पुराने नोट

लेखक- सुरेश सौरभ

‘‘यह बुढि़या भी बड़ी अजीब थी. जाने कहांकहां का… जाने क्यों ये चिथड़ेगुदड़े संभाल कर रखे हुए थी,’’ भुनभुनाते हुए सुमन अपनी मर चुकी सास के पुराने बक्से की सफाई कर रही थी.

तभी सुमन की नजर बक्से के एक कोने में मुड़ेतुड़े एक तकिए पर पड़ी जिस के किनारे की उखड़ी सिलाई से 500 का एक पुराना नोट बत्तीसी दिखाता सा झांक रहा था.

सुमन ने बड़ी हैरत से उस तकिए को उठाया, हिलायाडुलाया, फिर किसी अनहोनी के डर से जल्दीजल्दी उस तकिए की सिलाई उधेड़ने लगी.

अब सुमन के सामने 1000-500 के पुराने नोटों का ढेर था. वह फटी आंखों से उसे हैरानी से देखे जा रही थी. थोड़ी देर तक उस का दिमाग शून्य पर अटक गया, फिर उस की चेतना लौटी.

सुमन ने फौरन आवाज लगाई, ‘‘अरे भोलू के पापा, जल्दी आओ… जरा सुनो तो…’’

‘‘क्या आफत आ गई. अभी खाना दे कर गई है और पुकारने लगी है. यह औरत जरा भी सुकून से खाना नहीं खाने देती है,’’ पति झुंझलाया.

‘‘अरे, जल्दी आओ,’’ सुमन ने दोबारा कहा.’

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‘‘पता नहीं, कोई सांपबिच्छू तो नहीं है…’’ बड़बड़ाता हुआ पति वहां पहुंचा. सुमन सिर पर हाथ रखे अपने सामने 1000-500 के पुराने नोटों के ढेर को बड़ी हैरानी से देख रही थी.

पति ने यह नजारा देखा तो उस के भी होश उड़ गए. सारा गुस्सा ठंडा हो गया. फिर अटकतेअटकते वह बोला, ‘‘यह सब क्या है सुमन…’’

‘‘तुम्हारी मां ने बड़े अरमान से हमारी गरीबी दूर करने के लिए ये पैसे जोड़जोड़ कर अपने तकिए में रखे थे. लेकिन 2 साल पहले बेचारी मरते समय यह राज हमें न बता पाई. दिल में यही अरमान रहे होंगे कि बहू, बेटे और उन के बच्चों की इन रुपयों से गरीबी दूर हो जाएगी. पर हाय रे नोटबंदी का दानव मेरी सासू मां के सारे अरमानों को खा गया.’’

यह देख पति भारी मन से बोला, ‘‘अम्मां को मैं ही दवादारू के लिए थोड़ेबहुत पैसे देता रहता था, पर मुझे क्या पता था कि वे हमारी गरीबी दूर के लिए पैसे जोड़ रही थीं.’’

सुमन डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘सचमुच अम्मां का दिल बहुत बड़ा था.’’

पति ने कहा, ‘‘हां, शायद हम लोगों से भी

ज्यादा बड़ा…’’

सुमन बोली, ‘‘आप सही कहते हो.’’

अब वहां वे दोनों फूटफूट कर रोने लगे, जिसे सिर्फ घर की दीवारें ही सुन पा रही थीं.

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नरेंद्र मोदी की सरकार ने सोचा था कि वह नोटबंदी से अमीरों का काला धन निकालेगी, पर यहां तो गोराचिट्टा धन एक रात में काला हो गया था.   द्य

चाहत

लेखक- जसविंदर शर्मा

यह सुन कर मैं पसोपेश में पड़ गया कि अपनी पत्नी को साथ ले कर जाना ठीक रहेगा कि नहीं. रमण हमारे इलाके का ही है. उस का गांव मेरे गांव से 3 किलोमीटर दूर है. इधर कई साल से हमारा मिलनाबोलना तकरीबन बंद ही था. अब मैं प्रमोशन ले कर उस के औफिस में उस के शहर में आ गया तो हमारे संबंध फिर से गहरे होने लगे थे. पिछले 20 सालों में हमारे बीच बात ही कुछ ऐसी हो गई थी कि हम एकदूसरे को अपना मुंह दिखाना नहीं चाहते थे.

रमण और मैं 10वीं क्लास तक एक ही स्कूल में पढ़े थे. यह तो लाजिम ही था कि हमें एक ही कालेज में दाखिला लेना था, क्योंकि 30 मील के दायरे में वहां कोई दूसरा कालेज तो था नहीं. हम दोनों रोजाना बस से शहर जाते थे.

रमण अघोषित रूप से हमारा रिंग लीडर था. वह हम से भी ज्यादा दिलेर, मुंहफट और जल्दी से गले पड़ने वाला लड़का था.

पढ़ाई में वह फिसड्डी था, पर शरीर हट्टाकट्टा था उस का, रंग बेहद गोरा.

बचपन से ही मुझे कहानीकविता लिखने का चसका लग गया था. मजे की बात यह थी कि जिस लड़की सुमन के प्रति मैं आकर्षित हुआ था, रमण भी उसी पर डोरे डालने लगा था. हमारी क्लास में सुमन सब से खूबसूरत लड़की थी.

हम लोग तो सारे पीरियड अटैंड करते, मगर रमण पर तो एक ही धुन सवार रहती कि किसी तरह जल्दी से कालेज की कोई लड़की पट जाए. अपनी क्लास की सुमन पर तो वह बुरी तरह फिदा था. खैर, हर वक्त पीछे पड़े रहने के चलते सुमन का मन किसी तरह पिघल ही गया था.

सुमन रमण के साथ कैफे जाने लगी थी. इस कच्ची उम्र में एक ही ललक होती है कि विपरीत लिंग से किसी तरह दोस्ती हो जाए. आशिकी के क्या माने होते हैं, इस की समझ कहां होती है. रमण में यह दीवानगी हद तक थी.

एक दिन लोकल अखबार में मेरी कहानी छपी. कालेज के इंगलिश के लैक्चरर सेठ सर ने सारी क्लास के सामने मुझे खड़ा कर के मेरी तारीफ की.

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मैं तो सुमन की तरफ अपलक देख रहा था, वहीं सुमन भी मेरी तरफ ही देख रही थी. उस समय उस की आंखों में जो अद्भुत चमक थी, वह मैं कई दिनों तक भुला नहीं पाया था. पता नहीं क्यों उस लड़की पर मेरा दिल अटक गया था, जबकि मुझे पता था कि वह मेरे दोस्त रमण के साथ कैफे जाती है. रमण सब के सामने ये किस्से बढ़ाचढ़ा कर बताता रहता था.

सुमन से अकेले मिलने के कई और मौके भी मिले थे मुझे. कालेज के टूर के दौरान एक थिएटर देखने का मौका मिला था हमें. चांस की बात थी कि सुमन मेरे साथ वाली कुरसी पर थी. हाल में अंधेरा था. मैं ने हिम्मत कर के उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया तो बड़ी देर तक उस का हाथ मेरे हाथ में रहा.

रमण से गहरी दोस्ती होने के बावजूद बरसों तक मैं ने रमण से सुमन के प्रति अपना प्यार छिपाए रखा. डर था कि क्या पता रमण क्या कर बैठे. कहीं कालेज आना न छोड़ दे. सुमन के मामले में वह बहुत संजीदा था.

एक दिन किसी बात पर रमण से मेरी तकरार हो गई. मैं ने कहा, ‘क्या हर वक्त ‘मेरी सुमन’, ‘मेरी सुमन’ की रट लगाता रहता है. यों ही तू इम्तिहान में कम नंबर लाता रहेगा तो वह किसी और के साथ चली जाएगी.’

रमण दहाड़ा, ‘मेरे सिवा वह किसी और के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकती.’

मैं ने अनमना हो कर यों ही कह दिया, ‘कल मैं तेरे सामने सुमन के साथ इसी कैफे में इसी टेबल पर कौफी पीता मिलूंगा.’

हम दोनों में शर्त लग गई.

मैं रातभर सो नहीं पाया. सुमन ने अगर मेरे साथ चलने से मना कर दिया तो रमण के सामने मेरी किरकिरी होगी. मेरा दिल भी टूट जाएगा. मगर मुझे सुमन पर भरोसा था कि वह मेरा दिल रखेगी.

दूसरे दिन सुमन मुझे लाइब्रेरी से बाहर आती हुई अकेली मिल गई. मैं ने हिम्मत कर के उस से कहा कि आज मेरा उसे कौफी पिलाने का मन कर

रहा है.

मेरे उत्साह के आगे वह मना न कर सकी. वह मेरे साथ चल दी. थोड़ी देर बाद रमण भी वहां पहुंच गया. उस का चेहरा उतरा हुआ था. खैर, कुछ दिनों बाद वह बात आईगई हो गई.

सुमन और मेरे बीच कुछ है या हो सकता है, रमण ने इस बारे में कभी कल्पना भी नहीं की थी और उसे कभी इस बात की भनक तक नहीं लगी.

कालेज में छात्र यूनियन के चुनावों के दौरान खूब हुड़दंग हुआ. रमण ने चुनाव जीतने के लिए दिनरात एक कर दिया. वह तो चुनाव रणनीति बनाने में ही बिजी रहा. वह जीत भी गया.

चुनाव प्रचार के दौरान मुझे सुमन के साथ कुछ पल गुजारने का मौका मिला. न वह अपने दिल की बात कह पाई और न

ही मेरे मुंह से ऐसा कुछ निकला. दोनों सोचते रहे कि पहल

कौन करे.

जब कभी कहीं अकेले सुमन के साथ बैठने का मौका मिलता तो हम ज्यादातर खामोश ही

बैठे रहते.

एक दिन तो रमण ने कह ही दिया था कि तुम दोनों गूंगों की अपनी ही

कोई भाषा है. सचमुच सच्चे प्यार में चुप रह कर ही दिल से सारी बातें करनी होती हैं.

मैं एमए की पढ़ाई करने के लिए यूनिवर्सिटी चला गया. रमण ने बीए कर के घर में खेती में ध्यान देना शुरू कर दिया. साथ में नौकरी के लिए तैयारी करता रहता.

मैं महीनेभर बाद गांव आता तो फटाफट रमण से मिलने उस के गांव में चल देता. वह मुझे सुमन की खबरें देता.

रमण को जल्दी ही अस्थायी तौर पर सरकारी नौकरी मिल गई. सुमन भी वहीं थी. सुमन के पिता को हार्टअटैक हुआ था, इसीलिए सुमन को जौब की सख्त जरूरत थी.

काफी अरसा हो गया था. सुमन से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई. मौका पा कर मैं उस के कसबे में चक्कर लगाता, उस कैफे में कई बार जाता, मगर मुझे सुमन का कोई अतापता न मिलता.

मेरी हालत उस बदकिस्मत मुसाफिर की तरह थी, जिस की बस उसे छोड़ कर चली गई थी और बस में उस का सामान भी रह गया था.

संकोच के मारे मैं रमण से सुमन के बारे में ज्यादा पूछताछ नहीं कर सकता था. रमण के आगे मैं गिड़गिड़ाना नहीं चाहता था. मुझे उम्मीद थी कि अगर मेरा प्यार सच्चा हुआ तो सुमन मुझे जरूर मिलेगी.

सुमन को तो उस की जौब में पक्का कर दिया गया. उस में काम के प्रति लगन थी. रमण को 6 महीने बाद निकाल दिया गया.

रमण को जब नौकरी से निकाला गया, तब वह जिंदगी और सुमन के बारे में संजीदा हुआ. उस के इस जुनून से मैं एक बार तो घबरा गया.

अब तक वह सुमन को शर्तिया तौर पर अपना मानता था, मगर अब उसे लगने लगा था कि अगर उसे ढंग की नौकरी नहीं मिली तो सुमन भी उसे नहीं मिलेगी.

इसी दौरान मैं ने सुमन से उस के औफिस जा कर मिलना शुरू कर दिया था. मैं उसे साहित्य के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियां बताता. उसे खास पत्रिकाओं में छपी अपनी रोमांटिक कविताएं दिखाता.

रमण ने सुमन को बहुत ही गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था. रमण मुझे कई कहानियां सुनाता कि आज उस ने सुमन के साथ फलां होटल में लंच किया और आज वे किसी दूसरे शहर घूमने गए. सुमन के साथ अपने अंतरंग पलों का बखान वह मजे ले कर करता.

पहले रमण का सुमन के प्रति लापरवाही वाला रुख मुझे आश्वस्त कर देता था कि सुमन मुझे भी चाहती है, मगर अब रमण सच में सुमन से प्यार करने लगा था. ऐसे में मेरी उलझनें बढ़ने लगी थीं.

फिर एक अनुभाग में मुझे और रमण को नियुक्ति मिली. रमण खुश था कि अब वह सुमन को प्रपोज करेगा तो वह न नहीं कहेगी. मैं चुप रहता.

मैं सोचने लगा कि अब अगर कुछ उलटफेर हो तभी मेरी और सुमन में नजदीकियां बढ़ सकती हैं. हमारा औफिस सभी विभागों के बिल पास करता था. यहां प्रमोशन के चांस बहुत थे. मैं विभागीय परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया.

एक दिन मैं और रमण साथ बैठे थे, तभी अंदर से रमण के लिए बुलावा

आ गया.

5 मिनट बाद रमण मुसकराता हुआ बाहर आया. उस ने मुझे अंदर जाने को कहा. अंदर जिला शिक्षा अधिकारी बैठे थे. वे मुझे अच्छी तरह से जानते थे. मेरे बौस ने ही सारी बात बताई, ‘बेटा, वैसे तो मुझे यह बात सीधे तौर पर तुम से नहीं करनी चाहिए. कौशल साहब को तो आप जानते ही हैं. मैं इन से कह बैठा कि हमारे औफिस में 2 लड़कों ने जौइन किया है. इन की बेटी बहुत सुंदर और होनहार है. ये करोड़पति हैं. बहुत जमीन है इन की शहर के साथ.

‘ये चाहते हैं कि तुम इन की बेटी को देख लो, पसंद कर लो और अपने घर वालों से सलाह कर लो.

‘रमण से भी पूछा था, मगर उस ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया. अब तुम्हें मौका मिल रहा है.’

रमण से मैं हर बार उन्नीस ही पड़ता था. बारबार कुदरत हमारा मुकाबला करवा रही थी. एक तरफ सुमन थी और दूसरी तरफ करोड़ों की जायदाद.

घरजमाई बनने के लिए मैं तैयार नहीं था और सुमन से इतने सालों से किया गया प्रेम…

फिर पता चला कि शिक्षा अधिकारी ने रमण के मांबाप को राजी कर लिया है. रमण ने अपना रास्ता चुन लिया था. सुमन से सारे कसमेवादे तोड़ कर वह अपने अमीर ससुराल चला गया था. मैं प्रमोशन पा कर दिल्ली चला गया था.

सुमन का रमण के प्रति मोह भंग हो गया था. सुमन ने एक दूसरी नौकरी ले ली थी और 2 साल तक मुझे उस का कोई अतापता नहीं मिला.

बहन की शादी के बाद मैं भी अखबारों में अपनी शादी के लिए इश्तिहार देने लगा था. सुमन को मैं ने बहुत ढूंढ़ा. इस के लिए मैं ने करोड़पति भावी ससुर का औफर ठुकरा दिया था. वह सुमन भी अब न जाने कहां गुम हो गई थी. उस ने मुझे हमेशा सस्पैंस में ही रखा. मैं ने कभी उसे साफसाफ नहीं कहा कि मैं क्या चाहता हूं और वह पगली मेरे प्यार की शिद्दत नहीं जान पाई.

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अखबारों के इश्तिहार के जवाब में मुझे एक दिन सुमन की मां द्वारा भेजा हुआ सुमन का फोटो और बायोडाटा मिला. मैं तो निहाल हो गया. मुझे लगा कि मुझे खोई हुई मंजिल मिल गई है. मैं तो सरपट भागा. मेरे घर वाले हैरान थे कि कहां तो मैं लड़कियों में इतने नुक्स निकालता था और अब इस लड़की के पीछे दीवाना हो गया हूं.

शादी के बाद भी लोग पूछते रहते थे कि क्या तुम्हारी शादी लव मैरिज थी या अरैंज्ड तो मैं ठीक से जवाब नहीं दे पाता था. मैं तो मुसकरा कर कहता था कि सुमन से ही पूछ लो.

सुमन से शादी के बाद रमण के बारे में मैं ने कभी उस से कोई बात नहीं की. सुमन ने भी कभी भूले से रमण का नाम नहीं लिया.

वैसे, रमण सुंदर और स्मार्ट था. सुमन कुछ देर के लिए उस के जिस्मानी खिंचाव में बंध गई थी. रमण ने उस के मन को कभी नहीं छुआ.

जब रमण ने सुमन को बताया होगा कि उस के मांबाप उस की सुमन से शादी के लिए राजी नहीं हो रहे हैं तो सुमन ने कैसे रिएक्ट किया होगा.

रमण ने यह तो शायद नहीं बताया होगा कि करोड़पति बाप की एकलौती बेटी से शादी करने के लिए वह सुमन को ठुकरा रहा है. मगर जिस लहजे में रमण ने बात की होगी, सुमन सबकुछ समझ गई होगी. तभी तो वह दूसरी नौकरी के बहाने गायब हो गई.

इन 2 सालों में सुमन ने मेरे और रमण के बारे में कितना सोचाविचारा होगा. रमण से हर लिहाज में मैं पहले रैंक पर रहा, मगर सुंदरता में वह मुझ से आगे था.

आज रमण के बेटे की सगाई का समाचार पा कर मैं सोच में था कि रमण के घर जाएं या नहीं.

सुमन ने सुना तो जाने में कोई खास दिलचस्पी भी नहीं दिखाई. उसे यकीन था कि अब रमण का सामना करने में उसे कोई झेंप या असहजता नहीं होगी. इतने सालों से रमण अपने ससुराल में ही रह रहा था. सासससुर मर चुके थे. इतनी लंबीचौड़ी जमीन शहर के साथ ही जुट गई थी. खुले खेतों के बीच रमण की आलीशान कोठी थी. खुली छत पर पार्टी चल रही थी.

रमण ने सुमन को देख कर भी अनदेखा कर दिया. एक औपचारिक सी नमस्ते हुई. अब मैं रमण का बौस था, रमण के बेटे और होने वाली बहू को पूरे औफिस की तरफ से उपहार मैं ने सुमन के हाथों ही दिलवाया.

पहली बार रमण ने हमें हैरानी से देखा था, जब मैं और सुमन उस के घर के बाहर कार से साथसाथ उतरे थे. वह समझ गया था कि हम मियांबीवी हैं.

दूर तक फैले खेतों को देख कर मेरे मन में आया कि ये सब मेरे हो सकते थे, अगर उस दिन मैं जिला शिक्षा अधिकारी की बात मान लेता.

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उस शाम सारी महफिल में सुमन सब से ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. शायद उसे देख कर रमण के मन में भी आया होगा कि अगर वह दहेज के लालच में न पड़ता तो सुमन उस की हो सकती थी. चलो, जिस की जो चाहत थी, उसे मिल गई थी.

एतराज

लेखक- अशरफ खान

अभी जमाल बैठा प्रिंसिपल साहब से बातें कर ही रहा था कि एक 10-11 साल का बच्चा वहां आया और उसे कहने लगा, ‘‘जमींदार साहब ने आप को बुलाया है.’’

यह सुन कर जमाल ने हैरानी से प्रिंसिपल साहब की तरफ देखा.

‘‘इस गांव के जमींदार बड़े ही मिलनसार इनसान हैं… जब मैं भी यहां नयानया आया था तब मुझे भी उन्होंने बुलाया था. कभीकभार वे खुद भी यहां आते रहते हैं… चले जाइए,’’ प्रिंसिपल साहब ने कहा तो जमाल उठ कर खड़ा हो गया.

जब जमाल जमींदार साहब के यहां पहुंचा तो वे बड़ी गर्मजोशी से मिले. सुर्ख सफेद रंगत, रोबीली आवाज के मालिक, देखने में कोई खानदानी रईस लगते थे. उन्होंने इशारा किया तो जमाल भी बैठ गया.

‘‘मुझे यह जान कर खुशी हुई कि आप उर्दू के टीचर हैं, वरना आजकल तो कहीं उर्दू का टीचर नहीं होता, तो कहीं पढ़ने वाले छात्र नहीं होते…’’

जमींदार साहब काफी देर तक उर्दू से जुड़ी बातें करते रहे, फिर जैसे उन्हें कुछ याद आया, ‘‘अजी… अरे अजीजा… देखो तो कौन आया है…’’ उन्होंने अंदर की तरफ मुंह कर के आवाज दी.

एक अधेड़ उम्र की औरत बाहर आईं. वे शायद उन की बेगम थीं.

‘‘ये नए मास्टर साहब हैं जमाल. हमारे गांव के स्कूल में उर्दू पढ़ाएंगे,’’ यह सुन कर जमींदार साहब की बेगम ने खुशी का इजहार किया, फिर जमाल से पूछा, ‘‘घर में और कौनकौन हैं?’’

जमाल ने कम शब्दों में अपने बारे में बताया.

‘‘अरे, कुछ चायनाश्ता लाओ…’’ जमींदार साहब ने कहा.

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ जमाल बोला.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है… आप के प्रिंसिपल साहब भी कभीकभार यहां आते रहते हैं और हमारी मेहमाननवाजी का हिस्सा बनते हैं.’’

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‘‘जी, उन्होंने ऐसा बताया था,’’ जमाल ने कहा.

कुछ देर बाद वे चायनाश्ता ले कर आ गईं… जमाल ने चाय पी और उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए.’’

‘‘हां, आते रहना.’’

जमाल दरवाजे के पास था. उन लोगों ने आपस में खुसुरफुसुर की और जमींदार साहब ने उसे आवाज दी, ‘‘अरे बेटा, सुनो… आज रात का खाना तुम हमारे साथ यहीं पर खाना.’’

‘‘नहीं… नहीं… आप परेशान न हों. चची को परेशानी होगी,’’ जमाल ने जमींदार साहब की बेगम को चची कह कर मना करना चाहा.

‘‘अरे, इस में परेशान होने की क्या बात है… तुम मेरे बेटे जैसे ही हो.’’

जमाल रात के खाने पर आने का वादा कर के चला गया.

जब जमाल रात को खाने पर दोबारा वहां पहुंचा तो जमींदार साहब और उन की बेगम उस के पास बैठे हुए थे. इधरउधर की बातें कर रहे थे. इतने में अंदर जाने वाले दरवाजे पर दस्तक हुई…

चची ने दरवाजे की तरफ देखा और उठ कर चली गईं… लौटीं तो उन के हाथ में खाने की टे्र थी.

जमाल का खाना खाने में दिल नहीं लग रहा था. रहरह कर उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी… आखिर दरवाजे की उस ओर कौन था? बहरहाल, किसी तरह खाना खाया और थोड़ी देर के बाद वह वहां से चला आया.

उस दिन रविवार था. जमाल बैठा बोर हो रहा था.

‘क्यों न जमींदार साहब की तरफ चला जाया जाए,’ उस ने सोचा.

जमाल तेज कदमों से लौन पार करता हुआ अंदर जा रहा था. उस की आहट पा कर एक लड़की हड़बड़ा कर खड़ी हो गई… वह क्यारियों में पानी दे रही थी. जमाल उसे गौर से देखता रहा. वह सफेद कपड़ों में थी. वह भी उसे देखती रही.

‘‘जमींदार साहब हैं क्या?’’ जमाल ने पूछा तो कोई जवाब दिए बगैर वह अंदर चली गई.

कुछ देर बाद जमींदार साहब अखबार लिए बाहर आए, ‘‘आओ बेटा, आओ…’’

जमाल उन के साथ अंदर दाखिल हो गया. उन के हाथ में संडे मैगजीन का पन्ना था. उन्होंने जमाल के सामने वह अखबार रखते हुए कहा, ‘‘देखो, इस में मेरी बहू की गजल छपी है…’’

जमाल ने गजल को सरसरी नजरों से देखा, फिर नीचे नजर दौड़ाई तो लिखा था, शबीना अदीब.

जमाल को उस लड़की के सफेद लिबास का खयाल आया. उस ने जमींदार साहब की आंखों में देखा. शायद वे उस की नजरों का मतलब समझ गए थे. उन्होंने नजरें झुका लीं और फिर उन्होंने जोकुछ बताया था, वह यह था:

शबीना जमींदार साहब की छोटी बहन हसीना की बेटी थी. शबीना की पैदाइश के वक्त हसीना की मौत हो गई थी और बाप ने दूसरा निकाह कर लिया था. सौतेली मां का शबीना के साथ कैसा बरताव होगा, यह सोच कर जमींदार साहब ने उसे अपने पास रख लिया था.

अदीब जमींदार साहब का बेटा था. शबीना और अदीब ने अपना बचपन एकसाथ गुजारा था, तितलियां पकड़ी थीं और जब दोनों ने जवानी की दहलीज पार की तो उन का रिश्ता पक्का कर दिया गया था.

उन की नईनई शादी हुई थी. अदीब ने आर्मी जौइन की थी. कोई जाने की इजाजत नहीं दे रहा था, लेकिन वह सब को मायूसी के अंधेरे में छोड़ कर चला गया. एक दिन वह वतन की हिफाजत करतेकरते शहीद हो गया.

शबीना पर गमों का पहाड़ टूट पड़ा. आंसू थे कि थमने का नाम नहीं ले रहे थे. फिर उस ने खुद को पत्थर बना लिया और कलम उठा ली, अपना दर्द कागज पर उतारने के लिए या अदीब का नाम जिंदा रखने के लिए.

अब जमाल अकसर जमींदार साहब के यहां जाता था. दिल में होता कि शबीना के दीदार हो जाएं… उस की एक झलक देख ले… लेकिन, वह उसे दोबारा नजर नहीं आई.

एक दिन जमाल उन के यहां बैठा हुआ था. जमींदार साहब किसी काम से शहर गए हुए थे. जमाल और उन की बेगम थे. वह बात का सिरा ढूंढ़ रहा था. आज जमाल उन से अपने दिल की बात कह देना चाहता था.

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‘‘चची, आप मुझे अपना बेटा बना लीजिए,’’ जमाल ने हिम्मत जुटाई.

‘‘यह भी कोई कहने की बात है…

तू तो है ही मेरा बेटा…’’ उन्होंने हंस

कर कहा.

‘‘चची, मुझे अपने अदीब की जगह दे दीजिए. मेरा मतलब है कि शबीना का हाथ मेरे हाथ…’’ जमाल का इतना कहना था कि उन्होंने जमाल की आंखों में देखा.

‘‘अगर आप को कोई एतराज न

हो तो…’’

‘‘मुझे एतराज है,’’ इस से पहले कि वे कोई जवाब देतीं, इस आवाज के

साथ शबीना खड़ी थी, किसी शेरनी की तरह बिफरी हुई… फटीफटी आंखों से देखती हुई…

‘‘आप ने ऐसा कैसे सोच लिया… अदीब की यादें मेरे साथ हैं. वे मेरे जीने का सहारा हैं… मैं यह साथ कैसे छोड़ सकती हूं… मैं शबीना अदीब थी, शबीना अदीब हूं… शबीना अदीब रहूंगी. यही मेरी पहचान है… मैं इसी पहचान के साथ ही जीना चाहती हूं…’’ अपना फैसला सुना कर वह अंदर कमरे में जा चुकी थी.

जमाल ने चची की आंखों में देखा तो उन्होंने नजरें झुका लीं. जमाल उठ कर बाहर चला आया.

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कुछ दिनों के बाद जमाल शहर जाने वाली बस के इंतजार में बसस्टैंड पर खड़ा था. इतने में एक बस वहां आ कर रुकी. उस ने अलविदा कहती नजरों से गांव की तरफ देखा और बस में सवार हो गया. उस ने नौकरी छोड़ दी थी.   द्य

आ बैल मुझे मार

लेखक- रंजीत कुमार मिश्र

बात शायद आप की भी समझ में नहीं आ रही है. दरअसल, हम अपनी ही बात कर रहे हैं. चलिए, आप को पूरा किस्सा सुना देते हैं.

तकरीबन 2 हफ्ते पहले हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल पर शहर से बाहर रहने वाले एक दोस्त से मिल कर वापस लौट रहे थे. शाम हो गई थी और अंधेरा भी घिर आया था. हम जल्दी घर पहुंचने के चक्कर में खूब तेज मोटरसाइकिल चला रहे थे.

अचानक हम ने सड़क के किनारे एक आदमी को पड़े देखा. पहले तो हमें लगा कि कोई नशेड़ी है जो सरेआम नाली में पड़ा है, लेकिन नजदीक पहुंचने पर हमें उस के आसपास खून भी दिखा. लगता था कि किसी ने उस को अपनी गाड़ी से टक्कर लगने के बाद किनारे लगा दिया था.

पहले तो हम ने भी खिसकने की सोची. यह भी दिमाग में आया कि इस लफड़े में पड़ना ठीक नहीं, लेकिन ऐन वक्त पर दिमाग ने खिसकने से रोक दिया.

हम ने उस आदमी को उठा कर अच्छी तरह से किनारे कर दिया. उस के सिर में गहरी चोट लगी थी. खून रुक नहीं रहा था. शायद उस के हाथ की हड्डी भी टूट गई थी.

गनीमत यह थी कि वह आदमी जिंदा था और धीरेधीरे उस की सांसें चल रही थीं. हम ने भी उसे बचाने की ठान ली और आतीजाती गाडि़यों को रुकने के लिए हाथ देने लगे.

बहुत कोशिश की, पर कोई गाड़ी  नहीं रुकी. परेशान हो कर जैसे ही हम ने हाथ देना बंद किया, वैसे ही एक टैक्सी हमारे पास आ कर रुकी. शायद वह भी हमारी तरह अपने खालीपन से परेशान था. जो भी हो, उस ने हमें बताया कि शहर तक जाने के लिए वह दोगुना किराया लेगा और मुरदे के लिए तिगुना.

हम ने बड़े सब्र के साथ बताया कि यह मुरदा नहीं, जिंदा है और हमारी यह पूरी कोशिश होगी कि इसे बचाया जा सके. हम ने उस से यह भी कहा कि वह जख्मी को टैक्सी में ले कर चले, जबकि हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल से पीछेपीछे आएंगे. हमारे लाख समझाने पर भी टैक्सी वाला उसे अकेले टैक्सी में ले जाने को तैयार नहीं हुआ.

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अब हम ने सिर पर कफन बांध

लिया था, सो खटारा मोटरसाइकिल

को अच्छी तरह से तालों से बंद किया और टैक्सी में बैठ गए. थोड़ी देर

में जख्मी को साथ ले कर सरकारी अस्पताल पहुंच गए.

बड़ी मुश्किल से हम वहां डाक्टर ढूंढ़ पाए, पर उस ने भी जख्मी को भरती करने से साफ इनकार कर दिया. हम से कहा गया कि यह पुलिस केस है. पुलिस को बुला कर लाओ, तब देखेंगे.

हम ने फोन मांगा, तो डाक्टर ने फोन खराब होने का बहाना बना दिया. तब हम ने थाने का रास्ता पूछा.

जब हम थाने पहुंचे तो पूरा थाना खाली पड़ा था. महज एक सिपाही

कोने में खड़ा था. हम ने उसे जल्दीजल्दी पूरा हाल बताया और साथ में चलने

को कहा.

वह थोड़ी देर कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘देखिए, थोड़ी देर रुक जाइए. अभी साहब लोग अंदर वाले कमरे में बिजी हैं, क्योंकि एक मुजरिम से पूछताछ हो रही है. वे आ जाएंगे, तभी कोई फैसला लेंगे.’’

हम अभी उसे आदमी की जान की कीमत समझाने की कोशिश कर ही रहे थे कि अंदर वाले कमरे से 3-4 पुलिस वाले पसीना पोंछते हुए बाहर आए. उन के चेहरे से लग रहा था कि वे मुजरिम से अपने तरीके से पूछताछ कर के निकले हैं.

हम वरदी पर सब से ज्यादा सितारे लगाए एक पुलिस वाले के पास फुदक कर पहुंचे और अपनी बात कहने की कोशिश की. ठीक से बात शुरू होने से पहले ही उस ने एक जोर की उबासी ली और हम से कहा कि अपनी रामकहानी जा कर हवलदार को सुनाओ और रिपोर्ट भी लिखवा दो. उस के बाद देखा जाएगा कि क्या किया जा सकता है.

हम भाग कर हवलदार साहब के पास गए और जख्मी का इलाज कराने की अपील की.

हवलदार ने पूछा, ‘‘आप का क्या लगता है वह?’’

‘‘जी, कुछ नहीं.’’

‘‘तो मरे क्यों जा रहे हैं आप? देखते नहीं, हम कितना थक कर आ रहे हैं.

2 मिनट का हमारा आराम भी आप से बरदाश्त नहीं होता क्या?’’

‘‘देखिए हवलदार साहब, आप का यह आराम उस बेचारे की जान भी ले सकता?है. आप समझते क्यों नहीं…’’

‘‘आप क्यों नहीं समझते. मरनाजीना तो लगा रहता है. जिस को जितनी सांसें मिली हैं, उतनी ही ले पाएगा.

‘‘और आप से किस ने कहा था कि मौका ए वारदात से उसे हिलाने के लिए. बड़े समझदार बने फिरते हैं, सारा सुबूत मिटा दिया. गाड़ी का नंबर भी नोट नहीं किया. अब कैसे पता चलेगा कि उसे कौन साइड मार कर गया था. पता लग जाता तो केस बनाते.’’

हम भी तैश में आ गए, ‘‘आप को सुबूतों की पड़ी है, जबकि यहां किसी भले आदमी की जान पर बनी है. आप की ड्यूटी यह है कि पहले उसे बचाएं. सारे कानून आम आदमी की सहूलियत के लिए बनाए गए हैं, न कि उसे तंग करने के लिए.’’

‘‘अच्छा, तो अब आप ही हम पर तोहमत लगा रहे हैं कि हम आप को तंग कर रहे हैं.’’

‘‘जी नहीं, हमारी ऐसी मजाल कहां कि हम आप को…’’

‘‘अच्छाअच्छा चलेंगे. जहां आप ले चलिएगा, वहां भी चलेंगे. बस, जरा यहां साहब का राउंड आने वाला है, उस को थोड़ा निबटा लें. उस के बाद चलते हैं. तब तक आप हमें कहानी सुनाइए कि क्या हुआ था और आप उसे कहां से ले कर आए हैं?’’

‘‘जी, हम उसे हाईवे पर सुलतानपुर चौक के पास से ले कर आए हैं और…’’

‘‘रुकिएरुकिए, क्या कहा आप ने? सुलतानपुर चौक. अरे, तो आप यहां हमारा टाइम क्यों खराब कर रहे हैं? वह इलाका तो सुलतानपुर थाने में आता है. आप को वहीं जाना चाहिए था.’’

‘‘लेकिन, वह यहां के अस्पताल में भरती होने जा रहा है. आप एफआईआर तो लिखिए.’’

‘‘अरे साहब, आप भी न… देखिए तो, कितनी मेहनत से आज कई एफआईआर की किताबें कवर लगा कर तैयार की हैं, राउंड के लिए. आप इसे खराब क्यों करना चाहते हैं?’’ इतना कह कर हवलदार एक सिपाही की ओर मुंह कर के फिर चिल्लाया, ‘‘अबे गोपाल, आज रमुआ नहीं आया था क्या रे? देख तो ठीक से झाड़ू तक नहीं लगी दिखती है. डीसीपी साहब देखेंगे तो क्या सोचेंगे कि हम लोग कितने गंदे रहते हैं.’’

हमें खीज तो बहुत आ रही थी, मगर क्या कर सकते थे? मन मार कर सब्र किए उन की अपनी वरदी के लिए वफादारी को देखते रहे. हम भी कुछ देर तक कोशिश करते रहे शांत रहने की, लेकिन उन के रवैए से हमारा खून खौलने लगा और हम भड़क उठे, ‘‘आप का यह राउंड किसी की जान से ज्यादा जरूरी है क्या?

‘‘अगर राउंड के समय डीसीपी साहब को सैल्यूट मारने वाले 2 आदमी कम हो जाएंगे तो क्या भूकंप आ जाएगा? आप भी कामचोर हैं. जनता के पैसे से तनख्वाह ले कर भी काम करने में लापरवाही करते हैं.’’

दारोगा बाबू को इस पर गुस्सा आ गया और वे चिल्ला कर बोले, ‘‘अबे धनीराम, बंद कर इसे हवालात के अंदर. इतनी देर से चबरचबर किए जा रहा है. डाल दे इस पर सुबूत मिटाने का इलजाम. और अगर गाड़ी ठोंकने वाला न पकड़ा जाए, तो बाद में वह इलजाम भी इसी पर डाल देना. हमें हमारा काम सिखाता है. 2 दिन अंदर रहेगा, तो सारी हेकड़ी हवा हो जाएगी.’’

सचमुच हमारी हेकड़ी इतने में ही हवा होने लगी. कहां तो किसी की जान बचाने के लिए मैडल मिलने की उम्मीद कर रहे थे और कहां हथकड़ी पहनने की नौबत आ गई.

हम ने घिघियाते हुए कहा, ‘‘हेंहेंहें… आप भी साहब, बस यों ही नाराज हो जाते हैं. हम लोग तो सेवक हैं आप के. गुस्सा थूक दीजिए और जब मरजी आए चलिए, न मरजी आए तो न चलिए. रिपोर्ट भी मत लिखिए, मरने दीजिए उस को यों ही… हम चलते हैं, नमस्ते.’’

हम जान बचा कर भागने की फिराक में थे कि अगर अपनी जान बची, तभी तो दूसरों को बचाने की कोशिश कर सकेंगे. इतने में डीसीपी साहब थाने में दाखिल हो गए.

हुआ यह कि डीसीपी साहब ने हम से आने की वजह पूछ ली. खुन्नस तो खाए हुए थे ही, सो हम ने झटपट पूरी कहानी सुना दी.

उन्होंने पूरे थाने को जम कर लताड़ा और दारोगा बाबू को हमारे साथ जाने को कहा. सुलतानपुर थाने को भी खबर कर अस्पताल पहुंचने का निर्देश देने को कहा. अभी उन का जनता और पुलिस के संबंधों पर लैक्चर चल ही रहा था कि हम चुपके से सरक गए.

हम दारोगा बाबू और हवलदारजी के साथ अस्पताल पहुंचे, जहां वह घायल बेचारा एक कोने में बेहोश पड़ा था.

हम चलने लगे तो दारोगा ने कहा, ‘‘कहां चल दिए आप? अभी तो आप ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है. उस का डंक नहीं भुगतेंगे?

‘‘अब यह मामला कानून के लंबे हाथों में पहुंच गया है, तो सरकारी हो गया. आप का काम तो अभी शुरू ही हुआ है.

‘‘आप बैठिए इधर ही, इसे होश में आने के बाद इस का बयान लिया जाएगा. तब तक आप अपना बयान लिखवा कर टाइम पास कीजिए. उस के बाद ही हम मिल कर सोचेंगे कि आप का क्या करना है.

‘‘अगर गाड़ी वाला गलती से पकड़ा गया, तो समझिए कि आप को कोर्ट में हर पेशी पर गवाही के लिए आना होगा. आज की दुनिया में भलाई करना इतना आसान थोड़े ही रह गया है.’’

‘‘मेरे बाप की तोबा हवलदार साहब, अगर मैं ने दोबारा कभी ऐसी गलती की तो… अभी तो मुझे यहां से जाने दीजिए, बालबच्चों वाला आदमी हूं. बाद में जब बुलाइएगा, तभी मैं हाजिर हो जाऊंगा,’’ कहते हुए हमारा दिमाग चकराने लगा.

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इतनी देर में ही डाक्टर साहब बाहर निकल आए और आते ही उन्होंने ऐलान किया कि मरीज को होश आ गया है. कोई एक पुलिस वाला जा कर उस का बयान ले सकता है.

दारोगा बाबू हवलदार साहब को हमारे ऊपर निगाह रखने की हिदायत दे कर अंदर चले गए.

उस आदमी का अंदर बयान चल रहा था और बाहर बैठे हम सोच रहे थे कि वह अपनी जान बचाने के लिए किस तरह से हमारा शुक्रगुजार होगा. कहीं लखपति या करोड़पति हुआ, तो अपने वारेन्यारे हो जाएंगे.

20-25 मिनट बाद दारोगा बाबू वापस आए और हमें घूरते हुए हवलदार से बोले, ‘‘धनीराम, हथकड़ी डाल इसे और घसीटते हुए थाने ले चल. वहां इस के हलक में डंडा डाल कर उगलवाएंगे कि इस जख्मी के 50,000 रुपए इस ने कहां छिपा रखे हैं.

‘‘उस ने बयान दिया है कि किसी ने उसे पीछे से गाड़ी ठोंक दी थी और उस के पैसे भी गायब हैं.

‘‘मैं ने इस का हुलिया बताया, तो उस ने कहा कि ऐसा ही कोई आदमी टक्कर के बाद सड़क पर उसे टटोल रहा था. खुद को बहुत चालाक समझता है.

‘‘यह सोचता है कि इसे बचाने

की इतनी ऐक्टिंग करने से हम पुलिस वाले इस पर शक नहीं करेंगे. बेवकूफ समझता है यह हम को. ले चल इसे, करते हैं खातिरदारी इस की.’’

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देखते ही देखते हमारे हाथों में हथकड़ी पड़ गई और हम अपने सदाचार का मातम मनाते हुए पुलिस वालों के पीछे चल पड़े.

अधूरा समर्पण

लेखक- कुमार गौरव अजीतेंदु

सुष्मिता के मांबाप के चेहरे पर संतोष था कि उन की बेटी का रिश्ता एक अच्छे घर में होने जा रहा है. सुष्मिता और सागर ने एकदूसरे की आंखों में देखा और मुसकराए. इस के बाद वे सुंदर सपनों के दरिया में डूबते चले गए.

सुष्मिता अपने महल्ले के सरकारी इंटर स्कूल में गैस्ट टीचर थी और उस के पिता सिविल इंजीनियर. उन्होंने अपने एक परिचित ठेकेदार के बेटे सागर

से, जो एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पद पर था, सुष्मिता का रिश्ता तय कर दिया.

सुष्मिता और सागर जब मिले तो उन्हें आपसी विचारों में बहुत मेल लगा, सो उन्होंने भी खुशीखुशी रिश्ते के लिए हामी भर दी.

सगाई के साथ ही उन दोनों के रिश्ते को एक सामाजिक बंधन मिल चुका था. कंपनी के काम से सागर को सालभर के लिए विदेश जाना था, इसलिए शादी की तारीख अगले साल तय होनी थी.

सुष्मिता से काम खत्म होते ही लौटने की बात कह कर सागर परदेश को उड़ चला. सुष्मिता ने सागर का रुमाल यह कहते हुए अपने पास रख लिया कि इस में तुम्हारी खुशबू बसी है.

एक शाम सुष्मिता अपनी छत पर टहल रही थी और हमेशा की तरह सागर वीडियो काल पर उस से बातें कर रहा था. जब बातों का सिलसिला ज्यादा हो गया तो सुष्मिता ने सागर को अगले दिन बात करने के लिए कहा. इस के थोड़ी देर बाद सुष्मिता ने काल काट दी.

इस के बाद जब सुष्मिता नीचे जाने के लिए पलटी तो अचानक उस की आंखें अपने पड़ोसी लड़के निशांत से मिल गईं जो अपनी छत पर खड़ा उन दोनों को बातें करता हुआ न जाने कब से देख रहा था.

सुष्मिता निशांत को पड़ोस के रिश्ते से राखी बांध चुकी थी, इसलिए वह थोड़ा सकुचा गई और बोली, ‘‘अरे निशांत भैया, आप कब आए? मैं ने तो ध्यान ही नहीं दिया.’’

‘‘जब से तुम यहां आई हो, मैं भी तब से छत पर ही हूं,’’ निशांत ने अपनी परतदार हंसी के साथ कहा.

सुष्मिता ने आंखें नीची कर लीं और सीढि़यों की ओर चल पड़ी. वह निशांत की नजर को अकसर भांपती थी कि उस में उस के लिए कुछ और ही भाव आते हैं.

एक और शाम जब सुष्मिता अकेली ही छत पर टहल रही थी कि तभी निशांत भी अपनी छत पर आया.

‘‘निशांत भैया, कैसे हैं आप? कम दिखते हैं…’’ निशांत उस के मुंह से ऐसी बात सुन कर थोड़ा चौंका लेकिन फिर उस के मन में भी लड्डू फूटने लगे.

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निशांत तो खुद सुष्मिता से बात

करने को बेचैन रहता था. सो, वह छत की बाउंड्री के पास सुष्मिता के करीब आ गया और बोला, ‘‘मैं तो रोज इस समय यहां आता हूं… तुम ही बिजी

रहती हो.’’

‘‘वह तो है…’’ सुष्मिता मस्ती भरी आवाज में बोली, ‘‘क्या करूं भैया, अब जब से पढ़ाने जाने लगी हूं, समय और भी कम मिलता है.’’

इस के बाद उन दोनों के बीच इधरउधर की बातें होने लगीं.

कुछ दिनों बाद एक रोज सुष्मिता घर में अकेली थी. सारे लोग किसी रिश्तेदार के यहां गए हुए थे. सुष्मिता की चचेरी बहन सुनीति उस के साथ सोने के

लिए आने वाली थी. शाम के गहराते साए सुष्मिता को डरा रहे थे. उस ने कई बार सुनीति को मैसेज कर दिया था कि जल्दी आना.

खाना बनाने की तैयारी कर रही सुष्मिता को छत पर सूख रहे कपड़ों का खयाल आया तो वह भाग कर ऊपर आई. कपड़ों को समेटने के बाद उसे अपनी एक समीज गायब मिली. उस

ने आसपास देखा तो पाया कि वह समीज निशांत की छत पर कोने में पड़ी थी.

सुष्मिता पहले तो हिचकी लेकिन फिर आसपास देख कर निशांत की छत पर कूद गई. वह निशांत के आने से पहले वहां से भाग जाना चाहती थी मगर जैसे ही वह अपनी समीज उठा कर मुड़ी, निशांत उसे मुसकराता खड़ा मिला. सुष्मिता ने एक असहज मुसकराहट उस की ओर फेंकी.

निशांत बोला, ‘‘उड़ कर आ गई होगी यहां यह…’’

‘‘हां भैया, हवा तेज थी आज…’’ सुष्मिता वहां से निकलने के मूड में थी लेकिन निशांत उस के आगे दीवार से लग कर खड़ा हो गया और बतियाने लगा. तब तक शाम पूरी तरह चारों ओर छा चुकी थी.

सुष्मिता ने कहा, ‘‘भैया, अब मैं चलती हूं.’’

‘‘हां, मच्छर काट रहे मुझे भी यहां…’’ निशांत ने अपने पैरों पर थपकी देते हुए कहा, ‘‘अच्छा जरा 2 मिनट नीचे आओ न… मैं ने एक नया सौफ्टवेयर डाउनलोड किया है… बहुत मजेदार चीजें हैं उस में… तुम को भी दिखाता हूं.’’

न चाहते हुए भी सुष्मिता निशांत के साथ सीढि़यों से उतर आई. उस के मन में एक अजीब सा डर समाया हुआ था.

निशांत ने लैपटौप औन किया और उसे दिखाने लगा. सुष्मिता का ध्यान जल्दी से वहां से निकलने पर था. तभी उस ने गौर किया कि निशांत के घर में बहुत शांति है.

‘‘सब लोग कहां गए हैं?’’ सुष्मिता ने निशांत से पूछा.

निशांत ने जवाब दिया, ‘‘यहां भी सारे लोग शहर से गए हुए हैं… कल तक आएंगे.’’

सुष्मिता का दिल धक से रह गया. उस ने कहा, ‘‘भैया, अब मैं निकलती हूं… मुझे खाना भी बनाना है.’’

सुष्मिता का इतना कहना था कि निशांत ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘यह क्या कर रहे हैं भैया?’’ सुष्मिता ने निशांत से पूछा. उसे निशांत से किसी ऐसी हरकत का डर तो बरसों से थी लेकिन आज उसे करते देख कर

वह अपनी आंखों पर भरोसा नहीं कर पा रही थी.

निशांत ने सुष्मिता की कमर में हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींचा और उस के हाथों में थमी समीज उस से ले कर टेबल पर रखते हुए बोला, ‘‘सागर की तसवीरों में रोज नईनई लड़की होती… तो तुम उस को एकदम पैकेट वाला खाना खिलाने के चक्कर में क्यों हो? तुम भी थोड़ी जूठी हो जाओ. किसी को पता नहीं चलेगा.’’

सुष्मिता का दिल जोर से धड़कने लगा. निशांत ने उस के मन में दबे उसी शक के बिंदु को छू दिया था जिस के बारे में वह दिनरात सोचसोच कर चिंतित होती थी.

क्या सही है और क्या गलत, यह सोचतेसोचते बहुत देर हो गई. तूफान कमरे में आ चुका था. बिस्तर पर देह

की जरूरत और मन की घबराहटों के नीचे दबी सुष्मिता एकटक दरवाजे के पास पड़े अपने और निशांत के कपड़ों

को देखती रही. निशांत की गरम, तेज सांसें सुष्मिता की बेचैन सांसों में मिलती

चली गईं.

सबकुछ शांत होने के बाद सुष्मिता ने अपनी आंखों के कोरों के गीलेपन को पोंछा और अपने कपड़ों और खुद को समेट कर वहां से चल पड़ी. निशांत ने भी उस से नजरें मिलाने की कोशिश

नहीं की.

कलैंडर के पन्ने आगे पलटते रहे. सुष्मिता और निशांत के बीच भाईबहन का रिश्ता अब केवल सामाजिक मुखौटा मात्र ही रह गया था. ऊपर अपने कमरे में अकेला सोने वाला निशांत आराम से सुष्मिता को रात में बुला लेता और वह भी खुशीखुशी अपनी छत फांद कर उस के पास चली जाती.

आएदिन सुष्मिता के अंदर जाने वाला इच्छाओं का रस आखिरकार एक रोज अपनी भीतरी कारगुजारियों का संकेत देने के लिए उस के मुंह से उलटी के रूप में बाहर आ कर सब को संदेशा भेज बैठा.

सुष्मिता के मांबाप सन्न रह गए. घर में जोरदार हंगामा हुआ. इस के बाद सुष्मिता की हाइमनोप्लास्टी करा कर सागर के आते ही उसे ब्याह कर विदा कर दिया गया.

सुहागरात में चादर पर सुष्मिता से छिटके लाल छींटों ने सागर को भी पूरी तरह आश्वस्त कर दिया. दोनों की जिंदगी शुरू हो गई. सुष्मिता का भी मन सागर के साथ संतुष्ट था क्योंकि निशांत के पास तो वह खुद को शारीरिक सुख देने और सागर से अनचाहा बदला लेने के लिए जाती थी.

धीरेधीरे 2 साल बीत गए लेकिन सुष्मिता और सागर के घर नया सदस्य नहीं आया. उन्होंने डाक्टर से जांच कराई. सागर में किसी तरह की कोई कमी नहीं निकली. इस के बाद बारी सुष्मिता की रिपोर्ट की थी.

डाक्टर ने दोनों को अपने केबिन में बुलाया और उलाहना सा देते हुए कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता मिस्टर सागर कि जब आप लोगों को बच्चा चाहिए

था तो आखिर आप ने अपना पहला बच्चा गिराया क्यों? बच्चा गिराना कोई खेल नहीं है.

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‘‘अगर ऐसा कराने वाला डाक्टर अनुभवी नहीं हो तो आगे चल कर पेट से होने में दिक्कत आती ही है. आप की पत्नी के साथ भी यही हुआ है.’’

सागर हैरान रह गया और सुष्मिता को तो ऐसा लगा मानो उसे किसी ने अंदर से खाली कर दिया हो. सागर ने टूटी सी नजर उस पर डाली और डाक्टर की बातें सुनता रहा.

वहां से लौट कर आने के बाद सागर चुपचाप पलंग पर बैठ गया. अब तक की जिंदगी में सागर से बेहिसाब प्यार पा कर उस के प्रति श्रद्धा से लबालब हो चुकी सुष्मिता ने उस के पैर पकड़ लिए और रोरो कर सारी बात बताई. सागर के चेहरे पर हारी सी मुसकान खेल उठी. वह उठ कर दूसरे कमरे में चला गया.

उन दोनों को वहीं बैठेबैठे रात हो गई. सुष्मिता जानती थी कि इस सब

की जड़ वही है इसलिए पहल भी उसे ही करनी होगी. थोड़ी देर बाद वह सागर

के पास गई. वह दीवार की ओर मुंह किए बैठा था. अपने आंसुओं को किसी तरह रोक कर सुष्मिता ने उस के कंधे पर हाथ रखा.

सागर ने उस की ओर देखा और भरी आंखें लिए बोल उठा, ‘‘तुम भरोसा करो या न करो लेकिन तुम्हारे लिए मैं ने काजल की कोठरी में भी खुद को बेदाग रखा और तुम केवल शक के बहकावे

में आ कर खुद को कीचड़ में धकेल बैठी.’’

सुष्मिता फूटफूट कर रोए जा रही थी. सागर कहता रहा, ‘‘यह मत समझना कि मैं तुम्हारी देह को अनछुआ न पा कर तुम्हें ताना मार रहा हूं, बल्कि सच तो यह है कि पतिपत्नी का संबंध तन के साथसाथ मन का भी होता है और तन को मन से अलग रखना हर किसी के बस में नहीं होता.

‘‘तुम्हारा मन अगर तन से खुद को बचा पाया है तो मेरा दिल आज भी तुम्हारे लिए दरवाजे खोल कर बैठा है, वरना मुझे तुम्हारा अधूरा समर्पण नहीं चाहिए. फैसला तुम्हारे हाथ में है सुष्मिता. अगर तुम्हें मुझ से कभी भी प्यार मिला हो तो तुम को उसी प्यार का वास्ता, अब दोबारा मुझे किसी भुलावे में मत रखना.’’

सुष्मिता ने सागर के सिर पर हाथ फेरा और वापस अपने कमरे में आ गई. उस की आंखों के सामने सागर के साथ बिताई रातें घूमने लगीं जब वह निशांत को महसूस करते हुए सागर को अपने सीने से लगाती थी. उस के मन ने उसे धिक्कारना शुरू कर दिया.

विचारों के ज्वारभाटा में वह सारी रात ऊपरनीचे होती रही. भोर खिलने लगी थी, इसलिए उस ने अपने आंसू पोंछे और फैसला कर लिया.

सुष्मिता ने अपना सामान बांधा और सागर के पास पहुंची. सागर ने सवालिया निगाहों से उस की ओर देखा.

सुष्मिता ने सागर का माथा चूमा और सागर की जेब से उस का वही रुमाल निकाल लिया जो उस ने शादी से पहले उस के परदेश जाते समय निशानी के रूप में अपने पास रखा था.

सुष्मिता ने वह रूमाल अपने बैग में डाला और बोली, ‘‘मुझे माफ मत करना सागर… मैं तुम्हारी गुनाहगार हूं… मैं तुम्हारे लायक नहीं थी… मैं जा रही हूं… अपनी नई जिंदगी शुरू करो… और हां, इतना भरोसा दिलाती हूं कि अब तुम्हारे इस रुमाल को अपनी बची जिंदगी में दोबारा बदनाम नहीं होने दूंगी.’’

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सागर ने अपनी पलकें तो बंद कर लीं लेकिन उन से आंसू नहीं रुक पाए. सुष्मिता भी अपनी आंखों के बहाव को रोकते हुए तेजी से मुड़ी और दरवाजे की ओर चल पड़ी.                          द्य

चक्कर लड़की का

लेखक- विनोद कुमार

हमारी इस दोस्त मंडली का काम था रोज भांग खाना, सिगरेट और शराब पीना, फिल्में देखना, राह आतीजाती लड़कियों पर फिकरे कसना और उन से छेड़खानी करना.

वैसे मैं शरीफ और पढ़ाईलिखाई से ताल्लुक रखने वाला लड़का था, पर न जाने कैसे इस बुरी संगत में पड़ गया. वैसे अब कुछ याद भी नहीं है.

हम लोग रोज नजदीक के राजेंद्र पार्क में जमा हो कर खूब गप लड़ाते. इधरउधर की डींगें हांकी जातीं.

एक दिन रोजाना की तरह हमारी बैठक चल रही थी. उसी दौरान राकेश बोला, ‘‘यार, आज में ने बहुत खूबसूरत लड़की को फांसा है. वह 16 साल की है. एकदम गोरीचिट्टी, पतली कमर वाली लाजवाब लड़की है. मैं ने उसे क्या फांसा, समझो ऐश्वर्या राय को फांस लिया.’’

‘अच्छा,’ हम तीनों दोस्त चौंक कर उस की बात ऐसे सुनने लगे, जैसे उस ने कोई पते की बात कही हो.

तभी सुनील ने राकेश को चिकोटी काटते हुए कहा, ‘‘और कुछ सुनाओ यार, अपनी चिडि़या के बारे में.’’

इस तरह हमारा दिन कट गया. दूसरे दिन हमारी बैठक हुई तो राकेश फिर अपनी नईनवेली प्रेमिका की तारीफ के पुल बांधने लगा. उस की बातों में हम सब को बड़ा मजा आ रहा था लेकिन जैसे ही राकेश की बात खत्म हुई, सुनील ने एक धमाका किया, ‘‘यारो, हमारी भी सुनो. मेरे पड़ोस की एक लड़की है माया. बड़ी दिलकश है वह. उस के होंठ प्रियंका चोपड़ा की तरह हैं, आंखें ऐश्वर्या राय की तरह और गाल काजोल की तरह.

‘‘आज सवेरेसवेरे उस ने मुझ से करीब एक घंटे बात की. बस, इतनी ही देर में वह मुझ पर मरमिटी है.’’

तभी बड़ी देर से चुप मोहन ने दूसरा धमाका किया, ‘‘तुम लोगों को लड़की फांसने का कोई तजरबा नहीं है. अरे, लड़की फांसने का हुनर तो कोई मुझ से सीखे. आज मैं ने 2-2 लड़कियां फंसाईं. एक सिनेमाहाल के पीछे वाली गली में रहती है और दूसरी शिव मंदिर के पास की कोठी में. दोनों एक से बढ़ कर एक खूबसूरत हैं.’’

मेरे तीनों दोस्त काफी देर से बढ़चढ़ कर अपनीअपनी प्रेमिकाओं का बखान कर रहे थे, पर मैं चुप था. अपनी इस दोस्त मंडली में मुझे बड़ी शर्मिंदगी होती थी क्योंकि मेरी कोई प्रेमिका नहीं थी.

दरअसल बात यह थी कि अगर मेरे दोस्त किसी लड़की पर फिकरे कसते या उस से छेड़खानी करते, तो मैं उन लोगों का साथ दे देता था, पर अकेले में किसी लड़की के साथ ऐसा करना तो दूर, उसे देखने की भी हिम्मत मुझ में नहीं थी.

लिहाजा, मैं ने फैसला कर लिया था कि जब तक किसी लड़की को फंसा कर उसे अपनी प्रेमिका न बना लूंगा, तब तक दोस्तों को अपना मुंह न दिखाऊंगा.

अगले दिन मैं किसी लड़की की तलाश में निकल पड़ा. मैं ने सोचा

कि अच्छे घर की लड़की तो मुझ से फंसने से रही, इसलिए किसी चालू और दिलफेंक किस्म की लड़की की खोज करनी चाहिए.

मैं सारा दिन लड़की की तलाश में भटकता रहा. 2-4 लड़कियां मिली थीं, लेकिन मैं जैसे ही किसी लड़की को देखने की कोशिश करता, तो वह मुझे घूरने लगती. लिहाजा, मैं सकपका जाता और दाल गलती न देख आगे बढ़ जाता.

धीरेधीरे शाम हो गई. तभी एक लड़की देख कर मेरी बांछें खिल गईं. वह चुस्त जींसटौप पहने हुए थी. वह अकेली कहीं जा रही थी. मैं ने सोचा कि जरूर वह दिलफेंक किस्म की होगी. लिहाजा, मैं ने उसे फंसाने की कोशिश शुरू कर दी.

मैं थोड़ा तेज कदम चल कर उस की बराबरी में आ गया और मौका देख कर हौले से उस से टकरा गया. पर वह गुर्रा कर बोली, ‘‘ऐ मिस्टर, तमीज से चलो, वरना मेरी जूती देखते हो न. 5 जूती लगते ही अक्ल ठिकाने आ जाएगी.’’

यह सुनना था कि मैं सिर पर पैर रख कर भागा और सीधा घर आ कर ही रुका. आज मैं अपने दोस्तों के पास नहीं गया. मैं ने सोचा कि अगले दिन जब कोई लड़की पट जाएगी, तभी जाऊंगा.

अगले दिन मैं ने नए सिरे से कोशिश शुरू की. तय किया कि जो लड़की सब से पहले नजर आएगी, उसे तब तक लगातार देखते रहना है, जब तक कि वह दिखती रहे, चाहे इस पर वह खफा हो या खुश. अगर दूसरी तरफ से रजामंदी का संकेत मिलेगा, तो प्यार की पेंगें बढ़ाऊंगा.

मैं कुछ ही दूर गया था कि एक दोमंजिला मकान की बालकनी में एक खूबसूरत सी लड़की को बालों में कंघी करते देखा. मैं वहीं रुक कर उसे लगातार देखने लगा. मेरी इस अदा पर वह भी मुसकराई.

मैं अपनी हथेलियों से चुंबन उछालने लगा. अभी 2-4 चुंबन ही उछाले थे कि लगा जैसे किसी ने मेरी गरदन जकड़ ली हो. मेरी चीख निकल गई. तभी उस ने मुझे जोरदार लात लगाई. मैं औंधे मुंह गिर पड़ा.

मैं कराहते हुए पलटा, तो भयानक मूंछों वाला एक गंजा गुर्रा कर कहने लगा, ‘‘आवारा कहीं का… मेरी बेटी

पर लाइन मारता है. मैं तेरी खाल

खींच लूंगा.’’

मैं किसी तरह लंगड़ाते हुए वहां से भागा. भागतेभागते मैं साइकिल की एक दुकान के पास पहुंचा. वहां एक लड़की अपनी साइकिल में हवा भरा रही थी. वह लड़की ‘छम्मक छल्लो’ की तरह हसीन मालूम पड़ रही थी.

मैं उस के पास पहुंचा और मुसकराते हुए धीरे से कहा, ‘‘हाय मेरी जान, तुम्हारी काली घटा सी जुल्फों में तो गुलाब सी खुशबू है. होंठ इतने रसीले हैं जैसे रसभरी और आंखें इतनी नशीली हैं कि मेरे होश उड़ा दें.’’

इतना कहते ही मेरे सिर पर सैंडलों की बरसात होने लगी. मैं ने गिने, कुल 13 सैंडल मेरे सिर पड़े. आगे की गिनती भूल गया. जब होश आया तो पाया कि साइकिल मिस्त्री अपनी बैंच पर लिटा कर मुझे होश में लाने के लिए मेरे मुंह पर पानी छिड़क रहा था.

मैं सिर सहलाते और कराहते हुए उठा. रहरह कर मुझे चक्कर आ रहे थे. अब मुझ में हिम्मत नहीं थी कि किसी और लड़की को फंसाने की भूल करूं. मैं गिरतेपड़ते घर की ओर चल पड़ा.

मैं यह सोच कर परेशान था कि आखिर अपनी दोस्त मंडली को कैसे अपना मुंह दिखाऊंगा… आखिर मैं ने हार न मानने की ठानी. बहादुर जंग के मैदान में कभी पीठ नहीं दिखाते, पीठ दिखाना तो कायरों का काम है.

अगले दिन मैं भूलेभटके से चाय की एक दुकान पर चला गया. वहां 15-16 साल की एक लड़की चाय पिला रही थी. उसे देख कर मेरी आंखें खुशी से चमक उठीं. मैं ने सोचा कि अगर उस

से प्यार का नाटक करूं, तो शायद कामयाबी मिले. सो मैं ने चाय पीते हुए उस की चाय की खूब तारीफ की और

8 रुपए की जगह 10 रुपए दिए. मेरी यह दरियादिली देख कर वह तो जैसे लाजवाब हो गई.

अगले दिन भी मैं ने यही किया और किसी को न देख अपने प्यार का इजहार कर दिया. वह बिलकुल निहाल हो गई. हालांकि वह मैलाकुचैला सलवारकुरता पहने थी. शक्लसूरत भी कोई खास

नहीं थी.

मैं ने अपने दोस्तों को दिखाने के लिए उस से उस का एक फोटो मांगा,

तो वह बोली, ‘‘फोटो की बात तो दूर,

मैं ने आज तक कोई स्टूडियो भी नहीं देखा है.’’

मैं परेशान हो गया, फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘मेरे साथ फोटो खिंचवाने चलोगी?’’

वह हैरान रह गई, फिर बोली, ‘‘मैं कल तैयार रहूंगी. तुम इसी समय यहीं पर आ जाना.’’

मैं अगले दिन उस चाय वाली के पास पहुंचा, तो वह तैयार थी. उस के साधारण से सलवारकुरते पर सिलवटें देख मैं परेशान हो गया. उस के बाल नारियल तेल से तरबतर थे. उस के पैरों में 2 रंग की चप्पलें थीं. अपनी ऐसी प्रेमिका पर मुझे रोना आ गया.

बाजार में उस के साथ देख कर लोग मुझे क्या समझेंगे. खैर, दोस्तों के बीच अपनी साख बचाने के लिए मुझे सबकुछ मंजूर था.

लोगों की नजर से खुद को बचातेबचाते मैं स्टूडियो गया और आननफानन में लौट आया.

अगले दिन मैं उस के पास गया, तो वह चाय वाली बोली, ‘‘तुम फौरन यहां से भाग जाओ. मेरे भाई पंजाब मजदूरी करने गए थे, कल वे लौट आए हैं. उन्हें हमारे प्यार की भनक मिल गई है. वे लोग तुम्हें आज देखते ही मारेंगे. शायद वे यहींकहीं छिपे हैं.’’

यह सुन कर मेरे हाथपैर ठंडे हो गए. मैं ने फौरन भागना चाहा, पर तभी 2-4 मजदूर किस्म के नौजवान वहां आए और मुझे घेर कर भद्दीभद्दी गालियां देते हुए कहने लगे, ‘हमारी बहन को बहकाता है. आज हम तेरी जवानी का नशा भुला देंगे.’

फिर वे मुझ पर टूट पड़े और मेरी खूब धुनाई की. मैं ‘बचाओबचाओ’ चिल्लाता रहा, फिर कब बेहोश हो गया, पता नहीं चला. होश आया तो खुद को नाली में पाया.

मेरे बदन के हर हिस्से में दर्द हो रहा था. मैं किसी तरह उठा और पास के सरकारी हैंडपंप पर अपने बदन पर लगे कीचड़ को धोया, फिर घर लौट गया. इस के बाद तकरीबन एक महीने तक मैं बीमार रहा.

इस घटना के बाद मैं ने अपने दोस्तों का साथ छोड़ दिया और कान पकड़े कि कभी किसी लड़की को फंसाने की भूल नहीं करूंगा.                         द्य

बोया पेड़ बबूल का

दर्पण के सामने बैठी मैं असमय ही सफेद होते अपने केशों को बड़ी सफाई से बिखरे बालों की तहों में छिपाने की कोशिश कर रही थी. इस काया ने अभी 40 साल भी पूरे नहीं किए पर दूसरों को लगता कि मैं 50 पार कर चुकी हूं. बड़ी कोशिश करती कि 40 की लगूं और इस प्रयास में चेहरे को छिपाना तो आसान था मगर मन में छिपे घावों को कैसे छिपाती.

दरवाजे की घंटी बजने के साथ ही मैं ने घड़ी की ओर देखा तो 11 बजने में अभी 10 मिनट बाकी थे. मैं ने सोचा कि शायद मेरी कुलीग संध्या आज समय से पहले आ गई हों. फिर भी मैं ने सिर पर चुन्नी ढांपी और दरवाजा खोला तो सामने पोस्टमैन था. मुझे चूंकि कालिज जाने के लिए देर हो रही थी इसलिए झटपट अपनी डाक देखी. एक लिफाफा देख कर मेरा मन कसैला हो गया. मुझे जिस बात का डर था वही हुआ. मैं कटे वृक्ष की तरह सोफे पर ढह गई. संदीप को भेजा मेरा बैरंग पत्र वापस आ चुका था. पत्र के पीछे लिखा था, ‘इस नाम का व्यक्ति यहां नहीं रहता.’

कालिज जाने के बजाय मैं चुपचाप आंखें मूंद कर सोफे पर पड़ी रही. फिर जाने मन में कैसा कुछ हुआ कि मैं फफक कर रो पड़ी, लेकिन आज मुझे सांत्वना देने वाले हाथ मेरे साथ नहीं थे.

अतीत मेरी आंखों में चलचित्र की भांति घूमने लगा जिस में समूचे जीवन के खुशनुमा लमहे कहीं खो गए थे. मैं कभी भी किसी दायरे में कैद नहीं होना चाहती थी किंतु यादों के सैलाब को रोक पाना अब मेरे बस में नहीं था.

एक संभ्रांत और सुसंस्कृत परिवार में मेरा जन्म हुआ था. स्कूलकालिज की चुहलबाजी करतेकरते मैं बड़ी हो गई. बाहर मैं जितनी चुलबुली और चंचल थी घर में आतेआते उतनी ही गंभीर हो जाती. परिवार पर मां का प्रभाव था और वह परिस्थितियां कैसी भी हों सदा गंभीर ही बनी रहतीं. मुझे याद नहीं कि हम 3 भाईबहनों ने कभी मां के पास बैठ कर खाना खाया हो. पिताजी से सुबहशाम अभिवादन के अलावा कभी कोई बात नहीं होती. घर में सारे अधिकार मां के हाथों में थे. इसलिए मां के हमारे कमरे में आते ही खामोशी सी छा जाती. हमारे घर में यह रिवाज भी नहीं था कि किसी के रूठने पर उसे मनाया जाए. नीरस जिंदगी जीने की अभ्यस्त हो चुकी मैं सोचती जब अपना घर होगा तो यह सब नहीं करूंगी.

एम.ए., बी.एड. की शिक्षा के बाद मेरी नियुक्ति एक स्थानीय कालिज में हो गई. मुझे लगा जैसे मैं अपनी मंजिल के करीब पहुंच रही हूं. समय गुजरता गया और इसी के साथ मेरे जीने का अंदाज भी. कालिज के बहाने खुद को बनासंवार कर रखना और इठला कर चलना मेरे जीवन का एक सुखद मोड़ था. यही नहीं अपने हंसमुख स्वभाव के लिए मैं सारे कालिज में चर्चित थी.

इस बात का पता मुझे तब चला जब मेरे ही एक साथी प्राध्यापक ने मुझे बताया. उस का सुंदर और सलौना रूप मेरी आंखों में बस गया. वह जब भी मेरे करीब से गुजरता मैं मुसकरा पड़ती और वह भी मुसकरा देता. धीरेधीरे मुझे लगने लगा कि मेरे पास भी दूसरों को आकर्षित करने का पर्याप्त सौंदर्य है.

एक दिन कौमन रूम में हम दोनों अकेले बैठे थे. बातोंबातों में उस ने बताया कि वह पीएच.डी. कर रहा है. मैं तो पहले से ही उस पर मोहित थी और यह जानने के बाद तो मैं उस के व्यक्तित्व से और भी प्रभावित हो गई. मेरे मन में उस के प्रति और भी प्यार उमड़ आया. आंखों ही आंखों में हम ने सबकुछ कह डाला. मेरे दिल की धड़कन तेज हो गई जिस की आवाज शायद उधर भी पहुंच चुकी थी. मेरे मन में कई बार आया कि ऐसे व्यक्ति का उम्र भर का साथ मिल जाए तो मेरी दुनिया ही संवर जाए. उस की पत्नी बन कर मैं उसे पलकों पर बिठा कर रखूंगी. मेरी आंखों में एक सपना आकार लेने लगा.

उस दिन मैं ने संकोच छोड़ कर मां को इस बात का हमराज बनाया. उम्मीद थी कि मां मान जाएंगी किंतु मां ने मुझे बेहद कोसा और मेरे चरित्र को ले कर मुझे जलील भी किया. कहने लगीं, इस घर में यह संभव नहीं है कि लड़की अपना वर खुद ढूंढ़े. इस तरह मेरा प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पड़े, क्योंकि मुझ में मां की आज्ञा का विरोध करने का साहस नहीं था.

मेरी इस बात से मां इतनी नाराज हुईं कि आननफानन में मेरे लिए एक वर ढूंढ़ निकाला. मुझे सोचने का समय भी नहीं दिया और मैं विरोध करती भी तो किस से. मेरी शादी संदीप से हो गई. मेरी नौकरी भी छूट गई.

शादी के बाद सपनों की दुनिया से लौटी तो पाया जिंदगी वैसी नहीं है जैसा मैं ने चाहा था. संदीप पास ही के एक महानगर में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अधिकारी था. कंपनी ने सभी सुख- सुविधाओं से युक्त घर उसे दिया था.

संदीप के आफिस जाने के बाद मैं घर पर बोर होने लगी तो एक दिन आफिस से आने के बाद मैं ने संदीप से कहा, ‘मैं घर पर बोर हो जाती हूं. मैं भी चाहती हूं कि कोई नौकरी कर लूं.’

वह हौले से मुसकरा कर बोला, ‘मुझे तुम्हारे नौकरी करने पर कोई एतराज नहीं है किंतु जब कभी मम्मीपापा रहने के लिए आएंगे, उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगेगा. अब यह तुम्हारा घर है. इसे बनासंवार कर रखने में ही स्त्री की शोभा होती है.’

‘तो फिर मैं क्या करूं?’ मैं ने बेमन से पूछा.

उस ने जब कोई उत्तर नहीं दिया तो थोड़ी देर बाद मैं ने फिर कहा, ‘अच्छा, यदि किसी किंडर गार्टन में जाऊं तो 2 बजे तक घर वापस आ जाऊंगी.’

‘देखो, बेहतर यही है कि तुम इस घर की गरिमा बनाए रखो. तुम फिर भी जाना चाहती हो तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा. तुम कोई किटी पार्टी क्यों नहीं ज्वाइन कर लेतीं.’

‘मुझे किटी पार्टियों में जाना अच्छा नहीं लगता. मां कहती थीं कि कालोनी वालों से जितना दूर रहो वही अच्छा. बेकार समय बरबाद करने से क्या फायदा.’

‘यह जरूरी नहीं कि मैं तुम्हारी मां के सभी विचारों से सहमत हो जाऊं.’

उस दिन मैं ने यह जान लिया कि संदीप मेरी खुशी के लिए भी झुकने को तैयार नहीं है. यह मेरे स्वाभिमान को चुनौती थी. मैं भी अड़ गई. अपने हावभाव से मैं ने जता दिया कि नाराज होना मुझे भी आता है. अब अंतरंग पलों में वह जब भी मेरे पास आना चाहता तो मैं छिटक कर दूर हो जाती और मुंह फेर कर सो जाती. जीत मेरी हुई. संदीप ने नौकरी की इजाजत दे दी.

अगली बार मैं जब मां से मिलने गई तो उन्हें वह सब बताती रही जो नहीं बताना चाहिए था. मां की दबंग आवाज ने मेरे जख्मों पर मरहम का काम किया. वह मरहम था या नमक मैं इस बात को कभी न जान पाई.

मां ने मुझे समझाया कि पति को अभी से मुट्ठी में नहीं रखोगी तो उम्र भर पछताओगी. दबाया और सताया तो कमजोरों को जाता है और तुम न तो कमजोर हो और न ही अबला. मैं ने इस मूलमंत्र को शिरोेधार्य कर लिया.

मैं संदीप से बोल कर 3 दिन के लिए मायके आई थी और अब 7 दिन हो चले थे. वह जब भी आने के लिए कहता तो फोन मां ले लेतीं और साफ शब्दों में कहतीं कि वह बेटी को अकेले नहीं भेजेंगी, जब भी समय हो आ कर ले जाना. मां का इस तरह से संदीप से बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा तो मैं ने कहा, ‘मां, हो सकता है वह अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रमों में व्यस्त हों. मैं ऐसा करती हूं कि…’

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‘तुम नहीं जाओगी,’ मां ने बीच में ही बात काट कर सख्ती से कहा, ‘हम ने बेटी ब्याही है कोई जुर्म नहीं किया. शादी कर के उस ने हम पर कोई एहसान नहीं किया है. जैसा हम चाहेंगे वैसा होगा, बस.’

मां ने कभी समझौता करना नहीं सीखा था. विरासत में मुझे यही मिला. मैं खामोश हो गई. जब वह मेरी कोई बात ही नहीं मानता तो मैं क्यों झुकूं. आना तो उसे ही पड़ेगा.

2 दिन बाद ही संदीप आ गया तो मुझे लगा मां ठीक ही कह रही थीं. मां की छाती फूल कर 2 इंच और चौड़ी हो गई.

दीवाली से 4 दिन पहले संदीप के मम्मीपापा आ गए. सीधे तो उन्होंने कुछ कहा नहीं पर उन के हावभाव से ऐसा लगा कि मेरा नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं आया.

संदीप ने एक दिन कहा भी कि मैं घर पर ही रहूं और मम्मीपापा की देखभाल करूं लेकिन इसे मैं ने यह कह कर टाल दिया था, ‘मैं भी यही चाहती हूं कि मम्मीपापा की सेवा करूं पर इन दिनों लंबी छुट्टी लेना ठीक नहीं है. मेरी स्थायी नियुक्ति होने वाली है और इस छुट्टी का सीधा असर उस पर पड़ेगा.’

‘देखो, मैं तो चाहता ही नहीं था कि तुम नौकरी करो पर तुम्हारी जिद के कारण मैं कुछ नहीं बोला. अब यह बात उन को पता चली है तो उन्हें अच्छा नहीं लगा.’

‘मैं ने विवाह तुम्हारे मम्मीपापा के सुख के लिए नहीं किया. वे दोनों तो कुछ दिनों के मेहमान हैं. चले जाएंगे तो मैं फिर अकेली रह जाऊंगी. मेरा इतने पढ़ने का क्या लाभ?’

बात वहीं खत्म नहीं हुई थी. कोई बात कहीं पर भी खत्म नहीं होती जब तक कि उस के कारणों को जड़ से न निकाला जाए.

मम्मी ने एक दिन मेरे अच्छे मूड को देख कर कहा, ‘बेटी, मुझे यह घर सूनासूना सा लगता है. अगली दीवाली तक इस घर में रौनक हो जानी चाहिए. तुम समझ गईं न मेरी बात को. इस घर में अब मेरे पोतेपोती भी होने चाहिए.’

मैं नहीं चाहती थी कि वे किसी भ्रम में रहें, इसलिए सीधेसीधे कह दिया, ‘मैं अभी किसी बंधन में नहीं पड़ना चाहती, क्योंकि अभी तो यह हमारे हंसनेखेलने के दिन हैं. किसी भी खुशखबरी के लिए आप को 4-5 वर्ष तो इंतजार करना ही पड़ेगा.’

संदीप ने उन्हें सांत्वना दी. वैसे हमारे संबंधों की कड़वाहट उन के कानों तक पहुंच चुकी थी.

समय यों ही खिसकता रहा. हमारे संबंध बद से बदतर होते गए. मुझे संदीप की हर बात बरछी सी सीने में चुभती.

एक दिन मैं ने सुबह ही संदीप से कहा कि स्थायी नियुक्ति की खुशी में मुझे अपने सहयोगियों को पार्टी देनी है. संभव है, शाम को आने में थोड़ी देर हो जाए. पर वह पार्टी टल गई. मैं घर आ गई. घर पहुंची तो संदीप किसी महिला के साथ हंसहंस कर बातें कर रहा था. मेरे पहुंचते ही दोनों चुप हो गए.

‘अरे, तुम कब आईं, आज पार्टी नहीं हुई क्या?’

मेरा चेहरा तमतमा गया. मैं ने अपना बैग सोफे पर पटका और फ्रेश होने चली गई. मन के भीतर बहुत कुछ उमड़ रहा था. अत: गुस्से में मैं अपना नियंत्रण खो बैठी. इस से पहले कि वह कुछ कहता, मैं ने खड़ेखड़े पूछा, ‘कौन है यह लड़की और आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

संदीप मुझे घूरते हुए बोला, ‘तुम बैठोगी तभी तो बताऊंगा.’

‘अब बताने के लिए रह ही क्या गया है?’ संदीप के घूरने से घायल मैं दहाड़ी, ‘बहाना तो तैयार कर ही लिया होगा?’

‘संगीता, थोड़ा तो सोचसमझ कर बात करो. आरोप लगाने से पहले हकीकत भी जान लिया करो.’

‘मुझे कुछ भी समझने की जरूरत नहीं है. मैं सब समझ चुकी हूं,’ कह कर मैं तेज कदमों से भीतर आ गई.

थोड़ी ही देर बाद संदीप मेरे पास आया और कहने लगा, ‘तुम ने तो हद ही कर दी. जानती हो कौन है यह?’

‘मुझे कुछ भी जानने की जरूरत नहीं है. मेरे आते ही तुम्हारा हंसीमजाक एकदम बंद हो जाना, यह जानते हुए कि मैं शाम को देर से आऊंगी, अपनी चहेती के साथ यहां आना ही मेरे जानने के लिए बहुत है. मुझे क्या पता कि मेरे कालिज जाने के बाद कितनों को यहां ले कर आए हो,’ मैं एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठी.

‘संगीता,’ वह एकदम दहाड़ पड़ा, ‘बहुत हो चुका अब. आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई कि मेरे चरित्र पर लांछन लगा सके. तुम ने शुरू से ही मुझे शक के दायरे में देखा और प्रभुत्व जमाने की कोशिश की है.’

‘यह सब बेकार की बातें हैं. सच तो यह है कि तुम ने शासन जमाने की कोशिश की है और जब मैं भारी पड़ने लगी तो तुम अपनी मनमानी करने लगे हो. मेरी मां ठीक ही कहती थीं…’

‘भाड़ में जाएं तुम्हारी मां. उन्हीं के कारण तो यह घर बरबाद हो रहा है.’

‘तुम ने मेरी मां को बुराभला कहा, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकती. मैं यह घर और तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं.’

‘जरूर जाओ, जरूर जाओ, ताकि मुझे भी शांति मिल सके. आज तुम्हारी हरकतों ने तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ा है.’

संदीप के चेहरे पर क्रोध और वितृष्णा के भाव उभर आए थे. वह ऐसे हांफ रहा था जैसे मीलों सफर तय कर के आया हो.

मैं अपना सारा सामान समेट कर मायके चली आई और मां को झूठीसच्ची कहानी सुना कर उन की सहानुभूति बटोर ली.

मां को जब इन सब बातों का पता चला तो उन्होंने संदीप को जम कर फटकारा और उधर मैं अपनी सफलता पर आत्मविभोर हो रही थी. भैया ने तो यहां तक कह डाला कि यदि उस ने दोबारा कभी फोन करने की कोशिश की तो वह दहेज उत्पीड़न के मामले में उलझा कर सीधे जेल भिजवा देंगे. इस तरह मैं ने संदीप के लिए जमीन का ऐसा कोई कोना नहीं छोड़ा जहां वह सांस ले सके.

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एक दिन रसोई में काम करते हुए भाभी ने कहा, ‘संगीता, तुम्हारा झगड़ा अहं का है. मेरी मानो तो कुछ सामंजस्य बिठा कर वहीं चली जाओ. सच्चे अर्थों में वही तुम्हारा घर है. संदीप जैसा घरवर तुम्हें फिर नहीं मिलेगा.’

‘तुम कौन होती हो मुझे शिक्षा देने वाली. मैं तुम पर तो बोझ नहीं हूं. यह मेरी मां का घर है. जब तक चाहूंगी यहीं रहूंगी.’

उस दिन के बाद भाभी ने कभी कुछ नहीं कहा.

वक्त गुजरता गया और उसी के साथ मेरा गुस्सा भी ठंडा पड़ने लगा. मेरी मां का वरदहस्त मुझ पर था. मैं ने इसी शहर में अपना तबादला करा लिया.

एक दिन पिताजी ने दुखी हो कर कहा था, ‘संगीता, जिन संबंधों को बना नहीं सकते उन्हें ढोने से क्या फायदा. इस से बेहतर है कि कानूनी तौर पर अलग हो जाओ.’

इस बात का मां और भैया ने जम कर विरोध किया.

मां का कहना था कि यदि मेरी बेटी सुखी नहीं रह सकती तो मैं उसे भी सुखी नहीं रहने दूंगी. तलाक देने का मतलब है वह जहां चाहे रहे और ऐसा मैं होने नहीं दूंगी.

मुझे भी लगा यही ठीक निर्णय है. पिताजी इसी गम में दुनिया से ही चले गए और साल बीततेबीतते मां भी नहीं रहीं. मैं ने कभी सोचा भी न था कि मैं भी कभी अकेली हो जाऊंगी.

मैं ने अब तक अपनेआप को इस घर में व्यवस्थित कर लिया था. सुबह भाभी के साथ नाश्ता बनाने के बाद कालिज चली जाती. शाम को मेरे आने के बाद वह बच्चों में व्यस्त हो जातीं. मैं मन मार कर अपने कमरे में चली जाती. भैया के आने के बाद ही हम लोग पूरे दिन की दिनचर्या डायनिंग टेबल पर करते. मेरा उन से मिलना बस, यहीं तक सिमट चुका था.

जयपुर के निकट एक गांव में पति द्वारा पत्नी पर किए गए अत्याचारों की घटना की उस दिन बारबार टीवी पर चर्चा हो रही थी. खाना खाते हुए भैया बोले, ‘ऐसे व्यक्तियों को तो पेड़ पर लटका कर गोली मार देनी चाहिए.’

‘तुम अपना खाना खाओ,’ भाभी बोलीं, ‘यह काम सरकार का है, उसे ही करने दो.’

‘सरकार कुछ नहीं करती. औरतों को ही जागरूक होना चाहिए. अपनी संगीता को ही देख लो, संदीप को ऐसा सबक सिखाया है कि उम्र भर याद रखेगा. तलाक लेना चाहता था ताकि अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से बिता सके. हम उसे भी सुख से नहीं रहने देंगे,’ भैया ने तेज स्वर में मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘क्यों संगीता.’

‘तुम यह क्यों भूलते हो कि उसे तलाक न देने से खुद संगीता भी कभी अपना घर नहीं बसा सकती. मैं ने तो पहले ही इसे कहा था कि इस खाई को और न बढ़ाओ. तब मेरी सुनी ही किस ने थी. वह तो फिर भी पुरुष है, कोई न कोई रास्ता तो निकाल ही लेगा. वह अकेला रह सकता है पर संगीता नहीं.’

‘मैं क्यों नहीं घर बसा सकती,’ मैं ने प्रश्नवाचक निगाहें भाभी पर टिका दीं.

‘क्योंकि कानूनी तौर पर बिना उस से अलग हुए तुम्हारा संबंध अवैध है.’

भाभी की बातों में कितना कठोर सत्य छिपा हुआ था यह मैं ने उस दिन जाना. मुझे तो जैसे काठ मार गया हो.

उस रात नींद आंखों से दूर ही रही. मैं यथार्थ की दुनिया में आ गिरी. कहने के लिए यहां अपना कुछ भी नहीं था. मैं अब अपने ही बनाए हुए मकड़जाल में पूरी तरह फंस चुकी थी.

इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए मैं ने एक रास्ता खोजा और वहां से दूर रहने लायक एक ठिकाना ढूंढ़ा. किसी का कुछ नहीं बिगड़ा और मैं रास्ते में अकेली खड़ी रह गई.

मेरी जिंदगी की दूसरी पारी शुरू हो चुकी थी. जाने वह कैसी मनहूस घड़ी थी जब मां की बातों में आ कर मैं ने अपना बसाबसाया घर उजाड़ लिया था. फिर से जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई. मैं ने संदीप को ढूंढ़ने का निर्णय लिया. जितना उसे ढूंढ़ती उतना ही गम के काले सायों में घिरती चली गई.

उस के आफिस के एक पुराने कुलीग से मुझे पता चला कि उस दिन जो युवती संदीप से मिलने घर आई थी वह उस के विभाग की नई हेड थी. संदीप चाहता था कि उसे अपना घर दिखा सके ताकि कंपनी द्वारा दी गई सुविधाओं को वह भी देख सके. किंतु उस दिन की घटना के बाद मैं ने फोन से जो कीचड़ उछाला था वह संदीप की तरक्की के मार्ग को बंद कर गया. वह अपनी बदनामी का सामना नहीं कर पाया और चुपचाप त्यागपत्र दे दिया. यह उस का मुझ से विवाह करने का इनाम था.

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फिर तो मैं ने उसे ढूंढ़ने के सारे यत्न किए, पर सब बेकार साबित हुए. मैं चाहती थी एक बार मुझे संदीप मिल जाए तो मैं उस के चरणों में माथा रगड़ूं, अपनी गलती के लिए क्षमा मांगूं, लेकिन मेरी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई. न जाने किस सुख के प्रलोभन के लिए मैं उस से अलग हुई. न खुद ही जी पाई और न उस के जीने के लिए कोई कोना छोड़ा.

अब जब जीवन की शाम ढलने लगी है मैं भीतर तक पूरी तरह टूट चुकी हूं. उस के एक परिचित से पता चला था कि वह तमिलनाडु के सेलम शहर में है और आज इस पत्र के आते ही मेरा रहासहा उत्साह भी ठंडा हो गया.

कोई किसी की पीड़ा को नहीं बांट सकता. अपने हिस्से की पीड़ा मुझे खुद ही भोगनी पड़ेगी. मन के किसी कोने में छिपी हीन भावना से मैं कभी छुटकारा नहीं पा सकती.

पहली बार महसूस किया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मेरे जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण निधि थी. काश, संदीप कहीं से आ जाए तो मैं उस से क्षमादान मांगूं. वही मुझे अनिश्चितताओं के इस अंधेरे से बचा सकता है.

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मुट्ठी भर प्यार

लेखक- सुधा गोयल

‘‘धरा, मम्मी गुजर गईं. मैं निकल रही हूं अभी,’’ सुबकते हुए बूआजी ने बताया.

मैं उन से एक शब्द भी नहीं बोल पाई. बोल ही कहां पाती…सूचना ही इतनी अप्रत्याशित थी. सुन कर जैसे यकीन ही नहीं आया और जब तक यकीन हुआ फोन कट चुका था. इतना भी नहीं पूछ पाई कि यह सब कैसे और कब हुआ.

वे मानें या न मानें पर यह सच है कि जितना हम बूआ के प्यार को तरसे हैं उतनी ही हमारी कमी बूआजी ने भी महसूस की होगी. हमारे संबंधों में लक्ष्मण रेखाएं मम्मीपापा ने खींच दीं. इस में हम दोनों बहनें कहां दोषी हैं. कहते हैं कि मांबाप के कर्मों की सजा उन के बच्चों को भोगनी पड़ती है. सो भोग रहे हैं, कारण चाहे कुछ भी हों.

कितनाकितना सामान बूआजी हम दोनों बहनों के लिए ले कर आती थीं. बूआजी के कोई बेटी नहीं थी और हमारा कोई भाई नहीं था. पापा के लिए भी जो कुछ थीं बस, बूआजी ही थीं. अत: अकेली बूआजी हर रक्षाबंधन पर दौड़ी चली आतीं. उमंग और नमन भैया के हम से राखी बंधवातीं और राखी बंधाई में भैया हमें सुंदर ड्रेसें देते, साथ में होतीं मैचिंग क्लिप, रूमाल, चूडि़यां, टौफी और चौकलेट.

हम बूआजी के आगेपीछे घूमते. बूआजी अपने साथ बाजार ले जातीं, आइसक्रीम खिलातीं, कोक पिलातीं, ढेरों सामान से लदे जब हम घर में घुसते तो दादीमां बूआजी को डांटतीं, ‘इतना खर्च करने की क्या जरूरत थी? इन दोनों के पास इतना सामान है, खिलौने हैं, पर इन का मन भरता ही नहीं.’

बूआजी हंस कर कहतीं, ‘मम्मी, अब घर में शैतानी करने को ये ही 2 बच्चियां हैं. घर कैसा गुलजार रहता है. ये हमारा बूआभतीजी का मामला है, कोई बीच में नहीं बोलेगा.’

थोडे़ बड़े हुए तो मुट्ठी में बंद सितारे बिखर गए. बूआजी को बुलाना तो दूर पापाजी ने उन का नाम तक लेने पर पाबंदी लगा दी. बूआजी आतीं, भैया आते तो हम चोरीचोरी उन से मिलते. वह प्यार करतीं तो उन की आंखें नम हो आतीं.

पापामम्मी ने कभी बूआजी को अपने घर नहीं बुलाया. भैया से भी नहीं बोले, जबकि बूआजी हम पर अब भी जान छिड़कती थीं. राखियां खुल गईं. रिश्ते बेमानी हो गए. कैसे इंतजार करूं कि कभी बूआजी बुलाएंगी और कहेंगी, ‘धरा और तान्या, तुम अपनी बूआजी को कैसे भूल गईं? कभी अपनी बूआ के घर आओ न.’

कैसे कहतीं बूआजी? उन के आगे रिश्तों का एक जंगल उग आया था और उस के पार बूआजी आ नहीं सकती थीं. जाने ऐसे कितने जंगल रिश्तों के बीच उग आए जो वक्तबेवक्त खरोंच कर लहूलुहान करते रहे. बूआजी के एक फोन से कितना कुछ सोच गई मैं.

मैं अतीत से बाहर आ कर अपने कर्तव्य की ओर उन्मुख हुई. तान्या को मैं ने फौरन फोन मिलाया तो वह बोली, ‘‘दीदी, फिलहाल मैं नहीं निकल पाऊंगी. बंगलौर से वहां पहुंचने में 2 दिन तो लग ही जाएंगे. फ्लाइट का भी कोई भरोसा नहीं, टिकट मिले न मिले. फिर ईशान भी यहां नहीं हैं. मैं तेरहवीं पर पहुंचूंगी. प्लीज, आप निकल जाइए,’’ फिर थोड़ा रुक कर पूछने लगीं, ‘‘दीदी, आप को खबर किस ने दी? कैसे हुआ ये सब?’’ पूछतेपूछते रो दी तानी.

‘‘तानी, मुझे कुछ भी पता नहीं. बस, बूआजी का फोन आया था. कितना प्यार करती थीं हमें दादी. तानी, क्या मेरा जाना मम्मीपापा को अच्छा लगेगा? क्या मम्मीपापा भी उन्हें अंतिम प्रणाम करेंगे?’’

‘‘नहीं, दीदी, यह समय रिश्तों को तोलने का नहीं है. मम्मीपापा अपने रिश्ते आप जानें. हमें तो अपनी दादी के करीब उन के अंतिम क्षणों में जाना चाहिए. दादी को अंतिम प्रणाम के लिए मेरी ओर से कुछ फूल जरूर चढ़ा देना.’’

मैं ने हर्ष के आफिस फोन मिलाया और उन्हें भी इस दुखद समाचार से अवगत कराया.

‘‘तुम तैयार रहना, धरा. मैं 15 मिनट में पहुंच रहा हूं.’’

फोन रख मैं ने अलमारी खोली और तैयार होने के लिए साड़ी निकालने लगी. तभी दादी की दी हुई कांजीवरम की साड़ी पर नजर पड़ी. मैं ने साड़ी छुई तो लगा दादी को छू रही हूं. उन का प्यार मुझे सहला गया. दादी की दी हुई एकएक चीज पर मैं हाथ फिरा कर देखने लगी. इतना प्यार इन चीजों पर इस से पहले मुझे कभी नहीं आया था.

आंखें बहे जा रही थीं. दादी की दी हुई सोने की चेन, अंगूठी, टौप्स को देने का उन का ढंग याद आ गया. लौटते समय दादी चुपचाप मुट्ठी में थमा देतीं. उन के देने का यही ढंग रहा. अपना मुट्ठी भर प्यार मुट्ठी में ही दिया.

हर्ष को भी जब चाहे कुछ न कुछ मुट्ठी में थमा ही देतीं. 1-2 बार हर्ष ने मना करना चाहा तो बोलीं, ‘‘हर्ष बेटा, इतना सा भी अधिकार तुम मुझे देना नहीं चाहते. तुम्हें कुछ दे कर मुझे सुकून मिलता है,’’ और इतना कहतेकहते उन की आंखें भर आई थीं.

तभी से हर्ष दादी से मिले रुपयों पर एक छोटा सा फूल बना कर संभाल कर रख देते और मुझे भी सख्त हिदायत थी कि मैं भी दादी से मिले रुपए खर्च न करूं.

मुझे नहीं पता कि मम्मीपापा का झगड़ा दादादादी से किस बात पर हुआ. बस, धुंधली सी याद है. उस समय मैं 6 साल की थी. पापादादी मां से खूब लड़ेझगड़े थे और उसी के बाद अपना सामान ऊपर की मंजिल में ले जा कर रहने लगे थे.

इस के बाद ही मम्मीपापा ने दादी और दादा के पास जाने पर रोक लगा दी. यदि हमें उन से कुछ लेते देख लेते तो छीन कर कूड़े की टोकरी में फेंक देते और दादी को खूब खरीखोटी सुनाते. दादी ने कभी उन की बात का जवाब नहीं दिया.

जब पापा कहीं चले जाते और मम्मी आराम करने लगतीं तो हम यानी मैं और तानी चुपके से नीचे उतर जातीं. दादी हमें कलेजे से लगा लेतीं और खाने के लिए हमारी पसंद की चीजें देतीं. बाजार जातीं तो हमारे लिए पेस्ट्री अवश्य लातीं जिसे पापामम्मी की नजरें बचा कर स्कूल जाते समय हमें थमा देतीं.

मम्मी पापा से शिकायत करतीं. पापा चांटे लगाते और कान पकड़ कर प्रामिस लेते कि अब नीचे नहीं जाएंगे. और हम डर कर प्रामिस कर लेतीं लेकिन उन के घर से निकलते ही मैं और तानी आंखोंआंखों में इशारा करतीं और खेलने का बहाना कर दादी के पास पहुंच जाते. दादी हमें खूब प्यार करतीं और समझातीं, ‘‘अच्छे बच्चे अपने मम्मीपापा का कहना मानते हैं.’’

तानी गुस्से से कहती, ‘‘वह आप के पास नहीं आने देते. हम तो यहां जरूर आएंगे. क्या आप हमारे दादादादी नहीं हो? क्या आप के बच्चे आप की बात मानते हैं जो हम मानें?’’

दादी के पास हमारे इस सवाल का कोई उत्तर नहीं होता था.

दादी के एक तरफ मैं लेटती दूसरी तरफ तानी और बीच में वह लेटतीं. वह रोज हमें नई कहानियां सुनातीं. स्कूल की बातें सुनातीं और जब पापा छोटे थे तब की ढेर सारी बातें बतातीं. हमें बड़ा आनंद आता.

दादाजी की जेब की तलाशी में कभी चुइंगम, कभी जैली और कभी टौफी मिल जाती, क्योंकि दादाजी जानते थे कि बच्चों को जेबों की तलाशी लेनी है और उन्हें निराश नहीं होने देना है. उन के मतलब का कुछ तो मिलना चाहिए.

दादी झगड़ती हुई दादाजी से कहतीं, ‘तुम ने टौफी, चाकलेट खिलाखिला कर इन की आदतें खराब कर दी हैं. ये तानी तो सारा दिन चीज मांगती रहती है. देखते नहीं बच्चों के सारे दांत खराब हो रहे हैं.’

दादाजी चुपचाप सुनते और मुसकराते रहते.

तानी दादी की नकल करती हुई घुटनों पर हाथ रख कर उन की तरह कराहती. कभी पलंग पर चढ़ कर बिस्तर गंदा करती.

‘तानी, तू कहना नहीं मानेगी तो तेरी मैडम से शिकायत करूंगी,’ दादी झिड़कती हुई कहतीं.

‘मैडम मुझ से कुछ कहेंगी ही नहीं क्योंकि वह मुझे प्यार करती हैं,’ तानी कहती जाती और दादी को चिढ़ाती जाती. दादी उसे पकड़ लेतीं और गाल चूम कर कहती, ‘प्यार तो तुझे मैं भी बहुत करती हूं.’

सर्दियों के दिनों में दादी हमारी जेबों में बादाम, काजू, किशमिश, पिस्ता, रेवड़ी, मूंगफली कुछ भी भर देतीं. स्कूल बस में हम दोनों बहनें खुद भी खातीं और अपने दोस्तों को भी खिलातीं.

तानी और मुझे साड़ी बांधने का बड़ा शौक था. हम दादी की अलमारी में से साड़ी निकालतीं और खूब अच्छी सी पिनअप कर के साड़ी बांधतीं हम शीशे में अपने को देख कर खूब खुश होते.

‘दादी, हमारे कान कब छिदेंगे? हम टौप्स कब पहनेंगे?’

‘तुम थोड़ी और बड़ी हो जाओ, मेरे कंधे तक आ जाओ तो तुम्हारे कान छिदवा दूंगी और तुम्हारे लिए सोने की बाली भी खरीद दूंगी.’

दादी की बातों से हम आश्वस्त हो जातीं और रोज अपनी लंबाई दादी के पास खड़ी हो कर नापतीं.

एक बार दादाजी और दादी मथुरा घूमने गए. वहां से हमारे लिए जरीगोटे वाले लहंगे ले कर आए. हम लहंगे पहन कर, टेप चला कर खूब देर तक नाचतीं और वह दोनों तालियां बजाते.

‘दादी, ऊपर छत पर चलो, खेलेंगे.’

‘मेरे घुटने दुखते हैं. कैसे चढ़ पाऊंगी?’

‘दादी, आप को चढ़ना नहीं पड़ेगा. हम आप को ऊपर ले जाएंगी.’

‘वह कैसे, बिटिया?’ उन्हें आश्चर्य होता.

‘एक तरफ से दीदी हाथ पकड़ेगी, एक तरफ से मैं. बस, आप ऊपर पहुंच जाओगी.’ तानी के ऐसे लाड़ भरे उत्तर पर दादी उसे गोद में बिठा कर चूम लेतीं.

दादी का कोई भी बालपेन तानी न छोड़ती. वह कहीं भी छिपा कर रखतीं तानी निकाल कर ले जाती. दादी डांटतीं, तब तो दे जाती. लेकिन जैसे ही उन की नजर बचती, बालपेन फिर गायब हो जाती. वह अपने बालपेन के साथ हमारे लिए भी खरीद कर लातीं, पर दादी के हाथ में जो कलम होती हमें वही अच्छी लगती.

हम उन दोनों के साथ कैरम व लूडो खेलतीं. खूब चीटिंग करतीं. दादी देख लेतीं और कहतीं कि चीटिंग करोगी तो नहीं खेलूंगी. हम कान पकड़ कर सौरी बोलतीं. दादाजी, इतनी अच्छी तरह स्ट्रोक मारते कि एकसाथ 4-4 गोटियां निकालते.

‘हाय, दादाजी, इस बार भी आप ही जीतेंगे,’ माथे पर हाथ मार कर मैं कहती, तभी तान्या दादाजी की गोटी उठा कर खाने में डाल देती.

‘चीटिंगचीटिंग दादी,’ कहतीं.

‘ओह दादी, अब खेलने भी दो. बच्चे तो ऐसे ही खेलेंगे न,’ सभी तानी की प्यारी सी बात पर हंस पड़ते.

‘दादी, आप के घुटने दबाऊं. देखो, दर्द अभी कैसे भागता है?’ तानी अपने छोटेछोटे हाथों से उन के घुटने सहलाती. वह गद्गद हो उठतीं.

‘अरे, बिटिया, तू ने तो सचमुच मेरा दर्द भगा दिया.’

तानी की आंखें चमक उठतीं, ‘मैं कहती न थी कि आप को ठीक कर दूंगी, अब आप काम मत करना. मैं आप का सारा काम कर दूंगी,’ और तानी झाड़न उठा कर कुरसीमेज साफ करने लगती.

‘दादी, आप के लिए चाय बनाऊं?’ पूछतेपूछते तानी रसोई में पहुंच जाती.

लाइटर उठा कर गैस जलाने की कोशिश करती.

दादी वहीं से आवाज लगातीं, ‘चाय रहने दे, तानी. एक गिलास पानी दे जा और दवा का डब्बा भी.’

तानी पानी लाती और अपने हाथ से दादी के मुंह में दवा डालती.

एक बार मैं किसी शादी में गई थी. वहां बच्चों का झूला लगा था. मैं भी बच्चों के साथ झूलने लगी. पता नहीं कैसे झूले में मेरा पैर फंस गया. मुश्किल से सब ने खींच कर मेरा पैर निकाला. बहुत दर्द हुआ. पांव सूज गया. चला भी नहीं जा रहा था. मैं रोतेरोते पापामम्मी के साथ घर आई. पापा ने मुझे दादी के पास जाने नहीं दिया. जब पापामम्मी गए तब मैं चुपके से दीवार पकड़ कर सीढि़यों पर बैठबैठ कर नीचे उतरी. दादी के पास जा कर रोने लगी.

उन्होंने मेरा पैर देखा. मुझे बिस्तर पर लिटाया. पैर पर मूव की मालिश की. हीटर जला कर सिंकाई की और गोली खाने को दी. थोड़ी देर बाद दादी की प्यार भरी थपकियों ने मुझे उन की गोद में सुला दिया. कितनी भी कड़वी दवा हम दादी के हाथों हंसतेहंसते खा लेती थीं.

मेरा या तानी का जन्मदिन आता तो दादी पूछतीं, ‘क्या चाहिए तुम दोनों को?’

हम अपनी ढेरों फरमाइशें उन के सामने रखते. वह हमारी फरमाइशों में से एकएक चीज हमें ला देतीं और हम पूरा दिन दादी का दिया गिफ्ट अपने से अलग न करतीं.

बचपन इसी प्रकार गुजरता रहा.

नानी के यहां जाने पर हमारा मन ही न लगता. हम चाहती थीं कि हम दादी के पास रह जाएं, पर मम्मी हमें खींच कर ले जातीं. हम वहां जा कर दादाजी को फोन मिलाते, ‘दादाजी, हमारा मन नहीं लग रहा, आप आ कर ले जाइए.’

‘सारे बच्चे नानी के यहां खुशीखुशी जाते हैं. नानी खूब प्यार करती हैं, पर तुम्हारा मन क्यों नहीं लग रहा?’ दादाजी समझाते हुए पूछते.

‘दादाजी, हमें आप की और दादी की याद आ रही है. हमें न तो कोई अपने साथ बाजार ले कर जाता है, न चीज दिलाता है. नानी कहानी भी नहीं सुनातीं. बस, सारा दिन हनी व सनी के साथ लगी रहती हैं. हम क्या करें दादाजी?’

दादाजी रास्ता सुझाते, ‘बेटा, धरा और तानी सुनो, तुम अपने पापा को फोन लगाओ और उन से कहो कि हम आप को बहुत मिस कर रहे हैं. आप आ कर ले जाओ.’

दादाजी की यह तरकीब काम कर जाती. हम रोरो कर पापा से ले जाने के लिए कहते और अगले दिन पापा हमें ले आते. हम दोनों लौट कर दादी और दादाजी से ऐसे लिपट जाते जैसे कब के बिछुड़े हों.

पापा ने हमें पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया. हम लौटते तो दादाजी और दादी को इंतजार करते पाते. उन की अलमारी हमारे लिए सौगातों से भरी रहती. हाईस्कूल पास करने के बाद दादाजी ने मुझे घड़ी दी थी.

हम बड़े हुए तो पता चला कि दादाजी केवल पेंशन पर गुजारा करते हैं. हमारा मन कहता कि हमें अब उन से उपहार नहीं लेने चाहिए, लेकिन जब दादी हमारी मुट्ठियों में रुपए ठूंस देतीं तो हम इनकार न कर पाते. होस्टल जाते समय लड्डूमठरी के डब्बे साथ रखना दादी कभी न भूलतीं.

दोनों बहनों का कर्णछेदन एकसाथ हुआ तो दादी ने छोटेछोटे कर्णफूल अपने हाथ से हमारे कानों में पहनाए. और जब मेरी शादी पक्की हुई तो दादी हर्ष को देखने के लिए कितना तड़पीं. जब नहीं रहा गया तो मुझे बुला कर बोली थीं, ‘धरा बेटा, अपना दूल्हा मुझे नहीं दिखाएगी.’

‘अभी दिखाती हूं, दादी,’ कह कर एक छलांग में ऊपर पहुंच कर हर्ष का फोटो अलमारी से निकाल दादी की हथेली पर रख दिया था. दादी कभी मुझे तो कभी फोटो को देखतीं, जैसे दोनों का मिलान कर रही हों. फिर बोली, ‘हर्ष बहुत सुंदर है बिलकुल तेरे अनुरूप. दोनों में खूब निभेगी.’

मैं ने हर्ष को मोबाइल मिलाया और बोली, ‘हर्ष, दादी तुम से मिलना चाहती हैं, शाम तक पहुंचो.’

शाम को हर्ष दादी के पैर छू रहा था.

मेरी शादी मैरिज होम से हुई. शादी में पापा ने दादादादी को बुलाया नहीं तो वे गए भी नहीं. विवाह के बाद मैं अड़ गई कि मेरी विदाई घर से होगी. विवश हो मेरी बात उन्हें रखनी पड़ी. मुझे तो अपने दादाजी और दादी का आशीर्वाद लेना था. दुलहन वेश में उन्हें अपनी धरा को देखना था. उन से किया वादा कैसे टालती.

मेरी विदाई के समय दादाजी और दादी उसी प्रकार बाहरी दरवाजे पर खड़े थे जैसे स्कूल जाते समय खड़े रहते थे. मैं दौड़ कर दादी से लिपट गई. दादाजी के पांव छूने झुकी तो उन्होंने बीच में ही रोक कर गले से लगा लिया. दादी ने सोने का हार मेरी मुट्ठी में थमा दिया और सोने की एक गिन्नी हर्ष की मुट्ठी में.

जब भी मायके जाती, दादी से सौगात में मिले कभी रिंग, कभी टौप्स, कभी साड़ी मुट्ठी में दबाए लौटती. दादी ने मुझे ही नहीं तानी को भी खूब दिया. उन्होंने हम दोनों बहनों को कभी खाली हाथ नहीं आने दिया. कैसे आने देतीं, उन का मन प्यार से लबालब भरा था. वह खाली होना जानती ही न थीं. उन के पास जो कुछ अपना था सब हम पर लुटा रही थीं. मम्मीपापा देखते रह जाते. हम ने उन की बातों को कभी अहमियत नहीं दी, बल्कि मूक विरोध ही करते रहे.

‘‘अरे धरा, तुम अभी तक तैयार नहीं हुईं. अलमारी पकड़े  क्या सोच रही हो?’’ हर्ष बोले तो मैं जैसे सोते से जागी.

‘‘हर्ष, मेरी दादी चली गईं, मुट्ठी भरा प्यार चला गया. अब कौन मेरी और तुम्हारी मुट्ठियों में सौगात ठूंसेगा? कौन आशीर्वाद देगा? मैं दादी को निर्जीव कैसे देख पाऊंगी,’’ हर्ष के कंधे पर सिर रख कर रोने लगी.

मैं जब हर्ष के साथ वहां पहुंची तो लगभग सभी रिश्तेदार आ चुके थे. दादी के पास बूआजी तथा अन्य महिलाएं बैठी थीं. मैं बूआजी को देख लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते ही पूछा, ‘‘बूआजी, मम्मीपापा?’’

बूआजी ने ‘न’ में गरदन हिला दी. मैं दनदनाती हुई ऊपर जा पहुंची. मेरा रोदन क्षोभ और क्रोध बन कर फूट पड़ा, ‘‘आप दोनों को मम्मीपापा कहते हुए आज मुझे शर्म आ रही है. पापा, आप ने तो अपनी मां के दूध की इज्जत भी नहीं रखी. एक मां ने आप को 9 महीने अपनी कोख में रखा, आज उसी का ऋण आप चुका देते और मम्मी, जिस मां ने अपना कोख जाया आप के आंचल से बांध दिया, अपना भविष्य, अपनी उम्मीदें आप को सौंप दीं, उन्हीं के पुत्र के कारण आज आप मां का दरजा पा सकीं. एक औरत हो कर औरत का दिल नहीं समझ सकीं. आप आज भी उन्हीं के घर में रह रही हैं. कितने कृतघ्न हैं आप दोनों.

‘‘पापा, क्या आप अपनी देह से उस खून और मज्जा को नोच कर फेंक सकते हैं जो आप को उन्होंने दिया है. उन का दिया नाम आप ने आज तक क्यों नहीं मिटाया? आप की अपनी क्या पहचान है? यह देह भी उन्हीं के कारण धारण किए हुए हो. यदि आप अपना फर्ज नहीं निभाओगे तो क्या दादी यों ही पड़ी रहेंगी. आप सोचते होंगे कि इस घड़ी में दादाजी आप की खुशामद करेंगे. नहीं, उमंग भैया किस दिन काम आएंगे.

‘‘यदि आज आप दोनों ने अपना फर्ज पूरा नहीं किया तो इस भरे समाज में मैं आप का त्याग कर दूंगी और दादाजी को अपने साथ ले जाऊंगी’’

चौंक पडे़ दोनों. सोचने लगे, तो ऐसी नहीं थी, आज क्या हुआ इसे.

‘‘सुनो धरा, तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए था.’’

‘‘क्यों नहीं आती? मेरी दादी गई हैं. उन्हें अंतिम प्रणाम करने का मेरा अधिकार कोई नहीं छीन सकता. आप लोग भी नहीं.’’

‘‘होश में आओ, धरा.’’

‘‘अभी तक होश में नहीं थी पापा, आज पहली बार होश आया है, और अब सोना नहीं चाहती. आज उस मुट्ठी भर प्यार की कसम, आप दोनों नीचे आ रहे हैं या नहीं?’’

धारा की आवाज में चेतावनी की आग थी. विवश हो दोनों को नीचे जाना ही पड़ा.

एक प्रश्न लगातार

लेखक- सावित्री रांका

रजाई में मुंह लपेटे केतकी फोन की घंटी सुन तो रही थी पर रिसीवर उठाना नहीं चाहती थी सो नींद का बहाना कर के पड़ी रही. बाथरूम का नल बंद कर रोहिणी ने फोन उठाया रिसीवर रखने की आवाज सुनते ही जैसे केतकी की नींद खुल गई हो, ‘‘किस का फोन था, ममा?’’

‘‘कमला मौसी का.’’

यह नाम सुनते ही केतकी की मुख- मुद्रा बिगड़ गई.

रोहिणी जानती है कि कमला का फोन करना, घर आना बेटी को पसंद नहीं. उस की स्वतंत्रता पर अंकुश जो लग जाता है.

‘‘आने की खबर दी होगी मौसी ने?’’

‘‘कालिज 15 तारीख से बंद हो रहे हैं, एक बार तो हम सब से मिलने आएगी ही.’’

‘‘ममा, 10 तारीख को हम लोग पिकनिक पर जा रहे हैं. मौसी को मत बताना, नहीं तो वह पहले ही आ धमकेंगी.’’

‘‘केतकी, मौसी के लिए इतनी कड़वाहट क्यों?’’

‘‘मेरी जिंदगी में दखल क्यों देती हैं?’’

‘‘तुम्हारी भलाई के लिए.’’

‘‘ममा, मेरे बारे में उन्हें कुछ भी मत बताना,’’ और वह मां के गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘तुम जानती हो केतकी, तुम्हारी मौसी कालिज की प्रिंसिपल है. उड़ती चिडि़या के पंख पहचानती है.’’

‘अजीब समस्या है, जो काम ये लोग खुद नहीं कर पाते मौसी को आगे कर देते हैं. इस बार मैं भी देख लूंगी. होंगी ममा की लाडली बहन. मेरे लिए तो मुसीबत ही हैं और जब मुसीबत घर में ही हो तो क्या किया जाए, केतकी मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘पापा भी साली साहिबा का कितना ध्यान रखते हैं. वैसे जब भी आती हैं मेरी खुशामदों में ही लगी रहती हैं. मुझे लुभाने के लिए क्या बढि़याबढि़या उपहार लाती हैं,’ और मुंह टेढ़ा कर के केतकी हंस दी.

‘‘अकेले क्या भुनभुना रही हो, बिटिया?’’

‘‘मैं तो गुनगुना रही थी, ममा.’’

मातापिता के स्नेह तले पलतीबढ़ती केतकी ने कभी किसी अभाव का अनुभव नहीं किया था. मां ने उस की आजादी पर कोई रोक नहीं लगाई थी. पिता अधिकाधिक छूट देने में ही विश्वास करते थे, ऐसे में क्या बिसात थी मौसी की जो केतकी की ओर तिरछी आंख से देख भी सकें.

इस बार गरमियों की छुट्टियों में वह मां के साथ लखनऊ  जाएंगी. मौसी ने नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना रखा था. कालिज में अवकाश होते ही तीनों रोमांचक यात्रा पर निकल गईं. रोहिणी और कमला के जीवन का केंद्र यह चंचल बाला ही थी.

नैनी के रोमांचक पर्वतीय स्थल और वहां के मनोहारी दृश्य सभी कुछ केतकी को अपूर्व लग रहे थे.

‘‘ममा, आज मौसी बिलकुल आप जैसी लग रही हैं.’’

‘‘मेरी बहन है, मुझ जैसी नहीं लगेगी क्या?’’

इस बीच कमला भी आ बैठी. और बोली, ‘‘क्या गुफ्तगू चल रही है मांबेटी में?’’

‘‘केतकी तुम्हारी ही बात कर रही थी.’’

‘‘क्या कह रही हो बिटिया, मुझ से कहो न?’’ कमला केतकी की ओर देख कर बोली.

‘‘मौसी, यहां आ कर आप प्रिंसिपल तो लगती ही नहीं हो.’’

सुन कर दोनों बहनें हंस दीं.

‘‘इस लबादे को उतार सकूं इसीलिए तो तुम्हें ले कर यहां आई हूं.’’

‘‘आप हमेशा ऐसे ही रहा करें न मौसी.’’

‘‘कोशिश करूंगी, बिटिया.’’

खामोश कमला सोचने लगी कि यह लड़की कितनी उन्मुक्त है. केतकी की कही गई भोली बातें बारबार मुझे अतीत की ओर खींच रही थीं. कैसा स्वच्छंद जीवन था मेरा. सब को उंगलियों पर नचाने की कला मैं जानती थी. फिर ऐसा क्या हुआ कि शस्त्र सी मजबूत मेरे जैसी युवती कचनार की कली सी नाजुक बन गई.

सच, कैसी है यह जिंदगी. रेलगाड़ी की तरह तेज रफ्तार से आगे बढ़ती रहती है. संयोगवियोग, घटनाएंदुर्घटनाएं घटती रहती हैं, पर जीवन कभी नहीं ठहरता. चाहेअनचाहे कुछ घटनाएं ऐसी भी घट जाती हैं जो अंतिम सांस तक पीछा करती हैं, भुलाए नहीं भूलतीं और कभीकभी तो जीवन की बलि भी ले लेती हैं.

अच्छा घरवर देख कर कमला के  मातापिता उस का विवाह कर देना चाहते थे पर एम.ए. में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने पर स्कालरशिप क्या मिली, उस के तो मानो पंख ही निकल आए. पीएच.डी. करने की बलवती इच्छा कमला को लखनऊ खींच लाई. यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर मुकेश वर्मा के निर्देशन में रिसर्च का काम शुरू किया. 2 साल तक गुरु और शिष्या खूब मेहनत से काम करते रहे. तीसरे साल में दोनों ही काम समाप्त कर थीसिस सबमिट कर देना चाहते थे.

‘कमला, इस बार गरमियों की छुट्टियों में मैं कोलकाता नहीं जा रहा हूं. चाहता हूं, कुछ अधिक समय लगा कर तुम्हारी थीसिस पूरी करवा दूं.’

‘सर, अंधा क्या चाहे दो आंखें. मैं भी यही चाहती हूं.’

थीसिस पूरी करने की धुन में कमला सुबह से शाम तक लगी रहती. कभीकभी काम में इतनी मग्न हो जाती कि उसे समय का एहसास ही नहीं होता और रात हो जाती. साथ खाते तो दोनों में हंसीमजाक की बातें भी चलती रहतीं. रिश्तों की परिभाषा धीरेधीरे नया रूप लेने लगी थी. प्रो. वर्मा अविवाहित थे. कमला को विवाह का आश्वासन दे उन्होंने उसे भविष्य की आशाओं से बांध लिया. धीरेधीरे संकोच की सीमाएं टूटने लगीं.

‘कितना मधुर रहा हमारा यह ग्रीष्मावकाश, समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.’

‘अवकाश समाप्त होते ही मैं अपनी थीसिस प्रस्तुत करने की स्थिति में हूं.’

‘हां, कमला, ऐसा ही होगा. मेरे विभाग में स्थान रिक्त होते ही तुम्हारी नियुक्ति मैं यहीं करवा लूंगा, फिर अब तो तुम्हें रहना भी मेरे साथ ही है.’

इन बातों से मन के एकांतिक कोनों में रोमांस के फूल खिल उठते थे. जीवन का सर्वथा नया अध्याय लिखा जा रहा था.

‘तुम्हारी थीसिस सबमिट हो जाए तो मैं कुछ दिन के लिए कोलकाता जाना चाहता हूं.’

‘नहीं, मुकेश, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूंगी.’

‘अरी पगली, परिवार में तुम्हारे शुभागमन की सूचना तो मुझे देनी होगी न.’

‘सच कह रहे हो?’

‘क्यों नहीं कहूंगा?’

‘मुकेश, किस जन्म के पुण्यों का प्रतिफल है तुम्हारा साथ.’

‘तुम भी कुछ दिन के लिए घर हो आओ, ठीक रहेगा.’

परिवार में कमला का स्वागत गर्मजोशी से हुआ. पहले दिन वह दिन भर सोई. मां ने सोचा बेटी थकान उतार रही है. फिर भी उन्हें कुछ ठीक नहीं लग रहा था. अनुभवी आंखें बेटी की स्थिति ताड़ रही थीं. एक सप्ताह बीता, मां ने डाक्टर को दिखाने की बात उठाई तो कमला ने खुद ही खुलासा कर दिया.

‘विवाह से पहले शारीरिक संबंध… बेटी, समाज क्या सोचेगा?’

‘मां, आप चिंता न करें. हम दोनों शीघ्र ही विवाह करने वाले हैं. वैसे मुझे लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप भी मिल गई है. मुकेश भी वहीं प्रोफेसर हैं. मैं आज ही फोन से बात करूंगी.’

‘जरूर करना बेटी. समय पर विवाह हो जाए तो लोकलाज बच जाएगी.’

कमला ने 1 नहीं, 2 नहीं कम से कम 10 बार नंबर डायल किए, पर हर बार रांग नंबर ही सुनना पड़ा. वह बहुत दिनों तक आशा से बंधी रही. समय बीतता जा रहा था. उस की घबराहट बढ़ती जा रही थी. बड़ी बहन रोहिणी भी चिंतित थी. वह उसे अपने साथ पटना ले आई. नर्सिंग होम में भरती करने के दूसरे दिन ही उस ने एक कन्या को जन्म दिया. पर वह कमला की नहीं रोहिणी की बेटी कहलाई. सब ने यही जाना, यही समझा. इस तरह समस्या का निराकरण हो गया था. मन और शरीर से टूटी विवश कमला ड्यूटी पर लौट आई.

निसंतान रोहिणी को विवाह के 15 वर्ष बाद संतान सुख प्राप्त हुआ था. उस का आंगन खुशियों से महक उठा. बहुत प्रसन्न थी वह. कमला की पीड़ा भी वह समझती थी. सबकुछ भूल कर वह विवाह कर ले, अपनी दुनिया नए सिरे से बसा ले, यही चाहती थी वह. सभी ने बहुत प्रयत्न किए पर सफल नहीं हो पाए.

अवकाश समाप्त होने के कई महीनों बाद भी मुकेश नहीं लौटा था. बाद में उस के नेपाल में सेटिल होने की बात कमला ने सुनी थी. उस दिन वह बहुत रोई थी, पछताई थी अपनी भावुकता पर. आवेश में पुरुष मानसिकता को लांछित करती तो स्वयं भी लांछित होती. अत: जीवन को पुस्तकालय ही हंसतीबोलती दुनिया में तिरोहित कर दिया.

कभी अवकाश में दीदी के पास चली जाती, पर केतकी ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी उसे मौसी का आना अखरने लगा था. वह देखती, समाज की वर्जनाओं की परवा न कर के जीजाजीजी ने बिटिया को पूरी छूट दे रखी है. आधुनिक पोशाकें डिस्को, ब्यूटीपार्लर, सिनेमा, थियेटर कहीं कोई रोकटोक नहीं थी. इतना सब होने पर भी वे बेटी का मुंह जोहते, कहीं किसी बात से राजकुमारी नाराज तो नहीं.

‘‘इस बार जन्मदिन पर मुझे कार चाहिए, पापा,’’ बेटी के साहस पर चकित थी रोहिणी. मन ही मन वह जानती थी कि जिस शक्ति का यह अंश है, संसार को उंगली पर नचाने की ऐसी ही क्षमता उस में भी थी. युवा होती केतकी के व्यवहार में रोहिणी को कमला की झलक दिखाई देती.

ऐसी ही हठी थी वह भी. मनमाना करने को छटपटाती रहती. हठ कर के लखनऊ चली आई. बेटी को त्यागने का निश्चय एक बार कर लिया तो कर ही लिया. पर आंख से ही दूर किया है, मन से कैसे हटा सकती है. अभी इस के एम.बी.बी.एस. पूरा करने में 2 वर्ष बाकी हैं. पर अभी से अच्छे जीवनसाथी की तलाश में जुटी हुई है. कैसे समझाऊं कमला को? कब तक छिपाए रखेंगे हम यह सबकुछ. एक न एक दिन तो वह जान ही जाएगी सब. सहसा केतकी के आगमन से उस के विचारों की शृंखला टूटी.

‘‘ममा, आप मेरे बारे में हर बात की राय मौसी से क्यों लेती हैं? माना वह कालिज में पढ़ाती हैं पर मैं जानती हूं कि वह आप से ज्यादा समझदार नहीं हैं.’’

‘‘मां को फुसलाने का यह बढि़या तरीका है.’’

‘‘नहीं, ममा, मैं सच कहती हूं. वह आप जैसी हो ही नहीं सकतीं. आप के साथ कितना अच्छा लगता है. और मौसी तो आते ही मुझे डिस्पिलिन की रस्सियों से बांधने की चेष्टा करने लगती हैं.’’

‘‘केतकी, कमला मुझे तुम्हारे समान ही प्रिय है. मेरी छोटी बहन है वह.’’

‘‘आप की बहन हैं, ठीक है पर मेरी जिंदगी के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं?’’

‘‘बिटिया सोचसमझ कर बोला कर. मौसी का अर्थ होता है मां सी.’’

‘‘सौरी, ममा, इस बार आप की बहन को मैं भी खुश रखूंगी.’’

वातावरण हलका हो गया था.

आज मौसम बहुत सुहाना था. लौन की हरी घास कुछ ज्यादा ही गहरी हरी लग रही थी. सफेद मोतियों से चमकते मोगरे के फूल चारों ओर हलकीहलकी मादक सुगंध बिखेर रहे थे. सड़क को आच्छादित कर गुलमोहर के पेड़ फूलों की वर्षा से अपनी मस्ती का इजहार कर रहे थे. प्रकृति का शीतल सान्निध्य पा कर कमला की मानसिक बेचैनी समाप्त हो गई थी. चाय की प्यालियां लिए रोहिणी पास आ बैठी.

‘‘क्या सोच रही हो, कमला?’’

‘‘कुछ नहीं, दीदी, ऊपर देखो, सफेद बगलों का जोड़ा कितनी तेजी से भागा जा रहा है.’’

‘‘अपने गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी है इन को. क्या तुम नहीं जानतीं कि संध्या ढल रही है और शिशु नीड़ों से झांक रहे होंगे,’’ इतना कह कर रोहिणी खिलखिला दी.

‘‘जानती हूं दीदी, लेकिन जिस का कोई गंतव्य ही न हो वह कहां जाए? किनारे के लिए भटकती लहरों की तरह मंझधार में ही मिट जाना उस की नियति होती होगी.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, कमला. तुम्हारा वर्तमान तुम्हारा गंतव्य है. चाहो तो अब भी बदल सकती हो इस नियति को.’’

‘‘नहीं, दीदी, मुक्त आकाश ही मेरा गंतव्य है, अब तो यही अच्छा लगता है मुझे.’’

कमला एकदम सावधान हो गई. पिछले कई महीनों से जीजाजी विवाह के लिए जोर डाल रहे हैं. मस्तिष्क में विचार गड्डमड्ड होने लगे. जीजी, आज फिर उस बैंक मैनेजर का किस्सा ले बैठेंगी. जीवन के सुनिश्चित मोड़ पर मिला साथी जब छल कर जाए तो कैसा कसैला हो जाता है संपूर्ण अस्तित्व.

‘‘केतकी को देखती हूं तो अविश्वास का अंधकार मेरे चारों ओर लिपट जाता है. इस मासूम का क्या अपराध? जीजी, तुम्हारा दिल कितना बड़ा है. मेरे जीवन की आशंका को तुम ने अपनी आशा बना लिया. मुकेश की सशक्त बांहों के आश्रय में कितना कुछ सहेज लिया था मैं ने, पर मुट्ठी से झरती रेत की तरह सब बह गया.’’

रात की कालिमा पंख फैलाने लगी थी. कमला के जेहन में बीती घटनाएं केंचुओं की तरह जिस्म को काटती हुई रेंग रही थीं. कैसेकैसे आश्वासन दिए थे मुकेश ने. प्रगतिशील पुरुष का प्रतिबिंब उस का व्यक्तित्व जैसे ‘डिसीव’ शब्द ही नहीं जानता था. मेरी आशंकाओं को निर्मल करने के लिए अपने स्तर पर वह इस शब्द का अस्तित्व ही मिटा देना चाहता था. अंत में क्या हुआ. दोहरे व्यक्तित्व का नकाबपोश. बहुत देर तक रोती रही कमला.

कभी अनजाने में ही मुकेश की उपस्थिति कमला के आसपास मंडराने लगती. तब वह बहुत बेचैन हो जाती, जैसे कोई खूनी शेर तीखे पंजों से उस के कोमल शरीर को नोच रहा हो. सबकुछ बोझिल और उदास लगने लगता. दुनिया को पैनी निगाहों से परखने वाली कमला सोचती, इस संसार में चारों ओर कितना सुख बिखरा है पर दुख की भी तो कमी नहीं है. ऐसे में कवि पंत की ये पंक्तियां वह अकसर गुनगुनाने लगती : ‘जग पीडि़त है अति सुख से जग पीडि़त है अति दुख से.

मानव जग में बंट जाए सुख दुख से, दुख सुख से.’

अंधकार बढ़ रहा था, वातावरण पूरी तरह से नीरव था. कमला बुदबुदा रही थी, अपने ही शब्द सुन रही थी. केतकी को क्या समझूं एक दिन के लिए भी मैं इसे अपना न कह सकी. दीदी सहारा न देतीं तो इस उपेक्षित बाला का भविष्य क्या होता? कितनी खुश है यहां. यह तो उन्हें ही वास्तविक मातापिता समझती है.

एम.बी.बी.एस. की परीक्षा केतकी ने स्वर्णपदक के साथ उत्तीर्ण की. हर बात की टोह रखने वाली कमला अगले ही दिन पटना पहुंच गई. केतकी हैरान रह गई.

‘‘ममा, यह आप ने क्या किया? कल रिजल्ट आया और आज आप ने मौसी को बुला भी लिया.’’

‘‘तुम्हारी पीठ ठोकने चली आई. उसे कैसे रोकती मैं.’’

कमला ने केतकी को हृदय से लगा लिया. मौसी की आंखों में अपने लिए आंसू देख कर वह चकित थी.

‘‘यह क्या? आप रो रही हैं?’’

‘‘पगली, खुशी के भी आंसू होते हैं. होते हैं न?’’ गाल को उंगली से छू कर कहा कमला ने, ‘‘मैं तुम्हें ताज में पार्टी दूंगी बिटिया. तुम अपने दोस्तों को भी खबर कर दो. मैं उन सब से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘सच मौसी, आप को अच्छा लगेगा?’’

‘‘क्यों नहीं? मेरी लाडली अब डाक्टर है, अबोध बच्ची नहीं.’’

कमला बहुत खुश थी. पार्टी चल रही थी. बहुत से जोडे़ हंस रहे थे. आपस में बतिया रहे थे. उसी दिन कमला ने देखा केतकी और कुणाल के हावभाव में झलकता निच्छल अनुराग.’’

‘‘कमला, केतकी और कुणाल के संबंधों की बात मैं खुद ही तुम्हें बताना चाहती थी पर कह न पाई,’’ रोहिणी बोली, अब तुम ने सब देख लिया है. अच्छा हो इस बार यह संबंध तय कर के जाओ.

‘‘जीजी, यह अधिकार आप का है.’’

‘‘तुम्हारी स्वीकृति आवश्यक है.’’

‘‘दीदी, कुणाल को मैं जानती हूं. मेरी क्लासमेट अनुराधा का बेटा है वह, बहुत भला और संस्कारी परिवार है. आप कहें तो कल अनु को बुला लूं.’’

‘‘क्यों नहीं, मैं तुम्हारे चेहरे पर खुशी की रेखा देखना चाहती हूं.’’

कमला ने कालिज से एक माह का अवकाश ले लिया था. विवाह खूब धूमधाम से संपन्न हुआ. कमला लखनऊ लौट गई. अपने कमरे के एकांत में वर्षों बाद उस ने मुकेश का नाम लिया था पर लगा जैसे चारों ओर कड़वाहट फैल गई हो. चाहत में डुबो कर तुम ने मुझे छला मुकेश और तुम्हारे राज को मैं ने 24 वर्ष तक हृदय की कंदरा में छिपाए रखा. मैं केतकी को तुम्हारी बेटी कभी नहीं कहूंगी. तुम इस योग्य हो भी नहीं. पता नहीं रिसर्च और सर्विस का झांसा दे कर तुम ने मेरे जैसी कितनी अबोध युवतियों के साथ यह खेल खेला होगा. बेटी के सुखी भविष्य के लिए मैं उसे तुम्हारा नाम नहीं बताऊंगी.

‘‘ममा, मौसी का फोन है.’’

‘‘दीदी, मैं कल ही कालिज का ट्रिप ले कर कुल्लूमनाली जा रही हूं. 10 दिन का टूर है. हां, केतकी कैसी है?’’

‘‘दोनों बहुत खुश हैं. तुम अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ठीक है, जीजी,’’ कह कर कमला फोन पर खिलखिला कर हंसी थी. रोहिणी को लगा कि बेटी का घर बस जाने की खुशी थी यह.

नियत तिथि पर टूर समाप्त हुआ. केतकी के लिए ढेरों उपहार देख रोहिणी चकित थी कि हर समय इस के दिल में केतकी बसी रहती है.

अवकाश समाप्त होने में अभी 10 दिन शेष थे. कमला दीदी और केतकी के साथ घर पर रहने के मूड में थी. पर आने के 2 दिन बाद ही कमला को ज्वर हो आया. डा. केतकी ने दिनरात परिचर्या की. कोई सुधार होता न देख कर दूसरे डाक्टर साथियों से भी सहायता ली उस ने.

‘‘जीजी, लगता है अब यह ज्वर नहीं जाएगा. मेरा अंत आ पहुंचा है.’’

‘‘ऐसा मत कहो, कमला. अभी तुम्हें केतकी के लिए बहुत कुछ करना है.’’

‘‘समय क्या किसी के रोके रुका है, जो मैं उसे रोक लूंगी. दीदी, केतकी को बुला दीजिए.’’

‘‘वह तो यहीं बैठी है तुम्हारे पास.’’

‘‘बेटी, यह जरूरी कागज हैं तुम्हारे और कुणाल के लिए. इन्हें संभाल कर रख लेना.’’

‘‘यह क्या हो रहा है ममा? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘कमला, केतकी कुछ जानना चाहती है.’’

‘‘जीजी, आप सब जानती हैं, जितना ठीक समझो बता देना. मेरे पास अब समय नहीं है.’’

कमला ने अंतिम सांस ली. तड़प उठी केतकी. पहली बार रोई थी वह उस अभागी मां के लिए, जो जीवन रहते बेटी को बेटी कह कर छाती से न लगा सकी.   द्य

चिंता की कोई बात नहीं

लेखक- प्रतिमा डिके

औसत से कुछ अधिक ही रूप, औसत से कुछ अधिक ही गुण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा, अच्छी नौकरी, अच्छा पैसा, मनपसंद पत्नी, समझदार, स्वस्थ और प्यारे बच्चे, शहर में अपना मकान.

अब बताइए, जिसे सुख कहते हैं वह इस से अधिक या इस से अच्छा क्याक्या हो सकता है? यानी मेरी सुख की या सुखी जीवन की अपेक्षाएं इस से अधिक कभी थीं ही नहीं. लेकिन 6 माह पूर्व मेरे घर का सुखचैन मानो छिन गया.

सुकांता यानी मेरी पत्नी, अपने मायके में क्या पत्र लिखती, मुझे नहीं पता. लेकिन उस के मायके से जो पत्र आने लगे थे उन में उस की बेचारगी पर बारबार चिंता व्यक्त की जाने लगी थी. जैसे :

‘‘घर का काम बेचारी अकेली औरत  करे तो कैसे और कहां तक?’’

‘‘बेचारी सुकांता को इतना तक लिखने की फुरसत नहीं मिल रही है कि राजीखुशी हूं.’’

‘‘इन दिनों क्या तबीयत ठीक नहीं है? चेहरे पर रौनक ही नहीं रही…’’ आदि.

शुरूशुरू में मैं ने उस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया. मायके वाले अपनी बेटी की चिंता करते हैं, एक स्वाभाविक बात है. यह मान कर मैं चुप रहा. लेकिन जब देखो तब सुकांता भी ताने देने लगी, ‘‘प्रवीणजी को देखो, घर की सारी खरीदफरोख्त अकेले ही कर लेते हैं. उन की पत्नी को तो कुछ भी नहीं देखना पड़ता…शशिकांतजी की पसंद कितनी अच्छी है. क्या गजब की चीजें लाते हैं. माल सस्ता भी होता है और अच्छा भी.’’

कई बार तो वह वाक्य पूरा भी नहीं करती. बस, उस के गरदन झटकने के अंदाज से ही सारी बातें स्पष्ट हो जातीं.

सच तो यह है कि उस की इसी अदा पर मैं शुरू में मरता था. नईनई शादी  हुई थी. तब वह कभी पड़ोसिन से कहती, ‘‘क्या बताऊं, बहन, इन्हें तो घर के काम में जरा भी रुचि नहीं है. एक तिनका तक उठा कर नहीं रखते इधर से उधर.’’ तो मैं खुश हो जाता. यह मान कर कि वह मेरी प्रशंसा कर रही है.

लेकिन जब धीरेधीरे यह चित्र बदलता गया. बातबात पर घर में चखचख होने लगी. सुकांता मुझे समझने और मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं थी. फिर तो नौबत यहां तक आ गई कि मेरा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ाने लगा.

अब आप ही बताइए, जो काम मेरे बस का ही नहीं है उसे मैं क्यों और कैसे करूं? हमारे घर के आसपास खुली जगह है. वहां बगीचा बना है. बगीचे की देखभाल के लिए बाकायदा माली रखा हुआ है. वह उस की देखभाल अच्छी तरह से करता है. मौसम में उगने वाली सागभाजी और फूल जबतब बगीचे से आते रहते हैं.

लेकिन मैं बालटी में पानी भर कर पौधे नहीं सींचता, यही सुकांता की शिकायत है, वह चाहे बगीचे में काम न करे. लेकिन हमारे पड़ोसी सुधाकरजी बगीचे में पूरे समय खुरपी ले कर काम करते हैं. इसलिए सुकांता चाहती है कि मैं भी बगीचे में काम करूं.

मुझे तो शक है कि सुधाकरजी के दादा और परदादा तक खेतिहर मजदूर रहे होंगे. एक बात और है, सुधाकरजी लगातार कई सिगरेट पीने के आदी हैं. खुरपी के साथसाथ उन के हाथ में सिगरेट भी होती है. मैं तंबाकू तो क्या सुपारी तक नहीं खाता. लेकिन सुकांता इन बातों को अनदेखा कर देती है.

शशिकांत की पसंद अच्छी है, मैं भी मानता हूं. लेकिन उन की और भी कई पसंद हैं, जैसे पत्नी के अलावा उन के और भी कई स्त्रियों से संबंध हैं. यह बात भी तो लोग कहते ही हैं.

लेदे कर सुकांता को बस, यही शिकायत है, ‘‘यह तो बस, घर के काम में जरा भी ध्यान नहीं देते, जब देखो, बैठ जाएंगे पुस्तक ले कर.’’

कई बार मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन वह समझने को तैयार ही नहीं. मैं मुक्त मन से घर में पसर कर बैठूं तो उसे अच्छा नहीं लगता. दिन भर दफ्तर में कुरसी पर बैठेबैठे अकड़ जाता हूं. अपने घर में आ कर क्या सुस्ता भी नहीं सकता? मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ने पर, मेरे द्वारा शास्त्रीय संगीत सुनने पर उसे आपत्ति है. इन्हीं बातों से घर में तनाव रहने लगा है.

ऐसे ही एक दिन शाम को सुकांता किसी सहेली के घर गई थी. मैं दफ्तर से लौट कर अपनी कमीज के बटन टांक रहा था. 10 बार मैं ने उस से कहा था लेकिन उस ने नहीं किया तो बस, नहीं किया. मैं बटन टांक रहा था कि सुकांता की खास सहेली अपने पति के साथ हमारे घर आई.

पर शायद आप पूछें कि यह खास सखी कौन होती है? सच बताऊं, यह बात अभी तक मेरी समझ में भी नहीं आई है. हर स्त्री की खास सखी कैसे हो जाती है? और अगर वह खास सखी होती है तो अपनी सखी की बुराई ढूंढ़ने में, और उस की बुराई करने में ही उसे क्यों आनंद आता है? खैर, जो भी हो, इस खास सखी के पति का नाम भी सुकांता की आदर्श पतियों की सूची में बहुत ऊंचे स्थान पर है. वह पत्नी के हर काम में मदद करते हैं. ऐसा सुकांता कहती है.

मुझे बटन टांकते देख कर खास सखी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘हाय राम, आप खुद अपने कपड़ों की मरम्मत करते हैं? हमें तो अपने साहब को रोज पहनने के कपड़े तक हाथ में देने पड़ते हैं. वरना यह तो अलमारी के सभी कपड़े फैला देते हैं कि बस.’’

सराहना मिश्रित स्वर में खास सखी का उलाहना था. मतलब यह कि मेरे काम की सराहना और अपने पति को उलाहना था. और बस, यही वह क्षण था जब मुझे अलीबाबा का गुफा खोलने वाला मंत्र, ‘खुल जा सिमसिम’ मिल गया.

मैं ने बड़े ही चाव और आदर से खास सखी और उस के पति को बैठाया. और फिर जैसे हमेशा ही मैं वस्त्र में बटन टांकने का काम करता आया हूं, इस अंदाज से हाथ का काम पूरा किया. कमीज को बाकायदा तह कर रखा और झट से चाय बना लाया.

सच तो यह है कि चाय मैं ने नौकर से बनवाई थी और उसे पिछले दरवाजे से बाहर भेज दिया था. खास सखी और उस के पति ‘अरे, अरे, आप क्यों तकलीफ करते हैं?’ आदि कहते ही रह गए.

चाय बहुत बढि़या बनी थी, केतली पर टिकोजी विराजमान थी. प्लेट में मीठे बिस्कुट और नमकीन थी. इस सारे तामझाम का नतीजा भी तुरंत सामने आया. खास सखी के चेहरे पर मेरे लिए अदा से श्रद्धा के भाव उमड़ते साफ देखे जा सकते थे. खास सखी के पति का चेहरा बुझ गया.

मैं मन ही मन खुश था. इन्हीं साहब की तारीफ सुकांता ने कई बार मेरे सामने की थी. तब मैं जलभुन गया था, आज मुझे बदला लेने का पूरापूरा सुख मिला.

कुछ दिन बाद ही सुकांता महिलाओं की किसी पार्टी से लौटी तो बेहद गुस्से में थी. आते ही बिफर कर बोली, ‘‘क्यों जी? उस दिन मेरी सहेली के सामने तुम्हें अपने कपड़ों की मरम्मत करने की क्या जरूरत थी? मैं करती नहीं हूं तुम्हारे काम?’’

‘‘कौन कहता है, प्रिये? तुम ही तो मेरे सारे काम करती हो. उस दिन तो मैं यों ही जरा बटन टांक रहा था कि तुम्हारी खास सहेली आ धमकी मेरे सामने. मैं ने थोड़े ही उस के सामने…’’

‘‘बस, बस. मुझे कुछ नहीं सुनना…’’

गुस्से में पैर पटकती हुई वह अपने कमरे में चली गई. बाद में पता चला कि भरी पार्टी में खास सखी ने सुकांता से कहा था कि उसे कितना अच्छा पति मिला है. ढेर सारे कपड़ों की मरम्मत करता है. बढि़या चाय बनाता है. बातचीत में भी कितना शालीन और शिष्ट है. कहां तो सात जनम तक व्रत रख कर भी ऐसे पति नहीं मिलते, और एक सुकांता है कि पूरे समय पति को कोसती रहती है.

अब देखिए, मैं ने तो सिर्फ एक ही कमीज में 2 बटन टांके थे, लेकिन खास सखी ने ढे…र सारे कपड़े कर दिए तो मैं क्या कर सकता हूं? समझाने गया तो सुकांता और भी भड़क गई. चुप रहा तो और बिफर गई. समझ नहीं पाया कि क्या करूं.

सुकांता का गुस्सा सातवें आसमान पर था. वह बच्चों को ले कर सीधी मायके चली गई. मैं ने सोचा कि 15 दिन में तो आ ही जाएगी. चलो, उस का गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा. घर में जो तनाव बढ़ रहा था वह भी खत्म हो जाएगा. लेकिन 1 महीना पूरा हो गया. 10 दिन और बीत गए, तब पत्नी की और बच्चों की बहुत याद आने लगी.

सच कहता हूं, मेरी पत्नी बहुत अच्छी है. इतने दिनों तक हमारी गृहस्थी की गाड़ी कितने सुचारु रूप से चल रही थी, लेकिन न जाने यह नया भूत कैसे सुकांता पर सवार हुआ कि बस, एक ही रट लगाए बैठी है कि यह घर में बिलकुल काम नहीं करते. बैठ जाते हैं पुस्तक ले कर, बैठ जाते हैं रेडियो खोल कर.

अब आप ही बताइए, हफ्ते में एक बार सब्जी लाना क्या काफी नहीं है? काफी सब्जी तो बगीचे से ही मिल जाती है. जो घर पर नहीं है वह बाजार से आ जाती है. और रोजरोज अगर सब्जी मंडी में धक्के खाने हों तो घर में फ्रिज किसलिए रखा है?

लेकिन नहीं, वरुणजी झोला ले कर मंडी जाते हैं, तो मैं भी जाऊं. अब वरुणजी का घर 2 कमरों का है. आसपास एक गमला तक रखने की जगह नहीं है. घर में फ्रिज नहीं है, इसलिए मजबूरी में जाते हैं. लेकिन मेरी तुलना वरुणजी से करने की क्या तुक है?

बच्चे हमारे समझदार हैं. पढ़ने में भी अच्छे हैं, लेकिन सुकांता को शिकायत है कि मैं बच्चों को पढ़ाता ही नहीं. सुकांता की जिद पर बच्चों को हम ने कानवेंट स्कूल में डाला. सुकांता खुद अंगरेजी के 4 वाक्य भी नहीं बोल पाती. बच्चों की अंगरेजी तोप के आगे उस की बोलती बंद हो जाती है.

यदाकदा कोई कठिनाई हो तो बच्चे मुझ से पूछ भी लेते हैं. फिर बच्चों को पढ़ाना आसान काम नहीं है. नहीं तो मैं अफसर बनने के बजाय अध्यापक ही बन जाता. अपना अज्ञान बच्चों पर प्रकट न हो इसीलिए मैं उन की पढ़ाई से दूर ही रहता हूं. शायद इसीलिए उन के मन में मेरे लिए आदर भी है. लेकिन शकीलजी अपने बच्चों को पढ़ाते हैं. रोज पढ़ाते हैं तो बस, सुकांता का कहना है मैं भी बच्चों को पढ़ाऊं.

पूरे डेढ़ महीने बाद सुकांता का पत्र आया. फलां दिन, फलां गाड़ी से आ रही हूं. साथ में छोटी बहन और उस के पति भी 7-8 दिन के लिए आ रहे हैं.

मैं तो जैसे मौका ही देख रहा था. फटाफट मैं ने घर का सारा सामान देखा. किराने की सूची बनाई. सामान लाया. महरी से रसोईघर की सफाई करवाई. डब्बे धुलवाए. सामान बिनवा कर, चुनवा कर डब्बों में भर दिया.

2 दिन का अवकाश ले कर माली और महरी की मदद से घर और बगीचे की, कोनेकोने तक की सफाई करवाई. दीवान की चादरें बदलीं. परदे धुलवा दिए. पलंग पर बिछाने वाली चादरें और तकिए के गिलाफ धुलवा लिए. हाथ पोंछने के छोटे तौलिए तक साफ धुले लगे थे. फ्रिज में इतनी सब्जियां ला कर रख दीं जो 10 दिन तक चलतीं. 2-3 तरह का नाश्ता बाजार से मंगवा कर रखा, दूध जालीदार अलमारी में गरम किया हुआ रखा था. फूलों के गुलदस्ते बैठक में और खाने की मेज पर महक रहे थे.

इतनी तैयारी के बाद मैं समय से स्टेशन पहुंचा. गाड़ी भी समय पर आई. बच्चों का, पत्नी का, साली का, उस के पति का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया. रास्ते में सुकांता ने पूछा, (स्वर में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं था) ‘‘क्यों जी, महरी तो आ रही थी न, काम करने?’’

मैं ने संक्षिप्त में सिर्फ ‘हां’ कहा.

बहन की तरफ देख कर (उसी रूखे स्वर में) वह फिर बोली, ‘‘डेढ़ महीने से मैं घर पर नहीं थी. पता नहीं इतने दिनों में क्या हालत हुई होगी घर की? ठीकठाक करने में ही पूरे 3-4 दिन लग जाएंगे.’’

मैं बिलकुल चुप रहा. रास्ते भर सुकांता वही पुराना राग अलापती रही, ‘‘इन को तो काम आता ही नहीं. फलाने को देखो, ढिकाने को देखो’’ आदि.

लेकिन घर की व्यवस्था देख कर सुकांता की बोलती ही बंद हो गई. आगे के 7-8 दिन मैं अभ्यस्त मुद्रा में काम करता रहा जैसे सुकांता कभी इस घर में रहती ही नहीं थी. छोटी साली और उस के पति इस कदर प्रभावित थे कि जातेजाते सालीजी ने दीदी से कह दिया, ‘‘दीदी, तुम तो बिना वजह जीजाजी को कोसती रहती हो. कितना तो बेचारे काम करते हैं.’’

सालीजी की विदाई के बाद सुकांता चुप तो हो गई थी. लेकिन फिर भी भुनभुनाने के लहजे में उस के कुछ वाक्यांश कानों में आ ही जाते. इसी समय मेरी बूआजी का पत्र आया. वह तीर्थयात्रा पर निकली हैं और रास्ते में मेरे पास 4 दिन रुकेंगी.

मेरी बूआजी देखने और सुनने लायक चीज हैं. उम्र 75 वर्ष. कदकाठी अभी भी मजबूत. मुंह के सारे के सारे दांत अभी भी हैं. आंखों पर ऐनक नहीं लगातीं और कान भी बहुत तीखे हैं. पुराने आचारव्यवहार और विचारों से बेहद प्रेम रखने वाली महिला हैं. मन की तो ममतामयी, लेकिन जबान की बड़ी तेज. क्या छोटा, क्या बड़ा, किसी का मुलाहिजा तो उन्होंने कभी रखा ही नहीं. मेरे पिताजी आज तक उन से डरते हैं.

मेरी शादी इन्हीं बूआजी ने तय की थी. गोरीचिट्टी सुकांता उन्हें बहुत अच्छी लगी थी. इतने बरसों से उन्हें मेरी गृहस्थी देखने का मौका नहीं मिला. आज वह आ रही थीं. सुकांता उन की आवभगत की तैयारी में जुट गई थी.

बूआजी को मैं घर लिवा लाया. बच्चों ने और सुकांता ने उन के पैर छुए. मैं ने अपने उसी मंत्र को दोहराना शुरू किया. यों तो घर में बिस्तर बिछाने का, समेटने का, झाड़ ू  लगाने का काम महरी ही करती है, लेकिन मैं जल्दी उठ कर बूआजी की चाकरी में भिड़ जाता. उन का कमरा और पूजा का सामान साफ कर देता, बगीचे से फूल, दूब, तुलसी ला कर रख देता. चंदन को घिस देता. अपने हाथ से चाय बना कर बूआजी को देता.

और तो और, रोज दफ्तर जातेजाते सुकांता से पूछता, ‘‘बाजार से कुछ मंगाना तो नहीं है?’’ आते समय फल और मिठाई ले आता. दफ्तर जाने से पहले सुकांता को सब्जी आदि साफ करने या काटने में मदद करता. बूआजी को घर के कामों में मर्दों की यह दखल देने की आदत बिलकुल पसंद नहीं थी.

सुकांता बेचारी संकोच से सिमट जाती. बारबार मुझे काम करने को रोकती. बूआजी आसपास नहीं हैं, यह देख कर दबी आवाज में मुझे झिड़की भी देती. और मैं उस के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए, बूआजी आसपास हैं, यह देख कर उस से कहता, ‘‘तुम इतना काम मत करो, सुकांता, थक जाओगी, बीमार हो जाओगी…’’

बूआजी खूब नाराज होतीं. अपनी बुलंद आवाज में बहू को खूब फटकारतीं, ताने देतीं, ‘‘आजकल की लड़कियों को कामकाज की आदत ही नहीं है. एक हम थे. चूल्हा जलाने से ले कर घर लीपने तक के काम अकेले करते थे. यहां गैस जलाओ तो थकान होती है और यह छोकरा तो देखो, क्या आगेपीछे मंडराता है बीवी के? उस के इशारे पर नाचता रहता है. बहू, यह सब मुझे पसंद नहीं है, कहे देती हूं…’’

सुकांता गुस्से से जल कर राख हो जाती, लेकिन कुछ कह नहीं सकती थी.

ऐसे ही एक दिन जब महरी नहीं आई तो मैं ने कपड़ों के साथ सुकांता की साड़ी भी निचोड़ डाली. बूआजी देख रही हैं, इस का फायदा उठाते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘कपड़े मैं ने धो डाले हैं. तुम फैला देना, सुकांता…मुझे दफ्तर को देर हो रही है.’’

‘‘जोरू का गुलाम, मर्द है या हिजड़ा?’’ बूआजी की गाली दनदनाते हुए सीधे सुकांता के कानों में…

मैं अपना बैग उठा कर सीधे दफ्तर को चला.

बूआजी अपनी काशी यात्रा पूरी कर के वापस अपने घर पहुंच गई हैं. मैं शाम को दफ्तर से घर लौटा हूं. मजे से कुरसी पर पसर कर पुस्तक पढ़ रहा हूं. सुकांता बाजार गई है. बच्चे खेलने गए हैं. चाय का खाली कप लुढ़का पड़ा है. पास में रखे ट्रांजिस्टर से शास्त्रीय संगीत की स्वरलहरी फैल रही है.

अब चिंता की कोई बात नहीं है. सुख जिसे कहते हैं, वह इस के अलावा और क्या होता है? और जिसे सुखी इनसान कहते हैं, वह मुझ से बढ़ कर और दूसरा कौन होगा?

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