लेखक- रंजीत कुमार मिश्र

बात शायद आप की भी समझ में नहीं आ रही है. दरअसल, हम अपनी ही बात कर रहे हैं. चलिए, आप को पूरा किस्सा सुना देते हैं.

तकरीबन 2 हफ्ते पहले हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल पर शहर से बाहर रहने वाले एक दोस्त से मिल कर वापस लौट रहे थे. शाम हो गई थी और अंधेरा भी घिर आया था. हम जल्दी घर पहुंचने के चक्कर में खूब तेज मोटरसाइकिल चला रहे थे.

अचानक हम ने सड़क के किनारे एक आदमी को पड़े देखा. पहले तो हमें लगा कि कोई नशेड़ी है जो सरेआम नाली में पड़ा है, लेकिन नजदीक पहुंचने पर हमें उस के आसपास खून भी दिखा. लगता था कि किसी ने उस को अपनी गाड़ी से टक्कर लगने के बाद किनारे लगा दिया था.

पहले तो हम ने भी खिसकने की सोची. यह भी दिमाग में आया कि इस लफड़े में पड़ना ठीक नहीं, लेकिन ऐन वक्त पर दिमाग ने खिसकने से रोक दिया.

हम ने उस आदमी को उठा कर अच्छी तरह से किनारे कर दिया. उस के सिर में गहरी चोट लगी थी. खून रुक नहीं रहा था. शायद उस के हाथ की हड्डी भी टूट गई थी.

गनीमत यह थी कि वह आदमी जिंदा था और धीरेधीरे उस की सांसें चल रही थीं. हम ने भी उसे बचाने की ठान ली और आतीजाती गाडि़यों को रुकने के लिए हाथ देने लगे.

बहुत कोशिश की, पर कोई गाड़ी  नहीं रुकी. परेशान हो कर जैसे ही हम ने हाथ देना बंद किया, वैसे ही एक टैक्सी हमारे पास आ कर रुकी. शायद वह भी हमारी तरह अपने खालीपन से परेशान था. जो भी हो, उस ने हमें बताया कि शहर तक जाने के लिए वह दोगुना किराया लेगा और मुरदे के लिए तिगुना.

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