आपको याद है ग्रेटा थनबर्ग. कुछ दिनों पहले पूरी दुनिया में उसकी चर्चा हो रही थी. कलमकारों ने भी लंबे-चौड़े आर्टिकल लिखे और उसने जो किया उसको सराहा. लेकिन जिस वजह से वो 16 साल की लड़की न्यूयौर्क के यूएन औफिस में रोई थी आज भारत में उसी की अवहेलना की जा रही है. खैर, हम लोगों की एक खास आदत है और हमारी इस बुरी आदत से हुक्कमरां भली-भांति वाकिफ भी हैं. हम लोग किसी भी घटना को बहुत जल्दी भूलते हैं. जिस वक्त कोई घटना घटती है उस वक्त हमारा खून उबलता है. लेकिन कुछ वक्त हम भूल जाते हैं. आज अगर भारत में ग्रेटा थनबर्ग होती तो शायद वो फूट-फूटकर रोती.

इस आरे कौलोनी के भीतर 27 छोटे-छोटे गांव हैं और इन गांवों में सदियों से तकरीबन 8,000 आदिवासी रहते आए हैं. कई युवा आदिवासी व्यस्त मुंबई शहर में न रहकर इन शांतिपूर्ण गांवों में ही रहना पसंद करते हैं. लेकिन सरकार ने इनकी एक नहीं सुनी. युवाओं को पेड़ से लिपटे हुए तो देखा होगा. वो फूट-फूटकर रो रहे थे. प्रशासन से फरियाद कर रहे थे कि हमारी सांसों को मत छीनों. लेकिन उसका कोई फर्क नहीं पड़ा. मुंबई के आरे गांव में विकास की गंगा बहाई जा रही है. विकास के नाम पर हजारों पेड़ों को काट दिया गया.

ये भी पढ़ें- समस्याओं के चाक पर घूमते कुम्हार

अब यहां बताते हैं कि गोरे गांव का इतिहास...

अरब सागर के किनारे. फिल्में बनती हैं, और रोजाना लोगों की भीड़ जमा होती है फिल्मी सितारों को देखने के लिए, शूटिंग देखने के लिए, और शहर की आपाधापी से थोड़ा दूर, समंदर से थोड़ा दूर एक मोहल्ला है, गोरेगांव. गोरेगांव फिल्म सिटी भी यहीं, और यहीं पर है “आरे मिल्क कौलोनी”. आरे मिल्क कौलोनी को देश के आज़ाद होने के थोड़े दिनों बाद ही बसाया गया था. सोचा गया था कि इस मिल्क कौलोनी के बनने से डेयरी के काम को बढ़ावा मिलेगा. 4 मार्च 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू खुद आए और पौधारोपण करके आरे कौलोनी की नींव रखी थी. आजादी के बाद जिस हरी-भरी कौलोनी की नींव रखी गई, देखते ही देखते उजाड़ दी गई.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...