सैलाब से पहले…

लेखक- स्निग्धा श्रीवास्तव 

अंतिम भाग

पूर्व कथा

अंधेरे कमरे में बैठे विनय को देख कर इंदु उस के पास आती है तो वह पुरू के बारे में पूछता है और इंदु से पुरू को साथ ले कर पुलिस स्टेशन जाने को कहता है. इंदु के जाने पर विनय अतीत की यादों में खो जाता है कि पुरू और अरविंद की शादी के दिन सभी कितने खुश थे उन की जोड़ी को देख कर. इंदु ने लाख समझाया था कि लड़के वालों के बारे में तहकीकात तो कर लो पर विनय ने किसी की एक न चलने दी थी.

शादी के 4 दिन बाद पुरू के मायके आने पर इंदु उस के चेहरे की उदासी को भांप जाती है परंतु पूछने पर वह पुरू को कुछ नहीं बताती. विनय और इंदु को पुरू के मां बनने की खुशखबरी मिलती है. एक दिन पुरू के अकेले मायके आने पर सभी अरविंद के बारे में पूछते हैं तो वह कहती है कि ससुराल वाले उसे दहेज न लाने के लिए सताते हैं इसीलिए वह ससुराल छोड़ कर आई है. उस की बातें सुन कर सभी परेशान हो जाते हैं और विनय दुविधा में पड़ जाता है. बहन को रोते देख वरुण पुलिस स्टेशन चलने को कहता तो विनय उन्हें समझाने का प्रयास करता है. अब आगे पढि़ए… ‘पापा, दीदी की हालत देखने के बाद भी आप को उन लोगों से बात करने की पड़ी है,’ वरुण उत्तेजित हो उठा, ‘अब तो उन लोगों से सीधे अदालत में ही बात होगी.’ आखिर इंदु और वरुण के आगे विनय को हथियार डाल देने पड़े. केदार भी शहर से बाहर था वरना उस से विचारविमर्श किया जा सकता था. आखिर वही हुआ जो न चाहते हुए भी करने के लिए विनय विवश थे.

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पुलिस में एफ.आई.आर. दर्ज कराई गई. विनय, वरुण और इंदु के बयान… फिर पुरुष्णी के बयान के बाद तुरंत ही दीनानाथ, सुभद्रा और अरविंद सलाखों के पीछे पहुंच गए. मिलिंद अपने कालिज टूर पर बाहर गया हुआ था. घर में दूसरा कोई था ही नहीं, जो तुरंत उन लोगों के पक्ष में साथ देने अथवा सहायता के लिए खड़ा होता. रिश्तेदारी में बात फैलते देर ही कितनी लगती है. कौन दीनानाथजी के साथ खड़ा हुआ है कौन नहीं, अब विनय और इंदु को चिंता भी क्यों करनी थी? ‘इंस्पेक्टर साहब…इन की अच्छी खातिरदारी करिएगा,’ वरुण ने नथुने फुला कर जोश में कहा. पुरू गर्भावस्था का सफर तय कर रही थी…इस अवस्था में भी पति ने…सोच कर इंस्पेक्टर ने अरविंद को खूब फटकारा था. अरविंद खामोश था…

वरुण को गहरी निगाहों से ताकते हुए वह यों ही स्तब्ध खड़ा रहा. सारे दृश्य चलचित्र की भांति दिमाग में घूम रहे थे कि इंदु की आवाज ने चौंका दिया. सुबह 5 बजे इंदु नियमानुसार नहाधो कर स्नानघर से बाहर निकली तो विनय के कमरे से आहट पा कर वहां आ गई. ‘‘क्या…आप रातभर सोए नहीं. यों ही आरामकुरसी पर बैठेबैठे रात काट दी आप ने.’’ ‘‘नहीं इंदु, कैसे सोता मैं…अपराधी को सजा मिले बिना अब सो भी नहीं सकूंगा…’’ विनय ने गहरी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘नहाधो ली हो तो एक कप चाय बना दो. तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं. और हां, पुरू और वरुण को भी जगा दो. चाहता हूं जो भी बात है एकसाथ मिलबैठ कर की जाए.’’ असमंजस के भाव क्षण भर के लिए इंदु के चेहरे पर उभरे कि ऐसी कौन सी बात होगी. फिर कुछ सोचती हुई वह रसोईघर में चली गई. कुछ ही देर बाद इंदु, पुरू और वरुण तीनों विनय के सामने बैठे हुए थे. व्यग्रता तथा चिंता के मिश्रित भाव उन के चेहरे पर आजा रहे थे…उन से अधिक उलझन विनय के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. खुद को कुछ संयत करते हुए विनय बोले, ‘‘चाहे सौ अपराधी छूट जाएं पर एक बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए, यह तो मानते हो न तुम लोग.’’ तीनों ही अचंभित से एकदूसरे को देखने लगे…आखिर विनय कहना क्या चाहते हैं. ‘‘बोलो, हां या नहीं?’’

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विनय का कड़क स्वर पुन: उभरा. ‘‘हां,’’ तीनों ने समवेत स्वर में उत्तर दिया. ‘‘तो आज हमें पुलिस थाने में चल कर दीनानाथजी, सुभद्रा और अरविंद तीनों के खिलाफ दर्ज कराई अपनी रिपोर्ट वापस लेनी है.’’ वरुण लगभग चिल्ला कर बोला, ‘‘पापा, आप होश में तो हैं.’’ ‘‘1 मिनट वरुण, अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई है.’’ विनय ने कठोरता से कहा तो वरुण शांत हो कर बैठ गया. ‘‘बेगुनाह होने के बावजूद 4 दिन तक जेल में बंद रह कर जो जिल्लत व अपमान उन तीनों ने सहा है उस की भरपाई तो हम चार जन्मों में भी नहीं कर पाएंगे पर हमारी वजह से उन की प्रतिष्ठा पर जो बदनुमा दाग लग चुका है उसे धुंधलाने के लिए जितने भी संभावित उपाय हैं…हमें करने ही होंगे.’’ क्षण भर की चुप्पी के बाद विनय फिर बोल उठे, ‘‘वास्तविक अपराधी को सजा अवश्य मिलनी चाहिए ऐसा मेरा मानना है. अब सजा क्या हो यह पुरुष्णी तय करेगी क्योंकि पूरा मामला उसी से जुड़ा हुआ है,’’ कहते हुए विनय ने एक गहरी दृष्टि पुरुष्णी पर डाली जो यह सब सुन कर पत्ते की तरह कांपते हुए कातर निगाहों से देख रही थी. ‘‘इंदु, यह लो और पढ़ो,’’ कहते हुए विनय ने एक परचा इंदु की ओर बढ़ाया. आश्चर्य और उत्सुकता से वरुण भी मां के नजदीक खिसक आया व इंदु के साथसाथ परचे पर लिखा हुआ ध्यान से पढ़ने लगा.

पर पुरू मूर्तवत बैठी रही क्योंकि उसे जरूरत ही क्या थी वह पढ़ने की. वह परचा तो उसी का लिखा हुआ था जो उस ने अपने प्रेमी अक्षय को लिखा था पर उस तक पहुंचा नहीं पाई थी. ‘‘प्रिय अक्षय, तुम ने जीवन भर वफा निभाने का वादा मांगा है न. यों 2 हिस्सों में बंट कर जीना मेरे लिए दूभर होता जा रहा है. अरविंद से छुटकारा पाए बिना मैं पूर्णरूपेण तुम्हारी कभी नहीं हो पाऊंगी. अरविंद से तलाक पाने और तुम्हारा जीवन भर का साथ पाने का बस, यही एक रास्ता मुझे दिखाई दे रहा है. पता नहीं तुम इस बात से क्यों असहमत हो…पर अब मैं बिलकुल चुप बैठने वाली नहीं हूं. एक बार चुप्पी साध कर तुम्हें खो चुकी हूं, अब दोबारा खोना नहीं चाहती. मैं ने तय कर लिया है कि मैं अपनी योजना को निभाने…’’ आगे के अक्षर इंदु को धुंधला गए, चक्कर आने लगा. माथा पकड़ कर वह वरुण का सहारा लेने लगी… परचा हाथ से छूट कर जमीन पर जा गिरा. इंदु अचेत सी वरुण के कंधे पर लुढ़क गई. कुछ चेतना जगी तो सामने विनय, केदार और डाक्टर खड़े थे. धीरेधीरे सबकुछ स्पष्ट होता गया. वरुण माथा सहला रहा था और पुरू अपराधबोध से गठरी सी बंधी पैरों के पास बैठी सिसक रही थी. आराम की सलाह व कुछ दवाइयां दे कर डाक्टर चले गए. इतने लोगों के कमरे में होने पर भी एक अजीब किस्म का गहन सन्नाटा छा गया था.

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‘‘केदार, अब किस मुंह से माफी मांगूं तुझ से?’’ विनय के स्वर में टूट कर बिखरने का एहसास था. ‘‘विनय, माफी तुझे नहीं, पुरू को उन सब से मांगनी होगी जिनजिन का इस ने दिल दुखाया है. अरे, शादी के 2 माह बाद ही अरविंद ने मुझे अकेले में मिलने के लिए बुलाया था. तब उस ने बताया था कि पुरू हर वक्त मोबाइल पर किसी अक्षय नाम के लड़के से बात करती रहती है. अरविंद बहुत ही समझदार और धीरगंभीर किस्म का लड़का है. मैं उसे बचपन से ही जानता हूं…यों बेवजह वह पुरू पर शक करेगा नहीं. यह भी मैं अच्छी तरह जानता था, फिर भी मैं ने उसे तसल्ली दी थी कि पुरू नए जमाने की लड़की है. कोई पुराना सहपाठी होगा… तुम्हीं उस से खुल कर बात कर लो…और बेटे, कुछ बातें पतिपत्नी के बीच रह कर ही सुलझ जाएं तो बेहतर होता है. ‘‘मेरे इस समझाने के बाद फिर कभी उस ने यह विषय नहीं उठाया. पर परसों जब मिलिंद ने मुझे जयपुर में मोबाइल पर पूरी बात बताई तो मैं सन्न रह गया.

दीनानाथजी मेरे बड़े भाई समान हैं और सुभद्रा भाभी तो मेरी मां के स्थान पर हैं. तभी मैं ने तत्काल फोन पर तुम से बात की और तह तक जाने के लिए कहा था. काश, तुम्हारे इस कदम उठाने के पहले ही मैं तुम से बात कर पाता,’’ केदार अपनी लाचारी पर बेचैन हो उठे. अफसोस और अवसाद एकसाथ उन के चेहरे पर उभर आया मानो वह ही कोई दोष कर बैठे हों. ‘‘नहीं केदार, दोष तुम्हारा नहीं है, यह तहकीकात तो मुझे तुम्हारे फोन आने से पहले ही कर लेनी चाहिए थी पर पुत्री प्रेम कह लो चाहे परिस्थिति की नजाकत…न जाने मैं विवेक कैसे खो बैठा…तुम से बात न कर सका था न सही, पर एक बार दीनानाथजी से खुद मिल लेता,’’ विनय का स्वर पश्चाताप से कसक उठा, ‘‘तुम्हारे फोन आने के बाद मैं ने पुरू के सामान की छानबीन की और उसी में यह पत्र मिला जो शायद अक्षय तक पहुंच नहीं पाया था. क्यों पुरू?’’ विनय ने सख्त लहजे में कहा तो पुरू, जो इतनी देर से लगातार अपनी करतूत पर शर्म से गड़ी जा रही थी, उठ कर विनय से लिपट कर रो पड़ी. ‘‘सौरी, पापा,’’ पुरू बोली, ‘‘मैं अक्षय से प्यार करती हूं, यह बात मैं शादी से पहले आप को बताना चाहती थी पर सिर्फ इसलिए नहीं बता पाई थी, क्योंकि उस वक्त अक्षय अचानक होस्टल छोड़ कर न जाने कहां चला गया था. मैं आप को उस से मिलवाना भी चाहती थी. मैं ने अक्षय की बहुत खोजबीन की पर कहीं कुछ पता नहीं चला और जब वह लौटा तो बहुत देर हो चुकी थी. ‘‘उस ने मुझे बताया कि उस के पिताजी की अचानक तबीयत खराब होने के कारण वह अपने शहर चला गया था पर वह अब भी मुझे प्रेम करता है इसलिए मुझ से रोज फोन पर बातें करता. मैं भी स्वयं को रोक नहीं पाती थी. अपने प्रेम का वास्ता दे कर वह मुझे मिलने के लिए बुलाता पर मैं अपनी विवशता पर रोने के सिवा कुछ न कर पाती. मैं भी हर हाल में उसे पाना चाहती थी. पर अरविंद से अलग हुए बिना यह संभव नहीं था. बस, इसलिए मैं ने…’’ कहतेकहते पुरू सिसक उठी, ‘‘मैं जानती हूं कि मैं ने जो रास्ता अपनाया वह गलत है…बहुत बड़ी गलती की है मैं ने, पर मैं अक्षय के बिना नहीं रह सकती पापा…

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ये सब मैं ने सिर्फ उसे पाने के लिए…’’ ‘‘और जिसे पाने के लिए तुम ने अपने सासससुर को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया, अरविंद जैसे नेक इनसान के साथ विश्वासघात किया, जानती हो उस अक्षय का क्या जवाब है?’’ विनय ने पुरू पर नजरें गड़ाते हुए पूछा. ‘‘क्या…आप अक्षय से मिले थे?’’ पुरू आश्चर्य से आंखें फाड़ कर देखने लगी. ‘‘हां, तुम्हारा यह पत्र पढ़ने के बाद मैं और केदार अक्षय से मिलने गए थे. उस ने तो तुम्हें जानने से भी इनकार कर दिया. बहुत जोर डालने पर बताया कि हां, तुम उस के साथ पढ़ती थीं और उस के पीछे हाथ धो कर पड़ी हुई थीं. यकीन है मेरी बात पर या उस से मिल कर ही यकीन करोगी?’’ विनय ने गरज कर पूछा. पुरू का तो मानो खून जम गया था कि जिस के लिए उस ने इतना बड़ा कदम उठाया वह उसे पहचानने से भी इनकार कर रहा है…विवाह के पहले अचानक होस्टल से गायब हो जाना भी कहीं उस से बचने का बहाना तो नहीं था…मन हुआ कि धरती फट जाए तो वह उसी में समा जाए. वह किसी से भी नजरें नहीं मिला पा रही थी. क्षण भर यों ही बुत बनी खड़ी रही पर अगले ही क्षण दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा कर तेज कदमों से अपने कमरे में दौड़ गई. वास्तविकता से रूबरू होते ही इंदु का सिर पुन: चकराने लगा. ‘अब क्या होगा मेरी पुरू का.’ ममता की मारी इंदु सबकुछ भुला कर यह सोचने लगी कि पुरू पर से अक्षय के प्रेम का भूत उतरेगा या नहीं…पुरू फिर से अरविंद के साथ जिंदगी बिताने के लिए मानेगी या नहीं… ‘‘अब बात हमारे या पुरू के मानने की नहीं है इंदु, ये हक तो हम कब का खो चुके हैं. अब बात दीनानाथजी, सुभद्रा भाभी और अरविंद के मानने की है. हमारी पुरू को माफ करें, उसे पुन: स्वीकार करें ये कहने का साहस मुझ में तो रहा नहीं और किस मुंह से कहें हम. बेटी के प्यार और विश्वास के वशीभूत हो कर जो महाभूल हम लोग कर बैठे हैं उस का प्रायश्चित्त तो हमें करना ही पड़ेगा,’’ विनय के स्वर में हताशा के साथ निश्चय भी था. ‘‘प्रायश्चित्त…यह क्या कह रहे हैं आप?’’ इंदु कांपते स्वर में बोल पड़ी. ‘‘हां, इंदु. अपनी रिपोर्ट वापस लेने के साथ ही मुझे पुरू की गलत रिपोर्ट दर्ज कराने की बात भी पुलिस को बतानी पड़ेगी. किसी सभ्यशरीफ इनसान को अपने स्वार्थ के लिए कानून का दुरुपयोग कर के फंसाना कोई छोटामोटा अपराध नहीं है. तुम्हीं ने कहा था न कि अपराधी को सजा मिलनी ही चाहिए.’’ ‘‘पर विनय, पुरू के भविष्य की तो सोचो. इस समय उस के अंदर एक नन्ही जान भी पल रही है,’’ आवाज लड़खड़ा गई इंदु की. वरुण भी लगभग रो पड़ा, ‘‘पापा…पापा, प्लीज, एक बार और सोच लीजिए.’’

‘‘नहीं वरुण, कल को यही स्थिति हमारे साथ होती तो क्या तुम अपनी पत्नी को माफ कर देते? प्रतिष्ठा कांच की तरह नाजुक होती है वरुण, एक बार चटक जाए तो क्षतिपूर्ति असंभव है. मुझे अफसोस है कि दीनानाथजी की इस क्षति का कारण हम बने हैं.’’ निरुत्तरित हो गया था वरुण. कितनी अभद्रता से पेश आया था वह अरविंद के साथ. पर अरविंद का वह मौन केवल पुरू को बदनामी से बचाने के लिए ही था. ‘‘ओह, ये हम से क्या हो गया,’’ आह सी निकली वरुण के दिल से. सन्नाटा सा छा गया था सब के बीच. सभी भयाकुल से आने वाले दुर्दिनों के ताप का मन ही मन अनुमान लगा रहे थे.

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कितना सोचसमझ कर नाम रखा था विनय ने अपनी प्यारी बेटी का…अपने गांव के किनारे से कलकल कर बहती निर्मल जलधारा वाली मनोहर नदी ‘पुरुष्णी’. पर आज यह नदी भावनाओं के आवेग से दिशाहीन हो कर बह निकली थी. अपने सैलाब के आगोश में न जाने भविष्य के गर्भ से क्याक्या तहसनहस कर ले डूबने वाली थी यह. नदी जब तक तटों के बंधन में अनुशासित रहती है, पोषक होती है, पर तटों की मर्यादाओं का उल्लंघन कर उच्छृंखल हो जाने से वह न केवल विनाशक हो जाती है बल्कि अपना अस्तित्व भी खोने लगती है. आज पुरू उर्फ पुरुष्णी ने भी अपने मायके तथा ससुराल, दोनों तटों का अतिक्रमण कर तबाही निश्चित कर डाली थी. काश, मैं ने समय रहते ही इस पुरुष्णी पर सख्ती का ‘बांध’ बांध दिया होता…मन ही मन सोचते हुए विनय इस जलसमाधि के लिए खुद को जिम्मेदार मानने लगा.

शायद यही सच है

पूर्व कथा

‘इसे आप लोगों ने पसंद किया है? इस की लटकी सूरत देख कर तो लगता है कहीं से दोचार जूते खा कर आया हो, मुझे नहीं करनी इस से शादी.’ अगली बार भारती की शादी उस के मांबाप ने जिस लड़के से तय की वहां अपने कैरियर के बिगड़ने की बात कह कर उस ने इस से इनकार कर दिया.

फिर भारती का अपने सहपाठी हिमेश से जब कुछ दिन तक प्रेमप्रसंग चला तो बात शादी तक पहुंची. लेकिन इस बार भारती ने यह कह कर रिश्ता ठुकरा दिया कि वह संयुक्त परिवार के साथ नहीं रह सकती. इसी बीच भारती के पिता का देहांत हो गया. पिता की मृत्यु के बाद भारती के दोनों भाई अपनेअपने परिवार के साथ अलग रहने लगे. इस से मां को गहरा सदमा पहुंचा. उन्होंने भारती के लिए दूर के रिश्ते में एक इंजीनियर लड़के का रिश्ता सुझाया. इस बार तो भारती ने मां से खुल कर कह दिया, ‘‘मां, क्या जीवन की सार्थकता केवल शादी में है? आज मैं प्रथम श्रेणी की अफसर हूं. अच्छा कमाती हूं क्या यह उपलब्धियां कम हैं?’ परंतु जब भारती की मां ने उसे बहुत समझाया तो वह मोहित के साथ शादी करने के लिए तैयार हो जाती है. भारती और मोहित दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. शादी की तारीख एक माह बाद की तय हो जाती है, अब आगे… भारती को अपने रूप और पद का इतना गुमान था कि जो भी रिश्ते आते वह शादी से इनकार करती रही. आखिर 50 वर्ष की उम्र तक कुंआरी रह कर जब उस ने अपने अतीत का विश्लेषण किया तो उसे एक ठोस निर्णय लेने पर मजबूर होना पड़ा. यथार्थ के धरातल पर जीवन के कटु सत्य को उजागर करती नरेंद्र कौर छाबड़ा की कहानी.

अंतिम भाग मां खुश थीं कि अब बेटी का घर बस जाएगा तो वह किसी भी बेटे के पास रहने चली जाएंगी. भारती व मोहित भी 1-2 दिन छोड़ कर फोन पर बात कर लेते थे. उस दिन भारती का जन्मदिन था. सबेरे से ही वह मोहित के फोन का इंतजार कर रही थी. बैंक के सभी सहयोगियों ने उसे शुभकामनाएं दीं. मां ने भी उस के लिए विशेष पकवान बनाए पर दिन गुजर गया मोहित का फोन नहीं आया. रात होतेहोते भारती का इंतजार खीज व क्रोध में बदलने लगा. हार कर उस ने मां से कह ही दिया, ‘मां, जिस व्यक्ति को शादी से पहले होने वाली पत्नी का जन्मदिन तक याद नहीं, वह शादी के बाद क्या खयाल रखेगा?’ मां समझाती रहीं, ‘बेटा, कोई जरूरी काम होगा या शायद उस की तबीयत ठीक न हो या शहर से बाहर गया हो.’ ‘फिर भी एक फोन तो कहीं से भी किया जा सकता है. क्या ऐसा नीरस इनसान मुझे शादी के बाद खुशियां दे सकेगा?’ जिद्दी बेटी कहीं कोई गलत कदम न उठा ले, यह सोच मां बोलीं, ‘ऐसा करो, तुम ही फोन लगा लो, पता लग जाएगा क्या बात है.’ ‘मैं फोन क्यों लगाऊं? उस से फोन कर के कहूं कि मेरे जन्मदिन पर मुझे बधाई दे? इतनी गईबीती नहीं हूं…

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आखिर मेरी भी इज्जत है…वह समझता क्या है अपनेआप को.’ अगले दिन भारती के बैंक जाने के बाद मां ने मोहित को फोन लगाया तो उस ने बताया कि काम के सिलसिले में वह इतना व्यस्त था कि भारती के जन्मदिन का याद ही नहीं रहा. उस ने मांजी से माफी मांगी और कहा, वह इसी वक्त भारती से फोन पर बात करेगा. मोहित ने भारती को फोन मिलाया तो उस ने बेरुखी से शिकायत की. मोहित ने समझाते हुए कहा, ‘भारती, इतनी नाराजगी ठीक नहीं. आखिर अब हम परिपक्वता के उस मुकाम पर हैं कि इन छोटीछोटी बातों के लिए शिकायतें बचकानी लगती हैं. नौजवान पीढ़ी ऐसी हरकतें करे तो चल सकता है लेकिन हम तो अधेड़ावस्था में हैं. कम से कम उम्र की गरिमा का तो खयाल रखना चाहिए.’ भारती ने आगबबूला होते हुए कहा, ‘तुम्हारी भावनाएं मर गई हैं तो क्या मैं भी अपनी भावनाओं को कुचल डालूं? तुम इतने नीरस हो तो जिंदगी में क्या रस रह जाएगा?’ मोहित को भी क्रोध आ गया और गुस्से में बोला, ‘तुम में अभी तक परिपक्वता नहीं आई, जो ऐसी बचकानी बातें कर रही हो.’ भारती ने मोहित के साथ शादी करने से साफ इनकार कर दिया. मां समझाती रहीं लेकिन जिद्दी, अडि़यल, तुनकमिजाज बेटी ने एक न सुनी. मां को इतना गहरा सदमा पहुंचा कि साल के भीतर ही दिल के दौरे से चल बसीं. अब भारती एकदम अकेली रह गई. शुरू में तो अकेलापन बहुत खलता था लेकिन धीरेधीरे इस अकेलेपन के साथ उस ने समझौता कर लिया. कितने तनाव होते हैं गृहस्थी में. कभी बच्चे बीमार कभी उन के स्कूल पढ़ाई का तनाव, कभी पति का लंबा आफिस दौरा, कितना मुश्किल है हर स्थिति को संभालना. तुम अपनी मर्जी की मालिक हो, न पति की झिकझिक न बच्चों की सिरदर्दी. यही सोच कर वह संतुष्ट हो जाती और अपने निर्णय पर उसे गर्व भी होता. देखते ही देखते समय छलांगें लगाते हुए सालों में बीतता गया.

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अब 50 वर्ष की आयु बीत जाने पर वैसे भी शादी की संभावना नहीं रहती. पदोन्नति पा कर भारती सहायक मैनेजर के पद पर कार्यरत थी. अपना छोटा सा फ्लैट व कार भी उस ने खरीद ली थी. भाइयों के साथ महीने में कभीकभी ही मुलाकात हो पाती थी. पिछले सप्ताह बैंक मैनेजर का तबादला हो गया और जो नए मैनेजर आए वे प्रौढ़ विधुर थे. कुछ ही समय में अपने नम्र, शालीन और अपनत्व से भरे व्यवहार से उन्होंने सभी कर्मचारियों को बेहद प्रभावित कर लिया. काम के सिलसिले में भारती को रोजाना ही उन से मिलना होता था. वह भी उन के व्यक्तित्व से प्रभावित थी. उस दिन कुछ काम का बोझ भी था और कुछ मानसिक तनाव भी चल रहा था. काम करतेकरते उसे बेचैनी, घबराहट महसूस होने लगी. सीने में हलका सा दर्द भी महसूस हुआ तो वह छुट्टी ले कर डाक्टर के पास पहुंची. डाक्टर ने पूरी जांच के बाद बताया कि उसे हलका सा दिल का दौरा पड़ा है. कम से कम 2 सप्ताह उसे आराम करना पड़ेगा. भारती ने छुट्टी की अर्जी भेज दी. अगले दिन से बैंक के सहकर्मी उस का हालचाल पूछने घर आने लगे. मैनेजर भी उस का हाल पूछने आए तो वह कुछ संकोच से भर उठी. काम वाली बाई ने ही चाय बना कर दी. घर में और कोई सदस्य तो था नहीं. भाईभाभियां आए, औपचारिक बातें कीं, अपने सुझाव दिए और चले गए. उस दिन भारती को पहली बार महसूस हुआ कि वह जीवन में नितांत अकेली है. दुख में भी कोई उस का हमदर्द नहीं है. काम वाली बाई ही उस के लिए खाना बना रही थी और वही उस के पास दिन भर रुकती भी थी. रात को भारती एकदम अकेली ही रहती थी. मैनेजर साहब ने कुछ देर तक औपचारिक बातें कीं फिर बोले, ‘मिस भारती, वैसे तो किसी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में बोलना शिष्टाचार के खिलाफ है फिर भी मैं आप से कुछ कहना चाहूंगा. उम्मीद है आप बुरा नहीं मानेंगी. देखिए, आप के अविवाहित रहने का फैसला आप का नितांत निजी फैसला है. इस में किसी को दखलंदाजी करने का अधिकार नहीं है, मुझे भी नहीं. पर मैं केवल इस बारे में अपने विचार रखूंगा, आप को सुझाव उपदेश देने की मेरी कोई मंशा नहीं है अत: इसे अन्यथा न लें. ‘दरअसल, विवाह को सामाजिक संस्था की मान्यता इसीलिए दी गई है कि व्यक्ति सारी उम्र अकेला नहीं रह सकता. पुरुष हो या स्त्री, सहारा दोनों के लिए जरूरी है.

कभीकभी परिस्थिति या अपरिहार्य कारणों से जो स्त्रीपुरुष अविवाहित रह जाते हैं वे ऊपरी तौर पर बेशक खुश रहने या सहज होने की बात करते हों लेकिन भीतर से अकेले, भयभीत, तनावग्रस्त व अवसाद से भरे रहते हैं. खासतौर पर अधेड़ावस्था उन्हें कुंठित, तनावग्रस्त व तुनकमिजाज बना देती है. असुरक्षा की भावना के चलते वे भीतर से भयभीत भी रहते हैं. जीवन में किस घड़ी कौन सी मुसीबत, दुर्घटना, बीमारी आ जाए क्या पता? उस समय उन की देखभाल कौन करेगा? इस तरह के सवाल उन्हें घेरे रहते हैं. ‘मनुष्य के जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं, कई ऐसे खुशी के मौके आते हैं जिन्हें वह किसी के संग बांटना चाहता है. दूर क्यों जाएं अपने दफ्तर की बातें, कोई दिलचस्प घटना या तनाव भी अपने साथी को बताते हैं, इस से मन हलका हो जाता है. मैं स्वयं अपने अकेलेपन को शिद्दत के साथ महसूस करता हूं. बेटे विदेश में बस गए हैं, अच्छी नौकरियां कर रहे हैं. पत्नी के निधन के बाद जिंदगी बोझिल सी लगती है. जितने समय कामकाज में व्यस्त रहता हूं जीवन सहज लगता है लेकिन जब काम से फारिग हो जाता हूं तो अकेले समय काटना बड़ी मुसीबत बन जाता है. पता नहीं आप ने इतना लंबा समय कैसे अकेले काट लिया? अच्छा, अब मैं चलता हूं. अपनी सेहत का खयाल रखना.’ अगले सप्ताह से भारती दफ्तर जाने लगी. मैनेजर साहब की बातों का उस पर इतना असर पड़ा कि अब सचमुच उसे अकेलापन काटने लगता. कभीकभी सोचती कि मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? मैं किस के लिए जी रही हूं? किस के लिए धन जमा कर रही हूं? अतीत का विश्लेषण करने पर महसूस होता शायद अपनी जिद, अडि़यल स्वभाव के कारण कुछ गलत फैसले ले कर अपने जीवन को एकाकी, रसहीन, उद्देश्यहीन बना लिया. मां मेरे सुखी जीवन के, खुशहाल परिवार के सपने देखतेदेखते दुनिया से बिदा हो गईं. मैं ने किसी की नहीं सुनी. केवल अपने कैरियर, अपनी इच्छाओं के बारे में ही सोचती रही. अपने निर्णय की गलती का एहसास अब हो रहा था.

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कैसे काटेगी इतनी लंबी जिंदगी अकेले? और इसी के साथ भारती ने बंद आंखें खोलीं तो उस का वर्तमान उस के सामने था. वह सोफे से उठी और कपड़े बदल कर बोझिल मन से बिस्तर पर जा पड़ी और अतीत की उस कड़ी को अपने आज से जोड़ कर देखने लगी. एकाएक भारती के मन में विचार कौंधा कि कहीं मैनेजर साहब ने अप्रत्यक्ष रूप से मेरे सामने शादी का प्रस्ताव तो नहीं रखा था? दिल और दिमाग के बीच तर्कवितर्क होने लगा. दिल कहता कि इस में हर्ज ही क्या है…मैनेजर साहब इतने भले व नेक इनसान हैं कि उन के साथ जिंदगी बिताई जा सकती है. दिमाग कहता कि तुम अपनेआप ही सपने बुनने लगी हो. क्या उन्होंने तुम्हारे सामने कोई प्रस्ताव रखा? फिर इस उम्र में शादी करोगी तो लोग क्या कहेंगे…दिल कहता कि लोगों का क्या है, कहने दो. वैसे पुरुष तो 60 वर्ष की उम्र में भी शादी कर ले तो समाज विरोध नहीं करता, फिर मैं तो अभी 50 की हूं. रही बात प्रस्ताव की तो हो सकता है कि वे भी मन ही मन इस की योजना बना रहे हों. दिमाग कहता कि तुम निरंकुश, आजादी की हिमायती शादी के बंधन में स्वयं को बांध पाओगी, वह भी उस पुरुष के साथ जो लंबे समय तक अपने बीवीबच्चों के साथ खुशहाल जीवन जी चुका है. दिल कहता, अब तो उसे भी साथी की जरूरत है, सामंजस्य तो दोनों को ही बैठाना पड़ेगा. अगर मुझे शेष बची जिंदगी चैन के साथ बितानी है तो कुछ समझौते तो करने ही पड़ेंगे. जिद छोड़ कर दिमाग कहता, ‘अगर मैनेजर साहब के साथ पटरी न बैठ पाई तो क्या करोगी? दिल ने कहा, जब दोनों को एकदूसरे की जरूरत है तो पटरी बैठ ही जाएगी. अब तक मैं इस गलतफहमी में जी रही थी कि मैं अकेली जी सकती हूं, किसी के सहारे की मुझे जरूरत नहीं. पर अब मेरी चेतना जागृत हो चुकी है. जीवन में समझौते करने ही पड़ते हैं.’ भारती इंतजार करती रही लेकिन मैनेजर साहब की ओर से कोई प्रस्ताव, कोई पहल नहीं हुई. कुछ समय बीत गया. अब कुछ ही समय रह गया था मैनेजर साहब की अवकाश प्राप्ति में. भारती चाह रही थी उन की तरफ से बात शुरू हो, लेकिन उस के चाहने से क्या होना था.

एक दिन उन्होंने बातचीत के दौरान कह ही दिया, ‘‘मिस भारती, अब मैं तो 2-3 महीने में सेवानिवृत्त हो कर चला जाऊंगा. जाने से पहले…’’ ‘‘आप की भविष्य की क्या योजना है?’’ उन की बात को बीच में ही काटते हुए भारती ने पूछा. ‘‘उम्र के इस पड़ाव में अकेले रहना बहुत कष्टप्रद होता है. मैं ने काफी सोचविचार कर यह फैसला लिया है कि बेटों के पास चला जाऊंगा. कम से कम उन के परिवार, बच्चों के साथ एकाकीपन की समस्या तो नहीं रहेगी. जीवन में समझौते तो करने ही पड़ते हैं,’’ कहतेकहते वह कुछ मायूस हो गए. भारती को महसूस हुआ, मानो पाने से पहले ही उस का सबकुछ लुट गया हो. भीतर बेचैनी सी उठने लगी, रुलाई सी आने लगी. बड़ी कठिनाई से उस ने खुद को संयत किया. मैनेजर साहब ने उस का उतरा हुआ चेहरा देखा तो बोले, ‘‘क्या बात है, तुम बड़ी परेशान नजर आ रही हो?’’ बड़ी मुश्किल से खुद को संभालते हुए भारती झिझकते हुए बोली, ‘‘मैं…सोच रही थी…क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दो अकेले मिल कर एक नई जिंदगी की शुरुआत कर लें.’’ मैनेजर साहब हैरानी से उछल पड़े, ‘‘भारती, यह तुम कह रही हो? क्या तुम ने अच्छी तरह सोचविचार कर लिया है? उम्र के ये 50-52 साल तुम ने अपनी मनमरजी से बिताए हैं. अब समझौते के साथ जीवन जीना तुम्हें स्वीकार होगा?’’ ‘‘मैं बहुत सोचविचार के बाद इस नतीजे पर पहुंची हूं कि अकेले जिंदगी काटनी किसी सजा से कम नहीं है. अब तक निरंकुश, स्वतंत्र, अपनी इच्छा से जिंदगी जीने को ही मैं आदर्श जीवन माने बैठी थी, पर जब जीवन की सचाइयों से वास्ता पड़ा तो मेरा मोहभंग हुआ. जीवन समझौतों का ही दूसरा नाम है, यह अब मेरी समझ में आया है और शायद यही सच भी है.’’ भारती के मुंह से यह सुनने के बाद मैनेजर साहब के चेहरे पर भी धीरेधीरे राहत के भाव उभरने लगे थे.

कम्मो

‘‘ठीक है कम्मो, जरा देखभाल कर घर जाया करो रात को. आजकल ऐसा ही जमाना है.’’ ‘‘बाबूजी, मुझे अकेले कोई डर नहीं लगता. मैं ऐसे लोगों से बखूबी निबटना जानती हूं,’’ कम्मो ने राजेश की ओर देखते हुए कहा और कमरे से बाहर निकल गई. कुछ देर बाद राजेश उठे और दरवाजा बंद कर बिस्तर पर बैठ गए. राजेश की उम्र 62 साल हो चुकी थी. 2 साल पहले वे एक सरकारी महकमे से अफसर रिटायर हुए थे. परिवार में पत्नी कमला और 2 बेटे विकेश और विजय थे.

दोनों बेटों को पढ़ालिखा कर इंजीनियर बनाया. दोनों ने बेंगलुरु में नौकरी कर ली. दोनों की शादी कर दी गई और वे अपनी पत्नियों के साथ खूब मजे में रह रहे थे. जब तक पत्नी कमला का साथ रहा, राजेश को कुछ भी कमी महसूस न हुई. नौकरी के दौरान खूब पैसा कमाया. बड़ा 4 कमरों का मकान बना लिया. पिछले साल एक दिन कमला को हार्ट अटैक हुआ और अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया. कमला के मरने के बाद राजेश बिलकुल अकेले हो गए. दिन तो किसी तरह कट जाता, पर रात काटनी बहुत मुश्किल हो जाती. विकेश और विजय ने बारबार फोन कर के उन को अपने पास बुला लिया. दोनों के घर एकएक महीना बिता कर वे फिर यहां अपने मकान में आ गए. सुबह का नाश्ता, सफाई, पोंछा व कपड़ों की धुलाई का काम जमुना करती थी. दोपहर व शाम का खाना शांति बनाती थी. एक दिन राजेश ने कहा था, ‘जमुना, मैं चाहता हूं कि तुम किसी ऐसी काम वाली को ढूंढ़ दो जो सुबह 9 बजे से रात के 8 बजे तक रहे. सुबह नाश्ते से रात के खाने तक के सारे काम कर सके.’ ‘ठीक है बाबूजी, मैं तलाश करूंगी,’ जमुना ने कहा था. एक दिन सुबह जमुना एक औरत को ले कर आई. जमुना ने कहा, ‘बाबूजी, यह कम्मो है. जब मैं ने यहां काम के बारे में बताया तो यह तैयार हो गई. यह सुबह 9 बजे से रात के 8 बजे तक रहेगी.’ राजेश ने कम्मो की तरफ देखा.

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सांवला रंग, गदराया बदन, मोटीमोटी आंखें. उम्र तकरीबन 30-32 साल. माथे पर बिंदी और मांग में सिंदूर. अगले दिन सुबह कम्मो आई तो राजेश अखबार पढ़ रहे थे. कम्मो ने ‘नमस्ते बाबूजी’ कहा. ‘आओ कम्मो,’ राजेश ने उसे देखते हुए कहा, ‘बैठो.’ कम्मो वहां रखी कुरसी पर बैठ गई. ‘कम्मो, जरा अपने बारे में कुछ बताओ?’ राजेश ने पूछा. ‘बाबूजी, मेरा नाम कामिनी है, पर सभी मुझे कम्मो कहते हैं. मैं बिहार में पटना के पास ही एक गांव की रहने वाली हूं. मैं ने 10वीं तक पढ़ाई की है. मैं ने अपने मातापिता को नहीं देखा. वे दोनों मजदूरी करते थे. एक दिन एक मकान का लैंटर टूट गया तो उस में दब कर दोनों मर गए. मकान मालिक ने मेरे मामा को 3 लाख रुपए दे दिए थे तब मेरी उम्र 5 साल थी. मामामामी ने ही पाला है. ‘18 साल की उम्र में मामा ने मेरी शादी पास के ही एक गांव में कर दी. शादी के 3 महीने बाद मेरे पति की सड़क हादसे में मौत हो गई. कुछ समय बाद देवर मोहन के साथ मेरी शादी हो गई. वह शहर में एक फैक्टरी में काम करता था. रोज सुबह चला जाता और शाम को लौटता था. ‘मेरी सास नहीं थी. एक दिन दोपहर का खाना खा कर मैं आराम कर रही थी तो अचानक ही ससुर ने मुझे दबोच लिया. मैं ने बहुत मना किया, पर वह नहीं माना. मैं ने इस बारे में पति मोहन को बता दिया. ‘उन दोनों की लड़ाई हो गई. इस लड़ाई में ससुर के हाथ से मोहन की हत्या हो गई. ससुर को पुलिस ने पकड़ लिया. मैं वहां उस घर में अकेली कैसे रहती, इसलिए मैं अपने मामामामी के पास लौट गई. ‘कुछ महीने बाद एक आदमी मामा के घर आया. वह आदमी मेरी तरफ ही देख रहा था. मामा ने मुझे बताया कि यह किशनलाल है.

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मुजफ्फरनगर का रहने वाला है. यह सब्जी बेचने का काम करता है. इस की घर वाली को पीलिया हो गया था. इलाज कराने पर भी वह बच नहीं सकी. घर में 20 साल का बेटा कमल है. वह 7वीं क्लास तक ही पढ़ सका, किसी दुकान पर नौकरी करता है. ‘मामा ने एक मंदिर में मेरी शादी किशनलाल से कर दी. मैं अपने पति के साथ यहां आ गई. मुझे बाद में पता चला कि मेरे मामा ने इस शादी के लिए 40,000 रुपए लिए थे. ‘मेरी शादी कर के मामा बहुत खुश था कि रुपए भी मिल गए और छाती पर बैठी मुसीबत भी टल गई. ‘एक दिन मुझे पता चला कि मेरे ससुर को हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा हो गई है. यहां सब ठीकठाक चल रहा था. पहले तो मेरा पति कभीकभार शराब पी कर आता था, पर धीरेधीरे उसे रोज पीने की आदत पड़ गई. वह जुआ भी खेलने लगा था. ‘पति ने रेहड़ी लगानी बंद कर दी. मंडी वालों का कर्ज सिर पर चढ़ गया था. घर में जो जमापूंजी, जेवर वगैरह रखे थे, मंडी वालों को दे कर पीछा छुड़ाया. इस के बाद मैं ने घरों में काम करना शुरू कर दिया,’ कम्मो ने अपने बारे में बताया. ‘ठीक है कम्मो, अब तुम घर का काम संभालो.’ ‘बाबूजी, इतनी देर तक अपनी दुखभरी कहानी सुना कर मैं ने आप के सिर में दर्द कर दिया न? आप कहें तो सब से पहले मैं आप के लिए बढि़या सी चाय बना दूं?’ कम्मो ने हंसते हुए कहा था. राजेश मना नहीं कर सके थे. कम्मो ने घर में काम करना शुरू कर दिया. सुबह नाश्ते से ले कर रात के खाने तक सभी काम बहुत सलीके से करती थी. उसे राजेश के यहां काम करते हुए 2 महीने हो चुके थे. अकसर फर्श की सफाई करते हुए जब कम्मो पोंछा लगाती तो उस के उभार ब्लाउज से बाहर निकलने को हो जाते. राजेश कुरसी पर बैठे हुए अखबार पढ़ रहे होते तो उन की नजरें उभारों पर टिक जातीं.

वे इधरउधर देखने की कोशिश करते, पर फिर भी उन की नजर कम्मो की गदराई जवानी पर आ कर ठहर जाती. वे अखबार की आड़ ले कर एकटक उसे देखते रहते. कम्मो भी यह सब जानती थी कि बाबूजी क्या देख रहे हैं. वह चुपचाप अपने काम में लगी रहती मानो उसे कुछ पता ही न हो. एक दिन कम्मो ने राजेश से कहा, ‘‘बाबूजी, कमल के पापा की तबीयत ठीक नहीं चल रही है. उस को किसी अच्छे डाक्टर को दिखाना पड़ेगा.’’ ‘‘क्या हो गया है उसे?’’ ‘‘भूख नहीं लगती. कमजोरी भी आ गई है. महल्ले का डाक्टर कह रहा था कि शराब पीने के चलते गुरदे खराब हो रहे हैं.’’ ‘‘जब इतनी शराब पीएगा तो गुरदे तो खराब होंगे ही.’’ ‘‘बाबूजी, मुझे कुछ पैसे दे दीजिए.’’ ‘‘कितने पैसे चाहिए?’’ ‘‘5,000 रुपए दे दीजिए. डाक्टर की फीस, टैस्ट, दवा वगैरह में इतने तो लग ही जाएंगे.’ ‘‘ठीक है, रात को जब घर जाएगी तो मुझ से लेती जाना.’’ कम्मो ने चेहरे पर मुसकान बिखेर कर कहा, ‘‘बाबूजी, आप बहुत अच्छे इनसान हैं जो हम जैसे गरीबों की कभी भी मदद कर देते हो.’’ ‘‘जब तुम यहां इतना अच्छा काम कर रही हो तो मेरा भी फर्ज बनता है कि मैं तुम्हारी मदद करूं,’’ राजेश ने कम्मो की तरफ देखते हुए कहा. कुछ दिन बाद राजेश का एक पुराना दोस्त मदनलाल दिल्ली से आया. वह उन का पुराना साथी था.

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वह भी सरकारी नौकरी से रिटायर हुआ था. कम्मो चाय व कुछ खाने का सामान ले कर आई और मेज पर सजा कर चली गई. चाय पीतेपीते मदनलाल ने कहा, ‘‘यार राजेश, यह नौकरानी तो एकदम पटाखा है. कहां से ढूंढ़ कर लाए हो?’’ ‘‘बस अपनेआप ही मिल गई.’’ ‘‘तुम्हारी किस्मत तो बहुत ही तेज है डियर, जो ऐसी जबरदस्त नौकरानी मिल गई. एकदम हीरोइन लगती है. अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो ऐसी मस्त नौकरानी से खूब मजे लेता. अरे भाई, हमारे पास रुपएपैसे की कमी नहीं है. हमारी औलादें खूब मजे में हैं. वे बढि़या नौकरी पर हैं. हम क्यों और किस के लिए कंजूसी करें? हमें भी तो अपनी बाकी जिंदगी हंसीखुशी और मजे में गुजारनी चाहिए.’’ राजेश ने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ देर बाद कम्मो चाय के खाली बरतन उठाने आई तो मदनलाल उस की तरफ एकटक देखता रहा. ‘‘अच्छा राजेश डियर, मैं चलता हूं,’’ एक घंटे बाद मदनलाल बोला. ‘‘वापस दिल्ली कब जाना है?’’ ‘‘शाम को ही लौट जाऊंगा. अगर तुम रात को कम्मो को यहीं रोक सको तो मैं भी रुक जाऊंगा.’’ ‘‘यार, लगता है कि तुम मेरी नौकरानी को भगा कर ही रहोगे.’’ ‘‘यह तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी, क्योंकि तुम जैसे इनसान बहुत कम हैं जो किसी की मजबूरी का फायदा नहीं उठाते. यह भी हो सकता है कि यह किसी दिन तुम्हारी मजबूरी का फायदा उठा ले.’’ ‘‘वह कैसे?’’ ‘‘मैं क्या बताऊं, यह तो समय ही बताएगा,’’ मदनलाल ने कहा और हंसते हुए राजेश से विदा ली. रात का खाना खा कर राजेश आराम कुरसी पर बैठे थे. उन के दिमाग में मदनलाल की बातें घूमने लगीं. उन की आंखों के सामने कम्मो का हंसतामुसकराता चेहरा, गदराया बदन, ब्लाउज से बाहर निकलते उभार आने लगे. दिल और दिमाग में अजीब सी बेचैनी होने लगी. वे आराम कुरसी पर सिर पकड़ कर बैठ गए. कुछ देर बाद कम्मो ने कमरे में आ कर कहा, ‘‘क्या हुआ बाबूजी? लगता है, आप की तबीयत खराब है.’’ ‘‘सिर में दर्द हो रहा है,’’ राजेश ने झूठ बोल दिया.

‘‘मैं आप का सिर दबा देती हूं. आप बिस्तर पर लेट जाइए. माथे पर बाम भी लगा देती हूं.’’ राजेश बिस्तर पर लेट गए. कम्मो ने उन के माथे पर बाम लगाते हुए कहा, ‘‘बाबूजी, यह सिरदर्द ज्यादा सोचने से होता है, आप ज्यादा न सोचा कीजिए. भला आप को क्या कमी है? आप को किस बात की चिंता है? फिर इतना क्यों सोचते हैं आप?’’ राजेश के एक हाथ की उंगलियां कम्मो की कमर पर चलने लगीं. ‘‘बाबूजी, यह क्या कर रहे हैं आप?’’ कम्मो ने राजेश की ओर देखते हुए कहा. ‘‘कुछ नहीं कम्मो, आज मन बहुत बेचैन हो गया है,’’ राजेश ने धड़कते दिल से कम्मो को अपनी ओर खींच लिया. कम्मो ने मना नहीं किया. कुछ देर बाद कम्मो ने कमरे से बाहर निकलते हुए कहा, ‘‘अच्छा बाबूजी, अब मैं चलती हूं.’’ ‘‘ठीक है, जाओ,’’ राजेश ने कहा और बिस्तर पर लेटेलेटे वे बहुत देर तक उन पलों के बारे में सोचते रहे जो अभी कम्मो के साथ बिताए थे. सुबह कम्मो आई तो एकदम नौर्मल थी. रात की घटना की कोई नाराजगी उस के चेहरे पर न थी. यह देख राजेश को तसल्ली हुई कि कम्मो नाराज नहीं है. एक रात कम्मो ने घर जाने से पहले राजेश के पास आ कर कहा, ‘‘बाबूजी, आप से एक बात कहनी थी.’’ ‘‘हांहां, कहो.’’ ‘‘पहले यह बताइए कि आप की तबीयत तो ठीक है न? कहो तो आप का सिर दबा दूं?’’ कम्मो ने राजेश की ओर देखा. राजेश ने उसे अपनी तरफ खींच लिया. कुछ देर बाद कम्मो बिस्तर से उठ कर जाने लगी तो राजेश ने पूछा, ‘‘तुम कुछ कह रही थी न कम्मो?’’ ‘‘हां बाबूजी, कमल फलों की रेहड़ी लगाना चाहता है.

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अगर आप कुछ मदद कर दें तो वह रेहड़ी लगा लेगा.’’ ‘‘कितने रुपए में लग जाएगी रेहड़ी?’’ ‘‘तकरीबन 15,000 रुपए…’’ ‘‘ठीक है, कल ले जाना रुपए.’’ ‘‘बाबूजी, आप बहुत अच्छे इनसान हैं,’’ कम्मो ने कहा और मुसकराते हुए चली गई. एक महीने बाद काम करतेकरते कम्मो को अचानक उलटी हो गई. राजेश ने कम्मो को बुला कर पूछा, ‘‘क्या बात है कम्मो? तबीयत तो ठीक है न?’’ ‘‘बाबूजी लगता है कि मैं पेट से हो गई हूं. मुझे महीना भी नहीं हुआ है.’’ ‘‘तुम डाक्टर से चैकअप कराओ. शाम को नर्सिंग होम में चली जाना. नर्सिंग होम से सीधे अपने घर पहुंच जाना. मुझे मोबाइल पर बता देना जैसा भी डाक्टर बताता है.’ रात को राजेश को कम्मो ने सूचना दे दी कि वह पेट से हो गई है. अगले दिन सुबह जब कम्मो काम करने आई तो राजेश ने उसे अपने कमरे में बुलाया. कम्मो बोली, ‘‘बाबूजी, आप ने मेरे साथ संबंध बनाए तो उसी के चलते मैं पेट से हो गई हूं. अब मेरे पेट में आप का बच्चा पल रहा है.’’ ‘‘कम्मो, यह तुम कैसे कह सकती हो कि यह मेरा ही बच्चा है, यह तुम्हारे पति का भी तो हो सकता है.’’ ‘‘बाबूजी, कमल का पापा तो 3 महीने से मेरे पास आया ही नहीं, वह बीमार रहता है.’’ ‘‘कम्मो, मेरा कहा मानोगी…’’ ‘‘कहिए बाबूजी?’’ ‘‘तुम अपना बच्चा गिरवा लो.’’ ‘‘नहीं बाबूजी, मैं बच्चा नहीं गिराऊंगी. मैं हत्या नहीं कराऊंगी. चाहे यह बेटा हो या बेटी, मैं इसे पालपोस कर बड़ा करूंगी. ‘‘मेरा कहना मान लो कम्मो, तुम बच्चा गिरा दो.’’ ‘‘नहीं बाबूजी, आप मुझे ऐसी सलाह न दें. इस के पैदा होने पर मैं सभी को बता दूंगी कि इस का पापा कौन है, क्योंकि इस की शक्ल आप से मिलेगी.’’ ‘‘अगर मुझ से शक्ल न मिली तो…?’’ ‘‘तो मैं इतनी भोली भी नहीं हूं जो चुपचाप बैठ जाऊंगी. मैं सब से पहले इस बच्चे का डीएनए टैस्ट कराऊंगी और मीडिया को बता दूंगी कि यह बच्चा भी आप की जायदाद का वारिस है,’’ कम्मो ने राजेश की ओर देखते हुए कहा.

उस के चहरे पर मुसकान थी. यह सुन कर राजेश को पसीना आ गया. वे तो कम्मो को बहुत भोली समझ रहे थे, पर यह तो जरूरत से ज्यादा समझदार व चालाक है. इस ने तो उसे ही जाल में फंसा दिया है. राजेश ने कहा, ‘‘सुनो कम्मो, जो होना था हो गया. अब तुम यह बताओ कि इस मुसीबत से बचने के लिए मैं तुम्हें कितने रुपए दे दूं?’’ ‘‘बाबूजी, मुझे आप पर तरस आता है. आप बस 5 लाख रुपए दे दो. मैं बच्चा गिरवा दूंगी.’’ ‘‘5 लाख रुपए…? क्या कह रही हो तुम? पागल हो गई हो क्या?’’ ‘‘बाबूजी, मैं नहीं उस रात तो आप पागल हो गए थे जिस का नतीजा मेरे पेट में पल रहा है.’’ ‘‘मैं तुम्हें 5 लाख तो नहीं, 50,000 रुपए दे सकता हूं.’’ ‘‘बाबूजी, आप की इज्जत और आप के इस बच्चे की कीमत महज 50,000 ही है क्या?’’ इस के बाद सौदेबाजी हुई और कम्मो 2 लाख रुपए लेने पर मान गई. राजेश ने दोपहर को बैंक से 2 लाख रुपए निकाल कर कम्मो को दे दिए. ‘‘बाबूजी, मैं कल ही सफाई करा लूंगी. इस के बाद 5-7 दिन मुझे आराम भी करना पड़ेगा.’’ ‘‘कोई बात नहीं, तुम अपने घर पर आराम कर लेना.’’ ‘‘मैं किसी दूसरी कामवाली को भेज दूंगी, ताकि आप को कोई परेशानी न हो.’’ ‘‘तुम किसी को न भेजना. मैं कुछ दिन के लिए बेंगलुरु चला जाऊंगा अपने बेटे के पास,’’ राजेश ने कुढ़ते हुए कहा. कम्मो चुपचाप काम में लग गई. राजेश ठगे से कुरसी पर बैठ गए. उन को अपने किए पर पछतावा हो रहा था. अपनी इज्जत बचाने के लिए उन्हें 2 लाख रुपए देने पड़े. कम्मो ने उस रात की भरपूर कीमत वसूली है. कुछ दिन बेटे के पास बेंगलुरु में रहने के बाद फिर वापस यहीं लौटना है. यहां लौट कर फिर अकेलापन घेर लेगा.

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अब तो इस अकेलेपन को दूर करने का कुछ न कुछ उपाय करना ही होगा. अगले दिन से ही राजेश ने अखबार व इंटरनैट पर ऐसे वैवाहिक विज्ञापन देखने शुरू कर दिए जिन में विधवा, छोड़ी गई व तलाकशुदा औरतों को जीवनसाथी की तलाश थी. उन को लग रहा था कि बाकी की जिंदगी अकेले बिना साथी के काटना बहुत मुश्किल होगा. द्य

वचन हुआ पूरा

‘‘बस, कह दिया मैं ने कि नहीं जाऊंगी तो नहीं जाऊंगी.’’ ‘‘मगर, क्यों नहीं जाएगी?’’ जगदीश जरा नाराज हो कर बोला. ‘‘उन साहब की नीयत जरा भी अच्छी नहीं है.’’ ‘‘तू नहीं जाएगी तो साहब मुझे परमानैंट नहीं करेंगे…’’ इस समय जगदीश की आंखों में गुजारिश थी. पलभर बाद वह दोबारा बोला, ‘‘देख रामकली, जब तक ये साहब हैं, तू काम छोड़ने की मत सोच. साहब मेरी नौकरी परमानैंट कर देंगे, फिर मत मांजना बरतन.’’ ‘‘देखोजी, मुझे वहां जाने को मजबूर मत करो. औरत एक बार सब की हो जाती है न…’’ पलभर बाद वह बोली, ‘‘खैर, जाने दो. आप कहते हैं तो मैं नहीं छोड़ूंगी. यह जहर भी पी जाऊंगी.’’

‘‘सच रामकली, मुझे तुझ से यही उम्मीद थी,’’ कह कर जगदीश का चेहरा खिल उठा. रामकली कोई जवाब नहीं दे पाई. वह चुपचाप मुंह लटकाए रसोईघर के भीतर चली गई. जब से ये नए साहब आए हैं तब से इन्हें बरतन मांजने वाली एक बाई की जरूरत थी. जगदीश उन के दफ्तर में काम करता है. 15 साल बीत गए, पर परमानैंट नहीं हुआ है. कितने ही साहब आए, सब ने परमानैंट करने का भरोसा दिया और परमानैंट किए बिना ही ट्रांसफर हो कर चले गए. ये साहब भी अपना परिवार इसलिए ले कर नहीं आए थे कि उन के बच्चे अभी पढ़ रहे हैं, इसलिए यहां एडमिशन दिला कर वे रिस्क नहीं उठाना चाहते थे. बंगले में चौकीदार था. रसोइया भी था. मगर बरतन मांजने के लिए उन्हें एक बाई चाहिए थी. साहब एक दिन जगदीश से बोले थे, ‘बरतन मांजने वाली एक बाई चाहिए.’ ‘साहब, वह तो मिल जाएगी, मगर उस के लिए पैसा क्यों खर्च करें…’ जगदीश ने सलाह दी थी, ‘मैं गुलाम हूं न, मैं ही मांज दिया करूंगा बरतन.’ ‘नहीं जगदीश, मुझे कोई बाई चाहिए,’

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साहब इनकार करते हुए बोले थे. तब जगदीश ने सोचा था कि मौका अच्छा है. बाई की जगह वह अपनी लुगाई को क्यों न रखवा दे. साहब खुश होंगे और उसे परमानैंट कर देंगे. जगदीश को चुप देख कर साहब बोले थे, ‘कोई बाई है तुम्हारी नजर में?’ ‘साहब, मेरी घरवाली सुबहशाम आ कर बरतन मांज दिया करेगी,’ जगदीश ने जब यह कहा, तब साहब बोले थे, ‘नेकी और पूछपूछ… तू अपनी जोरू को भेज दे.’ ‘ठीक है साहब, उसे मैं तैयार करता हूं,’ जगदीश ने उस दिन साहब को कह तो दिया था, मगर लुगाई को मनाना इतना आसान नहीं था. उसे कैसे मनाएगा. क्या वह आसानी से मान जाएगी? रामकली के पास आ कर जगदीश बोला था, ‘रामकली, मैं ने एक वादा किया है?’ ‘वादा… कैसा वादा और किस से?’ रामकली ने हैरान हो कर पूछा था. ‘साहब से?’ ‘कैसा वादा?’ ‘अरे रामकली, उन्हें बरतन मांजने वाली एक बाई चाहिए थी. मैं ने कहा कि चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. इस के लिए रामकली है न.’ ‘हाय, तू ने मुझ से बिना पूछे ही साहब से वादा कर दिया.’ ‘हां रामकली, इस में भी मेरा लालच था?’ ‘लालच, कैसा लालच?’ रामकली आंखें फाड़ कर बोली थी. ‘देख रामकली, तू तो जानती है कि मैं अभी परमानैंट नहीं हूं. परमानैंट होने के बाद मेरी तनख्वाह बढ़ जाएगी. इन साहब ने मुझ से वादा किया है कि वे मुझे परमानैंट कर देंगे. तुम साहब के यहां जा कर बरतन मांजोगी तो साहब खुश हो जाएंगे, इसलिए मैं ने तेरा नाम बोल दिया.’

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‘अरे, तू ने हर साहब के घर का इतना काम किया. बरतन भी मांजे, पर किसी भी साहब ने खुश हो कर तुझे परमानैंट नहीं किया. इस साहब की भी तू कितनी भी चमचागीरी कर ले, यह साहब भी परमानैंट करने वाला नहीं है,’ कह कर रामकली ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी थी. जगदीश बोला था, ‘देख रामकली, इनकार मत कर, नहीं तो यह मौका भी हाथ से निकल जाएगा. तब फिर कभी परमानैंट नहीं हो सकूंगा. छोटी सी तनख्वाह में ही मरतेखपते रहेंगे. ‘‘मैं अपनी भलाई के लिए तुझ पर यह दबाव डाल रहा हूं. इनकार मत कर रामकली. साहब को खुश करने के लिए सब करना पड़ेगा.’ ‘ठीक है, तुम कहते हो तो मैं चली जाया करूंगी. हम तो छोटे लोग हैं. साहब बहुत बड़े आदमी हैं,’ कह कर रामकली ने हामी भर दी थी. इस के बाद रामकली सुबहशाम साहब के बंगले पर जा कर बरतन मांजने लगी थी. रामकली 3 बच्चों की मां होते हुए भी जवान लगती थी. गठा हुआ बदन और उभार उस की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे. रामकली के ऐसे रूप पर साहब भी फिदा हो गए थे.

जब भी वह बरतन मांजती, किसी न किसी बहाने भीतर आ कर उस के उभारों को एकटक देखते रहते थे. रामकली सब समझ जाती और अपने उभारों को आंचल में छिपा लेती थी. वे उस की लाचारी का फायदा उठाएं, उस के पहले ही वह सचेत रहने लगी थी. यह खेल कई दिनों तक चलता रहा था. आखिरकार मौका पा कर साहब उस का हाथ पकड़ते हुए बोले थे, ‘रामकली, तुम अभी भी ताजा फूल हो.’ ‘साहब, आप बड़े आदमी हैं. हम जैसे छोटों के साथ ऐसी नीच हरकत करना आप को शोभा नहीं देता है,’ अपना विरोध दर्ज कराते हुए रामकली बोली थी. ‘क्या छोटा और क्या बड़ा, यह ऐसी आग है कि न छोटा देखती है और न बड़ा. आज मेरे भीतर की लगी आग बुझा दो रामकली,’ कह कर साहब की आंखों में हवस साफ दिख रही थी. साहब अपना कदम और आगे बढ़ाते, इस से पहले रामकली जरा गुस्से से बोली, ‘देखो साहब, आप मेरे मरद के साहब हैं, इसलिए लिहाज कर रही हूं. मैं गिरी हुई औरत नहीं हूं. मेरी भी अपनी इज्जत है. कल से मैं बरतन मांजने नहीं आऊंगी,’ इतना कह कर वह बाहर निकल गई थी. आज रामकली ने जगदीश से साहब के घर न जाने की बात कही, तो वह नाराज हो गया. कहता है कि मुझे परमानैंट होना है. साहब को खुश करने के लिए उस का बरतन मांजना जरूरी है, क्योंकि ऐसा करना उन्हीं साहब के हाथ में है. जगदीश अगर परमानैंट हो जाएगा, तब उस की तनख्वाह भी बढ़ जाएगी. फिर किसी साहब के यहां जीहुजूरी नहीं करनी पड़ेगी. क्या हुआ, साहब ही तो हैं.

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उन को खुश करने से अगर जगदीश को फायदा होता है तो क्यों न एक बार खुद को उन्हें सौंप दे. वैसे भी औरत का शरीर तो धर्मशाला होता है. उस के साथ सात फेरे लेने वाले पति के अलावा दूसरे मर्द भी तो लार टपकाते हैं. उस ने कई ऐसी औरतें देखी हैं, जो अपने मर्द के होते दूसरे मर्द से लगी रहती हैं. फिर आजकल सुप्रीम कोर्ट ने भी तो फैसला दिया है कि अगर कोई औरत अपने मर्द के अलावा दूसरे मर्द से जिस्मानी संबंध बना भी लेती है, तब वह अपराध नहीं माना जाएगा. फिर वह तो अपने जगदीश के फायदे के लिए जिस्म सौंप रही है. जिस्म सौंपने से पहले साहब को साफसाफ कह देगी. इस शर्त पर यह सब कर रही हूं कि जगदीश को परमानैंट कर देना. इस मामले में मर्द औरत का गुलाम रहता है. इस तरह रामकली ने अपनेआप को तैयार कर लिया. ‘‘देखो रामकली, एक बार मैं फिर कहता हूं कि तुम साहब के यहां बरतन मांजने जरूर जाओगी,’’ जगदीश ने फिर यह कहा तो रामकली बोली, ‘‘हां बाबा, जा रही हूं. तुम्हारे साहब को खुश रखने की कोशिश करूंगी. और मैं भी उन से सिफारिश करूंगी कि वे तुझे परमानैंट कर दें,’’ कह कर रामकली साहब के बंगले पर चली गई. अभी हफ्ताभर भी नहीं बीता था कि जगदीश ने घर आ कर रामकली को बताया, ‘‘साहब ने काम से खुश हो कर मेरा परमानैंट नौकरी का और्डर निकाल दिया है. तनख्वाह भी बढ़ जाएगी.’’ ‘‘क्या सचमुच तुझे परमानैंट कर दिया?’’ खुशी से उछलती रामकली ने पूछा. ‘‘हां रामकली, साहब कह रहे थे कि तू ने भी सिफारिश की थी,’’

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जगदीश ने जब यह कहा, तब रामकली ने कोई जवाब नहीं दिया. वह जानती है कि साहब से उस के जिस्म के बदले यह वचन लिया था. उसी वचन को साहब ने पूरा किया, तभी तो इतनी जल्दी आदेश निकाल दिया. उसे चुप देख जगदीश फिर बोला, ‘‘अरे रामकली, तुझे खुशी नहीं हुई?’’ ‘‘मुझे तो तुझ से ज्यादा खुशी हुई. मैं ने जोर दे कर साहब से कहा था,’’ रामकली बोली, ‘‘उन्होंने मेरे वचन को पूरा कर दिया.’’ ‘‘अब तुझे बरतन मांजने की जरूरत नहीं है. मैं साहब के लिए दूसरी औरत का इंतजाम करता हूं.’’ ‘‘नहीं जगदीश, जब तक ये साहब हैं, मैं बरतन मांजने जाऊंगी. मैं ने यही तो साहब से वादा किया है. चलती हूं साहब के यहां,’’ कह कर रामकली घर से बाहर चली गई.

प्रमाण दो – अंतिम भाग

लेखक- सत्यव्रत सत्यार्थी

पूर्व कथा

गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में दंगे होने के कारण नर्स यामिनी किसी तरह अस्पताल पहुंचती है. वहां पहुंचने पर सीनियर सिस्टर मिसेज डेविडसन यामिनी को बेड नं. 11 के मरीज जीशान को देखने को कहती है. यामिनी मिसेज डेविडसन को मां की तरह मानती है और मिसेज डेविडसन भी यामिनी को बेटी की तरह. शहर में होने वाले दंगों को देखते हुए मिसेज डेविडसन यामिनी को बारबार  समझाती है कि मरीजों के साथ ज्यादा घुलनेमिलने की जरूरत नहीं है.शहर में हुए दंगों से परेशान यामिनी के सामने अतीत की यादें ताजा होने लगती हैं कि किस तरह हिंदूमुसलिम दंगों के दौरान दंगाइयों ने उस का घर जला दिया था और वह अपनी सहेली के घर जाने के कारण बच गई थी. यही सोचतेसोचते उसे जीशान का ध्यान आता है.25 वर्षीय जीशान के घर में भी दंगाइयों ने आग लगा दी थी. बड़ी मुश्किल से जान बचा कर घायल अवस्था में वह अस्पताल पहुंचा था.

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यामिनी जीशान की सेवा करती है ताकि वह जल्दी ठीक हो जाए. यामिनी और जीशान दोनों ही एकदूसरे के प्रति लगाव महसूस करते हैं. यामिनी से अलग होते समय जीशान उदास हो जाता है और कहता है कि मैं आप से कैसे मिलूंगा? मैं मुसलमान हूं और आप हिंदू, तो वह समझाती है कि हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं है और वह अलविदा कह कर चला जाता है. यामिनी अपनी सहयोगी नर्स के साथ शहर में हुए दंगों पर चर्चा कर रही होती है कि तभी कालबेल बजती है. अब आगे…

हिंदूमुसलिम दंगों के दौरान मिले यामिनी और जीशान के बीच भाईबहन का रिश्ता कायम हो चुका था लेकिन दुनिया वाले इस रिश्ते को कहां पाक मानने वाले थे. क्या जीशान और यामिनी दुनिया के सामने अपने इस मुंहबोले रिश्ते को साबित कर पाए?गतांक से आगे…

ट्रेनी नर्स ने दरवाजा खोला. सामने खडे़ युवक ने उस को बताया, ‘‘सिस्टर, मैं जीशान का पड़ोसी हूं. क्या यामिनी मैडम यहीं रहती हैं?’’

‘‘हां, रहती तो यहीं हैं, मगर तुम्हें उन से क्या काम है?’’

‘‘उन्हें खबर कर दीजिए कि जीशान को पिछले 2 दिन से बहुत तेज बुखार है. उस ने मैडम को बुलाया है.’’

कमरे के अंदर बैठी यामिनी नर्स और आगंतुक की बातचीत ध्यान से सुन रही थी. जीशान के अतिशय बीमार होने की खबर सुन कर उस का दिल धक् से रह गया. यामिनी को लगा, मानो उस का कोई अपना कातर स्वर में उसे पुकार रहा हो. उस ने अपना मिनी फर्स्ट एड बौक्स उठाया और उस युवक के साथ निकल पड़ी.कमरे में बिस्तर पर बेसुध पड़ा जीशान कराह रहा था. यामिनी ने उस के माथे को छू कर देखा तो वह भट्ठी की तरह तप रहा था. यामिनी ने उसे जरूरी दवाएं दीं और एक इंजेक्शन भी लगा दिया. कुछ देर बाद जीशान की स्थिति कुछ संभली तो यामिनी ने पूछा, ‘‘जीशान, तुम अपने प्रति इतने लापरवाह क्यों हो? अपना ध्यान क्यों नहीं रखते?’’

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‘‘ध्यान तो रखता हूं, पर बुखार का क्या करूं? खुद ब खुद आ गया.’’

जीशान के इस भोलेपन पर यामिनी ने वात्सल्य भाव से कहा, ‘‘जब तक तुम स्वस्थ नहीं हो जाते, मैं रोजाना आया करूंगी और तुम्हारे लिए चाय, सूप जो भी होगा बनाऊंगी और अपने सामने दवाएं खिलाऊंगी.’’

‘‘ऐसा तो सिर्फ 2 ही लोग कर सकते हैं, मां अथवा बहन.’’

यामिनी कुछ बोलना चाहती थी कि जीशान कांपते स्वर में पूछ बैठा, ‘‘क्या मैं आप को दीदी कहूं? अस्पताल में जब पहली बार होश आया था और आप को तीमारदारी करते हुए पाया था तभी से मैं ने मन ही मन आप को बड़ी बहन मान लिया था. इस से ज्यादा खूबसूरत और पाक रिश्ता दूसरा नहीं हो सकता, क्योंकि यही रिश्ता इतनी खिदमत कर सकता है.’’

‘‘यह तो ठीक है, मगर….’’

‘‘दीदी, अब मुझे मत ठुकराओ, वरना मैं कभी दवा नहीं खाऊंगा. वैसे भी तो यह दोबारा की जिंदगी आप की ही बदौलत है. आप खूब जानती हैं कि मैं आप को देखे बगैर एक पल भी नहीं रह पाता.’’

यामिनी निरुत्तर थी. रिश्ता कायम हो चुका था. सारे देश में खूनखराबे का कारण बने 2 विरोधी धर्मों के युवकयुवती के बीच भाईबहन का अटूट रिश्ता पनप चुका था.

यामिनी जब जीशान के कमरे से निकली तो अगल- बगल और सामने के मकानों के दरवाजों से झांकती अनेक आंखों के पीछे के मनोभावों को ताड़ कर वह बेचैन हो उठी. दुकानों के बाहर झुंड बना कर खडे़ लोगों ने भी उसे विचित्र सी निगाहों से देखना शुरू कर दिया. लेकिन किसी की ओर देखे बिना वह सिर झुका कर चुपचाप चलती चली गई.

जीशान जब तक पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो गया तब तक यह क्रम अनवरत चलता रहा. मिसेज डेविडसन को यामिनी का एक मरीज के प्रति इतना लगाव कतई पसंद नहीं था. एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘‘जीशान के घर इस तरह हर रोज जाना ठीक नहीं है, यामिनी.’’

‘‘क्यों?’’ प्रश्नसूचक मुद्रा में यामिनी ने पूछा.

उन्होंने समझाते हुए कहा, ‘‘तुम कोई दूधपीती बच्ची नहीं हो, जिसे कुछ पता ही न हो. भले तुम उसे भाई समझती हो, किंतु कम से कम आज के माहौल में दुनिया वाले इस मुंहबोले रिश्ते को सहन करेेंगे क्या?’’

‘‘जब यह रिश्ता नहीं बना था तब दुनिया वालों ने मुझे या जीशान को बख्शा था क्या जो मैं इन की परवा करूं.’’

‘‘दुनिया में रह कर दुनिया वालों की परवा तो करनी ही पडे़गी.’’

‘‘मैं स्वयं भी इस बंजर जीवन से तंग आ गई हूं. नहीं रहना इस दुनिया में…तो किसी से डरना कैसा,’’ यामिनी ने कठोर मुद्रा में अपना पक्ष रखा.

मिसेज डेविडसन चुप हो गईं. उन्होंने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर और यह कहते हुए उसे अपने साथ होस्टल लिवा ले गईं कि आज का खाना और सोना सब उन्हीं के साथ होना है.

यामिनी को बर्थ डे जैसे अनावश्यक चोंचले बिलकुल नहीं भाते थे. फिर भी मिसेज डेविडसन ने आज सुबह ही उस को याद दिलाया था कि आज रात का भोजन वह उसी के साथ उस के कमरे पर लेंगी और वह भी ‘स्पेशल.’ यामिनी ने हामी भर ली थी, क्योंकि प्रस्ताव केवल भोजन का था, बर्थ डे मनाने का नहीं.

घर आ कर फ्रेश होने के बाद वह और उस की साथी टे्रनी नर्स अच्छी मेहमाननवाजी की तैयारियों में जुट गईं कि अचानक यामिनी का मोबाइल बज उठा. दूसरी तरफ से जीशान बोल रहा था, ‘दीदी, आज 7 बजे तक आप जरूर आ जाइएगा. बहुत जरूरी काम है. 8 बजे तक हरहाल में मैं आप को आप के रूम पर वापस छोड़ दूंगा.’

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‘किंतु मेरे भाई, यह अचानक ऐसी कौन सी आफत आ गई है?’

‘मेरे भाई’ शब्द सुनते ही जीशान का रोमरोम पुलकित हो उठा. कितनी मिठास, कितनी ऊर्जा थी इस पुकार में. वह समझ नहीं पा रहा था कि अपनी बात कैसे कहे. इन कुछ पलों की चुप्पी का अर्थ यामिनी समझ नहीं पा रही थी. उस ने कहा, ‘जीशान, आज मैं नहीं आ सकती. तुम हर बात पर जिद क्यों करते हो?’

‘दीदी, यह मेरी आखिरी जिद है. मान जाओ, फिर कभी भी ऐसी गुस्ताखी नहीं करूंगा,’ इतना कह कर जीशान ने फोन काट दिया था.

यामिनी अजीब संकट में पड़ गई. एक तरफ जीशान का ‘बुलावा’ था तो दूसरी तरफ मिसेज डेविडसन को दी गई उस की ‘सहमति’ थी. आखिर दिल ने जीशान के पक्ष में फैसला दे दिया.

यामिनी को कहीं जाने की तैयारी करते देख उस की साथी नर्स समझ गई कि मुंहबोले इस भाई के बुलावे ने यामिनी को विवश कर दिया है. फिर भी उस ने पूछा, ‘‘मैम, मिसेज डेविडसन का क्या होगा?’’

‘‘होगा क्या? थोड़ा सा गुस्सा, थोड़ा बड़बड़ाना और फिर मेरी सुरक्षित वापसी के लिए प्रार्थना, हर मां ऐसी ही होती है,’’ कहते हुए यामिनी निकल पड़ी.

जीशान के कमरे पर यामिनी पहुंची तो देखा दरवाजा खुला था. कमरे में जो दृश्य देखा तो वह अवाक् रह गई. मेज पर सजा ‘केक’ और उस पर जलती एक कैंडिल, एक खूबसूरत नया ‘चाकू’ और नया ‘ज्वेलरी केस’ सबकुछ बड़ा विचित्र लग रहा था. इन सब चीजों को विस्मय से देखती हुई यामिनी की आंखें जीशान को ढूंढ़ रही थीं. उस के मन में संशय उठा कि कहीं उस के साथ कोई अनहोनी तो नहीं हो गई. उस ने जैसे ही जीशान को आवाज लगाई, ठीक उसी समय दरवाजे पर आहट हुई और जीशान हंसते हुए कमरे में प्रवेश कर रहा था. उस के एक हाथ में रक्षासूत्र और एक हाथ में ताजे फूल थे.

जीशान को सामने पा कर यामिनी आश्वस्त हो गई. उस ने अपने को संयत करते हुए पूछा, ‘‘इस तरह कहां चले गए थे? और वह भी कमरा खुला छोड़ कर, तुम्हें अक्ल क्यों नहीं आती? और यह सब क्या है?’’

‘‘एक गरीब भाई की तरफ से अपनी दीदी के बर्थ डे पर एक छोटा सा जलसा.’’

अपनत्व की इतनी सच्ची, इतनी निश्छल प्रतिक्रिया यामिनी ने अपने अब तक के जीवन में नहीं देखी थी. भावातिरेक में उस के नेत्र सजल हो उठे. उस ने रुंधे गले से कहा, ‘‘मेरे भाई, अब तक तुम क्यों नहीं मिले? कहां छिपे थे तुम अब तक? मिले भी तो तब जब हम दोनों के रिश्ते दुनिया के लिए कांटे सरीखे हैं.’’

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जीशान ने अपना हाथ यामिनी के मुंह पर रखते हुए कहा, ‘‘अब और नहीं, दीदी, आज आप का जन्मदिन है. अब चलिए, केक काटिए और यह जलती हुई मोमबत्ती बुझाइए.’’

यामिनी ने जीशान की खुशी के लिए सब किया. केक काटा और मोमबत्ती बुझाई. किसी बच्चे के समान ताली बजा कर जीशान जोर से बोल उठा, ‘‘हैप्पी बर्थडे-टू यू माई डियर सिस्टर,’’ फिर केक का एक टुकड़ा उठा कर यामिनी के मुंह में डाला और आधा तोड़ कर स्वयं खा लिया.

यामिनी ने घड़ी पर निगाह डाली. 8 बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे. उस ने जीशान को याद दिलाते हुए जाने का उपक्रम किया. जीशान ने यामिनी से सिर्फ 2 मिनट का समय और मांगा. उस ने यामिनी से आंखें मूंद कर सामने घूम जाने का अनुरोध किया. यंत्रचालित सी यामिनी ने वैसा ही किया. जीशान ने एक फूल यामिनी के पैरों पर स्पर्श कर अपने माथे से लगाया.

तभी जीशान ने अपनी दाईं कलाई और बाएं हाथ का रक्षासूत्र यामिनी की ओर बढ़ा दिया. यामिनी उस का मकसद समझ गई. उस ने मेज पर पड़े फूल उस पर निछावर किए और राखी बांध दी.

वह आदर भाव से अपनी दीदी के पैर छूने को झुका ही था कि दरवाजा भड़ाक से खुला और 10-12 खूंखार चेहरे तलवार, डंडा, हाकी आदि ले कर दनदनाते हुए कमरे में घुस गए और उन्हें घेर लिया.

एक बोला, ‘‘क्या गुल खिलाए जा रहे हैं यहां?’’

दूसरा बोला, ‘‘यह शरीफों का महल्ला है. इस तरह की बेहयायी करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ी?’’

तीसरा बोला, ‘‘यह बदचलन औरत है. मैं ने अकसर इसे यहां आते देखा है.’’

भद्दी सी गाली देते हुए चौथा बोला, ‘‘रास रचाने को तुम्हें यह ंमुसलमान ही मिला था, सारे हिंदू मर गए थे क्या?’’

भीड़ में से कोई ललकराते हुए बोला, ‘‘देखते क्या हो? इस विधर्मी को काट डालो और उठा कर ले चलो इस मेनका को.’’

यामिनी ने अपना कलेजा कड़ा किया और दृढ़ता से जीशान के आगे खड़ी हो कर बोली, ‘‘इसे नहीं, दोष मेरा है, मेरे टुकड़ेटुकड़े कर डालो क्योंकि मैं हिंदू हूं. आप लोगों की प्रतिष्ठा मेरे नाते धूमिल हुई है.’’

यह सब देख कर जीशान में भी साहस का संचार हुआ. वह यामिनी के आगे आ गया और अपनी दाहिनी कलाई उन के सामने उठाते हुए बोला, ‘‘आप लोग खुद देख लीजिए, हमारा रिश्ता क्या है? राखी तो सिर्फ बहन ही अपने भाई को बांधती है.’’

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उस का हाथ झटकते हुए एक बोला, ‘‘अबे, तू क्या जाने बहनभाई के रिश्ते को. तुझ जैसों को तो सिर्फ मौका चाहिए किसी हिंदू लड़की को भ्रष्ट करने का. वैसे भी आज रक्षाबंधन है क्या?’’

तभी यामिनी को एक अवसर मिल गया. उस ने तर्क भरे लहजे में कहा, ‘‘रानी कर्णावती ने जब हुमायूं को राखी भेजी थी तब भी तो रक्षाबंधन नहीं था. किंतु आप लोग यह सारी लुभावनी मानवतापूर्ण बातें तो केवल मंच से ही बोलते हैं, व्यवहार में तो वही करते हैं जैसा अभी यहां कर रहे हैं.’’

यह तर्क सुन कर भीड़ के ज्यादातर युवक बगलें झांकने लगे. किंतु एक ने उस के तर्क को काटते हुए कहा, ‘‘हुमायूं ने तो राखी के धर्म का निर्वाह किया था. भाई के समान उस ने रानी कर्णावती के लिए खून बहाया था. तुम्हारा यह भाई क्या ऐसा प्रमाण दे सकता है?’’

यामिनी यह सुन कर अचकचा गई. उसे कोई तर्क नहीं सूझ रहा था. तभी अचानक जीशान ने मेज पर पड़ा चाकू उठाया और राखी वाली कलाई की नस काट डाली. खून की धार बह चली. खूंखार चेहरे एकएक कर अदृश्य होते गए. काफी देर तक यामिनी मूर्तिवत् खड़ी रह गई. उस की चेतनशून्यता तब टूटी जब गरम रक्त का आभास उस के पांवों को हुआ. उस का ध्यान जीशान की ओर गया, जो मूर्छित हो कर जमीन पर पड़ा था.

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यामिनी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था. उस ने अपने आंचल का किनारा फाड़ा और कस कर जीशान की कलाई पर बांध दिया. उसी समय दरवाजे पर मिसेज डेविडसन और यामिनी की रूमपार्टनर खड़ी दिखाई दीं. उन दोनों ने फोन कर के एंबुलेंस मंगा ली थी.

जीशान एक बार फिर उसी अस्पताल की ओर जा रहा था जहां से उसे जीवनदान और यह रिश्ता मिला था. उस का सिर यामिनी की गोद में था. यामिनी के हाथ प्यार से उस का माथा सहला रहे थे.

अकेले होने का दर्द

लेखक- डा. पंकज धवन

वातावरण में औपचारिक रुदन का स्वर गहरा रहा था. पापा सफेद कुरतेपजामे और शाल में खड़े थे. सफेद रंग शांति का प्रतीक माना जाता है पर मेरे मन में सदा से ही इस रंग से चिढ़ सी थी. उस औरत ने समाज का क्या बिगाड़ा है जिस के पति के न होने पर उसे सारी उम्र सफेद वस्त्रों में लिपटी रहने के लिए बाध्य किया जाता है. मेरे और पापा के साथ हमारे कई और रिश्तेदार कतारबद्ध खड़े थे. धीरेधीरे सभी लोग सिर झुकाए हमारे सामने से चले गए और पंडाल मरघट जैसे सन्नाटे में तबदील हो गया. हमारे दूरपास के रिश्तेनाते वाले भी वहां से चले गए. सभी के सहानुभूति भरे शब्द उन के साथ ही चले गए.

कुछ अतिनिकट परिचितों के साथ हम अपने घर आ गए. पापा मूक एवं निरीह प्राणी की तरह आए और अपने कमरे में चले गए. बाकी बचे परिजनों के साथ मैं ड्राइंगरूम में बैठ गई. कुछ औपचारिक बातों के बाद मैं किचन से चाय बनवा कर ले आई. एक गिलास में चाय डाल कर मैं पापा के पास गई. वह बिस्तर पर लेटे हुए सामने दीवार पर टंगी मम्मी की तसवीर को देखे जा रहे थे. उन की आंखों में आंसू थे. ‘‘पापा, चाय,’’ मैं ने कहा. पापा ने मेरी तरफ देखा और पलकें झपका कर आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘थोड़ी देर के लिए मुझे अकेला छोड़ दो, मानसी.’’ उन की ऐसी हालत देख कर मेरे गले में रुकी हुई सिसकियां तेज हो गईं. मैं भी पापा को अपने मन की बात बता कर उन से अपना दुख बांटना चाहती थी, पर लगा था वह अपने ही दुख से उबर नहीं पा रहे हैं. किसे मालूम था कि मम्मी, पापा को यों अकेला छोड़ कर इस संसार से प्र्रस्थान कर जाएंगी. इस हादसे के बाद तो पापा एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. मैं ने अपनी छोटी बहन दीप्ति को अमेरिका में तत्काल समाचार दे दिया. पर समयाभाव के कारण मां के पार्थिव शरीर को वह कहां देख पाई थी. पापा इस दुख से उबरते भी कैसे. जिस के साथ उन्होंने जिंदगी के 40 वर्ष बिता दिए, मां का इस तरह बिना किसी बीमारी के मरना पापा कैसे भूल सकते थे. कई दिनों तक रोतेरोते क्रमश: रुदन तो समाप्त हो गया पर शोक शांत न हो सका. पापा की ऐसी हालत देख कर मैं ने धीरे से उन का दरवाजा बंद किया और वापस ड्राइंग- रूम में आ गई, जहां मेरे पति राहुल बैठे थे.

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चाचाजी वहां बैठे हुए हलवाई, टैंट वाले, पंडितजी आदि का हिसाब करते जा रहे थे. मुझे देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘आजकल छोटे से छोटे कार्य में भी इतना खर्च हो जाता है कि बस…’’ यह कहतेकहते उन्होंने राहुल को सारे बिल पकड़ा दिए. मैं ने राहुल को इशारे से सब का हिसाब चुकता करने को कहा. पापा अपने गम में इतने डूबे हुए थे कि उन से कुछ भी इस समय कहने का साहस मुझ में न था. ‘‘अच्छा, मानसी बिटिया, अब मैं चलता हूं. कोई काम हो तो बताना,’’ कहते हुए चाचाजी ने मुझे इस अंदाज से देखा कि मैं कोई दूसरा काम न कह दूं और उन के साथ ही कालोनी की 3-4 महिलाएं भी चल दीं. मुझे इस बात से बेहद दुख हुआ कि मम्मी इतने वर्षों से सदा सब के सुखदुख में हमें भी नजरअंदाज कर उन का साथ देती थीं, लेकिन आज सभी ने उन के गुजरने के साथ ही अपने कर्तव्यों से भी इतिश्री मान ली थी. शाम को खाने की मेज पर मैं ने राहुल से पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या प्रोग्राम है अब?’’ ‘‘मैं तो रात को ही वापस जाना चाहता हूं. तुम साथ नहीं चल रही हो क्या?’’ राहुल ने पूछा. ‘‘पापा को ऐसी हालत में छोड़ कर कैसे चली जाऊं,’’ मैं ने रोंआसी हो कर कहा, ‘‘लगता है ऐसे ही समय के लिए लोग बेटे की कामना करते हैं.’’ ‘‘पापा को साथ क्यों नहीं ले चलतीं,’’ राहुल बोले, ‘‘थोड़ा उन के लिए भी चेंज हो जाएगा.’’ ‘‘नहीं बेटा,’’

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तब तक पापा अपने कमरे से आ चुके थे, ‘‘तुम लोग चले जाओ, मैं यहीं ठीक हूं.’’ ‘‘पापा, आप को तो ठीक से खाना बनाना भी नहीं आता…मां होतीं तो…’’ और इतना कहतेकहते मैं रो पड़ी. ‘‘क्यों, महरी है न. तुम चिंता क्यों करती हो?’’ ‘‘पापा, वह तो 9 बजे आती है. आप की बेड टी, अखबार, दूध, नहाने के कपड़े, दवाइयां कुछ भी तो आप को नहीं मालूम…आज तक आप ने किया हो तो पता होता.’’ ‘‘उस ने मुझे इतना अपाहिज बना दिया था…पर अब क्या करूं? करना तो पडे़गा ही न…कुछ समझ में नहीं आएगा तो तुम से पूछ लूंगा,’’ कहतेकहते पापा ने मेरी तरफ देखा. उन का स्वर जरूरत से ज्यादा करुण था. ‘‘अब क्यों रुलाते हो, पापा,’’ कहते हुए मैं खाना छोड़ कर उन से लिपट गई. मेरे सिर पर स्नेहिल स्पर्श तक सीमित होते हुए पापा ने कहा, ‘‘उसी ने अभी तक सारे परिवार को एकसूत्र में बांध कर रखा था. पंछी अपना नीड़ छोड़ कर उड़ चला और यह घोंसला भी एकदम वीराने सा हो गया…मैं क्या करूं,’’ कातरता झलक रही थी उन के स्वर में. ‘‘पापा, आप हिम्मत मत हारो, कुछ दिनों के लिए ही सही, हमारे साथ ही चलो न.’’ ‘‘नहीं बेटे, जब अकेले जी नहीं पाऊंगा तो कह दूंगा,’’ फिर एक लंबी सांस लेते हुए बोले, ‘‘अभी तो यहां बहुत काम हैं, तुम्हारी मम्मी का इंश्योरेंस, बैंक अकाउंट, उन के फिक्स्ड डिपोजिट सभी को तो देखना पड़ेगा न.’’ ‘‘जैसी आप की इच्छा, पापा,’’ कह कर राहुल अपने कमरे में चले गए. अगले दिन महरी को सबकुछ सिलसिलेवार समझा कर मैं थोड़ी आश्वस्त हो गई. 2 दिन बाद… मेरी सुबह की ट्रेन थी. जाने से एक रात पहले मैं पापा के पास जा कर बोली, ‘‘पापा, कल सुबह आप मुझे छोड़ने नहीं जाएंगे.

नहीं तो मैं जा नहीं पाऊंगी,’’ इतना कह मैं भरे कंठ से वहां से चली आई थी. सुबह जल्दीजल्दी उठी. तकिये के पास पापा के हाथ की लिखी चिट पड़ी थी, ‘जाने से पहले मुझे भी मत उठाना…मैं रह नहीं पाऊंगा. साथ ही 500 रुपए रखे हैं इन्हें स्वीकार कर लेना. वैसे भी यह सारे आडंबर तुम्हारी मां ही संभालती थी.’ मैं ही जानती हूं कि मैं ने वह घर कैसे छोड़ा था. मैं हर रोज पापा को फोन करती. उन का हाल जानती, फिर महरी को हिदायतें देती. मैं अपनी सीमाएं भी जानती थी और दायरे भी. राहुल को मेरी किसी बात का बुरा न लगे इसलिए पापा से आफिस से ही बात करती. कभीकभी वह छोटीछोटी चीजों को ले कर परेशान हो जाते थे. ऊपर से सामान्य बने रहने के बावजूद मैं भांप जाती कि वह दिल से इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. वह वहां रहने के लिए विवश थे. उन की दुनिया उन्हीं के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई थी. एक दिन सुबह मैं ने पापा को उन के जन्मदिन की बधाई देने के लिए फोन किया.

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देर तक फोन की घंटी बजती रही और उधर से कोई उत्तर नहीं मिला. फिर मैं ने कई बार फोन किया और हर बार यही हाल रहा. मेरी घबराहट स्वाभाविक थी. तरहतरह के कुविचारों ने मन में डेरा डाल लिया. पड़ोस में रहने वाली कविता आंटी को फोन किया तो उन का भी यही उत्तर था कि घर पर शायद कोई नहीं है. मेरी आंखों मेें आंसू आ गए. पापा तो कभी कहीं जाते नहीं थे. मेरी हालत देख कर राहुल बोले, ‘‘तुम घबराओ नहीं. थोड़ी देर में फिर से फोन करना. नहीं तो कुछ और सोचते हैं.’’ ‘‘मेरा दिल बैठा जा रहा है राहुल,’’ मैं ने कहा. ‘‘थोड़ा धीरज रखो, मानसी,’’ कह कर राहुल मेज पर अखबार रख कर बोले, ‘‘हम इतनी दूर हैं कि चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे और पापा यहां आना नहीं चाहते, तुम वहां जा नहीं सकतीं…’’ ‘‘तो उन को ऐसी ही हालत में छोड़ दें,’’ मैं सुबक पड़ी, ‘‘जानते हो, पापा को कुछ भी नहीं आता है. बाजार से आते ही पर्स टेबल पर छोड़ देते हैं. अलमारी में भी चाबियां लगी छोड़ देते हैं. अभी पिछले दिनों उन्होंने नई महरी रखी है…कहीं उस ने तो कुछ…आजकल अकेले रह रहे वृद्ध इन वारदातों का ही निशाना बन रहे हैं.’’ इतने में फोन की घंटी बजी. पापा की आवाज सुनी तो थोड़ी राहत महसूस हुई, मैं ने कहा, ‘‘कहां चले गए थे आप पापा, मैं बहुत घबरा गई थी.’’ ‘‘तू इतनी चिंता क्यों करती है, बेटी. मैं एकदम ठीक हूं.

तेरी मम्मी आज के दिन अनाथाश्रम के बच्चों को वस्त्र दान करती थी सो उस का वह काम पूरा करने चला गया था.’’ ‘‘पापा, आप एक मोबाइल ले लो. कम से कम चिंता तो नहीं रहेगी न,’’ मैं ने सुझाव दिया. ‘‘इस उम्र में मोबाइल,’’ कहतेकहते पापा हंस पड़े, ‘‘तू मेरी चिंता छोड़ दे बस.’’ दिन बीतते गए. उन की जिंदगी उन के सिद्धांतों और समझौतों के बीच टिक कर रह गई. मैं लगातार पापा के संपर्क में बनी रही. मुझे इस बात का एहसास हो गया कि वह लगातार सेहत के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं. अंगरेजी दवाओं के वह खिलाफ थे इसलिए जो देसी दवाओं का ज्ञान मुझे मां से विरासत में मिला था मैं उन्हें बता देती. कभी उन को आराम आ जाता तो कभी वह चुप्पी साध लेते. एक दिन सुबह कविता आंटी ने फोन पर बताया कि पापा सीढि़यों से फिसल गए हैं. अभी पापा को वह अस्पताल छोड़ कर आई हैं. एक दिन वह डाक्टरों की देखरेख में ही रहेंगे. शायद फ्रैक्चर हो. ‘‘उन के साथ कोई है?’’ मैं ने चिंतित होते हुए पूछा.

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‘‘आईसीयू में किसी की जरूरत नहीं होती. डाक्टर को वह जानते ही हैं,’’ कविता आंटी ने बेहद लापरवाह स्वर में कहा. कविता आंटी की बातें सुन कर मुझे दुख भी हुआ और बुरा भी लगा. इनसान इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है. मेरा मन पापा से मिलने के लिए तड़पने लगा. राहुल ने मेरी मनोस्थिति भांपते हुए कहा, ‘‘मानसी, तुम इस तरह न अपने घर पर ध्यान दे सकोगी और न ही उन का.’’ ‘‘उन का मेरे सिवा और कोई करने वाला भी तो नहीं है. मैं ने कहीं पढ़ा था कि एक औरत की दुनिया में 2 ही मर्द सब से ज्यादा अहमियत रखते हैं. एक उस का पति जो उस की अस्मत की रक्षा करता है, दूसरा उस का पिता जो उस के वजूद का निर्माता होता है. तुम्हें तो मैं अपने से भी ज्यादा प्यार करती हूं, पर उन्हें क्या यों ही तिलतिल मरता छोड़ दूं?’’ ‘‘तो इस बार उन्हें किसी न किसी बहाने यहां ले आओ फिर सोचेंगे,’’ राहुल ने निर्देश दिया. मैं अगले ही दिन पापा के पास रवाना हो गई. अस्पताल में मैं ने उन्हें देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ.

पापा की दयनीय स्थिति देख कर कलेजा मुंह को आ गया. वह सफेद चादर में लिपटे हुए दूसरी तरफ मुंह किए लेटे थे. डाक्टर से पता चला कि पापा हाई ब्लडपै्रैशर के मरीज हो गए हैं और उन का वजन भी घट कर अब आधा रह गया था. मैं उन के पास जा कर बैठ गई. पापा मुझे देखते ही बोले, ‘‘मानसी, तुझे किस ने बताया?’’ ‘‘पापा, तो क्या यह बात भी आप मुझ से छिपा कर रखना चाहते थे. मैं तो समझती थी कि आप ने धीरेधीरे खुद को संभाल लिया होगा…और यहां तो…’’ मेरा गला रुंध गया. बाकी के शब्द होंठों में ही फंस कर रह गए. ‘‘मैं सब बताता रहता तो तू मेरी चिंता करती…राहुल क्या सोचेगा?’’ ‘‘ठीक है पापा, मैं भी तब तक राहुल के पास नहीं जाऊंगी जब तक आप मेरे साथ नहीं चलेंगे. मेरा घर उजड़ता है तो उजड़े. मैं आप को यों अकेला छोड़ कर नहीं जा सकती.’’ ‘‘मानसी, यह क्या कह दिया तू ने,’’ कह कर वह थोड़ा उठने को हुए. तभी नर्स ने आ कर उन्हें फिर लिटा दिया. सीढि़यों से फिसलने के बाद पापा को चोट तो बहुत आई थी पर कोई फ्रैक्चर नहीं हुआ. मैं उन्हें अस्पताल से घर ले गई और बिस्तर पर लिटा दिया.

मेरी निगाहें घर के चारों तरफ दौड़ गईं. घर की हालत देख कर लगता ही नहीं था कि यहां कोई रहता है. बड़े बेढंगे तरीके से कपड़ों को समेट कर एक तरफ रखा हुआ था. पापा के बिस्तर की बदरंग चादर, सिंक में रखे हुए गंदे और चिकने बरतन, गैस पर अधपके खाने के टुकड़े और चींटियों की कतारें, समझ में नहीं आ रहा था काम कहां से शुरू करूं. आज मेरी समझ में आ रहा था कि सुचारु रूप से चल रहे इस घर में मम्मी का कितना सार्थक श्रम और निस्वार्थ समर्पण था. इस हालत में पापा को अकेले छोड़ कर जाना ठीक नहीं था. इसलिए मैं पापा को ले कर वापस अपने घर दिल्ली आ गई. 1-2 दिन मैं पूरे समय पापा के साथ ही रही. आफिस जाते हुए मुझे संकोच हो रहा था पर पापा मन की बात जान गए और निसंकोच मुझे आफिस जाने के लिए कह दिया. राहुल और मैं एक ही समय साथसाथ आफिस जाते थे. उस दिन शाम को हम लोग खाना खा रहे थे, तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला, सामने मीरा आंटी खड़ी थीं.

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मैं ने कहा, ‘‘आइए आंटी, कहां से आ रही हैं इस समय?’’ ‘‘दिल्ली हाट तक गई थी, थोड़ी देर हो गई. सामने की दुकान से कोई पानी देने तो नहीं आया था?’’ ‘‘नहीं, अच्छा तो आप भीतर तो आइए…मेरे से एक बोतल पानी ले जाइए,’’ कहते हुए मैं वापस खाने की टेबल पर आ गई, ‘‘खाना खाएंगी न आंटी.’’ ‘‘नहीं बेटा, आज मन नहीं है.’’ मैं ने पापा को उन का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘पापा, यह मीरा आंटी हैं. सामने के फ्लैट में रहती हैं. बेहद मिलनसार और केयरिंग भी. राहुल को जब भी कुछ नया खाने का मन करता है आंटी बना देती हैं.’’ ‘‘अरे, बस बस,’’ कह कर वह सामने आ कर बैठ गईं. मैं ने उन की तरफ प्लेट सरकाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, कुछ तो खा लीजिए. हमारा मन रखने के लिए ही सही,’’ और इसी के साथ उन की प्लेट में मैं ने थोड़े चावल और दाल डाल दी. ‘‘लगता है आप यहां अकेली रहती हैं?’’ पापा ने पूछा. ‘‘हां, पापा,’’ इन के पति आर्मी में हैं. वहां इन को साथ रहने की कोई सुविधा नहीं है,’’ राहुल ने कहा. ‘‘फिर तो आप को बड़ी मुश्किल होती होगी अकेले रहने में?’’ ‘‘नहीं, अब तो आदत सी पड़ गई है,’’ आंटी बेहद उदासीनता से बोलीं, ‘‘बेटीदामाद भी कभीकभी आते रहते हैं, फिर जब कभी मन उचाट हो जाता है मैं उन से स्वयं मिलने चली जाती हूं.’’ ‘‘पापा, इन की बेटीदामाद दोनों डाक्टर हैं और चेन्नई के अपोलो अस्पताल में काम करते हैं,’’ मैं ने कहा. बातों का सिलसिला देर तक यों ही चलता रहा. जातेजाते आंटी बोलीं, ‘‘मैं सामने ही रहती हूं…किसी वस्तु की जरूरत हो तो बिना संकोच बता दीजिएगा.’’

‘‘आंटी, पापा को सुबह इंजेक्शन लगवाना है. किसी को जानती हैं आप, जो यहीं आ कर लगा सके.’’ ‘‘अरे, इंजेक्शन तो मैं ही लगा दूंगी…बेटी ने इतना तो सिखा ही दिया है.’’ ‘‘ठीक है आंटी, मैं सुबह इंजेक्शन भी ले आऊंगी और पट्टी भी,’’ कहते- कहते मैं भी उठ गई. ‘‘हां, बेटा, यह तो मेरा सौभाग्य होगा,’’ कह कर आंटी चली गईं. शाम को मैं आफिस से आई और पापा का हालचाल पूछा. आज वह थोड़ा स्वस्थ लग रहे थे. कहने लगे, ‘‘सुबह इंजेक्शन और डे्रसिंग के बाद थोड़ा रिलैक्स अनुभव कर रहा हूं. फिर शाम को सामने पार्क में भी घूमने गया था.’’ मैं चाहती थी पापा कुछ दिन और यहां रहें. हर रोज कोई न कोई बहाना बना कर वह जतला देते थे कि वह वापस जाना चाहते हैं. यहां रहना उन के सिद्धांतों के खिलाफ है. मेरी शंका जितनी गहरी थी पर समाधान उतना ही कठिन. मैं ने और राहुल ने भरसक प्रयत्न किया कि उन्हें यहीं पास में कोई और मकान ले देते हैं पर वह किसी भी तरह नहीं माने. फिर हम ने उन्हें इस बात के लिए मना लिया कि 1 महीने के बाद दीवाली आ रही है तब तक वह यहीं रहें.

हमारी आशाओं के अनुकूल उन्होंने यह स्वीकार कर लिया था. मुझे थोड़ी सी तसल्ली हो गई. उस दिन मैं और राहुल प्रगति मैदान जाने का मन बना रहे थे, जहां गृहसज्जा के सामान की प्रदर्शनी लगी हुई थी. मैं ने पापा को भी साथ चलने के लिए कहा. उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि मैं वहां जा कर क्या करूंगा. ‘‘पापा, आप साथ चलेंगे तो हमें अच्छा लगेगा. मानसी कई दिनों से माइक्रोवेव लेने का मन बना रही थी. आप रहेंगे तो राय बनी रहेगी,’’ राहुल ने विनती करते हुए कहा. ‘‘तुम्हारा मुझे इतना मान देने के लिए शुक्रिया बेटा…पर जा नहीं पाऊंगा, क्योंकि पार्क में आज इस कालोनी के बुजुर्गों की एक बैठक है.’’ हम दोनों ही वहां चले गए. प्रगति मैदान से आने के बाद जैसे ही हम ने कार पार्क की कि मीरा आंटी के घर से डाक्टर अवस्थी को निकलते देखा. मैं एकदम घबरा गई और तेजी से जा कर पूछा, ‘‘डाक्टर साहब, क्या हुआ मीरा आंटी को? सब ठीक तो है न.’’ ‘‘हां, अब सब ठीक है. उन के घर में किसी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी.’’ इस से पहले कि मैं कुछ सोच पाती, मीरा आंटी सामने से आती हुई बोलीं, ‘‘तुम्हारे पापा इधर हैं, तुम लोग अंदर आ जाओ.’’ ‘‘क्यों, क्या हुआ उन को?’’ ‘‘दरअसल, तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने मेरी घंटी बजा कर कहा था कि उन्हें बहुत घबराहट हो रही है. मैं थोड़ा घबरा गई थी.

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मैं उन्हें सहारा दे कर अपने यहां ले आई और डाक्टर को फोन कर दिया. उन का ब्लडप्रैशर बहुत बढ़ा हुआ था. शायद गैस हो रही होगी. अभी उन्हें सोने का इंजेक्शन और कुछ दवाइयां दी हैं,’’ कहते हुए उन्होंने मुझे वह परचा पकड़ा दिया. ‘‘आंटी, बुढ़ापा नहीं, पापा अकेलेपन का शिकार हैं,’’ कहतेकहते मैं पापा के पास ही बैठ गई, ‘‘62 साल की उम्र भी कोई बुढ़ापे की होती है.’’ राहुल जब तक अपने फ्लैट से फ्रेश हो कर आए आंटी ने चाय बना दी. मैं पुन: पापा की इस हालत से चिंतित थी और परेशान भी. वह पूरी रात हम ने उन के पास बैठ कर बिताई. कुछ दिन और बीत गए. पापा अब फिर सामान्य हो गए थे. आंटी का हमारे घर निरंतर आनाजाना बना रहता था. हम पापा में फिर से उत्साह पैदा करने की कोशिश करते रहे. एक पल वह खुश हो जाते और दूसरे ही पल उदास और गंभीर. रविवार को हम सवेरे बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे. बातोंबातों में राहुल ने आंटी का उदाहरण देते हुए कहा कि वह कितने मजे से जिंदगी काट रही हैं.

‘‘सचमुच वह बहुत ही भद्र और मिलनसार महिला हैं. इस उम्र में तो उन के पति को भी रिटायरमेंट ले लेना चाहिए. कब से वह अकेली जिंदगी जी रही हैं और आजकल के हालात देखते हुए एक अकेली औरत…’’ पापा बोले. ‘‘पापा, आप को एक बात बताऊं,’’ राहुल ने सारा संकोच त्याग कर कहा, ‘‘मैं ने पहले दिन आप से झूठ बोला था कि आंटी के पति आर्मी में हैं. दरअसल, उन के पति की मृत्यु 8 साल पहले हो चुकी है. तब उन की बेटी मेडिकल कालिज में पढ़ती थी. बड़ी मुश्किलों से आंटी ने उसे पढ़ाया है. पिछले ही साल उस की शादी की है.’’ ‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. उन्होंने कभी बताया भी नहीं.’’ ‘‘सभी लोगों को उन्होंने यही बता रखा है जो मैं ने आप को बताया था. एक अकेली औरत का सचमुच अकेला रहना कितना कठिन होता है, यह उन से पूछिए. इसलिए मैं जब भी आंटी को देखती हूं मुझे आप की चिंता होने लगती है. औरत होने के नाते वह तो अपना घर संभाल सकती हैं पर पुरुष नहीं.

उन्हें सचमुच एक सहारे की जरूरत होती है. पापा, आप को लगता है कि आप यों अकेले जीवन बिता पाएंगे…मैं बेटी हूं आप की…मम्मी के बाद आप का ध्यान रखना मेरा फर्ज है…मेरा अधिकार भी है और कर्तव्य भी…मैं जो कह रही हूं आप समझ रहे हैं न पापा…मैं मीरा आंटी की बात कर रही हूं.’’ मैं अपनी बात कह चुकी थी. और अब पापा के चेहरे पर घिर आए भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगी. ‘‘मानसी ठीक कह रही है, पापा,’’ राहुल बोले, ‘‘बहुत दिनों तक सोचने के बाद ही डरतेडरते हम ने आप से कहने की हिम्मत जुटाई है. बात अच्छी न लगे तो हमें माफ कर दीजिए.’’ ‘‘बेटे, इस उम्र में शादी. मैं कैसे भूल पाऊंगा तुम्हारी मम्मी को, और फिर लोग क्या सोचेंगे,’’ पापा का स्वर किसी गहरे दुख में डूब गया. ‘‘पापा, लोग बुढ़ापे के लिए तो एकदूसरे का सहारा ढूंढ़ते हैं. इस उम्र में आप को कई बीमारियों ने आ घेरा है, उपेक्षित से हो कर रह गए हैं आप. अब जो हो गया उस पर हमारा जोर तो नहीं है. फिर लोगों से हमें क्या लेनादेना. आप दोनों तैयार हों तो हमें दुनिया से क्या लेना.’’

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‘‘मीरा से भी तुम ने बात की है?’’ उन्होंने बेहद संजीदगी से पूछा. ‘‘हां, पापा, हम ने उन्हें भी मुश्किल से मनाया है. यदि आप तैयार हों तो…आप हमारा हमेशा ही भला चाहते रहे हैं. क्या आप चाहते हैं कि हम सदा आप के लिए चिंतित रहें. बहुत सी बातें आप छिपा भी जाते हैं. मैं पहले भी आप से इस बारे में बात करना चाहती थी मगर हर बार संकोच की दीवार सामने आ जाती थी.’’ वह कुछ असहज भी थे और असामान्य भी, किंतु जिस लाड़ भरी निगाहों से उन्होंने मुझे देखा, मुझे लगा मेरी यह हरकत उन्हें अच्छी लगी है. ‘‘पापा, प्लीज,’’ कह कर मैं उन के पास आ कर बैठ गई, ‘‘आप को सुखी देख कर हम लोग कितनी राहत महसूस करेंगे. यह मैं कैसे बताऊं . आप की ऐसी हालत देख कर मेरा जी भर आता है. मैं आप को बहुत प्यार करती हूं पापा,’’ कहतेकहते मैं रो पड़ी. पापा धीरे से मुसकराए. शिष्टाचार के सभी बंधन तोड़ कर मैं उन से लिपट गई. महीनों से खोई हुई उन की हंसी वापस उन के चेहरे पर थी. उन का ठंडा मीठा स्पर्श आज अर्से बाद मुझे मिला था. ‘‘थैंक्स, पापा,’’ कहतेकहते मेरी आवाज आंसुओं के चलते भर्रा गई.

फरेबी चाहत…

लेखक- विजय सोनी

घटना 31 दिसंबर, 2018 की है. 31 दिसंबर होने के कारण इंदौर के शाजापुर क्षेत्र में आधी रात
के समय लोग शराब के नशे में डूब कर नए साल का स्वागत करने में जुटे थे. काशीनगर क्षेत्र के एक मकान से पतिपत्नी के झगड़े की तेज आवाज आ रही थी. वह आवाज सुन कर पड़ोसी डिस्टर्ब होने लगे तो एक पड़ोसी श्याम वर्मा ने कोतवाली में फोन कर झगड़े की सूचना दे दी.

जिस घर से झगड़े की तेज आवाज आ रही थी, वह मकान बलाई महासभा युवा ब्रिगेड के जिला अध्यक्ष और प्रौपर्टी डीलर रहे रमेशचंद्र उर्फ मोनू का था. उस की पत्नी मंजू भी भाजपा की सक्रिय कार्यकत्री थी.
नए साल में लड़ाईझगड़े की संभावना को देखते हुए पुलिस भी अलर्ट थी, इसलिए झगड़े की खबर सुनते ही कुछ ही देर में शाजापुर कोतवाली की मोबाइल वैन मौके पर पहुंच गई. लेकिन यह मामला पतिपत्नी के पारिवारिक झगडे़ का था तथा पतिपत्नी दोनों ही सम्मानित व जानेमाने लोग थे. इसलिए पुलिस दोनों को समझाबुझा कर थाने लौट गई.

करोड़ोें की खूबसूरती..

पुलिस के जाने के बाद पतिपत्नी ने दरवाजा बंद कर लिया, जिस के बाद मकान से झगड़े की आवाज आनी बंद हो गई. फिर पड़ोसी भी अपनेअपने घरों में चले गए. लेकिन 45 मिनट बाद मोनू लहूलुहान अपने घर से निकला और पड़ोस में रहने वाले एक परिचित को ले कर शाजापुर के जिला अस्पताल पहुंचा.
मोनू के पेट से खून बह रहा था. पूछने पर मोनू ने डाक्टर को बताया कि ज्यादा नशे में होने की वजह से वह गिर गया और चोट लग गई. डाक्टर ने रमेश उर्फ मोनू को अस्पताल में भरती कर लिया. परंतु सुबह रमेश उर्फ मोनू की हालत और बिगड़ जाने के कारण उसे इंदौर के एमवाईएच अस्पताल रेफर कर दिया. उस समय मोनू के पास इतना पैसा भी नहीं था कि उसे इलाज के लिए इंदौर ले जाया जा सके, इसलिए मोनू के दोस्तों ने आपस में चंदा जमा कर कुछ रकम जुटाई और वह मोनू को इंदौर ले गए.

कानून के टप्पेबाजी…

बलाई महासभा के युवा ब्रिगेड के बड़े नेता के घायल हो जाने की बात सुन कर समाज के लोग बड़ी संख्या में अस्पताल पहुंचने लगे. रमेश के परिवार वाले भी उस के जल्द ठीक होने की कामना करने लगे. परंतु होनी को कुछ और ही मंजूर था. 6 जनवरी की सुबह मोनू की मौत हो गई. रमेश की मौत से मामला एकदम बदल गया.
5 दिन से अस्पताल में मौजूद उस के पिता गंगाराम बेटे की मौत की खबर सुन कर टूट गए. वह रोते हुए बेटे की मौत का आरोप अपनी बहू मंजू पर लगाने लगे. उन का यह आरोप सुन कर अस्पताल के एमएस ने संयोगितागंज थाने में खबर कर दी. सूचना पा कर थाना पुलिस अस्पताल पहुंच गई. पुलिस ने जरूरी काररवाई पूरी कर के रमेश का शव पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया.

रेव पार्टी: डांस, ड्रग्स और सैक्स का तड़का

प्रारंभिक पूछताछ में रमेश के पिता गंगाराम व बुआ गीता बलाई ने पुलिस को बताया कि रमेश ने खुद उन्हें बताया था कि उसे उस की पत्नी मंजू ने चाकू मारा है. लेकिन समाज में बदनामी के डर से वह गिर कर चोट लगने की बात कहता रहा.
पुलिस ने उन से मंजू के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि मंजू तो घटना के बाद से एक बार भी अपने पति को देखने अस्पताल नहीं आई. वह पति को देखने अस्पताल क्यों नहीं आई, यह बात पुलिस की समझ में नहीं आ रही थी. इस से पुलिस का मंजू पर शक गहरा गया.

मुन्ना बजरंगी हत्याकांड : जेल में सब हो सकता है

संयोगितागंज थाना पुलिस ने अपने यहां जीरो एफआईआर दर्ज कर के डायरी शाजापुर कोतवाली भेज दी. यहां रमेश की हत्या किए जाने की बात सामने आने पर बलाई समाज के लोगों में भारी आक्रोश फैल गया.
समाज के लोग बड़ी संख्या में एकत्र हो कर एसपी शैलेंद्र चौहान से मिले और रमेश की पत्नी मंजू को गिरफ्तार करने की मांग करने लगे. जिस पर एसपी ने बलाई समाज के लोगों को आश्वासन दिया कि जल्द ही आरोपी को गिरफ्तार कर लिया जाएगा. तब कहीं जा कर रमेश का अंतिम संस्कार किया गया.
रमेश की चिता की आग शांत होने के बाद आरोपी की गिरफ्तारी को ले कर लोगों में गुस्से की आग फिर भड़क उठी. चूंकि मंजू भी भाजपा नेत्री थी, इसलिए पुलिस भी जल्दबाजी में कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती थी, जिस से मामला उलटा पड़ जाए.
कोतवाली इंसपेक्टर के.एल. दांगी बड़ी ही सावधानी से एकएक कदम बढ़ा रहे थे. वरिष्ठ अधिकारियों से मशविरा करने के बाद उन्होंने मृतक रमेश की पत्नी मंजू को हिरासत में ले लिया. जब उस से रमेश की हत्या के संबंध में पूछताछ की गई तो उस ने रमेश चंद्र की हत्या की जो कहानी बताई, वह इस प्रकार थी—

शाजापुर के मध्यमवर्गीय बलाई परिवार में जन्मे रमेशचंद्र उर्फ मोनू की मां का देहांत उस समय हो गया था, जब रमेश बाल्यावस्था में था. मां के बिना रमेश गलत संगत में पड़ गया, जिस से मिली पिता की डांट से नाराज हो कर वह सन 1995 में घर से भाग कर गुजरात के भावनगर चला गया और वहां के एक होटल में नौकरी करने लगा.

गैंगस्टरों का खूनी खेल

वहां उस की मुलाकात मुंबई के एक जैन व्यापारी से हुई. होटल का काम छोड़ कर वह जैन व्यापारी के साथ चला गया. उसी दौरान उस ने ड्राइविंग सीख ली और जैन व्यापारी की कार चलाने लगा. जैन व्यापारी उन दिनों श्वेतांबर जैन संत सुरेशजी महाराज के भक्त थे और अकसर उन की सेवा करने जाया करते थे. इस दौरान रमेश भी अपने सेठ के साथ रहता था.
संयोग से एक रोज सुरेशजी महाराज ने सेठ से उन के ड्राइवर रमेश को कुछ दिन अपने साथ रखने को ले लिया. सेठजी भला अपने गुरुजी की बात कैसे टाल सकते थे. लिहाजा उन्होंने रमेश को महाराज के हवाले कर दिया. सुरेशजी महाराज के संपर्क में आ कर रमेश ने जैन धर्म को नजदीक से जाना.

राजेश साहनी की खुदकुशी : एटीएस कैंपस में दफन है 

धर्म में उस की रुचि देख कर सुरेशजी महाराज ने उसे दीक्षा दी और उस का नाम तरुणजी महाराज रख दिया. इस तरह रमेश की योग्यता और संयम देख कर उसे स्थानक वासी की पदवी दी गई. जिस के बाद वह देश भर में घूमघूम कर धार्मिक प्रवचन देने लगा.
उस के पिता को जब पता चला कि बेटा संत हो गया है तो वह बहुत खुश हुए. धर्म के मामले में असाधारण योग्यता के चलते रमेश ने समाज में काफी सम्मानित स्थान हासिल कर लिया था.
लेकिन उस की लाइफ काफी एक्सीडेंटल निकली. अचानक ही मालूम नहीं उस के मन को क्या आया कि वह त्याग का मार्ग छोड़ कर वापस सांसारिक दुनिया में आ गया. वह अपने घर लौट आया. बेटे के वापस घर लौटने पर पिता खुश थे.

प्रेमिका और पत्नी के बीच मौत का खेल

शाजापुर आ कर रमेश ने प्रौपर्टी का काम शुरू कर दिया. वह ज्ञानी और धार्मिक प्रवृत्ति का था और सत्य के मार्ग पर चलने वाला भी, इसलिए लोग उस पर आसानी से भरोसा कर लेते थे. देखते ही देखते रमेश का बिजनैस चल निकला, जिस से कुछ ही समय में उस की गिनती समाज और शहर के संपन्न लोगों में होने लगी.
उसी दौरान शहर के एक थाने में पदस्थ सजातीय पुलिसकर्मी की नजर रमेश पर पड़ी. वह रमेश के साथ अपनी बेटी मंजू की शादी करना चाहता था. उस पुलिसकर्मी ने इस बारे में रमेश के पिता से बात की. लड़की सुंदर थी जो रमेश को भी पसंद थी. लिहाजा दोनों तरफ से बातचीत हो जाने के बाद रमेशचंद्र और मंजू की शादी हो गई.

दिल का मामला या कोई बड़ी साजिश

मंजू खूबसूरत तो थी ही, साथ ही पढ़ीलिखी और समझदार भी थी. उन की गृहस्थी हंसीखुशी से चलती रही. इसी बीच मंजू 2 बेटों की मां बन गई. जब रमेश ने बलाई समाज की राजनीति में दखल देना शुरू किया तो अपने दोनों बेटों के बड़े हो जाने के बाद मंजू भी भाजपा से जुड़ कर उभरती नेत्री के रूप में पहचानी जाने लगी.
लेकिन रमेश की जिंदगी ने फिर एक बार करवट ली. समाज की राजनीति में ज्यादा समय देने के कारण उस का अपना बिजनैस एक तरह से ठप हो गया, जिस पर उस ने पहले तो ध्यान नहीं दिया और जब ध्यान दिया तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

धीरेधीरे स्थिति बिगड़ती गई, जिस के चलते कभी समाज को शराब जैसी बुराई से दूर रहने का उपदेश देने वाला जैन स्थानक वासी रमेश खुद शराब की गिरफ्त में आ गया. जिस के चलते रमेश की पहचान एक शराबी के रूप में बन गई.
मंजू को यह कतई उम्मीद नहीं थी कि उस का पति शराबी भी हो सकता है. लेकिन अब तो यह बात सड़कों पर भी जाहिर हो चुकी थी. इसलिए खुद की सामाजिक पहचान कायम कर चुकी मंजू के लिए यह बात असहनीय थी. उस ने पति के शराब पीने का विरोध किया तो दोनों में आए दिन झगड़ा होने लगा, जिस की आवाज धीरेधीरे उन के घर के बाहर भी गूंजने लगी.
फिर एक बार यह आवाज बाहर आई तो यह रोज का क्रम बन गया. ऐसे में एक तरफ जहां मंजू का परिवार टूट रहा था तो वहीं दूसरी ओर पार्टी में उस की पकड़ मजबूत होती जा रही थी.
दोनों के अहं टकराने लगे, जिस से रमेश और भी ज्यादा शराब पीने लगा. राजनीति में सक्रिय होने के कारण मंजू देर रात तक घर से बाहर रहती थी. ऐसे में जब कभी रमेश शराब पी कर पत्नी के घर वापस आने से पहले लौट आता तो पत्नी के देर से वापस आने पर उस पर उलटेसीधे आरोप लगाकर उस से झगड़ना शुरू कर देता.

प्रेमिका से शादी के लिए मां बाप से खूनी दुश्मनी

अब मंजू को अपना राजनैतिक भविष्य स्वर्णिम दिखाई देने लगा था. उसे दूर तक जाने का रास्ता साफ दिख रहा था, इसलिए उस का वापस लौटना भी संभव नहीं था. पति के विरोध को दरकिनार कर वह राजनीति में और ज्यादा सक्रिय हो गई. हाल ही में संपन्न हुए प्रदेश के विधानसभा चुनावों में मंजू ने पार्टी के हित में दिनरात मेहनत की.
जाहिर है राजनीति में शामिल कई महिलाओं के अच्छेबुरे किस्से अकसर चर्चा में बने रहते हैं, इसलिए रमेश भी पत्नी पर इसी तरह के आरोप लगाने लगा. वह उस के राजनीति में सक्रिय रहने पर ऐतराज करता था.
इस से दोनों के बीच विवाद इतना बढ़ गया कि वे एक ही छत के नीचे अलगअलग कमरों में रहने लगे. इस से दिन में तो शांति रहती लेकिन रात को रमेश के शराब पी कर आने पर सारी शांति कलह में बदल जाती थी. दोनों में रोजरोज रात में अकसर विवाद होने लगा.

11 दूल्हों को लूटने वाली दुल्हन

31 दिसंबर, 2018 को रात 11 बजे के करीब रमेश ने शराब के नशे में आ कर घर का दरवाजा खटखटाया तो मंजू ने काफी देर बाद दरवाजा खोला. इस से रमेश को शक हो गया कि मंजू तो यह सोच कर बैठी होगी कि आज साल का आखिरी जश्न होने के कारण मैं रात भर घर वापस नहीं लौटूंगा, इसलिए उस ने किसी और के साथ पार्टी करने की योजना बना ली होगी. मंजू के देर से दरवाजा खोलने पर रमेश को शक हो गया कि मंजू के साथ घर में कोई और है.
दरवाजा खोलते ही वह पत्नी पर उलटेसीधे आरोप लगा कर मारपीट करने लगा. इस से विवाद इतना बढ़ गया कि उस का शोर पड़ोसियों के कानों तक पहुंच गया. उसी समय पड़ोसी श्याम वर्मा ने पुलिस को फोन कर दिया. पुलिस ने आ कर दोनों का मामला सुलझा दिया और वापस लौट गई.
लेकिन पुलिस के जाने के बाद एक बार फिर दोनों में विवाद गहरा गया और इस दौरान मंजू ने मोनू की जेब में हमेशा रखा रहने वाला खटके वाला चाकू निकाल कर उस के पेट में घोंप दिया. चाकू काफी गहरा जा घुसा जिस से वह गंभीर रूप से घायल हो गया. लेकिन शराब के नशे में उसे घाव की गंभीरता का अहसास नहीं हुआ इसलिए वह अपने कमरे में जा कर लेट गया.

अल्लाह के नाम पर बेटी की कुर्बानी

कुछ देर बाद रमेश के पेट में दर्द बढ़ा तो पड़ोस में रहने वाले अपने परिचित के साथ वह अस्पताल गया, जहां से सुबह उसे इंदौर भेज दिया गया. लेकिन वहां भी इलाज के दौरान 6 जनवरी को उस की मौत हो गई.
थानाप्रभारी के.एल. दांगी ने मंजू से पूछताछ के बाद हत्या में प्रयुक्त चाकू भी बरामद कर लिया. इस के बाद उसे गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया. द्य
—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

गुड़गांव का क्लब डांसर मर्डर केस

इसे कर हाथ तापते हुए सर्दी से बचाव का जतन कर रहे थे.
खुशबू चौक के पास ही सड़क किनारे एक कार खड़ी थी. यह कार कुछ देर पहले ही वहां आई थी. कार में 2 युवक और 2 युवतियां सवार थीं. ये लोग कुछ देर तक कार में बैठे हुए आपस में बात करते रहे.
कुछ देर बाद कार से एक युवक बाहर निकला. उस ने इशारे से कार में सवार एक युवती को बाहर बुलाया. परेशान सी 24-25 साल की वह युवती कार से बाहर निकल आई तो युवक ने उस से कहा, ‘‘प्रियंका, अदालत में बयान बदल कर अपना केस वापस ले लो.’’

‘‘देखो संदीप, तुम ने मेरे साथ धोखा किया है. मैं तुम्हें अब माफ नहीं कर सकती.’’ प्रियंका बोली. उस के सामने खड़ा युवक संदीप था.
प्रियंका की बात सुन कर संदीप को गुस्सा आ गया. वह प्रियंका का हाथ पकड़ कर झिंझोड़ते हुए बोला, ‘‘प्रियंका, तुम समझती क्यों नहीं हो. तुम्हारे केस की वजह से मेरी जिंदगी खराब हो रही है. मेरा परिवार टूट रहा है.’’
संदीप के तेवर देख कर प्रियंका भी गुस्से में बोली, ‘‘तुम ने यह बात मेरी जिंदगी बरबाद करने से पहले क्यों नहीं सोची थी.’’

नोटिस का जवाब खून से

फिर आंखें तरेर कर प्रियंका ने कहा, ‘‘संदीप, तुम लगातार मेरा शरीर नोचते रहे. तुम ने मुझे कुंवारी मां बना दिया, जिस से मैं आज समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रही. अब तुम मुझ पर केस वापस लेने का दबाव बना रहे हो. तुम भी कान खोल कर अच्छी तरह सुन लो, मैं केस हरगिज वापस नहीं लूंगी और तुम्हें तुम्हारे कारनामों की सजा दिलवा कर रहूंगी.’’

प्रियंका की बातें सुन कर संदीप का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया. उस ने प्रियंका से कहा, ‘‘आखिरी बार सोच लो, यह तुम्हारे लिए ठीक नहीं होगा.’’
‘‘अब ठीक होने को बचा ही क्या है. तुम तो पहले ही मेरी जिंदगी खराब कर चुके हो.’’ तमतमाई प्रियंका ने कहा, ‘‘तुम और क्या कर सकते हो, ज्यादा से ज्यादा मेरी जान ले लोगे. इस से ज्यादा तुम कर भी नहीं सकते.’’
‘‘हां, अगर तुम नहीं मानी तो मैं तुम्हारी जान ले लूंगा.’’ कहते हुए संदीप ने अपनी जेब से पिस्टल निकाली और प्रियंका के ऊपर कई गोलियां दाग दीं. गोलियां प्रियंका की गरदन, पेट और हाथों में लगीं.
गोलियों की आवाज सुन कर कार में बैठी युवती और दूसरा युवक बाहर निकल आए. युवती ने प्रियंका को संभाला, उस के बदन से खून बह रहा था. वह आखिरी सांसें गिन रही थी.
आसपास अलाव ताप रहे और चाय की चुस्कियां ले रहे लोग गोलियों की आवाज सुन कर कार के पास आने लगे, तो संदीप ने प्रियंका के हाथ से उस का मोबाइल छीना और दूसरे युवक के साथ कार ले कर वहां से भाग गया.

बेटी ने दी बाप के कत्ल की सुपारी

कार से उतरी युवती ने उसी समय प्रियंका की बहन को फोन कर घटना की जानकारी दी. इस के बाद उस ने पुलिस कंट्रोल रूम को सूचना दे दी. कुछ देर बाद ही पुलिस और क्राइम ब्रांच की टीम मौके पर पहुंच गई. पुलिस ने मौके पर मौजूद युवती से पूछताछ की.
युवती ने बताया कि वह प्रियंका की सहेली है. पुलिस सड़क पर तड़प रही प्रियंका को अस्पताल ले गई. अस्पताल में डाक्टरों ने प्रियंका को मृत घोषित कर दिया. उसे 5 गोलियां लगी थीं. पुलिस ने पोस्टमार्टम काररवाई के बाद प्रियंका का शव उस के परिजनों को सौंप दिया.
पुलिस ने प्रियंका की सहेली के बयान लिए. इस के बाद गुड़गांव के डीएलएफ फेज-1 पुलिस थाने में प्रियंका की हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया गया.

प्रियंका और संदीप कौन थे. संदीप ने प्रियंका को इस तरह सरेआम चौराहे पर गोलियों से क्यों भून दिया. पुलिस ने इस की जांचपड़ताल शुरू की. प्रियंका के परिवारजनों और सहेली द्वारा पुलिस को दिए गए बयानों के आधार पर जो कहानी उभर कर सामने आई, वह इस प्रकार है—
हरियाणा के करनाल शहर की रहने वाली प्रियंका कई साल पहले परिवार के साथ गुड़गांव आ गई थी. उस के पिता की सन 2004 में मौत हो गई थी. प्रियंका की करनाल में ही शादी हो गई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद ही उस का तलाक हो गया था. तलाक होने पर प्रियंका अपनी मां के पास आ गई.
घर में कमाने वाला कोई नहीं था. 8 बहनों और एक भाई के परिवार में प्रियंका पांचवें नंबर की थी. परिवार का पेट पालने के लिए प्रियंका ने गुड़गांव में नौकरी तलाशनी शुरू की. वह जहां भी नौकरी मांगने जाती, लोग उस से डिग्री मांगते. डिग्री उस के पास थी नहीं.
प्रियंका के पास भले ही पढ़ाई की कोई डिग्री नहीं थी, लेकिन वह नाकनक्श से खूबसूरत थी. इस के साथ वह डांस में भी पारंगत थी. फिल्मी गानों पर जब वह अपनी कमर लचका कर ठुमके लगाती तो देखने वालों के दिलों में छुरियां सी चलने लगतीं. प्रियंका की खूबसूरती लोगों के दिलोदिमाग पर छा जाती थी.
काफी प्रयासों के बाद भी जब उसे कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली, तो प्रियंका ने नाचगाने से ही रोजीरोटी कमाने की सोची. गुड़गांव में कई सारे पब और डांस क्लब हैं. इन क्लबों में रात को झिलमिलाती रंगीन रोशनी में डांस की महफिलें सजती हैं. प्रियंका ने कोशिश की तो उसे एक क्लब में डांसर की नौकरी मिल गई.

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नौकरी मिल गई तो प्रियंका के परिवार को भी घर खर्च के लिए एक सहारा मिल गया. प्रियंका अपनी नौकरी से संतुष्ट थी. वह रोजाना शाम को तय समय पर क्लब जाती. मेकअप करने के बाद डांस फ्लोर पर जाने के लिए रंगबिरंगी ड्रैस पहन कर तैयार होती. फिर महफिल सजने पर फिल्मी गानों की धुन पर फ्लोर पर डांस करती.
डांस क्लब और पब में सजने वाली महफिलें रात गहराने के साथ जवान होती जाती हैं. इन महफिलों में आने वाले ज्यादातर ग्राहक शराब के नशे में डांसर की अदाओं और मादकता को निहारते हैं और छूनाछेड़ना भी चाहते हैं.
प्रियंका की मादक अदाएं ग्राहकों को लुभाती थीं. उस की अदाओं पर कई रसिया नोट भी लुटाते थे. प्रियंका के ठुमके लगाने की अदा कई मनचलों और रसिक लोगों को इतनी पसंद आती थी कि वे उस के दीदार करने के लिए रोजाना क्लब में आते थे.
क्लब में आने वाले कई युवा महिला डांसरों को ललचाई नजरों से देखते थे. वे अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए ऐसी डांसरों को नोटों की झलक दिखा कर आमंत्रण देते थे. लेकिन प्रियंका ऐसी लड़की नहीं थी. वह ऐसे मनचलों को मुसकरा कर पीछे धकेल देती थी. करीब आधी रात बाद महफिल सिमटती तो प्रियंका क्लब से अपने घर जाती थी.

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प्रियंका जवान थी. क्लब में उस के डांस की मादक अदाओं पर सैकड़ों युवा मरते थे. इन में कई ऐसे नौजवान भी थे, जो उस से प्रेम निवेदन करते थे. हालांकि प्रियंका ने कभी ऐसे लोगों को तवज्जो नहीं दी.
आमतौर पर नाचगाने के पेशे को सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता. फिर प्रियंका तो क्लब में डांसर थी. अपनी मादक अदाएं दिखा कर डांस करना उस की मजबूरी थी. प्रियंका के इस पेशे से उस के परिवार वाले खुश नहीं थे. लेकिन वह क्या करती. परिवार का पेट तो पालना ही था. उस के पास कोई दूसरा हुनर होता तो शायद उसे क्लब में डांसर की नौकरी नहीं करनी पड़ती.
उसी डांस क्लब में संदीप भी काम करता था. वह वहां बाउंसर था. उस का काम ऐसे ग्राहकों को काबू करना था, जो क्लब में नशे की हालत में गलत हरकतें करते या डांसरों को परेशान करते थे. ऐसे ग्राहकों को संदीप क्लब से बाहर का रास्ता दिखा देता था.

एकदो बार ऐसा हुआ भी, जब किसी ग्राहक ने फ्लोर पर डांस कर रही प्रियंका पर अश्लील फब्तियां कस दीं या उस से छेड़छाड़ करने की कोशिश की तब संदीप ने प्रियंका को बचाया था. 1-2 बार मनचलों ने प्रियंका को आधी रात के समय क्लब से घर जाते वक्त रोकने की कोशिश की थी, तब भी संदीप ने उसे सुरक्षा दी थी.
ऐसे में प्रियंका उसे अपना हमदर्द मानने लगी. यह हमदर्दी कब प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला. संदीप मजबूत कदकाठी का हैंडसम जवान था. वह भी प्रियंका की डांस करने की अदाओं पर फिदा था.
संदीप फरीदाबाद के तिगांव का रहने वाला था और शादीशुदा था. संदीप ने हमदर्द बन कर प्रियंका से नजदीकियां बढ़ानी शुरू कर दीं. प्रियंका को संदीप से सहारा और सुरक्षा मिल रही थी. इस का कारण था कि डांसर के पेशे के कारण प्रियंका को अपने परिवार का पूरा प्यार नहीं मिल रहा था.
उसे संदीप की आंखों में प्यार का ज्वार नजर आया तो वह भी नजदीक आती चली गई. संदीप ने खुद के शादीशुदा होने की बात प्रियंका को नहीं बताई थी. प्रियंका उस पर भरोसा करने लगी. प्यार बढ़ने लगा तो संदीप ने प्रियंका को शादी करने का आश्वासन दिया.

बेवफाई रास न आई

प्रियंका को भी एक सहारे की जरूरत थी. पेशे के हिसाब से भी और शारीरिक जरूरत के हिसाब से भी. इसी प्यार और विश्वास के भरोसे प्रियंका कब उस के आगोश में समा गई, उसे याद नहीं. लिवइन पार्टनरशिप में रहते हुए संदीप समयसमय पर प्रियंका से संबंध बनाता रहा. इस का नतीजा यह हुआ कि प्रियंका गर्भवती हो गई.
गर्भ ठहरने पर प्रियंका ने संदीप पर जल्द शादी करने का दबाव डाला, लेकिन संदीप बारबार उसे टालता रहा. प्रियंका जब भी उस से शादी की बात करती, तो वह जल्दी ही अपने परिवार वालों को मनाने की बात कहता.
संदीप की बारबार की टालमटोल से प्रियंका को शक होने लगा. उसे जब पता चला कि वह शादीशुदा है तो उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. यह पता चलने पर प्रियंका को बड़ा झटका लगा.
सच सामने आने पर प्रियंका ने संदीप से बात की. संदीप फिर उसे झांसा देता रहा. उस ने कहा कि वह पत्नी को तलाक दे कर जल्दी ही उस से शादी कर लेगा. कुछ दिन बीत गए. प्रियंका दुलहन बनने का इंतजार करती रही. इस बीच संदीप उस का शारीरिक शोषण करता रहा.

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बारबार वादा करने के बाद भी संदीप ने जब प्रियंका से शादी करने की कोई पहल नहीं की तो वह समझ गई कि संदीप केवल उस के बदन से खेलना चाहता है. उस से जब पूरी तरह भरोसा टूट गया तो प्रियंका ने सन 2017 में गुड़गांव के सेक्टर-50 स्थित महिला थाने में संदीप के खिलाफ दुष्कर्म का केस दर्ज करा दिया.
जांचपड़ताल के बाद पुलिस ने संदीप को गिरफ्तार कर लिया. कई महीने जेल में रहने के बाद जुलाई 2018 में वह जमानत पर जेल से बाहर आ गया. इस बीच पुलिस ने संदीप के खिलाफ अदालत में चालान पेश कर दिया था.
वहीं इस दौरान प्रियंका ने एक बेटे को जन्म दिया. यह बच्चा अब करीब 9 महीने का है. प्रियंका ने बेटे की देखभाल के लिए एक नौकरानी लगा रखी थी.

संदीप ने जेल से बाहर आने के बाद प्रियंका से दोबारा दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया. दोनों की मुलाकात हुई. वह प्रियंका को क्लब की डांसर से बाहर निकाल कर अपने दिल की रानी बनाने और बच्चे को अपना कर पिता का नाम देने की बात कहने लगा. प्रियंका की गलती यह रही कि वह फिर से संदीप की चिकनीचुपड़ी बातों में आ गई.
इस का नतीजा यह हुआ कि संदीप उस के घर भी आने लगा. वह प्रियंका की मां और बहनों से भी मिलता रहता था. एकदो बार संदीप ने प्रियंका के घर वालों को भी यह विश्वास दिलाया कि उस से गलती हो गई थी, लेकिन अब वह जल्दी ही प्रियंका से शादी कर लेगा.
संदीप की बेवफाई से टूटने के बाद प्रियंका अकेली रह गई थी. संदीप के लगातार आनेजाने और मुलाकातें करने से उन का इश्क दोबारा परवान चढ़ने लगा. वह पुरानी बातों को भूल कर फिर से संदीप की बांहों में झूल गई. दोनों के बीच दोबारा आंतरिक संबंध कायम हो गए. दोनों फिर से साथ रहने लगे.
प्रियंका इस बात से अनजान थी कि संदीप के मन में क्या है. वह तो उसे अपना प्रेमी और जीवनसाथी मानने लगी थी, इसीलिए वह अपना सब कुछ उसे सौंपती रही.

मौत के रहस्य में लिपट गई अर्पिता तिवारी

दूसरी ओर संदीप ने चाल चली. वह प्रियंका से दोबारा दोस्ती का हाथ आगे बढ़ा कर उस का उपयोग अदालत में करना चाहता था. चूंकि प्रियंका ने ही संदीप के खिलाफ दुष्कर्म का केस
पुलिस में दर्ज कराया था, इसलिए अदालत में उस के बयान ही सब से महत्त्वपूर्ण थे. संदीप प्रियंका से बयान बदलवा कर दुष्कर्म के केस से बरी होना चाहता था, इसीलिए वह प्रियंका और उस के परिवार वालों से बयान बदलने के लिए बारबार मिलता रहता था.

17 जनवरी की शाम को प्रियंका अपनी डांसर सहेली के साथ दिल्ली के हौजखास स्थित एक क्लब में गई थी. इस दौरान संदीप ने उसे फोन किया. संदीप ने उस से मिलने की इच्छा जताते हुए गुड़गांव आने को कहा. प्रियंका को फोन करने के बाद संदीप गुड़गांव में उस के घर गया. वहां वह प्रियंका की मां से मिला.
संदीप ने प्रियंका की मां को बताया कि 19 जनवरी को अदालत में दुष्कर्म मामले की पेशी है. उस ने प्रियंका की मां से कहा कि वह प्रियंका को अदालत में बयान बदलने के लिए समझाएं. प्रियंका की मां ने संदीप से कहा कि वह इस बारे में प्रियंका से बात करेगी और उसे समझा देगी. वैसे प्रियंका की मां भी संदीप के पक्ष में गवाही देने को राजी हो गई थी.

इधर संदीप के कहने पर प्रियंका अपनी सहेली के साथ दिल्ली से टैक्सी ले कर गुड़गांव आ गई. प्रियंका सहेली के साथ नाथूपुर स्थित अपने किराए के घर पहुंची तो वहां उसे संदीप मिल गया. संदीप के साथ उस का एक दोस्त भी था. उस दोस्त को प्रियंका नहीं जानती थी. संदीप और उस का दोस्त कार से वहां आए थे. उस समय तक आधी रात हो गई थी. संदीप कुछ देर प्रियंका से इधरउधर की बातें करता रहा.
रात करीब 2 बजे संदीप ने प्रियंका से कहा कि चलो, आसपास घूम कर आते हैं. प्रियंका को रात 2 बजे घूमने जाना कोई अटपटा नहीं लगा. क्योंकि वह रात की जिंदगी से खूब अच्छी तरह परिचित थी. वह खुद भी क्लब से आधी रात बाद ही घर आती थी. वह संदीप के साथ आधी रात बाद से तड़के तक कई बार घूम चुकी थी. इसलिए उस ने संदीप के घूमने चलने की बात कहने पर न तो कोई अचंभा किया और न ही कोई नाराजगी जताई.

प्रियंका के राजी होने पर संदीप ने उस की सहेली को भी साथ चलने को कहा. सहेली को साथ जाने से कोई ऐतराज नहीं था, इसलिए संदीप और उस के दोस्त के साथ प्रियंका और उस की सहेली कार से चल दिए.
वे चारों लोग रात को कार से गुड़गांव की सड़कों पर इधरउधर घूमते रहे. इस दौरान संदीप प्रियंका से दुष्कर्म केस के बारे में बात करता रहा. वह प्रियंका से अगले दिन अदालत की पेशी में बयान बदलने पर जोर दे रहा था. प्रियंका उस की बात सुन रही थी, लेकिन साफतौर पर उस ने उसे कोई जवाब नहीं दिया था.
इस बीच संदीप एक जगह रास्ते में रुका, वहां चारों ने मोमोज खाए. इस के बाद वे कार में सवार हो कर फिर घूमने लगे. कार में संदीप और प्रियंका के बीच अदालत में बयान देने को ले कर ही बातचीत चलती रही. बीचबीच में संदीप के दोस्त ने प्रियंका को समझा कर दबाव बनाने का प्रयास किया, लेकिन प्रियंका कोई फैसला नहीं ले पा रही थी. वह संदीप के लगातार दबाव बनाने से परेशान सी हो गई.

प्रियंका को परेशान देख कर संदीप ने एक बार कार फिर रोकी. इस बार चारों लोगों ने स्नैक्स खाए. कुछ देर बाद वे वहां से कार ले कर चल दिए और फिर सड़कों पर घूमने लगे. रास्ते में संदीप ने जब फिर वही बात दोहराई तो प्रियंका से उस की कहासुनी हो गई.
इस के कुछ देर बाद सुबह करीब 6-सवा 6 बजे वे लोग कार से गुड़गांव में फरीदाबाद रोड पर स्थित खुशबू चौक पर आ गए. खुशबू चौक पर संदीप ने दुष्कर्म केस की बात करते हुए प्रियंका से गालीगलौज की और उसे गोलियां मार दीं.
मुकदमा दर्ज होने के बाद पुलिस और क्राइम ब्रांच की टीमों ने संदीप की तलाश में तिगांव गांव स्थित उस के घर और कई संभावित जगहों पर छापेमारी की, लेकिन उस का पता नहीं चला.
प्रियंका की हत्या के करीब 16-17 घंटे बाद उस की बहन को वाट्सऐप काल कर धमकाया गया. प्रियंका की बहन का आरोप है कि संदीप ने अपने दोस्त के जरिए उसे धमका कर हत्या के मामले में मुंह नहीं खोलने की नसीहत दी. प्रियंका के परिवार ने पुलिस को इस की जानकारी दी. इस के बाद भी धमकी भरे मैसेज भेजे गए.
कथा लिखे जाने तक संदीप पुलिस की पकड़ से बाहर था. पुलिस उस की और उस के दोस्त की तलाश में जुटी थी.

तांत्रिकों के जाल में दिल्ली

बहरहाल, प्रियंका की जान एक डांसर की तरह घूमते हुए ही चली गई. वह डांस कर के लोगों का मन बहलाती थी और संदीप उस के शरीर से खेल कर अपना मन बहलाता रहा. दुष्कर्म के केस से बरी होने के लिए संदीप ने अपने हाथ प्रियंका के खून से रंग लिए.
संदीप के अपराधों की सजा उसे कानून देगा, लेकिन विश्वास का कत्ल होने से 9 महीने के मासूम की जिंदगी भी संकट में पड़ गई है. इस मासूम को न तो मां का आंचल मिला और न ही बाप का दुलार. इस मासूम को तो बाप का नाम भी नहीं मिला. द्य
—कथा पुलिस सूत्रों और जनचर्चा पर आधारित. कथा में मृतका का नाम बदला हुआ है.

सुवर्णा गाड़ी में

उन की नन्ही सी बेटी सुवर्णा की मीठीमीठी बातों ने सुमन का मन हर लिया था.लेकिन सुवर्णा के साथ सुमन का स्नेह का बंधन अटूट रह पाया? पढि़ए मालविका देखणे की कहानी.

पूर्व कथा

टूर से घर वापस जाते हुए सुमन की ट्रेन में सरयूप्रमोद से जानपहचान होती है.

उन की गोद ली 5 साल की बेटी सुवर्णा सुमन के मन में रचबस गई. सुमन ने सरयू के मायके का फोन नंबर लिया और उसे अपने घर सपरिवार आने का निमंत्रण भी दिया. घर आने के बाद सुमन अपने पति विकास और बेटे सुदीप से सुवर्णा के विषय में ढेर सी बातें करती है. थोड़े दिन बाद सरयूप्रमोद सुवर्णा के साथ सुमन के घर आते हैं. सरयू सुमन को बताती है कि नानानानी की सुवर्णा लाडली बन गई है लेकिन दादादादी उसे देख खुश नहीं हुए. पराए खून को वह अपना नहीं पाए.

अकाल्पनिक

सुमन उसे धीरज से काम लेने की सलाह देती है. दोनों परिवार आपस में अच्छी तरह हिलमिल जाते हैं. सुवर्णा के कहने पर सरयू एक गीत गाती है जिसे सुन सब विभोर हो जाते हैं. अब आगे… अंतिम भाग गतांक से आगे… गाना सुन कर सुमन उस से बोली, ‘‘सरयू, तुम्हारी आवाज बहुत मीठी है.’’ ‘‘दीदी, सरयू पहले रेडियो के लिए गाती थी,’’ प्रमोद बोले, ‘‘लेकिन बीच में इस की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए गाना बंद कर दिया. अब सुवर्णा के आने के बाद इस ने फिर रियाज करना शुरू किया है.’’ ‘‘फिर सरयू, तुम को अपना रियाज जारी रखना चाहिए. क्या तुम अगले साल यहां रेडियो स्टेशन पर अपना कार्यक्रम पेश करना चाहोगी? इस कार्यक्रम में ‘नवोदित गायक’ शीर्षक से मासिक कार्यक्रम प्रसारित किया जाता है, जिस में नवोदित गायक कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शित करने का अवसर दिया जाता है.

इसी बहाने तुम फिर नागपुर आ सकोगी,’’ सुमन बोली. ‘‘अब तो आनाजाना जारी रहेगा, दीदी. अगर तुम लोग हमें भूलना चाहो तब भी हम तुम्हें भूलने नहीं देंगे,’’ सरयू और प्रमोद हंसते हुए बोले. ‘‘चेन्नई पहुंचने पर खत लिखना,’’ सुमन ने याद दिलाई. ‘‘दीदी, हम यहां से पहले पुणे जाएंगे. फिर वहां से टैक्सी ले कर चेन्नई जाएंगे. उस के बाद जरूर खत लिखेंगे. हमारे साथ अब मेरे मातापिता भी जाने वाले हैं. वे भी करीब 6 माह तक हमारे साथ रहेंगे,’’ सरयू ने अपना पूरा कार्यक्रम बता दिया.

‘‘अच्छा, बीचबीच में खत लिखते रहना. गाड़ी की पहचान समझ कर भूल मत जाना,’’ सुमन ने उसे प्यार से ताकीद की. ‘‘और मौसी, तुम भी मुझे भूलना नहीं.’’ सुवर्णा की यह हाजिरजवाबी सब को भा गई. सुमन ने सुवर्णा की पप्पी ली और फिर छाती से लगा कर बोलीं, ‘‘नहीं बिटिया रानी, मैं तुम्हें कैसे भूल सकती हूं.’’ इस बात को बीते पूरे 4 महीने हो चुके थे. सरयूप्रमोद का खत तो दूर कोई फोन भी नहीं आया था. सरयू के मातापिता भी उन के साथ 6 माह रहने वाले थे. इसलिए उन के घर फोन करने का कोई लाभ नहीं था. फिर भी सुमन ने दोचार बार फोन करने की कोशिश की.

दस्विदानिया

लेकिन किसी ने भी फोन नहीं उठाया. सरयू की ससुराल का फोन नंबर उन के पास नहीं था तो सुमन क्या करती, लेकिन उस की बातचीत में सुवर्णा का जिक्र जरूर आता. आखिर विकास और सुदीप बोले, ‘‘लगता है गाड़ी में मिली तुम्हारी सहेली आखिर तुम्हें भूल ही गई.’’ सुमन को भी अब ऐसा आभास होने लगा था. कुछ दिनों बाद सरयू के खत या फोन आने की प्रतीक्षा करना छोड़ कर सुमन अब रोजाना के अपने कामों में व्यस्त हो गई. उस दिन लेटरबाक्स में एक खत देख कर वह खुश हो गई.

शायद सरयू का खत होगा, लेकिन खत देखा तो वह सुभी का था. सुभी यानी सुभाषिनी, उस की बचपन की सहेली जिस ने उसे अपनी इकलौती बेटी की शादी में शामिल होने का बुलावा भेजा था. खत में लिखा था : ‘मैं खुद आ कर तुम्हें आमंत्रित करना चाहती थी लेकिन लगता कि यह संभव नहीं हो पाएगा. 8 जनवरी को शादी तय हो चुकी है. तुम्हें पूरे परिवार के साथ यहां आना है. और यहां तुम्हें 4-6 रोज रहना है. यह सोचसमझ कर तुम्हें आना होगा. रिजर्वेशन की टिकटें मैं यहीं से भेज रही हूं, इसलिए समय पर छुट्टी ले कर आना है, बाद में तुम्हारा कोई बहाना नहीं सुनूंगी.’ खत पढ़तेपढ़ते सुमन को ही हंसी आ गई.

देहमुक्ति

विकास ने खत पढ़ा तो कहने लगे, ‘‘यह आमंत्रण है या धमकी. नाम सुभाषिनी और खत में धमकियों की बरसात.’’ शादी में शरीक होना जरूरी था. इसलिए सुमन और विकास ने छुट्टी के लिए अर्जियां दे दीं और उन्हें छुट्टी मिल भी गई. वह समय पर पुणे पहुंच गई और शादी ठीक से हो गई. शादी के 2 दिन बाद सुभी के पास काफी समय था. सुमन से बातचीत करना और पुणे के दर्शनीय स्थलों का पर्यटन आदि उसे कराना था. सुमन के अनुरोध पर सब लोग दर्शनीय स्थल देखने गए तो सुमन को सरयू व सुवर्णा की फिर से याद आ गई, लेकिन वह किसी से कुछ नहीं बोली. उस दिन शाम को सुभी बोली, ‘‘सुमन, हमारी संस्था हर साल मकर संक्रांति के बाद एक दिन अवश्य बच्चों को तिलगुड़ खिलाने का आयोजन करती है. चूंकि इस बार हम शादी के कामों में व्यस्त रहे अत: बच्चों को कुछ खिला- पिला नहीं सके. वह अधूरा पड़ा कार्यक्रम हम कल पूरा करने वाले हैं. तुम घर में बैठीबैठी बोर होगी अत: मेरे साथ चल पड़ो.’’ ‘‘चलो, ऐसे काम में मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी,’’ अगले दिन सुमन समय पर तैयार हो गई. जातेजाते एक दुकान से आर्डर किए हुए तिलगुड़ के डब्बे गाड़ी में रखवा दिए और आगे बढ़ गई. ‘‘आयोजन कहां है?’’ सुमन ने पूछा.

हम हैं राही प्यार के

‘‘एक अनाथाश्रम में? अनाथ बच्चों को समाज के मिठास की कल्पना होनी चाहिए, इसलिए वरना उन के हिस्से में समाज की नफरत ही आती है.’’ ‘‘बहुत अच्छी बात है.’’ ‘‘हम यह आयोजन पिछले 4-5 साल से लगातार कर रहे हैं. खासतौर पर त्योहारों पर यानी दीवाली, गुढीपाडवा, संक्रांति आदि के मौके पर हम अनाथाश्रम में जाते हैं. इस से उन अनाथ बच्चों का दिल बदल जाता है.’’ वे अनाथाश्रम पहुंच चुकी थीं. सुमन और सुभाषिनी नीचे उतरीं. वहां की महिला कर्मचारी आगे आईं और सुभाषिनी ने अपने साथ लाए डब्बे उन्हें सौंप दिए. आश्रम की महिलाएं डब्बे उठा कर भीतर ले गईं. सुभी के महिला मंडल की बाकी महिलाएं भी वहां आई हुई थीं. वे सब कार्यक्रम के आयोजन को सफल बनाने में जुट गईं. सुमन एक कुरसी पर बैठ कर सब तरफ देखने लगी. आश्रम की महिला कर्मचारियों ने बच्चों को कतार में बिठाना शरू कर दिया. अलगअलग उम्र के मासूम बच्चे.

बिलकुल सामने 3 साल की उम्र के बच्चे और उन के पीछे उन से बड़ी उम्र के बच्चे कतार में बैठे थे. थोड़ी ही देर में कार्यक्रम शुरू हो गया. संस्था की महिलाएं एक के बाद एक आ कर अपनीअपनी बात कहती रहीं. उधर सुमन ने अपनी नजर सभी बच्चों पर डाली और मूक बच्ची पर उस की नजर मानो जम सी गई. अबतक तो यह बच्ची वहां नहीं थी फिर वहां कब आई. उस का चेहरा जानापहचाना क्यों लगता है. बच्ची के हाथ में एक गुडि़या थी और बच्ची भी लगातार उसी की ओर देख रही थी. सुमन ने धीमी आवाज में पड़ोस में बैठी आश्रम की एक महिला से पूछा, ‘‘वह आखिर में बैठी बच्ची कौन है?’’ उस महिला ने उस बच्ची को देखा और बोली, ‘‘वह है न, अभी यहां नईनई आई है, 3-4 महीने पहले.

वह किसी से बात नहीं करती. हमें लगा कि वह गूंगी है, लेकिन अब वह ‘क्या चाहिए, क्या नहीं’ इतनी ही बात करती है. वह दूसरे बच्चों से अलगथलग रहती है और कुछ बोलती भी नहीं.’’ ‘‘इतनी बड़ी बच्ची को यहां कौन छोड़ गया?’’ ‘‘यह भी एक कहानी है. उस के मातापिता एक सड़क दुर्घटना में चल बसे. अब वह बिलकुल अकेली है. आप इतनी दिलचस्पी से पूछ रही हैं इस बच्ची के बारे में, क्या बात है?’’ ‘‘हां, मेरा परिचित एक परिवार था, लेकिन वह चेन्नई का रहने वाला था,’’ सुमन ने बताया. ‘‘इस बच्ची की एक मजे की बात बताऊं. वह अभी बाहर आने के लिए तैयार न थी, लेकिन उस से कहा गया कि नागपुर की रहने वाली एक चाची आई हुई हैं तो बाहर आ कर पीछे बैठ गई. मैं भी देख रही हूं कि बच्ची आप की ओर टकटकी लगाए देख रही है.’’ ‘‘क्या उस बच्ची का नाम सुवर्णा है?’’ ‘‘हां.’’ सुमन यह जान कर भौचक्की रह गई. ‘‘इस के मातापिता तो दुर्घटना में चल बसे पर इस के नानानानी हैं.’’

तभी कार्यक्रम समाप्त हो गया और तिलगुड़ बांटने का काम शुरू हो गया. सुमन ने तिल की एक डली उठाई और सीधे सुवर्णा की ओर चल दी. सुवर्णा के पास पहुंचते ही उस ने आवाज दी, ‘‘सुवर्णा, पहचाना अपनी मौसी को. क्या भूल गई?’’ सुवर्णा ने अब सुमन को पहचान लिया था और वह दौड़ कर ‘सुमन मौसी’ कह कर उस की कमर से लिपट गई. सुमन ने उस मासूम को गले से लगा लिया और सुवर्णा जोरों से रोने लगी. यह देख कर आश्रम की संचालिका प्रेरणा ने सुमन को दफ्तर में आने का अनुरोध किया. सुवर्णा को गोद में उठा कर सुमन आगे बढ़ी तो सुभी भी उस के पीछे चलने लगी.

मूव औन माई फुट

प्रेरणा दीदी ने सब को बैठने के लिए कहा. इधरउधर की बातें न करते हुए वह सीधे मुद्दे की बात पर आ गई, ‘‘सुमन, आप सुवर्णा को जानती हैं, ऐसा मालूम होता है, और इस से भी बड़ी बात यह है कि आप को देख कर वह खुशी से खिल उठी है.’’ सुवर्णा से मुलाकात कैसे हुई और जानपहचान कैसे बढ़ी, यह बातें संक्षेप में बताने के बाद सुमन बोली, ‘‘इस के मातापिता दुर्घटना में चल बसे.

यह बात आप के यहां काम करने वाली एक महिला ने बताई, क्या यह सच है?’’ ‘‘हां, सिर्फ मातापिता ही नहीं, इस के नानानानी भी.’’ यह सुन कर सुमन को भारी आघात पहुंचा है. यह उस के चेहरे से साफ जाहिर हो रहा था. सुमन सरयू का खत न पा कर उस पर भूल जाने का आरोप लगा रही थी, इस पर उसे बहुत अफसोस हो रहा था. अब सुमन का ध्यान प्रेरणा की बातों पर गया. ‘‘पुणे से चेन्नई जाते समय एक टैक्सी दुर्घटनाग्रस्त हो गई. उस में सिर्फ यह बच्ची बच पाई. कुछ लोगों ने दुर्घटनाग्रस्त लोगों को अस्पताल पहुंचाया. तब तक रक्तस्राव ज्यादा होने से सब लोग मारे गए. उस में टैक्सी ड्राइवर भी शामिल था. डाक्टर की कोशिश से यह मासूम बच गई. उस दुर्घटना से बेचारी अनाथ हो गई. सुवर्णा को मानसिक रूप से काफी आघात लगा था, इसलिए वह हमेशा खामोश रहती थी, मानो मौन धारण कर लिया हो. अस्पताल से डिस्चार्ज होने पर उसे कहां रखा जाए, यह सवाल खड़ा हो गया था. पुलिस ने बड़े प्रयास के बाद इस के दादादादी का पता लगाया, लेकिन उन्होेंने इसे अपनाने से साफ इनकार कर दिया.

भोर की एक नई किरण

इसलिए पुलिस इसे सीधे यहां ले कर आई.’’ पे्ररणा के मुंह से यह सुन कर सुमन का दिल सन्न रह गया है, ‘‘और…’’ ‘‘और क्या?’’ ‘‘सुवर्णा गोद ली हुई थी अत: अब मांबाप के जाने पर इस दुनिया में इस का कोई नहीं, यह सोच कर इस को भारी सदमा पहुंचा है. ‘‘इस बच्ची को कैसे रिझाया जाए, उसे ठीक करना मेरे सामने एक टेढ़ा सवाल था. इसलिए अगर आप दोचार दिन यहां रह कर इसे मिलती रहें, तो इस की हालत में कुछ सुधार हो सकता है. इसलिए आप इतना उपकार हम पर जरूर कीजिए. वैसे अभी आप यहां रहने वाली हैं न?’’ प्रेरणा दीदी ने पूछा. ‘‘हां, दोचार दिन तो मैं हूं.’’ इतनी देर तक सुमन का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर रखने वाली सुवर्णा अचानक बोल पड़ी, ‘‘तो मौसी तुम भी मुझे छोड़ कर चली जाओगी, मम्मीपापा गए, नानानानी भी गए, अब तुम भी जाओगी और मुझे भी भूल जाओगी,’’

कहतेकहते वह बेहोश हो गई और सुमन की जांघ पर आड़ी हो गई. प्रेरणा दीदी और सुभी ने झट से उठ कर सुवर्णा को गोद में उठा कर पड़ोस के सोफे पर लिटा दिया. प्रेरणा ने घंटी बजाई और कर्मचारी को आदेश दिया कि वह तुरंत डाक्टर ले आए. फिर सुमन और सुभी से उन्होंने कहा, ‘‘अब आप जा सकती हैं. कल आप जरूर आएं, तब तक मैं इसे मानसिक रूप से तैयार कर के रखूंगी. आज अचानक मौसी को देख कर इसे बहुत खुशी हुई थी, लेकिन विरह की कल्पना से इसे फिर गहरा आघात लगा है. इसलिए कल आप थोड़े समय के लिए यहां आएंगी तो यह बच्ची सदमे से उबर जाएगी.’’ सुभाषिनी और सुमन गाड़ी में बैठ कर निकल पड़ीं. थोड़ी देर वे खामोश रहीं. फिर सुभी बोली, ‘‘बड़ी प्यारी बिटिया है. तुम्हें देख कर तो वह बहुत खुश हो गई थी.’’ ‘‘हां.’’ ‘‘तुम्हारे जाने के बाद वह फिर मुरझा जाएगी यह सच है. लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए.’’ सुमन काफी देर तक खामोश रही, फिर अचानक बोल पड़ी, ‘‘मेरे मन में एक बात आई है. अगर मैं सुवर्णा को अपने घर ले जाऊं तो?’’ ‘‘इरादा तो नेक है, लेकिन इस उम्र में क्या यह ठीक रहेगा?

डर : क्यों मंजू के मन में नफरत जाग गई

अगले कुछ सालों में सुदीप की शादी हो जाएगी. तुम भी अब 40-45 की हो गई हो.’’ ‘‘हां, लेकिन बच्ची बहुत होशियार और समझदार है.’’ ‘‘अगर तुम ऐसा सोचती हो तो अच्छी बात है. एक बच्ची का भला हो जाएगा, लेकिन यह सवाल अब तुम्हारा ही नहीं है. तुम्हें विकास और सुदीप की राय भी लेनी पडे़गी.’’ घर लौटने पर सुमन का चेहरा देख कर विकास बोला, ‘‘तुम्हारा चेहरा देख कर ऐसा लगता है कि तुम्हारी अपने किसी प्रिय से मुलाकात हो गई है.’’ सुभी चौंक कर बोली, ‘‘आप को कैसे मालूम?’’ ‘‘मैं ने इस के साथ 25 साल गुजारे हैं तो इतनी बात तो मैं समझ सकता हूं.’’ ‘‘लेकिन असली सवाल तो आगे है.’’ ‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ सुमन ने सुवर्णा से मिलने का सारा किस्सा बयान कर दिया और बोली, ‘‘वह अपनेआप को बहुत अकेली महसूस करती है, अत: इस हालत से उबरने में पता नहीं कितने दिन लग जाएंगे.’’

सुमन ने विकास की ओर देखा. विकास उस की भावनाओं को समझ रहा था. सवाल मुश्किल था. दूसरे दिन सुमन अनाथाश्रम जाने लगी तो विकास भी उन के साथ हो लिए. अपेक्षानुसार सुवर्णा दरवाजे पर खड़ी उन का इंतजार कर रही थी. गाड़ी में बैठी सुमन को देख कर वह दौड़ कर आई और विकास को देख कर बहुत खुश हो गई. दोनों के हाथों में हाथ डाल कर उन्हें आश्रम की संचालिका प्रेरणा दीदी के आफिस में ले गई. उन के आने की खबर मिलते ही प्रेरणा दीदी आईं. ‘‘आइए, बैठिए, सुवर्णा आप लोगों का ही इंतजार कर रही थी. सुबह से नहाधो कर वह दरवाजे पर ही बैठी है. उस ने खाना भी नहीं खाया. बोली, ‘अगर मौसी को मैं नहीं दिखाई दूंगी तो वह घबरा जाएंगी.’ ‘‘सुबह से 10 बार तो पूछ चुकी है कि क्या मौसी आएंगी? क्या मौसी मुझे भूल जाएंगी.’’ ‘‘शायद इस बच्ची को यही डर लग रहा था,’’ सुमन ने विकास की ओर देखा. विकास ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर धीरज बंधाया.

चुनाव प्रचार

फिर सुवर्णा को नजदीक बुला कर पूछा, ‘‘सुवर्णा, क्या तुम्हें यह मौसी अच्छी लगती है?’’ ‘‘हां.’’ ‘‘तो तुम इस मौसी के पास आ कर रहना चाहोगी?’’ ‘‘कितने दिन? 1-2-3…’’ सुवर्णा उंगलियां गिनने लगी. दोनों हाथों की उंगलियां खत्म होने पर बोली, ‘‘10 दिन.’’ ‘‘हां, 10 दिन, 10 साल या खूब बड़ी होने तक,’’ विकास उस मासूम बच्ची की ओर देखते हुए बोले. शायद सुवर्णा 10 साल समझ नहीं पाई. वह भ्रमित मुद्रा में बोली, ‘‘क्या मैं जब तक चाहूं रह सकती हूं?’’ ‘‘हां, तुम जब तक चाहो तब तक रह सकती हो,’’ विकास ने उसे आश्वस्त किया. उस की यह बात सुन कर प्रेरणा दीदी, सुमन और सुभाषिनी की आंखों से आंसू निकल पड़े और सुवर्णा… सुवर्णा विकास के गले में अपनी नन्ही बांहें डाल कर लिपट गई. द्य

प्रमाण दो…

लेखक-  सत्यव्रत सत्यार्थी

भाग-1

लेकिन जीशान के आने से उन की परेशानियां और बढ़ गई थीं. गुजरात जल रहा था. राजधानी अहमदाबाद की स्थिति और खतरनाक हो चुकी थी. हर महल्ले की तंग गलियों में मारकाट, खूनखराबा मचा हुआ था. आदमी कहलाने वाले चेहरे हिंसक दरिंदे बन गए थे, जीवन उदास हो रहा था और मृत्यु तांडव कर रही थी. हर आंख सशंकित और हर चेहरा भयातुर. भयानक असुरक्षा की भावना ने लोगों को अपने घरों में कैद रहने को विवश कर दिया था.

यामिनी बेचैन थी. उसे समय से अस्पताल पहुंच जाने का कर्तव्यबोध बेचैन किए जा रहा था. उसे लग रहा था कि अस्पताल पहुंचाने वाली परमिट प्राप्त एंबुलेंस कहीं उन्मादियों के बीच फंस गई थी. वह अधिक समय तक रुकी नहीं रह सकती थी. उस पर आश्रित उस के मरीज आशा भरी नजरों से उस के आने की बाट जोह रहे होंगे. यामिनी को जब पक्का भरोसा हो गया कि अस्पताल की गाड़ी अब नहीं आएगी तो वह मुख्य सड़क को छोड़ कर तंग और सुनसान गलियों से हो कर, बचतीबचाती किसी प्रकार अस्पताल पहुंची. ड्यूटी रूम में पहुंचते ही यामिनी निढाल हो कर पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई, थकान और रोंगटे खडे़ कर देने वाले दृश्यों के बारे में सोच कर उसे खुद ही ‘आदमी’ होने पर संदेह हो रहा था.

कैसी है सीमा

अस्पताल में घायलों के आने का क्रम लगातार जारी था और सभी वार्ड अंगभंग घायलों की दिल दहला देने वाली कराहों से थरथरा रहे थे. अचानक यामिनी के कानों में सीनियर सिस्टर मिसेज डेविडसन के पुकारने की आवाज सुनाई दी तो उस की तंद्रा भंग हुई. ‘‘यामिनी, बेड नं. 11 के मरीज को जा कर देख तो लो. वह दर्द से कराह तो रहा है किंतु किसी भी नर्स से न तो डे्रसिंग करवा रहा है और न इंजेक्शन लगवा रहा है,’’ डेविडसन बोलीं. यामिनी वार्ड में जाने के लिए खड़ी ही हुई थी कि मिसेज डेविडसन की चेतावनी के लहजे से भरी आवाज सुनाई दी, ‘‘मिस यामिनी, हर पेशेंट से रिश्ता कायम कर लेने की बेतुकी आदत तुम्हारे लिए बहुत भारी पडे़गी. बहुत पछ- ताओगी एक दिन.’’ ‘‘ऐसा कुछ नहीं है, मैडम.’’ ‘‘फिर वह तुम्हीं से ड्रेसिंग बदलवाने की जिद क्यों कर रहा है?’’ ‘‘मैडम, आप तो देख ही रही हैं कि शहर का हर आदमी अपने जीवन का युद्ध लड़ रहा है और अस्पताल में ऐसे घायल आ रहे हैं जिन्होंने अपने तमाम रिश्ते खो दिए हैं. निपट अकेला हो जाने का एहसास उन्हें इस लड़ाई में कमजोर बना रहा है. महज कुछ मीठे शब्द, थोड़ा सा अपनापन और स्नेह दे कर मैं उन्हें इस संघर्ष को जीतने में सहायता करती हूं, बस.’’ ‘‘यह तुम्हारा लेक्चर मेरे पल्ले नहीं पड़ने वाला. बस, हमें अपनी ड्यूटी से मतलब होना चाहिए. पर मेरा मन कहता है कि रिश्ता कायम कर लेने की तुम्हारी यह आदत कहीं तुम्हारे लिए मुसीबत न बन जाए.’’ ‘‘ऐसा कुछ नहीं होने वाला मैडम, पेशेंट ठीक हो जाए बस, वह अपने घर और मैं अपनी राह. बात समाप्त.’’ ‘‘हां, आमतौर पर अस्पतालों में तो यही होता है. किंतु यह बात तुम्हारे साथ नहीं है.’’ ‘‘क्यों? मरीजों के प्रति मेरा व्यवहार क्या औरों से अलग है?’’ ‘‘हां,’’ सिस्टर डेविडसन बोलीं, ‘‘यहां आने वाला हर पुरुष पेशेंट तुम्हें अपनी बहन कैसे बना लेता है, और वह भी बस, एक ही दिन में.’’ ‘‘बिलकुल वैसे ही जैसे मैं उन्हें तत्काल अपना भाई बना लेती हूं,’’ यामिनी ने मुसकराते हुए उत्तर दिया और ड्यूटी रूम से निकल कर बेड नं. 11 की ओर बढ़ गई. बेड नं. 11 के निकट पहुंचते ही यामिनी ने कहा, ‘‘जीशान साहब, आप ने मुझे बहुत परेशान किया. सिस्टर से आप ने इंजेक्शन क्यों नहीं लगवाया? क्या उस के हाथ में कांटे हैं जो आप को चुभ जाएंगे?’’ ‘‘ऐसा नहीं है सिस्टर. यहां के हर कर्मचारी को मैं सलाम करता हूं, मगर मैं ने आप से पहले ही बोल दिया था…’’ उस की बात बीच में ही काटते हुए यामिनी बोली, ‘‘क्या बोल दिया था? यही न कि तुम मेरे ही हाथ से दवा खाओगे. तुम्हारी बच्चों जैसी यह जिद बिलकुल ठीक नहीं है. मुझे और भी काम रहते हैं भाई. तुम ने समय पर इंजेक्शन नहीं लगवाया, समय पर दवा नहीं ली तो तुम्हें काफी नुकसान पहुंच सकता है. ’’

गृहस्थी की डोर

‘‘नफानुकसान की बात मैं नहीं जानता सिस्टर,’’ जीशान बोला, ‘‘पहले आप यह बताइए कि कल से आप दिखाई क्यों नहीं दीं?’’ ‘‘अरे भाई, कुछ जरूरी काम पड़ गया था, जिस में बिजी हो गई थी. पर फिर ऐसा नहीं होना चाहिए. मैं न भी आऊं तो आप दूसरी नर्सों से दवा ले लिया करो, इंजेक्शन लगवा लिया करो.’’ ‘‘हां, मगर आप की बात ही और है…’’ यामिनी ने उस को चुप रहने का संकेत करते हुए आराम करने को कहा और वापस जाने के लिए मुड़ी तो अपने पीछे मिसेज डेविडसन को देख कर चौंक पड़ी. वह न जाने कब से उन की बातोें को सुन रही थीं. उन की आंखों में एक अजीब सा आक्रोश झलक रहा था. ‘‘यामिनी, ड्यूटी रूम में चलो. मुझे तुम से एक बहुत जरूरी काम है.’’ यामिनी मिसेज डेविडसन का बहुत सम्मान करती थी. बिलकुल अपनी मां के समान उन्हें मानती थी. उन के ‘बहुत जरूरी काम’ का अर्थ वह समझ रही थी किंतु आज वह उन की डांट खाने के मूड में नहीं थी. वह जानती थी कि मिसेज डेविडसन अपने अनुभवों का हवाला दे कर उसे समाज, रिश्ते, दुनियादारी पर लंबीचौड़ी नसीहतों का कुनैन पिलाएंगी.

ऐसा नहीं था कि यामिनी, डेविडसन के मन में करवटें ले रही शंकाओं को समझती नहीं थी, किंतु उस से अधिक वह अपने मन को और विचारों को समझती थी. उस के मन में तथा विचारों के किसी भी कोने में ऐसा कुछ भी नहीं था, जैसा डेविडसन समझती थीं. एक ममतामयी मां के रूप में यामिनी को डेविडसन अपनी बेटी ही समझती थीं. निपट अकेली यामिनी को किसी रिश्ते का कोई सहारा नहीं था, अत: एक लड़की का सब से बड़ा अवलंब, सब से भरोसेमंद रिश्ता, मां का रिश्ता वह यामिनी को देना चाहती थीं, और दे भी रही थीं. ड्यूटी रूम में यामिनी अकेली थी.

अफवाह के चक्कर में

डाक्टर राउंड पर आ कर जा चुके थे. उन्हीं के पीछेपीछे डेविडसन भी अस्पताल परिसर में बने नर्सेज होस्टल में लंच कर लेने जा चुकी थीं. यामिनी को होस्टल में कमरा नहीं मिल पाया था. वह अस्पताल से दूर किराए के एक छोटे से मकान में एक ट्रेनी नर्स के साथ रह रही थी. इसलिए दोपहर का खाना वह टिफिन में लाती थी, किंतु आज सुबह ही उसे जिस अफरातफरी से हो कर गुजरना पड़ा था, उस से उसे टिफिन लाने की सुध ही नहीं थी. आज यामिनी को अपने परिवार की बहुत याद आ रही थी, जिन से अब वह जीवन में कभी भी मिल नहीं सकती थी. आंखें बंद कीं तो उस का अतीत चलचित्र की तरह सामने आ गया. अलीगढ़ के हिंदूमुसलिम दंगे ने उस का सर्वस्व छीन लिया था. दंगाइयों ने उस के मकान को चारों तरफ से घेर कर आग लगा दी थी. यामिनी का जीवन इसलिए बच गया कि वह अपनी किसी सहेली से मिलने चली गई थी. वापस लौटते समय रास्ते में ही उसे इस हृदयविदारक हादसे की सूचना मिली और पुलिस ने उसे घर तक जाने ही नहीं दिया, बल्कि जीप में बैठा कर थाने ले गई थी. नानी को खबर मिली तो वह अलीगढ़ आईं और यामिनी को थाने से ही कानपुर ले गई थीं. उन के प्यारदुलार ने और समय के मरहम ने धीरेधीरे यामिनी के हृदय पर उभरे फफोलों को शांत कर दिया. यामिनी किसी पर बोझ बन कर जीना नहीं चाहती थी. अत: उस ने नर्सिंग कोर्स में प्रवेश लिया और प्रशिक्षण पूरा होने पर अहमदाबाद में इस अस्पताल में एक नर्स के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत की थी. मरीजों की सेवा कर के उसे शांति मिलती थी. उन्हीं के बीच अपने को व्यस्त रख कर वह अपने भयानक अतीत को भुलाने की कोशिश करती थी और कुछ हद तक इस में सफल भी हो रही थी. यामिनी सोचती जा रही थी. चिंतन के क्षितिज पर अचानक जीशान का बिंब उभरता हुआ प्रतीत हुआ. उस का चिंतन क्रम जीशान पर आ कर टिक गया. जीशान लगभग 25 साल का उत्साही युवक था. उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के एक गांव से अपने किसी रिश्तेदार के साथ अहमदाबाद कमाने आया था, ताकि परिवार का खर्च चलाने में वह अपने गरीब बाप का कुछ सहयोग कर सके. उस की कमाई की गाड़ी भी पटरी पर चल रही थी, किंतु तभी उस के अरमान भी दंगों के दानव का शिकार हो गए.

वह अपने कमरे में अपने रिश्तेदार के साथ दम साधे बैठा था कि अचानक दंगाइयों की टोली की निगाह उस के कमरे पर पड़ गई. उन्मादी दंगाइयों ने कमरे में आग लगा दी और दरवाजे पर खडे़ हो कर हथियार लहराते उन के बाहर निकलने की प्रतीक्षा करने लगे. जीशान भय से कांप रहा था. उस के रिश्तेदार ने अपने प्राणों का मोह छोड़ कर जीशान को अपने पीछे किया और दंगाइयों की टोली के एक किनारे से सरपट भाग खड़ा हुआ. दंगाइयों ने दौड़ कर उन को पकड़ना चाहा. रिश्तेदार पलट पड़ा किंतु जीशान को भाग जाने को कहा. रिश्तेदार ने अपने शरीर को दंगाइयों के हवाले कर दिया. पल भर में एक जिंदा शरीर मांस के लोथड़ों में बदल गया था. भागते जीशान को सामने से आती दैत्यों की एक टोली ने पकड़ लिया और हाकियों तथा डंडों से पीट कर अधमरा कर डाला, मगर तभी सायरन बजाती पुलिस की गाड़ी आ गई और जीशान अस्पताल में भर्ती होने के लिए आ गया. यह बात जीशान ने ही उसे बताई थी. जीशान के बारे में सोचतेसोचते यामिनी की आंखें सजल हो उठीं. उस के चिंतन का क्रम तब टूटा जब वार्डबौय ने उस से अलमारी की चाभियां मांगीं. चाभियों का गुच्छा वार्डबौय को थमा कर यामिनी का चिंतन पुन: जीशान पर केंद्रित हो गया. आखिर जीशान में ऐसा क्या खास था कि सब की बातें सुनने पर भी उस के प्रति यामिनी की स्नेहिल भावनाओं में कोई परिवर्तन नहीं आ पाया था. शायद इस का कारण दोनों के जीवन में घटित त्रासदियों की समानता थी या जीशान का भोलापन और उस के भीतर बैठा एक कोमल मानवीय संवेदनाओं से भरा एक निश्छल विशाल हृदय था.

उस रात अचानक

कारण जो भी हो, यामिनी अपने को जीशान से जुड़ता हुआ अनुभव कर रही थी, मगर किस रूप में? उसे स्वयं भी इस का पता नहीं था. अब जीशान बड़ी तेजी से ठीक हो रहा था. अंतत: वह दिन आ गया जिस के कभी भी न आने की मन ही मन जीशान दुआ कर रहा था. उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई. उस दिन जीशान बहुत ही उदास था. यामिनी उसे एकटक निहारे जा रही थी, किंतु अपने में खोए जीशान को उस के आने का आभास तक नहीं हुआ. यामिनी ने ही सन्नाटे को तोड़ते हुए पूछा, ‘‘अब क्या? अब तो तुम स्वस्थ हो गए. तुम्हें छुट्टी मिल गई. तुम्हें तो खुश होना चाहिए, पर तुम ने तो मुुंह लटकाया है, क्यों?’’ वह दुख से बोझिल उदासीन स्वर में बोला, ‘‘यहां से चले जाने पर आप से मुलाकात कैसे होगी, आप को देखूंगा कैसे? मुझे आप की बहुत याद आएगी.’’ ‘‘इस में उदास और दुखी होने की क्या बात है. हम और तुम दोनों इसी शहर में रहते हैं, जब भी मिलना चाहोगे मिल लेना. याद आने पर अस्पताल चले आना. हां, कभी मेरे घर पर आने की मत सोचना.’’ ‘‘हां, सच कहती हैं आप. हम तो इनसान हैं नहीं, बस, हिंदूमुसलमान भर हैं. आप हिंदू, मैं मुसलमान, कैसे आ सकता हूं?’’ ‘‘बात यह नहीं है. मैं हिंदूमुसलमान कुछ नहीं मानती. शायद तुम भी नहीं मानते हो पर सभी लोग ऐसा ही तो नहीं सोचते.’’ ‘‘मैं नासमझ नहीं हूं, आप के मन की दुविधा समझ रहा हूं. सारे मुल्क में दंगेफसाद की जड़ हम यानी हिंदू और मुसलमान ही तो हैं.’’ ‘‘बस, अब मुंह मत बिसूरो. जाते समय हंस कर विदा लो. सबकुछ ठीकठीक रहेगा.

हां, अब चेहरे पर हंसी ला कर गुडबाय बोलो.’’ ‘‘अलविदा, सिस्टर, अगर यहां से जाने के बाद जिंदा रहा तो जल्दी मिलूंगा,’’ कहते हुए जीशान का गला रुंध गया. जीशान थकेहारे कदमों से वापस लौट रहा था अपने उस मकान पर जो आग की भेंट चढ़ चुका था. और कोई ठिकाना भी तो नहीं था उस के पास. भीगी आंखों से यामिनी दूर जाते हुए जीशान को देखे जा रही थी कि अचानक उस के कानों में डेविडसन का खरखराता हुआ स्वर गूंजा, ‘‘मिस, अगर फेयरवेल पूरा हो चुका हो तो बेड नं. 7 को देखने की कृपा करेंगी. नासमझ, भावुक लड़की, एक दिन इस का खमियाजा भोगेगी.’’ उस दिन यामिनी और उस के साथ रहने वाली ट्रेनी नर्स फ्रेश हो कर चाय की चुस्कियां लेती हुई समाज की बदली हुई तसवीर पर चर्चा कर रही थीं कि तभी कालबेल बज उठी. -क्रमश

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