आटा खत्म हो गया था किंतु सुदीर्घ की भूख नहीं, वह उसी प्रकार थाली पर हाथ रखे टुकुरटुकुर देख रहा था. 16 रोटियां वह खा चुका था. मां हो कर भी मैं उस की रोटियां गिन रही थी. फिर आटा गूंध कर सुदीर्घ को खिलापिला कर जब मैं उठी तो रात के साढ़े 10 बज रहे थे.

सुदीर्घ वहीं थाली में हाथ धो कर जमीन पर औंधा पड़ा सो रहा था, उसे किसी तरह खींच कर बिस्तर पर लिटाया. उस की मसहरी लगाई. इस के बाद मैं भी लेट गई.

सुदीर्घ मेरा 20 वर्षीय अर्द्घ्रविक्षिप्त पुत्र था. लगभग 5 वर्ष तक वह सामान्य बच्चों की तरह रहा फिर उस का शरीर तो बढ़ता गया किंतु मानसिक क्षमता जस की तस ही बनी रही. वह हंस कर या क्रोधित हो कर अपनी बात समझा देता था, शरीर से बलवान था. उस से 4 वर्ष बडे़ उस के भाई सुमीर में ऐसी किसी भी तरह की अस्वाभाविकता के लक्षण न थे. वह तीक्ष्ण बुद्घि का स्मार्ट युवक था और बहुत कम उम्र में ही प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा बैंक की नौकरी पा गया था.

मेरे पति, 2 बेटे और ‘मैं’ इस छोटे से परिवार में मानसिक शांति और सुकून न था. सुदीर्घ की भूख अस्वाभाविक थी, हर 2 घंटे में वह खाने के लिए बच्चों की तरह उपद्रव करता. उम्र बढ़ने के साथ उस में उन्मत्तता भी बढ़ती गई. उन्मत्तता की स्थिति में वह चीखता, चिल्लाता, कपड़े फाड़ डालता और पकड़ने वाले पर हिंसक आक्रमण भी कर देता था. उस के पिता और भाई उसे पकड़ कर नींद का इंजेक्शन देते और कमरे में बंद कर देते.

1-2 वर्ष के बाद उस मेें एक समस्या और उत्पन्न हो गई थी. वह लड़कियों और औरतों के प्रति तीव्र आकर्षण महसूस करता एवं अशोभ- नीय हरकतें करने लगा था. कभी काम वाली बाई को परेशान करता. कभी महल्लेटोले की लड़कियों और महिलाओं को घूरता, उन्हें छूने का प्रयास करता. उस की इन आदतों की वजह से ही मैं उसे कहीं भी ले कर नहीं जाती थी.

दीदी के बेटे के विवाह की घटना तो मैं भूल ही नहीं सकती. उन के बहुत अनुरोध पर मैं मय परिवार वहां पहुंची. सुदीर्घ उन के महीनों के लिए बनाए लडडुओं, मठरियों को 2 ही दिन में चट कर गया, रिश्तों की बहनों के साथ भी वह अनापशनाप हरकतें करता, उन के करीब जाने की कोशिश करता, लोग उसे पागल समझ कर टाल जाते, उस पर हंसते और मैं खून का घूंट पी कर रह जाती.

विवाह की पूर्व रात्रि को तो उस ने हद ही कर दी, लड़कियों के बीच जा कर लेट गया. मना करने पर उपद्रव करने लगा. उसे दवा वगैरह दे कर हम उसी रात किराए की कार से लौट गए. उस के बाद मैं ने उसे ले कर कहीं न जाने की कसम खा ली.

मानसिक शांति के अभाव में सुमीर भी घर में कम ही रहता. उस के पिता भी पूरापूरा दिन बाहर बैठ कर अखबार पढ़ते रहते, केवल खाने और सोने को अंदर आते. सुदीर्घ का पूरा दायित्व मुझ पर था. वह मुझे भी धकिया देता, नोच लेता किंतु प्यार से समझाने पर केवल मेरी ही बात सुनता.

एक दिन काम वाली बाई ने मुझ से कहा, ‘माताजी, आप भैया की शादी क्यों नहीं कर देतीं?’

‘कौन लड़की देगा उस को?’ मैं ने उदासीनता से कहा.

‘अरे, गरीब घर की लड़कियां बहुतेरी मिलेंगी, शादी के बाद वह ठीक भी हो जाएंगे.’

मैं ने ‘हां, हूं’ कर दिया, गरीब घर की लड़की की क्या जिंदगी नहीं होती. गुस्से में कहीं उसे मार ही डाले तो कौन जिम्मेदार होगा.

उसी दिन शाम को सुदीर्घ ने काम वाली बाई पर आक्रमण कर दिया. मैं और सुदीर्घ के पापा बाहर बैठे चाय पी रहे थे. नींद का इंजेक्शन लिए सोते सुदीर्घ के प्रति हम निश्चिंत थे. अचानक चीख सुन कर अंदर गए, आंगन में बाई को पकड़ कर कमरे की ओर घसीटते सुदीर्घ को चीख कर मैं ने सावधान किया फिर बाई को छुड़ाने लगी तो उस ने मुझे दानव की तरह धकेल दिया.

हक्केबक्के खड़े उस के पिता ने पास रखी सुमीर की हाकी उठा ली और पागलों की तरह उस पर टूट पड़े. मैं उसे बचाने को आगे बढ़ी और लड़खड़ा कर गिरी और अचेत हो गई. आंखें खुलने पर सुमीर व उस के पिता को अपने पास बैठे पाया.

‘सुदीर्घ कहां है?’ मैं ने पूछा था.

‘यहीं है, घर के बाहर बैठा है,’ सुमीर के पिता ने कहा.

‘बाहर, अरे, कहीं भाग जाएगा?’

‘भाग जाने दो नालायक को. खानेपीने व आराम की खूब समझ है लेकिन अन्य बातों के लिए पागल बन जाता है.’ उस के पिता गुस्से से लाल थे.

मैं रोने लगी. सुमीर ने मुझे समझाया, ‘मां, आप परेशान क्यों हो रही हैं. वह यहीं दरवाजे के बाहर बैठा है. पापा ने उसे पीट कर बाहर निकाला है. सही और गलत की समझ उसे होनी चाहिए, यह सजा जरूरी है, कब तक लाड़प्यार में हम उस की भद्दी हरकतों को बरदाश्त करते रहेंगे.’

मुझे बाई वाली घटना का ध्यान आया, लज्जा आ गई. यह विवेकहीन, बुद्धिहीन, निरा पागल लड़का मेरी ही तो कोख की संतान था. रात में सब के सोने पर मैं धीरे से उठी, रात के 11 बज रहे थे. बेचारा, बिना खाएपिए बाहर बैठा था, किंतु दरवाजा खोलने पर वहां सुदीर्घ नहीं मिला.

सुमीर व उस के पिता को जगाया. दोनों स्कूटर ले कर आसपास का पूरा इलाका छान आए किंतु वह कहीं नहीं मिला. एक राहगीर ने बताया कि उन्होंने एक गोरे, स्वस्थ लड़के को ट्रक के पीछे लटक कर जाते देखा था. पुलिस को खबर की गई किंतु उस का कहीं अतापता न चला.

दिन के बाद महीने और अब साल बीतने को आ रहा था. सुदीर्घ न लौटा न उस का कोई सुराग मिला. हम भी रोरो कर थक चुके थे.

परिजनों की सलाह पर अब हम सुमीर के विवाह का सपना देखने लगे. घर में पायल और चूडि़यों की छनक गूंजेगी, जीने का एक बहाना मिल गया. जीवन में एक लय उत्पन्न हो गई किंतु तभी एक दिन पुलिस हमारे दरवाजे पर आ खड़ी हुई. बताया, सुदीर्घ का पता चल गया था, उस ने एक नशेड़ीगंजेड़ी साधु की संगत में पूरा साल बिता दिया था. निश्चय ही वह भी नशा करने लगा था.

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पुलिस जीप में हम तीनों हैरान- परेशान बैठ गए, शहर से लगभग 50-55 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव में पुलिस हमें ले कर पहुंची. आगे जो दृश्य हम ने देखा उसे किस तरह सहन किया यह केवल हम ही जानते हैं.

वहां सुदीर्घ नहीं उस की क्षतविक्षत सड़ीगली देह पड़ी थी. तेज रफ्तार से जाते किसी ट्रक की चपेट में वह आ गया था और नशे में धुत उस के साथी को अपनी ही खबर नहीं थी तो उस की क्या होती.

कई दिन बाद गांव वालों की खबर पर पुलिस आई. उस के साथ सुदीर्घ की फोटो व पहचान का मिलान कर के हमें सूचित किया गया था.

सुदीर्घ के शव को जीप में डाल हम लौैट चले. उस का सिर उस के पिता की गोद में पड़ा था. वे पश्चात्ताप की आग में जलते रो रहे थे. उन्होेंने ही उसे घर से निकाला जो था.

मुझे याद आ रहा था कि उस के जन्म पर कितना जश्न मनाया गया था. वह था भी गोलमटोल, प्यारा सा. कितने सपने बुने थे उसे ले कर. लेकिन उस के बड़े होतेहोते सब टूट गए. वह विधि के विधान का एक ‘मजाक’ बन कर रह गया, आश्रित, बलिष्ठ पर बुद्धिहीन. सभ्य लोगों की दुनिया का असभ्य, हिंसक सदस्य, अपने सभी कर्म, कुकर्मों का लेखाजोखा छोड़ पंच तत्त्व में विलीन हो गया.

मैं हमेशा उस के बचपन की यादों में खोई रहती, पगपग पर सुमीर के पिता व सुमीर मुझे संभालतेसमझाते. उन्हीं कठिन परिस्थितियों में ‘इन की’ बड़ी बहन सुमीर के लिए ‘रम्या’ का रिश्ता ले कर आईं. हम ने ‘हां’ कर दी. चट मंगनी पट ब्याह हो गया.

सुंदर, कोमल, बुद्धिमान, शिक्षित ‘रम्या’ हमारे घर खुशियों का झोंका ले कर पहुुंची. टूटे हृदय वाले हम 3 लोगों को उस ने बखूबी संभाल लिया. आराम से बैठ कर रोटी खाने का क्या आनंद होता है वह तो अब हम ने जाना था. मैं और सुमीर के पिता टेलीविजन देखते हुए चाय की चुस्कियां लेते, बातें करते हुए शाम को झोला लिए बाजारहाट कर आते. लौटने पर घर साफसुथरा चमकता हुआ मिलता. गरमागरम भोजन मेज पर सजा रहता.

महल्ले की लड़कियों व औरतों का जमघट अब हमारे घर लगा रहता. पहले जो सुदीर्घ के कारण आसपास नहीं फटकती थीं अब रम्या के सुंदर स्वभाव के आकर्षण में बंधी चली आतीं. उन की चहचहाहटों, खिलखिलाहटों में हम अपने जीवन का लुत्फ उठाते. सुमीर आफिस के बाद अब हर समय घर पर ही बना रहता. जीवन की इन छोटीछोटी खुशियों में इतना आनंदरस होता है, यह हम ने अब जाना. महीने दो महीने में हम रिश्तेदारों के घर भी चक्कर लगा आते और वे भी चले आते. हमें अब जीवन से कोई शिकायत नहीं रह गई थी.

आज दोपहर को खाकी वरदी वाले पुन: ढेरों आशंकाएं लिए जीप में आए. और इन को सुदीर्घ की एक फोटो दिखाई, ‘‘यह आप का लड़का है?’’

‘‘हां, लेकिन इस की मृत्यु हो चुकी है?’’

‘‘नहीं, यह जिंदा है,’’ पुलिस अधिकारी हंस कर बोला.

‘‘मैं कैसे विश्वास करूं, अपने हाथों उस का दाहसंस्कार किया है मैं ने,’’ सुमीर के पिता परेशान थे.

‘‘क्या उस को देख कर आप को लगा था कि वह आप का ही बेटा है, मेरा मतलब सारे पहचान चिह्न आदि?’’

हम में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. पहचानलायक शरीर तो था ही नहीं, वह तो इस कदर बुरी हालत में था कि उस में पहचान के चिह्न खोजना ही मुश्किल था. सच, किसी अपरिचित भिखारी की मृत देह को दुलारते, पुचकारते, आंसुओं की गंगा बहाते हम ने मुखाग्नि दे डाली थी.

अगले दिन अपने चिरपरिचित अंदाज में सुदीर्घ हमारे सामने खड़ा था. कुछ आवश्यक औपचारिकता पूरी कर के उसे हमें सौंप दिया गया था. इन डेढ़ सालों तक वह किसी अमीर व्यापारी के फार्म हाउस में पड़ा था. वहीं मजदूरों के बीच सुमीर के एक मित्र ने उसे पहचाना था जो वहीं नौकरी कर रहा था, जिस के चलते सुदीर्घ आज हमारी आंखों के सामने खड़ा था.

वह सभी कमरों में घूमता रहा. मेरे पास आया, पिता के पास गया फिर रम्या के पास जा कर ठिठक गया, उस के चारों ओर गोलगोल घूमते हुए वह हंसने लगा. उस के जोरजोर से हंसने से भयभीत हो कर रम्या अपने कमरे की ओर दौड़ी, पीछे वह भी दौड़ा, सुमीर उसे पकड़ कर उस के कमरे में ले गया.

बहुत दिनों बाद मैं ने रसोई में जा कर उस के लिए ढेर सारा खाना बनाया. शाम तक सुदीर्घ के आने की खबर आग की तरह महल्ले में फैल गई. काम वाली बाई ने न आने का समाचार भिजवा दिया. रम्या की सहेलियां बाहर से ही उलटे पांव लौट गईं. रात गहराने से पहले सुमीर, रम्या को अपना सामान पैक करते देख मैं सन्न रह गई.

‘‘मम्मी, अब रम्या का यहां रहना मुश्किल होगा. सुदीर्घ को या तो मानसिक अस्पताल में भरती करवा दो या उस की कहीं भी शादी करवा दो,’’ सुमीर ने कहा.

वह ठीक कह रहा था. मैं और उस के पिता आंखों में आंसू भरे उन्हें जाते विवशता से देखते रहे. हम हताश व निराश थे. अंदर कमरे से खापी कर सो रहे सुदीर्घ के खर्राटों की आवाज आ रही थी. घर में सन्नाटा छाया था. चलती हुई हवा की आवाज भी कान में शोर पैदा कर रही थी.

‘‘हम ने उसे जन्म दिया है, सड़क पर थोड़े ही न फेंक देंगे, उस की जिम्मेदारी तो हमें ही वहन करनी होगी. लेकिन कल तक कितने खुश थे न हम, आज सब हमें छोड़ कर चल दिए,’’ सुमीर के पिता धीरेधीरे कह रहे थे मानो खुद से बतिया रहे हों.

मन की सारी खिन्नता, क्षोभ, असंतोष, दुख और शायद तनिक स्वार्थ से प्रेरित, भरे मन से यह एक वाक्य निकला, ‘‘काश, जिस अपरिचित व्यक्ति का हम ने अंतिम संस्कार किया था वह सुदीर्घ ही होता.’’

सुमीर के पिता चौंक कर मुझे देखने लगे, क्या यह एक अपने कोख से जन्मे पुत्र के लिए मां के कथन थे?

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