एकटर किरण कुमार हुए Corona संक्रमित, दिया ऐसा बयान

मुंबई में कोरोना (Corona) संक्रमण बड़ी तेजी से फैल रहा है. इसके संक्रमण से आम इंसान, पुलिस बल, महाराष्ट्र राज्य के वरिष्ठ मंत्री के साथ ही अब फिल्म व टीवी अभिनेता किरण कुमार (Kiran Kumar) भी ग्रसित हो चुके हैं. अभिनेता किरण कुमार ने स्वयं इस बात को जगजाहिर किया. 74 वर्षीय अभिनेता किरण कुमार के अनुसार 14 मई को उनका कोरोना टेस्ट पॉजिटिव आया था. तब से वह अपने घर पर क्वारंटीन हैं.

किरण कुमार (Kiran Kumar) का कहना है कि उन्हें कोरोना के किसी भी प्रकार की कोई खांसी, बुखार, सांस लेने में कोई दिक्कत या फिर कोई दूसरे लक्षण नहीं थे. वास्तव में वह ‘एसिम्पटोमैटिक हैं, जिसकी जांच कराने के लिए जब वह अस्पताल पहुंचे, तो कोरोना पॉजिटिव निकला. उनका घर दो मंजिला है. उनकी पत्नी और बच्चे पहली मंजिल पर रह रहे हैं. जबकि किरण कुमार ने स्वयं को अपने घर की दूसरी मंजिल पर क्वारंटीन किया है. वह पत्नी व बच्चों से फोन पर बात करते रहते हैं.

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किरण कुमार ने आगे कहा- ‘‘कोरोना से डरने की जरूरत नहीं है. इससे बचाव कर हमें निरंतर आगे बढ़ना है. मैं एकदम फिट हूं. एक्सरसाइज करता हूं. हमें अपना एटीट्यूड पॉजिटिव रखना है. हमें घर पर रहना है, जिससे हमारी वजह से कोई अन्य इंसान कोरोना संक्रमित न हो सके. हमें पूरे भारत को इस वायरस से बचाना है.’’

 

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किरण कुमार (Kiran Kumar) अब तक ‘बागी सुल्तान’, ‘शतरंज’, ‘शोले और तूफान’, ‘ईना मीना डीका’, ‘दिलबर’, ‘हिम्मत’, इंतकाम’, ‘दोस्ती’, जिंदाबाद’, ‘धड़कन’ सहित डेढ़ सौ से अधिक फिल्में तथा तकरीबन पचास टीवी सीरियलों मेंं अभिनय कर चुके हैं.

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भूखे लोगों का बने सहारा

कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए लागू किए गए लौकडाउन में सब से ज्यादा दिक्कत फुटपाथ, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और गलीचौराहे पर घूमने वाले दिमागी या जिस्मानी तौर पर कमजोर और लोगों को हुई है. लोगों के घरों से बाहर न निकल पाने से इन बेघरबार लोगों को भूखे पेट ही रहना पड़ रहा है.

ऐसे लोगों के दर्द को महसूस किया है एक छोटे से कसबेनुमा छोटे शहर सालीचौका के एक नौजवान ने. पत्रकारिता से जुड़ा यह नौजवान उमेश पाली जब एक दिन लौकडाउन की खबरों की तलाश में निकला तो इस ने रेलवे स्टेशन के सूने पड़े प्लेटफार्म पर मैले और फटेहाल कपड़ों में 2 भूखेप्यासे लोगों को देखा. उन लोगों के खानेपीने का इंतजाम कर उमेश पाली ने ऐसे ही दूसरे जरूरतमंद लोगों की मदद करने की ठान ली.

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मदद करने के लिए पत्रकार उमेश पाली ने सोशल मीडिया में एक व्हाट्सएप ग्रुप ‘कोरोना आपदा सेवा ग्रुप’ बना कर शुरुआत में कुछ नौजवानों को अपने साथ जोड़ लिया और आपसी सहयोग से ये सब जरूरतमंदों तक खाना पहुंचाने लगे. धीरेधीरे कसबे के दूसरे लोगों ने भी इस काम में अपना सहयोग देना शुरू कर दिया और अब हालात ये हैं कि हर दिन तकरीबन 40 से 50 जरुरतमंद लोगों को खानेपीने का सामान पहुंचाने का काम इन जागरूक नौजवानों द्वारा किया जा रहा है.

सुबह के 11 बजते ही सालीचौका   के इस व्हाट्सएप ग्रुप पर  मोबाइल में मैसेज आने लगते हैं कि रोटीसब्जी तैयार है. फिर क्या, ग्रुप के सदस्य निकल पड़ते हैं और घरघर जा कर 5-5 रोटी जमा करने का सिलसिला शुरू हो जाता है और तकरीबन एक घंटे में 200 के आसपास रोटियां जमा हो जाती हैं.

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घर में बनी हुई रोटियों के साथ सब्जी, अचार या जो सामग्री घर में बनती है, वह ग्रुप के सदस्यों द्वारा जमा होती है. 30 से 40 परिवार से रोटियां जमा कर के एक जगह पर खाने के पैकेट तैयार किए जाते हैं. ठीक 12 बजे दालचावल या फिर सब्जीरोटी रख कर ग्रुप के सदस्य जरूरतमंद लोगो की तलाश में निकल पड़ते हैं. उन लोगों की सेवा देख कर कसबे के पुलिस थाने के पुलिस अफसर, मुलाजिम भी इस मुहिम से जुड़ गए हैं. पुलिस थाने के मुलाजिम भी अपनी गाड़ी में खानेपीने का सामान ले कर आते हैं और फिर शहर में भूखेप्यासे लोगों के पास जा जाकर भोजन बांट दिया जाता है. पुलिस प्रशासन की देखरेख में यह भोजन जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाया जाता है.

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खुशियां मनाते इस तरह

लौकडाउन के चलते जहां किसी भी तरह के फंक्शन या पार्टी पर बंदिश लगी हुई है, ऐसे में शहर के लोग अपने परिवार वालों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह गरीब और बेसहारा लोगों की मदद कर के मना रहे हैं. जरूरतमंद लोगों को खाना खिला कर इस ग्रुप के सदस्यों ने एक नई परंपरा शुरू कर दी है. जिस सदस्य का जन्मदिन या शादी की सालगिरह होती है, वह अपने घर से भोजन, नमकीन ,मिठाई पूरीसब्जी, पापड़ या घर में जो भी बनता है, वह लाता है और उसे जरूरतमंद लोगों में बांट दिया जाता है.

लौकडाउन के शुरुआती दिनों से ही ‘कोरोना आपदा सेवा ग्रुप’ की तरफ से काम रोज किया जा रहा है. जरूरत पड़ने पर ग्रुप के सदस्य आटा, गेहूं, चावल, तेल जैसी खाद्य सामग्री दान भी कर रहे हैं.

क्वारंटीन सैंटरों पर मिलता नाश्ता

लौकडाउन में जन सेवा का ढोंग करने वाले ज्यादातर नेता जनता से दूरी बनाए हुए हैं, वहीं नौजवानों का यह ग्रुप देश के दूसरे शहरों से आए गरीब और मजदूर तबके के लिए नाश्ते का इंतजाम भी कर रहा है. इसी ग्रुप द्वारा गोकुल पैलेस साली चौका में क्वारंटीन सैंटर’ बनाया गया है, जहां पर बाहर से आए हुए तकरीबन 50 लोग रह रहे हैं. उन के लिए सुबह पोहा का नाश्ता ग्रुप के सदस्यों की तरफ से दिया जा रहा है.

और भी संस्थाएं कर रही हैं मदद

लौकडाउन में गरीब, मजबूर और बुजुर्गों की मदद करने के लिए भले ही समाज के पूंजीपति, उद्योगपति और धन्ना सेठों ने मुंह फेर लिया हो, लेकिन निम्नमध्यम वर्ग के लोगों ने मदद के लिए हाथ खोल दिए हैं. नरसिंहपुर जिले की तेंदूखेड़ा तहसील की योगदान सेवा समिति ने आसपास के छोटेछोटे गांवदेहात में पहुंच कर भोजन के पैकेट, जरूरत का सामान और दवाएं तक लोगों को पहुंचाई हैं. पर्यावरण संरक्षण की सोच लिए योगदान समिति के अविनाश जैन वृक्षारोपण के कामों को पिछले 13 साल से करते आ रहे हैं. कोरोना आपदा के समय उन्होंने देखा कि जब सरकारी तंत्र लोगों की मदद करने के बजाय सख्ती से पेश आ रहा है, तो वे अपने साथियों के साथ लोगों की मदद करने के लिए गांवगांव जाने लगे.

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प्रवासी मजदूरों की आवाजाही शुरू होते ही योगदान समिति ने नैशनल हाईवे नंबर 12 पर  मजदूरों को खानेपीने की चीजों के साथ हिफाजत के लिए मास्क और सैनेटाइजर भी बांटे. जब सरकार से पुलिस टीम को पीपीई किट नहीं मिली तो डाक्टर शचींद्र मोदी की मदद से पीपीई किट का इंतजाम किया गया. ‘पैड वुमन’ माया विश्वकर्मा की ‘सुकर्मा फाउंडेशन’ नाम की गैरसरकारी संस्था तो सड़क पर कैंप लगा कर प्रवासी मजदूरों को भोजन कराने के बाद जूते, चप्पल, मास्क देने के साथ मजदूर औरतों की माहवारी की समस्याओं पर जानकारी दे कर सैनेटरी पैड भी बांट रही है. इसी तरह अध्यापक संघ के नगेंद्र त्रिपाठी ने शिक्षकों की मदद से पैसे जमा कर क्वारंटीन सैंटर और जिले की सीमाओं पर बनी चैक पोस्ट पर तैनात मुलाजिमों को मास्क, सैनेटाइजर और ग्लव्स दे कर उन की हिफाजत का ध्यान रखा है.

क्वारंटाइन कुत्ता

अजब मध्य प्रदेश की गजब कहानी, कोरोना का इतना खौफ कि मालिक के साथ कुत्ता भी हुआ क्वारेंटाइन, कोरोना का डर लोगों के मन में इस कदर बैठ गया है कि वे कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहते हैं, यही वजह है कि प्रशासन द्वारा मालिक के साथ उसके कुत्ते को भी क्वारेंटाइन किया गया है.

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जी हां हम बात कर रहे है टीकमगढ़ जिले की जहां 16 मई को टीकमगढ़ शहर में दो सगी बहनों के कोरोना पॉजिटिव पाए जाने पर जहां उन्हें जिला अस्पताल के आइसोलेशन वार्ड में भर्ती किया गया, वही प्रशासन द्वारा उनकी सहेलियों व परिजन के साथ ही नौकर और दूधवाले सहित उनके पालतू कुत्ते शेरू को भी क्वारेंटाइन कर उन्हें जिला मुख्यालय से करीब 6 किलोमीटर दूर बने एक क्वारंटाइन सेंटर में रखा गया है.

दरअसल एक छोटे से वायरस कोरोना ने पूरी दुनिया को इतना बेबस कर दिया है कि जिसके आगे बड़े-बड़े नतमस्तक और भयाक्रांत है, प्रदेश में तेजी से बढते कोरोना के संक्रमण को लेकर आमजन के अलावा प्रशासन भी कोई कमी नही छोडना चाहता, और यही कारण है कि टीकमगढ़ में स्वास्थ्य विभाग ने दो सगी बहिनों के कोरोना पॉजिटिव पाये जाने पर उनके परिजनों के साथ ही उनके कुत्ते को भी क्वारेंटाइन किया है, जो शायद अब तक का पहला मामला है. जब संक्रमण के खतरे को देखते हुए किसी जानवर को क्वारेंटाइन किया गया है.

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क्वारेंटाइन सेंटर प्रभारी लवली सिंह का कहना है कि ऐसा पहली बार देखा गया है जब किसी कुत्ते को क्वारेंटाइन किया गया है, यहां कुत्ते को दूध, बिस्किट सहित मूलभूत सुविधाएं प्रोवाइड कराई जा रही है इसके साथ शेरू सेंटर की बाउंड्री के अंदर ही मालिक के साथ सुबह-शाम सैर करता है और यहां अपने मालिक के साथ ठाट से रहकर शासकीय सुविधाओ का लाभ ले रहा है.

भेड़बकरियों से भी बदतर हालात में प्रवासी मजदूर

महानगरों से प्रवासी मजदूरों का बिहार में आने का सिलसिला लगातार जारी है. ये मजदूर दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक समेत कई दूसरे राज्यों से अपने गांव पैदल, रिकशा, साइकिल, ठेला, ट्रक, बस, ट्रेन से आदमी की शक्ल में नहीं बल्कि किसी जानवर से भी बदतर हालात में अपने घर आ रहे हैं.

शहर तो गए थे अपना और परिवार का पेट पालने के लिए, लेकिन वहां तो रोजगार के साथसाथ रोटी के भी लाले पड़ने लगे. जो थोड़ेबहुत पैसे जमा थे सब खत्म हो गए. कंपनी के मालिक, मैनेजर, ठेकेदार ने हाथ खड़े कर दिए. मकान मालिक किराया लेने के लिए मजबूर करने लगा. किराना दुकानदार एक पैकेट बिसकुट भी उधार देने से इनकार करने लगा. ट्रेन, बस सब बंद. भूख से मरने के हालात पैदा होने लगे तो ये कर्मवीर मजदूर, कुछ ऐसे भी जो अपने बीवीबच्चे के साथ इन नगरों में रहते थे, पैदल, साइकिल और ठेला तक से चल दिए.

भूखप्यास से तड़पते, बिना चप्पलजूते के गरमी से तपती सड़कों पर लाखों की तादाद में लोग महानगरों से अपने घरों के लिए जान जोखिम में डाल कर निकल पड़े. ट्रकों ट्रॉलियों में भेड़बकरी की तरह लदे अपनी मंजिल की तरफ. जितने मजदूर उतनी तरह की अलगअलग परेशानियां.

बिहार लौटे कुछ मजदूरों की दिल दहला देने वाली दास्तां सुनिए. दरभंगा जिले के मोहन पासवान गुरुग्राम, हरियाणा में भाड़े का ईरिकशा चलाते थे. लौकडाउन के पहले वे एक हादसे का शिकार हो गए. खाने के लाले पड़ गए और रिकशा मालिक का दबाव बढ़ गया. अब उन्हें गुरुग्राम में रह कर मरने से अच्छा घर जाना उचित लगने लगा. कोई साधन नहीं था. थकहार कर उन की 15 साल की बेटी ज्योति ने साइकिल पर अपने पिता को बैठा कर 1,000 किलोमीटर की दूरी नाप दी और वे सहीसलामत घर पहुंच गए. लोग ताज्जुब करने लगे कि वाह बेटी हो तो ऐसी. लेकिन मरता क्या नहीं करता. इनसान हालात के हिसाब से कुछ ऐसा कर जाता है कि उस पर आसानी से यकीन भी नहीं होता. इस लड़की ने वह कर दिखाया जो बड़ेबड़े ताकतवर लोग भी नहीं कर सकते.

औरंगाबाद जिले के तहत बारुण ब्लॉक के हसनपुरा के रहने वाले जितेश कुमार अपने पत्नी और बेटी के साथ महाराष्ट्र के ठाणे जिले में रहते थे. वे लोहे की एक दुकान में मजदूरी का काम करता थे. लौकडाउन की वजह से काम बंद हो गया. खानेपीने की किल्लत होने लगी. कुछ दिन किसी तरह उधार पर काम चलाया. लेकिन अब उधार मिलना बंद हो गया तो उन के पास कोई रास्ता नहीं बचा. उन्होंने 850 रुपए में एक पुरानी साइकिल खरीदी, जरूरी सामान साथ में लिया और अपनी पत्नी सरिता देवी और 3 साल की बेटी को साइकिल पर बैठाया और अपने घर के लिए चल दिए.

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जितेश कुमार ने बताया कि सब से ज्यादा परेशानी नासिक में पहाड़ की घाटियों में हुई, क्योंकि पहाड़ की घाटियों में साइकिल पर  बोझ ले कर चलना बड़ा मुश्किल का काम है. रातभर और सुबह 10 बजे तक वे साइकिल चलाते, दोपहर में कहीं आराम करते और शाम 5 बजे से फिर चल देते. कई बार साइकिल खराब भी हो गई. कहींकहीं गांव वालों की मदद से साइकिल बनवाई और आगे बढ़ते रहे. रास्ते में चूड़ागुड़ खाया तो कहीं कुछ और खाने को मिला तो वह खा लिया.

अपने इस दर्दनाक सफर के बारे में सुनाते हुए जितेश कुमार रोने लगे. 12 दिनों तक बीवी और बेटी को साइकिल पर बैठा कर 1,700 किलोमीटर की दूरी तय कर वे अपने गांव हसनपुरा पहुंचे. वे अब किसी भी शर्त पर बाहर कमाने के लिए नहीं जाने की बात बोल रहे हैं.

दरभंगा जिले के आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले से 15 की तादाद में 1,600 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर रहे मजदूरों ने बताया कि वे मिर्च फैक्टरी में काम करते थे. लौकडाउन की वजह से कंपनी बंद हो गई. जब काम ही नहीं रहा और पैसे भी खत्म हो गए तो दानेदाने के लिए वे लोग मुहताज होने लगे. जब कोई उपाय नहीं निकला तो वे लोग पैदल ही चल पड़े. पैदल चलतेचलते इन के पैरों में छाले पड़ गए. पैर लहूलुहान और सूज गए. कई लोगों के चप्पलजूते टूट गए. वे लोग नंगे पैर ही तवे के समान जल रही सड़कों पर लगातार दिनरात चलते रहे.

मुजफ्फरपुर, बिहार का रहने वाला श्रवण कुमार गुरुग्राम, हरियाणा में सिलाईकढ़ाई का काम करता था. कामधंधा बंद हो गया. कुछ दिनों तक ट्रेन खुलने का इंतजार करते रहा, पर तबतक सारे पैसे खत्म हो गए. न इधर का रहा, न उधर का. मकान मालिक किराया मांगने लगा. घर से उस के मजदूर पिता ने कुछ पैसे भेजे. मकान मालिक को किराया दिया, बैग उठाया और चल दिया. अगर रास्ते में कोई गाड़ी मिली भी तो हाथ देता रहा, लेकिन रोका किसी ने नहीं. लगातार 10 दिनों से पैदल चलतेचलते उस का शरीर जवाब दे चुका है. पैरों में छाले पड़ गए हैं, फिर भी वह अपनी मंजिल के तरफ चलता जा रहा है.

बिहार के नवादा जिले के सूरज पासवान कोलकाता में कुली का काम करते थे. लौकडाउन की वजह से काम बंद हो गया. वे मजबूर हो कर कोलकाता से अपने गांव के लिए पैदल चल दिये. रास्ते में नवादा पहुंचाने के नाम पर 800 रुपए भी लोगों ने ठग लिए. बेगूसराय स्टेशन पहुंचते ही उन का शरीर जवाब दे गया और वे बेहोश हो कर गिर पड़े.

अभिषेक आनंद नामक एक शख्स, जो छात्र संगठन से जुड़े हुए हैं, उन्हें जब मालूम हुआ तो उन्होंने उन के खाने का इंतजाम किया और उन्हें घर तक भिजवाया.

इसी तरह हजारोंहजार लोग महानगरों से बिहार के अपने गांवों के लिए लगातार चल रहे हैं. इन मजदूरों का इन महानगरों से मन उचट गया. वे हर हाल में अपने गांवघर आना चाहते हैं. इन की चाहत है कि अब हम मर भी जाएं तो अपने लोगों के बीच. बहुत से लोग तो रास्ते में ही गाड़ियों से कुचल कर और भूखप्यास से दम तोड़ चुके हैं.

आफताब मुंबई में जरी का काम करता है. आफताब की पत्नी फातिमा ने बताया, “उन का काम बंद हो गया. जमा किए हुए पैसे भी खत्म हो गए. मेरे पास फोन किया. किसी तरह कुछ पैसों का इंतजाम कर अकाउंट पर भेजा. अपने कान की बाली गिरवी रख कर 2,000 रुपए भेजे हैं. किसी तरह वे मुंबई से अपने घर के लिए चल दिए हैं.”

हर मजदूर की एक अलग कहानी है. ट्रकों में कंटेनर को पूरी तरह तिरपाल से पैक कर मजदर 5,000 रुपए किराया दे कर भेड़बकरी की तरह आ रहे हैं. कभीकभी तो ऐसा लगता है मानो इन्होंने कहीं डकैती डाली है और अब लुकछिप कर अपनी मंजिल की तरफ जा रहे हैं.

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इतना ही नहीं, ये मजदूर जगहजगह पर पुलिसिया जुल्म के शिकार भी हुए हैं. थके पैर, शरीर जवाब दे रहा है. साथ में बीवी बच्चे भी हैं. बहुत से पुलिस वाले इन मजदूरों के साथ मारपीट, गालीगलौज और करते दिखे.हां, कहींकहीं मदद भी करते पाए गए.

मजदूर और छात्रों के साथ दोहरी नीति

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले तो बोले कि वे मजदूरों और छात्रों को दूसरे प्रदेशों से नहीं लाएंगे. लेकिन विपक्ष और दूसरे राजनीतिक दलों, समाजसेवियों, सोशल मीडिया से जब दबाव बढ़ने लगा तो आखिरकार वे तैयार हुए. कोटा से लाए गए छात्रों से भाड़ा नहीं लिया गया, जबकि इन छात्रों के मांबाप भाड़ा दे सकते थे. पर मजदूरों से भाड़ा लिया गया. ट्रेन में मजदूरों के लिए साधारण खाना और छात्रों के लिए बढ़िया क्वालिटी का खाना. पटनादानापुर स्टेशन पर भी 2 तरह का इंतजाम. मजदूर क्वारंटीन सैंटर में 14 दिन रहेंगे, जबकि छात्र अपनेअपने घरों में अलग कमरे में रहेंगे. इस से साफ हो गया कि बिहार की सरकार भी सिर्फ अमीरों के बारे में सोचती है, गरीबों के बारे में नहीं. लेकिन सरकार को यह मालूम होना चाहिए कि ये मजदूर अनदेखी के पात्र नहीं. ये इस देश की तरक्की में बुनियाद का काम करते हैं.

मजदूरों ने खींचा सरकार का ध्यान

महानगरों में फंसे मजदूर सरकार द्वारा जारी हैल्पलाइन पर फोन करते रहे, पर कोई उठाता ही नहीं था. अगर उठाया भी गया तो कोई नोटिस नहीं लिया गया. इन मजदूरों ने अपना दर्द वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर डाला. एक मजदूर ने एक गीत का वीडियो डाला जो सोशल मीडिया पर काफी मशहूर हो रहा है. :

‘हम मजदूरों को गांव हमारे भेज दो सरकार,

सूना पड़ा घरद्वार.

मजबूरी में हम सब मजदूरी करते हैं,

घरबार छोड़ कर के शहरों में भटकते हैं…’

मजदूरों की बेबस हालत को चित्रकारों ने कागजों पर भी उतार कर लोगों को ध्यान खींचा.

बिहार में क्वारंटीन सैंटरों का हाल

बाहर से आ रहे मजदूरों के लिए 14 दिन तक रहनेखाने का पूरा इंतजाम प्रवासी लोगों के लिए करना है. पर इन सैंटरों पर लूट का बाजार गरम है. सैंटरों के इंचार्ज पदाधिकारी ज्यादा से ज्यादा पैसे बचाने और घटिया इंतजाम करने में जुटे हुए हैं. कई केंद्रों पर मजदूरों द्वारा सड़क जाम करने तक की घटनाएं आएदिन घट रही हैं. बिहार में कई लोगों की मौत भी इन सैंटरों पर हो गई. कुछ जिलों में इन सैंटरों पर पत्रकारों को जाने पर रोक लगा दी गई है, ताकि सच को उजागर नहीं किया जा सके और लूट की छूट लगातार चलती रहे.

अब तो आलम यह हो गया है कि इन सैंटरों पर प्रवासी मजदूरों के लिए जगह नहीं है. गांव वाले लोग इन का अपने घरों में रहने का विरोध कर रहे हैं. ये मजदूर जाएं तो जाएं कहां?

रोहतास जिले के कर्मकीला गांव में दिल्ली से लौटे 2 प्रवासी लोगों का परिवार को क्वारंटीन सैंटर में जगह नहीं मिली. मजबूर हो कर दोनों परिवार के सदस्य बाहर रहने के लिए मजबूर हुए.

आखिर क्यों होता है पलायन

बिहार में उद्योगधंधे नहीं के बराबर हैं. उत्तरी बिहार में जहां लोग हर साल बाढ़ से परेशान होते हैं, वहीं दक्षिण बिहार के लोग सुखाड़ और सिंचाई के उचित साधन नहीं होने की वजह से मार झेलते रहते हैं. कृषक मजदूरों को सालभर काम नहीं मिल पाता. जो पढ़ेलिखे गरीब युवा हैं, वे भूस्वामियों के खेतों में काम करना पसंद इसलिए भी नहीं करते कि उन्हें नीचा देखा जाता है. छोटेमझोले किसानों की खेतीबारी से मुश्किल से लागत कीमत ही निकल पाती है. खेती करना घाटे का सौदा है. खेतीकिसानी में भी मजदूरों को सालभर काम नहीं है. कुछ खास सीजन रोपाईकटाई के समय में मजदूरों की मांग होती है, बाकी दिनों में नहीं, जिस से मजदूर महानगरों की तरफ रुख करते हैं.

नफरत से देखे जा रहे मजदूर

अपने ही गांवघरों में आ रहे महानगरों से इन मजदूरों से कोई बातचीत भी नहीं करना चाहता, बल्कि गांवों में तो लोग इन्हें ‘करोना’ के नाम से बुलाने लगे हैं. इस महामारी ने इन मजदूरों का कचूमर ही निकाल दिया. सरकार, कंपनी, मकान मालिक और अब तो अपनों ने भी दूरी बनानी शुरू कर दी है.

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हसपुरा क्वारंटीन सैंटर में रह रहे मुन्ना कुमार ने बताया, “लोग हम लोगों से नफरत कर रहे हैं. क्या हम लोग उस के पात्र हैं? क्या हम लोग इस बीमारी को विदेशों से लाए हैं? इस में हम लोगों का क्या कुसूर है? बाहर से आए जिन मजदूरों को एक महीने से भी ज्यादा हो गया है और वे पूरी तरह ठीक भी हैं, तो लोग उन्हें काम पर इसलिए नहीं लगा रहे हैं कि उस से कोरोना फैल जाएगा.”

किस तबके के लोग करते हैं पलायन

बिहार से पलायन तो सभी तबके के लोग करते हैं, लेकिन महानगरों की कंपनियों में ज्यादातर मजदूर दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग के होते हैं. ऊंची जाति के लोग इंजीनियरिंग समेत दूसरी तरह की टैक्निकल डिगरी की वजह से कंपनियों में अच्छे पदों पर होते हैं. उन का कंपनियों में भी दबदबा चलता है. निचले तबके के लोगों का हर जगह शोषण होता है.

जो लोग टैक्निकल डिगरीधारी हैं और बड़े महानगरों में बड़ीबड़ी कंपनियों में काम करते हैं, उन्हें कंपनी का मालिक आज भी तनख्वाह दे रहा है. उन के पास सारी सुखसुविधाएं हैं. इस लौकडाउन में वे आज भी महफूज हैं.

गुजरात में फोर्ड कंपनी में इंजीनियर के पद पर काम कर रहे बिहार के औरंगाबाद जिले के सुधीर कुमार और प्रैस्टिसाइज कंपनी अंकलेश्वर, गुजरात में अकाउंट्स मैनेजर अनिल कुमार रंजन ने बताया कि जब तक लौकडाउन चलेगा तब तक कंपनी बैठा कर पेमेंट देगी. जल्द ही कंपनी चालू होने वाली है.

सरकार क्या चाहती है

सरकार चाहती है कि किसी तरह मजदूर रुक जाएं. फैक्टरी चालू हो जाएं, ताकि सरकार और पूंजीपतियों का गठजोड़ जारी रहे. लेकिन इन कंपनी मालिकों, मैनेजरों और ठेकेदारों की गलत मंशा की वजह से इन मजदूरों का मन उचट गया है. हर हाल में मजदूर अपने गांवघर आना चाहते हैं. इन का अब रुकना मुश्किल हो गया है. बहुत सारी कंपनियां चालू कर दी गई हैं. मजदूर कम होने की वजह से जो मजदूर काम में लगे हैं उन्हें ज्यादा काम करना पड़ रहा है. इसी बीच कई राज्यों में श्रम संशोधन कानून लागू कर मजदूरों से 8 घंटे की जगह 12 घंटे काम लेने की कवायद तेज हो गई है.

हिंदू राष्ट्र बनाने वाले कहां हैं

कोरोना महामारी के चलते देश जल रहा है. देश की जनता पर संकट का पहाड़ टूट पड़ा है. इस जनता की मेहनत की कमाई से मंदिर रोशन होते थे. मंदिरों में भगवानों का तरहतरह का सिंगार किया जाता था. आज ऐसे भगवान संकट की घड़ी में अवतार ले कर उन की मदद करने क्यों नहीं आ रहे हैं? इन मेहनतकशों की अरबोंखरबों की मेहनत की कमाई को पाखंडरूपी भगवानों की दुकानदारी से लूटने वाले आज कौन से बिल में घुस गए हैं? वे उन की मदद के लिए आगे क्यों नही आ रहे हैं? हाईवे पर हर किलोमीटर पर मंदिर हैं, लेकिन इन प्रवासियों को उन मंदिरों पर पानी पीने का इंतजाम नहीं है. जो अपने आप को स्वयंसेवक कहते हैं, अपने आप को हिंदुओं के रक्षक कहते हैं, आज वे कौन से बिल में घुस गए हैं? आज देश की करोड़ों जनता सड़क पर संकट से जूझ रही है. लोगों पर संकट का ऐसा पहाड़ टूटा है कि वे हर तरह से मजबूर हो चुके हैं .लेकिन देश को लूटने वाले ऐसे लोग जो अपने आप को देशभक्त कहते हैं, वे कहां हैं? आज लोग भूखेप्यासे तड़पतड़प कर सड़क पर दम तोड़ रहे हैं, पर इन पाखंडियों का दिल जरा सा भी नही पसीज रहा है .इस से पुष्टि होती है कि ये लोग भारतीय लोगों को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करते हैं. अगर यह संकट मंदिर, पुजारियों पर या उन से जुड़े दूसरे लोगों पर आता तो पूरा देश हिल जाता, पूरी सरकार हिल जाती, लेकिन इन गरीबों की मदद के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है. आगे वे लोग आ रहे हैं, जिन से उन का नाता कभी नही रहा है. जैन, बौद्ध और सिख लोग तनमनधन से इन गरीबों की मदद कर रहे हैं, लेकिन जो अपने आप को देशभक्त कहते थे, हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करते थे, अपने आप को हिंदुओं के ठेकेदार कहते थे, वे राष्ट्रभक्त किस बिल में घुस गए हैं? इन मनुवादी लोगों में कोरोना का इतना डर घुस गया है कि ये लोग इन गरीबों को एक गिलास पानी तक देने के लिए तैयार नही हैं. रास्ते में ज्यादातर ढाबे और मंदिर इन्हीं के हैं, पर मजदूरों को मंदिर और ढाबों के पास तक नही फटकने दिया जा रहा है.

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हम कैसे कह सकते हैं कि ये ब्राह्मणी सोच के लोग और उन की सरकार भारत की जनता की शुभचिंतक है? इन के लोग जो विदेशों में पढ़ रहे थे और नौकरी या कारोबार कर रहे थे, उन को करोड़ों रुपए खर्च कर के सरकार ने विदेशों से तुरंत हवाईजहाज से लिवा लिया. इन्होंने मानव कल्याण हेतु काम कभी नहीं किए हैं, हमेशा जनता का शोषण किया है.

भगवान और अल्लाह भी नहीं आए काम

प्रबुद्ध भारत समाज के संस्थापक और भाकपा माले के विधायक रह चुके केडी यादव ने कहा कि कोरोना के कहर ने धार्मिक ढकोसलों को उजागर कर के रख दिया. काबा से ले कर काशी तक सभी धार्मिक स्थलों पर ताला जड़ दिया गया. जिन ईश्वर और अल्लाह को याद करने के लिए पूजापाठ, रोजानमाज सबकुछ करते थे, वे आज इन बुरे हालात में काम नहीं आए. अब तो इस देश के नेताओं की आंख की पट्टी खुलनी चाहिए. इस देश को धार्मिक स्थलों की नहीं, बल्कि बल्कि अस्पतालों और स्कूलों की जरूरत है.मंदिरोंमसजिदों को हमेशा के लिए बंद कर उन में स्कूल, लाइब्रेरी और अस्पताल खोल दिए जाएं. इन धार्मिक संस्थानों में बंद पड़े अकूत पैसे को गरीबों के बीच बांट दिया जाए. यह सभी लोग जानते हैं कि इस महामारी का इलाज भी विज्ञान के द्वारा ही मुमकिन है. जिस तरह से चेचक, प्लेग, हैजा जैसी महामारी पर हमारे वैज्ञनिकों ने कामयाबी हासिल की है, उसी तरह से कोविड 19 का भी निदान विज्ञान द्वारा ही मुमकिन है.

बिहार आए ज्यादातर मजदूर दोबारा लौट कर महानगरों में जाने के नाम पर इनकार करते हुए बोल रहे हैं कि किसी भी हाल में अब नहीं जाएंगे. लेकिन काफी तादाद में आए इन मजदूरों

को बिहार सरकार रोजगार दिलवा पाएगी? फिलहाल उम्मीद तो नहीं दिखती, लेकिन आने वाला समय ही बताएगा आगे क्या होगा?

जिन के खूनपसीने की कमाई से दुनिया की सारी बेशकीमती चीजें बनीं हैं. बड़ी इमारतें, लंबी सड़कें, पुल यानी आप जो भी विकास देख रहे हैं, उस में मजदूरों का बड़ा हाथ है. जिन हाथों ने दुनिया को खूबसूरत बनाया उन्हीं हाथों को तुम काटने पर उतारू हो गए. मजदूरों की अनदेखी का यह दंश इस देश को झेलना पड़ेगा.

इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जब भी कोई महामारी या आपदा आई है, सब से ज्यादा प्रभावित यही गरीब तबका होता है. इस तबके के लोगों को भी इन चीजों से सीख ले कर नयापन लाने की जरूरत है. अगर नहीं सुधरे तो हालात बद से बदतर हो जाएंगे.

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Lockdown में घर लौटती मजदूर औरतों की मुसीबत

लौकडाउन के चलते देश के बड़े शहरों से अपने गांव लौट रहे मजदूरों में सब से ज्यादा मुसीबतें  महिला मजदूरों को झेलना पड़ी हैं. दुधमुंहे बच्चों को अपनी छाती से चिपकाए चुभती धूप में महिलाएं यही आस लिए पैदल चल रही हैं कि जल्द अपने घर पहुंच सकें. सरकारों की बद‌इंतजामी और अनदेखी से इन महिला मजदूरों का दर्द तब और बढ़ जाता है जब उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिलती हैं.

14 म‌ई, 2020 को मध्य प्रदेश में गर्भवती मजदूर महिलाओं के प्रसव की घटनाओं ने तो सरकारी योजनाओं की पोल खोल कर रख दी. गुजरात से बस में आई बड़वानी जिले की सुस्तीखेड़ा गांव की महिला मजदूर को प्रसव पीड़ा होने पर एंबुलैंस और जननी सुरक्षा ऐक्सप्रैस वाहन का इंतजाम तक न हो सका. तहसील के एसडीएम की दरियादिली ने अपने वाहन से महिला को अस्पताल तो भेज दिया, पर दर्द से कराहती महिला को समय पर डाक्टर न मिलने से प्रसव वाहन में ही हो गया.

इसी तरह राजगढ़ जिले के ब्यावरा में मुंबई से उत्तर प्रदेश जा रही एक 30 साल की गर्भवती महिला कौशल्या ने ट्रक में ही बच्चे को जन्म दे दिया. उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिला बस्ती के मनोज कुमार मुंबई से पैदल तो निकल पड़े, लेकिन रास्ते में गर्भवती पत्नी की हालत देख कर ट्रक में किराया दे कर चले तो मध्य प्रदेश के ब्यावरा में दर्द बढ़ा तो ट्रक में ही महिला की डिलीवरी हो गई. जैसेतैसे मनोज पत्नी को बच्चे समेत अस्पताल  ले कर पहुंचे, लेकिन अस्पताल में कोई खास इंतजाम न होने से उन्हें  राजगढ़ के जिला अस्पताल रैफर किया गया.

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प्रदेश में स्वास्थ्य योजना का ढोल पीटने वाली सरकारों की जमीनी हकीकत यह है कि आजादी के 73 सालों के बाद भी वे गांवकसबों के अस्पतालों में महिला डाक्टर तक का इंतजाम नहीं कर पाई हैं.

महिला मजदूरों के लिए लौकडाउन ने जो मुश्किलें बढ़ाई हैं, वे भी किसी त्रासदी से कम नहीं हैं. ट्रक, लोडिंग वाहन,आटोरिकशा में भेड़बकरियों की तरह यात्रा के लिए मजबूर 2-4 महिला मजदूर अपने छोटे बच्चों के साथ 40-50 मर्दों के समूह में सफर करती हैं, तो उन की परेशानियाें को तवज्जूह ही नहीं मिलती. ड्राइवर अपनी तेज रफ्तार से गाडी भगाने की जल्दबाजी में रहता है, अगर महिला को पेशाब के लिए भी रुकना है तो संकोच के मारे नहीं कहेगी, क्योंकि उसे भी घर जल्दी पहुंचना है और एक अकेली महिला के लिए ड्राइवर गाड़ी रोकने की हिमाकत करता भी नहीं है.

जब कभी सड़क पर ट्रक रुकता भी है, तो जरूरी नहीं कि ऐसी जगह महिला शौचालय मिल ही जाए. कहीं भी किसी भी पेड़ के बगल में, खेत की मेंड़ पर सड़क के किनारे उन्हें बैठना पड़ता है. क‌ई बार ट्रक रुकते ही धड़ाधड़ सारे मर्द मजदूर उतरते हैं और शुरू हो जाते हैं, पर वे 2-4 महिलाएं सिकुड़ी सी उसी ट्रक या  बस के कोने में मन मसोस कर अपने वेग को रोके रखती हैं.

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ऐसे संकट के वक्त में अगर किसी महिला को माहवारी शुरू हो जाए तो परेशानी और भी बढ़ जाती है, क्योंकि उन के पास 2 जोड़ी कपड़े से ज्यादा कपड़े नहीं हैं. एक कपड़े की पोटली में ही सारी कमाई है.

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली से मध्य प्रदेश के गांवों में लौट रही एक महिला मजदूर रामवती अपनी पीड़ा बताती है कि सफर में माहवारी के दौरान कितनी मुश्किल हुई थी, लेकिन नरसिंहपुर जिले के नांदनेर पहुंचते ही ‘पैडवुमन’ के नाम से मशहूर माया विश्वकर्मा ने सैनेटरी पैड दिए तो सारी परेशानी दूर हो गई. रामवती के मुताबिक माहवारी के चलते पति का सहयोग भी नहीं मिलता. पति उस की शारीरिक परेशानी को समझने के बजाय उसे रास्ते भर डांटडपट ही लगाता रहा. महिला मजदूरों की परेशानी यही है कि महीनेभर उस के शरीर को नोचने वाला खुद का पति भी माहवारी के 5 दिन उसे अछूत समझ कर झिड़कता रहता है.

प्रवासी भारतीय माया विश्वकर्मा बताती हैं कि पिछले 2 महीने से जबलपुरपिपरिया स्टेट हाईवे नंबर 22 पर उन की संस्था ‘सुकर्मा फाउंडेशन’ मजदूरों को भोजन पानी ,जूताचप्पल के साथ महिला मजदूर के लिए नो टैंशन सैनेटरी पैड का मुफ्त में इंतजाम कर रही है.

गुजरात के सूरत की कपड़ा मिल में काम करने वाली रुक्मिणी ने भी पति और बच्चों के साथ अपना आधा सफर पैदल ही तय किया है. 2 साल की बेटी और 6 महीने के बेटे की जिम्मेदारी के साथ रास्ते में लकड़ी बीन कर ईंटपत्थर का चूल्हा बना कर खाना पकाती है. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले से एक ट्रक ने मंडला तक के लिए 1,500 रुपए सवारी के हिसाब से किराया वसूल किया. ट्रक ड्राइवर और क्लीनर ने उसे बच्चों के साथ आगे केबिन में बिठा लिया. रास्ते में सफर के दौरान उन की गंदी बातों और घूरती निगाहों का सामना करती जैसेतैसे वह घर पहुंच सकी.

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रुक्मिणी जैसी और भी कई महिला मजदूर ऐसी भी होंगी, जिन्हें रात के सफर में मर्दों द्वारा छेड़खानी के अलावा अपनी इज्जत भी गंवानी पड़ी हो. क्या पता घर पहुंचने की जद्दोजेहद में चुपचाप यह दर्द भी सहन करना उन की मजबूरी बन गया हो.

बहरहाल, सरकारी कोशिशों के दावों का सच तो मजदूरों को भी समझ आ गया है. जिस तरह चुनावी रैलियों में झंडा, बैनर पकड़ कर नारे लगाने के लिए जुटाई गई भीड़ में महिलाओं को दिनभर का मेहनताना, खाना देने वाले ‌नेता सड़कों पर कहीं ‌दिखे? प्रजातंत्र की हकीकत यही है कि एक बार जनता से ‌वोट की भीख मांगने वाले नेता पूरे 5 साल सोशल डिस्टैंसिंग यानी सामाजिक दूरी बना कर रखते हैं. नेता जानते हैं कि कम पढ़ेलिखे इन मजदूरों को नोट, कंबल और‌ शराब की बोतलें दे कर बरगलाना आसान काम है.

हमारे समाज में महिला मजदूरों के साथ आज भी बुरा बरताव किया जाता है. अपने परिवार का पेट भरने के लिए ठेकेदारों, राजमिस्त्री और साथी मर्द मजदूरों की बदसुलूकी का शिकार महिलाओं को बनना पड़ता है. महिला आयोग और मजदूर यूनियन में बैठी महिला प्रतिनिधि भी महिला मजदूरों की समस्याओं को साल में एक दिन किसी मीटिंग या सैमिनार में उजागर कर अपने फर्ज को पूरा होना मान लेती हैं. मौजूदा समय में जरूरत इस बात की है कि मर्दों के दबदबे वाली सोच में बदलाव के साथ महिलाओं को उन के हकों के प्रति जागरूक किया जाए तो ही महिलाओं की हालत में सुधार मुमकिन है.

धरातल पर नदारद हैं सरकारी ऐलान

लेखक- धीरज कुमार

मुंबई में 25 साल के सरोज कुमार ठाकुर अपने 2 दोस्तों 20 साल के सोनू कुमार और 23 साल के विकास कुमार के साथ रहते थे. तीनों हास्पिटल में हास्पिटल ब्रदर का काम करते थे. लौकडाउन के बाद वे अपने पैसे से खातेपीते रहे, लेकिन जब पैसा खत्म हो गया तो जिंदगी बचाने के लिए सिर्फ एक ही उपाय था, किसी तरह घर पहुंचना. और फिर उन तीनों ने मिल कर घर जाने का फैसला किया. घर से खाते पर पैसे मंगवाए. किसी तरह वहां से पैदल निकले. कुछ दिन पैदल चलने के बाद उन्हें एक ट्रक वाला मिला जिस ने पहले तो उन्हें लिफ्ट दी लेकिन बाद में उन तीनों से 9,000 रुपए भाड़े के रूप में ले लिए.

ट्रक वाले ने उन्हें बनारस छोड दिया. बनारस से छोटी गाड़ी कर के वे रोहतास, बिहार पहुंचे. घर पहुंचने के बाद शांति महसूस हुई, लेकिन गांव वालों ने गांव के बाहर ही रोक कर क्वारंटीन सैंटर, जो अपने ही पंचायत के सरकारी स्कूल में बना है, वहां जाने का आदेश दिया .अभी वे तीनों कुछ दिन यही रहेंगे. खानेपीने का इंतजाम सरकार द्वारा किया गया है, लेकिन इंतजाम ठीक नहीं है. गांव वाले ऐसे बरताव कर रहे हैं जैसे वे सब अछुत हैं. जिन दोस्तों व परिवार के लिए इतनी मुश्किलें झेलने के बाद जिंदगी पर खेल कर गांव पहुंचे हैं, सभी मिलने से डर रहे हैं. चाहे फिर घरपरिवार के लोग हों या दोस्त.

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डेहरी ब्लौक के पहलेजा गांव के 42 साल के सत्येंद्र शर्मा और 37 साल के संजय शर्मा इंदौर, मध्य प्रदेश में रहते थे. वे वहां फर्नीचर बनाने का काम करते थे. उन का 17 साल का भतीजा इम्तिहान देने के बाद घूमने गया था. वहां काम बंद हो गया. खाने के लाले पड़ने लगे. तीनों ने अपनी मोटरसाइकिल से घर आने का फैसला किया. वे 3 दिनरात मोटरसाइकिल चला कर घर पहुंच गए. सिर्फ रात में कुछ घंटे के लिए पेट्रोल पंप पर सोए. रास्ते में किसी से भी खानापीना तक नहीं लिया, क्योंकि वे काफी डरे हुए थे. अब वे लोग गांव के स्कूल में क्वारंटीन सैंटर पर रह रहे हैं.

दिल्ली में 26 साल के अनुज कुमार, 24 साल के अनूप कुमार और 19 साल के मुकेश प्रसाद कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करते थे. तीनों एक ही गांव के थे. वे कंस्ट्रक्शन कंपनी में मिक्चर मशीन में ड्राइवर और हैल्पर का काम करते थे. तीनों का एक ही मकसद था, पैसा कमा कर घर के लोगों को बेहतर जिंदगी देना. लेकिन वे कभी सपने में भी नहीं सोचे थे कि इस महामारी में फंस जाएंगे और जिंदगी को बचाना भी बड़ा मुश्किल हो जाएगा.

वे तीनों कहते हैं कि अब कभी भी दिल्ली नहीं जाएंगे. जब से महामारी फैली है, वे दहशत में जी रहे थे. जिस तरह से दिल्ली में माहौल बन चुका था, ऐसा नहीं लगता था कि वे कभी घर पहुंच पाएंगे. घर की दहलीज पर आ कर भी वे घरपरिवार से दूर हैं, इस बात का अफसोस रहेगा, लेकिन सिर्फ कुछ दूरी पर घर होने के बाद भी वे लोग फोन से घर का हालचाल ले रहे हैं.

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जब उन से कहा गया कि सरकार तो ट्रेन चला रही है, वहां से मजदूरों को ला रही है तो उन का कहना था कि ट्रेन आप के मोबाइल में चल रही होगी. हम मजदूरों के लिए तो ट्रेन नहीं चल रही है. अगर ट्रेन चल रही होती तो हम पैदल या इस तरह से ट्रक में जानवरों की तरह बैठ कर घर नहीं आते. सुने तो हम लोग भी थे कि मोदीजी विदेश में रहने वाले लोगों को हवाईजहाज से अपने देश वापस ला रहें हैं, पर हम मजदूरों को मरने के लिए छोड़ दिए, क्योंकि हम सब गरीब थे. ऐसी जिल्लत भरी जिंदगी कभी नहीं देखी थी, लेकिन हम लोगों को कोरोना महामारी ने ऐसा दिखा दिया. अब घर पर ही छोटामोटा काम कर लेंगे, लेकिन दोबारा पलट कर वहां कभी नहीं जाएंगे

ये उदाहरण तो सिर्फ बानगी भर हैं. बहुत से लोगो के जिंदगी संकट में पड़ गई थी. बहुत से लोग काफी परेशान थे. परेशानी के इस आलम में जिंदगी बचाना मुश्किल लग रहा था. जो बच कर आए थे वे अपनेआप को खुशनसीब समझ रहे थे. ज्यादातर लोगों का यही कहना था कि जब हम लोग संकट में घिर गए थे, तो ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम लोग इस देश के नागरिक नहीं हैं. लोगों का  बरताव बदल गया था.

उन लोगों का कहना था कि राज्य सरकार के पास इतना इंतजाम नहीं है कि हम सब को रोजगार दे. वर्तमान मुख्यमंत्री हमारे राज्य में 15 साल से शासन कर रहे हैं, लेकिन अभी तक हम बेरोजगारों के लिए कोई इंतजाम नहीं कर पाए हैं. जब हम दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए जाते हैं और पैसा कमा कर अपने राज्य में भेजते हैं, तो हमारे परिवार के लोग उसब्से सामान खरीदते हैं. सरकार उन सामानों पर टैक्स लेती है. क्या उस पैसे से राज्य का विकास नहीं हो रहा है?

बहुत से क्वारंटीन सैंटरों पर इंतजाम इतना खराब था कि कई जगह पर तो मजदूर बगावत भी कर रहे थे. लोग देखरेख करने वाले पर अपना गुस्सा उतार रहे थे. राज्य सरकार की बदइंतजामी का आलम यह था कि लोग कहीं भोजन के लिए परेशान थे, तो कहीं रहने का इंतजाम भी ठीक नहीं था. देखरेख करने वाले शिक्षकों को भी उचित किट नहीं दी गई थी.

डेहरी के पहलेजा पंचायत के सरकारी स्कूल को क्वारंटीन सैंटर बनाया गया है जिस में अलगअलग राज्यों से आए हुए मजदूरों की तादाद 60 है. इसी पंचायत के मुखिया प्रमोद कुमार सिंह ने बताया, “क्वारंटीन सैंटर पर 30 मजदूरों के लिए इंतजाम किया गया है. जिस तरह से राज्य सरकार ने ऐलान किया है, उस तरह सरकारी मुलाजिम इंतजाम करने में कतरा रहे हैं, क्योंकि यहां अफसरशाही ज्यादा है.

“लेकिन गांव का मुखिया होने के नाते मैं अपने खर्च पर लोगों के लिए सब्जी बनवाने और दूसरी तरह के इंतजाम कर रहा हूं, क्योंकि वे लोग हमारे हैं. राज्य सरकार सारी घोषणाएं अखबार में तो कर दी है, लेकिन सुविधाएं धरातल पर नदारद हैं.”

लौकडाउन की घोषणा होने से पहले केंद्र सरकार को मजदूरों के बारे में भी सोचना चाहिए था. जो समस्याएं आज आई हैं, उन के बारे में अगर पहले सरकार सजग होती तो आज जिस तरह से उन के साथ समस्याएं हो रही हैं, वे नहीं होतीं.

सरकार चाहती तो उन मजदूरों को तबाह होने से बचा सकती थी, क्योंकि पहला मामला 22 जनवरी को केरल में मिला था. सरकार को अंतर्राष्ट्रीय सेवाएं बंद कर देनी चाहिए थीं. देश के विभिन्न राज्यों में जो मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे थे, उन्हें सुरक्षित अपने राज्य में जाने की सूचना दी जा सकती थी. केंद्र सरकार ने भी इन मजदूरों के बारे में कुछ नहीं सोचा, क्योंकि ये गरीब परिवार से आते थे. सरकार ने सिर्फ नेताओं ,पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के बारे में सोचा.

अब देखना यह होगा कि इस महामारी के बाद राज्य सरकार आए हुए मजदूरों के लिए क्या इंतज करती है. सरकार ने तो यह घोषणा कर दी है कि सभी मजदूरों को हर महीने 1,000 रुपये खाते में दिए जाएंगे, साथ ही मजदूरों के लिए राशन भी दिया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं लगता है. सरकार की घोषणाएं अखबार में तो खूब दिख जाएंगी, पर धरातल पर नदारद रहती हैं.

Bhojpuri एक्ट्रेस अक्षरा सिंह का हॉट साड़ी लुक हुआ वायरल, नए गाने की भी कर रही हैं तैयारी

भोजपुरी इंडस्ट्री की मशहूर अदाकार अक्षरा सिंह (Akshara Singh) का जलवा पर्दे से लेकर सोशल मीडिया पर छाया रहता है. उनका यह जलवा लॉकडाउन के बीच भी खूब देखने को मिल रहा है. तभी तो जब अक्षरा ने साड़ी वाली एक तस्वीर सोशल मीडिया में शेयर की, उनके फैंस की निगाहें थम गई. अक्षरा ने साड़ी वाले लुक की कई तस्वीरें शेयर की हैं, जिनमें वह बेहद हसीन दिखाई दे रही हैं.

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इतना ही नही जब पूरा विश्व कोरोना महामारी की चपेट में हैं और भारत में लॉकडाउन की वजह से सब कुछ बंद है. सिनेमा इंडस्ट्री भी थम सी गई है. ऐसे हालात में अक्षरा सिंह ने हाथ पर हाथ धर का बैठे रहना स्वीकार नही किया, बल्कि वह लगातार एक के बाद एक काम करती जा रही हैं. इसी के साथ वह लॉकडाउन के नियमों का पालन भी कर रही हैं

लाॅक डाउन शुरू होने के बाद अक्षरा सिंह ने कुछ संगीत एलबम निकालने शुरू किए, जिन्हे काफी पसंद किया गया. अब अक्षरा सिंह नए संगीत एलबम की तैयारी में जुट गई हैं, जिसका वीडियो उन्होंने अपने सोशल मीडिया में शेयर किया है. इस वीडियो में वह अपने नए अलबम के लिए रियाज करती नजर आयीं हैं. यह वीडियो काम के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है. जब पूरा भोजपुरी जगत अपने घर में है, तब भी अक्षरा सिंह की जीवटता उन्हें अपने फैंस के बीच लगातार लाकर खड़ी कर देती है.

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अक्षरा सिंह (Akshara Singh) की सबसे बड़ी की खासियत यह है कि वह अपना काम इमानदारी के साथ बखूबी पूरा करने के साथ साथ सामाजिक कार्यों को भी पूरी निष्ठा और ईमानदारी से पूरा कर रही हैं. कोरोना के वैश्विक संकट के दौरान वह लोगों को इससे बचने के लिए जागरूक करती नजर आ चुकी हैं. वह लोगों को हाथ धोने के सही तरीके भी बता चुकी हैं.

इतना ही नही सड़क पर पैदल चल रहे प्रवासी मजदूरों और जरूरत मंद लोगों को मास्क व सेनेटाइजर भी बांटती रहती है.अक्षरा सिंह की यही खूबी उन्हें दूसरे फिल्म कलाकारो से अलग पहचान दिलाती है.अपनी अदाओं की वजह से अक्षरा इंस्टाग्राम के साथ ही टिक टौक (Tik Tok) पर भी काफी फेमस हैं. इंस्टाग्राम पर उनके 1.3 और टिक टौक पर भी लाखों फौलोअर्स हैं. वह टिक टौक (Tik Tok) पर खूब वीडियो बनाती है. अक्षरा सिंह भोजपुरी की कई फिल्मों में काम कर चुकी हैं.

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गहरी पैठ

कोरोना के कहर में तबलीगी जमात की नासमझी से जो समस्याएं बढ़ी हैं, उन्होंने केंद्र सरकार को फिर से हिंदू मुसलिम करने का कट्टर कार्ड थमा दिया है. देखा जाए तो देश की जनता को आराम से जीने का मौका देने का वादा दे कर जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार ने अपना एक और दांव, दंगे चला कर अब घरघर में दहशत का माहौल खड़ा कर दिया है. किसी को भी देश का गद्दार कहने का हक खुद ब खुद लेने के बाद अब उन्होंने जगहजगह गोली मारो गद्दारों को नारा गुंजाना शुरू कर दिया है. बिना सुबूत, बिना गवाह, बिना अदालत, बिना दलील, बिना वकील के किसी को भी गद्दार कह कर उसे मार डालने का हक बड़ा खतरनाक है.

न सिर्फ मुसलमानों को डराया जा सकता है, इस नारे से हर उस को डराया जा सकता है, जिस ने अपनी अक्ल लगा कर भगवा भीड़ की मांग को पूरी करने से इनकार कर दिया हो.

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आज देश का दलित, किसान, मजदूर, बेरोजगार युवा, बलात्कारों से परेशान लड़कियां, छोटे व्यापारी सरकारी फैसलों से परेशान हैं. दलितों के घोड़ी पर चढ़ कर शादी करने पर मारपीट ही नहीं हत्या कर दी जाती है और जिस ने भी उस के खिलाफ आवाज उठाई, उसे गद्दार कह कर गोली मारने का हक ले लिया गया है. अगर किसान कर्ज माफ करने के लिए सरकार के खिलाफ मोरचा खोलें तो उन्हें गद्दार कहा जा सकता है. अगर व्यापारी नोटबंदी, जीएसटी और बैंकों के फेल होने पर होने वाले नुकसान की बात करें तो उन्हें गद्दार कहा जा सकता है. नागरिकता कानून ?की फुजूल की बात करने वाले को गद्दार कहने का हक है. छोटीबड़ी अदालतों में वकीलों के झुंड मौजूद हैं जो अपने हकों को मांगने वालों को गद्दार कह कर जज के सामने तक नहीं जाने दे रहे. जजों को गद्दार कह कर उन का रातोंरात तबादला कर दिया जा रहा है.

सारे देश में सरकार डिटैंशन सैंटर बनवा रही है जो आधी जेल की तरह हैं जहां नाममात्र का खाना मिलेगा, नाममात्र के कपड़े मिलेंगे, पर बरसों रहना पड़ सकता है. उन को गुलाम बना कर उन से काम कराया जा सकता है. लड़कियों को बदन बेचने पर मजबूर किया जा सकता है. यह हिटलर ने जरमनी में किया था. स्टालिन ने रूस में किया था. माओ ने चीन में किया था. कंबोडिया में पोलपौट ने किया था.

गद्दार कह कर कैसे सिर फोड़े जा सकते हैं. घरों को जला कर सजा दी जा सकती है. इस का नमूना दिल्ली में दिखा दिया गया. जिन्होंने किया वे आजाद घूम रहे हैं. जो शांति के लिए जिम्मेदार हैं, वे भड़काऊ भाषण देने में लगे हैं.

इस सब से मुसलमानों को तो लूटा जा ही रहा है, दलित और पिछड़े भी लपेटे में आ गए हैं. आज सरकारी नौकरियों में केवल ऊंचों को पद देने का हक एक बार फिर मिल गया है, क्योंकि या तो सरकारी काम ठेके पर दे दिए गए हैं या बंद कर दिए गए हैं. दहशत के माहौल की वजह से कोई बोल नहीं पा रहा. कन्हैया कुमार जो बिहार में भारी भीड़ जमा कर रहा था को अब दिल्ली की अदालतों में बुला कर परेशान करने की साजिश की जा रही है. चंद्रशेखर आजाद को बारबार लंबी जेल में भेज दिया जाता है. हार्दिक पटेल का मुंह बंद कर दिया गया है.

देश को अमन चाहिए, क्योंकि अगर पेट में आधा खाना ही हो, कपड़े फटे हुए हों तो भी अगर चैन हो तो जिंदगी कट जाती है. अब यह चैन भी गद्दार के नारे के नीचे दब रहा है.

पूरी दुनिया कोरोना की महामारी से जूझ रही है. लौकडाउन के बाद जरूरी कीमती सामान से लदे ट्रक जहां थे वहीं खड़े हैं. पहले भी हालात ट्रक ड्राइवरों के पक्ष में कहां थे. देखें तो देश के ट्रक ड्राइवरों की जिंदगी वैसे ही उबाऊ और खानाबदोशी होती है, उस पर हर नाके पर, हर सड़क पर बैठे खूंख्वारों से निबटना एक आफत होती है. सेव लाइफ फाउंडेशन का अंदाजा है कि ट्रक ड्राइवर हर साल तकरीबन 50,000 करोड़ रुपए रिश्वत में देते हैं. रिश्वत ट्रैफिक पुलिस वाले, टैक्स वाले, नाके वाले, चुंगी वाले, पोल्यूशन वाले तो लेते ही हैं, अब धार्मिक धंधे करने वाले भी जम कर लेने लगे हैं. धार्मिक धंधे वाले ट्रकों और टैक्सियों को रोक कर ड्राइवरों से उगाही करते हैं.

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कोई कह सकता है कि यह रिश्वत तो मालिक की जेब से जाती होगी, पर यह गलत है. बहुत से ट्रकों को लगभग ठेके पर दे दिया जाता है कि ट्रक पहुंचाओ, रास्ते में जो हो, भुगतो और एकमुश्त पैसा ले लो. ड्राइवर को ऐसे में अपने मुनाफे में कटौती नजर आती है. वह कानूनी, गैरकानूनी दोनों रोकटोक पर रिश्वत देने में हिचकिचाता है और अकसर झगड़ा हो जाता है और मारपीट तक हो जाती है तो नुकसान ट्रक ड्राइवर का ही होता है.

ड्राइवरों की जिंदगी वैसे ही बड़ी दुखद है. उन्हें 12 घंटे ट्रक चलाना होता है, इसलिए अकसर वे शराब और दवाओं का नशा करते हैं. देश की सड़कें बेहद खराब हैं जो ट्रक चलाने में ड्राइवर की हड्डीपसली दुखा देती हैं. आमतौर पर सड़कों पर लाइट नहीं होती. अंधेरे में चलाना मुश्किल होता है. भारत में अब तक सुरक्षित ट्रक नहीं बनने शुरू हुए हैं. ड्राइवरों के केबिन एयरकंडीशंड नहीं होते, उन ट्रकों के भी नहीं जिन में खाने के सामान या दवाओं के लिए रेफ्रीजरेटर लगे होते हैं, इसलिए बेहद गरमीसर्दी का मुकाबला करना पड़ता है. बहुत से ड्राइवरों को बदलते साथियों के साथ चलना होता है.

हमारे यहां ड्राइवरों को रास्ते में सोने के लिए ढाबों पर पड़ी चारपाइयां ही होती हैं, जिन पर न गद्दे होते हैं, न पंखे तक.

घरों से दूर रहने की वजह से ड्राइवर राह चलती बाजारू औरतों को पकड़ते हैं, पर वे लूटने की फिराक में रहती हैं. उन के गैंग अलग बने होते हैं जो परेशान करते हैं. ड्राइवरों को बीवियों की चिंता भी रहती है कि उन के पीछे वे औरों के साथ तो नहीं आंखें लड़ा रहीं.

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यही वजह है कि आज 1000 ट्रकों पर 400-500 ड्राइवर ही मिल रहे हैं. ट्रांसपोर्ट उद्योग को ड्राइवरों की कमी की वजह से भारी नुकसान होने लगा है. एक तरफ बेरोजगारी है, पर दूसरी तरफ ट्रेनिंग न मिलने की वजह से ड्राइवरों की कमी है. ट्रेनिंग तो आज सिर्फ जय श्रीराम कह कर मंदिर के धंधे कैसे चलाए जाएं की दी जा रही है.

दान के प्रचार का पाखंड

इतिश्हारी लत ने दीवाना बना दिया,

तसवीर खिंचाने का बहाना बना दिया.

खैरात से भी ज्यादा के ढोल बज गए,

लोगों ने गरीबी को फसाना बना दिया.

गरीबों की मदद के नाम पर बढ़ते प्रचार के बारे में ये लाइनें बड़ी मौजूं लगती हैं. दरअसल, गरीबी की समस्या हमारे देश में आज भी बहुत भयंकर है.

हालांकि आजादी के बाद से ‘गरीबी हटाओ’ का नारा व गरीबों के लिए चली सरकारी स्कीमों में पानी की तरह पैसा बहाया गया है, लेकिन हिस्साबांट के चलते गरीबी बरकरार है. साल 2016 में 37 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे. गांव हों या शहर, गरीब लोग हर जगह बहुत बड़ी तादाद में मिल जाते हैं.

ऐसे में बहुत से लोग पुण्य लूटने की गरज से गरीबों की मदद करते हैं. गरीबों को मुफ्त सामान का लालच दे कर बुलाते व रिझाते हैं और उन्हें सामान देते हुए अपना फोटो खिंचाते हैं. इतना ही नहीं, उन फोटो का इस्तेमाल अपनी दरियादिली के प्रचार में करते हैं.

दरअसल, जिस दान में प्रचार खूब किया जाए वह पाखंड है, जो दानदक्षिणा का माहौल बनाने के लिए किया जाता है. इन में पंडितों के फोटो तो लिए नहीं जाते, क्योंकि पंडित अब दान नहीं लेता. वह तो उलटे दान देने वाले को पुण्य कमाने का मौका व पुण्य लाभ देता है.

ऐसे में दान देने वाला लाभार्थी हो जाता है. वक्त के साथ दान देने के तौरतरीके भी बदल गए हैं. ज्यादा से ज्यादा दान इकट्ठा करने की गरज अब तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी व काशी विश्वनाथ वगैरह बहुत से मंदिरों द्वारा भक्तों के लिए घर बैठे औनलाइन व ईवालेट से दान देने की सहूलियतें मुहैया कराई गई हैं.

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तिरुपति बालाजी जैसे कुछ मंदिरों ने तो अपने डीमैट खाते खोल लिए हैं, ताकि नकदी, सोना व हीरेजवाहरात के अलावा शेयर्स भी लिए जा सकें.

यह कैसी मदद

गरीबों के हक हड़प कर भ्रष्ट नेता, अफसर और मुलाजिम अमीर हो रहे हैं, इसलिए गरीब लोग उन के लिए दूध देने वाली गाय साबित हो रहे हैं.

ऐसे लोग गरीबों को आसान व कारगर औजार बना कर अपना मकसद पूरा करने में लगे रहते हैं. गरीबी से पार पाने के लिए टिकाऊ व मुकम्मल रास्ता दिखाने के बजाय उन्हें मुफ्तखोरी के लिए उकसाते रहते हैं, ताकि वे काम व कोशिश न करें और हाथ में कटोरा थामे पीढ़ी दर पीढ़ी गरीब ही बने रहें.

यही वजह है कि गरीबों की मदद के नाम पर उन की वक्ती जरूरतों की चीजें भोजन, कपड़े व बरतन बांटने की रस्मअदायगी की जाती है.

इस काम में सरकारें भी पीछे नहीं हैं, इसलिए मुफ्त का माल झपटने के चक्कर में अकसर जहांतहां हादसे होते रहते हैं. छीनाझपटी करते वक्त गरीब लोग एकदूसरे को कुचल देते हैं.

पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर शहर में सरकारी कंबल बांटते समय हुई ऐसी ही एक घटना में बहुत से लोग जख्मी हो गए थे.

समाजसेवा का डंका पीटने वाले चालाक लोग गरीबों की मदद के नाम पर थोड़ा पैसा खर्च कर अपना नाम चमकाने व मशहूर होने की जुगत में लगे रहते हैं. वे अकसर कुछ चीजें गरीबों को बांटते हैं और ज्यादा का दिखावा करते हैं, इसलिए हकीकत में काम कम व प्रचार ज्यादा होता है. अखबारों से सोशल मीडिया तक कंबल, खाना व कपड़े वगैरह बांटने वालों के फोटो सुर्खियों में छाए रहते हैं.

कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना

ज्यादातर मामलों में गरीबों को दान इनसानियत दिखाने या राहत पहुंचाने से ज्यादा वाहवाही लूटने व प्रचार पाने की गरज से किए जाते हैं. गरीबों की मदद करने को भी बहुत से लोगों ने अपना धंधा बना लिया है. बहुत सी कागजी संस्थाएं गलीमहल्लों में बढ़ रही हैं.

कई लोग खासकर छुटभैए नेता गरीबों की मदद व समाजसेवा के नाम पर बेहिसाब चंदा इकट्ठा करते हैं और अपना मतलब साधने में लगे रहते हैं. इस में फायदा उन का व नुकसान आम जनता का होता है. जो जना पंडितों के नाम पर गरीबों को थोड़ा सा दान करेगा, वह पंडितों के कहने पर पंडों और मंदिरों को तो मोटा दान करेगा ही.

इनसानियत के नाते मुसीबतजदा, जरूरतमंद अपाहिजों वगैरह की मदद करना सही व सब का फर्ज है. बेसहारा को इमदाद देना अच्छा है, लेकिन किसी मजबूर की असल मदद करना बेहतर है. जिस में दायां हाथ दे और बाएं हाथ को खबर न हो यानी कहीं कोई जिक्र न हो. बात जबान पर आने से लेने वाले को ठेस लगती है.

उस पर अहसान जताने व अपनी दरियादिली के ढोल बजाने से तो गरीब जीतेजी मर जाता है, लेकिन अमीरों को इस से कुछ फर्क नहीं पड़ता.

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वे गरीबों को दिए दान के प्रचार से नाम कमा कर एक तरह से अपने दान की कीमत वसूलते हैं और मुफ्त सामान पाने के लालच में गरीब यह खेल समझ ही नहीं पाते.

तिल का ताड़

गरीबों को दान देने वाले भूल जाते हैं कि दान को बढ़ाचढ़ा कर नहीं बताना चाहिए. दिए गए दान का बारबार बखान करने, अपनी शान व शेखी बघारने, ढिंढोरा पीटने से देने वाले में गुरूर बढ़ता है और लेने वाले का जमीर खत्म हो जाता है.

इस के बावजूद गरीबों की मदद के नाम पर तरहतरह से प्रचार के पाखंड रचे जाते हैं, ताकि समाज में नाम ऊंचा हो व दानवीरता के तमगे मिलें. आजकल यह दिखावा जंगल में आग की तरह फैल रहा है.

गरीबों को मुफ्त चीजें बांटने वाले लोग बड़ी ही बेशर्मी से हंसतेमुसकराते हुए गरदन ऊंची कर के इस तरह से अहसान जताते नजर आते हैं, जैसे कि उन्होंने गरीबों को जागीर सौंप दी हो. फिर गरीबों को सामान देते हुए फोटो खिंचाना, वीडियो बनाना व तारीफ हासिल करने के लिए ह्वाट्सएप और फेसबुक वगैरह पर पोस्ट करना तो आम बात है. इस के अलावा स्मारिकाओं में चिकने कागज पर दानदाताओं के रंगीन फोटो छापे जाते हैं.

इमदाद लेने वाले मजबूर की गरदन तो पहले ही गुरबत, शर्म व अहसान के बोझ से झुकी रहती है, ऊपर से मदद लेते वक्त फोटो खिंचा कर उस की नुमाइश लगाने में उस गरीब की आंखें जमीन में गड़ जाती हैं.

देखा जाए, तो गरीबों को दान दे कर उस का प्रचार करना उन के लिए किसी दिमागी सजा से कम नहीं है. गरीबों को दान कर के अपना प्रचार करने की भूख उन करोड़ों की तरह होती है, जिन की मार गरीबों के बदन पर तो नहीं दिखती, लेकिन उन के भीतर उतर कर उन के यकीन को हिला देती है.

उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में गढ़ रोड पर रंगोली मंडप के पास एक मलिन बस्ती है. इस में आएदिन कई संगठनों के लोग गरीबों को फल, दूध, बिसकुट वगैरह खानेपीने व जूते, कपड़े वगैरह इस्तेमाल की चीजें बांटने के लिए आते रहते हैं. सामान देते वक्त ज्यादा जोर फोटो खिंचवाने पर लगा रहता है, इसलिए अगले दिन अखबारों में खबर के साथ फोटो छपते हैं.

एक संस्था के कर्ताधर्ता का कहना था, ‘‘जिस तरह से बुराइयों को देखसुन कर लोगों पर उन का खराब असर पड़ता है. बहुत से लोग उन्हें अपना लेते हैं, ठीक उसी तरह से लोगों पर नेकियों का अच्छा असर भी पड़ता है.

‘‘अच्छे काम होते देख कर भी लोग उन से सीख व सबक लेते हैं, इसलिए गरीबों की मदद करने वाले कामों का प्रचार करने से उन का सिलसिला आगे बढ़ता है.’’

गरीबों को दान दे कर उस के प्रचार का पाखंड रचने वाले लोग भले ही अपने हक में कितनी भी दलीलें दें, लेकिन सच यही है कि दान के प्रचार की लत हमारे समाज में नई नहीं है.

दान के प्र?????चार से ही तो दक्षिणा के लिए माहौल बनता है. नए चेले व चेलियां जाल में फंसते हैं. पुण्य का फायदा हासिल करने की गरज से सदियों से ऐसा होता रहा है. बरसों पुराने मंदिरों व धर्मशालाओं वगैरह में आज भी दीवारों व चबूतरों पर लगे पत्थरों पर दान देने वालों के नाम खुदे हुए देखे जा सकते हैं.

प्रचार की भूख में बहुत से लोग तो अपनी अक्ल को उठा कर ताक पर रख देते हैं. दुनिया से जा चुके अपने मांबाप की याद में फर्श पर लगवाए पत्थरों पर ही उन के नाम खुदवा देते हैं.

फर्श पर लगे पत्थरों के साथसाथ उन पर खुदे मांबाप के नामों पर भी लोग पैर रख कर आतेजाते रहते हैं व दान के चक्कर में फंस कर मांबाप का नाम ऊंचा होने की जगह मिट्टी में मिल जाता है.

सर्दियों के दौरान बड़े शहरों में सड़क किनारे पड़े गरीबों को रजाईकंबल बांटने वालों की बाढ़ सी आ जाती है. कई बार देखा है कि बहुत से गरीबों को दान में दिया गया सामान अगले ही दिन उन गरीबों के पास नहीं होता और वे फिर से अपनी उसी खराब हालत में दिखाई देते हैं, क्योंकि ज्यादातर गरीब बदहाल जिंदगी के आदी हैं, इसलिए कुछ भी मिलने के थोड़ी देर बाद ही वे दान में मिली चीजें औनेपौने दामों पर बाजार में बेच देते हैं. गरीबों को दी गई मदद भी उन के हालात बदलने में नाकाम साबित होती है.

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असली मदद

मुफ्त का खाना सिर्फ 5-6 घंटे को पेट भरता है. अगले वक्त फिर भूख लगती है. दान का कपड़ा भी चंद बरस चलता है, लेकिन अपनी मेहनत व दिमाग से आगे बढ़ने की राह ताउम्र काम आती है, इसलिए गरीबों को दान की बैसाखी देने से बेहतर है उन्हें खुद अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करना. अपनी कोशिश से ऊपर उठ कर जिंदगी संवर कर निखर जाती है. भीख का कटोरा व दूसरों की और ताकना छूट जाता है.

लिहाजा, गरीबों पर तरस खा कर, उन्हें दान दे कर दूसरों के रहमोकरम पर जीने का आदी बनाने से अच्छा है. उन की सच्ची व सही मदद करना, ताकि उन में खुद पर यकीन पैदा हो और वे खुद गरीबी से नजात पाने की कोशिश करें. यह मुश्किल नहीं है.

करोड़ों गरीबों व भिखारियों को कम ब्याज पर 10 अरब डौलर के छोटे कर्ज दिला कर रोजगार में लगाने वाले बंगलादेश के मोहम्मद यूनुस को साल 2006 में नोबल पुरस्कार मिला था. उसी का नतीजा है कि आज बंगलादेश भारत व पाकिस्तान से ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रहा है.

माइक्रो फाइनैंसिंग के जरीए गरीबों की मदद करने व कामयाब मुहिम चला कर गरीबों को नई जिंदगी दे कर मिसाल बने मोहम्मद यूनुस का नाम आज दुनियाभर में जाना जाता है.

भारत में भी ऐसे काम होना लाजिमी है. साथ ही, गरीबों की तालीम, हुनर व काबिलीयत बढ़ा कर उन्हें ज्यादा पैसा कमाने के गुर सिखा कर भी निठल्लेपन व नशे जैसी बुराइयों से नजात दिलाना भी उन की मदद करने से कम नहीं है.

गरीबों को माली इंतजाम के उपाय बता कर उन की फुजूलखर्ची घटाई जा सकती है. वे ज्यादा कमा कर बचत करना सीख सकते हैं. जागरूक हो कर धार्मिक अंधविश्वासों से छुटकारा पा सकते हैं. अपनी जेबें हलकी होने से बचा सकते हैं, इसलिए मुफ्त की चीजें देने से अच्छा है कि उन्हें साफसुथरा रह कर बेहतर व सुखी जिंदगी बिताने के तौरतरीके समझाए जाएं.

सही राह दिखाना ही गरीबों की सच्ची मदद करना है. इस से हमारे समाज में सदियों से चली आ रही गरीबी के कलंक से छुटकारा मिल सकता है.

आपदा बनी सत्ता के लिए एक अवसर

कहा जाता है कि आपदा अपने साथ मौके ले कर आती है. सत्ता साजिशों में कामयाब होती है, तो उन्हें अपने लिए मौकों में तबदील कर लेती है और जनता जागरूक व लड़ाकू होती है तो हालात को अपने मुताबिक ढाल लेती है.

भारत के लिहाज से आज के हालात देखें तो सत्ता इस कोरोना रूपी आपदा को मौके में तबदील करती नजर आ रही है. सरकारों ने लौकडाउन के बीच नियम बनाया कि 33 फीसदी से ले कर 50 फीसदी तक लोग काम कर सकते हैं, मगर साथ में श्रम कानूनों में बदलाव कर के काम के घंटे 8 से बढ़ा कर 12 कर दिए हैं यानी तैयारी ऐसी कि जो मजदूर पलायन कर के जा रहे हैं, उन में से 50 फीसदी के लिए दोबारा आने के दरवाजे बंद हो जाएंगे. कम वेतन में ज्यादा काम करवाने का इंतजाम कर लिया गया है.

भारत में  43 करोड़ मजदूर हैं, जिन में से तकरीबन 39 करोड़ असंगठित क्षेत्र से हैं. मतलब साफ है कि तकरीबन 18 करोड़ मजदूरों की नौकरी जा सकती है. सरकार ने 40,000 करोड़ रुपए मनरेगा के लिए अतिरिक्त आवंटित किए हैं, ताकि कुछ दिनों के लिए मजदूर वहीं लग जाएं और उस समय का इस्तेमाल करते हुए पूंजीवादी मौडल को दुरुस्त कर लिया जाए.

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विदेशों से लाखों लोग हवाईजहाजों से लाए गए व विभिन्न राज्यों में फंसे पैसे वाले परिवारों के छात्रों को एसी बसों से घर लाया गया, मगर मजदूरों की गांव वापसी की राहों में कांटे बिछा कर डरावना अनुभव करवाया जा रहा है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कह रही हैं कि विपक्ष राजनीति कर रहा है, राज्य सरकारें अतिरिक्त ट्रेनों की मांग क्यों नहीं कर लेतीं? वित्त मंत्री को पता है कि सब से बुरी हालत मध्य प्रदेश, बिहार व उत्तर प्रदेश के मजदूरों की हो रही है और तीनों राज्यों में इन की ही सरकार है, मगर वे विपक्ष पर आरोप लगाते हुए कह रही हैं कि पलायन करने वालों की पीड़ा पर राजनीति नहीं करनी चाहिए.

सरकार ने बड़ी चतुराई के साथ राहत पैकेज को पूंजीवादी मौडल को दुरुस्त करने की तरफ बढ़ा दिया और बातें किसानमजदूर की हो रही हैं. फिजाओं में स्वदेशी अपनाओ व आत्मनिर्भर सरीखे जुमले फेंक कर विदेशी निवेश की सीमा बढ़ा दी गई और यहां तक रक्षा उद्योगों तक मे 50 फीसदी से ज्यादा के निवेश की अनुमति दे दी गई यानी अब हमारे लिए रक्षा उपकरण बनाने वाली कंपनियों पर मालिकाना हक विदेशियों का होगा.

लाजिम है जो करोड़ों मजदूर शहरों से गांवों में गए हैं तो उन का आर्थिक भार गांवों को ही उठाना होगा और जो मनरेगा में 40,000 करोड़ रुपए अतिरिक्त दिए हैं, वे कुछ दिन मजदूरों को थामने का लौलीपौप मात्र है. किसानों को अतिरिक्त कर्जे की जो घोषणा हुई है वह किसानों को कर्ज में डुबोने वाली साबित होगी. बड़े लुटेरों के लिए दिवालिए कानून पर एक साल के लिए रोक लगा दी गई, मगर किसानों की जमीनों की कुर्की पर कोई रोक नहीं लगाई गई है. संकेत साफ है कि नई कृषि नीति के तहत कंपनियां किसानों की जमीनों पर खेती के लिए निवेश करेंगी और किसान व जो मजदूर फ्री किए गए हैं, दोनों मिल कर खेतों में मजदूरी करेंगे.

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किसानों व मजदूरों के लिए सत्ता की तरफ से इशारा साफ है कि उद्योगों में कम मैनपावर से ज्यादा श्रम करा कर पूंजी निर्माण करवाया जाएगा और खेतीकिसानी में ज्यादा मजदूर धकेल कर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरीए खेतों पर कब्जा करवाया जाएगा. जब मजदूर व किसान सत्ता की नीतियों से समान रूप से प्रभावित होने जा रहे हैं तो आज अकेले ही मजदूर सड़कों पर क्यों पिट रहे हैं? लुटेपिटे मजदूर आने किसानों के हिस्से में ही हैं तो मजदूरों के साथ अभी किसान एकजुटता दिखाते हुए लड़ क्यों नहीं लेते?

अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि सब्र की भी एक सीमा होती है. गुजरात के राजकोट में मजदूरों के सब्र की सीमा टूट पड़ी और उस की भेंट चढ़ गए मीडिया के लोग. दरअसल, मजदूरों की आवाज न उठाने के चलते लोग मीडिया से भी सख्त नाराज हैं.

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