सैक्स पर चर्चा : नीतीश कुमार के बयान पर ओछी राजनीति

Political News in Hindi: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) आज उम्र की जिस दहलीज पर हैं, उन के द्वारा औरतों के सिलसिले में सैक्स को ले कर जिस तरह का बयान बिहार विधानसभा में आया और फिर थोड़े ही समय में नीतीश कुमार ने जिस अदबी के साथ माफी मांगी तो फिर नैतिकता का तकाजा यह है कि मामला खत्म हो जाता है. मगर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narender Modi) ने जैसे नीतीश कुमार के बयान को लपक लिया और बांहें खींच रहे हैं, वह यह बताता है कि भारतीय जनता पार्टी और उस का नेतृत्व आज कैसी राजनीति कर रहा है और देश को गड्ढे की ओर ले जाने में रोल निभा रहा है.

आप कल्पना कीजिए कि देश में अगर अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होते तो क्या इस मामले को नरेंद्र मोदी की तरह तूल देते? आज देश में अगर पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री होते या फिर डाक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते, तो क्या इस तरह मामले को तूल दिया जाता? शायद कभी नहीं.

दरअसल, नरेंद्र मोदी की यह फितरत है कि वे अपने लोगों को तो हर अपराध के लिए माफ कर देते हैं, मगर गैरों को माफ नहीं करते. उन के पास बरताव करने के दूसरे तरीके हैं, जो कम से कम प्रधानमंत्री पद पर होते हुए उन्हें शोभा नहीं देता.

देश का आम आदमी भी जानता है कि किसी भी विधानसभा में दिया गया बयान रिकौर्ड से हटाया भी जाता है और उस पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती. मगर भाजपा जिस तरह नीतीश कुमार पर हमलावर है, वह बताता है कि उसे न तो संविधान से सरोकार है और न ही किसी नैतिकता से. किसी की छवि को खराब करना और किसी भी तरह सत्ता हासिल

करना ही आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का मकसद बन कर रह गया है.

शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार, 8 नवंबर, 2023 को बिहार विधानसभा में महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी को ले कर बिना नाम लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आलोचना की और कहा, ‘‘महिलाओं का सम्मान सुनिश्चित करने के लिए वह जो भी कर सकेंगे, करेंगे. महिलाओं का इतना अपमान होने के बावजूद विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’

के घटक दलों ने एक शब्द भी नहीं बोला है.’’

नरेंद्र मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम लिए बगैर कहा, ‘‘कल ‘इंडिया’ गठबंधन के बड़े नेताओं में से एक, जो ब्लौक का झंडा ऊंचा रख रहे हैं और वर्तमान सरकार (केंद्र में) को हटाने के लिए तरहतरह के खेल खेल रहे हैं, उन्होंने माताओंबहनों की उपस्थिति में राज्य विधानसभा में ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया, जिस के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता… उन्हें इस के लिए शर्म तक महसूस नहीं हुई. ऐसी दृष्टि रखने वाले आप का मानसम्मान कैसे रखेंगे? वे कितना नीचे गिरेंगे? देश के लिए कितनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है.’’

जबकि यह कानून है कि विधानसभा में दिए गए बयान पर कोई कानूनी संज्ञान नहीं दिया जा सकता, इस के बावजूद भाजपा नेतृत्व में वह सब किया जा रहा है जो कानून के खिलाफ है. इस का सब से बड़ा उदाहरण है महिला आयोग द्वारा नीतीश कुमार के वक्तव्य पर संज्ञान लिया जाना.

राष्ट्रीय महिला आयोग ने बिहार विधानसभा के अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी को पत्र लिख कर यह आग्रह किया कि वे सदन के भीतर की गई अपमानजनक टिप्पणी के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करें.

पत्र में आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने कहा कि हम जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों द्वारा ऐसे बयानों की कड़ी निंदा करती हैं.

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब यह कहते हैं कि महिलाओं के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए हरसंभव प्रयास करूंगा, तो हंसी आती है, क्योंकि देश ने देखा है कि किस तरह देश की बेटियों ने जंतरमंतर पर भाजपा के एक सांसद और महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी के खिलाफ अनशन किया था, मगर आज तक उन्हें इंसाफ नहीं मिल पाया है.

सोनू ने खोली नीतीश सरकार की पोल

छठी जमात में पढ़ने वाले महज 11 साल के एक लड़के सोनू कुमार ने बिहार राज्य में पढ़ाईलिखाई के इंतजाम और शराबबंदी की असलियत की पोल खोल दी है. हुआ यों कि कुछ समय पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने पुश्तैनी गांव कल्याण बिगहा में अपनी पत्नी मंजू देवी की पुण्यतिथि पर आए थे. वे वहां ‘जनसंवाद’ में लोगों की समस्याएं सुन रहे थे. इसी बीच सोनू ने हाथ जोड़ कर रोते हुए नीतीश कुमार से फरियाद की,

‘मेरे पिता शराब पीते हैं. दही बेच कर लाए सारे पैसे शराब में बरबाद कर देते हैं. ‘‘मैं जो पढ़ा कर के पैसे लाता हूं, उन की भी पिता शराब पी जाते हैं. सरकारी स्कूल में टीचर कुछ भी नहीं पढ़ाते हैं. उन्हें अंगरेजी नहीं आती है, इसलिए मुझे अच्छे स्कूल में पढ़ना है.’’ बेहाल सरकारी स्कूल सरकारी स्कूलों में बच्चे मिडडे मील, स्कौलरशिप और वरदी के पैसे के लिए जा रहे हैं. मई महीने तक भी बच्चों को सरकारी स्कूलों में किताबें नहीं मिली थीं. पंचायत प्रतिनिधियों द्वारा बहाल किए गए टीचर पढ़ा नहीं पाते हैं. ऐसे भी टीचर बहाल हैं, जो मुश्किल से अपनी हाजिरी बनाते हैं.

पंचायत प्रतिनिधियों ने दूसरों से घूस ले कर या फिर अपने परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों को बतौर टीचर बहाल कर दिया है. दबंग पंचायत प्रतिनिधियों द्वारा बहाल किए गए इन टीचरों की मनमानी पर सरकारी महकमे के पदाधिकारी भी लगाम लगाने में नाकाम साबित हो रहे हैं. शराबबंदी पर निशाना सोनू ने बेबाकी से बोल कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बोलती बंद कर दी है. सचाई यही है कि बिहार में गैरकानूनी शराब दोगुनेतिगुने दाम पर मिल रही है. देशी जहरीली शराब से हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं. आएदिन जहरीली शराब के पीने से मौतें होने का सिलसिला जारी है.

मदद का हाथ बढ़ाया सोनू को पढ़ाने के लिए राज्यसभा सांसद और बिहार के उपमुख्यमंत्री रह चुके सुशील कुमार मोदी, सांसद रह चुके पप्पू यादव, फिल्म दुनिया के सितारे सोनू सूद समेत दर्जनों लोगों ने अपना हाथ आगे बढ़ाया है, पर वहां की पढ़ाईलिखाई में सुधार कैसे हो, ताकि बिहार के सोनू जैसे लाखों बच्चों को बेहतर तालीम मिल सके, इस के लिए जोरदार आवाज नहीं उठाई जा रही है. राष्ट्रीय जनता दल के नेता सत्येंद्र यादव का कहना है कि सोनू जैसे बिहार में हजारों मेधावी बच्चे हैं,

जो ट्यूशन पढ़ा कर, सब्जी बेच कर, फुटपाथ पर तरहतरह का सामान बेच कर अपने परिवार को पैसे की मदद करते हुए पढ़ाई कर रहे हैं. इन बच्चों को अगर बेहतर तालीम दी जाए, तो उन की तरक्की के साथसाथ इस राज्य की भी तरक्की होगी. लेकिन अफसोस की बात है कि सरकारी स्कूलों में बेहतर और क्वालिटी की पढ़ाईलिखाई के लिए पहल नहीं की जा रही है.

शर्मनाक: पकड़ौआ विवाह- बंदूक की नोक पर शादी

कहते हैं कि शादी ऐसा लड्डू है, जो खाए वह पछताए और जो न खाए वह भी पछताए. लेकिन वहां आप क्या करेंगे, जहां जबरन गुंडई से आप की मरजी के खिलाफ आप के मुंह में यह लड्डू ठूंसा जाने लगे? हम बात कर रहे हैं ‘पकड़ौवा विवाह’ की, जो बिहार के कुछ जिलों में आज भी हो रहे हैं.

22 साल के शिवम का सेना के टैक्निकल वर्ग में चयन हो गया था और वह 17 जनवरी को नौकरी जौइन करने वाला था. हमेशा की तरह एक सुबह जब वह अपने कुछ दोस्तों के साथ सैर पर निकला, तभी कार में सवार कुछ लोगों ने उसे अगवा कर लिया.

शिवम के दोस्तों ने बताया कि उन पांचों लोगों के हाथों में हथियार थे, इसलिए वे कुछ कर नहीं पाए.

शिवम को अगवा कर के वे बदमाश एक मंदिर में ले गए और जबरन उस की शादी एक लड़की से करा दी. शादी की तसवीरें सोशल मीडिया पर भी वायरल हुई थीं.??

क्या है ‘पकड़ौवा विवाह’

बिहार में इसे ‘पकड़वा’ या ‘पकड़ौवा विवाह’ या फिर ‘फोर्स्ड मैरिज’ भी कहते हैं. इस में लड़के का अपहरण कर के मारपीट और डराधमका कर उसे शादी करने के लिए मजबूर किया जाता है.

इस शादी में कम पढ़ेलिखे, नाबालिग से ले कर नौकरी करने वाले नौजवानों का अपहरण कर जबरन शादी करा दी जाती है. कुछ साल पहले इसी मुद्दे पर एक फिल्म ‘जबरिया जोड़ी’ भी बनी थी.

बिहार में बंदूक की नोक पर शादी कराना कोई बड़ी बात नहीं है. यह तो बहुत ही पुरानी परंपरा है. साल 1980 के दशक में उत्तरी बिहार में खासतौर पर बेगूसराय में ‘पकड़ौवा विवाह’ के मामले खूब सामने आए थे और आज भी इस तरह की शादियां हो रही हैं. बता दें कि ऐसी शादी कराने वाला एक गैंग होता है.

कैसे काम करता है गैंग

1980 के दशक में बिहार में कई ऐसे गैंग बनाए गए थे, जिन की शादी के सीजन में काफी डिमांड रहती थी. ये गिरोह लड़की के लिए सही लड़के की तलाश करते थे और मौका देख कर उसे अगवा कर बंदूक की नोक पर शादी कराते थे. शादी के बाद लड़के के घर वालों पर लड़की को बहू के तौर पर स्वीकारने के लिए दबाव बनाते थे.

बिहार के नालंदा जिले के एक बुजुर्ग रामकिशोर सिंह की शादी भी आज से तकरीबन 40 साल पहले अपहरण कर के ही हुई थी. रामकिशोर का कहना है कि  ऐसी शादी में न दहेज देने की चिंता होती है और न ही ज्यादा खर्चे की.

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हालांकि यह सब करना अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन इस मामले में पुलिस की भूमिका बहुत ही सीमित है. राज्य पुलिस मुख्यालय इसे आपराधिक से ज्यादा सामाजिक समस्या के रूप में देखता है. राज्य के अपर पुलिस महानिदेशक गुप्तेशर पांडेय कहते हैं कि जबरन होने वाली शादियों को भी बाद में सामान्य शादियों की तरह ही सामाजिक मान्यता मिलती रही है. इस में पुलिस की भूमिका काफी सीमित है.

पुलिस महकमे के अफसरों का भी मानना है कि ऐसे में लड़के के परिवार वाले तो अपहरण का मामला थाने में दर्ज करवाते हैं, लेकिन जब पता चलता है कि शादी के लिए अगवा किया गया है तो कार्यवाही में ढिलाई दे दी जाती है, क्योंकि किसी लड़की की शादी तो नेक काम है. कई मामले की जांच होतेहोते दोनों पक्ष समझौता कर चुके होते हैं. ऐसे में पुलिस के पास भी करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता है.

ऐसी शादी में ऐसे लड़के पहले से ही निशाने पर होते हैं, जो अपनी ही जाति के होते हैं. यह शादी किसी पंडित द्वारा तय नहीं कराई जाती है, बल्कि कभीकभी लड़के का कोई अपना सगा ही होता है, जो धोखे से उसे मंडप तक ले जाता है.

‘पकड़ौवा विवाह’ में आननफानन ही मंडप तैयार कर लड़की को दुलहन की तरह तैयार कर उस की मांग किडनैप किए लड़के से भरवा दी जाती है. ऐसी शादी के लिए न तो लड़का मानसिक रूप से तैयार होता है और न ही लड़की.

एक औरत बताती है कि जब वह  15 साल की थी, तब जबरन उस की शादी करवा दी गई. मरजी पूछना तो दूर की बात है, उस 15 साल की बच्ची को यह तक पता नहीं था कि आज उस की शादी होने वाली है. मांबाप लड़की को ले जा कर मंडप में बैठा देते हैं और कुछ ही मिनटों में एक अनजान शख्स, जिसे उस ने देखा तक नहीं है, उस का पति बन जाता है.

उस औरत ने आगे बताया कि उसे गुस्सा आता था कि मेरे साथ यह क्या हो गया. पति ने 3 साल तक उसे नहीं स्वीकारा. लड़के का कहना था वह फांसी लगा कर मर जाएगा, पर इस शादी को नहीं स्वीकारेगा.

लड़के का यह भी कहना था कि जिस लड़की को वह जानता तक नहीं, उसे उस से रिश्ता नहीं रखना. उसे उस लड़की से कोई मतलब नहीं. उसे पढ़लिख कर अपनी जिंदगी बनानी है. लेकिन फिर बाद में सुलहसफाई के लिए पंचायत बैठी, तब जा कर लड़की को ससुराल विदा करा कर ले जाया गया.

‘‘तब मैं 7वीं क्लास में पढ़ती थी, जब मेरा ‘पकड़ौवा विवाह’ करा दिया गया था,’’ यह कहना है 48 साल की मालती का, जो अब 3 बच्चों की मां है और उस के सभी बच्चों की भी शादी हो चुकी है.

उस समय को याद कर के मालती आगे बताती है कि रोजाना की तरह उस दिन भी वह रसोई में खाना पकाने में अपनी मां की मदद कर रही थी, तभी मां ने उसे उठाते हुए कहा कि ये कपड़े लो और जा कर जल्दी से तैयार हो जाओ. आज तुम्हारी शादी है.

कुछ ही मिनटों में एक लड़के से उस की शादी करा दी गई. उसे नहीं पता था कि जिस लड़के को उस के घर वालों ने पूरे दिन घर में बंद रखा था, उसी से उस की शादी करा दी जाएगी.

लेकिन फिर वह जो बताती है, किसी यातना से कम नहीं है. मालती कहती है कि गुस्से से खार खाए पति और उस के घर वाले सालों तक उसे विदा करा कर नहीं ले गए.

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लेकिन फिर सामाजिक दबाव में आ कर उन्हें उसे विदा करा कर ले जाना पड़ा. लेकिन आज तक मालती को अपने पति से वह प्यार और इज्जत नहीं मिली, जो एक पत्नी को अपने पति से मिलनी चाहिए.

मालती कहती है कि वह निर्दोष थी, लेकिन अपने मातापिता की गलती की सजा वह आज तक भुगत रही है.

पति और ससुराल वाले ताना मारते थे कि बिना दहेज के मुसीबत पल्ले बांध दी गई. लेकिन हैरत तो इस बात की होती है कि जिस मालती के पति ने कभी उसे स्वीकार नहीं किया, तो क्या दहेज मिल जाने से उसे स्वीकार कर लेता?

सच तो यही है कि ‘पकड़ौवा विवाह’ की सब से बड़ी वजह दहेज प्रथा ही है. ‘पकड़ौवा विवाह’ में दूल्हे की हालत का अंदाजा आप 27 साल के प्रमोद की बातचीत से लगा सकते हैं.

प्रमोद का कहना है कि उस के एक दोस्त ने ही धोखे से उस का अपहरण करवाया और फिर बंदूक की नोक पर मंडप तक ले गया. न चाहते हुए भी उसे उस लड़की से शादी करनी पड़ी, जिसे वह जानता तक नहीं था.

इस शादी को अमान्य घोषित करवाने के लिए उस ने लड़ाई भी लड़ी. लेकिन आखिरकार थोपी गई उस शादी को उसे मानना ही पड़ा. आज भी जब अपनी पत्नी को देखता है, तो वह डरावना सच उसे याद आने लगता है.

हमारे देश में विवाह जैसी संस्था आज भी मजबूत है. अगर एक बार लड़कालड़की की शादी हो जाए तो बड़ी मुश्किल से टूटती है. यही वजह है कि लड़की वाले ऐसी ओछी हरकतें करने से बाज नहीं आते हैं. सोचते हैं कि लड़की ससुराल में टिक गई तो ठीक, वरना  देखा जाएगा.

क्यों धकेलते हैं दलदल में

पटना यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की प्रोफैसर रही भारती एस. कुमार कहती हैं कि यह सामंती सोच समाज की देन है. बिहार में सामाजिक दबाव इतना ज्यादा है कि लड़की के परिवार वाले इसी कोशिश में रहते हैं कि कैसे जल्द से जल्द अपनी जाति में बेटी की शादी करा कर अपने सिर का बोझ उतार लें. लेकिन इस बेमेल शादी का बुरा असर पतिपत्नी पर जिंदगीभर देखने को मिलता है.

कहींकहीं तो लड़की जिंदगीभर सताए जाने की शिकार होती है. वे कहती हैं कि ऐसी शादी वही मांबाप करवाते हैं, जिन के पास बेटी को देने के लिए दहेज नहीं होता.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि जब लड़का लड़की को अपनाने से इनकार कर देता है तो फिर उसी शादी को वह दहेज के साथ स्वीकार भी कर लेता है मानो दहेज और शादी का एक चक्रव्यूह हो, जिस से निकलने का कोई सिरा नहीं है.

‘पकड़ौवा विवाह’ का शिकार हुए नवादा जिले के संतोष कुमार ने फिल्म कलाकार आमिर खान के टैलीविजन शो ‘सत्यमेव जयते’ और अभिताभ बच्चन के शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में बताया था कि उन की भी जबरन शादी कराई गई थी. लेकिन आज वे अपनी पत्नी के साथ खुश हैं.

वहीं बेगूसराय के रहने वाले और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर लौटे अनीश कहते हैं कि ‘पकड़ौवा विवाह’ को सामाजिक मंजूरी नहीं मिलनी चाहिए. किसी लड़के का अपहरण कर उस की शादी किसी से भी करा दी  जाए, तो क्या उस के खिलाफ नहीं बोलना चाहिए?

अनीश का कहना है कि इस का विरोध न केवल लड़के को, बल्कि लड़की को भी करना चाहिए, क्योंकि नाइंसाफी दोनों के साथ हुई होती है.

मकसद क्या है

हमारे समाज में दहेज लेना और देना दोनों ही कानूनी जुर्म हैं, लेकिन फिर भी दहेज का लेनदेन हो रहा है. यह कुप्रथा आज भी चली आ रही है. लोग आपसी सहमति से दहेज का लेनदेन कर रहे हैं.

समाज की अलगअलग जातियों के हिसाब से लड़के की काबिलीयत और पद के हिसाब से हर किसी का एक अघोषित ‘मार्केट रेट’ होता है. जो लड़की वाले इस रेट के हिसाब से शादी के लिए लड़के वालों की डिमांड पूरी करने की हैसियत रखते हैं, उन की लड़की की शादी तो आराम से हो जाती है, लेकिन जिन की दहेज देने की हैसियत नहीं होती, वे ऐसे ही रास्ते अपनाते हैं.

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ऐसे होता है ‘पकड़ौवा विवाह’

लड़की वाले लड़के को अगवा करने से पहले उसे टारगेट कर के रखते हैं. उस की बहुत सी बातों पर गौर किया जाता है, जैसे कि लड़के वाले लड़की वालों की तुलना में ज्यादा पैसे वाले हों. लड़का काबिल तो हो ही, साथ ही उस में अपनी भावी पत्नी का भरणपोषण करने की ताकत भी हो.

अगर लड़का अपनी जाति से हो तो और भी अच्छा. वैसे, ज्यादातर कोशिश यही होती है कि लड़का अपनी ही जाति का होना चाहिए.

शादी के बाद लड़की का उस घर में गुजारा हो सके, इस बात का भी ध्यान रखा जाता है.

लड़के के साथ क्या होता है

पहले तो लड़के के बारे में अच्छे से जानकारी हासिल कर ली जाती है कि लड़का कब और कहां आताजाता है. उस के बाद आसानी से उसे अगवा कर लिया जाता है. कई बार इस काम के लिए लड़की वाले प्रोफैशनल गुंडों को भी इस्तेमाल करते हैं.

वे बताते हैं कि अगर लड़का आने से आनाकानी करे, तो हलकी धुनाई कर दी जाए, पर ध्यान रहे कि लड़के का अंग भंग नहीं होना चाहिए. फिर लड़के को पकड़ कर एक कमरे में बंद कर दिया जाता है और आननफानन में मंडप सजा कर शादी करवा दी जाती है.

शादी के बाद दूल्हे को वे लोग कुछ दिन अपने घर पर ही रखते हैं, ताकि लड़का और लड़की आपस में मिल सकें. फिर लड़के को उस के घर भेजते समय धमकी देते हैं कि जल्द ही वह लड़की को विदा करा कर ले जाए वरना ठीक नहीं होगा.

लेकिन ऐसी शादियां अब कहींकहीं पर अमान्य होने लगी है. पेशे से इंजीनियर विनोद की शादी ऐसे ही जबरन करवा दी गई थी, जिस का वीडियो भी वायरल हुआ था. लेकिन विनोद ने यह ‘पकड़ौवा विवाह’ मानने से साफ इनकार कर दिया था. उस का कहना था कि अगर कोई मेरी शादी भैंस से करवा दे तो क्या मैं उसे अपनी पत्नी मान लूंगा?

विनोद आपबीती बताते हुए कहते हैं कि लड़की वालों ने उन्हें 2 दिन तक कमरे में बंद रखा और जबरन लड़की को अपनाने के लिए मजबूर करते रहे. विनोद के घर वाले पुलिस के पास मदद के लिए गिड़गिड़ाए भी, लेकिन पुलिस वालों ने उन की कोई मदद नहीं की, बल्कि कहा कि आप के बेटे का अपहरण नहीं हुआ है, शादी ही तो हुई है.

मतलब, पुलिस की नजर में यह शादी सही थी. पुलिस ने यह भी कहा कि ये खतरनाक लोग हैं, इसलिए तुम अब लड़की को ले कर अपने घर चले जाओ, क्योंकि शादी तो हो ही गई है.

विनोद का कहना है कि पुलिस पूरी तरह से लड़की वालों से मिली होती है, इसलिए वह कोई एफआईआर दर्ज नहीं करती. लड़की वालों का मन इसलिए बढ़ा हुआ है, क्योंकि पुलिस इन के साथ है. यह तो कोर्ट का शुक्र है कि मुझे कुछ राहत मिली, नहीं तो मेरा जीना मुश्किल हो गया था.

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पटना के एएन सिन्हा संस्थान के निदेशक रह चुके डीएम दिवाकर का कहना है कि ‘पकड़ौवा विवाह’ का इतिहास 100 साल से भी ज्यादा पुराना है. लेकिन अभी इस में उछाल आने की 4 खास वजहें हैं. पहली तो पूंजी के दबाव में दहेज का विकराल रूप, दूसरी लड़कियों का पढ़ालिखा न होना, तीसरी गैरकृषि व्यवसाय में दूल्हे की चाहत लगातार बढ़ रही है और चौथी यह है कि सामाजिक तानेबाने में जातीय जकड़ अभी भी कायम है.

साल 2019 में कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए ‘पकड़ौवा विवाह’ को गैरकानूनी करार दिया. मतलब यह कि अब ऐसी शादी को कानूनी मंजूरी नहीं मिलेगी. लेकिन विनोद के ‘पकड़ौवा विवाह’ के मामले में कोर्ट फैसला इसलिए ले पाई, क्योंकि अपील करने वाले के पास मजबूत सुबूत था.

‘पकड़ौवा विवाह’ के मामले में  आप की शादी जबरन करवाई गई, यह साबित करने की जिम्मेदारी लड़के के ऊपर होती है.

पटना की परिवार कोर्ट में सालों से प्रैक्टिस कर रही एडवोकेट विभा कुमारी बताती हैं कि ‘पकड़ौवा विवाह’ को अमान्य घोषित करवाने के मामले बहुत ही कम आते हैं.

‘पकड़ौवा विवाह’ के आंकड़े

साल 2018 में ‘पकड़ौवा विवाह’ के 4,301 मामले दर्ज हुए थे, जबकि मई, 2019 तक 2,005 मामले दर्ज हो चुके थे. इस से पहले के सालों में भी ऐसी शादी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं.

बिहार पुलिस हैडक्वार्टर के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2014 में 2,526 मामले, 2015 में 3,000 मामले और साल 2016 में 3,070 और नवंबर, 2017 में 3,405 ‘पकड़ौवा विवाह’ के लिए अपहरण हुए थे.

राष्ट्रीय क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो, 2015 की रिपोर्ट भी कहती है कि बिहार में  18 से 30 साल के नौजवानों का सब से ज्यादा अपहरण हुआ है. देश में इस उम्र के नौजवानों का अपहरण का तकरीबन 16 फीसदी है.

पुलिस आंकड़ों के मुताबिक, शादी के लिए अपहरण के 2,370 मामले जनवरी से सितंबर तक दर्ज किए गए थे और उन में से 1,804 मामले केवल लौकडाउन के महीनों में दर्ज किए गए.

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और भी लड़ रहे हैं लड़ाई

शेखपुरा जिले के रवींद्र कुमार झा ने बताया कि उन के 15 साल के बेटे की शादी साल 2013 में जबरन 11 साल की बच्ची से करा दी गई थी. उन्होंने इस शादी को मानने से इनकार कर दिया तो लड़की वालों ने उन के परिवार पर दहेज प्रताड़ना (498ए) का केस कर दिया. बाद में एंटीसिपेटरी बेल के बाद वह शादी अमान्य घोषित करवाई गई.

बोकारो में नौकरी करने वाले विनोद का पूरा परिवार पटना में रहता है.  4 भाईबहनों में से सिर्फ 2 की शादी हो पाई है. वे कहते हैं कि अपनी छोटी बहन की शादी के लिए जहां भी जाते हैं, सब यही कहते हैं कि ये लोग तो मुकदमे  में फंसे हुए हैं तो फिर रिश्ता कैसे हो सकता है.

‘पकड़ौवा विवाह’ में बेटी की जबरदस्ती शादी कर के मांबाप अपने सिर से बोझ तो उतार लेते हैं और दहेज व शादी के खर्चे से भी बच जाते हैं, लेकिन वे यह नहीं सोचते कि इस बेमेल शादी का बुरा असर पतिपत्नी पर जिंदगीभर पड़ेगा, उस की भरपाई कौन करेगा? लड़के के दिल में हमेशा एक टीस उठेगी कि उस के साथ धोखा हुआ है.

शर्मनाक: Bihar में अफसरशाही और भ्रष्टाचार

लेखक- धीरज कुमार

जनता दल (यूनाइटेड) के नेता और बिहार सरकार के समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी ने अफसरशाही से तंग आ कर मंत्री पद से इस्तीफा देने की घोषणा की.

मदन साहनी ने यह आरोप लगाया, ‘‘मंत्री पद पर रहते हुए मैं आम लोगों के काम नहीं कर पा रहा हूं. जब भी मैं अपने अफसरों को निर्देश देता हूं, तो वे बात मानने के लिए तैयार नहीं होते हैं.

‘‘अफसर क्या विभाग के चपरासी तक मंत्रियों की बात नहीं सुनते हैं. किसी को काम करने के लिए भेजा जाता है, तो उस से पूछा जाता है कि आप मंत्री के पास क्यों चले गए? क्या मंत्रीजी को ही काम करना है?

‘‘मंत्री बनने के बाद बंगला और गाड़ी तो मिल गया है, पर क्या मंत्री इसीलिए बने थे कि मंत्री बन जाने के बाद मेरे आगेपीछे कई गाडि़यां चलेंगी और मुझे रहने के लिए बड़ा सा बंगला मिल जाएगा? इस से आम लोगों को फायदा हो जाएगा?

‘‘मैं 15 सालों से अफसरशाही से पीडि़त हूं. मैं ही क्यों, मेरी तरह और भी कई मंत्री परेशान हैं, लेकिन वे सब बोल नहीं पा रहे हैं.

‘‘मैं सिर्फ सुविधा भोगने के लिए मंत्री नहीं बना हूं. मेरी आत्मा इस के लिए गवाही नहीं दे रही है, इसलिए मैं अपना इस्तीफा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास भेज रहा हूं. वैसे, मैं अपने क्षेत्र में रह कर पार्टी के काम करता रहूंगा.’’

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दरअसल, समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी के खफा होने की वजह यह है  कि उन्होंने 134 बाल विकास परियोजना पदाधिकारियों (सीडीपीओ) के तबादले के लिए फाइल विभाग के अपर मुख्य सचिव के पास भेजी थी. जिन पदाधिकारियों को तबादले के लिए लिस्ट भेजी गई थी, वे 3 साल से ज्यादा समय से एक ही जगह पर जमे हुए थे. वे सभी पदाधिकारी ठीक से काम नहीं कर रहे थे. इस की उन्हें लगातार शिकायतें मिल रही थीं.

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लेकिन मुख्य सचिव ने लिस्ट में से सिर्फ 18 लोगों का ही ट्रांसफर किया, बाकी लोगों के ट्रांसफर पर रोक लगा दी.

इस विवाद के बाद समाज कल्याण विभाग के अपर मुख्य सचिव त्रिपुरारी शरण ने अपने सफाई में कहा, ‘‘उन की भेजी गई फाइल अध्ययन के लिए रखी गई है. अध्ययन के बाद उस आदेश पर  कार्यवाही की जाएगी.’’

बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके और ‘हम’ पार्टी के अध्यक्ष जीतन राम मांझी ने भी समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी की बातों का समर्थन किया. उन्होंने मीडिया वालों से कहा, ‘‘यह सही बात  है कि बिहार में विधायकों और कई मंत्रियों की बातों को अफसर तरजीह नहीं देते हैं.

‘‘मैं एनडीए विधानमंडल दल की बैठक में भी इस मसले को उठा चुका हूं. मैं माननीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  को भी इस संबंध में बोल चुका हूं.  सभी विधायकों की इज्जत तभी बढ़ेगी, जब इन की बातों को विभागीय अफसर सुनेंगे. यह बात हम पहले भी कह चुके हैं. मंत्री मदन साहनी की बात बिलकुल सही है.

‘‘इस्तीफा देने से पहले हम ने मुख्यमंत्री को इसलिए नहीं बताया कि लोग समझने लगेंगे कि मैं मुख्यमंत्री को अपनी बात मनवाने के लिए ब्लैकमेल कर रहा हूं.

‘‘हम मंत्री हैं, गुलाम नहीं. अब बरदाश्त से बाहर हो रहा है. हम 6 साल से मंत्री हैं. इस के पहले खाद और आपूर्ति विभाग में सचिव पंकज कुमार हुआ करते थे. वे भी हमारी बात नहीं सुनते थे. समाज कल्याण विभाग में एसीएस अतुल प्रसाद 4 साल से बने हैं. उन का भी वही हाल है. उन से 3 साल से एक ही जगह जमे अफसरों को हटाने की बात हुई थी.

‘‘मैं ने उन के पास 22 डीपीओ और 134 सीडीपीओ की सूची बना कर भेजी थी. मंत्री को जून में तबादला करने का अधिकार होता है. लेकिन मेरी फाइलों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई.’’

पटना के बाढ़ क्षेत्र के भाजपा के सीनियर विधायक ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू ने राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर ही सवाल उठाया है और उन का कहना है, ‘‘इस बार जून में जो भी सरकार के द्वारा तबादले किए गए हैं, उस में मोटी रकम ली गई है. इस में 80 फीसदी भाजपा के मंत्रियों ने खूब माल बटोरा है.

‘‘दरअसल, मोटी रकम ले कर ही पदाधिकारियों की मनचाही जगह पर पोस्टिंग की गई है. लोगों को मनचाही जगह पर जाने के लिए पैसे की बोली लगाई गई है. इस में जद (यू) के मंत्रियों की संख्या थोड़ी कम है, क्योंकि उन्हें नीतीश कुमार से थोड़ाबहुत डर रहता  है. लेकिन भाजपा के मंत्रियों ने सारे  रिकौर्ड तोड़ दिए हैं.

‘‘मनचाही पोस्टिंग पाने के लिए अधिकारियों, इंजीनियरों को लालच भी दिया गया था. इस के एवज में उन से खूब माल बटोरा गया है. कई जगह पर पोस्टिंग के लिए भारीभरकम राशि  की बोलियां लगाई हैं. जिस ने ज्यादा  पैसे दिए, उसे मनचाही जगह पोस्टिंग मिल गई.’’

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वहीं बिसफी, मधुबनी के भाजपा विधायक हरिभूषण ठाकुर बचौल विधायकों की हैसियत को ले कर सरकार पर खूब भड़के. उन का कहना है, ‘‘विधायकों की हालत चपरासी से भी बदतर हो गई है. ब्लौक में इतना भ्रष्टाचार बढ़ गया है कि शिकायत करने पर कोई कार्यवाही नहीं होती है. हम विधायक जब अपने क्षेत्र की समस्याओं को ले कर जाते हैं, तो ब्लौक के अफसर नहीं सुनते हैं.

‘‘आखिर हम लोग अपने क्षेत्र की समस्याओं को ले कर किस के पास जाएंगे? विधायक अपने क्षेत्र का जनप्रतिनिधि होता है. इस नाते अपने क्षेत्र के लोगों की समस्याओं को ले कर ब्लौक में जाते हैं, तो कोई भी अफसर सुनने को तैयार नहीं होता है. इस तरह हमारी इज्जत दांव पर लगी हुई है.’’

पीएचईडी मंत्री और भाजपा विधायक डाक्टर रामप्रीत पासवान ने कहा, ‘‘कुछ पदाधिकारी मनमानी करते हैं. इस से इनकार नहीं किया जा सकता है. हम शुरू से ही कहते रहे हैं कि मंत्री बड़ा होता है, न कि सचिव.’’

सीतामढ़ी जिले के भाजपा विधायक डाक्टर मिथिलेश का कहना है, ‘‘पद से बड़ा सिद्धांत होता है. मदन साहनी के त्याग की भावना को मैं सलाम करता हूं. मंत्री ने जो मुद्दा उठाया है, उस की जांच होनी चाहिए.’’

मधुबनी जिले के भाजपा के ही एक और विधायक अरुण शंकर प्रसाद ने भी कहा, ‘‘विधायिका के सम्मान में कुछ अफसरों का अंहकार आड़े आ रहा है. अगर मदन साहनी की बातें सही हैं, तो यह बहुत दुखद और वर्तमान सरकार के लिए हास्यास्पद भी है.’’

रोहतास जिले के एक शिक्षक संघ के नेता का कहना है, ‘‘बिहार सरकार के कार्यालय में इतनी अफसरशाही बढ़ गई है कि अफसर नाजायज उगाही के लिए एक नैटवर्क तैयार कर रखे हैं. कई बार तो जानबूझ कर मामले को उलझा देते हैं, ताकि शिक्षकों या आमजनों से पैसे की वसूली की जाए.

‘‘छोटेमोटे कामों के लिए अफसरों को पैसा देना पड़ता है, तब जा कर काम होता है. यही हाल बिहार के तकरीबन सभी विभागों का हो चुका है.

‘‘अफसर काफी मनमानी करने लगे हैं. उन्हें आम लोगों की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है. आप अगर पैसे देंगे तो आप का काम हो जाएगा, वरना आप दफ्तर में दौड़ते रह जाएंगे.’’

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अगर यही बात विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव सदन में खड़े हो कर बोलते हैं, तो सत्ता पक्ष वालों की तरफ से मजाक उड़ाया जाता है या फिर बहुत हलके में लिया जाता है.

आज जब सत्ता पक्ष के लोगों ने भ्रष्टाचार और अफसरशाही पर खुल कर बोलना शुरू कर दिया है, तो समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी के बयान पर कई नेताओं की प्रतिक्रिया उन के पक्ष में आती दिख रही है और साथ ही उन के सरकार के आरोपों पर सत्ता पक्ष के दूसरे नेता गोलबंद होने लगे हैं तो यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री और वर्तमान सरकार इस संबंध में क्या कदम उठाती है.

कोरोना की दूसरी लहर छोटे कारोबारियों पर टूटा कहर

लेखक- धीरज कुमार

देशभर में कोरोना वायरस की जब दूसरी लहर आई, तो छोटे कारोबारियों की दुकानें दोबारा बंद हो गईं. सरकार ने फलसब्जी, दवा और किराने की दुकानें तो कुछ तय समय के लिए खुली रखीं, लेकिन बाकी लोगों की दुकानों पर एक तरह से ताले लटक गए.

छोटेमोटे कारोबारियों के तकरीबन डेढ़ साल से कारोबार बंद पड़े हैं और उन की माली हालत चरमरा गई है. अब उन के घरों में खानेपीने की किल्लत भी होने लगी है. कुछ दुकानदारों ने तो अपनी दुकानें बंद होने के बाद अपनी और अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए घूमघूम कर फल और सब्जी बेचना शुरू कर दिया है.

डेहरी औन सोन के रहने वाले विजय कुमार की रेडीमेड कपड़े की दुकान है. उन का कहना है, ‘‘बैंक से लोन ले कर रेडीमेड कपड़े की दुकान खोली थी. अभी 2 साल भी नहीं हुए थे. हर महीने बैंक को ईएमआई भी देनी पड़ती है. पिछले एक साल से दुकान में रखे हुए कपड़े पुराने पड़ रहे हैं.

‘‘इस तरह मेरी सारी पूंजी आंखों के सामने डूब रही है. सम झ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए. सरकार दवा, फलसब्जी और राशन की दुकानें खोलने की इजाजत तो दे देती है, लेकिन हमारे जैसे दुकानदारों के लिए सरकार कुछ नहीं सोच रही है.

‘‘हम जैसे छोटे कारोबारियों के लिए कोरोना की लहर के साथ हमारे ऊपर कहर बरपा है. बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं. उन की औनलाइन क्लास चल रही हैं. उन की पढ़ाई भी ठीक से नहीं हो पा रही है, फिर भी स्कूल मैनेजमैंट फीस के लिए दबाव बना रहा है.

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‘‘जब आमदनी के सभी रास्ते बंद  हो गए हैं, तो अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे कहां से दे पाऊंगा? घर की माली हालत खराब होती जा रही है, इसीलिए बच्चों की पढ़ाई बंद करवा दी है.’’

सासाराम के रहने वाले 2 दोस्त सुनील और पंकज 4 साल पहले दिल्ली में रहा करते थे. दिल्ली छोड़ कर सासाराम में ठेले पर मोमोज बेचने शुरू किए थे. 2 साल में ही सासाराम में दुकान किराए पर ले ली थी और मोमोज बेचा करते थे.

शादीब्याह में भी उन्हें और्डर मिलने लगा था, लेकिन जब से कोरोना का कहर शुरू हुआ है, तब से उन की दुकान तकरीबन बंद हो चुकी है. ऊपर से दुकान का किराया चल रहा है. अब दुकान के मालिक पर निर्भर है कि वह कितने महीने का किराया लेगा.

लेकिन आने वाले समय में दुकान दोबारा शुरू हो पाएगी कि नहीं, ऐसी उन्हें उम्मीद नहीं लग रही है. घर की माली हालत खराब हो चुकी है. इस महामारी के दौरान दूसरा कोई काम नजर भी नहीं आ रहा है.

जैसेजैसे कोरोना के चलते लौकडाउन की तारीख बढ़ रही है, उन की परेशानी भी बढ़ती जा रही है. इन दोनों पर ही घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी थी. इनकम न होने से घरपरिवार के हालात दिनोंदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं.

डेहरी औन सोन के रहने वाले पंकज प्रसाद होटल कारोबारी हैं. उन का कहना है, ‘‘बाजार में दूरदराज के गांवों से आने वाले लोगों को खाना बना कर खिलाते थे. सुबह से ही उन की दुकान पर लिट्टीचोखा खाने वालों की भीड़ लगी रहती थी, पर जब से कोरोना महामारी शुरू हुई है, तब से होटल पूरी तरह से  बंद है.’’

उसी होटल के बने खाने को पंकज प्रसाद का पूरा परिवार भी खाता था. होटल में कई लोगों को काम पर भी  रखा था. अब उन सब को अपनेअपने घर भेज दिया गया है, क्योंकि वे खुद ही बेरोजगारी का दंश  झेल रहे हैं.

बिहार के औरंगाबाद जिले में साइबर कैफे चलाने वाले नीरज कुमार का कहना है, ‘‘कैफे में दिनभर पढ़नेलिखने वाले लड़केलड़कियों की भीड़ लगी रहती थी. कुछ न कुछ फार्म वगैरह भरने के लिए लड़के और लड़कियां आते ही रहते थे, इसलिए मु झे अच्छी आमदनी हो जाती थी, लेकिन कोरोना महामारी के चलते कैफे बंद है.

‘‘जिन लड़केलड़कियों के घरों में फार्म भरने का इंतजाम नहीं है, वे अभी भी फोन करते हैं. लेकिन मु झे मजबूरी में बताना पड़ता है कि कैफे बंद है, सरकार ने खोलने की इजाजत नहीं दी है.

‘‘अभी हम लोग भी बेरोजगार हो गए हैं. काफी परेशानी हो रही है. ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय  में साइबर कैफे के सभी कंप्यूटर  बेचने पड़ेंगे.’’

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ऐसे छोटेमोटे कारोबारियों की तादाद बिहार के छोटेबड़े शहरों में काफी ज्यादा है. इन का दर्द कोई सुनने वाला नहीं है. इन की दुकानें कोरोना महामारी के चलते बंद हो गई हैं.

बीच में जब कुछ दिनों के लिए कोरोना वायरस से संक्रमितों की तादाद में कमी आई थी, तो लोगों को लगा था कि अब दोबारा जिंदगी पटरी पर लौटने लगी है. लेकिन यह बहुत ज्यादा दिन तक नहीं चला. एक महीने के अंदर ही दोबारा दुकानें बंद कर दी गईं.

इस से कई कारोबारियों के हालात इतने खराब हो गए हैं कि वे अपनी परेशानियां किसी को बता भी नहीं पाते हैं. सरकार इन कारोबारियों को गरीब की श्रेणी में भी नहीं रखती है.

पिछली बार जब कोरोना महामारी आई थी, तो सरकार ने गरीबों के लिए राशन देने का ऐलान किया था, लेकिन राशन पाने वालों में इन कारोबारियों का नाम नहीं रहता है, क्योंकि सरकार के लिए गरीबी के मापदंड अलग हैं.

सरकार के मुताबिक जो लोग गरीबी की श्रेणी में हैं, उन्हीं को इस तरह का लाभ दिया जाता है. बेरोजगारी से जू झ रहे ऐसे कारोबारियों के लिए सरकार के पास कोई सुनने और देखने वाला नहीं है. आम लोगों को भी ऐसे कारोबारियों  से कोई खास लेनादेना नहीं है. अगर दुकानें बंद हैं, तो उन के लिए औनलाइन खरीदारी का इंतजाम है.

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ऐसे हालात में आखिर उन कारोबारियों की मजबूरियों को कौन सुनेगा? सरकार के पास उन कारोबारियों के वर्तमान हालात को सुधारने के लिए कोई कारगर योजना नहीं है, जबकि इन कारोबारियों द्वारा सरकार को टैक्स दिया जाता है. उस टैक्स से देश के निर्माण में योगदान होता है, इसलिए सवाल यह है कि क्या सरकार भी इन कारोबारियों की बेहतरी के लिए सोचेगी?

कोरोना काल में भुलाए जा रहे रिश्ते

लेखक- वीरेंद्र कुमार खत्री

कोरोना की दूसरी लहर इतनी ज्यादा खतरनाक साबित हुई कि इनसान तो मरे ही, साथ ही नजदीकी रिश्ते भी मरते दिखे. बिहार में कई ऐसी मौतें हुईं, जिन में मृतक के परिवार के लोगों ने अंतिम संस्कार करने की पहल नहीं की.

पटना समपतचक कछुआरा पंचायत की एक घटना है. कोरोना की भेंट चढ़े पिता की लाश के पास मां को छोड़ कर बेटा और बहू फरार हो गए. मुखिया प्रतिनिधि को इस की जानकारी हुई, तो उन्होंने एंबुलैंस बुलाई और लाश को अंतिम संस्कार के लिए भेजा.

नालंदा स्थानीय बाजार के थाना मोड़ के पास चलतेचलते एक बुजुर्ग की मौत हो गई. बुजुर्ग की बेटी साथ में थी, पर वह वहां से भाग गई. लोगों ने इस की सूचना पुलिस को दी.

इसी तरह औरंगाबाद में पतिपत्नी की कोरोना ने जान ले ली. उन के बेटे व परिजनों ने लाश को हाथ लगाने से भी इनकार कर दिया. इस की जानकारी रैडक्रौस के चेयरमैन को मिली, तो उन्होंने अपने निजी खर्च से एंबुलैंस और  2 लोगों को तैयार कर लाश को श्मशान घाट भिजवाया व दाह संस्कार कराया.

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फुलवारीशरीफ थाना के जानीपुर नगवां डेर के रहने वाले 20 साल के एक नौजवान की मौत हो गई. मौत के बाद घर के एक कमरे में 12 घंटे तक उस की लाश पड़ी रही. कोरोना की आशंका को ले कर किसी ने अंतिम संस्कार करने की पहल नहीं की.

स्थानीय विधायक को सूचना दी गई, तो उन्होंने मृतक के घर पहुंच कर हालात की जानकारी ली. उन्होंने जिला प्रशासन को सूचना दे कर एंबुलैंस मंगा कर लाश को अंतिम संस्कार के लिए भेजा.

औरंगाबाद के मदनपुर पानी टंकी निवासी एक आदमी की कोरोना से मौत के बाद परिजनों ने लाश लेने से इनकार कर दिया. पुलिस प्रशासन ने उस का अंतिम संस्कार कराया.

इस तरह के दर्जनों मामले कोरोना काल की दूसरी लहर में सामने आए जब अपने अपनों से ही कन्नी काटने लगे, जबकि हमारे यहां शुरू से गांवों में देखा गया है कि जीनामरना, शादीब्याह, हारीबीमारी समेत दूसरे कामों में लोग एकदूसरे के साथ खड़े रहते थे.

सामाजिक सरोकार ही भारत की मुख्य ताकत रही है. पर कोरोना ने रिश्तों के बीच ऐसी खाई पैदा कर दी है कि किसी की मौत के बाद कोई सगासंबंधी अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होना चाह रहा है. यहां तक कि कोरोना के सामने खून के रिश्ते छोटे पड़ते जा रहे हैं.

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लाशों को सड़कों, अस्पताल और श्मशान घाटों में छोड़ कर बिना अंतिम क्रिया के ही जा रहे हैं. ऐसे में पुलिस के पास सूचना पहुंच रही है, तो वह अंतिम संस्कार करवा रही है.

भारत में रिश्तों की सब से ज्यादा अहमियत मानी जाती है. पटना सीआईडी विभाग के इंस्पैक्टर अरुण कुमार, हसपुरा के समाजसेवी कौशल शर्मा, राज कुमार खत्री, हैडमास्टर कुलदीप चौधरी, दंत चिकित्सक डाक्टर विपिन कुमार का मानना है कि रिश्ते को सम झने और निभाने में भारत के लोगों का जवाब नहीं है, पर कोरोना काल में परिवार के रिश्तों के धागे कमजोर होते दिख रहे हैं.

पेश की गई मिसाल

बिहार के गया जिले के रानीगंज के तेतरिया गांव में एक 58 साल की औरत की मौत लंबी बीमारी के चलते उस के घर पर ही हो गई थी. मौत की खबर से गांव में सन्नाटा पसर गया. लोगों ने अपनेअपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए. कोई उस की अर्थी को कंधा देने को तैयार नहीं था.

ऐसे हालात में रानीगंज के मुसलिम नौजवानों ने अर्थी तैयार करते हुए  हिंदू रीतिरिवाज से उस औरत का दाह संस्कार कर आपसी भाईचारे की मिशाल पेश की.

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बिहार: गांव को चमकाने की कवायद या लूटखसोट

बिहार के पंचायती राज मंत्री सम्राट चौधरी के हवाले से छपी इस खबर में बिहार के तकरीबन 8,300 गांव (पंचायतों) के विकास व उन के बढि़या रखरखाव के लिए एक रूपरेखा पेश की गई, जिस में पूरे राज्य की हर पंचायत में पार्क बनाने, खेल के लिए मैदान बनाने, सिक्योरिटी के नजरिए से गांवगांव में सीसीटीवी कैमरे लगाने, छठ घाट बनाने व उन्हें निखारने और सामुदायिक शौचालय बनाने जैसी और भी कई योजनाओं को लागू करने की बात की गई.

पंचायती राज मंत्री सम्राट चौधरी ने यह भी बताया कि 15वें वित्त आयोग की सिफारिश के तहत केंद्र सरकार ने बकाया 1,254 करोड़ रुपए पंचायती राज विभाग को भेज दिए हैं, जबकि 3,763 करोड़ रुपए की रकम पहले ही भेजी जा चुकी है.

यकीनन यह खबर उन लोगों पर जरूर असर डालेगी, जिन्होंने अब तक बिहार के गांवों के दर्शन नहीं किए हैं, पर वे लोग जो बिहार से जुड़े हैं और अकसर बिहार के गांवदेहात के इलाकों में आतेजाते रहते हैं, उन के लिए यह खबर खास जोश की बात नहीं हो सकती, बजाय इस के कि यह खबर गांवदेहात के इलाकों की तरक्की और उन्हें निखारने की कम और लूटखसोट व बंदरबांट के लिए गढ़ी जाने वाली योजना संबंधी खबर ज्यादा लगती है.

जिन गांवों को ‘वीआईपी गांव’ बनाने की बात कही जा रही है, उन की आज के समय में क्या हालत है, इस का जायजा लेना जरूरी है. गांव की तो छोडि़ए, आप बिहार के शहरों की यहां तक कि राजधानी पटना की बात करें तो यहां अनेक इलाके ऐसे हैं, जिधर से आप का मुंह पर रूमाल रखे या नाक बंद किए बिना गुजर पाना भी मुमकिन नहीं है.

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अभी पिछले साल की ही तो बात है, जब पटना की जल निकासी व्यवस्था पूरी तरह ठप हो गई थी. लोगों के घरों में पानी घुस गया था. यहां तक कि राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी घुटनेघुटने पानी में सपरिवार मदद के लिए सड़क पर खड़े नजर आए थे.

आज बिहार के ज्यादातर गांव बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं. शायद राज्य के किसी भी गांव में जल निकासी का कोई ठोस इंतजाम नहीं है. हां, अनेक गांवों में नालियां व नाले बने जरूर देखे जा सकते हैं, पर आज या तो वे टूटेफूटे पड़े हैं या उन में कूड़ा पटा पड़ा है या जिस मकसद से ये नालेनालियां बनाए गए थे, वह कतई पूरा नहीं हो रहा.

कूड़ा निबटान की कोई योजना पूरे राज्य के किसी गांव में नहीं है. नतीजतन, तकरीबन हर घर के सामने कूड़े का ढेर लगा है, जो बदबू फैलाता है. इसी गंदगी के चलते मक्खीमच्छरों की भरमार है.

आज भी गांव के तमाम लोग सड़कों के किनारे खुले में शौच करते हैं, जिस के चलते राहगीरों का गुजरना तो मुश्किल हो ही जाता है, बदबू के साथ बीमारी फैलने का भी डर बना रहता है.

पिछले साल बारिश के दिनों में दरभंगा जिले व आसपास के कई इलाकों में बाढ़ व बारिश का जो पानी गांवों में घुस गया था, वह आज तक कई ठिकानों पर रुका हुआ है. इस से वहां बदबू व मच्छरमक्खियों का तो साम्राज्य है ही, साथ ही ऐसी जगहों पर आम के पेड़ों समेत और भी पेड़ लगातार पानी लगे रहने के चलते खराब हो चुके हैं.

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मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने पिछले शासनकाल में ‘हर घर नलजल योजना’ की शुरुआत की थी. पर यह योजना जनहितकारी योजना तो कम भ्रष्टाचार में डूबा हुआ एक तमाशा जरूर साबित हुई.

इस के तहत गांवगांव में पानी की प्लास्टिक की वे टंकियां रखी गई हैं, जो अमूमन लोग अपने मकानों पर जल भंडारण के लिए रखवाते हैं. इस के अलावा प्लास्टिक (फाइबर) के पाइप बिछाए गए, जो लगने के साथसाथ खराब होते जा रहे थे.

इन टंकियों में मोटर द्वारा जमीनी जल भरा जाता था और उसी की सप्लाई की जाती थी. आज यह योजना तकरीबन नाकाम हो चुकी है, क्योंकि या तो प्लास्टिक के पाइप टूटफूट गए हैं या जमीन के नीचे से पानी खींचने वाली मोटरें जल गई हैं.

ऐसा जान पड़ता है कि इस तरह की योजनाएं जनता की सुविधा के लिए नहीं, बल्कि जनता के टैक्स के पैसों की लूटखसोट के लिए ही बनाई जाती हैं, इसीलिए शक पैदा हो रहा है कि राज्य के गांवों को चमकाने व उन्हें ‘वीआईपी’ बनाने की जो नई कवायद एक बार फिर शुरू होने जा रही है, वह हकीकत में धरातल पर दिखाई भी देगी या नेताओं, पंचायत प्रतिनिधियों व सरकारी अफसरों के बीच लूटखसोट का साधन बन कर रह जाएगी?

सीसीटीवी कैमरे व पार्क बनाने से ज्यादा जरूरी है कि सही तरीके से चलने वाली नालेनालियां बनाई जाएं और जो टूटेफूटे हैं, उन्हें ठीक किया जाए. हर गांव में कूड़ा निबटान का बढि़या इंतजाम किया जाए.

‘हर घर नलजल योजना’ की दोबारा समीक्षा की जाए और इन के पाइप बदल कर लोहे के पाइप बिछाए जाएं व जलशोधन के बाद जल की सप्लाई की जाए. इस के लिए प्लास्टिक की टंकियां पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि बड़ी सीमेंट की टंकियां बनवाई जाएं.

इन सब से भी ज्यादा जरूरी है कि इन सभी योजनाओं को भ्रष्टाचार से मुक्त रखा जाए और जो भी सरकारी अफसर, जनप्रतिनिधि या ठेकेदार इन जनहितकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार करते दिखें, उन्हें फौरन जेल भेजा जाए. इस के साथसाथ गांव के लोगों को भी जागरूक किया जाए और उन्हें भी गंदगी व साफसफाई के बीच के फर्क को समझाने के लिए जनसंपर्क मुहिम चलाई जाए.

लोक जनशक्ति पार्टी: बिहार में लगातार गिरती साख

जब से लोक जनशक्ति पार्टी के सर्वेसर्वा रामविलास पासवान नहीं रहे हैं, तब से यह पार्टी अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रही है. बेटे चिराग पासवान ने कमान तो संभाल ली, पर वे अपना दबदबा कायम नहीं रख पाए हैं. पहले उन के एकलौते विधायक ने पार्टी छोड़ी, फिर देखादेखी एकलौते एमएलसी ने भी लोजपा से हाथ जोड़ लिए.

नतीजतन, अब बिहार में लोजपा का न विधायक रहा है, न ही एमएलसी. इस के पहले लोजपा के 208 नेताओं ने जनता दल (यूनाइटेड) का दामन थाम लिया. इस से चिराग पासवान की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं.

बिहार विधानसभा व विधानपरिषद का दरवाजा लोजपा के लिए बंद हो चुका है. अब बिहार की राजनीति में 2 ही गठबंधन पूरी तरह से आमनेसामने हैं. तीसरी पार्टी की कोई हैसियत नहीं रही. एक तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन तो दूसरी तरफ महागठबंधन.

बिहार की सत्ता के केंद्र में नीतीश कुमार हैं, जो पिछले कई साल से मुख्यमंत्री की कुरसी पर कब्जा जमाए हुए हैं. वे राष्ट्रीय जनता दल के साथ भी और भारतीय जनता पार्टी के साथ भी मुख्यमंत्री बने, इसलिए बिहार की जनता उन्हें अब ‘कुरसी कुमार’ के नाम से भी जानने लगी है.

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जिस लोक जनशक्ति पार्टी को रामविलास पासवान ने खूनपसीने से सींचा था, आज वह धराशायी हो रही है. रामविलास पासवान की मौत के बाद पार्टी की कमान उन के बेटे चिराग पासवान के हाथ में है. पर चिराग पासवान और नीतीश कुमार की एकदूसरे से पटरी नहीं बैठती है. वे दोनों एकदूसरे को पसंद नहीं करते हैं.

बिहार विधानसभा के चुनाव में जद (यू) को चिराग पासवान की वजह से 25-30 सीटों का नुकसान हुआ था. नतीजतन, नीतीश कुमार चिराग पासवान से खफा हैं. वे हर हाल में लोजपा को मटियामेट करना चाहते हैं.

यही वजह है कि उन्होंने लोजपा विधायक राजकुमार सिंह को अपने साथ कर लिया. एकमात्र एमएलसी नूतन सिंह भी वर्तमान राजनीतिक हालात देखते हुए भाजपा में शामिल हो गईं. नूतन सिंह के पति नीरज सिंह भाजपा कोटे से नीतीश सरकार की कैबिनेट में मंत्री बनाए गए हैं.

लोजपा दलित जातियों की राजनीति करने का दावा करती है, पर उस के पार्टी नेताओं में दलितों की नुमाइंदगी कम रहती है. दलितों के नाम पर रामविलास पासवान के परिवार के सदस्य ही सांसद और पार्टी में प्रमुख पदों पर विराजमान हैं. यह रामविलास पासवान के जमाने से ही चला आ रहा है. चिराग पासवान भी अपने पिता के नक्शेकदम पर चल रहे हैं.

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रामविलास पासवान राजनीति में मौसम वैज्ञानिक के रूप में जाने जाते थे. वे हवा के रुख को पहचान कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते थे, लेकिन चिराग पासवान में वह काबिलीयत नहीं है. चिराग पासवान बिहार में वोटकटवा बन कर रह गए हैं.

लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान अपनी डूबती सियासी नैया को दलितसवर्ण गठजोड़ के साथ बचाना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने बिहार प्रदेश लोजपा का कार्यकारी अध्यक्ष राजू तिवारी को बनाया है. चुनाव के बाद राज्य और जिलास्तरीय संगठन के पदाधिकारियों को चिराग पासवान ने भंग कर दिया था.

अब नए सिरे से दलितसवर्ण और पिछड़ी जातियों को संगठन से जोड़ कर पार्टी को मजबूत करने की कवायद तेज हो गई है. इस का नतीजा क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा.

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बिहार : सरकारी नौकरियों की चाहत ने बढ़ाई बेरोजगारी

धीरज कुमार

प्रदेश की राजधानी पटना में तकरीबन सभी जिलों के लड़केलड़कियां अलगअलग शहर के कोचिंग सैंटरों में अपना भविष्य बेहतर करने की उम्मीद में भागदौड़ करते देखे जा सकते हैं. उन की एक ही ख्वाहिश होती है कि किसी तरह से प्रतियोगिता परीक्षा में पास कर सरकारी नौकरी हासिल करना.

बहुत से लड़केलड़कियां अपना भविष्य बनाने की चाह में पटना जैसे शहरों में कई सालों से टिके होते हैं, फिर भले ही उन के मातापिता किसान हैं, रेहड़ी चलाने वाले हैं, छोटेमोटे धंधा करने वाले हैं. उन की थोड़ी आमदनी भी होगी, लेकिन वे अपने बच्चे के उज्ज्वल भविष्य के लिए पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहते हैं, चाहे इस के लिए खेत बेच कर, कर्ज ले कर, गहने गिरवी रख कर कोचिंग सैंटरों में लाखों रुपए क्यों न बरबाद करना पड़े.

कोचिंग सैंटर वाले भी इस का भरपूर फायदा उठा रहे हैं. ज्यादातर कोचिंग सैंटर सौ फीसदी कामयाबी का दावा कर लाखों का कारोबार करते हैं, भले ही उन की कामयाबी की फीसदी जीरो के बराबर हो.

अब सवाल यह कि किसी सरकार के पास इतने इंतजाम हैं, जो सभी नौजवानों को नौकरी मुहैया करा देगी? इस सवाल के जवाब के लिए पिछले तकरीबन 10 सालों की  प्रमुख रिक्तियों और बहालियों का विश्लेषण किया गया. राज्य सरकार ने साल 2010 में बिहार में पहली बार शिक्षक पात्रता परीक्षा (टेट) का आयोजन किया था. इस परीक्षा में 26.79 लाख लोगों ने आवेदन किया था, जिन में से मात्र 1.47 लाख अभ्यर्थियों को पास किया गया. इस में कामयाबी का फीसदी मात्र साढ़े 5 फीसदी था. राज्य सरकार ने उन सफल अभ्यर्थियों में से तकरीबन एक से सवा लाख लोगों को नियोजन किया.

उस समय शिक्षकों को सरकार ने  जो बहाली की, उन्हें नियोजन यानी आउटसोर्सिंग पर रखा गया, जिन को सरकार नियत वेतन देती है. नियमित शिक्षकों की तरह वेतन व अन्य सुविधाएं नहीं देती है. हां, चुनाव के समय कुछ पैसे बढ़ा कर वोट बैंक के लिए खुश करने की कोशिश की जाती है.

आज उन्हीं शिक्षकों ने कानून का दरवाजा खटखटा कर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई लड़ी, ताकि उन्हें पुराने शिक्षकों की तरह दूसरी सुविधाएं मिलें. लेकिन वे सरकार और अदालत के चक्रव्यूह में फंस कर हार गए.

राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में भी दलील पेश की है कि स्थायी बहाली नहीं होंगी. पहले की हुई स्थायी बहाली को वर्तमान सरकार डाइंग कैडर यानी मृतप्राय मान चुकी है.

इस का मतलब यह है कि अब जो भी बहाली होगी, वह सिर्फ नियत वेतन पर रखा जाएगा. अब पुरानी बहाली की तरह ईपीएफ, बीमा, पैंशन, ग्रेच्युटी, स्थानांतरण, अनुकंपा पर नौकरी देने का प्रावधान आदि की सुविधाएं खत्म कर दी गई हैं.

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जबकि गैरसरकारी संस्थाओं में आज भी ऐसी सुविधाओं में से कुछ ही दी जाती हैं. यही वजह है कि मेहनत करने वाले लोग प्राइवेट संस्थाओं को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं, लेकिन इस के बावजूद भी कुछ  लोग अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि सरकारी नौकरियों के पीछे भागना फायदेमंद है या नुकसानदायक.

बिहार सरकार स्टाफ सिलैक्शन कमीशन (एलडीसी) 2014 में  तकरीबन 13,000 पदों की बहाली के लिए परीक्षा का आयोजन किया गया. इन पदों पर बहाली के लिए तकरीबन  13 लाख  अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था. कई बार यह परीक्षा रद्द की गई. इस परीक्षा को टालते हुए लगभग  5-6 साल बीत जाने के बाद भी अभी उस की बहाली पूरी नहीं की गई है. अगर रिक्तियों के अनुपात में बहाली की संख्या को देखा जाए तो इस परीक्षा में महज  1 फीसदी अभ्यर्थियों का चयन किया जाना है.

बिहार सरकार जानबूझ कर कोई भी बहाली को कम समय में पूरा नहीं करती है, बल्कि उसी बहाली को कई सालों में चरणबद्ध तरीके से पूरा करने की कोशिश करती है, ताकि समय लंबा खिंचे. इस से अभ्यर्थी धीरेधीरे कम होंगे और सरकार के एजेंडे का प्रचारप्रसार ज्यादा होगा. इस तरह सरकार को ज्यादा फायदा मिलेगा. ऐसी प्रक्रिया में कुछ अभ्यर्थियों की तो उम्र भी निकल जाती है, जिस के कारण वे बहाली से पहले ही छंट जाते हैं.

साल 2019 में बिहार पुलिस में कांस्टेबल के 11,880 पदों पर बहाली होनी थी, जिस में तकरीबन 13 लाख अभ्यर्थियों ने आवेदन दिए थे. अभ्यर्थियों के अनुपात में यह महज एक फीसदी से भी कम बहाली की गई. इस के साथ ही कई अन्य छोटीमोटी बहालियां हुईं जैसे दारोगा की बहाली, नर्स की बहाली, पशुपालन विभाग में बहाली वगैरह. इन सभी पदों की बहाली में सीटें कम थीं. इन 10 सालों की बहाली में तकरीबन छोटीबड़ी सभी बहालियां मिला कर तकरीबन डेढ़ से 2 लाख अभ्यर्थियों की बहाली हुई होगी.

ऊपर मोटेतौर पर 2-3 परीक्षाओं का जिक्र किया गया. गौर करने की बात  यह है कि तीनों परीक्षाओं  में तकरीबन 50 लाख अभ्यर्थियों ने हिस्सा लिया, जिन में से तकरीबन 2 लाख लोगों को नौकरी मिल गई.

बिहार के नौजवानों की यह खासीयत है कि एकसाथ कई परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. अगर मान लिया जाए कि तीनों परीक्षा में कुछ लोग समान रूप से सम्मिलित हुए हों, तो तकरीबन 30 से 35 लाख नौजवान 10 सालों में बेरोजगार रह गए यानी उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल पाई.

राज्य और केंद्र सरकार द्वारा युवाओं में स्किल पैदा करने के लिए ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना’ के तहत कई तरह के प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. लेकिन इन प्रशिक्षण केंद्रों पर प्लेसमैंट की योजना नहीं होने के चलते ये सभी कार्यक्रम कागजों पर ही रह गए हैं. इसी तरह नौकरी से वंचित लोगों की वजह से बेरोजगारों की तादाद काफी बड़ी हो जाती है. उन में से ज्यादातर लोग घर छोड़ कर दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं. स्किल की कमी में कम तनख्वाह पर बाहरी राज्यों में काम करना पड़ता हैं.

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नीतीश सरकार अपने शुरू के कार्यकाल में बेरोजगारी दूर करने और रोजगार बढ़ाने के लिए बाहरी राज्यों के गैरसरकारी संस्थाओं को बिहार में आमंत्रित कर नियोजन मेला का आयोजन करती थी, जिस का मीडिया में काफी प्रचारप्रसार भी किया जाता था. इस में दूसरे राज्यों के धागा मिल, कपड़ा मिल, बीमा कंपनियां, सिक्योरिटी कंपनी, साइकिल कंपनी, मोटर कंपनी वगैरह छोटीबड़ी तकरीबन 20-22 कंपनियां हर जिले में आ रही थीं. उस में 18 से 25 साल की उम्र के लड़के और लड़कियों को रोजगार देने का काम किया जाता था. लेकिन लोगों ने गैरसरकारी कंपनी होने के चलते रोजगार हासिल करने में जोश नहीं दिखाया, इसलिए सरकार को वह कार्यक्रम बंद करना पड़ा.

केंद्र सरकार की ओर से की जाने वाली बहाली जैसे रेलवे, बैंक वगैरह में कम कर दी गई हैं या तकरीबन रोक दी गई हैं. फिर भी बिहार के छोटेबड़े शहरों में तैयारी करने वालों की तादाद में कमी नहीं आई है, बल्कि इजाफा ही हुआ है.

साल 2001 से साल 2005 के बीच बिहार सरकार ने 11 महीने के लिए राज्य में शिक्षामित्रों की बहाली की थी. यह बहाली मुखिया द्वारा की गई थी, जिन का मासिक वेतन मात्र 1,500 रुपए था. बाद में आई सरकार ने उन के मासिक वेतन में बढ़ोतरी 3,000 रुपए कर दी. साल 2015 में  वर्तमान सरकार शिक्षकों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने के लिए वेतनमान तो लागू कर दिया, पर आज भी पुराने शिक्षकों की तरह सुविधाओं से वंचित रखा गया है.

आज सरकार हजार डेढ़ हजार रुपए पर किसी भी तरह की बहाली निकालती है, तो लोगों की भीड़ लग जाती है. लोगों का मानना है कि पहले सरकारी दफ्तर में किसी तरह से घुस जाओ. आने वाले समय में सरकार अच्छस वेतन दे ही देगी. इसी का नतीजा है कि बिहार में तकरीबन ढाई लाख रसोइया विद्यालयों में इस उम्मीद में काम कर रही हैं कि आने वाले दिनों में सरकार अच्छा वेतन देगी.

सरकारी नौकरियों के पीछे भागने की खास वजह यह रही है कि इस में मेहनत कम करनी पड़ती है. इस के उलट गैरसरकारी दफ्तरों में काम ज्यादा करना पड़ता है.

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बिहार में खेती लायक जमीन होते हुए भी लोगों का खेतीबारी के प्रति मोहभंग होता जा रहा है. इस के पीछे बाढ़, सुखाड़ और नवीनतम कृषि उपकरणों की कमी होना भी है, जिस के कारण लोगों के पास एकमात्र विकल्प सरकारी तंत्र में नौकरियों की तलाश करना रह जाता है.

नौजवानों को चाहिए कि सरकारी नौकरियों के पीछे भागने के बजाय वे अपने अंदर हुनर पैदा करें. इस पर अपने पौजिटिव नजरिए को विकसित करने की जरूरत है. कोई भी नया हुनर सीख कर अपने कामधंधे में लगा जा सकता है और अपने परिवार के लिए सहारा बना जा सकता है.

गहरी पैठ

हाथरस, बलरामपुर जैसे बीसियों मामलों में दलित लड़कियों के साथ जो भी हुआ वह शर्मनाक तो है ही दलितों की हताशा और उन के मन की कमजोरी दोनों को दिखाता है. 79 सांसदों और 549 विधायक जिस के दलित हों, वह भारतीय जनता पार्टी की इस बेरुखी से दलितों पर अत्याचार करते देख रही है तो इसलिए कि उसे मालूम है कि दलित आवाज नहीं उठाएंगे.

पिछले 100 सालों में पहले कांग्रेसी नेताओं ने और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं ने जम कर पौराणिक व्यवस्था को गांवगांव में थोपा. रातदिन पुराणों, रामायण, महाभारत और लोककथाओं को प्रवचनों, कीर्तनों, यात्राओं, किताबों, पत्रिकाओं, फिल्मों व नाटकों से फैलाया गया कि जो व्यवस्था 2000 साल पहले थी वही अच्छी थी और तर्क, तथ्य पर टिकी बराबरी की बातें बेकार हैं.

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जिन लोगों ने पढ़ कर नई सोच अपनाई थी उन्हें भी इस में फायदा नजर आया चाहे वे ऊंची जातियों के पढ़े-लिखे सुधारक हों या दलितों के ही नेता. उन्हें दलितों में कम पैसे में काम करने वालों की एक पूरी बरात दिखी जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे.

यही नहीं, दलितों के बहाने ऊंची जातियों को अपनी औरतों को भी काबू में रखने का मौका मिल रहा था. जाति बड़ी, देश छोटा की बात को थोपते हुए ऊंची जातियों ने दहेज, कुंडली, कन्या भ्रूण हत्या जम कर अपनी औरतों पर लादी. औरत या लड़की चाहे ऊंची जाति की हो या नीची, मौजमस्ती के लिए है. इस सोच पर टिकी व्यवस्था में सरकार, नेताओं, व्यापारियों, अफसरों, पुलिस से ले कर स्कूलों, दफ्तरों में बेहद धांधली मचाई गई.

हाथरस में 19 साल की लड़की का रेप और उस से बुरी तरह मारपीट एक सबक सिखाना था. यह सबक ऊंची जातियां अपनी औरतों को भी सिखाती हैं, रातदिन. अपनी पढ़ीलिखी औरतों को रातदिन पूजापाठ में उलझाया गया. जो कमाऊ थीं उन का पैसा वैसे ही झटक लिया गया जैसा दलित आदमी औरतों का झटका जाता है. जिन आदमियों को छूना पाप होता है, उन की औरतों, बेटियों के गैंगरेप तक में पुण्य का काम होता है. यह पाठ रोज पढ़ाया जाता है और हाथरस में यही सबक न केवल ब्राह्मण, ठाकुर सिखा रहे हैं, पूरी पुलिस, पूरी सरकार, पूरी पार्टी सिखा रही है.

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दलितों के नेता चुपचाप देख रहे हैं क्योंकि वे मानते हैं कि जिन का उद्धार नहीं हुआ उन्हें तो पाप का फल भोगना होगा. मायावती जैसे नेता तो पहले ही उन्हें छोड़ चुके हैं. भारतीय जनता पार्टी के 79 सांसद और 549 विधायक अपनी बिरादरी से ज्यादा खयाल धर्म की रक्षा के नाम पर पार्टी का कर रहे हैं. दलित लड़कियां तो दलितों के हाथों में भी सुरक्षित नहीं हैं. यह सोच कर इस तरह के बलात्कारों पर जो चुप्पी साध लेते हैं, वही इस आतंक को बढ़ावा दे रहे हैं.

सरकार की हिम्मत इस तरह बढ़ गई है कि उस ने अपराधियों को बचाने के लिए पीडि़ता के घर वालों पर दबाव डाला और हाथरस के बुलगढ़ी गांव को पुलिस छावनी बना कर विपक्षी दलों और प्रैस व मीडिया को जाने तक नहीं दिया. वे जानते हैं कि जाति शाश्वत है. यह हल्ला 4 दिन में दब जाएगा.

बिहार चुनावों की गुत्थी समझ से परे हो गई है. भारतीय जनता पार्टी नीतीश कुमार का साथ भी दे रही है और उसी के दुश्मन चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी से भी मिली हुई है. इस चक्कर में हाल शायद वही होगा जो रामायण और महाभारत के अंत में हुआ. रामायण में अंत में राम के पास न सीता थी, न बच्चे लवकुश, न लक्ष्मण, न भरत. महाभारत में पांडवों के चचेरे भाई मारे भी जा चुके थे और उन के अपने सारे बेटेपोते भी.

लगता है कि हिंदू पौराणिक कथाओं का असर इतना ज्यादा है कि बारबार यही बातें दोहराई जाती हैं और कुछ दिन फुलझड़ी की तरह हिंदू सम्राट का राज चमकता है, फिर धुआं देता बुझ जाता है. बिहार में संभव है, न नीतीश बचें, न चिराग पासवान.

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जो स्थिति अब दिख रही है उस के अनुसार चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के उम्मीदवार भाजपा की सहयोगी पार्टी सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार खड़ी करेगी. वे कितने वोट काटेंगे पता नहीं, पर चिराग पासवान के पास अगर अभी भी दलित व पासवान वोटरों का समर्थन है तो आश्चर्य की बात होगी, क्योंकि चिराग पासवान जाति के नाम पर वोट ले कर सत्ता में मौज उठाने के आदी हो चुके हैं. हो सकता है कि उन्हें एहसास हो गया हो कि नीतीश कुमार निकम्मेपन के कारण हारेंगे तो लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ गठबंधन करने में आसानी रहेगी और तब वे भाजपा को 2-4 बातों पर कोस कर अलग हो जाएंगे.

जो भी हो, यह दिख रहा है कि कम से कम नेताओं को तो बिहार की जनता की चिंता नहीं है. बिहार की जनता को अपनी चिंता है, इस के लक्षण दिख नहीं रहे, पर कई बार दबा हुआ गुस्सा वैसे ही निकल पड़ता है जैसे 24 मार्च को लाखों मजदूर दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु से पैदल ही बिहार की ओर निकले थे. वह हल्ला का परिणाम था, चुनावों में गुस्से का दर्शन हो सकता है.

बिहार के मुद्दे अभी तक चुनावी चर्चा में नहीं आए हैं. बिहार में बात तो जाति की ही हो रही है. बिहार की दुर्दशा के लिए यही जिम्मेदार है कि वहां की जनता बेहद उदासीन और भाग्यवादी है. उसे जो है, जैसा है मंजूर है, क्योंकि उसे पट्टी पढ़ा दी गई है कि सबकुछ पूजापाठी तय करते हैं, आम आदमी के हाथ में कुछ नहीं है.

बिहार देश की एक बहुत बड़ी जरूरत है. वहां के मजदूरों ने ही नहीं, वहां के शिक्षितों और ऊंची जाति के नेताओं ने देशभर में अपना नाम कमाया है. बिहार के बिना देश अधूरा है पर बिहार में न गरीब की पूछ है, न पढ़ेलिखे शिक्षित की चाहे वह तिलकधारी हो या घोर नास्तिक व तार्किक. ऐसा राज्य अपने नेताओं के कारण मैलाकुचला पड़ा रहे, यह खेद की बात है और नीतीश कुमार जीतें या हारें कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

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