ट्वैंटी-20 वर्ल्ड कप: बतौर टीम फुस्स रहा भारत

दुबई के दुबई इंटरनैशनल क्रिकेट स्टेडियम में हुए इस मैच को खेलने की चाहत 12 टीमों की थी, जिस में भारत, पाकिस्तान, इंगलैंड और दक्षिण अफ्रीका जैसी दिग्गज टीमें तो शामिल थीं ही, साथ ही नामीबिया, स्काटलैंड जैसी नौसिखिया टीमें भी अपना हाथ आजमा रही थीं.

कई देशों ने अपनी ताकत के मुताबिक खेल दिखाया, पर जिस तरह के खेल की उम्मीद भारत से की जा रही थी, उस में वह पूरी तरह नाकाम रहा. दरअसल, यह वर्ल्ड कप शुरू होने से पहले यह मान लिया गया था कि फाइनल मुकाबला खेलने वाली एक टीम तो भारत ही होगी, लड़ाई तो दूसरी टीम के फाइनल में उतरने के लिए हो रही थी.

इस की वजह यह थी कि भारत जिस ग्रुप में था, उस में न्यूजीलैंड और पाकिस्तान के अलावा बाकी 3 टीमें अफगानिस्तान, नामीबिया और स्काटलैंड शामिल थीं. मतलब भारत अगर पाकिस्तान और न्यूजीलैंड में से किसी एक को हरा देता, तो बाकी कच्ची टीमों से आसानी से जीत कर सैमीफाइनल मुकाबले में अपनी जगह बना लेता.

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पर सोचना जितना आसान काम है, उसे पूरा करना उतना ही मुश्किल होता है, वह भी ट्वेंटी-20 मुकाबलों में, जहां कोई एक खिलाड़ी ही पूरे मैच का रुख बदल सकता है. यही भारत के साथ हुआ. भारत का पहला मुकाबला ही पाकिस्तान के साथ था और कागजों पर कमजोर इस टीम को शिकस्त देना भारत के लिए बड़ा ही आसान काम लग रहा था, पर हुआ ठीक इस का उलटा.

भारत ने शर्मनाक तरीके से 10 विकेट से यह मैच गंवा दिया. जले पर नमक अगले ही मैच में न्यूजीलैंड ने छिड़क दिया. पहले 2 मैच हार कर भारत को होश आया, पर तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी थी.

आईपीएल मैचों में करोड़ों रुपए में बिकने वाले हमारे खिलाड़ी बाद के 3 मैच जीत तो गए, पर सैमीफाइनल में जाने से चूक गए. इस जगहंसाई में घरेलू दर्शकों ने भी खिलाड़ियों को नहीं बक्शा. किसी ने रोहित शर्मा पर निशाना साधा तो कोई विराट कोहली के पीछे पड़ गया.

हार्दिक पांड्या ने तो बिलकुल निराश किया. आईपीएल मैचों में छक्केचौके जड़ने वाले हार्दिक पांड्या ने खराब फिटनैस के बावजूद टीम में जगह बनाई, पर वे कोई कारनामा नहीं कर पाए. विराट कोहली पर ढंग की टीम न चुनने और अपनी चलाने का भी इलजाम लगा.

अब चूंकि वर्ल्ड कप खत्म हो चुका है और क्रिकेट की दुनिया को आस्ट्रेलिया के रूप में नया विश्व विजेता मिल चुका है, पर भारत की हार के दूसरे उन पहलुओं पर भी हमें गौर करना होगा, जो उन्हें टीम गेम जैसे खेलों में ज्यादा कामयाब नहीं होने देते हैं.

क्रिकेट ही क्यों, अगर हम फुटबाल, हाकी जैसे ज्यादा खिलाड़ियों वाले खेलों पर गौर करें तो वहां भी वर्ल्ड लैवल पर कभी बहुत ज्यादा कामयाब नहीं हो पाते हैं. 11 खिलाड़ियों वाले खेलों को तो छोड़िए 2 खिलाड़ियों वाले खेलों जैसे बैडमिंटन, टेबल टैनिस, लौन टैनिस वगैरह में भी हम खिलाड़ियों के अहम और कोच के साथ उन के बरताव के चलते बहुत ज्यादा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं.

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नतीजतन, बैडमिंटन में सायना नेहवाल और पीवी सिंधू की जोड़ी टूट जाती है और उन के रिश्तों में खटास आ जाती है. लिएंडर पेस और महेश भूपति कभी एकसाथ लौन टैनिस नहीं खेलने का ऐलान कर देते हैं.

चूंकि क्रिकेट में हमारे देश के लोग ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं, तो वहां की बातें ज्यादा होती हैं. इस वर्ल्ड कप से पहले ही विराट कोहली ने ट्वैंटी-20 टीम का भविष्य में कप्तान न बनने का ऐलान कर दिया था और रवि शास्त्री का भी बतौर हैड कोच यह आखिरी टूर्नामैंट था, पर जिस तरह का खेल खिलाड़ियों ने दिखाया, उस से यही लगा कि टीम में कुछ भी ठीक नहीं है.

वैसे भी देखा जाए तो टीमवर्क वाले खेलों में टीम के चुनाव का मुद्दा बड़ा खास होता है. भारत जैसे देश में हर राज्य, जाति और तबके के खिलाड़ी को टीम में रखे जाने का दबाव होता है और अलग माहौल व रहनसहन वाले खिलाड़ी आपस में जल्दी से घुलमिल नहीं पाते हैं.

वैब सीरीज ‘इनसाइड ऐज’ में जातिवाद का दंश किस तरह नए खिलाड़ी को तोड़ देता है, बड़ी बारीकी से दिखाया गया था. फिल्म ‘चक दे इंडिया’ में भी झारखंड की खिलाड़ियों को जंगली होने तमगा दिया जाता है और अमीर खिलाड़ी किस तरह गरीब होनहार खिलाड़ी का भविष्य खराब कर सकते हैं या ऐसी चाहत रखते हैं, यह भी दिखाने की कोशिश की गई थी.

अब रहीसही कसर क्रिकेट खिलाड़ियों को मिलने वाले इश्तिहारों ने पूरी कर दी है. वे पैसा बनाने की हवस में जुआ खेलने को बढ़ावा देने वाले इश्तिहारों में भी दिखाई देने लगे हैं कि मोबाइल फोन में फलां एप डालो, अपनी टीम बनाओ और पैसा कमाओ, जबकि ऐसे खेलों की लत लगने से नौजवान पीढ़ी अपने मांबाप की पसीने की गाढ़ी कमाई को भी गंवाने में परहेज नहीं करते है. ये गेमिंग एप बहुत ही खतरनाक चलन है जो कई बार बड़े अपराध की शक्ल भी ले लेता है.

राजस्थान के चुरू में जुलाई, 2021 में पुलिस ने औनलाइन जुआ खिलाने वाले गिरोह को पकड़ा था. पुलिस ने इस मामले में 16 आरोपियों को गिरफ्तार किया था.

पुलिस के बयान के मुताबिक, ये लोग एप के जरीए अलगअलग औनलाइन खेले जाने वाले खेलों में समूह बना कर उस में शामिल होते हैं, बाहर के एक खिलाड़ी को शामिल कर उस से रुपए लगवाते हैं और फिर उसे हरवा कर अलगअलग पेमेंट गेटवे के जरीए रकम हासिल कर लेते हैं.

हालांकि क्रिकेट खेल से जुड़े एप खुद को जुआ खेलाने वाला नहीं बताते हैं, पर उन का मकसद पैसा कमाना ही होता है और खेलने वाला अपना पैसा कहां से ला रहा है, इस से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता है.

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ऐसे इश्तिहारों के अलावा भी क्रिकेट खिलाड़ी दूसरे तमाम इश्तिहारों से पैसा बटोर रहे हैं. अब वे देश के लिए कम, बल्कि पैसे के लिए खेलते ज्यादा नजर आते हैं. उन्हें आईपीएल खेलने से कोई थकावट नहीं होती है, पर वर्ल्ड कप में हारने पर उन्हें ऐसी तमाम कमियां गिनाने का मौका मिल जाता है कि उन शैड्यूल इतना टाइट होता है, लिहाजा उन्हें थोड़ा आराम मिलना चाहिए.

लेकिन जब खिलाड़ियों को आराम दिया जाता है तब वे इश्तिहारों के जरीए पैसा बनाने में मशगूल हो जाते हैं. यही वजह है कि साल 2018 में ही विराट कोहली ने उन विचारों को खारिज कर दिया था कि इश्तिहारों पर ज्यादा समय बिताना एक क्रिकेटर के लिए ध्यान भंग करने वाला हो सकता है.

क्रिकेट के चहेतों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि कौन सा खिलाड़ी कैसे देखते ही देखते करोड़ों रुपयों में खेलने लगता है, पर उन्हें इस बात पर कोफ्त जरूर होती है कि जो खिलाड़ी आईपीएल में चौकेछक्कों की झड़ी लगा देते हैं या अपनी गेंदबाजी से सामने वाले को धूल चटा देते हैं, वे आपस में एक टीम के तौर पर क्यों बेहतरीन खेल नहीं दिखा पाते हैं?

हमें तो आस्ट्रेलिया के दिग्गज खिलाड़ी डेविड वार्नर से सीख लेनी चाहिए, जिन्हें खराब खेल के चलते बीच आईपीएल में ही हैदराबाद की प्लेइंग 11 टीम से बाहर कर दिया गया था, पर हालिया वर्ल्ड कप में उन्होंने अपने कातिलाना खेल से टूर्नामैंट ही कब्जा लिया.

फाइनल मुकाबले में अपनी टीम को जीत के मुहाने तक ले जाने वाले डेविड वार्नर ने ताबड़तोड़ पारी खेलते हुए 38 गेंदों में 53 रन बनाए थे. उन्हें अपने बेहतरीन प्रदर्शन के लिए टी20 वर्ल्ड कप का ‘प्लेयर औफ द टूर्नामैंट’ भी बनाया गया था.

डेविड वार्नर ने इस ट्वैंटी-20 वर्ल्ड कप में कुल 289 रन बनाए थे. उन्हीं के कभी न हार मानने के जज्बे ने आस्ट्रेलिया टीम का मनोबल इतना ज्यादा बढ़ाया कि पहले सैमीफाइनल में और बाद में फाइनल मुकाबले में टीम ने पाकिस्तान और न्यूजीलैंड को करारी शिकस्त दी.

जागरूकता: सड़क हादसे

Writer- देवेंद्रराज सुथार

देश में सड़क हादसों की बढ़ती तादाद पर लगाम लगाने के लिए केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि ट्रक ड्राइवरों के लिए ड्राइविंग का समय तय किया जाना चाहिए. इस के साथ ही सैंसर की मदद से उन की नींद का भी पता लगाया जाना चाहिए, ताकि देश में बढ़ते सड़क हादसों को रोका जा सके.

कई घंटे की ड्राइविंग, इंजन की गड़गड़ाहट और सड़क पर 14 पहियों की आवाज… इस सब में ट्रक ड्राइवर के लिए थकान का सामना करना मुश्किल हो जाता है.

गाड़ी चलाते समय थकान से जू?ाना, नींद न आना ये सामान्य सी समस्याएं हैं, जिन से ट्रक ड्राइवर जू?ाते रहते हैं, लेकिन आज की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर ये ट्रक ड्राइवर सड़क पर चलने वाले दूसरे लोगों के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहे हैं.

उदाहरण के तौर पर, दक्षिण अफ्रीका में जनवरी, 1981 और मार्च, 1994 के बीच 34 फीसदी से ज्यादा हादसे गाड़ी चलाते समय ड्राइवर के सो जाने की वजह से हुए. थकान बढ़ने से उनींदापन होने लगता है और इस का असर शराब के नशे के समान होता है.

थकान से जुड़े इन हादसों के पीछे की बड़ी वजह को हमें ट्रक ड्राइवरों द्वारा काम किए गए कुल घंटों के रूप में देखना होगा, जिस में न केवल ड्राइविंग बल्कि दूसरे काम भी शामिल हैं.

ये काम के घंटे अकसर लंबे और अनियमित होते हैं. ज्यादातर ट्रक ड्राइवर शुरू से आखिर तक अपने दम पर काम को पूरा करना पसंद करते हैं, जिस

का मतलब यह है कि किसी भी मौसम में ग्राहक को सामान पहुंचाना.

कार्य कुशलता तय की गई दूरी और पहुंचाए गए माल से मापी जाती है. काम के घंटे औसत से ऊपर हो सकते हैं. जरमनी में कई ट्रक ड्राइवर हफ्ते में

तकरीबन 40 घंटे से कम तो कई ट्रक ड्राइवर इस से दोगुने से भी ज्यादा काम करते हैं.

ऐसे ही हालात दूसरे देशों में भी हैं. दक्षिण अफ्रीका में वेतन कम है, इसलिए ड्राइवर अपनी कमाई बढ़ाने के लिए ड्राइविंग में ज्यादा समय लगाते हैं.

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भारत की रिपोर्ट बताती है कि परिवहन कंपनियां ड्राइवरों को अपना सफर पूरा करने के लिए पूरा समय देती हैं, लेकिन कई ड्राइवर ऐक्स्ट्रा माल को दूसरी जगहों पर पहुंचा कर अपनी आमदनी बढ़ाते हैं. यह ज्यादा ड्राइविंग समय की मांग करती है. फिर उन्हें समय पर कंपनी में लौटने के लिए नींद में कटौती करनी पड़ती है.

यूरोपीय संघ में कानून द्वारा अनुमानित अधिकतम घंटों का इस्तेमाल कर के एक ट्रक ड्राइवर हफ्ते में तकरीबन 56 घंटे तक ड्राइव कर सकता है, लेकिन अगले हफ्ते उसे सिर्फ 34 घंटे तक ही गाड़ी चलाने की इजाजत है. लोडिंग और अनलोडिंग समेत उस के काम के घंटे एक निरीक्षण मशीन द्वारा दर्ज किए जाते हैं.

एक दूसरी वजह भी ड्राइविंग के समय को प्रभावित करती है, वह है ट्रक मालिक का रवैया. जब काम के घंटे ज्यादा होते हैं, तो थकान होने लगती है. ऐसा तब भी होता है, जब वे असामान्य समय में सफर शुरू करते हैं.

उदाहरण के लिए, रात के एक बजे से सुबह के 4 बजे के बीच काम शुरू करना सामान्य है. यह वह समय होता है, जब कई ड्राइवर बहुत बेचैन होते हैं और उन की एकाग्रता सब से कम होती है. दबाव तब बनता है, जब ग्राहक कंपनियां स्टौक में कम माल रखती हैं और मांग करती हैं कि सामान समय पर पहुंचाया जाए.

इस का मतलब है कि ड्राइवर को सामान ले कर ग्राहक तक सही समय पर पहुंचना होता है. बिजी यातायात, खराब मौसम और खराब सड़कों के चलते देरी होती है, जिस की भरपाई ड्राइवर को किसी न किसी रूप में करनी पड़ती है.

एक जापानी कंपनी एक वीडियो कैमरे का इस्तेमाल कर के एक इलैक्ट्रौनिक मशीन पर काम कर रही है, जो यह नोट करती है कि ड्राइवर कितनी देर तक अपनी आंखें ?ापकाता है. अगर बारबार पलकें ?ापकती हैं, तो एक रिकौर्ड की गई आवाज उसे उस की खतरनाक हालत के बारे में चेतावनी देती है.

एक यूरोपीय कंपनी भी एक ऐसे ही उपकरण पर काम कर रही है, जो यह नोट करता है कि किसी गाड़ी को कितनी सटीकता से चलाया जा रहा है. अगर ट्रक हिलता है, तो केबिन में एक चेतावनी सुनाई देती है. लेकिन प्रभावी साधन उपलब्ध होने में कुछ समय लगेगा. तकरीबन हर गाड़ी में थकान एक बिन बुलाई और अप्रिय यात्री रही है. लेकिन सवाल यह है कि इस से छुटकारा कैसे पाया जाए?

कुछ ट्रक ड्राइवर तो भारी मात्रा में कैफीनयुक्त पेय पीते हैं, लेकिन थकान फिर भी उन्हें रोक नहीं पाती है. वे दूसरे उत्तेजकों का इस्तेमाल करते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि वे चीजें सेहत के लिए बहुत ही ज्यादा खतरनाक हैं. मैक्सिको में कुछ ड्राइवर जागते रहने के लिए मिर्च खाते हैं.

शुरुआती चेतावनी के संकेतों को पहचान कर कई लोगों की जान बचाई जा सकती है. अमेरिका में नैशनल ट्रैफिक सेफ्टी बोर्ड के एक अध्ययन में भयानक आंकड़े सामने आए कि 107 हादसों में कोई दूसरी गाड़ी शामिल नहीं थी, जबकि 62 हादसे थकान से संबंधित थे.

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भारत में ट्रक ड्राइवरों के लिए अभी तक कोई सुरक्षा मानक नहीं है. अमेरिका और ब्रिटेन की बात करें, तो वहां यह तय होता है कि एक ट्रक ड्राइवर एक दिन में कितने घंटे और कितने किलोमीटर तक ड्राइव करेगा.

ट्रक ड्राइवर के लिए एक निश्चित अंतराल पर आराम करना बहुत ही जरूरी है. लंबी दूरी के ट्रक ड्राइवरों को सफर के बाद कुछ दिनों के लिए आराम करने की जरूरत होती है.

हर ट्रक ड्राइवर और उस के ट्रक का हर मिनट का डाटा सरकारी रेगुलेटर तक पहुंचता रहता है, इसलिए किसी भी तरह से नियमों के उल्लंघन की कोई गुंजाइश नहीं रहती है.

भारत के मामले में केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी का सु?ाव थकान के चलते बढ़ते हादसों को रोकने और सड़क सुरक्षा की दिशा में रास्ता मजबूत करता है. इस पर गंभीरता से सोचविचार किया जाना चाहिए.

समस्या: पढ़ाई से मुंह मोड़ती नौजवान पीढ़ी

मौजूदा दौर में स्कूली पढ़ाईलिखाई इस तरह की हो गई है कि सिलेबस में लिखी बातों को रट कर इम्तिहान तो पास किए जा सकते हैं, पर पेट भरने के लिए वह किसी काम के काबिल नहीं बना पा रही है. स्कूली पढ़ाईलिखाई के सिस्टम में सुधार की जरूरत है, पर सरकार इस बात को नजरअंदाज कर रही है.

यही वजह है कि पढ़ाईलिखाई की नई नीति में बुनियादी और व्यावसायिक तालीम को उतनी तवज्जुह नहीं दी गई, जितनी जरूरी थी. लगातार यह देखा जा रहा है कि नौजवान पीढ़ी की दिलचस्पी पढ़ाईलिखाई के प्रति घटती जा रही है.

शिक्षा मंत्रालय की साल 2018-19 की रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि मध्य प्रदेश में हायर सैकेंडरी तक पहुंचते ही 76 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूल छोड़ देते हैं. इन में लड़कों की तादाद ज्यादा होती है.

जानकारों के मुताबिक, यह वह दौर होता है, जब छात्रों का पूरा ध्यान कैरियर पर होता है. वहीं, माध्यमिक लैवल के बाद 58 फीसदी बच्चे स्कूल बदल लेते हैं.

मध्य प्रदेश उन राज्यों में शामिल है, जहां बच्चों की सरकारी स्कूल छोड़ने की दर बहुत ज्यादा है. इस से पता चलता है कि स्कूली पढ़ाईलिखाई का लैवल प्रदेश में कैसा है.

पहली जमात से 5वीं जमात तक सरकारी स्कूलों में 85 फीसदी बच्चे पढ़ते हैं. यहां बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर 42 फीसदी हो जाती है.

इसी तरह उच्च शिक्षा के लिए माध्यमिक शिक्षा में तो स्कूल छोड़ने की दर 76 फीसदी हो जाती है. इन में से 24 फीसदी लड़कियां होती हैं.

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शिक्षा के प्रति नौजवानों का मोह भंग होने वाली वजहों की पड़ताल करने पर एक बड़ी बात यह सामने आई है कि नौजवानों को यकीन हो गया है कि पढ़ाईलिखाई में जो सिखाया जा रहा है, उस का प्रैक्टिकल तौर पर कहीं इस्तेमाल नहीं है.

बड़ी समस्या यह है कि पढ़ने के बाद भी ऐसी नौकरियां या व्यवसाय कम हैं, जिन में पढ़ाई की जरूरत होती ही हो. सारा समाज ऐसे अधपढ़ों का बनता जा रहा है, जहां पढ़ने वाले कम हैं और देश की उत्पादकता को भी बढ़ने नहीं दे रहे हैं.

कोरोना काल में बिना इम्तिहान दिए हाईस्कूल पास होने वाला 18 साल का रोहित गुप्ता कालेज जाने के बजाय अपने पिता की परचून की दुकान संभालने लगा है.

जब रोहित गुप्ता से आगे की पढ़ाई के बारे में बात की, तो वह कहने लगा, ‘‘पढ़लिख कर कहां नौकरी मिलनी है, इसलिए अभी से दुकान पर ही पूरा

समय दे कर मैं अपने पिता की मदद करता हूं.’’ सिरसिरी गांव का ललित राजपूत 10वीं जमात पास कर आईटीआई डिप्लोमा कर के इलैक्ट्रिशियन बनना चाहता है, पर आईटीआई में दाखिले के लिए 10वीं जमात में 75 फीसदी अंक न होने से वह इलैक्ट्रिक उपकरणों की दुकान पर यह काम सीख रहा है.

वजह पूछने पर ललित राजपूत ने बताया कि पढ़ाईलिखाई में उस का मन ही नहीं लगता, क्योंकि गांव के स्कूल में पिछले 6 सालों से एक शिक्षक ही पढ़ाने के लिए हैं, जो सभी सब्जैक्ट की पढ़ाई नहीं करवा पाते.

बिजली के उपकरणों की मरम्मत का काम सीख रहा ललित अपने घरपरिवार के लिए दो पैसे कमा कर देना चाहता है.

खेतीबारी के बारे में अच्छी पढ़ाई की चाहत रखने वाले नरसिंहपुर जिले के बरहटा स्कूल में पढ़ रहे पवन अहिरवार बताता है कि स्कूल में किताबें तो पढ़ा

दी जाती हैं, मगर कभी खेतखलिहान में जा कर कोई प्रैक्टिकल जानकारी नहीं दी जाती है. स्कूली किताबों में कहीं यह नहीं पढ़ाया जाता है कि बिजली फिटिंग, प्लंबर, मोटर मेकैनिक के कामों में कैसे महारत हासिल की जा सकती है. यही वजह है कि पढ़ाईलिखाई पूरी करने के बाद नौजवानों को जब नौकरी नहीं मिलती, तो वे किसी काम के नहीं रहते.

आज भी देश में ऐसे अनपढ़ों की पौध है, जो नकारा बनी मोबाइल फोन पर उंगलियां घुमा रही है. सरकारी नीतियां भी यही चाहती हैं कि देश के नौजवान धार्मिक आडंबरों और अंधविश्वास में उल?ो रहें.

सरकार नहीं चाहती कि नौजवानों में सवाल करने और सहीगलत का फर्क करने की ताकत बढ़े. धर्म के रंग में रंगी सरकार तो बस यही चाहती है कि नौजवान उन की रैलियों में आंख मूंद कर ?ांडे, बैनर लगा कर उन की गलत नीतियों का गुणगान करें.

होशंगाबाद जिले की पिपरिया तहसील के अनिल सोनी 12वीं तक की पढ़ाई के बाद एक राजनीतिक पार्टी के मीडिया प्रभारी हैं. वे दिनभर सोशल मीडिया पर अपनी पार्टी के नेताओं का गुणगान करते हैं. विधायक और पार्टी नेताओं के आगेपीछे घूमते वे देश के हालात बदल देने की वकालत करते हैं.

टिमरनी हरदा के आदिक लाल पटेल आज से 25 साल पहले बीटैक की पढ़ाई अधूरी छोड़ कर इसलिए गांव आ गए थे कि उन की जिन कामों में दिलचस्पी थी, वे स्कूल में नहीं सिखाए जाते थे.

गांव आ कर उन्होंने मोटर बाइंडिंग का काम सीखा और इन 25 सालों में आज पूरे इलाके के वे हुनरमंद मेकैनिक हैं. किसानों के खेत में चलने वाले मोटर पंप के जलने पर उन की बाइंडिंग से उन्हें खूब पैसा मिलता है. अपने काम और हुनर के दम पर उन के पास आज सभी तरह की सुखसुविधाएं हैं.

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रायसेन जिले के उदयपुरा के कमलेश पाराशर मैट्रिक तक पढ़े हैं. गांवदेहात के इलाकों में उन की पंडिताई फैली हुई है. वे बताते हैं कि उन्होंने अपने लड़के को 10वीं पास करते ही संस्कृत पाठशाला में दाखिला दिला दिया था.

जब तक समाज में धर्म का बोलबाला है, उन की पंडिताई की दुकान खूब चलेगी. पुरखों के जमेजमाए इस धंधे को अपने बेटे को सौंप देंगे. इस में कमाई के साथसाथ इज्जत भी मिलती है.

मध्य प्रदेश के स्कूल शिक्षा विभाग के मंत्री इंदर सिंह परमार भी स्वीकार करते हैं कि हमारे लिए ये हालात चुनौती से भरे हैं. पहली जमात में जितने बच्चे दाखिला लेते हैं, 12वीं जमात में पहुंचतेपहुंचते 24 फीसदी

बच्चे ही बचते हैं. लेकिन सुधार के लिए कोई खास नीति सरकार के पास नहीं है.  होशंगाबाद के पत्रकार मनीष अहिरवार कहते हैं कि एससीएसटी तबके के होनहार बच्चे पढ़लिख कर डाक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देखते हैं, मगर मैडिकल और इंजीनियरिंग कालेज की भारीभरकम फीस उन के सपनों को पूरा नहीं होने देती. सरकार की आरक्षण नीति का फायदा इस तबके के वे चुनिंदा लोग ही ले पाते हैं, जो पहले से नौकरियों में हैं.

स्कूलों में जरूरी सुविधाओं का अकाल पड़ा है. आज भी कई स्कूल ऐसे हैं, जहां पर पढ़ाईलिखाई के कमरे, पीने के लिए साफ पानी और शौचालय भी नहीं हैं. लड़कियों के स्कूल छोड़ने की एक बड़ी वजह यह भी है. माहवारी से जुड़ी समस्याओं के चलते वे स्कूल आने से कतराती हैं.

पढ़ाई काम न आई

आज पूरा देश कोरोना के संकट से जू?ा रहा है. ऐसे समय में हमारे स्कूलकालेजों की पढ़ाई की अहमियत की कोई कीमत नहीं रह गई है.

स्कूलकालेज की पढ़ाई का आलम यह है कि एक इलैक्ट्रिकल इंजीनियर अपने घर का फ्यूज नहीं बदल सकता, वैसे ही बीएससी, एमएससी पढ़े छात्रछात्रा अपने घर के किसी सदस्य को इंजैक्शन तक लगाने का हुनर नहीं जानते. फिर 15-20 साल स्कूलकालेजों में बरबाद करने के बाद हमें कौन सी पढ़ाई मिलती है? हमारे अपनों की जिंदगी मुसीबत में हो और उस से निबटने का कोई हुनर हमारे स्कूलकालेजों में नहीं सिखाया जाता हो, तो ऐसे स्कूलों का क्या फायदा?

अच्छा तो यह होता कि धर्म की कपोल कल्पित कथाकहानियों को पढ़ाने के बजाय ये स्कूल हमें इस बात की ट्रेनिंग देते कि मरीज का ब्लड प्रैशर कैसे नापा जाता है, औक्सिजन की सैचुरेशन कैसे चैक की जाती है. औक्सिजन मशीन, बाई पैप मशीन कैसे लगाते हैं, नैबुलाइजेशन कैसे करते हैं जैसी बातें सिखानी चाहिए.

सिविल डिफैंस में बाढ़, आग, भूकंप से जिंदगी कैसे बचा सकते हैं, हमें यह सिखाया जाता तो आफत की घड़ी में ये सचमुच समाज के काम आ सकते थे, मगर स्कूलों ने हमें यह सब नहीं सिखाया.

कोरोना के मरीजों की तादाद देख कर साफ है कि मजबूरन लोगों को उन के घरों पर ही अस्पताल जैसा इलाज देना होगा. वैसे भी कोरोना के मरीज को किसी किस्म की सर्जरी की जरूरत आमतौर पर नहीं पड़ती, इसलिए अस्पताल की उपयोगिता सिर्फ समय से इंजैक्शन लगाने, औक्सिजन देने और डाक्टर की निगरानी की है.

कुछ मामलों में हालत बिगड़ने पर वैंटिलेटर की जरूरत पड़ती है, लेकिन ज्यादातर मरीज औक्सिजन और बाई पैप मशीन के सहारे ही उठ खड़े होते हैं.

बाई पैप मशीन तेजी से हवा फेंकने वाली एक साधारण मशीन है, जिस की कीमत बमुश्किल 25,000 से 30,000 रुपए होती है. यह मशीन प्रैशर से हवा फेंकती है, जिस से मरीज को सांस लेना ही पड़ता है.

बहुत से लोग इस मशीन को खरीद सकते हैं, घर पर किराए पर लगवा सकते हैं, मगर लगाने वाले टैक्नीशियन कंपाउंडर कहां से लाएंगे? हमारे पास ट्रेंड कंपाउंडर हैं ही नहीं और जो थोड़ेबहुत हैं, वे अस्पतालों को ही कम पड़ रहे हैं.

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पढ़ाईलिखाई का मतलब उपयोगी नागरिक तैयार करना होना चाहिए. चाहे खेती हो, उद्योग हो, अनुसंधान, रक्षा या जीवन उपयोगी काम हो, लेकिन आज की पढ़ाईलिखाई पढ़ेलिखे नकारा नौजवानों की फौज खड़ी कर रही है, जो राजनीतिक पार्टियों की रैली में ?ांडाबैनर लगा कर और धार्मिक सत्संग, कांवड़ यात्रा और भोजभंडारा करने में अपनी ऊर्जा गंवा रही है.

लिहाजा, बेरोजगार नौजवान एक बात गांठ बांध लें कि किसी काम को सीखने के लिए 6 महीने से ले कर एक साल तक का समय होता है, चाहे मोटरकार, साइकिल मेकैनिक बनने की बात हो. डेरी फार्मिंग, मधुमक्खीपालन, खेतीबारी से जुड़े काम भी सीख सकते हैं.

वे घर की इलैक्ट्रिक वायरिंग, प्लंबर, वेल्डिंग का काम, मोबाइल रिपेयरिंग, मिट्टी के बरतन बनाना सीख सकते हैं. कुछ ही महीनों में नौजवान बहुत से ऐसे काम सीख सकते हैं, जो घरपरिवार को भूखा नहीं सोने देंगे.

आज भारत में सब से ज्यादा दुखी वे लोग हैं, जो बहुत ज्यादा पढ़लिख कर छोटेमोटे काम करना पसंद नहीं करते हैं. जो पढ़ाईलिखाई नौजवानों को रोजगार न दे सके, वह किसी काम की नहीं.

रोजगार के लिए ज्यादा पढ़ालिखा होना कोई माने नहीं रखता, बल्कि तरहतरह के हुनर सीख कर अपने परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी उठाया जा सकता है.

राजस्थान: रुदालियों की अनकही दास्तां

भारतीय समाज में पहले दूसरों की मौत पर रोने के लिए रुदालियां हुआ करती थीं, जो पैसे ले कर जमींदार या ठाकुर की मौत पर मातम मनाने के लिए बुलाई जाती थीं.

उन रुदालियों का काम होता था कि वे पूरे जोर के साथ छाती कूट कर, दहाड़ें मारमार कर ऐसा माहौल बना देती थीं कि आने वाला रोने के लिए मजबूर हो जाए.

समाज में उन्हें हमेशा ही नीची नजरों से देखा जाता था और उन के साथ कठोरता भरा बरताव किया जाता था. उन के घर भी गांव की सरहदों के बाहर बने होते थे.

साल 1993 में कल्पना लाजमी ने बंगला की महान लेखिका महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘रुदाली’ पर एक फिल्म भी बनाई थी. इस फिल्म का लता मंगेशकर और भूपेन हजारिका की आवाज में गाया गया एक गीत ‘दिल हूमहूम करे, घबराए…’ इन रुदालियों के निजी दुख को दिखाता है.

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आज भी राजस्थान में दलित औरतों को जबरन अपने दुख में रुलाया जाता है. ऐसे हालात में कई दिनों तक तथाकथित सामंतों के घरों पर जा कर दलित औरतों को मातम मनाना पड़ता है.

राजस्थान के सिरोही जिले में दर्जनों ऐसे गांव मिले हैं, जहां दलित औरतों को ऊंची जाति के लोगों के घर जा कर किसी की मौत होने पर मातम मनाना पड़ता है.

सिरोही जिले के रेवदर इलाके में धाण, भामरा, रोहुआ, दादरला, मलावा, जोलपुर, दवली, दांतराई, रामपुरा, हाथल, उडवारिया, मारोल, पामेरा वगैरह इलाकों में रुदालियों के सैकड़ों परिवार रहते हैं.

अगर किसी तथाकथित सामंतों के यहां कोई मर जाता है, तो पूरे गांव के दलितों को सिर मुंडवाना पड़ता है. साथ ही, दलित परिवार के बच्चों से ले कर बूढ़े तक का जबरन मुंडन करवाया जाता है. अगर कोई दलित रोने न जाए या दलित सिर न मुंडाए, तो उस परिवार को सताने का दौर शुरू हो जाता है.

माना जाता है कि रुदाली की यह परंपरा राजस्थान में तकरीबन 200 साल से है. चूंकि इस बारे में कोई कानून नहीं है, इसलिए यह परंपरा अभी भी जारी है.

लोक मान्यता है कि रोने से कमजोरी होने का डर रहता है और चेहरा बदसूरत हो जाता है, इसलिए ऊंची जातियों ने अपने चेहरे की खूबसूरती बचाए रखने के लिए यह काम निचली जातियों को दे दिया गया.

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बहरहाल, यह बड़े दुख की बात है कि आजादी के 74 साल बाद भी देश के एक हिस्से में कुप्रथा के नाम पर रुदालियों को बेमन से किसी पराए के लिए आंसू बहाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. पर क्या इस तरह से दूसरों की मौत पर रोने से अपनों का अपने के प्रति शोक जाहिर हो जाता है?

एक लोकतांत्रिक देश में दलितों को संविधान से मिलने वाले हकों पर यह सीधी सी चोट ही है. आरक्षण की खिलाफत करने वाले कई लोग इस तरह की जातिवादी चोट को दरकिनार कर देते हैं, जो ठीक नहीं है.

आज जरूरत इस बात की है कि एक प्रजातांत्रिक देश में गलत रिवाजों और कुप्रथाओं से छुटकारे की दिशा में ठोस पहल हो और इस तबके को समाज की मुख्यधारा में लाने की भरसक कोशिश की जाए.

समस्या: बिजली गुल टैंशन फुल

अनंत सितारों से भरे आकाश की तरह समस्याएं भी अनंत को छू रही हैं. मोबाइल फोन की बैटरी मौत के कगार पर है. बिजली कब आएगी, यह सवाल भूखे गांव वालों की जबान पर तैर रहा है.

यह नजारा राजस्थान में अघोषित बिजली संकट की भयावहता की ओर इशारा कर रहा है. कमोबेश 4-5 दिनों से रोजाना हम इन हालात से गुजर रहे हैं. गरमी में पसीने से लथपथ हर किसी के मन में राज्य सरकार की बदइंतजामी को ले कर काफी गुस्सा है.

गौरतलब है कि जोधपुर डिस्कौम के गांवदेहात के इलाके में 3 से 4 घंटे तक की बिजली कटौती की जा रही है. इतना ही नहीं, सभी नगरपालिका क्षेत्रों (जिला हैडक्वार्टर को छोड़ कर) में दिन में एक घंटे की बिजली कटौती हो रही है. जयपुर की कालोनियों में भी 4 घंटे से 7 घंटे तक बिजली कटौती की घोषणा की गई है.

ऐसे में गांवों की हालत बद से बदतर है. वहां लोगों को 8 से 9 घंटे अघोषित बिजली कटौती का सामना करना पड़ रहा है. इस की वजह साफ है और सरकार ने भी माना है कि देश में कोयला संकट गहराता जा रहा है.

कोयला संकट गहराने का सीधा असर बिजली के प्रोडक्शन पर पड़ रहा है, क्योंकि देश में ज्यादातर बिजली कोयले से पैदा होती है.

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कोयले की कमी के चलते राजस्थान में गहराते बिजली संकट पर ऊर्जा विभाग काफी चिंतित है. इस चिंता के बीच सोलर एनर्जी प्रोडक्शन के इस्तेमाल को बिजली संकट से जोड़ कर देखा जा रहा है.

याद रहे कि राजस्थान सोलर एनर्जी प्रोडक्शन में देश में पहले नंबर पर होने के बावजूद शहरी और गांवदेहात के इलाकों में अघोषित बिजली कटौती करनी पड़ रही है.

राजस्थान 7,738 मैगावाट सौर ऊर्जा क्षमता उत्पादन कर देश में पहले पायदान पर है. इस आंकड़े से लगता है कि राजस्थान में बिजली की कोई कमी नहीं है, फिर भी बिजली उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली नहीं मिल पा रही.

विभाग को यह भी पता है कि ऊर्जा के विभिन्न माध्यमों में सोलर एनर्जी प्रोडक्शन सब से सस्ता होता है, लेकिन इस उपलब्धि का सही इस्तेमाल नहीं होने के पीछे राजनीतिक वजह ज्यादा मानी जा रही है.

राजस्थान में सोलर एनर्जी उत्पादन की सरकारी इकाइयां कम और बाहरी निवेशकों की ज्यादा हैं. निवेशकों को सोलर सैक्टर में निवेश की छूट दी गई, लेकिन उन से सस्ती बिजली लेने की दिशा में कोई ठोस कोशिश नहीं की गई. इसी वजह से ज्यादा निवेशक अपनी बिजली दूसरे राज्यों में बेचते हैं.

कोयले से बिजली बनाने की लागत काफी महंगी होती है. इस के बावजूद राजस्थान की ज्यादातर उत्पादन इकाइयां थर्मल आधारित हैं. यही वजह है कि कोयले की कमी से बारबार उत्पादन प्रभावित होता है.

कोयले के संकट की वजह से 15 से 20 रुपए प्रति यूनिट की दर से महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है, जिस का बोझ आम उपभोक्ता पर ही पड़ता है.

अगर देश की बात करें, तो देश में 135 बिजली संयंत्र हैं, जहां कोयले से बिजली का उत्पादन होता है.

कोयला उत्पादन पर एक नोट के मुताबिक, 1 अक्तूबर को इन 135 बिजली संयंत्रों में से 72 के पास 3 दिनों से भी कम का स्टौक था, वहीं 4 दिनों से 10 दिनों का स्टौक रखने वाले बिजलीघरों की संख्या 50 है.

अगस्तसितंबर, 2019 में बिजली की खपत 106.6 अरब यूनिट थी, जबकि इस साल अगस्तसितंबर में 124.2 बीयू की खपत हुई थी.

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इसी अवधि के दौरान कोयले से बिजली का उत्पादन साल 2019 में 61.91 फीसदी से बढ़ कर 66.35 फीसदी हो गया. अगस्तसितंबर, 2019 की तुलना में इस साल के समान 2 महीनों में कोयले की खपत में 18 फीसदी की बढ़ोतरी हुई.

मार्च, 2021 में इंडोनेशिया से आने वाले कोयले की कीमत 60 डालर प्रति टन थी, लेकिन सितंबरअक्तूबर में इस की कीमत में 200 डालर प्रति टन की बढ़ोतरी हुई. इस से कोयले का आयात कम हो गया. मानसून के मौसम में कोयले से चलने वाली बिजली की खपत बढ़ गई, जिस से बिजली स्टेशनों में कोयले की कमी हो गई.

दरअसल, कोविड महामारी की दूसरी लहर के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी आई है और बिजली की मांग भी अचानक से बढ़ गई है. पिछले 2 महीनों में अकेले बिजली की खपत में साल 2019 की तुलना में 17 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.

इस बीच दुनियाभर में कोयले की कीमतों में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जबकि भारत का कोयला आयात 2 सालों में अपने सब से निचले लैवल पर है.

हालांकि, भारत के पास दुनिया में कोयले का चौथा सब से बड़ा भंडार है, लेकिन खपत के मामले में भारत कोयले के आयात में दुनिया में दूसरे नंबर पर है.

आमतौर पर आयातित कोयले पर चलने वाले बिजली प्लांट अब देश में उत्पादित कोयले पर निर्भर हैं. इस वजह से पहले से ही कमी से जूझ रही कोयले की सप्लाई और भी ज्यादा दबाव में आ गई है.

हाल के सालों में भारत अपनी तकरीबन 140 करोड़ की आबादी की जरूरतों को कैसे पूरा कर सकता है और भारी प्रदूषण वाले कोयले पर अपनी निर्भरता को कैसे कम कर सकता है, यह सवाल सरकारों के लिए एक चुनौती रहा है.

फिलहाल तो सरकार ने कहा है कि वह उत्पादन बढ़ाने, सप्लाई और खपत के बीच की खाई को पाटने और ज्यादा खनन करने के लिए कोल इंडिया के साथ काम कर रही है.

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सरकार को भी बंधक खदानों से कोयला मिलने की उम्मीद है. ये वे खदानें हैं, जो कंपनियों के कंट्रोल में होती हैं और उन से उत्पादित कोयले का इस्तेमाल वही कंपनियां करती हैं.

इन खदानों को सरकार के साथ समझौते की शर्तों के तहत कोयला बेचने की इजाजत नहीं है. भारत शौर्टटर्म उपायों से मौजूदा संकट से किसी तरह निकल सकता है, लेकिन देश की बढ़ती ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत को लंबी मीआद के उपायों में निवेश करने की दिशा में काम करना होगा.

Satyakatha: Sex Toys का स्वीट सीक्रेट

‘दूसरे देशों में सैक्स टौयज की दुकानें काफी तड़कभड़क वाली होती हैं, लेकिन हम ने अपनी दुकान कोसादा रखा है,’ नीरव मेहता बताते हैं, ‘हमारी दुकान के ग्राहक हमेशा जल्दी में रहते हैं इसलिए हम ने दुकान में कुरसी तक नहीं रखी है. लेकिन हम ने जानबूझ कर इसे आकर्षक या अंधेरे भूमिगत काल कोठरी की तरह नहीं बनाया है. हम ने इसे मैडिकल स्टोर की तरह बनाया और हमारे सभी सर्टिफिकेट दीवार पर टंगे हुए हैं. ऐसा हम ने किसी भी तरह के राजनैतिक विरोध से बचने के लिए किया है.’

यहां बात देश के मशहूर पर्यटन स्थल गोवा की हो रही है, जहां देश की पहली लीगल औनलाइन सैक्स टौयज की दुकान खुली है जिस का नाम है ‘ब्रिक एंड मोर्टार’. इस की लांचिंग बीती 14 फरवरी यानी वैलेंटाइंस डे पर हुई थी.

ऐसा नहीं है कि देश में सैक्स टौयज नहीं बिकते हों, लेकिन अभी वे चोरीछिपे गुमनाम दुकानों से बिक रहे हैं. मानो सैक्स टौय न हुए एके 47 जैसे हथियार हों.

नीरव ने प्रशासन से अनुमति ले कर दुकान खोल कर एक राह देश भर के बेचने वालों को दिखा दी है कि सैक्स टौयज की बढ़ती मांग को वे कानूनी रूप से दुकान खोल कर भी पूरा कर सकते हैं.

भारतीय समाज में सैक्स शिक्षा तो दूर की बात है सैक्स की चर्चा को भी वर्जित माना गया है, पर अब वक्त बदल रहा है, समाज बदल रहा है इसलिए सैक्स टौयज की मांग भी बढ़ रही है.

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लौकडाउन के दौरान जब लोग घरों में कैद थे, तब सैक्स टौयज की मांग हैरतंगेज तरीके से 65 फीसदी तक बढ़ी थी. लोग अपने पार्टनर तक नहीं पहुंच पा रहे थे और सैक्स की तलब जिन्हें सता रही थी, उन्होंने खूब औनलाइन सैक्स टौयज मंगा कर सैक्स को एंजौय किया था.

दैट्स पर्सनल डौट काम की एक विश्लेषण रिपोर्ट में विस्तार से इस का खुलासा किया गया था, जिस में बताया गया था कि सब से ज्यादा सैक्स टौयज महाराष्ट्र के लोग खरीदते हैं.

दूसरा नंबर कर्नाटक और तीसरा तमिलनाडु का है. बड़े शहरों में मुंबई के लोग सब से ज्यादा सैक्स टौय खरीदते हैं दूसरे और तीसरे नंबर पर दिल्ली और बेंगलुरु आते हैं.

इस विश्लेषण की एक चौंका देने वाली बात उत्तर प्रदेश के पुरुषों द्वारा सब से ज्यादा सैक्स टौयज खरीदने की रही. इस सर्वे के मुताबिक महिलाओं की खरीदारी का पसंदीदा वक्त दोपहर 12 से 3 बजे तक और पुरुषों का रात 9 बजे के बाद का है.

सैक्स टौयज सब से ज्यादा 25 से 34 साल के बीच की उम्र के लोग खरीदते हैं, लेकिन इन्हें बेचने वाली वेबसाइट्स पर ज्यादा वक्त गुजारने वाले लोग 18 से 25 साल के बीच की उम्र के हैं. सर्वे के एक दिलचस्प खुलासे के मुताबिक सैक्स प्रोडक्ट्स से 33 फीसदी शादियां टूटने से बची हैं.

दैट्स पर्सनल डौट काम के सीईओ समीर सरैया की मानें तो इन उत्पादों का बाजार तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि लोग झिझक छोड़ रहे हैं और प्रयोग करने व नए उत्पादों को आजमाने के लिए उत्साहित हैं.

ऐसा भी नहीं है कि बड़ी तादाद में पुरुष ही सैक्स टौयज खरीदते हों बल्कि महिलाएं भी पीछे नहीं हैं. विजयवाड़ा, वड़ोदरा , बेलगाम और जमशेदपुर जैसे शहरों में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा सैक्स टौयज खरीदती हैं. लौकडाउन के दौरान छोटे शहरों में भी सैक्स सुख देने वाले इन खिलौनों की बिक्री बढ़ी थी.

इन शहरों में शिलांग, पानीपत, भटिंडा, हरिद्वार, पणजी, राउरकेला और डिब्रूगढ़ प्रमुखता से शामिल हैं. औनलाइन खरीदारी में 66 फीसदी पुरुष और 34 फीसदी महिलाएं थीं. महिलाओं ने ज्यादातर मसाजर का और्डर दिया तो पुरुषों ने मेल पंप मंगाया.

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इस सर्वे के मुताबिक सैक्स टौय इस्तेमाल करने वाले 86 फीसदी पुरुषों ने पूर्ण संतुष्टि मिलने की बात स्वीकारी. जबकि ऐसी महिलाओं का प्रतिशत 89 था, जिन्होंने सैक्स टौय के इस्तेमाल से संतुष्टि के साथसाथ आर्गेज्म को भी महसूस किया.

पुरुषों को ले कर दिलचस्प बात यह सामने आई कि खुद हस्तमैथुन करने से संतुष्ट पुरुषों की तादाद 54 फीसदी थी, लेकिन जब हस्तमैथुन सैक्स टौय के जरिए किया गया तो 71 फीसदी को संतुष्टि मिली. महिलाओं में तो यह अनुपात हैरतंगेज तरीके से बड़ा पाया गया. बिना सैक्स टौय के हस्तमैथुन करने वाली संतुष्ट महिलाओं की संख्या महज 28 फीसदी थी, लेकिन सैक्स टौय से हस्तमैथुन करने वाली 83 फीसदी महिलाओं ने संतुष्टि मिलना बताया.

सैक्स टौयज का सालाना कारोबार कितना है, इस के ठीकठाक आंकड़े किसी के पास नहीं. लेकिन यह तय है कि यह बाजार बहुत तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि बड़ी उम्र तक शादी न करने वालों की तादाद बढ़ रही है और कोई भी रेडलाइट इलाकों में जाने और अवैध संबंधों के बाद के खतरे और जोखिम नहीं उठाना चाहता.

अकेले रह कर नौकरी कर रहे युवक युवतियों के लिए भी सैक्स टौय वरदान साबित हो रहे हैं, जिन का इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर कभी भी किया जा सकता है यानी अपने सीक्रेट ड्रीम पूरे किए जा सकते हैं, जिस का औसत खर्च 5 हजार रुपए से भी कम है.

काठमांडू के न्यू बाजार में स्थित स्वीट सीक्रेट दुकान सैक्स खिलौनों के लिए मशहूर है. यह दुकान भी रजिस्टर्ड है जिस में खुशबूदार कंडोम से ले कर बड़े आकार की गुडि़या जैसे कोई डेड़ सौ छोटेबड़े प्रोडक्ट मिलते हैं. सैक्स टौय के ज्यादातर आइटम चीन से मंगाए जाते हैं.

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मंजीत पौडेल और प्रवीण ढकाल नाम के युवकों ने इस दुकान को साल 2010 में खोला था. दुकान खूब चली और प्रतिदिन 5 लाख रुपए से भी ज्यादा की बिक्री होती है.

प्रवीन सैक्स टौय की दुकान खोलते वक्त चिंतित थे कि कहीं इस का विरोध न हो, पर यह आशंका फिजूल निकली और दुकान में रोजाना सौ के लगभग ग्राहक आते हैं, जिन में 10 महिलाएं होती हैं. दुकान से एकतिहाई बिक्री औनलाइन होती है.

मंजीत पौडेल के मुताबिक उन के ग्राहकों में ज्यादातर ऐसे होते हैं जिन का पार्टनर काम के सिलसिले में बाहर रहता है. किस उम्र के लोग ज्यादा सैक्स टौय खरीदते हैं, इस सवाल के जबाब में वह कहते हैं, ‘35 की उम्र के लगभग के लोग ज्यादा आते हैं. ये लोग कंडोम, वाइब्रेटर और सैक्स डौल ज्यादा खरीदते हैं. कई लोग तो सैक्स टौय घर में रह रही अकेली पत्नी के लिए खरीदते हैं.

यानी सैक्स टौय का इस्तेमाल युवा दंपति विवाहेतर संबंधों से बचने के लिए भी कर रहे हैं. यह एक सुखद बात सामाजिक लिहाज से है. वैसे भी देखा जाए तो सैक्स टौयज का इस्तेमाल किसी भी लिहाज से नुकसानदेह नहीं होता.

कानून: नौमिनी महज संरक्षक, उत्तराधिकारी नहीं

Writer- साधना शाह

अकसर हम अपने बैंक अकाउंट और बीमा पौलिसी के लिए अपने किसी करीबी को नौमिनी बना कर बेफिक्र हो जाते हैं, यह सोच कर कि अचानक मृत्यु हो गई तो नामित व्यक्ति को बैंक अकाउंट या बीमा पौलिसी की रकम मिल जाएगी. यह हमारा एक भ्रम है.

दरअसल, बीमा हो या बैंक अकाउंट, नौमिनी व्यक्ति उस का महज संरक्षक होता है, कानूनी उत्तराधिकारी नहीं होता. हमारे देश का कानून यही कहता है. बीमा संबंधित मामले की एडवोकेट देवस्मिता बसाक कहती हैं कि हमारे देश में नौमिनी या मनोनीत व्यक्ति कानूनीतौर पर उत्तराधिकारी नहीं होता है. बचत या निवेश का मालिकाना हक कानूनीतौर पर उसे प्राप्त नहीं हो सकता है. जिस व्यक्ति को नौमिनी बनाया गया है, अगर उसे कानूनीतौर पर अपने निवेश या बचत का मालिकाना हक दिलाना है तो नौमिनी बनाने के साथ उस के नाम पर वसीयत करना भी जरूरी है. यानी बचत-निवेश में किसी रिश्तेदार को नौमिनी बनाना काफी नहीं है.

नौमिनी बनाने या मनोनीत करने का अर्थ यही है कि खाताधारक या निवेशक के अचानक मर जाने पर बैंक खाते व निवेश की रकम को कोई मनोनीत व्यक्ति प्राप्त कर सकता है. लेकिन वह उस निवेश या अकाउंट की रकम का उत्तराधिकारी नहीं होता है.

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उदाहरण के तौर पर, किसी व्यक्ति ने बीमा पौलिसी लेते समय अपनी मां को नौमिनी बनाया. अगर वह व्यक्ति विवाहित है और मां के जीवित रहते उस व्यक्ति की अचानक मृत्यु हो जाती है तो बीमा की रकम उस की मां को नहीं मिलेगी, बल्कि वह रकम उस व्यक्ति के कानूनी उत्तराधिकारी यानी उस की पत्नी को मिलेगी. देवस्मिता बताती हैं कि नौमिनी व्यक्ति अगर कानूनीतौर पर उत्तराधिकारी नहीं है तो उस बीमा पौलिसी की रकम पर उस का अधिकार नहीं हो सकता. हमारे यहां यह एक बहुत आम समस्या है. अपने जीवित रहते हुए अकसर लोग अपना उत्तराधिकारी तय करने के बारे में सोचते ही नहीं हैं. जाहिर है, नौमिनेशन कानून के इस पक्ष से लोग बेखबर होते हैं. इसीलिए देश की तमाम अदालतों में इस से संबंधित बहुत सारे मामले लंबित पड़े हैं.

मध्यवर्ग की त्रासदी है कि वह जीवनभर पेट काटकाट कर थोड़ाबहुत बचत तो कर लेता है लेकिन जहां तक वसीयत बनाने का सवाल है, एक आम सामाजिक धारणा यह है कि यह काम तो रईस लोग करते हैं. एक या दो कमरे के फ्लैट, थोड़ी सी बचत व निवेश की एक छोटी सी रकम के लिए वसीयत करने के बारे में कम ही लोग सोचते हैं. जबकि, सचाई यह है कि वसीयत न होने पर पारिवारिक सदस्यों को संपत्ति व बीमा रकम प्राप्त करने में अदालतों के चक्कर लगाने के साथ बहुत सारे पापड़ बेलने पड़ते हैं.

तमाम तरह के दूसरे प्रमाणपत्रों के साथ उत्तराधिकारी प्रमाणपत्र यानी सक्सैशन सर्टिफिकेट भी जमा करने पड़ते हैं. यह सक्सैशन सर्टिफिकेट जुगाड़ करने में कई बार चप्पलें घिस जाती हैं. ऐसे में देवस्मिता का कहना है कि अगर आप अपनी मृत्यु के बाद अपने परिवार को किसी ऐसे झमेले में नहीं पड़ने देना चाहते हैं तो आप को नौमिनेशन की भूमिका और वसीयत के महत्त्व के बारे में विस्तार से जान लेना चाहिए.

बैंक अकाउंट

किसी बैंक में अकाउंट खोलने के समय हम लोग अपने परिवार में से किसी न किसी को अपना नौमिनी तय कर देते हैं. लेकिन अकसर होता यह है कि नौमिनी के मामले में किसी तरह का बदलाव होने पर हम बैंक में अपडेट करना भूल जाते हैं. ऐसा मामला अकसर युवा खाताधारक के मामले में होता है. आजकल 25-30 साल की उम्र में इन्हें मोटी रकम की सैलरी मिलने लगती है. अविवाहित होने पर ये लोग अकसर अपने मातापिता या भाईबहन को नौमिनी बनाते हैं. लेकिन विवाह हो जाने पर बैंक अकाउंट में अपडेट करना यानी पत्नी को अपना नौमिनी बनाना भूल जाते हैं.

ऐसे मामले में ग्राहक की मृत्यु हो जाने पर बैंक नौमिनी को रकम थमा कर अपनी जिम्मेदारी से फारिग हो जाता है. यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि नौमिनी केवल बैंक की रकम का संरक्षक मात्र होता है. अगर उस व्यक्ति ने किसी अन्य को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर रखा है तो वह उत्तराधिकारी नौमिनी को कानूनी चुनौती दे कर उस रकम पर अपना दावा कर सकता है.

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जीवन बीमा

जीवन बीमा के मामले में भी कानून लगभग एक ही है. बीमा क्षेत्र में नौमिनी की भूमिका ट्रस्टी की होती है. बीमा कानून 1939 की धारा 39 में साफतौर पर कहा गया है कि बीमा पौलिसी धारक की मृत्यु हो जाने पर पौलिसी की रकम नौमिनी को जाएगी. लेकिन 1983 में शरबती देवी बनाम उषा देवी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बीमा के मामले में नौमिनी बीमा की रकम का अधिकारी नहीं हो सकता, बल्कि नौमिनी बीमाधारक के कानूनी उत्तराधिकारी के ट्रस्टी के रूप में बीमा की रकम को प्राप्त कर सकता है.

बीमा कंपनी से प्राप्त रकम को बीमाधारक द्वारा वसीयत में तय किए गए कानूनी उत्तराधिकारी को सौंप देने की जिम्मेदारी नौमिनी की होगी. अगर वसीयत न हो, तो बीमाधारक उत्तराधिकारी रकम की प्राप्ति के लिए कानूनी रास्ता अपना सकता है.

म्यूचुअल फंड

म्यूचुअल फंड के मामले में भी नौमिनी की हैसियत महज निवेश के संरक्षक की होती है. निवेशक की मृत्यु होने पर निवेश की रकम म्यूचुअल फंड कंपनी नौमिनी के हाथों में सौंप देती है. लेकिन अगर नौमिनी और कानूनी उत्तराधिकारी एक ही व्यक्ति नहीं हुआ तो कानूनी उत्तराधिकारी ही उस रकम का उपभोग कर सकता है. यानी नौमिनी को वह रकम कानूनी उत्तराधिकारी को सौंपनी होगी. संयुक्त खाताधारक के मामले में पहले खाताधारक के रहते दूसरे की मृत्यु होने पर म्यूचुअल फंड के यूनिट पहले खाताधारक के नाम हो जाएंगे. पर डीमैट अकाउंट होने की सूरत में नियम अलग हो जाते हैं. डीमैट अकाउंट के नौमिनी व्यक्ति को म्यूचुअल फंड के नौमिनी की तरह लिया जाएगा.

चूंकि म्यूचुअल फंड को फिर से फिजिकल यूनिट में परिवर्तित किया जा सकता है, इसीलिए म्यूचुअल फंड कंपनी नौमिनेशन रद्द नहीं करती. फिजिकल यूनिट ट्रांसफर किए जाने पर ही नौमिनेशन लागू होगा.

जौइंट डीमैट अकाउंट के मामले में पहले खाताधारक की मृत्यु होने पर नियमानुसार प्राथमिक खाताधारक का नाम तालिका से हटा दिया जाता है. दूसरा खाताधारक प्राथमिक खाताधारक में परिवर्तित हो जाता है. दूसरी ओर, दूसरे खाताधारक की भी मृत्यु होने पर पूरी संपत्ति नौमिनी व्यक्ति को चली जाती है. अगर निवेशक ने किसी को नौमिनी नहीं बनाया है, तो कानूनी उत्तराधिकारी को वह रकम चली जाएगी.

शेयर

शेयर के मामले में नियम थोड़े अलग हैं. 2012 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से नियम में तबदीली आई. किसी व्यक्ति ने अपने डीमैट अकाउंट के लिए अपनी भतीजी को नौमिनी बनाया था. व्यक्ति की मृत्यु के बाद उस की पत्नी ने डीमैट अकाउंट के शेयर पर अपना दावा अदालत में पेश किया. मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया. मामले पर अपना फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कंपनी कानून के अनुसार वसीयत के तहत तय किया गया उत्तराधिकारी नहीं, बल्कि डीमैट अकाउंट का नौमिनी व्यक्ति ही शेयर का हकदार होगा. इसीलिए पत्नी डीमैट अकाउंट के शेयर की हकदार नहीं हो सकती.

साफ है कि  कंपनी कानून के अनुसार डीमैट अकाउंट के लिए अगर किसी व्यक्ति को नौमिनी बनाया गया और वसीयत में किसी और व्यक्ति का नाम है, तो भी डीमैट अकाउंट के नौमिनी को ही शेयर का मालिकाना हक प्राप्त होगा. वसीयत में तय किए गए कानूनी उत्तराधिकारी को शेयर का हक नहीं मिलेगा. इसी तरह संयुक्त खाताधारक यानी जौइंट अकाउंट के मामले में केवल दूसरे खाताधारक को ही शेयर का मालिकाना हक प्राप्त होगा.

कोऔपरेटिव  हाउसिंग सोसाइटी

कोऔपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी के मामले में भी नियम अलग है. इस मामले में किसी व्यक्ति का फ्लैट सोसाइटी का महज एक यूनिट होता है. कोऔपरेटिव सोसाइटी में फ्लैट के लिए एक नौमिनी तय करना जरूरी है. लेकिन यहां भी नौमिनी संपत्ति यानी फ्लैट का केवल एक केयरटेकर होता है. फ्लैट का मालिकाना हक केवल कानूनी उत्तराधिकारी को ही मिलेगा.

मुंबई में ऐसा ही एक मामला लगभग 29 सालों तक चला. अंत में 2009 में बौंबे हाईकोर्ट ने उत्तराधिकारी मामले को स्पष्ट करते हुए कहा कि कोऔपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी में किसी को केवल नौमिनी बनाया गया तो कानूनीतौर पर उस व्यक्ति को फ्लैट का मालिकाना हक नहीं मिलेगा. फ्लैट के मालिक की मृत्यु होने पर उस के कानूनी उत्तराधिकारी को ही फ्लैट का मालिकाना हक प्राप्त होगा, नौमिनी को नहीं.

अन्य संपत्तियों के मामलों में वसीयत न होने पर देश के उत्तराधिकारी कानून के तहत संपत्ति का वितरण होता है. दरअसल, जमीन या मकान के मामले में नौमिनी तय करने का कोई चलन है ही नहीं. लेकिन निवेश और अन्य किस्म की बचतों में नौमिनी तय किया जाता है. कुल मिला कर लब्बोलुआब यही है कि अगर हम चाहते हैं कि हमारे बाद तमाम बचत व निवेश की रकम हमारे नौमिनी को मिले तो केवल नौमिनी बनाना काफी नहीं होगा, उसे अपना उत्तराधिकारी भी बनाना होगा. तभी नौमिनी बनाने का  मकसद पूरा होगा और अपने पीछे रह गए पारिवारिक सदस्य को सहूलियत होगी.

समलैंगिकता मिथक बनाम सच

Writer- प्रेक्षा सक्सेना

भारत में समलैंगिकता आज भी हंसीमजाक का हिस्सा मात्र है. कानून बनने के बाद भी लोग समलैंगिकता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे कई मिथक हैं जिन के चलते समलैंगिक लोगों के लिए वातावरण दमघोंटू बना हुआ है.

पिछले वर्ष फरवरी में एक फिल्म आई थी, ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’. उस में समलैंगिक जोड़े को अपनी शादी के लिए परिवार, समाज और मातापिता से संघर्ष करते हुए दिखाया गया था. वह कहीं न कहीं हमारे समाज की सचाई और समलैंगिकों के प्रति होने वाले व्यवहार के बहुत करीब थी.

अब जबकि समलैंगिकता गैरकानूनी नहीं रही है, ऐसे में समलैंगिक लोग खुल कर सामने आ रहे हैं. पहले अपने रिश्तों को स्वीकारने में ऐसे जोड़ों को जो  िझ झक होती थी अब वह कम हुई है. कानून कुछ भी कहे पर समाज में अभी भी ऐसे जोड़ों को स्वीकृति नहीं मिली है. लोग ऐसे जोड़ों को स्वीकारने में संकोच करते हैं क्योंकि उन के मन में इन लोगों को ले कर कई प्रकार की धारणाएं और पूर्वाग्रह हैं.

मिथक- यह वंशानुगत है.

सच- समलैंगिकता वंशानुगत नहीं होती, इस के लिए कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं. कई लोग बचपन से ही अपने मातापिता या भाईबहन पर भावनात्मक रूप से निर्भर रहते हैं, इस के कारण उन की रुचि पुरुष या महिलाओं में हो सकती है और वे समलैंगिकता अपना सकते हैं. जैंडर आइडैंटिटी डिसऔर्डर भी इस की एक वाजिब वजह है. यह एक ऐसी बीमारी है जो समलैंगिकता के लिए जिम्मेदार है.

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इस बारे में कई थ्योरी हैं जिन के आधार पर बात की जाती है. अभी सहीसही कारणों का पता तो नहीं लग पाया है, फिर भी यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि समान सैक्स के लिए शारीरिक आकर्षण अप्राकृतिक तो नहीं है. वैसे भी, स्वभाव से मनुष्य बाइसैक्सुअल होता है. ऐसे में उस की रुचि किसी में भी हो सकती है.

डा. रीना ने बताया कि मेरे पास आने वाले जोड़ों में किसी के घर में कोई समलैंगिक नहीं था. उन के अनुसार, किसी को समलैंगिक बनाया नहीं जा सकता. समलैंगिक होना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना एक स्त्री और पुरुष के बीच का रिश्ता.

मिथक- ये लोग असामान्य होते हैं.

सच- मनोचिकित्सकों की मानें तो ये लोग आप की और हमारी तरह ही सामान्य बुद्धि के होते हैं, बस, अंतर है सैक्स की रुचि का. बाकी अगर देखा जाए तो बुद्धि इन की भी सामान्य ही होती है. भावनाओं की बात करें तो ये बहुत अधिक भावुक होते हैं, क्योंकि हर वक्त इन्हें अपने स्वीकार्य को ले कर चिंता बनी रहती है. इन के लिए विरोध की पहली शुरुआत घर से ही हो जाती है क्योंकि मातापिता और परिवार समलैंगिकता को सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते हैं.

हरेक के लिए सामान्य होने की अलग परिभाषा होती है पर समलैंगिकों की बात करें तो इन के रिश्ते में संतानोत्पत्ति सामान्य तरीके से संभव नहीं. इसलिए इस रिश्ते को समाज सामान्य नहीं मानता. वंश को आगे बढ़ाना हमारी सामाजिक सोच का हिस्सा है, जिस की पूर्ति इस से संभव नहीं, पर मनोचिकित्सकों की मानें तो यहां बात सामान्य होने की नहीं बल्कि सैक्स में उन की रुचि की है.

यदि कोई व्यक्ति समान सैक्स के प्रति आकर्षण महसूस करता है तो यह पूरी तरह सामान्य बात है. मुंबई के हीरानंदानी अस्पताल के मनोचिकित्सक डा. हरीश शेट्टी के अनुसार, अपने ही सैक्स के व्यक्ति के साथ रुचि रखना एक सामान्य बात है क्योंकि ऐसे लोगों को विपरीत सैक्स के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता.

मनोचिकित्सक कहते हैं कि एक समलैंगिकता स्वाभाविक तौर पर होती है जो खुद की चुनी हुई होती है और एक परिस्थितिजन्य होती है जिस में किसी अनजान भय, जैसे कि मैं विपरीत सैक्स वाले के साथ होने पर उसे संतुष्टि दे सकूंगा/सकूंगी या नहीं. यह छद्म समलैंगिकता है.

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मिथक- इन्हें यौन संक्रमण ज्यादा होता है.

सच- कुछ लोगों का मत है कि सैक्सवर्कर्स, किन्नरों, नशे के इंजैक्शन लेने वाले नशेडि़यों और समलैंगिकों में एड्स व अन्य यौनजनित रोग होने की संभावना अधिक होती है. अभी कुछ समय पहले तक हमारे यहां समलैंगिकता को कानूनी रूप से मान्यता न होने के चलते समलैंगिक कपल घर बसा कर साथ नहीं रह पाते थे.

ऐसे में शारीरिक आवश्यकताओं के कारण एक से अधिक लोगों के साथ संबंध बन जाना इस का मुख्य कारण है. हालांकि, ऐसा नहीं है कि एसटीडी केवल समलैंगिकों को होती है. यह तो हेट्रोसैक्सुअल लोगों में भी होती है. यौन संबंधों में सुरक्षा का खयाल न रखा जाए तो भी ऐसे रोगों का खतरा होता है. इसलिए यह एक मिथक ही है कि समलैंगिकों में सैक्सुअल ट्रांसमिटेड डिसीज ज्यादा होती हैं.

मिथक- शादी इस का हल है

सच- समलैंगिकों से जुड़ा सब से बड़ा मिथक यह है कि इन की शादी करा दी जाए तो सब ठीक हो जाएगा. जबकि, ऐसा बिलकुल भी नहीं है. कई बार मातापिता दबाव डाल कर शादी कर देते हैं, ऐसे में जिस से शादी होती है उस का जीवन तो खराब होता ही है बल्कि दूसरे का जीवन खराब करने का अपराधबोध उन के बच्चे को भी अवसादग्रस्त कर देता है.

सब मिला कर शादी इस का हल नहीं है. यदि आप के बच्चे ने आप को अपनी सैक्सुअल वरीयता के बारे में बता रखा है तो ऐसे में उस पर दबाव डाल कर शादी करने की भूल कभी न करें क्योंकि इस से 2 जीवन खराब होंगे. ऐसी शादियां सिवा असंतुष्टि के कुछ नहीं देतीं क्योंकि ऐसे लोगों में विपरीत सैक्स के प्रति कोई भावना नहीं पनप पाती. ऐसे में वह अपने साथी के साथ रिश्ते बनाने में असमर्थ होता है नतीजतन शादी टूट जाती है.

मिथक- ये वंशवृद्धि में असमर्थ होते हैं.

सच- लोग कहते हैं कि अगर ऐसी शादी होगी तो वंश का क्या होगा, क्योंकि प्राकृतिक तरीके से संतानोत्पत्ति संभव नहीं होगी, पर सच यह है कि यदि बच्चे की इच्छा है तो आजकल आईवीएफ द्वारा यह किया जा सकता है. बच्चा गोद लेना भी एक अच्छा विकल्प है. यदि ऐसा व्यक्ति जो विपरीत सैक्स के प्रति  झुकाव महसूस नहीं करता वह अपने साथी के साथ रहता है और अपना जैविक बच्चा चाहता है तो एग डोनेशन या स्पर्म डोनेशन और सरोगेसी इस का अच्छा उपाय है. मनोचिकित्सकों के अनुसार, सैक्स सिर्फ बच्चा पैदा करने का जरिया नहीं है बल्कि यह भावनात्मक लगाव दर्शाने का और अपने साथी का प्यार पाने का तरीका भी है.

Diwali Special: जुआ खेलना जेब के लिए हानिकारक है

कहते हैं जुए की लत में जर, जोरू और जमीन, सब दांव पर लग जाते हैं. महाभारत से ले कर आज के भारत में जुए की गंदी लत ने न जाने कितने घरों को बरबाद किया है, कितने घरों में अशांति फैलाई है. क्या आप भी इस की लत में सबकुछ खोने को तैयार हैं?

तीजत्योहारों पर धार्मिक रीतिरिवाजों के नाम पर कई कुरीतियां भी हम ने पाल रखी हैं, जैसे होली पर शराब और भांग का नशा करना और दीवाली पर जुआ खेलना, जिस के पीछे अफवाह यह है कि आप अपनी किस्मत और आने वाले साल की आमदनी आंक सकते हैं. दीवाली पर जुए के पीछे पौराणिक कथा यह है कि इस दिन सनातनियों के सब से बड़े देवता शंकर ने अपनी पत्नी पार्वती के साथ जुआ खेला था, तब से यह रिवाज चल पड़ा.

बात सौ फीसदी सच है कि जिस धर्म के देवीदेवता तक जुआरी हों, उस के अनुयायियों को भला यह दैवीय रस्म निभाने से कौन रोक सकता है. महाभारत का जुए का किस्सा और भी ज्यादा मशहूर है जिस में कौरवों ने पांडवों से राजपाट तो दूर की बात है, उन की पत्नी द्रौपदी तक को जीत लिया था. मामा शकुनी ने ऐसे पांसे फेंके थे कि पांडव बेचारे 12 साल जंगलजंगल भटकते यहांवहां की धूल फांकते रहे थे. महाभारत की लड़ाई, जिस में हजारोंलाखों बेगुनाह मारे गए थे, के पीछे वजह यही जुआ था.

जुए के नुकसान आज भी ज्यों के त्यों हैं, फर्क इतना है कि युग, सतयुग, त्रेता या द्वापर न हो कर कलियुग है और किरदार यानी जुआरी आम लोग हैं जो पांडवों की तरह दांव पर दांव हारे हुए जुआरी की तरह लगाए चले जाते हैं लेकिन सुधरते नहीं. भोपाल के अनिमेश का ही उदाहरण लें जो पुणे में एक सौफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर हैं. पिछले साल दीवाली पर लौकडाउन के चलते घर नहीं आ पाए थे, सो दीवाली अपने किराए के फ्लैट में दोस्तों के साथ मनानी पड़ी. शाम को जम कर जाम छलके, फिर रात 9 बजे के करीब प्रशांत ने जुआ खेलने का प्रस्ताव रिवाज का हवाला देते रखा तो सभी पांचों दोस्तों ने हां कर दी.

दुनिया का सब से प्रचिलित खेल ‘तीन पत्ती,’ जिस का एक और नाम फ्लैश है, शुरू हुआ तो यों ही था लेकिन खत्म यों ही नहीं हुआ. सुबह होतेहोते अनिमेष एकदो महीने की नहीं, बल्कि पूरे सालभर की सैलरी हार चुका था. 60 हजार तो नकदी गए और तकरीबन 2 लाख अनिमेश ने तुरंत औनलाइन ट्रांसफर किए, बाकी बचे और 2 लाख उस ने 6 महीनों की किस्तों में चुकाए. सालभर की बचत एक  झटके में ठिकाने लग गई.

अनिमेश बताता है कि ये सेविंग के पैसे थे, जिन से वह पापा की मदद करना चाहता था. बड़ी बहन की शादी कभी भी तय हो सकती है, इस के लिए उस ने पापा से कह रखा था कि वह 5 लाख रुपए देगा. दीदी की शादी जल्द हो जाए, यह मनाते रहने वाला यह युवा अब रोज मन्नत मांगता है कि शादी अभी तय न हो क्योंकि वह दोबारा पैसे इकट्ठे कर रहा है जिस में करीब एक साल लगेगा.

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अफसोस उसे है, लेकिन इस बात का ज्यादा है कि उस ने पक्की रन पर बेवजह लंबी चालें चलीं जबकि सामने वाला गुलाम की ट्रेल रख कर खेल रहा था. कई रात उसे नींद नहीं आई. सोते वक्त उसे अपनी पक्की रन और प्रशांत की ट्रेल ही दिखती रही जो चाल डबल किए जा रहा था. तब जाने क्यों उसे यह सम झ नहीं आया कि सामने वाले के पास बड़ा पत्ता हो सकता है. अगली बार के लिए उस ने यह सबक नहीं लिया है कि जो हुआ सो हुआ लेकिन अब जुआ नहीं खेलना है बल्कि वह सोच यह रहा है कि फड़ के पैसे फड़ से ही वसूलेगा.

अब कौन उसे बताए और सम झाए कि महाभारत के जुए में युधिष्ठिर ने भी हर बार यही सोचा था कि बस, इस बार दांव लग जाए, फिर तो पौ बारह है. युधिष्ठिर हार कर भी धर्मराज कहलाया लेकिन अनिमेश जैसे लोगों को क्या कहा जाए जो दिनरात की मेहनत से कमाया पैसा एक रात में गंवा देते हैं पर फिर भी जुए का लालच छोड़ नहीं पाते.

सिगरेट सरीखा ऐब 

इस में शक नहीं कि जुए के खेल का अपना अलग रोमांच है लेकिन यह लत या शौक लगता कैसे है, इस सवाल का जवाब बहुत साफ है कि अधिकतर घरों में दीवाली का जुआ एक तरह से मान्य है. बच्चे हर साल बड़ों को रोशनी के इस त्योहार के दिनों में बड़े चाव से जुआ खेलते देखते हैं तो उन में भी जिज्ञासा पैदा हो जाती है और वे इस खेल के दांवपेंच भी जल्द सीख जाते हैं. बड़े होने पर होस्टल या अपने ही शहर की किसी फड़ पर वे भी भविष्य आजमाने लगते हैं.

यह बिलकुल सिगरेट की लत जैसा काम है जिस का पहला कश चोरीछिपे लिया जाता है. फिर धीरेधीरे यह आदत और फिर लत बन जाती है. चूंकि बड़े खुद गलत होते हैं, इसलिए बच्चों को यह कहते रोक नहीं पाते कि यह गलत है. गलत कहेंगे तो बच्चे के इस सवाल का जवाब वे नहीं दे पाएंगे कि अगर गलत है  तो फिर आप क्यों खेलते हो.

अनिमेष का कहना है कि जब वह छोटा था तो पापा लंबी ब्लाइंड के बाद उस से ही पत्ते खुलवाते थे. इस के पीछे उन का अंधविश्वास यह था कि बच्चा पत्ते खोलेगा तो सामने वाले से बड़े ही निकलेंगे. कभीकभार ऐसा हो भी जाता था तो उन का अंधविश्वास और गहरा जाता

था और अगर हार जाते थे तो समय को कोसते अगली चाल का इंतजार करने लगते थे.

भाग्यवादी और अंधविश्वासी बनाता जुआ

जैसे सिगरेट के नुकसान जानते हुए भी लोग स्मोकिंग करते हैं वैसा ही हाल जुए का है. लोग इस के नुकसान जानते हैं लेकिन इस के भी कश चाल की शक्ल में लगाते जाते हैं. एक हकीकत अनिमेश के उदाहरण से साबित भी होती है कि जुआ शुद्ध भाग्य और अंधविश्वास को पालतापोसता खेल है. अनुमान लगाना सहज मानवीय स्वभाव है. लेकिन हर अनुमान को सच होते देखना निरी बेवकूफी है. जुआ पूरी तरह अनुमान आधारित खेल है, इसलिए इस में रोमांच है.

लेकिन रोमांच से ज्यादा रोल किस्मत नाम की चीज का है जिस की आड़ ले कर इस की लत लगती है. लक्ष्मी अगर पूजा करने से आती होती तो देशदुनिया में कोई गरीब न होता. ठीक इसी तरह अगर किस्मत जुए से चमकती होती तो देश के कोई 30-40 करोड़ लोग बड़े भाग्यवान होते जो दीवाली की रात बतौर रस्म और बतौर लत जुआ खेलते हैं.

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जुआ लोगों को विकट का अंधविश्वासी भी बना देता है जो बुजदिली का दूसरा नाम है. जैसे, क्रिकेट और टैनिस सहित दूसरे खेलों के खिलाडि़यों के अपने मौलिक अंधविश्वास होते हैं कि कोई बल्ला उलटा पकड़ कर मैदान में आता है तो कोई बाएं पैर में पैड पहले बांधता है. इसी तरह जुआरियों के तो लाखों तरह के अंधविश्वास होते हैं. मसलन, कोई मन में गायत्री मंत्र बुदबुदा रहा होता है तो कोई पत्तों को उठाने से पहले उन्हें चूमता है तो कोई पहले उंगलियां चटका कर पत्ते खोलता है.

अब तो इस अंधविश्वासी मानसिकता पर बाकायदा बिजनैस भी करने वाले दुकान खोल कर धंधा करने लगे हैं. जुए में जीतने की शर्तिया तावीज बिकने लगी हैं तो  कहीं सिद्ध बंगाली टाइप बाबा तांत्रिक क्रियाएं कर जुए में जितवाने की गारंटी लेने लगे हैं.

कोई गुरुजी सौ से ले कर 10 हजार रुपए तक जुए में जीतने का मंत्र बताने लगा है तो कई तो शकुनी की तरह कौड़ी यानी ताश के पत्ते भी सिद्ध कर देने लगे हैं. यह बकबास जुआरियों की अंधविश्वासी मानसिकता पर खूब फलफूल रही है. बस, बाजार में जुए का व्रत आना ही बाकी रह गया है कि इस अमावस या पूर्णिमा यह धूत व्रत रखो तो जीत पक्की है.

कैसे बचें 

जुए की महिमा अपरंपार है जिस में जुआरी घंटों प्राकृतिक जरूरतों को दबाए बड़ी लगन से बैठा रहता है. लगातार हारते रहने के बाद भी उस की बुद्धि काम नहीं करती और जीत की उम्मीद में वह बहुतकुछ दांव पर लगा देता है. यह सोचना भी बेमानी है कि जो जीतते हैं, वाकई लक्ष्मी उन पर मेहरबान होती है और वे पैसे का सही इस्तेमाल करते हैं.

जीता हुआ पैसों को फुजूलखर्ची और गलत कामों में लगाता है क्योंकि उसे भी यह एहसास रहता है कि यह पैसा उस ने मेहनत से नहीं कमाया बल्कि जुए में जीता है. अनिमेश से जीतने के बाद प्रशांत ने कोई एक लाख रुपए तो शराबकबाब की पार्टियों में ही उड़ा दिए थे.

अब लाख टके का सवाल यह कि जुए से बचा कैसे जाए? इस के लिए कोई उपाय ढूंढ़ना मुश्किल है सिवा इस के कि दीवाली का कीमती वक्त अपनों के साथ आतिशबाजी चलाते और तरहतरह के पकवान खाते मनाया जाए. किसी फड़ पर जा कर जुआ खेलना एक बड़ा जोखिम वाला काम भी है. अगर पुलिस के छापे में पकड़े गए तो इज्जत तो मिट्टी में मिल ही जाती है, साथ ही 2-3 साल कोर्टकचहरी के चक्कर काटना उस से भी ज्यादा तकलीफदेह तजरबा साबित होता है.

दीवाली का जुआ सिर्फ दीवाली की रात ही नहीं होता, बल्कि 15 दिनों पहले से शुरू हो कर 15 दिन बाद तक चलता है और जो लोग फड़ का आयोजन करते हैं वे पहले से ही माहौल बनाना यानी उकसाना शुरू कर देते हैं कि क्या यार, साल में एक ही तो मौका आता है किस्मत आजमाने का और अगर दोचार हजार हार भी गए तो कोई कंगाल तो नहीं हो जाओगे. तुम तो किस्मत वाले हो, हो सकता है जीत  ही जाओ.

इस तरह की बातों और इस तरह की बातें बनाने वालों से दूर रहना ही बचाव है. नहीं तो जेब खाली होनी तय है. सिगरेट का पहला कश ही उस की लत की शुरुआत होती है. यही थ्योरी जुए पर भी लागू होती है कि एक बार फड़ पर बैठ गए तो पांडव बनने में देर नहीं लगती. इस के बाद भी मन न माने तो शंकर की तरह अपनी पार्वती के साथ जुआ खेलें. इस से घर का पैसा घर में तो रहेगा.

वर्जनिटी: चरित्र का पैमाना क्यों

हमारे शास्त्रों और सामाजिक व्यवस्था ने वर्जिनिटी यानी कौमार्य को विशेष रूप से महिलाओं के चरित्र के साथ जोड़ कर उन के लिए अच्छे चरित्र का मानदंड निर्धारित कर दिया है.

हमारे समाज में वर्जिनिटी की परिभाषा इस के बिलकुल विपरीत है. दरअसल, समाज और शास्त्रों के अनुसार इस का अर्थ है कि आप प्योर हैं. हम किसी चीज या वस्तु की प्युरिटी की बात नहीं कर रहे हैं वरन लड़की की प्युरिटी की बात कर रहे हैं. लड़की की वर्जिनिटी को ही उस की शुद्धता की पहचान बना दी गई है. लड़कों की वर्जिनिटी की कहीं कोई बात नहीं करता. बात केवल लड़कियों की वर्जिनिटी की करी जाती है.

आज भी कई जगह वर्जिनिटी टैस्ट के लिए सुहाग रात को सफेद चादर बिछाई जाती है. 2016 में महाराष्ट्र के अहमद नगर में खाप पंचायत के द्वारा लड़के द्वारा लड़की को जबरन वर्जिनिटी टैस्ट के लिए विवश किया गया और जब लड़की इस में फेल हुई तो दोनों को अलग करने के लिए सामदामदंडभेद सबकुछ अजमाया गया, परंतु लड़के ने हार नहीं मानी और कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां से उसे न्याय मिला.

वर्जिन नहीं तो जिंदगी नर्क

समाज में न जाने इस तरह के कितने मामले हैं, जिन में लड़कियों का जीवन इसलिए नर्क बन जाता है, क्योंकि वे लड़की वर्जिन नहीं होतीं शादी से पहले उन्होंने किसी के साथ संबंध इच्छा या अनिच्छा से बनाया हो, इसी वजह से उन्हें कैरेक्टरलैस और बदचलन मान लिया जाता है.

डा. ईशा कश्यप कहती हैं कि वर्जिनिटी को ले कर हमारा समाज बहुत छोटी सोच रखता है. जिस के कारण आज भी लड़कियों की स्थिति काफी दयनीय है. यहां तक कि कई बार तलाक तक हो जाता है और लड़की की आवाज को अनसुना कर दिया जाता है.

कल्याणपुर की नलिनी सिंह का कहना है कि आज भी अगर लड़की वर्जिन नहीं है तो शादी के बाद उसे उस के पति और समाज की घटिया सोच का शिकार होना पड़ता है.

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इंजीनियरिंग कालेज की छात्रा अखिला पुरवार ने कहा कि जब लड़कों की वर्जिनिटी कोई माने नहीं रखती तो फिर लड़कियों की वर्जिनिटी को ले कर इतना बवाल क्यों?

हम सब अपने को चाहे कितना मौडर्न कह लें, लेकिन अपनी सोच में बदलाव नहीं ला पा रहे हैं. यदि वर्जिनिटी पर सवाल उठाना ही है तो पहले लड़के की वर्जिनिटी पर सवाल उठाना होगा क्योंकि वह किसी भी समय किसी भी लड़की को शिकार बना कर उस की वर्जिनिटी को जबरदस्ती भंग कर देता है. लेकिन जब शादी का सवाल आता है तो वह किसी लड़की को अपना जीवनसाथी बनाने के पहले उस के चरित्र पर बदचलन का दाग लगाने में एक पल भी नहीं लगता है.

धार्मिक बातों में विरोधाभास

हिंदू धर्म में परस्पर विरोधी बातें कही गई हैं. एक ओर तो कुंआरी कन्या को देवी मानते हुए कंजिका पूजन की प्रथा का आज भी चलन है. सामान्यतया सभी परिवारों में नवरात्रि में छोटी कन्या को भोजन और भेंट देने का रिवाज है. दूसरी ओर शास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत सभी समवेत स्वर में कहते हैं कि स्त्री आजादी के योग्य नहीं है या वह स्वतंत्रता के लिए अपात्र है.

मनु स्मृति में तो स्पष्ट कहा है-

‘पिता रक्षंति कौमारे, भर्ता रक्षित यौवने

रक्षंति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातंत्र महेति’ (मनुस्मृति 9-3)

स्त्री जब कुमारी होती है तो पिता उस की रक्षा करते हैं, युवावस्था में पति, वृद्धावस्था में पति नहीं रहा तो पुत्र उस की रक्षा करता है. तात्पर्य यह है कि जीवन के किसी भी पड़ाव पर स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है. बात केवल मनुस्मृति तक सीमित नहीं है, महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस में इस की पुष्टि करते हुए कहा है कि स्वतंत्र होते ही स्त्री बिगड़ जाती है.

‘महावृष्टि चलि फूटि कियारी जिमि भये बिगरहिं नारी’

महाभारत में भी कहा गया है कि पति चाहे बूढ़ा, बदसूरत, अमीर या गरीब हो, परंतु स्त्री के लिए वह उत्तम आभूषण होता है. गरीब, कुरूप, निहायत बेवकूफ या कोढ़ी हो, पति की सेवा करने वाली स्त्री को अक्षय लोक की प्राप्ति होती है.

मनुस्मृति में स्पष्ट है कि पति चरित्रहीन, लंपट, अवगुणी क्यों न हो साध्वी स्त्री देवता की तरह उस की सेवा करे वाल्मीकि रामायण में भी इसी तरह का उल्लेख है.

हिंदुओं का सब से लोकप्रिय महाकाव्य ऐसी स्त्री को सच्ची पतिव्रता मानता है, जो स्वप्न में भी किसी परपुरुष के बारे में न सोचे. तुलसी दासजी यहां भी नहीं रुके. उन्होंने उसी युग को कलियुग कह दिया, जब स्त्री अपने सुख की कामना करने लगती है.

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इन्हीं धार्मिक मान्यताओं के प्रभाव से आज हमारे समाज में विवाह से पूर्व कौमार्य का भंग होना बेहद शर्मनाक माना जाता है.

इसी यौनशुचिता की रक्षा में हमारा न सिर्फ पूरा बचपन और कैशोर्य कैद कर दिया जाता है वरन हमारी बुनियादी आजादी भी हम सब से छीन ली जाती है.

क्यों बुना गया यह जाल

वर्जिनिटी को बचाने का सारा टंटा सिर्फ इसलिए है कि महिलाएं अपने पति को यह मानसिक सुख दे सकें कि वही उन के जीवन का पहला पुरुष है. यह वही है, जिस के लिए आप ने स्वयं को सालों तक दूसरे लड़कों और पुरुषों से बचा कर रखा है.

शादी से पहले लड़कियों को हजारों तरह के निर्देश दिए जाते हैं कि यहां नहीं जाओ, उस से मत मिलो, लड़कों से दूरी बना कर रखो, उन से दोस्ती मत करो, रिश्तेदारों के यहां अकेले मत जाओ, शाम से पहले घर लौट आना आदिआदि. ये सारे प्रतिबंध सिर्फ कौमार्य की रक्षा को दिमाग में रख कर ही लगाए जाते हैं.

सूरत की असिस्टैंट प्रोफैसर कहती हैं कि हम यह भी कह सकते हैं कि वर्जिनिटी हमारी है, लेकिन हमारी हो कर भी हमारे लिए नहीं है. इसलिए आजकल लड़कियों का कहना है कि जब यहां हमारे लिए है ही नहीं तो इसे बचाने का क्या फायदा?

हालांकि आज 21वीं सदी में वर्जिनिटी को बचाए रखने का चलन अब फुजूल की बात होती जा रही है, परंतु आज भी ऐसी लड़कियों की कमी नहीं है, जो इसे कुछ भी न मानते अपनी वर्जिनिटी तोड़ने की हिम्मत नहीं कर पातीं हैं. इन में से कुछ के आड़े अपने संस्कार की हैवी डोज या फिर अगर किसी को पता चल गया तो क्या होगा? या कई बार सही मौका नहीं मिल पाना भी इस की वजह बन जाता है.

वैसे अच्छी बात यह हो गई है कि अब लड़कियां उन्हें बुरा नहीं मानती, जिन्होंने अपनी मरजी से वर्जिनिटी खोने को चुना है.

मार्केटिंग प्रोफैशनल इला शर्मा बीते कई सालों से मुंबई में रहती हैं. वे कहती हैं कि यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है, जिस पर इतना बवाल मचाया जाए. यदि लड़के वर्जिन लड़की चाहते हैं तो उन्हें भी पहले अपनी वर्जिनिटी को संभाल कर रखना चाहिए. लड़कियों की वर्जिनिटी के लिए पूरा समाज सजग है और सब यही चाहते हैं कि लड़कियां वर्जिन ही रहें, लेकिन लड़कों के बारे में ऐसा नहीं सोचा जाता. मु झे समाज के इस दोहरे पैमाने से बहुत तकलीफ होती है.

मगर वर्जिनिटी को ले कर मुखर निशा सिंह एक चौंकाने वाली बात कहती हैं कि आप यह कैसे मान सकते हैं कि 1-2 सैंटीमीटर की कोई नाजुक सी  िझल्ली, 5 फुट की लड़कियों के पूरे अस्तित्व पर भारी पड़ सकती है? यह सुनने में अजीब सा लगता है, परंतु अफसोस कि सच यही है. एक पतली सी  िझल्ली जिसे विज्ञान की भाषा में ‘हाइमन’ कहा जाता है, हम लड़कियों के पूरे अस्तित्व को किसी भी पल कठघरे में खड़ा कर सकती है.

निशा कहती हैं कि उन की उम्र 40 साल होने जा रही है, लेकिन वे आज भी वर्जिन हैं. कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि इतने सालों से घर से बाहर रहने के बावजूद दिमाग की कंडीशनिंग काफी हद तक वैसी ही है. सच तो यह है कि कई बार अपने को आजाद छोड़ने के बाद भी अपने को सहज या नौर्मल नहीं पाती हूं. मु झे लगता है कि मेरे संस्कार और मांपापा का भरोसा तोड़ने से जुड़े अपराधबोध के डर से ही मैं आज तक चाहेअनचाहे वर्जिन हूं.

नोएडा की एक विज्ञापन कंपनी में काम करने वाली नीलिमा घोष वर्जिनिटी पर महिलाओं की सोच की थोड़ी स्पष्ट तसवीर दिखाती हैं कि मु झे लगता है कि लड़के चाहते तो हमेशा यही हैं कि उन की पत्नी वर्जिन हो, अगर नहीं हो तो भी चल जाता है. यह चला लेना ही बताता है कि अंदर ही अंदर लड़कों को इस बात से फर्क पड़ता है, इसलिए उन्हें सच बताना आफत मोल लेना है. इसलिए पति हो या बौयफ्रैंड से  झूठ बोलना ही ज्यादा सही है वरना इस बात को ले कर किसी भी समय कोई भी सीन क्रिएट कर सकते हैं. इसलिए अपने सुखी भविष्य के लिए  झूठ बोलना ही अकलमंदी है.

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मौडर्न को भी वर्जिन की चाह

वैसे तो आज के समय में सम झदार लोगों के लिए वर्जिनिटी का कोई मतलब नहीं रह गया है, परंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि आज भी यदि किसी वजह से कोई लड़की अपनी वर्जिनिटी खो चुकी है तो लोगों के लिए ‘खेली खाई’ है और वह सर्वसुलभ है. उस के लिए लोगों का सोचना होता है कि जब एक बार किसी के साथ मजे ले चुकी है तो फिर दूसरों के साथ भला क्या दिक्कत है.

तलाकशुदा महिलाएं अकसर इस की शिकार होती हैं. मेरठ के एक प्राइवेट स्कूल की अध्यापिका बुलबुल आर्य कहती हैं कि मु झे लगता है कि कई लोग यह सोचते हैं कि मैं उन के लिए आसानी से उपलब्ध हूं. उन की तरफ से ऐसा कोई भी इशारा पाए बिना ही सब यह मान कर चलते हैं कि शादी के बाद मैं सैक्स की हैबिचुअल हो चुकी हूं और अब पति मेरे साथ नहीं हैं, इसलिए वे इस कमी को पूरी करने के लिए आतुर रहते हैं.’ ऐसी सोच मेरे लिए बहुत डिस्गस्टिंग है कि सिर्फ मेरी वर्जिनिटी खत्म होने से मैं उन सब के लिए उपलब्ध लगती हूं.

बुलबुल जैसी लड़कियों के लिए व्यक्तिगत रूप से वर्जिनिटी कोई बड़ा मुद्दा न होते हुए भी बड़ा हो जाता है.

यौनशुचिता को ले कर चली आ रही सोच का पोषण करते हुए विज्ञान ने हाइमन की सर्जरी जैसे उपायों को भी चलन में ला दिया है. यद्यपि अपने देश में यह अभी शुरुआती दौर में है और काफी महंगी भी है, परंतु यह इशारा करता है कि हम विवाहपूर्व भी अपनी सैक्सुअल लाइफ को जीना और ऐंजौय करना चाहती हैं. लेकिन अपनी ‘अच्छी लड़की’ वाली इमेज कभी नहीं टूटने नहीं देना चाहती हैं ताकि पति की तरफ से वर्जिन पत्नी को मिलने वाली इज्जत और प्यार मिल सके.

समाज की गंदी सोच

वास्तविकता यह है कि वर्जिनिटी के सवाल पर हम सुविधा में हैं. वर्जिनिटी पर हम एक ही समय पर 2 तरह से सोचते हैं. एक ओर तो ऐसे सभी कैरेक्टर सर्टिफिकेट्स को चिंदीचिंदी कर के फाड़ कर फेंक देना चाहते हैं, जिन्हें वर्जिनिटी जारी करती है और दूसरी तरफ हम खुद ही चाहेअनचाहे उसे बचा कर रखना चाहते हैं. हमारा समाज और हम सभी अभी भी इस सोच से ग्रस्त हैं कि वर्जिनिटी खो चुकी लड़कियां गंदी होती हैं.

मांबाप अपनी बेटियों को विवाहपूर्व यौन संबंधों से बचाने के लिए अकसर ‘हम तुम पर बहुत भरोसा करते हैं.’ जैसे भावनात्मक हथियार का प्रयोग करते हैं. ऐसे में यदि कोई लड़की अपनी वर्जिनिटी खत्म करती भी है तो वह अपने मांबाप का भरोसा तोड़ने के अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती है.

वैसे अब लड़कियों में यह चाह तो जगने लगी है कि जैसे लड़कों के लिए वर्जिनिटी खोना कोई मसला नहीं है वैसे ही लड़कियों के लिए भी न हो, परंतु अभी तो बहुत कोशिशों के बाद भी हमारा समाज इस मसले पर सहज नहीं है. बस अब इस पर होने वाले बवाल से बचने के लिए लड़कियां  झूठ बोलने में अवश्य सहज हो गई हैं.

इस संदर्भ में ‘पिंक’ मूवी का उल्लेख करना चाहूंगी जो स्त्री की यौनस्वतंत्रता के प्रति समाज की मानसिकता को जगाने का प्रयास करती है.

देह उपयोग को ले कर स्त्री की अपनी इच्छाअनिच्छा को भी उसी अंदाज में स्वीकार करना होगा जैसेकि पुरुष की इच्छाअनिच्छा को समाज सदियों से स्वीकार करता आ रहा है. इस विचार से ‘पिंक’ एक फिल्म नहीं वरन एक मूवमैंट?? है. यदि स्त्री को अपने अधिकार के लिए लड़ना है तो आवश्यक है कि समाज में माइंड सैट बदलना होगा.

समाज की धारणा को बदलने के लिए पहले स्त्री को स्वयं अपनी सोच को बदलने की आवश्यकता है.  \

‘‘हम सब अपने को चाहे कितना मौडर्न कह लें, लेकिन अपनी सोच में बदलाव नहीं ला पा रहे हैं. यदि वर्जिनिटी पर सवाल उठाना ही है तो पहले लड़के की वर्जिनिटी पर सवाल उठाना होगा क्योंकि वह किसी भी समय किसी भी लड़की को शिकार बना कर उस की वर्जिनिटी को जबरदस्ती भंग कर देता है…’’

‘‘वैसे तो आज के समय में सम झदार लोगों के लिए वर्जिनिटी का कोई मतलब नहीं रह गया है, परंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि आज भी यदि किसी वजह से कोई लड़की अपनी वर्जिनिटी खो चुकी है तो लोगों के लिए ‘खेली खाई’ है और वह सर्वसुलभ है…’’

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