रेटिंग: ढाई स्टार
निर्माताः अनांद पंडित मोषन पिक्चर्स और सरस्वती
इंटरटेनमेंट प्रा.लिमिटेड
निर्देशक: रूमी जाफरी
लेखक:रंजीत कपूर ओर रूमी जाफरी
कलाकार: अमिताभ बच्चन, इमरान हाशमी, क्रिस्टल डिसूजा,रिया चक्रवर्ती, अन्नू कपूर,सिद्धांत कपूर, समीर सोनी,रघुवीर यादव एलेक्स ओ नील,धृतिमान चटर्जी
अवधिः दो घंटे 19 मिनट
प्लेटफार्मः सिनेमाघरों में
1992 से अब तक पचास से अधिक काॅमेडी फिल्मों के लेखक अब बतौर निर्देशक रूमी जाफरी अब एक रहस्य रोमांच प्रधान फिल्म ‘‘चेहरे’’ लेकर आए हैं, जो कि 27 अगस्त से सिनेमाघरों में देखी जा सकती है. मगर महाराष्ट् में नही,क्योंकि महाराष्ट् राज्य में सिनेमाघर बंद हैं.फिल्म समाज में न्याय व कानून की विफलता की बात करती है.मगर हल नही बताती. यूं तो फिल्म ‘‘चेहरे’’ कोर्ट रूम ड्रामा है,मगर इसमें अदालत की बजाय सारी कारवाही एक अवकाश प्राप्त जज जगदीष आचार्य के बंगले में होती है.
कहानीः
देश के किसी अतिबर्फीले और जंगलों के बीच एक बंगले में अस्सी वर्षीय अवकाश प्राप्त जज जगदीश आचार्य ( धृतिमान चटर्जी ) रहते हैं. वह हर दिन अपने दोस्तों के समूह के साथ वास्तविक जीवन के किसी भी इंसान के साथ एक खेल खेलते हैं,जिसमें इस बात को तय करते हैं कि न्याय दिया गया है या नहीं. यदि न्याय नही हुआ है,तो वे सुनिश्चित करते हैं कि न्याय किया गया.इनका मानना है कि हर इंसान अपनी जिंदगी में कोई न कोई अपराध कर सजा पाने से बच जाता है.
अब जज अपने घर में उस दबे हुए मामले की जांच कर उसे सजा सुनाते हैं. जगदीश आचार्य के दोस्तों में अवकाश प्राप्त पब्लिक प्रोसीक्यूटर लतीफ जैदी(अमिताभ बच्चन) ,अवकाष प्राप्त डिफेंस लाॅयर परमजीत सिंह भुल्लर(अन्नू कपूर), अवकाश प्राप्त जल्लाद हरिया जाटव (रघुवीर यादव) का समावेष है.वहीं जज आचार्य के घर पर अना(रिया चक्रवर्ती ) अपने भाई जो(सिद्धांत कपूर) के साथ रहती है.
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एक दिन दिल्ली जा रहे एक विज्ञापन एंजसी कंपनी के सीईओ समीर मेहरा (इमरान हाशमी ) गिरती बर्फ के बीच फंसने व बीच राह अपनी बीएम डब्लू गाड़ी के खराब हो जाने पर जज आचार्य के बंगले पर पहुॅच जाते हैं,जिससे सबसे ज्यादा खुश हरिया जाटव होता है.कार को बीच सड़क पर छोड़कर आते समय समीर मेहरा अपनी गाड़ी की चाभी भी वहीं गिरा देते हैं.कुछ देर बाद लतीफ जैदी का जज के घर आगमन होता है,पर आते समय वह समीर मेहरा की कार की चाभी पाने के बाद कार की तलाषी लेते हुए आते हैं.फिर समीर मेहरा के साथ खेल खेला जाता है.
पहले समीर मेहरा भी इस खेल का मजा लेते हैं, मगर फिर उन्हे लगता है कि वह गलत जगह फंस गए.प्राॅसीक्यूटर लतीफ जैदी धीरे धीरे समीर मेहरा पर संगीन जुर्म करने का साबित करना षुरू करते है,तब समीर मेहरा की जिंदगी की कहानी सामने आती है कि किस तरह समीर ने अपने कैरियर की महत्वाकांक्षा के चलते अपने बाॅस के मौत के लिए जिम्मेदार हैं.धीर धीरे समीर मेहरा,उनके बाॅस ओसवाल (समीर सोनी) और ओसवाल की पत्नी नताषा ओसवाल (क्रिस्टल डिसूजा ) की कहानी सामने आने पर कुछ अचंभित करने वाला मसला सामने आता है और समीर मेहरा को बेगुनाह साबित करने की लड़ाई लड़ रहे डिफेंस लायर परमजीत सिंह भुल्लर हार जाते हैं.
लेखन व निर्देशनः
फिल्म ‘‘चेहरे’’ की कमजोर कड़ी लेखक व निर्देषक हैं.बेहतरीन प्रतिभाशाली कलाकारों के साथ रूमी जाफरी एक बेहतरीन फिल्म नही बना सके. इंटरवल तक फिल्म काफी रोचक है,मगर इंटरवल के बाद फिल्म की पटकथा काफी कमजोर है.फिल्म में रहस्य व रोमांच काफी हद तक ठीक है,मगर उपदेशात्मक लहजा फिल्म को बर्बाद कर देता है. समीर मेहरा की निजी जिंदगी की कहानी को बेवजह खींचा गया है. यहां तक कि फिल्म निर्देश क के हाथ से यह फिल्म निकल जाती है.फिल्म के कुछ संवाद काफी अच्छे हैं.वैसे यह फिल्म अपराधी,पुलिस,वकील, कानून और न्यायालय पर गंभीर सवाल उठाती है.फिल्म भले ही कानून पर सवाल उठाती है,मगर फिल्म के कहानीकार रंजीत कपूर ने कहानी का आधार ही गलत चुना है. क्योंकि फिल्म में न्याय की बात करने वाले चारों लोग अवकाश प्राप्त हैं.इन्होने सेवारत रहते हुए न्याय की बात क्यों नही सोची? फिल्म को तर्क की कसौटी पर कसा नही जा सकता.
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इंटरवल से पहले फिल्म की में रोचकता है.दर्षक के मन में एक जिज्ञासा बनी रहती है कि प्राॅसीक्यूटर के वकील अपराध पर से किस तरह परतें हटाएंगे. इंटरवल के बाद फिल्म की रोचकता खत्म हो जाती है.इतना ही नहीं क्लायमेक्स से पहले पूरे चैदह मिनट का अमिताभ बच्चन का मोनोलाॅग के चलते दर्शक कह उठता है कि ‘कहां फसायो नाथ.’14 मिनट के अपने भाषण में अमिताभ बच्चन न्याय,इंसान के अधिकार,लड़कियों से बलात्कार व कैंडल मार्च पर बातें करते हैं.फिल्म कुछ सवाल जरुर उठाती है,मगर उसके जवाब न फिल्म देती है. और न समाज में किसी के पास नही है.वास्तव में अमिताभ बच्चन का मोनोलाॅग सिर्फ उपदेशात्मक है.
फिल्म का स्पेषल इफेक्ट/वीएफएक्स काफी कमजोर है.बर्फ का गिरना एकदम कृत्रिम लगता है.
अभिनयः
अमिताभ बच्चन की अभिनय कला हर फिल्म में एक अलग स्तर पर निखर कर आती है.कमजोर पटकथा के बावजूद अमिताभ बच्चन अपने अभिनय के बल पर फिल्म को बेहतर बनाते हैं.बेहतरीन संवादों को खींचने की उनकी क्षमता अदालत में एक अनुभवी वकील के तर्क के रूप में उनके अभिनय को उत्कृष्टता प्रदान करती है.अन्नू कपूर हमेशा की तरह अपने किरदार के साथ न्याय करने में सफल रहे हैं. फिल्म में उचित मात्रा में तनाव और रोमांच पैदा करने में अमिताभ बच्चन और अन्नू कपूर की केमिस्ट्री कमाल की है. रघुवीर यादव व धृतिमान चटर्जी का अभिनय ठीक ठाक है.एक कारपोरेट व सफल उद्यमी के किरदार में इमरान हाशमी थोड़ा सा कमतर नजर आते हैं.जो के किरदार में सिद्धांत कपूर के हिस्से करने को कुछ आया ही नही.लेखक ने उनके किरदार को सही ढंग से चित्रित नहीं किया.रिया चक्रवर्ती ठीक ही हैं.क्रिस्टल डिसूजा हाॅट व सुंदर नजर आयी हैं.