कांग्रेस: कन्हैया और राहुल

जैसा कि लंबे समय से प्रतिक्षा थी कांग्रेस में कोई कन्हैया कुमार जैसा ऊर्जा वान युवक अकर  अखिल भारतीय कांग्रेस को ऊर्जा से भर दे. अखिल यह हो ही गया. आज कांग्रेस को कन्हैया कुमार जैसे समझ वाले युवाओं की आवश्यकता है जिससे अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल होने की संभावना है.

क्योंकि जिस तरीके से देश में भारतीय जनता पार्टी और उसके प्रमुख नेताओं ने चक्रव्यूह बुना है उसे कोई कन्हैया कुमार जैसा नेता भी तोड़ सकता है. कन्हैया कुमार का कांग्रेस में आना जहां पार्टी के लिए शुभ है वही देश के लिए भी मंगलकारी कहा जा रहा है क्योंकि बहुत ही कम समय में कन्हैया कुमार ने अपनी राजनीतिक सोच और वक्तव्य से देशभर में बहुत लोगों को अपना मुरीद बना लिया है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि जहां राहुल गांधी ने एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है कन्हैया कुमार को कांग्रेस पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर के कांग्रेस में एक नई ऊर्जा का संचार किया जा सकता है. कांग्रेस का यह मास्टर स्ट्रोक, पहल  इसलिए आज चर्चा का विषय बन गई है क्योंकि भाजपा के सामने कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है.इसका एक ही कारण है कि कांग्रेस में प्रभावशाली और लोकप्रिय नेताओं की कमी हो गई है. एक तरफ जहां भाजपा लगातार कांग्रेस को कमजोर करने में लगी है और उसके नेताओं को अपनी पार्टी में जोड़ने का प्रयास कर रही है जोड़ती चली जा रही है उससे कांग्रेस की हालत देखने लायक हो गई है.

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कांग्रेस और कन्हैया कुमार

कन्हैया कुमार 2015 में जेएनयू के प्रेसिडेंट बने थे और उसके बाद धीरे धीरे उनका व्यक्तित्व निखर कर सामने आया. आज उनकी उम्र सिर्फ 37 वर्ष है इतनी कम उम्र में इतनी राजनीतिक ऊंचाई नाप लेना अपने आप में महत्वपूर्ण है. जहां वे एक देशव्यापी नेता के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं वहीं उन पर कथित रूप से देश के खिलाफ नारे लगाने का भी आरोप लगा और जेल यात्रा भी करके आ गए हैं, चुनाव लड़ने  का भी अनुभव हो चुका है.

कम्यूनिस्ट पार्टी में रहकर के उन्होंने एक तरह से अपने आप को तौल लिया है कि आखिर उनकी उड़ान कितनी हो सकती है.

दरअसल, कम्युनिस्ट पार्टी के अपने नियम कानून कायदे होते हैं और वहां व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि विचारधारा की चलती है. ऐसे में कन्हैया कुमार के पास एक ही विकल्प था कि वह कम्युनिस्ट दायरे से बाहर आकर के किसी राष्ट्रीय पार्टी का दामन थाम लें ऐसे में कांग्रेस और राहुल का आगे आकर के  कुमार को हाथों हाथ लेना जहां कन्हैया कुमार को एक नई धार तेवर दे गया है उन्हें देश में काम करने का मौका भी मिलेगा.

अब सिर्फ एक ही सवाल है कि कांग्रेस पार्टी अपनी संकीर्ण धाराओं से निकल कर के कन्हैया कुमार को कुछ ऐसा दायित्व दे जिससे पार्टी को भी लाभ हो और देश को भी. आने वाले समय में बिहार में भी कन्हैया कुमार की उपस्थिति का लाभ कांग्रेस पार्टी को मिलने की कोई संभावना है. यही कारण है कि कांग्रेस में आते ही पटना में कांग्रेस मुख्यालय में कन्हैया कुमार और राहुल गांधी के बड़े-बड़े पोस्टर दिखाई देने लगे.

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राहुल गांधी और कन्हैया कुमार

लंबे समय से यह कयास लगाया जा रहा था कि कांग्रेस पार्टी में कन्हैया कुमार और जिग्नेश पटेल युवा आ रहे हैं. इस खबर से जहां कांग्रेस पार्टी में एक नई ऊर्जा का संचार दिखाई दे रहा था वहीं भाजपा में भी इसको लेकर के चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं. क्योंकि कन्हैया और जिग्नेश जैसे युवा किसी भी पार्टी को एक नई दिशा देने में सक्षम है. सिर्फ आवश्यकता है इनका उपयोग करने की समझ. यह माना जा रहा है कि अगर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को आगे कर के देशभर में आम जनमानस से मिलने निकल पड़े और छोटी-छोटी सभाएं करके लोगों से सीधा संवाद करें भाजपा और नरेंद्र दामोदरदास मोदी की महत्वपूर्ण गलतियों पर चर्चा करें तो देखते-देखते माहौल बदल सकता है.

दरअसल, माना यह जा रहा है कि भाजपा के पास जो संगठननिक ताकत है जो अनुशासन है वह कांग्रेस में दिखाई नहीं देता इसे ला करके कांग्रेस पार्टी देश को एक नई दिशा दे सकती है.

कांग्रेस : मुश्किल दौर में भी मजबूत

पिछले कुछ साल से कांग्रेस पार्टी में भीतरी कलह कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने तो ठान ही लिया था कि वह देश को ‘कांग्रेस मुक्त’ कर देगी.

इस मुहिम में खुद बहुत से कांग्रेसियों ने मानो भाजपा का साथ दिया और वे पार्टी छोड़ कर भाजपा के अलावा दूसरे दलों में जाते दिखाई दिए.

बड़े दिग्गज तो छोडि़ए, छोटे सिपहसालार भी कांग्रेस को डूबता जहाज समझ कर चूहे की तरह भागे. एक बानगी देखिए…

आदरणीय राहुल गांधीजी,

मेरे लिए आप सर्वोच्च हैं, मेरी कर्तव्यनिष्ठा पार्टी के लिए एक कार्यकर्ता के तौर पर सदैव बरकरार रहेगी.

पर, मैं मुंबई युवा कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे रहा हूं.

आप का आज्ञाकारी

सूरज सिंह ठाकुर

यह एक चिट्ठी है, जो सूरज सिंह ठाकुर ने राहुल गांधी के नाम लिखी है. अब ये सूरज सिंह ठाकुर कौन हैं, जो एक तरफ तो राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रति आज्ञाकारी और कर्तव्यनिष्ठ बनते हैं और दूसरी तरफ पद से इस्तीफा भी दे देते हैं?

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मुंबई युवा कांग्रेस का नाम तो आप ने सुना ही होगा. उस में अध्यक्ष पद को ले कर मचे झगड़े और गुटबाजी का नतीजा यह हुआ कि मंगलवार, 24 अगस्त, 2021 की देर शाम युवा कांग्रेस अध्यक्ष पद का ऐलान होना था और हुआ भी, पर जैसे ही विधायक रह चुके बाबा सिद्दीकी के बेटे और बांद्रा (पूर्व) से कांग्रेस विधायक जीशान सिद्दीकी को युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, तो सूरज सिंह ठाकुर ने विद्रोह का बिगुल बजा कर राहुल गांधी को अपना इस्तीफा भेज दिया. वजह, वे भी इस अध्यक्ष पद के दावेदार थे.

बाबा सिद्दीकी वही शख्स हैं, जो कभी अपनी इफ्तार पार्टी में फिल्म कलाकार शाहरुख खान और सलमान खान को गले मिलवा कर सुर्खियां बटोर चुके थे. उन्हीं के साहबजादे जीशान सिद्दीकी जब विधायक के लिए चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, तब कांग्रेस के ही 12 विधायकों ने उन के खिलाफ मोरचा खोल दिया था.

बहरहाल, सूरज सिंह ठाकुर हों या ज्योतिरादित्य सिंधिया या फिर कोई और भी, कांग्रेस से जाने वाले लोगों की फेहरिस्त पिछले कुछ समय से लंबी होती चली गई है. तो क्या यह समझ लिया जाए कि कांग्रेस अब चुकी हुई पार्टी है? वह परिवारवाद में इतनी उलझ चुकी है कि अब उस का उबरना मुश्किल है? क्या राहुल गांधी ही कांग्रेस को डुबो रहे हैं और किसी की हिम्मत नहीं है उन के खिलाफ बोलने की? क्या भारतीय जनता पार्टी अपने मकसद में कामयाब होती दिख रही है?

ऊपरी तौर पर ऐसा लग सकता है कि कांग्रेस से लोगों के दूसरे दलों में जाने से पार्टी को नुकसान हो रहा है, पर यहीं पर राहुल गांधी की उस बात को भी बल मिलता है कि कांग्रेस की यह सफाई भविष्य में पार्टी को मजबूत करेगी. ऐसा नहीं है कि वे कांग्रेस से रूठों को मनाते नहीं हैं, पर उन के जाने पर रंज भी नहीं करते हैं.

उधर अगर भाजपा के ‘डबल इंजन’ नरेंद्र मोदी और अमित शाह बारबार कांग्रेस पर वार करते हैं और आज की देश की बदहाली के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक को जिम्मेदार ठहराते हैं, तो इस के पीछे उन की कूटनीति ही काम करती दिखाई देती है. ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का उन का एजेंडा बड़ा ही साफ है.

पूरी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पता है कि वे चाहे कितना ही राहुल गांधी और कांग्रेस को कोस लें, पर नैशनल लैवल पर केवल कांग्रेस ही भाजपा को चुनौती दे सकती है. लिहाजा, भाजपा कभी नहीं चाहेगी कि कांग्रेस का वोट फीसदी भाजपा से ऊपर जाए, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो भाजपा की मजबूती पर नैगेटिव असर पड़ेगा. केंद्र सरकार में शामिल उस के साथी दल सिर उठाएंगे और इस से भाजपा की लोकप्रियता में कमी आएगी. फिर वह संवैधानिक संस्थाओं पर अपना दबदबा नहीं बना पाएगी.

इस के अलावा भाजपा यह भी जानती है कि कांग्रेस में आज भी गांधी परिवार ही सब से ज्यादा ताकतवर है और वही कांग्रेस को एकजुट रख सकता है. कांग्रेस को कमजोर करना है तो गांधी परिवार के ऊपर हमला जारी रखना होगा.

इस में भाजपा का आईटी सैल बड़ी शिद्दत से अपना रोल निभाता है. सोशल मीडिया पर सोनिया गांधी, राहुल गांधी के साथसाथ प्रियंका गांधी को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है. उन पर खूब निजी हमले होते हैं और भाषा की मर्यादा का भी कोई लिहाज नहीं किया जाता है.

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क्यों हावी है भाजपा

दरअसल, साल 2019 के लोकसभा चुनावों में पूरे बहुमत के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी को अब यह लगने लगा है कि कांग्रेस को पूरी तरह समेटने का यही सही समय है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस अभी भी अपनी भीतरी लड़ाई में उलझी हुई है. एक तरफ उस के नेता पार्टी छोड़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ जिन राज्यों में उन की सरकार है, वहां के बड़े नेताओं में सिरफुटौव्वल हो रही है.

पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच की जंग जगजाहिर है. राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट एकदूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच छत्तीस का आंकड़ा है. इस के अलावा छोटेबड़े नेता अपने बेमतलब के बयानों से कांग्रेस की गरिमा को चोट पहुंचा ही देते हैं.

कोढ़ पर खाज यह है कि साल 2022 की शुरुआत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनाव होने वाले हैं. यह कांग्रेस के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है.

चुनौती तो यह भी है कि कांग्रेस अपने अध्यक्ष को ले कर भी स्पष्ट नहीं है. यही चुनौती वरिष्ठ और युवा नेताओं के बीच नाराजगी की दीवार खींच देती है. वे राहुल गांधी को अपनी समस्या बताएं या सोनिया गांधी के सामने अपना दुखड़ा रोएं, समझ नहीं पा रहे हैं, तभी तो कांग्रेस में रोजाना के बखेड़े हो रहे हैं.

राहुल और कांग्रेस

राहुल गांधी भले ही कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं हैं, पर अघोषित सर्वेसर्वा वही हैं. जब से देश के किसान 3 कृषि कानूनों के खिलाफ लामबंद हुए हैं, तब से राहुल गांधी ने सरकार पर खूब हमले किए हैं. भले ही वे शुरू में राजनीति में आने से परहेज करते रहे थे, पर धीरेधीरे ही सही, भाजपा के निशाने पर रहने के बावजूद उन्होंने भारत की राजनीति को समझना शुरू किया और स्वीकर किया कि उन्हें ही विपक्ष का चेहरा बन कर केंद्र सरकार को घेरना होगा.

राहुल गांधी एक ऐसे राजनीतिक परिवार से हैं, जहां देश के लिए अपनी जान देने वाले 2 कद्दावर प्रधानमंत्री निकले हैं. राहुल गांधी का हिंदी और इंगलिश भाषा पर बराबर का अधिकार है. वे जनता के सामने जाने से नहीं कतराते हैं और हर नैशनल और इंटरनैशनल मुद्दे पर बारीक नजर रखते हैं.

पर राहुल गांधी के सामने सब से बड़ी समस्या यह है कि उन के राजनीतिक सलाहकार कौन हों और वे उन्हें क्या और कैसी सलाह दें, जो कांग्रेस को मजबूत बनाएं, अभी ढंग से तय नहीं हो पाया है.

राहुल गांधी ने अगर युवा नेताओं पर अपना विश्वास जताया तो पुराने नेता उन से खफा हो गए. उन पर पार्टी के नेताओं पर ही समय न देने के आरोप लगे. यहां तक कह दिया गया कि वे चुनावों को सीरियसली नहीं लेते हैं. वे अपने बयानों से भाजपा को मजबूत कर देते हैं.

दरअसल, राहुल गांधी की मासूमियत और साफगोई ही उन पर भारी पड़ जाती है. वे किसान आंदोलन को मजबूत करने के लिए जब ट्रैक्टर से संसद भवन जाते हैं, तो उस ट्रैक्टर का रजिस्ट्रेशन भी नहीं हुआ होता है. नतीजतन, वे कानूनी पचड़े में फंस जाते हैं, क्योंकि नई दिल्ली के राजधानी क्षेत्र में ट्रैक्टर का प्रवेश वर्जित है. वे अगर दूसरे मुद्दों पर भाजपा को घेरते हैं, तो बाकी कांग्रेसी उन का मजबूती से साथ नहीं देते हैं.

भाजपा देश में राहुल गांधी की इसी मासूम इमेज को अपने पक्ष में भुनाती है. वह यह साबित करना चाहती है कि राहुल गांधी कद्दावर नेता नहीं हैं और नरेंद्र मोदी के सामने उन की कोई बिसात नहीं है, पर ये वही राहुल गांधी हैं, जिन्होंने केंद्र सरकार को कोरोना पर मजबूती से घेरा, उस की चिकित्सा संबंधी बदइंतजामी को जनता के सामने रखा, औक्सीजन की कमी पर देश को जागरूक किया.

जब सरहद पर भारत की चीन से झड़प हुई, तो अपनी जमीन के छिनने के मुद्दे को राहुल गांधी ने बेबाकी से सब के सामने रखा, राफेल घोटाले पर बिना डरे बयान दिए, धारा 370 और राम  मंदिर के फैसले को देश के लिए विभाजनकारी बताया, भाजपा की हिंदुत्व के नाम पर लोगों को बांटती नीतियों को दुत्कारा. इतना ही नहीं, वे पैगासस के जासूसी वाले कांड को देश की जनता के सामने लाए.

इन सब बातों के साथसाथ राहुल गांधी जानते हैं कि उन्हें दोबारा से कांग्रेस को खड़ा करना है, उसे फिर से मजबूत बनाना है, तभी तो वे सोशल मीडिया पर अपने कार्यकर्ताओं से यह कहने से नहीं चूकते हैं, ‘एकदूसरे की ताकत बन कर खड़े रहेंगे, नहीं डरे हैं, नहीं डरेंगे.’

राहुल गांधी पार्टी छोड़ कर जाने वाले नेताओं पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि जो डर गए वे भाजपा में चले जाएंगे, जो नहीं डरेगा वह कांग्रेस में रहेगा. उन्होंने कांग्रेस को निडर लोगों की पार्टी बताते हुए कहा कि हमें निडर लोग चाहिए. जो डर रहे हैं उन्हें कहो, ‘जाओ भागो, नहीं चाहिए.’

राहुल गांधी ने यह भी कहा कि दूसरी पार्टी में जो निडर लोग हैं, वे हमारे हैं. उन्हें ले कर आओ. कांग्रेस में शामिल करो. यह निडर लोगों की पार्टी है.

भाजपा राहुल गांधी की इसी निडरता को भांप रही है, तभी तो पिछले 7 साल के अपने किए गए कामों को गिनाने से ज्यादा उस ने कांग्रेस को इस बात के लिए कोसा कि उसी की वजह से देश की यह हालत हुई है. नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ और अमित शाह ‘देश में भड़काओ जज्बात’ से ज्यादा कुछ कह ही नहीं पाते हैं. रहीसही कसर स्मृति ईरानी और संबित पात्रा जैसे भाजपाई नेता अपने बड़बोले बयानों से पूरी कर देते हैं.

भाजपा यह भी जानती है कि चूंकि वह ऊंची जाति वालों की पार्टी है तो किसी तरह दबेकुचलों को कांग्रेस में दोबारा जाने से रोका जाए. लेकिन देखा जाए तो यह छोटी जाति के युवा नेताओं के लिए सुनहरा मौका है कि वे कांग्रेस से जुड़ कर राहुल गांधी को मजबूती देते हुए अपने राजनीतिक कैरियर को भी उड़ान दें. धर्म की राजनीति को कुंद करने के लिए जनता को जागरूक बनाने का बीड़ा उठाएं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदूमुसलिम को बांटने की राजनीति ज्यादा दिन नहीं चलेगी, लोगों को समझाने का सही समय यही है.

लिहाजा, भारतीय जनता पार्टी कितना ही कह ले कि वह देश की पहली जरूरत है, पर उस की हिंदुत्ववादी विचारधारा देश के एक बड़े वर्ग को उस से दूर कर देती है. इस के उलट कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता उस की बड़ी ताकत है. उसे सरकार चलाने का बहुत साल का अनुभव है और देश में धार्मिक उन्माद पर कैसे काबू पाना है, वह अच्छी तरह समझती है. यही कांग्रेस की ताकत है और भविष्य में वह देश में अपनी पैठ दोबारा बना लेगी, यही उम्मीद है.

राहुल गांधी के समक्ष “प्रधानमंत्री” पद!

राहुल गांधी के जन्मदिवस पर यह पहली बार हुआ कि देशव्यापी स्तर पर उनके व्यक्तित्व और कार्यशैली पर चर्चा हुई यह अपने आप में एक अनोखी और महत्वपूर्ण बात है कि राहुल गांधी को जन्मदिवस पर इस दफा जिस तरीके से उन्हें नोटिस में लिया गया वह यह बता गया कि आगामी समय में राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार हैं.

जैसा कि हम सभी जानते हैं राहुल गांधी ने 19 जून को 51 वर्ष पूरे किए और बावनवें वर्ष की देहरी पर पांव रखा है. सुबह से ही राहुल गांधी के जन्मदिन पर सोशल मीडिया में चर्चा का दौर शुरू हो गया, लोगों ने यह खुलकर कहना शुरू कर दिया कि जिस तरीके से वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी असफलताओं से गिर गए हैं और एक ऐसे चक्र व्यूह में फंस गए हैं उससे निकल पाना अब मुश्किल जान पड़ता है. ऐसे में आखिर देश का नेतृत्व कौन सा व्यक्ति कर सकता है. इसमें लगभग लोगों की यही राय थी कि राहुल गांधी की चाहे विपक्ष के लोग कितने ही मजाक उड़ा कर उनकी छवि खराब करने का प्रयास करें मगर उन में बहुत सारी खुशियां भी है. जिस तरीके से उन्होंने सादगी और मानवता का बार-बार परिचय दिया है वह यह बताता है कि वह  दिल के साफ है, यही कारण है कि लोगों दिलों में राहुल गांधी अब राज करने लगे हैं.

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यह माना जा रहा है कि 2024 के लोकसभा  चुनाव में जब भाजपा चारों खाने चित हो जाएगी तो राहुल गांधी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनेगी और प्रधानमंत्री बन कर राहुल गांधी देश को एक सशक्त नेतृत्व दे सकते हैं.

दरअसल, राहुल गांधी ने बारंबार यह जाहिर किया है कि वे देश और देश की माटी यहां के जन-जन से इस तरीके से वाकिफ हो चुके हैं यहां के माहौल को जिस नवाचार के साथ उन्होंने आत्मसात किया है वैसा नेतृत्व दूसरी राजनीतिक दल में कहीं दिखाई नहीं देता.

विरोध और लोगों के दिलों में जगह!

धीरे-धीरे इस बात का भी खुलासा हो चुका है कि विपक्ष अर्थात भारतीय जनता पार्टी और उसकी अनेक संस्थाओं के सोशल मीडिया कर्मियों ने राहुल गांधी के खिलाफ सोची-समझी रणनीति के तहत उन्हें बार-बार पप्पू का कहकर देश के जनमानस में उन्हें एक बेचारा शख्स बना करके यह जताया कि देश को एक सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता है.

देश को नरेंद्र दामोदरदास मोदी जैसे 56 इंच के व्यक्ति की आवश्यकता है जो देश के भीतर और देश के बाहर दोनों जगह पर देश के आत्म सम्मान को ऊंचाई देकर  देश  को समझ सके और अच्छा कर सके.

लोग सोशल मीडिया के  प्रपंच में फंस करके राहुल गांधी के अच्छाइयों को न देखते हुए सिर्फ बताई गई बिना तथ्य की बातों के आधार पर मन, भावना बना कर कांग्रेस और राहुल को हाशिए पर डालते चले गए.

धीरे धीरे नरेंद्र मोदी विफलताओं के शिखर की ओर बढ़ रहे हैं तो लोगों को सच्चाई का एहसास हो रहा है कि किस तरीके से सोशल मीडिया में  सफेद झूठ बता करके उन्हें भ्रमित किया गया था. परिणाम स्वरूप अब राहुल गांधी के प्रति लोगों की संवेदना जाग रही है. लोगों को उनकी अच्छाइयां दिख रही हैं. उनके जन्मदिवस पर जिस तरीके से लोगों ने उनके प्रधानमंत्री पद संभालने की अपेक्षा के साथ स्नेह पूर्वक याद किया वह अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण कहा जा सकता है. और यह बात आने वाले समय में सच भी सिद्ध हो सकती है.

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चुनौतियां ही चुनौतियां हैं!

मगर, इसके बावजूद राहुल गांधी के सामने चुनौतियां कम नहीं है. एक तरफ कांग्रेस के भीतर वे चुनौतियों से घिरे हुए हैं तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व किस तरीके से इन दिनों राजनीति की एक नई एबीसीडी लिख रहा है उसमें एक सीधे सरल सादगी पसंद राहुल गांधी को चक्रव्यू भेद पाना मुश्किल दिखाई देता है. क्योंकि आज की राजनीति इतनी गंदली हो चुकी है उसमें साम, दाम, दंड, भेद से आगे का खेल खेला जाता है.

कांग्रेस अपने सिद्धांतों के साथ राजनीति के मैदान में लोगों से वोट मांगती है मगर आज की राजनीति उससे आगे निकल कर के एक ऐसे खतरनाक और भयावह रास्ते पर बढ़ गई है जिसमें कोई नैतिकता, कोई धर्म नहीं बचता. इसके अलावा भी राहुल के समक्ष बहुत सारी चुनौतियां हैं जिसमें महत्वपूर्ण है उनका आत्मविश्वास के साथ भाजपा के साथ चुनाव में उतरना, कांग्रेस का नेतृत्व का मामला भी एक बड़ा प्रश्न है जिसे सबसे पहले सुलझाना होगा, इसके साथ ही जिस तरीके से कांग्रेस के नेता पार्टी को छोड़कर जा रहे हैं या फिर उन्हें लालच देकर के आकर्षित किया जा रहा है यह भी राहुल गांधी के लिए एक अनसुलझा सवाल है.

इन सब के बावजूद जिस तरीके से सोशल मीडिया में राहुल गांधी को उनके जन्मदिवस पर लोगों ने इसमें पूर्वक और एक सम्मान के भाव के साथ याद किया वह बताता है कि आने वाला समय राहुल गांधी का है.

बेदर्द सरकार पेट पर पड़ी मार

आज भी बहुत से कामधंधे और कारोबार ऐसे हैं, जो सालभर न चल कर एक खास सीजन में ही चलते हैं और इन कारोबारों से जुड़े लोग इसी सीजन में कमाई कर अपने परिवार के लिए सालभर का राशनपानी जमा कर लोगों का पेट पाल लेते हैं. पर लगातार दूसरे साल कोरोना महामारी ने इन कारोबारियों पर रोजीरोटी का संकट पैदा कर दिया है.

हमारे देश में सब से ज्यादा शादीब्याह अप्रैल से जुलाई महीने तक होते हैं. इस वैवाहिक सीजन में कोरोना की मार से टैंट हाउस, डीजे, बैंडबाजा, खाना बनाने और परोसने वाले, दोनापत्तल बनाने वाले लोग सब से ज्यादा प्रभावित हुए हैं.

सरकारी ढुलमुल नीतियां भी इस के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं. पूरे मध्य प्रदेश में अप्रैल महीने में लौकडाउन लागू कर दिया, जबकि दमोह जिले में विधानसभा उपचुनाव के चलते सरकार बड़ी सभाओं और रैलियों में मस्त रही. सरकार की इन ढुलमुल नीतियों की वजह से लोगों का गुस्सा आखिरकार फूट ही पड़ा.

दमोह में उमा मिस्त्री की तलैया पर  चुनावी सभा संबोधित करने पहुंचे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का  डीजे और टैंट हाउस वालों ने खुला विरोध कर दिया. मुख्यमंत्री को इन लोगों ने जो तख्तियां दिखाईं, उन पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था :

‘चुनाव में नहीं है कोरोना,

शादीविवाह में है रोना.

चुनाव का बहिष्कार,

पेट पर पड़ रही मार.’

आंखों पर सियासी चश्मा चढ़ाए मुख्यमंत्री को इन लोगों का दर्द समझ नहीं आया. लोगों के गुस्से की यही वजह भाजपा उम्मीदवार राहुल लोधी की हार का सबब बनी.

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पिछले साल के लौकडाउन से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया और न ही कोरोना से लड़ने के लिए कोई माकूल इंतजाम किए. मध्य प्रदेश के गाडरवारा तहसील के सालीचौका रोड के बाशिंदे दिनेश मलैया अपनी पीड़ा बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा टैंट डैकोरेशन का काम है, जिसे मैं घर से ही चलाता हूं, लेकिन इस कोरोना बीमारी के चलते पिछले साल सरकार के लगाए हुए लौकडाउन में पूरा धंधा चौपट हो गया.

‘‘पिछले साल का नुकसान तो जैसेतैसे सहन कर लिया, लेकिन इस साल फिर वही बीमारी और लौकडाउन ने तंगहाली ला दी है. इस साल शादियों के सीजन को देखते हुए कर्ज ले कर टैंट डैकोरेशन का सामान खरीद लिया था, पर लौकडाउन की वजह से धंधा चौपट हो गया.’’

साईंखेड़ा के रघुवीर और अशोक वंशकार का बैंड और ढोल आसपास के इलाकों में जाना जाता है, लेकिन पिछले 2 साल से शादियों में बैंडबाजा की इजाजत न होने से उन के सामने रोजीरोटी का संकट खड़ा हो गया है.

वे कहते हैं कि सरकार और उन के मंत्री व विधायक सभाओं और रैलियों में तो हजारों की भीड़ जमा कर सकते हैं, पर 10-15 लोगों की बैंड और ढोल बजाने वाली टीम से उन्हें कोरोना फैलने का खतरा नजर आता है.

दोनापत्तल का कारोबार करने वाले नरसिंहपुर के ओम श्रीवास बताते हैं, ‘‘मार्च के महीने में ही बड़ी तादाद में दोनापत्तल बनवा कर रख लिए थे, पर अप्रैल महीने में लौकडाउन के चलते शादियों में 20 लोगों के शामिल होने की इजाजत मिलने से दोनापत्तल का कारोबार ठप हो गया.’’

शादीब्याह में भोजन बनाने का काम करने वाले राकेश अग्रवाल बताते हैं कि उन के साथ 50 से 60 लोगों की टीम रहती है, जो खाना बनाने और परोसने का काम करती है, लेकिन इस बार इन लोगों को खुद का पेट भरने का कोई काम नहीं मिल रहा है.

शादियों में मंडप की फूलों से डैकोरेशन करने वाले चंदन कुशवाहा ने तो कर्ज ले कर फूलों की खेती शुरू की थी. चंदन को उम्मीद थी कि उन के खेतों से निकले फूलों से वे शादियों में डैकोरेशन कर खूब पैसा कमा लेंगे, पर कोरोना महामारी के चलते सरकार ने जनता कर्फ्यू लगा कर उन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

हाथ ठेला पर सब्जी और फल बेचने वालों का बुरा हाल है. लौकडाउन में वे अपने परिवार के लिए भोजनपानी की तलाश में कुछ करना चाहते हैं, तो पुलिस की सख्ती उन्हे रोक देती है. हाथ ठेला लगाने वाले ये विक्रेता गांव से सब्जी खरीद कर लाते हैं और दिनभर की मेहनत से उन्हें सिर्फ 200-300 रुपए ही मिल पाते हैं.

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रायसेन जिले के सिलवानी में नगरपरिषद के सीएमओ ने जब एक फलसब्जी बेचने वाले का हाथ ठेला पलट दिया, तो उस का गुस्सा फूट पड़ा और मजबूरन उसे सीएमओ से गलत बरताव करना पड़ा.

यही समस्या दिहाड़ी मजदूरों की भी है, जिन्हें लौकडाउन की वजह से काम नहीं मिल पा रहा है और उन के बीवीबच्चे भूख से परेशान हैं. दिहाड़ी मजदूर रोज कमाते हैं और रोज राशन दुकान से सामान खरीदते हैं, पर राशन दुकान भी बंद हैं.

राजमिस्त्री का काम करने वाले रामजी ठेकेदार का कहना है कि सरकारी ढुलमुल नीतियों की वजह से गरीब मजदूर ही परेशान होता है.

सरकार अभी तक यह नहीं समझ पाई है कि कोरोना वायरस का इलाज लौकडाउन नहीं है, बल्कि सतर्क और जागरूक रह कर उस से मुकाबला किया जा सकता है. पिछले साल से अब तक सरकार अस्पतालों में कोई खास इंतजाम नहीं कर पाई है. जैसे ही अप्रैल महीने  में संक्रमण बढ़ा, तो सरकार ने अपनी नाकामी छिपाने के लिए लौकडाउन  लगा दिया.

सरकार की इस नीति से लाखों की तादाद में छोटामोटा कामधंधा करने वाले लोगों की रोजीरोटी पर जो बुरा असर पड़ा है, उस की भरपाई सालों तक पूरी नहीं हो सकती.

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नया विधानसभा भवन: भूपेश बघेल की गुगली, फंसे मोदी

छत्तीसगढ़ का नवीन विधानसभा भवन बनाम केंद्र सरकार का नवीन संसद भवन आज पुनः चर्चा का बयास बना हुआ है. एक तरह से भूपेश बघेल की गुगली पर नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय सदर जे पी नड्डा आउट होने के हालात में है परिणाम स्वरूप प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी पर सीधे आंच आ रही है .

दरअसल, छत्तीसगढ़ में बन रहे नए विधानसभा भवन पर प्रश्नचिन्ह लगा कर भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक तरह से यह स्वीकार कर लिया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी की सरकार द्वारा देश की राजधानी में बनाया जा रहा नवीन संसद भवन औचित्यहीन है. कैसे और किस तरह, आइए आज इस रिपोर्ट में नीर क्षीर विवेक के साथ तथ्य आपके सामने रख रहे हैं जिन्हें पढ़कर आप स्वयं निष्कर्ष निकाल लें की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गलत है या मुख्यमंत्री भूपेश बघेल.

दरअसल , हाल में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी है. चिट्ठी में जेपी नड्डा ने लिखा कि आप सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट (Central vista project) का विरोध कर रही हैं. वहीं आपके छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार करोड़ों रुपए से नए विधानसभा भवन का निर्माण करवा रही है.

लाख टके का सवाल यह है कि छत्तीसगढ़ एक नया प्रदेश है लगभग 21 वर्ष होने जा रहे हैं प्रदेश को गठित हुए और अगर विधानसभा भवन बनाया जा रहा है तो उसकी परिकल्पना किसने की थी?

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शायद जेपी नड्डा को पता नहीं है कि डॉ रमन सिंह जब मुख्यमंत्री थे तो लगभग 7 वर्ष पूर्व डॉ रमन सरकार में नया विधानसभा भवन बनाने के लिए प्रयास किया था 800 करोड़ रूपए की व्यवस्था की जा रही थी . मगर डॉक्टर रमन सिंह और बड़े बड़े कामों में उलझ गए! और विधानसभा भवन की कल्पना पूरी नहीं कर पाए.

छ.ग. विधानसभा का भवन 6 वर्ष पूर्व का प्रोजेक्ट

जेपी नड्डा शायद आपको पता नहीं है कि डॉ रमन सिंह के समय में यह तय हो गया था कि छत्तीसगढ़ के‌ नया रायपुर में छत्तीसगढ़ विधानसभा का नया भवन बनेगा. इस दिशा में डॉ रमन सरकार ने अलग-अलग कंपनियों के डिजाइन को लेकर प्रजेंटेशन की तैयारी की थी इसके बाद किसी एक डिजाइन पर मुहर लगनी थी.

भवन के निर्माण पर अंतिम मुहर लगाने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया था नया रायपुर विकास प्राधिकरण द्वारा गठित इस समिति में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल, नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव सहित दस सदस्यों को शामिल थे. इस हेतु नया रायपुर में भवन के निर्माण के लिए तीस एकड़ जमीन आरक्षित की गई थी नया रायपुर विकास प्राधिकरण (एनआरडीए) ने विधानसभा भवन के साथ ही प्रस्तावित अन्य भवनों के लिए भी जमीन आरक्षित कर दी गई थी. बताया गया था कि विधानसभा भवन के निर्माण में लगभग 80 से सौ करोड़ रुपए की राशि खर्च होगी. जानकारी के मुताबिक 2015 के राज्योत्सव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आमंत्रित किए जाने की तैयारी चल रही थी. रमन सिंह की सरकार सोती रही और विधानसभा का निर्माण नहीं हो पाया. भूपेश बघेल सरकार में इसे अपनी प्राथमिकता में बढ़ चढ़कर लिया है तो भाजपा नेताओं के पेट में दर्द शुरू हो गया है.

अभी विधानसभा के नए भवन को बनाने के लिए 270 करोड़ रुपए का प्रस्ताव तैयार किया गया है. तेजी से काम चल रहा है.

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सोनिया और राहुल की थी मौजूदगी

29 अगस्त 2020 को वह ऐतिहासिक दिन था जब भूपेश बघेल सरकार ने छत्तीसगढ़ के नवीन विधानसभा भवन का विधिवत भूमि पूजन का आयोजन किया था। जिसमें राहुल गांधी और सोनिया गांधी दिल्ली से वर्चुअल रूप से जुड़ी थी और उद्घाटन किया था .

सोनिया गांधी ने देश की वर्तमान स्थिति का उल्लेख करते हुए कहा था- देश और समाज में नफरत फैलाने वाली ताकतें लोकतंत्र के सामने चुनौती बन गई हैं.

कहा जा सकता है कि एक नवीन प्रदेश होने के कारण छत्तीसगढ़ का विधानसभा भवन अपने आप में एक आवश्यकता है. छत्तीसगढ़ विधानसभा भवन की तुलना केंद्र सरकार द्वारा बनाए जा रहे संसद भवन से करना अपने आप में बेमानी है. कुल जमा भूपेश बघेल ने जो गुगली फेंकी उसमें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा साहब फंस गए हैं और अब जवाब देना है प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी को.

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क्या सरकार के खिलाफ बोलना गुनाह है ?

देश में सरकार के खिलाफ हर बात कहने वाले के साथ अब वही सुलूक हो रहा है जो हमारी पौराणिक कहानियों में बारबार दोहराया गया है. हर ऋषिमुनि इन कहानियों में जो भी एक बार कह डालता, वह तो होगा ही. विश्वामित्र को यज्ञ में दखल देने वाले राक्षसों को मरवाना था तो दशरथ के राजदरबार में गुहार लगाई कि रामलक्ष्मण को भेज दो. दशरथ ने खूब विनती की कि दोनों बच्चे हैं, नौसिखिए हैं पर विश्वामित्र ने कह दिया तो कह दिया. वे नहीं माने.

कुंती को वरदान मिला कि वह जब चाहे जिस देवता को बुला सकती है. सूर्य को याद किया तो आ गए पर कुंती ने लाख कहा कि वह बिना शादीशुदा है और बच्चा नहीं कर सकती पर सूर्य देवता नहीं माने और कर्ण पैदा हो गया. उसे जन्म के बाद पानी में छोड़ना पड़ा.

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अब चाहे पश्चिम बंगाल हो, कश्मीर का मुद्दा हो, किसानों के कानून हों, जजों की नियुक्ति हो, लौकडाउन हो, नोटबंदी हो, जीएसटी हो, सरकार के महर्षियों ने एक बार कह दिया तो कह दिया. अब तीर वापस नहीं आएगा.

कोविड के दिनों में तय था कि वैक्सीन बनी तो देश को 80 करोड़ डोज चाहिए होंगी पर नरेंद्र मोदी को नाम कमाना था पर लाखों डोज भारतीयों को न दे कर 150 देशों में भेज दी गईं जिन में से 82 देशों को तो मुफ्त दी गई हैं. भारत में लोग मर रहे हैं, वैक्सीन एक आस है पर फैसला ले लिया तो ले लिया.

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यह हर मामले में हो रहा है. पैट्रोल, डीजल, घरेलू गैस के दाम बढ़ रहे हैं तो कोई सुन नहीं रहा.  चुनाव तो हिंदूमुसलिम कर के जीत लिए जाएंगे. नहीं जीते तो विधायकों को खरीद लेंगे जैसे कर्नाटक, असम, मध्य प्रदेश में किया.

जनता की न सुनना हमारे धर्मग्रंथों में साफसाफ लिखा है. राजा सिर्फ गुरुओं की सुनेगा चाहे इस की वजह से सीता का परित्याग हो, शंबूक का वध हो, एकलव्य का अंगूठा काटना हो. जनता बीच में कहीं नहीं आती. यह पाठ असल में हमारे प्रवचन करने वाले शहरों में ही नहीं गांवों में भी इतनी बार दोहराते हैं कि लोग समझते हैं कि राज करने का यही सही तरीका है. भाजपा ही नहीं कांग्रेस भी ऐसे ही राज करती रही है, ममता बनर्जी भी ऐसे ही करती हैं, उद्धव ठाकरे भी.

यह हमारी रगरग में बस गया है कि किसी की न सुनो. हमारा हर नेता, हर अफसर अपने क्षेत्र में अपनी चलाता है चाहे सही हो या गलत. यह तो पक्का है कि जब 10 फैसले लोगे तो 5 सही ही होंगे. पर 5 जो खराब हैं, गलत हैं, दुखदायी हैं, जनता को पसंद नहीं हैं तो दुर्वासा मुनि की तरह जम कर बैठ जाने का क्या मतलब? आज सरकार लोकतंत्र की देन है, संविधान की देन है, पुराणों की नहीं. पौराणिक सोच हमें नीचे और पीछे खींच रही है. हर जना आज परेशान है. आज धन्ना सेठों को छोड़ कर हर किसान, मजदूर, व्यापारी परेशान है पर वह भी यही सोचता है कि राजा का फैसला तो मानना ही होगा. उस के गले से आवाज नहीं निकलती.

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यह सोच हर गरीब को ले डूबेगी. गरीब हजारों सालों से गरीब रहा क्योंकि वह बोला नहीं. उस ने पढ़ा नहीं, समझा नहीं, जाना नहीं. इंदिरा गांधी ने इस का फायदा उठाया. आज मोदी उठा रहे हैं. जिस अच्छे दिन की उम्मीद लगा रखी थी वह आएगा तो तब जब अच्छा होता क्या है यह कहने का हक होगा और सुनने वाला सुनेगा.

नरेंद्र मोदी वर्सेज राहुल गांधी:  “खरगोश और कछुए” की नई कहानी

राहुल गांधी ने 18 अप्रैल को ट्वीट करते हुए कहा कि वे पश्चिम बंगाल की चुनावी रैलियों को रद्द कर रहे हैं.

दरअसल,जिस तरह देश में और पश्चिम बंगाल में कोरोना का अति संक्रमण हुआ है उसके मद्देनजर पश्चिम बंगाल में चुनावी रैली आयोजित करना किसी भी तरह से लोकहित में नहीं कहा जा सकता है. राहुल ने देश की इसी मन भावना को , नब्ज को समझ कर के ट्वीट करते हुए जैसे ही या कहा कि वे चुनावी रैलियां कोरोना के मद्देनजर रद्द कर रहे हैं देश में उनका ट्वीट पसंद किया जाने लगा.

ऐसे में भी  जहां भाजपा राहुल गांधी पर आक्रमक हो गई वहीं देशभर में राहुल गांधी के पक्ष में का माहौल दिखाई पड़ रहा है.

अब सवाल यह है कि आगे भाजपा की रणनीति क्या होगी. क्या वह पश्चिम बंगाल के आगामी 3 चरणों का, जो चुनाव बाकी है उसमें प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी की रैलियां अमित शाह की रैलियां आयोजित करने का दुस्साहस कर पाएगी.

देश में जारी पांच राज्य के विधानसभा चुनाव के अब अंतिम समय में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल की चुनाव रैलियां, कोरोना वायरस की भयंकर रूप से फैलाओ के परिप्रेक्ष्य में रद्द करने के साथ ही यह संदेश देशभर में दे दिया है कि   उन्होंने जो निर्णय लिया है वह  आम लोगों के भले के लिए है. राहुल गांधी के इस फैसले की अखबारों में संपादकीय लिखकर और सोशल मीडिया मे प्रशंसा का दौर शुरू हो गया है यह निसंदेह राहुल गांधी का एक साहसिक कदम है और साथ ही देश के सभी राजनीतिक दलों को एक यह सन्देश भी  की देशवासियों मतदाताओं की जान कीमती है, चुनाव में हार और जीत नहीं. और रैलिया बुलाकर जिस तरीके से भीड़ इकट्ठा की जा रही है वह बड़ी ही शर्मनाक है.

आपकी जानकारी में बताते चलें कि कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष

राहुल गांधी ने  अंग्रेजी में ट्वीट करते हुए यह  कहा,- ‘कोविड की स्थिति को देखते हुए मैं पश्चिम बंगाल में अपनी सभी सार्वजनिक रैलियों को स्थगित कर रहा हूं.मैं सभी राजनीतिक नेताओं को सलाह दूंगा कि मौजूदा परिस्थितियों में बड़ी सार्वजनिक रैलियों के आयोजन के परिणामों पर गहराई से विचार करें.’ आगे राहुल गांधी ने हिन्दी में ट्वीट करते हुए लिखा- “कोविड संकट को देखते हुए, मैंने पश्चिम बंगाल की अपनी सभी रैलियां रद्द करने का निर्णय लिया है राजनैतिक दलों को सोचना चाहिए कि ऐसे समय में इन रैलियों से जनता व देश को कितना ख़तरा है.’

राहुल के सामने मोदी की जुबां बंद!

यह देश जानता है कि भाजपा और भाजपा के नेता जो सत्ता का आनंद ले रहे हैं वे राहुल गांधी को फूटी आंख पसंद नहीं करते. लंबे समय से राहुल गांधी को पप्पू का कहकर उनका मजाक उड़ाने का काम भाजपा के शीर्ष नेता करते रहे हैं. ऐसे में राहुल गांधी ने अनेक दफा यह बताया है कि उनकी सोच कितनी गहरी है जिस का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण वर्तमान में देखने को मिल रहा है .

इस घटनाक्रम के पश्चात भाजपा के बड़े नेता कुछ भी बोलने से गुरेज कर रहे हैं. सभी जानते हैं कि कोरोना कोविड-19 का संक्रमण इस समय कितना भीषण है. ऐसे में जो इस देश के नेता है कर्णधार बने हुए हैं अगर पश्चिम बंगाल के कोने कोने में जाकर रेलिया कर रहे हैं, लाखों लोगों की भीड़ जुटा रहे हैं और सत्ता को किसी भी तरीके से प्राप्त कर लेना चाहते हैं, के सामने यह यक्ष प्रश्न है कि सत्ता बड़ी है या आम जनता का जीवन.

पश्चिम बंगाल के इस चुनाव में हो सकता है भाजपा बाजी मार ले मगर आने वाले समय में वह लोगों को क्या जवाब देगी, जब संक्रमण के कारण जाने कितने लोग हलाक हो चुके होंगे. भाजपा अपनी मोटी चमड़ी और आज के अपने ढीट स्वभाव के कारण चाहे कुछ भी कहे, मगर इतिहास में तो भाजपा को जवाब देना ही होगा.

राहुल गांधी ने  एक और ट्वीट के जरिए नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा, जिसमें अपनी पीठ ठोकते हुए  बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि-” रैली में इतनी भीड़ है कि जहां तक उनकी नजर जा रही है, लोग ही लोग दिख रहे हैं.”

इसी संदर्भ में राहुल गांधी ने ट्वीट कर लिखा- “बीमारों और मृतकों की भी इतनी भीड़ पहली बार देखी है!’

राहुल गांधी के टि्वट में जो भाव है उसे आम लोगों ने महसूस किया और वहीं भाजपा के नेता बौखला गए और कहने लगे कि कांग्रेस की हालत पश्चिम बंगाल में तो खराब है, वह तो पिक्चर में ही नहीं है यही कारण है कि  राहुल की रैलिया रद्द की गई है. हो सकता है भाजपा आज आत्मविश्वास में है और अपनी हालत बहुत अच्छी समझ रही है. तो ऐसे में यह निर्णय करने में क्या गुरेज की रैलियां नहीं की जाएं और चुनाव को कोरोना प्रोटोकॉल के तहत लड़ा जाए.

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आपको खबर रहे, पश्चिम बंगाल विधानसभा का कार्यकाल 30 मई को समाप्त हो रहा है. यहां 17 वीं विधानसभा  के लिए  7,34,07,832 वोटर्स उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला 27 मार्च से जारी है. पश्चिम बंगाल में कुल आठ चरणों में चुनाव हैं अब तक पांच चरणों के लिए मतदान हो चुके है और आगामी छठे चरण में 43 सीटों पर 22 अप्रैल को, सातवें चरण में 36 सीटों पर 26 अप्रैल को और आठवें और अंतिम चरण में 35 सीटों पर 29 अप्रैल को मतदान रखा गया है.

राहुल गांधी की भाजपा को धोबी पछाड़!

साधारण रूप से कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जिस तरीके से रैलीयों को रद्द करने की बात कही, उसका सभी और स्वागत किया जा रहा है. वहीं भाजपा आवाक है, मौन है या फिर आक्रमक है जो यह बताता है कि भाजपा हर चीज में राजनीति ढूंढ लेती है या फिर फर्जी राष्ट्रवाद का सहारा लेती है.

राहुल गांधी ने जिस तरीके से अपनी बात कही है उसे लोगों ने पसंद किया है और जब महसूस किया है कि इसमें सद्भावना है राजनीति नहीं और यही राजनीति का मूल तत्व भी है.

आने वाले समय में अगर राहुल गांधी के इस अपेक्षा पर मोदी और अन्य राजनीतिक दल खरे नहीं उतरे और आगे चलकर कोरोना के कारण लोगों का संक्रमण बढ़ा महामारी बढ़ गई तो भाजपा को यह महंगा पड़ेगा.

यहां यह आंकड़े भी दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने जहां अभी तक देश में 143 चुनावी रैलियां की हैं वहीं, अकेले पश्चिम बंगाल में उन्होंने 17 रैलियां को संबोधित किया हैं. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी पश्चिम बंगाल में ताबड़तोड़ रैलियां कर रहे हैं. उन्होंने पश्चिम बंगाल में 17 रैलियां कर चुके हैं.  कांग्रेस के अध्यक्ष रहे राहुल गांधी ने भी रैलियां करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है लेकिन मोदी जी का मुकाबला करने के मामले में वे बहुत पीछे हैं .कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आज दिनांक तक देश में 126 रैलियां की है. हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की तुलना में उन्होंने मात्र तीन रैलियां पश्चिम बंगाल में की है. राहुल गांधी इस चुनाव में अब तक 8 रोड शो कर चुके हैं जबकि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह 20 रोड शो कर चुके हैं.

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मुख्तसर इस “खरगोश कछुआ की दौड़” की नई  कहानी में भले ही भाजपा आगे दिखाएं दे रही है नरेंद्र मोदी अमित शाह बहुत आगे दिखाई दे रहे हैं मगर कोरोना से लड़ने के परिपेक्ष में जिस तरीके से राहुल गांधी ने चुनावी रैलियों से कांग्रेस को पीछे कर लिया है उससे भाजपा के इन  नेताओं की बोलती बंद है.

भाजपा को न तो कुछ करते बन रहा है और न ही कुछ उगलते.

सियासत : कांग्रेस में रार, होनी चाहिए आर या पार

राजनीति में जब मनमुताबिक हालात नहीं होते हैं तो किसी सियासी दल की हालत उस डूबते जहाज की तरह हो जाती है, जिस के चूहे सब से पहले उसे छोड़ कर समुद्र में छलांग लगाते हैं. पर चूहे अगर कद्दावर हों तो जहाज के कप्तान को काटने से भी गुरेज नहीं करते हैं.

आज अगर सरसरी निगाहों से देखा जाए तो कांग्रेस इसी डूबते जहाज सी हो गई है. देश को अपने कई साल के राज से नई दिशा देने वाली कांग्रेस आज खुद दिशाहीन लग रही है. इतनी ज्यादा कि कोई भी छुटभैया नेता उसे ज्ञान बघार देता है.

हालिया बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार को ले कर अब इसी पार्टी में बगावत के सुर सुनाई दे रहे हैं. इस के वरिष्ठ नेता और नामचीन वकील कपिल सिब्बल ने जैसे ही इस के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठाए कि पार्टी की भीतरी कलह एक बार फिर सामने आ गई.

पर इसे भितरघात बताते हुए राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कपिल सिब्बल को ही निशाने पर ले लिया और साथ ही दूसरे नेता सलमान खुर्शीद ने कपिल सिब्बल को ही ‘डाउटिंग थौमस’ करार दे दिया.

दरअसल, ‘डाउटिंग थौमस’ उस आदमी को कहते हैं जो किसी भी चीज पर यकीन करने से इनकार करता है जब तक कि वह खुद न अनुभव करे या सुबूत न हो. इतना ही नहीं, सलमान खुर्शीद ने एक इंटरव्यू में कपिल सिब्बल को पार्टी छोड़ने तक की सलाह दे दी.

एक न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में सलमान खुर्शीद ने कपिल सिब्बल की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अगर आप पार्टी में हैं और चीजों को खराब कर रहे हैं तो सब से अच्छा यही है कि आप पार्टी छोड़ दें.

सिब्बल का दुखती रग पर हाथ

सवाल यह है कि कपिल सिब्बल ने ऐसा क्या कहा कि कांग्रेस के दूसरे नेता उन पर हावी हो गए? दरअसल, कपिल सिब्बल ने एक इंगलिश अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में कथित तौर पर कहा था कि ऐसा लगता है कि पार्टी नेतृत्व ने शायद हर चुनाव में पराजय को ही अपनी नियति मान लिया है… बिहार ही नहीं, उपचुनावों के नतीजों से भी ऐसा लग रहा है कि देश के लोग कांग्रेस पार्टी को प्रभावी विकल्प नहीं मान रहे हैं.

अपनी पार्टी को कठघरे में खड़ा करने वाले कपिल सिब्बल अकेले ही नहीं हैं, उन के साथसाथ कांग्रेस महासचिव तारिक अनवर ने भी कथित तौर पर कहा था कि बिहार चुनाव को ले कर पार्टी को आत्मचिंतन करना चाहिए.

एक हिंदी अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में तारिक अनवर ने बिहार विधानसभा चुनाव पर कांग्रेस के प्रदर्शन पर कहा, ‘इस का जायजा लेना होगा कि हम लोगों से कहां चूक हो रही है. यह भी हो सकता है कि लंबे वक्त तक सत्ता में बने रहने से हमारे जो स्टेट लीडर हैं, वे आलसी हो गए हों, काम करने की ताकत न रही हो. इस खुशफहमी से बाहर निकलना होगा कि गांधी परिवार से कोई आएगा और हम जीत जाएंगे. ऐसा नहीं चलने वाला…’

तारिक अनवर की चिंता जायज है, पर यह भी कड़वा सच है कि कांग्रेस आज भी गांधी परिवार के इर्दगिर्द ही सिमटी दिखाई देती है और अगर कोई अपना ही इस परिवार पर उंगली उठाता है, तो उसे ‘डाउटिंग थौमस’ करार दे दिया जाता है.

फिर दिक्कत क्या है

ऐसा नहीं है कि जनता को गांधी परिवार से कोई दुश्मनी है या इस पार्टी में बड़े कद के नेताओं की कमी हो गई है, पर इतना जरूर है कि फिलहाल इस पार्टी का कोई भी पासा सही नहीं पड़ रहा है.

इस की एक खास वजह यह है कि कांग्रेस यह नहीं फैसला कर पा रही है कि वह अपने वोटरों का दिल जीतने के लिए दो नावों की सवारी का करतब कब तक करेगी. दो नावों की सवारी का मतलब है अपनी धर्मनिरपेक्षता पर अडिग रहना या सौफ्ट हिंदुत्व का राग अलापना.

पिछले कुछ साल में भारतीय जनता पार्टी लोगों के दिमाग में यह भरने में कामयाब रही है कि वह इस देश में हिंदुत्व की हिफाजत करने वाली एकलौती पार्टी है और तीन तलाक कानून, धारा 370, राम मंदिर पर लिए गए उस के फैसले ने देश में हिंदूमुसलिम तबके के बीच एक लकीर खींच दी है, जिसे मिटाने में कांग्रेस के हाथपैर फूल रहे हैं. वह अगर मुसलिम समाज के हित की बात करती है तो हिंदू समाज की नाराजगी झेलती है और अगर सौफ्ट हिंदुत्व की तरफ जाती है तो मुसलिमों से दूर हो जाती है.

बिहार में दिखा असर

हालांकि बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस तेजस्वी यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ महागठबंधन की मजबूत साथी थी और उसे 70 सीटें भी दी गई थीं, पर वह उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं ला पाई. हाल यह हुआ कि हाथ आया पर मुंह को न लगा. यह महागठबंधन 12 जरूरी सीटों से पिछड़ गया और विपक्ष बन कर रह गया.

बाद में सब से बड़ा सवाल यही उभरा कि क्या कांग्रेस को 70 सीटें दी जानी चाहिए थीं? 70 सीटों में से महज 19 सीटें जीत कर कांग्रेस ने कोई कारनामा नहीं किया था. लिहाजा, उसे ही महागठबंधन की कमजोर कड़ी माना गया.

बिहार में कांग्रेस मुसलिमों को रिझाने में पूरी तरह नाकाम रही. उस ने असद्दुदीन ओवैसी को कम आंका या जानबूझ कर उन्हें नजरअंदाज किया, यह अलग सवाल है, पर खुद अपनी 70 सीटों में से उस ने महज 12 सीटों पर मुसलिम उम्मीदवार उतारे थे. उस ने खुद को तो मुसलिमों की हिमायती बताया पर ओवैसी को भाजपा का एजेंट बताते हुए उस पर खूब वार किए.

उधर, असदुद्दीन ओवैसी के पास खोने को कुछ नहीं था, लिहाजा उन्होंने भी कांग्रेस को यह कहते हुए खूब आड़े हाथ लिया कि अपने को सैकुलर कहने वाले दूसरे दलों को मुसलमानों के वोट तो अच्छे लगते हैं, पर उन की दाढ़ी और टोपी उन्हें पसंद नहीं.

जब बिहार में ओवैसी ने अपने खाते में 5 सीटें कर लीं, तो सियासी गलियारों में यह सुगबुगाहट शुरू हो गई कि क्या मुसलिम समाज का कांग्रेस या तथाकथित सैकुलर दलों से मोह भंग हो रहा है? कहीं ओवैसी में उन्हें अपना रहनुमा तो नहीं दिखाई दे रहा है? और अगर ऐसा है तो पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में कुछ अलग ही रंगत देखने को मिलेगी, जो कांग्रेस जैसे सैकुलर दलों के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है.

पर अभी भी कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ा है. कांग्रेस को दूसरे दलों की ताकत के साथसाथ अपनी अंदरूनी कमियों पर भी गंभीरता से सोचना होगा. अगर उसे गांधी परिवार की जरूरत है तो वह इस बात को खुल कर स्वीकार करे, जिस से राहुल गांधी को नई ताकत मिलेगी. बाकी नेताओं को भी आपसी निजी रंजिश भुला कर एकजुट होना होगा. उन्हें अपने नेतृत्व पर सवाल उठाने का पूरा हक है, पर अगर कोई दूसरा मजबूत विकल्प नहीं है तो जो सामने है, उस में वे अपनी आस्था बनाएं और मजबूती के साथ जनता के सामने जाएं. बिल्ली देख कर कबूतर की तरह अपनी आंखें बंद करने से समस्या का हल नहीं होगा. आरपार की ही लड़ाई सही, पूरी ताकत से लड़ें, फिर नतीजा चाहे कुछ भी रहे.

किसान आत्महत्या कर रहे, मुख्यमंत्री मौन हैं!

छत्तीसगढ़ में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं सन् 2019 में 629 आत्महत्याओं में 233 किसान व खेतिहर मजदूर हैं जिन्होंने आत्महत्या की. और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल किसानों की कथित”आत्महत्या” पर मौन है आखिर क्यों?

पहला पक्ष- अभनपुर के विधायक पूर्व मंत्री धनेंद्र साहू ने कहा  किसान की मानसिक दशा ठीक नहीं थी, इसलिए आत्महत्या कर ली है. ऐसा ही तोरला गांव के सरपंच और सचिव ने अपने बयान में कहा है जिसका विरोध मृतक किसान के परिजनों ने किया.

दूसरा पक्ष – छत्तीसगढ़ सरकार के जांच टीम ने पाया फसल क्षति, कर्ज और भुखमरी का आत्महत्या से कोई संबंध नहीं. दरअसल सरकार किसान आत्महत्या मामलों को स्वतंत्र जांच एजेंसियों के मध्यम से नहीं कराना चाहती.

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तीसरा पक्ष – हमारे संवाददाता ने रायगढ़ ,जांजगीर और कोरबा के कई किसानों से चर्चा की और पाया सरकार की नीतियों और  नकली कीटनाशक दवाइयों के कारण वर्तमान में किसान बेहद क्षुब्ध अवसाद में हैं.

छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के अभनपुर तहसील के ग्राम तोरला के कृषक  प्रकाश तारक की आत्महत्या देशभर में सुर्खियों में रही. इसी तरह मुख्यमंत्री के गृह जिला दुर्ग में एक युवा किसान दुर्गेश निषाद किसान ने आत्महत्या कर ली है.

यहां उल्लेखनीय है कि जब भी कोई किसान  आत्महत्या करता है तो सरकार यही कहती है कि इसमें हमारी नीतियों का कोई लेना देना नहीं है. यह किसान के परिवारिक और व्यक्तिगत कारण से हुआ है. वहीं विपक्ष हमेशा यही कहता है कि यह सरकार की नीतियों के कारण आत्महत्या हुई है. वही चौथा स्तंभ प्रेस मीडिया सच को दिखाने का प्रयास करता है.

छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की सरकार हो अथवा डॉक्टर रमन सिंह की 15 वर्ष की लंबी अवधि की भाजपा सरकार. प्रत्येक सरकार के समय काल में किसान लगातार आत्महत्या करते रहे हैं. यह मामले राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में बने, मगर सरकार ने हर दफा यही कहा कि हम तो बेदाग है. तो आखिर सरकार के  कोशिशों के बाद किसान आत्महत्या क्यों कर लेता है? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब अगर आप गांव के चौराहे और चौपाल पर पहुंचे तो आसानी से मिल सकता है. मगर सरकार का दावा यही रहता है कि इसमें हमारी छोटी सी भी खामी नहीं है. आज हम इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के किसानों के हालात पर और सरकार की नीति की खामियों पर आपको महत्वपूर्ण तथ्य बताने जा रहे हैं-

भूपेश बघेल का सरकारी ढोल..

किसान की आत्महत्या के संदर्भ में कलेक्टर रायपुर द्वारा अधिकारियों की गठित जांच टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया कि कृषक  प्रकाश तारक की आत्महत्या का फसल क्षति, कर्ज और भुखमरी से कोई संबंध नहीं है. मृतक ने मानसिक अवसाद के चलते फांसी लगाकर आत्महत्या की है. अनुविभागीय दण्डाधिकारी अभनपुर, तहसीलदार एवं नायब तहसीलदार अभनपुर ने अपने संयुक्त जांच प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया है. फसल बर्बाद होने से निराश किसान  प्रकाश तारक द्वारा आत्महत्या किए जाने की खबरों को जांच टीम ने बेबुनियाद बताया है नाराजगी व्यक्त करते हुए कड़ी प्रतिक्रिया  व्यक्त की है.

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सनद रहे कि कृषक  प्रकाश तारक द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या किए जाने के मामले की कलेक्टर रायपुर ने एसडीएम अभनपुर के नेतृत्व में एक संयुक्त टीम गठित कर इसकी जांच कराई है. अधिकारियों की संयुक्त टीम ने ग्राम तोरला पहुंचकर मृतक के परिजनों, ग्रामीणों एवं स्थानीय जनप्रतिनिधियों के बयान लिए और मृतक की परिवारिक स्थिति के बारे में भी जानकारी ली.अधिकारियों की संयुक्त टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि मृतक प्रकाश तारक की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी.  अधिकारियों की संयुक्त टीम ने ग्राम तोरला में ग्रामवासियों, हल्का पटवारी, जन प्रतिनिधियों और मृतक परिवार के सदस्यों की उपस्थिति में जांच कर पंचनामा तैयार किया.

अनुविभागीय दण्डाधिकारी अभनपुर और अधिकारियों की संयुक्त टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में मृतक की पत्नी  दुलारी बाई के शपथपूर्वक कथन में बताई गई बातों का उल्लेख करते हुए कहा है कि मृतक को कोई परेशानी नहीं थी न ही उसके उपर कोई कर्ज था, न ही किसी के द्वारा उसको परेशान एवं धमकाया जा रहा था. खेत में लगी फसल की स्थिति सामान्य है। मृतक फसल की कटाई करने के लिए खेत गया हुआ था. मृतक की पत्नी ने अपने बयान में यह भी कहा है कि उसके पति बीते कुछ दिनों से गुमसुम रहा करते थे। तोरला गांव के सरपंच और सचिव ने अपने प्रतिवेदन में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि मृतक की बीते तीन-चार महीनों से मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी. वह गुमसुम रहता था.किसी से कोई बात-चीत नहीं करता था. पूछने पर दवाई लेता हूं, यह कहता था. मृतक के परिवार को शासकीय उचित मूल्य दुकान से नियमित रूप से चावल प्रदाय किया जाता रहा है परिवार में भुखमरी की कोई नौबत नहीं है. हल्का पटवारी ने अपने रिपोर्ट में मृतक  प्रकाश तारक के फसल की स्थिति को सामान्य बताया है. ग्रामीणों एवं जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति में तैयार किए गए पंचनामा के आधार पर जांच अधिकारियों की संयुक्त टीम ने मृतक पर कोई कर्ज न होने, उसके परिवार को नियमित रूप से पीडीएस का राशन मिलने, उसके गुमसुम तथा अवसाद से ग्रसित होने का उल्लेख किया है.

जांच अधिकारियों की संयुक्त टीम ने मृतक की पत्नी  दुलारी बाई, परिवार के अन्य सदस्यों, ग्राम के कोटवार के शपथ पूर्व कथन तथा गोबरा नवापारा थाना में कायम मर्ग तथा विवेचना में इस बात का उल्लेख है कि मानसिक बीमारी से दुखी होकर मृतक प्रकाश तारक ने आत्महत्या की है. वस्तुतः सरकार के कारिंदों द्वारा जारी की गई जांच रिपोर्ट पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि इस तरह किसान की आत्महत्या को झुठलाया जा रहा है.

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सरकार का “सफेद झूठा” होना

यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि किसान प्रकाश के परिजन क्षेत्रीय विधायक व पूर्व मंत्री धनेंद्र साहू से बेहद नाराज हैं जिन्होंने सबसे पहले यह कहा कि प्रकाश मानसिक रूप सेअवसाद ग्रस्त था. और साफ साफ कह रहे हैं कि ऐसी कोई बात नहीं थी. सवाल यह है कि सरकार अपने शासकीय अमले से किसान की आत्महत्या की जांच क्यों करवाती है.क्यों नहीं किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी के द्वारा किसान की आत्महत्या की सच्चाई को जानने का प्रयास किया जाता इसे हेतु “न्यायिक जांच” भी गठित की जा सकती है अथवा विपक्ष को भी जांच का अधिकार दिया जाना चाहिए. मगर कोई भी सरकार किसान आत्महत्या के मामले में सिर्फ अपने अधीनस्थ एसडीएम, कलेक्टर अथवा पटवारी से जांच करवा कर मामले की इतिश्री कर लेती है. और इस तरह किसान की आत्महत्या की सच्चाई को दबा दिया जाता है. अगर सरकार किसानों की हितैषी है जैसा कि वह हमेशा ढोल बजाते जाती है छत्तीसगढ़ में तो प्रति क्विंटल 25 सो रुपए धान का मूल्य दिया जा रहा है करोड़ों रुपए विज्ञापन पर खर्च किए जाते हैं और यह प्रचार प्रसार किया जाता है कि भूपेश बघेल की सरकार किसानों की हितैषी सरकार है, ऐसे में कोई किसान आत्महत्या कर ले तो यह सरकार के सफेद कपड़े पर एक काला दाग बन कर उभर आता है. शायद यही कारण है कि

अनुविभागीय दण्डाधिकारी, अभनपुर ने बताया कि मृतक मृतक के परिवार में उसकी पत्नी और 4 बच्चे है. संयुक्त परिवार बंटवारा में प्राप्त 1.79 हेक्टेयर भूमि में  प्रकाश तारक कृषि करता था. उसे मनरेगा से जॉब कार्ड भी मिला है. पारिवारिक बंटवारा में उसे तीन कमरा और एक किचन वाला मकान मिला है. मृतक के उपर कोई कर्ज नहीं था। उसके परिवार को नियमित रूप से शासकीय उचित मुल्य दुकान से चावल मिल रहा था. परिवार में भुखमरी की नौबत नहीं है. मृतक के घर से 1 कट्टा धान शासकीय उचित मूल्य दुकान से प्राप्त चावल पाया गया. हल्का पटवारी के अनुसार फसल की स्थिति सामान्य है.समिति के माध्यम से पिछले खरीफ धान विक्रय के दौरान मृतक के  सम्मिलात खाते में 105 क्विटल धान बेचा था. जिसके एवज में एक लाख 83 हजार की राशि मिली थी.

गांव गांव के किसान हलाकान!

हमारे संवाददाता की जमीनी रिपोर्ट यह बताती है कि छत्तीसगढ़ के अनेक गांवों में किसान  नकली कीटनाशक दवाइयों के कारण त्रासदी भोग रहे हैं.

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यह पहली बार हुआ है कि 1 एकड़ के कृषि में किसान को पांच हजार रुपए के कीटनाशक दवाइयों की जगह लगभग 12000  रूपए  कीटनाशकों पर खर्च करना पड़ रहा है. मगर इसके बावजूद  कीट रातों-रात खेतों को सफाचट कर रहे हैं, किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि यह सब क्या हो रहा है. हमारे संवाददाता ने रायगढ़ के जोबी गांव के किसान कृपाराम राठिया, कोरबा जिला के ग्राम मुकुंदपुर के शिवदयाल कंवर, राम लाल यादव, तरुण कुमार देवांगन से चर्चा की तो यह तथ्य सामने आया कि सत्र 2019 -20 में किसानों के कीटनाशकों के खरीदी में बेइंतेहा पैसे खर्च हुए हैं इसके बावजूद खेतों में कीट रातो रात फसल को साफ कर रहे हैं. जिससे किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है. जानकार सूत्रों के अनुसार छत्तीसगढ़ में नकली कीटनाशक दवाइयों की बिक्री जोरों पर है जिससे किसान लूटे जा रहे हैं, बर्बाद हो रहे हैैं. सरकार कोई एक्शन नहीं ले  रही है. परिणाम स्वरूप किसान आत्महत्या करने के कगार पर है.

मध्य प्रदेश : दांव पर सब दलों की साख

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ कर मध्य प्रदेश की जनता और चुनी गई कांग्रेसी सरकार से गद्दारी की थी या फिर अपनी गैरत की हिफाजत की थी, इस का सटीक फैसला अब मीडिया या चौराहों पर नहीं, बल्कि जनता की अदालत में 10 नवंबर, 2020 को होगा जब 28 सीटों पर हुए उपचुनावों के वोटों की गिनती हो रही होगी. इन 28 सीटों में से 16 सीटें ग्वालियरचंबल इलाके की हैं, जहां वोट जाति की बिना पर डलते हैं और इस बार भी भाजपा और कांग्रेस के भविष्य का फैसला हमेशा की तरह एससीबीसी तबके के लोग ही करेंगे, जिन का मूड कोई नहीं भांप पा रहा है.

साल 2018 के विधानसभा के चुनाव में इन वोटों ने भाजपा और बसपा को अंगूठा दिखाते हुए कांग्रेस के हाथ के पंजे पर भरोसा जताया था, लेकिन तब हालात और थे. ये हालात बारीकी से देखें और समझें तो महाराज कहे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का असर कम, बल्कि एट्रोसिटी ऐक्ट से पैदा हुई दलितों और सवर्णों की भाजपा से नाराजगी ज्यादा थी.

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दलित इस बात से खफा थे कि भाजपा सवर्णों को शह दे रही है और इस मसले पर अदालत भी उस के साथ है, इस के उलट ऊंची जाति वाले इस बात से गुस्साए हुए थे कि संसद में अदालत के फैसले को पलट कर मोदी सरकार उन की अनदेखी करते हुए दलितों को सिर चढ़ा रही है, जबकि वे हमेशा उसे वोट देते आए हैं.

इसी इलाके में बड़े पैमाने पर एट्रोसिटी ऐक्ट को ले कर हिंसा हुई थी. इस का नतीजा यह हुआ कि इन दोनों ही तबकों के वोट भाजपा से कट कर कांग्रेस की झोली में चले गए और वह इस इलाके की 36 सीटों में से 26 सीटें ले गई.

भाजपा राज्य में 230 सीटों में से महज 109 सीटें ले जा पाई और कांग्रेस 114 सीटें ले जा कर बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों की मदद से अल्पमत की सही सरकार बना ले गई.

दिग्गज और तजरबेकार कमलनाथ ने बहैसियत मुख्यमंत्री जोरदार शुरुआत की जिस से लोगों को आस बंधी थी कि 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार भाजपा से बेहतर साबित होगी, लेकिन सवा साल में ही कांग्रेस की खेमेबाजी और फूट उजागर हुई तो हुआ वही जिस का हर किसी को डर था.

कमलनाथ और परदे के पीछे से सरकार हांक रहे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की अनदेखी शुरू कर दी नतीजतन वे राम भक्तों की पार्टी से जा मिले जिस के एवज में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा में ले लिया और उन के 22 समर्थक विधायकों की मदद से सरकार बना ली जिस की अगुआई एक बार फिर वही शिवराज सिंह चौहान कर रहे हैं, जिन्हें जनता ने 2018 में खारिज कर दिया था.

इतना ही नहीं, भाजपा ने सिंधिया समर्थक 14 विधायकों को मंत्री पद से भी नवाजा और वादे या सौदे के मुताबिक सभी को उन की सीटों से ही टिकट भी दिए.

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सब की हालत पतली

अब क्या ये सभी कांग्रेसी भाजपा के हो कर दौबारा जीत पाएंगे, यह सवाल बड़ी दिलचस्पी से सियासी गलियारों में पूछा जा रहा है जिस का सटीक जवाब तो 10 नवंबर को ही मिलेगा, पर इन नए भगवाइयों की हालत खस्ता है, जो पहले भाजपा की बुराई करते थकते नहीं थे और अब जनता को बता रहे हैं कि भाजपा क्यों कांग्रेस से बेहतर है. लेकिन ऐसा करते और कहते वक्त उन की आवाज में वह दमखम नहीं रह जाता जो 2018 के चुनाव प्रचार के वक्त हुआ करती था. कांग्रेस इन्हें गद्दार और दागी कह तो रही है, लेकिन उस के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर क्यों वह अपने विधायकों को बांधे रखने में नाकाम रही और क्यों उन्हें अपनी ही पार्टी की सरकार गिराने मजबूर होना पड़ा.

अब ज्यादातर सीटों पर मुकाबला कांग्रेस बनाम कांग्रेस छोड़ चुके नए भाजपाइयों के बीच हो रहा है. भाजपा को बहुमत के लिए 9 सीटें और चाहिए, जबकि कांग्रेस को सरकार बनाने पूरी 28 सीटों पर जीत की दरकार है. लेकिन राह दोनों की ही आसान नहीं है, तो इस की अपनी वजहें भी हैं. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पहले जैसे लोकप्रिय नहीं रह गए हैं और भाजपा कार्यकर्ता सिंधिया खेमे की खातिरदारी में जुटने से बच रहा हैं, क्योंकि उसे मालूम है कि ये जीत भी गए तो उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला. हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया जनता को यह बताने लगे हैं कि वे और उन के समर्थक दिलोदिमाग दोनों से भाजपाई हो चुके हैं. इस के लिए वे जयजय श्रीराम का नारा सड़कों पर आ कर लगाने लगे हैं और भाजपाई उसूलों पर चलते हुए संघ के दफ्तर की भी परिक्रमा करने लगे हैं.

दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को यह एहसास है कि उन के पास खासतौर से इस इलाके में जमीनी कार्यकर्ताओं का टोटा है और 16 में से कोई 10 सीटों पर सिंधिया खेमे के उम्मीदवारों की खुद की अपनी भी साख है जिसे तोड़ पाने के लिए उन के पास काबिल और लोकप्रिय उम्मीदवार नहीं हैं जिस की भरपाई करने वे सिंधिया की गद्दारी को चुनावी मुद्दा बनाने की जुगत में भिड़े हैं.

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भाजपा निगल रही बसपा वोट

कोई मुद्दा न होने और कोरोना महामारी के चलते वोटिंग फीसदी कम होने के डर से भी सभी पार्टियां हलकान हैं. ऐसे में जो पार्टी अपने वोटर को बूथ तक ले आएगी, तय है कि वह फायदे में रहेगी. साफ यह भी दिख रहा है कि कोरोना के डर के चलते बूढ़े वोट डालने नहीं जाएंगे. इस इलाके में कभी मजबूत रही बसपा अब दम तोड़ती नजर आ रही है. 2018 के चुनाव में वह यहां महज एक सीट जीत पाई थी जो अब तक का उस का सब से खराब प्रदर्शन था, इस के बाद भी 6 सीटों पर उस ने भाजपा और कांग्रेस दोनों का खेल बराबरी से बिगाड़ा था. बसपा के वोटरों पर इन दोनों पार्टियों की नजर है, जिस के चलते दोनों का दलित प्रेम उमड़ा जा रहा है.

मायावती का भाजपा के लिए झुकाव किसी सुबूत का मुहताज नहीं है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दलित समुदाय कई फाड़ हो चुका है. सामाजिक समरसता के जरीए भाजपा एससीबीसी तबके में थोड़ीबहुत ही सही सेंध लगा चुकी है. उसे उम्मीद है कि अगर इस तबके के 30 फीसदी वोट भी उसे मिले तो सवर्ण वोटों के सहारे दिनोंदिन मुश्किल होती जा रही इस जंग को वह जीत लेगी. दूसरी तरफ कांग्रेस को उम्मीद है कि पिछली बार की तरह ये वोट उसे ही मिलेंगे. बसपा के खाते में अब वही वोट जा रहे हैं जो 20 साल से उसे मिलते रहे हैं, लेकिन मायावती के ढुलमुल रवैए के चलते दलित नौजवान वोटर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी पार्टी हकीकत में उस की हिमायती है.

साख का सवाल

ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह साबित करने में पसीने आ रहे हैं कि 2018 की तरह वोट उन के नाम पर पड़ेंगे तो शिवराज सिंह भी यह साबित नहीं कर पा रहे हैं कि भाजपा और वे खुद पहले की तरह अपराजेय हैं, इसलिए उन्होंने ‘शिवज्योति ऐक्सप्रेस’ का नारा दिया है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की बूआ कैबिनेट मंत्री यशोधरा राजे भी अपने बबुआ के लिए हाड़तोड़ मेहनत कर रही हैं.

साख मायावती की भी दांव पर लगी है कि बसपा अगर इस बार भी सिमट कर रह गई तो आगे के लिए उस के दामन में कुछ नहीं रहेगा. कमलनाथ को भी साबित करना है कि वे एक बेहतर मुख्यमंत्री थे जो अपनों की ही साजिश का शिकार हुए थे.

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यानी अब जो जीता वह सिकंदर हो जाएगा और हारे के पास हरि नाम भी नहीं बचेगा, इसलिए सारे नेता वोटरों को लुभाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सब का सहारा ले रहे हैं, जिन्हें मालूम है कि यह चुनाव आम चुनाव से भी ज्यादा अहम उन के वजूद के लिए है और जानकारों की दिलचस्पी इस इलाके में बिहार के बराबर ही है. फर्क सिर्फ इतना है कि अगर कांग्रेस वोटर के दिमाग में यह बात बैठा पाई कि भाजपा ने जोड़तोड़ कर सरकार बना कर राज्य का भला नहीं किया है तो बाजी भगवा खेमे को महंगी भी पड़ सकती है, क्योंकि विकास और रोजगार के मुद्दों पर तो वोटर की नजर में दोनों ही पार्टियां नकारा हैं.

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