चुके हैं. होटल के खुद के पोर्टलों से होटल बुकिंग आसान हो गई है. जब आप औनलाइन होटल का कमरा बुक करते हैं, तो प्रीबुक औप्शन चुन सकते हैं. ये पोर्टल आप को बिना असहज सवालों के बुकिंग एक्सैप्ट कर लेता है.

होटल बुक करने से पहले उस नीतियों को ध्यान से पढ़ें, क्योंकि कुछ होटल कुंआरे जोड़ों को कमरा बुक करने की इजाजत नहीं देते हैं. यह आप को होटल का चयन करते समय सतर्क रहने में मदद करेगा.

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घबराएं नहीं. खुद पर यकीन रखें. आप कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहे हैं. होटल का कमरा बुक करते समय डरें नहीं.

अपना आईडी कार्ड अपने साथ रखें. आप से चैकइन के समय केवल एक वैलिड सरकारी आईडी कार्ड होटल के मुलाजिम द्वारा मांगी जाती है. मुमकिन है कि वे लोग आईडी की स्कैन की हुई कौपी अपने पास रखेंगे और आप को ओरिजिनल डौक्युमैंट वापस कर देंगे.

ऐसा कोई कानून नहीं है, जिस में कहा गया हो कि कुंआरे जोड़े होटल का कमरा बुक नहीं कर सकते हैं. पर आप और आप के साथी की उम्र 18 साल से कम है, तो आप भारत में होटल का कमरा बुक नहीं कर सकते हैं.

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