75 जिलों के तकरीबन 12 करोड़ वोटरों का फैसला भाजपा के खिलाफ गया है. जो एससीबीसी तबका भाजपा के साथ था, वह अब उस से छिटक गया है. इस की वजह यह थी कि भाजपा ने उस से वोट तो लिए, पर सत्ता में भागीदारी नहीं दी. इस के बाद पंचायत चुनाव में वह भाजपा से दूर हो गया.

सरकार के तमाम दावों के बाद भी थाने और तहसील में रिश्वतखोरी कम होने के बजाय बढ़ गई है. रिश्वत का रेट भी दोगुना हो गया है. योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह से अपने खिलाफ बोलने वालों को निशाने पर लेना शुरू किया, उस से उन के खिलाफ एक चिनगारी सुलग रही थी. पंचायत चुनाव के फैसले ने चिनगारी को हवा देने का काम किया है.

उत्तर प्रदेश में बहुमत की सरकार बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने धर्म के नाम पर एससी (शैड्यूल कास्ट) और बीसी (अदर बैकवर्ड कास्ट) को साथ तो लिया, पर जब सत्ता में भागीदारी देने का समय आया, तो मलाई सवर्णों के नाम कर दी.

भाजपा को यह पता था कि इस से एससीबीसी नाराज हो सकते हैं. बीसी जाति के केशव प्रसाद मौर्य को उत्तर प्रदेश का उपमुख्यमंत्री बनाया गया.

मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद के दूसरे पद अगड़ों को दिए गए. इन में मुख्यमंत्री का पद ठाकुर जाति के योगी आदित्यनाथ को और उपमुख्यमंत्री का दूसरा पद ब्राह्मण जाति के डाक्टर दिनेश शर्मा को दे दिया गया.

भाजपा को यह लग रहा था कि एक मुख्यमंत्री और 2 उपमुख्यमंत्री बना कर जातीय समीकरण को ठीक कर लिया गया है. जैसेजैसे सत्ता पर अगड़ों की पकड़ मजबूत होती गई, एससीबीसी को अपनी अनदेखी महसूस होने लगी. ऐसे में एससीबीसी जातियां अलगथलग पड़ने लगीं.

उत्तर प्रदेश में साल 2022 में विधानसभा के चुनाव होंगे. इस के पहले साल 2021 में उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हुए. इन चुनावों में जिला पंचायत सदस्य के 3,050 पदों के लिए चुनाव हुए.

पंचायत चुनावों में पहली बार इन पदों को राजनीतिक दलों के बैनर के साथ लड़ा गया. इसे सब से मजबूती से भारतीय जनता पार्टी ने ही लड़ा. मंत्रियों, विधायकों और सांसदों को पंचायत चुनावों का प्रभारी बनाया गया. बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया गया.

भाजपा को गांवों में समर्थन कम मिलता रहा है. ऐसे में उस की योजना यह थी कि पंचायत चुनाव के बहाने वह गांवगांव में अपना जनाधार मजबूत कर लेगी. भाजपा के विपक्षी दलों सपा और बसपा ने पंचायत चुनाव में कोई मेहनत नहीं की. अखिलेश यादव ने तो ट्विटर पर पंचायत चुनाव को ले कर लिखा भी. मायावती ने ट्विटर पर भी इन चुनावों और अपनी पार्टी को ले कर कोई खास प्रचार  नहीं किया.

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पंचायत चुनावों में अलग हो गए एससीबीसी

पंचायत चुनावों के जब नतीजे सामने आए, तो भाजपा को सब से ज्यादा निराशा ही हाथ लगी. भाजपा की मेहनत और उम्मीद से बहुत खराब नतीजे सामने आए. 3,050 पदों के जब नतीजे सामने आए, तो भाजपा को 764 जगहों पर जीत मिली. उस के मुकाबले समाजवादी पार्टी को 762 जगहों पर जीत मिली और उस की सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल को 68 पद मिले.

अगर समाजवादी पार्टी और लोकदल की सीटें मिला दी जाएं, तो 830 सीटें हो जाती हैं, जो भाजपा की 764 सीटों में से 66 सीटें ज्यादा हैं.

इस तरह से भारतीय जनता पार्टी को प्रदेश में करारी मात मिली है. इस के अलावा बसपा को 381, कांग्रेस को 76, आम आदमी पार्टी को 64 और निर्दलीयों को 935 पद मिले. अब यही सदस्य मिल कर जिला पंचायत अध्यक्ष को चुनेंगे.

राजनीतिक समीक्षक, पत्रकार विमल पाठक कहते हैं, ‘गांवों में भाजपा को अगड़ी जातियों का समर्थन तो मिला, लेकिन एससीबीसी जातियों ने भाजपा का साथ नहीं दिया. इस वजह से भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा.

‘लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा ने धर्म के हथियार का प्रयोग किया था. पंचायत चुनाव में धर्म की जगह जाति हावी हो गई. भाजपा के लिए यह खतरे की घंटी है.

‘अगर जाति के आधार पर ही साल 2022 के विधानसभा चुनावों में वोट पड़े, तो भाजपा के लिए चुनाव जीतना भारी पड़ जाएगा. भाजपा के अंदर अलगअलग स्तर पर जातीयता को ले कर जिस तरह का विभाजन दिख रहा है, उस से विधानसभा चुनाव में जीत की राह मुश्किल दिख रही है.’

नहीं चली धर्म की राजनीति

भाजपा के लिए सब से डराने वाली बात यह है कि धर्म का कार्ड पंचायत चुनाव में नहीं चला. उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव के साथ ही साथ पश्चिम बंगाल में विधानसभा के चुनाव भी थे. वहां भी भाजपा के धर्म का कार्ड नहीं चला.

पंचायत चुनावों में भाजपा को अपनी हार का सब से ज्यादा मलाल अयोध्या, प्रयागराज, वाराणसी और मथुरा की हार को ले कर है. यहां से भाजपा को सब से ज्यादा उम्मीद थी.

वाराणसी में जिला पंचायत की  40 सीटें हैं. इन में से केवल 8 सीटें ही भाजपा को मिली हैं. यहां समाजवादी पार्टी को 15 और बसपा को 5 सीटें मिलीं. अपना दल ‘एस’ को 3, आम आदमी पार्टी और सुहेलदेव समाज पार्टी को एकएक सीट मिली. 3 सीटें निर्दलीय के खाते में गईं.

वाराणसी में अपना दल और सुहेलदेव समाज पार्टी भाजपा की सहयोगी पार्टी रही हैं. इस के बाद भी यह पंचायत चुनाव अलगअलग हो कर लड़े थे. असल में साल 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने अपने सहयोगी दलों को जब दरकिनार करना शुरू किया, तो सहयोगी दल अलगअलग हो गए.

अगर भाजपा को अपना दल और सुहेलदेव समाज पार्टी के पिछड़ा और दलित तबके का साथ मिलता, तो भाजपा के खाते में 11 सीटों से ज्यादा मिल जातीं और सपा को बढ़त नहीं मिलती.

मथुरा में भाजपा को बहुजन समाज पार्टी और लोकदल ने कड़ी टक्कर दी. मथुरा में बसपा को 12, लोकदल को  9 और भाजपा को 8 सीटें मिलीं.

अयोध्या में भाजपा को सपा ने कड़ी टक्कर दी. 40 सीटों में से 24 सीटों पर सपा ने जीत हासिल की और भाजपा के खाते में केवल 6 सीटें ही गईं.

साल 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में महज 8 महीने ही रह गए हैं. ऐसे में धार्मिक शहरों में भाजपा की हार से यह साफ लग रहा है कि धर्म का अस्त्र अगर चुनाव में नहीं चला, तो भाजपा को हार का सामना करना पड़ेगा.

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वरिष्ठ अधिवक्ता अमरेंद्र प्रताप सिंह का कहना है, ‘भारतीय जनता पार्टी ने केवल धर्म के एजेंडे को ही आगे रख कर काम किया. ऐसे में रोजगार, विकास की बातें बेमानी हो गई थीं.

‘भारतीय जनता पार्टी को यह लग रहा था कि वह केवल बूथ प्रबंधन के सहारे ही यह चुनाव जीत जाएगी. पंचायत चुनाव में मतदाताओं ने भाजपा को यह बता दिया है कि वोट लेने के लिए जनता के काम भी करने पड़ते हैं.’

कृषि कानून का असर

पंचायत चुनाव पर किसान आंदोलन का भी असर देखने को मिला. कृषि कानूनों के खिलाफ जब किसानों ने आंदोलन शुरू किया, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने इस में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया.

पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को बहुत समर्थन मिला था. किसान आंदोलन का जिस तरह से भाजपा ने दमन किया और किसानों पर तरहतरह के लांछन लगाए, उस से किसान तबका बहुत नाराज था.

भाजपा को लग रहा था कि अगर पंचायत चुनावों में उस को जीत मिल गई, तो वह विधानसभा चुनाव के प्रचार में कह सकती है कि कृषि कानूनों को किसानों ने स्वीकार कर जीत दिला दी है. नोटबंदी और जीएसटी के बाद चुनाव जीतने पर वह ऐसे ही तर्क देती रही है. नोटबंदी, जीएसटी और तालाबंदी के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव नतीजों पर ऐसे ही तर्क दिए गए थे.

पंचायत चुनावों में कृषि कानून भी एक मुद्दा बना. किसानों ने भाजपा के खिलाफ इस कारण भी वोट किए. इस का सब से ज्यादा असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर पड़ा. जहां साल 2014 से  ले कर 2019 के सभी चुनावों में भाजपा को सब से ज्यादा वोट मिले थे.

भाजपा ने अखिलेश सरकार के समय नोएडा, मुजफ्फरनगर और कैराना को हिंदूमुसिलम के नाम पर भड़काया गया. इस का यह असर पड़ा कि भाजपा को सब से ज्यादा वोट मिले थे.

साल 2017 में जब भाजपा की सरकार बनी, तो सहारनपुर में दलित और सवर्णों के बीच जातीय हिंसा हुई. इस हिंसा में योगी सरकार का रुख दलितों को पसंद नहीं आया. यहीं से दलित भाजपा में खुद को बेहतर हालत में नहीं पा रहा था. धीरेधीरे पिछड़ी जातियां भी ऐसे ही अनुभव करने लगी थीं.

पंचायत चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को सब से ज्यादा नुकसान हुआ. जनता ने समाजवादी पार्टी, लोकदल, बसपा ही नहीं, बल्कि भीम आर्मी तक को वोट दिया.

मेरठ, सहारनपुर, शामली, बागपत, आगरा और अलीगढ़ जैसे जिलों में लोकदल और समाजवादी गठबंधन को सब से ज्यादा वोट मिले. भाजपा समर्थित उम्मीदवारों को हार का मुंह देखना पड़ा.

भाजपा ने किसान आंदोलन के समय किसानों की जिस तरह से अनदेखी की, वह पंचायत चुनावों पर भारी पड़ी. भाजपा को अभी भी कृषि कानूनों को वापस लेने पर विचार करना चाहिए. किसानों ने जाति और धर्म से ऊपर उठ कर पंचायत चुनावों में वोट दिया है. पंचायत चुनावों में मिली जीत के बाद किसान आंदोलन और मजबूत होगा.

 सरकार के लिए खतरे की घंटी

पंचायत चुनाव के फैसले उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के लिए खतरे की घंटी हैं. पंचायत चुनावों में हार के बाद भाजपा के अंदर बगावत के सुर सुनाई देने लगे हैं. कई विधायक और सांसद कोरोना संक्रमण के बहाने सरकार पर शब्दबाण चलाने लगे हैं. समस्या यह है कि अगड़ी जातियों में ब्राह्मण भी उन के खिलाफ दबी जबान से बोलने लगे हैं.

उत्तर प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी में भी 2 गुट बन गए हैं. विरोध करने वाले गुट के लोग ‘औफ द रिकौर्ड’ बात कर के अपनी भड़ास निकालते हैं. यही भड़ास हवा के रूप में आगे बढ़ती है और सरकार की छवि को खराब करती है.

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सरकार पार्टी के नेताओं से ज्यादा ब्यूरोक्रेसी पर निर्भर है. ब्यूरोक्रेसी के फरमान जनता पर भारी पड़ते हैं. कोरोना काल में यह देखने को मिला. अफसर योगी को यह सम?ाते रहे कि गांवगांव आप की छवि निखर रही है. पंचायत चुनावों में बड़ी सफलता के बाद विधानसभा चुनाव में आप को कोई चुनौती देने वाला नहीं होगा. कोरोना काल में चुनाव कराने का फैसला योगी सरकार पर भारी पड़ा. जब अस्पताल नहीं मिल रहे, औक्सीजन नहीं मिल रही, श्मशान घाट में जगह नहीं मिल रही, तो लोगों ने सरकार के खिलाफ वोट देने का फैसला किया.

चुनाव नतीजे आने के बाद भी परिणामों को भाजपा के पक्ष में दिखाने का काम अफसरों ने करना शुरू कर दिया है. मुख्य मुकाबला अभी बाकी है. जिला पंचायत सदस्य तो जीत गए, पर विपक्ष के लिए जिला पंचायत अध्यक्ष पद जीतना आसान नहीं होगा. अफसर अब यह कोशिश करेंगे कि जिला पंचायत सदस्यों को भाजपा के पक्ष में किया जाए. समाजवादी पार्टी के विधायक अंबरीष सिंह पुष्कर कहते हैं, ‘बहुत से जिलों में प्रशासन ने जीत गए उम्मीदवारों को जीत के प्रमाणपत्र देने में गड़बड़ी करने की कोशिश की थी. मोहनलालगंज में जब हम ने धरना देने का काम किया, तब प्रशासन ने प्रमाणपत्र दिए. ऐसे में इस बात की संभावना प्रबल है कि जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में खरीदफरोख्त हो.’

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