बांग्लादेशी घुसपैठियों पर सियासी जंग

साल 1985 के बाद से ही बिहार विधानसभा के हर चुनाव में भाजपा बंगलादेशी घुसपैठियों का मामला उठाती रही है. इस के बूते भाजपा को सीमांचल इलाके में कामयाबी भी मिली है.

एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर औफ सिटीजन लिस्ट जारी होने के बाद भाजपाई अब बिहार में भी इसे लागू करने की आवाज बुलंद करने लगे हैं, जबकि उन का सहयोगी दल जनता दल (यूनाइटेड) एनआरसी के विरोध में  झंडा उठाए हुए है.

भाजपा नेताओं का दावा है कि बिहार के सीमांचल इलाकों में मुसलिम आबादी तेजी से बढ़ी है और इस की अहम वजह बंगलादेशी घुसपैठिए ही हैं. कटिहार और पूर्णिया में 40 फीसदी और किशनगंज में 50 फीसदी तक मुसलिम आबादी हो गई है.

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जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, 1971 में अररिया में मुसलिम आबादी 36.52 फीसदी थी, जो साल 2011 में बढ़ कर 42.94 फीसदी हो गई. 1971 में कटिहार में 36.58 मुसलिम थे, जो साल 2011 में बढ़ कर 44.46 फीसदी हो गए. 1971 में पूर्णिया में 31.93 फीसदी ही मुसलिम आबादी थी जो साल 2011 में 38.46 फीसदी तक जा पहुंची.

इस तरह से 40 सालों के दौरान अररिया में 6.4 फीसदी, कटिहार में 7.88 फीसदी और पूर्णिया में 6.53 फीसदी की दर से मुसलिम आबादी बढ़ी है.

साल 1991 में हुई जनगणना में देश में 82.77 फीसदी हिंदू और 11.02 फीसदी मुसलिम थे. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, 79.97 फीसदी हिंदू और 14.22 फीसदी मुसलिम हो गए. इस दौरान मुसलिम आबादी 3.02 फीसदी बढ़ गई और उसी अनुपात में हिंदू आबादी घट गई.

1 सितंबर, 2019 को असम में एनआरसी लिस्ट जारी की गई. 3 करोड़, 11 लाख, 21 हजार, 4 लोगों को लिस्ट में शामिल किया गया. 19 लाख, 6 हजार, 657 लोगों को लिस्ट में जगह नहीं मिली. भाजपा नेता और मंत्री हिमंत बिस्वा ने लिस्ट को आधाअधूरा करार दिया है.

बिहार जद (यू) ने भी सरकार के इस कदम की आलोचना की है. इतना ही नहीं, बिहार में इसे लागू करने का पुरजोर विरोध कर रही है.

भाजपा के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा ने सब से पहले बिहार में एनआरसी की मांग उठाते हुए कहा कि बिहार के सीमांचल इलाकों में आबादी का बैलेंस बिगड़ा है. इन इलाकों में बड़ी तादाद में बंगलादेशी जमीन, रोजगार और कारोबार पर कब्जा जमा चुके हैं.

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भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह कहते हैं कि बिहार में एनआरसी की जरूरत है. राज्य से घुसपैठियों को बाहर करना जरूरी है. पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज, अररिया जैसे सीमांचल इलाकों में बड़े पैमाने पर घुसपैठिए हैं. सुप्रीम कोर्ट की हिदायत पर एनआरसी बनाई गई थी. वहीं दूसरी ओर जद (यू) ने भाजपा की एनआरसी की मांग को खारिज करते हुए कहा है कि असल में तैयार की गई एनआरसी पर खुद वहां की भाजपा सरकार ने नाराजगी जताई है.

जद (यू) के राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी कहते हैं कि असम में एनआरसी पूरी तरह से दुरुस्त और सही नहीं है. विदेश मंत्रालय भी साफ कर चुका है कि एनआरसी लिस्ट से बाहर रहने वालों को बाहर नहीं निकाला जाएगा.

बिहार के तकरीबन 35 विधानसभा क्षेत्रों में  20 लाख बंगलादेशी हैं. पश्चिम बंगाल के 52 विधानसभा क्षेत्रों में 80 लाख से ज्यादा बंगलादेशी हैं. सरकारें इन घुसपैठियों पर रहमोकरम बरसाती रही हैं, क्योंकि वे सियासी दलों के एकदम पक्के वोटर जो बने हुए हैं.

भाजपा नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि कई राजनीतिक दल एनआरसी को वोट बैंक के तौर पर देखते हैं, लेकिन भाजपा इसे घुसपैठ और आतंकवाद के रूप में देखती है.

गौरतलब है कि असम संधि के तहत कहा गया है कि साल 1966 से 1971 के बीच बंगलादेश से आए लोगों को भारत के नागरिक के तौर पर रजिस्टर किया गया है. साल 1971 के बाद सीमा पार कर भारत आए लोगों को भारत में रहना गैरकानूनी करार दिया गया है. संधि के तहत ऐसे लोगों को उन के मूल देश वापस भेजा जाना है.

बंगलादेशी घुसपैठिए पूर्वोत्तर भारत यानी असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, बिहार और  झारखंड में भारी पैमाने पर भरे हुए हैं. इतना ही नहीं. दिल्ली में भी बंगलादेशी घुसपैठियों ने अपनी जबरदस्त पैठ बना ली है. गैरकानूनी तरीके से घुस कर बंगलादेशी घुसपैठिए भारत की नागरिकता भी ले रहे हैं.

असम में मंगलदोई संसदीय क्षेत्र में हुए उपचुनाव में महज 2 साल के दरमियान 70,000 मुसलिम वोटरों के बढ़ने के बाद देश में पहली बार बंगलादेशी घुसपैठियों का मामला उजागर हुआ था.

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एक अनुमान के तहत, भारत में बंगलादेशी घुसपैठियों की तादाद तकरीबन 3 करोड़ है. घुसपैठियों की वजह से सीमा से सटे इलाके मुसलिम बहुल हो गए हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि बंगलादेश की पिछली जनगणना में तकरीबन एक करोड़ बंगलादेशी गायब पाए गए हैं. इस से भारत में बंगलादेशी घुसपैठियों के मामले को मजबूती मिली है.

घुसपैठियों के बहाने भाजपा को हिंदुत्व कार्ड खेलने की छूट मिलती है. बंगलादेशी मान कर लोग किसी भी बंगाली मुसलिम को आसानी से विदेशी कह सकते हैं.

आम लोगों को सरकार ने छूट दे दी है कि वे सड़क पर न्याय कर सकें. आज बंगलादेशी होने के नाम पर हिंदी व बंगाली बोलने वाले मुसलिम गुलाम बन गए हैं. वे न जमीन खरीद सकते हैं, न मकान बना सकते हैं. दलित और पिछड़ों के साथ भी यही सुलूक हो रहा है, चिंता न करें.

यह है एनआरसी

एनआरसी का मतलब है नैशनल रजिस्टर औफ सिटीजन. असम भारत का एकलौता राज्य है, जिस के पास एनआरसी है. यह साल1951 में बना था. इस के तहत 27 मार्च, 1971 को बंगलादेश बनने से पहले जो लोग असम में रह रहे थे, उन्हें ही भारतीय नागरिक की मंजूरी दी गई.

साल 1979 में अखिल असम छात्र संघ ने असम में गैरकानूनी रूप से रह रहे घुसपैठियों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था. 6 साल तक चले आंदोलन के बाद 15 अगस्त, 1985 को हुए असम सम झौते के बाद शांत हुआ था.

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दिसंबर, 2013 में नागरिकों की पहचान का काम शुरू हुआ और उस के बाद 2015 में नागरिकों से आवेदन मांगे गए. 31 दिसंबर, 2018 को असम सरकार ने एनआरसी की पहली लिस्ट जारी की थी.

इस देश में रहना है तो कुंडली तो रखनी ही होगी.

नेताओं के दावे हवा-हवाई, दीपावली के पहले ही गला घोंटू हवाओं ने दी दस्तक

कुछ दिनों पहले की ही बात थी कि पौल्यूशन कम को लेकर नेताओं के भाषण चल रहे थे. मीडिया के सामने पहले दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल आए और उन्होंने कहा कि दिल्ली का प्रदूषण पहले से 25 फीसदी तक घट गया है. इसके आगे उन्होंने अपने प्रयास भी गिनवा दिए जोकि प्रयास कम प्रचार ज्यादा समझ आ रहा था.

इसके बाद केंद्र सरकार में कैबिनट मंत्री प्रकाश जावेडकर आए और उन्होंने भी अपना भाषण दे दिया. दोनों ने भाषण दे दिया और प्रदूषण कम भी गया. कुछ ही दिनों बाद दिल्ली एनसीआर में जब लोग अपने घरों से बाहर निकले तो धुंध दिखी. लोगों ने कयास लगाए कि इस बार ठंड कुछ पहले ही आ गई और कुहास आने लगा लेकिन जब वो बाहर निकले तो सांस लेने में भी परेशानी होने लगी. ये ठंड का कुहास नहीं बल्कि वायुमंडल में भरा प्रदूषण है.

इस बार मौसम ने करवट समय से पहले ही ले ली. अमूमन ठंड का आगाज दीपावली बाद देखने को मिलता है लेकिन इस बार दशहरे के बाद से ही ठंड महसूस होने लगी है. इसके साथ ही वायु प्रदूषण भी लगातार बढ़ रहा है. पिछले सप्ताह के मुकाबले रविवार को प्रदूषण के स्तर में दो गुना बढ़ोतरी हुई है. इसकी वजह से शहर रेड जोन में आ गया है.

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वायु गुणवत्ता सूचकांक एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 315 पर पहुंच गया है. ऐसे में लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व उत्तर प्रदेश में पराली जलना शुरू हो गई है. इससे यहां के लोगों को परेशानी हो रही है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2016 में प्रदूषण के कारण पांच वर्ष से कम आयु के एक लाख से अधिक बच्चों की मृत्यु हुई. इनमें भारत के 60,987, नाइजीरिया के 47,674, पाकिस्तान के 21,136 और कांगो के 12,890 बच्चे सम्मिलित हैं. रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण के कारण 2016 में पांच से 14 साल के 4,360 बच्चों की मत्यु हुई. निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पांच साल से कम उम्र के 98 प्रतिशत बच्चों पर वायु प्रदूषण का बुरा प्रभाव पड़ा, जबकि उच्च आय वाले देशों में 52 प्रतिशत बच्चे प्रभावित हुए.

वायु प्रदूषण के कारण विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 70 लाख लोगों की अकाल मृत्यु होती है. संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) के अनुसार भारत में बढ़ता वायु प्रदूषण वर्षा को प्रभावित कर सकता है. इसके कारण लंबे समय तक मानसून कम हो सकता है. द एनर्जी एंड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार शीतकाल में 36 प्रतिशत प्रदूषण दिल्ली में ही उत्पन्न होता है. 34 प्रतिशत प्रदूषण दिल्ली से सटे एनसीआर से आता है. शेष 30 प्रतिशत प्रदूषण एनसीआर और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से यहां आता है.

रिपोर्ट में प्रदूषण के कारणों पर विस्तृत जानकारी दी गई है. रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रदूषण के लिए वाहनों का योगदान लगभग 28 प्रतिशत है. इसमें भी भारी वाहन सबसे अधिक 9 प्रतिशत प्रदूषण उत्पन्न करते हैं. इसके पश्चात दो पहिया वाहनों का नंबर आता है, जो 7 प्रतिशत प्रदूषण फैलाते हैं. तीन पहिया वाहनों से 5 प्रतिशत प्रदूषण फैलता है. चार पहिया वाहन और बसें 3-3 प्रतिशत प्रदूषण उत्पन्न करती हैं. अन्य वाहन एक प्रतिशत प्रदूषण फैलाते हैं.

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दशहरे के अगले ही दिन से प्रदूषण के स्तर में बढ़ोतरी होनी शुरू हो गई थी. हालांकि, पिछले साल के मुकाबले इस बार प्रदूषण स्तर में कमी पाई गई. लेकिन, रविवार को हालात बुरे हो गए. वातावरण में हल्की धुंध के साथ धूल के कण भी नजर आए. अब धीरे-धीरे ठंड बढ़ने लगी है। इसकी वजह से हवा की दिशा में बदलाव हुआ है.

रविवार को एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 315 वैरी पुअर दर्ज किया गया। इसके साथ ही प्रदूषण विभाग द्वारा लगाई गई मशीनों के जरिए पता लगा है कि नोएडा के सेक्टर-62 में 337, सेक्टर-1 में 321, सेक्टर-116 में 314 व सेक्टर-125 में प्रदूषण का स्तर 275 है, जो बहुत खतरनाक है. पूरा शहर रेड जोन में आ गया है. राजधानी दिल्ली के कई इलाकों का आंकड़ा भी बेहद चिंताजनक आया है.

महाराष्ट्र चुनाव में कितनी हावी है वंशवाद की राजनीति, बीजेपी भी नहीं है अछूती

हम यहां बात करेंगे महाराष्ट्र की  सियासत में पहली बार चुनावी मैदान में उतरे दो युवा नेताओं की. जिनको राजनीति उनके वंश से मिली हैं. पहले हैं शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे और दूसरे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रमुख और कद्दावर नेता शरद पवार के पोते रोहित पवार. दोनों का ये पहला चुनाव है.

महाराष्ट्र की सियासत में हमेशा से ही शिवसेना का दबदबा रहा है. शिवसेना राज्य की सत्ताधारी पार्टियों में से एक रही है और इसके संस्थापक बाल ठाकरे राज्य की राजनीति में हमेशा ही एक कद्दावर शख्सियत रहे हैं उनके देहान्त के बाद पार्टी की  बागडोर उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने संभाली. राज्य में अभी बीजेपी और शिवसेना की गठबंधन सरकार है. इन दोनों का गठबंधन भी ऐसा है कि दोनों एक दूसरे को भर-भर कोसते भी हैं और चुनाव के समय दोनों पार्टियों के नेता मिलकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करके गठबंधन का ऐलान भी करते हैं. खैर ये एक अलग मसला है. अभी हम बात करेंगे वंशवाद की राजनीति पर.

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शिवसेना ने एक बार साल 1995 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पद हासिल किया. इसके साथ ही साल 2014 से वह केंद्र और राज्य में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार का हिस्सा भी रही है. लेकिन खुद को रिमोट कंट्रोल बताने वाले इसके संस्थापक बाल ठाकरे ने चुनावी मैदान में कभी अपना हाथ नहीं आजमाया. न तो वे और न ही उनके बेटे उद्धव कभी चुनाव लड़े. 2012 के बाद से शिवसेना की कमान उद्धव के हाथों में ही है.

उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे ने भी कभी चुनावी अखाड़े में आजमाइश नहीं की. बाला साहेब ठाकरे से प्रेरित राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग महाराष्ट्र नव निर्माण सेना (मनसे) के नाम से पार्टी भी बनाई और 2014 में चुनाव लड़ने का मन भी बनाया और सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा तक की लेकिन बाद में वो इससे पीछे हट गए.

लेकिन इस चुनाव में ठाकरे परिवार ने ऐतिहासिक फ़ैसला लेते हुए तीसरी पीढ़ी के ठाकरे यानी आदित्य ठाकरे को मुंबई की वर्ली विधानसभा सीट से उतारा है. यानी चुनाव के मैदान में उतरने वाले वे अब पहले ठाकरे बन गए हैं.

जब 1995 में पहली बार शिवसेना सरकार बनी तब बाला साहेब ठाकरे अक्सर तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी से भिड़ते हुए देखे गए थे.” बाद में जोशी की जगह नारायण राणे को मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन राणे को उनके विद्रोह के लिए ज़्यादा ख्याति मिली जब उन्होंने 2005 में शिवसेना को मुश्किलों में पहुंचा दिया था. इसकी सबसे बड़ी वजह यह निकल कर आई कि राज्य का मुख्यमंत्री पूरी तरह से पार्टी प्रमुख के नियंत्रण में नहीं रह सकता है. लिहाजा आदित्य की चुनाव मैदान में एंट्री शिवसेना की अब तक ‘रिमोट कंट्रोल’ से सरकार चलाने की राजनीति का अंत माना जा सकता है.

दूसरी ओर पवार परिवार की तीसरी पीढ़ी के रोहित पवार भी करजात-जमखेद से चुनावी मैदान में उतरे हैं. ठाकरे के उलट पवार ने कभी ऐसा नहीं माना कि चुनाव में उनकी दिलचस्पी नहीं है. दशकों तक महाराष्ट्र की राजनीतिक क्षितिज पर शरद पवार के वर्चस्व के बाद उनकी बेटी सुप्रिया सुले लोकसभा चुनाव जीत कर संसद पहुंची. इसके अलावा उनके भतीजे और राज्य में विपक्ष के नेता अजीत पवार उप-मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं.

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2019 के विधानसभा चुनाव में पवार परिवार अपनी नई पीढ़ी के साथ उतरा है. अजीत पवार के बेटे पार्थ इसी साल मई में हुए लोकसभा चुनाव में हाथ आजमा चुके हैं. हालांकि पहली बार में उन्हें नाकामी मिली. अब शरद पवार के दूसरे पोते रोहित लॉन्च के लिए तैयार हैं.

वंशवाद का हमेशा विरोध करने वाली बीजेपी इस बात का दावा करती है कि उसकी पार्टी में वंशवाद नहीं है. वंशवाद के ही मुद्दे पर वो कांग्रेस पर खुला प्रहार भी करती आई है लेकिन महाराष्ट्र में की कहानी कांग्रेस से उलट नहीं है.

यहां उन्होंने ऐसे 25 उम्मीदावर मैदान में उतारे हैं जिनका राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक है. बीजेपी की सूची में कई बड़े नाम हैं. जैसे कि दिवंगत नेता गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे पराली से मैदान में हैं. फडणवीस सरकार में मुंडे बाल एवं महिला कल्याण मंत्री रही हैं. उनकी बहन प्रीतम बीड से सांसद हैं.

राजनीतिक विवाद तब भड़का जब बीजेपी ने अपने कद्दावर नेता एकनाथ खड़से को टिकट नहीं दिया, उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में मंत्रिमंडल से हटाया गया था. इसके बाद खड़से ने नामांकन पत्र दाखिल कर दिया था. उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बीजेपी पर गुस्सा भी उतारा था. उन्होंने कहा था कि आज बीजेपी के कारण उन्होंने शिवसेना से बुराई ली थी. बीजेपी ने उनकी बेटी रोहिणी को टिकट दिया है. खड़से की बहू रक्षा पहले ही सांसद हैं. आकाश फुंडकर दिवंगत बीजेपी नेता पांडुरंग फुंडकर के बेटे हैं और बुलढाणा के खामगांव से चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. बीजेपी के वरिष्ठ नेता एनएस फरांडे की बहू देवयानी फरांडे नासिक से चुनाव लड़ रही हैं.

एनसीपी के पूर्व नेता और मंत्री रह चुके गणेश नाइक अपने बेटे संदीप नाइक के साथ बीजेपी में शामिल हो गए. अब संदीप नवी मुंबई से बीजेपी के प्रत्याशी बनाए गए हैं. पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे बीजेपी के राज्यसभा सांसद हैं. लेकिन उनके बेटे जो अब तक कांग्रेस के विधायक थे बीजेपी ने उन्हें नामांकन भरने से ठीक एक दिन पहले पार्टी में शामिल करते हुए चुनाव में उतार दिया.

मधुकर पिचड़ और उनके बेटे वैभव दशकों तक शरद पवार के वफादार थे लेकिन अब वैभव बीजेपी की टिकट पर अकोला से मैदान में हैं. राणा जगजीत सिंह का तो शरद पवार के परिवार से संबंध है. वे एनसीपी के विधायक थे और उनके पिता पद्मसिंह एनसीपी के सांसद. लेकिन दोनों बीजेपी में शामिल हो गए और राणा जगजीत सिंह बीजेपी की टिकट पर चुनावी मैदान में हैं.

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एक और कद्दावर राजनीतिक परिवार अहमदनगर से विखे परिवार है जिसने बीजेपी जॉइन की है. राधाकृष्ण विखे पाटील 2019 के लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले तक विधानसभा में कांग्रेस के विपक्ष के नेता थे लेकिन उसके बाद उनके बेटे डॉ. सुजय विखे पाटील बीजेपी की टिकट पर लोकसभा चुनाव जीत गए, अब पिता राधाकृष्ण भी बीजेपी की टिकट पर चुनावी मैदान में हैं.

कांग्रेस और एनसीपी में वंशवाद का बोलबाला

कांग्रेस और एनसीपी में कुछ ही परिवारों का प्रभुत्व रहा है और ये ही परिवार इन पार्टियों को चला रहे हैं. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिवंगत नेता विलासराव देशमुख के बेटे अमित देशमुख लातूर से विधायक हैं और दोबारा यहीं से चुनावी मैदान में हैं. उनके साथ उनके छोटे भाई धीरज भी लातूर ग्रामीण से चुनावी अखाड़े में हैं. विश्वजीत कदम दिवंगत कांग्रेस नेता पतंगराव कदम के बेटे हैं. वे अपने पिता की सीट कड़ेगांव-पालुस से ही मैदान में उतरे हैं.

अभी ऐसे कई और नाम है जो ऐसी लिस्ट में हैं. बीजेपी कांग्रेस पर हमेशा से ही वंशवाद का आरोप लगाती रही है लेकिन इन आरोपो से पहले पार्टी को खुद से भी कमी को हटाना चाहिए. ऐसा सिर्फ महाराष्ट्र में नहीं हो रहा बल्कि देश के अन्य कई राज्यों में पार्टी पर वंशवाद हावी है.

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जमीन से बेदखल होते गरीब और आदिवासी

देश के कुदरती संसाधनों यानी जल, जंगल, जमीन पर सभी नागरिकों का समान हक है. कहने को यह बात बड़ी अच्छी लगती है, मगर असलियत में हो क्या रहा है, इस समझने के लिए हाल ही में राजस्थान में घटे 2 मामले काफी हैं:

मामला 1

झुंझुनूं के गुढ़ा उदयपुरवाटी गांव में 25 सदस्यों की वन विभाग की टीम बाबूलाल सैनी के घर में पहुंचती है और घर को हटाने की तैयारी करती है.

बाबूलाल का यहां टीनशैड का पुश्तैनी मकान है, जो उसे अपने बापदादा से विरासत में मिला है.

जोरआजमाइश के बीच बाबूलाल खुद को तेल डाल कर आग के हवाले कर देता है. गंभीर हालत में वह झुंझुनूं के एक अस्पताल से होते हुए जयपुर अस्पताल में भरती हो जाता है.

बाबूलाल का भाई मोतीलाल कहता है कि उन को पहले कोई कानूनी नोटिस नहीं दिया गया.

मामला 2

नागौर के राउसर की बंजारा बस्ती को हटाने के लिए जेसीबी समेत भारी पुलिस व प्रशासनिक अमला मौके पर पहुंचता है. जेसीबी चला कर कच्चेपक्के मकानों को तोड़ दिया जाता है.

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इस दौरान बस्ती के तमाम लोगों व प्रशासनिक अमले के बीच झड़प शुरू हो जाती है. नतीजतन, जेसीबी चालक के सिर पर चोट लगने से उस की मौके पर ही मौत हो जाती है.

इस देश में विकास के नाम पर 14 राज्यों में करोड़ों आदिवासियों को उन जमीनों से खदेड़ कर फेंका गया है, जिन पर वे सैकड़ों साल से रह रहे थे.

हाल ही में उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में 10 आदिवासियों को भी गुंडों ने इसीलिए मार दिया था.

राजस्थान में पिछले दिनों शेखावटी इलाके में एक किसान ने खुद पर तेल छिड़क कर इसलिए आग लगा ली थी, क्योंकि 3 पीढ़ी जिस जमीन पर रहती आई थीं, उस को अवैध कब्जा बता कर प्रशासन तोड़ने पहुंच गया था.

नागौर में 25 अगस्त, 2019 को जिस बस्ती वालों को उजाड़ा गया, उन के उस पते पर वोटर आईडी कार्ड, आधारकार्ड बने हुए थे. बिजली विभाग के दिए कनैक्शन थे. ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत सरकार ने शौचालय बनवाए थे.

मतलब, उस पते पर हर वह दस्तावेज बना हुआ था, जो भारत के नागरिक के पास होता है, फिर यह गैरकानूनी कब्जा कैसे हो गया? अगर यह गैरकानूनी कब्जा था तो गांव के सरपंच, पटवारी, तहसीलदार, एसडीएम, डीएम, बिजली विभाग के एईएन, बीडीओ वगैरह इस के जिम्मेदार व कुसूरवार हैं.

बात सिर्फ यह नहीं है कि यह अवैध कब्जा था, बल्कि असल बात भूमाफिया व अधिकारियों की मिलीभगत की है. नागौर शहर की आधी से ज्यादा सरकारी जमीन पर भूमाफिया का कब्जा है और उस को हटाने का कोर्ट का आदेश भी है, मगर अधिकारी उन का हरमुमकिन बचाव कर रहे हैं, क्योंकि बात हिस्सेदारी की है.

आजादी से पहले इस देश में हर नागरिक को सरकारी जमीन पर रहने का हक था. आजादी के बाद हुई पहली पैमाइश में जहांजहां भी लोग स्थायी रूप से रह रहे थे, उसे आबादी भूमि दर्ज कर के तत्कालीन स्थायी आवास करने वाली जनसंख्या को आवास का अधिकार तो दे दिया, पर इन दिनों घुमक्कड़ रह कर जिंदगी बिताने वाली बंजारा, गाडि़या लोहार, बागरिया, कंजर, नाथ, जोगी, सपेरा जैसी अनेक जातियों को आवास के लिए किसी न किसी सरकारी जमीन पर ही बसना पड़ा.

लोकतंत्र में लोक जब जातिधर्म में बिखर जाता है, तो गुंडेमवाली जोरजुल्म करने लग जाते हैं. विधायकों, सांसदों, मंत्रियों की जमीनों की जांच की जाए तो 99 फीसदी के फार्महाउस, बंगले गैरकानूनी कब्जे की जमीन पर मिलेंगे.

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राजस्थान का ही हाल देखा जाए तो आधी आबादी वन भूमि, गोचर, पहाड़ी, पड़त, बंजर वगैरह इलाकों में रहती है और हजारों सालों से रह रही है. आजादी के बाद भूसुधार अधिनियम लागू करना था, मगर तत्कालीन राजारजवाड़ों से निकले नेताओं की हठ के चलते ठीक से लागू नहीं हो पाया.

निजी कंपनियों को ये ही जमीनें कौडि़यों के भाव में दी जा रही हैं. जगहजगह भूमाफिया ने सरकारी जमीनों पर कब्जा कर रखा है, जिस में नेताओं का संरक्षण व हिस्सेदारी शामिल है.

आजादी के बाद राजस्थान के तत्कालीन किसान नेताओं ने टेनेंसी ऐक्ट के जरीए किसानों को खेती वाली जमीन का मालिक जरूर बना दिया, मगर उन के घरों के संबंध में ठोस कानून नहीं बन पाए.

वजह यह है कि मुख्यधारा से कटी भारत के वनों पर आश्रित एक बड़ी आबादी को देश की सर्वोच्च अदालत में अपना आशियाना बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ रही है.

हाल ही में अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई के बाद सर्वोच्च अदालत ने वनों पर आश्रित आदिवासी समुदायों को अतिक्रमणकारी घोषित करते हुए वनभूमि से बेदखल करने का फरमान सुनाया था.

संसद में 18 दिसंबर, 2006 को अनुसूचित जाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 सर्वसम्मति से पास किया गया था. एक साल बाद 31 दिसंबर, 2007 को इसे लागू करने की अधिसूचना जारी की गई थी.

इस से पहले भारत में वनों के संबंध में साल 1876 से साल 1927 के बीच पास किए गए भारतीय वन कानूनों के प्रावधानों को ही लागू किया जाता था. एक लंबे वक्त तक साल 1927 का वन कानून ही भारत का वन कानून रहा.

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हालांकि ऐसे किसी भी कानून का पर्यावरण और वन सरंक्षण से कोई सरोकार नहीं था, लेकिन फिर भी पर्यावरण और वन संरक्षण के नाम पर जहांतहां इस का बेजा इस्तेमाल किया जाता रहा. भारत सरकार की टाइगर टास्क फोर्स ने भी यह माना है कि वन संरक्षण के नाम पर गैरकानूनी और असंवैधानिक रूप से जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है.

क्या मंजिल तक पहुंच पाएगी ‘स्वाभिमान से संविधान यात्रा’

दलितों के सिर पर इन दिनों आरक्षण के छिन जाने का एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है. कुछ का अंदाजा है कि भाजपा पहले राम मंदिर बनाने को प्राथमिकता देगी, जबकि कुछ को डर है कि वह पहले आरक्षण खत्म करेगी और उस के तुरंत बाद ही राम मंदिर का काम होगा जिस से संभावित दलित विद्रोह और हिंसा का रुख राम की तरफ मोड़ कर उसे ठंडा किया जा सके.

पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण को ले कर अपनी मंशा यह कहते हुए जाहिर की थी कि आरक्षण विरोधी और समर्थकों को शांति के माहौल में बैठ कर इस मसले पर बातचीत करनी चाहिए, मतलब, ऐसी बहस जिस पर हल्ला मचेगा और यही भगवा खेमा चाहता है.

यह बातचीत हालांकि एकतरफा ही सही, सोशल मीडिया पर लगातार तूल पकड़ रही है जिस में सवर्ण भारी पड़ रहे हैं और इस की अपनी कई वजहें भी हैं.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार दलित बड़े पैमाने पर भाजपा की तरफ झुके थे तो इस की एक बड़ी वजह बतौर प्रधानमंत्री पेश किए गए खुद नरेंद्र मोदी का उस तेली साहू जाति का होना था जिस की गिनती और हैसियत आज भी दलितों सरीखी ही है.

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तब लोगों खासतौर से दलितों को लगा था कि भाजपा केवल सवर्णों की नहीं, बल्कि उन की भी पार्टी है जो उस ने तकरीबन एक दलित चेहरा पेश किया.

इस के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ने दलित प्रेम का अपना दिखावा जारी रखा और तरहतरह के ड्रामे किए, जिन में उस के बड़े नेताओं का दलितों के घर जा कर उन के साथ खाना खाना और दलित संतों के साथ कुंभ स्नान प्रमुख थे.

इस का फायदा उसे मिला भी और दलित उसे वोट करते रहे. साल 2019 के चुनाव में आरक्षण मुद्दा बनता लेकिन बालाकोट एयर स्ट्राइक की सुनामी उसे बहा ले गई और राष्ट्रवाद के नाम पर सभी लोगों ने नरेंद्र मोदी को दोबारा चुना.

3 तलाक और कश्मीर में मनमानी थोपने के बाद जैसे ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण का मुद्दा उठाया तो दलित समुदाय बेचैन हो गया, क्योंकि अब राजनीति में उस का कोई माईबाप नहीं है और बसपा प्रमुख मायावती भी भाजपा के सुर में सुर मिला रही हैं.

पिछले 5 साल में भाजपा तकनीकी तौर पर दलितों को दो फाड़ कर चुकी है और ज्यादातर नामी दलित नेता उस की गोद में खेल रहे हैं, जिन्होंने उस की असलियत भांपते हुए इस साजिश का हिस्सा बने रहने से इनकार कर दिया, उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकने में भी भाजपा ने देर नहीं की. इन में सावित्री फुले और उदित राज के नाम प्रमुख हैं.

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कांग्रेस का दांव

इधर कांग्रेसी खेमे को यह अच्छी तरह समझ आ रहा है कि उस की खिसकती जमीन की अहम वजह परंपरागत वोटों का उस से दूर हो जाना है जिन में मुसलमानों से भी पहले दलितों का नंबर आता है.

अब कांग्रेस भूल सुधारते हुए फिर दलितों को अपने पाले में लाने के लिए ‘स्वाभिमान से संविधान’ नाम की यात्रा निकालने जा रही है. इस बाबत उस का फोकस हालफिलहाल 3 राज्यों हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव हैं.

कुछ दिन पहले ही कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ के नेताओं से मुलाकात कर इस यात्रा को हरी झंडी दे दी है जिस के तहत फिर से दलितों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए युद्ध स्तर पर कोशिशें की जाएंगी.

कांग्रेस के अनुसूचित जाति विभाग के मुखिया नितिन राऊत की मानें, तो ‘स्वाभिमान से संविधान यात्रा’ के तहत हरेक विधानसभा में एक कोऔर्डिनेटर नियुक्त किया जाएगा जो अपनी विधानसभा में इस यात्रा को आयोजित करेगा.

दलितों को लुभाने का यह दांव कितना कामयाब हो पाएगा, यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे, लेकिन कांग्रेस की एक बड़ी मुश्किल यह है कि उस के पास भी बड़े और जमीनी दलित नेताओं का टोटा है.

इधर सोशल मीडिया पर भगवा खेमा लगातार यह कह रहा है कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव समेत दलितों को सताने के मामले अब कम ही होते हैं. फसाद या बैर की असल जड़ तो आरक्षण है जिस के चलते दलित अपनी काबिलीयत नहीं दिखा पा रहे हैं. सवर्ण तो चाहते हैं कि दलित युवा अपनी काबिलीयत के दम पर आगे आ कर हिंदुत्व की मुख्यधारा से जुड़ें, उन का इस मैदान में स्वागत है.

यह कतई हैरानी की बात नहीं है कि मुट्ठीभर दलित युवा इसे एक चुनौती के रूप में ले रहे हैं और ये वे दलित हैं, जिन्हें अपने ही समुदाय के लोगों की बदहाली की असलियत और इतिहास समेत भविष्य का भी पता नहीं.

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ये लोग भरे पेट हैं, शहरी हैं और यह मान बैठे हैं कि पूरा दलित समुदाय ही उन्हीं की तरह है जिसे आरक्षण की बैसाखी फेंक देनी चाहिए.

यही दलित युवा भाजपा की ताकत हैं जो आरक्षण खत्म होने पर तटस्थ रह कर अपने ही समाज की बरबादी में योगदान देंगे, क्योंकि सवर्ण उन्हें गले लगा कर बराबरी का दर्जा देते हैं. उन के लिए यह साजिश भरी बराबरी ही ऊपर वाले का प्रसाद है.

बारीकी से गौर किया जाए तो भाजपा दलितों को बहलाफुसला कर आरक्षण छोड़ने पर राजी करने की भी कोशिश कर रही है और वही धौंस भी दे रही है जो 3 तलाक और धारा 370 के मुद्दों पर मुसलमानों को दी थी कि यह कोई बदला या ज्यादती नहीं, बल्कि तुम्हारे भले की ही बात है.

अगर सीधे से नहीं मानोगे तो यह काम दूसरे तरीकों से भी किया जा सकता है, लेकिन भाईचारा और भलाई इसी में है कि सहमत हो जाओ.

अब ऐसे में अगर कांग्रेस की यात्रा हवाहवाई बातों और सीबीएससी की बढ़ी हुई फीस जैसे कमजोर मुद्दों में सिमट कर रह गई तो लगता नहीं कि वह मंजिल तक पहुंच पाएगी.

जगनमोहन की राह पर अमित जोगी

छत्तीसगढ़

अमित जोगी हर दूसरे-तीसरे दिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को चैलेंज करते थे कि ‘मुझे गिरफ्तार किया जाए, मुझे गिरफ्तार किया जाए’. भूपेश बघेल ने उन की यह मंशा 3 सितंबर को पूरी कर ही दी.

अपने ही धुर विरोधी रहे अजीत जोगी पर भूपेश बघेल की ‘टेढ़ी’ नजर है, इसे सभी जानते हैं, मगर भूपेश बघेल उतने तल्ख नहीं हुए, जितने भाजपा की मंडली पर रहे हैं. शायद इस की वजह अजीत जोगी का विशाल कद और पहले के खट्टेमीठे संबंध रहे हैं.

अमित जोगी अपने पिता अजीत जोगी की बनाई राजनीतिक धरोहर छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस पार्टी की कमान संभालने के बाद धुआंधार ढंग से भूपेश बघेल पर हमले कर रहे थे.

30 अगस्त को थाने पहुंच कर उन्होंने एक ज्ञापन सौंपा था और कहा था कि उन के पिता को जाति के मामले पर रंजिश के चलते फंसाया गया है.

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भूपेश बघेल के इशारे पर अमित जोगी को भी गिरफ्त में ले लिया गया. सब से अहम बात यह है कि जिस तरह ‘महाभारत’ में कृष्ण ने शिशुपाल को 100 गलतियां करने तक की छूट दे रखी थी, उस के बाद उसे मारने के लिए सुदर्शन चक्र चलाया था, यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ है. जब अमित जोगी के चैलेंज की हद हुई तो गिरफ्तारी हो गई…

मगर जरा रुकिए… छत्तीसगढ़ की राजनीति का यह घटनाक्रम एक ‘चैलेंजर गेम’ में भी बदल सकता है. कैसे… आगे देखते हैं…

भूपेश की घेराबंदी

इस में कोई दो राय नहीं है कि अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के राजनीतिक परिवारों में अपनी अहम जगह रखते हैं और शुरू से प्रदेश की राजनीति के केंद्र में रहे हैं. ये वे शख्सीयत हैं जो कभी चुप नहीं रहते, हमेशा जद्दोजेहद करते रहते है.

ऐसे में खास बात यह है कि अमित जोगी का यह कदम भूपेश बघेल को घेरना है और यह संदेश देना भी है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भूपेश बघेल बेदर्दी के साथ अपने राजनीतिक विरोधियों को निबटा रहे हैं.

एक बड़ा सच यह भी है कि जिस मामले में अमित जोगी को गिरफ्त में लिया गया है, वह चुनाव में उन की दोहरी नागरिकता को छिपाने का है और साल 2013 के विधानसभा चुनाव के दरमियान दी गई शपथ का है.

मजे की बात यह है कि तब अमित जोगी कांग्रेस के उम्मीदवार थे और भाजपा उम्मीदवार समीरा पैकरा ने यह शिकायत की थी. यही वजह है कि भाजपा के बड़े नेता डाक्टर रमन सिंह, धर्मजीत कौशिक, प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी इस मामले पर खामोश हैं.

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यह है चाहत

अमित  जोगी अपनी पार्टी को जनता के बीच ले जा कर राजनीतिक हालात बदलना चाहते हैं. उन्होंने एक दफा कहा था कि जगनमोहन रेड्डी जब 15 साल तक जद्दोजेहद कर के मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तो यह एक अच्छा उदाहरण है. जगनमोहन रेड्डी को एक तरह से अपना आदर्श बना कर अमित जोगी छत्तीसगढ़ की राजनीति में पेंगें भर रहे हैं.

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दुनिया की सबसे पुरानी पार्टी आज सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के पास बहुत अच्छा मौका था कि इन दो राज्यों में वो बीजेपी को कड़ी टक्कर दे. इस तरह कांग्रेस एक तीर से दो शिकार कर सकती थी. पहला तो ये कि लोकसभा के बाद बीजेपी का ग्राफ गिरा है दूसरा ये कि आर्टिकल 370 को खत्म करने के बाद बीजेपी को ये दिखाना कि आपके इस फैसले को जनता का समर्थन नहीं मिला. लेकिन ऐसा संभव नहीं दिख रहा. महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस भितरघात से जूझ रहा है. उसका मुस्तकबिल खुद कांग्रेस को भी नहीं बता.

21 अक्टूबर को हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने हैं. बीजेपी सहित तमाम छोटे छोटे राजनीतिक दल चुनावी तैयारियों में जुटे हैं, सिर्फ कांग्रेस को छोड़कर. कांग्रेस में चुनावी तैयारी की कौन कहे – हरियाणा कांग्रेस का झगड़ा तो दिल्ली की सड़कों पर उतर आया है. हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने भूपिंदर सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के खिलाफ नया मोर्चा खोल दिया है. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने मुश्किल ये खड़ी हो गयी है कि चुनावी तैयारियों को आगे बढ़ायें या फिर इन पचड़ों को निपटाएं. लेकिन ये कोई छोटा पचड़ा नहीं है. इसने सियासत में तूफान ला दिया है.

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तंवर कांग्रेस के दलित चेहरा थे और युवाओं में उनकी खास पकड़ है. ऐसे वक्त में तंवर को पार्टी से अलविदा कहना अपने आपमें बीजेपी की राह आसान करना है. हरियाणा में बीजेपी पहले से ही काफी मजबूत स्थिति में थी लेकिन अब तो लगता है यहां खेल एकतरफा ही होता जा रहा है. जब महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी संदेश यात्रा में व्यस्त थे, हरियाणा कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर अचानक कांग्रेस मुख्यालय पहुंचे और समर्थकों के साथ धरने पर बैठ गये. अशोक तंवर का आरोप है कि हरियाणा कांग्रेस में उम्मीदवारों को पैसे लेकर टिकट दिया जा रहा है और जो कार्यकर्ता पार्टी के लिए लगातार पसीना बहाते रहे हैं उन्हें को पूछ भी नहीं रहा है.

चुनाव की तारीख आने से पहले हरियाणा में सोनिया गांधी ने कई बदलाव किये थे. कांग्रेस नेतृत्व ने अशोक तंवर को हटा कर कुमारी शैलजा को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया था और विधानमंडल दल का नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा को. इस तरह किरन चौधरी को भी किनाने कर दिया गया. अशोक तंवर ने तब तो कुछ नहीं बोला लेकिन अब वो खुलेआम टिकट बंटवारे में पैसे के लेन-देन का इल्जाम लगा रहे हैं.

बीजेपी ने 2009 विधानसभा से लगातार अपने वोट शेयर में बड़ा इज़ाफ़ा किया है. 2009 में बीजेपी के पास महज़ 9 फीसदी वोट थे और सिर्फ़ 4 सीटें मिली थी. लेकिन 2014 में 47 सीटें मिली और वोट शेयर 34.7 फीसदी हो गया जो कि 2014 लोकसभा चुनावों के वोट शेयर के आस-पास ही था. वहीं कांग्रेस ने 2009 विधानसभा चुनाव में 40 सीटें जीती थी और वोट शेयर लगभग 36 फीसदी था. लेकिन 2014 में सिर्फ 15 सीटें मिली और वोट शेयर 21 फीसदी पर आ गिरा जो कि लोकसभा चुनावों के वोट शेयर के आस-पास ही था.

लेकिन इस बार 2019 लोकसभा चुनावों में बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस के वोट शेयर में भी इज़ाफ़ा हुआ है जिसका एक फैक्टर इनेलो के वोटों का बंट जाना भी हो सकता है. बीजेपी ने 58 फीसदी वोट हासिल किए हैं और कांग्रेस ने 28 फीसदी. लगभग 30 फीसदी वोटों के अंतर को पाटना कांग्रेस के लिए बहुत मुश्किल होगा.

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अशोक तंवर को लेकर माना जाता रहा है कि वो राहुल गांधी के करीबी रहे हैं और चुनावों के ऐन पहले दबाव बनाकर हुड्डा ने उनका पत्ता साफ कर दिया. ये बात सही भी है कि राहुल गांधी की टीम में तंवर का नाम होता था. हुड्डा ने हरियाणा में एक रैली की थी और संकेत देने की कोशिश की कि अगर कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी मांगें नहीं मानीं तो वो नयी पार्टी बना लेंगे. चुनाव सिर पर आ गये थे लिहाजा सोनिया गांधी को हुड्डा की शर्तें माननी पड़ी. सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से तात्कालिक तौर पर झगड़ा तो खत्म हो गया लेकिन टिकट बंटवारे को लेकर लड़ाई फंस गयी. जाहिर है जो हुड्डा लगातार पांच साल तक अशोक तंवर के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे, भला उनके समर्थकों कों टिकट देकर अपने लिए आगे की मुसीबत क्यों मोल लेंगे?

हरियाणा के वरिष्ठ पत्रकार और राज्य की राजनीति को निकटता से देखने वाले सुभाष शर्मा बतातें हैं कि साल 2004 का जिक्र करना यहां बहुत जरूरी हो जाता है. क्योंकि ये वो साल था जब कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई थी. इन चुनावों में भजनलाल को चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा गया था. इन चुनावों में कांग्रेस को 90 में से 67 सीटें मिलीं थी. प्रचंड बहुमत देख सोनियां गांधी ने प्रदेश की कमान भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सौंप दी गई. विरोध की आवाज भी दबा दी गई. क्योंकि उस वक्त कांग्रेस अपने पूरे रंग में थी. वाजपेयी सरकार को हराकर कांग्रेस सत्ता में लौटी थी. लेकिन उसके बाद क्या हुआ. हुड्डा के नेतृत्व में हरियाणा कांग्रेस का कद घटता गया. 2009 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की लहर के बावजूद हरियाणा में जीत केवल 40 सीटें ही जीती. अब बहुमत का आंकड़ा भी दूर था लेकिन किसी तरह जोड़-मोड़ के सरकार बनी और हुड्डा को फिर से प्रदेश की कमान सौंपी गई. पांच साल तक सरकार चली और फिर 2014 को चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस महज 15 सीटों पर सिमट गई. भाजपा ने केंद्र में सरकार बनाई और इसके  बाद हरियाणा में भी सरकार बनाई. मतलब साफ था कि हुड्डा से जनता नाखुश थी.

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हरियाणा की जनता को जो मैसेज गया है वो वहां के मतदाताओं का दिमाग बदलने में वक्त नहीं लगेगा. सब जानते हैं कि हरियाणा का वोटर दो खेमों में बंट हुआ है. हरियाणा का जाट समुदाय कभी भी दलितों को पसंद नहीं करता. ऐसे में कांग्रेस का जो पुश्तैनी वोटर था वो भी अब कांग्रेस से अलग हो जाएगा.

अकेले जूझती राबड़ी देवी

अपने बेटों तेजस्वी और तेजप्रताप की हरकतों ने उन की टैंशन में कई गुना ज्यादा इजाफा कर दिया है. बेटी मीसा भारती को राजनीति में सैटल करने लिए 2 बार लोकसभा चुनाव के अखाड़े में उतारा गया, लेकिन उन्हें दोनों बार हार का मुंह देखना पड़ा.

कुलमिला कर राबड़ी देवी हर तरफ से परेशानियों से घिरी हुई हैं और उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि लालू प्रसाद यादव की गैरमौजूदगी में वे किस तरह से पार्टी और परिवार को पटरी पर लाएं?

राबड़ी देवी पार्टी में नई जान फूंकने और परिवार को एकजुट करने की तमाम कोशिशें कर रही हैं, पर अपने पति की तरह सियासी दांवपेंच के खेल में वे माहिर नहीं हैं. साल 2020 में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं और ऐसे में राजद को नए सिरे से खड़ा करना राबड़ी देवी के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन चुका है.

लालू प्रसाद यादव की गैरमौजूदगी में राजद ने राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव की अगुआई में पिछला लोकसभा चुनाव लड़ा था, पर वे दोनों अपनी पार्टी को एक भी सीट नहीं दिला सके. 40 में से 20 लोकसभा सीटों पर राजद ने अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन एक भी उम्मीदवार को जीत नहीं मिली. मीसा भारती भी पाटलिपुत्र लोकसभा सीट से जीत नहीं सकीं.

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साल 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद राजद और उस के घटक दलों को मिली करारी हार की समीक्षा के लिए संयुक्त समिति बनाने की बात अभी तक हवा में है. अब तक घटक दलों की एक भी मीटिंग नहीं हो सकी है. तेजस्वी यादव तकरीबन 3 महीने तक सियासी हलचल से भी गायब रहे.

राजद में उथलपुथल से लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी चिंतित हैं. लालू प्रसाद यादव ने अपने दोनों बेटों को संदेश भिजवाया है कि पार्टी के कार्यकर्ता हताश और निराश हैं. कार्यकर्ता ही अब पार्टी पर कई तरह के सवाल उठाने लगे हैं. वे कहने लगे हैं कि पार्टी को खूनपसीने से सींच कर खड़ा करने वाले लालू प्रसाद यादव जेल में हैं और उन का परिवार सत्ता के लालच में आपस में ही सिरफुटौव्वल कर रहा है.

लालू प्रसाद यादव ने अपने बेटों से साफ कह दिया है कि अगर पार्टी और परिवार में से एक को बचाने की नौबत आएगी, तो वे पार्टी को चुनेंगे.

उन की इस चेतावनी के बाद ही पटना से गायब तेजस्वी यादव वापस लौटे और पार्टी कार्यक्रम में भाग लिया.

21 अगस्त, 2019 की रात वे पटना जंक्शन के पास दूध मार्केट को तोड़ने के विरोध में धरने पर बैठे.

गौरतलब है कि दूध मार्केट को साल 1991 में लालू प्रसाद यादव ने ही बनवाया था. इस से पहले राजद की सदस्यता मुहिम की समीक्षा को ले कर 16 अगस्त, 2019 को बुलाई गई बैठक में तेजस्वी यादव नहीं पहुंचे थे. 4 घंटे तक चली बैठक में उन का इंतजार होता रहा.

18 अगस्त, 2019 को दोबारा बैठक बुलाई गई और उस में तेजस्वी यादव के मौजूद रहने का दावा राजद नेताओं ने किया. राबड़ी देवी बैठक में मौजूद थीं. उन्होंने कहा कि विरोधी कहते हैं कि राजद टूट गया है, लेकिन पार्टी पहले से ज्यादा मजबूत हो रही है.

राबड़ी देवी ने पार्टी नेताओं से कहा कि लोकसभा चुनाव की हार को भूल कर नए सिरे से पार्टी को एकजुट कर आगे बढ़ाने के काम में लग जाएं. राज्य के हर बूथ पर कम से कम 100 सदस्य बनाने पर जोर दिया. गौरतलब है कि बिहार में 72,000 बूथ हैं.

पार्टी सूत्रों की मानें तो तेजस्वी यादव पार्टी पर एकाधिकार के साथ कानूनी पचड़ों से भी नजात चाहते हैं. पार्टी चलाने के लिए वे पार्टी और परिवार दोनों तरफ से कोई दखल नहीं चाहते हैं.

16 अगस्त को राबड़ी देवी ने तेजस्वी यादव को 3 बार फोन कर के पार्टी की बैठक में आने के लिए कहा, पर तेजस्वी ने उन की बात नहीं सुनी. पार्टी के सीनियर नेता भी तेजस्वी के इस रवैए से खासा नाराज हैं.

शिवानंद तिवारी कहते हैं कि तेजस्वी यादव के मीटिंग में रहने या नहीं रहने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, वहीं रघुवंश प्रसाद सिंह मजाकिया लहजे में यहां तक कह गए कि वे हमारे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं और अब सीधे शपथ लेने ही आएंगे.

भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि जनता के पैसों को गटकने और परिवारवाद को बढ़ावा देने वाली पार्टी राजद की नैया को उस के मांझी ही डुबा रहे हैं, वहीं जनता दल (यूनाइटेड) के मुख्य प्रवक्ता संजय सिंह कहते हैं कि राजद की अगुआई कर भाजपा और जद (यू) को चुनौती देने का दावा करने वाले तेजस्वी यादव भगोड़े बन कर रह गए हैं. वे जानते हैं कि राजद की नैया डूब चुकी है और डूबते जहाज की सवारी कोई नहीं करना चाहता है.

साल 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद से राबड़ी देवी ने धीरेधीरे सियासी गलियारों से दूरियां बढ़ा ली थीं. मीडिया से भी उन्होंने खामोश दूरी बना रखी

थी. बिहार में सब से लंबे समय तक राज करने वाली दूसरी मुख्यमंत्री रही राबड़ी देवी फिर अपनी मनपसंद जगह ‘किचेन’ की ओर लौट चुकी थीं.

राबड़ी देवी 25 जुलाई, 1997 से 11 फरवरी, 1999 तक मुख्यमंत्री रही हैं. उस के बाद 3 मार्च, 1999 से 2 मार्च, 2000 तक और फिर 11 मार्च, 2000 से 6 मार्च, 2005 तक वे मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठीं. इस मामले में उन्होंने अपने पति लालू प्रसाद यादव को भी मात दे दी. वे तकरीबन 7 साल तक मुख्यमंत्री रहे थे. राज्य के पहले मुख्यमंत्री श्रीकष्ण सिंह का नाम सब से लंबे समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकौर्ड दर्ज है. वे तकरीबन 15 साल तक मुख्यमंत्री बने रहे थे.

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राजद की कमान नए हाथ में देने की तैयारी?

साल 2020 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के लिए लालू प्रसाद यादव अपनी पार्टी राजद को नए सिरे से एकजुट कर सियासी अखाड़े में उतारना चाहते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद राजद अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है. लालू प्रसाद यादव के बगैर राजद बिखर रहा है. इसी चिंता

को ले कर राजद के उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह और विधानसभा के अध्यक्ष रहे उदय नारायण चौधरी ने रांची रिम्स में लालू प्रसाद यादव से मुलाकात की थी.

इस साल के आखिर तक राजद को नए तेवर और मुखिया से लैस करने की कवायद शुरू हो चुकी है. राजद के प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे को हटा कर नए अध्यक्ष की खोज भी जारी है.

तेजस्वी यादव की अगुआई में लोकसभा चुनाव लड़ने पर राजद को कोई फायदा नहीं हुआ था. इस से तेजस्वी यादव भी हताश हैं और पार्टी के कई नेताओं में नाराजगी भी है. राजद ने 10 अक्तूबर, 2019 तक 75 लाख पार्टी सदस्य बनाने का टारगेट रखा है.

राजद का अगला प्रदेश अध्यक्ष बनने में विधानसभा के अध्यक्ष और राजद के संस्थापक सदस्य रहे उदय नारायण चौधरी का नाम सब से आगे है. हालांकि वे 10 साल तक विधानसभा के अध्यक्ष रहे हैं और जद (यू) का साथ देते रहे हैं. उन पर राजद को तोड़ने का आरोप लगाते हुए लालू प्रसाद यादव ने खुद साल 2014 में विधानसभा तक मार्च किया था.

दूसरा नाम विधानपरिषद के उपसभापति रहे सलीम परवेज का है जो पिछड़ी अंसारी बिरादरी से आते हैं. इस के अलावा दलित सिपाही शिवचंद्र राम और तनवीर हसन के नाम भी चर्चा में हैं.

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पौलिटिकल राउंडअप: कुमारी शैलजा को कमान

साथ ही, प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके भूपेंद्र सिंह हुड्डा को विधायक दल का नेता बनाने के साथसाथ विधानसभा चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है. विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे में इन दोनों नेताओं का रोल अहम होगा.

कन्हैया को क्लीनचिट

दिल्ली. फरवरी, 2016 में दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में संसद पर हमले के मास्टरमाइंड अफजल गुरु की फांसी के खिलाफ एक कार्यक्रम हुआ था जिस में जेएनयू छात्र संघ के तब के अध्यक्ष और आज के नेता कन्हैया कुमार को गिरफ्तार किया गया था.

अब दिल्ली की आम आदमी सरकार ने कन्हैया कुमार और 9 दूसरे लोगों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलाने की दिल्ली पुलिस को इजाजत नहीं दी है. सूत्रों के मुताबिक, दिल्ली के गृह मंत्री सत्येंद्र जैन ने कहा है कि पुलिस ने जो सुबूत पेश किया है, उस के मुताबिक कन्हैया कुमार और दूसरों पर देशद्रोह का मामला नहीं बनता.

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अगर मुकदमा चलता तो भी पुलिस गुनाह साबित नहीं कर पाती, पर अदालतों में हाजिरी के समय कन्हैया कुमार के साथ मारपीट का मौका भाजपाई वकीलों को जरूर मिल जाता.

माया का पुराना राग

लखनऊ. उत्तर प्रदेश में साल 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं जिस की मायावती ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है. वे अपनी बहुजन समाज पार्टी को मजबूत बनाने के लिए एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग का सहारा ले रही हैं, इसीलिए उन्होंने 5 सितंबर को मुसलिम मुनकाद अली, दलित बीआर अंबेडकर और अन्य पिछड़ा वर्ग के आरएस कुशवाहा को स्टेट कोऔर्डिनेटर बनाया है.

इस बारे में पार्टी के एक बड़े नेता ने बताया, ‘हम गैरयादव और गैरलोध ओबीसी वोटर को पार्टी में वापस लाने का प्रयास करेंगे. हम ने महसूस किया कि भले ही हम ने लोकसभा चुनाव सपा के साथ लड़ा लेकिन ओबीसी और दलितों का एक समूह हम से दूर हो गया है.’ मायावती अब पूरी तरह फुस पटाखा हो चुकी हैं.

लोकतंत्र है तो दिखाए सरकार

श्रीनगर. जब से जम्मूकश्मीर का बंटवारा हुआ है और वहां से आर्टिकल 370 को हटाया गया है, तब से केंद्र सरकार ने हालात के सामान्य होने का दावा किया है, लेकिन 9 सितंबर, 2019 को जम्मूकश्मीर पौलिटिकल मूवमैंट (जेकेपीएम) के प्रमुख शाहिद खान ने भारत सरकार से कहा कि अगर देश में लोकतंत्र है तो वह दुनिया को दिखना भी तो चाहिए.

शाहिद खान ने केंद्र सरकार को लपेटते हुए कहा कि कश्मीर को समाधान का हिस्सा होना चाहिए, समस्या का नहीं, लेकिन पता नहीं क्यों, दुनिया कश्मीर को समस्या की तरह देखती है. वे मानते हैं कि घाटी के नौजवान एनर्जी और विचारों से भरे हुए हैं, लेकिन दुनिया उन्हें अलग नजरिए से देख रही है. पूरा कश्मीर आज कर्फ्यू की गिरफ्त में है. जो लोग प्लौट खरीदने के ख्वाब देख रहे थे वही नजर नहीं आ रहे.

उर्मिला का विलाप

मुंबई. कभी फिल्मकार रामगोपाल वर्मा की चहेती हीरोइन रही उर्मिला मातोंडकर ने इन लोकसभा चुनाव से पहले बड़े जोरशोर के साथ कांग्रेस में ऐंट्री मारी थी और मुंबई उत्तर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा था, पर उन्हें भाजपा नेता गोपाल शेट्टी से करारी शिकस्त मिली थी.

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अब उर्मिला मातोंडकर का कांग्रेस से मोह भंग हो गया है और उन्होंने इस पार्टी से कन्नी काट ली है. 10 सितंबर को कांग्रेस से इस्तीफा देते हुए उन्होंने कहा कि मुंबई कांग्रेस बड़े लक्ष्यों पर ध्यान देने की जगह उन का इस्तेमाल कर राजनीति कर रही है.

आंध्र में सियासी बवाल

हैदराबाद. पिछले लोकसभा चुनाव में सभी बड़े विपक्षी दलों को एकसाथ लाने की कोशिश करने वाले चंद्रबाबू नायडू अब अपने प्रदेश में मुसीबत में हैं.

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके चंद्रबाबू नायडू 11 सितंबर को पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ गुंटूर जिले में सरकार के खिलाफ रैली करने वाले थे, जिस की उन्हें इजाजत नहीं मिली तो उन्होंने भूख हड़ताल करने का फैसला किया. इस के बाद मौजूदा वाईएसआरसीपी सरकार द्वारा उन्हें और उन के बेटे नर लोकेश को उन के घर में ही नजरबंद कर दिया गया.

इस के बाद नरसरावपेटा, सत्तेनापल्ले पलनाडू और गुराजला में धारा 144 लागू कर दी गई. बाद में पुलिस ने टीडीपी के कई और नेताओं को भी नजरबंद कर दिया.

सुशील ने बताया अपना ‘कैप्टन’

पटना. बिहार में जैसेजैसे विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आ रहा है, वैसेवैसे वहां सियासी उठापटक तेज हो गई है. वहां यह खबर भी सियासी गलियारों में तैर रही है कि प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री भाजपा से होगा, जिस से जनता दल (यूनाइटेड) वालों की भौंहें तन गई हैं.

लेकिन विवाद ज्यादा न बढ़े, इसी के मद्देनजर भाजपाई और राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एनडीए के ‘कैप्टन’ हैं और आने वाले विधानसभा चुनाव तक वे ही ‘कैप्टन’ बने रहेंगे. भाजपा की राजनीति में जो कहा जाता है, वह किया नहीं जाता.

संभाजी भिड़े का एकादशी राग

पुणे. जब से इसरो का चंद्रयान 2 अभियान सुर्खियों में छाया है तब से लोगों ने इस के पूरी तरह कामयाब न होने पर तरहतरह की बातें बनाई हैं. इन्हीं में से एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व कार्यकर्ता संभाजी भिड़े ने अपना अलग ही राग छेड़ा कि अमेरिका को चंद्रमा पर अंतरिक्ष यान भेजने में तब कामयाबी मिली जब उस ने इस के लिए एकादशी की तिथि चुनी.

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9 सितंबर को शोलापुर में संभाजी भिड़े ने कहा, ‘अमेरिका ने 38 बार चांद पर अंतरिक्ष यान भेजने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा. इस के बाद कुछ अमेरिकी वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि क्यों न अमेरिकी कालगणना की जगह भारतीय कालगणना का इस्तेमाल किया जाए. अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इस सुझाव पर अमल किया और 39वीं बार एकादशी के दिन अंतरिक्ष यान भेजा और वे कामयाब रहे.’ हमारे वैज्ञानिक भी पाखंडों से परे नहीं सोचते तो संभाजी भिड़े का क्या कहना.

कमल हासन का हमला

चेन्नई. भाजपा नेता और गृह मंत्री अमित शाह ने 14 सितंबर ‘हिंदी दिवस’ पर ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ की पैरवी की थी. यह बात अभिनेता से नेता बने कमल हासन को नागवार गुजरी और उन्होंने एक वीडियो जारी कर अमित शाह पर हमला करते हुए कहा कि भारत 1950 में ‘अनेकता में एकता’ के वादे के साथ गणतंत्र बना था और अब कोई ‘शाह, सुलतान या सम्राट’ इस से इनकार नहीं कर सकता है.

अपने वीडियो में कमल हासन ने कहा कि इस बार एक बार फिर भाषा के लिए आंदोलन होगा और यह जल्लीकट्टू आंदोलन से भी बड़ा होगा.

ममता की चिंता

कोलकाता. भारत में भाजपा के राज से हलकान पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 15 सितंबर को कहा कि देश ‘घोर आपातकाल’ से गुजर रहा है. उन्होंने लोगों से संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों व स्वतंत्रता की रक्षा करने की अपील की.

पिछले लोकसभा चुनाव प्रचार में भाजपा से लोहा लेने वाली तृणमूल की प्रमुख ममता बनर्जी अपने दम पर केंद्र सरकार की तानाशाही के खिलाफ जम कर लगी हैं.

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16 साल की इस लड़की ने दिया यूएन में भाषण, राष्ट्रपति ट्रंप से लेकर तमाम बड़े नेताओं को सुनाई खरी-खोटी

ग्रेटा ने बड़े तीखे शब्दों से विश्व के कई नेताओं पर इस त्रासदी से निपटने के लिए कुछ नहीं करने का भी आरोप लगाया. आपने हमें फेल कर दिया है. युवा पीढ़ी ये समझती है कि आपने हमसे धोका किया है. हम युवाओं की नजरें आप पर हैं और अगर आप लोगों ने हमें असफल किया तो हम आपको कभी भी माफ नहीं करेंगे.

आपको यहीं पर एक लाइन खींचनी होगी. दुनिया जाग चुकी है और चीजें अब बदल रही हैं..ये चाहे आपको पसंद हो या न हो.’ जानते  हैं ये भाषण किसका है. ये किसी देश के बड़े राजनेता का नहीं है न ही किसी मोटीवेशनल स्पीकर का है बल्कि ये कहना है 16 साल की ग्रेटा थनबर्ग का. जोकि स्वीडन की पर्यावरण एक्टिविस्ट हैं.

यूएन में आयोजित क्लाइमेट एक्शन समिट में दुनिया भर के नेताओं को फटकार लगाई. यूएन महासचिव गुतारेस के सामने दी गई ग्रेटा की स्पीच अब वायरल हो रही है और उनके सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है. इस स्पीच के अलावा ग्रेटा थनबर्ग की एक तस्वीर भी वायरल हो रही है. क्लाइमेट एक्शन समिट में पहुंचे ट्रंप के पीछे खड़ी ग्रेटा जिस निगाह से ट्रंप को देख रही हैं वो लोगों के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है. ग्रेटा की आंखों में नाराजगी साफ नजर आ रही है.

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ग्रेटा ने जलवायु परिवर्तन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है और इस आंदोलन को ‘Friday for future’ नाम दिया है. ग्रेटा कौन हैं, स्कूल जाने की उम्र में धरती बचाने का जिम्मा उठाने की प्रेरणा कहां से मिली, आइए ये सब जानते हैं.

10वीं क्लास की छात्रा ग्रेटा थनबर्ग का जन्म 2003 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में हुआ था. मां मलेना अर्नमैन स्वीडन की मशहूर ओपेरा सिंगर और पिता स्वांते थनबर्ग एक्टर हैं.‘Charity begins at home’ वाली कहावत से प्रभावित ग्रेटा ने पर्यावरण बचाने की शुरुआत अपने घर से की.

इसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपने माता पिता को लाइफ स्टाइल बदलने के लिए मनाया. पूरे परिवार ने नॉनवेज खाना छोड़ दिया और जानवरों के अंगों से बनी चीजों का इस्तेमाल बंद कर दिया. कार्बन उत्सर्जन जिन चीजों से होता है उन सब चीजों का इस्तेमाल सीमित कर दिया.

9 सितंबर 2018 को स्वीडन में आम चुनाव होने वाले थे. उससे पहले ही स्वीडन के जंगलों में आग लगी हुई थी और 262 सालों की सबसे भीषण गर्मी पड़ रही थी. ग्रेटा 9वीं क्लास में थीं और फैसला किया कि जब तक चुनाव नहीं निपट जाते, वो स्कूल नहीं जाएंगी.

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क्लाइमेट चेंज के खिलाफ ग्रेटा ने 20 अगस्त 2018 यानी आम चुनाव से पहले मोर्चा खोल दिया. सरकार के खिलाफ स्वीडन की संसद के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. तीन हफ्ते तक प्रदर्शन करते हुए ग्रेटा ने पर्चियां बांटीं जिन पर लिखा होता था ‘मैं इसलिए ये कर रही हूं क्योंकि आप अडल्ट लोग मेरे भविष्य से खेल रहे हो.’ उस वक्त भी उनकी एक तस्वीर वायरल हुई थी.

ग्रेटा ने जमीन पर प्रदर्शन करते हुए सोशल मीडिया की ताकत को पहचाना और उसे अपना हथियार बनाया. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर अपने प्रोटेस्ट की तस्वीरें शेयर करके लोगों को इस मुहिम से जोड़ा. उन्हें कम समय में भारी समर्थन मिला.

फरवरी 2019 में ग्रेटा को वैश्विक पहचान तब मिली जब 224 शिक्षाविदों ने उनके समर्थन में एक ओपन लेटर पर साइन किए. पिछले महीने अमेरिका पहुंची ग्रेटा से एक रिपोर्टर ने पूछा कि क्या वो ट्रंप से मिलने वाली हैं? इस पर उन्होंने कहा कि जब ट्रंप मेरी बातों को सुनने वाले नहीं हैं तो उनसे मिलकर मैं अपना समय क्यों बरबाद करूंगी?डॉनल्ड ट्रंप ने ग्रेटा की स्पीच पर रिएक्शन दिया है. ट्वीट करते हुए ट्रंप ने लिखा ‘वह हैप्पी यंग गर्ल नजर आ रही है, जो उज्ज्वल और अद्भुत भविष्य की तलाश में है. देख कर अच्छा लगा.’ इस व्यंग्यात्मक कमेंट पर भी लोगों ने ट्रंप को आड़े हाथों लिया है.

Video Credit – Sky News

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