लेखक- धीरज कुमार

हिंदू धर्म में पेड़पौधे की पूजा की जाती है. तुलसी के पौधे में रोजाना जल दिया जाता है. पीपल के पेड़ के नीचे दीया जलाया जाता है और पूजा की जाती है.

औरतें बरगद के पेड़ के नीचे पूजा कर के अपने पतियों की लंबी उम्र होने की कामना करती हैं. इस तरह अनेक पेड़पौधे हैं, जिन की पूजा हिंदू धर्म में रीतिरिवाज और श्रद्धा से की जाती है.

इस धर्म में जानवरों की पूजा भी की जाती है. गाय को माता की तरह सम्मान दिया गया है. बैल को भी पूजा जाता है. बैल को भगवान शंकर की सवारी माना जाता है. चूहे को गणेश की सवारी माना जाता है. बंदर को हनुमान का रूप माना जाता है. यहां तक कि विषधर सांपों की भी पूजा नागपंचमी के दिन की जाती है, जिन के काटने से आदमी की तुरंत मौत हो सकती है.

इस धर्म में नदी, तालाब, पोखर, जलाशय की पूजा की जाती है. कुछ नदियों को तो काफी पवित्र माना जाता है, भले ही उन में काफी गंदगी हो.

गंगा, यमुना जैसी नदी को मोक्षदायिनी माना जाता है. पहाड़ों को भी पवित्र माना जाता है और पूजा जाता है, इसीलिए अनेक मंदिर पहाड़ों पर भी बने हैं. लोग वहां भगवान के दर्शन करने  जाते हैं.

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इस तरह से देखा जाए, तो हिंदू धर्म में जानवरों, पशुपक्षियों, कीड़ेमकोड़ों, पेड़पौधों सभी की पूजा की जाती है. पर इनसानों से काफी भेदभाव किया जाता है. सिर्फ भेदभाव ही नहीं किया जाता है, बल्कि लोगों के बीच काफी छुआछूत पनपी है.

रोहतास के डेहरी ब्लौक के विनोद कुमार कुशल कारोबारी हैं. वे हिंदू धर्म पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘‘हिंदू धर्म में गाय, बैल, बंदर, चिडि़या, पेड़पौधे, कीड़ेमकोड़े, सांप सब को सम्मान दिया जाता है, पर इनसानों को नफरत से देखा जाता है.

‘‘यहां तक कि हिंदू धर्म में गोबर की पूजा भी की जाती है, पर इनसानों से भेदभाव किया जाता है. हिंदू धर्म में बिना गोबर के पूजा नहीं होती है. सभी पूजा में गोबर की अहमियत है यानी गोबर होना जरूरी है. कुछ तरह की पूजा में तो गाय की बछिया के मूत्र का भी इस्तेमाल किया जाता है. उसे काफी पवित्र माना जाता है. उस से कोई घृणा नहीं करता है.

‘‘पर, यहां आम इनसान की तो कोई अहमियत नहीं है. जिस इनसान से आप अपने खेतों में काम करवाते हैं, मजदूरी करवाते हैं, उस से आप के खेतखलिहान, फसल में छूत नहीं लगती है. लेकिन आप उसे जब अपने घर खाने के लिए देते हैं, तो उसे थाली में नहीं खिलाते हैं, बल्कि पत्तल में खिलाना पसंद करते हैं. उसे छूते ही आप अपवित्र मानने लगते हैं.’’

ओमप्रकाश बाल्मीकि अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में लिखते हैं कि बचपन में उन के मातापिता गांव के भोज, जलसे में फेंकी गई पत्तलों से बचा भोजन इकट्ठा कर घर लाते थे. फिर उसे धूप में सुखा कर रख देते थे. जरूरत पड़ने पर उसे पानी में भिगो कर खाते थे.

ये बातें काल्पनिक नहीं हैं. यह तो सचाई है. यह सब छुआछूत के चलते हालफिलहाल तक चलन में था. लेकिन हिंदू धर्म के ब्राह्मणों, पंडितों, पुजारियों, धर्माचार्यों ने कभी इस का विरोध नहीं किया. कभी भी उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश नहीं की.

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आज जब गरीब तबके में जागरूकता फैली तो यह काम बंद हो चुका है. लेकिन ऊंचे तबके के लोगों के मन में आज भी इस बात की कसक है कि उन की मरजी से जीने वाले लोग आज अपनी मरजी से जीने लगे हैं. कल तक वे निचले तबके के लोगों पर जुल्म करते थे और आज भी कर रहे हैं. बस थोड़ी कमी आ गई है, क्योंकि आज इन में स्वाभिमान जागने लगा है.

आज भी कुछ गांवों में ऊंचे तबके के लोग निचले तबके के लोगों को जातिसूचक शब्दों से ही संबोधित करते हैं. वे अपने नामों से कम जाने जाते हैं, बल्कि अपने जातिसूचक नामों से ज्यादा जाने जाते हैं.

यही वजह है कि आज भी निचला तबका इन जातियों से दूरी बना कर रहता है. कई बार तो वे हिंदू धर्म में रह कर कुंठा का अनुभव करते हैं, इसीलिए कुछ लोग धर्म परिवर्तन की चाह रखने लगे हैं. उन का कहना है कि जब हिंदू धर्म हम लोगों को जोड़ कर रख नहीं सकता है, तो उस धर्म को अपने माथे पर ढोने से क्या फायदा.

गांव में आज भी ऊंचे तबके वालों के घर भोज, जलसे, जन्ममृत्यु, विवाह जैसे मौकों पर लोगों को भोज खिलाया जाता है, तो सब से पहले ब्राह्मणों को खिलाया जाता है. इस के बाद ऊंची जाति के लोग खाते हैं. इस के बाद निचले तबके के लोगों को खिलाया जाता है. वह भी गलियों या खेतों में जमीन पर बैठा कर खिलाया जाता है, इसीलिए आज निचले तबके के पढ़ेलिखे नौजवान इन के घरों के जलसे, भोज खाने से परहेज करते हैं.

आपसी नफरत का ही नतीजा है कि निचले तबके के लोगों का गांव में घर एक तरफ किनारे होता है, जबकि ऊंची जाति वाले लोगों का घर दूसरी तरफ अलग होता है.

गांव में जाने के बाद इस बात का एहसास हो जाता है कि ऊंची जाति वालों का घर किधर है और निचले तबके वालों का घर किधर है. कोई भी इसे आसानी से पहचान सकता है.

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यह जातीय नफरत का ही नतीजा है कि आज भी गांव का समाज वैसा के वैसा ही है जैसा आजादी के समय था. गांवों में बिजली आ गई है, सड़कें बन गई हैं, मोबाइल फोन और इंटरनैट का खूब इस्तेमाल हो रहा है, पर अगर नहीं बदला है तो लोगों के विचार, भेदभाव करने का नजरिया, छुआछूत करने की आदत. लोगों को निचले तबके से नफरत करने की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है. आज भी सब जस का  तस है.

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