‘‘आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? तुम्हारी इस आमदनी में तो जिंदगी पार होने से रही. मैं ने डाक्टरी इसलिए तो नहीं पढ़ी थी, न इसलिए तुम से शादी की थी कि यहां बैठ कर किचन संभालूं,’’ रानी ने दूसरे कमरे से कहा तो कुछ आवाज आनंद तक भी पहुंची. सच तो यह था कि उस ने कुछ ही शब्द सुने थे लेकिन उन का पूरा अर्थ अपनेआप ही समझ गया था.
आनंद और रानी दोनों ने ही अच्छे व संपन्न माहौल में रह कर पढ़ाई पूरी की थी. परेशानी क्या होती है, दोनों में से किसी को पता ही नहीं था. इस के बावजूद आनंद व्यावहारिक आदमी था. वह जानता था कि व्यक्ति की जिंदगी में सभी तरह के दिन आते हैं. दूसरी ओर रानी किसी भी तरह ये दिन बिताने को तैयार नहीं थी. वह बातबात में बिगड़ती, आनंद को ताने देती और जोर देती कि वह विदेश चले. यहां कुछ भी तो नहीं धरा है.
आनंद को शायद ये दिन कभी न देखने पड़ते, पर जब उस ने रानी से शादी की तो अचानक उसे अपने मातापिता से अलग हो कर घर बसाना पड़ा. दोनों के घर वालों ने इस संबंध में उन की कोई मदद तो क्या करनी थी, हां, दोनों को तुरंत अपने से दूर हो जाने का आदेश अवश्य दे दिया था. फिर आनंद अपने कुछ दोस्तों के साथ रानी को ब्याह लाया था.
तब वह रानी नहीं, आयशा थी, शुरूशुरू में तो आयशा के ब्याह को हिंदूमुसलिम रंग देने की कोशिश हुई थी, पर कुछ डरानेधमकाने के बाद बात आईगई हो गई. फिर भी उन की जिंदगी में अकेलापन पैठ चुका था और दोनों हर तरह से खुश रहने की कोशिशों के बावजूद कभी न कभी, कहीं न कहीं निकटवर्तियों का, संपन्नता का और निश्ंिचतता का अभाव महसूस कर रहे थे.