शिव सेना का बड़ा कदम

हिंदुत्व को देश पर एक बार फिर से थोप कर पंडेपुजारियों को राजपाट देने की जो छिपी नीति अपनाई गई थी उस में शिव सेना एक बहुत बड़ी पैदल सेना थी जिस के कट जाने का भाजपा को बहुत नुकसान होगा और हो सकता है कि महाराष्ट्र को बहुत फायदा हो.

कोई भी देश या समाज तब बनता है जब कामगार हाथों को फैसले करने का भी मौका मिले. पश्चिमी यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान, कोरिया की सफलता का राज यही रहा है कि वहां गैराज से काम शुरू करने वाले एकड़ों में फैले कारखानों के मालिक बने थे. महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई देश के पैसे वालों की राजधानी है पर जो बदहाली वहां के कामगारों की है कि वे आज भी चालों, धारावी जैसी झोपड़पट्टियों में, पटरियों पर रहने को मजबूर हैं.

महाराष्ट्र और मुंबई का सारा पैसा कैसे कुछ हाथों में सिमट जाता है, यह चालाकी समझना आसान नहीं, पर इतना कहा जा सकता है कि शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन इस के लिए वर्षों से जिम्मेदार है, चाहे सरकार भाजपा की हो या कांग्रेस की. यह बात पार्टी के बिल्ले की नहीं पार्टियों की सोच की है.

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शिव सेना से उम्मीद की जाती है कि वह अब ऐसे फैसले लेगी जो आम कामगारों की मेहनत को झपटने वाले नहीं होंगे. जमीन से निकल कर आए, छोटी सी चाल में जिन्होंने जिंदगी काटी, सीधेसादे लोगों के बीच जो रहे, वे समझ सकते हैं कि उन पर कैसे ऊंचे लोग शासन करते हैं और कैसे चाहेअनचाहे वे उन्हीं के प्यादे बने रहने को मजबूर हो जाते हैं.

पिछड़ों की सरकारें उत्तर प्रदेश व बिहार में भी बनी थीं, पर उस का फायदा नहीं मिला, क्योंकि तब पिछड़ों की कम पढ़ीलिखी पीढ़ी को सत्ता मिली थी. अब उद्धव ठाकरे, उन के बेटे आदित्य ठाकरे, शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले जैसों को उन बाहरी सहायकों की जरूरत नहीं जो जनमानस की तकलीफों को पिछले जन्मों के कर्मों का फल कह कर अनदेखा कर देते हैं. वे रगरग पहचानते होंगे, कम से कम उम्मीद तो यही है.

मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल आदि में भगवाई लहर मंदी हो गई है और महाराष्ट्र का झटका अब फिर मेहनती, गरीबों को पहला मुद्दा बनाएगा. ऐसा नहीं हुआ तो समझ लें कि देश को कभी भूख और बदहाली से आजादी नहीं मिलेगी.

शौचालय का सच

भारत सरकार ने बड़े जोरशोर से शौचालयों को ले कर मुहिम शुरू की थी, पर 5 साल हुए भी नहीं कि शौचालयों की जगह मंदिरों ने ले ली है. अब सरकार को मंदिरों की पड़ी है. कहीं राम मंदिर बन रहा है, कहीं सबरीमाला की इज्जत बचाई जा रही है. कहीं चारधाम को दोबारा बनाया जा रहा है, कहीं करतारपुर कौरिडोर का उद्घाटन हो रहा है.

भाजपा सरकार के आने से पहले 19 नवंबर को 2013 से संयुक्त राष्ट्र संघ ‘वर्ल्ड टौयलेट डे’ मनाने लगा है, जब नरेंद्र मोदी का अतापता भी न था. दुनियाभर में खुले में पाखाना फिरा जाता है, पर भारत इस में उसी तरह सब से आगे है जैसे मंदिरों, मठों में सब से आगे है. भारत की 60-70 करोड़ से ज्यादा आबादी खुले में पाखाना फिरने जाती है और कहने को लाखों शौचालय बन गए हैं, पर पानी की कमी की वजह से अब तो वे जानवरों को बांधने या भूसा भरने के काम में आ रहे हैं.

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शहरों के आसपास कहींकहीं चमकदार शौचालय बन गए हैं, पर अभी पिछले सप्ताह से दिल्ली के ही अमीर बाजारों कनाट प्लेस और अजमल खां रोड पर दीवारों पर पेशाब के ताजे निशान दिख रहे थे. ये दोनों इलाके भाजपा समर्थकों से भरे हैं. हर दुकानदार ने अपनी दुकान में एक छोटा मंदिर बना रखा है, हर सुबह बाकायदा एक पंडा पूजा करने आता है. हर थोड़े दिन के बाद लंगर भी लगता है. पर वर्ल्ड टौयलेट और्गेनाइजेशन बनी थी सिंगापुर में जहां के एक व्यापारी ने ही 2001 में इसे शुरू किया था. सिंगापुर दुनिया का सब से ज्यादा साफ शहर माना जाता है. वहां हर जने की आय दिल्ली के व्यापारियों की आय से भी 30 गुना ज्यादा है. वहां मंदिर न के बराबर हैं. हिंदू तमिलों के मंदिर जरूर दिखते हैं और उन के सामने बिखरी चप्पलें भी और जमीन पर तेल की चिक्कट भी.

सड़क पर पड़ा पाखाना कितना खतरनाक है, इस का अंदाजा इस बात से लगाइए कि 1 ग्राम पाखाने में 10 लाख कीटाणु होते हैं और जहां पाखाना खुले में फिरा जाता है, वहां बच्चे ज्यादा मरते हैं.

भारत सरकार ने खुले में शौच पर जीत पा लेने का ढोल पीट दिया है पर लंदन से निकलने वाली पत्रिका ‘इकौनोमिस्ट’ ने इस दावे को खोखला बताया है. अभी 2 माह पहले ही तो मध्य प्रदेश में 2 बच्चों की पिटाई घर के सामने पाखाना फिरने पर हुई है, वह भी भरी बस्ती में जहां पिछड़ी और दलित जातियों के लोग रहते हैं. मारने वाले का कहना था कि दलितों की हिम्मत कैसे हुई कि उन से ऊंचे पिछड़ों के घरों के सामने फिरने जाए. पिछड़ों की हालत भी ज्यादा बेहतर नहीं हुई है, क्योंकि लाखों बने शौचालयों में पानी ही नहीं है.

यह ढोल जो 2 अक्तूबर को पीटा गया था, यह तो 5,99,000 गांवों के खुद की घोषणा पर टिका था. अब जब शौचालय के मिले पैसे सरपंच ने डकार लिए हों तो वह कैसे कहेगा कि खुले में पाखाना हो रहा है.

जब तक गांवों में घरघर पानी नहीं पहुंचेगा, जब तक सीवर नहीं बनेंगे, खुले में पाखाना होगा ही. दिल्ली की ही 745 बस्तियों में अभी भी सीवर कनैक्शन नहीं है तो 5,99,000 गांवों में से कितनों में सीवर होगा?

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क्या नागरिकता संशोधन कानून को लागू करने से बच सकती हैं गैर भाजपाई सरकारें ?

असम में विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया है. यहां कई इलाकों में कर्फ्यू लगाना पड़ा है. कर्फ्यू के बाद भी प्रदर्शकारी सड़कों पर आए. असम से उठे विरोध प्रदर्शन की आग बंगाल तक पहुंच गई. बंगाल में शनिवार को पांच रेलगाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया. कई जगहों पर आगजनी की गई. दिल्ली में भी जामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने प्रदर्शन किया. प्रदर्शनकारियों और पुलिस को बीच हिंसक झड़पें भी हुईं.

केंद्र सरकार ने इस कानून को रुप तो दे दिया लेकिन एक प्रश्न सबके दिमाग में आ रहा है. वो ये हैं कि क्या गैर भाजपाई सरकारें इस बिल को अपने प्रदेश में लागू करेंगी या नहीं. क्योंकि पं बंगाल की सीएम ममता बनर्जी, मध्य प्रदेश में सीएम कमलनाथ, पंजाब की कैप्टन की सरकार सभी ने इसको लागू करने से मना कर दिया है लेकिन गृह मंत्रालय के अधिकारी ने इसका राज बताया है. उनका दावा है कि राज्य सरकारों को इसे लागू करना पड़ेगा.

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गृह मंत्रालय के एक उच्च अधिकारी बताया कि क्योंकि इसे संविधान की 7वीं अनुसूचि के तहत सूचिबद्ध किया गया है, इसलिए राज्य सरकारों के पास इसे अस्वीकार करने का अधिकार नहीं है.गृह मंत्रालय के अधिकारी ने यह बयान उस समय दिया, जब पश्चिम बंगाल, पंजाब, केरल, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ने इस कानून को असंवैधानिक बताया और अपने राज्यों में इसे लागू नहीं करने की बात कही. गृह मंत्रालय के अधिकारी ने बताया, ‘केंद्रीय कानूनों की सूची में आने वाले किसी भी कानून को लागू करने से राज्य सरकार इनकार नहीं कर सकती हैं.’ उन्होंने बताया कि यूनियन सूची के 7वें शेड्यूल के तहत 97 चीजें आती हैं, जैसे रक्षा, बाहरी मामले, रेलवे, नागरिकता आदि.

संशोधित विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद कानून बन चुका है लेकिन, इस पर देशव्यापी स्तर पर सवाल उठाए जा रहे हैं। कई मुख्यमंत्रियों ने इसे असंवैधानिक बताया है. पंजाब के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अमरिंदर सिंह इस संबंध में अपने रुख को स्पष्ट करने वाले पहले व्यक्तियों में से हैं. उन्होंने गुरुवार को कहा कि उनकी सरकार राज्य में कानून को लागू नहीं होने देगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे मुखर आलोचकों में से एक पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनर्जी ने यह स्पष्ट किया है कि वह अधिनियम को अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगी. उन्होंने इससे पहले कहा था कि एनआरसी को पश्चिम बंगाल में अनुमति नहीं दी जाएगी.

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चुनावी रणनीतिकार व जद (यू) उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने शुक्रवार को लगातार तीसरे दिन ट्वीट कर नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की. उन्होंने अपनी पार्टी के रुख के खिलाफ जाते हुए ट्वीट किया, “बहुमत से संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक पास हो गया. न्यायपालिका के अलावा अब 16 गैर भाजपा मुख्यमंत्रियों पर भारत की आत्मा को बचाने की जिम्मेदारी है, क्योंकि ये ऐसे राज्य हैं, जहां इसे लागू करना है.”

उन्होंने आगे लिखा, “तीन मुख्यमंत्रियों (पंजाब, केरल और पश्चिम बंगाल) ने सीएबी और एनआरसी को नकार दिया है और अब दूसरे राज्यों को अपना रुख स्पष्ट करने का समय आ गया है.”

केंद्र के खजाने की बरबादी

यह तो ठीक है कि 1911 से बनने शुरू हुए दिल्ली के ये भवन जो 1935 तक बने थे, अब पुराने पड़ गए और काम के नहीं रह गए हैं पर इस तरह की धरोहर वाली इमारतों को तो कई पीढि़यों तक रखा जाता है. जिस तरह लालकिला 400 वर्षों बाद आज भी अपना वजूद रखता है वैसे ही संसद भवन और उस के आसपास के धौलपुर स्टोन के विशाल भवन एक युग के परिचायक हैं.

नया युवा नए की उम्मीद करता है पर वह आनंद पुराने में ही लेता है. आज देशभर में सैकड़ों साल पुराने किलों, महलों में होटल खुल रहे हैं. दुनियाभर में पुरानी गुफाओं को पर्यटन स्थलों में तबदील किए जाने के साथ उन्हें रहने लायक बनाया जा रहा है.

संसद भवन चाहे छोटा हो, थोड़ा तकलीफ वाला हो, लेकिन उसे बदला जाना ठीक नहीं है. उस के बरामदों में बरामदे बना कर उन्हें एयरकंडीशंड किया जा सकता है. गुंबदों में हेरफेर कर के उन्हें आधुनिक बनाया जा सकता है. लेकिन अगर भाजपा का इरादा इसे पूरी तरह बदलना है, तो यह बेमतलब में सरकारी पैसा बरबाद करना है. एक तरफ तो भाजपा मंदिर के लिए लड़मर रही है जिस का न अता है न पता है, गाय के लिए लोगों का गला काट रही है, भारतमाता के मंदिर बनवा रही है, अयोध्या में दीयों को लगा कर विश्व रिकौर्ड बनाने के दावे ठोंक रही है जबकि दूसरी ओर महज 100 साल पुराने संसद क्षेत्र से ऊबना जता रही है.

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शायद उस का इरादा ऐसा भवन बनाना है जिस में मूर्तियों की जगह हो, घंटेघडि़याल दिखें, नयापन नहीं बल्कि पुरातन का ढोल पीटा जाए. जैसे भाजपा मंडली हर पढ़ेलिखे के हाथ में मैला सा लाल धागा बंधवाने में सफल हो गई है और नयों को पुराना बना सकी है, वैसे ही वह ससंद क्षेत्र को नए की जगह पुराना ही बनाएगी और इसीलिए अहमदाबाद की ही फर्म को ठेका दिया गया है जो शायद पुरातनपंथी डिजाइन बना दे. वैसे, यह कंपनी अब तक आधुनिक डिजाइन के साथ विश्वनाथ धाम, वाराणसी  डिजाइन कर चुकी है.

संसद भवन कहीं पार्लियामैंट हाउस की जगह परमानंद हाउस न बन जाए, ऐसी आशंका भी उठती है. हाल के सालों में अहमदाबाद की उक्त फर्म को ऐसे कामोंकी वजह से पुरस्कार मिले हैं.

संसद भवन आज भी पुराना नहीं लगता. भारतीय पत्थर से बना यह एंग्लोमुगल राजपूती स्टाइल अभिनव है और इसे थोड़ाबहुत ठीक करना ज्यादा अच्छा है, बजाय दूसरा बनाने के.

सरकार की ठेकेदारी प्रथा

देशभरमें अधिकांश युवाओं का मुख्य काम सरकारी नौकरियों की तलाश ही रहता है. जब उन्हें मोबाइल पर टिकटौक या फेसबुक से फुरसत होती है तो नौकरी की फिक्र सताती है, पर नौकरी सरकारी ही हो. कुछ नौकरियां, जैसे मैक्डोनल्ड, स्विगी और जमैटो भी चल सकती हैं, क्योंकि उन में एक चमक है, इंग्लिश में बोलने का मौका है. लेकिन ये नौकरियां थोड़ी ही हैं और थकाऊ हैं.

सरकारी नौकरियों में काम कम, वेतन ठीक और रोब की पूरी गुंजाइश होती है लेकिन अब यह सब है कहां, सरकारों ने हर तरह के काम ठेकों पर देने जो शुरू कर दिए हैं. रेलवे का एक विज्ञापन था कि उस की सीएनसी लेथ मशीनों के ऐनुअल मैंटेनैंस के लिए कौंटै्रक्टर चाहिए. यानी कि जो काम नौकरी पर रखे गए कामगारों को करना होता था, वह अब ठेकेदार के जरिए कराया जाएगा.

ठेकेदार अपने निरीक्षण में दिहाड़ी मजदूरों से काम कराएगा. वह उन्हें मेहनताना कम देगा, न दे तो भी चलेगा. ठेकदार सरकारी अधिकारियों को खिलानेपिलाने वाला हो, अपने हाथ गंदे न करे, ऐसा होगा. ईटैंडर से ठेका मिलेगा, तो यही होगा न.

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कर्नाटक में बेंगलुरु का मैट्रो विभाग मैट्रो के नीचे बागबगीचे डैवलप करने के लिए कौंट्रैक्टर रख रहा है. यानी जो माली, सुपरवाइजर पक्की नौकरी पर रखे जाते थे, अब वार्षिक ठेके पर रखे जाएंगे. कौंट्रैक्टर खुद कच्ची नौकरी पर और उस के कारीगर भी. ऐक्सपीरियंस और इनोवेशन की अब कोई गुंजाइश ही नहीं. काम अच्छा हो, करने वालों को सैटिस्फैक्शन हो, इस की भी गुंजाइश नहीं.

किसी भी अखबार को खोल कर देख लें, किसी भी ईटैंडर साइट पर चले जाएं, ऐसे विज्ञापन भरे हैं जिन में कौंट्रैक्टरों की जरूरत है. सरकारी नौकरियों के विज्ञापन नहीं दिखेंगे. सरकारी नौकरियां जिन्हें मिलेंगी वे तो टैंडर पास करेंगे, रिश्वत लेंगे. सरकारी नौकरियां कम हैं पर हैं बहुत वजनदार.

अब अगर आप सरकारी नौकरी में आ गए, तो काम न करने के भी बहाने ही बहाने. जिस कौंटै्रक्टर के लेबर भाग गए उस का दिवाला निकल गया. वह गायब हो गया. वह निकम्मा है. टैंडर कैंसिल हो गया. नया जारी कर रहे हैं. काम न हो, तो चिंता नहीं. मुश्किल यह है कि सरकारी नौकरी मिले, तो कैसे मिले?

लगता है देश में 2 जातियां रह जाएंगी. एक सरकारी नौकरी वालों की और दूसरी कौंट्रैक्टर के लेबर वालों की. सम झ सकते हैं कि कौन ऊंचा होगा, कौन अछूत. ऐसे में देश का हाल बेहाल न हो, कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. जब धर्म के इशारों पर देश चलाया जाएगा, तो ऐसा ही होगा.

डैमोक्रेसी और भारतीय युवा

हौंगकौंग और मास्को में डैमोक्रेसी के लिए हजारों नहीं, लाखों युवा सड़कों पर उतरने लगे हैं. मास्को पर तानाशाह जैसे नेता व्लादिमीर पुतिन का राज है जबकि हौंगकौंग पर कम्युनिस्ट चीन का. वहां डैमोक्रेमी की लड़ाई केवल सत्ता बदलने के लिए नहीं है बल्कि सत्ता को यह जताने के लिए भी है कि आम आदमी के अधिकारों को सरकारें गिरवी नहीं रख सकतीं.

अफसोस है कि भारत में ऐसा डैमोक्रेसी बचाव आंदोलन कहीं नहीं है, न सड़कों पर, न स्कूलोंकालेजों में और न ही सोशल मीडिया में. उलटे, यहां तो युवा हिंसा को बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं. वे सरकार से असहमत लोगों से मारपीट कर उन्हें डराने में लगे हैं. यहां का युवा मुसलिम देशों के युवाओं जैसा दिखता है जिन्होंने पिछले 50 सालों में मिडिल ईस्ट को बरबाद करने में पूरी भूमिका निभाई है.

डैमोक्रेसी आज के युवाओं के लिए जरूरी है क्योंकि उन्हें वह स्पेस चाहिए जो पुराने लोग उन्हें देने को तैयार नहीं. जैसेजैसे इंसानों की उम्र की लौंगेविटी बढ़ रही है, नेता ज्यादा दिनों तक सक्रिय रह रहे हैं. वे अपनी जमीजमाई हैसियत को बिखरने से बचाने के लिए, स्टेटस बनाए रखने का माहौल बना रहे हैं. वे कल को अपने से चिपकाए रखना चाह रहे हैं, वे अपने दौर का गुणगान कर रहे हैं. जो थोड़ीबहुत चमक दिख रही है उस की वजह केवल यह है कि देश के काफी युवाओं को विदेशी खुले माहौल में जीने का अवसर मिल रहा है जहां से वे कुछ नयापन भारत वापस ला रहे हैं. हमारी होमग्रोन पौध तो छोटी और संकरी होती जा रही है. देश पुरातन सोच में ढल रहा है. हौंगकौंग और मास्को की डैमोक्रेसी मूवमैंट भारत को छू भी नहीं रही है.

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नतीजा यह है कि हमारे यहां के युवा तीर्थों में समय बिताते नजर आ रहे हैं. वे पढ़ने की जगह कोचिंग सैंटरों में बिना पढ़ाई किए परीक्षा कैसे पास करने के गुर सीखने में लगे हैं. वे टिकटौक पर वीडियो बना रहे हैं, डैमोक्रेसी की रक्षा नहीं कर रहे.

उन्हें यह नहीं मालूम कि बिना डैमोक्रेसी के उन के पास टिकटौक की आजादी भी नहीं रहेगी, ट्विटर का हक छीन लिया जाएगा, व्हाट्सऐप पर जंजीरे लग जाएंगी. हैरानी है कि देशभर में सोशल मीडिया पोस्टों पर गिरफ्तारियां हो रही हैं और देश का युवा चुप बैठना पसंद कर रहा है. वह सड़कों पर उतर कर अपना स्पेस नहीं मांग रहा, यह अफसोस की बात है. देश का भविष्य अच्छा नहीं है, ऐसा साफ दिख रहा है.

निजता के अधिकार पर हमला

भाजपा सरकार ने नैशनल इंटैलीजैंस ग्रिड तैयार किया है जिस में एक आम नागरिक की हर गतिविधि को एक साथ ला कर देखा जा सकता है. बिग ब्रदर इज वाचिंग वाली बात आज तकनीक के सहारे पूरी हो रही है. आज के कंप्यूटर इतने सक्षम हैं कि करोड़ों फाइलों और लेनदेनों में से एक नागरिक का पूरा ब्यौरा निकालने में कुछ घंटे ही लगेंगे, दिन महीने नहीं. अब एक नागरिक के घर के सामने गुप्तचर बैठाना जरूरी नहीं है. हर नागरिक हर समय फिर भी नजर में रहेगा.

इसे कपोलकल्पित न सम झें, एक व्यक्ति आज मोबाइल पर कितना निर्भर है, यह बताना जरूरी नहीं है. मोबाइलों का वार्तालाप हर समय रिकौर्ड करा जा सकता है क्योंकि जो भी बात हो रही है वह पहले डिजिटली कन्वर्ट हो रही है, फिर सैल टावर से सैटेलाइटों से होती दूसरे के मोबाइल पर पहुंच रही है. इसे प्राप्त करना कठिन नहीं है. सरकार इसलिए डेटा कंपनियों को कह रही है कि डेटा स्टोरेज सैंटर भारत में बनाए ताकि वह जब चाहे उस पर कब्जा कर सके.

नागरिक की बागडोर बैंकों से भी बंधी है. हर बैंक एक मेन सर्वर से जुड़ा है, नागरिक ने जितना जिस से लियादिया वह गुप्त नहीं है. अगर सैलरी, इंट्रस्ट, डिविडैंड मिल रहा है तो वह भी एक जगह जमा हो रहा है. सरकार नागरिक के कई घरों का ब्यौरा भी जमा कर रही है ताकि कोई कहीं रहे वहां से जोड़ा जा सके.

सरकार डौक्यूमैंट्स पर नंबर डलवा रही है. हर तरह का कानूनी कागज एक तरह से जुड़ा होगा. बाजार में नागरिक ने नकद में कुछ खरीदा तो भी उसे लगभग हर दुकानदार को मोबाइल नंबर देना होता है, यानी वह भी दर्ज.

सर्विलैंस कैमरों की रिकौर्डिंग अब बरसों रखी जा सकती है. 7 जुलाई, 2005 में जब लंदन की ट्यूब में आतंकी आत्मघाती हमला हुआ था तो लावारिस लाशें किसमिस की थी, यह स्टेशन पर लगे सैकड़ों कैमरों की सहायता से पता चल गया था. आदमी को कद के अनुसार बांट कर ढूंढ़ना आसान हो सकता है. अगर कोई यह कह कर जाए कि वह मुंबई जा रहा है पर पहुंच जाए जम्मू तो ये कंप्यूटर ढूंढ़ निकालेगा कि वह कहां किस कैमरे की पकड़ में आया. सारे कैमरे धीरेधीरे एकदूसरे से जुड़ रहे हैं.

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यह भयावह तसवीर निजता के अधिकार पर हो रहे हमले के लिए चेतावनी देने के लिए काफी है. देश की सुरक्षा के नाम पर अब शासक अपनी मनमानी कर सकते हैं, किसी के भी गुप्त संबंध को ट्रेस कर के ब्लैकमेल कर सकते हैं. इन कंप्यूटरों को चलाने वालों के गैंग बन सकते हैं जो किसी तीसरे जने को डेटा दे कर पैसा वसूलने की धमकी दे सकते हैं. हैकर, निजी लोग, सरकारी कंप्यूटर में घुस कर नागरिक की जानकारी जमा कर के ब्लैकमेल कर सकते हैं.

शायद इन सब से बचने के लिए लोगों को काले चश्मे पहनने होंगे, सारा काम नकद करना होगा, चेहरे पर नकली दाढ़ीमूंछ लगा कर चलने की आदत डालनी होगी. सरकार के शिकंजे से बचना आसान न होगा. यह कहना गलत है कि केवल अपराधियों को डर होना चाहिए, एक नागरिक का हक है कि वह बहुत से काम कानून की परिधि में रह कर बिना बताए करें. यह मौलिक अधिकार है. यह लोकतंत्र का नहीं जीवन का आधार है. हम सब खुली जेल में नहीं रहना चाहते ना.

 देहधंधे में मोबाइल की भूमिका

देहधंधा आजकल सड़क पर खड़े दलालों के जरिए नहीं बल्कि फेसबुक, ट्विटर आदि से चल रहा है. इन पर डायरैक्ट मैसेज की सुविधा है. कोई भी किसी भी लड़की को मैसेज भेज कर अपना इंटरैस्ट दिखा सकता है. एक बार आप ने किसी लड़की का अकाउंट खोल कर देखा नहीं कि ये सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स अपनेआप आप को ढूंढ़ कर बताने लगेंगे कि इस तरह के और अकाउंट कौनकौन से हैं जिन्हें फौलो किया जा सकता है.

दिखने में यह बड़ा सेफ लगता है पर अब चालाकों ने इसे लूट का जरिया बना लिया है. इस को इस्तेमाल कर के हनीट्रैप करना आसान हो गया है. डायरैक्ट मैसेज दिया तो हो सकता है कि कोई सुरीली, मदमाती, खनकती आवाज में फोन कर दे और फिर वह अपने शहर की किसी बताई जगह पर मिलने का इनविटेशन दे दे. सैक्स के भूखे हिंदुस्तानी बड़ी जल्दी फंस जाते हैं चाहे वे तिलकधारी और हाथ पर 4 रंगों के धागे बांधे क्यों न हों.

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अगर मुरगा फंस गया तो हजार तरीके हैं लूटने के. कई बार धमकियों से पैसे वसूले जाते हैं तो कई बार सैक्स सीन के फोटो खींच कर लंबे समय तक ब्लैकमेल किया जाता है. कोचीन में कतर के एक हिंदुस्तानी बिजनैसमैन की सैक्स करने के दौरान की वीडियो बना ली गई और उस के जरिए उस से 50 लाख रुपए मांगे गए. बिजनैसमैन ने हिम्मत दिखा कर पुलिस से शिकायत तो कर दी है पर यह पक्का है कि दलाल प्लेटफौर्म्स पकड़े नहीं जाएंगे. बस, लड़की को पकड़ लो, उस के कुछ साथी हों तो उन्हें पकड़ लो.

सोशल मीडिया की ये साइटें, जो लोकतंत्र की नई आवाज की तरह लगी थीं, अब प्रौस्टिट्यूशन मार्केट और नाइटक्लबों की कतार लगने लगी हैं जहां लड़कियों की भरमार है. अब चूंकि ग्राहक मौजूद हैं, लोग फंसने को तैयार हैं तो फंसाने वालों को भी तैयार किया ही जाएगा. लड़कियों को कभी पैसे का लालच दे कर तो कभी ब्लैकमेल कर के इस धंधे में उतार दिया जाता है. पहले लड़कियों को मारपीट का डर दिखाया जाता था, अब उन की नंगी तसवीरें या उन के रेप करते वीडियो को वायरल करने की धमकी दे कर मजबूर किया जाता है.

लड़कियों के लिए मोबाइल और सारे ऐप्स स्वतंत्रता की चाबी नहीं हैं, ये गुलामी की नई जंजीरें हैं जिन में जरा सी असावधानी या चूक उन्हें बेहद महंगी पड़ सकती है.

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लोकवाणी: भूपेश चले रमन के पथ पर!

छत्तीसगढ़ में 15 वर्षों की डॉक्टर रमन सिंह, भाजपा सरकार के पश्चात कांग्रेस की भूपेश सरकार सत्तासीन हुई है. मगर कुछ फिजूल बेकार के मसले ऐसे हैं जिन पर भूपेश बघेल चाह कर भी  नकार नहीं पा रहे. अगर वह लीक तोड़कर नया काम करते हैं तो पता चलता कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ को नई दिशा दे सकते हैं, उनमें नई ऊर्जा है, कुछ नया करने का ताब है.

इसमें सबसे महत्वपूर्ण है डॉ रमन सिंह का रेडियो और आकाशवाणी से प्रतिमाह छत्तीसगढ़ की आवाम को संदेश देना और बातचीत करना. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी डॉ रमन सिंह की तर्ज पर “लोकवाणी” कार्यक्रम के माध्यम से आवाम से बात करते हैं जो सीधे-सीधे डॉ रमन सिंह की नकल के अलावा कुछ भी नहीं है.

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क्या यह अच्छा नहीं होता कि भूपेश बघेल और तरीका आम जनता से बातचीत करने के लिए  ईजाद करते. क्योंकि लोकवाणी का यह कार्यक्रम पूरी तरह फ्लाप और बेतुका  है. इसकी सच्चाई को जानना हो तो जिस दिन लोकवाणी का कार्यक्रम प्रसारित होता है उसे ग्राउंड पर जाकर, आप अपनी आंखों से देख लें . यह पूरी तरह से एक सरकारी आयोजन बन चुका है शासकीय पैसे पर, जिले के चुनिंदा जगहों पर व्यवस्था करके लोग सुनते हैं. आम आदमी का इससे कोई सरोकार दिखाई नहीं देता.

भूपेश बघेल की ‘लोकवाणी’!

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की मासिक रेडियो वार्ता लोकवाणी की पांचवी कड़ी का प्रसारण  आगामी 8 दिसम्बर, रविवार को होगा. व्यवस्था यह बनाई गई है कि लोकवाणी का प्रसारण छत्तीसगढ़ स्थित आकाशवाणी के सभी केन्द्रों, एफ.एम.चैनलों और राज्य के क्षेत्रीय न्यूज चैनलों से सुबह 10.30 से 10.55 बजे तक हो.

जिस तरह डॉ रमन सिंह के  समय में  सरकारी अमला  जनसंपर्क,  संवाद  प्रचार प्रसार करता था,  वैसा ही  नकल पुन:भदेस रुप, ढंग से  अभी किया जा रहा है.  कहा जा रहा है “-उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने समाज के हर वर्ग की भावनाओं, सवालों, और सुझावों से अवगत होने तथा अपने विचार साझा करने के लिए लोकवाणी रेडियोवार्ता शुरू की है.”

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लोकवाणी में इस बार का विषय ‘आदिवासी विकास: हमारी आस‘ रखा गया है. अच्छा होता लोकवाणी के नाम पर जो पैसा समय बर्बादी हो रही है और हाथ कुछ नहीं आ रहा, उससे अच्छा होता भूपेश बघेल अचानक कहीं पहुंच जाते और आम जन से चुपचाप बात कर निकल जाते!ऐसे मे उन्हें पता चल जाता कि जमीनी हकीकत क्या है. किसान, गरीब, मजदूर और मध्यमवर्ग का आदमी उनसे क्या कहना चाहता है उसे समझ कर  और बेहतरीन तरीके से छत्तीसगढ़ को आगे ले जा सकते हैं.

श्रेष्ठतम सलाहकार कहां है?

भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री शपथ लेने के पश्चात जो पहला काम किया था उनमें उनके संघर्ष के समय के सहयोगी  पत्रकार  विनोद वर्मा, रुचिर गर्ग  जैसे बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों को “मुख्यमंत्री का सलाहकार” नियुक्त करना था. इस सब के बाद ऐसा महसूस हुआ था कि डॉक्टर रमन सरकार की अपेक्षा भूपेश सरकार जमीन से ज्यादा जुड़ी होगी.

आम आदमी के जीवन संघर्ष, त्रासदी को भूपेश बघेल की सरकार संवेदनशीलता के साथ समझेगी और दूर करेंगी. जिस की सबसे पहली पहल किसानों के कर्ज माफी और 25 सौ रुपए क्विंटल धान खरीदी को लेकर की भी गई. मगर इसके पश्चात और इसके परिदृश्य में देखा जाए तो छत्तीसगढ़ के हालात अच्छे नहीं हैं, इस संवाददाता ने छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला के कृषि मंडी के कुछ किसानों से बात की, किसानों ने बताया कि” हालात ऐसे हैं कि जबरा मारता है और रोने भी नहीं देता” जैसे हालात छत्तीसगढ़ में किसानों के साथ  बन चुके हैं.

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जो धान पहले पंद्रह सौ 1600 रुपये कुंटल  में गांव में बिक जाता था अब पुलिसिया प्रशासनिक एक्शन के कारण कोई खरीदने को तैयार नहीं है . यह हालात देखकर लगता है कहां है मुख्यमंत्री महोदय के सलाहकार, कहां है अभी एक डेढ़ वर्ष पूर्व  के संघर्षकारी भूपेश बघेल, टी एस सिंह देव और उनकी टीम.

हाय रे प्याज ये तूने क्या कर डाला

लोगों के थाली से कहीं प्याज गायब है तो कहीं पर खेतों से प्याज चोरी हो रहे हैं. रेस्टोरेंट्स ने ओनियन डोसा बंद कर दिया तो संसद में प्याज की कीमतों पर हंगामा हो रहा है. लोग धरना दे रहें हैं तो कहीं प्याज लौकर में रखे जा रहे हैं. अब भाई ये सब जानकर तो यही कहेंगे की हाय रे प्याज ये तूने क्या कर डाला…

इस वक्त प्याज की कीमतें आसमान छू रहीं हैं गरीबों को प्याज मिलने की बात तो दूर यहां मध्यम वर्ग के परिवार और अमीरों तक के होश उड़े हुए हैं. अगर प्याज की कीमतों की बात करें तो इस वक्त जो रेट है उस हिसाब से प्याज खाना बहुत ही मुश्किल है. पिछले एक हफ्ते में प्याज की जो कीमत बढ़ी है वो भी आपको हैरान कर देगी.

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इस वक्त पूरे देश में प्याज 80 रुपये प्रति किलो से लेकर 120 रुपये प्रति किलो तक बिक रही है. जयपुर में प्याज की कीमत 85 रु प्रति किलो है, वाराणसी में प्याज की कीमत 90 रू प्रति किलो तक है. इतना ही नहीं दिल्ली में पिछले हफ्ते प्याज की थी 70 से 80 रु प्रति किलो लेकिन अब इसकी कीमत बढ़कर हो गई 100 से 120 रु प्रति किलो. हैदराबाद में 120-150 रु, भोपाल में 100-110,भुवनेश्वर में 100-120, पटना में 90-100, चंडीगढ़ में 95- 105, लखनऊ में 90-100, मुंबई में 100- 120 रूपये प्रति किलो तक प्याज बिक रहें हैं.

अब आप ये वाक्या भी जानकर हैरान ही होंगे कि मंदसौर के रिचा गांव में एक किसान के खेत से प्याज चोरी हो गई. उसने ये दावा किया कि मेरे खेत से 30,000 रुपये की प्याज की चोरी हुई है. अब ये तो सोचने वाली ही बात है कि कहां रुपया, पैसे और गहने चोरी होते थे और अब तो प्याज भी चोरी होने लगा.

अब भला आप खुद सोचिए ऐसे में कोई प्याज कहां से खाएगा? इस वक्त हर व्यक्ति को प्याज सोने-चांदी  के समान ही लग रहा होगा. प्याज की बढ़ती कीमतों को लेकर संसद तक में हंगामें हो चुके हैं. गुरुवार को संसद भवन में गांधी प्रतिमा के सामने कांग्रेस के राज्यसभा और लोकसभा दोनों ही सदनों के सदस्यों ने प्रदर्शन किया फिर भी कोई असर नहीं दिख रहा है. हालांकि विपक्षी पार्टियों को वर्तमान सरकार पर तंज कसने का अवसर जरूर मिल रहा है.

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प्याज की बढ़ती कीमत के चक्कर में मंगलवार को भी संसद में जमकर हंगामा हुआ. क्योंकि पिछले दो-ढाई महीने से प्याज की कीमतें कई बार बढ़ी हैं. आम आदमी पार्टी के सदस्यों ने भी कीमत को लेकर हंगामा किया प्रदर्शन किया. आपको ये जानकर थोड़ा आश्चर्य होगा  कि जहां एक ओर इस वक्त पूरे देश में प्याज की बढ़ती कीमतों को लेकर हंगामें हो रहे हैं वहीं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.

उन्होंने तो संसद तक में ये बयान दे दिया कि प्याज की कीमत से उनपर व्यक्तिगत तौर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि न तो वो प्याज खाती है और ना ही उनके परिवार में कोई प्याज खाता है. उन्होंने कहा कि मैं बहुत ज्यादा प्याज – लहसुन नहीं खाती हूं. इसलिए चिंता ना करें मैं ऐसे परिवार से आती हूं जहां प्याज को लेकर कोई खास परवाह नहीं है अब भले ही वो इस बात को लेकर कोई परवाह ना करती हों लेकिन सोशल मीडिया पर उनके इस बयान के कारण काफी तंज कसे जा रहे हैं. अब देखना ये है कि आगे प्याज की कीमतों को लेकर हमारी सरकार क्या करती है ? क्योंकि अभी तक तो कीमत को लेकर भले ही हंगामें हुए हों फिर भी कोई राहत नजर नहीं आ रही है.

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राम मंदिर पर फैसला मंडल पर भारी पड़ा  कमंडल

अयोध्या में राम मंदिर बनने से देश में अंधआस्था का कारोबार बढ़ेगा. इस से देश और समाज का लंबे समय तक भला नहीं होगा, क्योंकि जिन देशों में धार्मिक कट्टरपन हावी रहा है, वहां गरीबी और पिछड़ापन बढ़ा है. भारत की जीडीपी बढ़ोतरी 8 सालों में सब से नीचे के पायदान पर है. बेरोजगारी सब से ज्यादा बढ़ी है.

80 के दशक में अयोध्या में राम मंदिर की राजनीति गरम होनी तेज हो गई थी. उस समय केंद्र में सरकार चला रही कांग्रेस धर्म की राजनीति के दबाव में आ गई थी. तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पहले अयोध्या में राम मंदिर में पूजा के लिए ताला खुलवा दिया था, इस के साथ ही राम मंदिर शिलान्यास के लिए भी कोशिश तेज कर दी थी.

धर्म की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी को अपने लिए यह सही नहीं लग रहा था. ऐसे में भाजपा ने कांग्रेस से अलग हुए राजीव गांधी के करीबी विश्वनाथ प्रताप सिंह को समर्थन दिया और उन्होंने केंद्र में अपनी सरकार बनाई.

प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस बात का अंदाजा हो चुका था कि भाजपा धर्म की राजनीति कर रही है. ऐसे में वह बहुत दिन सरकार की सहयोगी नहीं रह पाएगी. भाजपा की धर्म की राजनीति को मात देने के लिए उन्होंने पिछड़ों और वंचितों को इंसाफ दिलाने के लिए मंडल कमीशन लागू कर दिया.

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मंडल कमीशन के लागू होने से अगड़ों बनाम पिछड़ों की गुटबाजी सामने आ गई. ऐसे में पिछड़े धर्म का साथ छोड़ कर मंडल कमीशन के फैसले के साथ खड़े हो गए. पिछड़ा वर्ग अब मुख्यधारा में आ गया. 40-50 फीसदी पिछड़े वर्ग को भाजपा भी छोड़ने को तैयार नहीं थी. ऐसे में पार्टी ने पिछड़े वर्ग के नेताओं को आगे किया.

30 अक्तूबर, 1990 को जब राम मंदिर बनाने के लिए कारसेवा आंदोलन की नींव पड़ी तो धर्म की राजनीति ने उत्तर प्रदेश में अपना गढ़ बना लिया. हिंदुत्व का उभार तेजी से शुरू हुआ.

धर्म की इस राजनीति को रोकने का काम पिछड़ी जातियों के नेता मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसों के कंधों पर आ गया. कारसेवा को सख्ती के साथ रोकने के चलते मुलायम सिंह यादव को मुसलिमों का मजबूत साथ मिला.

इस के बाद ‘मंडल’ और ‘कमंडल’ की राजनीति के बीच दलितों में भी जागरूकता आई. दलितों की अगुआ बहुजन समाज पार्टी द्वारा की गई दलित और पिछड़ा वर्ग की राजनीति ने सवर्ण राजनीति को प्रदेश से बाहर कर दिया.

साल 1990 से साल 2017 के बीच यानी 27 साल में केवल 2 मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह और राम प्रकाश गुप्ता ही सवर्ण जाति के मुख्यमंत्री बने. इन का कार्यकाल केवल 3 साल का रहा. बाकी के 24 साल उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ी जाति के मुख्यमंत्री राज करते रहे.

‘मंडल’ से उभरे पिछड़े

मंडल कमीशन लागू होने का सब से बड़ा असर हिंदी बोली वाले प्रदेशों दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ. यहां की राजनीति में पिछड़ों का बोलबाला दिखने लगा.

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सवर्ण जातियों की अगुआई करने वाली भाजपा को अपने जातीय समीकरण ‘ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया’ को छोड़ कर दलित, पिछड़ों और अति पिछड़ों को आगे करना पड़ा, तो भाजपा को मध्य प्रदेश में उमा भारती, उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को आगे कर के मंदिर की राजनीति को अहमियत देनी पड़ी.

मंदिर के बहाने इन पिछड़े नेताओं ने धर्म की राजनीति के सहारे भाजपा में खुद को मजबूत किया. आगे चल कर भाजपा में लंबे समय तक पिछड़ों की बादशाहत कायम रही.

साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा में पिछड़े नेताओं को दोबारा किनारे किया गया. अयोध्या के नायक कहे जाने वाले कल्याण सिंह को भाजपा छोड़ कर बाहर तक जाना पड़ा.

लेकिन, भाजपा से अलग देश की राजनीति में पिछड़ों को दरकिनार करना मुमकिन नहीं रह गया था.

उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पिछड़ी जातियों का उभार कुछ इस कदर हुआ कि सवर्ण जातियां पीछे चली गईं. राम के प्रदेश अयोध्या में तो दलित और पिछड़ा गठजोड़ पूरी तरह से हावी हो गया. इस में मुसलिमों के मिल जाने से प्रदेश में ऊंची जातियों की राजनीति खत्म सी हो गई थी.

नतीजतन, भाजपा ने दलितों और पिछड़ों को पार्टी से जोड़ना शुरू किया. यहां दलितों और पिछड़ों की अगुआई करने वाली बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी अपने लोगों को जोड़ने से चूक गई और भाजपा ने मौके का फायदा उठा कर दलितपिछड़ों को धर्म से जोड़ कर मुसलिम वोट बैंक को हाशिए पर डाल दिया.

धर्म के घेरे में दलितपिछड़े

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपने जनाधार को मजबूत करने के लिए साल 2014 से दलितपिछड़ों को पार्टी से जोड़ना शुरू किया. धीरेधीरे दलित और पिछड़े धर्म की ओर झुकने लगे. ऐसे में दलित और पिछड़ी जातियां ‘मंडल’ के मुद्दों को दरकिनार कर ‘कमंडल’ की धर्म की राजनीति पर भरोसा जताना शुरू करने लगीं. यहीं से प्रदेश की राजनीतिक दिशा कमजोर होने लगी.

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धर्म को केंद्र में रख कर राजनीति करने वाली भाजपा को उत्तर प्रदेश में जबरदस्त समर्थन हासिल होने लगा. लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वोट का धार्मिक धु्रवीकरण शुरू किया. प्रदेश में हिंदुत्व का उभार साल 1992 के समय चक्र में वापस घूम गया. ऐसे में लोकसभा चुनाव के बाद साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला.

साल 2017 के विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व के उभार को देखते हुए भाजपा ने विकास के मुद्दे को वापस छोड़ कर धर्म के मुद्दे को हवा देना शुरू किया.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा को यह उम्मीद नहीं थी कि हिंदुत्व का मुद्दा कारगर साबित होगा, इसलिए चुनाव के पहले योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया गया था.

चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को जब मुख्यमंत्री बनाया, तो भी हिंदुत्व के मुद्दे पर इतना भरोसा नहीं था. यही वजह थी कि उपमुख्यमंत्री के रूप में भाजपा ने ब्राह्मण जाति से डाक्टर दिनेश शर्मा और अति पिछड़ी जाति से केशव प्रसाद मौर्य को चुना.

पर, बाद में उत्तर प्रदेश में जिस तरह से योगी आदित्यनाथ को लोगों ने पसंद किया और 2019 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में भाजपा की वापसी हुई, उस के बाद हिंदुत्व को हिट फार्मूला मान लिया गया.

हिंदुत्व की गोलबंदी

हिंदुत्व की कामयाब गोलबंदी करने के बाद भाजपा राम मंदिर की राह पर आगे बढ़ गई. अब भाजपा को यह सम झ आ चुका था कि दलित और पिछड़े जाति नहीं धर्म के मुद्दे पर चल रहे हैं. ऐसे में भाजपा को उत्तर प्रदेश में पकड़ बनाए रखने के लिए राम मंदिर पर बड़ा फैसला लेना जरूरी हो गया था.

भाजपा पर यह आरोप लग रहा था कि वह राम मंदिर की राजनीति कर के खुद तो सत्ता की कुरसी हासिल कर चुकी है और अयोध्या में रामलला तंबू में रह रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद भाजपा की अब रणनीति यह है कि साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले राम मंदिर बनना शुरू हो जाए और साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर बन कर तैयार हो जाए. इस बीच अयोध्या को भव्य धर्मनगरी बनाने के लिए काम चलता रहे.

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मोदी और योगी

नरेंद्र मोदी भी अयोध्या मसले से चर्चा में आए थे. साल 2002 में अयोध्या से शिलादान कार्यक्रम से वापस आते कारसेवकों पर ट्रेन के डब्बे पर हमला हुआ था. इस को गोधरा कांड के नाम से जाना जाता है. गोधरा कांड के बाद ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के नए सियासी नायक के रूप में उभरे.

दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में धार्मिक आस्था को जनजन तक पहुंचाने के लिए हिंदू त्योहारों को बड़े रूप में मनाने का काम किया. कुंभ ही नहीं, बल्कि कांवड़ यात्रा तक को अहमियत दी गई. अयोध्या में भव्य दीपोत्सव और राम की मूर्ति लगाने का संकल्प भी इस का हिस्सा बना.

साल 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद जब नरेंद्र मोदी दोबारा केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हुए तो राम मंदिर आंदोलन को पूरा करने की कोशिश तेज कर दी.

अब अयोध्या के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद केंद्र सरकार के लिए मंदिर बनाना कामयाब हो गया है.

साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव भी राम मंदिर के मुद्दे पर लड़े जाएंगे.

हाशिए पर धर्मनिरपेक्षता

धर्म की राजनीति ने देश में कट्टरपन को बढ़ावा दिया है. धार्मिक कट्टरता के असर में धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्र विरोधी मान लिया गया है.

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धार्मिक निरपेक्षता की बात करने वाले राजनीतिक दल मुखर विरोध करने की हैसियत में नहीं रह गए हैं. 80 के दशक में जो हालत भाजपा की थी, उस में अब बाकी दल शामिल हो गए हैं. कट्टरपन ने देश के माहौल को बिगाड़ा है. धर्म की राजनीति इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है. धर्म की राजनीति देश के भविष्य के लिए खतरनाक है.

पूरी दुनिया के देशों को देखें तो विकास वहीं हुआ है, जहां कट्टरपन कम रहा है. भारत के 2 पड़ोसी देश पाकिस्तान और बंगलादेश की तुलना करें तो कम कट्टर बंगलादेश ने ज्यादा तरक्की की है.

हालांकि सोवियत संघ में कम्यूनिस्ट कट्टरपन तानाशाही में बदल गया था, जिस के बाद वहां बंटवारे के हालात बन गए. जो सोवियत संघ एक समय में अमेरिका के साथ खड़ा हो कर दुनिया की नंबर वन की रेस में शामिल था, पर अपने कट्टरपन के चलते अमेरिका से विकास की दौड़ में कई साल पीछे चला गया.

मिडिल ईस्ट के देशों में इराक, ईरान, सीरिया, लेबनान जैसे देश धार्मिक कट्टरपन में सुलग रहे हैं. माली तौर पर मजबूत होने के बाद भी वे पिछड़े हुए हैं. इस की वजह यही है कि वहां धार्मिक कट्टरपन आगे नहीं बढ़ने दे रहा है.

भारत अपने धार्मिक कट्टरपन में जिस राह पर चल रहा है, वहां से वापस आना आसान नहीं है.

धार्मिक कट्टरपन के बहाने विकास, रोजगार के मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया गया है.

इतना ही नहीं, देश की माली हालत और बेरोजगारी सब से खराब हालत में है. चुनाव जीतने के लिए जहां तरक्की और रोजगार की बात होनी चाहिए, वहां धर्म के आधार पर वोट लेने के लिए धार्मिक मुद्दों का सहारा लिया जाता है. करतारपुर कौरिडोर और राम मंदिर को ही विकास का रोल मौडल माना जा रहा है.

साल 1992 के बाद उत्तर प्रदेश में रोजगार की हालत पर अगर सरकार एक श्वेतपत्र जारी कर दे तो हालात पता चल जाएंगे. उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहरों में शामिल कानपुर, आगरा, फिरोजाबाद, अलीगढ़, मुरादाबाद, वाराणसी और सहारनपुर में चमड़ा, कांच, ताला, पीतल, बनारसी साड़ी और लकड़ी का कारोबार बुरे दौर में है.

ये उद्योगधंधे कभी प्रदेश की पहचान हुआ करते थे. सरकार अब इन को आगे बढ़ाने के बजाय धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दे रही है.

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आज यह बात आम लोगों को सम झाई जा रही है कि राम मंदिर बनने से प्रदेश में पर्यटन बढ़ जाएगा, बेरोजगारी खत्म हो जाएगी. यह बात वैसे ही है, जैसे नोटबंदी के बाद यह कहा जा रहा था कि इस से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा.

पौलिटिकल राउंडअप: भाजपा की बढ़ी मुसीबत

लोक जनशक्ति पार्टी के ताजातरीन राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद चिराग पासवान ने सुर बदलते हुए ऐलान किया कि लोजपा आगामी झारखंड विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ेगी और पार्टी 50 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम की लिस्ट जारी कर देगी.

इस ऐलान से पहले लोजपा ने झारखंड में राजग के सहयोगी के तौर पर 6 सीटें मांगी थीं, लेकिन 10 नवंबर को भाजपा ने अपने 52 उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर दी थी.

झारखंड में राजग के एक और सहयोगी दल आल झारखंड स्टूडैंट यूनियन ने बिना भाजपा से चर्चा किए 12 सीटों पर अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया था.

वैसे, भाजपा को जिद पर न अड़े रहने की कला अच्छी तरह आती है. यदि दक्षिणा कम मिले तो वह कम से भी काम चला लेती है.

हवा में उड़ते विजय रूपाणी

अहमदाबाद. जहां एक तरफ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल महिलाओं को सरकारी बसों में मुफ्त सफर करवा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ गुजरात की भाजपा सरकार ने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और दूसरे वीवीआईपी लोगों की यात्रा के लिए तकरीबन 191 करोड़ रुपए का हवाईजहाज खरीदा है.

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इस हवाईजहाज में एकसाथ 12 लोग सफर कर सकते हैं और इस की फ्लाइंग रेंज तकरीबन 7 हजार किलोमीटर है. इसे कनाडा के क्यूबेक इलाके की बोम्बार्डियर कंपनी ने बनाया है.

191 करोड़ रुपए कोई मामूली रकम नहीं है. अगर इसे जनता की भलाई के लिए खर्च किया जाता तो ज्यादा बेहतर रहता. जब पुजारियों के लिए अरबोंखरबों रुपए के मंदिर बन सकते हैं तो पुजारियों के रखवाले मुख्यमंत्री के लिए यह बड़ी रकम नहीं है, चाहे मेहनतमजदूरी करने वालों की जेब से जाए.

‘आप’ ने किया हमला

नई दिल्ली. विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आते ही आम आदमी पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी को घेरना शुरू कर दिया है. उस ने आरोप लगाया है कि भाजपा दिल्ली की कच्ची कालोनियों में रहने वाले लोगों को धोखा दे रही है. उस का कच्ची कालोनी में रहने वाले लोगों को रजिस्ट्री देने का कोई इरादा नहीं है, जबकि मनोज तिवारी मानते हैं कि ‘आप’ गुमराह कर रही है.

इस मसले पर आप नेताओं संजय सिंह और गोपाल राय ने कहा कि केंद्र सरकार का यह ऐलान पुरानी सरकारों के वादों की तरह ही छलावा साबित होता नजर आ रहा है, जबकि पिछले 4 साल में दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने कच्ची कालोनियों को पक्का करने के लिए केंद्र सरकार पर खूब दबाव बनाया है और केंद्र को प्रस्ताव भी भेजा था, लेकिन कच्ची कालोनियों में रजिस्ट्री करने का भाजपा का कोई इरादा ही नहीं है.

रजिस्ट्री कार्यालय गरीब पिछड़ों को मुफ्त में पक्के मकान की पक्की रजिस्ट्री कभी देगा, यह भूल जाएं. हर मामले में बीसियों अड़चनें लगा कर दोष आधे पढ़ेलिखे बैकवर्डों और दलितों पर मढ़ दिया जाएगा कि कागज पूरे नहीं.

दिया सुप्रीम फैसला

बैंगलुरु. मामला कर्नाटक का है, पर फैसला दिल्ली में हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल सैक्युलर के 17 अयोग्य विधायकों को राहत देते हुए उन्हें 5 दिसंबर को होने वाला उपचुनाव लड़ने की इजाजत दे दी है.

बता दें कि विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार ने विधानसभा में एचडी कुमारस्वामी सरकार के विश्वास प्रस्ताव से पहले ही 17 बागी विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया था. इस के बाद विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने में नाकाम रहने पर कुमारस्वामी की सरकार ने इस्तीफा दे दिया था. नतीजतन, भाजपा के बीएस येदियुरप्पा की अगुआई में राज्य में नई सरकार बनी थी.

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इस नए फैसले से भाजपा की चुनौतियां बढ़ गई हैं. येदियुरप्पा सरकार को सत्ता में बने रहने के लिए 17 में से 15 सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव में हर हाल में 6 सीटें जीतना जरूरी हो गया है, चाहे 15 बागी विधायक उस के पाले में आ गए हैं.

अक्तूबर में हुए उपचुनावों में आमतौर पर दलबदलुओं की हार हुई है. गुजरात तक में अल्पेश ठाकुर हार गया, जो कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में चला गया था.

ओवैसी के खिलाफ शिकायत

भोपाल. हैदराबाद के तेजतर्रार मुसलिम नेता और सांसद असदुद्दीन ओवैसी बाबरी मसजिद और राम मंदिर मसले पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाखुश दिखे. 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के मंदिर के पक्ष में लिए गए फैसले के बाद उन्होंने कहा था कि यह मेरी निजी राय है कि हमें मसजिद के लिए  5 एकड़ की जमीन के औफर को खारिज कर देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम जरूर है, लेकिन इनफिलेबल यानी अचूक नहीं है. मेरा सवाल है कि अगर 6 दिसंबर, 1992 को मसजिद न ढहाई जाती तो क्या सुप्रीम कोर्ट का यही फैसला होता?

असदुद्दीन ओवैसी के ऐसे बयान के खिलाफ वकील पवन कुमार यादव ने जहांगीराबाद पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई और आरोप लगाया कि ओवैसी ने अयोध्या मसले पर उकसाने वाला बयान दिया और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की.

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इस शिकायत से ओवैसी का कुछ बिगड़े या न बिगडे़, पर ये वकीलजी जरूर सुर्खियों में आ गए.

जयराम रमेश की चिंता

गुवाहाटी. कांग्रेस के ‘थिंक टैंक’ और दिग्गज नेता जयराम रमेश बड़ी चिंता में हैं और भाजपा सरकार की कारगुजारियों से इतने नाराज हो गए हैं कि उन्होंने 13 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर आरोप लगाया कि वे ‘प्रवर्तन निदेशालय’, ‘सीबीआई’ और ‘आयकर विभाग’ के ‘त्रिशूल’ का इस्तेमाल अपने विरोधियों पर कर रहे हैं.

जयराम रमेश का मानना है, ‘मोदी और अमित शाह को अपने विरोधियों के खिलाफ नया शस्त्र ‘त्रिशूल’ मिल गया है. उस ‘त्रिशूल की 3 नोकें ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग हैं. वे अपने विरोधियों पर चोट करने के लिए इन्हीं 3 नोकों का इस्तेमाल करते रहते हैं.’

भाजपा ने जयराम रमेश को नेहरू मैमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी से निकाल दिया था. तब उन्होंने केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए कहा था कि यह लाइब्रेरी अब नागपुर मैमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी बन गई है.

मच गया बवाल

कोलकाता. ‘बुलबुल’ नाम के चक्रवाती तूफान की मार खाए पश्चिम बंगाल में सियासी तूफान भी जोर मार रहा है. वहां ममता बनर्जी और अमित शाह के बीच छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है. इसी सियासी बवाल में 13 नवंबर को कोलकाता में पुलिस और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच दोबारा तनातनी हो गई. भीड़ को तितरबितर करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा और भाजपा नेता रिमझिम मित्रा को हिरासत में ले लिया.

इतना ही नहीं, जब केंद्रीय मंत्री और भाजपा सांसद बाबुल सुप्रियो चक्रवात ‘बुलबुल’ से प्रभावित इलाकों का दौरा करने निकले तो तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने उन्हें काले झंडे दिखाए.

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गहरी पैठ

अपने कैरियर की शुरुआत से ठाकरे परिवार ने यदि कोई सही फैसला लिया है, तो अब भारतीय जनता पार्टी के साथ बिना मुख्यमंत्री बने सरकार न बनाने का फैसला लिया है. वरना तो यह पार्टी बेमतलब में कभी दक्षिण भारतीयों, कभी बिहारियों, कभी हिंदू पाखंडवादियों के नाम पर हल्ला मचाती रहती थी. शिव सेना का असर महाराष्ट्र में गहरे तक है. महाराष्ट्र की मूल जनता जो पहले खेती करती थी, छोटी कारीगरी करती थी, बाल ठाकरे की नेतागीरी में ही अपना वजूद बना पाई थी.

अफसोस यह है कि 1966 में जन्म से ही शिव सेना भगवा दास की तरह बरताव कर रही है. उस ने वे काम किए जो भारतीय जनता पार्टी सीधे नहीं कर सकती थी. उस ने तोड़फोड़ की नीति अपनाई जिस से वह भगवा एजेंडे का दमदार चेहरा बनी, पर हमेशा भारतीय जनता पार्टी की हुक्मबरदार थी. महाराष्ट्र के मराठे लोग खेती करने वालों में से आते हैं. उन्होंने ही महाराष्ट्र को ऊंचाइयों पर पहुंचाया था. शिवाजी ने ही औरंगजेब से तब दोदो हाथ किए थे, जब उस की सत्ता को चुनौती देने वाला कोई न था. मुगल राज को खत्म करने में मराठों की सेना का बड़ा हाथ था.

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लेकिन शिवाजी के बाद मराठों की नेतागीरी फिर पुरोहितपेशवाओं के हाथों में आ गई. वे ही मराठा साम्राज्य को चलाने लगे थे. 1966 में बाल ठाकरे ने जिस भी वजह से शिव सेना बनाई हो, उस को इस्तेमाल किया गया. उस के लोग महाराष्ट्र के गांवगांव में हैं. वे ही कारखानों की यूनियनों में  झंडा गाड़े रहे. कम्यूनिस्ट आंदोलन को उन्होंने ही हराया, लेकिन वे हरदम चाह कर या अनजाने में सेवक बने रहे. जब मुख्यमंत्री पद एक बार मिला था तो भी भाजपा की कृपा से.

अब 2019 में उद्धव ठाकरे अड़ गए कि वे अपनी कीमत लेंगे. वे केवल मजदूर नहीं हैं जो भाजपा की पालकी उठाएंगे. वे खुद पालकी में बैठेंगे. शिव सेना का मुख्यमंत्री पर हक जमाना सही है, क्योंकि भाजपा की जीत शिव सेना की वजह से हुई है. 2014 में भी भाजपा और शिव सेना अलगअलग लड़ीं, पर भाजपा को 122 सीटें मिली थीं और शिव सेना को 63. भाजपा ने 2019 में मई में लोकसभा चुनावों के बाद एक फालतू का सा मंत्रालय दिल्ली कैबिनेट में दे कर बता दिया था कि उद्धव ठाकरे या नीतीश कुमार की हैसियत क्या है.

कांग्रेस के लिए इस हालत में शिव सेना से समझौते का फैसला करना आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा हर तरह से शिव सेना को फुसला सकती है. 6-8 महीने में शिव सेना को मजबूर कर सकती है कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या कांग्रेस से किसी बात पर  झगड़ कर फिर भाजपा के खेमे में आ जाए. 11 दिसंबर को कांग्रेस ने फैसले में देर लगाई तो शिव सेना को निराशा हुई, पर जो यूटर्न शिव सेना ले रही है वह आसानी से पचने वाला नहीं है. शिव सेना को यह जताना होगा कि अब तक उस को गुलामों की तरह इस्तेमाल किया गया है. वह महाराष्ट्र की राजा नहीं थी, केवल मुख्य सेवक थी. उम्मीद करें कि यह अक्ल उन और पार्टियों को भी आएगी जो भाजपा के अश्वमेध घोड़े के साथ चल कर अपने को चक्रवर्ती सम झ रही हैं. वे केवल दास हैं, जैसे उन के वोटर हैं.

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देश के सामने असली परेशानी मंदिरमसजिद नहीं है, बेरोजगारी है. यह बात दूसरी है कि आमतौर पर धर्म के नाम पर लोगों को इस कदर बहकाया जा सकता है कि वे रोजीरोटी की फिक्र न कर के अपनी मूर्ति के लिए जान भी दे दें और अपने पीछे बीवीबच्चों को रोताकलपता छोड़ जाएं. जब देश के नेता मंदिर की जीत पर जश्न मना रहे थे, उस समय 15 साल से 35 साल की उम्र के 58 करोड़ लोगों में नौकरी की फिक्र बढ़ रही थी.

इन में से काफी नौकरी के लिए तैयार से हैं और काफी नौकरी पाए हुए हैं. जिन के पास नौकरी है उन्हें पता नहीं कि यह नौकरी कब तक टिकेगी. जिन के पास नहीं है वे अपना पैसा या समय गलियों, खेतों में बेबात गुजारते हैं. इस देश में हर साल 1 से सवा करोड़ नए जवान लड़केलड़कियां पहले नौकरी ढूंढ़ते हैं. क्या इतनी नौकरियां हैं?

देश में बड़े कारखानों की हालत बुरी है. सरकार की सख्ती से बैंकों ने कर्ज देना बंद सा कर दिया है. कभी प्रदूषण के मामले को ले कर, कभी टैक्स के मामले को ले कर कभी सस्ते चीनी सामान के आने से भारतीय बड़े उद्योग न के बराबर चल रहे हैं, लगना तो दूर. अखबार हर रोज उद्योगों, बैंकों, व्यापारों के घाटे के समाचारों से भरे हैं.

छोटे उद्योगों, कारखानों और दुकानों में काफी नौकरियां निकलती हैं. देश के 6 करोड़ छोटे कामों में 14 करोड़ को रोजगार मिला हुआ है, पर इन में से 5 करोड़ लोग तो अपना रोजगार खुद करते हैं. ये खुद काम करने वाले हर तरह की आफत सहते हैं. इन के पास न तो काम करने की सही जगह होती है, न ही कोई नया काम करने का हुनर. इन 6 करोड़ छोटे काम देने वालों में 10 से ज्यादा लोगों को काम देने वाले सिर्फ 8 लाख यूनिट हैं.

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इन 14 करोड़ लोगों को जो काम मिला है वह बड़ी कृपा है पर उन के पास न नया हुनर है, न उन की कोई खास तमन्ना है. वे जेल व कैदियों का सा काम करते हैं. वे इतना न खुद कमा पाते है, न कमा कर मालिक को दे पाते हैं कि कुछ बचत हो, बरकत हो, काम बड़ा हो सके. 50 करोड़ लोग जहां नौकरी पाने के लिए खड़े हों वहां ये 6 करोड़ काम देने वाले क्या कर सकते हैं?

सरकारी नौकरियां देश में कुल 3-4 करोड़ हैं. इस का मतलब हर साल बस 30-40 लाख नए लोगों को काम मिल सकता है. आरक्षण इसी 30-40 लाख के लिए है और उसी को खत्म करने के लिए मंदिर का स्टंट रचा जा रहा है, ताकि लोगों का दिमाग, आंख, कान, मुंह बेरोजगारी से हटाया जा सके और जो नौकरियां हैं, वे भी ऊंचे लोग हड़प जाएं और चूं तक न हो.

दलितों को तो छोडि़ए वे बैकवर्ड जो भगवा गमछा पहने घूम रहे हैं, यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर कोई भी मंदिर उन की नौकरी को पक्का कैसे करेगा. उन्हें लगता है कि भगवान सब की सुनेगा. भगवान सुनता है, पर उन की जो भगवान की झूठी कहानी बनाते हैं, सुनाते हैं, बरगलाते हैं.

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महाराष्ट्र: शरद पवार ने उतारा भाजपा का पानी

कोई नैतिकता, कोई आदर्श, कोई नीति और सिद्धांत नहीं है. जी हां! एक ही दृष्टि मे यह स्पष्ट होता चला गया की महाराष्ट्र में किस तरह मुख्यमंत्री पद और सत्ता के खातिर देश के कर्णधार, आंखो की शरम भी नहीं रखते.

इस संपूर्ण महाखेल मे एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान शीर्षस्थ  मुखिया, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का शरद पवार ने अपनी सधी हुई चालो से देश के सामने पानी उतार दिया है और क्षण-क्षण की खबर रखने वाली मीडिया विशेषता: इलेक्ट्रौनिक मीडिया सब कुछ समझ जानकर के भी सच को बताने से गुरेज करती रही है.

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नि:संदेह सत्तासीन मोदी और शाह को यह शारदीय करंट कभी भुला नहीं जाएगा क्योंकि अब जब अजित पवार उप मुख्यमंत्री की शपथ अधारी गठबंधन मे भी ले रहे हैं तो यह दूध की तरह साफ हो जाता है की शरद पवार की सहमति से ही अजीत पवार ने देवेंद्र फडणवीस के साथ खेल खेला था.

भूल गये बहेलिए को !

बचपन में एक कहानी, हम सभी ने पढ़ी है, किस तरह एक बहेलिया पक्षी को फंसाने के लिए दाना देता है और लालच में आकर पक्षी बहेलीए के फंदे में फंस जाता है महाराष्ट्र की राजनीतिक सरजमी में भी विगत दिनों यही कहानी एक दूसरे रूपक मे, देश ने देखी. पक्षी तो पक्षी है, उसे कहां बुद्धि होती है. मगर, हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां और उनके सर्वे सर्वा भी ‘पक्षी’ की भांति जाल में फंस जाएंगे, तो यह शर्म का विषय है. शरद पवार नि:संदेह राजनीतिक शिखर पुरुष है और यह उन्होंने सिध्द भी कर दिया.

इस मराठा क्षत्रप में सही अर्थों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की युति को धोबी पछाड़ मारी है.

शरद पवार जानते थे की अमित शाह बाज नहीं आएंगे और सत्ता सुंदरी से परिणय के पूर्व या बाद में बड़ा  खेल खेलेंगे, इसलिए उन्होंने सधी हुई चाल से भतीजे  अजीत पवार को 54 विधायकों के लेटर के साथ फडणवीस के पास भेजा. जानकार जानते हैं की जैसे बहेलिए ने पक्षी फंसाने दाने फेंके थे और पक्षी फस गए थे देवेंद्र फडणवीस और सत्ता की मद में आकर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उस जाल में फस गया. देश ने देखा की कैसे शरद पवार की पॉलिटेक्निकल गेम में फंसकर बड़े-बड़े नेताओं का पानी उतर गया.

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इतिहास में हुआ नाम दर्ज

महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में भगत सिंह कोशियारी और देवेंद्र फडणवीस का इस तरह महाराष्ट्र की राजनीति और इतिहास में एक तरह से नाम दर्ज हो गया. यह साफ हो गया कि 5 वर्षों तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे देवेंद्र फडणवीस कितने सत्ता के मुरीद हैं की उन्होंने रातों-रात सरकार बनवाने में थोड़ी भी देर नहीं की और जैसी समझदारी की अपेक्षा थी वह नहीं दिखाई.

देश ने पहली बार देखा एक मुख्यमंत्री कैसे 26/11 के शहीदों की शहादत के कार्यक्रम मे अपने उपमुख्यमंत्री अजीत पवार का इंतजार पलक पावडे बिछा कर कर रहे हैं. सचमुच सत्ता की चाहत इंसान से क्या कुछ नहीं करा सकती. इस तरह महाराष्ट्र के सबसे अल्प समय के मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडणवीस का नाम दर्ज हो गया. मगर जिस तरह उनकी भद पिटी वह देश ने होले होले मुस्कुरा कर देखी.

मराठा क्षत्रप शरद भारी पड़े

महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में शरद पवार की धमक लगभग चार दशकों से है. यही कारण है की देश भर में शरद पवार की ठसक देखते बनती है. उन्हें काफी सम्मान भी मिलता है. क्योंकि शरद पवार कब क्या करेंगे कोई नहीं जानता. राजनीति की चौपड़ पर अपनी सधी हुई चाल के कारण वे एक अलग मुकाम रखते हैं.

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सन 78′ में जनता सरकार के दरम्यान 38 वर्षीय शरद पवार ने राजनीति का सधा हुआ  दांव चला था की मुख्यमंत्री बन गए थे. उन्होंने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, जैसी शख्सियतो के साथ राजनीति की क, ख, ग खेली और सोनिया गांधी के रास्ते के पत्थर बन गए थे समय बदला दक्षिणपंथी विचारधारा को रोकने उन्होंने कांग्रेस के साथ नरम रुख अख्तियार किया है और एक अजेय योद्धा के रूप में विराट व्यक्तित्व के साथ मोदी के सामने खड़े हो गए हैं देखिए आने वाले वक्त में क्या वे विपक्ष के सबसे बड़े नेता पसंदीदा विभूति बन कर प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी बनेंगे या फिर…

हे राम! देखिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की दो नावों की सवारी

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस, भाजपा के पद चिन्हों पर चलने को आतुर दिखाई दे रही है. शायद यही कारण है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कैबिनेट ने भाजपा के राम राम जाप को बड़ी शिद्दत के साथ अंगीकार करने में कोताही नहीं की है. और यह जाहिर करना चाहती है, कि राम तो हमारे हैं और हम राम के हैं. कांग्रेस सरकार को, राम मय दिखाने की सोच के तहत, छत्तीसगढ़  सरकार ने  “राम के वनगमन पथ” को सहेजते हुए इन स्थलों का पर्यटन की दृष्टि से विकसित किए जाने का ऐलान किया है, जो इसी सोच का सबब है.

21 नवंबर 2019  को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अध्यक्षता में हुई मंत्रीपरिषद की बैठक में जो  निर्णय लिया गया, वह एक तरह से भाजपा के बताए  पद चिन्हों  पर चलना है.संपूर्ण कवायद पर निगाह डालें तो पहली ही दृष्टि में यह स्पष्ट हो जाता है कि भूपेश बघेल सरकार की सोच कैसी पंगु है. सबसे बड़ी बात यह है कि भगवान राम करोड़ों वर्ष पूर्व हुए थे. यह मान्यताएं हैं की छत्तीसगढ़ जो कभी  “दंडकारण्य” था, यहां से राम ने गमन किया था. दरअसल, यह सिर्फ और सिर्फ किवंदती एवं मान्यताएं हैं. इसका कोई वैज्ञानिक आधार अभी तक जाहिर नहीं हुआ है. ऐसे में क्या यह  सारी कवायद लकीर का फकीर बनना नहीं होगा. इसके अलावा भी अन्य कई पेंच है जिसका सटीक जवाब कांगेस के पास नहीं होगा, देखिए यह खास  रिपोर्ट-

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 राम के संदर्भ में मान्यताएं बनी आधार

आइए, अब जानते हैं, क्या है  मान्यताएं और “श्रीराम का वनगमन पथ” ….कहा जाता है छत्तीसगढ़ का इतिहास प्राचीन है. त्रेतायुगीन छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम दक्षिण कौसल एवं दण्डकारण्य के रूप में विख्यात था. दण्डकारण्य में भगवान श्रीराम के वनगमन यात्रा की पुष्टि वाल्मीकि रामायण से होती है. शोधकर्ताओं की शोध किताबों से प्राप्त जानकारी अनुसार प्रभु श्रीराम द्वारा अपने वनवास काल के 14 वर्षों में से लगभग 10 वर्ष का समय छत्तीसगढ़ में व्यतीत किया गया था.

छत्तीसगढ़ के लोकगीत में माता सीता जी की पहचान कराने की मौलिकता एवं वनस्पतियों के वर्णन मिलते हैं.  श्रीराम द्वारा उत्तर भारत से दक्षिण में प्रवेश करने के बाद छत्तीसगढ़ में विभिन्न स्थानों पर चैमासा व्यतीत करने के बाद दक्षिण भारत में प्रवेश किया गया था. अतः छत्तीसगढ़ को दक्षिणापथ भी कहा जाता है. मान्यता है छत्तीसगढ़ में कोरिया जिले के भरतपुर तहसील में नदी से होकर जनकपुर नामक स्थान से लगभग 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सीतामढ़ी पर चैका नामक स्थल से  श्रीराम ने छत्तीसगढ़ में प्रवेश किया.

इस राम वनगमन पथ के विषय पर शोध का कार्य राज्य में स्थित संस्थान छत्तीसगढ़ स्मिता प्रतिष्ठान रायपुर द्वारा किया गया है। स्थानीय साहित्यकार मनु लाल यादव द्वारा रामायण किताब का प्रकाशन किया गया तथा इसी विषय पर छत्तीसगढ़ पर्यटन में राम वनगमन पथ के नाम से पुस्तक का प्रकाशन किया गया है. श्रीराम ने छत्तीसगढ़ में 10 वर्षों के वनगमन के दौरान लगभग 75 स्थलों का भ्रमण किया था तथा इनमें 51 स्थान ऐसे हैं जहां  श्रीराम ने भ्रमण के दौरान कुछ समय व्यतीत किया था.

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अब इस सब को लेकर के सरकार द्वारा योजना बनाई जा रही है कि लोग आ कर प्रभु राम का वन गमन क्षेत्र का भ्रमण करेंगे जो सीधे-सीधे उन क्षेत्रों के प्राकृतिक और नैसर्गिक भाव को सरकार द्वारा  विकृत  करना  ही होगा. अच्छा हो, प्राचीन मान्यता के अनुरूप जैसी स्थिति है, वही बनी रहे, वहां किसी भी तरह की छेड़-छाड़, नव निर्माण भारतीय पुरातत्व अधिनियम के तहत भी अवैध माना जाएगा.

 भूपेश बघेल भी जपने लगे राम राम!

शायद कांग्रेस पार्टी ने यह मान लिया है कि जिस तरह भाजपा ने राम राम जप कर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी नैया पार लगाई, अब कांग्रेस को भी ऐसा ही करना होगा. अब विकास  का मुद्दा महत्वहीन हो चुका है,अब तो कुर्सी पाना है, तो बस राम राम जप लो. आगामी समय में छत्तीसगढ़ में नगरीय निकाय चुनाव एवं पंचायत चुनाव हैं. ऐसे में राम गमन के मसले को बेतरह से उठाना यह इंगित करता है कि भूपेश सरकार भी छत्तीसगढ़ की आवाम को भगवान राम के नाम पर आकर्षित करना चाहती है. और अपना वोट बैंक और भी ज्यादा मजबूत बनाने के लिए प्रयत्नशील है.

यह होगी विकास की योजना 

छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा  राम वनगमन पथ को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किए जाने की कार्य योजना का आगाज कर दिया गया है.इसका उद्देश्य राज्य में आने वाले पर्यटकों के साथ-साथ प्रदेश के लोगों को भी इन राम वनगमन मार्ग स्थलों से परिचित कराना है. इन स्थलों का भ्रमण करने के दौरान पर्यटकों को सुविधा हो सके, इस लिहाज से योजना तैयारी की जा रही है.

राज्य सरकार द्वारा बजट उपलब्ध कराया जाएगा. साथ ही भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय की योजनाओं से भी राशि प्राप्त करने का प्रयास किया जाएगा.इन स्थलों का राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार प्रसार भी किया जाएगा. पहुंच मार्ग के साथ पर्यटक सुविधा केंद्र, इंटरप्रिटेशन सेंटर, वैदिक विलेज, पगोड़ा, वेटिंग शेड, पेयजल व शौचालय आदि मूलभूत सुविधाएं विकसित की जाएंगी. बताया गया है विकास कार्य शुभारंभ चंद्रपुरी में स्थित माता कौशल्या के मंदिर से किया जाएगा.

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विकास योजना तैयार करने के पूर्व विशेषज्ञों का एक दल सर्वे करेगा. इस तरह भूपेश बघेल ने एक तरह से इस संपूर्ण परियोजना को हरी झंडी दे दी है मगर यह धरातल पर कब कैसे उतरेगा इस पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है क्योंकि सरकारी योजनाएं कागजों पर और अखबारों की सुर्खियों में तो आकर्षित करती हैं मगर हकीकत में उनकी दशा बहुत दयनीय होती है इसका सच जानना हो तो डॉक्टर रमन के कार्यकाल के पर्यटन विकास के ढोल को देखना समझना काफी होगा करोड़ों, अरबों रुपए कि कैसे बंदरबांट बात हो गई और फाइलें बंद पड़ी हैं .

हास्यास्पद पहल- 11 लाख का पुरस्कार!

राम गमन और भगवान राम के नाम पर आप कुछ भी कर ले, सब माफ है. शायद यही सोच भाजपा के बाद अब कांग्रेस भी अपनाती चली जा रही है.

अब वह प्रगतिशील महात्मा  गांधी और जवाहरलाल  नेहरू की कांग्रेस नहीं है. आज की कांग्रेस शायद संघ की हिंदुत्ववादी सोच के पीछे चलने वाली दकियानूसी कांग्रेस बन चुकी है. यही कारण है कि कांग्रेस के पूर्व विधायक और दूधाधारी मठ के प्रमुख महंत राम सुंदर दास ने इसी तारतम्य में यह घोषणा कर दी है कि माता कौशल्या का जन्मदिन की गणना करके जो बताएगा, उसे वह स्वयं अपनी ओर से 11 लाख रुपए का पुरस्कार,सम्मान राशि देंगे.

यही नहीं, भूपेश बघेल के नेतृत्व में कौशल्या माता के मंदिर का जीर्णोद्धार का काम भी शुरू हो गया है. क्योंकि उसके लिए पैसा सरकार नहीं दे सकती, सुप्रीम कोर्ट की बंदिशें है, इसलिए विधायकों ने दो लाख  बीस हजार रुपए मुख्यमंत्री को अपनी ओर से दिया है की मंदिर बनवाया जाए! अर्थात सीधी सी बात है जो काम भाजपा नहीं कर सकी जो काम हिंदुत्ववादी संगठन नहीं कर सके, अब वह अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता करेंगे और यह संदेश देंगे की, हे जनता!आओ हम भी राम भक्त हैं, हमने भी माता कौशल्या का मंदिर बनाया है, हमें भी वोट दो.

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चाहे कुपोषण में बच्चे मरते रहे, आंगनबाड़ियों में स्कूलों में पहुंचने वाला भोजन, खाद्यान्न की लूट चलती रहे, सफाई ना हो, सड़कें न बने, बिजली पैदा ना हो, मगर वोट हमें  ही देना. अगर भूपेश बघेल सरकार और कांग्रेस पार्टी को यह लगता है कि राम नाम जपने से कांग्रेस पार्टी का और प्रदेश का कल्याण हो जाएगा तो राम वन गमन के प्रपंच से अच्छा होगा क्यों न छत्तीसगढ़ का नाम ही बदल दिया जाए और प्राचीन “दंडकारण्य”  रख दिया जाए. इससे कांग्रेस पार्टी की साख और बढ़ जाएगी कि देखो इनमे  भगवान राम के प्रति कितनी श्रद्धा आ गई है!

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