माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोय.

कबीरदास की यह बानी खरा सच साबित हो रही है. मिट्टी से बरतन बनाने की कला हजारों साल पुरानी है, लेकिन बदलते दौर में अब मिट्टी के बरतनों का चलन काफी घट गया है. मौजूदा हालात में ज्यादातर कुम्हार मिट्टी, पानी, पैसे और जातीय भेदभाव जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं.

शहर ले जा कर मिट्टी के बरतन बेचने में टूटफूट ज्यादा होती है. वैसे भी कागज और प्लास्टिक के बरतनों ने मिट्टी के बरतनों के खरीदार कम कर दिए हैं, इसलिए मिट्टी के बरतन बनाने के काम से गुजरबसर करना टेढ़ी खीर है.

वैसे भी अब मिट्टी के बरतनों की ज्यादा बिक्री नहीं होती, वाजिब कीमत भी नहीं मिलती, इसलिए बहुत से कुम्हार अपना पुश्तैनी कामधंधा छोड़ने को मजबूर हैं.

किल्लत ही किल्लत

उत्तर प्रदेश में हसनपुर, मेरठ के राधे कुम्हार ने बताया, ‘‘बरतन बनाने के लिए साफसुथरी और बढि़या किस्म की मिट्टी की जरूरत होती है, जो पहले गांव के आसपास ही मिल जाती थी, लेकिन अब तालाब गुम हो गए हैं. उन पर नाजायज कब्जे हैं. ग्राम सभाओं की पंचायती जमीनें भी ज्यादातर बिक चुकी हैं.

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‘‘हर तरफ बहुत तेजी से बड़ीबड़ी इमारतें बन रही हैं. बाकी कसर खनन माफिया ने पूरी कर दी है. किसी के खेत की उपजाऊ जमीन से मिट्टी नहीं ले सकते. पहले चारागाह व बंजर जमीनें होती थीं, जो अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती हैं. दूर से मिट्टी लाने में लागत बहुत आती है.

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