एक-एक कर बिखरता जा रहा एनडीए गठबंधन, 1999 में पहली बार देश में बनाई थी सरकार

महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन चल रहा है. जबकि जनता ने शिवसेना और बीजेपी के गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिया. लेकिन सीएम पद की खींचतान के बीच महाराष्ट्र की जनता को इनाम स्वरूप राष्ट्रपति शासन मिल गया जबकि जनता का इसमे कोई दोष नहीं है. राजनीति के इतिहास में जाकर खोजना होगा कि आखिरकार गठबंधन की राजनीति का सूर्योदय कब हुआ और आखिरकार क्या ये वही एनडीए है जिसने कभी 24 दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी और सफलतापूर्वक पांच साल भी पूरे किए थे.

देश में गठबंधन की राजनीति 1977 में ही शुरू हो गई थी, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा था और इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा दिया था. इस गठबंधन ने इंदिरा को कुर्सी से हटा दो दिया लेकिन गठबंधन सरकार चलाने में असफल रहे और 1980 में दोबारा इंदिरा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापिस काबिज हो गईं.

गठबंधन को सफल राजनीति करने के मामले में सबसे पहले नाम आता है पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का. वाजपेयी ने 24 दलों को साथ लाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए बनाया और पांच साल तक सरकार चलाई. अटल की यह उपलब्धि इसलिए भी खास थी क्योंकि उनसे पहले कोई भी गठबंधन सरकार पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी.

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उन 24 दलों में कुछ प्रमुख पार्टियों के नाम में यहां लेना चाहूंगा. जनता दल (यूनाइटेड), शिवसेना, तेलगू देशम पार्टी, एआईडीएमके या अन्नाद्रमुक, अकाली दल. ये वो सहयोगी थे जिन्होंने बीजेपी को समर्थन दिया था और पहली बार 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पांच साल गठबंधन हुआ था. लेकिन अब वक्त कुछ बदल गया. एनडीए के ज्यादातर सहयोगी उससे दूर होते जा रहे हैं.

इसका प्रमुख कारण है सत्ता का एकाधिकार. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी ने सभी सहयोगियों को समान अधिकार दिए और सभी की बात सुनी. 2004 में हुए चुनावों में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. उसके बाद सबसे बड़ा राजनीतिक बदलाव तब आया जब 2014 में बीजेपी पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई. देखते ही देखते कई राज्यों में बीजेपी की सरकार बनती चली गई. नॉर्थ ईस्ट में कभी भाजपा एक-एक सीट को मोहताज रहती थी लेकिन बाद में वहां भी सरकार बनाई.

आखिरकार क्यों एनडीए लगातर बिखरता जा रहा है

मेरे अनुसार दो बातें हो सकती हैं. पहली बात बीजेपी का बढ़ता जनाधार जिसकी वजह से बीजेपी को ये लगता है कि वो बिना की सहयोगी के भी चुनाव जीत  सकती है और  सरकार बना सकती है. दूसरी बात बीजेपी को अब गठबंधन पसंद ही नहीं है. क्योंकि उसमें दूसरे दल का भी बराबर से दखल होता है. शिवसेना इसका जीता जागता उदाहरण है.

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बीजेपी-शिवसेना सबसे पक्के दोस्त माने जाते थे. लेकिन राजनीतिक लालच से दोनों को जुदा कर दिया है. शिवसेना को लग रहा था कि बीजेपी को अगर दोबारा चांस मिला था राज्य से उसकी सियासी जड़ें समाप्त हो जाएंगी. शिवसेना अपनी सियासी जमीन को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी इसी वजह से शिवसेना ने ऐसी मांग रख दी जो बीजेपी को नागवार गुजरी.

बिहार में जनता दल (युनाइटेड)

एनडीए में शामिल दूसरी पार्टी जद(यू) है. यहां भी बीजेपी और जदयू के बीच सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है. एकबार तो दोनों का गठबंधन टूट भी चुका था और नीतीश कुमार ने अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाया और सरकार का गठन किया लेकिन ये बेमेल जोड़ी नहीं चल सकी और नीतीश कुमार ने बीजेपी से हाथ मिला ही लिया. लेकिन अब क्या हो रहा है. बेगूसराय से भाजपा सांसद गिरिराज सिंह समय-समय पर नीतीश कुमार को घेरते रहते हैं. नीतीश की पार्टी के भी कई नेता बीजेपी पर अपना गुस्सा जाहिर करते रहते हैं. दोनों के बीच मनमुटाव चर रहा है. जनता दल बीजेपी से अपनी नाराजगी भी व्यक्त कराती रहती है.

अब यहां हम बात कर लेते हैं झारखंड की. यहां पर भाजपा आजसू के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है.  सीटों के बंटवारे के मसले पर भाजपा के बैकफुट पर न आने के बाद पार्टी से जुड़े सूत्र इस सवाल का जवाब हां में दे रहे हैं. राज्य की कुल 81 सीटों में भाजपा अब तक 71 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है. सिर्फ 10 सीटें छोड़कर भाजपा ने गेंद आजसू के पाले में डाल रखी है.

अगर इन सीटों पर आजसू ने रुख साफ नहीं किया तो भाजपा अपने दम पर सभी सीटों पर लड़ने की तैयारी में है. भाजपा को लगता है कि चुनाव पूर्व गठबंधन से ज्यादा बेहतर है जरूरत के हिसाब से चुनाव बाद गठबंधन करना.

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2014 में भाजपा को सबसे ज्यादा 37 सीटें मिलीं थीं. भाजपा ने स्थिर सरकार देकर जनता के दिल में जगह बनाई है. भाजपा मजबूत है और अकेले लक्ष्य हासिल कर सकती है.” झारखंड में सहयोगी आजसू ने कुल 19 सीटें मांगीं थीं, जबकि पिछली बार भाजपा ने उसे आठ सीटें दीं थीं, जिसमें से उसे पांच सीटों पर जीत मिली थी.

भाजपा को लगा कि महाराष्ट्र की तरह अगर झारखंड में भी उसने गठबंधन में अधिक सीटों पर समझौता किया तो फिर मुश्किल हो सकती है. चुनावी नतीजों के बाद जब शिवसेना साथ छोड़ सकती है तो फिर झारखंड में सहयोगी दल आजसू भी आंख दिखा सकती है.

इसी वजह से पार्टी ने पिछली बार से दो ज्यादा यानी अधिकतम 10 सीट ही आजसू को ऑफर की है. यही वजह है कि भाजपा ने 10 सीटें फिलहाल छोड़ी हैं. मगर आजसू ने भी सीटों के बंटवारे पर झुकने का फैसला नहीं किया. नतीजा रहा कि आजसू ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा के खिलाफ भी चक्रधरपुर से अपना प्रत्याशी उतार दिया.

भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्य के विधानसभा चुनाव प्रभारी ओम माथुर सीटों के बंटवारे और गठबंधन के भविष्य की गेंद फिलहाल आजसू के पाले में डाल चुके हैं. पत्रकारों से बातचीत में वह कह चुके हैं, “भाजपा ने कुछ सीटें छोड़ी हैं, अब हम आजसू के रुख का इंतजार कर रहे हैं.”

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कमलेश तिवारी हत्याकांड खुलासे से खुश नहीं परिवार

लखनऊ में हिंदू समाज पार्टी के नेता कमलेश तिवारी की हत्या के बाद शुरुआती जांच में पुलिस ने मामले को निजी दुश्मनी से जोड़ा था. उस समय कमलेश तिवारी की मां कुसुमा देवी ने भी सीतापुर के भाजपा नेता शिवकुमार गुप्ता पर इस हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया था. लेकिन अचानक हत्या वाली जगह पर गुजरात के सूरत की धरती मिठाई शौप की आधा किलो काजू बरफी की 650 रुपए की रसीद और उस दुकान का कैरी बैग मिलने के बाद जांच का रुख बदल गया.

जिस रसीद को पुलिस अपनी जांच का आधार बना कर आगे बढ़ी, वह 16 अक्तूबर, 2019 की थी. 16 अक्तूबर को सूरत से चल कर 17 अक्तूबर की रात में आरोपी लखनऊ कैसे पहुंचे, यह पुलिस को पक्के तौर पर नहीं पता है. सूरत से लखनऊ आने वाली रेलगाड़ी उस दिन लेट थी.

यही नहीं, खुद कमलेश तिवारी ने इस हत्याकांड से कुछ दिन पहले अपने एक बयान में कहा था कि योगी सरकार उन की सिक्योरिटी हटा कर उन के ऊपर हमला करने वालों को मदद देने का काम कर रही है. मरने वाले कमलेश तिवारी और उन की मां कुसुमा देवी के बयान के बाद भी प्रदेश पुलिस ने बयान की दिशा में जांच को एक कदम आगे बढ़ाने लायक नहीं सम झा.

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उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने कमलेश तिवारी की हत्या के पहले भले ही उन की सिक्योरिटी में कटौती की हो, पर हत्या के बाद उन के परिवार को 15 लाख रुपए नकद और सीतापुर में एक मकान देने के साथ उन के परिवार को ऐसी सिक्योरिटी दी कि खुद परिवार के लोग खुल कर बोल नहीं पा रहे हैं.

लखनऊ के जिला प्रशासन ने कमलेश तिवारी की मां, पत्नी और बेटों को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलवाने का काम किया.

मुख्यमंत्री से मिलने के बाद भी मां कुसुमा देवी संतुष्ट नहीं थीं. उन का कहना था कि उन्हें सरकार की मदद नहीं चाहिए. पत्नी किरन ने 15 लाख रुपए का चैक अफसरों से लिया जरूर है, पर वे इस राहत से खुश नहीं थीं. यही नहीं, किरन तिवारी ने अपने पति कमलेश तिवारी द्वारा बनाई गई हिंदू समाज पार्टी के अध्यक्ष पद को खुद संभाल लिया.

किरन तिवारी ने कहा कि हिंदू समाज को जगाने का जो काम उन के पति ने शुरू किया था, अब वे खुद उस को आगे बढ़ाने का काम करेंगी.

उत्तर प्रदेश पुलिस ने 48 घंटे के अंदर कमलेश तिवारी हत्याकांड को सुल झाने का दावा भले ही किया हो, पर खुद कमलेश तिवारी का परिवार इस खुलासे से रजामंद नजर नहीं आ रहा है.

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ऐसे बढ़ी परेशानी

हिंदू समाज पार्टी के अध्यक्ष कमलेश तिवारी की हत्या को उत्तर प्रदेश की सरकार भले ही धार्मिक कट्टरपन से जोड़ कर देख रही हो, लेकिन कमलेश तिवारी का परिवार इस खुलासे से खुश नहीं है. ऐसे में यह सवाल बारबार उठ रहा है कि परिवार के सीधे आरोप लगाने के बाद भी पुलिस जांच के लिए आरोपी नेता से पूछताछ करने को भी तैयार नहीं है, जबकि वह नेता भाजपा से जुड़ा हुआ बताया जाता है.

असल में इस की एक बड़ी वजह हिंदू राजनीति में कमलेश तिवारी का बढ़ता कद मानी जा रही है.

50 साल के कमलेश तिवारी खुद की पहचान हिंदूवादी नेता के तौर पर बनाए रखना चाहते थे. इस वजह से दिसंबर, 2015 में उन्होंने मुसलिम पैगंबर हजरत मोहम्मद को निशाने पर लिया था.

दिसंबर, 2015 में कमलेश तिवारी ने ऐलान किया था कि वे हजरत मोहम्मद पर एक फिल्म बनाएंगे, जिस में उन के चरित्र को उजागर किया जाएगा. तब कमलेश तिवारी ने हजरत मोहम्मद के बारे में कई और एतराज जताने वाली बातें कही थीं.

इस के बाद पूरी दुनिया के मुसलिमों ने कमलेश तिवारी का तीखा विरोध किया था. सहारनपुर के रहने वाले मुसलिम मौलाना मुफ्ती नवीम काजमी और इमाम मौलाना अनवारूल हक द्वारा कमलेश तिवारी का सिर काट कर लाने वाले को डेढ़ करोड़ रुपए और हीरों का इनाम देने का वादा किया गया था. इस बात का वीडियो भी पूरे सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था.

मुसलिम समाज का जिस तरह कमलेश तिवारी को ले कर बड़े लैवल पर विरोध शुरू हुआ तो उसी की प्रतिक्रिया में हिंदुओं में उन का समर्थन शुरू हो गया. कमलेश तिवारी को पता था कि उन की कही बातों की कड़ी प्रतिक्रिया होगी, जिस के चलते उन की कट्टर हिंदूवादी नेता की इमेज बन सकेगी. वे अपनी इस योजना में कामयाब हो गए थे.

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उस समय की अखिलेश सरकार ने कमलेश तिवारी को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून  (रासुका) के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था. जेल में कमलेश तिवारी को इस बात का मलाल हो रहा था कि हिंदू महासभा के लोग उन की मदद को नहीं आए.

अब तक कमलेश तिवारी सोशल मीडिया पर कट्टरवादी हिंदू का चेहरा बन कर उभर चुके थे. सोशल मीडिया पर उन के चाहने वाले बढ़ चुके थे.

जेल से बाहर आने के बाद अखिलेश सरकार ने 12-13 सिपाहियों का एक सिक्योरिटी दस्ता कमलेश तिवारी की हिफाजत में लगा दिया था. ऐसे में अब कमलेश तिवारी बड़े हिंदूवादी नेता के रूप में उभरने लगे थे. उन का कद बढ़ने से हिंदू महासभा में उन को ले कर मतभेद शुरू हो गए थे. तब कमलेश तिवारी ने खुद की एक पार्टी हिंदू समाज बना कर प्रदेश में हिंदू राजनीति को धार देनी शुरू की थी.

बढ़ता गया विरोध

जैसेजैसे हिंदू राजनीति में कमलेश तिवारी का कद बढ़ रहा था, हिंदूवादी लोग ही उन का विरोध करने लगे थे.

कमलेश तिवारी ने अपने कैरियर की शुरुआत हिंदू महासभा से की थी. वे इस के प्रदेश अध्यक्ष भी बने थे. कमलेश तिवारी ने हिंदू महासभा प्रदेश कार्यालय के इलाके खुर्शीदबाग का नाम बदल कर ‘वीर सावरकर नगर’ रखा था.

वे नाथूराम गोडसे को अपना आदर्श मानते थे. उन के घर पर नाथूराम गोडसे की तसवीर लगी थी. उन की सीतापुर के अपने गांव में नाथूराम गोडसे के नाम पर मंदिर बनाने की योजना थी. हिंदूवादी लोगों ने ही इस का विरोध शुरू कर दिया था.

कमलेश तिवारी मूल रूप से सीतापुर जिले के संदना थाना क्षेत्र के पारा गांव के रहने वाले थे. साल 2014 में उन्होंने अपने गांव में नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने का काम शुरू किया, तो वहां पर उन का विरोध तेज हो गया. ऐसे में वे मंदिर की नींव नहीं रख पाए.

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कमलेश तिवारी पारा गांव छोड़ कर परिवार के साथ महमूदाबाद रहने चले गए थे. उन के पिता देवी प्रसाद

उर्फ रामशरण महमूदाबाद कसबे के रामजानकी मंदिर में पुजारी थे. कमलेश यहीं पारा गांव में नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाना चाहते थे. 30 जनवरी, 2015 को उन को मंदिर की नींव रखनी थी.

महमूदाबाद में कमलेश तिवारी के पिता रामशरण, मां कुसुमा देवी, भाई सोनू और बड़ा बेटा सत्यम तिवारी रहते हैं.

कमलेश तिवारी हिंदू महासभा के जिस प्रदेश कार्यालय से संगठन का काम देखते थे, वहीं वे खुद भी सपरिवार रहने लगे. कमलेश के बढ़ते कद को कम करने के लिए उन को हिंदू महासभा के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया भी गया था.

इस के बाद कमलेश तिवारी अपनी ‘हिंदू समाज पार्टी’ के प्रचारप्रसार में लग गए थे. अपनी कट्टर छवि को निखारने के लिए वे ज्यादा समय भगवा कपड़े ही पहनने लगे थे.

वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर धार्मिक कट्टरपन के अपने बयानों से वे चर्चा में आने लगे थे, जिस से उन की अपनी इमेज बनने लगी थी. हिंदू समाज पार्टी को तमाम लोग धन और बल से मदद भी करने लगे थे. उत्तर प्रदेश के बाहर कई प्रदेशों में हिंदू समाज पार्टी का संगठन बनने लगा था. कई प्रदेशों में रहने वाले लोग भी पार्टी के साथ काम करने को तैयार होने लगे थे.

हिंदू समाज पार्टी को सब से ज्यादा समर्थन गुजरात से मिला था. वहां पर कमलेश तिवारी ने पार्टी संगठन का गठन कर जैमिन बापू को प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया था.

भगवा राजनीति का भय

उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद योगी आदित्यनाथ प्रदेश में हिंदुत्व का चेहरा बन कर उभरे थे. एक तरफ जहां पूरा प्रदेश हिंदू राजनीति को ले कर योगी आदित्यनाथ के पीछे खड़ा था, वहीं कमलेश तिवारी उन की खिलाफत करते रहते थे. ये लोग हिंदू राजनीति के नाम पर केवल सत्ता हासिल करना चाहते थे.

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कमलेश तिवारी राम मंदिर पर भाजपा की राजनीति से खुश नहीं थे. इस के बाद उन्होंने अयोध्या को अपनी राजनीति का केंद्र बना कर आगे बढ़ना शुरू किया. राम मंदिर पर वे भारतीय जनता पार्टी के कट्टर आलोचक बन गए. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में वे अयोध्या से लोकसभा का चुनाव भी लड़े थे. इस चुनाव में उन को करारी हार का सामना करना पड़ा था.

हिंदू समाज पार्टी की मीटिंग में ‘2022 में एचएसपी की सरकार’ के नारे लगने लगे थे. हिंदू समाज पार्टी को गति देने के लिए कमलेश तिवारी ने देश के आर्थिक हालात, पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचार, पश्चिम बंगाल में हिंदुओं की हत्या, नए मोटर कानून में बढ़े जुर्माने का विरोध, जीएसटी जैसे मुद्दों पर भाजपा की आलोचना करनी शुरू कर दी थी. इन मुद्दों को ले कर वे प्रदेश की राजधानी लखनऊ में धरनाप्रदर्शन भी देने लगे थे.

कमलेश तिवारी अपनी पार्टी का एक बड़ा राष्ट्रीय अधिवेशन कराने की योजना में थे. इस बहाने वे अपनी पार्टी की ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे.

हिंदू राजनीति में कमलेश तिवारी का बढ़ता कद भाजपा सरकार को चुभने लगा था. योगी सरकार ने कमलेश तिवारी की सिक्योरिटी में कटौती कर उन के कद को छोटा करने का काम किया. अब 13 सिपाहियों के सिक्योरिटी दस्ते की जगह केवल 2 सिपाही ही रखे गए. वे सिपाही भी मनमुताबिक सिक्योरिटी करते थे. वारदात वाले दिन भी सिक्योरिटी वाले उन के पास नहीं थे.

कमलेश तिवारी के लगातार कहने के बावजूद भी उन की सिक्योरिटी मजबूत नहीं की गई थी. इस पर कमलेश तिवारी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर खुला आरोप भी लगाया था कि वे चाहते हैं कि मैं मार दिया जाऊं. इस के बाद भी कमलेश तिवारी की बात नहीं सुनी गई.

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कमलेश तिवारी की हत्या के बाद गुजरात एटीएस ने बताया कि वहां पहले भी कमलेश तिवारी पर हमले की बात आतंकवाद फैलाने वालों ने कबूल की थी.

सवाल उठता है कि जब गुजरात एटीएस और उत्तर प्रदेश की इंटैलिजैंस को यह जानकारी थी, तो कमलेश तिवारी को सिक्योरिटी क्यों नहीं दी गई.

मां की नाराजगी

उत्तर प्रदेश सरकार कमलेश तिवारी की जिस बात को पहले नहीं मान रही थी, हत्या के बाद उसी बात को कबूल कर उन की मां कुसुमा देवी की बात मान कर उन के आरोप की जांच तक नहीं करना चाहती है.

पुलिस ने पहले कमलेश तिवारी की बात नहीं मानी. इस के बाद उन की हत्या हो गई. अब कमलेश तिवारी की मां कुसुमा देवी की बात नहीं मान रही है जिस से उन की हत्या का खुलासा शक के घेरे में है. इस से पुलिस के काम करने के तरीके पर सवाल उठते हैं.

पुलिस मानती है कि कमलेश तिवारी की हत्या 34 साल के अशफाक शेख और 27 साल के मोईनुद्दीन पठान ने उन का धार्मिक कट्टरपन से भरा भाषण सुन कर की है. पुलिस ने इस की कड़ी से कड़ी मिला दी है. हत्या के 48 घंटे के अंदर उत्तर प्रदेश और गुजरात पुलिस ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और नेपाल सीमा तक जांच कर ली, पर लखनऊ से 90 किलोमीटर दूर सीतापुर की तरफ जाने की तकलीफ नहीं उठाई.

पूरे मामले को देख कर ऐसा लगता है कि जैसे पुलिस ने पहले कमलेश तिवारी हत्याकांड में अपनी कहानी बना ली. इस के बाद एकएक कर वह उस के किरदार फिट करती गई.

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पुलिस एक तरफ यह कहती है कि हत्यारों ने बड़ी योजना बना कर काम किया, वहीं दूसरी तरफ उस के पास इस बात का कोई ठोस जवाब नहीं है कि ऐसे मास्टरमाइंड हत्यारे वारदात वाली जगह पर सूरत की मिठाई शौप की रसीद और बैग सुबूत के तौर पर छोड़ने की गलती कैसे कर गए?

वहीं दूसरी तरफ पुलिस कहती है कि हत्यारे बेहद शातिर थे. साथ ही, वह यह भी कहती है कि अपने ही वार से हत्यारे घायल हो गए थे. उन के हाथों में चोट लग गई थी.

पुलिस कहती है कि वारदात में पूरी साजिश पहले से तैयार थी, वहीं पुलिस यह भी कहती है कि हत्यारों के पास पैसे खत्म हो गए थे. इस की वजह से वे पकड़ में आ गए.

पुलिस के खुलासे में ऐसे कई छेद हैं जिन के जवाब नहीं मिल रहे हैं. पुलिस के खुलासे से जनता को भले ही राहत मिली हो, पर कमलेश तिवारी की मां कुसुमा देवी खुद खुश नहीं हैं. वे इंसाफ न मिलने की दशा में खुद तलवार उठाने तक की बात कह रही हैं.

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राज्य में चौटाला राजनीति का सूर्योदय, 11 महीने में बदल दी हरियाणा की राजनीति

हरियाणा में बीजेपी ने 75 पार का सपना देखा था लेकिन महज 40 सीटों पर सिमट गई. जबकि 2014 में बीजेपी को 47 सीटें हासिल हुईं थी. यानी की बीजेपी को सात सीटों का नुकसान हुआ है. कांग्रेस को यहां बढ़त मिली है. कांग्रेस ने यहां 31 सीटें जीती हैं. इन सबके के बीच 11 महीने पहले बनी पार्टी जेजेपी ने दमदार प्रदर्शन करते हुए 10 सीटें जीती हैं. इस पार्टी के मुखिया हैं दुष्यंत चौटाला. इनेलो से निकाले जाने के बाद दुष्यंत चौटाला ने नई पार्टी जननायक जनता पार्टी बनाई और अब हरियाणा की राजनीति में दमदार एंट्री की है.

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हरियाणा विधानसभा चुनाव में दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) को 11 सीटें मिलती दिख रही हैं. जेजेपी पिछले साल दिसंबर में जब आईएनएलडी (इंडियन नेशनल लोक दल) से निकलकर जेजेपी बनी तो पहले ही लिटमस टेस्ट में हरियाणा की जनता ने दिखा दिया था कि उसका रुख किधर है. जेजेपी ने अपनी ताकत का एहसास पहली बार तब कराया जब जींद विधानसभा के लिए इस वर्ष 28 जनवरी को उपचुनाव हुए.

बीजेपी, कांग्रेस, आईएनएलडी के साथ लड़ाई में दुष्यंत के छोटे भाई दिग्विजय ने जेजेपी कैंडिडेट के तौर पर 37,631 वोट हासिल किए जबकि 2014 में इस सीट पर जीत हासिल करने वाली आईएनएलडी को महज 3,454 वोटों से संतोष करना पड़ा. 2014 के विधानसभा चुनावों में आईएनएलडी को पूरे हरियाणा में 19 सीटें मिली थीं.

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हरियाणा की राजनीति में चौटाल परिवार सबसे मजबूत माना जाता है. पिछले साल इस परिवार में अनबन हो गई थी. जिसका अजय चौटाला की अपने पिता और आईएनएलडी के मुखिया ओमप्रकाश चौटाला और भाई अभय चौटाला के साथ अनबन हो गई. उसके बाद नवंबर 2018 में अजय चौटाला और हिसार से उनके सांसद पुत्र दुष्यंत चौटाला को आईएनएलडी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. उसके अगले ही महीने दिसंबर 2018 में दुष्यंत चौटाला ने जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) का गठन कर लिया. जेजेपी के बनने से आईएनएलडी को तगड़ा झटका लगा और उसके ज्यादातर पदाधिकारियों ने जेजेपी का रुख कर लिया.

इंडियन नेशनल लोकदल ने हरियाणा पर 2000 से 2004 के बीच आखिरी बार राज किया था और ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री बने थे. उस वक्त पार्टी को 90 में से 47 सीटें हासिल हुई थीं. 2005 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को सिर्फ 9 सीटें मिलीं. 2009 में कुछ राहत मिली और आईएनएलडी ने 31 सीटों पर जीत दर्ज की.

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आईएनएलडी प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में 10 साल की सजा काटने के लिए तिहाड़ जेल में बंद हैं. चौटाला अगर जेल से छूट भी जाते हैं तो उनसे पार्टी में दोबारा जान फूंकने की उम्मीद नहीं के बराबर है क्योंकि वह 84 वर्ष के हो चुके हैं. अभय चौटाला अच्छे मैनेजर बताए जाते हैं, लेकिन वह अपने पिता की तरह जनता के बीच उतने लोकप्रिय नहीं हैं. इस चुनाव ने यह साबित कर दिया है.

पौलिटिकल राउंडअप: ओवैसी ने लताड़ा

हैदराबाद, अपने कड़वे बोलों के लिए बदनाम एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘फादर औफ इंडिया’ बताए जाने पर कहा कि डोनाल्ड ट्रंप एक जाहिल आदमी हैं और पढ़ेलिखे भी ज्यादा नहीं हैं. न तो उन को हिंदुस्तान के बारे में कुछ मालूम है और न ही उन को महात्मा गांधी के बारे में कुछ पता है. ट्रंप को दुनिया के बारे में भी कुछ मालूम नहीं है.

असदुद्दीन ओवैसी ने 25 सितंबर को कहा, ‘‘अगर ट्रंप को मालूम होता तो इस तरह की जुमलेबाजी नहीं करते. महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का खिताब इसलिए मिला, क्योंकि लोगों ने उन की कुरबानी को देख कर उन्हें यह उपाधि दी थी. इस तरह के खिताब दिए नहीं जाते, हासिल किए जाते हैं.’’

हाईकोर्ट हुआ सख्त

अहमदाबाद. हाईकोर्ट ने सरकारी जमीनों को धार्मिक संप्रदायों को दान देने पर बेहद कड़ी टिप्पणी करते हुए 25 सितंबर को कहा कि गुजरात सरकार किसी शख्स या किसी खास धार्मिक संप्रदाय को सार्वजनिक इस्तेमाल की जमीन को दान न दे. जब पूरा देश धर्मस्थलों से भरा पड़ा है, तो राज्य सरकार को किसी खास संप्रदाय पर दरियादिली नहीं दिखानी चाहिए.

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हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी 3 पक्ष वाले एक जमीन के  झगड़े में की जिस में राजकोर्ट नगरनिगम, एक कोऔपरेटिव सोसाइटी और एक धार्मिक ट्रस्ट शामिल हैं. नगरनिगम एक जमीन को धार्मिक ट्रस्ट को बेचना चाहता है लेकिन कोऔपरेटिव सोसाइटी का दावा है कि यह उस की जमीन है.

संजय सिंह को मिली कमान

दिल्ली. अपनी तेजतर्रार इमेज और बेबाक राय के लिए मशहूर आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह को आगामी विधानसभा के लिए प्रभारी बनाया गया है.

इस के साथ ही 26 सितंबर को ‘आप’ की ओर से जारी बयान के मुताबिक, ‘पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव अपनी सरकार के ऐतिहासिक कामकाज के आधार पर लड़ेगी जिस ने चहुंमुखी विकास से राष्ट्रीय राजधानी की तसवीर बदल दी है. हमारे स्वयंसेवी स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली और जलापूर्ति क्षेत्र में दिल्ली सरकार के कामकाज की जानकारी घरघर तक पहुंचाएंगे.’

पिछले कुछ समय से आम आदमी पार्टी दिल्ली में अपनी इमेज बनाने में ज्यादा कामयाब हुई है. अब संजय सिंह को देखते हैं कि वे चुनाव में वोटरों को अपने पक्ष में कैसे लाएंगे.

मांझी का तीर

कटिहार. बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके और हिंदुस्तानी अवाम मोरचा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतनराम मां झी ने 26 सितंबर को राजद नेता तेजस्वी यादव पर आरोप लगाया कि भाजपा के प्रति उन के दिल में ‘सौफ्ट कौर्नर’ है. बिहार विधानसभा के मानसून सत्र के बाद से ही उन के लक्षण सही नहीं हैं.

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यह चिनगारी छोड़ने के साथ ही अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के नेता के चेहरे के सवाल पर जीतनराम मां झी ने कहा कि निजी तौर पर तेजस्वी उन्हें पसंद हैं, लेकिन इस का आखिरी फैसला महागठबंधन को करना है.

फट गए बादल

चंडीगढ़. भाजपा के करीबी रहे शिरोमणि अकाली दल के अब तेवर बदल गए हैं. उस के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने हरियाणा में अपनी पार्टी के एकमात्र विधायक के भाजपा में शामिल होने को गलत बताया.

कलांवली के विधायक बलकौर सिंह 26 सितंबर को नई दिल्ली में भाजपा में शामिल हो गए. उन्होंने मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की राज्य को ‘ईमानदारी’ सरकार देने के लिए तारीफ की.

इस बात से नाराज सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि हर रिश्ते की एक मर्यादा होती है और अकाली दल के मौजूदा विधायक को अपने खेमे में शामिल करने से उन के गठबंधन की मर्यादा टूट रही है.

भाजपा हर जगह मर्यादा की दुहाई देती है, लेकिन किसी दूसरी पार्टी के नेता को अपनी तरफ मिलाने से भी नहीं चूकती है.

परेड की डिमांड

भोपाल. यह किसी सेना की परेड की बात नहीं हो रही है, बल्कि मध्य प्रदेश के हाई प्रोफाइल हनी ट्रैप स्कैंडल में कई नेताओं और अफसरों के शामिल होने पर वहां के एक मंत्री गोविंद सिंह ने कहा है कि अपराधियों के खिलाफ केस दर्ज होना चाहिए. पुलिस को आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज करना चाहिए और उन की पब्लिक में परेड करानी चाहिए.

27 सितंबर को मध्य प्रदेश कांग्रेस दफ्तर के बाहर एक बड़ा बिलबोर्ड लगाया गया जिस में लिखा था कि ‘चाल चरित्र चेहरे’ का दावा करने वाले शिवराज सिंह चौहान अपनी पार्टी के नेताओं के नाम हनी ट्रैप में आने के बाद भी चुप क्यों हैं? इस से पता चलता है कि कुछ तो गड़बड़ है.

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जोड़ीदारों का बंटवारा

मुंबई. एकजैसी विचारधारा के हिमायती रहे भाजपाइयों और शिव सेना वालों में काफी उठापटक के बाद सीटों का बंटवारा तकरीबन हो गया है. भारतीय जनता पार्टी राज्य में 144 सीटों पर और शिव सेना 126 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. दूसरे सहयोगी दलों के लिए 18 सीटें रखी गई हैं.

यही नहीं, भाजपा की तरफ से शिव सेना को उपमुख्यमंत्री पद भी दिया जा सकता है. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस खुद कई बार कह चुके हैं कि वे आदित्य ठाकरे को उपमुख्यमंत्री बना सकते हैं.

सवाल उठता है कि अगर पिछले कुछ सालों में भाजपा ताकतवर हुई है तो उसे ऐसे गठबंधन की जरूरत ही क्यों पड़ती है?

प्रधानमंत्री की उम्मीद

चेन्नई. काफी दिनों के बाद भारत लौटे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 30 सितंबर को कहा कि दुनिया की भारत से ‘बहुत उम्मीदें’ हैं और उन की सरकार देश को ‘महानता’ के उस रास्ते पर ले जाएगी जहां वह पूरी दुनिया के लिए फायदेमंद साबित होगा. इस के साथ ही उन्होंने एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के खिलाफ अपनी मुहिम को दोहराया.

लेकिन प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया कि देश में धर्म, जाति, इलाके के नाम पर जिस तरह लोगों को बांटा जा रहा है, उन में जहर भरा जा रहा, उस से कैसे छुटकारा मिलेगा?

बढ़ी सियासी रार

कोलकाता. भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ममता सरकार पर हमला करते हुए कहा था कि बंगाल में जंगलराज है. इस पर तृणमूल वाले बिदक गए और उन्होंने 28 सितंबर को कहा कि जेपी नड्डा राज्य में विकास नहीं देख सकते, क्योंकि वे खुद जंगल से आए हैं.

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तृणमूल के नेता फरहाद हकीम ने कोसते हुए कहा कि नड्डा को केंद्र में ‘जंगलराज’ क्यों नहीं दिखा, क्योंकि भाजपा की दोष से भरी नीतियों के चलते अर्थव्यवस्था कमजोर हुई है और पूरे देश में नौकरियां गई हैं.

जितेंद्र सिंह के बोल बचन

जम्मू. केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह 29 सितंबर को कटरा में नवरात्रि उत्सव का उद्घाटन करने गए थे. वहां उन्होंने लोगों से कहा कि वे माता वैष्णो देवी का धन्यवाद करें कि जम्मूकश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर दिया गया है.

याद रहे कि केंद्र सरकार ने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधानों को खत्म कर दिया था और राज्य को 2 केंद्रशासित क्षेत्रों जम्मूकश्मीर और लद्दाख में बांट दिया था.

विधानसभा चुनाव सब में अकेले लड़ने की छटपटाहट

झारखंड में इसी साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं. मौजूदा विधानसभा का समय 28 दिसंबर, 2019 को खत्म हो रहा है. हर दल ने चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं, पर सब से खास बात यह है कि गठबंधन के तहत चुनाव लड़ने वाली पार्टियां इस बार अकेले ही चुनावी मैदान में उतरने की जुगत में लगी हुई हैं.

राजग से अलग हो कर जद (यू) अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुका है, वहीं दूसरी ओर महागठबंधन से पल्ला  झाड़ कर कांग्रेस भी अपने दम पर चुनाव में हाथ आजमाने के मूड में है. भाजपा आलाकमान ने अकेले 65 सीटें जीतने का टारगेट फिक्स कर दिया है.

बिहार में भाजपा और जद (यू) का ‘हम साथसाथ हैं’ और  झारखंड में ‘हम आप के हैं कौन’ जैसा रिश्ता होगा.

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झारखंड जद (यू) के अध्यक्ष सालखन मुर्मू ने बताया कि  झारखंड में भ्रष्टाचार काफी बढ़ चुका है और संविधान भी खतरे में है. वहां मौब लिंचिंग की वारदातें बहुत ज्यादा हो रही हैं, इसलिए जद (यू)  झारखंड की सभी विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगा.

उन्होंने दावा किया कि पार्टी के इस फैसले से बिहार में भाजपा और जद (यू) के रिश्ते पर कोई असर नहीं होगा. वैसे, कई राज्यों में भाजपा और जद (यू) का गठबंधन नहीं है. जद (यू) ‘नीतीश लाओ,  झारखंड बचाओ’ के नारे के साथ विधानसभा चुनाव में उतरेगा.

वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के बैनर तले चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस भी अकेले ही चुनाव लड़ने की कवायद में लगी हुई है.

झारखंड कांग्रेस के प्रवक्ता आलोक दुबे कहते हैं कि पिछले कई विधानसभा और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस महागठबंधन में शामिल हो कर चुनाव लड़ती रही है, पर इस से उसे कोई खास फायदा नहीं हो पाया है.  झारखंड मुक्ति मोरचा के वोट कांग्रेस को नहीं मिल पाते हैं. इस वजह से पार्टी आलाकमान से गुजारिश की गई है कि इस बार ‘एकला चलो रे’ की नीति के तहत चुनावी अखाड़े में उतरना पार्टी के लिए बेहतर होगा.

लोकसभा चुनाव में  झारखंड समेत समूचे देश में ताकतवर बनने के बाद भाजपा ने भी इस बार अकेले ही विधानसभा चुनाव में उतरने की कवायद शुरू कर दी है. भाजपा आलाकमान इस बार अपने सहयोगी दलों के बगैर चुनाव लड़ने के नफेनुकसान का आकलन कर रहा है.

14 जुलाई, 2019 को भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा हालात का जायजा लेने रांची पहुंचे थे. पार्टी के सभी पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को उन्होंने टास्क दिया है कि 65 सीटों पर चुनाव जीतने के लिए कमर कस लें. इस के अलावा 25 लाख सदस्य बनाने का टारगेट भी दिया गया है.

गौरतलब है कि 81 सीटों वाली  झारखंड विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 41 सीटों की जरूरत होती है और फिलहाल भाजपा की  झोली में 43 सीटें हैं.  झामुमो 19 सीटें जीत कर दूसरी सब से बड़ी पार्टी है.

बाबूलाल मरांडी के  झारखंड विकास मोरचा ने पिछले विधानसभा चुनाव में 8 सीटें जीती थीं, पर उस के 6 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे. कांग्रेस को 7 और दूसरों को 4 सीटें मिली थीं.

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भाजपा गठबंधन को 35 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2009 के चुनाव में उसे 11 फीसदी ही वोट मिले थे. पिछले लोकसभा चुनाव में  झारखंड में भाजपा को कुल 51 फीसदी वोट मिले थे.

मई, 2019 में हुए आम चुनाव में राज्य की 14 लोकसभा सीटों में से उसे महज 12 सीटों पर जीत मिली थी और बाकी 2 सीटें कांग्रेस की झोली में गई थीं.  झामुमो, राजद,  झाविमो समेत वाम दलों का खाता नहीं खुल सका था.

लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की हार की सब से बड़ी वजह शुरू से ही घटक दलों की खींचतान रही थी. भाजपा को धूल चटाने के मकसद से कांग्रेस,  झामुमो,  झाविमो, राजद को मिला कर बनाया गया महागठबंधन खुद ही धराशायी हो गया था. चतरा लोकसभा सीट पर राजद और कांग्रेस दोनों ने अपनेअपने उम्मीदवार उतार कर महागठबंधन की एकजुटता के दावे को तारतार कर दिया था, वहीं हार के बाद सारे घटक दल एकदूसरे के सिर हार का ठीकरा फोड़ते रहे.

लोकसभा चुनाव के बाद राजद में इस कदर घमासान मचा कि पार्टी दो फाड़ हो गई. अभय सिंह को राजद का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, तो पार्टी के पहले के अध्यक्ष गौतम सागर राणा पार्टी से अलग हो गए. उन्होंने राजद (लोकतांत्रिक) बना कर पार्टी के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है, वहीं भाजपा भी भीतरी उठापटक से अछूती नहीं है.

मुख्यमंत्री रघुबर दास के खिलाफ पार्टी के सीनियर लीडर रवींद्र राय, रवींद्र पांडे और सरयू राय ने मोरचा खोल रखा है. ऐसी हालत में किसी भी दल के लिए अकेले चुनाव लड़ना नई चुनौती खड़ी कर सकता है.

सियासी दलों के दावों और वादों के बीच हकीकत यही है कि आदिवासियों के नाम पर साल 2000 में बने  झारखंड की जनता को बेरोजगारी, विस्थापन और शोषण के सिवा अब तक कुछ नहीं मिला है. सियासी दल पिछले 19 सालों से ऊपर ही ऊपर घालमेल और तालमेल कर सरकार बनाने और गिराने का ड्रामा रच कर मलाई खाते रहे हैं.

आदिवासियों के लिए पिछले कई सालों से आवाज उठा रही दयामनि बारला कहती हैं कि जनजातियों की तरक्की के लिए आजादी के बाद से ले कर अब तक की सरकारी योजनाओं का रत्तीभर भी हिस्सा उन तक नहीं पहुंच सका है.

कोरबा समेत कई जनजातियां मिटने के कगार पर पहुंच चुकी हैं और किसी सियासी दलों को इस की फिक्र नहीं है, वहीं दूसरी ओर तकरीबन साढ़े 3 लाख आदिवासी विस्थापन का दर्द  झेलने को मजबूर हैं.

आदिवासियों की तरक्की के नाम पर  झारखंड राज्य बने 20 साल होने को हैं, पर अब तक न कोई कारगर औद्योगिक नीति बनी है और न ही विस्थापन और पुनर्वास नीति ही सही तरीके से आकार ले सकी है.

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भाजपा पर है रघुबर दास का दबदबा

टाटा स्टील के मजदूर और बूथ एजेंट से ले कर मुख्यमंत्री की कुरसी तक का सफर रघुबर दास के लिए आसान नहीं रहा है. साल 1980 में भाजपा के बनने के समय से ही वे पार्टी से जुड़े रहे और दलबदलू सियासत के बीच कभी भी उन्होंने दल बदलने की नहीं सोची.

रघुबर दास मूल रूप से छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं और उन का गांव बंधीपात्री है. उन के पिता चमन राम टाटा स्टील के लोको ट्रेन में खलासी थे.

3 मई, 1955 को जनमे रघुबर दास ने जमशेदपुर के भालूवासा होराइजन स्कूल से मैट्रिक पास की और उस के बाद जमशेदपुर के सहकारी कालेज से ही इंटर और बीएससी की पढ़ाई की. वे 3 भाई और 6 बहनें हैं. ललित दास उन के बेटे और रेणु साव बेटी हैं.

कालेज के दिनों में रघुबर दास ने छात्र संघर्ष समिति के संयोजक के तौर पर राजनीति का ककहरा सीखा. जमशेदपुर में जेपी आंदोलन की अगुआई की और बाद में जनता पार्टी से जुड़ गए. साल 1980 में भाजपा के बनने के समय ही पार्टी से जुड़े और उसी साल मुंबई में हुए भाजपा के पहले अधिवेशन में भी हिस्सा लिया. पिछले विधानसभा चुनाव में पूर्वी सिंहभूम से 5वीं बार विधायक बने रघुबर दास ने रिकौर्ड 70,000 वोटों से जीत हासिल की थी.

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बांग्लादेशी घुसपैठियों पर सियासी जंग

साल 1985 के बाद से ही बिहार विधानसभा के हर चुनाव में भाजपा बंगलादेशी घुसपैठियों का मामला उठाती रही है. इस के बूते भाजपा को सीमांचल इलाके में कामयाबी भी मिली है.

एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर औफ सिटीजन लिस्ट जारी होने के बाद भाजपाई अब बिहार में भी इसे लागू करने की आवाज बुलंद करने लगे हैं, जबकि उन का सहयोगी दल जनता दल (यूनाइटेड) एनआरसी के विरोध में  झंडा उठाए हुए है.

भाजपा नेताओं का दावा है कि बिहार के सीमांचल इलाकों में मुसलिम आबादी तेजी से बढ़ी है और इस की अहम वजह बंगलादेशी घुसपैठिए ही हैं. कटिहार और पूर्णिया में 40 फीसदी और किशनगंज में 50 फीसदी तक मुसलिम आबादी हो गई है.

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जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, 1971 में अररिया में मुसलिम आबादी 36.52 फीसदी थी, जो साल 2011 में बढ़ कर 42.94 फीसदी हो गई. 1971 में कटिहार में 36.58 मुसलिम थे, जो साल 2011 में बढ़ कर 44.46 फीसदी हो गए. 1971 में पूर्णिया में 31.93 फीसदी ही मुसलिम आबादी थी जो साल 2011 में 38.46 फीसदी तक जा पहुंची.

इस तरह से 40 सालों के दौरान अररिया में 6.4 फीसदी, कटिहार में 7.88 फीसदी और पूर्णिया में 6.53 फीसदी की दर से मुसलिम आबादी बढ़ी है.

साल 1991 में हुई जनगणना में देश में 82.77 फीसदी हिंदू और 11.02 फीसदी मुसलिम थे. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, 79.97 फीसदी हिंदू और 14.22 फीसदी मुसलिम हो गए. इस दौरान मुसलिम आबादी 3.02 फीसदी बढ़ गई और उसी अनुपात में हिंदू आबादी घट गई.

1 सितंबर, 2019 को असम में एनआरसी लिस्ट जारी की गई. 3 करोड़, 11 लाख, 21 हजार, 4 लोगों को लिस्ट में शामिल किया गया. 19 लाख, 6 हजार, 657 लोगों को लिस्ट में जगह नहीं मिली. भाजपा नेता और मंत्री हिमंत बिस्वा ने लिस्ट को आधाअधूरा करार दिया है.

बिहार जद (यू) ने भी सरकार के इस कदम की आलोचना की है. इतना ही नहीं, बिहार में इसे लागू करने का पुरजोर विरोध कर रही है.

भाजपा के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा ने सब से पहले बिहार में एनआरसी की मांग उठाते हुए कहा कि बिहार के सीमांचल इलाकों में आबादी का बैलेंस बिगड़ा है. इन इलाकों में बड़ी तादाद में बंगलादेशी जमीन, रोजगार और कारोबार पर कब्जा जमा चुके हैं.

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भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह कहते हैं कि बिहार में एनआरसी की जरूरत है. राज्य से घुसपैठियों को बाहर करना जरूरी है. पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज, अररिया जैसे सीमांचल इलाकों में बड़े पैमाने पर घुसपैठिए हैं. सुप्रीम कोर्ट की हिदायत पर एनआरसी बनाई गई थी. वहीं दूसरी ओर जद (यू) ने भाजपा की एनआरसी की मांग को खारिज करते हुए कहा है कि असल में तैयार की गई एनआरसी पर खुद वहां की भाजपा सरकार ने नाराजगी जताई है.

जद (यू) के राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी कहते हैं कि असम में एनआरसी पूरी तरह से दुरुस्त और सही नहीं है. विदेश मंत्रालय भी साफ कर चुका है कि एनआरसी लिस्ट से बाहर रहने वालों को बाहर नहीं निकाला जाएगा.

बिहार के तकरीबन 35 विधानसभा क्षेत्रों में  20 लाख बंगलादेशी हैं. पश्चिम बंगाल के 52 विधानसभा क्षेत्रों में 80 लाख से ज्यादा बंगलादेशी हैं. सरकारें इन घुसपैठियों पर रहमोकरम बरसाती रही हैं, क्योंकि वे सियासी दलों के एकदम पक्के वोटर जो बने हुए हैं.

भाजपा नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि कई राजनीतिक दल एनआरसी को वोट बैंक के तौर पर देखते हैं, लेकिन भाजपा इसे घुसपैठ और आतंकवाद के रूप में देखती है.

गौरतलब है कि असम संधि के तहत कहा गया है कि साल 1966 से 1971 के बीच बंगलादेश से आए लोगों को भारत के नागरिक के तौर पर रजिस्टर किया गया है. साल 1971 के बाद सीमा पार कर भारत आए लोगों को भारत में रहना गैरकानूनी करार दिया गया है. संधि के तहत ऐसे लोगों को उन के मूल देश वापस भेजा जाना है.

बंगलादेशी घुसपैठिए पूर्वोत्तर भारत यानी असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, बिहार और  झारखंड में भारी पैमाने पर भरे हुए हैं. इतना ही नहीं. दिल्ली में भी बंगलादेशी घुसपैठियों ने अपनी जबरदस्त पैठ बना ली है. गैरकानूनी तरीके से घुस कर बंगलादेशी घुसपैठिए भारत की नागरिकता भी ले रहे हैं.

असम में मंगलदोई संसदीय क्षेत्र में हुए उपचुनाव में महज 2 साल के दरमियान 70,000 मुसलिम वोटरों के बढ़ने के बाद देश में पहली बार बंगलादेशी घुसपैठियों का मामला उजागर हुआ था.

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एक अनुमान के तहत, भारत में बंगलादेशी घुसपैठियों की तादाद तकरीबन 3 करोड़ है. घुसपैठियों की वजह से सीमा से सटे इलाके मुसलिम बहुल हो गए हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि बंगलादेश की पिछली जनगणना में तकरीबन एक करोड़ बंगलादेशी गायब पाए गए हैं. इस से भारत में बंगलादेशी घुसपैठियों के मामले को मजबूती मिली है.

घुसपैठियों के बहाने भाजपा को हिंदुत्व कार्ड खेलने की छूट मिलती है. बंगलादेशी मान कर लोग किसी भी बंगाली मुसलिम को आसानी से विदेशी कह सकते हैं.

आम लोगों को सरकार ने छूट दे दी है कि वे सड़क पर न्याय कर सकें. आज बंगलादेशी होने के नाम पर हिंदी व बंगाली बोलने वाले मुसलिम गुलाम बन गए हैं. वे न जमीन खरीद सकते हैं, न मकान बना सकते हैं. दलित और पिछड़ों के साथ भी यही सुलूक हो रहा है, चिंता न करें.

यह है एनआरसी

एनआरसी का मतलब है नैशनल रजिस्टर औफ सिटीजन. असम भारत का एकलौता राज्य है, जिस के पास एनआरसी है. यह साल1951 में बना था. इस के तहत 27 मार्च, 1971 को बंगलादेश बनने से पहले जो लोग असम में रह रहे थे, उन्हें ही भारतीय नागरिक की मंजूरी दी गई.

साल 1979 में अखिल असम छात्र संघ ने असम में गैरकानूनी रूप से रह रहे घुसपैठियों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था. 6 साल तक चले आंदोलन के बाद 15 अगस्त, 1985 को हुए असम सम झौते के बाद शांत हुआ था.

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दिसंबर, 2013 में नागरिकों की पहचान का काम शुरू हुआ और उस के बाद 2015 में नागरिकों से आवेदन मांगे गए. 31 दिसंबर, 2018 को असम सरकार ने एनआरसी की पहली लिस्ट जारी की थी.

इस देश में रहना है तो कुंडली तो रखनी ही होगी.

नेताओं के दावे हवा-हवाई, दीपावली के पहले ही गला घोंटू हवाओं ने दी दस्तक

कुछ दिनों पहले की ही बात थी कि पौल्यूशन कम को लेकर नेताओं के भाषण चल रहे थे. मीडिया के सामने पहले दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल आए और उन्होंने कहा कि दिल्ली का प्रदूषण पहले से 25 फीसदी तक घट गया है. इसके आगे उन्होंने अपने प्रयास भी गिनवा दिए जोकि प्रयास कम प्रचार ज्यादा समझ आ रहा था.

इसके बाद केंद्र सरकार में कैबिनट मंत्री प्रकाश जावेडकर आए और उन्होंने भी अपना भाषण दे दिया. दोनों ने भाषण दे दिया और प्रदूषण कम भी गया. कुछ ही दिनों बाद दिल्ली एनसीआर में जब लोग अपने घरों से बाहर निकले तो धुंध दिखी. लोगों ने कयास लगाए कि इस बार ठंड कुछ पहले ही आ गई और कुहास आने लगा लेकिन जब वो बाहर निकले तो सांस लेने में भी परेशानी होने लगी. ये ठंड का कुहास नहीं बल्कि वायुमंडल में भरा प्रदूषण है.

इस बार मौसम ने करवट समय से पहले ही ले ली. अमूमन ठंड का आगाज दीपावली बाद देखने को मिलता है लेकिन इस बार दशहरे के बाद से ही ठंड महसूस होने लगी है. इसके साथ ही वायु प्रदूषण भी लगातार बढ़ रहा है. पिछले सप्ताह के मुकाबले रविवार को प्रदूषण के स्तर में दो गुना बढ़ोतरी हुई है. इसकी वजह से शहर रेड जोन में आ गया है.

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वायु गुणवत्ता सूचकांक एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 315 पर पहुंच गया है. ऐसे में लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व उत्तर प्रदेश में पराली जलना शुरू हो गई है. इससे यहां के लोगों को परेशानी हो रही है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2016 में प्रदूषण के कारण पांच वर्ष से कम आयु के एक लाख से अधिक बच्चों की मृत्यु हुई. इनमें भारत के 60,987, नाइजीरिया के 47,674, पाकिस्तान के 21,136 और कांगो के 12,890 बच्चे सम्मिलित हैं. रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण के कारण 2016 में पांच से 14 साल के 4,360 बच्चों की मत्यु हुई. निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पांच साल से कम उम्र के 98 प्रतिशत बच्चों पर वायु प्रदूषण का बुरा प्रभाव पड़ा, जबकि उच्च आय वाले देशों में 52 प्रतिशत बच्चे प्रभावित हुए.

वायु प्रदूषण के कारण विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 70 लाख लोगों की अकाल मृत्यु होती है. संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) के अनुसार भारत में बढ़ता वायु प्रदूषण वर्षा को प्रभावित कर सकता है. इसके कारण लंबे समय तक मानसून कम हो सकता है. द एनर्जी एंड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार शीतकाल में 36 प्रतिशत प्रदूषण दिल्ली में ही उत्पन्न होता है. 34 प्रतिशत प्रदूषण दिल्ली से सटे एनसीआर से आता है. शेष 30 प्रतिशत प्रदूषण एनसीआर और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से यहां आता है.

रिपोर्ट में प्रदूषण के कारणों पर विस्तृत जानकारी दी गई है. रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रदूषण के लिए वाहनों का योगदान लगभग 28 प्रतिशत है. इसमें भी भारी वाहन सबसे अधिक 9 प्रतिशत प्रदूषण उत्पन्न करते हैं. इसके पश्चात दो पहिया वाहनों का नंबर आता है, जो 7 प्रतिशत प्रदूषण फैलाते हैं. तीन पहिया वाहनों से 5 प्रतिशत प्रदूषण फैलता है. चार पहिया वाहन और बसें 3-3 प्रतिशत प्रदूषण उत्पन्न करती हैं. अन्य वाहन एक प्रतिशत प्रदूषण फैलाते हैं.

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दशहरे के अगले ही दिन से प्रदूषण के स्तर में बढ़ोतरी होनी शुरू हो गई थी. हालांकि, पिछले साल के मुकाबले इस बार प्रदूषण स्तर में कमी पाई गई. लेकिन, रविवार को हालात बुरे हो गए. वातावरण में हल्की धुंध के साथ धूल के कण भी नजर आए. अब धीरे-धीरे ठंड बढ़ने लगी है। इसकी वजह से हवा की दिशा में बदलाव हुआ है.

रविवार को एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 315 वैरी पुअर दर्ज किया गया। इसके साथ ही प्रदूषण विभाग द्वारा लगाई गई मशीनों के जरिए पता लगा है कि नोएडा के सेक्टर-62 में 337, सेक्टर-1 में 321, सेक्टर-116 में 314 व सेक्टर-125 में प्रदूषण का स्तर 275 है, जो बहुत खतरनाक है. पूरा शहर रेड जोन में आ गया है. राजधानी दिल्ली के कई इलाकों का आंकड़ा भी बेहद चिंताजनक आया है.

महाराष्ट्र चुनाव में कितनी हावी है वंशवाद की राजनीति, बीजेपी भी नहीं है अछूती

हम यहां बात करेंगे महाराष्ट्र की  सियासत में पहली बार चुनावी मैदान में उतरे दो युवा नेताओं की. जिनको राजनीति उनके वंश से मिली हैं. पहले हैं शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे और दूसरे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रमुख और कद्दावर नेता शरद पवार के पोते रोहित पवार. दोनों का ये पहला चुनाव है.

महाराष्ट्र की सियासत में हमेशा से ही शिवसेना का दबदबा रहा है. शिवसेना राज्य की सत्ताधारी पार्टियों में से एक रही है और इसके संस्थापक बाल ठाकरे राज्य की राजनीति में हमेशा ही एक कद्दावर शख्सियत रहे हैं उनके देहान्त के बाद पार्टी की  बागडोर उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने संभाली. राज्य में अभी बीजेपी और शिवसेना की गठबंधन सरकार है. इन दोनों का गठबंधन भी ऐसा है कि दोनों एक दूसरे को भर-भर कोसते भी हैं और चुनाव के समय दोनों पार्टियों के नेता मिलकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करके गठबंधन का ऐलान भी करते हैं. खैर ये एक अलग मसला है. अभी हम बात करेंगे वंशवाद की राजनीति पर.

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शिवसेना ने एक बार साल 1995 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पद हासिल किया. इसके साथ ही साल 2014 से वह केंद्र और राज्य में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार का हिस्सा भी रही है. लेकिन खुद को रिमोट कंट्रोल बताने वाले इसके संस्थापक बाल ठाकरे ने चुनावी मैदान में कभी अपना हाथ नहीं आजमाया. न तो वे और न ही उनके बेटे उद्धव कभी चुनाव लड़े. 2012 के बाद से शिवसेना की कमान उद्धव के हाथों में ही है.

उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे ने भी कभी चुनावी अखाड़े में आजमाइश नहीं की. बाला साहेब ठाकरे से प्रेरित राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग महाराष्ट्र नव निर्माण सेना (मनसे) के नाम से पार्टी भी बनाई और 2014 में चुनाव लड़ने का मन भी बनाया और सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा तक की लेकिन बाद में वो इससे पीछे हट गए.

लेकिन इस चुनाव में ठाकरे परिवार ने ऐतिहासिक फ़ैसला लेते हुए तीसरी पीढ़ी के ठाकरे यानी आदित्य ठाकरे को मुंबई की वर्ली विधानसभा सीट से उतारा है. यानी चुनाव के मैदान में उतरने वाले वे अब पहले ठाकरे बन गए हैं.

जब 1995 में पहली बार शिवसेना सरकार बनी तब बाला साहेब ठाकरे अक्सर तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी से भिड़ते हुए देखे गए थे.” बाद में जोशी की जगह नारायण राणे को मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन राणे को उनके विद्रोह के लिए ज़्यादा ख्याति मिली जब उन्होंने 2005 में शिवसेना को मुश्किलों में पहुंचा दिया था. इसकी सबसे बड़ी वजह यह निकल कर आई कि राज्य का मुख्यमंत्री पूरी तरह से पार्टी प्रमुख के नियंत्रण में नहीं रह सकता है. लिहाजा आदित्य की चुनाव मैदान में एंट्री शिवसेना की अब तक ‘रिमोट कंट्रोल’ से सरकार चलाने की राजनीति का अंत माना जा सकता है.

दूसरी ओर पवार परिवार की तीसरी पीढ़ी के रोहित पवार भी करजात-जमखेद से चुनावी मैदान में उतरे हैं. ठाकरे के उलट पवार ने कभी ऐसा नहीं माना कि चुनाव में उनकी दिलचस्पी नहीं है. दशकों तक महाराष्ट्र की राजनीतिक क्षितिज पर शरद पवार के वर्चस्व के बाद उनकी बेटी सुप्रिया सुले लोकसभा चुनाव जीत कर संसद पहुंची. इसके अलावा उनके भतीजे और राज्य में विपक्ष के नेता अजीत पवार उप-मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं.

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2019 के विधानसभा चुनाव में पवार परिवार अपनी नई पीढ़ी के साथ उतरा है. अजीत पवार के बेटे पार्थ इसी साल मई में हुए लोकसभा चुनाव में हाथ आजमा चुके हैं. हालांकि पहली बार में उन्हें नाकामी मिली. अब शरद पवार के दूसरे पोते रोहित लॉन्च के लिए तैयार हैं.

वंशवाद का हमेशा विरोध करने वाली बीजेपी इस बात का दावा करती है कि उसकी पार्टी में वंशवाद नहीं है. वंशवाद के ही मुद्दे पर वो कांग्रेस पर खुला प्रहार भी करती आई है लेकिन महाराष्ट्र में की कहानी कांग्रेस से उलट नहीं है.

यहां उन्होंने ऐसे 25 उम्मीदावर मैदान में उतारे हैं जिनका राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक है. बीजेपी की सूची में कई बड़े नाम हैं. जैसे कि दिवंगत नेता गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे पराली से मैदान में हैं. फडणवीस सरकार में मुंडे बाल एवं महिला कल्याण मंत्री रही हैं. उनकी बहन प्रीतम बीड से सांसद हैं.

राजनीतिक विवाद तब भड़का जब बीजेपी ने अपने कद्दावर नेता एकनाथ खड़से को टिकट नहीं दिया, उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में मंत्रिमंडल से हटाया गया था. इसके बाद खड़से ने नामांकन पत्र दाखिल कर दिया था. उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बीजेपी पर गुस्सा भी उतारा था. उन्होंने कहा था कि आज बीजेपी के कारण उन्होंने शिवसेना से बुराई ली थी. बीजेपी ने उनकी बेटी रोहिणी को टिकट दिया है. खड़से की बहू रक्षा पहले ही सांसद हैं. आकाश फुंडकर दिवंगत बीजेपी नेता पांडुरंग फुंडकर के बेटे हैं और बुलढाणा के खामगांव से चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. बीजेपी के वरिष्ठ नेता एनएस फरांडे की बहू देवयानी फरांडे नासिक से चुनाव लड़ रही हैं.

एनसीपी के पूर्व नेता और मंत्री रह चुके गणेश नाइक अपने बेटे संदीप नाइक के साथ बीजेपी में शामिल हो गए. अब संदीप नवी मुंबई से बीजेपी के प्रत्याशी बनाए गए हैं. पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे बीजेपी के राज्यसभा सांसद हैं. लेकिन उनके बेटे जो अब तक कांग्रेस के विधायक थे बीजेपी ने उन्हें नामांकन भरने से ठीक एक दिन पहले पार्टी में शामिल करते हुए चुनाव में उतार दिया.

मधुकर पिचड़ और उनके बेटे वैभव दशकों तक शरद पवार के वफादार थे लेकिन अब वैभव बीजेपी की टिकट पर अकोला से मैदान में हैं. राणा जगजीत सिंह का तो शरद पवार के परिवार से संबंध है. वे एनसीपी के विधायक थे और उनके पिता पद्मसिंह एनसीपी के सांसद. लेकिन दोनों बीजेपी में शामिल हो गए और राणा जगजीत सिंह बीजेपी की टिकट पर चुनावी मैदान में हैं.

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एक और कद्दावर राजनीतिक परिवार अहमदनगर से विखे परिवार है जिसने बीजेपी जॉइन की है. राधाकृष्ण विखे पाटील 2019 के लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले तक विधानसभा में कांग्रेस के विपक्ष के नेता थे लेकिन उसके बाद उनके बेटे डॉ. सुजय विखे पाटील बीजेपी की टिकट पर लोकसभा चुनाव जीत गए, अब पिता राधाकृष्ण भी बीजेपी की टिकट पर चुनावी मैदान में हैं.

कांग्रेस और एनसीपी में वंशवाद का बोलबाला

कांग्रेस और एनसीपी में कुछ ही परिवारों का प्रभुत्व रहा है और ये ही परिवार इन पार्टियों को चला रहे हैं. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिवंगत नेता विलासराव देशमुख के बेटे अमित देशमुख लातूर से विधायक हैं और दोबारा यहीं से चुनावी मैदान में हैं. उनके साथ उनके छोटे भाई धीरज भी लातूर ग्रामीण से चुनावी अखाड़े में हैं. विश्वजीत कदम दिवंगत कांग्रेस नेता पतंगराव कदम के बेटे हैं. वे अपने पिता की सीट कड़ेगांव-पालुस से ही मैदान में उतरे हैं.

अभी ऐसे कई और नाम है जो ऐसी लिस्ट में हैं. बीजेपी कांग्रेस पर हमेशा से ही वंशवाद का आरोप लगाती रही है लेकिन इन आरोपो से पहले पार्टी को खुद से भी कमी को हटाना चाहिए. ऐसा सिर्फ महाराष्ट्र में नहीं हो रहा बल्कि देश के अन्य कई राज्यों में पार्टी पर वंशवाद हावी है.

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जगनमोहन की राह पर अमित जोगी

छत्तीसगढ़

अमित जोगी हर दूसरे-तीसरे दिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को चैलेंज करते थे कि ‘मुझे गिरफ्तार किया जाए, मुझे गिरफ्तार किया जाए’. भूपेश बघेल ने उन की यह मंशा 3 सितंबर को पूरी कर ही दी.

अपने ही धुर विरोधी रहे अजीत जोगी पर भूपेश बघेल की ‘टेढ़ी’ नजर है, इसे सभी जानते हैं, मगर भूपेश बघेल उतने तल्ख नहीं हुए, जितने भाजपा की मंडली पर रहे हैं. शायद इस की वजह अजीत जोगी का विशाल कद और पहले के खट्टेमीठे संबंध रहे हैं.

अमित जोगी अपने पिता अजीत जोगी की बनाई राजनीतिक धरोहर छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस पार्टी की कमान संभालने के बाद धुआंधार ढंग से भूपेश बघेल पर हमले कर रहे थे.

30 अगस्त को थाने पहुंच कर उन्होंने एक ज्ञापन सौंपा था और कहा था कि उन के पिता को जाति के मामले पर रंजिश के चलते फंसाया गया है.

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भूपेश बघेल के इशारे पर अमित जोगी को भी गिरफ्त में ले लिया गया. सब से अहम बात यह है कि जिस तरह ‘महाभारत’ में कृष्ण ने शिशुपाल को 100 गलतियां करने तक की छूट दे रखी थी, उस के बाद उसे मारने के लिए सुदर्शन चक्र चलाया था, यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ है. जब अमित जोगी के चैलेंज की हद हुई तो गिरफ्तारी हो गई…

मगर जरा रुकिए… छत्तीसगढ़ की राजनीति का यह घटनाक्रम एक ‘चैलेंजर गेम’ में भी बदल सकता है. कैसे… आगे देखते हैं…

भूपेश की घेराबंदी

इस में कोई दो राय नहीं है कि अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के राजनीतिक परिवारों में अपनी अहम जगह रखते हैं और शुरू से प्रदेश की राजनीति के केंद्र में रहे हैं. ये वे शख्सीयत हैं जो कभी चुप नहीं रहते, हमेशा जद्दोजेहद करते रहते है.

ऐसे में खास बात यह है कि अमित जोगी का यह कदम भूपेश बघेल को घेरना है और यह संदेश देना भी है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भूपेश बघेल बेदर्दी के साथ अपने राजनीतिक विरोधियों को निबटा रहे हैं.

एक बड़ा सच यह भी है कि जिस मामले में अमित जोगी को गिरफ्त में लिया गया है, वह चुनाव में उन की दोहरी नागरिकता को छिपाने का है और साल 2013 के विधानसभा चुनाव के दरमियान दी गई शपथ का है.

मजे की बात यह है कि तब अमित जोगी कांग्रेस के उम्मीदवार थे और भाजपा उम्मीदवार समीरा पैकरा ने यह शिकायत की थी. यही वजह है कि भाजपा के बड़े नेता डाक्टर रमन सिंह, धर्मजीत कौशिक, प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी इस मामले पर खामोश हैं.

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यह है चाहत

अमित  जोगी अपनी पार्टी को जनता के बीच ले जा कर राजनीतिक हालात बदलना चाहते हैं. उन्होंने एक दफा कहा था कि जगनमोहन रेड्डी जब 15 साल तक जद्दोजेहद कर के मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तो यह एक अच्छा उदाहरण है. जगनमोहन रेड्डी को एक तरह से अपना आदर्श बना कर अमित जोगी छत्तीसगढ़ की राजनीति में पेंगें भर रहे हैं.

बिन मांझी कैसे समंदर पार कर पाएगी कांग्रेस, अशोक तंवर का जाना पार्टी को पड़ेगा महंगा

दुनिया की सबसे पुरानी पार्टी आज सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के पास बहुत अच्छा मौका था कि इन दो राज्यों में वो बीजेपी को कड़ी टक्कर दे. इस तरह कांग्रेस एक तीर से दो शिकार कर सकती थी. पहला तो ये कि लोकसभा के बाद बीजेपी का ग्राफ गिरा है दूसरा ये कि आर्टिकल 370 को खत्म करने के बाद बीजेपी को ये दिखाना कि आपके इस फैसले को जनता का समर्थन नहीं मिला. लेकिन ऐसा संभव नहीं दिख रहा. महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस भितरघात से जूझ रहा है. उसका मुस्तकबिल खुद कांग्रेस को भी नहीं बता.

21 अक्टूबर को हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने हैं. बीजेपी सहित तमाम छोटे छोटे राजनीतिक दल चुनावी तैयारियों में जुटे हैं, सिर्फ कांग्रेस को छोड़कर. कांग्रेस में चुनावी तैयारी की कौन कहे – हरियाणा कांग्रेस का झगड़ा तो दिल्ली की सड़कों पर उतर आया है. हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने भूपिंदर सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के खिलाफ नया मोर्चा खोल दिया है. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने मुश्किल ये खड़ी हो गयी है कि चुनावी तैयारियों को आगे बढ़ायें या फिर इन पचड़ों को निपटाएं. लेकिन ये कोई छोटा पचड़ा नहीं है. इसने सियासत में तूफान ला दिया है.

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तंवर कांग्रेस के दलित चेहरा थे और युवाओं में उनकी खास पकड़ है. ऐसे वक्त में तंवर को पार्टी से अलविदा कहना अपने आपमें बीजेपी की राह आसान करना है. हरियाणा में बीजेपी पहले से ही काफी मजबूत स्थिति में थी लेकिन अब तो लगता है यहां खेल एकतरफा ही होता जा रहा है. जब महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी संदेश यात्रा में व्यस्त थे, हरियाणा कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर अचानक कांग्रेस मुख्यालय पहुंचे और समर्थकों के साथ धरने पर बैठ गये. अशोक तंवर का आरोप है कि हरियाणा कांग्रेस में उम्मीदवारों को पैसे लेकर टिकट दिया जा रहा है और जो कार्यकर्ता पार्टी के लिए लगातार पसीना बहाते रहे हैं उन्हें को पूछ भी नहीं रहा है.

चुनाव की तारीख आने से पहले हरियाणा में सोनिया गांधी ने कई बदलाव किये थे. कांग्रेस नेतृत्व ने अशोक तंवर को हटा कर कुमारी शैलजा को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया था और विधानमंडल दल का नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा को. इस तरह किरन चौधरी को भी किनाने कर दिया गया. अशोक तंवर ने तब तो कुछ नहीं बोला लेकिन अब वो खुलेआम टिकट बंटवारे में पैसे के लेन-देन का इल्जाम लगा रहे हैं.

बीजेपी ने 2009 विधानसभा से लगातार अपने वोट शेयर में बड़ा इज़ाफ़ा किया है. 2009 में बीजेपी के पास महज़ 9 फीसदी वोट थे और सिर्फ़ 4 सीटें मिली थी. लेकिन 2014 में 47 सीटें मिली और वोट शेयर 34.7 फीसदी हो गया जो कि 2014 लोकसभा चुनावों के वोट शेयर के आस-पास ही था. वहीं कांग्रेस ने 2009 विधानसभा चुनाव में 40 सीटें जीती थी और वोट शेयर लगभग 36 फीसदी था. लेकिन 2014 में सिर्फ 15 सीटें मिली और वोट शेयर 21 फीसदी पर आ गिरा जो कि लोकसभा चुनावों के वोट शेयर के आस-पास ही था.

लेकिन इस बार 2019 लोकसभा चुनावों में बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस के वोट शेयर में भी इज़ाफ़ा हुआ है जिसका एक फैक्टर इनेलो के वोटों का बंट जाना भी हो सकता है. बीजेपी ने 58 फीसदी वोट हासिल किए हैं और कांग्रेस ने 28 फीसदी. लगभग 30 फीसदी वोटों के अंतर को पाटना कांग्रेस के लिए बहुत मुश्किल होगा.

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अशोक तंवर को लेकर माना जाता रहा है कि वो राहुल गांधी के करीबी रहे हैं और चुनावों के ऐन पहले दबाव बनाकर हुड्डा ने उनका पत्ता साफ कर दिया. ये बात सही भी है कि राहुल गांधी की टीम में तंवर का नाम होता था. हुड्डा ने हरियाणा में एक रैली की थी और संकेत देने की कोशिश की कि अगर कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी मांगें नहीं मानीं तो वो नयी पार्टी बना लेंगे. चुनाव सिर पर आ गये थे लिहाजा सोनिया गांधी को हुड्डा की शर्तें माननी पड़ी. सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से तात्कालिक तौर पर झगड़ा तो खत्म हो गया लेकिन टिकट बंटवारे को लेकर लड़ाई फंस गयी. जाहिर है जो हुड्डा लगातार पांच साल तक अशोक तंवर के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे, भला उनके समर्थकों कों टिकट देकर अपने लिए आगे की मुसीबत क्यों मोल लेंगे?

हरियाणा के वरिष्ठ पत्रकार और राज्य की राजनीति को निकटता से देखने वाले सुभाष शर्मा बतातें हैं कि साल 2004 का जिक्र करना यहां बहुत जरूरी हो जाता है. क्योंकि ये वो साल था जब कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई थी. इन चुनावों में भजनलाल को चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा गया था. इन चुनावों में कांग्रेस को 90 में से 67 सीटें मिलीं थी. प्रचंड बहुमत देख सोनियां गांधी ने प्रदेश की कमान भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सौंप दी गई. विरोध की आवाज भी दबा दी गई. क्योंकि उस वक्त कांग्रेस अपने पूरे रंग में थी. वाजपेयी सरकार को हराकर कांग्रेस सत्ता में लौटी थी. लेकिन उसके बाद क्या हुआ. हुड्डा के नेतृत्व में हरियाणा कांग्रेस का कद घटता गया. 2009 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की लहर के बावजूद हरियाणा में जीत केवल 40 सीटें ही जीती. अब बहुमत का आंकड़ा भी दूर था लेकिन किसी तरह जोड़-मोड़ के सरकार बनी और हुड्डा को फिर से प्रदेश की कमान सौंपी गई. पांच साल तक सरकार चली और फिर 2014 को चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस महज 15 सीटों पर सिमट गई. भाजपा ने केंद्र में सरकार बनाई और इसके  बाद हरियाणा में भी सरकार बनाई. मतलब साफ था कि हुड्डा से जनता नाखुश थी.

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हरियाणा की जनता को जो मैसेज गया है वो वहां के मतदाताओं का दिमाग बदलने में वक्त नहीं लगेगा. सब जानते हैं कि हरियाणा का वोटर दो खेमों में बंट हुआ है. हरियाणा का जाट समुदाय कभी भी दलितों को पसंद नहीं करता. ऐसे में कांग्रेस का जो पुश्तैनी वोटर था वो भी अब कांग्रेस से अलग हो जाएगा.

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