कुशीनगर हादसा: रीतिरिवाज और बदइंतजामी की सजा

शैलेंद्र सिंह

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में शादी की एक रस्म ‘मटिकोडवा’ होती है. इस में हलदी की रस्म के बाद गांवघर की औरतें शादीब्याह के देशी गानों को गाती और डांस करती हैं.

जिस तरह से शहरों में ‘संगीत’ का कार्यक्रम होता है, वैसे परमेश्वर कुशवाहा के घर शादी में यह कार्यक्रम हो रहा था. हलदी की रस्म के बाद घर के बाहर ही नाचगाना हो रहा था. उस को देखने के लिए कुछ औरतें और जवान लड़कियां पुराने कुएं के ऊपर चढ़ गई थीं.

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वैसे तो कुएं का इस्तेमाल अब गांवों में बंद हो चुका है. ऐसे में उन के ऊपर स्लैब डाल कर उन्हें बंद कर दिया जाता है. यह स्लैब बहुत मजबूत नहीं होता है. इस की वजह यह है कि इन को दोबारा जरूरत पड़ने पर खोलने का औप्शन रखा जाता है.

कुशीनगर के नेबुआ नौरंगिया थाने के नौरंगिया गांव के स्कूल टोला में परमेश्वर कुशवाहा के घर शादी की रस्म ‘मटिकोडवा’ निभाने के दौरान हो रहे डांस को देखने के लिए बड़ी तादाद में लोग इस कुएं के स्लैब पर चढ़ गए थे. स्लैब उन का भार सहन नहीं कर पाया और टूट गया, जिस की वजह से 22 औरतें, जवान लड़कियां और किशोरियां कुएं में गिर गईं. इस दर्दनाक हादसे में 22 में से 13 जनों की मौत हो गई.

गांव के लोगों ने पुलिस की मदद से 9 औरतों और किशोरियों को बचा लिया. उत्तर प्रदेश सरकार ने कुशीनगर हादसे में मारे गए लोगों के परिवार वालों को 4-4 लाख रुपए की सहायता राशि देने की घोषणा की है.

प्रमुख शहर का हाल बेहाल

कुशीनगर इलाका गोरखपुर से 53 किलोमीटर पूर्व में बसा है. कुशीनगर से 20 किलोमीटर आगे जाने पर बिहार राज्य की सीमा शुरू हो जाती है. कुशीनगर का नाम महात्मा बुद्ध के चलते मशहूर है. यहां उन का निर्वाण हुआ था.

बौद्ध धर्म के मानने वाले महात्मा बुद्ध का ‘परिनिर्वाण दिवस’ मनाते हैं. दुनियाभर से तीर्थयात्री यहां आते हैं.

कुशीनगर प्रमुख बौद्ध पर्यटक शहरों में आता है. वर्ल्ड लैवल पर इस का नाम है. वहां अभी भी जागरूकता नहीं है. गांव के लोग यह नहीं सम?ा रहे हैं कि इस तरह की भीड़ लगाने से हादसे हो सकते हैं.

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महात्मा बुद्ध ने हमेशा हिंदू धर्म की कुरीतियों और रीतिरिवाजों का विरोध किया था. इस के बाद भी शादीब्याह के पुराने रीतिरिवाज अभी भी चल रहे हैं, जिन की वजह से ऐसे हादसे होते रहते हैं. इस हादसे में मरने वालों में बड़ी तादाद गरीब परिवारों की है.

नहीं मिली समय पर मदद

नौरंगिया गांव के लोगों ने बताया कि अगर सही समय पर इलाज और एंबुलैंस मिल जाती, तो कई और लोगों को बचाया जा सकता था. गांव के करीब के कोटवा सीएचसी पर न तो डाक्टर थे और न ही एंबुलैंस सही समय पर पहुंची.

यह घटना रात के तकरीबन साढ़े 8 बजे घटी थी. गांव के लोगों ने तुरंत ही एंबुलैंस को फोन किया कि लोग निकाले जा रहे हैं, उन को अस्पताल पहुंचाना है. इस के बाद भी एंबुलैंस नहीं आई.

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इस के बाद 9 बज कर, 10 मिनट पर और फिर साढ़े 10 बजे दोबारा फोन किया गया. रात में अंधेरा होने की वजह से बचाव और राहत कामों में मुश्किलें पैदा हुई थीं.

उत्तर प्रदेश में चुनाव का समय चल रहा है. इस वजह से मरने वालों को 4-4 लाख रुपए और घायलों को 50-50 हजार रुपए की मदद देने की घोषणा आननफानन में हो गई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने शोक संदेश जारी कर दिए.

अगर उत्तर प्रदेश सरकार के दावे के मुताबिक 10 से 20 मिनट में एंबुलैंस लोगों को मिल रही है, तो यहां वह देर से कैसे पहुंची? योगी सरकार के विकास का दावा यहां फेल होता दिखा.

6 टिप्स: छोटे घर में कैसे बढ़ाएं भाई-बहन का प्यार

परिवार एक एकल इकाई है, जहां पेरैंट्स और बच्चे एकसाथ रहते हैं. इन्हें प्रेम, करुणा, आनंद और शांति का भाव एकसूत्र में बांधता है. यही उन्हें जुड़ाव का एहसास प्रदान करता है. उन्हें मूल्यों की जानकारी बचपन से ही दी जाती है, जिस का पालन उन्हें ताउम्र करना पड़ता है. जो बच्चे संयुक्त परिवार के स्वस्थ और समरसतापूर्ण रिश्ते की अहमियत समझते हैं, वे काफी हद तक एकसाथ रहने में कामयाब हो जाते हैं.

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साथ रहने के फायदे

बच्चों के साथ जुड़ाव और बेहतरीन समय बिताने से हंसीठिठोली, लाड़प्यार और मनोरंजक गतिविधियों की संभावना काफी बढ़ जाती है. इस से न सिर्फ सुहानी यादें जन्म लेती हैं बल्कि एक स्वस्थ पारिवारिक विरासत का निर्माण भी होता है.

इस का मतलब यह नहीं है कि हमेशा ही सबकुछ ठीक रहता है. एक से अधिक बच्चों वाले घर में भाईबहनों का प्यार और उन की प्रतिद्वंद्विता स्वाभाविक है. कई बार स्थितियां मातापिता को उलझन में डाल देती हैं और वे अपने स्तर पर स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं तथा घर में शांतिपूर्ण स्थिति का माहौल बनाते हैं.

कम जगह में आपसी प्यार बढ़ाने के खास टिप्स बता रही हैं शैमफोर्ड फ्यूचरिस्टिक स्कूल की फाउंडर डायरैक्टर मीनल अरोड़ा :

व्यक्तिगत स्वतंत्रता की व्यवस्था :

प्रत्येक बच्चे के लिए एक कमरे में व्यक्तिगत आजादी का प्रबंध करने से उन में व्यक्तिगत जुड़ाव की भावना का संचार होता है. प्रत्येक बच्चे के सामान यानी खिलौनों को उस के नाम से अलग रखें और उस की अनुमति के बिना कोई छू न सके. बच्चों में स्वामित्व की भावना परिवार से जुड़ने के लिए प्रेरित करती है जिस से अनेक सकारात्मक परिवर्तन होते हैं. कमरे को शेयर करने के विचार को दोनों के बीच आकर्षक बनाएं.

नकारात्मक स्थितियों से बचाएं बच्चों को :

भाईबहनों में दृष्टिकोण के अंतर के कारण आपस में झगड़े होते हैं. इस के कारण वे कुंठा को टालने में कठिनाई महसूस करते हैं और किसी भी स्थिति में नियंत्रण स्थापित करने के लिए झगड़ते रहते हैं, आप अपने बच्चों को ऐसे समय इस स्थिति से दूर रहने के लिए गाइड करें.

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हमें अपने बच्चों को झगड़े की स्थिति को पहचानने में सहायता करनी चाहिए और इसे शुरू होने के पहले ही समाप्त करने के तरीके बताने चाहिए.

व्यक्तिगत सम्मान की शिक्षा दें :

प्रत्येक व्यक्ति का अपना खुद का शारीरिक और भावनात्मक स्थान होता है, जिस की एक सीमा होती है, उस का सभी द्वारा सम्मान किया जाना चाहिए. बच्चों को समर्थन दे कर उन की सीमाओं को मजबूत करें.

उन्हें दूसरे बच्चों की दिनचर्या और जीवनशैली का सम्मान करने की शिक्षा भी दें. यदि दोनों भाईबहन पहले से निर्धारित सीमाओं से संतुष्ट हैं तो उन के बीच पारस्परिक सौहार्द बना रहता है.

क्षतिपूर्ति सुनिश्चित करें :

कभी ऐसा भी समय आता है, जब एक बच्चा दूसरे बच्चे की किसी चीज को नुकसान पहुंचा देता है या उस से जबरन ले लेता है. ऐसे में पेरैंट्स को चाहिए कि जिस बच्चे की चीज ली गई है उस बच्चे की भावनाओं का खयाल कर उस के लिए नई वस्तु का प्रबंध करें और गलत काम करने वाले बच्चे को उस की गलती का एहसास करवाएं.

इस से परिवार में अनुशासन और ईमानदारी सुनिश्चित होगी. इस से भाईबहनों को भी यह एहसास होता है कि पेरैंट्स उन का खयाल रखते हैं और घर में न्याय की महत्ता बरकरार है.

चरित्र निर्माण में सहयोग :

एकदूसरे के नजदीक रहने से दूसरे के आचारव्यवहार पर निगरानी बनी रहती है. किसी की अवांछनीय गतिविधि पर अंकुश लगा रहता है. यानी कि बच्चा चरित्रवान बना रहता है. किसी समस्या के समय दूसरे उस का साथ देते हैं. दूसरी और, सामूहिक दबाव भी पड़ता है और बच्चा गलत कार्य नहीं कर पाता. अत: मौरल विकास अच्छा होता है.

बच्चे की जागरूकता की प्रशंसा करें :

यदि कोई बच्चा समस्या के समाधान की पहल करता है और नकारात्मक स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करता है तो उस की प्रशंसा करें.

समस्या के समाधान के सकारात्मक नजरिए को सम्मान प्रदान करें, क्योंकि इस से उस का बेहतर विकास होगा और वह परिपक्वता की दिशा में आगे बढ़ेगा. प्रोत्साहन मिलने से हम अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होते हैं.

इस से बच्चों को अपनी उपलब्धियों पर गर्व का एहसास होगा और वे इस स्वभाव को दीर्घकालिक रूप से आगे बढ़ाएंगे. हमेशा बच्चे द्वारा नकारात्मक स्थिति में सकारात्मक समाधान तलाशने के प्रयास की प्रशंसा करें.

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याद रखें इन नुस्खों को अपना कर आप अपने बच्चों को संभालने में आसानी महसूस करेंगे. भाईबहन एकदूसरे के पहले मित्र और साझीदार होते हैं, जो एक सुंदर व स्वस्थ समरसता को साझा करते हैं, इस से कम जगह में भी पूरा परिवार खुशीखुशी जीवन व्यतीत कर सकता है.

बलात्कार के बाद जन्मा बच्चा नाजायज और बोझ क्यों?

वाकिआ 9 नवंबर, 2016 का है. मध्य प्रदेश के खंडवा जिला अस्पताल में 16 साला कल्पना (बदला नाम) ने एक बच्ची को जन्म दिया, लेकिन उसे अपनाने से इनकार कर दिया और अपने मांबाप के साथ घर लौट गई.

वह नवजात बच्ची जिला अस्पताल में बिन मां के रही, बाद में उसे बच्चों की परवरिश करने वाली एक संस्था को सौंप दिया गया. कल्पना एक साल पहले मांबाप के साथ अपने गांव सिंगोट से महाराष्ट्र गई थी, जहां उस के मांबाप मजदूरी कर पेट पालते थे.

एक दिन पड़ोस में ही रहने वाले सतीश नाम के नौजवान ने उस का बलात्कार किया, जिस से वह पेट से हो गई. सतीश ने उसे सख्त लहजे में धौंस दी थी कि अगर बलात्कार की बात किसी को बताई, तो वह उस के छोटे भाई को जान से मार डालेगा.

यह बात सुन कर कल्पना डर गई और किसी को नहीं बताया, लेकिन जब उस के पेट से होने की बात उजागर हुई, तो बात छिपी नहीं रह सकी. उस ने वापस खंडवा आ कर सच बताया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और बच्चा गिराया नहीं जा सकता था.

बच्ची के पैदा होने पर हकीकत पता चली, तो पुलिस ने सतीश को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. बलात्कार से पैदा हुई बच्ची से कल्पना का कोई मतलब नहीं, जो बच्चा पालने वाली संस्थाओं में जैसेतैसे पल तो जाएगी, लेकिन उस का कोई भविष्य नहीं है, जबकि उस के मांबाप दोनों जिंदा हैं. ऐसे में कानूनी पेचीदगियों के चलते उसे आसानी से किसी जरूरतमंद मियांबीवी को गोद भी नहीं दिया जा सकता.

क्या करती कल्पना

 क्या कल्पना ने गलत किया? इस सवाल पर बहस की गुंजाइशें मौजूद हैं, जो एक हद तक उस के हक में ही जाती हैं कि एक नाबालिग, कम पढ़ीलिखी लड़की कैसे एक दुधमुंही बच्ची को पालती, जो खुद अपना पेट पालने के लिए अपने मांबाप की मुहताज है?

यह गलती कल्पना की गरीबी के अलावा सामाजिक हैसियत के साथसाथ हवस के मारे सतीश की ज्यादा थी, जिस ने कल्पना की मजबूरी का फायदा उठाया और उसे जिंदगीभर के लिए जिस्मानी व दिमागी तकलीफ भोगने के लिए मजबूर कर दिया.

समाज ऐसे पैदा हुए बच्चों को किस नजरिए से देखता है, यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि उसे नाजायज कहा जाता है. जाहिर है, ऐसे में कल्पना के कान ताने सुनसुन कर पक जाते और उस का इज्जत और सुकून से जीना दूभर हो जाता, क्योंकि यह नाजायज बच्ची एक ऐसे ढोल की तरह उस के गले में पड़ी रहती, जिसे लोग अपना दिल बहलाने के लिए बजाते रहते.

अब कुछ साल बाद मुमकिन है कि कल्पना की शादी कहीं हो जाए. यह हालांकि मौके की बात है कि बात छिपी रहे और कोई दरियादिल नौजवान सच जानने के बाद उसे जीवनसाथी बनाने को तैयार हो जाए.

अगर ऐसा हुआ तो कल्पना का भविष्य तो संवर जाएगा, पर वह बेगुनाह बच्ची जिंदगीभर एक ऐसे जुर्म की सजा भुगतती रहेगी, जो उस ने किया ही नहीं था. वह तो एक जुर्म की उपज थी.

हालांकि मुमकिन यह भी है कि उसे भी कोई जरूरतमंद मियांबीवी गोद ले लें, उस की अच्छी परवरिश करें, तालीम दिलाएं और अपना नाम दें, पर इस से बलात्कार से पैदा हुए बच्चों की दिनोंदिन बढ़ती परेशानियां सुलझने वाली नहीं, क्योंकि देश में हर साल घूरों, डस्टबिनों, बसअड्डों और रेलवे स्टेशनों पर लाखों नाजायज बच्चे मरे हुए मिलते हैं.

हिम्मती पार्वती

 उस के उलट एक मामला दिल्ली के पौश इलाके का है, जहां पढ़ेलिखे और सुलझे दिलोदिमाग वाले लोग रहते हैं.  ऐसी ही एक कालोनी में तकरीबन 15 साल पहले पार्वती (बदला नाम) अपनी दुधमुंही बच्ची को ले कर आई थी और काम की तलाश में भटक रही थी.

पार्वती की दिक्कत कल्पना सरीखी ही थी. उस की बच्ची के बाप का कोई अतापता नहीं था. दिल्ली जैसे बड़े शहर में बच्ची को गोद में लटकाए वह काम की तलाश में घूमती रही और कामयाब भी रही. अच्छी बात यह थी कि यहां लोग कुरेदकुरेद कर बच्ची के पिता के बारे में नहीं पूछते थे.

एक साहब ने उसे सहारा दिया, तो पार्वती की जिंदगी ढर्रे पर आ गई. वह घरों में काम करने लगी और बच्ची धीरेधीरे बड़ी होती गई. अब वह बच्ची 12 साल की है और कोई पार्वती से यह नहीं पूछता कि उस का बाप कौन है.

पार्वती के साथ बलात्कार हुआ था या उस ने प्यार में धोखा खाया था, ये बातें उतनी अहम नहीं हैं, जितनी यह कि वह अपनी गुजरी जिंदगी के हादसे को भूल कर बच्ची की बेहतर परवरिश कर रही है और खुश है.

पार्वती की हिम्मत तो दाद देने के काबिल है ही, पर तारीफ उन लोगों की भी करना जरूरी है, जिन्होंने पार्वती के गुजरे कल से वास्ता न रखते हुए बच्ची को पालने में उस की मदद की.

दरअसल, कल्पना और पार्वती थीं तो एक ही हादसे की शिकार, पर उन्हें माहौल अलगअलग मिला था. कल्पना उस समाज में रहती थी, जहां बलात्कार से पैदा हुए बच्चे को हिकारत से देखा जाता है, साथ ही, पीडि़ता को किसी भी लैवल पर नहीं बख्शा जाता.

इस के उलट पार्वती को उन लोगों का सहारा मिल गया था, जो ऐसे हादसों को अपने एक अलग नजरिए से देखते हैं और कोई भेदभाव न रखते हुए हमदर्दी और इनसानियत से पेश आते हुए किसी की जिंदगी संवारने में अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं.

क्या कहता है कानून

बलात्कार से पैदा हुए बच्चों के बारे में अब अदालतें भी पीडि़ता और बच्चे से हमदर्दी रखने लगी हैं, क्योंकि इस में उन की कोई गलती नहीं होती है.

13 दिसंबर, 2016 को दिल्ली हाईकोर्ट ने एक चर्चित मुकदमे में फैसला सुनाते हुए कहा था कि बलात्कार से जन्म लेने वाली औलाद निश्चित रूप से अपराधी के गंदे काम की उपज है और वह उस की मां को मुआवजे में मिली रकम से अलग मुआवजे की हकदार है.

इस मामले में एक पिता ने अपनी नाबालिग सौतेली बेटी से बलात्कार किया था, जिस पर उसे अदालत ने कुसूरवार पाए जाने पर उम्रकैद की सजा सुनाई थी. लेकिन बच्ची का क्या होगा, इस पर जस्टिस गीता मित्तल और जस्टिस आरके गाबा की बैंच ने उस बच्ची के भविष्य के बाबत अलग से मुआवजे की बात कही है.

ऐसे ही एक मामले में 4 नवंबर, 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी कहा था कि बलात्कार से पैदा हुई औलाद अपने असल पिता यानी बलात्कारी की जायदाद में बतौर वारिस हकदार होगी.

तब जस्टिस शबीहुल हसनैन और जस्टिस डीके उपाध्याय की बैंच ने पहल करते हुए यह हिदायत दी थी कि बलात्कार से पैदा हुई औलाद को दुराचारी की नाजायज औलाद माना जाएगा और उस का पिता की जायदाद पर हक होगा.

अदालत ने अपने फैसले में यह भी जोड़ा था कि अगर कोई और ऐसे बच्चे को गोद ले लेता है, तो उस का अपने असल पिता की जायदाद में कोई हक नहीं रह पाएगा.

इस मामले में भी गरीब परिवार की एक 13 साला लड़की साल 2015 की शुरुआत में बलात्कार के चलते पेट से हो गई थी. घर वालों को जब इस बात का पता चला, तब तक सुरक्षित गर्भपात की मीआद यानी 21 हफ्ते से ज्यादा का वक्त बीत चुका था.

हालांकि लड़की के घर वालों ने बच्चा गिराने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था और लड़की का कहना यह था कि वह अपने साथ हुए इस बलात्कार के भयावह हादसे की निशानी को साथ ले कर नहीं जी सकती. आखिरकार उसे बच्चे को जन्म देना ही पड़ा, पर बच्चे को साथ रखने से उस ने भी इनकार कर दिया था.

तो क्या करें

हालांकि कानून अब बलात्कार से पैदा हुए बच्चों से हमदर्दी दिखा रहा है और बलात्कारी की जायदाद में से हिस्सा दिलाने की भी बात कर रहा है. पर उस समाज का नजरिया बदलने का कोई जरीया उस के पास भी नहीं है, जहां रह कर पीडि़ता और बच्चे को जिंदगी गुजारनी होती है.

ऐसे में बलात्कार से मां बनी ये लड़कियां क्या करें? कल्पना की तरह अस्पताल में बच्चा छोड़ कर कहीं भाग जाएं या पार्वती की तरह हिम्मत दिखाते हुए हालात से लड़तेजूझते उस की परवरिश करें, उसे मां का प्यार दें, उस की जिंदगी बचाएं. इन में से कोई एक रास्ता पीडि़ता को चुनना पड़ता है. ज्यादातर पीडि़ता कल्पना वाला रास्ता चुनने को मजबूर रहती हैं.

पर अब समाज का नजरिया बदल रहा है, इसलिए पीडि़ता को हिम्मत न हारते हुए बच्चे की परवरिश करना ही एक बेहतर उपाय है.

यह हालांकि बेहद मुश्किल भरा काम है, लेकिन नामुमकिन नहीं है, इसलिए बच्चे को दूर ले जा कर परवरिश करना एक कारगर उपाय है.

पर इस के लिए जरूरत हिम्मत और दिमाग के साथसाथ हमदर्दी हासिल करने की होती है, जो अकसर बड़ी कालोनियों के बड़े लोगों से मिल जाती है, लेकिन अपने माहौल और समाज के लोगों से नहीं मिलती.

प्यार में धोखा खाई लड़कियां भी कई दफा इसी तरह मां बन जाती हैं. हर कहीं ऐसी पीडि़ताएं मिल जाती हैं और अखबारों की सुर्खियां भी बनती हैं.

ऐसा जमाने से होता चला आ रहा है कि वासना के मारे मर्द गरीब लड़की जो अकसर छोटी जाति की होती थी, को अपनी हवस का शिकार बना कर उन्हें मां बना देते थे और अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेते थे.

अब जमाना लोकतंत्र का है और कानून ऐसी पीडि़ताओं के साथ है, जो पीडि़ता और बच्चे को हक भी दिलाता है. ऐसे में समाज भी लड़की की बेगुनाही समझते हुए उसे इज्जत से रहने दे, तो 2 जिंदगियां संवर सकती हैं, जो आम लोगों की तरह इज्जत से जीने की हकदार होती है.

कई हिंदी फिल्मों में इस बात को फिल्माया गया है कि कैसे हीरो हीरोइन को धोखा देता है और मां बना कर मुंह छिपा कर भाग जाता है. बाद में हीरो बड़ा हो कर अपने नाजायज बाप से अपनी मां के साथ हुई ज्यादती का बदला लेता है.

अमिताभ बच्चन की हिट फिल्में ‘त्रिशूल’ और ‘लावारिस’ भी इसी मुद्दे पर बनी थीं. लेकिन वे फिल्में थीं, जिन का हकीकत में एक हद तक ही लेनादेना होता है, इसलिए नजरिया आम लोगों को ही बदलना होगा कि बलात्कार के मामलों में लड़की या बच्चे का क्या कुसूर? वे गुनाहगार या नाजायज क्यों?

कोई जायज पिता बच्चे पैदा कर अपनी जिम्मेदारियों से मुकर जाए, तो भी औरत को बच्चे की परवरिश करनी पड़ती है, ताने सुनने पड़ते हैं और तरहतरह की ज्यादतियां सहन करनी पड़ती हैं. जब उन के बच्चे नाजायज नहीं, तो बलात्कार पीडि़ता के बच्चे नाजायज क्यों?

बुराई: नहीं रुक रहा दलितों पर जोर जुल्म का सिलसिला

वेणीशंकर पटेल ‘ब्रज’

23 जनवरी, 2022 को मध्य प्रदेश के सागर जिले के बंडा पुलिस थाना क्षेत्र के गांव गनिहारी में दिलीप कुमार अहिरवार की बरात धूमधाम से निकल रही थी कि गांव के दबंगों को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने दलित परिवार की शादी में आए मेहमानों की गाडि़यों पर पथराव कर दिया. बाद में भीम आर्मी और पुलिस के दखल से मामले को रफादफा कराया गया.

मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में जुलाई, 2019 में ग्राम पंचायत मस्तापुर के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल में अनुसूचित जाति, जनजाति के बच्चों को हाथों में मिड डे मील दिया जा रहा था.

बच्चों ने अपनी आपबीती महकमे के अफसरों को बता कर कहा कि स्कूल में भोजन देने वाले स्वयंसहायता समूह में राजपूत जाति की औरतों को रसोइया रखने के चलते वे निचली जाति के लड़केलड़कियों से छुआछूत रखती हैं और उन्हें हाथ में खाना परोसा जाता है. अगर वे अपने घर से थाली ले जाते हैं, तो उन थालियों को बच्चों को खुद ही साफ करना पड़ता है.

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इसी तरह अगस्त, 2019 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के रामपुर प्राइमरी स्कूल में एक चौंकाने वाला मामला सामने आया था. वहां पर स्कूल में बच्चों को दिए जाने वाले मिड डे मील में जातिगत भेदभाव के चलते दलित बच्चों को ऊंची जाति के दूसरे बच्चों से अलग बैठा कर भोजन दिया जाता था.

रामपुर के प्राइमरी स्कूल में कुछ ऊंची जाति के छात्र खाना खाने के लिए अपने घरों से बरतन ले कर आते थे और वे अपने बरतनों में खाना ले कर एससी, एसटी समुदाय के बच्चों से अलग बैठ कर खाना खाते थे.

दलितपिछड़ों की हमदर्द बनने का ढोंग करने वाली सरकारें पीडि़त लोगों को केवल मुआवजे का ?ान?ाना हाथ में थमा देती हैं.

सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और माली रूप से दलितों पर जोरजुल्म कर बाद में केवल मुआवजा दे कर उन के जख्म नहीं भर सकते. ऐसे में किस तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि आजादी के 74 साल बाद भी अंबेडकर के संविधान की दुहाई देने वाला भारत छुआछूत मुक्त हो पाएगा?

समाज के ऊंचे तबके के लोग आज भी दलितों का मानसिक और शारीरिक शोषण कर उन के हितों से उन्हें वंचित करने का काम कर रहे हैं. गांवदेहात के दलित बेइज्जती और जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर हैं.

सुनिए दलितों की आपबीती

जातिगत भेदभाव किस तरह दलित तबके के लोगों को मानसिक चोट देता है, इस का आकलन सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर राघवेंद्र चौधरी की आपबीती से किया जा सकता है.

वे अपनी जिंदगी में घटित किस्सा सुनाते हुए कहते हैं, ‘‘बात उस समय की है, जब मैं 12वीं जमात में पढ़ता था. सरकार की तरफ से 1,100 रुपए का स्कौलरशिप का चैक मुझे मिलना था. अपने दोस्तों के साथ मई के महीने में मैं चैक लेने स्कूल पहुंचा, तो वहां टीचर चैक बांट रहे थे.

‘‘मेरे सभी दोस्तों को चैक मिलने के बाद मु?ो भी चैक देते हुए टीचर बोले कि वाउचर पर पावती के दस्तखत करो, तो मैं ने दस्तखत अंगरेजी में कर दिए. वे बोले कि अपना पूरा नाम लिखो.

‘‘मैं ने अपना नाम लिख दिया. फिर वे बोले कि वह लिखो, जिस के लिए चैक मिल रहा है. मैं सम?ा रहा था कि सर मेरी मूल जाति लिखवाना चाह रहे हैं. फिर उन्होंने गुस्से से तमतमाते हुए अपनी जाति को दोहराया और लिख दिया.

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‘‘जब मेरी नौकरी साल 2003 में संविदा शिक्षक के तौर पर लगी थी, तब वेतन मिलता था 2,500 रुपए. वह भी 3-4 महीने बाद मिलता था. उसी दौरान एक बार मां के बीमार पड़ने पर इलाज के लिए पैसों की जरूरत थी.

‘‘साथी टीचरों से उधार मांगा, तो उन के पास भी पैसे नहीं थे. उन्होंने कहा कि यार, तुम को तो पता है कि 4 महीने से वेतन नहीं मिला.

‘‘फिर हमारे एक साथी शिक्षक ने कहा, ‘घर में कोई सोनेचांदी का गहना हो, तो सुनार के पास गिरवी रख कर मां का इलाज करा लो, जब वेतन मिलेगा तो छुड़ा लेना.’

‘‘मैं ने कहा कि चलो ऐसा ही करते हैं. हम दोनों मां के गले की माला ले कर एक सुनार की दुकान पर पहुंचे. उस ने कहा कि इस को गिरवी रख कर

700 रुपए मिल जाएंगे. मु?ो पैसों की सख्त जरूरत थी. हम दोनों वह माला रखने के लिए राजी हो गए.

‘‘मुनीम ने नाम पूछा. मैं ने अपना नाम बताया. फिर उस ने जाति पूछी. मैं ने अपनी जाति बताई. मेरी जाति सुन कर मुनीम की कलम रुक गई. वह बोला कि आप सेठजी से बात कर लीजिए. सेठजी से मेरे साथी शिक्षक ने बात की, तो उन्होंने कहा कि हमारी दुकान में इस जाति के लोगों का सामान गिरवी नहीं रखते. बाद में मैं ने अपने कुछ दोस्तों की मदद से अपनी मां का इलाज कराया.’’

राजनीति में भी छुआछूत

भले ही हम आधुनिक होने के कितने ही दावे कर लें, मगर दकियानूसी खयालों और परंपराओं से हम बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. आज भी समाज के एक बड़े तबके में फैली छुआछूत की समस्या कोरोना जैसी बीमारी से कम नहीं है.

छुआछूत केवल गांवदेहात के कम पढ़ेलिखे लोगों के बीच की ही समस्या नहीं है, बल्कि इसे शहरों के सभ्य और पढ़ेलिखे माने जाने वाले लोग भी पालपोस रहे हैं. सामाजिक बराबरी का दावा करने वाले नेता भी इन दकियानूसी खयालों से उबर नहीं पाए हैं.

जून, 2020 के आखिरी हफ्ते में मध्य प्रदेश में सोशल मीडिया पर एक खबर ने सियासी गलियारों में हलचल मचा दी. रायसेन जिले के एक कद्दावर भाजपा नेता रामपाल सिंह के घर पर हुए किसी कार्यक्रम का फोटो वायरल हो रहा है, जिस में भारतीय जनता पार्टी के नेता स्टील की थाली में और डाक्टर प्रभुराम चौधरी डिस्पोजल थाली में एकसाथ खाना खाते दिखाई दे रहे थे.

ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस का दामन छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए मंत्री बने डाक्टर प्रभुराम चौधरी अनुसूचित जाति से आते हैं.

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सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे इस फोटो में कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए डाक्टर प्रभुराम चौधरी, सिलवानी के भाजपा विधायक रामपाल सिंह, सांची के भाजपा विधायक सुरेंद्र पटवा और भाजपा के संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी के साथ भोजन करते हुए दिखाई दे रहे थे.

इस में भाजपा के संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी स्टील की थाली में भोजन खाते हुए दिखाई दे रहे थे, लेकिन उन के सामने बैठे डाक्टर प्रभुराम चौधरी डिस्पोजल थाली में खाना खा रहे थे.

समाज में जातिगत भेदभाव कोई नई बात नहीं है. देश के अलगअलग इलाकों में दलितों से छुआछूत रखने और उन पर जोरजुल्म करने की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं.

आज भी गांवकसबों के सामाजिक ढांचे में ऊंची जाति के दबंगों के रसूख और गुंडागर्दी के चलते दलित और पिछड़े तबके के लोग जिल्लत भरी जिंदगी जी रहे हैं.

गांवों में होने वाली शादी और रसोई में दलितों को खुले मैदान में बैठ कर खाना खिलाया जाता है और खाने के बाद अपनी पत्तलें उन्हें खुद उठा कर फेंकनी पड़ती हैं.

टीचर मानकलाल अहिरवार बताते हैं कि गांवों में मजदूरी का काम दलित और कम पढ़ेलिखे पिछड़ों को करना पड़ता है. दबंग परिवार के लोग अपने घर के दीगर कामों के अलावा अनाज बोने से ले कर फसल काटने तक के सारे काम उन से कराते हैं और बाकी मौकों पर छुआछूत रखते हैं. यह छुआछूत बनाए रखने में पंडेपुजारी धर्म का डर दिखाते हैं.

ऊंची जाति के दबंग दिन के उजाले में दलितों को अछूत मानते हैं और मौका मिलने पर रात के अंधेरे में उन की बहनबेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं. यही हाल अपनेआप को श्रेष्ठ सम?ाने वाले पंडितों का भी है, जो दिन में तो कथा, पुराण सुनाते हैं और रात होते ही शराब की बोतलें खोलते हैं.

बढ़ रहे जोरजुल्म के मामले

अभी हाल ही में मध्य प्रदेश के राज्यपाल मंगूभाई पटेल की अध्यक्षता में हुई एससीएसटी अत्याचार निवारण अधिनियम की समीक्षा बैठक में अधिकारियों ने जो आंकड़े रखे, वे बेहद ही चौंकाने वाले हैं.

जनवरी से दिसंबर, 2021 तक अकेले मध्य प्रदेश में एससीएसटी समुदाय पर इस अधिनियम के तहत 10,081 मामले दर्ज किए गए, जो पिछले सालों की तुलना में ज्यादा थे. ये आंकड़े सरकार के उन दावों की पोल खोलते नजर आ रहे हैं, जिस में सरकार दलितों के संरक्षण की बात करती है.

इसी तरह 25 सितंबर, 2019 में मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के भावखेड़ी गांव में 2 दलित मासूम बच्चों की हत्या गांव के दबंगों ने लाठियों से पीटपीट कर इसलिए कर दी, क्योंकि ये मासूम पंचायत भवन के सामने खुले में शौच कर रहे थे.

दलित तबके के मनोज बाल्मीकि के 10 साल के बेटे अविनाश और उस की 13 साल की बहन रोशनी मुंहअंधेरे शौच के लिए निकले थे. गांव के दबंग रामेश्वर और हाकिम यादव ने उन को खुले में शौच करते देखा, तो गुस्से में लाठियों से इस कदर पीटा कि उन की मौके पर ही मौत हो गई.

यह घटना दलितों पर सदियों से होते आ रहे जोरजुल्म की अकेली कहानी नहीं है, बल्कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की असलियत भी बयान करती है.  देश में गरीबों के घर में शौचालय बनवाने के नाम पर करोड़ोंअरबों रुपए खर्च करने के बाद भी उन के हिस्से में शौचालय नहीं आया है.

आएगा भी कैसे…? जब तक अगड़ी जातियों के ये दबंग, पिछड़ों और दलितों के हक पर अपनी दबंगई के दम पर डाका डालते रहेंगे, तब तक लालकिले की प्राचीर से गरीबों के कल्याण के लिए कही गई बातें जुमलेबाजी ही साबित होती रहेंगी.

ये बाल्मीकि समाज के वही लोग हैं, जो दबंगों के घरों के शौचालयों की साफसफाई का काम करते हैं. 21वीं सदी के युग में भी गांव के ये दबंग पुरानी वर्ण व्यवस्था के मुताबिक यही चाहते हैं कि दलित जाति के ये लोग उन के सेवक बन कर जीहुजूरी करते रहें.

मारे गए बच्चों के पिता मनोज बाल्मीकि ने कहा कि उन के 5 भाइयों के परिवार में किसी के पास शौचालय नहीं है. भावखेड़ी ग्राम पंचायत ने उन्हें शौचालय के साथ एक घर की मंजूरी दी थी, लेकिन आरोपियों के परिवार का एक सदस्य गांव की पंचायत का मुखिया था और उस ने यह होने नहीं दिया.

मनोज ने आगे कहा, ‘‘सुबह के साढ़े 6 बजे मेरा ऐकलौता बेटा और उस की बहन शौच करने गए थे, तभी अपने हैंडपंप के पास खड़े रामेश्वर और हाकिम दोनों बच्चों पर चिल्लाए और उन पर लाठी से वार करने लगे, जिस से दोनों बच्चों की वहीं मौत हो गई.

‘‘2 साल पहले सड़क किनारे एक पेड़ से शाखा तोड़ने पर आरोपियों से मेरी तीखी बहस हुई थी. इस पर उन्होंने जातिसूचक गाली देते हुए जान से मारने की धमकी भी दी थी.

‘‘गांव के ये लठैत चाहते हैं कि हम उन के यहां बंधुआ मजदूर बन कर रहें. इन दबंगों के डर से गांव के सरपंच सचिव को शौचालय बनवाने के लिए आवेदन देने के बावजूद भी न तो मेरे परिवार को शौचालय बनवाने का पैसा मिला और न ही किसी दूसरी सरकारी योजना का लाभ.’’

इन लठैतों के डर से गांव के हैंडपंप पर जब तक इन दबंगों के घर के लोग पानी नहीं भर लेते हैं, तब तक इन गरीबों को पीने का पानी भरने का मौका नहीं मिलता है.

ज्योतिबा फुले से सबक लें

भगवा सरकार हिंदूमुसलिम का भेद करा के कट्टरवादी हिंदुत्व की हिमायती तो बनती है, पर हिंदुओं के बीच ही जातिवाद की दीवार तोड़ने और दलितपिछड़े तबके के लोगों पर दबंग हिंदुओं के द्वारा किए जाने वाले जोरजुल्म पर चुप्पी साधे रहती है.

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के पेशे से वकील मनीष अहिरवार कहते हैं कि इनसानों का दूसरे इनसान के साथ गुलामों की तरह बरताव सभ्यता के सब से शर्मनाक अध्यायों में से एक है. लेकिन अफसोस कि यह शर्मनाक अध्याय दुनियाभर की तकरीबन सभी सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है. भारत में जातिप्रथा के चलते पैदा हुआ भेदभाव आज तक बना हुआ है.

कम पढ़ेलिखे दलित समाज के नौजवान आज भी पंडेपुजारियों की बातों को मान कर हजारों रुपए खर्च कर के कांवड़ यात्रा, कथा, प्रवचन और भंडारे में बरबाद करते हैं. कमोबेश पढ़ेलिखे लोग भी इन आडंबरों से दूर नहीं हैं.

मनीष अहिरवार आगे कहते हैं कि एक बार वे महज 150 रुपए खर्च कर के ज्योतिबा फुले की पुस्तक ‘गुलामगीरी’ पढ़ लें तो उन की आंखों के चश्मे पर पड़ी धूल साफ हो जाएगी. 1873 में लिखी गई इस किताब का मकसद दलितपिछड़ों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण वर्ग की उच्चता के ?ाठे दंभ से परिचित कराना था.

इस किताब के माध्यम से ज्योतिबा फुले ने दलितों को हीनताबोध से बाहर निकाल कर आत्मसम्मान से जीने के लिए भी प्रेरित किया था. इस माने में यह किताब काफी खास है कि यहां इनसानों में परस्पर भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कठघरे में खड़ा किया गया है.

अंगरेजों के शासन से मुक्ति की इच्छा और संघर्ष के बारे में हमें बहुतकुछ पता है, लेकिन यह भी पता होना चाहिए कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देश का एक बड़ा दलित तबका, अंगरेजों को ब्राह्मणशाही से मुक्तिदाता के तौर पर भी देख रहा था.

भीमराव अंबेडकर और ज्योतिबा फुले जैसे करोड़ों भारतीयों के लिए जातिगत गुलामी का दंश इतना गहरा था कि इस के सामने वे राजनीतिक गुलामी को कुछ नहीं सम?ाते थे.

जिस तरह किसान आंदोलन ने सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर के सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया, उसी तरह दलितपिछड़ों को भी अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट होना होगा.

दलितपिछड़े नौजवानों को पंडे और पुजारियों की कपोलकल्पित बातों से दूर रह कर केवल सेवक नहीं शासक बनने की दिशा में भी कदम बढ़ाने होंगे, तभी उन पर होने वाले जुल्म कम होंगे और छुआछूत का यह कलंक समाज से दूर होगा.

Women’s Day: मर्द की मार सहे या घर छोड़ दे औरत?

लेखक- धीरज कुमार

माला का पति महेश रोज शराब पी कर घर आता है. वह बातबात पर अपनी पत्नी से झगड़ा करता है, लेकिन जब शराब का नशा उतरता है, तो माला से खूब प्यारभरी बातें करता है

माला भी उस की प्यार भरी बातों में पिघल जाती है. वह अपने पति की मार और दुत्कार को भूल जाती है.

जब माला महेश को अपनी कसम दे कर शराब छोड़ने की बात करती है, तो वह जल्दी ही मान जाता है. लेकिन शाम होतेहोते वह फिर पुरानी बातों पर आ जाता है. वह अपनी पत्नी की कसम को भूल जाता है और फिर से शराब पी कर आ जाता है. फिर वह रोज की तरह अपनी पत्नी और बच्चों को गालियां देता है और मारपीट करता है.

महेश और माला के 2 बच्चे हैं. माला घरेलू औरत है और खुद बाहर काम नहीं कर पाती है. उस के मायके में कोई उसे सहारा देने वाला भी नहीं है. वह चाह कर भी अपने पति महेश को छोड़ नहीं पा रही है. वह किसी तरह अपने बच्चों की ठीक से परवरिश करना चाहती है. वह चाहती है कि उस के बच्चे पढ़लिख कर अच्छे इनसान बनें.

लेकिन माला के पति के शराब पीने की लत के चलते घर में हमेशा पैसे की तंगी बनी रहती है. उस का पति मोटरगैराज में काम करता है. वहां वह अच्छा कमा लेता है, पर शाम होतेहोते आधे से ज्यादा पैसे की शराब पी जाता है. उसे बाकी चीजों पर तो काबू है, पर वह खुद को शराब पीने से नहीं रोक पाता है.
आज भी देशभर में औरतों के साथ घरेलू हिंसा की घटनाएं हो रही हैं. भले ही हमारे देश में पढ़ाईलिखाई का लैवल बढ़ा हो, लेकिन इन घटनाओं में कमी नहीं आई है. आज भी औरतों को मर्दों से कमतर आंका जाता है. उन्हें कमजोर समझा जाता है. वे भोगने की चीज समझी जाती हैं, इसलिए उन के साथ आज भी घरेलू हिंसा बरकरार है.

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जब कोई मर्द अपनी औरत के साथ झगड़ा करता है, तब वह उस का मुंह बंद करने के लिए हाथ उठाने से भी गुरेज नहीं करता है, जबकि औरतें ऐसा नहीं कर पाती हैं. आज भी औरतें पति को काफी इज्जत देती हैं. पति को बड़ा समझती हैं और खुद को उन के पैर की जूती मानती हैं, इसी सोच का पति नाजायज फायदा उठाते हैं.

कई बार औरतें घरेलू हिंसा सहती रहती हैं, पर कानून की मदद नहीं ले पाती हैं, क्योंकि उन का मानना है कि ऐसा करने पर उन के घरपरिवार की इज्जत नीलाम हो जाती है. वहीं दूसरी तरफ वे खुद को कोर्टकचहरी के चक्कर से भी बचाना चाहती हैं, क्योंकि घरेलू हिंसा की शिकार औरत के पास इतनी ताकत नहीं बचती है कि वह अलग से कोर्टकचहरी और थाने के चक्कर लगा सके.
आज भी हिंसा की शिकार औरतें घुटघुट कर जीती हैं. वे चाह कर भी अपने पति से अलग नहीं हो पाती हैं. पति उन पर कितना भी जुल्म करता रहे, वे उस के साथ जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर होती हैं.

इस की बड़ी वजह यह है कि अकेली औरत को कई परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. मसलन, किराए का मकान नहीं मिलना, लोगों के नजरिए में बदलाव. अकेली औरत को देख कर लोग तरहतरह की कहानियां गढ़ने लगते हैं. छोटे शहरों, गांवकसबों में तो और भी कई तरह की परेशानियां हैं.

दरअसल, इस के पीछे मायके से मिली सीख का भी गहरा असर होता है. शादी से पहले हर लड़की को यह सीख दी जाती है कि शादी के बाद पति ही सबकुछ होता है. उस की जायज और नाजायज बातों को हर हाल में मानना चाहिए. ससुराल ही सबकुछ होता है. वहीं तुम्हें मरना है, वहीं तुम्हें जीना है. शादी के बाद हर लड़की की ससुराल से ही अर्थी निकलती है यानी उस का अपने मातापिता के घर से नाता टूट जाता है.

इन बातों के चलते लड़की खुद को कमजोर समझने लगती है. वह बुरे से बुरे हालात में भी पति के साथ रहने को मजबूर हो जाती है, इसीलिए कुछ मर्द औरतों के साथ कई तरह के जुल्म करते रहते हैं. ऐसी औरतें ही हिंसा की ज्यादा शिकार होती हैं.

रंजना देखने में खूबसूरत नहीं थी. वह सांवली और छोटे कद की थी. उस के मातापिता ने अपनी हैसियत के मुताबिक दहेज दे कर खातेपीते परिवार में उस का ब्याह किया था.

पर शादी के बाद से ही रंजना का पति उसे नापसंद करने लगा था, क्योंकि यह शादी अरेंज मैरिज थी, इसलिए वह रंजना को पहले नहीं देख पाया था.

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इस का नतीजा यह था कि पति बातबात पर रंजना के साथ झगड़ा और मारपीट करता था. फिर भी रंजना अपने इस रिश्ते को ढोने की कोशिश कर रही थी. उसे उम्मीद थी कि अपने रंगरूप से तो वह पति को आकर्षित नहीं कर पाई, लेकिन अपने अच्छे गुणों से एक न एक दिन उन्हें आकर्षित जरूर कर पाएगी, इसीलिए वह अपने पति और सासससुर की दिनरात सेवा करती रहती थी, फिर भी उन लोगों में कोई बदलाव नहीं हुआ.

रंजना 12वीं जमात तक पढ़ी थी. जब उस के राज्य में प्राथमिक शिक्षक की बहाली निकली, तो उस ने भी अर्जी दे दी. शिक्षक बहाली में 35 फीसदी महिला आरक्षण होने के चलते रंजना को अपने गांव के ही एक स्कूल में नौकरी मिल गई. इस तरह वह आत्मनिर्भर बन गई.

अब रंजना अपना फैसला लेने के लिए आजाद थी. वह सालों से अपने पति, सास, ननद के उलाहने सहती आ रही थी. अब वह सोच रही थी कि अपने पति से अलग हो कर बाकी की जिंदगी अपने बच्चों के साथ गुजारेगी.

लेकिन उस की ससुराल वालों ने परिवार का माली नुकसान देख कर उसे साथ रखने को मना लिया. अब उस के सासससुर और पति कमाऊ पत्नी होने के चलते सबकुछ सहने को तैयार हैं. कल तक रंजना अपने पति और सासससुर के उलाहने झेलती थी, लेकिन अब वह उस परिवार में शान से रहती है.

रंजना के माली हालात बदलते ही पति के परिवार का रवैया बदल गया. कल तक रंजना अपने परिवार से दूर रहना चाहती थी, लेकिन अब वह परिवार के लिए जरूरत बन गई थी, इसलिए उस के परिवार के लोग अब उस के नखरे सहने के लिए तैयार थे.

लिहाजा, जरूरी है कि जो अपनेअपने घरपरिवार, सासससुर, पति द्वारा सताई जा रही हों, तो सब से पहले उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए सोचना चाहिए. कोई जरूरी नहीं है कि सरकारी नौकरी ही मिले. सब से पहले अपने माली हालात ठीक करने के लिए सोचना चाहिए. अपने पैरों पर खड़ी औरत अपना रास्ता खुद बना सकती है. जरूरत पड़ने पर अपने घरपरिवार, ससुराल और पति से अलग भी हो सकती है.

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घुड़चढ़ी- बराबरी का नहीं पाखंडी बनने का हक

रोहित

दरअसल, 24 जनवरी, 2022 को बूंदी जिले में केशवरायपाटन उपखंड के गांव चड़ी में श्रीराम मेघवाल की शादी थी. श्रीराम के परिवार वालों ने कलक्टर से शिकायत कर के कहा था कि लोकल दबंगों ने घोड़ी न चढ़ने की धमकी दी है, जिस के बाद इस शादी के लिए 3 अलगअलग पुलिस थानों के तकरीबन 60 पुलिस वालों को वहां तैनात किया गया और गांव को छावनी में तबदील कर दिया गया.

ठीक इसी तरह मध्य प्रदेश के सागर जिले में एक दलित दूल्हे के घोड़ी चढ़ने के लिए भी पुलिस की तैनाती करनी पड़ गई. जिले के बंडा थाना क्षेत्र के गांव गनियारी में अहिरवार जाति का कोई दूल्हा कभी घोड़ी पर नहीं चढ़ा था.

23 जनवरी, 2022 को दिलीप अहिरवार की शादी थी. दूल्हे और परिवार की इच्छा थी कि वे लोग बरात की निकासी घोड़ी पर ही करेंगे. पुलिस की निगरानी में शादी तो घुड़चढ़ी के साथ हो गई, लेकिन बरात निकलने के बाद ही दबंगों ने दूल्हे के घर पर पथराव कर दिया.

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ऐसे ही मध्य प्रदेश के रतलाम में भी कुछ साल पहले एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से पहले हैलमैट पहनना पड़ा. दरअसल, दूल्हे के घोड़ी चढ़ने के चलते ऊंची जाति के दबंगों द्वारा दूल्हे की गाड़ी छीनी गई और पथराव किया गया, जिस के बाद पुलिस ने दूल्हे को हैलमैट पहना दिया, ताकि सिर पर चोट न लगे.

ऐसी कई घटनाएं हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार के अलावा देश के दूसरे राज्यों से हर साल सामने आती रहती हैं, जहां दलित दूल्हे को शादी में घोड़ी चढ़ने के अलावा तलवार रखने से रोका जाता रहा है.

जाहिर है, ऊंचा तबका इन परंपराओं को अपनी बपौती और जन्मजात हक सम?ाता है और निचली जातियों को इन परंपराओं को करने से भी रोकता है, जो कि लोकतांत्रिक और नए भारत में किसी भी लिहाज से सही नहीं ठहराया जा सकता.

पर कुछ सवाल जो दलित समाज को खुद से करने चाहिए कि घुड़चढ़ी में आखिर ऐसा है ही क्या कि आज के समय में भी इस परंपरा को अपनाया जाए? आखिर क्यों वे ऊंची जाति वालों की ऐसी फालतू परंपराओं को ढोने का हक समाज से चाह रहे हैं? क्या ऐसी सामंती परंपराओं को अपना कर दलितपिछड़े समाज का भला हो पाएगा? क्या यह महज ऊंची जाति वालों जैसा बनने या वैसा दिखने की कोशिश भर नहीं है?

पाखंड की घुड़चढ़ी

हिंदू धर्म में शादी को 16 संस्कारों में से एक संस्कार कहा गया है, जिस में तकरीबन 71 रस्मों को निभाया जाता है. इन्हीं रस्मों में एक घुड़चढ़ी भी है, जिसे ले कर ऊंची जाति वालों और दलितों के बीच अकसर विवाद बना रहता है. इस रस्म को ‘निकासी’ या ‘बिंदौरी’ भी कहते हैं. चूंकि ऊंची जाति वाले इस रस्म को केवल अपना हक सम?ाते हैं, इसलिए वे दलितों को उन की शादी में घोड़ी पर चढ़ने नहीं देते.

इस रस्म में दूल्हे को घोड़ी पर बैठा कर गाजेबाजे के साथ गांव या कसबे में घुमाया जाता है. रस्म में दूल्हे के दोस्त, परिचित और रिश्तेदार शामिल होते हैं. इस के बाद दूल्हा मंदिर में जा कर पूजा करता है.

‘निकासी’ के बाद वर वधू को ब्याह कर ही अपने घर लौटता है. इस में एक और रिवाज भी चलन में है, जिस के मुताबिक, जिस रास्ते से ‘निकासी’ होती है, उसी रास्ते से दूल्हा घर वापस नहीं लौटता. बाकी रस्मों की तरह घुड़चढ़ी रस्म भी तमाम ढोंगों से भरी पड़ी है. घुड़चढ़ी में पंडितों को पैसे देने, रिश्तेदारों को नेग देने व घोड़ी वाले को शगुन देने जैसी रीतियां भी शामिल हैं.

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हिंदू धर्म की बाकी रस्मों की तरह ही यह कुछ ऐसी रस्म है, जो दलितों को धार्मिक पाखंडों की ओर ले जा रही है. आज दलितपिछड़ा समाज घुड़चढ़ी जैसे रीतिरिवाजों के पीछे भाग रहा है और इस रस्म के साथ वह हिंदू धर्म के उन पाखंडों में घिरता जा रहा है, जिन्होंने हजारों साल उसे ऊंची जाति वालों का सेवक और गुलाम बना कर रखा. दलितों का इन रस्मों के पीछे भागने का मतलब बताता है कि आखिरकार हिंदू परंपराएं सही हैं, जिन में ऊंचनीच और छुआछूत जैसी व्यवस्था शामिल है.

फुजूल की मान्यताएं

दूल्हे की घुड़चढ़ी को ले कर कई मान्यताएं हैं, जिन में सब से नजदीकी मान्यता के मुताबिक, यह वीरता और शौर्य का प्रतीक है. पौराणिक काल में जाहिर है, घोड़ों की अहमियत बहुत ज्यादा थी, क्योंकि वे मजबूत और तेजतर्रार होते थे. युद्ध के मैदान से ले कर स्वयंवरों में अपनी ताकत दिखाने के लिए राजा घोड़े पर सवार हो कर निकलता था.

ऐसी कई कथाकहानियों में ढेरों राजाओं का जिक्र है, जो घोड़े पर सवार हो कर युद्ध के मैदान में उतरते या स्वयंवर में भाग लेते थे. बहुत बार युद्ध की वजह फलां रानी या राजा की बेटी से स्वयंवर करना होती थी, तो बहुत बार युद्ध में अपने दुश्मन को हरा कर उस की पत्नी या उस की बेटी पर कब्जा जमाना होता था. जाहिर है, दोनों ही सूरत में राजा अपने लिए एक रानी ब्याह लाता था.

अब आज के समय में लोगों को कौन सम?ाए कि ‘भई, न तो तुम किसी युद्ध में भाग लेने जा रहे हो और न तुम्हें घोड़े पर सवार हो कर अपनी होने वाली पत्नी को बाकी प्रतिभागी उम्मीदवारों से लड़ कर जीतना है और न ही तुम्हारी होने वाली पत्नी तुम्हारे घोड़ी पर चढ़ जाने से तुम्हारी ताकत का अंदाजा लगा लेगी. यह तो सोचें कि अगर राजामहाराजाओं के समय कार का आविष्कार हो गया होता, तो ऊंची जाति वाले घोड़ों को छोड़ कर कार पर ही अपना कब्जा जमा चुके होते, क्योंकि कार घोड़े से ज्यादा तेज और मजबूत साधन है.

दूल्हे की घुड़चढ़ी को ले कर इसी तरह की एक और मान्यता कहती है कि घोड़ी ज्यादा बुद्धिमान, चतुर और दक्ष होती है, उसे सिर्फ सेहतमंद व काबिल मर्द काबू कर सकता है. दूल्हे का घोड़ी पर आना इस बात का प्रतीक है कि घोड़ी की बागडोर संभालने वाला मर्द अपनी पत्नी और परिवार की बागडोर भी अच्छे से संभाल सकता है.

अब इस के हिसाब से सोचें तो कौन है, जो परिवार की बागडोर नहीं संभालना चाहता. ऐसा अगर सच में हो रहा होता, तो सब लोग हमेशा घोड़े पर यहांवहां घूमते दिखाई देते. भारत ही क्या विदेशों में भी लोग कारों को छोड़ कर घोड़ों की ही सवारी कर रहे होते. जब परिवार के सब मसलों के हल एक घोड़ी से हो रहे होते, तो किसी दूसरी चीज की क्या जरूरत?

कुछ मान्यताएं यह भी कहती हैं कि पुराणों के मुताबिक, सूर्यदेव की 4 संतानों यम, यमी, तपती और शनि का जन्म हुआ, उस समय सूर्यदेव की पत्नी रूपा ने घोड़ी का रूप धरा था. तब से घुड़चढ़ी की परंपरा चलने लगी. वहीं कुछ का मानना है कि दूल्हे को राजा जैसी इज्जत मिले, इसलिए यह परंपरा वजूद में आई.

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अब मान्यता चाहे जो भी हो, कोई जवाब दे कि देश के लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए डा. भीमराव अंबेडकर क्या इसीलिए संविधान सौंप कर गए कि कल को राजतंत्र और सामंती परंपरा के पीछे भागतादौड़ता दबाकुचला दलित समाज दिखे? वह भी उस हिस्से से उपजी परंपरा, जो जातिवाद बढ़ाने का परिचायक रही हो? क्या यह खुद से पूछा नहीं जाना चाहिए कि अतीत में घोड़ों पर चढ़ कर सवर्णों के शौर्य और वीरता से कौन से जातिवाद का खात्मा किया जा रहा था?

जरूरी क्या है

सवाल यह भी है कि ऐसी प्रथाओं के पीछे भागना ही क्यों है, जिन का न तो कोई मतलब है और न जातिवाद के खात्मे में कोई भूमिका? सवाल यहां बराबरी का नहीं, सवाल है उद्धार का है. सिवा पाखंडी अधिकार हासिल होने के, दलितों को इस परंपरा को अपना कर क्या मिलेगा? अगर ऐसे ही सवर्णों की परंपरा और प्रथाओं को अपना कर दलितों का उद्धार हो सकता तो फिर जनेऊ अपना लेने में ही क्या समस्या है, जिस की पहचान ही जाति के आधार पर श्रेष्ठ हो जाना है, फिर बताते रहें खुद को बाकियों से श्रेष्ठ और पवित्र.

हाल ही में सबरीमाला मंदिर में औरतों के माहवारी के दिनों में घुसने का मामला जोरों से उछला. संविधान में सभी को बराबरी का दर्जा हासिल है तो जाहिर है, औरतों के सबरीमाला मंदिर में जाने की मांग भी उठी, जिस में अपनेआप में कोई बुराई नहीं. इस का संज्ञान ले कर सुप्रीम कोर्ट ने भी मंदिर में घुसने की इजाजत दी.

ऐसे ही आज भी कई मंदिरों में दलितों को घुसने नहीं दिया जाता, उन के साथ मारपीट की जाती है, उन्हें कहा जाता है कि धर्म के मुताबिक वे मंदिरों में नहीं घुस सकते, पर असल सवाल यह है कि जो धार्मिक ग्रंथ, भगवान और मंदिरों में बैठे धर्म के ठेकेदार मंदिरों में घुसने से रोकते हैं, उन्हें अशुद्ध मानते हैं, वहां घुसना ही क्यों है?

क्या सवाल यह नहीं हो सकता कि आज क्यों इतनी कोशिशों के बाद भी सीवर की सफाई करने, मैला ढोने, सफाई का काम करने, श्मशान में शवों को जलाने वाले ज्यादातर मजदूर निचली जातियों से ही आते हैं? क्यों सरकार इस क्षेत्र में काम करने वालों को सही उपकरण नहीं देती है, उन्हें सुरक्षा नहीं देती है? दबेकुचलों और पिछड़ों को आगे बढ़ने के अवसरों पर काम क्यों नहीं करती है? आखिर क्यों सरकारी नौकरियों को कम किया जा रहा है?

क्या यह एक दलितपिछड़े समाज के युवा के हक का सवाल नहीं, जिस के आरक्षण का मुद्दा बस घोड़ी चढ़ाना और मंदिरों में प्रवेश करना ही रह गया है? आखिर क्यों पिछड़े समाज से आने वाले नेता बेमतलब के मुद्दों में समय और ताकत खराब कर गलत दिशा में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं?

इस तरह की परंपराएं दलित समाज को पाखंड की भेंट चढ़ाने के लिए काफी हैं, जिस में वे खुद गोते लगाते दिखाई दे रहे हैं. इस से दलितों को अधिकार मिले न मिले, पर पाखंड में जरूर भागीदारी मिल रही है. यही वजह भी है कि दलित समाज से निकलने वाले नेता दलित और पिछड़ा विरोधी दलों के साथ तालमेल बैठाते नजर आ जाते हैं और दलितों के नाम पर मलाई चाटते हैं.

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आज जरूरी है कि दलितों को सब तरह के पाखंड छोड़ने की हिम्मत पैदा करनी चाहिए, उन्हें ऊंची जाति वालों के लिए बनाई गई परंपराओं को मानने, उन्हें अपनी परंपरा बनाने से बचना चाहिए, वरना वे भेदभाव सहते ही रहेंगे.

सास बनी मिसाल, बहू ने किया कमाल

सीकर के रामगढ़ शेखावाटी के ढांढण गांव की रहने वाली कमला देवी एक सरकारी टीचर हैं. उन्होंने 25 मई, 2016 को अपने छोटे बेटे शुभम की शादी सुनीता नाम की एक लड़की से कराई थी. चूंकि सुनीता एक गरीब परिवार से संबंध रखती थी, इसीलिए कमला देवी ने बिना दहेज लिए ही उसे अपने घर की बहू बनाया था.

शुभम को अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करनी थी. लिहाजा, वह शादी के बाद अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए विदेश में किर्गीस्तान चला गया था, लेकिन शादी के 6 महीने बाद ही नवंबर, 2016 में वह इस दुनिया को अलविदा कह गया. ब्रेन स्ट्रोक ने शुभम की जान ले ली थी. कमला देवी पर तो मानो वज्रपात हो गया था.

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राजस्थान जैसे वैचारिक तौर पर पिछड़े प्रदेश में उन्हें अपने दुख को किसी तरह कम करने के साथसाथ अपनी विधवा बहू सुनीता को भी समाज के तानों से बचाना था. लिहाजा, अब कमला देवी को सुनीता की मां का रोल निभाना था और उन्होंने वही किया भी.

कमला देवी ने अपने जवान बेटे की मौत का सदमा भुला कर सुनीता को एमए, बीएड की पढ़ाई कराई और फिर उसे प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार किया. साल 2021 में कमला देवी की मेहनत और सुनीता की लगन ने रंग दिखाया और वह इतिहास सब्जैक्ट के लैक्चरर पद के लिए चुन ली गई. पर कमला देवी का यही लक्ष्य नहीं था, बल्कि उन के मन में कुछ और ही चल रहा था. शुभम की मौत के 5 साल बाद जब सुनीता की अच्छी सरकारी नौकरी भी लग चुकी थी, तब कमला देवी ने अपनी इस होनहार बेटी की धूमधाम से दूसरी शादी कराई.

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कमला देवी ने मां की तरह अपनी बहू का कन्यादान करते हुए उस की शादी मुकेश नाम के एक लड़के से कराई. ऐसी खबर उस राजस्थान के रीतिरिवाजों पर एक तमाचा है, जहां शादी में दहेज की नुमाइश की जाती है. हाल ही में भरतपुर में एक बरखास्त थानेदार अर्जुन सिंह की बेटी की शादी थी. इस में लोगों के बीच बैठ कर एक करोड़ रुपए से ज्यादा का दहेज दिया गया. हर बराती को 500 रुपए की विदाई भी दी गई.  हैरत की बात यह भी रही कि दहेज में दिए गए करोड़ों रुपए का ऐलान सार्वजानिक रूप से किया गया. इस दौरान विधायक समेत अनेक बड़े पदाधिकारी भी वहां मौजूद थे, मगर पुलिस या प्रशासन ने कार्यवाही करने की हिम्मत तक नहीं जुटाई.

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दरअसल, उच्चैन कसबे  की तियापट्टी कालोनी में  23 जनवरी को बरखास्त थानेदार अर्जुन सिंह की बेटी दिव्या कुमारी की शादी थी और करौली के कैमरी से बरात आई थी. अर्जुन सिंह गढ़ी बाजना थाना इलाके का रहने वाला है. तकरीबन  30 साल से वह उच्चैन कसबे में रह रहा है. उसे नवंबर, 2019 में कामां की धिलावटी चौकी से सस्पैंड किया गया था, फिर गैरहाजिर रहने पर जनवरी, 2020 में उसे बरखास्त कर दिया गया था.

अंधविश्वास: हिंदू धर्म में गोबर की पूजा, इंसानों से छुआछूत

लेखक- धीरज कुमार

हिंदू धर्म में पेड़पौधे की पूजा की जाती है. तुलसी के पौधे में रोजाना जल दिया जाता है. पीपल के पेड़ के नीचे दीया जलाया जाता है और पूजा की जाती है.

औरतें बरगद के पेड़ के नीचे पूजा कर के अपने पतियों की लंबी उम्र होने की कामना करती हैं. इस तरह अनेक पेड़पौधे हैं, जिन की पूजा हिंदू धर्म में रीतिरिवाज और श्रद्धा से की जाती है.

इस धर्म में जानवरों की पूजा भी की जाती है. गाय को माता की तरह सम्मान दिया गया है. बैल को भी पूजा जाता है. बैल को भगवान शंकर की सवारी माना जाता है. चूहे को गणेश की सवारी माना जाता है. बंदर को हनुमान का रूप माना जाता है. यहां तक कि विषधर सांपों की भी पूजा नागपंचमी के दिन की जाती है, जिन के काटने से आदमी की तुरंत मौत हो सकती है.

इस धर्म में नदी, तालाब, पोखर, जलाशय की पूजा की जाती है. कुछ नदियों को तो काफी पवित्र माना जाता है, भले ही उन में काफी गंदगी हो.

गंगा, यमुना जैसी नदी को मोक्षदायिनी माना जाता है. पहाड़ों को भी पवित्र माना जाता है और पूजा जाता है, इसीलिए अनेक मंदिर पहाड़ों पर भी बने हैं. लोग वहां भगवान के दर्शन करने  जाते हैं.

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इस तरह से देखा जाए, तो हिंदू धर्म में जानवरों, पशुपक्षियों, कीड़ेमकोड़ों, पेड़पौधों सभी की पूजा की जाती है. पर इनसानों से काफी भेदभाव किया जाता है. सिर्फ भेदभाव ही नहीं किया जाता है, बल्कि लोगों के बीच काफी छुआछूत पनपी है.

रोहतास के डेहरी ब्लौक के विनोद कुमार कुशल कारोबारी हैं. वे हिंदू धर्म पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘‘हिंदू धर्म में गाय, बैल, बंदर, चिडि़या, पेड़पौधे, कीड़ेमकोड़े, सांप सब को सम्मान दिया जाता है, पर इनसानों को नफरत से देखा जाता है.

‘‘यहां तक कि हिंदू धर्म में गोबर की पूजा भी की जाती है, पर इनसानों से भेदभाव किया जाता है. हिंदू धर्म में बिना गोबर के पूजा नहीं होती है. सभी पूजा में गोबर की अहमियत है यानी गोबर होना जरूरी है. कुछ तरह की पूजा में तो गाय की बछिया के मूत्र का भी इस्तेमाल किया जाता है. उसे काफी पवित्र माना जाता है. उस से कोई घृणा नहीं करता है.

‘‘पर, यहां आम इनसान की तो कोई अहमियत नहीं है. जिस इनसान से आप अपने खेतों में काम करवाते हैं, मजदूरी करवाते हैं, उस से आप के खेतखलिहान, फसल में छूत नहीं लगती है. लेकिन आप उसे जब अपने घर खाने के लिए देते हैं, तो उसे थाली में नहीं खिलाते हैं, बल्कि पत्तल में खिलाना पसंद करते हैं. उसे छूते ही आप अपवित्र मानने लगते हैं.’’

ओमप्रकाश बाल्मीकि अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में लिखते हैं कि बचपन में उन के मातापिता गांव के भोज, जलसे में फेंकी गई पत्तलों से बचा भोजन इकट्ठा कर घर लाते थे. फिर उसे धूप में सुखा कर रख देते थे. जरूरत पड़ने पर उसे पानी में भिगो कर खाते थे.

ये बातें काल्पनिक नहीं हैं. यह तो सचाई है. यह सब छुआछूत के चलते हालफिलहाल तक चलन में था. लेकिन हिंदू धर्म के ब्राह्मणों, पंडितों, पुजारियों, धर्माचार्यों ने कभी इस का विरोध नहीं किया. कभी भी उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश नहीं की.

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आज जब गरीब तबके में जागरूकता फैली तो यह काम बंद हो चुका है. लेकिन ऊंचे तबके के लोगों के मन में आज भी इस बात की कसक है कि उन की मरजी से जीने वाले लोग आज अपनी मरजी से जीने लगे हैं. कल तक वे निचले तबके के लोगों पर जुल्म करते थे और आज भी कर रहे हैं. बस थोड़ी कमी आ गई है, क्योंकि आज इन में स्वाभिमान जागने लगा है.

आज भी कुछ गांवों में ऊंचे तबके के लोग निचले तबके के लोगों को जातिसूचक शब्दों से ही संबोधित करते हैं. वे अपने नामों से कम जाने जाते हैं, बल्कि अपने जातिसूचक नामों से ज्यादा जाने जाते हैं.

यही वजह है कि आज भी निचला तबका इन जातियों से दूरी बना कर रहता है. कई बार तो वे हिंदू धर्म में रह कर कुंठा का अनुभव करते हैं, इसीलिए कुछ लोग धर्म परिवर्तन की चाह रखने लगे हैं. उन का कहना है कि जब हिंदू धर्म हम लोगों को जोड़ कर रख नहीं सकता है, तो उस धर्म को अपने माथे पर ढोने से क्या फायदा.

गांव में आज भी ऊंचे तबके वालों के घर भोज, जलसे, जन्ममृत्यु, विवाह जैसे मौकों पर लोगों को भोज खिलाया जाता है, तो सब से पहले ब्राह्मणों को खिलाया जाता है. इस के बाद ऊंची जाति के लोग खाते हैं. इस के बाद निचले तबके के लोगों को खिलाया जाता है. वह भी गलियों या खेतों में जमीन पर बैठा कर खिलाया जाता है, इसीलिए आज निचले तबके के पढ़ेलिखे नौजवान इन के घरों के जलसे, भोज खाने से परहेज करते हैं.

आपसी नफरत का ही नतीजा है कि निचले तबके के लोगों का गांव में घर एक तरफ किनारे होता है, जबकि ऊंची जाति वाले लोगों का घर दूसरी तरफ अलग होता है.

गांव में जाने के बाद इस बात का एहसास हो जाता है कि ऊंची जाति वालों का घर किधर है और निचले तबके वालों का घर किधर है. कोई भी इसे आसानी से पहचान सकता है.

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यह जातीय नफरत का ही नतीजा है कि आज भी गांव का समाज वैसा के वैसा ही है जैसा आजादी के समय था. गांवों में बिजली आ गई है, सड़कें बन गई हैं, मोबाइल फोन और इंटरनैट का खूब इस्तेमाल हो रहा है, पर अगर नहीं बदला है तो लोगों के विचार, भेदभाव करने का नजरिया, छुआछूत करने की आदत. लोगों को निचले तबके से नफरत करने की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है. आज भी सब जस का  तस है.

किन्नर: समाज के सताए तबके का दर्द

 देवेंद्रराज सुथार

पिछले दिनों कोलकाता पुलिस में इंस्पैक्टर की भरती के इम्तिहान का इश्तिहार निकला, तो पल्लवी ने भी इस इम्तिहान में बैठने का मन बना लिया. जब उस ने आवेदनपत्र डाउनलोड किया, तो उस में जैंडर के केवल 2 ही कौलम थे, एक पुरुष और दूसरा महिला.

पल्लवी को मजबूरन हाईकोर्ट की शरण में जाना पड़ा. अपने वकील के जरीए उस ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की और साल 2014 के ट्रांसजैंडर ऐक्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए अपनी दलील रखी.

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हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के एडवोकेट से इस मामले पर राय पेश करने को कहा. अगली तारीख पर राज्य सरकार के एडवोकेट ने हाईकोर्ट को बताया कि सरकार आवेदन के ड्राफ्ट में पुरुष और महिला के साथसाथ ट्रांसजैंडर कौलम रखने के लिए रजामंद हो गई है.

अब पल्लवी पुलिस अफसर बने या न बने, उस ने भारत के ट्रांसजैंडरों के लिए एक खिड़की तो खोल ही दी है.

ऐसे ही पुलिस में भरती होने वाली देश की पहली ट्रांसजैंडर और तमिलनाडु पुलिस का हिस्सा पृथिका यशनी की एप्लीकेशन रिक्रूटमैंट बोर्ड ने खारिज कर दी थी, क्योंकि फार्म में उस के जैंडर का औप्शन नहीं था. ट्रांसजैंडरों के लिए लिखित, फिजिकल इम्तिहान या इंटरव्यू के लिए कोई कटऔफ का औप्शन भी नहीं था.

इन सब परेशानियों के बावजूद पृथिका यशनी ने हार नहीं मानी और कोर्ट में याचिका दायर की. उस के केस में कटऔफ को 28.5 से 25 किया गया. पृथिका हर टैस्ट में पास हो गई थी, बस 100 मीटर की दौड़ में वह एक सैकंड से पीछे रह गई. मगर उस के हौसले को देखते हुए उस की भरती कर ली गई.

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मद्रास हाईकोर्ट ने साल 2015 में तमिलनाडु यूनिफार्म्ड सर्विसेज रिक्रूटमैंट बोर्ड को ट्रांसजैंडर समुदाय के सदस्यों को भी मौका देने के निर्देश दिए. इस फैसले के बाद से फार्म के जैंडर में 3 कौलम जोड़े गए.

तमिलनाडु में ही क्यों, राजस्थान में भी यही हुआ था. जालौर जिले के रानीवाड़ा इलाके की गंगा कुमारी ने साल 2013 में पुलिस भरती का इम्तिहान पास किया था. हालांकि, मैडिकल जांच के बाद उन की अपौइंटमैंट को किन्नर होने के चलते रोक दिया गया था. गंगा कुमारी हाईकोर्ट चली गई और 2 साल की जद्दोजेहद के बाद उसे कामयाबी मिली.

ये फैसले बताते हैं कि जरूरत इस बात की है कि समाज के हर शख्स का नजरिया बदले, नहीं तो कुरसी पर बैठा अफसर अपने नजरिए से ही समुदाय को देखेगा.

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, हमारे देश में तकरीबन 5 लाख ट्रांसजैंडर हैं. अकसर इस समुदाय के लोगों को समाज में भेदभाव, फटकार और बेइज्जती का सामना करना पड़ता है. ऐसे ज्यादातर लोग भिखारी या सैक्स वर्कर के रूप में अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं.

15 अप्रैल, 2014 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने थर्ड जैंडर को संवैधानिक अधिकार दिए और सरकार को इन अधिकारों को लागू करने का निर्देश दिया. उस के बाद 5 दिसंबर, 2019 को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद थर्ड जैंडर के अधिकारों को कानूनी मंजूरी मिल गई.

हर तरह के जैंडर पर सभी देशों में चर्चा होती है, उन्हें समान अधिकार और आजादी दिए जाने की वकालत होती है, बावजूद इस के जैंडर के आधार पर सभी को बराबर अधिकार और आजादी अभी भी नहीं मिल पाई है.

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साल 2011 की जनगणना बताती है कि महज 38 फीसदी किन्नरों के पास नौकरियां हैं, जबकि सामान्य आबादी का फीसद 46 है. साल 2011 की जनगणना यह भी बताती है कि केवल 46 फीसदी किन्नर पढ़ेलिखे हैं, जबकि समूचे भारत की पढ़ाईलिखाई की दर 76 फीसदी है.

किन्नर समाज जोरजुल्म का शिकार है. इसे नौकरी और तालीम पाने का अधिकार बहुत कम मिलता है. ऐसे लोगों को अपनी सेहत की सही देखभाल करने में भी दिक्कत आती है.

दक्षिण भारत के 4 राज्यों तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के आंकड़े बताते हैं कि कुल एचआईवी संक्रमण में से 53 फीसदी किन्नर समुदाय का हिस्सा है.

किन्नर समुदाय भेदभाव के चलते ही अपनी भावनाओं को छिपाता है, क्योंकि वे लोग इस बात से डरे होते हैं कि कहीं वे अपने परिवारों द्वारा घर से निकाल न दिए जाएं.

किन्नरों के परिवारों में कम से कम एक शख्स ऐसा जरूर होता है, जो यह नहीं चाहता कि ट्रांसजैंडर होने के चलते समाज किसी से भी बात करे. किसी के किन्नर होने की जानकारी होने पर

समाज के लोग उस शख्स से दूरी बनाने लगते हैं.

विकास के इस दौर में किन्नर समाज आज भी हाशिए पर खड़ा है. किन्नर समुदाय के विकास की अनदेखी एक गंभीर मुद्दा है. सभी समुदायों के अधिकारों के बारे में चर्चा की जाती है, लेकिन किन्नर समुदाय के बारे में चर्चा तक नहीं होती. हर किन्नर पल्लवी जितने मजबूत मन का भी नहीं होता कि लड़ कर अपना हक ले ले.

सवाल यह है कि आखिर वह समय कब आएगा, जब समाज के सामान्य सदस्यों की तरह इन्हें भी आसानी से इन का हक मुहैया रहेगा? कानून के बावजूद भी उन की समान भागीदारी से बहुतकुछ बदल पाने की उम्मीद तब तक बेमानी है, जब तक कि सामाजिक लैवल पर नजरिया बदलता नहीं. जब तक सामाजिक ढांचे में उन की अनदेखी की जाती रहेगी, तब तक कानूनी अधिकार खोखले ही रहेंगे.

अब यह जरूरी है कि समान अधिकारों के साथसाथ समाज में भी समान नजरिया हो, तभी बदलाव आएगा. कानून एक खास पहलू है, लेकिन समाज के नजरिए को बदलना भी कम खास नहीं है, इसलिए इस जद्दोजेहद का खात्मा कानून के पास होने से नहीं होता, बल्कि यहीं से सामाजिक रजामंदी के लिए एक नई जद्दोजेहद शुरू होती है.

किन्नर ट्रेनों, बसों या सड़क पर लोगों के सिर पर हाथ फेरते हुए दुआ देते हैं और पैसे मांगते हैं. बद्दुआ का डर कुछ लोगों को पैसे देने के लिए मजबूर करता है, लेकिन यह उन की समस्या का हल नहीं है.

किन्नर के रूप में पैदा होने में उन का कोई कुसूर नहीं है. इन की जिंदगी बदलना भी हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन हम अपनी सोच तो कम से कम बदल ही सकते हैं.

हमारी सोच बदलेगी, तो किन्नर भी मुख्यधारा से जुड़ सकते हैं और बेहतर जिंदगी जी सकते हैं. आईपीएस, आईएएस अफसर ही नहीं, बल्कि सेना में शामिल हो कर देश की हिफाजत के लिए अपनी जान भी लड़ा सकते हैं.

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 सावित्री रानी

कोरोना को इस दुनिया में आए 2 साल से ज्यादा का समय हो चुका है. इस की गाज किसकिस पर गिरी, इस ने किसकिस की जिंदगी को तबाह किया, यह जानने के लिए हमें दूर जाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ अपने और अपने आसपास एक नजर डालना ही काफी है.

हर कोई इस नामुराद वायरस का किसी न किसी तरह से शिकार हुआ है, फिर चाहे वह कोई बच्चा हो या बूढ़ा, नौजवान हो या अधेड़, इस नामाकूल ने किसी में भी फर्क नहीं किया. किसी का स्कूल बंद हुआ, तो किसी का कालेज. किसी की सेहत पर अटैक हुआ, तो किसी के रिश्तों पर. किसी की आजादी दांव पर लगी, तो किसी की नौकरी. सभी ने कुछ न कुछ खोया जरूर है.

आज इस दुनिया में एक भी इनसान ऐसा नहीं ढूंढ़ा जा सकता, जो यह कह सके कि कोरोना ने उस की जिंदगी को कहीं से भी नहीं छुआ है. समाज के जिन क्षेत्रों पर इस ने मालीतौर पर सब से ज्यादा असर डाला है, उन में सब से आगे खड़ा है टूरिज्म. इस क्षेत्र से जुड़े लोगों को जितनी माली चोट सहनी पड़ी है और अभी तक सह रहे हैं, उस की कोई सीमा नहीं है.

आप कल्पना कीजिए कि आप एक नौकरी करते हैं या फिर कोई भी काम करते हैं, जिस से आप का घर चलता है. उसी कमाई के भरोसे पर आप भविष्य की प्लानिंग करते हैं, घर और गाड़ी का लोन लेते हैं, बच्चों को स्कूल भेजते हैं, अपना बुढ़ापा महफूज करने की योजना बनाते हैं, लेकिन एक सुबह आप को पता चलता है कि आज से आप की कमाई जीरो है, क्योंकि आप का काम टूरिस्ट के आने पर निर्भर करता था और आज से नो फ्लाइट्स, नो टूरिस्ट, नो काम, नो पैसा, सब पर फुल स्टौप.

आप ऐसी हालत में क्या करेंगे? और यह हालत कोई 2-4 दिन या महीनों के लिए नहीं है, यह है सालों के लिए या फिर पता नहीं कब तक के लिए. शायद हमेशा के लिए. सोचिए, अगर आप के सुखसुविधा में पले बच्चे अचानक दूध को तरसने लगें, 1-1 खिलौने के लिए सालों इंतजार का लौलीपौप चूसते रहें, तो क्या करेंगे आप?

मैं ऐसे एक इनसान को बहुत करीब से जानती हूं. प्रखर नाम का यह इनसान मेरे परिवार का ही हिस्सा है. मातापिता की असमय मौत ने इसे समय से पहले ही बड़ा कर दिया था.

दिनरात की अथक मेहनत से इस स्वाभिमानी लड़के ने हर मुसीबत का सामना किया. नवंबर, 2019 में उस ने एक छोटा सा घर खरीदा और उस के लिए बैंक से लोन लिया. 4 महीने बाद अपनी अभी तक की सारी जमापूंजी लगा कर बहन की शादी की.

वह बहुत खुश था कि उस की बचत बहन की शादी और घर की डाउन पेमेंट दोनों के लिए काफी थीं. उस की 2 सब से बड़ी जिम्मेदारियां सही समय पर पूरी हो गई थीं.

अपनी परफैक्ट प्लानिंग के भरोसे प्रखर काफी हद तक अपने भविष्य को ले कर निश्चिंत था. उस ने सोचा था कि अभी वह सिर्फ 37 साल का है. अगले 10 साल में वह बैंक का लोन उतार देगा. जब तक उस का 7 साल का बेटा यूनिवर्सिटी जाने लायक होगा, तब तक तो वह बाकी सभी देनदारियों से छुटकारा पा चुका होगा. फिर वह आराम से अपने एकलौते बेटे को अच्छी से अच्छी पढ़ाईलिखाई के लिए माली मदद की अपनी जिम्मेदारी को आसानी से निभा सकेगा.

टूरिज्म के क्षेत्र में फ्रीलांस गाइड के तौर पर काम करने वाला प्रखर तब कहां जानता था कि कुदरत कुछ और ही प्लान कर रही है. प्रखर की नन्ही सी प्लानिंग की भला उस के सामने क्या औकात? कुदरत की प्लानिंग के मुताबिक आया एक छोटा सा वायरस और सबकुछ खत्म. सारी मेहनत, सारी काबिलीयत घर की चारदीवारी में बंद हो कर रह गई.

कोरोना की दूसरी लहर में प्रखर का पूरा परिवार चपेट में आ गया था. बड़ी काटछांट कर के, घर और शादी से बचाई गई उस की बचत का आखिरी टुकड़ा भी इस इलाज की भेंट चढ़ गया.

डाक्टर की महंगी फीस और कई गुना ज्यादा कीमत पर खरीदी गई दवाओं ने उस के बैंक अकाउंट की आखिरी बूंद तक निचोड़ ली.

फिर भी प्रखर ने सोचा कि चलो जान बची तो लाखों पाए. जान है तो जहान  है. ठीक भी है. लेकिन अब उसी जान को इस बेकारी और बेरोजगारी के कोरोना से कैसे बचाएंगे और कब तक बचा पाएंगे?

कोरोना की मेहरबानी से टूरिस्ट के आने के कोई भी आसार दूरदूर तक नजर नहीं आ रहे हैं. टूरिज्म से जुड़े लाखों लोग, जिन की रोजीरोटी इस क्षेत्र से जुड़ी है, वे बेचारे कहां जाएं? एयरलाइंस, ट्रैवल एजेंसी, टूर औपरेटर, होटल, फ्रीलांस गाइड और हौकर्स इन सभी की जीविका की नैया टूरिस्ट द्वारा खर्च किए गए पैसों की नदी पर ही चलती है. अब पता नहीं इस सूखी नदी में पानी आने की आस कब तक इन की सांसों की डोरी को बांध सकेगी?

टूरिस्ट आते थे, तो सब को काम मिलता था. एयरलाइंस और होटल्स पर जब टूरिस्ट के पैसे की बारिश हो चुकती थी, तो छोटीछोटी बौछारें ट्रैवल एजेंसी और हौकर्स यानी छोटे दुकानदारों तक भी पहुंच जाती थीं. इन बौछारों की नन्हीनन्ही बूंदों से लाखों घरों के चूल्हे जलते थे.

टूरिज्म के क्षेत्र से जुड़े सभी लोग टूरिस्ट सीजन का इंतजार बड़ी बेताबी से करते थे और उसी एक सीजन के भरोसे सारे सीजन काट लेते थे. लेकिन अब कैसा टूरिस्ट सीजन, अब तो बस एक ही सीजन बचा है, वह है कोरोना सीजन.

हौकर्स का असली धंधा अगर करोना खा गया तो बचीखुची कसर औनलाइन शौपिंग ने पूरी कर दी. आगे कुआं पीछे खाई, जाएं तो जाएं कहां?

अनिश्चितता तो पहले भी होती थी. अप्रैल से ले कर अगस्त तक का मौसम इन के लिए औफ सीजन होता था, लेकिन अगस्त से अप्रैल तक तो काम मिलेगा, इसी आस के भरोसे ये लोग औफ सीजन का टाइम काट लिया करते थे.

लेकिन अब तो जैसे सबकुछ निश्चित ही हो गया है. न कोरोना के वैरिएंट खत्म होंगे, न टूरिस्ट आएंगे. अब तो बेकारी का यह तोहफा जैसे हमेशा के लिए इन की जिंदगी से जुड़ गया है. अनिश्चित काल तक जीरो इनकम के साथ भला कोई कैसे निभा सकता है?

टूरिज्म पर आसन लगा कर बैठे इस कोरोना से कोई निबटे भी तो कैसे?    

ऐसी हालत में सरकार की तरफ से कोई मदद या सहारा तो दूर इन की इतनी बड़ी परेशानी को रजामंदी तक नहीं मिल रही है. ये बेचारे अपने लोन की ईएमआई कैसे चुकाते होंगे? अपने बच्चों की  स्कूलों की फीस कैसे देते होंगे, जिन स्कूलों में वे जा भी नहीं रहे हैं? बच्चों को तो औनलाइन खुद ही पढ़ना पड़ता है और मोटेमोटे चैक हर महीने स्कूल के नाम काटने पड़ते हैं, वरना स्कूल से नाम कट जाएगा.

क्या सरकार का अपनी इस जनता के प्रति कोई फर्ज नहीं बनता? जिस से टैक्स वसूलते समय एकएक पाई का हिसाब लिया जाता है, उस घर में चूल्हा जला या नहीं, इस का हिसाब कौन रखेगा?

जो नेता वोट मांगने के समय हाथ जोड़े खड़े रहते हैं, वे बेकारी के समय कहां चले जाते हैं? कहां जाएं ये बेकारी के मारे? किस से लगाएं अपने लिए रोजगार मुहैया करवाने की गुहार?

कल तक ये लोग देश के लिए डौलर कमाते थे. इन की सर्विसेज विदेशियों को भारत दर्शन का रास्ता दिखाने में अहम भूमिका अदा करती थीं. आज वह समय एक सपना भर रह गया है. जाने कब आएगा वह सावन और कब जाएगा यह रावण?

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