लता मंगेशकर के गाने ने दी इस महिला को नई पहचान, हुआ मेकओवर

“एक प्यार का नगमा है” 70 के दशक का ये गाना उन दिनों सभी के पसंदिदा गानों में से एक था. इस खूबसूरत गाने को मशहूर सिंगर लता मंगेश्कर ने अपनी आवाज से और सुरमई बनाया था. आज 2019 में इस गाने से एक महिला करोड़ो लोगों का दिल जीत चुकी हैं. इस महिला ने ये गाना इमोशन्स के साथ गाया है जो कि लोगों को लता जी की याद दिला रहा था. हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें एक महिला “एक प्यार का नगमा है” गाना गा रही थी और उनकी आवाज में बिल्कुल वहीं सुर ताल थे, जो कि लता मंगेसकर में देखा जाता था. लोग उन्हें लता मंगेश्कर से भी कम्पेयर कर रहे थे.

एक खाने  ने दिलाई पहचान

सोशल मीडिया ने इस महिला को काफी फेमस कर दिया है. कुछ दिन पहले ही जो महिला सड़क किनारे ये गाना गाती दिखीं, आज उसकी काया पलट हो गई है. फोटो में जो खूबसूरत महिला है वो और कोई नहीं बल्कि  जिसे कुछ दिन पहले ये गाना गाते देखा गया वही है. सोशल मीडिया पर वीडियों आते ही इस महिला को बौलीवुड सेलेब्स का भी खूब रिस्पोन्स मिला था. सेलेब्स ने भी गाने के लिए महिला की खूब तारिफ की. बौलीवुड एक्ट्रेस करीना कपूर खान ने तो अपने इंस्टाग्राम पर इस महिला की वीडियो शेयर कर उनकी तारीफ की थी.

 मेकओवर के बाद viral lady

जब लोग दूसरों के हुनर को सरहाते है तो लोगों को कहानी मिलती है, जिससे वो अपनी जिंदगी में भी कुछ सीख पाते है. इस महिला को मिली पहचान इस बात का सबूत की आपका हुनर ही आपकी पहचान बन सकती है. पश्चिम बंगाल के रानाघाट रेलवे स्टेशन पर रिकार्ड किए गए इस वीडियो में रानू मंडल नाम की इस महिला का अब मेक औवर हो चुका है. उन्हें मुंबई के एक रिएलिटी शो में गाने का औफर मिला है. इस रिएलिटी शो में मुंबई जाने के लिए एक इवेंट कंपनी उनका खर्च उठा रही है. अगर सबकुछ ठीक रहा तो रानू मंडल की किस्मत के तारे बुलंदी पर होंगे. इस महिला के वीडियो ने उन्हें रातों-रात इंटरनेट सेंसेशन बना दिया.

उन्नाव कांड: आखिरकार इलाज के लिए दिल्ली पहुंची रेप पीड़िता

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लखनऊ के केजीएमयू ट्रौमा सेंटर में उन्नाव रेप पीड़िता और उसके वकील को बेहरत इलाज के लिए दिल्ली के एम्स ट्रांमा सेंटर शिफ्त किया गया है. रेप पीड़िता को सोमवार देर रात जबकि उसके वकील को मंगलवार को एम्स के ट्रांमा सेंटर में भर्ती कराया गया. एम्स के डाक्टरों की एक टीम दोनों घायलों की पूरी मेडिकल जांच में जुटी है. उनके इलाज पर नजर रखेगी. फिलहाल दोनों घायलों की हालत गंभीर बनी हुई है. डाक्टर की टीम उसपर 24 घंटे अपनी नजर रखेंगे.

28 जुलाई को उन्नाव रेप पीड़िता के वकील को ट्रौमा सेंटर में भर्ती कराया गया था. वेंटिलेटर यूनिट में वकील का इलाज चल रहा था. केजीएमयू प्रवक्ता ने बताया कि मरीज वेंटिलेटर पर था. इसलिए शिफ्ट करने में खास सावधानी बरती गई. उन्होंने बताया कि एयर एम्बुलेंस में सिर्फ एक मरीज को ले जाने का स्थान था. लिहाजा वकील को आज दिल्ली के अस्पताल में शिफ्ट किया जा रहा है.

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सोमवार को रेप पीड़िता की मां की अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने रेप पीड़िता को दिल्ली एम्स लाने को कहा था. इसके बाद वकील को भी दिल्ली एम्स लाने का आदेश दिया. रेप पीड़िता सोमवार देर रात 9 बजे एयर एम्बुलेंस से दिल्ली पहुचीं वहां से सिर्फ 18 मिनट में एक एम्बुलेंस उसे एम्स ट्रांमा सेंटर पहुंचाया गया. इसके बाद मंगलवार सुबह रेप पीड़िता के वकील को एयर एम्बुलेंस से दिल्ली एम्स में शिफ्ट किया गया. मंगलवार सुबह करीब 10.30 बजे ट्रॉमा से एम्बुलेंस लेकर लखनऊ एयरपोर्ट की ओर निकली. जहां से एयर एम्बुलेंस के जरिए उन्हें दिल्ली लाया गया.

बता दें कि उन्नाव रेप पीड़िता अपने वकील और दो आंटियों के साथ बीते 28 जुलाई को कार से रायबरेली में कही जा रही थी. उसी वक्त उनकी कार का एक ट्रक से एक्सीडेंट हो गया. इस हादसे में रेप पीड़िता और उसका वकील गंभीर रूप से घायल हो गए जबकि उनकी दोनों आंटियों की मौत हो गई. घायल रेप पीड़िता और उसके वकील को लखनऊ के केजीएमयू अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

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उन्नाव की उलझन

चूंकि अपराधी भारतीय जनता पार्टी का नेता है, उसे हर तरह की मनमानी करने का पैदाइशी हक है और उस के रास्ते में जो आएगा उस की मौत भी होगी तो बड़ी बात नहीं. इस लड़की के पिता को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया गया कि उस ने अपनी बेटी को शिकायत करने से क्यों नहीं रोका. वहां उसे मार डाला गया.

उस लड़की ने खुद को जलाने की कोशिश की तो उस पर तोहमत लगा दी गई. लड़की के चाचा को गिरफ्तार कर लिया गया और अदालत से सजा दिला दी गई. अब जब लड़की, उस की चाची और चाची की बहन जेल में बंद चाचा वकील के साथ लौट कर गाड़ी से आ रहे थे तो एक बड़े ट्रक ने उसे टक्कर मार कर चकनाचूर कर दिया जिस में चाची और चाची की बहन मारी गईं. लड़की बच गई जो न अस्पताल में सुरक्षित है, न घर में रहेगी. मां को हर हाल में समझौता करना पड़ेगा. वह कब तक सरकार से लड़ेगी?

यह कहानी आज की नहीं सदियों की है. देश में बलात्कार की शिकार ही जिम्मेदार है, बलात्कारी नहीं. बलात्कारी का तो हक है खासतौर पर अगर वह शिकार से ऊंची जाति का हो. पहले लड़कियों के पास कुएं या नदी में कूदने या फांसी लगाने के अलावा कोई और रास्ता न था, आज पुलिस में शिकायत का हक है पर तभी अगर दूसरी तरफ का कुछ कमजोर हो, पैसे और रसूख वाला न हो. जिस पर बलात्कार का आरोप है और जो जेल में बंद है, उसे शुक्रिया कहने 4 जुलाई को भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महाराज जेल में पहुंचे थे और उन्होंने कहा था, ‘‘हमारे यहां के यशस्वी और लोकप्रिय विधायक कुलदीप सेंगर जो काफी दिनों से यहां हैं. चुनाव के बाद उन्हें धन्यवाद देना उचित समझा तो मिलने आ गया.’’

यह लड़की भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर के घर नौकरी मांगने के लिए 2017 में गई थी. उस का कहना है कि उस के साथ गलत काम किया गया था. शिकायत करने के बाद उस के घर वालों को धमकियां मिल रही थीं और अब अमलीजामा पहना दिया गया है.

इस मामले में बहुतकुछ नहीं होगा. सबकुछ रफादफा हो जाएगा, क्योंकि गलत तो लड़की ही थी, क्योंकि ऐसे मामले में गलती लड़की की ही होती है. ‘रामायण’ तक में अहल्या और सीता गलत थीं. सजाएं उन्हें ही मिली थीं. ऐसे समय जब पौराणिक युग को वापस लाया जा रहा हो, जब पिछले जन्मों के कर्मों के फल का पाठ पढ़ाने वाली किताबों को ही अकेला ज्ञान माना जा रहा हो, यह तो होना ही था.

यह संदेश है बलात्कार की शिकार हर लड़की को कि बलात्कार के बाद घर जाए, नहाए, क्रोसिन की 4 गोलियां ले कर सो जाए और हादसे को भूल कर अगली बार इसे दोहराने को तैयार रहे. यह तो होगा ही अगर वह जरा भी जवान है. बच्चियों और प्रौढ़ों को भी नहीं छोड़ा जाता और उन के लिए भी संदेश है कि हम 2019 में नहीं 919 में रह रहे हैं, जब इस देश में पूरी तरह धर्म राज था. सुनहरे दिन लौट रहे हैं.

सोशल मीडिया की दहशत

पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों पर बढ़ते मारपीट के मामलों के पीछे ह्वाट्सएप, ट्विटर और फेसबुक बहुत हद तक जिम्मेदार हैं, क्योंकि ये अफवाहों, अश्लीलता, गंदीभद्दी गालियों, जातिसूचक बकवास को दूरदूर तक ले जाते हैं. पहले जो बात गांव की चौपाल के पास के पेड़ के नीचे तक, शहर में महल्ले की चाय की दुकान या कालेज की कैंटीन तक रहती थी अब मीलों, सैकड़ों मीलों, चली जाती है.

यह मानना पड़ेगा कि ऊंची जातियों के पढ़ेलिखों में ऐसे बहुत से सोशल मीडिया लड़ाकू हैं जो तुर्कीबतुर्की जवाब देने में माहिर हैं. वे सैकड़ों में सही साफ बात कहने वाले की खाल उतार देते हैं. उन के पास सच नहीं होता तो वे झूठ पर उतर आते हैं, उन के पास जवाब नहीं होता तो गाली पर उतर आते हैं. वे बारबार पाकिस्तान भेजने की धमकी दे सकते हैं.

इन सोशल मीडिया बहादुरों ने चाहे कभी मजदूरी न की हो, कोई सामान न ढोया हो, किसी सीमा पर पहरेदारी न की हो, कुछ देश के लिए बनाया न हो, पर ये देशभक्त ऐसे बने रहते हैं मानो भारत इन की वजह से एक है और सैनिक, व्यापारी, किसान, मजदूर, बेरोजगार से ये ज्यादा देश के लिए मर रहे हैं.

इन के पास पढ़ेलिखों का मुंह बंद करने की ताकत आ गई है क्योंकि ये शोर मचा कर सही बात को कुचल सकते हैं. इन के पास समय ही समय है इसलिए ये हर तरह की टेढ़ीमेढ़ी बात गढ़ सकते हैं. ये दलितों के अत्याचारों की कहानियां बना सकते हैं. ये मुसलमानों द्वारा की गई हत्याओं की झूठी कहानियों को ऐसे फैला सकते हैं मानो ये वहीं खड़े थे. दलितों की पिटाई पर ये शिकायत करने वाले की खाल खींच सकते हैं.

ये आदतें इन्हें पीढि़यों से मिली हुई हैं. पीढि़यों से उलटीसुलटी कहानियां कहकह कर ही देशभर में झूठ के मंदिर फैले हुए हैं और वहां से इन लोगों को अच्छी आमदनी होती है. वास्तु, भविष्य, टोनेटोटके, कुंडली, हवनपूजन के नाम पर इन की आमदनी पक्की है. चूंकि पढ़ाई में अच्छे होते हैं, किताबें इन के हिसाब से बनती हैं, इन्हीं के साथी परीक्षा लेते हैं, नौकरियां इन को ही मिलती हैं. जो आरक्षण पा कर कुछ ले रहे हैं वे डरेसहमे रहते हैं, चुप रहते हैं, उन के मुंह से बस ‘जी हुजूर’, ‘जय भीम’, ‘जय अंबेडकर’ निकलता है.

वैसे भी पिछड़ों और दलितों के तो मन में गहरे बैठा है कि वे तो पिछले जन्मों के पापों का फल भोग ही रहे हैं, अगर उन्होंने इन लोगों को जवाब दिया तो उन का हाल शंबूक और एकलव्य जैसा होगा, उन्हें मरने के लिए घटोत्कच की तरह आगे कर दिया जाएगा. वे तो आज भी गंदे सीवर में डूब कर उसे साफ करने भर लायक हैं. वे ट्विटर, फेसबुक, ह्वाट्सएप की तो छोडि़ए एक पोस्टर भी नहीं पढ़ने की हिम्मत रखते. वे क्या मुंहतोड़ जवाब देंगे. और जवाब नहीं दोगे तो बोलने वाले की हिम्मत बढ़ेगी ही, वह मुंह भी चलाएगा और हाथपैर भी चलाएगा ही.

हकीकत: सरकारी नौकरी में मोटी कमाई

लेखक-शशि पुरवार

एक समय था जब लोगों का मोटी तनख्वाह के चलते प्राइवेट कंपनियों की तरफ रुझान था, पर आज पैंशन व सरकारी सुविधा के चलते सरकारी नौकरी सब से बड़ी जरूरत बन गई है. लेकिन सरकारी नौकरी में सीमित कमाई के चलते कुछ लोगों ने घूसखोरी को अपनी जिंदगी का अंग बना लिया है या यह कहें कि लालच के दानव ने अपना विकराल रूप धर लिया है.

इस से देश में भ्रष्टाचार बढ़ गया है. बिना कुछ लिएदिए कोई काम नहीं होता है. हर छोटाबड़ा मुलाजिम मुंह खोल कर पैसे मांगने लगा है.

कमोबेश हर सरकारी दफ्तर का यही हाल है. सरकारी नौकरी में हर कोई मोटा कमा सकता है. सरकारी कामों में कानूनी दांवपेंच, धीमी रफ्तार व कानूनी पेचीदगी के चलते घूसखोरी बढ़ी है. कामों के पूरा होने की जल्दबाजी में भ्रष्टाचार का दानव हमें जबरन पालना पड़ता है.

हमारे एक जानकार लोक निर्माण विभाग में अफसर हैं. उन के पास सरकारी आवासों, दफ्तरों के निर्माण कार्य के लिए ठेकेदारों की लाइन लगी रहती है. वे जनाब 2 फीसदी घूस खा कर ही ठेका दिलाते हैं, फिर निर्माण कार्य में लगने वाला सामान हलका हुआ तो उसे भी पास करा देते हैं.

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हाल ही में सरकारी दफ्तरों व आवासों में मरम्मत का कार्य शुरू हुआ. 3 साल से खस्ताहाल रंगरोगन व दरवाजे की दुरुस्ती का काम अटका हुआ था. वे जनाब हर बार कहते कि टैंडर पास नहीं हुआ है, फिर भी उन के आवास में नियमित काम होते रहते हैं. वह सरकारी आवास कम निजी बंगला ज्यादा नजर आता है. उन की पत्नी कहती हैं कि जब तक नौकरी में हैं तब तक ऐश कर लें.

कोई भी सरकारी विभाग हो, वहां काम टैंडर द्वारा ही पास किए जाते हैं. लेकिन जहां कांट्रैक्टर किसी का सगासंबंधी हुआ या कमीशन बंधा हो तो झट से टैंडर पास हो जाते हैं.

हाल ही में सरकारी आवासों का जायजा लिया गया. छत टपक रही थी. थोड़ी मरम्मत की जरूरत थी. छोटी सी छत में 4 किलो सीमेंट व चूना लगवाने में सरकारी बिल की रकम थी 2-3 लाख रुपए. इस पर भी 2-3 लाख की रकम में दूसरे काम शुरू होने के इंतजार में टैंडर ही खत्म हो गया.

लंबे समय बाद फिर टैंडर पास हुआ. मरम्मत के लिए आया हुआ सामान हलकी लागत का था. दीवारों के रंग सूखने से पहले ही पपड़ाने लगे. आवास का टूटा हुआ दरवाजा हलके फाइबर के दरवाजे से बदला गया, जिसे कोई धीरे से भी धक्का मार दे तो वह टूट जाए. ऐसे में यह चोरों के लिए खुला न्योता था और आवासों में रहने वालों के लिए सिक्योरिटी का सवाल अलग.

इस बात की शिकायत दर्ज की गई, तो जवाब मिला कि लकड़ी का दरवाजा पानी से खराब हो जाता है इसीलिए फाइबर का दरवाजा लगाया जो सड़ेगा भी नहीं. आजकल बड़ेबड़े बंगलों में भी यही दरवाजे लगते हैं.

अफसर की पत्नी ने कहा कि सामान की क्वालिटी घटिया है. इस ने स्टैंडर्ड खराब कर दिया है. यह ए क्लास अफसर का आवास है, तो टैंडर पास करने वाले ने जवाब दिया, ‘‘अच्छी क्वालिटी का काम कराना है तो आप खुद पैसे दे कर काम करा लें.’’

जब ज्यादा जोर दिया गया तो जवाब मिला, ‘‘आप को 2-3 साल ही रहना है. आप क्यों नाराज हो रहे हैं? आप अपने घर में जैसा चाहे काम करवाना.’’

ठेकेदार से जब बात हुई तो वह बोला कि पैसा ही नहीं देते हैं. एक साल से उस का पैसा अटका पड़ा है. खराब काम करेंगे तभी अगला टैंडर जल्दी मिलेगा. मसलन, काम किया भी और नहीं भी किया. चोरचोर मौसेरे भाई ही होते हैं.

बात की ज्यादा कब्र खोदने पर पता चला कि जो लोग ज्यादा शोर मचा रहे थे उन का थोड़ा अच्छा काम करा दिया, बाकी लोगों को हमेशा की तरह लाल झंडी दिखा दी. ऐसे लोग 3 साल कैसे भी काट कर चले जाते हैं. सरकारी भ्रष्टतंत्र का शिकार खुद सरकारी मुलाजिम भी होते हैं.

एक बार दफ्तरों के लिए लैपटौप और प्रिंटर खरीदने का टैंडर पास हुआ. लाखों का होने वाला खर्च है, तो जायज है कि अच्छा सामान ही और्डर करना चाहिए. लेकिन आज की टैक्नोलौजी को छोड़ कर, नाम के लिए पुरानी बेकार होती टैक्नोलौजी को ही पास करा दिया गया. पास करने वाले लोग टैक्नोलौजी से अनजान थे, तो जायज है कि अच्छा काम कैसे होगा. अलगअलग टेबल पर ऐसे भी लोग थे जिन्होंने कह दिया कि हमें तो कभी इतनी सुविधा नहीं दी गई है. आजकल के बच्चों को हर सुविधा दे रहे हैं. जलेभुने मन से रिटायरमैंट पर बैठे अफसर बेमन से काम को धक्का लगा रहे थे.

2,000 पीस के और्डर दिए गए और कंपनी से मोलभाव कर के ऐसा सामान तय हुआ कि उस की ज्यादा से ज्यादा 5 साल तक ही लाइफ हो, फिर अगर सरकार बदलेगी तो माल भी बदलेगा यानी पैसे की खुलेआम बरबादी. ज्यादा कहो तो जवाब मिलेगा कि सरकारी माल है. बेचने वाले भी जानते हैं कि सरकारी टैंडर बड़े होते हैं, टिकाऊ सामान दिया तो जेब गरम नहीं होगी. सरकारी दफ्तर है तो क्या फिक्र है.

एक के बाद एक टेबल से गुजरते हुए फाइल अपनी मंजिल तक पहुंची. साथ ही उन लोगों की जेबें भी गरम होती चली गईं जो सीधे जनता से डीलिंग कर रहे थे.

ऐसे में उस अफसर की सोच पर गुस्सा आ रहा था जिस ने लमसम अमाउंट का बिल पास किया. ज्यादा जांच न हो ऐसा आदेश कमेटी को दिया गया. ऊपर की कुरसी पर बैठने वाले साहब कड़क थे. जब सभी बातों के प्रूफ मांगे गए तो झट से फाइल का तबादला करा दिया कि साहब तकलीफ दे रहे हैं.

उन्हें कुछ न बता कर डीलिंग करने वाले मातहत ने अपना कमीशन तय किया और सस्ता माल ले कर तगड़ा बिल पास करा लिया और उस की पांचों उंगलियां घी में थीं.

बारिश का मौसम आते ही हर शहर की सड़कों की खस्ताहाली से सब परिचित हैं. गड्डे एक तरफ जहां लोगों की नाक में दम करते हैं वहीं दूसरी तरफ हादसों की वजह बनते हैं.

कई सड़कें हर साल बरसात में अपनी बदहाली की दास्तान बयां करती हैं. पर आखिर ऐसा काम क्यों नहीं होता जो टिकाऊ हो? ऐसे काम कुछ दिनों में ही अपना बदरंग चेहरा दिखा देते हैं.

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कोर्ट में काम करने वाले वकील, चपरासी, बाबू का सीधा संबंध लोगों से होता है. कहीं कोई फाइल आगे बढ़ानी है या किसी को दबाना है, किस तरह पैसे खाने हैं, ये लोग शिकायत करने वाले से सांठगांठ कर लेते हैं.

एक केस आंखों देखा है. वकील ने एक आरोपी से कहा, ‘‘काम हो जाएगा, लेकिन पैसे लगेंगे.’’

पैसे ले कर वकील अंदर चला गया. आरोपी खुश था कि काम हो जाएगा, पर जज साहब इस बात से अनजान थे, लिहाजा आरोपी को सजा हुई और बाद में वकील मुकर गया.

अगर सरकार में कोई ईमानदार है तो उसे इस का खमियाजा भी भुगतना पड़ता है. एक दिन एक ईमानदार साहब ने अपने चपरासी को सर्दियों में बाहर हाथ सेंकते देख लिया. खूब डांट लगाई

तो स्टाफ का रंग ही बदल गया. बिना

स्टाफ के कोई भी अफसर काम नहीं कर सकता है. ऊपर बैठे आमखास को काम चाहिए, पर नीचे बैठा तबका उन के हाथ भी काटता है.

ईमानदार अफसर चतुर्थ श्रेणी के लोगों की पैतरेबाजी का शिकार हो कर मानसिक पीड़ा भोगते हैं. चतुर्थ श्रेणी व निचला तबका जानता है कि उसे अपने हकों का कैसे इस्तेमाल कैसे करना?है.

एक अफसर ने कड़क रुख अपनाया तो सभी अपनी यूनियन के साथ धरने पर बैठ गए. किसी ने उन का काम नहीं किया. गुंडाराज खुलेआम कायम है.

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आज के समय में इस सब के सही आकलन की जरूरत है. नियमों और योजनाओं का निजी फायदा उठाने वालों के प्रति कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए. इस में बेचारा ईमानदार इनसान मारा जाता है. क्या ऐसे लोगों की तरफ सरकार का या मीडिया का ध्यान जाएगा?

बाड़मेर हादसा: जानलेवा बना धर्म

लेखक- मदन कोथुनियां

राजस्थान के बाड़मेर जिले की बलोतरा तहसील के जसोल गांव में राम कथा सुन रहे 14 भक्तों की मौके पर ही मौत हो गई और दर्जनों लोग घायल हो गए. भगवान राम, खुद की कथा सुन रहे भक्तों को बचा नहीं सके. कथावाचक, आम जनता, जिन को भगवान राम का नजदीकी मानती है, को भी पंडाल छोड़ कर भागना पड़ा.

इस का सीधा सा मतलब यही है

कि कथा वगैरह से कोई फायदा नहीं

है, महज समय की बरबादी है. अगर भगवान राम के पास शक्ति होती तो अपनी ही कथा सुन रहे भक्तों को मौत के मुंह में जाने से रोक सकते थे, लेकिन नहीं रोका.

अब कुछ पाखंडी लोग ये कह कर अपने मन को और भगवान के भरोसे न रहने वाले लोगों को संतुष्ट करते नजर आएंगे कि ‘भगवान राम की कृपा थी इसीलिए इतने ही लोग (भक्त) मरे हैं, नहीं तो क्या पता कितने मरते. उन को तो बिना किसी कष्ट के भगवान ने अपने पास बुला लिया. और जो मरे हैं, उन में ज्यादातर लोग (भक्त) बूढ़े थे वगैरह.

गौरतलब है कि दुनिया में जितनी हत्याएं धर्म के नाम पर हुई हैं, उतनी मौतें युद्ध या दूसरे कुदरती हादसों में नहीं हुई हैं. हर महीने भारत में कहीं भगदड़, कहीं पैदल यात्राओं में दुर्घटनाएं तो कहीं धार्मिक आयोजकों की लापरवाही से दर्जनों मौतें होती हैं.

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धार्मिक दंगों का इतिहास ही इस देश का असली इतिहास रहा है. जितनी मौतें अकाल, बाढ़ वगैरह से नहीं हुईं, उस से ज्यादा मौतें एक दूसरे धर्म के अनुयायियों को खत्म करने के अभ्यास में हो गईं.

कुछ साल पहले राजस्थान के ही जोधपुर के चामुंडा माता मंदिर में सैकड़ों लोग मारे गए थे. माता की आस्था व दंड विधान को छोड़ कर सरकारी जांच आयोग बिठाया गया था, मगर आज तक कोई दोषी साबित नहीं हुआ. न माता ने किसी दोषी को सजा दी, न ही राजस्थान की सरकार ने.

राजस्थान में अभी बोआई का सीजन चल रहा है. मानूसन का मौसम है. किसानों के बीच एक कहावत है कि ‘टेम पर बोयो सालभर खायो’. अगर समय पर बोआई की तो पूरे साल का इंतजाम हो जाएगा, मगर इसी दौरान भागवत, सत्यनारायण, राम कथा वालों के पंडाल जगहजगह लगा दिए गए हैं.

23 जून, 2019 की दोपहर में बाड़मेर के जसोल गांव में राम कथा का आयोजन जोरशोर से चल रहा था. मौसम का मिजाज बदला और तंबू उखड़ गए. एक दर्जन से ज्यादा लोगों की मौतें हो गईं और तकरीबन 80 लोग घायल हो गए. हजारों की तादाद में आयोजकों ने भीड़ जमा कर ली थी.

कथावाचक राम कथा सुना रहे थे. अकसर ऐसे पंडाल लगते हैं तो प्रशासन खामोश बैठ जाता है. प्रशासन की मानसिक दशा ऐसी है कि वह इन को तमाम कानूनकायदों से ऊपर समझ कर किनारे हो जाता है.

जो मुक्ति का मार्ग बता रहा था, ऊपर वाले की इच्छा के विरुद्ध पत्ता भी हिलना नामुमकिन बता रहा था, वह

हवा के तेज झोंके से टैंट हिलते ही खुद हिलने लग गया.

वायु देवता व इंद्र देवता की महानता की कथा सुनातेसुनाते इन के रौद्र रूप

का कहर ऐसा टूटा कि दर्जनों घरों में कोहराम मच गया.

दरअसल, यह मनोरोगियों का देश है. पूंजी व सत्ता के लिए इनसानियत को ताक पर रख रहे दरिंदों का अड्डा है. गधे तैरना सीख गए हैं. भेड़ों को ले कर चल देते हैं और खुद तैर कर नदी के उस पार मौज उड़ाते हैं और भेड़ें बेचारी बेमौत मारी जाती हैं.

धर्म निजी आस्था का विषय तो है ही नहीं. इस तरह जुलूसों, झांकियों, पंडालों में ही धर्म की शक्ति का प्रदर्शन होता है. जहां शक्ति प्रदर्शन हो, वहां धर्म नहीं हो सकता. जहां शक्ति प्रदर्शन हो, वहां धंधा चल सकता है, व्यापार चल सकता है. यही धर्म चलता है.

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यह है पूरा मामला

बाड़मेर जिले के बलोतरा इलाके के जसोल गांव में रविवार, 23 जून, 2019 को दर्दनाक हादसा हुआ. यहां राम कथा के दौरान उठे बवंडर से पहले तो लोहे के पाइपों से बना पंडाल (डोम) 20 फुट ऊपर तक उड़ गया, फिर नीचे गिरा. इस के बाद उस में करंट दौड़ गया. इस से 14 श्रद्धालुओं की मौत हो गई, जबकि 80 से ज्यादा घायल हो गए.

हवा की रफ्तार इतनी तेज थी कि तकरीबन डेढ़ मिनट में ही पूरा पंडाल तहसनहस हो गया और किसी को भी संभलने का मौका नहीं मिला.

कथा के लिए राजकीय सीनियर स्कूल परिसर में माता राणी भटियाणी मंदिर ट्रस्ट की ओर से यह पंडाल लगाया गया था. कथा की शुरुआत दोपहर 2 बजे से हुई थी. तकरीबन सवा 3 बजे हलकी हवा के साथ बूंदाबांदी हुई.

दोपहर के तकरीबन साढ़े 3 बजे पंडाल के प्रवेश द्वार से अचानक बवंडर उठा और डेढ़ मिनट में तबाही मचा दी.

हादसा होते ही टैक्सी, टैंपो, एंबुलैंस समेत अलगअलग वाहनों से घायलों को अस्पताल पहुंचाया गया.

सूचना मिलते ही प्रशासन, पुलिस के अफसर मौके पर पहुंच गए. आसपास की निजी डिस्पैंसरियों से भी डाक्टरों व स्टाफ को बुला लिया गया. कथा स्थल चीखपुकार में तबदील हो गया.

हादसे की खास वजह

कथा की शुरुआत दोपहर 2 बजे हुई थी. तकरीबन सवा 3 बजे आंधी के साथ बूंदाबांदी शुरू हुई. पंडाल में पानी टपकने लगा तो आयोजकों ने श्रद्धालुओं को आगेपीछे किया. लेकिन कथा जारी रही. दोपहर तकरीबन साढ़े 3 बजे अचानक बवंडर उठा और पंडाल गिर गया.

बिजली काटी गई, पर आटोमैटिक जनरेटर औन हो गए. पंडाल गिरते ही करंट दौड़ा तो बिजली काट दी गई. लेकिन वहां 2 आटोमैटिक जनरेटर लगे थे, वे स्टार्ट हो गए और करंट बना रहा. उधर, बिजली विभाग के एक्सईएन सोनाराम चौधरी ने कहा कि आयोजकों ने कार्यक्रम के लिए कोई बिजली कनैक्शन नहीं लिया था.

प्रख्यात महाराज थे, इस के बावजूद प्रशासन ने पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए? मुरलीधर महाराज मारवाड़ के प्रसिद्ध कथावाचक हैं. इन के कार्यक्रमों में भीड़ उमड़ती है. इस के बावजूद प्रशासन ने इस तरह के आयोजन को ले कर सुरक्षा संबंधी तैयारियों का जायजा क्यों नहीं लिया?

पंडाल में हवा पास होने के लिए जगह ही नहीं छोड़ी. यही वजह रही कि जब तूफानी हवा आई तो पंडाल गिर गया. डोम का फाउंडेशन कमजोर था. इसी वजह से एंगल उखड़ कर शामियाने के साथ हवा में उड़ गए.

‘बाड़ों’ में बसते बाहरी मजदूर

लेखक-अनिल अनूप

जैसे यहां की साइकिल इंडस्ट्री में तो वे उतने ज्यादा नहीं हैं, जितने हौजरी में या लोहे के पुरजे वगैरह बनाने में, पर वे रिकशा चलाने वालों में भारी बहुमत में हैं, तो ठेलारेहड़ी, छोटी दुकान लगाने के मामले में एकदम कम हैं. दिल्ली की तरह यहां की दुकानों में सहायक के तौर पर बाहरी मजदूरों को रखने का चलन अभी ज्यादा नहीं हुआ है.

दिल्ली से पंजाब की तरफ रेल या बस से आगे बढि़ए तो 2 चौंकाने वाली बातें दिखती हैं. दोनों तरफ दूरदूर तक धान के लहलहाते खेत और उन की खुशबू यह भरम पैदा कर सकती है कि कहीं हम धान उगाने, भात खाने वाले प्रदेश में तो नहीं पहुंच गए हैं.

गेहूं और रबी के इलाके का यह सीन चौंकाता है. जगहजगह पंप से पानी सींचते, खाद छींटते, धान रोपतेकाटते लोगों पर भी गौर करिएगा तो वे भी पंजाब और हरियाणा के लंबेतगड़े जैसे लोग नहीं लगेंगे. धान के खेत तो दिल्ली से बाहर निकलते ही शुरू हो जाते हैं पर असली ‘धनहर’ इलाका पानीपत, करनाल, अंबाला से शुरू होता है और हरियाणा के बाद पूरे पंजाब में यह नजारा दिखता है.

लुधियाना के आसपास बाहरी मजदूरों के ‘क्वार्टर’ मुरगी के दड़बों जैसे होते हैं. 7 या 8 फुट लंबे और इतने ही चोड़े कमरों की कतारें इन जैसे मजदूरों के लिए बनवा दी गई हैं. ये ‘क्वार्टर’ भी ऐसे ही 2 कतार वाले होते हैं. बीच में थोड़ी आंगननुमा लंबी खाली जगह होती है. 2 दर्जन कमरों के लिए एक हैंडपंप, एक शौचालय बना होता है. ‘क्वार्टर’ ज्यादा हैं तो उसी हिसाब से इन ‘सुविधाओं’ की तादाद भी ज्यादा होती है. अगर जगह कम पड़ रही हो तो कमरों को 2-3 मंजिल तक ऊपर उठा दिया जाता है.

लुधियाना की बाबा दीप सिंह कालोनी, जिसे लोकल लोग ‘भैया कालोनी’ कहते हैं, में ऐसे 108 कमरों के तिमंजिले ‘बाड़े’ हैं.

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बीएमएस के लोकल मजदूर नेता रामकृष्ण आजाद ने बताया कि कंगनवाल रोड पर 422 कमरों का ‘बाड़ा’ पूरे शहर में सब से बड़ा ‘बाड़ा’ है.

बाबा दीप सिंह कालोनी, कंगनवाल रोड, गिल रोड, इंडस्ट्रियल एरिया, ट्रांसपोर्ट नगर, सिमराला चौक, फोकल पौइंट, हीरा नगर, मोती नगर, भगत सिंह कालोनी, शेरपुर, मुसलिम कालोनी वगैरह में ऐसे ही ‘बाड़े’ बने हैं.

‘बाड़ा’ या ‘बाड़’ शब्द हिंदी में एकदम अलग मतलब बताता है. पंजाबी में मजदूरों वाली इस तरह की रिहाइश को ‘बाड़ा’ या ‘बाड़’ कहते हैं.

यह शब्द आज पहली बार सामने नहीं आया है. जब खुद पंजाब के लोगों ने पिछली सदी के आखिर और इस सदी की शुरुआत में दक्षिणपश्चिम में बनने वाली नहरों से जुड़ी कालोेनियों में रहना शुरू किया था, तो वे खुद भी उन्हें ‘बाड़ा’ ही कहा करते थे. बाहरी मजदूर इन्हें ‘क्वार्टर’ कहते हैं.

और जब वे लोग ‘क्वार्टर’, ‘ड्यूटी’, ‘ओवरटाइम’, ‘लंच’, ‘औफ’ जैसे शब्द कहते हैं तो इन का सिर्फ एक साधारण मतलब नहीं रहता. उस मतलब में तो इन 6-7 लोगों वाले एक कमरे को ‘क्वार्टर’ नहीं कहा जा सकता. इन शब्दों के जरीए ये लोग एक सांस्कृतिक फासले को भरने की कोशिश भी करते हैं. यह फासला शहरगांव, बिहारपंजाब, अमीरगरीब, वाला तो है ही, अपने गांव के बड़े लोगों और अपने बीच के फर्क का भी है.

इन शब्दों को अगर वे उन के सही मतलब में समझते तो उन को पाने की कोशिश भी करते. न्यूनतम मजदूरी, महंगाई भत्ता, प्रोविडैंट फंड, ईएसआई, ग्रैच्यूटी, बोनस, छुट्टियां जैसी बुनियादी बातों की परवाह भी उन्हें नहीं होती. लुधियाना जैसे शहर में, जिसे ‘पंजाब का मैनचैस्टर’ कहा जाता है, संगठित क्षेत्र में सालों से काम करने के बावजूद यह हालत थी.

गांव में मजदूरों से मिलने के बाद लुधियाना का उन का पता और पहुंचने का निर्देश लेने के बावजूद उन्हें ढूंढ़ लेना आसान नहीं था. कभी लोधियों के 2 सामंतों द्वारा सतलुज के पास बसाई गई लोधियान बस्ती आज पंजाब ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तरपश्चिमी भारत में दिल्ली के बाद सब से बड़ा शहर बन गई है और 14 लाख बाहरी मजदूरों के चलते पंजाब में उत्पादन का सब से बड़ा ठिकाना. इस में बड़ेबड़ों को जब अपनी पहचान बनाने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है तो फिर अनपढ़, पिछड़े, कमजोर, बाहरी मजदूरों को कौन पूछता है.

ज्यादातर पते किसी किराना दुकानदार या गली के डाक्टर के मारफत के होते हैं जिन की सेवाएं वे मजदूर लेते हैं. ये दुकानदारडाक्टर भी नाम और चेहरे, दोनों को एकसाथ देखे बगैर मजदूर को नहीं पहचान सकते हैं.

अपनी फैक्टरियों का पता ये लोग देते नहीं. सो, दुकानदारडाक्टर को भी जब तक मजदूर के मूल जिले, उस के गांव, उस के समूह, उस के काम के बारे में न बताया जाए, वे भी कोई मदद करने की हालत में नहीं रहते. जब इतने सारे ब्योरे और बैकग्राउंड बताने पर उस को सही पते का अंदाजा होता है तो वह आप को किसी ‘बाड़े’ में भेज देगा या भिजवा देगा.

उस ‘बाड़े’ में अपने मजदूर का कमरा पता करने के लिए आप को फिर से यह सारी मशक्कत करनी पड़ती है. उस के कमरे में पहुंचते ही कई धारणाएं एकसाथ ढह जाती हैं. ठीकठाक कमाई करता बाहरी मजदूर हर महीने अपने गांव में जितनी औसत रकम (8,000 रुपए से 12,000 रुपए) भेजता है, उस से किसी को भी यह लगेगा कि वह कम से कम इस की दोगुनी रकम कमाता ही होगा. परदेश में रहना, खानापहनना,  आनाजाना, लेनदेन सब लगा ही रहता है और आदमी लाख कम खर्च करे, 8-10 हजार रुपए से कम में क्या रहेगा.

अपनी कमाई और रहने के बारे में ये लोग गांव में कुछ ऐसा ही बताते भी हैं. पर वहां पहुंचते ही लगा कि अपनी कमाई के बारे में डींग हांकने का हक सिर्फ शहरी और पढ़ेलिखे लोगों को ही नहीं है, गांव में कमाई और काम के बारे में शेखी बघारने के पीछे भी कहीं न कहीं गांव के बड़े लोगों से फासले को कम कर के दिखाने की सोच भी काम करती है.

उस कमरे में जब बैठने को कहा जाता है तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कहां और कैसे बैठा जाए. नीचे कुछ भी नहीं बिछा होता. जहांतहां मुड़ी पड़ी बोरियां होती हैं या टाट, पैकिंग के काम आने वाली पल्ली.

पूरे के पूरे ‘बाड़े’ (2 से 3 दर्जन कमरों वाले) में 2-3 से ज्यादा खाट नहीं होंगी. कपड़ों के नाम पर जितने आदमी उतनी जोड़ी लुंगी और एकाध और कपड़ा. उन्हीं में से एक पहनना, एक ओढ़नाबिछाना. रोज नहाते समय पहले वाले कपड़े को पानी में खंगाल लेना.

बैठने के साथ ही जब आप परिचित हो कर कमरे में रहने वालों की संख्या और किराए के बारे में पूछेंगे तो मालूम होगा कि किराया है 3 से साढ़े 3 सौ रुपए. 60 वाट के बल्ब से ऊपर का बल्ब लगे, पंखा लगे तो 200 रुपए महीना ऊपर से. रहने के मामले में लालाजी को बताएंगे कि 3-4 लोग रहेंगे, पर रहेंगे 6-7 लोग जिस से प्रति व्यक्ति किराया कम पड़े.

इतने लोग तो कमरे में सो भी नहीं सकते. इस का सीधा सा जवाब होता है कि बाहर या छत पर सो जाते हैं. हवा भी लगती है. शिफ्ट ड्यूटी होती है तो सर्दियों में भी दिक्कत नहीं रहती.

सुबह ही पेट भर लेना

मुरगे के बांग देने के साथ ही उठ जाना है. रोटी बना लेनी है. जितने आदमी, उतने चूल्हे. नहाधो कर भरपेट खा लेना है. 4-6 रोटी साथ ले लेनी है. ‘लंच’ के समय छोले, सब्जी कुछ ले कर रोटी खा लेते हैं. दूध कोई नहीं लेता. महीने में एकाध बार मांसमछली हो गई तो बहुत है. देर रात को घर लौटने पर भात या खिचड़ी बनती है. जितना खाया गया, खा लिया बाकी नाली या कुत्ते को दे दिया. 12-14 घंटे काम की थकान सब भुला देती है.

अब हर ‘बाड़े’ में 1-2 परिवार भी दिखने लगे हैं. अपने गांवों के मजदूरों वाले गिल रोड के ‘बाड़े’ में भी एक परिवार स्थायी रूप से रहता है, पर वह पूर्वी उत्तर प्रदेश का है और परिवार का मुखिया फल का ठेला लगाता है.

पूरे लुधियाना शहर के सारे बाहरी मजदूर इसी तरह नहीं रहते. कुछ छोटे प्लाट ले कर मकान बना कर भी रहने लगे हैं. कुछ ने झुग्गियां डालनी शुरू कर दी हैं. कुछ मालिकों की फैक्टरियोंदुकानों में भी रह लेते हैं, पर ज्यादातर ‘बाड़ों’ में ही रहते हैं. अनुपात और तादाद के हिसाब से देखें तो जमीन ले कर बसने वालों में पूर्वी उत्तर प्रदेश, मैदानी दक्षिणी बिहार वाले लोग ज्यादा निकलेंगे. झुग्गियों में राजस्थानी मजदूर होंगे जो आमतौर पर परिवार के साथ ही घर से निकलते हैं. ‘बाड़े’ या ‘क्वार्टर’ में ज्यादातर बिहारी रहते हैं.

ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि जिस दिन इन ‘बाड़ों’ में ज्यादा परिवार और उन के साथ बकरीसूअर जैसे जानवर भी आएंगे उसी दिन ये महामारियों का डेरा बन जाएंगे. अभी तो सफाईनाली, फ्लशशौचालय, स्नानघर वगैरह का इंतजाम न होने पर भी सिर्फ अकेले मर्दों के रहने से थोड़ीबहुत राहत रहती है. दिनभर घर खाली हो, ‘बाड़ा’ खाली हो तो हवासूरज ही बहुत सफाई कर देते हैं.

बाबा दीप सिंह कालोनी के जिस 108 कमरों वाले ‘बाड़े’ की चर्चा पहले की गई है उस में तकरीबन 425 लोग थे. चारों ओर से घिरे इस ‘बाड़े’ की छत पर 10 शौचालय और 10 हैंडपंप थे. खुला होने से मजदूर शौच वगैरह के लिए बाहर भी जा सकते थे.

इंडस्ट्रियल एरिया में बने 300 कमरों से ज्यादा का ‘बाड़ा’ जवाहर बिल्डिंग, जो मुश्किल से 500 वर्ग गज के प्लाट पर बना होगा, मजदूरों के सुबह काम पर निकलतेनिकलते कीचड़ से पूरा सन जाता है जिस में मलमूत्र, कचरा तो होता ही है, रात में बचे खाने का भी अपना हिस्सा रहता है. इस में चार पैसे का डीडीटी पाउडर कौन डालेगा, कोई नहीं जानता.

आप चाहे जिस ‘बाड़े’ में जाइए, जिस बस्ती में जाइए, इन कमरों के मालिक नहीं मिलेंगे. ये अकसर बड़े लोग हैं जिन्होंने बाड़ों का चार्ज आमतौर पर किराना वालों, राशन वालों को सौंप दिया है और वे हर महीने उन्हीं से पूरी रकम वसूल लेते हैं.

किराना वालों का लालच यह होता है कि जो ‘बाड़ा’ उन के कंट्रोल में रहता है उस के सभी किराएदारों को उन की दुकान से ही राशन और दूसरा सामान लेना होता है. इस में गड़बड़ का मतलब है अगले ही दिन कमरा छोड़ना.

इस से मुनाफाखोरी की गुंजाइश काफी बढ़ जाती है. जिस 108 कमरे वाले ‘बाड़े’ का जिक्र पहले किया गया है वहां कुल 413 लोग रहते मिले और सिर्फ इन सब की खरीदारी से ही कितना मुनाफा एक जगह से होता होगा, यह समझा जा सकता है.

20 साल पहले यहां वही चावल 9 रुपए किलो था जो वैसे साढ़े 7-8 रुपए में मिल रहा था. आज बाजार में चावल 28-30 रुपए किलो है तो यहां 35 रुपए से कम नहीं है. खुले बाजार में जब मिट्टी का तेल 8 रुपए लिटर था तो यहां 10 रुपए लिटर. आज यह भी 65 रुपए लिटर है जो एक हफ्ते चल जाता है. शायद ही किसी मजदूर का राशनकार्ड बना दिया, तो राशन की दुकान से कंट्रोल रेट पर सामान लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता.

आप को याद होगा कि कोलकाता में ओवरब्रिज के गिरने से 22 लोगों के मरने की खबर आई थी. मरने वालों में ज्यादातर मजदूर थे. उन में से एक उत्तर प्रदेश का बाशिंदा शंकर पासवान भी था. वह होली पर अपने घर इसलिए नहीं गया था, ताकि कुछ दिन और काम कर के बेटी की शादी के लिए कुछ पैसे जमा कर सके.

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यह हमारे देश के मजदूरों की आम कहानी है. कभी खदानों में दब कर उन के मरने की खबर आती है, कभी कारखानों में अपंग हो जाने की, तो कभी फुटपाथ पर रईसों की गाडि़यों से कुचलने की. जब मजदूरों का गुस्सा फूटता है, तो सिर्फ मुआवजे का ऐलान होता है.

कहने को तो मुआवजा मरने वाले के पविर वालों के सहारा के लिए होता है, लेकिन आज यह हकीकत में मजदूरों के बुनियादी सवालों से पीछा छुड़ाने का जरीया बन गया है. किसी हादसे के बाद नेताओं की भाषणबाजी होती है और मुआवजे की रकम सौंपते वक्त फोटो खिंचवा कर वे पुण्य कमाने की मुद्रा में आ जाते हैं.

क्या मजदूर होने का इतना ही मतलब है? क्या मजदूर सिर्फ दूसरों को सेवाएं मुहैया कराने के लिए ही हैं? क्या मजदूरों और उन की मजदूरी के प्रति समाज या राज्य की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है?

मार्क्स और एंजेल्स जैसे सुलझे हुए लोगों ने पूंजीवादी सामाजिक ढांचे का ब्योरा देते हुए कहा था कि मजदूरों को मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी उन के वजूद को बनाए रखती है, मतलब उन्हें जिंदगी जीनेभर की तनख्वाह मिलती है. वे मजदूर बने रहते हैं और एक वर्ग के लिए सुविधाओं का उत्पादन करते रहते हैं.

जब समाजवादी सोच वाले समाज को बनाने की सोची गई, तो इस संबंध को खत्म करने की बात सामने आई और दुनियाभर में मजदूरों ने अपने हित के लिए क्रांतिकारी संघर्ष किए. उन्होंने काम के घंटे को तय कराया, अपने परिवार के लिए पढ़ाईलिखाई, सेहत और घर की मांग की, यूनियन बनाने और हड़ताल करने का हक हासिल किया.

भारत में भी आजादी के बाद समाजवादी ढांचे को स्वीकार किया गया और सार्वजनिक उपक्रमों के जरीए मजदूरों के हितों को सुरक्षित करने की कोशिश की गई, पर यह अधूरी थी.

आजादी के बाद राज्य द्वारा जिस मात्रा में सार्वजनिक क्षेत्रों में रोजगार बनाए गए, उस से कई गुना ज्यादा यहां की आबादी बेरोजगार थी, जो अपनी जीविका के लिए असंगठित क्षेत्रों में जाने को मजबूर हुई.

90 के दशक तक आतेआते देश में मजदूरों का सवाल धीरेधीरे सीन से बाहर होता चला गया. अब चुनावों में भी मजदूरों के हितों की बात राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में नहीं होती है. अब तो संगठित क्षेत्रों में भी मजदूरों की हालत अच्छी नहीं रह गई है.

ठेके पर मजदूर उसी तरह से रखे जाते हैं जैसे दास युग में दासों को जीने भर कर खाना मिलता था. ठेके ने श्रम के प्रति जाहिर की जाने वाली उस नैतिक जिम्मेदारी को खत्म कर दिया है, जिस के तहत मजदूर और उस के परिवार के लिए पढ़ाईलिखाई, सेहत और घर के लिए न्यूनतम व्यवस्था की बात थी.

आज मजदूर बेहद ही खतरनाक हालात में काम करने के लिए मजबूर हैं, पर उन के लिए जीवन की आधारभूत संरचनाओं और सुरक्षा की कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है.

वैश्वीकरण के दौर में सारी चीजें चमक रही हैं, लेकिन मजदूरों के चेहरे से लोच गायब हो रही है. बाजार ने मजदूरी और मजदूरों की अहमियत को अपने इश्तिहारों से ढक लिया है. आज भी मजदूर अपनी बुनियादी जरूरतों और हकों के लिए जद्दोजेहद कर रहे हैं.

आज एक ओर भवन निर्माण, सड़क निर्माण, छोटीबड़ी प्राइवेट फैक्टरियों, मिलों और खदानों में बहुत बड़ी तादाद में लोग ठेके पर मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं, तो वहीं दूसरी ओर महानगरों में दूसरों के घरों, गलियों, नालियों में दिहाड़ी पर काम करने को मजबूर हैं.

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मनरेगा एक अच्छी कोशिश कह सकते है, लेकिन यह तब तक एकांगी है, जब तक इस के लाभ के रूप में मजदूर अपनी वास्तविक हैसियत से बाहर नहीं निकल जाते हैं. यह तभी मुमकिन है, जब उन के लिए न्यूनतम मजदूरी के अलावा पढ़ाईलिखाई, सेहत, घर व सुरक्षा की गारंटी भी हो.                द्य

 

छत्तीसगढ़ : दंतैल हाथी गणेशा जंजीर तोड़ भागा !

रेसक्यू करने वाली टीम ने गणेशा को रायगढ़ वन प्रांतर से बड़ी जद्दोजहद के पश्चात बेहोश करके काबू में किया था और रायगढ़ के बहेरामार से लाकर उसे कुदमुरा वन परिक्षेत्र जिला कोरबा में रखा गया था . इसी बीच 24 -25 जुलाई की रात्रि 12:00 बजे जैसे ही उसका नशा कमतर हुआ गणेशा भयंकर हो उठा और हाथ पैर पटकने लगा उसकी ताकत का अंदाजा वन विभाग अमला लगा नहीं पाया था यही कारण है कि यह खतरनाक दंतैल हाथी जिसने 9 लोगों की कुचलकर हत्या कर दी है ने बड़े बड़े सांकल जंजीरों को देखते ही देखते तोड़कर फेंक दिया और वन विभाग के अमले की घिग्घी बंध गई. वह अपनी जान बचाकर इघर उधर भागे, ऐसी हालत में आप समझ सकते हैं कि वन विभाग की क्या दुर्गति हुई होगी.
और इस खतरनाक गणेशा हाथी के वन विभाग कैद से भाग खड़े होने से समीपस्थ गांव में पुन: हंगामाखेज स्थिति पैदा हो गई है लोग भयभीत हैं.

भयंकर शक्तिशाली ज़िद्दी और गुस्सैल है गणेशा !

छत्तीसगढ़ के रायगढ़,अंबिकापुर और कोरबा जिला के जंगलों में स्वच्छंद विचरण करने वाला यह गणेशा हाथी जंगल में अकेला ही स्वच्छंद घूमता रहता है. आमतौर पर हाथी समूह में रहते हैं मगर गणेशा अकेला ही कहीं भी निकल पड़ता है और अगर कोई उसके आसपास भी फटक गया तो उसे दौड़ा कर मारता है वन अधिकारी एम. वेंकटरमन (आई एफ एस ) बताते हैं गणेशा ने अभी तक आधा दर्जन से ज्यादा करीब 9 लोगो को कुचल कुचल कर हत्या की है. यह सभी आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते थे और जंगल के बीच गांव में रहते थे.
रायगढ़, कोरबा जिले के निवासी थे और सरकार ने उन्हें चार-चार लाख रूपय मुआवजा दिया है .

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आईएफएस प्रणव मिश्रा के अनुसार गणेशा युवा है और बिगड़ेल भी. यह छुप कर खड़ा हो जाता है और राहगीरों पर अचानक हमला करके उन्हें खेत कर देता है . यही कारण है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने गणेशा को पकड़ कर उसके रेस्क्यू को मंजूरी दी तांकि तीन जिलों के रहवासियों को राहत मिल सके. मगर बीती रात्रि गणेशा के जिद्दी तेवर, उसकी असीम ताकत के सामने छत्तीसगढ़ का वन अमला बौना दिखाई पड़ा.

कुमकी हाथियों के सहयोग से….

लगभग दो दिनों तक वन विभाग का अमला गणेशा को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए जूझता रहा .कोरबा से रायगढ़ पहुंचे गणेशा को बहेरामार के जंगल में देखा गया तब टरेकयूलाइन करने की प्रक्रिया शुरू हो सकी गणेशा को काबू करने के लिए तीन कुमकी हाथी जो प्रशिक्षित हैं का सहयोग लिया गया. आगे वन विभाग के परांगत अमले ने उसे नशे का इंजेक्शन दिया तब गणेशा ठंडा पड़ने लगा तो 2 जेसीबी की मदद से उसे ट्रक पर चढ़ाया गया और रायगढ़ से कोरबा जिला के कुदमूरा में चारों पैरों में बड़े-बड़े साकंर लगाकर बांध,काबू में करके सरगुजा के अभ्यारण भेजने की प्रक्रिया प्रारंभ की गई . प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार ट्रक मे ही जैसे ही गणेश को कुछ होश आना शुरू हुआ उसने वही तोड़फोड़ और चिघांड शुरू कर दी . वन अमले ने उसे कुदमुरा के रेस्ट हाउस में लाकर रखा जहां रात्रि को वह बड़ी-बड़ी जंजीर तोड़कर भाग निकला.

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अभी गणेशा हाथी औपरेशन गणेशा को विफल कर के कोरबा जिला से पुणे जाएगा जिला की और आगे बढ़ रहा है इधर वन अधिकारियों ने पुनः औपरेशन गणेशा की तैयारी शुरू कर दी है. देखना होगा आगे चलकर क्या गणेशा को वन विभाग अभ्यारण कब भेज पाता है मगर तब तक कोरबा रायगढ़ जिला के लोगों में हाथी को लेकर दहशत कायम रहेगी

“हुक्का बार” :संसद से सड़क तक चर्चे

जी हां! यह काम कर रही है फिल्में, मनोरंजन और समाज को शिक्षा देने के नाम पर सिनेमा यही कर रहा है .जिसका बड़ा उदाहरण है अक्षय कुमार की फिल्म, खिलाड़ी 786 जिसमें अक्षय कुमार नाच नाच कर हुक्का बार की बड़ाई कर रहे हैं.

हमारे नगर और गांव कस्बे तक अब नशे के सारे सामान मौजूद हैं .सरकार चाहे जो भी कहे, जैसा भी करें, जैसी भी तलवारें  भांजती रहे. मगर धीरे धीरे युवा वर्ग के खून में नशे की लत लगाना जारी है .इस पर हमारी सरकार ने नियम कानून कायदे तो बहुत सारे बना दिए हैं. मगर होता जाता कुछ नहीं,निर्विघ्न गति से नशे का यह कारोबार नेताओं और अफसरों के संरक्षण में जारी है. आजकल हुक्का बार का नया शगल शुरू हुआ है. देश का ऐसा कोई शहर नहीं होगा जहां हुक्का बार ना हो ऐसे में युवा पीढ़ी किस दिशा में जा रही है इसका सहज ही अनुमान लगा सकते हैं. इस संदर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बीच बीच में पुलिस एक्शन जारी रहता है ,मगर फिर भी एक जगह से हुक्का बार जब बंद हो जाता है तो दूसरी जगह प्रारंभ हो जाता है. आप आश्चर्य कर सकते हैं कि हुक्का बार के इस नशे में उच्च एवं निम्न दोनों ही वर्ग के लोग संलिप्त हैं. दरकार है दृढ़ इच्छाशक्ति और संस्कार की जो युवाओं को न समाज से मिल रहा है न परिवार में. आज हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं हमारे देश में एक नवीन तरह का मस्ती भरा हुक्का बार नशे का कारोबार. जो है युवा पीढ़ी के लिए जहर  सामान.

विधानसभा में गूंजा हुक्का बार का मामला

आप देखिए! हुक्का बार किस तरह  युवा पीढ़ी को बर्बाद कर रहा है. और शासन-प्रशासन हक्का-बक्का उसे देख रहा है. शायद यही कारण है की छत्तीसगढ़ की विधानसभा में बीते दिनों यह मामला जोर-शोर से उठा. इससे पता चलता है कि हुक्का बार किस तरह लोगों का जीवन बर्बाद कर रहा है. छत्तीसगढ़ के शिक्षाविद  प्रथम बार विधायक बने शैलेष पांडेय ने हुक्का बार में युवकों के नशाखोरी के मुद्दे पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया.

मजे की बात यह है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है और कांग्रेस के विधायक  हुक्का बार का मामला उठाते हैं. आप समझ सकते हैं कि विधायक के क्षेत्र में हुक्का बार चल रहा है और वे अहसाय देख रहे हैं न उन की कलेक्टर सुनता, न पुलिस कप्तान. ऐसे में उन्होंने मामला विधानसभा में उठाया. जिसके बाद  बिलासपुर पुलिस हरकत में आई, और तारबाहर पुलिस ने टेलीफोन एक्सचेंज रोड स्थित कोयला हुक्का बार में छापा मारा, और डेढ़ दर्जन युवक व आधा दर्जन युवतियों को हिरासत में लिया, और पुलिस  बार संचालक के खिलाफ मामला दर्ज कर कार्रवाई कर रही है.

कोयला  हुक्का बार में पुलिस ने जब दबिश दी, तो यहां हुक्के की कश लगा रहा एक युवक सामने आया और युवती का बर्थडे पार्टी मनाने की जानकारी देने लगा. पुलिस ने युवकों के नाम और पते दर्ज किए. बार में मौजूद आधा दर्जन युवतियों से पुलिस ने नाम पूछा तो युवतियों ने महिला पुलिस अधिकारी द्वारा युवतियों से पूछताछ करने की बात कहते हुए नाम बताने से इनकार कर दिया. जिसके बाद महिला पुलिसकर्मी ने युवतियों का नाम और पता दर्ज किया.पुलिस बार संचालक रविन्द्र देवांगन के खिलाफ पुलिस ने कोकपा एक्ट के तहत अपराध दर्ज किया.

शहर शहर पहुंचा हुक्का बार

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर,बिलासपुर  सहित  कई शहरों  के पाश इलाके में लंबे समय से से अवैध हुक्का बार का संचालन किया जा रहा है . कोरबा के सिटी सेंटर में विगत दिनों अवैध हुक्का बार पकड़ाया.इसी तरह उरगा क्षेत्र के एक होटल में एक भाजपा नेता के पुत्र  को  पकड़ा गया. हालात इतने बदतर है कि पुलिस ने जब चाय की दुकान में चल रहे कथित अवैध हुक्काबार में छापामार कार्रवाई की तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई. यहां नशा करने वालों में नाबालिग तक शामिल मिले .

दरअसल, चाय दुकान केवल नाम मात्र की ही चाय दुकान थी जबकि इसकी आड़ में वहां  अवैध हुक्का बार खोल रखा था. जहां अमीर घरानों की बिगड़ैल औलाद अपनी नशे की लत को पूरा किया करते थे. नशा करने वालों में युवा और नाबालिगों के अलावा लड़किया भी शामिल है. एके-47, पिस्टल जैसे कई आकर्षक लाइटर हथियारों की शक्ल में इन अवैध् हुक्का बारों में युवाओ को आकर्षित कर रहे है. पुलिस ने मौके से पकडे गए किशोरों को उनके अभिभावकों की उपस्थिति में समझाईश देकर छोड़ दिया है. दरअसल आवश्यकता है छत्तीसगढ़ में भी हुक्का बार पर सरकार प्रतिबंध लगा दे.

नाबालिगों पर भी हुक्का बार का नशा तारी

हुक्का बार का गुलाबी धुआं हमारी युवा पीढ़ी को बुरी तरह बर्बाद कर रहा है आखिर यह हुक्का बार आया कहां से याद करें एक फिल्म आई थी खिलाड़ी 786 इसमें अक्षय कुमार पर एक गाना फिल्माया गया है, “-तेरी अखियों का वार,  जैसे शेर का शिकार, तेरा प्यार, तेरा प्यार हुक्का मार! ”

इस तरह के गाने हमारी युवा पीढ़ी को बर्बाद कर रहे हैं मगर सेंसर बोर्ड और सरकार कुंभकरणी निद्रा में है ऐसे ही कुछ गाने हैं फिल्में है जिन्होंने युवा पीढ़ी को हुक्का बार की तरफ आकर्षित किया है. हुक्का बार में तंबाकू के कई  फ्लेवर होते हैं ई हुक्का, ई सिगरेट होता है. शहर के पॉश इलाके मॉल पब होटल यहां तक कि छुपकर कर आवासीय परिसरों में भी हुक्का बार चल रहे हैं. हुक्के की ऐसी दीवानगी शुरू हो गई है कि फ्लेवर्ड हुक्का भी परोसा जा रहा है पुलिस  छापा मारती है तो छात्र-छात्राएं, नाबालिक के साथ युवक युवतियां भी पकड़े जा रहे हैं. एक पुलिस अधिकारी ने बताया कि छत्तीसगढ़ में हुक्का बार को लेकर के कोई कानून नहीं है परिणाम स्वरूप युवक-युवतियों को समझाइश देकर छोड़ना हमारी मजबूरी है इसलिए छत्तीसगढ़ सरकार को चाहिए कि जिस तरह पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र में हुक्का बार पूरी तरीके से अवैध करार दिए गए हैं. छत्तीसगढ़ में भी नया कानून लाकर इसे प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए.

संस्कार, इच्छाशक्ति और हुक्का बार!

दरअसल आज जो नशे का चलन बढ़ा है उसके पीछे दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी, संस्कार की कमी है परिवार में बच्चों को जब अच्छे संस्कार नहीं मिलते तो वह नशे के जाल में फंसकर भटकते चले जाते हैं. पुलिस अधिकारी इंद्र भूषण सिंह बताते हैं हुक्का बार दरअसल सिनेमाई दुनिया की हमारे समाज को दी गई गंदगी है एक तरह से अय्याशी और वेश्यावृत्ति के अड्डे बन चुके हैं.

सरकार एक तरफ नियम कानून कार्य बना करके अपना पिंड छुड़ा रही है दूसरी तरफ चाहती है कि हमारे पास करोड़ों करोड़ों रुपए देश की जनता से आता जाए इसके लिए शराब और नशे के सारे सामान को समाज को बेचने का ठेका दे रही है सवाल है जब सरकार के निर्माण के पीछे मंशा यह है कि समाज को दिशा देने का काम किया जाएगा तब लगातार युवा पीढ़ी नशे में उसकी गिरफ्त में कैसे आते जा रही है आज का दोषी कौन है?

प्रकृति के बीच अप्राकृतिक यौन संबंध

अप्राकृतिक यौन संबंध चिंरतन काल से होते रहे है. यही कारण है कि विधि में इसके सहमति और असहमति को देखते हुए सुस्पष्ट प्रावधान किया हुआ है. अप्राकृतिक योन अर्थात एक ऐसा मनोविज्ञान जो अपने साथी की और एक अलग नजरिए से आकर्षित करता है. इसे लेकर योन- शास्त्रों में भी चर्चा की गई है. लेकिन सार भूत तथ्य यही है कि यह एक बीमारी की जड़ है और इससे बचना चाहिए, मगर इसके बावजूद आम जनमानस में अप्राकृतिक योन के किस्से उजागर होते रहते हैं.कभी किसी शख्स पर या धारा 377 लगाकर हवालात में बंद कर दिया जाता है. हद तो तब हो जाती है जब कभी कोई पत्नी ही पुलिस थाना पहुंच मामले की रिपोर्ट लिखाती है. आखिर यह अप्राकृतिक यौन संबंध का सच क्या है, यह हमें समझना चाहिए.

पति पत्नी और अप्राकृतिक संबंध!

पति-पत्नी के बीच विवाद होना आम बात है. लेकिन छत्तीसगढ़ बालों जिला के डौंडी थाने में एक ऐसा मामला हाल ही में सामने आया है, जिसे सुनकर आप चौक जाएंगे. यहाँ महिला ने अपने पति पर अप्राकृतिक सेक्स करने का आरोप लगाया है. पति के इस उत्पीडन से तंग आकर पत्नी ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है. जिसके बाद पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया . पुलिस के अनुसार युवती की शादी एक साल पूर्व डौंडी थाना क्षेत्र के युवक डुमेश्वर गावडे पिता वीर सिंह गावडे से हुई थी. महिला का कहना है कि शादी के कुछ दिनों तक तो सब ठीक था. उसके बाद पति ने उसके साथ अप्राकृतिक संबंध बनाने पर दबाव डालने लगा. मना करने पर उसके साथ मारपीट की गई. काफी दिनों से वह इस यौन उत्पीड़न से गुजर रही थी.लाख समझाने की कोशिश की, लेकिन नहीं माने और मारपीट कर जबरन अप्राकृतिक सेक्स करता रहा. एक दिन उसने हद ही कर दी. पति की ज्यादती बर्दाश्त से बाहर हो गई तो 18 जुलाई की शाम महिला डौंडी कोतवाली पहुंची और अपने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई.पीड़िता ने महिला पुलिस को सारी बातें बताई और कठोर कार्रवाई की मांग की. महिला की शिकायत पर पुलिस ने पति के खिलाफ आइपीसी की धारा 376, 377, 323, 506 के तहत मुकदमा दर्ज किया है. पुलिस ने आरोपी पति को गांव से गिरफ्तार कर लिया.
ऐसे जाने कितने सच्चे झूठे किस्से हमारे बीच मीडिया के माध्यम से आते जाते रहते हैं. विधि औचित्य की परिप्रेक्ष्य में ऐसे मामलों को देखना समझना होगा.

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अप्राकृतिक योनाचारी हमारे बीच भी हैं!

हमारे शहर में लगभग 40 वर्ष पूर्व एक सुमित्रर सिंह नामक शख्स हुआ करता था.वह पैसे देकर युवकों से अप्राकृतिक संबंध बनाया करता था. शहर में यह चर्चा रहती थी कि देखो! सुमित्रर सिंह आ रहा है…. हंसी मजाक में लोग एक दूसरे को छेड़ा करते थे और बताया करते थे कि यह शख्स अप्राकृतिक यौन संबंध बनाया करता है. इससे बचकर रहना. ऐसे ही सख्त सुमित्रर सिंह अरे शहर कस्बों में रहते हैं, यह एक अलग मनोविज्ञान है एक अलग मानसिक बनावट अथवा इसे बीमारी कहा जा सकता है. मगर ऐसे लोग हमारे बीच होते हैं यह एक बड़ी सच्चाई है यही शख्स जब एक से दो हो जाते हैं तो एक दूसरे का साथ देते हुए जीवन काटने का अवलंबन स्वीकार कर वैवाहिक बंधनों में भी बंध जाते हैं. जिन्हें आजकल समलैंगिक संबंध कहा जाने लगा है .अब देश की उच्चतम न्यायालय और हमारी सरकार ने भी इसे जायज ठहरा दिया है. जब यह संबंध सहमति से बनते हैं तो कानून अपने हाथ खड़े कर लेता है.
छत्तीसगढ़ के बार काउंसिल के अनुशासन समिति के अध्यक्ष बीके शुक्ला बताते हैं ऐसे मामलों में प्रतिरोध होने पर विधि-विधान में इसके लिए दंड की सजा निर्धारित है.

धारा का होता है दुरुपयोग भी!

इस लेखक के एक परिचित मित्र की धर्मपत्नी में तलाक लेने के लिए पति पर ऐसा दबाव बनाया कि आप भी असमंजस में रह सकते हैं…. जी हां! पत्नी ने बकायदा थाना,कोर्ट में यह कहा कि मेरे साथ अप्राकृतिक यौन संबंध मेरा पति बनाता है। महिला पति से बेजार थी व छुटकारा पाना चाहती थी. इसके लिए उसने अप्राकृतिक संबंधों की धारा 377 का दुरुपयोग करने का पूरा प्रयास किया. मगर सुखद तथ्य यह की पीड़ित पति पुलिस प्रशासन और न्यायालय दोनों ही जगह से एक तरह से बाल-बाल बच गया. यह एक ऐसी धारा है जिस का दुरुपयोग भी होता है और यह एक सच्चाई भी है अब यह पुलिस एवं न्यायालय पर निर्भर है क्या फैसला होगा. अगर आप बेगुनाह है तब भी यह धारा आप का मान मर्दन तो कर ही देती है. शातिर वकील, पुलिस एवं लोग इसका भरपूर दुरूपयोग करते रहते हैं. अपने विरोधियों को निपटाने के लिए धारा 377 इस्तेमाल करते हैं ,चाहे भले वह मामला कोर्ट में वर्षों घिसटने के बाद हो जाए. अधिवक्ता उत्पल अग्रवाल बताते हैं धारा 377 का इस्तेमाल अक्सर विरोधियों को निपटाने के लिए किया जाता है. ऐसा ही एक मामला हमारे कोर्ट में भी आया था जिसमें एक श्रमिक नेता ने कोल इंडिया के एक अधिकारी को फंसाने के लिए 377 धारा का मामला दर्ज कराया था. जिसकी शहर में बड़ी चर्चा थी. पुलिस प्रशासन भी जानता था की पेंच कहां है,मगर मामला पंजीबद्ध हुआ और न्यायालय में प्रस्तुत किया गया. दरअसल यह धारा ब्रिटिश शासन काल से1861 से विद्यमान रही है. इसका स्वरूप बदलता रहा है. कभी यह पूर्णता दंडनीय स्वरूप में रही है मगर 2018 के बाद सरकार ने इसे दो वयस्कों के बीच सहमति पर विधिवत मुहर लगा दी है कि यह अपराध नहीं है. इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर आज भी तलवारें खिंची हुई है और लोग पक्ष विपक्ष में अपनी-अपनी दलीलें प्रस्तुत कर रहे हैं. आप भी सोचिए और देखिए आप किस तरफ है.

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Edited By- Neelesh Singh Sisodia 

चालक भी आधी आबादी और सवारी भी

लेखक- शंकर जालान

देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति के अलावा प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री व राज्यमंत्रियों के अलावा औरतें जज की, पायलट की, डाक्टर की, बस चालक की सीट पर तो पहले से ही बैठ चुकी हैं, अब देश की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले शहर कोलकाता में औरतें आटोरिकशा व टैक्सी की चालक सीट पर बैठी नजर आ रही हैं.

हालांकि फिलहाल महानगर के एक ही रूट पर ऐसे आटोरिकशा को शुरू किया गया है, लेकिन टैक्सियां कई जगहों पर चल रही हैं. इन की चालक सीट पर औरतें रहेंगी और उन में सफर करने वाली सवारियां भी औरतें ही रहेंगी.

पिंक यानी गुलाबी आटोरिकशा चलाने वाली औरतों को ट्रेनिंग देने वाले और आटोरिकशा यूनियन के नेता गोपाल सूतर ने बताया कि उन्हें इस बात की खुशी है कि उन की इस पहल पर अब राज्य सरकार का ध्यान गया है.

वे कहते हैं कि आज की औरतें किसी भी रूप में मर्दों से कम नहीं हैं. इस बात को इन औरतों ने अपनी मेहनत और लगन से साबित किया है.

ट्रेनिंग पूरी होने के बाद ये औरतें अलगअलग रूटों पर आटोरिकशा चलाती नजर आएंगी, जिन में सिर्फ औरतें ही सफर करेंगी. इस सेवा को ‘पिंक सेवा’ नाम दिया गया है.

मौसमी कोलकाता की ऐसी पहली आटोरिकशा चालक बन गई हैं. भले ही उन्हें इस के लिए कई सालों तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी हो, पर उन की मेहनत रंग लाई और आखिरकार बीते दिनों मौसमी का सपना पूरा हुआ.

मौसमी ने बताया कि उन्हें खुद पर इतना भरोसा था कि भले ही किसी काम को पूरा करने में देरी होगी, लेकिन वे लक्ष्य तक जरूर पहुंचेंगी.

मौसमी के साथसाथ दूसरी एक दर्जन औरतों को भी आटोरिकशा चलाने के लिए लाइसैंस मिल गया है, जिस के बाद वे कोलकाता की सड़कों पर आटोरिकशा चला सकेंगी.

मौसमी ने बताया कि जब वे 9 साल की थीं, तभी उन के पिता घर छोड़ कर चले गए थे. घर में मां के साथ 2 छोटी बहनों का क्या होगा, इस बात की चिंता उन्हें रहरह कर सताती थी. जिस उम्र में हाथ में किताबें और खिलौने होने चाहिए थे, उस उम्र में उन के हाथ में हथौड़ी, चाबी जैसे उपकरण थमा दिए गए.

घर का खर्चा सिर्फ गैराज में काम कर के नहीं चलता था, इसलिए गैराज में काम करने के बाद वे मौल के बाहर भीख मांगने को मजबूर थीं, ताकि अपनी मां के साथसाथ 2 छोटी बहनों का भी पेट पाल सकें.

मौसमी के मुताबिक, आटोगैराज में काम करतेकरते उन में औटोरिकशा चलाने की चाह जागी और उन्होंने उसी को अपना कैरियर बनाने की ठान ली.

अपनी लगन से मौसमी ने जो चाहा, वह कर के दिखाया. गैराज में काम करतेकरते वे आटोरिकशा के करीब होती गईं. सारा काम खत्म करने के बाद वे 2 घंटे निकालती थीं और आटोरिकशा चलाना सीखती थीं.

मौसमी कहती हैं, ‘‘कोई भी काम तब तक नहीं होता, जब तक आप में हिम्मत न हो. मेरी ललक और मेहनत को देख कर मेरे पति ने मेरा साथ दिया और हिम्मत बढ़ाई. अब लाइसैंस मिलने के बाद वे मुझ पर गर्व करते हैं.’’

गोपाल सूतर ने बताया कि पत्नी की मौत के बाद 2 बेटियों की जिम्मेदारी ने उन्हें सिखाया कि हर औरत को अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए. इस के बाद उन्होंने औरतों को आटोरिकशा चलाने की ट्रेनिंग देना शुरू किया.

पश्चिम बंगाल सरकार में परिवहन मंत्री शुभेंदु अधिकारी ने कहा, ‘‘हम ‘गतिधारा’ योजना के तहत इस पहल को बढ़ावा देंगे. हम ने कुछ औरतों को रूट परमिट जारी कर दिए हैं. हमारे लिए यह अच्छी बात है कि अब हमारे शहर में भी औरतें आटोरिकशा ड्राइवर होंगी.’’

दक्षिण कोलकाता के टौलीगंज की चंद्रा रोजाना तड़के सुबह उठती हैं. लोगों के घरों तक अखबार पहुंचाती हैं. इस के बाद वे 2-4 ट्यूशन भी पढ़ाती हैं. बीच के समय में वे आटोरिकशा भी चलाती हैं. साल 2016 में उन्होंने आटोरिकशा चलाना सीखा था. जोगेश चंद्र चौधरी कालेज से उन्होंने बंगला औनर्स में पढ़ाई शुरू की थी. हालांकि दूसरा साल पूरा करने बाद पढ़ाई छोड़ दी थी. चंद्रा की तरह ही महानगर के विभिन्न रूटों पर मौसमी, मुमताज बेगम, सावनी सूतारा, कृष्णा समेत तकरीबन 60 औरतें और बालिग लड़कियों ने आटोरिकशा की कमान अपने हाथों में ले ली है.        द्य

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