लेखक-अनिल अनूप
जैसे यहां की साइकिल इंडस्ट्री में तो वे उतने ज्यादा नहीं हैं, जितने हौजरी में या लोहे के पुरजे वगैरह बनाने में, पर वे रिकशा चलाने वालों में भारी बहुमत में हैं, तो ठेलारेहड़ी, छोटी दुकान लगाने के मामले में एकदम कम हैं. दिल्ली की तरह यहां की दुकानों में सहायक के तौर पर बाहरी मजदूरों को रखने का चलन अभी ज्यादा नहीं हुआ है.
दिल्ली से पंजाब की तरफ रेल या बस से आगे बढि़ए तो 2 चौंकाने वाली बातें दिखती हैं. दोनों तरफ दूरदूर तक धान के लहलहाते खेत और उन की खुशबू यह भरम पैदा कर सकती है कि कहीं हम धान उगाने, भात खाने वाले प्रदेश में तो नहीं पहुंच गए हैं.
गेहूं और रबी के इलाके का यह सीन चौंकाता है. जगहजगह पंप से पानी सींचते, खाद छींटते, धान रोपतेकाटते लोगों पर भी गौर करिएगा तो वे भी पंजाब और हरियाणा के लंबेतगड़े जैसे लोग नहीं लगेंगे. धान के खेत तो दिल्ली से बाहर निकलते ही शुरू हो जाते हैं पर असली ‘धनहर’ इलाका पानीपत, करनाल, अंबाला से शुरू होता है और हरियाणा के बाद पूरे पंजाब में यह नजारा दिखता है.
लुधियाना के आसपास बाहरी मजदूरों के ‘क्वार्टर’ मुरगी के दड़बों जैसे होते हैं. 7 या 8 फुट लंबे और इतने ही चोड़े कमरों की कतारें इन जैसे मजदूरों के लिए बनवा दी गई हैं. ये ‘क्वार्टर’ भी ऐसे ही 2 कतार वाले होते हैं. बीच में थोड़ी आंगननुमा लंबी खाली जगह होती है. 2 दर्जन कमरों के लिए एक हैंडपंप, एक शौचालय बना होता है. ‘क्वार्टर’ ज्यादा हैं तो उसी हिसाब से इन ‘सुविधाओं’ की तादाद भी ज्यादा होती है. अगर जगह कम पड़ रही हो तो कमरों को 2-3 मंजिल तक ऊपर उठा दिया जाता है.
लुधियाना की बाबा दीप सिंह कालोनी, जिसे लोकल लोग ‘भैया कालोनी’ कहते हैं, में ऐसे 108 कमरों के तिमंजिले ‘बाड़े’ हैं.
ये भी पढ़ें- जरा संभल कर, अब सड़क पर ट्रैफिक रूल तोड़ेंगे तो लगेगा भारी जुरमाना
बीएमएस के लोकल मजदूर नेता रामकृष्ण आजाद ने बताया कि कंगनवाल रोड पर 422 कमरों का ‘बाड़ा’ पूरे शहर में सब से बड़ा ‘बाड़ा’ है.
बाबा दीप सिंह कालोनी, कंगनवाल रोड, गिल रोड, इंडस्ट्रियल एरिया, ट्रांसपोर्ट नगर, सिमराला चौक, फोकल पौइंट, हीरा नगर, मोती नगर, भगत सिंह कालोनी, शेरपुर, मुसलिम कालोनी वगैरह में ऐसे ही ‘बाड़े’ बने हैं.
‘बाड़ा’ या ‘बाड़’ शब्द हिंदी में एकदम अलग मतलब बताता है. पंजाबी में मजदूरों वाली इस तरह की रिहाइश को ‘बाड़ा’ या ‘बाड़’ कहते हैं.
यह शब्द आज पहली बार सामने नहीं आया है. जब खुद पंजाब के लोगों ने पिछली सदी के आखिर और इस सदी की शुरुआत में दक्षिणपश्चिम में बनने वाली नहरों से जुड़ी कालोेनियों में रहना शुरू किया था, तो वे खुद भी उन्हें ‘बाड़ा’ ही कहा करते थे. बाहरी मजदूर इन्हें ‘क्वार्टर’ कहते हैं.
और जब वे लोग ‘क्वार्टर’, ‘ड्यूटी’, ‘ओवरटाइम’, ‘लंच’, ‘औफ’ जैसे शब्द कहते हैं तो इन का सिर्फ एक साधारण मतलब नहीं रहता. उस मतलब में तो इन 6-7 लोगों वाले एक कमरे को ‘क्वार्टर’ नहीं कहा जा सकता. इन शब्दों के जरीए ये लोग एक सांस्कृतिक फासले को भरने की कोशिश भी करते हैं. यह फासला शहरगांव, बिहारपंजाब, अमीरगरीब, वाला तो है ही, अपने गांव के बड़े लोगों और अपने बीच के फर्क का भी है.
इन शब्दों को अगर वे उन के सही मतलब में समझते तो उन को पाने की कोशिश भी करते. न्यूनतम मजदूरी, महंगाई भत्ता, प्रोविडैंट फंड, ईएसआई, ग्रैच्यूटी, बोनस, छुट्टियां जैसी बुनियादी बातों की परवाह भी उन्हें नहीं होती. लुधियाना जैसे शहर में, जिसे ‘पंजाब का मैनचैस्टर’ कहा जाता है, संगठित क्षेत्र में सालों से काम करने के बावजूद यह हालत थी.
गांव में मजदूरों से मिलने के बाद लुधियाना का उन का पता और पहुंचने का निर्देश लेने के बावजूद उन्हें ढूंढ़ लेना आसान नहीं था. कभी लोधियों के 2 सामंतों द्वारा सतलुज के पास बसाई गई लोधियान बस्ती आज पंजाब ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तरपश्चिमी भारत में दिल्ली के बाद सब से बड़ा शहर बन गई है और 14 लाख बाहरी मजदूरों के चलते पंजाब में उत्पादन का सब से बड़ा ठिकाना. इस में बड़ेबड़ों को जब अपनी पहचान बनाने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है तो फिर अनपढ़, पिछड़े, कमजोर, बाहरी मजदूरों को कौन पूछता है.
ज्यादातर पते किसी किराना दुकानदार या गली के डाक्टर के मारफत के होते हैं जिन की सेवाएं वे मजदूर लेते हैं. ये दुकानदारडाक्टर भी नाम और चेहरे, दोनों को एकसाथ देखे बगैर मजदूर को नहीं पहचान सकते हैं.
अपनी फैक्टरियों का पता ये लोग देते नहीं. सो, दुकानदारडाक्टर को भी जब तक मजदूर के मूल जिले, उस के गांव, उस के समूह, उस के काम के बारे में न बताया जाए, वे भी कोई मदद करने की हालत में नहीं रहते. जब इतने सारे ब्योरे और बैकग्राउंड बताने पर उस को सही पते का अंदाजा होता है तो वह आप को किसी ‘बाड़े’ में भेज देगा या भिजवा देगा.
उस ‘बाड़े’ में अपने मजदूर का कमरा पता करने के लिए आप को फिर से यह सारी मशक्कत करनी पड़ती है. उस के कमरे में पहुंचते ही कई धारणाएं एकसाथ ढह जाती हैं. ठीकठाक कमाई करता बाहरी मजदूर हर महीने अपने गांव में जितनी औसत रकम (8,000 रुपए से 12,000 रुपए) भेजता है, उस से किसी को भी यह लगेगा कि वह कम से कम इस की दोगुनी रकम कमाता ही होगा. परदेश में रहना, खानापहनना, आनाजाना, लेनदेन सब लगा ही रहता है और आदमी लाख कम खर्च करे, 8-10 हजार रुपए से कम में क्या रहेगा.
अपनी कमाई और रहने के बारे में ये लोग गांव में कुछ ऐसा ही बताते भी हैं. पर वहां पहुंचते ही लगा कि अपनी कमाई के बारे में डींग हांकने का हक सिर्फ शहरी और पढ़ेलिखे लोगों को ही नहीं है, गांव में कमाई और काम के बारे में शेखी बघारने के पीछे भी कहीं न कहीं गांव के बड़े लोगों से फासले को कम कर के दिखाने की सोच भी काम करती है.
उस कमरे में जब बैठने को कहा जाता है तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कहां और कैसे बैठा जाए. नीचे कुछ भी नहीं बिछा होता. जहांतहां मुड़ी पड़ी बोरियां होती हैं या टाट, पैकिंग के काम आने वाली पल्ली.
पूरे के पूरे ‘बाड़े’ (2 से 3 दर्जन कमरों वाले) में 2-3 से ज्यादा खाट नहीं होंगी. कपड़ों के नाम पर जितने आदमी उतनी जोड़ी लुंगी और एकाध और कपड़ा. उन्हीं में से एक पहनना, एक ओढ़नाबिछाना. रोज नहाते समय पहले वाले कपड़े को पानी में खंगाल लेना.
बैठने के साथ ही जब आप परिचित हो कर कमरे में रहने वालों की संख्या और किराए के बारे में पूछेंगे तो मालूम होगा कि किराया है 3 से साढ़े 3 सौ रुपए. 60 वाट के बल्ब से ऊपर का बल्ब लगे, पंखा लगे तो 200 रुपए महीना ऊपर से. रहने के मामले में लालाजी को बताएंगे कि 3-4 लोग रहेंगे, पर रहेंगे 6-7 लोग जिस से प्रति व्यक्ति किराया कम पड़े.
इतने लोग तो कमरे में सो भी नहीं सकते. इस का सीधा सा जवाब होता है कि बाहर या छत पर सो जाते हैं. हवा भी लगती है. शिफ्ट ड्यूटी होती है तो सर्दियों में भी दिक्कत नहीं रहती.
सुबह ही पेट भर लेना
मुरगे के बांग देने के साथ ही उठ जाना है. रोटी बना लेनी है. जितने आदमी, उतने चूल्हे. नहाधो कर भरपेट खा लेना है. 4-6 रोटी साथ ले लेनी है. ‘लंच’ के समय छोले, सब्जी कुछ ले कर रोटी खा लेते हैं. दूध कोई नहीं लेता. महीने में एकाध बार मांसमछली हो गई तो बहुत है. देर रात को घर लौटने पर भात या खिचड़ी बनती है. जितना खाया गया, खा लिया बाकी नाली या कुत्ते को दे दिया. 12-14 घंटे काम की थकान सब भुला देती है.
अब हर ‘बाड़े’ में 1-2 परिवार भी दिखने लगे हैं. अपने गांवों के मजदूरों वाले गिल रोड के ‘बाड़े’ में भी एक परिवार स्थायी रूप से रहता है, पर वह पूर्वी उत्तर प्रदेश का है और परिवार का मुखिया फल का ठेला लगाता है.
पूरे लुधियाना शहर के सारे बाहरी मजदूर इसी तरह नहीं रहते. कुछ छोटे प्लाट ले कर मकान बना कर भी रहने लगे हैं. कुछ ने झुग्गियां डालनी शुरू कर दी हैं. कुछ मालिकों की फैक्टरियोंदुकानों में भी रह लेते हैं, पर ज्यादातर ‘बाड़ों’ में ही रहते हैं. अनुपात और तादाद के हिसाब से देखें तो जमीन ले कर बसने वालों में पूर्वी उत्तर प्रदेश, मैदानी दक्षिणी बिहार वाले लोग ज्यादा निकलेंगे. झुग्गियों में राजस्थानी मजदूर होंगे जो आमतौर पर परिवार के साथ ही घर से निकलते हैं. ‘बाड़े’ या ‘क्वार्टर’ में ज्यादातर बिहारी रहते हैं.
ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि जिस दिन इन ‘बाड़ों’ में ज्यादा परिवार और उन के साथ बकरीसूअर जैसे जानवर भी आएंगे उसी दिन ये महामारियों का डेरा बन जाएंगे. अभी तो सफाईनाली, फ्लशशौचालय, स्नानघर वगैरह का इंतजाम न होने पर भी सिर्फ अकेले मर्दों के रहने से थोड़ीबहुत राहत रहती है. दिनभर घर खाली हो, ‘बाड़ा’ खाली हो तो हवासूरज ही बहुत सफाई कर देते हैं.
बाबा दीप सिंह कालोनी के जिस 108 कमरों वाले ‘बाड़े’ की चर्चा पहले की गई है उस में तकरीबन 425 लोग थे. चारों ओर से घिरे इस ‘बाड़े’ की छत पर 10 शौचालय और 10 हैंडपंप थे. खुला होने से मजदूर शौच वगैरह के लिए बाहर भी जा सकते थे.
इंडस्ट्रियल एरिया में बने 300 कमरों से ज्यादा का ‘बाड़ा’ जवाहर बिल्डिंग, जो मुश्किल से 500 वर्ग गज के प्लाट पर बना होगा, मजदूरों के सुबह काम पर निकलतेनिकलते कीचड़ से पूरा सन जाता है जिस में मलमूत्र, कचरा तो होता ही है, रात में बचे खाने का भी अपना हिस्सा रहता है. इस में चार पैसे का डीडीटी पाउडर कौन डालेगा, कोई नहीं जानता.
आप चाहे जिस ‘बाड़े’ में जाइए, जिस बस्ती में जाइए, इन कमरों के मालिक नहीं मिलेंगे. ये अकसर बड़े लोग हैं जिन्होंने बाड़ों का चार्ज आमतौर पर किराना वालों, राशन वालों को सौंप दिया है और वे हर महीने उन्हीं से पूरी रकम वसूल लेते हैं.
किराना वालों का लालच यह होता है कि जो ‘बाड़ा’ उन के कंट्रोल में रहता है उस के सभी किराएदारों को उन की दुकान से ही राशन और दूसरा सामान लेना होता है. इस में गड़बड़ का मतलब है अगले ही दिन कमरा छोड़ना.
इस से मुनाफाखोरी की गुंजाइश काफी बढ़ जाती है. जिस 108 कमरे वाले ‘बाड़े’ का जिक्र पहले किया गया है वहां कुल 413 लोग रहते मिले और सिर्फ इन सब की खरीदारी से ही कितना मुनाफा एक जगह से होता होगा, यह समझा जा सकता है.
20 साल पहले यहां वही चावल 9 रुपए किलो था जो वैसे साढ़े 7-8 रुपए में मिल रहा था. आज बाजार में चावल 28-30 रुपए किलो है तो यहां 35 रुपए से कम नहीं है. खुले बाजार में जब मिट्टी का तेल 8 रुपए लिटर था तो यहां 10 रुपए लिटर. आज यह भी 65 रुपए लिटर है जो एक हफ्ते चल जाता है. शायद ही किसी मजदूर का राशनकार्ड बना दिया, तो राशन की दुकान से कंट्रोल रेट पर सामान लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता.
आप को याद होगा कि कोलकाता में ओवरब्रिज के गिरने से 22 लोगों के मरने की खबर आई थी. मरने वालों में ज्यादातर मजदूर थे. उन में से एक उत्तर प्रदेश का बाशिंदा शंकर पासवान भी था. वह होली पर अपने घर इसलिए नहीं गया था, ताकि कुछ दिन और काम कर के बेटी की शादी के लिए कुछ पैसे जमा कर सके.
ये भी पढ़ें– आखिर क्यों उठानी पड़ती है बच्चों को ये सजा
यह हमारे देश के मजदूरों की आम कहानी है. कभी खदानों में दब कर उन के मरने की खबर आती है, कभी कारखानों में अपंग हो जाने की, तो कभी फुटपाथ पर रईसों की गाडि़यों से कुचलने की. जब मजदूरों का गुस्सा फूटता है, तो सिर्फ मुआवजे का ऐलान होता है.
कहने को तो मुआवजा मरने वाले के पविर वालों के सहारा के लिए होता है, लेकिन आज यह हकीकत में मजदूरों के बुनियादी सवालों से पीछा छुड़ाने का जरीया बन गया है. किसी हादसे के बाद नेताओं की भाषणबाजी होती है और मुआवजे की रकम सौंपते वक्त फोटो खिंचवा कर वे पुण्य कमाने की मुद्रा में आ जाते हैं.
क्या मजदूर होने का इतना ही मतलब है? क्या मजदूर सिर्फ दूसरों को सेवाएं मुहैया कराने के लिए ही हैं? क्या मजदूरों और उन की मजदूरी के प्रति समाज या राज्य की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है?
मार्क्स और एंजेल्स जैसे सुलझे हुए लोगों ने पूंजीवादी सामाजिक ढांचे का ब्योरा देते हुए कहा था कि मजदूरों को मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी उन के वजूद को बनाए रखती है, मतलब उन्हें जिंदगी जीनेभर की तनख्वाह मिलती है. वे मजदूर बने रहते हैं और एक वर्ग के लिए सुविधाओं का उत्पादन करते रहते हैं.
जब समाजवादी सोच वाले समाज को बनाने की सोची गई, तो इस संबंध को खत्म करने की बात सामने आई और दुनियाभर में मजदूरों ने अपने हित के लिए क्रांतिकारी संघर्ष किए. उन्होंने काम के घंटे को तय कराया, अपने परिवार के लिए पढ़ाईलिखाई, सेहत और घर की मांग की, यूनियन बनाने और हड़ताल करने का हक हासिल किया.
भारत में भी आजादी के बाद समाजवादी ढांचे को स्वीकार किया गया और सार्वजनिक उपक्रमों के जरीए मजदूरों के हितों को सुरक्षित करने की कोशिश की गई, पर यह अधूरी थी.
आजादी के बाद राज्य द्वारा जिस मात्रा में सार्वजनिक क्षेत्रों में रोजगार बनाए गए, उस से कई गुना ज्यादा यहां की आबादी बेरोजगार थी, जो अपनी जीविका के लिए असंगठित क्षेत्रों में जाने को मजबूर हुई.
90 के दशक तक आतेआते देश में मजदूरों का सवाल धीरेधीरे सीन से बाहर होता चला गया. अब चुनावों में भी मजदूरों के हितों की बात राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में नहीं होती है. अब तो संगठित क्षेत्रों में भी मजदूरों की हालत अच्छी नहीं रह गई है.
ठेके पर मजदूर उसी तरह से रखे जाते हैं जैसे दास युग में दासों को जीने भर कर खाना मिलता था. ठेके ने श्रम के प्रति जाहिर की जाने वाली उस नैतिक जिम्मेदारी को खत्म कर दिया है, जिस के तहत मजदूर और उस के परिवार के लिए पढ़ाईलिखाई, सेहत और घर के लिए न्यूनतम व्यवस्था की बात थी.
आज मजदूर बेहद ही खतरनाक हालात में काम करने के लिए मजबूर हैं, पर उन के लिए जीवन की आधारभूत संरचनाओं और सुरक्षा की कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है.
वैश्वीकरण के दौर में सारी चीजें चमक रही हैं, लेकिन मजदूरों के चेहरे से लोच गायब हो रही है. बाजार ने मजदूरी और मजदूरों की अहमियत को अपने इश्तिहारों से ढक लिया है. आज भी मजदूर अपनी बुनियादी जरूरतों और हकों के लिए जद्दोजेहद कर रहे हैं.
आज एक ओर भवन निर्माण, सड़क निर्माण, छोटीबड़ी प्राइवेट फैक्टरियों, मिलों और खदानों में बहुत बड़ी तादाद में लोग ठेके पर मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं, तो वहीं दूसरी ओर महानगरों में दूसरों के घरों, गलियों, नालियों में दिहाड़ी पर काम करने को मजबूर हैं.
ये भी पढ़ें- “हुक्का बार” :संसद से सड़क तक चर्चे
मनरेगा एक अच्छी कोशिश कह सकते है, लेकिन यह तब तक एकांगी है, जब तक इस के लाभ के रूप में मजदूर अपनी वास्तविक हैसियत से बाहर नहीं निकल जाते हैं. यह तभी मुमकिन है, जब उन के लिए न्यूनतम मजदूरी के अलावा पढ़ाईलिखाई, सेहत, घर व सुरक्षा की गारंटी भी हो. द्य