पंजाब जहरीली शराब कांड : ले डूबा नशे का सुरूर

पंजाब के ज़हरीली शराब कांड में 100 से ज्यादा मौत की खबर है. ऐसे कांड में मरने वाले, सस्ती शराब के आदी, समाज के निचले माली तबके के लोग होते हैं. बेशक त्रासदी बड़ी हो जाए तो मीडिया की सुर्ख़ियांं संबंधित नेताओं, बिचौलियों और अधिकारियों को वक्ती तौर पर नंगा करने वाली ज़रूर बन जाती हैं.

पंजाब इस मामले में अकेला राज्य नहीं है. इस के पीछे रेवेन्यू केंद्रित आबकारी नीति से राज्य की आय बढ़ाते जाने और उस की आड़ में अपनी जेब के लिए अधिक से अधिक पैसा बनाने की होड़ होती है. अगर पूर्ण शराबबंदी हो तो और भी पौ बारह. सीधा समीकरण है- जितना ज़्यादा शिकंजा उतनी ज़्यादा उगाही. मोदी के गुजरात में नेता-बिचौलिया-अफ़सर गठजोड़ के लिए यह 30 हज़ार करोड़ और नीतीश के बिहार में यह 10 हज़ार करोड़ सालाना का जेबी कारोबार बन चुका है.

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गुजरात और बिहार में पूर्ण शराबबंदी के चलते पंजाब और हरियाणा से व्यापक शराब तस्करी इन दोनों राज्यों में होती आई है. पंजाब में हाल में आबकारी नीति को अपनेअपने संरक्षित शराब कार्टेल के हिसाब से तय कराने के चक्कर में प्रभावशाली मंत्रियों ने अमरिंदर सिंह के वफ़ादार मुख्य सचिव की छुट्टी करा दी. कुछ माह पहले हरियाणा में भी पकड़ी गयी शराब को खुर्दबुर्द कर गुजरात भेजने वाला गिरोह उजागर हुआ लेकिन इनेलो मंत्रियों की हिस्सेदारी ने जाँच को जकड़ रखा है.

दरअसल, आएदिन होने वाली छिटपुट मौतें तो ख़बर बनती ही नहीं, जबकि पंजाब जैसी बड़ी त्रासदी पर छोटे अफसरों के निलंबन-जांंच की चादर ओढ़ा दी जाती है. फ़िलहाल पंजाब में भी यही चलन देखने को मिल रहा है, एक दर्जन से ज्यादा इंस्पेक्टर स्तर के आबकारी और पुलिसकर्मी निलंबन की लिस्ट में हैं और मंडल कमिश्नर जाँचकर्ता के रूप में.

पिछले 10 साल में देश में हुई अन्य प्रमुख  त्रासदियों पर एक नज़र डालिये जिन में सौ से अधिक मौतें हुईं, जांंच का नाटक चला और समाज के लिए आत्मघाती आबकारी नीति नेता-बिचौलिया-अधिकारी गठजोड़ के साये में बदस्तूर जारी रही. कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, सरकार किसी पार्टी की हो- मोदी मॉडल या राम राज्य का दावा ही क्यों न हो.

क्या समझना मुश्किल है कि स्कूलों और अस्पतालों जैसी सामाजिक ज़रूरतों तक को निजी हाथों में सौंपने वाली सरकारें, शराब के कारोबार पर कुंडली मारे क्यों बैठी हैं?

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘अगर मैं 1 दिन के लिए तानाशाह बन जाऊं, तो बिना मुआवजा दिए शराब की दुकानों व कारखानों को बंद करा दूंगा.’’ गांधीजी ने पूरी सूझबूझ के साथ यह बात कही थी, क्योंकि बरबादी का बड़ा कारण यह शराब ही है.

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भारत में आजादी के बाद से अब तक शराबबंदी के तमाम प्रयासों का सबक यही है कि पूर्ण शराबबंदी को लागू करना प्रदेश सरकारों के लिए संभव ही नहीं रहा. जिस भी राज्य में शराबबंदी लागू की गई, वहां शराब की तस्करी बढ़ गई.

देश में गुजरात, मिजोरम व नागालैंड ऐसे प्रदेश हैं, जहां पूर्ण शराबबंदी है. गुजरात में तो आजादी के बाद से ही शराब पर पाबंदी है, पर अफसोस यह महज कहने को ही है. वहां शराब हर जगह आसानी से उपलब्ध है. अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पुलिस महकमा हर साल सवा सौ करोड़ की अवैध शराब जब्त करता है. हर साल जहरीली शराब पीने से मौतें होती हैं. 2009 में गुजरात में जहरीली शराब पीने से 148 लोग मारे गए थे.

मिजोरम राज्य में 1995 में शराबबंदी का कानून पारित किया गया था. मगर अगस्त, 2014 में शराबबंदी खत्म करने का फैसला कर नया कानून पारित कर दिया गया. सरकार का मानना था कि शराबबंदी से फायदा कम नुकसान ज्यादा हो रहा है. नागालैंड में भी करीब इसी समय से शराबबंदी लागू है.

केरल सरकार ने भी 2014 में चरणबद्ध तरीके से शराबबंदी करने का फैसला किया है. गौरतलब है कि देश में सब से ज्यादा शराब की खपत केरल में ही होती है. राज्य को 22 फीसदी राजस्व शराब से ही हासिल होता है. शराबबंदी लागू होने से यहां के पर्यटन पर गलत असर पड़ने की आशंका जताई जा रही है.

जब तक सरकारों की मौजूदा नीतियां कायम रहेंगी, तब तक शराब की लत की चपेट में आने से लोगों को नहीं बचा सकते. अगर हर गलीनुक्कड़ पर शराब की दुकानें खोल देंगे, तो लोग ज्यादा सेवन करेंगे ही. जहां शराब बंद करने का दिखावा किया जाता है, वहां अवैध बिक्री शुरू हो जाती है और खराब गुणवत्ता वाली शराब बिकने लगती है, जो जानलेवा साबित होती है. शराब के आदी लोग ज्यादा दाम पर भी घटिया शराब पीने लगते हैं, जो मौत के करीब ले जाती है.

इसलिए व्यक्ति से ज्यादा सरकार को कठोर फैसला करना चाहिए. इस मामले में भारत को सिंगापुर से सीखना चाहिए. वहां सिगरेट के सेवन से सेहत पर होने वाले नुकसान को देखते हुए सरकार ने बाकी देशों से सिगरेट की 7 गुना ज्यादा कीमत तय कर दी है. इस से लोगों ने सिगरेट खरीदना कम कर दिया है. सिगरेट के पैकेटों पर भयानक चेतावनी छापने के साथसाथ सजा भी तय कर दी गई है. इस से लोगों में डर पैदा हो गया है. उन्होंने सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट पीना बंद कर दिया है. सिगरेट का पैकेट फेंकते पकड़े जाने पर भी जेल भेज दिया जाता है.

लेकिन हमारे यहां सरकारों की नीतियां सिगरेट पीने से रोकने के बजाय उन्हें सहजता से उपलब्ध कराने वाली हैं. ऐसे में समाज का माली तानाबाना टूटना लाजिम है. यदि सरकारें उपलब्धता पर नियंत्रण करें, तब ही लोगों को इन के सेवन से रोका जा सकता है.

दरअसल, शराब का असली नशा तो इस धंधे की कमाई की चाशनी में डूबने वालों पर ही ज्यादा चढ़ता है. फिर चाहे वे सरकारें हों या शराब का धंधा करने वाले. सभी चाहते हैं कि शराब से उन की तिजोरियों की सेहत हर दिन दुरुस्त होती रहे. राजस्थान में पिछली वसुंधरा राजे की सरकार अपनी शराब नीतियों को ले कर खासी बदनाम रही है, तो गहलोत सरकार ने भी शराब से कमाई का खेल बड़ी चतुराई के साथ खेला है.

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शराब से होने वाली कमाई का मोह यह सरकार भी नहीं छोड़ पाई. दरअसल, सरकार ने गलीगली में 24 घंटे खुलने वाले रैस्टोरैंट बार खोल दिए. राजस्थान सरकार का खजाना भरने के मामले में शराब का नंबर पहला है. दरअसल, मोटी कमाई के मामले में बाड़मेर में तेल से मिल रही 6 हजार करोड़ की रौयल्टी को ले कर जितना हो-हल्ला मचाया जा रहा है, उस से कहीं ज्यादा तो अब शराब उगल रही है. आर्थिक मामलों के सरकारी और गैरसरकारी माहिरों का मानना है कि तेल की रौयल्टी तो अब अगले कुछ सालों के लिए स्थायी हो गई है, लेकिन शराब का कारोबार प्रदेश सरकार के लिए राजस्व बढ़ाने के लिए एक खास जरीया बन गया है.

प्रशासन की सरपरस्ती में शराब का कानूनी व गैरकानूनी धंधा खूब फूलफल रहा है, जिस में पुलिस, सरकार सब शामिल हैं. सरकार के पास पढ़ेलिखे, अनपढ़, अमीरगरीब, हर तबके के लिए देशी से ले कर अंगरेजी शराब तक का बंदोबस्त है. शराब को घरघर पहुंचाने के लिए गांवों व शहरों में ठेका देने का काम भी बड़ी सूझबूझ के साथ किया जाता है ताकि कोई इलाका अछूता न रह जाए.

दरअसल, पैसे कमाने की सहूलियत के लिए इसे कानूनी और गैरकानूनी बता दिया गया है यानी जो सरकार बेचे, वह कानूनी है और जिस से उस का फायदा न हो, वह गैरकानूनी. जबकि शराब तो सिर्फ शराब है, जो इनसान को तिलतिल कर मारने का काम करती है. कच्ची शराब हो या शराब की लाइसैंसी दुकानें, दोनों से आम आदमी की बरबादी और सरकार व सरकारी आदमियों का मुनाफा हो रहा है. लाइसैंसी शराब से सरकारें हर साल अरबों रुपए का राजस्व हासिल करती हैं और गैरकानूनी घोषित की गई शराब में सरकारी लोगों का हिस्सा होता है.

शराब का नशा करना इनसान की कुदरती भूख नहीं है. इसलिए इस का होना या न होना कोई माने नहीं रखता. अगर इस की कुदरती भूख होती तो दुनिया के हर शख्स में नशाखोरी की लत पड़ गई होती. भारत में तो कई तथाकथित देवताओं तक को शराब पिलाई जाती है. यहां शराब पीनेपिलाने का इतिहास बहुत पुराना है. राजामहाराजाओं के जमाने से ही यहां शराब का खूब चलन रहा है. शराब की वजह से कई रियासतें, राजामहाराजा बरबाद हो गए, तो भला आम आदमी की क्या बिसात है?

सरकार एक तरह से वही काम कर रही है, जो अंगरेजों ने नवाबों के साथ किया था. उन्हें नशे में डुबोए रखा और अंदर ही अंदर उन की जड़ें खोखली कर समूचे भारत को गुलामी की बेडि़यों में जकड़ लिया.

चोरी, डकैती, हत्या, लूट, बलात्कार जैसे अपराधों को रोकना सरकार का फर्ज है, तो फिर सरकार लोगों को नैतिक बुराई शराब को पीने की दावत क्यों देती है? मसलन, भ्रूण हत्या भी तो अपराध है, फिर भी अनेक बार लड़कियों को पैदा होने से पहले ही कोख में मार दिया जाता है. ऐसे में सरकारें इस अपराध को रोकने में नाकाम हैं, तो इस का मतलब यह कतई नहीं कि वे लाइसैंस जांच केंद्र खुलवा कर इसे कानूनन सही ठहरा दें.

अगर कोई पति अपनी पत्नी को मारने से बाज नहीं आता, तो उस के खिलाफ कानूनी काररवाई करने के बजाय क्या उसे पत्नी को मारनेपीटने का कानूनी लाइसैंस दे दिया जाए? शराब के मामले में सरकारों ने ठीक ऐसा ही किया है. नशाबंदी लागू करने के बजाय उन्होंने गांवों, शहरों, कसबों में लाइसैंसी दुकानें खुलवा कर शराब पर कानूनी होने का ठप्पा लगा दिया है.

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भले ही आज भी शराब पीने के नाम पर लोग नाकभौं सिकोड़ते हों, लेकिन बाजार झूठ नहीं बोलता. जोश ए जवानी, नोटों से भरी जेबें और तेजी से बदलते माहौल के चलते शराब का नशा सिर चढ़ कर बोल रहा है.

भारतीय अलकोहल पेय बाजार जिस तेजी से सालाना बढ़ रहा है, वह काफी चिंताजनक है और स्पष्ट है कि देश की बड़ी आबादी शराब की गिरफ्त में है. देश में बीयर पीने वालों की भी कमी नहीं है और व्हिस्की पीने के मामले में तो भारतीयों ने व्हिस्की के सब से बड़े बाजार माने जाने वाले अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है.

एक रिसर्च के मुताबिक, भारत में शराब पीना 16 से 18 साल की उम्र से शुरू हो कर 25 से 30 साल की उम्र में चरम पर पहुंच जाता है. इस समय भारत की 35 करोड़ की आबादी 18 से 35 साल की है और अगले 5 साल में इस में 5 से 7 करोड़ का इजाफा होने का अंदाजा है. यही वजह है कि दुनिया के तमाम शराब के कारोबारी भारत की ओर रुख कर रहे हैं.

भारत समेत दुनिया भर में शराब का सेवन करने से होने वाली बीमारियों की वजह से 33 लाख लोग हर साल मौत को गले लगाते हैं. इतना ही नहीं भारत में सड़क हादसों में हर साल करीब 1,38,000 लोग मारे जाते हैं. अलकोहल ऐंड ड्रग इन्फौर्मेशन सैंटर के एक अध्ययन के मुताबिक, इन में से 40 फीसदी हादसे शराब पी कर वाहन चलाने की वजह से होते हैं.

शराबखोरी कितना भयानक रोग बनता जा रहा है, यह इस से समझा जा सकता है कि दुनिया में बीमारियों, विकलांगता व मौत की वजह के जो कारण बताए जाते हैं, उन में शराबखोरी 2015 तक छठा कारण थी, लेकिन अब तीसरे पायदान पर आ पहुंची है. इंसान में 2 सौ से ज्यादा बीमारियों का खतरा शराब के सेवन से बढ़ता है.

पब्लिक हैल्थ फाउंडेशन नामक संस्था ने राजस्थान समेत 6 राज्यों के बारे में एक अध्ययन किया है और उस की रिसर्च के मुताबिक, शराब पर टैक्स व उस के दाम बढ़ने के बावजूद शराब की खपत बढ़ रही है. इस रिसर्च में राजस्थान, तमिलनाडु, ओडिशा, सिक्किम, मेघालय शामिल हैं. रिसर्च से पता चला है कि 28 फीसदी शराबी आत्महत्या करते हैं. आत्महत्या के सभी मामलों में से 50 फीसदी शराब या अन्य नशे पर निर्भरता से जुड़े होते हैं.

शराब के सेवन से आत्महत्या करने वालों में किशोरों की संख्या ज्यादा है, जो कुल आत्महत्या के मामलों में से 70 फीसदी है. शराब की लत इतनी आसानी से नहीं छूटती पर इसे छोड़ना नामुमकिन भी नहीं. आप के बेहतर स्वास्थ्य व भविष्य के लिए इस लत को छोड़ना बेहद जरूरी है.

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पैसे कम फिर भी नंबर ज्यादा

इस बात में कोई शक नहीं कि भारती खांडेकर के नंबर बहुत ज्यादा नहीं हैं, लेकिन उस के बारे में जानने के बाद लगता है कि वह किसी टौपर से कम नहीं.

मध्य प्रदेश के इंदौर में रहने वाली इस बेहद गरीब लड़की ने इस साल माध्यमिक शिक्षा मंडल के 10वीं बोर्ड के इम्तिहान में 68 फीसदी नंबर हासिल कर फर्स्ट डिविजन बनाई है, जो किसी भी मैरिट वाले छात्र को इस लिहाज से सबक है कि उस के पास खुद का कमरा होना तो दूर की बात है, खुद का कोई घर भी नहीं है.

दरअसल, भारती इंदौर के शिवाजी मार्केट इलाके के फुटपाथ पर पिछले 15 साल से रह रही थी. उस के पिता दशरथ खांडेकर ठेला चलाते हैं और मां पैसे वालों के घरों में  झाड़ूपोंछा लगाने का काम करती हैं. सिर ढकने के लिए मांबाप ने एक  झोंपड़ी तान ली, जिसे हटाने के लिए कभी नगरनिगम, तो कभी पुलिस वाले आ धमकते थे.

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देश के दूसरे करोड़ों  झोंपड़ों की तरह इस  झोंपड़े में भी बिजलीपानी की कोई सहूलियत नहीं थी. 5 सदस्यों वाले इस परिवार को अकसर खानेपीने के लाले पड़े रहते थे, सो अलग. इस पर भी भारी परेशानी की बात यह कि बारिश में  झोंपड़ा पानी से लबालब भर जाता था और गरमीसर्दी की मार बरदाश्त करना हर किसी के बस की बात नहीं.

मांबाप सुबह काम पर निकल जाते थे, तो भारती अपने 2 छोटे भाइयों की देखभाल में जुट जाती थी और वक्त मिलने पर ही अपने स्कूल अहल्या आश्रम जा पाती थी. उस के पास नई कौपीकिताबें खरीदने के पैसे नहीं होते थे, फिर यह सोचना तो बेमानी है कि उसे कहीं से कोचिंग या ट्यूशन मिलती होगी.

शाम को जब मांबाप काम से वापस आते थे, तब इस  झोंपड़े में चूल्हा जलता था और भारती को पढ़ने के लिए थोड़ा वक्त मिल पाता था, वह भी खंभे की रोशनी के नीचे. इस के बाद भी वह 68 फीसदी नंबर ले आई, तो उस की कहानी जान कर हर कोई हैरान रह गया.

क्या भारती जैसी जिंदगी, जिस में खानेपीने, रहने का भी ठिकाना न हो, में गुजर करते हुए बोर्ड के इम्तिहान में फर्स्ट डिविजन लाना वाकई मामूली बात है, इस का जवाब शायद ही कोई हां में दे.

भारती बताती है कि उसे जरा सी भी फुरसत मिलती थी, तो वह पढ़ने बैठ जाती थी. रात में वह नोट्स बनाती थी और दिन में कोर्स की किताबें पढ़ती थी. जैसे ही उस की कामयाबी की कहानी आम हुई, तो मध्य प्रदेश बाल आयोग ने पहल करते हुए प्रशासन को उस के लिए कुछ करने के लिए कहा.

नगरनिगम, इंदौर ने फुरती दिखाते हुए भारती को गरीबों के भले के लिए चलाई जा रही योजना के तहत एक फ्लैट बतौर इनाम दिया. जिंदगी में पहली बार पक्के मकान का मुंह देखने वाली भारती की खुशी का अब कोई ठिकाना नहीं है. अब वह आईएएस अफसर बनने का ख्वाब देख रही है, जो उस की मेहनत और लगन को देखते हुए नामुमकिन भी नहीं, क्योंकि अब कई हाथ उस की मदद को उठने लगे हैं.

लेकिन ऐसा तब हुआ, जब भारती ने खुद को साबित कर दिखाया और यह भी जता दिया कि आदमी अगर ठान ले तो नामुमकिन को भी मुमकिन बना सकता है. जरूरत बस हौसले की है, जो कोई दूसरा नहीं दे सकता. वह तो खुद अपने से पैदा करना पड़ता है.

भारती ने यह भी साबित कर दिया है कि अव्वल आने के लिए बहुत से साधन और सहूलियतें भी जरूरी नहीं.  बहुत सी कमियों में रहते हुए भी आप न केवल पढ़ाई, बल्कि जिंदगी की दौड़ में उन्हें भी पछाड़ सकते हैं, जिन के पास वह सबकुछ है, जिस से वे तेज दौड़ कर जीत सकते हैं, लेकिन उम्मीद के मुताबिक दौड़ नहीं पाते.

अकेली भारती ही नहीं, बल्कि देशभर के उस जैसे कई गरीब बच्चों ने इस साल के बोर्ड इम्तिहानों में ऐसा ही कारनामा कर दिखाया है, जिस से महसूस होता है कि अब पढ़ाईलिखाई पर अमीर और ऊंची जाति वाले बच्चों का पहले सा दबदबा नहीं रह गया है.

कर्णिका का कारनामा

जिस इम्तिहान में भारती फर्स्ट डिविजन में पास हुई है, उसी में इस बार राज्य में भोपाल की एक लड़की कर्णिका मिश्रा ने टौप किया. कर्णिका भोपाल के एक छोटे से स्कूल रीमा विद्या मंदिर में पढ़ती है. उस ने सौ फीसदी नंबर ला कर एक मिसाल बनाई है कि बिना पैसे के भी मैरिट में अव्वल आया जा सकता है.

जब कर्णिका महज 5 साल की थी, तब उस के पिता चल बसे थे, जिस से मां स्वाति और उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. एक समय ऐसा भी आया, जब इन मांबेटी को भूखे पेट सोना पड़ा या फिर पानी पी कर पेट भरना पड़ा.

ऐसे में स्वाति ने मामूली तनख्वाह वाली एक प्राइवेट नौकरी कर ली और मायके में अपनी मां के पास आ कर रहने लगीं. थोड़ा सा सहारा मिला तो कर्णिका को सम झ आ गया कि अब अगर कुछ बनना है, तो दिनरात पढ़ाई करने के सिवा कोई रास्ता नहीं. लिहाजा, उस ने खुद को पढ़ाई में  झोंक दिया. नतीजा सुखद आया और रिजल्ट वाले दिन मांबेटी की आंखों से खुशी के आंसू बहते रहे.

कर्णिका बताती है कि वह रोजाना 3-4 घंटे पढ़ती थी और उस का एक मकसद नौलेज हासिल करना भी था. वह अब पीएससी का इम्तिहान पास कर सरकारी अफसर बनना चाहती है.

यह जान कर हैरानी होती है कि मध्य प्रदेश में इस बार 10वीं बोर्ड के इम्तिहान में 15 छात्रों ने सौ फीसदी स्कोर किया, जिन में से आधे एससीबीसी और गरीब तबके के हैं. कमोबेश यही हालत दूसरे राज्यों के छात्रों की रही, जिन्होंने भारती और कर्णिका की तरह पढ़ाई की दौड़ और होड़ में कई अमीर बच्चों को पीछे छोड़ते हुए अपनी जगह मैरिट में बनाई.

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यह बदलाव एक बहुत बड़ा इशारा भी है कि गरीब और एससीबीसी के होनहार बच्चों को अब रोका नहीं जा सकता, जो अपनी लड़ाई पैसों व साधनों वाले बच्चों से लड़ कर जीत रहे हैं.

पैसा बनाम नंबर

हर कोई मानता और जानता है कि गरीब तबकों की बदहाली की सब से बड़ी वजह उन का अनपढ़ रहना है, जिस के चलते वे लंबे समय तक ऊंची जाति और रसूखदारों की गुलामी करते रहे.  हालांकि अभी भी वे पूरी तरह इस से आजाद नहीं हुए हैं, लेकिन बहुत धीरेधीरे ही सही हो तो रहे हैं, क्योंकि यह बात उन्हें सम झ आ रही है कि उन के शोषण की सब से बड़ी वजह उन्हें तालीम से दूर रखने की साजिश रही. इस के लिए दबंगों ने छलकपट, जुल्मोसितम और धार्मिक किताबों का सहारा लिया.

इस से छुटकारे के लिए अब अच्छी बात यह है कि वे अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं, जिस से न केवल उन की माली, बल्कि सामाजिक हालत भी सुधरी. हालांकि, उन के बच्चे भी उम्मीदों पर खरे उतर रहे हैं, जबकि उन के पास न तो पक्के मकान होते हैं, न कोचिंग और ट्यूशन के लिए पैसे. न लजीज पकवान उन्हें खाने को मिलते हैं, न नएनए फैशन वाले कपड़े और न बहुत सी किताबें उन के पास होती हैं. फिर यह सोचने की तो कोई वजह ही नहीं कि गेम खेलने के साथ पढ़ाई करने के लिए उन के पास कंप्यूटर और महंगे मोबाइल फोन होते हैं.

इन बच्चों की एकलौती पूंजी उन की कुछ बन जाने की बेचैनी और कशिश ही है, जो इन्हें जुनून से भर देती है और यह जुनून उन्हें पैसे वालों से नफरत करना नहीं सिखाता, बल्कि पढ़ाई के जरीए उन की बराबरी करने के लिए उकसाता है.

बोर्ड के कड़े इम्तिहान इस होड़ का सब से बड़ा और अच्छा पैमाना है. इन तबकों के एकाध बच्चे मैरिट में आते तो बात नजरअंदाज की जा सकती थी, लेकिन इन की बढ़ती तादाद उन कइयों के लिए चिंता का सबब हो सकती है, जो यह मान बैठे हैं कि तालीम, कामयाबी और छोटीबड़ी सरकारी नौकरियों पर उन का और उन के ही बच्चों का हक है.

बात चिंता की भी है 

दिक्कत तो यह है कि ये लोग पैसों से शौपिंग माल के आइटम की तरह मैरिट अपने बच्चों के लिए नहीं खरीद पा रहे हैं, जिन की परवरिश मुकम्मल ऐशोआराम में हो रही है. इन के बच्चे एक मांगते हैं, तो ये 4 तरह की किताबें खरीद कर उन्हें देते हैं. हर विषय की ट्यूशन और कोचिंग उन के लिए मुहैया है, फिर भी उन के बच्चे कर्णिका सरीखे सौ फीसदी नंबर नहीं ला पाते. हां, फुटपाथ पर रह रही भारती की बराबरी जरूर वे कर लेते हैं, तो बात साफ हो जाती है कि जिन 65-70 फीसदी नंबरों के लिए ये लाखों रुपए खर्च कर देते हैं, वे नंबर कोई भारती मुफ्त में ले आती है.

चिंता और डर की नई बात यह है कि समाज, राजनीति और सिस्टम को अपनी मुट्ठी में दबाए रखने वाले ये लंबरदार लोग कहीं खी झ कर सरकारी स्कूलों को बंद कराना ही शुरू न कर दें, क्योंकि गरीब बच्चे पढ़ते तो इन्हीं में हैं, जबकि इन के बच्चे ब्रांडेड एयरकंडीशंड महंगे और आलीशान इमारतों वाले स्कूलों में पढ़ते हैं, जिन में से कई की सालाना फीस ही लाखों रुपए में होती है.

इसे इत्तिफाक कम साजिश ज्यादा माना जाएगा कि ऐसा देशभर के राज्यों में हो भी रहा है कि तरहतरह के बहाने गढ़ कर बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूल बंद कराए जा रहे हैं, जिस के पीछे असल मंशा यह है कि गरीब और एससीबीसी तबके के बच्चे पढ़ ही न पाएं.

इस में कोई शक नहीं कि सरकारी स्कूलों की पढ़ाई की क्वालिटी प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले घटिया होती है और टीचर पढ़ाने के नाम पर रस्म सी अदा करते हैं. इस के बाद भी बच्चे अव्वल आ रहे हैं, तो यह उन की मेहनत और काबिलीयत ही है.

फरवरी महीने में मध्य प्रदेश सरकार ने कई सरकारी स्कूलों को बंद करने की पहल की थी. बहाना स्कूलों में कम होते दाखिले व पढ़ाई की क्वालिटी सुधारने का बनाया था. जब सरकार बदली तो यह पेशकश ठंडे बस्ते में चली गई, लेकिन सरकार बदली है अफसर नहीं, लिहाजा फिर से यह फाइल खोली जा सकती है.

एक एनजीओ की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2012 से ले कर साल 2017 तक देशभर में डेढ़ लाख से भी ज्यादा स्कूल ऐसे ही बहाने बना कर बंद कर दिए गए थे. राजस्थान में ही तकरीबन 15,000 सरकारी स्कूल साल 2017 में वसुंधरा सरकार ने बंद करा दिए थे, जिस से तकरीबन ढाई लाख बच्चे पढ़ाई से दूर हो गए थे. बिहार,  झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में भी हजारों की तादाद में सरकारी स्कूल बंद हुए हैं, जिन की खोजखबर लेनेदेने वाला कोई नहीं, क्योंकि इन में गरीब और एससीबीसी तबके के बच्चे पढ़ते हैं.

साल 2015 में 10वीं की टौपर रही भोपाल की छात्रा नंदिनी का कहना है, ‘‘मैं भी इन्हीं अभावों में पढ़ी हूं और इस नतीजे पर पहुंची हूं कि पैसे वालों के बच्चे सहूलियतों के चलते यह मान बैठते हैं कि गरीब बच्चा उन के सामने नहीं टिकेगा, इसलिए वे फालतू कामों में ज्यादा समय बरबाद करते हैं. इस के उलट गरीब बच्चों को यह एहसास रहता है कि उन के पास केवल मेहनत है और वे समय का सही इस्तेमाल करते हैं.

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बकौल, नंदिनी इन बच्चों को मालूम रहता है कि जैसे भी हो पढ़ लो, तभी हालत सुधरेगी. आजकल मीडिया भी ऐसे बच्चों का खूब सपोर्ट करता है.

नंदिनी बताती है, ‘‘इस से हौसला बढ़ता है. खुद मेरा इंटरव्यू उस समय देश की नामी पत्रिका ‘सरिता’ में छपा था, तो मेरी कामयाबी देश के लाखों लोगों तक पहुंची थी.’’

ये भी हैं नंबरों अमीर

वह दौर कब का गया जब साल 2 साल में एकाध कोई एससीबीसी या गरीब घर का बच्चा बोर्ड इम्तिहान में अच्छे नंबर लाता था, तो हल्ला मच जाता था. अब तो यह हर साल की बात हो चली है कि इन तबकों के एकदो नहीं, बल्कि सैकड़ों गुदड़ी के बच्चे मैरिट लिस्ट में अपनी जगह बनाने लगे हैं.

इस साल भी इन बच्चों ने मेहनत कर बाजी मारी. आइए, उन में से कुछ की बात करते हैं, जिन्होंने कम पैसों में अपनी मार्कशीट को नंबरों से मालामाल कर दिया :

झारखंड में मनीष का  झंडा : इस साल  झारखंड बोर्ड के 10वीं के इम्तिहान में मनीष कुमार कटियार पूरे राज्य में अव्वल रहे हैं. लातेहर के नेतरहाट के स्कूल के छात्र मनीष के पिता देवाशीष भारती एक गरीब किसान हैं, जिन्हें उम्मीद थी कि बेटे का रिजल्ट अच्छा आएगा, लेकिन इतना अच्छा आएगा, इस की उम्मीद उन्हें क्या किसी को भी नहीं थी.

कामयाबी के बाद मनीष ने कहा कि वह आईएएस अफसर बनना चाहता है, ताकि सभी के लिए पक्के घर बनवा सके. इस से ही सम झा जा सकता है कि मनीष के दिल में कौन सी कसक है, जिस ने उसे टौपर बनने के लिए उकसाया.

मनीष के घर की माली हालत अच्छी नहीं है, लेकिन उस के हौसले बुलंद हैं. 500 में से 490 नंबर लाने वाला मनीष नहीं चाहता कि किसी भी बच्चे को पढ़ाई के लिए उस के जैसा संघर्ष करना पड़े.

वाराणसी की शान : उत्तर प्रदेश बोर्ड के रिजल्ट में हाईस्कूल में इस बार वाराणसी के गांव खरगपुर के धीरज पटेल ने जिले में टौप किया है. उस के पिता किराए का आटोरिकशा चलाते हैं. ऐसे में सहज सम झा जा सकता है कि धीरज ने किन मुश्किलों में पढ़ाई की होगी.

वाराणसी के ही अक्षय कुमार ने इस साल जिले में इंटर के इम्तिहान में टौप किया है. उस के पिता भोनू प्रसाद बुनकर हैं और पावरलूम चला कर जैसेतैसे घर चला पाते हैं, लेकिन अक्षय की कामयाबी ने उन्हें आस बंधाई है कि उन के दिन फिरेंगे और बेटे का आईएएस अफसर बनने का सपना भी इसी तरह पूरा होगा.

वाराणसी के रामनगर के विशेष सोनकर ने उत्तर प्रदेश बोर्ड के इम्तिहान में जिले में दूसरा नंबर हासिल किया है. जिस वक्त विशेष का रिजल्ट आया, तब उस के पिता कैलाश सोनकर और मां भागवती देवी बगीचे में जामुन बीनने गए थे, जिस से शाम को घर का चूल्हा जल सके.

विशेष के घर की माली हालत का अंदाजा लगाने के लिए इस से ज्यादा कुछ और कहने की जरूरत नहीं रह जाती.

वाराणसी के एससीबीसी और गरीब तबके के मैरिट में आए छात्रों की लिस्ट काफी लंबी है जिस में एक और नाम सविता बिंद का शुमार है. उस के पिता छब्बू बिंद बंटाई पर खेती करते हैं. इस से भी घरखर्च पूरा नहीं पड़ता, तो वे शादीब्याह में हलवाईगीरी करने लगते हैं.

बेटी ने जब जिले में टौप किया, तो उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. इस की एक वजह यह भी है कि छब्बू खुद पढ़ नहीं पाए थे. अब सविता ने टौप कर के जता दिया है कि अनपढ़ मांबाप भी तालीम की अहमियत सम झने लगे हैं और अच्छी बात यह है कि उन की औलादें उन्हें निराश नहीं कर रहीं.

‘‘मम्मी, मैं पास हो गई,’’ वाराणसी के राजातालाब रानी बाजार की खुशबू मोदनवाल मारे खुशी के यह कहते हुए चिल्लाई, तब उस के पिता त्रिभुवन प्रसाद चक्की पर आटा पीसने के अपने रोजाना के काम को अंजाम दे रहे थे. उन्होंने दौड़ कर अपनी नन्ही परी को गले लगा लिया, क्योंकि खुशबू सिर्फ पास ही नहीं हुई थी, बल्कि उस का नाम भी टौप 10 में था.

इंटर की मैरिट में खुशबू से एक पायदान ऊपर रहे हर्ष कुमार पटेल के पिता पेशे से मिस्त्री हैं. ऊपर की 2 जगह घेर कर इन बच्चों ने इशारा कर दिया है कि गुजरा कल किसी का भी रहा हो, लेकिन आने वाला कल इन का है.

फिर जीते अजीत और आकाश : अगर वाराणसी के इन होनहारों को थोड़ी भी सहूलियतें मिली होतीं तो तय है कि वे और अव्वल आते. हालांकि अभी उन्होंने जो कर दिखाया, वह भी किसी से कम नहीं. न केवल इन्हें बल्कि सभी छात्रों को आगरा के अजीत सिंह से काफीकुछ सीखना चाहिए, जिस ने इस साल इंटरमीडिएट में उत्तर प्रदेश में 15वां स्थान हासिल किया है.

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अजीत के पिता गब्बर सिंह खेतिहर मजदूर हैं. लिहाजा, वे जैसेतैसे उसे पढ़ा पा रहे थे, लेकिन होनहार अजीत ने हार नहीं मानी और कुछ बन जाने की ख्वाहिश लिए वह दिनरात एक कर पढ़ता रहा. बिजली न होने के चलते अकसर उसे मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ाई करनी पड़ती थी. इसी लगन और मेहनत का नतीजा था कि उसे हाईस्कूल में भी 86 फीसदी नंबर मिले थे. इस कामयाबी के बाद उस ने मुड़ कर नहीं देखा और इस बार वह आगरा में फर्स्ट और राज्य में 15वेें नंबर पर आया.

अजीत की तरह आगरा का ही आकाश कुशवाह भी मिलिट्री में जाना चाहता है, जिस ने इस साल हाईस्कूल में प्रदेशभर में 8वां नंबर हासिल किया. आकाश के पिता लाखन सिंह किसान हैं.

बिहार के ये होनहार : इस साल बोर्ड के मैट्रिक इम्तिहान में नंबर एक की पोजिशन पर आए हिमांशु राज के पिता सब्जी बेचते हैं. रोहतास के इस टौपर को सब से ज्यादा 96.2 फीसदी नंबर मिले हैं. हिमांशु सौफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहता है.

इसी इम्तिहान में दूसरे नंबर पर आए समस्तीपुर के  दुर्गेश कुमार के पिता मामूली किसान हैं. एक नंबर से टौप आने से पिछड़ गए दुर्गेश का सपना इंजीनियर बनने का है.

तीसरे नंबर पर रही अरवल की जूली कुमारी डाक्टर बनना चाहती है, लेकिन गरीबी का डर उसे सता रहा है. जूली के पिता मनोज सिन्हा शिक्षक हैं. उन की आमदनी इतनी नहीं है कि बेटी का दाखिला मैडिकल कालेज में करा सकें, इसलिए वे सरकार से मदद की आस लगाए बैठे हैं.

चौथे नंबर पर आए लखीसराय के सन्नू कुमार की हालत इन सब से ज्यादा खस्ता है. उस के पिता शंभू कुमार और मां पंचा देवी दोनों मजदूरी करते हैं. सन्नू कुमार की ख्वाहिश भी आईएएस अफसर बनने की है.

लाल राजस्थान के : 8 जुलाई को राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के विज्ञान विषय का रिजल्ट देख कर हर कोई हैरान रह गया था, क्योंकि दूसरा नंबर बीकानेर के एक मामूली अनपढ़ किसान धर्मचंद्र शर्मा के बेटे अमित शर्मा के खाते में गया था. उस के घर की माली हालत इतनी खस्ता है कि वह प्रिंस स्कूल की मदद से पढ़ रहा था. 10वीं में भी अच्छे नंबर लाने वाले अमित को इस स्कूल ने मुफ्त पढ़ाई और होस्टल

मुहैया कराया था. 3 विषयों में 100 फीसदी नंबर लाने वाला अमित डाक्टर बनने का सपना पाले बैठा है. वह कहता है कि सपने पूरा करने के लिए दिनरात मेहनत करनी पड़ती है.

इसी कड़े मुकाबले वाले इम्तिहान में कोचिंग सिटी के नाम से मशहूर कोटा के प्रगति स्कूल के एक छात्र शोएब हुसैन ने भी 98.40 फीसदी नंबर ला कर सब को चौंका दिया था. शोएब के पिता निसार अहमद कारीगर हैं, जिन की आमदनी बहुत ज्यादा नहीं है. अपने छात्र की कामयाबी से खुश इस स्कूल के डायरैक्टर जे. मोहम्मद ने शोएब के छोटे भाईबहनों को मुफ्त पढ़ाई की पेशकश की है.

समाज की पंगु सोच को कंधे पर उठाया

बचपन में जब मैं अपने मामा के गांव रेलगाड़ी से जाता था, तो वे गांव से 3 किलोमीटर दूर पैदल रेलवे स्टेशन पर मुझे और मां को लेने आते थे. इस के बाद हम तीनों पैदल ही गांव की तरफ चल देते थे. पर कुछ दूर चलने के बाद मामा मुझे अपने एक कंधे पर बिठा लेते थे.

चूंकि मामा तकरीबन 6 फुट लंबे थे, तो उन के कंधे से मुझे पतली सी सड़क से गुजरते हुए आसपास की हरियाली और खेतखलिहान दिखते थे. उस सफर का रोमांच ही अलग होता था. खुशी और डर के मारे मेरी आंखें फट जाती थीं.

तब मामा जवान थे और मैं दुबलपतला बालक. मामा को शायद ही कभी मेरा बोझ लगा हो. पर हाल ही में एक ऐसा वाकिआ हुआ है, जिस ने पूरे समाज पर जिल्लत का बड़ा भारी बोझ डाल दिया है.

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मध्य प्रदेश का झाबुआ इलाका आदिवासी समाज का गढ़ है. वहां से सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ है, जिस में एक औरत को सजा के तौर पर अपने पति को कंधे पर बिठा कर पूरे गांव में घुमाना पड़ा. उसे सजा क्यों मिली? दरअसल, उस औरत पर आरोप लगा था कि उस का किसी पराए मर्द के साथ चक्कर चल रहा था.

वीडियो में दिखा कि एक औरत अपने पति को उठा कर चल रही थी और पीछेपीछे गांव वाले. एक जगह जब वह औरत थक गई, तो उसे छड़ी से पीटा भी गया.

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब किसी औरत को सरेआम बेइज्जत किया गया हो, वह भी एकतरफा फैसला सुना कर. दुख की बात तो यह थी कि उस औरत का मुस्टंडा पति इस बात की खिलाफत तक नहीं कर पाया.

पिछले साल का जुलाई महीने का एक और किस्सा देख लें. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाइब्रैंट गुजरात के बनासकांठा जिले के दंतेवाड़ा तालुका के 12 गांवों में ठाकोर तबके की खाप पंचायत ने एक अजीबोगरीब प्रस्ताव पास किया था, जिस में ठाकोर समाज की कुंआरी लड़कियों को मोबाइल फोन रखने की मनाही कर दी गई. यह भी ऐलान किया कि जो भी लड़की मोबाइल फोन के साथ पकड़ी जाएगी, उस के पिता पर खाप पंचायत जुर्माना लगाएगी.

सवाल यह है कि मोबाइल फोन रखने की मनाही सिर्फ लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़कों पर यह पाबंदी क्यों नहीं? क्या मोबाइल फोन रखने से सिर्फ लड़कियां ही बिगड़ती हैं?

आज कोरोना महामारी के बाद जब से स्कूल बंद हुए हैं, तब से बहुत से स्कूल बच्चों को औनलाइन क्लास की सुविधाएं दे रहे हैं, ताकि कल को अगर सरकार इम्तिहान लेने का नियम बना देगी, तो बच्चों को परेशानी न हो. ऐसे में स्कूल जाने वाली कुंआरी लड़कियों के पास अगर मोबाइल फोन नहीं होगा, तो क्या वे पढ़ाईलिखाई में पिछड़ नहीं जाएंगी?

एक और मामला साल 2018 का है. राजस्थान के बूंदी जिले में अंधविश्वास के चलते एक 6 साल की मासूम बच्ची को 9 दिनों तक सामाजिक बहिष्कार का दर्द झेलना पड़ा.

बूंदी जिले के एक गांव हरिपुरा के बाशिंदे हुक्मचंद रैगर ने बताया कि 2 जुलाई को उन की 6 साल की बेटी खुशबू अपनी मां के साथ स्कूल में दाखिले के लिए गई थी. वहां पर दूध पिलाने के लिए बालिकाओं की लाइन लग रही थी. इसी दौरान अचानक खुशबू का पैर टिटहरी नाम के एक पक्षी के अंडे पर पड़ गया, जिस से अंडा फूट गया.

इस घटना को अनहोनी मानने के बाद गांव में तुरंत पंचपटेलों ने बैठक बुलाई और मासूम खुशबू को समाज से बाहर करने का फरमान सुना दिया. खुशबू के अपने घर के अंदर घुसने तक पर रोक लगा दी गई. उसे खाना खाने और पीने के पानी के लिए भी अलग से बरतन दिए गए.

पंचपटेलों के फरमान के चलते पिता 9 दिन अपने बेटी को ले कर घर के बाहर बने बाड़े में रहा था. पिता के मुताबिक, इस दौरान पंचपटेलों ने शराब की बोतल व चने भी मंगवाए थे.

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जब इस मामले की जानकारी तहसीलदार व थाना प्रभारी को मिली, तो उन्होंने पंचपटेलों को इकट्ठा किया. इस के बाद सरकारी अफसरों की मौजूदगी में गांव वालों ने मासूम खुशबू को 9 दिन बाद अपने रीतिरिवाजों को निभाते हुए घर के अंदर दाखिल करवाया. इस से पहले गांव में चने बांटे गए और परिवार के जमाई को तौलिया भेंट किया गया.

कितने शर्म की बात है कि एक मासूम बच्ची को किसी पक्षी का अंडा फोड़ने की इतनी बड़ी सजा दी गई. वह भी तब जब उस लड़की ने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया था. उस से तो जैसे महापाप हो गया. फिर तो उन पंचपटेलों को भी इस पाप का भागीदार होना चाहिए, जिन्होंने लड़की के पिता से शराब की डिमांड की. शराब पीना भी तो एक सामाजिक बुराई है, पर पंचपटेलों को सजा देने का जोखिम कौन उठाए?

समाज में ऐसे किस्सों की कोई कमी नहीं है, जहां नाक के सवाल पर औरतों और मासूम बच्चियों को मर्द समाज के बचकाने फैसलों का शिकार बनना पड़ता है. बचकाने क्या तानाशाही फैसले ही कहिए.

इस में जाति का दंभ बहुत अहम रोल निभाता है. दूसरी जाति की तो बात ही छोड़िए, अपनी जाति के लोग खाप के नाम पर मासूमों पर तरहतरह से जुल्म ढाते हैं. किसी ने परिवार के खिलाफ जा कर प्रेम विवाह क्या कर लिया, उसे मार दिया जाता है. अगर परिवार वाले मान भी जाएं, तो समाज के ठेकेदार उन्हें उकसा कर अपराध करने के लिए मजबूर कर देते हैं. पगड़ी उछलने की दुहाई दे कर उन से अपनों का ही बलिदान मांगते हैं. परिवार वाले गुस्से में कांड कर के जेल पहुंच जाते हैं और जाति के ये सर्वेसर्वा किसी दूसरे शिकार की टोह में निकल पड़ते हैं.

और अगर जाति के साथ दूसरे धर्म का नाता भी जुड़ जाता है, तो फिर बात दंगे तक पहुंच जाती है. उत्तर प्रदेश के जौनपुर में तो 2 समुदायों के बच्चों के बीच मवेशी चराने के दौरान हुए मामूली से झगड़े ने सांप्रदायिक रूप ले लिया था.

भारत में ऐसे विवादों का भुगतभोगी एससी समाज ही रहा है. वह आज भी अपनी पहचान तलाश रहा है. वोटों के लिए तो नेता उन्हें अपने गले से लगा लेते हैं, उन के झोंपड़ों में जा कर रोटी खा लेते हैं, पर जब अपने समाज पर आंच की बात आती है, तो उन को दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक देते हैं.

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एसटी समुदाय भी कमोबेश ऐसे ही हालात में जी रहा है. वह तो भला हो कि झाबुआ वाले कांड में सताई गई औरत आदिवासी समाज से थी, जो अपने तन और मन से बहुत मजबूत होती हैं और इसलिए उस ने अपने पति को कंधे पर बिठा कर पूरा गांव घुमा दिया, वरना किसी शहरी और ऊंची जाति की औरत में ऐसा करने का माद्दा शायद ही दिखता.

कोरोना के नाम पर प्राइवेट पार्ट का भी टैस्ट

पूरे देश में कोरोना महामारी पूरी तरह से फैल चुकी है. सब से ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र इस से बुरी तरह जूझ रहा है, क्योंकि यहां कोरोना के 4 लाख से ज्यादा मरीज हैं और डेढ़ लाख ऐक्टिव हैं. ऐसे में कोरोना योद्धा कहलाए जाने वाले कर्मी जिन का हम ने थाली बजा कर सम्मान किया था, की करतूतें शर्मसार करने वाली हैं. जैसे कि महाराष्ट्र के अमरावती जिले में हुआ, जहां नाक और मुंह से सैंपल लेने के बाद एक महिला को कोरोना पौजिटिव रिपोर्ट बता कर दोबारा बुलाया और उस के प्राइवेट पार्ट का जबरन टैस्ट कर डाला.

भले ही जगहजगह कोरोना को ले कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, मुहिम चलाई जा रही है, घर पर रहने को कहा जा रहा है और कहा यह भी जा रहा है जब तक जरूरी न हो, घर से बाहर न निकलें. फिर भी ऐसी घटनाएं दिल को झकझोर जाती हैं.

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राज्य सरकार द्वारा लौकडाउन में ढील मिलने पर लोग अपने काम पर जा रहे हैं, सामाजिक दूरी जैसे नियमों का पालन कर रहे हैं, पर कोरोना मरीज मिलने पर सभी की टैस्टिंग की जा रही है. जरूरी हिदायतें दी जा रही हैं और घर पर ही क्वारंटीन होने को कहा जा रहा है जब तक स्थिति गंभीर न हो.

सुनने में तो यही आया है कि अभी तक कोरोना का टैस्ट मुंह और नाक से ही लिया जाता रहा है, पर कोरोना टैस्ट के नाम पर जबरन प्राइवेट पार्ट का टैस्ट करना लैब वाले को भारी पड़ गया. वजह, युवती ने थाने में शिकायत जो कर दी थी और वह पकड़ में आ गया.

28 जुलाई, 2020 को यह अजीबोगरीब मामला महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ. यहां लैब में कोरोना टैस्ट के नाम पर लैब टैक्नीशियन ने करतूत ही कुछ ऐसी कर दी कि हर कोई सुन कर हैरान है. साथ ही, इनसानियत को शर्मसार करने वाली है कि कोरोना टैस्ट के नाम पर लैब वाला इतनी नीचता की हद तक भी जा सकता है.

कोरोना जांच कराने आई युवती की नाक से नहीं, बल्कि जबरन उस के प्राइवेट पार्ट से सेंपल लिया गया और उस में छेड़छाड़ की गई. पहले तो युवती समझ ही नहीं पाई कि क्या हो रहा है और टैस्ट का विरोध नहीं कर पाई. पर बाद में जानकारी मिलने पर वह समझ गई कि लैब कर्मी ने उसे झांसे में लिया है.

पीड़िता ने बताया कि स्वाब  लेने के बाद आरोपी ने उसे फिर से बुलाया और कहा कि तुम्हारी कोरोना रिपोर्ट पौजिटिव आई है, इसलिए उन्हें यूरिनल टैस्ट भी कराना होगा.

इस घटना की जानकारी पीड़िता ने सब से पहले अपने भाई को दी. शक होने पर भाई ने इस बारे में डाक्टरों से बातचीत की. डाक्टरों ने बताया कि कोरोना टैस्ट के लिए ऐसा कोई परीक्षण नहीं होता है. इस के बाद महिला ने बडनेरा पुलिस को सारी बात बताई. पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया.

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पुलिस ने आरोपी टैक्नीशियन का नाम अल्पेश अशोक देशमुख बताया. उस के खिलाफ बलात्कार, एट्रोसिटी और आईटी ऐक्ट के तहत मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया. पुलिस अब यह जांच कर रही है कि आरोपी ने इस से पहले कितनी महिलाओं के साथ ऐसी हरकत की.

जानकारी के मुताबिक, 24 साला लड़की अमरावती में अपने भाई के साथ रहती है और एक मौल में जौब करती है. मौल में काम करने वाला एक मुलाजिम 24 जुलाई को कोरोना पौजिटिव पाया गया. उस कर्मचारी के कोरोना पौजिटिव पाए जाने के बाद 28 जुलाई को उस के साथ काम करने वाले सभी 20-25 कर्मचारियों को अमरावती के ट्रामा केयर टेस्टिंग लैब में कोरोना टेस्ट के लिए बुलाया गया था, जिस में यह महिला भी गई थी. लैब के टैक्नीशियन ने मौके का फायदा उठाते हुए महिला के साथ शर्मनाक घटना को अंजाम दिया.

राज्य की महिला एवं बाल विकास मंत्री यशोमति ठाकुर ने इस घटना पर हैरानी जताई और कहा कि टैक्नीशियन के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जाएगी.

आरोपी अल्पेश देशमुख की सोच वाकई शर्मसार करने वाली है. फिलहाल तो वह पुलिस के शिकंजे में है, पर अब तक न जाने कितनी औरतों व लड़कियों के साथ कोरोना टैस्ट के नाम पर ऐसा किया होगा, यह भी जांच का विषय है. वहीं उस के साथ काम करने वाले और भी लैब टैक्नीशियन होंगे, जो ऐसी घटनाओं को अंजाम देते होंगे.

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यह तो समय ही बताएगा कि अल्पेश के साथ कोर्ट क्या फैसला लेता है, पर सभी को ऐसी घटनाओं से सबक लेने की जरूरत है. ऐसा जानकारी की कमी के चलते हुआ. अगर जानकारी होती तो ऐसी घटना को अंजाम नहीं दिया जा सकता.
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फोटो सलाह – 1.कोरोना टैस्टिंग लैब में लड़की का टैस्ट
2. मुंह छिपाती लड़की

गहरी पैठ

अगर लद्दाख की सीमा पर शांति हो जाती है तो यह बहुत ज्यादा राहत की बात होगी. चीन और भारत का असली सीमा का जो भी दावा है, वह लड़ाई से तय हो ही नहीं सकता तो उस बारे में लड़ने से फायदा क्या है? अब भारत और चीन फिलहाल अपनीअपनी जगह से 1.8 किलोमीटर पीछे हटने को तैयार हो गए हैं और अपने इलाकों में कम सैनिक रखने को भी राजी हो गए हैं ताकि 6 जून वाली झड़प फिर से नहीं हो जाए.

सीमा पर आज इसी इलाके में दोनों ने 25,000 के करीब सैनिक तैनात कर रखे हैं और दोनों ने टैंकों, तोपों, हवाईजहाजों को तैयार कर रखा है. जरा सी चिनगारी से पूरी तरह आग भड़क सकती है. सीमा पर तैनात सेनाओं के कमांडरों की आपसी सहमति से यह तय हुआ है कि दोनों के सैनिक बेबात आपस में न उलझें.

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चीन के लिए यह युद्ध इतना महंगा नहीं है क्योंकि जो भी टैंक, तोपें, हवाईजहाज चीन ने सीमा पर लगाए हैं ज्यादातर उस के अपने बनाए हैं. भारत को हर चीज खरीदनी पड़ रही है. हमें तो बुलैटप्रूफ जैकेट भी खरीदनी पड़ती है और उन पर मोटा मुनाफा विदेशी सैनिक सामान बनाने वाले कमाते हैं. हमारी हालत ऐसी नहीं है कि हम मनचाहा पैसा सैनिक विवाद में हंस कर खर्च कर सकें. कुरबानी देने को देश की तैयारी है पर बेमतलब की झड़पों की वजह से करोड़ोंअरबों खर्च करना सही नहीं होगा.

यह अफसोस की बात है कि हम जिस चीन को मनाने में इतनी कोशिश कर रहे थे, कभी चीनी राष्ट्रपति को झूला झुलाने तो कभी प्राचीन धरोहरों की सैर कराने की कवायद हुई, उस चीन ने हमारी एक न सुनी और अपने सैनिकों को सीमा पर जमा ही नहीं कर दिया बल्कि उन्हें उस जमीन पर भेज दिया जो हम कहते हैं हमारी ही है.

अब हमें भी बराबरी की तैयारी करने में लगना पड़ रहा है. देशभर के गरम इलाकों के आदी सैनिक इस बार पूरी सर्दी कंपकंपाती, खून जमा देने वाली बर्फ में बिताएंगे, यह पक्का है. हिमालय की चोटियों पर देश की रक्षा बहुत जोखिम का काम है और जानलेवा है. रूस की सर्दी ने उसे कई बार अपने दुश्मनों से बचाया था. नेपोलियन और हिटलर ने रूस पर हमला किया था और उसे हरा सा दिया था कि सर्दी आ गई जिस में फ्रांस और जरमनी के सैनिक जम गए. अगले 5-6 महीने हिमालय के इन इलाकों को बर्फ से ढक कर रखेंगे और हमारे गरमी के आदी जवान चीनी दुश्मन के साथ बर्फ के दुश्मन से भी लड़ेंगे. इस समय यह समझौता जो कमांडरों ने किया है और आज जहां हैं वहां से पीछे जाना मंजूर किया है, एक तरह से अच्छा है. पर दूसरी नजर में यह भारत के लिए सही नहीं साबित होगा क्योंकि अब एक नई लाइन औफ एक्चुअल कंट्रोल बन गई है जो चीनी मनसूबों पर बनी है.

गनीमत यही है कि देश में होहल्ला नहीं मचाया जा रहा है क्योंकि सारा देश तो कोविड 19 से ज्यादा परेशान है. सीमा पर सहीगलत कदम उठाने की छूट तो एक जने को दे रखी है.

कोरोना के कारण हुए लौकडाउन ने गरीबों की सवारी साइकिल को एक नई जान दी है. दिल्ली में साइकिल की बिक्री बढ़ती नजर आ रही है. यह कुछ दिन का फैशन है या लंबे समय तक चलेगा, अभी पता नहीं है, पर लोगों और शहरों, गांवों की सेहत के लिए अच्छा है.

कोरोना के डर से शासन ने पब्लिक वाहनों पर सवारियों को आधा या एकतिहाई कर दिया है. लोग खुद भी अब भरे हुए वाहन में सटसट कर बैठने से कतरा रहे हैं. ऐसे में 2-3 किलोमीटर का सफर या तो बाइक पर करो या साइकिल पर. साइकिल ज्यादा अच्छी है क्योंकि बाइक का खर्च पैट्रोल के दाम बढ़ने से और ज्यादा भी हो गया है और उसे पार्क करने की जगह भी नहीं मिलती.

साइकिल का चलन गरीब और अमीर की बराबरी का एक बढि़या कदम है. हमारे देश में हर कोशिश की जाती है कि किसी तरह ऊंचेनीचे का भेदभाव बना रहे. जब गरीब लोग पैदल चलने को ही मजबूर थे, जब साहब लोग ठाठ से साइकिल पर सिर ऊंचा कर चलते थे. तब घोड़ों की जगह साइकिलों ने ली थी. फिर साइकिलें बहुत लोग खरीदने लगे तो ऊंचे लोगों ने बसें या मोटरकार अपना लीं. बाद में स्कूटर आ गए तो साइकिल और मोटरकार के बीच वालों की मौज आ गई. तब मिलने वाली मोटरसाइकिलों से स्कूटर काफी अच्छे थे.

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अब साइकिल का फिर चलन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में बढ़ जाए तो बड़ी खुशी होगी. अगर साइकिलों पर फैसले लेने वाले चलेंगे तो सड़कें भी ठीक होंगी, पेड़ भी लगेंगे, पानी का इंतजाम भी होगा. साइकिलों में भी नईनई तकनीक आएगी. दुनियाभर में साइकिल किराए पर देने जाने वाली बड़ी कंपनियां भी बनी हैं पर ज्यादातर दिवालिया हो गई हैं फिर भी नए तरीकों से नई कंपनियां आ रही हैं. अब कोशिश यह है कि आप साइकिल खरीदें नहीं, किराए की साइकिल एक जगह लें दूसरी जगह छोड़ दें, टैक्सी की तरह चालक बिना वाहन.

दिल्ली में भी इस के प्रयोग हो रहे हैं पर नाक ऊंची रखने वाले दिल्ली वाले अब तक तो उसे अपना नहीं पाए हैं. कोरोना की मार शायद दिल्ली वालों को सुधार दे.

साइकिलों का फायदा है कि इन्हें दूसरीतीसरी मंजिलों पर भी लिफ्टों से ले जाया जा सकता है. यूरोप में कई होटलों तक ने साइकिल स्टैंड कार पार्किंग में बना रखे हैं. गरीबअमीर में बराबरी की निशानी इस से ज्यादा क्या होगी.

सरकार को चाहिए कि साइकिल को बढ़ावा देने के लिए इस पर सारे टैक्स माफ कर दे. यह सामाजिक बराबरी के लिए भी जरूरी है, आबोहवा बचाने के लिए भी. बोनस में साइकिल पर चलने वाले ज्यादा तंदुरुस्त रहते हैं. साइकिल सिर्फ सवारी हो, अमीर या गरीब की नहीं.

बिहार : बाढ़, बालू और बरबादी

56 साल की खजूरी देवी की आंखों में आंसू है. गरमी के दिनों भी उस के होंठ सूख गए हैं और बातचीत के दौरान वह अपना माथा पीटने लगती है.

खजूरी बताती है,”हेहो बाबू, ई करोनाकरोना सुनीसुनी के मौन बौराए गेलो छौन. ओकरा पर ई बाढ़…
पौरकां साल बुढ़वा चली गेलोहन, ई बार बङका बेटा. राती के लघी करै लै निकलहो रहै, सांप काटी लेलकै… (साहब, कोरोना सुनसुन कर मन घबरा गया है. उस पर इस बाढ़ ने कहर बरपाया हुआ है. पिछले साल पति मर गया और इस साल बड़े बेटे को सांप ने काट लिया जब वह रात को पिशाब करने बाहर निकला था)

यह कह कर वह फिर से फफकफफक कर रो पङी. वह इशारा कर के दिखाती है कि उस का घर यहां से करीबन आधा किलोमीटर दूर है. वह परिवार सहित टूटीफूटी अस्थाई झोंपड़ी में रह रही है, जो 4-5 बांस की बल्लियों पर टिकी है. ऊपर पन्नी है जिसे बल्लियों से बांध दिया गया है.

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बाढ़ का पानी जब आता है तो बिलों में रह रहे जहरीले सांप भी सूखे जमीन की ओर भागते हैं और घरों के अंदर छिप कर बैठ जाते हैं.

बहुतों की मौत सांप काटने से भी हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में सांप के काटने से लगभग 50 हजार लोगों की जानें जाती हैं, जिस में बिहार में सब से अधिक मौतें होती हैं.

हालांकि मृतक को सरकार की ओर से ₹5 लाख का मुआवजा मिलता है पर यह आश्चर्यजनक है कि पिछले 5 सालों में किसी पीङित ने यहां  मुआवजे के लिए आवेदन नहीं दिया. कारण इधर अशिक्षितों की संख्या ज्यादा है और उन्हें सरकारी नियमों और कानूनों तक की जानकारी नहीं होती.

खैर, मैं ने देखा कि खजूरी की झोंपड़ी के बाहर 1-2 बकरियां भी खूंटी से बंधी हैं और वे भी मिमिया रही हैं, शायद भूख से क्योंकि दूर तक सिर्फ पानी ही पानी है और घास तक भी नहीं बचा कि वे कुछ खा सकें.

मैं ने अपनी नजरें उस की झोंपड़ी के अंदर डाली. वहां एक बालटी में पानी था और मिट्टी के बने चूल्हे पर खाली बरतन. कुछ सूखी लकङियां भी पङी थीं.

खजूरी ने बताया कि घर में राशन जरा भी नहीं है. छोटा बेटा दिहाङी पर निकला है, शायद कुछ ला पाए. अगर नहीं ला पाया तो आज पूरी रात और कल पूरा दिन फिर भूखे ही रहना होगा.

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मैं कुछ आगे निकला तो 2-4 पक्के मकान दिख गए. अलबत्ता यह समझते मुझे देर नहीं लगा कि ये मकान प्रधानमंत्री आवास योजना पर बनाए गए थे. सभी घर बाढ़ के पानी में आधे डूबे हुए थे. हां, एक छत पर सूखी लकङियों से चूल्हा जला कर खाना जरूर बनाया जा रहा था पर मुझे अंदेशा था कि बाढ़ के पानी में कटाव होता है और इस की धार कभीकभी इतनी तेज होती है कि बड़े से बङे पेङ को भी धाराशाई कर देती है. फिर आवास योजना में कितनी ईमानदारी बरती गई होगी यह सब जानते हैं, वह भी बिहार में जहां भ्रष्टाचार चरम पर है और सरकार की अमूमन हर परियोजना भ्रष्टाचारियों को भेंट चढ़ जाता है.

कुछ दूर निकला तो पता चला कि आगे नहीं जा सकते क्योंकि आगे की सङक टूटी पङी है और उस के ऊपर से पानी बह रहा है.

इस बीच मुस्ताक अहमद नाम के एक  व्यक्ति ने बताया कि बाढ़ की वजह से उस के खेत डूब गए हैं और फसल बरबाद हो गई है.

उस ने 15 कट्ठा यानी 10,800 वर्गफुट जमीन में खेती की थी और उस में धान उगाए थे.

मुस्ताक ने बताया,”एक समय घर में 3-4 भैंस थीं. अब 1 ही बची है. इस बार यह भैंस गाभिन (गर्भवती) थी और एक बछङा हुआ था, लेकिन भैंस को दूध कम होता था. बछङा मर गया.

“खेती के लिए धान उगाए थे, वे भी बह गए.”

पास ही खङे मुन्ना ने बताया,”की करभौं हो… हम्मू खेती करले रहिए, ई बाढ़ में सब बरबाद भै गेले. आबे मजदूरी करी के पेट पाले ले पङते (क्या बताएं आप को, मैं ने भी खेती की थी पर इस बाढ़ में सब बरबाद हो गया. अब तो मजदूरी कर के पेट पालना होगा)

मुन्ना ने बताया कि वह मजदूरी करने दिल्लीपंजाब जाएगा पर उसे कोरोना से डर लग रहा है. उस के गांव के कई लोग भाग कर वापस तो आ गए पर बिहार में कोई कामधाम मिल नहीं रहा.

मौनसून में आफत शुरू

पुर्णिया प्रमंडल से तकरीबन 1-2 घंटे की दूरी पर स्थित अररिया जिले में बेलवा पुल के नजदीक एक गांव की स्थिति तो हर साल ऐसी ही होती है. इस के साथ ही चिकनी, नंनदपुर जैसे सैकड़ों गावों में जब बाढ़ का पानी आता है तो लोग छतों पर जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं. पानी अचानक से भरता है और लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाने का मौका तक नहीं मिलता.

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अभी 2-4 दिन पहले ही बाढ़ के पानी में फंसे एक परिवार को बाहर निकाला गया था. एक की तो हालत यह थी कि वह अपने फूस (बांस और पुआल से बने घर) पर पिछले 5 दिनों से बिना खाएपीए पङा था. फिर कुछ लोगों की मदद से उसे बाहर निकाला गया.

कोसी नदी बिहार के लिए शोक

नेपाल से सटे भारत के तराई क्षेत्रों में हर साल का नजारा यही रहता है. मौनसून में जब बारिश होती है तो कईकई दिनों तक होती रहती है. इस बारिश से नदियों में पानी भर जाता है और वह उफन कर बाहर आ जाता है.

बिहार की कोसी नदी इधर इसलिए बदनाम है कि इस नदी में जब बारिश का मौसम न हो तो पानी घुटनों के नीचे रहता है. मगर जब बारिश होती है तो यह पता करना मुश्किल होता है कि नदी कहां और कितनी गहरी है.

हर साल इस नदी में इन दिनों कईयों की जान डूब कर चली जाती है. जानवर बह जाते हैं, न जाने कितने घर बहती धार में समा जाते हैं. कोसी नदी तब विकराल रूप धारण कर लेती है. गांव के गांव कटाव के शिकार हो कर बह जाते हैं और रह जाते हैं तो लोगों की आंखों में आंसू, बेबसी और अपनों के खोने का गम.

अलबत्ता, राज्य से ले कर केंद्र सरकार के नेता और मंत्री हवाई दौरा जरूर करते हैं.

अखबारों और चैनलों में दर्दनाक तसवीरें दिखाई जाती हैं, बाढ़ राहत पैकेज का ऐलान कर दिया जाता है और फिर सब कुछ शांत हो जाता है.
अगले साल फिर वही सब होता है…

जान की कीमत कुछ भी नहीं

यों नेपाल से सटे बिहार के कुछ जिलों में हर साल बाढ़ आफत लिए आता है. सब से अधिक प्रभावित होते हैं बिहार के 7 जिले जिन में पूर्वी चंपारण, चंपारण, सहरसा, सुपौल, अररिया, किशनगंज और कटिहार.

कटिहार जिले से गंगा नदी भी बहती हुई बंगाल की खाङी तक जाती है और यहीं कहींकहीं कोसी नदी भी इस में मिल जाती है. इस से बाढ़ भयानक रूप ले लेती है.

बाढ़ आने की एक वजह नेपाल भी जरूर है. दरअसल, मौनसून में तेज बारिश के बाद वहां से पानी बहता हुआ तराई क्षेत्रों में आ जाता है. काफी पहले यह समस्या उतनी गहरी नहीं थी क्योंकि तब नेपाल के पहाड़ों पर घने जंगल हुआ करते थे, लेकिन वहां की आबादी बढ़ी तो जंगलों को काट कर खेती लायक बनाया जाने लगा. इस से जो पानी जंगलों में ठहर कर धीरेधीरे और कुछ सूख कर आता था वह अचानक से आने लगा. इस से बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई.

इस बाढ़ से बिहार के 10 जिले के 600 से ज्यादा गांवों में भयंकर तबाही मचती है और यह हर साल की बात है.

वादे हैं वादों का क्या

हर साल बिहार में बाढ़ आती है. हर साल तबाही मचती है. सैकङों लोग मारे जाते हैं और हजारों करोड़ रुपए की संपत्ति पानी में बह जाती है. और इन सब की एक वजह यह भी है कि नेपाल में कोसी नदी पर बांध बना है. यह बांध भारत और नेपाल की सीमा पर है, जिसे 1956 में बनाया गया था.

इस बांध को ले कर भारत और नेपाल के बीच संधि है. संधि के मुताबिक अगर नेपाल में कोसी नदी में पानी ज्यादा हो जाता है तो नेपाल बांध के गेट खोल देता है और इतना पानी भारत की ओर बहा देता है, जिस से बांध को नुकसान न हो.

उधर, बाढ़ की समस्या को ले कर सरकार मानती है कि उत्तर बिहार के मैदान में बाढ़ नियंत्रण तभी हो सकेगा जब यहां की नदियों पर नेपाल में वहीं बांध बना दिए जाएं जहां नदियां पहाड़ों से मैदानी भागों में उतरती हैं. कोसी पर बराह क्षेत्र में, बागमती पर नुनथर में और कमला पर शीसापानी में और गंडक, घाघरा और महानंदा नदियों की सहायक धाराओं पर भी बांध बनाने से बाढ़ को रोका जा सकता है.

लेकिन यह तब होगा जब नेपाल से समझौता हो. मगर देश को आजाद हुए दशकों हो गए मगर इतने लंबे अंतराल के बाद भी इस समस्या पर सिर्फ राजनीति ही होती रही है. और फिर अभी तो नेपाल भारत संबंध भी अच्छे नहीं चल रहे.

जनता से हर चुनाव में वादे किए जाते हैं, सब्जबाग दिखाया जाता है पर होता कुछ नहीं.

हाल ही में बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टी राजद नेता व पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने सरकार पर हमला बोलते हुए कहा है,”मौनसून की दस्तक से बिहार के कोसी और गंडक नदी के मैदानी इलाकों के लोग आतंकित हैं. जानमाल, मवेशी का नुकसान हर साल होता रहा है… इस निकम्मी सरकार ने 15 सालों में कोई ठोस कदम नहीं उठाया. भ्रष्टाचार का आलम यह है कि यहां चूहे बांध खा जाते हैं.”

बिहार राजद के मुख्य प्रवक्ता भाई वीरेंद्र सिंह कहते हैं,”वर्तमान सरकार गरीब जनता की नहीं है. 15 सालों से सत्ता में रहने के बावजूद नीतीश सरकार ने बिहार में बाढ़ प्रभावित जिलों के लिए कुछ नहीं किया. बिहार के लोग एक तो कोरोना से दूसरे बाढ़ से परेशान हैं, उधर जेडीयू और बीजेपी के लोग वर्चुअल रैलियां कर रहे हैं.

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“इन्हें सत्ता की भूख है और इतनी अधिक कि अपनी गलतियों की वजह से बिहार भाजपा के 70 से अधिक कार्यकर्ताओं को कोरोना हो गया.”

यों साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. मगर ऐसा लगता नहीं कि उन्हें बाढ़ की चिंता है क्योंकि हाल के दिनों से बीजेपी और जेडीयू गठबंधन चुनाव की तैयारियों में लगे हैं.

जातिवाद बनाम विकास

एक तरफ कोरोना वायरस का कहर तो दूसरी तरफ बाढ़ से आफत में घिरे लोगों में सरकार के प्रति गुस्सा जरूर है पर आगे चुनाव है और फिर से एक बार जातपात और धर्म के नाम पर वोट मांगे जाएंगे.

इधर नेताजी चुनाव जीतेंगे और उधर विकास का मुद्दा फिर ठंढे बस्ते में चला जाएगा. लोगों को सिर्फ इतना ही सुकून होगा कि कम से कम उन की जाति का कोई नेता तो जीता.
जातपात ने बिहार में विकास की रफ्तार को रोक रखा है और नेता लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं.

कुल्हाड़ी से वार पर वार : ऊंटनी का बच्चा हुआ हलाल

यह मामला बेहद अमानवीय और इनसानियत को शर्मसार करने वाला है. बेजुबान जानवर ऊंटनी के बच्चे की गलती सिर्फ इतनी थी कि उस ने खेत में जा कर फसल खराब कर दी थी. इतनी सी गलती के लिए 3 लोगों ने न सिर्फ उस पर कुल्हाड़ी से ताबड़तोड़ वार किया, बल्कि उस की आगे की टांगें भी काट दीं. इलाज के दौरान देर रात उस ऊंटनी के बच्चे की मौत हो गई.

बेजबान जानवरों को भले ही जबान न दी गई हो, पर वह समझता हर बात है. चाहे वह गायभैंस, भेड़बकरी हों या गधासांड या फिर हाथी, शेर, चीता, सांपबिच्छू वगैरह ही क्यों न हों. लेकिन इन पर अत्याचार के मामले देशभर में थमने का नाम ही नहीं ले रहे. चाहे केरल में गर्भवती हथिनी को विस्फोटक भरा अनानास खिलाने का मामला हो या राजस्थान के चूरू जिले की सरदारशहर तहसील के साजनसर गांव में ऊंटनी के बच्चे को कुल्हाड़ी से काटने का.

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18 जुलाई, 2020 को राजस्थान के चूरू जिले की सरदारशहर तहसील के साजनसर गांव में यह ताजा मामला देखने को मिला, जहां एक ऊंटनी के 4 साला बच्चे के साथ कुछ दबंग युवकों ने बर्बरता की. इतना ही नहीं, ऊंटनी के बच्चे पर आरोपियों ने ताबड़तोड़ कुल्हाडियों से वार किए. साथ ही, उस के आगे के पैरों को तोड़ कर अलग कर दिया.

दर्द से कलपते ऊंटनी के बच्चे को बचाने गए 2 लोगों को भी आरोपियों ने कुल्हाडी से काट देने की धमकी दी.

घायल ऊंटनी के बच्चे को गांव कल्याणपुरा बिदावतान की गौशाला में इलाज के लिए पहुंचाया गया, जहां देर रात दम तोड दिया.

पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक, मेहरासर चाचेरा गांव के ओमप्रकाश सिंह ने सरदारशहर थाने में इस मामले की शिकायत  दर्ज कराई. गांव के पन्नाराम, गोपीराम और लिछूराम के खिलाफ दी गई शिकायत में बताया कि ये ही 2 बाइक से उस का पीछा कर रहे थे.

प्रत्यक्षदर्शी ओमप्रकाश सिंह के मुताबिक, 18 जुलाई की सुबह 10 बजे वे गांव साजनसर की गोचर जमीन में अपने पशु चरा रहे थे. इस दौरान उन के साथ वहां नोपाराम जाट भी थे, तभी  एक ऊंटनी का बच्चा भागता हुआ आया. उस के पीछेपीछे 2 मोटरसाइकिल पर 3 लोग पीछा करते हुए आए.

ऊंटनी का बच्चा बदहवास भागा जा रहा था, तभी आगे का रास्ता बंद होने से जैसे ही वह रुका, तो उसे तीनों ने घेरा दे कर जमीन पर पटक दिया और कुल्हाड़ी से उस के आगे के दोनों पैर काटने लगे.

इस दौरान ऊंटनी का बच्चा तड़पता रहा, कलपता रहा, पर उन दरिंदों के दिल नहीं पसीजे. उस की आवाज सुन कर कुछ लोग वहां पहुंचे, तो आरोपियों ने उन्हें भी जान से मारने की धमकी दे दी.

उन दबंगों या कहें दरिंदों का कहना था कि इस ऊंटनी के बच्चे ने हमारे खेत में नुकसान किया है, लेकिन लोगों ने जब शोर मचाना शुरू किया, तो तीनों मोटरसाइकिल ले कर भाग गए. बाद में पुलिस को खबर की गई और घायल ऊंटनी के बच्चे को गांव कल्याणपुरा बिदावतान की गौशाला में इलाज के लिए पहुंचाया गया था, जहां देर रात उस ने दम तोड दिया.

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18 जुलाई, 2020 को गांव के पन्नाराम, गोपीराम और लिछमणराम के खिलाफ ओमप्रकाश सिंह की शिकायत सरदारशहर थाने में ले ली गई और अगले दिन यानी 19 जुलाई, 2020 को पुलिस ने इन तीनों को गिरफ्तार कर लिया, पर आने वाले समय में देखते हैं कि कोर्ट में इन तीनों पर क्या कार्यवाही होती है?

इन तीनों ने 4 साल की ऊंटनी के बच्चे को बड़ी  निर्ममतापूर्वक मारा, काटा, जगहजगह जख्मी किया.  इनसानियत को शर्मसार करने वाली ऐसी वारदात अब कम ही  लोगों के दिल दहलाती है. वजह, इनसानियत धीरेधीरे खत्म जो होती जा रही है. वहीं सोचनेसमझने की ताकत भी.

पर क्या किसी को मार देने से उस नुकसान की भरपाई हो पाएगी? नामुमकिन. पर, ऐसे बेजबान जानवरों के साथ अमानवीयता की सारी हदें लांघ दी जाती हैं. कोई हमदर्दी नहीं, कोई रहम नहीं. यही वजह है कि ये बेजबान जानवर भी अनदेखी के शिकार होते जा रहे हैं.

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नफरत का बीज बना विशाल वृक्ष

मनीष कुमार अपने दोस्त को बीमारी के हालात में लेकर पटना एन एम सी एच गया था.उसके दोस्त का सुगर लेवल अचानक घट गया था. तीन दिन ईलाज के बाद वह नहीं बच सका. उसके दोस्त का कोरोना जाँच कराया गया.वह कोरोना पॉज़िटिव निकला .मनीष का भी जाँच कराया गया.यह भी कोरोना पॉजिटिव पाया गया .इसे जिला मुख्यालय के आइसोलेशन सेंटर में रखा गया.14 दिन के बाद वह पूर्णतः ठीक होकर घर चला आया .उसका रिपोर्ट भी निगेटिव आ गया .

वह सभी परिवार आमलोगों की तरह स्वस्थ है. लेकिन दो माह बीतने के बाद भी आज भी कोरोना से ग्रसित होने का फ़जीहत पूरा परिवार झेल रहा है. गाँव का कोई ब्यक्ति मनीष के पास बैठने और बात तक करने के लिए तैयार नहीं है. ठीक होने के बाद भी कोई रिश्तेदार तक मिलने के लिए नहीं आया.

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यह सिर्फ मनीष के साथ ही नहीं बल्कि गाँव कस्बे में कोरोना से संक्रमित होकर ठीक होने वाले सभी लोगों को कमोवेश यही झेलना पड़ रहा है.

सबसे अधिक स्वास्थ्य विभाग के डॉक्टर ,नर्स और कर्मचारियों को झेलना पड़ रहा है. इनसे कोई बात नहीं करना चाहता .यहाँ तक किराये पर रहे इन लोगों को मकान खाली करने के लिए दबाव बनाया जा रहा है.

ममता कुमारी ए एन एम ने बताया कि होली के पहले मेरा ट्रांसफर कर दिया गया.घर से 70 किलोमीटर की दूरी पर.कुछ दिन घर से किसी तरह आना जाना शुरू किया.इसी बीच कोरोना की वजह से फर्स्ट लॉकडाउन लगा.ड्यूटी करना भी जरूरी और लॉक डाउन का पालन करना भी .बहुत कोशिश किया किराये पर कमरा लेने के लिए लेकिन नहीं मिल सका .चार महीने से एक मोटरसायकिल खरीदा और एक लड़के को पाँच हजार रुपये महीना ले जाने और ले आने के लिए दे रही हूँ.

मनीष और ममता तो एक उदाहरण है.इस नफरत की आग से बहुत लोग जल रहे हैं.जिन डॉक्टरों के सम्मान में थाली और ताली बजवायी गयी.हेलीकॉप्टर से फूल बरसाये गए.उनका यह हश्र होगा .कल्पना से भी परे की बात है.

बगल वाले कोरोना संक्रमित से इतनी नफरत और अमिताभ बच्चन  और उसके परिवार वालों को जब कोरोना होता है तो उसके लिए हम हवन करते हैं और ठीक होने के लिए दुआ माँगते हैं.जबकि अमिताभ बच्चन की नजर में हमारी औकात एक कीड़ा मकोड़ा के जितना भी नहीं है. जब तुम भूख से मर रहे थे.पैदल चलते तुम्हारे पैरों में छाले पड़ गये थे.तुम्हारी रोटियाँ रेलवे ट्रैक पर बिखरी हुवी रह गयी थी और तुम मौत की नींद सदा के लिए सो गये थे.तुम्हारे बूढ़े माँ बाप, जवान पत्नी और दूधमुँहे बच्चे घर आने का इंतजार कर रहे थे.तब तुम्हारा देश का यह महानायक करोना को ठेंगा दिखा रहा था और हाँथ धोने का तरीका बता रहा था. तुम्हारे पक्ष में बोलने के लिए इसे एक शब्द नहीं मिला था.

इन महानायकों के साजिश को समझना पड़ेगा.आज तक हम नहीं समझ पाये की हमारा असली महानायक कौन है.जब किसी सेलिब्रेटी,मंत्री ,विधायक और राजनेता को होता है तो उसके लिए दुआ,प्रार्थना जो पहचानता तक नहीं और बगल वाला जो हर दुःख सुख में एक पैर पर खड़ा रहता है. उससे घृणा और नफरत.

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सबसे पहले तब्लीगी जमात और मुसलमानों से नफरत करने के लिए देश के हुक्मरानों ने मीडिया के मिलीभगत से बीजारोपण किया.पूरे देश में इस तरह की हवा चली की लोग देश भर के मुसलमानों से लोग नफरत करने लगे.हिन्दू दुकानदार,दूध देने वाले,डॉक्टर तक मुस्लिमों से दूरी बनाने लगे और फटकार लगाने लगे.आज उसका परिणाम हम सभी लोग झेल रहे हैं.

हम जैसा समाज बनायेगे. उसका परिणाम हमें झेलना पड़ेगा. हम लोगों से नफरत करना सिखायेंगे तो वे नफरत ही करेंगे.हम अगर बबूल का बीज लगायेंग तो आम फलने की आशा नहीं रखेंगें. आज वही हो रहा है. हमारे देश के प्रधानमंत्री और महानायक जैसे लोग अगर देश में भाईचारा और अमन का पाठ पढ़ाते तो इस देश का हाल यह नहीं होता.

डॉ विमलेंदु कुमार ने कहा कि अगर हमें कोरोना महामारी से लड़ना है तो इससे पीड़ित लोगों के साथ नफरत नहीं करनी चाहिए.कोरोना मरीजों के साथ किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए बल्कि उनका हौसला बढ़ाकर ठीक होने में सहयोग करना चाहिए.मुझे हाथी मेरे साथी फ़िल्म का एक गाना बारबार याद आता है -“नफरत की दुनिया छोड़कर प्यार की दुनिया में खुश रहना मेरे यार”.मैं तो लोगों को यहाँ तक कह रहा हूँ कि अगर आपके टोले मुहल्ले से कोई कोरोना संक्रमित मिलता है तो आप उसे थाली और ताली बजाते हुवे.उसका हर हाल में हौसला बढ़ाते हुवे अस्पताल जाते हुवे.सभी लोग जोर से आवाज दो आप ठीक होकर अस्पताल से जल्द से जल्द हमलोगों के बीच आओगे.इस बीमारी में हौसला बढ़ाने की जरूरत है. किसी से नफरत करके उसका मनोबल कतई नहीं तोड़ें.

किराएदार नहीं मकान मालिक बन कर जिएं, कोई धर्म कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा

जब कोई आदमी किसी के घर पर पैसे दे कर रहे तो वह उस का किराएदार कहलाता है. पर अमूमन ज्यादातर किराएदार किराए के मकान में कैसे रहते हैं, यह सब जानते हैं. उन्हें घर के रखरखाव से ज्यादा मतलब नहीं होता है.

दीपक की भी यही समस्या थी. उस का किराएदार नया शादीशुदा जोड़ा अपने में ही मगन रहता था. वे दोनों प्रेम के पंछी किराया तो समय पर देते थे, पर घर की साफसफाई पर कोई ध्यान नहीं देते थे.

एक दिन दीपक की मां छत पर कपड़े सुखाने आईं. छत की साफसफाई की जिम्मेदारी उस जोड़े की थी, क्योंकि वे पहली मंजिल पर रहते थे. पर मजाल है पिछले कई दिनों से बुहारी हुई हो. मां को गुस्सा आया और वे उस जोड़े से मिलने चली गईं. पर घर के भीतर तो और भी बुरा हाल था. पोंछे की तो छोड़िए, फर्श पर झाड़ू तक नहीं लगी थी. रसोईघर का कबाड़ा कर दिया था. दीवारों पर जाले लगे थे और बाथरूम देख कर तो वे धन्य हो गईं. नल टपक रहा था और दीवार पर सीलन के चलते पपड़ी जमा थी. शायद दीवार के भीतर पानी का कोई पाइप फट गया था, लेकिन उन्हें बताया जाना जरूरी नहीं समझा गया.

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यह हाल हर उस घर का है जहां किराएदारों ने मकान मालिक के सपनों के आंगन को नरक बना दिया है. नरक से याद आया धर्म का वह बेरहम एंगल जिस में उस के ठेकेदार धर्मभीरु जनता को यह समझाने में लगे रहते हैं कि यह शरीर और दुनिया तो किराए का घर हैं, अपना असली प्लौट तो यह दुनिया और शरीर छोड़ने के बाद मोक्ष के रूप में स्वर्ग में मिलेगा, जहां मनोरंजन के लिए अप्सराएं और देवता आप के लिए 24 घंटे हाजिर रहेंगे. और अगर कहीं कोई गड़बड़ की तो नरक भी मौजूद है, जहां आप की आत्मा को इतना सताया जाएगा कि वह अगली बार किराएदार बनने के लायक भी नहीं रहेगी.

दरअसल, स्वर्ग का लालच और नरक का डर धर्म के धंधेबाजों का वह अचूक पैतरा है जो गरीबअमीर, अनपढ़ और तालीमशुदा पर एकजैसा असर करता है. यह जो भय का भगवान है, उस ने इस दुनिया में धर्म की बेहिसाब मजबूत दुकानें खोल दी हैं और उस के ठेकेदार उन दुकानों के मालिक बन बैठे हैं जो पूजापाठ कराने के बहाने हमारे जीतेजी हमें ही स्वर्ग का टिकट बांटते हैं.

दरअसल, कोई भी इनसान पूजापाठ 2 वजह से करता है, डर या लालच. लेकिन थोड़ा सा दिमाग लगा कर समझें तो हर धर्म में यह बताया जाता है कि जब कोई मरता है तो उस की आत्मा, सोल या रूह शरीर छोड़ देती है और वही उस स्वर्ग, हैवन या जन्नत में जाती है जहां मोक्ष मिलता है. पर यह आत्मा है क्या और जब यह हमारे शरीर की नहीं हुई तो इस बात की क्या गारंटी है कि यह हमें मोक्ष दिलवा देगी?

हिंदू धर्मग्रंथों में लिखा है कि आत्मा न पानी में डूब सकती है न हवा से उड़ सकती है और न ही आग में जल सकती है. मतलब आत्मा पर किसी चीज का कोई असर नहीं होता. वह तो अमर है. तो फिर लोगों को स्वर्ग का लालच और नरक की डर क्यों दिखाया जाता है?

अगर कोई किराएदार ढंग से नहीं रहता है, घर की साफसफाई में कोताही बरतता है, तो मकान मालिक उसे नोटिस दे कर घर से निकाल देता है. पर धर्म के धंधेबाज इस का उलटा करते हैं. वे तो चाहते हैं कि आप हमेशा इस दुनिया में नकारा किराएदार बन कर रहें. न इस दुनिया की खूबसूरती को समझें और न अपने शरीर की ताकत को.

ऐसे शातिर लोग आप को उन चीजों में उलझाए रखना चाहते हैं जो आप के किसी काम की नहीं हैं, जैसे रोजगार करो या न करो पर दानी पक्के बनो. स्कूल बेशक न जाओ पर धर्मस्थलों की शोभा बनो. मंदिर, मसजिद और चर्च में भजनकीर्तन, नमाज, प्रार्थना को ही अपना सब से बड़ा सुख मानो.

इस प्रपंच में कामयाब होने लिए धर्म के ठेकेदार हमारे शरीर को सब से बड़ा हथियार बनाते हैं. वे ही इसे 4 ऐसे हिस्सों में बांट देते हैं, जो जातिवाद की जहरीली जड़ है. इस में रंगभेद का तड़का लगने से मामला और ज्यादा बिगड़ जाता है. उस के बाद धर्मभीरु लोगों का एक ही मकसद होता है कि चाहे शरीर से प्राण ही क्यों न छूट जाएं, पर धर्म का झंडा हवा में लहराता रहना चाहिए.

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जबकि सच तो यह है कि यह खूबसूरत दुनिया और हमारा निरोगी व कामकाजी शरीर ही सब से बड़ा मोक्ष है और हमें जीतेजी ही उस मोक्ष का मजा लेना है. क्या किसी किसान को खेत में पसीना बहाते हुए किसी भगवान की जरूरत पड़ती है? क्या कोई सेठ दुकान पर ग्राहकों से मोलभाव में चाहेगा कि कोई भगवान उस के काम में खलल डाले? कभी नहीं. कहने का मतलब यह है कि जब हम अपने काम में मगन होते हैं तो मोक्ष में होते हैं. हमें दीनदुनिया से कोई मतलब नहीं रहता है.

लेकिन यही बात धर्म के धंधेबाजों को खटकती है,लिहाजा वे लोगों को नकारा बनाए रखना चाहते हैं. उन्हें इस डर के साए में जीने को मजबूर करते हैं कि भगवान नहीं तो कुछ नहीं.

पर एक लाख टके का सवाल यह है कि वे खुद क्यों इसी दुनिया में रह कर ऐशोआराम से मौज काट रहे हैं? अपने धर्म के रहनुमाओं पर नजर दौड़ाइए. लाल चेहरा, सुर्ख गाल, आलीशन महल जैसे आशियाने, सरकार से मिलने वाली चाकचौबंद सिक्योरिटी, पैरों में गिरते हमआप जैसों के सिर… उन की क्या मति मारी गई है जो इस दुनिया को छोड़ कर किसी अनदेखे स्वर्ग का टिकट कटाएंगे. याद रखिए, जिस दिन इनसान ने अमर होने का फार्मूला खोज लिया, तो उसे पाने की कतार में इन्हीं पाखंडियों का पहला नंबर होगा.

होना तो यह चाहिए कि आम जनता इन शातिरों के धार्मिक प्रपंचों से बाहर निकले और अपने शरीर को सेहतमंद और काम करने लायक बनाए. अपनी मेहनत को कुदरत की नेमत समझे, इसलिए खुद को इस दुनिया में बेगैरत किराएदार न बनने दें, बल्कि एक होशियार मकान मालिक की तरह इसे अपनी जायदाद समझ कर सजाएंसंवारें. फिर किसी भगवान और उस के एजेंट की जरूरत नहीं पड़ेगी, यह गारंटी है.

“दूसरी औरत” और सड़क पर हंगामा

“पति पत्नी और वह” फिल्म तो आपने देखी होगी. बड़े ही शालीनता के साथ पति पत्नी और दूसरी औरत का रिश्ता इस बॉलीवुड की मूवी में दिखाया गया है. मगर ऐसा हमेशा नहीं होता. अक्सर “दूसरी औरत’ के चक्कर में पत्नी चंडी और कभी-कभी रण चंडी भी बन जाती है. और तब ऐसा हंगामा होता है कि देखने वाले देखते रह जाते हैं . ऐसा ही किस्सा विगत दिवस छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर वीआईपी कॉलोनी में घटित हुआ जब.  एक व्यक्ति दूसरी महिला के साथ कार में उसेद दिख गया.महिला ने गुस्से में आकर कार की विंडो स्क्रीन पर हमला किया.महिला बार-बार कार के विंड स्क्रीन पर हमला करने लगी. धर्मपत्नी गुस्से में कार के बोनट पर  चढ़ गई और अपनी चप्पल से कार के शीशे पर वार कर रही थी. जब हंगामा बढ़ने लगा मजबूर  पतिदेव कार से बाहर आया. अब तो धर्म पत्नी ने पतिदेव का कॉलर पकड़ लिया और हाथ पांव चलाने लगी.

काफी देर तक हंगामा चलता रहा और लोगों का हुजूम आ जुटा. ऐसी कुछ घटना है आज हम आपको बताने जा रहे हैं और साथ ही उसके सार स्वरूप यह तथ्य भी की पुरुषों को ऐसी स्थितियों से बचना चाहिए.

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पहला मामला-भिलाई के  दुर्ग जाने वाले मार्ग में जुलाई महीने में ही एक श्रीमतीजी ने अपने पति को दूसरी महिला के साथ बाइक पर देख लिया आपत्तिजनक स्थिति में देखते ही उसका पारा चढ गया और पतिदेव को रोककर उसने साथ बैठी महिला पर हमला कर दिया.और फिर बीच सड़क पर हंगामा हो गया. बीच बचाओ करने पुलिस पहुंची तब मामला शांत हुआ.

दूसरा मामला-औद्योगिक नगर कोरबा में एक बड़े अफसर की भद पिट गई जब उसकी धर्मपत्नी ने उसे रंगे हाथ उसकी सहेली के साथ पकड़ लिया. इसका वीडियो भी बन गया और घटनास्थल पर जो हंगामा हुआ वह चर्चा का सबब बन गया.

तीसरा मामला-छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी बिलासपुर में एक पति देव अपनी सहेली के साथ होटल में धर्मपत्नी को ही पकड़ में आ गया और फिर हुआ जोरदार हंगामा. जिसमें पतिदेव की सहेली की खूब पिटाई हुई और वह देख कर देख कर भाग खड़ी हुई.

ऐसी अनेक घटनाएं अक्सर घटित हो जाती हैं और यह संदेश दे जाती हैं की पति पत्नी और वह के बीच “वह” दोनों के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है.

पति आखिर यह “गलती” क्यों करता है?

पति पत्नी और वह का किस्सा संभवत दुनिया का सबसे पुराना किस्सा है जो चला आ रहा है और चलता रहेगा. जब जब पुरुष फिसलता है तब तब ऐसी परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं कि परिवार टूट जाते हैं. ऐसे में समझदारी तो यह कहती है कि पुरुष को “एक पत्नी व्रत धारी” होना चाहिए.

अक्सर पुरूष अपने नैसर्गिक, प्राकृतिक स्वभाव के कारण दूसरी महिलाओं को देखकर फिसल जाता है और अगर महिला भी उसी स्वभाव की हुई तो फिर कहानी आगे बढ़ती है. निसंदेह ऐसे मामलों में गलती दोनों पक्षों की होती है.

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जहां पुरुष को अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए वहीं महिलाओं को भी यह समझकर कदम आगे बढ़ाना चाहिए साथी पुरुष शादीशुदा तो नहीं है उसे धोखा तो नहीं दे रहा है. क्योंकि ऐसे हालात में पुरुष का तो कुछ भी नहीं बिगड़ता मगर महिला की अपनी इज्जत सम्मान के साथ  धोखा होता है तो उन्हें लगता है कि वह लुट गई हैं और कहीं के नहीं रही. दोनों ही स्थितियों में महिला को कथित सहेली को ही दर्द और पीड़ा सहनी पड़ती है.

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता वीके शुक्ला के अनुसार उनके लगभग 40 वर्ष के प्रैक्टिस में अनेक मामले उनके पास ऐसे आए हैं जिसमें परिवार दूसरी महिला के प्रवेश के बाद  टूटन की दहलीज पर पहुंच गए. ऐसी परिस्थितियों में जो कि निस्संदेह विकट होती है परिवार टूटने के कगार पर पहुंच जाता है और यहां एक अधिवक्ता, लायर का कर्तव्य हो जाता है किसी तरह परिवार बचा पाए. मनोविज्ञान विशेषज्ञ डॉक्टर जीआर पंजवानी के अनुसार पति पत्नी और वह के बीच जब मामला भयावह रूप धारण कर लेता है तब विकट स्थिति पैदा हो जाती है. एक सामाजिक डॉक्टर के रूप में मैं तो हमेशा यही सलाह देता हूं कि दोनों ही पक्षों को ऐसी परिस्थितियों में समझदारी का परिचय देना चाहिए. पुरुष को अपनी गलती स्वीकार कर लेनी चाहिए और वह के प्रति तोबा कर लेनी चाहिए. वही धर्मपत्नी का भी कर्तव्य है की पति को एक मौका देते हुए, परिवार को टूटने से बचाना चाहिए.

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