Mother’s Day 2024: ममता- गायत्री अपनी बेटी से क्यों नाराज थी?

दालान से गायत्री ने अपनी बेटी की चीख सुनी और फिर तेजी से पेपर वेट के गिरने की आवाज आई तो उन के कान खड़े हो गए. उन की बेटी प्रिया और नातिन रानी में जोरों की तूतू, मैंमैं हो रही थी. कहां 10 साल की बच्ची रानी और कहां 35 साल की प्रिया, दोनों का कोई जोड़ नहीं था. एक अनुभवों की खान थी और दूसरी नादानी का भंडार, पर ऐसे तनी हुई थीं दोनों जैसे एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी हों.

‘‘आखिर तू मेरी बात नहीं सुनेगी.’’

‘‘नहीं, मैं 2 चोटियां करूंगी.’’

‘‘क्यों? तुझे इस बात की समझ है कि तेरे चेहरे पर 2 चोटियां फबेंगी या 1 चोटी.’’

‘‘फिर भी मैं ने कह दिया तो कह दिया,’’ रानी ने अपना अंतिम फैसला सुना डाला और इसी के साथ चांटों की आवाज सुनाई दी थी गायत्री को.

रात गहरा गई थी. गायत्री सोने की कोशिश कर रही थीं. यह सोते समय चोटी बांधने का मसला क्यों? जरूर दिन की चोटियां रानी ने खोल दी होंगी. वह दौड़ कर दालान में पहुंचीं तो देखा कि प्रिया के बाल बिखरे हुए थे. साड़ी का आंचल जमीन पर लोट रहा था. एक चप्पल उस ने अपने हाथ में उठा रखी थी. बेटी का यह रूप देख कर गायत्री को जोरों की हंसी आ गई. मां की हंसी से चिढ़ कर प्रिया ने चप्पल नीचे पटक दी. रानी डर कर गायत्री के पीछे जा छिपी.

‘‘पता नहीं मैं ने किस करमजली को जन्म दिया है. हाय, जन्म देते समय मर क्यों नहीं गई,’’ प्रिया ने माथे पर हाथ मार कर रोना शुरू कर दिया.

अब गायत्री के लिए हंसना मुश्किल हो गया. हंसी रोक कर उन्होंने झिड़की दी, ‘‘क्या बेकार की बातें करती है. क्या तेरा मरना देखने के लिए ही मैं जिंदा हूं. बंद कर यह बकवास.’’

‘‘अपनी नातिन को तो कुछ कहती नहीं हो, मुझे ही दोषी ठहराती हो,’’ रोना बंद कर के प्रिया ने कहा और रानी को खा जाने वाली आंखों से घूरने लगी.

‘‘क्या कहूं इसे? अभी तो इस के खेलनेखाने के दिन हैं.’’

इस बीच गायत्री के पीछे छिपी रानी, प्रिया को मुंह चिढ़ाती रही.

प्रिया की नजर उस पर पड़ी तो क्रोध में चिल्ला कर बोली, ‘‘देख लो, इस कलमुंही को, मेरी नकल उतार रही है.’’

गायत्री ने इस बार चौंक कर देखा कि प्रिया अपनी बेटी की मां न लग कर उस की दुश्मन लग रही थी. अब उन के लिए जरूरी था कि वह नातिन को मारें और प्रिया को भी कस कर फटकारें. उन्होंने रानी का कान ऐंठ कर उसे साथ के कमरे में धकेल दिया और ऊंची आवाज में बोलीं, ‘‘प्रिया, रानी के लिए तू ऐसा अनापशनाप मत बका कर.’’

प्रिया गायत्री की बड़ी लड़की है और रानी, प्रिया की एकलौती बेटी. गरमियों में हर बार प्रिया अपनी बेटी को ले कर मां के सूने घर को गुलजार करने आ जाती है.

गायत्री ने अपने 8 बच्चों को पाला है. उन की लड़कियां भी कुछ उसी प्रकार बड़ी हुईं जिस तरह आज रानी बड़ी हो रही है. बातबात पर तनना, ऐंठना और चुप्पी साध कर बैठ जाना जैसी आदतें 8-10 वर्ष की उम्र से लड़कियों में शुरू होने लगती हैं. खेलने से मना करो तो बेटियां झल्लाने लगती हैं. पढ़ने के लिए कहो तो काटने दौड़ती हैं. घर का थोड़ा काम करने को कहो तो भी परेशानी और किसी बात के लिए मना करो तो भी.

प्रिया के साथ जो पहली घटना घटी थी वह गायत्री को अब तक याद है. उन्होंने पहली बार प्रिया को देर तक खेलते रहने के लिए चपत लगाई थी तो वह भी हाथ उठा कर तन कर खड़ी हो गई थी. गायत्री बेटी का वह रूप देख कर अवाक् रह गई थीं.

प्रिया को दंड देने के मकसद से घर से बाहर निकाला तो वह 2 घंटे का समय कभी तितलियों के पीछे भागभाग कर तो कभी आकाश में उड़ते हवाई जहाज की ओर मुंह कर ‘पापा, पापा’ की आवाज लगा कर बिताती रही थी पर उस ने एक बार भी यह नहीं कहा कि मां, दरवाजा खोल दो, मैं ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.

घड़ी की छोटी सूई जब 6 को भी पार करने लगी तब गायत्री स्वयं ही दरवाजा खोल कर प्रिया को अंदर ले आई थीं और उसे समझाते हुए कहा था, ‘ढीठ, एक बार भी तू यह नहीं कह सकती थी कि मां, दरवाजा खोल दो.’

प्रिया ने आंखें मिला कर गुस्से से भर कर कहा था, ‘मैं क्यों बोलूं? मेरी कितनी बेइज्जती की तुम ने.’

अपने नन्हे व्यक्तित्व के अपमान से प्रिया का गला भर आया था. गायत्री हैरान रह गई थीं. उस दिन के बाद से प्रिया का व्यवहार ही जैसे बदल सा गया था.

ऐसी ही एक दूसरी घटना गायत्री को नहीं भूलती जब वह सिरदर्द से बेजार हो कर प्रिया से बोली थीं, ‘बेटा, तू ये प्लेटें धो लेना, मैं डाक्टर के पास जा रही हूं.’

प्रिया मां की गोद में बिट्टो को देख कर ही समझ गई थी कि बाजार जाने का उस का पत्ता काट दिया गया है.

गायत्री बाजार से घर लौट कर आईं तो देखा कि प्रिया नदारद है और प्लेट, पतीला सब उसी तरह पड़े हुए थे. गायत्री की पूरी देह में आग लग गई पर बेटी से उलझने का साहस उन में न हुआ था. क्योंकि पिछली घटना अभी गायत्री भूली नहीं थीं. गोद के बच्चे को पलंग पर बैठा कर क्रोध से दांत किटकिटाते हुए उन्होंने बरतन धोए थे. चूल्हा जला कर खाना बनाने बैठ गई थीं.

इसी बीच प्रिया लौट आई थी. गायत्री ने सभी बच्चों को खाना परोस कर प्रिया से कहा था, ‘तुझे घंटे भर बाद खाना मिलेगा, यही सजा है तेरी.’

प्रिया का चेहरा फक पड़ गया था. मगर वह शांत रह कर थोड़ी देर प्रतीक्षा करती रही थी. उधर गायत्री अपने निर्णय पर अटल रहते हुए 1 घंटे बाद प्रिया को बुलाने पहुंचीं तो उस ने देखा कि वह दरी पर लुढ़की हुई थी.

गायत्री ने उसे उठ कर रसोई में चलने को कहा तो प्रिया शांत स्वर में बोली थी, ‘मैं न खाऊंगी, अम्मां, मुझे भूख नहीं है.’

गायत्री ने बेटी को प्यार से घुड़का था, ‘चल, चल खा और सो जा.’

प्रिया ने एक कौर भी न तोड़ा. गायत्री के पैरों तले जमीन खिसक गई थी. इस के बाद उन्होंने बहुत मनाया, डांटा, झिड़का पर प्रिया ने खाने की ओर देखा भी नहीं था. थक कर गायत्री भी अपने बिस्तर पर जा बैठी थीं. उस रात खाना उन से भी न खाया गया था.

दूसरे दिन प्रिया ने जब तक खाना नहीं खाया गायत्री का कलेजा धकधक करता रहा था.

उस दिन की घटना के बाद गायत्री ने फिर खाने से संबंधित कोई सजा प्रिया को नहीं दी थी. प्रिया कई बार देख चुकी थी कि गायत्री उस की बेहद चिंता करती थीं और उस के लिए पलकें बिछाए रहती थीं. फिर भी वह मां से अड़ जाती थी, उस की कोई बात नहीं मानती थी. इतना ही नहीं कई बार तो वह भाईबहन के युद्ध में अपनी मां गायत्री पर ताना कसने से भी बाज नहीं आती, ‘हां…हां…अम्मां, तुम भैया की ओर से क्यों न बोलोगी. आखिर पूरी उम्र जो उन्हीं के साथ तुम्हें रहना है.’

गायत्री ने कई घरों के ऐसे ही किस्से सुन रखे थे कि मांबेटियों में इस बात पर तनातनी रहती है कि मां सदा बेटों का पक्ष लेती हैं. वह इस बात से अपनी बेटियों को बचाए रखना चाहती थीं पर प्रिया को मां की हर बात में जैसे पक्षपात की बू आती थी.

ऐसे ही तानों और लड़ाइयों के बीच प्रिया जवानी में कदम रखते ही बदल गई थी. अब वह मां का हित चाहने वाली सब से प्यारी सहेली हो गई थी. जिस बात से मां को ठेस लग सकती हो, प्रिया उसे छेड़ती भी नहीं थी. मां को परेशान देख झट उन के काम में हाथ बंटाने के लिए आ जाती थी. मां के बदन में दर्द होता तो उपचार करती. यहां तक कि कोई छोटी बहन मां से अकड़ती, ऐंठती तो वही प्रिया उसे समझाती कि ऐसा न करो.

बेटों के व्यवहार से मां गायत्री परेशान होतीं तो प्रिया उन की हिम्मत बढ़ाती. गायत्री उस के इस नए रूप को देख चकित हो उठी थीं और उन्हें लगने लगा था कि औरत की दुनिया में उस की सब से पक्की सहेली उस की बेटी ही होती है.

यही सब सोचतेविचारते जब गायत्री की नींद टूटी तो सूरज का तीखा प्रकाश खिड़की से हो कर उन के बिछौने पर पड़ रहा था. रात की बातें दिमाग से हट गई थीं. अब उन्हें बड़ा हलका महसूस हो रहा था. जल्दी ही वह खाने की तैयारी में जुट गईं.

आटा गूंधते हुए उन्होंने एक बार खिड़की से उचक कर प्रिया के कमरे में देखा तो उन के होंठों पर हंसी आ गई. प्रिया रानी के सिरहाने बैठी उस का माथा सहला रही थी. गायत्री को लगा वह प्रिया नहीं गायत्री है और रानी, रानी नहीं प्रिया है. कभी ऐसे ही तो ममता और उलझन के दिन उन्होंने भी काटे हैं.

गायत्री ने चाहा एक बार आवाज दे कर रानी को उठा ले फिर कुछ सोच कर वह कड़ाही में मठरियां तलने लगीं. उन्हें लगा, प्रिया उठ कर अब बाहर आ रही है. लगता है रानी भी उठ गई है क्योंकि उस की छलांग लगाने की आवाज उन के कानों से टकराई थी.

अचानक प्रिया के चीखने की आवाज आई, ‘‘मैं देख रही हूं तेरी कारस्तानी. तुझे कूट कर नहीं धर दिया तो कहना.’’

कितना कसैला था प्रिया का वाक्य. अभी थोड़ी देर पहले की ममता से कितना भिन्न पर गायत्री को इस वाक्य से घबराहट नहीं हुई. उन्होंने देखा रानी, प्रिया के हाथों मंजन लेने से बच रही है. एकाएक प्रिया ने गायत्री की ओर देखा तो थोड़ा झेंप गई.

‘‘देखती हो अम्मां,’’ प्रिया चिड़चिड़ा कर बोली, ‘‘कैसे लक्षण हैं इस के? कल थोड़ा सा डांट क्या दिया कि कंधे पर हाथ नहीं धरने दे रही है. रात मेरे साथ सोई भी नहीं. मुझ से ही नहीं बोलती है मेरी लड़की. तुम्हीं बोलो, क्या पैरों में गिर कर माफी मांगूं तभी बोलेगी यह,’’ कह कर प्रिया मुंह में आंचल दे कर फूटफूट कर रो पड़ी.

ऐंठी, तनी रानी का सारा बचपन उड़ गया. वह थोड़ा सहम कर प्रिया के हाथ से मंजनब्रश ले कर मुंह धोने चल दी.

गायत्री ने जा कर प्रिया के कंधे पर हाथ रखा और झिड़का, ‘‘यह क्या बचपना कर रही है. रानी आखिर है तो तेरी ही बच्ची.’’

‘‘हां, मेरी बच्ची है पर जाने किस जन्म का बैर निकालने के लिए मेरी कोख से पैदा हुई है,’’ प्रिया ने रोतेसुबकते कहा, ‘‘यह जैसेजैसे समझदार होती जा रही है, इस के रंगढंग बदलते जा रहे हैं.’’

‘‘तो चिंता क्यों करती है?’’ गायत्री ने फुसफुसा कर बेहद ममता से कहा, ‘‘थोड़ा धीरज से काम ले, आज की सूखे डंडे सी तनी यह लड़की कल कच्चे बांस सी नरम, कोमल हो जाएगी. कभी इस उम्र में तू ने भी यह सब किया था और मैं भी तेरी तरह रोती रहती थी पर देख, आज तू मेरे सुखदुख की सब से पक्की सहेली है. थोड़ा धैर्य रख प्रिया, रानी भी तेरी सहेली बनेगी एक दिन.’’

‘‘क्या?’’ प्रिया की आंखें फट गईं.

‘‘क्यों अम्मां, मैं ने भी कभी आप का इसी तरह दिल दुखाया था? कभी मैं भी ऐसे ही थी सच? ओह, कैसा लगता होगा तब अम्मां तुम्हें?’’

बेटी की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू देख कर गायत्री की ममता छलक उठी और उन्होंने बेटी के आंसुओं को आंचल में समेट कर उसे गले से लगा लिया.

लेखक- चंद्रभान ‘राही’

Mother’s Day 2024 : सासुमां के सात रंग – ससुराल में नई बहू का आना

जब मैं नईनई बहू बन कर ससुराल आई तो दूसरी बहुओं की तरह मेरे मन में भी सास नाम के व्यक्तित्व के प्रति भय व शंका सी थी. सहेलियों व रिश्तेदारों की चर्चा में हर कहीं सास की हिटलरी तानाशाही का उल्लेख रहता. जब पति के घर गई तो मालूम हुआ कि मेरे पति कुछ ही दिनों बाद विदेश चले जाएंगे. नया घर, नए लोग, नया वातावरण और एकदम नया रिश्ता. मुझे तो सोच कर ही घबराहट हो रही थी.

कुछ दिनों का साथ निभा कर मेरे पति नरेन को दूर देश रवाना होना था. इसी क्षण मुझे सासुमां का पहला रंग स्पष्ट रूप से ज्ञात हुआ. आवश्यक रीतिरिवाज व पार्टी वगैरह के बाद सासुमां ने ऐलान किया कि आज से 2 माह के लिए बहू ऊषा और नरेन दोनों उस संस्था के मकान में रहने चले जाएंगे, जहां नरेन काम करते हैं. नरेन द्वारा आनाकानी करने पर वे दृढ़ शब्दों में बोलीं, ‘‘ऊषा को समय देना तुम्हारा पहला कर्तव्य है. आखिर तुम्हारी अनुपस्थिति में वह तुम्हारी यादें ले कर ही तो यहां शांति से रह पाएगी.’’

विदेश यात्रा के 2 दिन पूर्व हम लोग सासुमां के पास आए. 26 साल तक जो बेटा उन के तनमन का अंश बन कर रहा, उस जिगर के टुकड़े को एक अनजान लड़की को किस सहजता से उन्होंने सौंप दिया, यह सोच कर मैं अभिभूत हो उठी. नरेन को विदा कर हम लोग जब लौटे तो मेरी आंखों के आंसू अंदर ही अंदर उफन रहे थे. सोच रही थी फूटफूट कर रो लूं, पर इतने नए लोगों के बीच यह अत्यंत मुश्किल था. रास्ते के पेड़पौधों को यों ही मैं देख रही थी. अचानक मैं ने सासुमां का हाथ अपने कंधे पर महसूस किया.

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सासुमां के स्पर्श ने मेरी भावनाओं के सारे बंधन तोड़ दिए. मैं ने अपना सिर उन की गोद में रख दिया और आंसुओं को बह जाने दिया. अब मुझे कोई भय, कोई संकोच, कोई दुविधा न थी. सासुमां की ममता के रंग ने मुझे आश्वस्त कर दिया था, ‘मैं अकेली नहीं हूं. मेरे साथ मेरी मां है.’ सासुमां का दूसरा रंग मैं ने छोटे देवर की शादी में देखा. बरात विदा होने से पहले लक्ष्मीपूजन का कार्यक्रम था. वधू पक्ष द्वारा लिया गया सजासजाया हौल, साजोसामान सब उन्होंने नकार दिया और अपनी ओर से पूरा खर्च कर लक्ष्मीपूजन संपन्न किया.’’

उन के अंदर के हठ का रंग मुझे करीब 10 वर्ष बाद देखने को मिला. ससुरजी ने मकान बनाने के लिए जो योजना बनाई थी, वह सिवा सासूमां के, सब को पसंद थी. ससुरजी 4 शयनकक्षों और एक हौल वाला दोमंजिला बंगला बनवाना चाहते थे. नीचे 2-2 शयनकक्ष और रसोईघर वाले 2 फ्लैट और ऊपर 2 शयनकक्ष के साथ एक बड़ा हौल, रसोई समेत बनवाया जाए. नीचे बगीचे और गैरेज के लिए जगह रखी जाए. एक दिन ससुरजी कागजों का एक पुलिंदा लाए और बोले, ‘‘लो वसंती, तुम्हारी इच्छानुसार मकान का नक्शा बनवा कर लाया हूं. अब उठ कर मेरे साथ कुछ खापी लो.’’

सासुमां के चेहरे पर विजय की एक स्निग्ध रेखा अभर आई. इस घटना के वर्षों बाद मुझे अपनी सासुमां के सत्याग्रह का असली अर्थ समझ में आया. 4 हिस्से वाले इस घर में रहते हुए पूरे परिवार में जो सुख, शांति और अपनत्व है, उस का श्रेय सासुमां के उस सत्याग्रह व दूरदृष्टि को जाता है.

सासुमां के अंदर की ईर्ष्या का रंग तब अचानक ही उभर आता जब नानीसास हम से मिलने आतीं, हमारे लिए तरहतरह के कीमती उपहार लातीं. महंगी साड़ी सासुमां को भेंट देतीं और पूरे समय अपने डाक्टर बेटे की दौलत, व्यवसाय और प्रतिष्ठा का गुणगान करतीं. नानीमां जितने दिन रहतीं, सासुमां विचलित और अशांत रहतीं. किसी का भी दिल न दुखाने वाली सासुमां का अपनी ही मां से किया जाने वाला रूखा व्यवहार मेरी समझ से बाहर था.

एक दिन हमेशा की तरह ‘मामापुराण’ शुरू हुआ था. ‘‘अब बस भी करो अम्मा,’’ सासुमां ने रुखाई से कहा.

‘‘कमाल है,’’ नानीमां अचकचा कर बोलीं, ‘‘सगे भाई की दौलत, खुशी की तारीफ तुझ से सही नहीं जाती. देख रही हूं तुझे तो कांटा ही चुभ रहा है.’’ सासुमां ने सीधे अपनी मां की ओर तीव्र दृष्टि डाली और कड़े शब्दों में बोलीं, ‘‘सो क्यों है, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो.’’

इस घटना के बाद नानीमां जब भी हमारे घर आतीं, मामाजी की दौलत और प्रतिष्ठा के बारे में अपना मुंह बंद ही रखतीं. काफी समय बाद सासुमां के इस व्यवहार का असली कारण मुझे तब पता चला जब मेरी बेटी सुरभि का मैडिकल में दाखिला होना था. उसी समय सुधीर, मेरे बेटे, को रीजनल कालेज में प्रवेश लेना था. सुरभि और सुधीर, दोनों को बाहर छात्रावास में रख कर पढ़ाई का खर्र्च उठाना संभव नहीं था. लिहाजा, हम ने सुरभि को घर में रह कर एमएससी करने को कहा. लेकिन सासुमां ने जब सुना तो बहुत नाराज हुईं, ‘‘सुधीर के लिए सुरभि के भविष्य की बलि क्यों चढ़ा रही हो. सुधीर को स्थानीय कालेज में इंजीनियरिंग पढ़ने दो, सुरभि का खर्च मैं उठाऊंगी. आखिर मेरे जेवर किस काम आएंगे. मैं नहीं चाहती कि एक और वसंती को अपने स्वप्नों के टूटने का दुख भोगना पड़े.’’

तब मैं ने जाना कि डाक्टर मामा की खातिर ही सासुमां का डाक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया था. मेरे बेटे सुधीर की शादी के लिए 6 दिन बचे थे. घर में नाचगाने की योजना थी. सहभोज और वीडियो शूटिंग का कार्यक्रम था. अचानक ससुरजी का पैर फिसला और पैर की हड्डी टूट गई. उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. जाहिर है, ऐसे में सासुमां को ससुरजी की देखभाल के लिए अस्पताल में ही रहना था. ससुरजी की तबीयत संभलने के तीसरे दिन सासुमां घर वापस आईं और सन्नाटा व उदास माहौल देख कर बोलीं, ‘‘अरी ऊषा, यह शादी का घर है क्या? न कहीं रौनक, न कहीं उत्साह…’’

‘‘वह क्या है…’’ मैं दुविधा में बोली. ‘‘अब रहने भी दे, 2 दिन के लिए मैं घर छोड़ कर क्या गई, सब के सब एकदम सुस्त हो गए,’’ वे नाराज हो कर बोलीं. फिर नरेन से बोलीं, ‘‘तेरे पिताजी की तबीयत अब ठीक है, आज तुम दोनों भाई उन के साथ रहना. मैं कल सुबह अस्पताल आऊंगी. घर में 2-2 बहुएं हैं, 2-2 लड़कियां हैं, पर शादी का घर तो एकदम भूतघर जैसा लग रहा है. मेरे पोते की शादी में ऐसी खामोशी क्यों भला, ऐसा खुशी का मौका क्या बारबार आता है?’’

फिर क्या पूछना, उस रात ऐसी महफिल जमी कि आज तक भुलाए नहीं भूलती. देररात तक संगीतसमारोह की रौनक रही. सासुमां खुद खूब नाचीं और हर एक को उठाउठा कर हाथ पकड़ कर खूब नचाया.

सुबह हुई तो स्नान कर के वे अस्पताल के लिए चल दीं. मैं उन की ममता और स्नेह से अभिभूत थी. अपने दुख, अपनी चिंता, परेशानी को छिपा कर उन्होंने किस तरह मेरी खुशी को महत्त्व दिया था, उसे मैं कभी नहीं भूल पाती. उत्साह का वह रंग कभीकभार आज भी उन में उभर आता है. सासुमां के व्यक्तित्व के 7 रंगों में एक रंग और था और वह था, अंधविश्वास का. घर में कोई भी समस्या हो, निवारण हेतु वे सब से पहले गुरुजी के पास दौड़ी जातीं. फिर मनौती, चढ़ावा, पूजा, हवन वगैरह का दौर शुरू हो जाता.

एक बार छोटे देवर ट्रैकिंग पर गए हुए थे. प्रतिदिन वहां के समाचारों में बादल, वर्षा, तूफान का जिक्र रहता. जब वे निश्चित समय तक नहीं लौटे तो हम सभी चिंता से व्याकुल हो गए. सासुमां ने तुरंत गुरुजी की सलाह ली और दूसरे दिन से अंधेरे में स्नानध्यान कर गीले कपड़ों में मंदिर जाने लगीं.

‘‘अम्मा, इस तरह परेशानी पर परेशानी बढ़ाओगी क्या. अब तुम भी बीमार पड़ कर रहीसही कसर पूरी कर दो,’’ एक दिन नरेन बरस पड़े. अम्माजी ने शांतसहज उत्तर दिया, ‘‘भोलेनाथ की कृपा से हरेंद्र जल्दी घर वापस आएगा और रही मेरी बात, तो मुझे कुछ नहीं होगा. देखना, तेरा पोता गोद में खिलाने के बाद ही मरूंगी.’’

वक्तबेवक्त नहाने, खाने और सोने से एक दिन जब सासुमां मंदिर में ही मूर्च्छित हो गईं तो उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. 15 दिन बाद देवरजी सकुशल लौटे. आते ही सासुमां ने उन्हें गले लगा लिया और भावविह्वल स्वर में बोलीं, ‘‘मेरे भोलेनाथ की कृपा से तुम मौत के मुंह से लौटे हो.’’

देवरजी अवाक उन की तरफ देखते रहे और बोले, ‘‘क्या कह रही हो अम्मा, मैं और मौत के मुंह में, कुछ समझ नहीं आ रहा है…’’ पूरी बात बताने पर वे उन पर बरस पड़े, ‘‘अम्मा, जाने कैसेकैसे लोग तुम्हारे इस अंधविश्वास का फायदा उठा कर तुम से पैसे ऐंठ लेते हैं. इस व्रतउपवास के चक्कर में तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है. मैं तो नहीं पर तुम खुद ही अपने इन अंधविश्वासों के कारण मौत के मुंह में जा रही थीं.’’

देवरजी ने बताया कि उन का ट्रैकिंग कार्यक्रम अचानक स्थगित हो गया और उन्हें वहीं से औफिस के काम से मुंबई जाना पड़ा. इस की जानकारी उन्होंने पत्र द्वारा घर भेज दी थी. पर संभवतया किसी कारण से पत्र मिला नहीं. वह दिन और आज का दिन, सासुमां ने नजर उतारना, मनौती, चढ़ावा सब छोड़ दिया है. अपनी इतनी पुरानी मान्यता तो छोड़ पाना उन की दृढ़ता का ही परिचायक था.

सासुमां में सही समय पर विरक्ति का रंग भी छलक उठा. मेरे बेटे के संपन्न ससुराल वाले अपनी बेटी को वे सब सुविधाएं देना चाहते थे, जिन की वह आदी थी. लेकिन सासुमां की इच्छानुसार हम ने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया. जैसेजैसे समय बीतता गया, हम ने महसूस किया कि उन सुविधाओं के अभाव में बहू को यहां समझौता करना मुश्किल हो रहा है.

हम दुविधा में थे, इधर बहू भी अशांत थी. लेकिन अम्माजी समधियाने का सामान लेने में खुद को अपमानित महसूस करती थीं. हमारी उलझन को समझ कर एक दिन वे बोलीं, ‘‘बहू, अब सीढ़ी चढ़नाउतरना मुझ से होता नहीं. मेरे रहने के लिए नीचे ही इंतजाम कर दो. तुम लोग ऊपर के दोनों हिस्सों में चले जाओ. बुढ़ापे में मोहमाया जरा कम कर लेने दो. अब मुझे घर की जवाबदारी से मुक्त करो, न सलाह मांगो, न देखभाल का जिम्मा दो.’’ तब से अब तक सासुमां अपनेआप में मगन हैं. उन्होंने अपने चारों तरफ विरक्ति की दीवार खड़ी कर ली है, पर उस विरक्ति में रूखापन नहीं है. वे आज भी उतनी ही ममतामयी और जागरूक हैं, जितनी पहले थीं.

आश्चर्य की बात तो यह है कि बहू का ज्यादा से ज्यादा समय अपनी दादीसास के साथ ही गुजरता है. वह अपनी दादीसास की सब से ज्यादा लाड़ली है. उस ने भी महसूस कर लिया है कि अपने परिवार की सुखशांति के लिए ही दादीमां खुद ही तटस्थ हो गई हैं. अपने अधिकारों को छोड़ कर वे सब के कल्याण में लगी हुई हैं.

Mother’s Day 2024 : दोबारा आना – मां की हरकतें देख क्या एहसास हुआ

मां के कमरे से जोरजोर से चिल्लाने की आवाज सुन कर नीरू ने किताबें टेबल पर ही एक किनारे खिसकाईं और मां के कमरे की ओर बढ़ गई. कमरे में जा कर देखा तो मां कस कर अपने होंठ भींचे और आंखें बंद किए पलंग पर बैठी थीं. आया हाथ में मग लिए उन से कुल्ला करने के लिए कह रही थी. नीरू के पैरों की आहट पा कर मां ने धीरे से अपनी आंखें खोलीं और फिर आंखें बंद कर के ऐसे बैठ गईं जैसे कुछ देखा ही न हो.

नीरू को देखते ही आया दुखी स्वर में बोली, ‘‘देखिए न दीदी, मांजी कितना परेशान कर रही हैं. एक घंटे से मग लिए खड़ी हूं पर मांजी अपना मुंह ही नहीं खोल रही हैं. मुझे दूसरे काम भी तो करने हैं. आप ही बताइए अब मैं क्या करूं?’’

मां की मुखमुद्रा देख कर नीरू को हंसी आ गई. उस ने हंस कर आया से कहा, ‘‘तुम जा कर अपना काम करो, मां को मैं संभाल लूंगी,’’ और यह कहतेकहते नीरू ने मग आया के हाथ से ले कर मां के मुंह के सामने लगा कर मां से कुल्ला करने के लिए कहा. पर मां छोटे बच्चे के समान मुंह बंद किए ही बैठी रहीं. तब नीरू ने उन्हें डांट कर कहा, ‘‘मां, जल्दी करो मुझे औफिस जाना है.’’

नीरू की बात सुन कर मां ने शैतान बच्चे की तरह धीरे से अपनी आधी आंखें खोलीं और मुंह घुमा कर बैठ गईं. परेशान नीरू बारबार घड़ी देख रही थी. आज उस के औफिस में उस की एक जरूरी मीटिंग थी. इसलिए उस का टाइम पर औफिस पहुंचना बहुत जरूरी था. पर मां तो कुछ भी समझना ही नहीं चाहती थीं.

थकहार कर नीरू ने उन के दोनों गाल प्यार से थपथपा कर जोर से कहा, ‘‘मां, मेरे पास इतना समय नहीं है कि तुम्हारे नखरे उठाती रहूं. अब जल्दी से मुंह खोलो और कुल्ला करो.’’

नीरू की बात सुन कर इस बार जब मां ने कुल्ला करने के लिए चुपचाप मुंह में पानी भरा तो नीरू ने चैन की सांस ली. थोड़ी देर तक नीरू इंतजार करती रही कि मां कुल्ला कर के पानी मग में डाल देंगी पर जब मां फिर से मुंह बंद कर के बैठ गईं तो नीरू के गुस्से का ठिकाना न रहा.

गुस्से में नीरू ने मां को झकझोर कर कहा, ‘‘मां, क्या कर रही हो? मैं तो थक गई हूं तुम्हारे नखरे सहतेसहते…’’ नीरू की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि मां ने थुर्र कर के अपने मुंह का पूरा पानी इस प्रकार बाहर फेंका कि एक बूंद भी मग में न गिर कर नीरू के मुंह पर और कमरे में फैल गया. यह देख कर नीरू को जोर से रुलाई आ गई.

रोतेरोते उस ने मां से कहा, ‘‘क्यों करती हो तुम ऐसा, क्या बिगाड़ा है मैं ने तुम्हारा? मैं अभी नहा कर साफ कपड़े पहन कर औफिस जाने के लिए तैयार हुई थी और तुम ने मेरे कपड़े और कमरा दोनों ही फिर से गंदे कर दिए. तुम दिन में कितनी बार कमरा गंदा करती हो, कुछ अंदाजा है तुम्हें? आज आया 5 बार पोंछा लगा चुकी है. अगर आया ने काम छोड़ दिया तो? मां तुम समझती क्यों नहीं, मैं अकेली क्याक्या करूं?’’ कहती हुई नीरू अपनी आंखें पोंछती मां के कमरे से बाहर चली गई.

अपने ही कहे शब्दों पर नीरू चौंक गई. उसे लगा उस ने ये शब्द पहले किसी और के मुंह से भी सुने हैं. पर कहां?

औफिस पहुंच कर नीरू मां और घर के बारे में ही सोचती रही. पिताजी की मृत्यु के बाद मां ने अकेले ही चारों भाईबहनों को कितनी मुश्किल से पाला, यह नीरू कभी भूल नहीं सकती. नौकरी, घर, हम छोटे भाईबहन और अकेली मां. हम चारों भाईबहन मां की नाक में दम किए रहते. कभीकभी तो मां रो भी पड़ती थीं. कभी पिताजी को याद कर के रोतेरोते कहती थीं, ‘‘कहां चले गए आप मुझे अकेला छोड़ कर. मैं अकेली क्याक्या करूं.’’

अरे, मां ही तो कहती थीं, ‘मैं अकेली क्याक्या करूं,’ मां तो सचमुच अकेली थीं. मेरे पास तो काम वाली आया, कुक सब हैं. बड़ा सा घर है, रुपयापैसा और सब सुविधाएं मौजूद हैं. तब भी मैं चिड़चिड़ा जाती हूं. अब मैं मां पर अपनी चिढ़ कभी नहीं निकालूंगी. मां की मेहनत से ही तो मुझे ये सबकुछ मिला है वरना मैं कहां इस लायक थी कि आईआईटी में नौकरी कर पाती.

कितनी मेहनत की, कितना समय लगाया मेरे लिए. अभी दिन ही कितने हुए हैं जब छोटी बहन मीतू ने मुझ से कहा था, ‘मां की वजह से तुम इस मुकाम तक पहुंची हो वरना हम सभी तो बस किसी तरह जी रहे हैं. हम तो चाह कर भी मां को कोई सुख नहीं दे सकते. वैसे तुम ने बचपन में मां को कितना परेशान किया है, तुम भूली नहीं होगी. अब मां इसी जन्म में अपना हिसाब पूरा कर रही हैं.’ आज लगता है कि सच ही तो कहती है मेरी बहन.

शाम को नीरू मां की पसंद की मिठाई ले कर घर गई. घर में कुहराम मचा था. आया मां के कमरे के बाहर बैठी रो रही थी और अंदर कमरे में मां जोरजोर से चिल्ला रही थीं. नीरू को देखते ही आया दौड़ कर उस के पास आई और रोतेरोते बोली, ‘‘दीदी, अब आप दूसरी आया रख लीजिए, मुझ से आप का काम नहीं हो पाएगा.’’

‘‘क्या हुआ?’’ नीरू ने परेशान हो कर पूछा, ‘‘काम छोड़ने की बात क्यों कर रही हो. मां पहले से ऐसी नहीं थीं. तुम बरसों से हमारे यहां काम कर रही हो. अच्छी तरह से जानती हो कि मां कुछ सालों से बच्चों जैसा व्यवहार करने लगी हैं. अब इस कठिन समय में अगर तुम चली जाओगी तो मैं क्या करूंगी? तुम्हारे सहारे ही तो मैं घर और औफिस दोनों संभाल पाती हूं. अच्छा चलो, मैं तुम्हारे पैसे बढ़ा दूंगी पर काम मत छोड़ना, प्लीज. मैं मां को भी समझाऊं्रगी.

‘‘अब बताओ, हुआ क्या है, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं ने मांजी से बारबार कहा कि कपड़े गंदे न करें, जरूरत पड़ने पर मुझे बताएं. सुबह मैं ने उन से बाथरूम चलने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया और दो मिनट बाद ही बिस्तर गंदा कर दिया. मैं ने उन की सफाई के साथ ही साथ उन से नहाने के लिए भी कहा तो वे बोलीं, ‘पानी कमरे में ही ले आओ, मैं कमरे में ही नहाऊंगी.’ बहुत समझाने पर भी जब मांजी नहीं मानीं तो मैं पानी कमरे में ले आई. वैसे भी अकेले मेरे लिए मांजी को उठाना मुश्किल था. मैं ने सोचा था कि गीले कपड़े से पोंछ दूंगी, फिर खाना खिला दूंगी. पर मांजी ने तो गुस्से में पैर से पानी की पूरी बालटी ही उलट दी और खाने की थाली उठा कर नीचे फेंक दी. मैं तो दिनभर कमरा साफ करकर के थक जाती हूं.’’

नीरू ने मां के कमरे में पैर रखा तो उस का दिल घबरा गया. पूरे कमरे में पानी ही पानी भरा था. खाने की थाली एक ओर पड़ी थी और कटोरियां दूसरी तरफ. रोटी, दाल, चावल सब जमीन पर फैले थे. मां मुंह फुलाए बिस्तर पर बैठी थीं.

नीरू ने मां के पास जा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, खाना क्यों नहीं खाया? तुम ने कल रात को भी खाना नहीं खाया. इस तरह तो तुम कमजोर हो जाओगी.’’

मैं आया के हाथ का खाना नहीं खाऊंगी, आया गंदी है. उसे भगा दो. मुझ से कहती है कि मेरी शिकायत तुम से करेगी, फिर तुम मुझे डांटोगी. तुम डांटोगी मुझे?’’ मां ने किसी छोटे बच्चे की तरह भोलेपन से पूछा तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने मां के गले में हाथ डाल कर प्यार किया और कहा, ‘‘मैं अपनी प्यारी मां को अपने हाथों से खाना खिलाऊंगी. बोलो, क्या खाओगी?’’

‘‘मिठाई दोगी?’’ मां ने आशंकित हो कर कहा.

‘‘मिठाई? पर मिठाई तो खाना खाने के बाद खाते हैं. पहले खाना खा लो, फिर मिठाई खा लेना.’’

‘‘नहीं, पहले मिठाई दो.’’

‘‘नहीं, पहले खाना, फिर मिठाई.’’ नीरू ने मां की नकल उतार कर कहा तो मां ताली बजा कर खूब हंसीं और बोलीं, ‘‘बुद्धू बना रही हो, खाना खा लूंगी तो मिठाई नहीं दोगी. पहले मिठाई लाओ.’’

नीरू ने मिठाई ला कर सामने रख दी तो मां खुश हो कर बोलीं, ‘‘पहले एक पीस मिठाई, फिर खाना.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, लड्डू लोगी या रसगुल्ला?’’

‘‘रसगुल्ला,’’ मां ने खुश हो कर कहा.

नीरू ने एक रसगुल्ला कटोरी में रख कर उन्हें दिया और उन के लिए थाली में खाना निकालने लगी. दो कौर खाने के बाद ही मां फिर खाना खाने में आनाकानी करने लगीं. ‘‘पेट गरम हो गया, अब और नहीं खाऊंगी,’’ मां ने मुंह बना कर कहा.

‘‘अच्छा, एक कौर मेरे लिए, मां. देखो, तुम ने कल भी कुछ नहीं खाया था, अभी दवाई भी खानी है और दवाई खाने से पहले खाना खाना जरूरी है वरना तबीयत बिगड़ जाएगी.’’

‘‘नहीं, मैं नहीं खा सकती. अब एक कौर भी नहीं.’’ तुम तो दारोगा की तरह पीछे लग जाती हो. मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता. मेरी अम्मा बनने चली हो. अब पेट में जगह नहीं है तो क्या करूं, पेट बड़ा कर लूं,’’ कहते हुए मां ने पेट फुला लिया तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने हंसते हुए थाली की ओर हाथ बढ़ाया तो मां ने समझा कि नीरू फिर उस से खाने के लिए कहेगी. सो, अपनी आंखें बंद कर के लेट गईं. तभी फोन की घंटी बजी तो नीरू फोन पर बात करने लगी. बात करतेकरते नीरू ने देखा कि मां ने धीरे से आंखें खोल कर देखा और रसगुल्ले की ओर हाथ बढ़ाया पर नीरू को अपनी ओर आते देखा तो झट से बोलीं, ‘‘हम रसगुल्ला थोड़े उठा रहे थे, हम तो उस पर बैठा मच्छर भगा रहे थे.’’

‘‘तुम्हें एक रसगुल्ला और खाना है?’’ नीरू ने हंस कर पूछा.

‘‘हां, मुझे रसगुल्ला बहुत अच्छा लगता है.’’

‘‘तो पहले रोटी खाओ, फिर रसगुल्ला भी खा लेना.’’

‘रसगुल्ला, कचौड़ी, कचौड़ी फिर रसगुल्ला, फिर कचौड़ी…’ मां मुंह ही मुंह में बुदबुदा रही थीं. नीरू ने सुना तो उसे हंसी आ गई.

‘‘शाम को मेहमान आने वाले हैं. तब तुम्हारी पसंद की कचौड़ी बनाऊंगी,’’ नीरू ने मां को मनाने के लिए कहा तो मां प्रसन्न हो कर बोलीं, ‘‘हींग वाली कचौड़ी?’’

‘‘हां, हींग वाली. लो, अब एक रोटी खा लो, फिर शाम को कचौड़ी खाना.’’

‘‘तो मैं शाम को रोटी नहीं खाऊंगी, हां. मुझे पेटभर कचौड़ी देना.’’

‘‘अच्छा बाबा. मैं तो इसलिए रोकती हूं कि मीठा और तलाभुना खाने से तुम्हारी शुगर बढ़ जाती है. आज शाम को जो तुम कहोगी मैं तुम्हें वही खिलाऊंगी पर अभी एक रोटी खाओ.’’

नीरू ने मां को रोटी खाने के लिए मना ही लिया.

शाम को मां अपने कमरे में अकेली बैठी कसमसा रही थीं. बाहर के कमरे से लगातार बातों के साथसाथ हंसने की भी आवाजें आ रही थीं. ‘क्या करूं, नीरू को बुलाने के लिए आवाज दूं क्या? नहींनहीं, नीरू गुस्सा करेगी. तो फिर? मन भी तो नहीं लग रहा है. मैं भी उसी कमरे में चली जाऊं तो? ये मेहमान भी चले क्यों नहीं जाते. 2 घंटे से चिपके हैं. अभी न जाने कितनी देर तक जमे रहेंगे. मैं पूरे दिन नीरू का इंतजार करती हूं कि शाम को नीरू के साथ बातें करूंगी वरना इस कमरे में अकेले पड़ेपड़े कितना जी घबराता है, किसी को क्या पता?’

अचानक मां के कमरे से ‘हाय मर गई. हे प्रकृति, तू मुझे उठा क्यों नहीं लेती,’ की आवाज आने लगी तो सब का ध्यान मां के कमरे की ओर गया. सब दौड़ते हुए कमरे में पहुंचे तो देखा मां अपने बिस्तर पर पड़ी कराह रही हैं. नीरू ने मां से पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, कराह क्यों रही हो?’’

‘‘मेरा पेट गरम हो रहा है. देखो, और गरम होता जा रहा है. गरमी बढ़ती जा रही है. खड़ीखड़ी क्या कर रही हो? मेरे पेट की आग से पूरा घर जल जाएगा. सब जल जाएंगे.’’

मां की बात सुन कर नीरू ने कहा, ‘‘चलो, अस्पताल चलते हैं.’’ फिर नीरू ने मेहमानों से कहा, ‘‘आप आराम से बैठें, मैं मां को डाक्टर को दिखा कर आती हूं.’’

समय की नजाकत को भांपते हुए मेहमानों ने भी कहा, ‘‘आप मां को अस्पताल ले जाएं, हम फिर कभी आ जाएंगे.’’

मेहमानों के जाते ही मां आराम से बैठ गईं और टीवी पर अपना मनपसंद सीरियल देखने लगीं. नीरू गाड़ी की चाबी ले कर कमरे में आई और मां से बोली, ‘‘चलो मां.’’

‘‘कहां?’’ मां ने हंस कर पूछा.

‘‘कहां? अस्पताल और कहां? अभी थोड़ी देर पहले तो तुम तड़प रही थीं,’’ नीरू ने अपना पर्स उठा कर कहा.

‘‘हां, पर अब मैं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘क्यों.’’

‘‘अब मेरी तबीयत ठीक हो गई. मैं अस्पताल नहीं जाऊंगी.’’

‘‘अरे, फिर से पेट गरम हो गया तो आधी रात को जाना पड़ेगा.’’

‘‘नहीं, नहीं जाना पड़ेगा,’’ मां ने आराम से कहा.

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि मुझे कुछ हुआ नहीं. मैं तो एकदम ठीक हूं.’’

‘‘तो वह क्या था जो थोड़ी देर पहले हो रहा था?’’

‘‘वह तो मेहमानों को भगाने के लिए मैं ने नाटक किया था. अच्छा था न?’’ मां ने बड़ी मासूमियत से कहा तो नीरू ने अपना सिर पीट लिया.

अब वह मां को क्या बताती कि ये कोई रोज के बैठने वाले मेहमान नहीं थे. इन लोगों को उस ने अपनी बेटी के रिश्ते के लिए बुलाया था. पर क्या हो सकता है.

रोजरोज यही होता था. नीरू औफिस में भी घर की ही चिंता में डूबी रहती. पता नहीं मां ने घर में क्या तबाही मचाई होगी. आया होगी भी या काम छोड़ कर भाग गई होगी? घर जा कर जब सबकुछ ठीक देखती तो चैन की सांस लेती.

नीरू को चिंता में डूबा देख कर उस की सहेली ने पूछा, ‘‘क्या कोई परेशानी की बात तुम्हें खाए जा रही है? पता है आज मीटिंग में तुम्हारा ध्यान ही नहीं था. पता नहीं कहां और किस सोच में डूबी थी तुम. सब का ध्यान तुम्हारी तरफ लगा था. इस तरह तो तुम्हारी नौकरी चली जाएगी. घर, बच्चे और मां सब की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर ही तो है.’’

‘‘मां की चिंता ही तो मुझे खाए जा रही है. मां बिलकुल बच्चों जैसा व्यवहार करने लगी हैं. अब बच्चे के लिए तो यह सोच कर सब्र हो जाता है कि थोड़े दिनों की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा. पर मां के लिए क्या करूं?’’

‘‘गोद ले ले.’’

‘‘क्या कहा, फिर से तो कहना.’’

‘‘कह तो रही हूं, मां को गोद ले ले. उस से तेरी चिंता कम हो जाएगी.’’

‘‘दिमाग तो खराब नहीं हो गया तेरा? मैं अपनी मां को गोद ले लूं. अगर ले भी लूं तो क्या होगा?’’

‘‘होगा यह कि मां की परेशानी तुझे परेशान नहीं करेगी. तू ने यह तो सुना ही होगा कि बूढ़े और बच्चे बराबर होते हैं. बुढ़ापा बचपन का दोबारा आना होता है. बुढ़ापे में मनुष्य की आदतें, बात, व्यवहार, जिद सब में बचपना दिखाई देने लगता है. अगर हम उन्हें बच्चा समझ कर ही लें तो उन की हरकतों पर गुस्से की जगह प्यार आने लगेगा और घर का माहौल भी अच्छा हो जाएगा.

‘‘अब हम उन से तो यह उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि वे बदल जाएं. बदलना तो हमें पड़ेगा.

‘‘तू अपने मन में यह मान ले कि अब वे तेरी बच्ची हैं और तुझे उन का वैसे ही ध्यान रखना है जैसे कभी वे तुम्हारा रखती थीं. जब भी तुम्हें उन की कोई बात बुरी लगे, तुम अपने बचपन की कोई ऐसी घटना याद करना और उस घटना पर मां की प्रतिक्रिया भी. मुझे यकीन है तेरा गुस्सा कम हो जाएगा. यार, अब हमारी बारी है कुछ करने की.’’

‘‘मम्मी, अकेले बैठीबैठी हंस क्यों रही हो?’’ नीरू कमरे में अकेली बैठी हंस रही थी, तभी उस की बेटी रितु ने पूछा.

‘‘मैं अपने बचपन को याद कर रही थी. पता है, मैं मां को बहुत तंग करती थी. एक बार मेरी घड़ी खराब हो गई तो मैं अड़ गई कि जब तक नई घड़ी नहीं आएगी, मैं स्कूल नहीं जाऊंगी. छोटे से उस शहर में घड़ी की कोई अच्छी दुकान भी नहीं थी. तब मां पास के शहर जा कर मेरे लिए नई घड़ी लाई थीं. बहुत प्यार करती हैं मां मुझे.’’

‘‘अच्छा, तो तुम उन पर गुस्सा क्यों करती हो?’’ रितु ने पूछा.

‘‘वह तो उन की परेशानी देख कर गुस्सा आ जाता है. पर अब मैं गुस्सा नहीं करूंगी.’’

‘‘क्यों? अब ऐसा क्या हो गया?’’

‘‘तुम्हें क्या पता, जब मेरी शादी के बाद तुम्हारे दादादादी मुझे बहुत तंग करने लगे और तुम्हारे पापा भी उन्हीं की भाषा बोलने लगे तब मां मुझे वहां से अपने पास ले आईं. मैं तो उस दुख से कभी उबर ही न पाती अगर मां मुझे सहारा न देतीं.

‘‘अदालतों के चक्कर लगालगा कर, अपने जेवर बेच कर उन्होंने तुम्हारे पापा से न सिर्फ तलाक दिलवाया, मुझे नौकरी करने के लिए प्रेरित भी किया. आज मैं जो भी हूं, यह उन्हीं की मेहनत का फल है. अब मेहनत करने की बारी मेरी है.

‘‘अब मैं ने उन्हें गोद ले लिया है. अब मैं उन की मां हूं और वे मेरी प्यारी सी बच्ची. मैं उन की हर बचकानी हरकत का आनंद लूंगी. वैसे ही जैसे जब तुम छोटी थी तो तुम्हारी शैतानियों, बचकानी बातों पर मैं खुश होती थी. अब यह समय मां के बचपन का पुनरागमन ही तो है. आओ, हम सब मिल कर मां की शैतानियों का आनंद उठाएं. चलो, चलो, चलो मां के कमरे में मस्ती करेंगे सब, मां के साथ.’’

‘‘नानी उठो, हम आप के साथ मस्ती करने आए हैं,’’ रितु ने कमरे के बाहर से ही चिल्ला कर कहा पर अंदर पहुंच कर जब नानी को सोते देखा तो मायूसी से नीरू से कहा, ‘‘मां, नानी तो आज अभी से सो गईं. चलिए, हम बाहर का चक्कर लगा कर आते हैं.’’

अभी नीरू कमरे के दरवाजे तक ही पहुंची थी कि ऐसी आवाज आने लगी जैसे कोई कुछ खा रहा हो. नीरू तुरंत मुड़ी और उस ने मां की चद्दर खींच दी. चद्दर हटते ही मां घबरा कर बैठ गईं. उन्होंने अपने दोनों हाथ पीछे छिपा लिए.

‘‘दिखाओ मां, तुम्हारे हाथों में क्या है? क्या छिपा रही हो, मुझे दिखाओ?’’ कहते हुए नीरू ने मां के दोनों हाथ पकड़ कर सामने कर लिए, तो देखा मां के हाथों में अधखाए मीठे बिसकुट थे. अगर कोई और दिन होता तो नीरू जोर से चिल्ला कर पूरा घर सिर पर उठा लेती.  शुगर बढ़ जाने की चिंता करती पर आज उसे याद आया अपना बचपन जब वह मां के सोने के बाद दोपहर में फ्रिज से निकाल कर स्टोर में छिप कर आईसक्रीम खाती थी. बस, यह याद आते ही उसे हंसी आ गई. उसे आज मां छोटी बच्ची सी लगीं और उस ने मां को प्यार से गले लगा लिया.

Mother’s Day 2024- मां: गु़ड्डी अपने बच्चों को आश्रम में छोड़कर क्यों चली गई

रात के 10 बजे थे. सुमनलता पत्रकारों के साथ मीटिंग में व्यस्त थीं. तभी फोन की घंटी बज उठी…

‘‘मम्मीजी, पिंकू केक काटने के लिए कब से आप का इंतजार कर रहा है.’’

बहू दीप्ति का फोन था.

‘‘दीप्ति, ऐसा करो…तुम पिंकू से मेरी बात करा दो.’’

‘‘जी अच्छा,’’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘हैलो,’’ स्वर को थोड़ा धीमा रखते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘पिंकू बेटे, मैं अभी यहां व्यस्त हूं. तुम्हारे सारे दोस्त तो आ गए होंगे. तुम केक काट लो. कल का पूरा दिन तुम्हारे नाम है…अच्छे बच्चे जिद नहीं करते. अच्छा, हैप्पी बर्थ डे, खूब खुश रहो,’’ अपने पोते को बहलाते हुए सुमनलता ने फोन रख दिया.

दोनों पत्रकार ध्यान से उन की बातें सुन रहे थे.

‘‘बड़ा कठिन दायित्व है आप का. यहां ‘मानसायन’ की सारी जिम्मेदारी संभालें तो घर छूटता है…’’

‘‘और घर संभालें तो आफिस,’’ अखिलेश की बात दूसरे पत्रकार रमेश ने पूरी की.

‘‘हां, पर आप लोग कहां मेरी परेशानियां समझ पा रहे हैं. चलिए, पहले चाय पीजिए…’’ सुमनलता ने हंस कर कहा था.

नौकरानी जमुना तब तक चाय की ट्रे रख गई थी.

‘‘अब तो आप लोग समझ गए होंगे कि कल रात को उन दोनों बुजुर्गों को क्यों मैं ने यहां वृद्धाश्रम में रहने से मना किया था. मैं ने उन से सिर्फ यही कहा था कि बाबा, यहां हौल में बीड़ी पीने की मनाही है, क्योंकि दूसरे कई वृद्ध अस्थमा के रोगी हैं, उन्हें परेशानी होती है. अगर आप को  इतनी ही तलब है तो बाहर जा कर पिएं. बस, इसी बात पर वे दोनों यहां से चल दिए और आप लोगों से पता नहीं क्या कहा कि आप के अखबार ने छाप दिया कि आधी रात को कड़कती सर्दी में 2 वृद्धों को ‘मानसायन’ से बाहर निकाल दिया गया.’’

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‘‘नहीं, नहीं…अब हम आप की परेशानी समझ गए हैं,’’ अखिलेशजी यह कहते हुए उठ खडे़ हुए.

‘‘मैडम, अब आप भी घर जाइए, घर पर आप का इंतजार हो रहा है,’’ राकेश ने कहा.

सुमनलता उठ खड़ी हुईं और जमुना से बोलीं, ‘‘ये फाइलें अब मैं कल देखूंगी, इन्हें अलमारी में रखवा देना और हां, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहना…’’

तभी चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया था.

‘‘मम्मीजी, बाहर गेट पर कोई औरत आप से मिलने को खड़ी है…’’

‘‘जमुना, देख तो कौन है,’’ यह कहते हुए सुमनलता बाहर जाने को निकलीं.

गेट पर कोई 24-25 साल की युवती खड़ी थी. मलिन कपडे़ और बिखरे बालों से उस की गरीबी झांक रही थी. उस के साथ एक ढाई साल की बच्ची थी, जिस का हाथ उस ने थाम रखा था और दूसरा छोटा बच्चा गोदी में था.

सुमनलता को देखते ही वह औरत रोती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी, मैं गुड्डी हूं, गरीब और बेसहारा, मेरी खुद की रोटी का जुगाड़ नहीं तो बच्चों को क्या खिलाऊं. दया कर के आप इन दोनों बच्चों को अपने आश्रम में रख लो मम्मीजी, इतना रहम कर दो मुझ पर.’’

बच्चों को थामे ही गुड्डी, सुमनलता के पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ी थी तो यह कहते हुए सुमनलता ने उसे रोका, ‘‘अरे, क्या कर रही है, बच्चों को संभाल, गिर जाएंगे…’’

‘‘मम्मीजी, इन बच्चों का बाप तो चोरी के आरोप में जेल में है, घर में अब दानापानी का जुगाड़ नहीं, मैं अबला औरत…’’

उस की बात बीच में काटते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘कोई अबला नहीं हो तुम, काम कर सकती हो, मेहनत करो, बच्चोें को पालो…समझीं…’’ और सुमनलता बाहर जाने के लिए आगे बढ़ी थीं.

‘‘नहीं…नहीं, मम्मीजी, आप रहम कर देंगी तो कई जिंदगियां संवर जाएंगी, आप इन बच्चों को रख लो, एक ट्रक ड्राइवर मुझ से शादी करने को तैयार है, पर बच्चों को नहीं रखना चाहता.’’

‘‘कैसी मां है तू…अपने सुख की खातिर बच्चों को छोड़ रही है,’’ सुमनलता हैरान हो कर बोलीं.

‘‘नहीं, मम्मीजी, अपने सुख की खातिर नहीं, इन बच्चों के भविष्य की खातिर मैं इन्हें यहां छोड़ रही हूं. आप के पास पढ़लिख जाएंगे, नहीं तो अपने बाप की तरह चोरीचकारी करेंगे. मुझ अबला की अगर उस ड्राइवर से शादी हो गई तो मैं इज्जत के साथ किसी के घर में महफूज रहूंगी…मम्मीजी, आप तो खुद औरत हैं, औरत का दर्द जानती हैं…’’ इतना कह गुड्डी जोरजोर से रोने लगी थी.

‘‘क्यों नाटक किए जा रही है, जाने दे मम्मीजी को, देर हो रही है…’’ जमुना ने आगे बढ़ कर उसे फटकार लगाई.

‘‘ऐसा कर, बच्चों के साथ तू भी यहां रह ले. तुझे भी काम मिल जाएगा और बच्चे भी पल जाएंगे,’’ सुमनलता ने कहा.

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‘‘मैं कहां आप लोगों पर बोझ बन कर रहूं, मम्मीजी. काम भी जानती नहीं और मुझ अकेली का क्या, कहीं भी दो रोटी का जुगाड़ हो जाएगा. अब आप तो इन बच्चों का भविष्य बना दो.’’

‘‘अच्छा, तो तू उस ट्रक ड्राइवर से शादी करने के लिए अपने बच्चों से पीछा छुड़ाना चाह रही है,’’ सुमनलता की आवाज तेज हो गई, ‘‘देख, या तो तू इन बच्चोें के साथ यहां पर रह, तुझे मैं नौकरी दे दूंगी या बच्चों को छोड़ जा पर शर्त यह है कि तू फिर कभी इन बच्चों से मिलने नहीं आएगी.’’

सुमनलता ने सोचा कि यह शर्त एक मां कभी नहीं मानेगी पर आशा के विपरीत गुड्डी बोली, ‘‘ठीक है, मम्मीजी, आप की शरण में हैं तो मुझे क्या फिक्र, आप ने तो मुझ पर एहसान कर दिया…’’

आंसू पोंछती हुई वह जमुना को दोनों बच्चे थमा कर तेजी से अंधेरे में विलीन हो गई थी.

‘‘अब मैं कैसे संभालूं इतने छोटे बच्चों को,’’ हैरान जमुना बोली.

गोदी का बच्चा तो अब जोरजोर से रोने लगा था और बच्ची कोने में सहमी खड़ी थी.

कुछ देर सोच में पड़ी रहीं सुमनलता फिर बोलीं, ‘‘देखो, ऐसा है, अंदर थोड़ा दूध होगा. छोटे बच्चे को दूध पिला कर पालने में सुला देना. बच्ची को भी कुछ खिलापिला देना. बाकी सुबह आ कर देखूंगी.’’

‘‘ठीक है, मम्मीजी,’’ कह कर जमुना बच्चों को ले कर अंदर चली गई. सुमनलता बाहर खड़ी गाड़ी में बैठ गईं. उन के मन में एक अजीब अंतर्द्वंद्व शुरू हो गया कि क्या ऐसी भी मां होती है जो जानबूझ कर दूध पीते बच्चों को छोड़ गई.

‘‘अरे, इतनी देर कैसे लग गई, पता है तुम्हारा इंतजार करतेकरते पिंकू सो भी गया,’’ कहते हुए पति सुबोध ने दरवाजा खोला था.

‘‘हां, पता है पर क्या करूं, कभीकभी काम ही ऐसा आ जाता है कि मजबूर हो जाती हूं.’’

तब तक बहू दीप्ति भी अंदर से उठ कर आ गई.

‘‘मां, खाना लगा दूं.’’

‘‘नहीं, तुम भी आराम करो, मैं कुछ थोड़ाबहुत खुद ही निकाल कर खा लूंगी.’’

ड्राइंगरूम में गुब्बारे, खिलौने सब बिखरे पडे़ थे. उन्हें देख कर सुमनलता का मन भर आया कि पोते ने उन का कितना इंतजार किया होगा.

सुमनलता ने थोड़ाबहुत खाया पर मन का अंतर्द्वंद्व अभी भी खत्म नहीं हुआ था, इसलिए उन्हें देर रात तक नींद नहीं आई थी.

सुमनलता बारबार गुड्डी के ही व्यवहार के बारे में सोच रही थीं जिस ने मन को झकझोर दिया था.

मां की ममता…मां का त्याग आदि कितने ही नाम से जानी जाती है मां…पर क्या यह सब झूठ है? क्या एक स्वार्थ की खातिर मां कहलाना भी छोड़ देती है मां…शायद….

सुबोध को तो सुबह ही कहीं जाना था सो उठते ही जाने की तैयारी में लग गए.

पिंकू अभी भी अपनी दादी से नाराज था. सुमनलता ने अपने हाथ से उसे मिठाई खिला कर प्रसन्न किया, फिर मनपसंद खिलौना दिलाने का वादा भी किया. पिंकू अपने जन्मदिन की पार्टी की बातें करता रहा था.

दोपहर 12 बजे वह आश्रम गईं, तो आते ही सारे कमरों का मुआयना शुरू कर दिया.

शिशु गृह में छोटे बच्चे थे, उन के लिए 2 आया नियुक्त थीं. एक दिन में रहती थी तो दूसरी रात में. पर कल रात तो जमुना भी रुकी थी. उस ने दोनों बच्चों को नहलाधुला कर साफ कपडे़ पहना दिए थे. छोटा पालने में सो रहा था और जमुना बच्ची के बालों में कंघी कर रही थी.

‘‘मम्मीजी, मैं ने इन दोनों बच्चों के नाम भी रख दिए हैं. इस छोटे बच्चे का नाम रघु और बच्ची का नाम राधा…हैं न दोनों प्यारे नाम,’’ जमुना ने अब तक अपना अपनत्व भी उन बच्चों पर उडे़ल दिया था.

सुमनलता ने अब बच्चों को ध्यान से देखा. सचमुच दोनों बच्चे गोरे और सुंदर थे. बच्ची की आंखें नीली और बाल भूरे थे.

अब तक दूसरे छोटे बच्चे भी मम्मीजीमम्मीजी कहते हुए सुमनलता के इर्दगिर्द जमा हो गए थे.

सब बच्चों के लिए आज वह पिंकू के जन्मदिन की टाफियां लाई थीं, वही थमा दीं. फिर आगे जहां कुछ बडे़ बच्चे थे उन के कमरे में जा कर उन की पढ़ाईलिखाई व पुस्तकों की बाबत बात की.

इस तरह आश्रम में आते ही बस, कामों का अंबार लगना शुरू हो जाता था. कार्यों के प्रति सुमनलता के उत्साह और लगन के कारण ही आश्रम के काम सुचारु रूप से चल रहे थे.

3 माह बाद एक दिन चौकीदार ने आ कर खबर दी, ‘‘मम्मीजी, वह औरत जो उस रात बच्चों को छोड़ गई थी, आई है और आप से मिलना चाहती है.’’

‘‘कौन, वह गुड्डी? अब क्या करने आई है? ठीक है, भेज दो.’’

मेज की फाइलें एक ओर सरका कर सुमनलता ने अखबार उठाया.

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‘‘मम्मीजी…’’ आवाज की तरफ नजर उठी तो दरवाजे पर खड़ी गुड्डी को देखते ही वह चौंक गईं. आज तो जैसे वह पहचान में ही नहीं आ रही है. 3 महीने में ही शरीर भर गया था, रंगरूप और निखर गया था. कानोें में लंबेलंबे चांदी के झुमके, शरीर पर काला चमकीला सूट, गले में बड़ी सी मोतियों की माला…होंठों पर गहरी लिपस्टिक लगाई थी. और किसी सस्ते परफ्यूम की महक भी वातावरण में फैल रही थी.

‘‘मम्मीजी, बच्चों को देखने आई हूं.’’

‘‘बच्चों को…’’ यह कहते हुए सुमनलता की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘मैं ने तुम से कहा तो था कि तुम अब बच्चों से कभी नहीं मिलोगी और तुम ने मान भी लिया था.’’

‘‘अरे, वाह…एक मां से आप यह कैसे कह सकती हैं कि वह बच्चों से नहीं मिले. मेरा हक है यह तो, बुलवाइए बच्चों को,’’ गुड्डी अकड़ कर बोली.

‘‘ठीक है, अधिकार है तो ले जाओ अपने बच्चों को. उन्हें यहां क्यों छोड़ गई थीं तुम,’’ सुमनलता को भी अब गुस्सा आ गया था.

‘‘हां, छोड़ रखा है क्योंकि आप का यह आश्रम है ही गरीब और निराश्रित बच्चों के लिए.’’

‘‘नहीं, यह तुम जैसों के बच्चों के लिए नहीं है, समझीं. अब या तो बच्चों को ले जाओ या वापस जाओ,’’ सुमनलता ने भन्ना कर कहा था.

‘‘अरे वाह, इतनी हेकड़ी, आप सीधे से मेरे बच्चों को दिखाइए, उन्हें देखे बिना मैं यहां से नहीं जाने वाली. चौकीदार, मेरे बच्चों को लाओ.’’

‘‘कहा न, बच्चे यहां नहीं आएंगे. चौकीदार, बाहर करो इसे,’’ सुमनलता का तेज स्वर सुन कर गुड्डी और भड़क गई.

‘‘अच्छा, तो आप मुझे धमकी दे रही हैं. देख लूंगी, अखबार में छपवा दूंगी कि आप ने मेरे बच्चे छीन लिए, क्या दादागीरी मचा रखी है, आश्रम बंद करा दूंगी.’’

चौकीदार ने गुड्डी को धमकाया और गेट के बाहर कर दिया.

सुमनलता का और खून खौल गया था. क्याक्या रूप बदल लेती हैं ये औरतें. उधर होहल्ला सुन कर जमुना भी आ गई थी.

‘‘मम्मीजी, आप को इस औरत को उसी दिन भगा देना था. आप ने इस के बच्चे रखे ही क्यों…अब कहीं अखबार में…’’

‘‘अरे, कुछ नहीं होगा, तुम लोग भी अपनाअपना काम करो.’’

सुमनलता ने जैसेतैसे बात खत्म की, पर उन का सिरदर्द शुरू हो गया था.

पिछली घटना को अभी महीना भर भी नहीं बीता होगा कि गुड्डी फिर आ गई. इस बार पहले की अपेक्षा कुछ शांत थी. चौकीदार से ही धीरे से पूछा था उस ने कि मम्मीजी के पास कौन है.

‘‘पापाजी आए हुए हैं,’’ चौकीदार ने दूर से ही सुबोध को देख कर कहा था.

गुड्डी कुछ देर तो चुप रही फिर कुछ अनुनय भरे स्वर में बोली, ‘‘चौकीदार, मुझे बच्चे देखने हैं.’’

‘‘कहा था कि तू मम्मीजी से बिना पूछे नहीं देख सकती बच्चे, फिर क्यों आ गई.’’

‘‘तुम मुझे मम्मीजी के पास ही ले चलो या जा कर उन से कह दो कि गुड्डी आई है…’’

कुछ सोच कर चौकीदार ने सुमनलता के पास जा कर धीरे से कहा, ‘‘मम्मीजी, गुड्डी फिर आ गई है. कह रही है कि बच्चे देखने हैं.’’

‘‘तुम ने उसे गेट के अंदर आने क्यों दिया…’’ सुमनलता ने तेज स्वर में कहा.

‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ सुबोध भी चौंक  कर बोले.

‘‘अरे, एक पागल औरत है. पहले अपने बच्चे यहां छोड़ गई, अब कहती है कि बच्चों को दिखाओ मुझे.’’

‘‘तो दिखा दो, हर्ज क्या है…’’

‘‘नहीं…’’ सुमनलता ने दृढ़ स्वर में कहा फिर चौकीदार से बोलीं, ‘‘उसे बाहर कर दो.’’

सुबोध फिर चुप रह गए थे.

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इधर, आश्रम में रहने वाली कुछ युवतियों के लिए एक सामाजिक संस्था कार्य कर रही थी, उसी के अधिकारी आए हुए थे. 3 युवतियों का विवाह संबंध तय हुआ और एक सादे समारोह में विवाह सम्पन्न भी हो गया.

सुमनलता को फिर किसी कार्य के सिलसिले में डेढ़ माह के लिए बाहर जाना पड़ गया था.

लौटीं तो उस दिन सुबोध ही उन्हें छोड़ने आश्रम तक आए हुए थे. अंदर आते ही चौकीदार ने खबर दी.

‘‘मम्मीजी, पिछले 3 दिनों से गुड्डी रोज यहां आ रही है कि बच्चे देखने हैं. आज तो अंदर घुस कर सुबह से ही धरना दिए बैठी है…कि बच्चे देख कर ही जाऊंगी.’’

‘‘अरे, तो तुम लोग हो किसलिए, आने क्यों दिया उसे अंदर,’’ सुमनलता की तेज आवाज सुन कर सुबोध भी पीछेपीछे आए.

बाहर बरामदे में गुड्डी बैठी थी. सुमनलता को देखते ही बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे अपने बच्चे देखने हैं.’’

उस की आवाज को अनसुना करते हुए सुमन तेजी से शिशुगृह में चली गई थीं.

रघु खिलौने से खेल रहा था, राधा एक किताब देख रही थी. सुमनलता ने दोनों बच्चों को दुलराया.

‘‘मम्मीजी, आज तो आप बच्चों को उसे दिखा ही दो,’’ कहते हुए जमुना और चौकीदार भी अंदर आ गए थे, ‘‘ताकि उस का भी मन शांत हो. हम ने उस से कह दिया था कि जब मम्मीजी आएं तब उन से प्रार्थना करना…’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, बाहर करो उसे,’’ सुमनलता बोलीं.

सहम कर चौकीदार बाहर चला गया और पीछेपीछे जमुना भी. बाहर से गुड्डी के रोने और चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. चौकीदार उसे डपट कर फाटक बंद करने में लगा था.

‘‘सुम्मी, बच्चों को दिखा दो न, दिखाने भर को ही तो कह रही है, फिर वह भी एक मां है और एक मां की ममता को तुम से अधिक कौन समझ सकता है…’’

सुबोध कुछ और कहते कि सुमनलता ने ही बात काट दी थी.

‘‘नहीं, उस औरत को बच्चे बिलकुल नहीं दिखाने हैं.’’

आज पहली बार सुबोध ने सुमनलता का इतना कड़ा रुख देखा था. फिर जब सुमनलता की भरी आंखें और उन्हें धीरे से रूमाल निकालते देखा तो सुबोध को और भी विस्मय हुआ.

‘‘अच्छा चलूं, मैं तो बस, तुम्हें छोड़ने ही आया था,’’ कहते हुए सुबोध चले गए.

सुमनलता उसी तरह कुछ देर सोच में डूबी रहीं फिर मुड़ीं और दूसरे कमरों का मुआयना करने चल दीं.

2 दिन बाद एक दंपती किसी बच्चे को गोद लेने आए थे. उन्हें शिशुगृह में घुमाया जा रहा था. सुमन दूसरे कमरे में एक बीमार महिला का हाल पूछ रही थीं.

तभी गुड्डी एकदम बदहवास सी बरामदे में आई. आज बाहर चौकीदार नहीं था और फाटक खुला था तो सीधी अंदर ही आ गई. जमुना को वहां खड़ा देख कर गिड़गिड़ाते स्वर में बोली थी, ‘‘बाई, मुझे बच्चे देखने हैं…’’

उस की हालत देख कर जमुना को भी कुछ दया आ गई. वह धीरे से बोली, ‘‘देख, अभी मम्मीजी अंदर हैं, तू उस खिड़की के पास खड़ी हो कर बाहर से ही अपने बच्चों को देख ले. बिटिया तो स्लेट पर कुछ लिख रही है और बेटा पालने में सो रहा है.’’

‘‘पर, वहां ये लोग कौन हैं जो मेरे बच्चे के पालने के पास आ कर खडे़ हो गए हैं और कुछ कह रहे हैं?’’

जमुना ने अंदर झांक कर कहा, ‘‘ये बच्चे को गोद लेने आए हैं. शायद तेरा बेटा पसंद आ गया है इन्हें तभी तो उसे उठा रही है वह महिला.’’

‘‘क्या?’’ गुड्डी तो जैसे चीख पड़ी थी, ‘‘मेरा बच्चा…नहीं मैं अपना बेटा किसी को नहीं दूंगी,’’ रोती हुई पागल सी वह जमुना को पीछे धकेलती सीधे अंदर कमरे में घुस गई थी.

सभी अवाक् थे. होहल्ला सुन कर सुमनलता भी उधर आ गईं कि हुआ क्या है.

उधर गुड्डी जोरजोर से चिल्ला रही थी कि यह मेरा बेटा है…मैं इसे किसी को नहीं दूंगी.

झपट कर गुड्डी ने बच्चे को पालने से उठा लिया था. बच्चा रो रहा था. बच्ची भी पास सहमी सी खड़ी थी. गुड्डी ने उसे भी और पास खींच लिया.

‘‘मेरे बच्चे कहीं नहीं जाएंगे. मैं पालूंगी इन्हें…मैं…मैं मां हूं इन की.’’

‘‘मम्मीजी…’’ सुमनलता को देख कर जमुना डर गई.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चे दे दो इसे,’’ सुमनलता ने धीरे से कहा था और उन की आंखें नम हो आई थीं, गला भी कुछ भर्रा गया था.

जमुना चकित थी, एक मां ने शायद आज एक दूसरी मां की सोई हुई ममता को जगा दिया था.            द्य

Mother’s Day 2024: ममता के रंग – कैसी थी प्राची की अम्मा

‘‘दीदी, वे लोग आ गए,’’ कहते हुए पोंछे को वहीं फर्श पर फेंकते हुए कजरी जैसे ही बाहर की तरफ दौड़ी, प्राची का दिल जोर से धड़क उठा. सिर पर पल्ला रखते हुए उस ने एक बार अपनेआप को आईने में देख लिया. सच, एकदम आदर्श बहू लग रही थी.

मन में उठ रही ढेरों शंकाओं ने प्राची को परेशान कर दिया. जब नईनवेली दुलहन ससुराल आती है, तब सास उस की आरती उतारती है. लेकिन यहां पर किस्सा उलटा था, बहू के घर सास पहली बार आ रही थी.

अम्मा प्राची और कुणाल के विवाह के खिलाफ थीं, इसलिए दोनों ने कोर्टमैरिज कर ली थी. शादी को साल भर होने जा रहा था कि अम्मा ने सूचित किया कि  वे आ रही हैं.

कई बार प्राची ने सोचा था कि स्टेशन जाने से पहले वह कुणाल से विस्तार से बात करेगी कि अम्मा के आते ही उसे उन का सामना कैसे करना है? लेकिन अम्मा के आने की सूचना मिलते ही घर सजानेसंवारने की व्यस्तता और खुशी से रोमांचित प्राची तो जैसे सबकुछ भूल गई थी.

‘‘प्राची,’’ बाहर से कुणाल की पुकार सुनते ही उस का चेहरा लाल हो गया. अम्मा का स्वागत उन के चरणों को छू कर ही करेगी, यह सोचते हुए वह बाहर निकल आई.

पर अम्मा को देखते ही जैसे पैरों में ब्रेक लग गए. उन का रूपरंग तो उस की कल्पना के उलट था. बौयकट बाल, होंठों पर गुलाबी लिपस्टिक और साड़ी के स्थान पर बगैर दुपट्टे का सूट देख कर वह स्तब्ध रह गई.

अम्मा की आधुनिक छवि को देख कर वह जैसे अपने ही स्थान पर जड़ हो गई थी. न आगे बढ़ कर चरणों को छू पाई, न ही हाथ जोड़ कर नमस्ते तक करने की औपचारिकता निभा पाई.

‘‘कुणाल, तुम्हारा चुनाव अच्छा है,’’ अम्मा ने अंगरेजी में कहा और प्राची के गालों को चूम लिया. पर प्राची का चेहरा शर्म से गुलनार न हो पाया.

कुणाल प्राची की उधेड़बुन से अनजान मां के कंधों को थामे लगातार बड़बड़ाता जा रहा था.

प्राची की आंखें यह सोच कर भर आईं कि मां की जो कमी उसे प्रकृति ने दी थी, वह कभी पूरी नहीं हो पाएगी. रसोई में अपने काम को अंतिम रूप देते हुए वह सोच रही थी, कितनी तारीफ करता था कुणाल अपनी अम्मा की, उन के ममत्व की. जो तसवीर कुणाल ने अपने कमरे में लगा रखी थी, उस में तो वास्तव में अम्मा आदर्श मां ही लग रही थीं. नाक में नथ, बड़ी सी बिंदी, कानों में झुमके, सीधे पल्ले की जरी वाली साड़ी, घने काले बाल…

प्राची के मन में अपनी मां की जो छवि रहरह कर उभरती, उस से कितनी मिलतीजुलती थी, कुणाल की अम्मा की तसवीर. इसीलिए तो अम्मा के प्रति प्राची बेहद भावुक थी.

जब भी कुणाल अम्मा की ममता का जिक्र करता, प्राची का ममता के लिए ललकता मन तड़प उठता. वह अम्मा को देखने और उन के प्यार को पाने की उम्मीद लगा बैठती.

अम्मा के ममत्व का जिक्र करते हुए कुणाल कहा करता था, ‘जब अम्मा थकीहारी रसोई का काम निबटा कर बैठती थीं, तब बजाय उन को आराम देने के, मैं उन की गोद में सिर रख कर लेट जाया करता था. जानती हो, तब वे अपने माथे का पसीना पोंछना भूल कर अपने हाथों को मेरे बालों पर फेरती रहतीं…सच…कितना सुख मिलता था तब. जब मुझे मैडिकल कालेज जाना पड़ा, तब उन की याद में नींद नहीं आती थी…’

‘अम्मा बहुत ममतामयी हैं न? उन्हें गुस्सा तो कभी नहीं आता होगा?’ प्राची पूछती.

‘नहीं, तुम गलत कह रही हो. अम्मा जितनी ममतामयी हैं, उतनी ही सख्त भी हैं. झूठ से तो उन्हें सख्त नफरत है. मुझे याद है, एक बार मैं स्कूल से एक बच्चे की पैंसिल उठा लाया था और अम्मा से झूठ कह दिया कि मेरे दोस्त ने मुझे पैंसिल तोहफे में दी है. जाने कैसे, अम्मा मेरा झूठ भांप गई थीं. अगले रोज वे मेरे साथ स्कूल आईं और मेरे दोस्त से पैंसिल के बारे में पूछा. उस के इनकार करने पर मुझे जो डांट पिलाई थी, वह मैं आज तक नहीं भूला,’ कुणाल ने कहा, ‘तब से ले कर आज तक मैं ने कभी अम्मा से झूठ नहीं बोला.

‘पिताजी के निधन के बाद अम्मा हमेशा इस बात से आशंकित रहती थीं कि मैं और मेरे भैया कहीं गलत राह पर न चले जाएं.’

प्राची हमेशा अपनी सास की तसवीर में उन के चेहरे को देखते हुए उन के व्यक्तित्व को आंकने का प्रयास करती रहती. अम्मा की तसवीर की तरफ देखते हुए कुणाल उस से कहता, ‘जानती हो, यह अम्मा की शादी की तसवीर है. इस के अलावा उन की और कोई तसवीर मेरे पास नहीं है.’

‘कुणाल, मैं कई बार यह सोच कर खुद को अपराधी महसूस करती हूं कि मेरी वजह से तुम अम्मा से दूर हो गए, न तुम मुझ से विवाह करते, न अम्मा से जुदा होना पड़ता.’

‘प्राची, क्या पागलों जैसी बात कर रही हो. अम्मा को मैं अच्छी तरह से जानता हूं. वे हम से ज्यादा दिनों तक अलग नहीं रह सकतीं. वे हमें जल्दी ही अपने पास बुलाएंगी.’

‘काश, वह दिन जल्दी आता,’ प्राची धीमे स्वर में कहती, ‘मैं ने अपनी मां को नहीं देखा है. मैं 6 माह की थी जब उन की मृत्यु हो गई. पिताजी ने मेरी देखरेख में कोई कमी नहीं की थी, लेकिन मां की ममता के लिए हमेशा मेरा मन ललकता रहता है. कल रागिनी आई थी. जब उसे पता चला कि मैं गर्भवती हूं तो मुझ से पूछने आ गई कि मेरी क्या खाने की इच्छा है? मेरा मन भर आया. रागिनी मेरी सहेली है, उस के पूछने में एक दर्द था. मेरी मां नहीं हैं न, इसीलिए शायद वह अपने स्नेह से उस कमी को थोड़ा कम करने का प्रयास कर रही थी,’ आंखों को पोंछते हुए प्राची बोली.

कुणाल ने उसे सीने से लगाते हुए कहा, ‘यह कभी मत कहना कि तुम्हारी मां नहीं, अम्मा तुम्हारी भी तो मां हैं?’

‘जरूर हैं, इसीलिए तो उन से मिलने को ललचाती रहती हूं. पर न जाने उन से कब मिलना हो पाएगा. और फिर यह भी तो नहीं पता कि मुझे माफ करना उन के लिए संभव होगा या नहीं.’

‘सबकुछ ठीक हो जाएगा,’ कहते हुए कुणाल ने प्राची के माथे पर हाथ फेरते हुए उसे यकीन दिलाने की कोशिश की.

प्राची की अम्मा के प्रति छटपटाहट और उन के स्नेह को पाने की ललक देख कर कुणाल का मन पीडि़त हुआ करता था. अम्मा चाहे कुणाल को पत्र लिखें या न लिखें. लेकिन कुणाल हर हफ्ते उन्हें पत्र जरूर लिखता.

प्राची कई बार कुणाल से जिद करती कि वह अम्मा से टैलीफोन कर बात करे, ताकि प्राची भी कम से कम उन की आवाज तो सुन सके. लेकिन जब भी कुणाल फोन करता, अम्मा रिसीवर रख देतीं.

कुणाल द्वारा पिछले हफ्ते लिखे गए खत में प्राची के गर्भवती होने की सूचना के साथसाथ उस की मां का प्यार पाने की इच्छा का कुछ ज्यादा ही बखान हो गया था, तभी तो अम्मा पसीज गई थीं और फोन पर सूचित किया था कि वे आ रही हैं.

प्राची अम्मा के आने की खबर सुन कर पूरी रात सो न पाई थी. उस ने कल्पना की थी कि अम्मा आते ही उसे सीने से लगा लेंगी, हालचाल पूछेंगी, लेकिन यहां तो सबकुछ उलटा नजर आ रहा था.

कुणाल और अम्मा की बातों का स्वर काफी तेज था. अम्मा शायद भैया के व्यापार के बारे में कुछ बता रही थीं और कुणाल अपने को अधिक बुद्धिजीवी साबित करने का प्रयास करते हुए उन की छोटीमोटी गलतियों का आभास कराता जा रहा था.

गर्भावस्था में भी अब तक प्राची को काम करने में कोई असुविधा नहीं हुई थी, लेकिन पूरी रात न सो पाने से वह असहज हो उठी थी. साथ ही, अम्मा को अपने खयालों के मुताबिक न पा कर उस में एक अजीब सा तनाव आ गया था. अचानक उसे कुणाल भी पराया सा लगने लगा था.

किसी तरह नाश्ता बना कर प्राची ने डाइनिंग टेबल पर लगा दिया और अम्मा व कुणाल को बुलाने कमरे में आ गई.

अम्मा पलंग पर बैठी थीं और कुणाल उन की गोद में सिर रख कर लेटा था. अम्मा की उंगलियां कुणाल के बालों में उलझी हुई थीं. प्राची ने देखा, अम्मा का एक भी बाल सफेद नहीं है. ‘शायद बालों को रंगती हों,’ प्राची ने सोचा और मन ही मन हंस दी, ‘युवा दिखने का शौक भी कितना अजीब होता है. बच्चे बड़े हो गए और मां का जवान दिखने का पागलपन.’

प्राची के मनोभावों से परे अम्मा और कुणाल अपनी ही बातचीत में खोए हुए थे. अम्मा कह रही थीं, ‘‘बेटा, तू अब वहीं आ जा, अपना अस्पताल खोल ले. अब दूरदूर नहीं रहा जाता.’’

‘‘अभी नहीं, अम्मा, मैं करीब 5 साल मैडिकल अस्पताल में ही प्रैक्टिस करना चाहता हूं. यहां रह कर तरहतरह के मरीजों से निबटना तो सीख लूं. जब भी अस्पताल खोलूंगा, वहीं खोलूंगा, तुम्हारे पास, यह तो तय है.’’

‘‘अम्मा, नाश्ता तैयार है,’’ दोनों के प्रेमालाप में विघ्न डालते हुए प्राची को बोलना पड़ा.

‘‘अच्छा बेटी, चलो कुणाल, तुम दोनों से मिल कर मेरी तो भूख ही मर गई,’’ अम्मा ने उठते हुए कहा.

‘‘पर अम्मां, मेरी भूख तो दोगुनी हो गई,’’ कुणाल ने उन के हाथों को अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘पागल कहीं का, तू तो बिलकुल नहीं बदला,’’ अम्मा ने लाड़ जताते हुए कहा.

नाश्ते की मेज पर न तो अम्मा और न कुणाल को इतनी फुरसत थी कि नाश्ते की तारीफ में कुछ कहें, न ही यह याद रहा कि प्राची भी भूखी है. रात अम्मा से मिलने की उत्सुकता में उस की नींद और भूख, दोनों मर गई थीं.

पर अब प्राची भूख सहन नहीं कर पा रही थी. उसे लग रहा था, अम्मा उस से भी साथ खाने को कहेंगी या कम से कम कुणाल तो उस का खयाल रखेगा. पर सबकुछ आशा के उलट हो रहा था. अब तक प्राची के बगैर चाय तक न पीने वाला कुणाल बड़े मजे से कटलेट सौस में डुबो कर खाए जा रहा था. प्राची के मन में अकेलेपन का एहसास बढ़ता ही जा रहा था.

मां व बेटे के इस रूप को देख कर प्राची को भी संकोच को दरकिनार करना पड़ा और वह अपने लिए प्लेट ले कर नाश्ता करने के लिए बैठ गई. नाश्ता स्वादहीन लग रहा था, पर भूख को शांत करने के लिए वह बड़ी तेजी से 2-3 कटलेट निगल गई. फलस्वरूप, उसे उबकाई आने लगी. रातभर के जागरण और सुबह से हो रहे मानसिक तनाव से पीडि़त प्राची को कटलेट हजम नहीं हुए.

प्राची तेजी से उठ कर बाथरूम की ओर दौड़ पड़ी. भीतर जा कर जो कुछ खाया था, सब उगल दिया. माथे पर छलक आई पसीने की बूंदों को पोंछते हुए बाथरूम में खड़ी रही. ऐसा लग रहा था जैसे अभी गिर पड़ेगी. सिर भी चकराने लगा था. तभी 2 कोमल भुजाओं ने प्राची को संभाल लिया. ‘‘चल बेटी, तू आराम कर.’’ लेकिन प्राची वहां से हट न पाई. थोड़ी सी गंदगी बाथरूम के बाहर भी फैल गई थी. सो, यह बोली, ‘‘अम्मा, वह वहां भी थोड़ी सी गंदगी…’’

‘‘मैं साफ कर लूंगी, तू चल कर आराम कर,’’ अम्मा प्राची को सहारा दे कर उसे उस के कमरे तक ले आईं. फिर बिस्तर पर लिटा कर उस के चेहरे को तौलिए से पोंछ कर साफ किया.

कुणाल ने एक गिलास पानी से प्राची को एक गोली खिला दी. अब कुणाल के चेहरे पर परेशानी के भाव साफ नजर आ रहे थे. ‘‘ज्यादा भागदौड़ हो गई होगी न. अब तुम आराम करो.’’

‘कुणाल, मुझे उबकाई आ गई थी. बाथरूम के बाहर भी जरा सी गंदगी हो गई है. अम्मा साफ करेंगी तो अच्छा नहीं लगेगा. सास से कोई ऐसे काम नहीं करवाता.’’

‘‘पागल,’’ प्राची के गालों पर प्यार से चपत मारता हुआ कुणाल बोला, ‘‘वे तुम्हारी मां हैं मां. और उन्हें जो करना है, वह करेंगी ही. मेरे कहने से मानेंगी थोड़े ही.’’

‘‘फिर भी,’’ प्राची ने उठने का प्रयास करते हुए कहा.

‘‘तुम चुपचाप लेटी रहो और सोने का प्रयास करो,’’ कुणाल धीरेधीरे उस के माथे पर हाथ फेरता रहा. कब नींद आ गई, प्राची को पता ही न चला.

जब उस की आंख खुली तो अम्मा को अपने सिरहाने बैठा पाया. वे नेलपौलिश रिमूवर से अपने नाखून साफ कर रही थीं, प्राची ने उठने का प्रयास किया तो अम्मा ने रोक दिया, ‘‘न बेटी, तुम आराम करो. तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं. मैं आ गईर् हूं और सिर्फ तुम्हें आराम देने के लिए ही आई हूं.’’

‘‘अम्मा, मुझे अच्छा नहीं लग रहा, मैं आप की सेवा भी नहीं कर पा रही हूं.’’

‘‘नहीं बेटी, मैं अपने हिस्से का आराम करती रहूंगी, तुम चिंता मत करो. जब से योगाभ्यास करने लगी हूं, खुद को काफी स्वस्थ महसूस कर रही हूं. अपने योग शिक्षक से तुम्हारे करने योग्य योग भी सीख कर आई हूं, तुम्हें जरूर सिखाऊंगी, लेकिन पहले तुम्हारे डाक्टर से मिलना होगा. तुम मेरी और कुणाल की चिंता छोड़ दो. तुम्हारे प्रसव तक घर की देखभाल मैं करूंगी.’’

‘‘अम्मां, तब तक आप यहीं रहेंगी?’’

‘‘हां,’’ उन्होंने मुसकराते हुए कहा.

प्राची एकटक अम्मा को ताकती रही, वे ममता की प्रतिमूर्ति लग रही थीं. वह सोचने लगी कि केवल वेशभूषा से किसी के दिल को भला कैसे आंका जा सकता है. अम्मा ने लिपस्टिक भी लगाई थी, चेहरे पर पाउडर और कटे बालों में हेयरबैंड भी. पर अब प्राची को सबकुछ अच्छा लग रहा था क्योंकि अम्मा के मेकअप वाले आवरण की ओट से झांकती उन की अंदरूनी खूबसूरती और ममत्व का रंग उसे अब स्पष्ट दिखाई देने लगा था.

Mother’s Day 2024- बेटी की पहली माहवारी: मां ने दिखाई समझदारी

कमला देवी की उम्र 35 साल थी और पिछले तकरीबन 23-24 साल से वे माहवारी के उन दिनों का दर्द झेल रही थीं, जो किसी लड़की की जिंदगी का बहुत बड़ा बदलाव होता है.

आज कमला देवी की 12 साल की बेटी सुनीता की जिंदगी में वही बदलाव आया था. दरअसल, सुनीता पिछले कुछ दिनों से पेट में रहरह कर उठ रहे दर्द को ले कर परेशान थी और शायद उसे हलके से खून के साथ कुछ डिस्चार्ज भी हुआ था.

सुनीता के मामले में सब से अच्छी बात यह थी कि उसे इतना सब होने पर उतना तेज दर्द नहीं उठा था, जितना कभी उस की मां कमला देवी ने झेला था.

पर आज जब सुनीता को पहली माहवारी हुई तो वह उतनी परेशान नहीं दिखी, जितनी उस की मां हो गई थीं. सुनीता में तो एक गजब का आत्मविश्वास था. शायद उसे दर्द न होना इस की एक खास वजह थी.

भले ही कमला देवी परेशान थीं, पर साथ ही वे एक समझदार औरत भी थीं और नहीं चाहती थीं कि सुनीता को उन समस्याओं से जूझना पड़े, जो कभी उन्होंने अपनी मां की नासमझी की वजह से झेली थीं.

कमला देवी ने सुनीता के साथ एक सहेली जैसा बरताव किया. इतना ही नहीं, उन्होंने अपने पति महेश को भी सुनीता के बड़े होने के बारे में बता दिया.

अब कमला देवी के सामने कुछ ऐसी बातें थीं, जिन के बारे में उन्हें अपनी बेटी को बताना था और कुछ चीजें बाजार से लानी थीं, ताकि वक्त बे वक्त इधरउधर न भागना न पड़े.

कमला देवी ने सुनीता की माहवारी को ले कर जिन बातों पर अमल किया, वे कुछ इस तरह थीं :

1. सुनीता को माहवारी के बारे में बताया कि अब से तकरीबन 45-55 साल की उम्र तक उसे हर महीने ऐसे 4-5 दिनों से जूझना होगा. यह कोई बीमारी नहीं है, बल्कि ये दिन किसी लड़की के शादी के बाद मां बनने में बहुत अहम होते हैं.

2. सुनीता को भविष्य में भी बिना घबराए इस संबंध में कोई समस्या होगी तो वह अपनी मां को जरूर बताएगी. अगर मां नहीं होगी तो किसी ऐसी औरत से इस बारे में अपनी समस्या जाहिर करेगी, जिस पर वह विश्वास करती है. अगर कोई औरत मदद के लिए पास नहीं होगी, तो वह बेझिझक अपने पिता को सबकुछ बता देगी.

3. कभी भी कुछ गड़बड़ होने पर सुनीता किसी नीमहकीम से सलाह नहीं लेगी और न ही किसी दवा दुकान से खुद दवा खरीदेगी.

4. सुनीता के लिए तुरंत अच्छी क्वालिटी के सैनेटरी पैड खरीदे गए और उसे उन्हें इस्तेमाल करने का तरीका भी बताया.

5. घर के बाथरूम में एक छोटा सा डस्टबिन रखा और इस्तेमाल किए गए पैड को उस डस्टबिन में फेंकने की बात कही.

6. उन खास दिनों में सुनीता अपने स्कूल बैग में सैनेटरी पैड जरूर रखेगी.

7. किसी भी तरह के अंधविश्वास के फेर में नहीं पड़ेगी.

8. अपनी साफसफाई का पूरा ध्यान रखेगी और मजबूरी में भी कपड़े का इस्तेमाल नहीं करेगी.

9. दिन में पैड को 3-4 बार जरूर बदलना है.

10. सब से जरूरी कि एक बार इस्तेमाल किए गए पैड को दोबारा नहीं इस्तेमाल करना है.

Mother’s Day 2024: प्यार का पलड़ा : कष्ट में सासू मां

सास की बिगड़ती स्थिति को देख कर तनु दुखी थी. वह मांजी को भरपूर सुख और आराम देना चाहती थी पर घर में काम इतना अधिक रहता था कि वह चाह कर भी मांजी की सेवा के लिए पूरा समय नहीं निकाल पाती थी.

जब से एक दुर्घटना में आभा के पैर की हड्डी टूटी, वह सामान्य नहीं हो पाई थीं. चूंकि आपरेशन द्वारा पैर में नकली हड्डी डाली गई थी जो उन्हें जबतब बेचैन कर देती और वह दर्द से घंटों कराहती रहतीं. कहतीं, ‘‘बहू, डाक्टरों ने मेरे पैर में तलवार तो नहीं डाल दी, बड़ी चुभ रही है.’’

दोनों बेटे उन्हें विश्वास दिलाते कि वे उन के पैर का आपरेशन दोबारा से करा देंगे, चाहे कितना भी रुपया क्यों न लग जाए.

आभा झुंझला उठतीं, ‘‘मेरे बूढ़े जिस्म को कितनी बार कटवाओगे. साल भर से यही कष्ट तो भोग रही हूं. पहले दुर्घटना फिर आपरेशन, कब तक बिस्तर पर पड़ी रहूंगी.’’

डाक्टर से जब उन की परेशानी बताई जाती तो वे आश्वासन देते कि उन का आपरेशन संपूर्ण रूप से सफल हुआ है, उन्हें धीरेधीरे सहन करने की आदत पड़ जाएगी.

आभा बेंत के सहारे धीरेधीरे चल कर अपने बेहद जरूरी काम निबटातीं, परंतु उन का हर काम बड़ी मुश्किल से होता था.

वह रसोईघर में जाने का प्रयास करतीं तो छोटी बहू तनु उन्हें सहारा दे कर वापस उन के बिस्तर पर ले आती और थाली परोस कर उन्हें वहीं बिस्तर पर दे जाती.

बेटे कहते, ‘‘मां, 2 बहुओं के होते हुए तुम्हें रसोई में जाने की क्या जरूरत है.’’

आभा दुखी स्वर में  कहतीं, ‘‘कब तक बहुओं पर बोझ बनी रहूंगी.’’

बेटों ने मां की सेवा करने के लिए एक नौकरानी की व्यवस्था कर दी. परंतु बड़ी बहू लीना के काम ही इतने अधिक हो जाते कि नौकरानी को आभा की तरफ ध्यान देने की फुरसत ही नहीं मिल पाती थी.

लीना चाहे कुछ भी करे, उस के खिलाफ बोलने की हिम्मत पूरे घर में किसी के अंदर नहीं थी क्योंकि वह धनी घर से आई थी. घर में आधुनिक सुविधाओं के साधन फ्रिज, रंगीन टेलीविजन और स्कूटर आदि सामान अपने साथ लाई थी. नकद रुपए भी इतने मिले थे कि छत पर बड़ा कमरा उसी से बना था.

घर के लोगों के दब्बूपन का भरपूर लाभ लीना उठा रही थी. वह घर के कामों में हाथ न बंटा कर अधिकांश समय ऊपर  अपने कमरे में रहती थी और नौकरानी लीना को पुकार कर ऊपर ही अपने लिए चाय, बच्चों का दूध मंगाती रहती.

तनु ने नौकरानी पर सख्ती बरती, ‘‘तुम्हें मांजी की सेवा करने के लिए रखा गया है तो वही करो, फालतू का काम क्यों करती हो.’’

लीना तनु की बात से चिढ़ गई. तनु का मायका उस के मुकाबले कुछ भी नहीं था, फिर जब घर के लोग कुछ नहीं कहते तो वह कल की आई छोकरी कौन होती है मुंह चलाने वाली.

लीना ने ऊपर से ही लड़ना शुरू कर दिया कि छोटे बच्चों का साथ होने के कारण नौकरानी की जरूरत उसे अधिक है न कि मांजी को.

घर में फूट न पड़े इस डर से मांजी ने सब से कह दिया कि वह बगैर नौकरानी के अपना काम चला लेंगी, उन का काम ही कितना होता है.

तनु को सास में अपनी मां नजर आती. वह उन्हें घिसटघिसट कर पूजा का कमरा धोते व कपड़े धोते देखती तो दुखी हो जाती.

वह जेठानी से भी लगाव रखती और पूरे परिवार की एकता बनाए रखने का भरसक प्रयास करती थी.

मगर लीना की नजरों में तनु उसी दिन से आंख की किरकिरी बन गई थी. वह उस के खिलाफ बोलने का मौका ताकती और जब मौका मिलने पर बोलना शुरू करती तो उस की सातों पुश्तों को कोस डालती.

तनु फिर भी शांत बनी रह कर अपनेआप को सामान्य बनाए रखने की कोशिश करती रहती.

रवि कहता, ‘‘तुम ने भाभी के खिलाफ बोल कर उन से दुश्मनी पाल ली, जब भैया कुछ नहीं कहते तो तुम ने क्यों कहा?’’

‘‘मुझ से मांजी का कष्ट देखा नहीं जाता. फिर नौकरानी मांजी के लिए रखी गई थी.’’

‘‘इस घर के मालिक हम नहीं, भैयाभाभी हैं. वे जो चाहें कर सकते हैं,’’ रवि ने अपनी लाचारी दिखाई. यद्यपि वह मां को बहुत चाहता था पर उन के सुखआराम के लिए कुछ कर भी तो नहीं सकता था क्योंकि उस का वेतन बहुत साधारण था.

वह मां से आराम करने को कहता, पर वह पूरे दिन बिस्तर पर पड़ी ऊब जातीं.

वह दुर्घटना से पहले की अपनी दिनचर्या में अब भी उसी प्रकार जीना चाहती थीं.

एक दिन रवि ने अपनी मां को पूजाघर की सफाई करते देखा तो सख्ती दिखाते हुए बोला, ‘‘मां, मिट्टीपत्थर के इस भगवान पर फालतू का विश्वास करना छोड़ दो. तुम ने इन की इतनी अधिक पूजा की, इन पर आंख मूंद कर भरोसा किया फिर भी यह तुम्हारे साथ होने वाला हादसा नहीं रोक पाए.’’

‘‘तू हमेशा नास्तिकों जैसी बातें करता है. यह क्यों नहीं सोचता कि दुर्घटना में मेरी जान बच गई, भगवान की कृपा न होती तो मैं मर जाती.’’

‘‘तुम फालतू की अंधविश्वासी हो.’’

आभा के ऊपर बेटेबहुओं के समझाने का कोई असर नहीं पड़ता था. वह पैर के दर्द से कराहती हुई घिसट कर बालटी भर पानी से गणेशजी की तांबे से बनी प्रतिमा को रेत से मांज कर धोतीं और आरती उतार कर लड्डुओं का भोग लगातीं, तब जा कर भोजन का कौर उन के गले से नीचे उतरता था.

तनु को अटपटा लगता कि ऐसे तो मांजी का कष्ट और अधिक बढ़ जाएगा.

एक दिन तनु दरवाजे के बाहर खड़े ठेले वाले से सब्जी खरीद रही थी कि तभी उस की नजर एक लड़की पर पड़ी. लड़की ने फटेपुराने कपड़े पहने हुए थे और नौकरानी जैसी लग रही थी.

तनु ने पुकारा तो वह लड़की उस के नजदीक चली आई. पूछताछ करने पर पता लगा कि उस का नाम माया है और वह कुछ घरों में बरतन, कपड़े धोने व सफाई का काम करती है.

तनु ने उस से 200 रुपए महीने पर मांजी का पूरा काम करना तय कर लिया और सख्ती से ताकीद कर दी कि वह घर के किसी अन्य सदस्य के बहकावे में आ कर मांजी का काम नहीं छोड़ेगी.

माया ने उसी दिन से मांजी का काम करना शुरू कर दिया. उन का कमरा धोया, बिस्तर की चादर बदली और पैरों की मालिश की.

मांजी छोटी बहू का अपने प्रति प्रेम देख कर खुशी से गद्गद हो उठीं और देर तक बहू को आशीर्वाद देती रहीं तथा उस की प्रशंसा करती रहीं.

सास द्वारा तनु की प्रशंसा सुन कर बड़ी बहू लीना जलभुन कर राख हो गई और कहे बिना नहीं चूकी कि छोटी ने अपने पास से 200 रुपए महीने नौैकरानी पर खर्च कर के कोई तीर नहीं मार लिया. वह क्या घर के लिए कम खर्च कर रही है. पूरे दिन की नौकरानी तो उसी के पैसों की है.

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तनु जेठानी की बात का बुरा न मान कर उसे समझाती रही कि दीदी हम दोनों मांजी की बेटियों के समान हैं. उन की किसी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए.

लीना बदले की आग में झुलसती रही. उसे बुरा लगता कि सास ने तनु की रखी नौकरानी की जितनी प्रशंसा की उस से आधी भी कभी उस के मायके से मिले दहेज की नहीं की थी.

लीना चिढ़ती रही और तनु को नीचा दिखाने की ताकझांक में लगी रही.

सास का स्नेह तनु के तनमन में हिलोरें भर देता. उस ने पति से कह दिया कि वह अपने खर्चें में से कटौती कर के माया का वेतन चुकाती रहेगी. कम से कम सास को आराम तो मिल रहा है.

धीरेधीरे माया आभा के साथ सगी बेटी जैसी घुलमिल गई. वह रसोई में जा कर उन के लिए चाय व फुलके बना लाती, खिचड़ी बना कर अपने हाथ से खिला देती.

एक बार माया को किसी काम के सिलसिले में 4 दिन की छुट्टी लेनी पड़ गई तो आभा की परेशानी अधिक बढ़ गई. अब तो उन्हें अपने हाथों पानी की बालटी उठाने की आदत भी छूट चुकी थी, ऐसे में पूजाघर की सफाईधुलाई किस प्रकार से की जाए. तनु की भी हालत ऐसी नहीं थी कि वह कुछ काम कर सके क्योंकि वह गर्भावस्था में चक्कर और उलटियों से परेशान थी, फिर डाक्टर ने उसे वजन उठाने के लिए मना कर रखा था.

मां की परेशानी को देख कर बेटों ने उन के पूजाघर में ताला लगाते हुए कह दिया, ‘‘कभी 2-4 दिन गणेशजी को भी आराम कर लेने दो. माया आएगी तो सफाईधुलाई कर लेना.’’

पूजाघर में ताला डाले अभी तीसरा दिन ही बीता था कि उस बंद कमरे से आती बदबू के कारण घर में बैठना कठिन हो गया. शायद कोई चूहा मर कर सड़ गया था.

मां की चिंता व बेचैनी देख कर बेटों ने पूजाघर की चाबी मां को थमा दी और अपने काम पर चले गए.

गणेशजी की प्रतिमा से चिपके सड़े चूहे के जिस्म पर रेंगते कीड़ों को देख कर किसी की भी हिम्मत पूजाघर की सफाई करने की नहीं हुई, ऐसी गंदगी को कौन हाथ लगाए.

घर के लोगों ने जब जमादार को बुला कर चूहा फिंकवाने की बात की तो मांजी बिदक गईं और बोलीं, ‘‘हमारे पूजाघर में जमादार के जाते ही उस की पवित्रता नष्ट हो जाएगी. जमादार तो साक्षात चांडाल का रूप होता है.’’

वह बेटों पर क्रोधित होती रहीं कि यदि वे पूजाघर में ताला बंद नहीं करते तो वहां चूहा नहीं मरता.

बेटे कहते रहे, ‘‘तुम थाली भरभर कर लड्डू गणेशजी को भोग लगाती हो तभी पूजाघर में इतने अधिक चूहे हो गए हैं. और यह कैसे भगवान हैं जो चूहों से अपनी रक्षा नहीं कर पाए तो अपने भक्तों की रक्षा कैसे करेंगे?’’

मां और बेटों में सड़े चूहे को ले कर वादविवाद चलता रहा पर आभा किसी भी प्रकार नीच जाति के आदमी से गणेशजी की प्रतिमा का स्पर्श कराने को तैयार नहीं हुईं.

पूरा दिन घर के लोग पुरानी नौैकरानी को डांटडपट कर मरा चूहा उठाने को तैयार करते रहे पर वह कहती रही कि यह काम माया का है, वही करेगी.

अगले दिन सुबह माया आई तो सभी ने चैन की सांस ली. वह आते ही पूजाघर की सफाई में जुट गई. उस ने तुरतफुरत चूहा उठा कर फेंक दिया और गणेशजी की प्रतिमा को पहले तो रेत से रगड़रगड़ कर साफ किया फिर साबुन लगा कर नहलाया. फिनायल डाल कर पूजाघर की धुलाई की व कई अगरबत्तियां जला कर गणेशजी के सामने रख दीं.

आभा मुग्ध भाव से माया को देखती रहीं और उस के काम की सराहना कर के बारबार प्रशंसा करती रहीं.

माया सफाई का काम पूरा कर के 2 गिलासों में चाय डाल कर ले आई. एक मांजी को थमा दिया और दूसरा अपने मुंह से लगा कर चाय पीती हुई लापरवाही से बोली, ‘‘अम्मां, क्यों हमारी इतनी तारीफ करती हो, मरा हुआ चूहा हम नहीं फेंकेंगे तो कौन फेंकेगा. सफाई करना तो हमारा खानदानी काम है. हमारे दादा म्युनिसिपैलिटी के सफाई कर्मचारी थे. मां अस्पताल में मरीजों की गंदगी फेंकती हैं. पिता व चाचा मुरदाघर की लाशें ढोते हैं.’’

माया के मुंह से उस के खानदान के बखान को सुन कर मांजी की बोलती बंद होने लगी. वह लड़खड़ाती जबान से पूछने लगीं, ‘‘माया, तेरी जाति क्या है?’’

‘‘हम बाल्मीकि हैं, मांजी,’’ माया ऐसे बोली जैसे कितनी बड़ी पंडापुरोहित हो.

‘‘बाल्मीकि यानी कि जमादार?’’

‘‘हां, अम्मां, आप चाहे जो कह लो, वैसे हम हैं तो बाल्मीकि. आप ने रामायण में पढ़ा होगा कि बाल्मीकि के आश्रम में सीता माता रही थीं, उनके लवकुश वहीं पैदा हुए थे.’’

माया की बातें आभा के कानों से टकरा कर वापस लौट रही थीं. एक ही बात उन की समझ में आ रही थी कि माया अछूत कन्या है और उन के पूजाघर की सफाई अब तक उसी के हाथों से हो रही थी.

‘‘हाय, सबकुछ अपवित्र हो गया,’’ मांजी कराह उठी थीं.

तनु रसोईघर से माया की तरफ लपकी कि किसी प्रकार से इसे चुप करा सके, पर माया तो न जाने क्याक्या उगल चुकी थी और सकपकाई जड़ पड़ी मांजी से वह पूछ रही थी, ‘‘क्या हुआ, अम्मां?’’

लीना को आज बदला चुकाने का अवसर मिला था. फटाक से आ कर उस ने माया के गाल पर जोर से तमाचा जड़ दिया.

‘‘कलमुंही, कैसी भोली बन रही है, पूछ रही है क्या हुआ. अरे, क्या नहीं हुआ? तू ने मांजी का सारा धर्म भ्रष्ट कर दिया. गलती तो सारी छोटी बहू की है, जानबूझ कर घर में जमादारिन को ले आई,’’ लीना डांटने के अंदाज में बोली.

तनु भय से थरथर कांप रही थी. कितनी बड़ी गलती हो गई उस से, वह माया को काम पर रखने से पहले उस की जाति पूछना भूल गई थी.

वह सास के पैर पकड़ कर रोने लगी, ‘‘मांजी, मुझे माफ कर दीजिए. बहुत बड़ी गलती हो गई है मुझ से.’’

माया भी रो रही थी. बड़ी बहू ने इतनी जोर से तमाचा मारा था कि उस का गाल लाल हो गया था. उस पर उंगलियों के निशान उभर आए थे.

‘‘अच्छा, अब हम चलें अम्मां, हम से गलती हो गई. हम ने मरा चूहा फेंक कर गलती की, अपने खानदान की प्रशंसा कर के गलती की, हम अपनी गलती की माफी मांगते हैं, अम्मां. हमें अपनी पगार भी नहीं चाहिए,’’ माया उठ कर दरवाजे की तरफ चल दी.

मांजी को जैसे होश आया. लपक कर माया का हाथ कस कर थाम लिया और बोलीं, ‘‘अम्मां को किस के सहारे छोड़ कर जा रही है. अभी मेरा आखिरी वक्त नहीं आ गया कि तू छोड़ कर चल दी. और छोटी बहू, तुम से कोई गलती नहीं हुई है. यह रोना बंद करो और जा कर मुंह धो लो.’’

‘‘क्या? मांजी…आप…’’ तनु आश्चर्य से अटकअटक कर बोली. उस की समझ में मांजी का यह बदला हुआ रूप नहीं आ रहा था.

बाजी उलटी पड़ती देख लीना चुपचाप ऊपर चली गई.

माया की रुलाई फिर से फूट पड़ी थी पर यह खुशी के आंसू थे.

‘‘अम्मां, तुम ने मुझे माफ कर दिया, मैं ने तुम्हरा पूजाघर अपवित्र कर दिया था?’’ माया को जैसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उस की नौकरी बनी रहेगी.

‘‘किसी ने कुछ अपवित्र नहीं किया,’’ मांजी निर्णयात्मक स्वर में बोलीं, ‘‘अपवित्रता तो मेरे मन में थी जो अब हमेशा के लिए निकल चुकी है. जा बेटी, माया, तू रसोईघर में जा कर अपने हाथों से मेरे लिए व अपने लिए रोटी सेंक कर ले आ. आज हम दोनों एकसाथ बैठ कर  खाना खाएंगे.’’

माया दौड़ती हुई रसोईघर में चली गई.

मांजी तनु से कह रही थीं, ‘‘आज से सारी छुआछूत बंद. इस माया ने बेटी से बढ़ कर मेरी सेवा की है, जरा सी बात पर क्या इसे निकाल दूंगी. और अगर यह चली गई तो मैं जीऊंगी कैसे. मेरी सेवा, मेरी देखभाल कौन करेगा? छोटी बहू, तुम्हारी यह खोज मेरे लिए बहुत लाभदायक साबित हुई है. माया ने मेरी बेटी की कमी पूरी कर दी.’’

तनु मन ही मन मुसकरा रही थी. जेठानी चाहे कितनी कोशिश कर ले, मांजी के प्यार का पलड़ा उसी की तरफ भारी रहेगा.

Mother’s Day 2024: एक बेटी तीन मांएं, क्या था यह राज

90 के दशक के बीच का दौर था. वरुण आईआईटी से कंप्यूटर साइंस में बीटैक कर चुका था. उसे कैंपस से सालभर पहले ही नौकरी मिल चुकी थी. उसे इंडिया की टौप आईटी कंपनी के अतिरिक्त अमेरिका की एक स्टार्टअप कंपनी से नौकरी का औफर था.

वरुण के मातापिता चाहते थे कि उन का बेटा इंडिया में ही नौकरी करे, पर वरुण अमेरिका जाना चाहता था. अमेरिकी कंपनी उसे बेहतर वेतन औफर कर रही थी. इकलौते बेटे की खुशी के लिए मातापिता ने उस के अमेरिका जाने के लिए हामी भर दी.

वरुण के अमेरिका जाने के एक हफ्ते पहले उस के घर पर पार्टी थी. वरुण के मित्रों के अलावा मातापिता के मित्र और कुछ करीबी रिश्तेदार भी थे. उन दिनों अमेरिका में आईटी की स्टार्टअप कंपनियों का बोलबाला था. पार्टी में उस के पिता के एक करीबी मित्र की बेटी तूलिका भी आई हुई थी. इत्तफाक से उस ने भी इसी वर्ष इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी. वह भी अमेरिका जा रही थी.

तूलिका देखने में सुंदर और स्मार्ट थी. उसे एक भारतीय आईटी कंपनी ने अपने अमेरिका औफिस में पोस्ट किया था. दोनों का उसी पार्टी में परिचय हुआ. दोनों अपने अमेरिकन ड्रीम्स की बातें करने लगे. वहां डौटकौम बूम चल रहा था. नैसडैक दुनिया का दूसरा सब से बड़ा शेयर ऐक्सचेंज है. उस समय आईटी शेयरों की कीमत में भारी उछाल आया था. भारत से हजारों इंजीनियर अमेरिका जा रहे थे.

वरुण और तूलिका दोनों 2 हफ्ते के भीतर अमेरिका में थे. वरुण अमेरिका के पश्चिमी छोर कैलिफोर्निया में था जबकि तूलिका पूर्वी छोर पर न्यूयौर्क में. दोनों के राज्य अलगअलग टाइमजोन में थे. न्यूयौर्क कैलिफोर्निया की तुलना में 3 घंटे आगे था. मतलब जब कैलिफोर्निया में सुबह के 7 बजते तो न्यूयौर्क में 10 बजते. पर दोनों हमेशा कौंटैक्ट में रहे. लंबी छुट्टियों में दोनों एकदूसरे से मिलते भी थे. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे.इधर भारत में वरुण और तूलिका दोनों के मातापिता उन की शादी की बात कर रहे थे. हालांकि दोनों अलग जातियों के थे पर दोनों पक्षों के लिए यह कोई माने नहीं रखता था. दोनों परिवार उदारवादी, आधुनिक विचार वाले थे. उन्होंने अपने बच्चों की राय भी ली थी. वरुण और तूलिका को तो बिन मांगे मनचाहा मिल रहा था. वरुण और तूलिका की शादी पक्की हो गई. वे 3 हफ्ते की छुट्टी ले कर भारत आए और शादी के बाद दोनों अमेरिका लौट गए.

अमेरिका में वरुण और तूलिका को कुछ समय के लिए अलगअलग रहना पड़ा था. उस के बाद तूलिका को भी उस की कंपनी ने कैलिफोर्निया औफिस में पोस्ट कर दिया. फिर दोनों एकसाथ खुशीखुशी रह रहे थे. दोनों का वेतन भी अच्छा था. 2 साल के भीतर तूलिका ने एक पुत्र को जन्म दिया. दोनों ने मिल कर बड़ा डुप्लैक्स घर खरीद लिया. महंगी गाडि़यां, फर्नीचर आदि से घर को अच्छी तरह सजा लिया. घर, गाडि़यां और कुछ अन्य कीमती सामान सभी किस्तों पर खरीदे गए थे. सबकुछ मजे में चल रहा था.

देखतेदेखते 4 साल बीत गए. अचानक डौटकौम का बुलबुला फटना शुरू हुआ. छोटीछोटी स्टार्टअप कंपनियां बंद होने लगीं. कुछ अच्छी कंपनियों को बड़ी कंपनियों ने खरीद लिया. हजारों सौफ्टवेयर इंजीनियरों की छंटनी होने लगी थी. बड़ी कंपनियों ने भी काफी इंजीनीयर्स की छंटनी की. इसी दौरान तूलिका को कंपनी ने ले औफ (छंटनी) कर दिया. पर चूंकि वरुण अभी नौकरी में था, इसलिए किसी तरह खींचतान कर घर चल रहा था. बड़ी मुश्किल से वह घर और गाड़ी की ईएमआई दे पा रहा था, पर घर के अन्य खर्चों में कटौती करनी पड़ती थी.

अंगरेजी में एक कहावत है- ‘मिसफौरचून नेवर कम्स अलोन.’ चंद महीनों के अंदर वरुण का भी ले औफ हो गया. अब दोनों मियांबीवी बेरोजगार हो गए थे. गनीमत थी कि दोनों को छंटनी के समय कुछ मुआवजा मिला. सो, कुछ महीने तक गुजारा हो सका था. यह अच्छा रहा कि उस समय तक दोनों को अमेरिका का ग्रीनकार्ड मिल चुका था. वरना सबकुछ औनीपौनी कीमत पर बेच कर भारत वापस आना पड़ता. वरुण कुछ बच्चों को होम ट्यूशन पढ़ाता था जिस से कुछ आमदनी हो जाती थी. फिर भी उन को पैसों की काफी कमी रहती थी.

इस बीच, तूलिका जिस कंपनी में काम करती थी उस का मालिक एक अमेरिकन था- हडसन. उस की उम्र 40 वर्ष से कुछ कम रही होगी. उस की शादी के 10 वर्षों बाद भी कोई बच्चा नहीं था. दोनों मियांबीवी एक बच्चा चाहते थे, पर मिसेज हडसन इस में सक्षम नहीं थीं. उन्हें एक सैरोगेट मदर की तलाश थी. एक दिन उन्होंने तूलिका और वरुण दोनों को डिनर पर घर बुलाया.

वरुण और तूलिका अपने बेटे आशुतोष के साथ हडसन के घर गए. हडसन दंपती ने उन का गर्मजोशी से स्वागत किया. आशुतोष उन की पालतू बिल्ली के साथ खेलने लगा. हडसन ने प्यार से उसे कहा,‘‘हाउ क्यूट बौय.’’

मिसेज हडसन बोलीं, ‘‘तुम लोगों को बहुत जरूरी काम से याद किया है हम ने. तुम लोग बुरा न मानना, एक रिक्वैस्ट है हमारी. हम दोनों पतिपत्नी संतानहीन हैं और एक सैरोगेट मदर की तलाश में हैं. तूलिका, तुम अगर चाहो तो हमें बच्चा दे सकती हो.’’

तूलिका बोली, ‘‘भला मैं इस में क्या मदद कर सकती हूं?’’

हडसन बोला, ‘‘मेरी पत्नी मां नहीं बन सकती. पर तूलिका, अगर तुम चाहो तो यह कार्य कर सकती हो सैरोगेट मदर बन कर. यह सिर्फ हमारा विनम्र निवेदन है. तुम इस पर विचार कर के बता देना बाद में.’’

तूलिका और वरुण एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

मिसेज हडसन बोलीं, ‘‘तुम को शायद पता है कि नहीं, कैलिफोर्निया एक सैरोगेसी फ्रैंडली राज्य है. यहां कमर्शियल सैरोगेसी वैध है.’’

तूलिका बोली, ‘‘मिसेज हडसन, आप को शायद पता हो, हम भारतीय मातृत्व का सौदा नहीं करते.’’

‘‘मैं जानती हूं तूलिका. इसीलिए शुरू में ही हडसन ने कहा था कि यह हमारी विनम्र प्रार्थना है. पर हम यह भी जानते हैं कि तुम लोग दिल से बहुत उदार होते हो. मैं तुम्हें पैसों का लालच नहीं दे रही हूं, पर मातृसुख प्रदान करने की भिक्षा मांग रही हूं. निर्णय तुम लोगों का होगा और तुम्हारा इनकार भी हमें खुशीखुशी स्वीकार होगा, क्योंकि ऐसा फैसला लेना नामुमकिन तो नहीं मगर बहुत मुश्किल जरूर है. तुम लोग एक बार ठीक से सोच कर अपना फैसला बता देना.’’

वरुण और तूलिका अपने घर आ गए. तूलिका ने वरुण से कहा, ‘‘मिसेज हडसन अमीर होंगी, पर उन्होंने कैसे सोच लिया कि मैं अपनी कोख बेच सकती हूं?’’

वरुण बोला, ‘‘उन्होंने सिर्फ हम से मदद मांगी है, फैसला तो हमें लेना है.’’

इधर वरुण और तूलिका की आर्थिक कठिनाइयां कम होने का नाम नहीं ले रही थीं. लगभग एक साल से दोनों बेकार थे. अभी तक नौकरी की कोई उम्मीद नहीं थी. वरुण ने तूलिका से कहा, ‘‘अगर एकाध महीने में जौब नहीं मिलती है तो इंडिया लौटना होगा. यहां की सारी प्रौपर्टी बेच कर भी शायद लोन पूरा न चुका सकें.’’

‘‘स्लोडाउन का असर तो अभी इंडिया में भी होगा. वहां भी ले औफ हुए हैं और काफी लोग बैंच पर हैं. हो सकता है नौकरी मिल भी जाए तो सैलरी बहुत कम ही मिलेगी,’’ तूलिका ने कहा.

वरुण डरतेडरते बोला, ‘‘क्यों न एक बार हडसन दंपती के प्रस्ताव पर गौर करें. अब तो आशुतोष को भी स्कूल भेजना है. मुझे सब से ज्यादा चिंता बेटे के भविष्य को ले कर हो रही है. सैरोगेसी से यहां 40 हजार डौलर तो मिल ही सकते हैं.’’

तूलिका ने बिगड़ कर कहा, ‘‘तो तुम मेरी कोख बेचना चाहते हो? मुझे यह पसंद नहीं.’’

‘‘इसे तुम उन की मदद करना समझो, खरीदबिक्री तो मुझे भी पसंद नहीं है. हां, इस के बदले हो सकता है वे हमारी भी मदद करना चाहते हों. और हम दोनों को जो बनना था, बन गए हैं. अब हमें बेटे को पढ़ालिखा कर अच्छा बनाना है. उस के लिए पैसा तो चाहिए ही.’’

उस रात को दोनों ने करवटें बदल कर काटा. एकतरफ  सैरोगेसी का प्रश्न तो दूसरी ओर बेरोजगारी और आर्थिक तंगी तथा अमेरिका छोड़ने का संकट. बहुत गौर करने के बाद दोनों हडसन दंपती का प्रस्ताव स्वीकार करने पर तैयार हुए. तूलिका ने कहा कि वह अपना अंडाणु नहीं देगी. उस का इंतजाम हडसन को करना होगा.

हडसन दंपती को जब यह फैसला बताया गया तो 10 मिनट तक वे फोन पर उन्हें धन्यवाद देते रहे. उन की आंखों के आंसू को तूलिका और वरुण देख तो नहीं सकते थे पर उन की आवाज से ऐसा महसूस किया तूलिका ने कि हडसन दंपती जैसे रो पड़े हों. उस दिन शाम को हडसन दंपती वरुण के घर आए. वे साथ में पूरे परिवार के लिए काफी उपहार भी लाए थे.

मिसेज हडसन बोलीं, ‘‘तुम्हारा शुक्रिया अदा करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं. पर बुरा न मानना, इस के बदले में तुम जो रकम उचित समझो, मांग सकती हो. हमारे यहां औरतें अपने फिगर पर ज्यादा ध्यान देती हैं, इसलिए जल्द सैरोगेट मदर के लिए तैयार नहीं होतीं.’’

तूलिका बोली, ‘‘देखिए मिसेज हडसन, मैं ने पहले दिन ही कहा था कि मैं कोई खरीदफरोख्त नहीं चाहती हूं.’’

‘‘यह लीगल है, तुम्हारा हक है.’’

तब बीच में वरुण बोला, ‘‘हडसन, हम लोग इसे सौदा न कह कर एकदूसरे की मदद का रूप देना चाहते हैं.’’

हडसन बोला, ‘‘वह कैसे?’’

‘‘जब तक हमें नौकरी नहीं मिलती है, आप हमारे घर और कार की ईएमआई व बच्चे की फीस देते रहेंगे और कुछ नहीं. जिस दिन मुझे नौकरी मिल जाएगी, उस के बाद हम अपनी किस्त खुद जमा करेंगे.’’

‘‘नहीं, यह तो कुछ भी नहीं हुआ. मैं ऐसा करता हूं फौरन एक साल की सारी ईएमआई और तुम्हारे परिवार का मैडिकल इंश्योरैंस का प्रीमियम जमा कर देता हूं. वैसे भी डिलिवरी तक तूलिका का सारा खर्च हमें ही उठाना है.’’

अब हडसन दंपती को एक ऐसी महिला की खोज थी जो अपना एग्स (अंडाणु) डोनेट करे. उन्होंने एक सैरोगेसी क्लिनिक से संपर्क किया. कुछ ही दिनों में एक अमेरिकी युवती इस के लिए मिल गई. एक सैरोगेसी का अनुबंध तैयार किया गया जिस पर एग डोनर, सैरोगेट मदर और भावी मातापिता सब ने हस्ताक्षर किए. प्रसव के बाद हडसन दंपती ही बच्चे के कानूनी मातापिता होंगे. हडसन के शुक्राणु और उस युवती के एग्स को आईवीएफ तकनीक के जरिए क्लिनिक में फर्टिलाइज कर भ्रूण को तूलिका के गर्भ में प्रत्यार्पित किया गया. सैरोगेसी की बात गुप्त रखी गई थी.

तूलिका और वरुण का बेटा आशुतोष अब स्कूल जाने लगा था. तूलिका के गर्भ में बच्चे का समुचित विकास हो रहा था. 3 महीने के बाद अल्ट्रासाउंड में पता चला कि तूलिका के गर्भ में एक बच्ची पल रही है. हडसन दंपती को बेटा या बेटी से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था.

इधर मां में आए बदलाव को देख कर आशुतोष पूछता तो तूलिका ने आशुतोष को बता दिया कि उस की एक छोटी बहन घर में आने वाली है. आशुतोष ने अपने स्कूल में अपने दोस्तों को बता दिया था कि जल्द ही उस के साथ खेलने वाली उस की बहन होगी.

जैसेजैसे प्रसव का समय नजदीक आ रहा था, तूलिका के मन में ममत्व जागृत होने लगा. यह सोच कर कि 9 महीने तक जिसे अपनी कोख में रखा उसे प्रसव के बाद हडसन दंपती को सौंपना होगा, वह उदास हो जाती थी.

आखिर वह दिन भी आ गया. तूलिका ने एक सुंदर, स्वस्थ कन्या को जन्म दिया. पर तूलिका ने उसे अपना दूध पिलाने से मना कर दिया. ऐसा उस ने सिर्फ यह सोच कर किया कि अपना दूध पिलाने के बाद वह बच्ची को अपने से जुदा नहीं कर पाएगी. वैसे भी बच्ची को छोड़ कर खाली गोद लौटना काफी दुखभरा था तूलिका के लिए. उधर उस का बेटा आशुतोष घर पर बहन की उम्मीद लगाए बैठा था. बहुत मुश्किल से उस को वरुण ने किसी तरह चुप कराया कि बहन को डाक्टर नहीं बचा पाए.

बच्ची को ले जाते समय मिसेज हडसन ने पूछा, ‘‘तूलिका, अगर यह बेबी तुम्हारे पास होती तो तुम इस का क्या नाम रखती?’’

तूलिका ने बिना देर किए कहा, ‘‘मैं इस का नाम सीता रखती.’’

‘‘ठीक है, मैं भी बेबी का नाम सीता ही रखूंगी.’’

मिसेज हडसन सीता को गोद में उठा कर चूमने लगीं. वरुण और तूलिका को धन्यवाद देते हुए हडसन दंपती सीता को ले कर अपने घर आए.

तूलिका अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आई. उसे सीता से बिछुड़ने का दुख तो था पर साथ में सीता के जन्म के समय ही वरुण को अच्छी सौफ्टवेयर कंपनी में औफर मिलने की खुशी भी थी. इधर, कुछ दिनों से सौफ्टवेयर कंपनियों के अच्छे दिन लौटने लगे थे.

तूलिका घर पर कुछ दिनों तक उदास रही. उस ने एक दिन वरुण से कहा, ‘‘एक तरह से तो सीता की 3 मांएं हुईं. एक मां जिस ने अपना अंडाणु दिया उस की बायोलौजिकल मां, दूसरी उस की सैरोगेट मां यानी मैं और तीसरी मां मिसेज हडसन जो कानूनन असली मां कहलाएंगी. पर सच कहो तो मैं ही उस की असली मां हूं. मैं ने 9 महीने तक उस को हर पल कोख में महसूस किया है.’’

वरुण ने स्वीकार करते हुए सिर हिलाया था. ठीक उसी समय हडसन का फोन आया, ‘‘मैं ने नई सौफ्टवेयर कंपनी खोली है. सीता टैक्नोलौजी नाम रखा है कंपनी का. तूलिका का उस में 5 प्रतिशत हिस्सा रहेगा और वह जब स्वस्थ महसूस करे, कंपनी जौइन कर सकती है.’’

वरुण बोला, ‘‘लो, अब खुश हो जाओ, सीता नाम के साथ तुम जुड़ी रहोगी.’’

तूलिका अपने दुपट्टे से आंसू पोंछते हुए हंसने लगी.

Mother’s Day 2024: अर्धविक्षिप्त बच्चे की मां का दर्द

आटा खत्म हो गया था किंतु सुदीर्घ की भूख नहीं, वह उसी प्रकार थाली पर हाथ रखे टुकुरटुकुर देख रहा था. 16 रोटियां वह खा चुका था. मां हो कर भी मैं उस की रोटियां गिन रही थी. फिर आटा गूंध कर सुदीर्घ को खिलापिला कर जब मैं उठी तो रात के साढ़े 10 बज रहे थे.

सुदीर्घ वहीं थाली में हाथ धो कर जमीन पर औंधा पड़ा सो रहा था, उसे किसी तरह खींच कर बिस्तर पर लिटाया. उस की मसहरी लगाई. इस के बाद मैं भी लेट गई.

सुदीर्घ मेरा 20 वर्षीय अर्द्घ्रविक्षिप्त पुत्र था. लगभग 5 वर्ष तक वह सामान्य बच्चों की तरह रहा फिर उस का शरीर तो बढ़ता गया किंतु मानसिक क्षमता जस की तस ही बनी रही. वह हंस कर या क्रोधित हो कर अपनी बात समझा देता था, शरीर से बलवान था. उस से 4 वर्ष बडे़ उस के भाई सुमीर में ऐसी किसी भी तरह की अस्वाभाविकता के लक्षण न थे. वह तीक्ष्ण बुद्घि का स्मार्ट युवक था और बहुत कम उम्र में ही प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा बैंक की नौकरी पा गया था.

मेरे पति, 2 बेटे और ‘मैं’ इस छोटे से परिवार में मानसिक शांति और सुकून न था. सुदीर्घ की भूख अस्वाभाविक थी, हर 2 घंटे में वह खाने के लिए बच्चों की तरह उपद्रव करता. उम्र बढ़ने के साथ उस में उन्मत्तता भी बढ़ती गई. उन्मत्तता की स्थिति में वह चीखता, चिल्लाता, कपड़े फाड़ डालता और पकड़ने वाले पर हिंसक आक्रमण भी कर देता था. उस के पिता और भाई उसे पकड़ कर नींद का इंजेक्शन देते और कमरे में बंद कर देते.

1-2 वर्ष के बाद उस मेें एक समस्या और उत्पन्न हो गई थी. वह लड़कियों और औरतों के प्रति तीव्र आकर्षण महसूस करता एवं अशोभ- नीय हरकतें करने लगा था. कभी काम वाली बाई को परेशान करता. कभी महल्लेटोले की लड़कियों और महिलाओं को घूरता, उन्हें छूने का प्रयास करता. उस की इन आदतों की वजह से ही मैं उसे कहीं भी ले कर नहीं जाती थी.

दीदी के बेटे के विवाह की घटना तो मैं भूल ही नहीं सकती. उन के बहुत अनुरोध पर मैं मय परिवार वहां पहुंची. सुदीर्घ उन के महीनों के लिए बनाए लडडुओं, मठरियों को 2 ही दिन में चट कर गया, रिश्तों की बहनों के साथ भी वह अनापशनाप हरकतें करता, उन के करीब जाने की कोशिश करता, लोग उसे पागल समझ कर टाल जाते, उस पर हंसते और मैं खून का घूंट पी कर रह जाती.

विवाह की पूर्व रात्रि को तो उस ने हद ही कर दी, लड़कियों के बीच जा कर लेट गया. मना करने पर उपद्रव करने लगा. उसे दवा वगैरह दे कर हम उसी रात किराए की कार से लौट गए. उस के बाद मैं ने उसे ले कर कहीं न जाने की कसम खा ली.

मानसिक शांति के अभाव में सुमीर भी घर में कम ही रहता. उस के पिता भी पूरापूरा दिन बाहर बैठ कर अखबार पढ़ते रहते, केवल खाने और सोने को अंदर आते. सुदीर्घ का पूरा दायित्व मुझ पर था. वह मुझे भी धकिया देता, नोच लेता किंतु प्यार से समझाने पर केवल मेरी ही बात सुनता.

एक दिन काम वाली बाई ने मुझ से कहा, ‘माताजी, आप भैया की शादी क्यों नहीं कर देतीं?’

‘कौन लड़की देगा उस को?’ मैं ने उदासीनता से कहा.

‘अरे, गरीब घर की लड़कियां बहुतेरी मिलेंगी, शादी के बाद वह ठीक भी हो जाएंगे.’

मैं ने ‘हां, हूं’ कर दिया, गरीब घर की लड़की की क्या जिंदगी नहीं होती. गुस्से में कहीं उसे मार ही डाले तो कौन जिम्मेदार होगा.

उसी दिन शाम को सुदीर्घ ने काम वाली बाई पर आक्रमण कर दिया. मैं और सुदीर्घ के पापा बाहर बैठे चाय पी रहे थे. नींद का इंजेक्शन लिए सोते सुदीर्घ के प्रति हम निश्चिंत थे. अचानक चीख सुन कर अंदर गए, आंगन में बाई को पकड़ कर कमरे की ओर घसीटते सुदीर्घ को चीख कर मैं ने सावधान किया फिर बाई को छुड़ाने लगी तो उस ने मुझे दानव की तरह धकेल दिया.

हक्केबक्के खड़े उस के पिता ने पास रखी सुमीर की हाकी उठा ली और पागलों की तरह उस पर टूट पड़े. मैं उसे बचाने को आगे बढ़ी और लड़खड़ा कर गिरी और अचेत हो गई. आंखें खुलने पर सुमीर व उस के पिता को अपने पास बैठे पाया.

‘सुदीर्घ कहां है?’ मैं ने पूछा था.

‘यहीं है, घर के बाहर बैठा है,’ सुमीर के पिता ने कहा.

‘बाहर, अरे, कहीं भाग जाएगा?’

‘भाग जाने दो नालायक को. खानेपीने व आराम की खूब समझ है लेकिन अन्य बातों के लिए पागल बन जाता है.’ उस के पिता गुस्से से लाल थे.

मैं रोने लगी. सुमीर ने मुझे समझाया, ‘मां, आप परेशान क्यों हो रही हैं. वह यहीं दरवाजे के बाहर बैठा है. पापा ने उसे पीट कर बाहर निकाला है. सही और गलत की समझ उसे होनी चाहिए, यह सजा जरूरी है, कब तक लाड़प्यार में हम उस की भद्दी हरकतों को बरदाश्त करते रहेंगे.’

मुझे बाई वाली घटना का ध्यान आया, लज्जा आ गई. यह विवेकहीन, बुद्धिहीन, निरा पागल लड़का मेरी ही तो कोख की संतान था. रात में सब के सोने पर मैं धीरे से उठी, रात के 11 बज रहे थे. बेचारा, बिना खाएपिए बाहर बैठा था, किंतु दरवाजा खोलने पर वहां सुदीर्घ नहीं मिला.

सुमीर व उस के पिता को जगाया. दोनों स्कूटर ले कर आसपास का पूरा इलाका छान आए किंतु वह कहीं नहीं मिला. एक राहगीर ने बताया कि उन्होंने एक गोरे, स्वस्थ लड़के को ट्रक के पीछे लटक कर जाते देखा था. पुलिस को खबर की गई किंतु उस का कहीं अतापता न चला.

दिन के बाद महीने और अब साल बीतने को आ रहा था. सुदीर्घ न लौटा न उस का कोई सुराग मिला. हम भी रोरो कर थक चुके थे.

परिजनों की सलाह पर अब हम सुमीर के विवाह का सपना देखने लगे. घर में पायल और चूडि़यों की छनक गूंजेगी, जीने का एक बहाना मिल गया. जीवन में एक लय उत्पन्न हो गई किंतु तभी एक दिन पुलिस हमारे दरवाजे पर आ खड़ी हुई. बताया, सुदीर्घ का पता चल गया था, उस ने एक नशेड़ीगंजेड़ी साधु की संगत में पूरा साल बिता दिया था. निश्चय ही वह भी नशा करने लगा था.

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पुलिस जीप में हम तीनों हैरान- परेशान बैठ गए, शहर से लगभग 50-55 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव में पुलिस हमें ले कर पहुंची. आगे जो दृश्य हम ने देखा उसे किस तरह सहन किया यह केवल हम ही जानते हैं.

वहां सुदीर्घ नहीं उस की क्षतविक्षत सड़ीगली देह पड़ी थी. तेज रफ्तार से जाते किसी ट्रक की चपेट में वह आ गया था और नशे में धुत उस के साथी को अपनी ही खबर नहीं थी तो उस की क्या होती.

कई दिन बाद गांव वालों की खबर पर पुलिस आई. उस के साथ सुदीर्घ की फोटो व पहचान का मिलान कर के हमें सूचित किया गया था.

सुदीर्घ के शव को जीप में डाल हम लौैट चले. उस का सिर उस के पिता की गोद में पड़ा था. वे पश्चात्ताप की आग में जलते रो रहे थे. उन्होेंने ही उसे घर से निकाला जो था.

मुझे याद आ रहा था कि उस के जन्म पर कितना जश्न मनाया गया था. वह था भी गोलमटोल, प्यारा सा. कितने सपने बुने थे उसे ले कर. लेकिन उस के बड़े होतेहोते सब टूट गए. वह विधि के विधान का एक ‘मजाक’ बन कर रह गया, आश्रित, बलिष्ठ पर बुद्धिहीन. सभ्य लोगों की दुनिया का असभ्य, हिंसक सदस्य, अपने सभी कर्म, कुकर्मों का लेखाजोखा छोड़ पंच तत्त्व में विलीन हो गया.

मैं हमेशा उस के बचपन की यादों में खोई रहती, पगपग पर सुमीर के पिता व सुमीर मुझे संभालतेसमझाते. उन्हीं कठिन परिस्थितियों में ‘इन की’ बड़ी बहन सुमीर के लिए ‘रम्या’ का रिश्ता ले कर आईं. हम ने ‘हां’ कर दी. चट मंगनी पट ब्याह हो गया.

सुंदर, कोमल, बुद्धिमान, शिक्षित ‘रम्या’ हमारे घर खुशियों का झोंका ले कर पहुुंची. टूटे हृदय वाले हम 3 लोगों को उस ने बखूबी संभाल लिया. आराम से बैठ कर रोटी खाने का क्या आनंद होता है वह तो अब हम ने जाना था. मैं और सुमीर के पिता टेलीविजन देखते हुए चाय की चुस्कियां लेते, बातें करते हुए शाम को झोला लिए बाजारहाट कर आते. लौटने पर घर साफसुथरा चमकता हुआ मिलता. गरमागरम भोजन मेज पर सजा रहता.

महल्ले की लड़कियों व औरतों का जमघट अब हमारे घर लगा रहता. पहले जो सुदीर्घ के कारण आसपास नहीं फटकती थीं अब रम्या के सुंदर स्वभाव के आकर्षण में बंधी चली आतीं. उन की चहचहाहटों, खिलखिलाहटों में हम अपने जीवन का लुत्फ उठाते. सुमीर आफिस के बाद अब हर समय घर पर ही बना रहता. जीवन की इन छोटीछोटी खुशियों में इतना आनंदरस होता है, यह हम ने अब जाना. महीने दो महीने में हम रिश्तेदारों के घर भी चक्कर लगा आते और वे भी चले आते. हमें अब जीवन से कोई शिकायत नहीं रह गई थी.

आज दोपहर को खाकी वरदी वाले पुन: ढेरों आशंकाएं लिए जीप में आए. और इन को सुदीर्घ की एक फोटो दिखाई, ‘‘यह आप का लड़का है?’’

‘‘हां, लेकिन इस की मृत्यु हो चुकी है?’’

‘‘नहीं, यह जिंदा है,’’ पुलिस अधिकारी हंस कर बोला.

‘‘मैं कैसे विश्वास करूं, अपने हाथों उस का दाहसंस्कार किया है मैं ने,’’ सुमीर के पिता परेशान थे.

‘‘क्या उस को देख कर आप को लगा था कि वह आप का ही बेटा है, मेरा मतलब सारे पहचान चिह्न आदि?’’

हम में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. पहचानलायक शरीर तो था ही नहीं, वह तो इस कदर बुरी हालत में था कि उस में पहचान के चिह्न खोजना ही मुश्किल था. सच, किसी अपरिचित भिखारी की मृत देह को दुलारते, पुचकारते, आंसुओं की गंगा बहाते हम ने मुखाग्नि दे डाली थी.

अगले दिन अपने चिरपरिचित अंदाज में सुदीर्घ हमारे सामने खड़ा था. कुछ आवश्यक औपचारिकता पूरी कर के उसे हमें सौंप दिया गया था. इन डेढ़ सालों तक वह किसी अमीर व्यापारी के फार्म हाउस में पड़ा था. वहीं मजदूरों के बीच सुमीर के एक मित्र ने उसे पहचाना था जो वहीं नौकरी कर रहा था, जिस के चलते सुदीर्घ आज हमारी आंखों के सामने खड़ा था.

वह सभी कमरों में घूमता रहा. मेरे पास आया, पिता के पास गया फिर रम्या के पास जा कर ठिठक गया, उस के चारों ओर गोलगोल घूमते हुए वह हंसने लगा. उस के जोरजोर से हंसने से भयभीत हो कर रम्या अपने कमरे की ओर दौड़ी, पीछे वह भी दौड़ा, सुमीर उसे पकड़ कर उस के कमरे में ले गया.

बहुत दिनों बाद मैं ने रसोई में जा कर उस के लिए ढेर सारा खाना बनाया. शाम तक सुदीर्घ के आने की खबर आग की तरह महल्ले में फैल गई. काम वाली बाई ने न आने का समाचार भिजवा दिया. रम्या की सहेलियां बाहर से ही उलटे पांव लौट गईं. रात गहराने से पहले सुमीर, रम्या को अपना सामान पैक करते देख मैं सन्न रह गई.

‘‘मम्मी, अब रम्या का यहां रहना मुश्किल होगा. सुदीर्घ को या तो मानसिक अस्पताल में भरती करवा दो या उस की कहीं भी शादी करवा दो,’’ सुमीर ने कहा.

वह ठीक कह रहा था. मैं और उस के पिता आंखों में आंसू भरे उन्हें जाते विवशता से देखते रहे. हम हताश व निराश थे. अंदर कमरे से खापी कर सो रहे सुदीर्घ के खर्राटों की आवाज आ रही थी. घर में सन्नाटा छाया था. चलती हुई हवा की आवाज भी कान में शोर पैदा कर रही थी.

‘‘हम ने उसे जन्म दिया है, सड़क पर थोड़े ही न फेंक देंगे, उस की जिम्मेदारी तो हमें ही वहन करनी होगी. लेकिन कल तक कितने खुश थे न हम, आज सब हमें छोड़ कर चल दिए,’’ सुमीर के पिता धीरेधीरे कह रहे थे मानो खुद से बतिया रहे हों.

मन की सारी खिन्नता, क्षोभ, असंतोष, दुख और शायद तनिक स्वार्थ से प्रेरित, भरे मन से यह एक वाक्य निकला, ‘‘काश, जिस अपरिचित व्यक्ति का हम ने अंतिम संस्कार किया था वह सुदीर्घ ही होता.’’

सुमीर के पिता चौंक कर मुझे देखने लगे, क्या यह एक अपने कोख से जन्मे पुत्र के लिए मां के कथन थे?

Mother’s Day 2024- कन्याऋण : कन्याऋण : क्या नेहा की शादी का फैसला सही साबित हुआ? – भाग 2

अनुभा की सलाह का उस की सास पर कोई असर नहीं हुआ. वह बोलीं, ‘बहू, यह जरूरी नहीं है कि जो तुम्हारी मौसेरी बहन के साथ हुआ, वैसा ही नेहा के साथ भी घटित हो. मुझे गोमती जीजी ने भरोसा दिया है कि उन के रिश्तेदार बहुत भले और नेक इनसान हैं, वे हमारी नेहा को बहुत प्यार से रखेंगे.’

‘मांजी दूसरे लोगों की बातों से तो हम अपनी नेहा के भविष्य का फैसला नहीं कर सकते,’ अनुभा बोली, ‘नेहा की शादी कर के हमें क्या लाभ होगा? कल को शादी के बाद वह गर्भवती हो गई और उस की संतान भी उस जैसी ही होगी तो कितनी मुसीबत हो जाएगी?’

अनुभा की बात सुन कर सास और भी झल्ला गईं. वह आवेश में बोलीं, ‘वाह बहू, तुम भी कितनी दूर की सोचती हो, तुम्हारी अपनी कोई बेटी नहीं है न इसीलिए तुम क्या जानो, कन्यादान का धर्म क्या होता है? कोई भी मां अपनी बेटी को जीवन भर कुंआरी नहीं रख सकती. मैं तो अब तक यही समझ रही थी कि नेहा को उस की दोनों छोटी भाभियां तो नहीं चाहतीं पर कम से कम तुम तो उस को दिल से चाहती हो पर आज तुम्हारी बातों को सुन कर लगा कि वह मेरा भ्रम था.

‘तुम्हें शायद इस बात की चिंता है कि नेहा की शादी के लिए तुम्हारे पति को 2-4 लाख रुपए की व्यवस्था करनी पड़ेगी पर तुम्हें घबराने की जरूरत नहीं है. तुम्हारे ससुरजी ने नेहा के जन्म के समय ही उस के विवाह के लिए 25 हजार की एफ.डी. करवा दी थी जो अब ब्याज समेत 5 लाख की है. मैं उसी से नेहा के विवाह की सारी व्यवस्था कर लूंगी.’

नवीन इतनी देर तक मौन रह कर दोनों की बातें सुन रहा था. अंत में वह अनुभा को डांटते हुए बोला, ‘तुम मां से क्यों बहस कर रही हो. जब उन को तुम्हारी बात ठीक नहीं लग रही है तो इस विषय पर चर्चा बंद करो.’

फिर नवीन मां से बोला, ‘मां, आप जो भी फैसला करेंगी, मुझे मान्य है. नेहा के विवाह के लिए रुपए की व्यवस्था की चिंता करने की आप को जरूरत नहीं है, मैं सारा इंतजाम कर दूंगा.’

2 माह बाद नेहा के विवाह की तारीख तय हो गई. इस बीच नवीन और उस के दोनों भाई नेहा के ससुराल जा कर लड़के और उस के परिवार से मिल आए. वहां से वापस लौटने के बाद नवीन ने नेहा की ससुराल वालों के लालचीपूर्ण रवैये और लड़के के दब्बूपन के बारे में मां को बता कर अपना असंतोष दिखाया था पर मां अपने निर्णय पर दृढ़ रही थीं.

विवाह की तैयारियों में व्यस्त अनुभा जब भी नेहा को देखती, उस की आंखें भर आतीं. नेहा शादीविवाह का असली मतलब क्या है, इस बात से पूरी तरह अनजान थी पर अपने लिए आए ढेर सारे सामान को देख कर उस की आंखें खुशी से चमक उठती थीं. वह बारबार अनुभा से पूछती, ‘भाभी, यह सारी चीजें मेरी हैं न? भाभी, बबलू, टीना, रीना और मिनी मुझे अपनी चीजें छूने नहीं देते. दोनों भाभियां भी मुझे अपना सामान नहीं देखने देतीं, अब मैं भी अपना सामान किसी को छूनेनहीं दूंगी.’ कभी नेहा कहती, ‘भाभी, शादी में मुझे भी घाघराचुन्नी पहनाओगी न.

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हां, साथ में

मैचिंग चूडि़यां भी पहनाना. मुझे लाल रंग बहुत अच्छा लगता है.’

नेहा की बालसुलभ जिज्ञासाएं देख कर कभी अनुभा सोचती, चलो, नेहा के जीवन में कभी तो खुशी के क्षण आए, चाहे थोडे़ समय के लिए ही सही. उस ने शादी के पहले नेहा को उस के वैवाहिक जीवन के बारे में भी जानकारी देने का प्रयास किया. उस का, अपने पति तथा ससुराल के दूसरे सदस्यों से कैसा व्यवहार हो, इस बारे में भी उसे विस्तार से समझाया.

नेहा उस की बातें सुन कर कुछ क्षण तो गंभीर हो जाती पर फिर अपनी वही बालसुलभ बातें और हरकतें करने लगती.

अनुभा को यह देख कर हैरानी होती कि ज्यादातर रिश्तेदार नेहा की शादी के फैसले पर उस की सास को बधाइयां देते हुए कहते, ‘चलो जी, आप ने तो बेटी की शादी कर के बहुत अच्छा किया. अब आप कन्याऋण से उऋण हो जाएंगी.’ उन की बातें सुन कर उस की सास अपने चेहरे पर गर्वीली मुसकान लाते हुए उस की ओर नजर डालती, ताकि उस को एहसास हो कि नेहा के विवाह का विरोध कर वह कितनी बड़ी गलती कर रही थी.

नेहा के ससुराल जाने के बाद घर एकदम सूना हो गया. उस की बालसुलभ हरकतें रहरह कर अनुभा को याद हो आतीं. मांजी भी नेहा के जाने के बाद से उदास रहने लगी थीं. यद्यपि वे सब के सामने अपनी मनोदशा जाहिर नहीं करतीं पर सब की तरह उन के मन में भी यह आशंका जरूर थी कि नेहा ससुराल में एडजस्ट हो पाएगी कि नहीं.

नेहा को ससुराल गए एक माह से अधिक हो गया था. शुरूशुरू में तो उस से हर दिन ही फोन पर बात हो जाती थी और वह खुश भी लगती थी पर धीरेधीरे उस की आवाज में उदासी छलकने लगी. अब फोन पर वह बोलने लगी थी, ‘भाभी, मुझे यहां अच्छा नहीं लगता. यह लोग सारे समय मुझे देख कर हंसते हैं और मुझे पागल कह कर चिढ़ाते हैं. ये सब बहुत गंदे हैं, राजेश भी इन के साथ मेरा मजाक उड़ाता है.’

नेहा की बातें सुन कर अनुभा को थोड़ी चिंता होनी लगी थी पर वह नेहा को यही समझाती कि वह जिद न करे. सब की बात माने.

पिछले एक सप्ताह से वे जब भी फोन करते नेहा के ससुराल वाले कोई न कोई बहाना बना कर उस से बात नहीं होने देते. कभी कहते, नेहा बाजार गई है, कभी बाथरूम में है तो कभी सो रही है. एक दिन नवीन ने राजेश से बात करने की कोशिश की पर वह भी उन से बात करने से कतराता रहा.

उस दिन रविवार था. नवीन, मांजी और अनुभा ड्रांइगरूम में बैठे नेहा की ही बात कर रहे थे कि नवीन बोला, ‘मां, आज एक बार मैं फिर नेहा से बात करने की कोशिश करता हूं, यदि आज भी उस से बात नहीं हो पाती है तो मैं कल नेहा को कुछ दिनों के लिए उस के ससुराल से ले कर आने की सोच रहा हूं.’

इतना कह कर नवीन नेहा के ससुराल फोन डायल करने लगा. संयोग से उस दिन नेहा ने ही फोन उठाया था.

नवीन की आवाज सुनते ही वह फोन पर ही जोरजोर से रो पड़ी, ‘भैया, आप लोग फोन क्यों नहीं करते? आप यहां से मुझे ले जाओ. ये लोग बहुत खराब हैं. मुझे बहुत तंग करते हैं. मैं इन के पास नहीं रहूंगी.’

नेहा आगे कुछ कहती उस के पहले ही किसी ने रिसीवर उस के हाथ से छीन कर रख दिया था.

अब तो कुछ सोचने का प्रश्न ही नहीं था. उन लोगों ने तय किया कि शाम की ट्रेन से ही नवीन और अनुभा नेहा के ससुराल जा कर एक बार वस्तुस्थिति की जानकारी लें. नेहा की बात सुन कर घर में सब का ‘मूड’ खराब हो गया था.

सुबह अचानक अपने घर में नवीन और अनुभा को देख कर नेहा के ससुराल वाले सकपका गए. नेहा को जब उन के आने का पता चला तो वह दौड़ती हुई आई और नवीन को देखते ही उस से लिपट गई. नेहा की आंखों में दहशत और खौफ देख कर दोनों घबरा गए और अनुभा ने ज्यों ही उस की पीठ पर हाथ फेरा, वह जोरजोर से सुबक पड़ी. बारबार एक ही बात दोहरा रही थी, ‘भाभी, मुझे अपने साथ ले चलो, ये सब लोग बहुत गंदे हैं. मैं इन के घर कभी नहीं आऊंगी.’

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