लेखक-अपर्णा यादव

अगस्त के पहले सप्ताह में मैं कश्मीर के लिए रवाना हो गया. मुझे आज भी याद है कि जम्मू से बस पकड़ कर जब मैं कश्मीर पहुंचा तो वहां जोरदार बारिश हो रही थी. मुझे लेने आई कार में बैठ कर जब मैं प्रयोगशाला पहुंचा तो वहां गेट पर भीगते गोरखा संतरी ने दरवाजा खोला था. मेरे रहने के लिए वहीं पास के एक पुराने बंगले में इंतजाम किया गया था. मैं यात्रा से थका था, अत: जल्दी ही खाना खा कर सो गया.

अगले दिन सुबह उठ कर मैं ने पहले उस जगह का जायजा लिया. एक सेवादार ने बताया कि इस पूरी प्रयोगशाला में 5 लोग हैं. वह स्वयं रामसिंह, नेपाली संतरी रामकाजी थापा, खानसामा बिलाल अहमद, प्रयोगशाला में सहायक राजेंद्र और शाहबानो, जो साफसफाई एवं कपड़े धोने में मदद करती थी.

कंपनी का जड़ीबूटियों का अपना बगीचा था. मैं ने काम शुरू करने से पहले एक बार पूरे बगीचे का जायजा लेने का निश्चय किया. तैयार हो कर मैं ने राजेंद्र को साथ लिया और बगीचे की ओर चल पड़ा.

‘‘चलो, कंपनी को याद तो आया कि उस की कश्मीर में भी एक प्रयोगशाला है,’’ राजेंद्र हाथ ऊपर करते हुए बोला.

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो तुम?’’ मैं ने पूछा.

‘‘सर, 4 साल में यहां आने वाले आप पहले वैज्ञानिक हैं, वरना हम लोग ही यहां रहते हैं,’’ एक गाइड की तरह जानकारी देते हुए राजेंद्र बोला.

हम जिस पगडंडी पर चल रहे थे उस के दोनों ओर छोटीछोटी झाडि़यां थीं. बंगले से बागान की दूरी लगभग 400 गज की थी. बगीचे में पहुंच कर हम टहलने लगे. दोनों ही अपनेअपने खयालों में खोए थे कि अचानक राजेंद्र की बुदबुदाने की आवाज सुन कर मेरा ध्यान उस की ओर गया. उस ने अपने हाथ में गले का तावीज पकड़ा हुआ था और आसमान की ओर देख कर कुछ बुदबुदा रहा था. उस की इस हरकत से मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ पर कुछ सोच कर मैं चुप रहा. थोड़ी देर में वह सामान्य हुआ तो मेरी ओर देख कर बोला, ‘‘चलें, सर.’’

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