Social Issue : आबादी की भरमार बेरोजगारी अपार

Social Issue : बढ़ती आबादी भारत के लिहाज से तो और भी बेहद गंभीर मामला है. इस देश की लगातार बढ़ती आबादी देख कर तो यही लगता है कि अगर मैडल मिलने की प्रथा होती तो भारत की झोली में एक गोल्ड मैडल जरूर होता. सब से ज्यादा आबादी वाला देश बनने का गौरव हमारे भारत का सरताज ही होता.

भारत दुनिया में सब से ज्यादा आबादी वाला देश तो बन गया है, लेकिन यहां संसाधनों की बेहद कमी होती जा रही है. आज जिस भी जगह जाओ एक लंबी कतार लगी मिलती है. लगता है, मानो जहां हम जा रहे हैं, वहीं सब से ज्यादा भीड़ उमड़ जाती है, चाहे बात करें एयरपोर्ट की, रेलवे स्टेशन की, अस्पताल की, यहां तक कि घरों के आसपास लगने वाले बाजारों में भी ऐसा लगता है कि सारी जनता वहीं आ जाती है. जहां हम हैं. फोन काल से ले कर रोजगार के मौके तक हर जगह यही सुनने को मिलता है कि ‘कृपया प्रतीक्षा करें’, ‘असुविधा के लिए खेद है’, ‘आप लाइन में हैं’.

आज दुनिया की आबादी 8 अरब है, जबकि साल 1950 में दुनिया की आबादी 2.5 अरब थी. महज चंद दशकों में यह आंकड़ा कहां से कहां पहुंच गया है. अंदाजा है कि साल 2050 तक दुनियाभर की आबादी 10 अरब तक पहुंच जाएगी, जो दुनियाभर में शांति के लैवल को गंभीर चुनौती दे सकती है. वहीं अगर सिर्फ हमारे भारत में देखें, तो 142 करोड़ की आबादी है, जो हमें गंभीर श्रेणी में ले जाता है.

अगर दुनिया में क्षेत्रफल के नजरिए से भारत को देखें, तो यह 7वें पायदान पर है और दुनियाभर का सिर्फ
2.5 फीसदी क्षेत्रफल ही भारत के पास है, लेकिन यह आबादी के नजरिए से सब से पहले नंबर पर है.

एक अंदाजे के मुताबिक, भारत में एक वर्ग किलोमीटर में 438 लोग रहते हैं और बात करें अमेरिका की, तो वहां एक वर्ग किलोमीटर में कुल 37 लोग रहते हैं.

यहां हम तुलना कर सकते हैं कि बढ़ती आबादी के चलते जमीन की कमी आने वाले दिनों में और भी ज्यादा होने वाली है, वहीं बढ़ती आबादी को बुनियादी सुविधाएं जैसे घर, पीने का साफ पानी, दवाएं आदि मुहैया करा पाना सरकार के लिए भी चिंता की बात है.

लेकिन अगर हम सीख लें, तो बहुतकुछ बदल सकता है. भारत की तुलना दूसरे विकसित देशों से करें, तो दक्षिण कोरिया में 527, जापान में 347, सिंगापुर में 8,358, जरमनी में 233 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जो बहुत ज्यादा है, लेकिन इन देशों की कामयाबी के पीछे कई वजहें हैं, जैसे कि अच्छी विकास दर, अच्छा शासन, स्थिर व्यवस्था, उच्च शिक्षा व तकनीक कौशल आदि.

भारत में नौजवानों की भरमार है. ऐसे में रोजगार की नजर से देखें, तो इतनी बड़ी आबादी को कामकाजी बनाना सब से बड़ी चुनौती है. नौजवान पीढ़ी का होना हर देश की तरक्की का मूलभूत तरीका है. जिस देश में नौजवान ज्यादा होंगे, उस देश की तरक्की होना मुमकिन है, लेकिन तब जब नौजवान अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक होंगे.

लेकिन अगर यही नौजवान अपने दिन का ज्यादा से ज्यादा समय सोशल मीडिया पर बिताएंगे, तो कहां से कोई देश तरक्की कर सकेगा, बल्कि यही नौजवान देश की गरीबी की वजह बनेंगे, क्योंकि युवा पीढ़ी हर देश का भविष्य तय करती है.

रोजगार व आबादी के बीच तालमेल बिठाने के लिए कुछ बदलावों की जरूरत है. जरूरी है कि देश को पूंजी प्रधान न बना कर श्रम प्रधान बनाया जाए.

हमारे देश की बड़ी आबादी खेतीबारी पर निर्भर है, तो इस के लिए ज्यादा से ज्यादा काम किया जाए. रोजगार के मामले में सरकारी योजनाओं का हर नौजवान फायदा उठा सके, इस के लिए उसे आसान और कुशलता से कार्यक्रमों की मदद से जागरूक किया जाए.

विकसित देशों का इतिहास खंगालें, तो देश की आबादी या परिवार की तादाद अगर छोटी और पढ़ीलिखी हो, तो वह देश और परिवार ज्यादा तरक्की करता है और वहीं अगर बढ़ती आबादी किसी समुदाय की हो और वह संविधान के कायदेकानून के तहत व्यवस्थित नहीं है, तो उस देश में संसाधनों की लूट, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याएं पैदा होने लगती हैं.

भारत के अच्छे भविष्य के लिए समय की मांग है कि आबादी के बढ़ने से बचने के लिए कड़े कानून बनाए जाएं और जिन का जनता हर हाल में पालन करे और देश की तरक्की में योगदान दे.

हकीकत: जाति और धर्म की देन बेरोजगारी

पौराणिक समय में शूद्रों को पढ़नेलिखने का हक नहीं था. अगर शूद्र पढ़ालिखा हो जाता था तो उस को इस बात का दंड दिया जाता था. पौराणिक समय की यही सोच आज भी दलितों को पढ़ाईलिखाई और रोजीरोजगार से दूर रखना चाहती है. उन के मन में यह भरा जाता है कि कौन सा तुम को पढ़लिख कर कलक्टर बनना है? समय से पहले स्कूल छोड़ने वालों में सब से बड़ा हिस्सा दलितों का ही है.

एकलव्य की कहानी महाभारत काल की है. महाभारत काल में प्रयागराज में एक श्रृंगवेरपुर राज्य था. हिरण्यधनु इस आदिवासी राज्य के राजा थे. गंगा के तट पर श्रृंगवेरपुर उन की राजधानी थी. श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि, चंदेरी जैसे बड़े राज्यों जैसी ही थी.

निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा के बेटे का नाम अभिद्युम्न था. अस्त्रशस्त्र विद्या में निपुण होने के चलते अभिद्युम्न को ‘एकलव्य’ के नाम से पहचान मिली.

एकलव्य अपनी धनुर्विद्या से संतुष्ट न थे. ऊंची पढ़ाईलिखाई हासिल करने के लिए वे गुरु द्रोणाचार्य के पास गए, पर एकलव्य के निषाद होने के चलते गुरु द्रोणाचार्य ने उसे धनुर्विद्या देने से इनकार कर दिया.

इस के बाद एकलव्य ने जंगल में रह कर धनुर्विद्या हासिल करने के लिए द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उन्हीं का ध्यान कर धनुर्विद्या में महारत हासिल कर ली.

एक दिन आचार्य द्रोण अपने शिष्यों और एक कुत्ते के साथ आखेट के लिए उसी वन में पहुंच गए, जहां एकलव्य रहते थे. उन का कुत्ता राह भटक कर एकलव्य के आश्रम पहुंच गया और भूंकने लगा. एकलव्य उस समय धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे.

कुत्ते के भूंकने की आवाज से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी. उन्होंने ऐसे बाण चलाए कि कुत्ते को जरा सी खरोंच भी नहीं आई और उस का मुंह भी बंद हो गया.

कुत्ता असहाय हो कर गुरु द्रोण के पास जा पहुंचा. द्रोण और उन के शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख कर हैरत में पड़ गए. वे सब एकलव्य के आश्रम पहुंचे और वहां एकलव्य की धनुर्विद्या को देख कर अचरज में पड़ गए.

द्रोणाचार्य ने जब एकलव्य से उस के गुरु के बारे में जानने की बात कही, तो एकलव्य ने उन्हें द्रोणाचार्य की ही प्रतिमा दिखा दी. इस के बाद द्रोणाचार्य ने कहा, ‘अगर तुम मु?ो अपना गुरु मानते हो तो मु?ो गुरु दक्षिणा दो.’

एकलव्य ने हां कर दी, तो गुरु दक्षिणा में द्रोणाचार्य ने उन के अंगूठे की मांग कर दी. इस के पीछे की वजह यह थी कि कहीं एकलव्य सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर न बन जाए.

एकलव्य ने बिना हिचकिचाहट अपना अंगूठा गुरु द्रोणाचार्य को अर्पित कर दिया.

यह पौराणिक कथा बताती है कि जाति और धर्म हमेशा से ही पढ़ाईलिखाई और रोजगार में ऊंची जातियों को अहमियत देते रहे हैं. इसी गैरबराबरी को दूर करने के लिए देश की आजादी के बाद एससी, एसटी और ओबीसी जातियों को सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन देने का कानून बनाया गया. पर उस कानून को दरकिनार करते हुए आजादी के बाद भी सरकारों ने रिजर्वेशन को सही तरह से लागू नहीं किया.

धीरेधीरे सरकारों ने सरकारी नौकरियों को बंद करने के तमाम उपाय किए. करार पर नौकरियों में रिजर्वेशन का कोई कानून नहीं है. इस के अलावा निजी क्षेत्रों की नौकरियों में रिजर्वेशन नहीं है, जिस की वजह से एससी, एसटी और ओबीसी जातियां नौकरियों के मामले में पिछड़ रही हैं. ऊंची पढ़ाईलिखाई महंगी होने के चलते भी ये गरीब जातियां उस से दूर होती जा रही हैं.

लिहाजा, गरीब लोग अपने बच्चों को ऊंची पढ़ाईलिखाई दिलाने की जगह यह कोशिश करते हैं कि वे जैसे भी हो, कोई छोटामोटा रोजगार कर के कमाई करने लगें. इस वजह से वे केवल मजदूर बने रहते हैं.

ऊंची पढ़ाईलिखाई से मोह भंग

बिहार में तकरीबन सवा करोड़ पढ़ेलिखे बेरोजगार हैं. इन में से 50 लाख ऐसे हैं, जो 10वीं जमात पास है. 12वीं जमात पास 35 लाख बेरोजगार हैं और ग्रेजुएट बेरोजगारों की तादाद तकरीबन 25 लाख है.

ये आंकड़े बेरोजगारी के हैं, पर इस से यह भी पता चलता है कि ऊंची पढ़ाईलिखाई में जाने वालों की तादाद लगातार कम होती जाती है. ऐसा क्यों है? इस सवाल का सीधा और आसान सा जवाब यह है कि ज्यादा पढ़ने के बाद भी रोजगार तो मिलता नहीं है.

रोजगार का मतलब सरकारी नौकरी है. बाकी नौकरी को रोजगार नहीं माना जाता है. कम काम, भविष्य की सुरक्षा और ऊपरी कमाई सरकारी नौकरी के प्रति मोह की सब से बड़ी वजह है.

नौकरी न मिलने के चलते मांबाप अपने बच्चों को ऊंची पढ़ाईलिखाई दिलाने से कतराते रहते हैं. वे लड़कों को एक बार कर्ज ले कर पढ़ा भी दें, पर लड़कियों को पढ़ाने के बजाय उन की शादी में पैसा खर्च करना बेहतर सम?ाते हैं.

इस की ठोस वजह है. देश में ग्रेजुएट होने यानी ऊंची पढ़ाईलिखाई हासिल करने के बाद भी नौजवान बड़ी तादाद में बेरोजगार हैं. सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी यानी सीएमआईई के आंकड़े इस के गवाह हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि देश के ज्यादातर प्रदेशों में हर दूसरा या तीसरा ग्रेजुएट बेरोजगार है.

बढ़ रही ग्रेजुएट बेरोजगारों की तादाद

प्रदेशवार कुछ आंकड़ों को देखते हैं. पिछले 4 सालों में यानी दिसंबर, 2017 से दिसंबर, 2021 के बीच यह तुलना की गई है. इस के मुताबिक, राजस्थान की हालत सब से ज्यादा खराब है. वहां कुल 65 लाख बेरोजगार हैं. इन में से ग्रेजुएट बेरोजगारों की तादाद 21 लाख के आसपास है. दूसरे नंबर पर हिमाचल प्रदेश है, जिस में 2 लाख, 55 हजार बेरोजगारों में से ग्रेजुएट की तादाद तकरीबन एक लाख, 39 हजार है.

इस के अलावा बिहार में 38 लाख, 84 हजार बेरोजगारों में से ग्रेजुएट बेरोजगारों की तादाद 10 लाख, 6 हजार है. ?ारखंड में कुल 18 लाख, 19 हजार बेरोजगारों में से 3 लाख, 82 हजार ग्रेजुएट हैं. हरियाणा में 24 लाख, 80 हजार बेरोजगारों में से 6 लाख, 2 हजार ग्रेजुएट बेरोजगार हैं.

पंजाब में 8 लाख, 2 हजार बेरोजगारों में से ग्रेजुएट बेरोजगारों की तादाद 2 लाख, 56 हजार है. उत्तर प्रदेश में 28 लाख, 41 हजार बेरोजगारों में से 13 लाख, 89 हजार ग्रेजुएट बेरोजगार हैं.

छत्तीसगढ के 2 लाख, 85 हजार बेरोजगारों में से एक लाख, 48 हजार ग्रेजुएट बेरोजगार हैं. दिल्ली में 7 लाख, 26 हजार बेरोजगारों में से 3 लाख,

56 हजार ग्रेजुएट बेरोजगार हैं. महाराष्ट्र में 19 लाख, 12 हजार बेरोजगारों में से 7 लाख, 85 हजार ग्रेजुएट बेरोजगार हैं.

मध्य प्रदेश में 6 लाख, 27 हजार बेरोजगारों में से ग्रेजुएट बेरोजगारों की तादाद 3 लाख, 23 हजार है. गुजरात में  4 लाख, 92 हजार बेरोजगारों में से एक लाख, 90 हजार ग्रेजुएट बेरोजगार हैं.

इस की वजह देखें, तो पता चलता है कि देश में नई नौकरियां नहीं पैदा हो रही हैं. इस की सब से ज्यादा कीमत पढ़ेलिखे नौजवानों को चुकानी पड़ रही है.

लड़कियों की हालत और भी खराब

अगर इन आंकड़ों में लड़कियों की हालत देखें, तो पता चलता है कि देश की हर 5वीं शहरी लड़की बेरोजगार है. गांवदेहात में हर दूसरी लड़की बेरोजगार है. लड़कियों की पढ़ाईलिखाई के मामले में समाज जागरूक नहीं है.

कई मामलों में देखें, तो लड़कियां खुद भी यह मान लेती हैं कि शादी कर के बच्चे पैदा करना और परिवार की देखभाल करना ही सब से जरूरी काम है. ऐेसे में जो मौके मिलते हैं, ज्यादातर लड़कियां उन का फायदा नहीं उठाती हैं.

धर्म, जाति और पौराणिक व्यवस्था ऐसी है, जो लड़कियों को बहुत ज्यादा आजादी देने या पढ़लिख कर समाज में लड़कों से बराबरी करने की सोच बनने नहीं देती है. लड़कियों को यही सिखाया जाता है कि परदा करना उन के लिए जरूरी है.

बहुत सारी लड़कियों को शहर में अकेले रह कर पढ़ाई करने के मौके नहीं दिए जाते हैं. मांबाप लड़कियों को पढ़ाने से अच्छा उन का घर बसाना सम?ाते हैं. जो लड़कियां पढ़लिख कर नौकरी कर लेती हैं, उन्हें समाज में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है.

कई बार उम्र ज्यादा होने से लड़कियों की अच्छी जगह शादी भी नहीं होती है. यह मान लिया जाता है कि नौकरी करने वाली लड़कियां परिवार के दबाव में नहीं रहती हैं.

लड़कियों की उम्र बढ़ने से अच्छे रिश्ते नहीं मिलते हैं और दहेज भी ज्यादा देना पड़ता है. इस के चलते बहुत से मांबाप कम उम्र में ही अपनी लड़कियों की शादी करने को बेहतर सम?ाते हैं. सरकारी नौकरी करने वाली लड़कियों के हालात थोड़े बेहतर होते हैं. पर परेशानी की बात यह है कि देश में सरकारी नौकरियां कम होती जा रही हैं.

बेरोजगारी की अहम वजह

पढ़ाईलिखाई में जाति और धर्म का बड़ा योगदान होता है. पौराणिक समय में पढ़नेलिखने का हक केवल ऊंची जातियों को ही था. तब ब्राह्मण और साधुसंत पढ़ाने का काम करते थे.

ब्राह्मणों और क्षत्रियों को ही गुरुकुल में पढ़ाया जाता था. वहां कमजोर और निचली जातियों को पढ़ने का हक नहीं था. पौराणिक किताबों में इस के तमाम उदाहरण मिलते हैं. उन में ऐसी तमाम कहानियां दर्ज हैं.

आज के दौर में पढ़ाईलिखाई महंगी हो गई है. सरकारी स्कूलों में जहां पढ़ाईलिखाई सस्ती है, वहां उस का वह लैवल नहीं है कि आगे चल कर गरीब घरों के बच्चे सरकारी नौकरी लायक कंपीटिशन में हिस्सा ले कर उन को हासिल कर सकें.

रिजर्वेशन का फायदा भी वही एससी, एसटी और ओबीसी ले पा रहे हैं, जो पैसे से मजबूत हैं. यह एक तरह से समाज में अलग तरह की ऊंची जातियों का तबका तैयार हो गया है. इस फायदा लेने के लिए एससी, एसटी और ओबीसी का जाति प्रमाणपत्र लगाता है, पर खुद को ऊंचा ही सम?ाता है. यह तबका अपनी जाति के लोगों से उसी तरह से भेदभाव करता है, जिस तरह से ऊंची जातियां करती हैं.

इस तरह से देखें, तो ऊंची जातियों के पास ही पढ़नेलिखने की ताकत रह गई है. निचली और गरीब जातियों के लिए महंगी और ऊंची पढ़ाईलिखाई नहीं रह गई है. जहां सस्ती पढ़ाईलिखाई है, वहां उस की क्वालिटी खराब हो गई है.

‘मनुस्मृति’ में नहीं था यह हक

‘मनुस्मृति’ के पहले अध्याय में प्रकृति के निर्माण, 4 युगों, 4 वर्णों, उन के पेशों, ब्राह्मणों की महानता जैसे विषय शामिल हैं. दूसरा अध्याय ब्रह्मचर्य और अपने मालिक की सेवा पर आधारित है. तीसरे अध्याय में शादियों की किस्मों, विवाहों के रीतिरिवाजों और श्राद्ध यानी पूर्वजों को याद करने का वर्णन है. चौथे अध्याय में गृहस्थ धर्म के कर्तव्य, खाने या न खाने के नियमों और 21 तरह के नरकों का जिक्र है. 5वें अध्याय में महिलाओं के कर्तव्यों, शुद्धता और अशुद्धता आदि का जिक्र है. छठे अध्याय में एक संत और 7वें अध्याय में एक राजा के कर्तव्यों का जिक्र है. 8वां अध्याय अपराध, न्याय, वचन और राजनीतिक मामलों आदि पर बात करता है. 9वें अध्याय में पैतृक संपत्ति, 10वें अध्याय में वर्णों के मिश्रण, 11वें अध्याय में पापकर्म और 12वें अध्याय में 3 गुणों व वेदों की प्रशंसा है.

हिंदू धर्म ‘मनुस्मृति’ के हिसाब से चलता है. ‘मनुस्मृति’ ने पूरे समाज को 6,000 जातियों में विभाजित किया था. शूद्रों को पढ़नेलिखने का हक नहीं था. उस समय तालीम देने की विधि मौखिक हुआ करती थी. ऐसे में कुछ ब्राह्मणों को छोड़ कर कोई यह नहीं जानता था कि ‘मनुस्मृति’ में आखिर क्या है?

ब्रिटिश राज के दौरान यह किताब कानूनी मामलों में इस्तेमाल होने की वजह से खासा चर्चित हो गई थी. विलियम जोनास ने ‘मनुस्मृति’ का अंगरेजी में अनुवाद किया है. इस की वजह से लोगों को यह पता चल सका कि इस किताब में क्या लिखा गया है.

महात्मा ज्योतिबा फुले ‘मनुस्मृति’ को चुनौती देने वाले पहले आदमी थे. खेतिहर मजदूरों, सीमांत किसानों और समाज के दूसरे वंचित और शोषित तबकों की बदहाली देख कर उन्होंने ब्राह्मणों व व्यापारियों की आलोचना की और शूद्रों के पढ़ने पर जोर दिया.

‘मनुस्मृति’ का मतलब ‘मनु’ द्वारा लिखा गया ‘धर्मशास्त्र’ है. इस में कुल 12 अध्याय हैं, जिन में 2,684 श्लोक हैं. कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2,964 है.

तमाम दलित महापुरुषों ने समयसमय पर अपने विचारों में साफतौर पर यह माना कि ‘मनुस्मृति’ उन की राह को मुश्किल बनाती है. इस के चलते ही धार्मिक और जातीय आधार पर उन से भेदभाव किया गया था.

हिंदू राष्ट्र की सोच की मूल में ‘मनुस्मृति’ ही है, जो हमें वापस जाति और धर्म के खांचे में बांटने में दिलचस्पी रखती है. धार्मिक आधार पर यह दूसरों से भेदभाव की तरफ ले जाना चाहती है. दलितपिछड़ों को पढ़ाईलिखाई के हक से कैसे दूर रखा जा सके, इस के लिए आधुनिक उपाय किए जा रहे हैं. इस वजह से सरकारी तालीम को खत्म और बेमतलब का कर दिया गया है.

सरकारी स्कूल देख कर आप समझ सकते हैं कि वे पूरी तरह से खानापूरी भर हैं, जिस से गरीब पढ़लिख कर रोजगार न पा सके. महंगी होती तालीम में उसे अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ जाए.

तालीम को ले कर अगर सर्वे हो, तो यह बात सच निकलेगी कि पढ़ाई अधूरी छोड़ने वालों में सब से ज्यादा तादाद दलितों की है. ग्रेजुएशन करने के बाद भी नौकरियों के मौके सब से कम उन के ही पास हैं.

बिहार : सरकारी नौकरियों की चाहत ने बढ़ाई बेरोजगारी

धीरज कुमार

प्रदेश की राजधानी पटना में तकरीबन सभी जिलों के लड़केलड़कियां अलगअलग शहर के कोचिंग सैंटरों में अपना भविष्य बेहतर करने की उम्मीद में भागदौड़ करते देखे जा सकते हैं. उन की एक ही ख्वाहिश होती है कि किसी तरह से प्रतियोगिता परीक्षा में पास कर सरकारी नौकरी हासिल करना.

बहुत से लड़केलड़कियां अपना भविष्य बनाने की चाह में पटना जैसे शहरों में कई सालों से टिके होते हैं, फिर भले ही उन के मातापिता किसान हैं, रेहड़ी चलाने वाले हैं, छोटेमोटे धंधा करने वाले हैं. उन की थोड़ी आमदनी भी होगी, लेकिन वे अपने बच्चे के उज्ज्वल भविष्य के लिए पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहते हैं, चाहे इस के लिए खेत बेच कर, कर्ज ले कर, गहने गिरवी रख कर कोचिंग सैंटरों में लाखों रुपए क्यों न बरबाद करना पड़े.

कोचिंग सैंटर वाले भी इस का भरपूर फायदा उठा रहे हैं. ज्यादातर कोचिंग सैंटर सौ फीसदी कामयाबी का दावा कर लाखों का कारोबार करते हैं, भले ही उन की कामयाबी की फीसदी जीरो के बराबर हो.

अब सवाल यह कि किसी सरकार के पास इतने इंतजाम हैं, जो सभी नौजवानों को नौकरी मुहैया करा देगी? इस सवाल के जवाब के लिए पिछले तकरीबन 10 सालों की  प्रमुख रिक्तियों और बहालियों का विश्लेषण किया गया. राज्य सरकार ने साल 2010 में बिहार में पहली बार शिक्षक पात्रता परीक्षा (टेट) का आयोजन किया था. इस परीक्षा में 26.79 लाख लोगों ने आवेदन किया था, जिन में से मात्र 1.47 लाख अभ्यर्थियों को पास किया गया. इस में कामयाबी का फीसदी मात्र साढ़े 5 फीसदी था. राज्य सरकार ने उन सफल अभ्यर्थियों में से तकरीबन एक से सवा लाख लोगों को नियोजन किया.

उस समय शिक्षकों को सरकार ने  जो बहाली की, उन्हें नियोजन यानी आउटसोर्सिंग पर रखा गया, जिन को सरकार नियत वेतन देती है. नियमित शिक्षकों की तरह वेतन व अन्य सुविधाएं नहीं देती है. हां, चुनाव के समय कुछ पैसे बढ़ा कर वोट बैंक के लिए खुश करने की कोशिश की जाती है.

आज उन्हीं शिक्षकों ने कानून का दरवाजा खटखटा कर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई लड़ी, ताकि उन्हें पुराने शिक्षकों की तरह दूसरी सुविधाएं मिलें. लेकिन वे सरकार और अदालत के चक्रव्यूह में फंस कर हार गए.

राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में भी दलील पेश की है कि स्थायी बहाली नहीं होंगी. पहले की हुई स्थायी बहाली को वर्तमान सरकार डाइंग कैडर यानी मृतप्राय मान चुकी है.

इस का मतलब यह है कि अब जो भी बहाली होगी, वह सिर्फ नियत वेतन पर रखा जाएगा. अब पुरानी बहाली की तरह ईपीएफ, बीमा, पैंशन, ग्रेच्युटी, स्थानांतरण, अनुकंपा पर नौकरी देने का प्रावधान आदि की सुविधाएं खत्म कर दी गई हैं.

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जबकि गैरसरकारी संस्थाओं में आज भी ऐसी सुविधाओं में से कुछ ही दी जाती हैं. यही वजह है कि मेहनत करने वाले लोग प्राइवेट संस्थाओं को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं, लेकिन इस के बावजूद भी कुछ  लोग अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि सरकारी नौकरियों के पीछे भागना फायदेमंद है या नुकसानदायक.

बिहार सरकार स्टाफ सिलैक्शन कमीशन (एलडीसी) 2014 में  तकरीबन 13,000 पदों की बहाली के लिए परीक्षा का आयोजन किया गया. इन पदों पर बहाली के लिए तकरीबन  13 लाख  अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था. कई बार यह परीक्षा रद्द की गई. इस परीक्षा को टालते हुए लगभग  5-6 साल बीत जाने के बाद भी अभी उस की बहाली पूरी नहीं की गई है. अगर रिक्तियों के अनुपात में बहाली की संख्या को देखा जाए तो इस परीक्षा में महज  1 फीसदी अभ्यर्थियों का चयन किया जाना है.

बिहार सरकार जानबूझ कर कोई भी बहाली को कम समय में पूरा नहीं करती है, बल्कि उसी बहाली को कई सालों में चरणबद्ध तरीके से पूरा करने की कोशिश करती है, ताकि समय लंबा खिंचे. इस से अभ्यर्थी धीरेधीरे कम होंगे और सरकार के एजेंडे का प्रचारप्रसार ज्यादा होगा. इस तरह सरकार को ज्यादा फायदा मिलेगा. ऐसी प्रक्रिया में कुछ अभ्यर्थियों की तो उम्र भी निकल जाती है, जिस के कारण वे बहाली से पहले ही छंट जाते हैं.

साल 2019 में बिहार पुलिस में कांस्टेबल के 11,880 पदों पर बहाली होनी थी, जिस में तकरीबन 13 लाख अभ्यर्थियों ने आवेदन दिए थे. अभ्यर्थियों के अनुपात में यह महज एक फीसदी से भी कम बहाली की गई. इस के साथ ही कई अन्य छोटीमोटी बहालियां हुईं जैसे दारोगा की बहाली, नर्स की बहाली, पशुपालन विभाग में बहाली वगैरह. इन सभी पदों की बहाली में सीटें कम थीं. इन 10 सालों की बहाली में तकरीबन छोटीबड़ी सभी बहालियां मिला कर तकरीबन डेढ़ से 2 लाख अभ्यर्थियों की बहाली हुई होगी.

ऊपर मोटेतौर पर 2-3 परीक्षाओं का जिक्र किया गया. गौर करने की बात  यह है कि तीनों परीक्षाओं  में तकरीबन 50 लाख अभ्यर्थियों ने हिस्सा लिया, जिन में से तकरीबन 2 लाख लोगों को नौकरी मिल गई.

बिहार के नौजवानों की यह खासीयत है कि एकसाथ कई परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. अगर मान लिया जाए कि तीनों परीक्षा में कुछ लोग समान रूप से सम्मिलित हुए हों, तो तकरीबन 30 से 35 लाख नौजवान 10 सालों में बेरोजगार रह गए यानी उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल पाई.

राज्य और केंद्र सरकार द्वारा युवाओं में स्किल पैदा करने के लिए ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना’ के तहत कई तरह के प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. लेकिन इन प्रशिक्षण केंद्रों पर प्लेसमैंट की योजना नहीं होने के चलते ये सभी कार्यक्रम कागजों पर ही रह गए हैं. इसी तरह नौकरी से वंचित लोगों की वजह से बेरोजगारों की तादाद काफी बड़ी हो जाती है. उन में से ज्यादातर लोग घर छोड़ कर दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं. स्किल की कमी में कम तनख्वाह पर बाहरी राज्यों में काम करना पड़ता हैं.

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नीतीश सरकार अपने शुरू के कार्यकाल में बेरोजगारी दूर करने और रोजगार बढ़ाने के लिए बाहरी राज्यों के गैरसरकारी संस्थाओं को बिहार में आमंत्रित कर नियोजन मेला का आयोजन करती थी, जिस का मीडिया में काफी प्रचारप्रसार भी किया जाता था. इस में दूसरे राज्यों के धागा मिल, कपड़ा मिल, बीमा कंपनियां, सिक्योरिटी कंपनी, साइकिल कंपनी, मोटर कंपनी वगैरह छोटीबड़ी तकरीबन 20-22 कंपनियां हर जिले में आ रही थीं. उस में 18 से 25 साल की उम्र के लड़के और लड़कियों को रोजगार देने का काम किया जाता था. लेकिन लोगों ने गैरसरकारी कंपनी होने के चलते रोजगार हासिल करने में जोश नहीं दिखाया, इसलिए सरकार को वह कार्यक्रम बंद करना पड़ा.

केंद्र सरकार की ओर से की जाने वाली बहाली जैसे रेलवे, बैंक वगैरह में कम कर दी गई हैं या तकरीबन रोक दी गई हैं. फिर भी बिहार के छोटेबड़े शहरों में तैयारी करने वालों की तादाद में कमी नहीं आई है, बल्कि इजाफा ही हुआ है.

साल 2001 से साल 2005 के बीच बिहार सरकार ने 11 महीने के लिए राज्य में शिक्षामित्रों की बहाली की थी. यह बहाली मुखिया द्वारा की गई थी, जिन का मासिक वेतन मात्र 1,500 रुपए था. बाद में आई सरकार ने उन के मासिक वेतन में बढ़ोतरी 3,000 रुपए कर दी. साल 2015 में  वर्तमान सरकार शिक्षकों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने के लिए वेतनमान तो लागू कर दिया, पर आज भी पुराने शिक्षकों की तरह सुविधाओं से वंचित रखा गया है.

आज सरकार हजार डेढ़ हजार रुपए पर किसी भी तरह की बहाली निकालती है, तो लोगों की भीड़ लग जाती है. लोगों का मानना है कि पहले सरकारी दफ्तर में किसी तरह से घुस जाओ. आने वाले समय में सरकार अच्छस वेतन दे ही देगी. इसी का नतीजा है कि बिहार में तकरीबन ढाई लाख रसोइया विद्यालयों में इस उम्मीद में काम कर रही हैं कि आने वाले दिनों में सरकार अच्छा वेतन देगी.

सरकारी नौकरियों के पीछे भागने की खास वजह यह रही है कि इस में मेहनत कम करनी पड़ती है. इस के उलट गैरसरकारी दफ्तरों में काम ज्यादा करना पड़ता है.

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बिहार में खेती लायक जमीन होते हुए भी लोगों का खेतीबारी के प्रति मोहभंग होता जा रहा है. इस के पीछे बाढ़, सुखाड़ और नवीनतम कृषि उपकरणों की कमी होना भी है, जिस के कारण लोगों के पास एकमात्र विकल्प सरकारी तंत्र में नौकरियों की तलाश करना रह जाता है.

नौजवानों को चाहिए कि सरकारी नौकरियों के पीछे भागने के बजाय वे अपने अंदर हुनर पैदा करें. इस पर अपने पौजिटिव नजरिए को विकसित करने की जरूरत है. कोई भी नया हुनर सीख कर अपने कामधंधे में लगा जा सकता है और अपने परिवार के लिए सहारा बना जा सकता है.

चरम पर बेरोजगारी : काम न आया पाखंडी सरकार का जयजयकार

मामला : 01

(नौकरी नहीं मिलने से 3 युवकों ने की एकसाथ खुदकुशी)

पिछले दिनों राजस्थान में 3 युवकों ने नौकरी न मिलने से हताश हो कर एकसाथ आत्महत्या कर ली. तीनों युवक जान देने के लिए ट्रेन के आगे कूद गए. जिस से तीनों की मौके पर ही मौत हो गई. घटना के चश्मदीदों की मानें तो ट्रेन के आगे कूदने से पहले ये युवक कह रहे थे कि नौकरी तो लगेगी नहीं, तो फिर जीने का क्या मतलब? ऐसे जी कर क्या करेंगे?

घटना राजस्थान के अलवर जिले की है. यहां पर नौकरी न मिलने से हताश हो कर 5 दोस्तों ने एकसाथ जान देने का प्लान बनाया था. इस योजना के समय 2 युवा ट्रेन के आगे कूदने से डर गए और पीछे हट गए. वहीं 3 अन्य दोस्तों ने एकसाथ ट्रेन के आगे छलांग लगा दी. ये तीनों युवक शहर के एफसीआई गोदाम के पास ट्रेन के आगे कूद गए. ट्रेन के आगे कूदने से इन  की मौके पर ही मौत हो गई.

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बाकी जिन 2 दोस्तों ने मौके पर आत्महत्या न करने का फैसला लिया उन की जान बच गई. उन्होंने बताया कि नौकरी न लगने से सभी परेशान थे. सभी युवकों का मानना था कि नौकरी नहीं लगेगी ये तो तय है लेकिन बिना नौकरी के जीवन कैसे गुजरेगा? ऐसे में ज़िंदा रह कर क्या करेंगे? ट्रेन के आगे कूदने से जान गंवाने वाले युवकों में से एक सत्यनारायण मीणा ने घटना से कुछ घंटे पहले अपने फेसबुक अकाउंट पर आत्महत्या का वीडियो- ‘माही द किलर’ नाम से डाला था.

मामला : 02

(पति की बेकारी से परेशान पत्नी ने दी जान)

जयपुर के गांधी नगर रेलवे स्टेशन पर पिछले शुक्रवार की सुबह एक महिला ने चलती ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली. ट्रेन की चपेट में आने पर महिला का शरीर 2 हिस्सों में बंट गया. घटना के बाद  स्टेशन पर हड़कंप मच गया. सूचना पर पहुंची पर पुलिस ने शव को कब्जे में ले कर इस की सूचना परिजनों को दी.

पुलिस के मुताबिक महिला का पति राजेश पिछले एक साल से बेरोजगार है. वह नौकरी की तलाश में हैं और घर का खर्च मरने वाली महिला शीतल के जिम्मे ही था. शीतल एक प्राईवेट कंपनी में नौकरी कर जैसेतैसे परिवार का खर्च उठा रही थी, लेकिन कोरोना के चलते लोकडाउन ने उस की यह नौकरी भी छीन ली. कामधंधे की बात को ले कर उन के बीच अकसर झगड़े हुआ करते थे. खुदकुशी के दिन की सुबह भी उन में कहासुनी हुई थी.

मामला : 03

(पति की बेकारी से तंग पत्नी ने की खुदकुशी की कोशिश)

अजमेर निवासी विनोद अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ गौतम नगर में किराये के मकान में रहता है. विनोद एक लंबे अरसे से बेरोजगार है. घर का खर्च चलाने में दिक्कत होने के कारण उस की पत्नी हमेशा तनाव में रहती थी. पिछले रविवार की सुबह विनोद किसी काम से घर के बाहर गया था और रंजना अपने दोनों बच्चों के साथ घर में ही थी.

इसी बीच उस ने कमरे के पंखे से लटक कर खुदकशी की कोशिश की. यह देख बच्चों ने शोर मचा दिया, जिस से आसपडोस के लोग जुट गए. उन्होंने तत्काल महिला को फंदे से उतार कर बचा लिया. महिला ने बताया कि पति की बेरोजगारी से तंग आ कर उस ने जान देने की कोशिश की थी. बेरोजगारी के अलावा पति से उसे किसी और तरह की कोई शिकायत नहीं है.

मामला : 04

(बेकारी की वजह से रिश्ता पहुंचा टूटने की कगार पर)

रोहित व रंजना की शादी दिसंबर 2018 में हुई थी. 6-7 माह तक पतिपत्नी का रिश्ता ठीक रहा. रोहित बेरोजगार है और पत्नी खर्चे के लिए पैसे मांगती है. बेरोजगारी के चलते वह पैसे नहीं दे पाता. इस से दोनों के बीच में कहासुनी और झगड़ा होता रहता है. झगड़े में कई बार रोहित अपनी पत्नी पर हाथ भी उठा चुका है.

परिजनों ने बातचीत से कई बार मामला शांत किया, लेकिन कुछ दिन सब ठीक रहता और फिर से वही स्थिति बन जाती. हालात ऐसे बन गए कि मामला थाने तक पहुंच गया. महिला थाने में जिला महिला संरक्षण एवं बाल विवाह निषेध अधिकारी पतिपत्नी के टूटते रिश्ते को जोड़ने का प्रयास कर रही है.

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बेकारी की वजह से रिश्ता टूटने की कगार पर पहुंचा यह अकेला ऐसा मामला नहीं है. इस तरह के हर दिन 4 से 5 केस पुलिस तक पहुंच रहे हैं. ये तो वे केस हैं जो कि घरों से बाहर रहे हैं. बहुत से केस तो घरों की चारदीवारी (परिवारों में आपसी बातचीत या पंचायतें हो रही हैं) में ही चल रहे हैं.

जयपुर जिला महिला संरक्षण एवं बाल विवाह निषेध अधिकारी सरिता लांबा की मानें तो कुल केस मेें 70 फीसदी केस बेरोजगारी की वजह से हैं. वहीं 20 प्रतिशत केस में पति द्वारा नशा करना वजह सामने आया है. कुछ केस दहेज या अवैध संबंधों के चलते हो रहे हैं. कुछ वैवाहिक संबंध दो माह भी ठीक से नहीं चल पाते. एक मामला पुलिस तक पहुंचने के बाद 50 प्रतिशत रिश्ते ही दोबारा जुड़ पाते हैं.सरिता लांबा के कहे अनुसार रिश्ते बिगड़ने की सब से बड़ी वजह बेरोजगारी रही है.

बेकारी से तंग युवाओं के अवसान का दौर

आज का युवा सड़कों पर उतर आया है तो उस के पीछे ठोस वजहें है. हालिया नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंंकड़े भी यह दर्शाते हैं कि देश के युवाओं का दुर्दिन चल रहा है. तभी तो बेरोजगार युवा अवसाद में आ कर मौत को गले लगा रहा. लेकिन बदकिस्मती देखिए, लोकतांत्रिक परिपाटी के सब से बड़े संवैधानिक देश में युवा एक अदद नौकरी न मिलने के कारण अवसादग्रस्त हो रहे और सियासी व्यवस्था उन्हें सियासत की कठपुतली बना सर्कस में नचा रही है. इतना ही नहीं देश की युवा जमात भी सियासतदानों के बनाए मौत के कुएं में चक्कर काट रही है.  युवाओं को भी अपने मुद्दों का भान नहीं रहा. तभी तो वे राजनीति के भंवर में कठपुतली बन नाच रहे और सियासी दल उन का फायदा उठा रहे.

आज युवाओं की सब से बड़ी जरूरत क्या है ? उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले, बेहतर रोजगार के अवसर मुहैया हों, ताकि उन्हें मौत को गले न लगाना पडे. लेकिन देश के युवा भी गुमराह हो गए हैं. आज का युवा हर मायने में राजनीतिक दल का काम करने लगा है और राजनीतिक दल उन के कंधे पर सवार हो कर चैन की बंशी बजा रहे, जो कतई उचित नहीं. युवाओं की पहली प्राथमिकता शिक्षा और नौकरी है, फिर क्यों युवा उस मुद्दे को ले कर आंदोलित न हो कर राजनीतिक दलों का काम आसान कर रहे है.

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में औसतन प्रतिदिन 36 बेरोजगार युवाओं ने खुदकुशी की, जो किसान आत्महत्या से भी ज्यादा है. यह उस दौर में हुआ, जब देश के प्रधानसेवक भारत को न्यू इंडिया/डिजिटल इंडिया बनाने का दिवास्वप्न दिखा रहे थे. विश्वगुरु बनने की दिशा में बातों ही बातों में लफ्जाजियों का गोता लगाया जा रहा था. देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन बनाने का संकल्प रोजाना दोहराया जा रहा था. 56 इंच की छाती पर गुमान यह कह कर किया जा रहा था कि भारत एक महाशक्ति बनने जा रहा है.

ऐसे में जब 21वीं सदी के भारत में डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और स्किल इंडिया जैसे ढेरों सरकारी कार्यक्रम चल रहे हो, उस दौर में बेरोजगारी से तंग आ कर देश के युवा जान दे रहे हो तो फिर सरकारी नीतियों और उन की नीयत पर सवालिया निशान खड़े होना वाजिब है.

एनसीआरबी के आंंकड़े के मुताबिक साल 2018 में ऐसे मौत को गले लगाने वाले बेरोजगार हताश युवाओं की संख्या 12,936 रही. यानी औसतन हर 2 घंटों में 3 लोगों की जान बेरोजगारी ने ली. ऐसे में यह कहीं न कहीं संविधान के अनुच्छेद- 21 में मिले जीवन जीने की स्वतंत्रता का हनन करना है और इस के लिए दोषी पूरा का पूरा राजनीतिक परिवेश है.

बेरोजगार युवा: सरकार की गलत नीतियों का नतीजा

हालिया दौर में भारत के पास जितना युवा धन है, उतना दुनिया के किसी भी मुल्क के पास नही है मगर सच्चाई यह भी है कि सब से ज़्यादा बेरोज़गार युवाओं का सैलाब भी हमारे ही मुल्क में है. यह सब कुछ वर्तमान सरकार की गलत नीतियों का नतीजा है. पिछले 60-70 सालों में बेरोज़गारी को ले कर जितनी बातें नहीं हुई हैं, उस से कहीं अधिक बीते 6 सालों से सुनाई पड़ रही है. सतासीन सरकार ने सत्ता हासिल करने के लिए युवाओं को हर साल 2 करोड़ रोज़गार गारंटी का वादा कर छला था.

आज मुल्क के कई संस्थानों का लगातार निजीकरण होना यह साबित करता है कि वर्तमान सरकार विफल है. इसी वजह से हर रोज़ लाखों की तादाद में युवाओं की नोकरियां दाव पर लगी रहती हैं. जिस से युवाओं में लगातार डिप्रेशन बढ़ रहा है. आज इन्हीं गलत नीतियों की वजह से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाला युवा चपरासी की नौकरी भी करने को तैयार है. हद तो यह है कि वह भी उसे नहीं मिल रही है. इस से भी कहीं ज़्यादा चौंकाने वाले मामले  अनेक शहरों में उस वक्त सामने आएं, जब म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में सफाई कर्मियों की नौकरी के लिए गैजुएट एवं पोस्ट गैजुएट के साथ इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाले युवाओं का तांता लग गया.

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जिस तरह से हर भरती पेपरलीक या कोर्ट के चक्कर में लंबित पड़ी है, उस से साफ़ है कि सरकार और सरकार में बैठे अधिकारी इन भर्तियो को ले कर संवेदनशील नही है. हर साल लाखोकरोड़ों की संख्या में इंटर, ग्रेजुएशन पास करने वाले बच्चे जब किसी सरकारी नौकरी की लिखित परीक्षा दे कर वापस अपने घर तक नही पहुंंच पाते तब तक परीक्षा संबंधी वेबसाइट पर पेपरलीक/परीक्षा स्थगित होने की जानकारी अपलोड कर दी जाती है.

भरती चाहे स्थगित हो अथवा कोर्ट में जाए पर इन सभी बातो का दुष्परिणाम अभ्यर्थी को ही भुगतना पड़ता है, वह अभ्यर्थी जो सालोसाल, दिनरात मेहनत कर के एक अदद सी नौकरी के सपने देखता है परन्तु उसे पेपर लीक/स्थगित होने से निराशा ही हाथ लगती है.

जिस युवाशक्ति के दम पर देश का मुखिया विश्वभर में इतराते घूमता है, देश की वही युवाशक्ति एक नौकरी के लिए दरदर भटकने को मजबूर है. ताजा रिपोर्टो के मुताबिक, जिन युवाओ के दम पर हम भविष्य की मजबूत इमारत की आस लगाए बैठे है, उस की नीव की हालत बेहद निराशाजनक है. 21वीं सदी में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी अपनाने के बाद भी देश एक ऐसा सिस्टम नही खड़ा कर पाया है जो एक भरती परीक्षा को सकुशल संपन्न करा सके. बेरोजगारी नाम का शब्द दरअसल देश का ऐसा सच है, जिस से राजनीतिज्ञों, खुद को देश का रहनुमा समझने वालो ने अपनी आंंखे मूंद ली हैं.

हद पर बेकारी का दर्द

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते साल अक्टूबर, 2019 में 40.07 करोड़ लोग काम कर रहे थे, लेकिन इस साल अगस्त माह में यह आंकड़ा 6.4 फीसदी घट कर 36.70 करोड़ रह गया. इस से पहले अंतररष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी अपनी एक रिपोर्ट में देश में रोजगार के मामले में हालात बदतर होने की चेतावनी दी थी. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बीते 6 सालों के दौरान रोजाना साढ़े 6 सौ जमीजमाई नौकरियां खत्म हुई हैं.

46 साल के अशोक कुमार एक निजी कंपनी में बीते 22 साल से काम कर रहे थे. लेकिन बीते साल नवंबर माह में एक दिन अचानक कंपनी ने खर्चों में कटौती की बात कह कर उन की सेवाएं खत्म कर दीं. अभी उन के बच्चे छोटेछोटे थे. महीनों नौकरी तलाशने के बावजूद जब उन को कहीं कोई काम हीं मिला तो मजबूरन वह अपनी पुश्तैनी दुकान में बैठने लगे. अशोक कहते हैं, “इस उम्र में नौकरी छिन जाने का दर्द क्या होता है, यह कोई मुझ से पूछे. वह तो गनीमत थी कि पिताजी ने एक छोटी दुकान ले रखी थी. वरना भूखों मरने की नौबत आ जाती.”

अशोक अब वहीं पूरे दिन बैठ कर परचून और घरेलू इस्तेमाल की दूसरी चीजें बेच कर किसी तरह अपने परिवार का गुजरबसर करते हैं. वह बताते हैं कि पहले वेतन अच्छा था. लिहाजा वह बड़े मकान में किराए पर रहते थे. बच्चे भी बढ़िया स्कूलों में पढ़ते थे. लेकिन एक झटके में नौकरी छिनने के बाद उन को अपने कई खर्चों में कटौती करनी पड़ी. पहले मकान छोटा लिया. फिर बच्चों का नाम एक सस्ते स्कूल में लिखवाया. अब हालांकि उन की जिंदगी धीरेधीरे पटरी पर आ रही है. लेकिन अशोक को अब तक अपनी नौकरी छूटने का मलाल रहता है.

जयपुर के एक छोटे कसबे के रहने वाले  हेमंत ने एक प्रतिष्ठित कालेज से बीए (आनर्स) की पढ़ाई करने के बाद नौकरी व बेहतर भविष्य के सपने देखे थे. लेकिन नौकरी की तलाश में बरसों एड़ियां घिसने के बाद उन का मोहभंग हो गया. आखिर अब वह अपने कसबे के बाजार ही में सब्जी की दुकान लगाते हैं. हेमंत बताते हैं, “कालेज से निकलने के बाद मैंने 5 साल तक नौकरी की कोशिश की. लेकिन कहीं कोई नौकरी नहीं मिली. जो मिल रही थी उस में पैसा इतना कम था कि आनेजाने का किराया व जेबखर्च भी पूरा नहीं पड़ता. यही वजह है कि मैंने सब्जी व फल बेचने का फैसला किया. कोई भी काम छोटाबड़ा नहीं होता.

सीएमआईई ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि नोटबंदी के बाद रोजगार में कटौती का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अब कोरोनाकाल में चरम पर है. इस दौरान श्रम सहभागिता दर 48 फीसदी से घट कर तीन साल के अपने निचले स्तर 36.70 फीसदी पर आ गई है. यह दर काम करने के इच्छुक वयस्कों के अनुपात का पैमाना है. रिपोर्ट में बेरोजगारी दर में इस भारी गिरावट को अर्थव्यवस्था व बाजार के लिए खराब संकेत करार दिया गया है.

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बेरोजगारी पर अब तक जितने भी सर्वेक्षण आए हैं, उन में आंकड़े अलगअलग हो सकते हैं. लेकिन एक बात जो सब में समान है वह यह कि इस क्षेत्र में नौकरियों में तेजी से होने वाली कटौती की वजह से हालात लगातार बदतर हो रहे हैं. बीते दिनों अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की ओर से प्रकाशित एक सर्वेक्षण में कहा गया था कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में ज्यादातर लोगों का वेतन अब भी 8-10 हजार रुपए महीने से कम ही है. इस सर्वेक्षण रिपोर्ट में दावा किया गया था कि रोजगार के क्षेत्र में विभिन्न कर्मचारियों के वेतन में भारी अंतर है. इस खाई को पाटना जरूरी है. एक अन्य सर्वे में कहा गया है कि भारत में 14 करोड़ युवाओं के पास फिलहाल कोई रोजगार नहीं है.

बेअसर तालीथाली की प्रतिक्रांति

देश के बेरोजगार युवाओं द्वारा 5 सितंबर को शाम 5 बजे 5 मिनट तक बेरोज़गारी की थालीताली पीटने के देशव्यापी अभियान के बाद 9 सितंबर को रात्रि 9 बजे 9 मिनट तक अँधेरे के खिलाफ़ मशाल जला कर देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किया गया. माना रहा है कि बेरोजगार युवाओं अपने हक की बात अर्थात नौकरी/नियुक्ति की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित कराने के लिए तालीथाली की प्रतिक्रांति को अंजाम दिया.

दरअसल, किसी भी समाज व देश की युवापीढ़ी क्रांति की बुनियाद होती है. जब युवा पीढ़ी ही अपने ढोंगी राजा के ढोंग में रंग कर उसी हथियार से क्रांति करने की राह पर आ जाएं तो समझा जाना चाहिए कि उसी रंग में रंग चुके है अर्थात मानसिक स्तर बराबर का हो चुका है.

मगर अफसोस, कुछ अरसे पहले देश व समाज के चुनिंदा बुद्धिजीवी व तार्किक लोग युवाओं के हकों अर्थात हर साल 2 करोड़ रोजगार के वादे को ले कर सरकार से सवाल कर रहे थे, उन को गालियां ये तालीथाली भक्त युवा ही दे रहे थे कि पहले वालों ने क्या कर दिया? मोदीजी के नेतृत्व में देश मजबूत किया जा रहा है तो तुम लोग देशद्रोह का कार्य कर रहे हो ?  तब कह रहे थे कि 70 साल के गड्ढे भरने में समय तो लगेगा ही. तुम वामपंथी/पाकपरस्त लोगों को जलन हो रही है. जब गरीब भातभात कर के भूख से मर रहे थे और लोग सवाल खड़ा कर रहे थे तो इन्हीं मोदीभक्त युवाओं द्वारा कहा जा रहा था कि देश को जबरदस्ती बदनाम किया जा रहा है.

असल बात यह है कि जब कैग, सीवीसी, सीबीआई, ईडी आदि को हड़पा जा रहा था, तब ये युवा समझ रहे थे कि समस्याओं की जड़ यही है और इन के खत्म होने में ही भलाई है. जब सरकारी संस्थानों, ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदले जा रहे थे तब इन युवाओं को लग रहा था कि अतिप्राचीन महान सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित किया जा रहा है और ऐसा रामराज्य स्थापित होगा कि डीजलपेट्रोल की महंगाई से भयमुक्त हो कर बंदरों की तरह हम खुद ही उड़ लेंगे. जब मी लार्ड अरूण मिश्रा जस्टिस बने तो लगा कि न्यायपालिका का भ्रष्टाचार मिटाया जा रहा है. जब रंजन गोगोई राज्यसभा के रंग में रंगे तो लगा कि दुग्गल साहब ने कहा कि राज्यसभा मे हमारा बहुमत नहीं है, शायद बहुमत का जुगाड़ कर के हमारी समस्याओं का समाधान किया जाएगा.

संसद के वित्तीय पावर को जीएसटी कौंसिल को ट्रांसफर किया गया तो इन्हीं युवाओं को लगा कि संसद में देशद्रोही विपक्ष सरकार को काम करने नहीं देते इसलिए कोई रास्ता खोजा जा रहा है. विपक्ष को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के इन्हीं होनहार युवाओं ने निपटाया है और आज हालात यह है कि सत्ता कह रही है संसद में विपक्ष सवाल पूछ कर क्या करेगा. वो फोटो याद है न जब देश के मुखिया ने संसद की सीढ़ियों को चूम कर ही संसद में प्रवेश किया था, मगर वो बात भूल गये कि गोडसे ने गांधी को खत्म करने के लिए भी पहले दंडवत प्रणाम किये थे.

जो पिछले 3 दशक से वैज्ञानिक सोच को मात देने के लिए चमत्कारिक, ढोंगी, अल्लादीन के चिराग पैदा हुए उन को बड़ा बनाने में भारत के युवाओं ने महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई है. जितने भी सत्ताधारी लोग है उन की सोच को देखते हुए लग रहा है कि युवाओं ने देश की सत्ता चलाने के नौकर नियुक्त नहीं किये बल्कि अवतारी पुरुष पैदा किये है. साहब को सुन कर लगता था कि पढ़ालिखा होना जरूरी है मगर लाल जिल्द वाली पोटली लिए मैडम को देखा तो लगा कि पढ़ने का क्या फायदा.

जब स्वतंत्र निकाय को हड़पा जा रहा था तब भी राष्ट्रभक्त युवा खुश थे. पुलिस-सेना से ले कर न्यायपालिका तक का रंगरोगन किया जा रहा था तब भी खुश थे. जब सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किया जा रहा था, जब सरकारी कर्मचारियों को कामचोर, भ्रष्ट, बेईमान कह कर निकाला जा रहा था तब भी मोदीभक्त युवा मौन समर्थक थे.

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जब अमेठी के एक युवा ने पकौड़े का ठेला लगाने के लिए लोन मांगा था तो बैंक ने कहा कि तुम्हारे पास कोई एसेट नहीं है, इसलिए लोन नहीं मिलेगा. अब उस युवा को कौन समझाए कि एसेट तो युवाओं की सोच थी जो चाचा नसीब वाले को भेंट कर दी थी, अब रोजगार किस से व किस तरह का मांग रहे हो.

5 सितंबर को तालीथाली बजा लेने व 9 सितंबर को दीयाबाती करने या अब अगले पड़ाव पर शंख बजा लेने से कुछ हासिल नहीं होगा. अमिताभ बच्चन ने भी खूब तालीथाली व शंख बजाया बावजूद कोरोना पॉजिटिव हो गए थे. देश के बेरोजगार युवा जिन से तालीथाली बजा कर रोजगार मांगने जा रहे है, दरअसल वे इस धंधे के ये माहिर खिलाड़ी है. युवाओं का मानसिक स्तर अपने हिसाब से सेट कर चुके है. अब युवा विरोध/आंदोलन/क्रांति नहीं करने वाले क्योंकि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने इन की सोच का दायरा सीमित कर दिया है. अब ये तालीथाली बजाने लायक ही बचे है.

नौजवानों की उम्मीदें हेमंत सोरेन से

झारखंड के दूसरी बार मुख्यमंत्री बने युवा हेमंत सोेरेन से अगर किसी को बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं, तो वे नौजवान और छात्र हैं, जो भाजपा राज में रोजगार और तालीम के बाबत हिम्मत हार चुके थे. इन्हीं नौजवानों के वोटों की बदौलत  झारखंड मुक्ति मोरचा यानी  झामुमो और कांग्रेस गठबंधन को विधानसभा चुनाव में बहुमत मिला है.

15 जनवरी, 2020 को रांची में हेमंत सोरेन से उन के घर मिलने वालों का तांता लगा हुआ था, जिन में खासी तादाद नौजवानों की थी. इन में एक ग्रुप ‘आल इंडिया डैमोक्रैटिक स्टूडैंट और्गेनाइजेशन’ का भी था.

इस ग्रुप की अगुआई कर रहे नौजवान शुभम राज  झा ने बताया कि 11वीं के इम्तिहान में मार्जिनल के नाम पर कई छात्रछात्राओं को फेल कर दिया गया है, जो सरासर ज्यादती वाली बात है.

शुभम राज  झा के साथ आए दिनेश, सौरभ, जूलियस फुचिक, घनश्याम, उषा और पार्वती ने बताया कि उन्हें मुख्यमंत्री से काफी उम्मीदें हैं कि वे उन की ऐसी कई परेशानियों को दूर करेंगे.

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हेमंत सोरेन को तोहफे में देने के लिए ये छात्र कुछ किताबें साथ लाए थे, क्योंकि मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ही उन्होंने कहा था कि उन्हें बुके नहीं, बल्कि बुक तोहफे में दी जाएं.

हेमंत सोरेन ने इन छात्रों की परेशानी संजीदगी से सुनी और तुरंत ही शिक्षा विभाग के अफसरों को फोन कर कार्यवाही करने के लिए कहा तो इन छात्रों के चेहरे खिल उठे कि अब एक साल बरबाद होने से बच जाएगा.

बातचीत में इन छात्रछात्राओं ने बताया कि उन्हें मुख्यमंत्री का किताबें व पत्रपत्रिकाएं पढ़ने और लाइब्रेरी खोलने का आइडिया काफी पसंद आया है और अब वे भी खाली समय में किताबें और पत्रपत्रिकाएं पढ़ेंगे.

नौजवानों पर खास तवज्जुह

मुख्यमंत्री बनते ही हेमंत सोरेन ने तालीम पर खास ध्यान देने की बात कही थी. यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि  झारखंड तालीम के मामले में काफी पिछड़ा है. कई स्कूल तो ऐसे हैं, जहां या तो टीचर नहीं जाते या फिर छात्र ही जाने से कतराते हैं, क्योंकि स्कूलों में पढ़ाई कम मस्ती ज्यादा होती है.

हालात तो ये हैं कि झारखंड के 80 फीसदी स्कूलों की हालत हर लिहाज से बदतर है. चुनाव के पहले एक सर्वे में यह बात उजागर हुई थी कि कई स्कूलों के कमरे तो इतने जर्जर हो चुके हैं कि छात्रों को पेड़ों के नीचे बैठ कर पढ़ाई करनी पड़ रही है. ज्यादातर स्कूलों में शौचालय नहीं हैं और पीने के पानी तक का इंतजाम नहीं है.

इस बदहाली के बाबत जब हेमंत सोरेन से पूछा गया, तो उन्होंने बताया कि इस बदइंतजामी को वे एक साल में ठीक कर देंगे. पिछली भाजपा सरकार के कार्यकाल में स्कूलों और पढ़ाई की बुरी गत तो हुई है, जिसे जल्द ही दूर कर लिया जाएगा.

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इस के अलावा हेमंत सोरेन ने बताया कि नौजवानों को रोजगार मुहैया कराना हमारी प्राथमिकता है. इस बाबत भी कोई सम झौता नहीं किया जाएगा, क्योंकि एक वक्त में (जब  झारखंड बिहार में था) तब यहां के छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं में टौप किया करते थे.

हेमंत सोरेन की लाइब्रेरी बनाने की मंशा यही है कि नौजवानों में किताबें और पत्रिकाएं पढ़ने की आदत फिर से बढ़े और वे तालीम में अव्वल रहें. वे कहते हैं कि इस में सभी को अपने लैवल पर सहयोग करना चाहिए. इस से राह आसान हो जाएगी.

इस में कोई शक नहीं कि न पढ़ना पिछड़ेपन की एक बड़ी वजह है, जिस पर हेमंत सोरेन का ध्यान शिद्दत से गया है.

अब देखना दिलचस्प होगा कि अपने इस मकसद में वे कितने कामयाब हो पाते हैं, लेकिन यह भी सच है कि बुके की जगह बुक का उन का आइडिया न केवल  झारखंड, बल्कि देशभर में पसंद किया जा रहा है.

दम तोड़ते सरकारी स्कूल

मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी बढ़ाने के लिए पिछले 15-20 सालों में नएनए प्रयोग तो खूब किए गए, पर इन स्कूलों में टीचरों की कमी दूर करने के साथ ही इन में पढ़ने वाले बच्चों की जरूरतों को पूरा करने की दिशा में कोई ठोस उपाय सरकारी तंत्र द्वारा नहीं किए गए.

नतीजतन, स्कूलों में पढ़ाईलिखाई का लैवल बढ़ने के बजाय दिनोंदिन गिरा है और छात्रों के मांबाप भी प्राइवेट स्कूलों की ओर खिंचे हैं.

प्राइवेट स्कूलों में आज भी काबिल टीचर मुहैया नहीं हैं. इस की वजह उन को मिलने वाली तनख्वाह है. सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचरों को जहां आज 50,000 रुपए से 70,000 रुपए तक मासिक तनख्वाह मिलती है, वहीं इस की तुलना में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा रहे टीचर बमुश्किल 10,000 रुपए से 15,000 रुपए मासिक कमा रहे हैं.

पढ़ेलिखे नौजवान भी टीचिंग जौब में आना चाहते हैं. वे शिक्षक पात्रता परीक्षा पास कर सरकारी स्कूलों में सिलैक्ट हो जाते हैं और जो परीक्षा पास नहीं कर पाते, तो वे प्राइवेट स्कूलों में नौकरी करने लगते हैं.

नरसिंहपुर जिले के आदित्य पब्लिक स्कूल में इंगलिश पढ़ाने वाले सचिन नेमा बताते हैं कि वे साल 2011 की शिक्षक पात्रता परीक्षा 2 अंक से पिछड़ने के चलते प्राइवेट स्कूल में 15,000 रुपए मासिक तनख्वाह पर 5 पीरियड पढ़ाते हैं. इस के अलावा स्कूल मैनेजमैंट द्वारा उन्हें छात्रों के मांबाप से मेलजोल करने का ऐक्स्ट्रा काम भी दिया जाता है.

प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने का तरीका रटाने वाला हो गया है. छोटेछोटे बच्चों को भारी होमवर्क दिया जाता है, जिसे बच्चों के मांबाप ही ज्यादा करते हैं.

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साहित्यकार और शिक्षाविद डाक्टर सुशील शर्मा कहते हैं कि प्राइवेट स्कूलों में भी अब पढ़ाईलिखाई के बेहतर रास्ते नहीं हैं. उन्होंने निजी तौर पर शहर के कई प्राइवेट स्कूलों में जा कर यह देखा है कि वहां बच्चों को हर बात रटाई जा रही है. इन स्कूलों में ट्रेनिंग पाए टीचरों की कमी इस की खास वजह है.

काम का बोझ

शिक्षा संहिता के नियमों के मुताबिक और शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के तहत राष्ट्रीय महत्त्व के काम चुनाव और जनगणना को छोड़ कर टीचरों की सेवाएं गैरशिक्षकीय कामों में नहीं ली जा सकतीं, पर अधिनियम को धता बताते हुए टीचरों से बेगारी कराई जा रही है. वोटर लिस्ट अपडेट करने से ले कर बच्चों के जाति प्रमाणपत्र बनवाने तक का काम टीचरों को करना पड़ता है.

पिछले साल मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में सरकार द्वारा कराए जा रहे सामूहिक विवाह आयोजन में बाकायदा कलक्टर के निर्देश पर जिला शिक्षा अधिकारी ने 28 टीचरों की ड्यूटी पूरी, दाल, सब्जी परोसने में लगा दी.

इसी तरह विभिन्न जिलों में गांवों व शहरों को बाह्य शौच मुक्त (ओडीएफ) करने के लिए वार्डवार्ड जा कर खुले में शौच करने वाले लोगों को रोकने में टीचरों की ड्यूटी लगाई गई.

मध्य प्रदेश के ही 83,969 प्राइमरी स्कूल पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी में भारी कमी, टीचरों के खाली पदों पर भरती न होने और बुनियादी जरूरतों की कमी में दम तोड़ते नजर आ रहे हैं.

प्रदेश के सरकारी स्कूल केवल सरकारी योजनाओं का ढिंढोरा पीटते नजर आ रहे हैं. एयरकंडीशंड कमरों में बैठे अफसर व मंत्री सरकारी स्कूलों में नए प्रयोग कर पढ़ाईलिखाई को गड्ढे की ओर ले जा रहे हैं.

टीचर भी हैं कुसूरवार

पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी में भारी गिरावट के लिए सरकारी नीतियों के साथ टीचर भी कम कुसूरवार नहीं हैं. छात्र पढ़ाईलिखाई करने के लिए स्कूल जाते हैं, लेकिन वहां टीचर ही नदारद रहते हैं.

मध्य प्रदेश में साल 2018 के हाईस्कूल इम्तिहान में 30 फीसदी से कम रिजल्ट देने वाले स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचरों का सरकार द्वारा इम्तिहान लिया गया. इस इम्तिहान में ज्यादातर टीचर फेल हो गए.

बाद में इन टीचरों को इम्तिहान का एक और मौका दिया गया, जिस में किताब खोल कर इम्तिहान का प्रश्नपत्र हल करने को कहा गया. इस के बावजूद प्रदेश के 16 फीसदी टीचर इस में फेल हो गए.

दक्षिण कोरिया पर दांव

पिछले कुछ सालों में दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने सरकारी स्कूलों की तसवीर बदलने का काम किया है, पर मध्य प्रदेश सरकार के अफसरों को दक्षिण कोरिया की शिक्षा पद्धति रास आ रही है. वहां की शिक्षा पद्धति को देखने प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग के अफसर, बाबू और प्रिंसिपलों के दल 3 बार दक्षिण कोरिया की यात्रा का मजा लूट चुके हैं.

कभी टीचर रहे भाजपा के पूर्व विधायक मुरलीधर पाटीदार ने इस यात्रा पर सवाल खड़े किए हैं. उन का कहना है कि प्रदेश के स्कूलों में टीचरों की कमी दूर करने और स्कूलों में बुनियादी समस्याओं को हल करने में बजट का रोना रोने वाले अफसर करोड़ों रुपए दक्षिण कोरिया की यात्रा पर खर्च कर चुके हैं, जबकि दक्षिण कोरिया की जिस शिक्षा पद्धति को लागू करने की बात कही जा रही है, वह तो हमारे प्रदेश में बहुत पहले से ही चल रही है.

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जब से देश में शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत 5वीं और 8वीं जमात की बोर्ड परीक्षाओं को खत्म कर हर बच्चे को अगली जमात में पास करने का नियम बना है, छात्रों की दिलचस्पी पढ़ने में और टीचरों की दिलचस्पी पढ़ाने में नहीं रह गई है. आज किसी भी टीचर, मुलाजिम, अफसर के बच्चे इन सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ रहे हैं, जिस से सरकारी स्कूलों पर किसी का कंट्रोल भी नहीं रह गया है.

प्राइवेट स्कूलों की मनमानी

प्राइवेट स्कूल तालीम को प्रोडक्ट की तरह बेच रहे हैं. नया शिक्षा सत्र शुरू होते ही प्राइवेट स्कूल वाले मांबाप की जेब हलकी करने में लग जाते हैं. इस के लिए उन्होंने अनेक तरीके खोज लिए हैं. पहले मनमाने तरीके से स्कूल की फीस बढ़ा दी जाती है और हर स्कूल अपनी अलगअलग किताबें चलाते हैं.

कोर्स की किताबों और यूनिफौर्म पर दुकानदारों से बाकायदा कमीशन तय कर लेते हैं, जिस के चलते दुकानदरों द्वारा मनमाने दामों पर इन्हें बेच कर मांबाप की जेब ढीली की जाती है.

यहां तक कि स्कूल का नाम और मोनोग्राम छपी कौपियों की भी मांबाप से मनमानी कीमत वसूल की जाती है. अगर वे बिना मोनोग्राम की कौपी खरीद कर बच्चों को दे भी देते हैं, तो स्कूल में इन कौपियों को नकार दिया जाता है और बच्चों को परेशान किया जाता है.

अनेक प्राइवेट स्कूल वाले अपने यहां बाकायदा काउंटर लगा कर बस्ता समेत पूरा कोर्स बेचने का धंधा भी करते हैं, जिस में कौपी, किताब समेत स्टेशनरी का पूरा सामान खुलेआम बेचा जाता है. इन प्राइवेट स्कूलों द्वारा दाखिले के समय पर भी डोनेशन के नाम पर मांबाप से मोटी रकम वसूल की जाती है.

प्राइवेट स्कूलों पर शिक्षा विभाग के अफसरों का कोई कंट्रोल नहीं रहता है, क्योंकि नामीगिरामी प्राइवेट स्कूलों का संचालन विधायक, सांसदों के अलावा बड़ेबड़े उद्योगपतियों द्वारा किया जा रहा है.

बस्ते का बढ़ता बोझ

स्कूली बच्चों की पीठ पर बस्ते के बो झ को कम करने के लिए भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अक्तूबर, 2018 में नई गाइडलाइन जारी की गई है, जिस के मुताबिक क्लास के आधार पर बच्चों के बस्ते का वजन तय किया गया है.

मसलन, पहली और दूसरी जमात के लिए बस्ते का वजन डेढ़ किलो, तो तीसरी से 5वीं जमात के बच्चों के बस्ते का वजन 2 से 3 किलो है. 6वीं और 7वीं जमात के लिए 4 किलो और 8वीं, 9वीं जमात के लिए साढ़े 4 किलो और 10वीं जमात के लिए 5 किलो वजन तय किया गया है.

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दरअसल, बच्चों की पीठ पर लदे बस्ते का बो झ सरकार द्वारा तय सिलेबस के बोझ से सीधा संबंध रखता है. हमारे सिलेबस की यही खामी है कि यह बच्चों की उम्र व दिमागी सोच के मुताबिक तय नहीं है. कम उम्र के बच्चोंको कई विषयों के ज्यादा सिलेबस को पढ़ना पड़ता है.

उत्कृष्ट विद्यालय नरसिंहपुर के टीचर डाक्टर अशोक उदेनियां मानते हैं कि स्कूली सिलेबस बनाने वाली समिति में यूनिवर्सिटी के कुलपति, कालेज के प्रिंसिपल और प्रोफैसर होते हैं, जो स्कूली बच्चों का सिलेबस तैयार करते हैं. इन्हें स्कूली बच्चों के मनोविज्ञान और गांवदेहात के इलाकों के हालात का कोई खास तजरबा नहीं होता है.

बेरोजगारी का आलम

देश में बेरोजगारी का हाल यह है कि महाराष्ट्र में 8,000 कौंस्टेबलों की भरती के लिए 12,00,000 अर्जियां आई हैं. सरकार तो चाहती थी कि उन का एग्जाम भी औनलाइन हो जिस में इन अधपढ़े नौजवानों को किसी साइबर कैफे में जा कर सैकड़ों घंटे और सैकड़ों रुपए बरबाद करने ही थे और सरकार के पास मनमाने ढंग से फैसले करने का हक रहता. हो सकता है अब कागजपैन पर ही कौंस्टेबलों का एग्जाम हो.

कौंस्टेबलों का वेतन कोई ज्यादा नहीं होता. काम के घंटे बहुत ज्यादा होते हैं. वर्षों तक अफसरों की चाकरी करनी पड़ती है. रहने की सुविधा बहुत ही घटिया होती है, पर फिर भी नौकरी लग जाने पर रोब भी रहता है और ऊपरी कमाई भी होती है, इसीलिए 12 लाख दांव लगा रहे हैं.

इस तरह की भरतियों में सरकारी आदमियों की खूब मौज होती है. अर्जी देने वालों को लूटने का सिलसिला चालू हो जाता है. तरहतरह के सर्टिफिकेट औनलाइन एप्लीकेशन के साथ लगवाए जाते हैं जिन्हें जमा करने में खर्च होता है. जो रिजर्व कोटों से होते हैं उन्हें एससी, ओबीसी का सर्टिफिकेट बनवा कर लाने के लिए चक्कर काटने पड़ते हैं.

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अर्जी ढंग से गई या नहीं, यह पता करना भी मुश्किल होता है. उस के बाद एकदम चुप्पी छा जाती है. महीनों पता ही नहीं चलता कि इन भरतियों का क्या हुआ. जिस ने अर्जी दी, वह आराम से बैठ कर सपने देखने लगता है जबकि उसे यह मालूम ही नहीं होता कि औनलाइन गड़बडि़यों का धंधा अलग चालू हो गया है.

अगर गलती से इंटरव्यू और फिजिकल का बुलावा आ जाए तो खुशी तो होती है पर लाखों की रिश्वत की मांग आने लगती है. देश में कानून बनाए रखने के लिए जो बेईमानी भरती

में हाती है वह अपनेआप में एक अचंभा है. इस बेईमानी पर वे मंत्री चुप रहते हैं जो दिन में 10 बार में सच बोलने की कसम खाते हैं. उन्हीं कौंस्टेबलों के बल पर देश में हिंदूहिंदू, मुसलिममुसलिम किया जाता है. सरकार अगर उछलती है तो उन कौंस्टेबलों के बल पर जिन के वीडियो जामिया और उत्तर प्रदेश में गाडि़यों, स्कूटरों को तोड़ते हुए खूब वायरल हुए हैं. यही कौंस्टेबल सड़क चलतों से मारपीट कर सकते हैं, ये सरकार के असल हाथ हैं पर इन की भरती बेहद घिनौनी है.

महाराष्ट्र में औनलाइन एग्जाम को न करने की जो अपील की जा रही है वह सही है, क्योंकि चाहे औनलाइन में स्काइप से फोटो चालू रहे, बेईमानी की गुंजाइश कई गुना है. कौंस्टेबलों की भरती साफसुथरी हो, यह देश की जनता की आजादी के लिए जरूरी है. उन्हें निचले पद पर तैनात अदना आदमी न सम झें, असल में वही सरकार की आंख व हाथ हैं. अगर दलितों, पिछड़ों, मुसलिमों को अपनी जगह बनानी है तो जम कर इस भरती में हिस्सा लेना चाहिए और पुलिस फोर्स को भर देना चाहिए, ताकि उन पर जुल्म न हों.

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किसान हुए बेहाल

आम आदमी की जरूरत की चीजों जैसे प्याज, आलू, दूध के दाम बढ़ने पर सरकार लगातार मौसम को दोष दे रही है. कभी कहते हैं कि सूखा पड़ गया है तो कभी कहते हैं कि बेमौसम की बारिश हो गई. पर जिस भी किसान को जिस आलू से 5 रुपए किलो न मिलते हों और प्याज से 2 रुपए किलो न मिलते हों वह आलू बाजार में 30 रुपए से 50 रुपए और प्याज 75 से 125 रुपए तक हो जाए, एक बड़ी बेवकूफी और साजिश का नतीजा होने के अलावा कुछ और नहीं.

बेवकूफी यह है कि पिछले 2 सालों में भारतीय जनता पार्टी ने किसानों के युवा बच्चों को बड़ी गिनती में भगवा दुपट्टे पहना कर सड़कों पर दंगे करवाने के लिए उतार दिया है. किसानी दोस्तों के साथ नहीं की जाती. यह उबाऊ होती है. मेहनत का काम होती है. जिन लड़कों के पास पहले बाप के साथ खेत पर काम करने के अलावा कुछ और नहीं होता था, उन्हें चौराहे पर खड़ा कर के हिंदू राष्ट्र बनाने के भाषण देने पर लगा दिया है. वे ट्रकों में बैठ कर सैकड़ों मीलों दूर मंदिरों में घंटे बजाने भी जाने लगे और भगवा आंदोलन में भी.

बाप बेचारा बेटे को पाले भी, जेबखर्च का पैसा भी दे और खेत पर काम भी करे. पहले जब 12-13 साल के लड़के किसान का हाथ बंटाने आ जाते थे, आज खेतों में सफेद बालों वाले कमर तोड़ते आदमीऔरत नजर आते हैं.

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साजिश यह है कि जरा सी फसल कम होने पर दाम 4-5 गुना तक बढ़ सकते हैं. किसान से हमेशा की तरह पुराने दामों पर माल खरीद कर गांवों, कसबों और शहरों के गोदामों में भरा जाने लगा है. व्यापारीआढ़ती जानते हैं कि किसान निकम्मा होने लगा है और न वह कम फसल होने पर फसल जमा कर के रख सकता है, न उस के पास फसल बढ़ाने का तरीका है. वह यह भी जानता है कि उस का थोड़ा पढ़ालिखा बेटा तो हिंदू धर्म को बचाने में लगा है, खेत की फसल से उसे क्या लेनादेना?

व्यापारीआढ़ती का बेटा पढ़ कर बाप को कंप्यूटर चलाना सिखाता है, किसान का बेटा बाप को मुसलमान और दलित से नफरत का पाठ पढ़ाने लगा है या गांव में अपनी जाति का मंदिर बनाने के लिए उकसाने लगा है.

देश की उपजाऊ जमीन पर अब पूजापाठी नारों की फसल लहलहा रही है. भला आलूप्याज की क्या औकात कि वे मुकाबला कर सकें.

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