मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी बढ़ाने के लिए पिछले 15-20 सालों में नएनए प्रयोग तो खूब किए गए, पर इन स्कूलों में टीचरों की कमी दूर करने के साथ ही इन में पढ़ने वाले बच्चों की जरूरतों को पूरा करने की दिशा में कोई ठोस उपाय सरकारी तंत्र द्वारा नहीं किए गए.
नतीजतन, स्कूलों में पढ़ाईलिखाई का लैवल बढ़ने के बजाय दिनोंदिन गिरा है और छात्रों के मांबाप भी प्राइवेट स्कूलों की ओर खिंचे हैं.
प्राइवेट स्कूलों में आज भी काबिल टीचर मुहैया नहीं हैं. इस की वजह उन को मिलने वाली तनख्वाह है. सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचरों को जहां आज 50,000 रुपए से 70,000 रुपए तक मासिक तनख्वाह मिलती है, वहीं इस की तुलना में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा रहे टीचर बमुश्किल 10,000 रुपए से 15,000 रुपए मासिक कमा रहे हैं.
पढ़ेलिखे नौजवान भी टीचिंग जौब में आना चाहते हैं. वे शिक्षक पात्रता परीक्षा पास कर सरकारी स्कूलों में सिलैक्ट हो जाते हैं और जो परीक्षा पास नहीं कर पाते, तो वे प्राइवेट स्कूलों में नौकरी करने लगते हैं.
नरसिंहपुर जिले के आदित्य पब्लिक स्कूल में इंगलिश पढ़ाने वाले सचिन नेमा बताते हैं कि वे साल 2011 की शिक्षक पात्रता परीक्षा 2 अंक से पिछड़ने के चलते प्राइवेट स्कूल में 15,000 रुपए मासिक तनख्वाह पर 5 पीरियड पढ़ाते हैं. इस के अलावा स्कूल मैनेजमैंट द्वारा उन्हें छात्रों के मांबाप से मेलजोल करने का ऐक्स्ट्रा काम भी दिया जाता है.
प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने का तरीका रटाने वाला हो गया है. छोटेछोटे बच्चों को भारी होमवर्क दिया जाता है, जिसे बच्चों के मांबाप ही ज्यादा करते हैं.
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साहित्यकार और शिक्षाविद डाक्टर सुशील शर्मा कहते हैं कि प्राइवेट स्कूलों में भी अब पढ़ाईलिखाई के बेहतर रास्ते नहीं हैं. उन्होंने निजी तौर पर शहर के कई प्राइवेट स्कूलों में जा कर यह देखा है कि वहां बच्चों को हर बात रटाई जा रही है. इन स्कूलों में ट्रेनिंग पाए टीचरों की कमी इस की खास वजह है.
काम का बोझ
शिक्षा संहिता के नियमों के मुताबिक और शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के तहत राष्ट्रीय महत्त्व के काम चुनाव और जनगणना को छोड़ कर टीचरों की सेवाएं गैरशिक्षकीय कामों में नहीं ली जा सकतीं, पर अधिनियम को धता बताते हुए टीचरों से बेगारी कराई जा रही है. वोटर लिस्ट अपडेट करने से ले कर बच्चों के जाति प्रमाणपत्र बनवाने तक का काम टीचरों को करना पड़ता है.
पिछले साल मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में सरकार द्वारा कराए जा रहे सामूहिक विवाह आयोजन में बाकायदा कलक्टर के निर्देश पर जिला शिक्षा अधिकारी ने 28 टीचरों की ड्यूटी पूरी, दाल, सब्जी परोसने में लगा दी.
इसी तरह विभिन्न जिलों में गांवों व शहरों को बाह्य शौच मुक्त (ओडीएफ) करने के लिए वार्डवार्ड जा कर खुले में शौच करने वाले लोगों को रोकने में टीचरों की ड्यूटी लगाई गई.
मध्य प्रदेश के ही 83,969 प्राइमरी स्कूल पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी में भारी कमी, टीचरों के खाली पदों पर भरती न होने और बुनियादी जरूरतों की कमी में दम तोड़ते नजर आ रहे हैं.
प्रदेश के सरकारी स्कूल केवल सरकारी योजनाओं का ढिंढोरा पीटते नजर आ रहे हैं. एयरकंडीशंड कमरों में बैठे अफसर व मंत्री सरकारी स्कूलों में नए प्रयोग कर पढ़ाईलिखाई को गड्ढे की ओर ले जा रहे हैं.
टीचर भी हैं कुसूरवार
पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी में भारी गिरावट के लिए सरकारी नीतियों के साथ टीचर भी कम कुसूरवार नहीं हैं. छात्र पढ़ाईलिखाई करने के लिए स्कूल जाते हैं, लेकिन वहां टीचर ही नदारद रहते हैं.
मध्य प्रदेश में साल 2018 के हाईस्कूल इम्तिहान में 30 फीसदी से कम रिजल्ट देने वाले स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचरों का सरकार द्वारा इम्तिहान लिया गया. इस इम्तिहान में ज्यादातर टीचर फेल हो गए.
बाद में इन टीचरों को इम्तिहान का एक और मौका दिया गया, जिस में किताब खोल कर इम्तिहान का प्रश्नपत्र हल करने को कहा गया. इस के बावजूद प्रदेश के 16 फीसदी टीचर इस में फेल हो गए.
दक्षिण कोरिया पर दांव
पिछले कुछ सालों में दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने सरकारी स्कूलों की तसवीर बदलने का काम किया है, पर मध्य प्रदेश सरकार के अफसरों को दक्षिण कोरिया की शिक्षा पद्धति रास आ रही है. वहां की शिक्षा पद्धति को देखने प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग के अफसर, बाबू और प्रिंसिपलों के दल 3 बार दक्षिण कोरिया की यात्रा का मजा लूट चुके हैं.
कभी टीचर रहे भाजपा के पूर्व विधायक मुरलीधर पाटीदार ने इस यात्रा पर सवाल खड़े किए हैं. उन का कहना है कि प्रदेश के स्कूलों में टीचरों की कमी दूर करने और स्कूलों में बुनियादी समस्याओं को हल करने में बजट का रोना रोने वाले अफसर करोड़ों रुपए दक्षिण कोरिया की यात्रा पर खर्च कर चुके हैं, जबकि दक्षिण कोरिया की जिस शिक्षा पद्धति को लागू करने की बात कही जा रही है, वह तो हमारे प्रदेश में बहुत पहले से ही चल रही है.
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जब से देश में शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत 5वीं और 8वीं जमात की बोर्ड परीक्षाओं को खत्म कर हर बच्चे को अगली जमात में पास करने का नियम बना है, छात्रों की दिलचस्पी पढ़ने में और टीचरों की दिलचस्पी पढ़ाने में नहीं रह गई है. आज किसी भी टीचर, मुलाजिम, अफसर के बच्चे इन सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ रहे हैं, जिस से सरकारी स्कूलों पर किसी का कंट्रोल भी नहीं रह गया है.
प्राइवेट स्कूलों की मनमानी
प्राइवेट स्कूल तालीम को प्रोडक्ट की तरह बेच रहे हैं. नया शिक्षा सत्र शुरू होते ही प्राइवेट स्कूल वाले मांबाप की जेब हलकी करने में लग जाते हैं. इस के लिए उन्होंने अनेक तरीके खोज लिए हैं. पहले मनमाने तरीके से स्कूल की फीस बढ़ा दी जाती है और हर स्कूल अपनी अलगअलग किताबें चलाते हैं.
कोर्स की किताबों और यूनिफौर्म पर दुकानदारों से बाकायदा कमीशन तय कर लेते हैं, जिस के चलते दुकानदरों द्वारा मनमाने दामों पर इन्हें बेच कर मांबाप की जेब ढीली की जाती है.
यहां तक कि स्कूल का नाम और मोनोग्राम छपी कौपियों की भी मांबाप से मनमानी कीमत वसूल की जाती है. अगर वे बिना मोनोग्राम की कौपी खरीद कर बच्चों को दे भी देते हैं, तो स्कूल में इन कौपियों को नकार दिया जाता है और बच्चों को परेशान किया जाता है.
अनेक प्राइवेट स्कूल वाले अपने यहां बाकायदा काउंटर लगा कर बस्ता समेत पूरा कोर्स बेचने का धंधा भी करते हैं, जिस में कौपी, किताब समेत स्टेशनरी का पूरा सामान खुलेआम बेचा जाता है. इन प्राइवेट स्कूलों द्वारा दाखिले के समय पर भी डोनेशन के नाम पर मांबाप से मोटी रकम वसूल की जाती है.
प्राइवेट स्कूलों पर शिक्षा विभाग के अफसरों का कोई कंट्रोल नहीं रहता है, क्योंकि नामीगिरामी प्राइवेट स्कूलों का संचालन विधायक, सांसदों के अलावा बड़ेबड़े उद्योगपतियों द्वारा किया जा रहा है.
बस्ते का बढ़ता बोझ
स्कूली बच्चों की पीठ पर बस्ते के बो झ को कम करने के लिए भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अक्तूबर, 2018 में नई गाइडलाइन जारी की गई है, जिस के मुताबिक क्लास के आधार पर बच्चों के बस्ते का वजन तय किया गया है.
मसलन, पहली और दूसरी जमात के लिए बस्ते का वजन डेढ़ किलो, तो तीसरी से 5वीं जमात के बच्चों के बस्ते का वजन 2 से 3 किलो है. 6वीं और 7वीं जमात के लिए 4 किलो और 8वीं, 9वीं जमात के लिए साढ़े 4 किलो और 10वीं जमात के लिए 5 किलो वजन तय किया गया है.
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दरअसल, बच्चों की पीठ पर लदे बस्ते का बो झ सरकार द्वारा तय सिलेबस के बोझ से सीधा संबंध रखता है. हमारे सिलेबस की यही खामी है कि यह बच्चों की उम्र व दिमागी सोच के मुताबिक तय नहीं है. कम उम्र के बच्चोंको कई विषयों के ज्यादा सिलेबस को पढ़ना पड़ता है.
उत्कृष्ट विद्यालय नरसिंहपुर के टीचर डाक्टर अशोक उदेनियां मानते हैं कि स्कूली सिलेबस बनाने वाली समिति में यूनिवर्सिटी के कुलपति, कालेज के प्रिंसिपल और प्रोफैसर होते हैं, जो स्कूली बच्चों का सिलेबस तैयार करते हैं. इन्हें स्कूली बच्चों के मनोविज्ञान और गांवदेहात के इलाकों के हालात का कोई खास तजरबा नहीं होता है.