पाखंड की गिरफ्त में समाज, वजह जानकर हो जाएंगे शर्मसार

अंधविश्वास

रामप्यारे महतो गया जिले के एक गांव अमौना के रहने वाले हैं. वे अपनी पतोहू कलावती देवी को मगध मैडिकल अस्पताल, गया में ले कर आए थे, जहां उसे बेटा पैदा हुआ. नर्स ने ज्यों ही बताया कि लड़का पैदा हुआ है, बगल में अपनी पत्नी की जचगी कराने आए एक पंडे ने बताया कि भूल कर भी अपने बेटे को नहीं देखना, क्योंकि इस का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ है.

यह बात रामप्यारे महतो के परिवार में चिंता की वजह बन गई. इस के बाद रामप्यारे महतो ने अपने पुरोहित किशोर पंडित के घर जा कर जब सारी बातें बताईं तो उन्होंने बताया कि अगर लड़का मूल नक्षत्र में पैदा हुआ है तो ग्रह को शांत करने के लिए कुछ विधिविधान करना पड़ेगा.

यह है मूल नक्षत्र

किशोर पंडित के मुताबिक, उग्र और तीक्ष्ण नक्षत्र वाले को मूल नक्षत्र, सतईसा या गंडात कहा जाता है. जब बालक इन नक्षत्रों में जन्म लेता है तो इस का असर बालक और उस के मातापिता पर पड़ता है. मूल नक्षत्र के भी कई चरण हैं. पहले चरण में अगर बालक पैदा होता है तो उस का बुरा असर पिता के ऊपर होता है. अगर दूसरे चरण में बेटा पैदा होता है तो माता के ऊपर. अगर तीसरे चरण में पैदा होता है तो इस का बुरा असर लड़के पर पड़ता है.

किशोर पंडित अपने शास्त्र, जो खासकर नक्षत्र से ही संबंधित स्पैशल किताब है, में देख कर बताते हैं कि बालक मूल नक्षत्र के पहले चरण में पैदा हुआ है, इसलिए इस का बुरा असर बालक के पिता के ऊपर पड़ेगा. पिता को बिना मूल नक्षत्र की शांति का उपाय किए बालक का मुंह 27 दिनों तक नहीं देखना है. इस के लिए पूजापाठ कराना पड़ेगा, ब्राह्मणों, गांव वालों और रिश्तेदारों को खाना खिलाना पड़ेगा और दानदक्षिणा देनी पड़ेगी.

पंडितजी ने कहा कि आप दिल खोल कर परिवार को खिलाएं और ब्राह्मणों को बढ़चढ़ कर दान दें. इस से मूल की शांति जरूर होगी और बालक के साथसाथ उस के मातापिता को भी कोई परेशानी नहीं होगी.

रामप्यारे महतो के परिवार वालों ने इस का पूरा इंतजाम किया और पूजापाठ, हवन के साथ 11 ब्राह्मणों को खाना खिलाया और दानदक्षिणा दी.

रामप्यारे महतो ने सूद पर 50,000 रुपए ले कर खर्च किए, पर समाज के किसी भी शख्स ने सम झाने की कोशिश नहीं की कि इस से कुछ नहीं होता. उन्होंने पंडे की बातों में ही हां में हां मिलाने का काम किया.

पापपुण्य और विज्ञान

पापपुण्य और विज्ञान में फर्क यह है कि विज्ञान सभी लोगों के लिए एकसमान काम करता है. जहर खाने से हर धर्म को मानने वाला मरेगा ही. आग का काम जलाना है. कोई भी धर्म मानने वाला उसे छुएगा तो उस का हाथ जलेगा. ऐसा कभी नहीं हो सकता कि हिंदू को आग गरम लगे और ईसाई व मुसलिम को ठंडी.

चाल को समझें

इन पंडों के मूल ढकोसले को समझने की कोशिश करें. इतना सभी को जान लेना चाहिए कि मूल नक्षत्र केवल हिंदुओं के यहां होते हैं.

अगर मूल नक्षत्र में जन्म लेने से इस तरह की अनहोनी होती है तो मुसलिम और ईसाई धर्म वालों के यहां भी बच्चा पैदा होने पर इस तरह की घटनाएं घट सकती हैं, लेकिन मुसलिम और ईसाई धर्म समेत दूसरे धर्मों को मानने वाले लोग जानते भी नहीं हैं कि मूल नक्षत्र क्या होता है?

पाखंड का जाल

पंडों ने समाज में अपने फायदे के लिए इस तरह से शास्त्रों को बनाया है कि कमेरा तबका डर से उन की बातों को मानता रहे. ये परजीवी लोगों को बेवकूफ और अंधविश्वासी बना कर लूटते आ रहे हैं. कमेरे तबके में भी पढ़ेलिखे और नौकरी कर रहे लोग इन धार्मिक पाखंडों को हवापानी देने का काम कर रहे हैं.

सवर्णों के साथसाथ अन्य पिछड़ा वर्ग और कारोबारी तबके के लोग भी इन बातों का पालन करते हैं. इन दकियानूसी बातों को मानते हैं, लेकिन इस का चलन दलित समुदाय में नहीं के बराबर है. इस की अहम वजह यह भी हो सकती है कि दलित समुदाय को लोग अछूत मानते आ रहे हैं.

गौहत्या का मसला

इसी तरह पदार्थ यादव जहानाबाद जिले के गांव ओरा का रहने वाला है. उस की गाय रात में अचानक मर गई. सुबह जब परिवार और गांवभर के लोगों ने देखा तो वे आपस में बातें करने लगे कि पगहा यानी रस्सी बंधी हुई गाय की मौत हो जाती है तो गौहत्या का पाप लग जाता है.

बिहार के गांवों में रहने वाले लोग इस बात को जानते हैं, इसलिए जब भी किसी किसान या मजदूर के यहां जानवर गंभीर रूप से बीमार होता है तो लोग रस्सी को सब से पहले खोल देते हैं.

पदार्थ यादव के पुरोहित यानी उन के गांव के ही पंडित रामाशंकर ने बताया कि इस गौहत्या से बचने के लिए जिस ने गाय को बांधा था, उसे पंचगव्य (दूध, दही, घी, गौमूत्र और गोबर से मिला कर बनाया जाता है) थोड़ा सा खा कर और पूरे शरीर पर लगा कर गंगा स्नान करना पड़ेगा और गंगाजल ला कर पूरे घर में छिड़क कर पहले घर को शुद्ध करना होगा.

इतना ही नहीं, उस के बाद सत्यनारायण की कथा के साथसाथ 5 ब्राह्मण परिवारों को खाना खिलाना पड़ेगा, पूजापाठ, हवन वगैरह तो होगा ही.

एक तो गाय मरने का दुख, ऊपर से इन कामों में 50,000 रुपए अलग से खर्च. पदार्थ यादव के मैट्रिक पास लड़के अजय ने कहा कि हमें यह सब नहीं करना है तो गांव वाले इस का विरोध करने लगे और बोलने लगे कि यह तो करना ही पड़ेगा. अगर नहीं करोगे तो तुम्हारे यहां कोई परिवार कभी नहीं खाएगा. अगर तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं तो भीख भी मांग कर तुम्हें यह करना पड़ेगा.

पदार्थ यादव का परिवार मजबूर हो गया और अपनी भैंस 40,000 रुपए में बेच कर ब्राह्मण भोज खिलाया, पूजापाठ किया और दानदक्षिणा दी.

लूट है जारी

इस तरह हमारे समाज में जन्म से ले कर मरने तक पंडों द्वारा कमेरा तबके को बेवकूफ और अंधविश्वासी बना कर लूटने की परंपरा 21वीं सदी में भी जारी है. झूठ की संस्कृति को हवापानी देने का काम कमेरे तबके के लोगों में पढ़ेलिखे ही कर रहे हैं. अपनी मेहनत से जो लोग पढ़लिख गए हैं, नौकरी या कारोबर कर रहे हैं, उन्हें पंडों की इस साजिश को समझना चाहिए, लेकिन वे और ही ज्यादा धर्म से डरने वाले और अंधविश्वासी हैं.

एक आम आदमी, जिस की मासिक आय 10,000 रुपए है, वह भी इन धार्मिक संस्कारों, पूजापाठ पर औसतन साल में 10-20 हजार रुपए खर्च कर देता है. जन्म से ले कर मरने तक सभी संस्कारों में पूजापाठ और पंडों को दानदक्षिणा देने की परंपरा आज भी है. बच्चा के जन्म लेने पर जन्मोत्सव, जनेऊ संस्कार, बच्चे के नामकरण और जन्म होने पर उस की शादी में तरहतरह के कर्मकांड कराए जाते हैं, जिन में इन पंडों का ही अहम रोल होता है.

मरने पर ब्रह्मभोज किया जाता है जिंदा रहने पर अपने पुरखों को कभी अच्छा खाना दिया हो या नहीं, पर मरने पर उन के मुंह में पंचमेवा ठूंसा जाता है. मृत शरीर को घी लगाया जाता है. जिंदा रहते जिन्हें खाने के लिए कभी घी दिया नहीं, उन्हें जलाने के लिए घी, चंदन और धूपअगरबत्ती का इस्तेमाल किया जाता है.

आज भी लोगों के मरने पर बाल मुंड़ाए जाते हैं. जमीन बेच कर, गिरवी रख कर, सूद पर पैसा ले कर भी ब्रह्मभोज कराना पड़ता है. जो लोग अगर इसका बहिष्कार करने की हिम्मत जुटाते हैं, उन्हें समाज से ही बाहर होना पड़ता है.

पंडों ने एक साजिश के तहत ऐसे धर्मग्रंथों की रचना की, जिस से मेहनत करने वाला कमेरा तबका अपनी मेहनत का एक हिस्सा इन काहिलों के ऊपर खर्च करता रहे और इन का परिवार बिना मेहनत किए लोगों को बेवकूफ बना कर लूटता रहे.

फेरी वालों के फरेब में फंसते लोग

‘ले लो बाबू. 10 कालीन हैं. बहुत ही कम दाम में मिल जाएंगे… हजारों रुपए का सामान बहुत ही कम कीमत पर देंगे. ऐसा मौका बारबार नहीं मिलेगा… हम लोगों को जरूरी काम से घर जाना है, इसलिए कम कीमत पर बेचना पड़ रहा है…’

इस तरह की बातें कहते फेरी वाले घरों और दफ्तरों के आसपास घूमते रहते हैं और कम कीमत पर इतने कालीन या कोई और सामान मिलता देख लोगों का लालची होना लाजिमी है. फेरी वालों की इस मार्केटिंग ट्रिक के  झांसे में लोग खासकर औरतें आसानी से फंस जाती हैं. लोगबाग पैसे जुटा कर फेरी वालों के कहे मुताबिक रुपयों का इंतजाम करते हैं. उन्हें अपनी औकात दिखाते हुए अकड़ के साथ रुपए थमा देते हैं और मन ही मन खुश होते हैं कि काफी कम कीमत पर ढेर सारा सामान मिल गया.

पटना की एक बड़ी कंपनी में काम करने वाले जितेंद्र सिंह कहते हैं कि एक दिन जब वे अपने दफ्तर में बैठ कर काम निबटा रहे थे तो कंधे पर कई चादर और दरी लादे एक नौजवान पहुंचा. उस ने पूछा कि चादर और दरी लेनी है? पहले तो जितेंद्र ने कहा कि नहीं भाई नहीं लेनी है. फेरी वाले ने कहा कि ले लो सस्ते में दे देंगे.

जितेंद्र ने जब पूछा कि कितने की है तो फेरी वाले ने कहा कि ये सब 4,000 रुपए की हैं, अगर 3,000 रुपए दे, तो वह सारी चादरें और दरियां दे देगा.

जितेंद्र ने कहा कि 2,000 रुपए में दोगे तो सोचेंगे. फेरी वाले ने कुछ देर नानुकर करने के बाद कहा कि अगर तुम्हारी जेब में 2,000 हैं तो निकाल दो और ले लो सारा सामान.

जितेंद्र ने कहा कि इतने रुपए फिलहाल उन के पास नहीं हैं, पर वे इंतजाम कर सकते हैं. फेरी वाले ने उन्हें उकसाते हुए कहा कि हो गया न चेहरा पीला. जेब में रुपया रहता नहीं है और चले हैं हजारों का सामान खरीदने.

जितेंद्र और फेरी वाले की बात को पास बैठा स्टाफ चुपचाप सुन रहा था. उस ने जितेंद्र को आगाह करते हुए कहा कि वे फेरी वाले के जाल में फंस रहे हैं. इस के बाद भी जितेंद्र फेरी वाले से सौदा पटाने में लगे रहे. आखिर में फेरी वाला जितेंद्र की औकात बताने लगा. दफ्तर में बेइज्जती होते देख पूरा स्टाफ उस फेरी वाले को मारने दौड़ा. अपनी चाल उलटी पड़ती देख वह फेरी वाला अपना सामान फेंक जान बचा कर भाग खड़ा हुआ.

मुजफ्फरपुर में रहने वाली अर्चना सिन्हा अपनी आपबीती सुनाते हुए कहती हैं कि एक दिन एक फेरी वाला उन के घर पर कालीन देख लेने की गुहार लगाने लगा. पहले तो उन्होंने फेरी वाले से कहा कि उन्हें कालीन की जरूरत नहीं है, पर वह बारबार कालीन देख लेने की जिद करने लगा. मन मार कर वे कालीन देखने लगीं.

कालीन अच्छे लगे और 2,000 रुपए में 10 कालीन देने की बात तय हो गई. फेरी वाले को रुपए दे कर उन्होंने नौकर से कहा कि कालीन अंदर ले आए. रुपए ले कर वह कालीन वाला दरवाजे से बाहर निकल गया.

थोड़ी देर बाद अर्चना सिन्हा ने कालीन का गट्ठर खोल कर देखा तो उस में 4 कालीन ही निकले, वे भी चादर की तरह पतले थे. 2,000 रुपए में 10 कालीन खरीद कर चालाकी भरा सौदा करने की खुशी काफूर हो गई. घटिया क्वालिटी की 4 चादरें देख कर उन की सम झ में आ गया कि वे ठगी जा चुकी हैं. उन्होंने नौकर को बाहर दौड़ाया और फेरी वाले को पकड़ने को कहा, पर वह कहां हाथ आने वाला था.

इस तरह के कालीन, चादर, दरी वगैरह अपने कंधे पर लाद कर कई फेरी वाले यहांवहां घूमते दिखाई देते हैं और आम लोगों को अपनी बातों में फंसा कर ठगते हैं.

मनोविज्ञानी रमेश देव बताते हैं कि ऐसे फेरी वाले आम आदमी की साइकोलौजी को पकड़ते हैं. उन्हें औकात की दुहाई दे कर दिल और दिमाग पर चोट करते हैं और उतावला हो कर और अपने को पैसे वाला साबित करने के चक्कर में लोग आसानी से उन की ठगी का शिकार बन जाते हैं.

ऐसे ठग फेरी वाले 3-4 चादरें, दरियां या कालीन को अपने कंधे पर इस तरह चालाकी और सलीके से सजा कर रखते हैं कि वे 8-10 नजर आते हैं.

कई बार जब कम पैसे में ज्यादा सामान खरीद लेने के अहसास के साथ फेरी वाले के जाने के बाद लोग गट्ठर खोलते हैं तो असलियत का पता चलता है. एक तो सामान कम होता है, साथ ही उस की क्वालिटी भी काफी बेकार होती है.

डीएसपी अशोक कुमार सिन्हा कहते हैं कि ऐसे फेरी वालों को खास तरह की ट्रेनिंग दी जाती है. इस तरह के धंधेबाजों का खासा नैटवर्क चलता है. वे लोग आम आदमी की औकात को ठेस पहुंचा कर अपना मतलब साधते हैं. 500-700 रुपए के सामान को 2-3 हजार रुपए में बेच लेते हैं.

कई मामलों में यह भी देखा गया है कि लोगों को फेरी वालों से सामान लेने की चाहत नहीं होती है, पर जब फेरी वाला उन्हें उन की औकात बताने लगता है तो लोग इज्जत का सवाल बना कर अपनी मेहनत की जमापूंजी को बिना सोचेसम झे उसे दे देते हैं. उस के बाद सामान की घटिया क्वालिटी को देख कर माथा पीटने के अलावा उन के पास कोई चारा नहीं रह जाता है.

फेरी वालों से सामान लेते समय सावधान रहें-

* जिस चीज की जरूरत न हो, कभी भी उस तरह का सामान ले कर आए फेरी वालों से बात न करें.

* फेरी वाला अपनी बातों में फंसा कर अपना उल्लू सीधा करता है, इसलिए उस से फालतू के ज्यादा सवालजवाब न करें.

* इस सोच को खत्म करें कि फेरी वाला सस्ते में अच्छा सामान देता है.

* फेरी वाले कम कीमत की चीजों का भी कई गुना ज्यादा पैसा ऐंठ लेते हैं. उतने पैसे में बाजार से अच्छी क्वालिटी की चीजें मिल जाती हैं. दुकानों में सामानों की रेंज भी अच्छी होती है और सामान की गारंटी भी मिलती है.

* औकात बताने पर उतर आए फेरी वालों को सबक सिखाने के लिए आसपास के लोगों को चिल्ला कर बुला लें. इस से ठग फेरी वाले भाग खड़े होंगे.

* कीमत को ले कर फेरी वालों से ज्यादा बक झक न करें. अगर चीज पसंद नहीं है तो उसे कम कीमत पर भी क्यों लें.

* फेरी वालों की ओट में बहुत बार चोरउचक्के भी घर में घुस कर लूटपाट कर लेते हैं, इसलिए अगर औरतें घर में अकेली हों तो वे फेरी वालों को न बुलाएं.

किसान आत्महत्या कर रहे, मुख्यमंत्री मौन हैं!

छत्तीसगढ़ में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं सन् 2019 में 629 आत्महत्याओं में 233 किसान व खेतिहर मजदूर हैं जिन्होंने आत्महत्या की. और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल किसानों की कथित”आत्महत्या” पर मौन है आखिर क्यों?

पहला पक्ष- अभनपुर के विधायक पूर्व मंत्री धनेंद्र साहू ने कहा  किसान की मानसिक दशा ठीक नहीं थी, इसलिए आत्महत्या कर ली है. ऐसा ही तोरला गांव के सरपंच और सचिव ने अपने बयान में कहा है जिसका विरोध मृतक किसान के परिजनों ने किया.

दूसरा पक्ष – छत्तीसगढ़ सरकार के जांच टीम ने पाया फसल क्षति, कर्ज और भुखमरी का आत्महत्या से कोई संबंध नहीं. दरअसल सरकार किसान आत्महत्या मामलों को स्वतंत्र जांच एजेंसियों के मध्यम से नहीं कराना चाहती.

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तीसरा पक्ष – हमारे संवाददाता ने रायगढ़ ,जांजगीर और कोरबा के कई किसानों से चर्चा की और पाया सरकार की नीतियों और  नकली कीटनाशक दवाइयों के कारण वर्तमान में किसान बेहद क्षुब्ध अवसाद में हैं.

छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के अभनपुर तहसील के ग्राम तोरला के कृषक  प्रकाश तारक की आत्महत्या देशभर में सुर्खियों में रही. इसी तरह मुख्यमंत्री के गृह जिला दुर्ग में एक युवा किसान दुर्गेश निषाद किसान ने आत्महत्या कर ली है.

यहां उल्लेखनीय है कि जब भी कोई किसान  आत्महत्या करता है तो सरकार यही कहती है कि इसमें हमारी नीतियों का कोई लेना देना नहीं है. यह किसान के परिवारिक और व्यक्तिगत कारण से हुआ है. वहीं विपक्ष हमेशा यही कहता है कि यह सरकार की नीतियों के कारण आत्महत्या हुई है. वही चौथा स्तंभ प्रेस मीडिया सच को दिखाने का प्रयास करता है.

छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की सरकार हो अथवा डॉक्टर रमन सिंह की 15 वर्ष की लंबी अवधि की भाजपा सरकार. प्रत्येक सरकार के समय काल में किसान लगातार आत्महत्या करते रहे हैं. यह मामले राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में बने, मगर सरकार ने हर दफा यही कहा कि हम तो बेदाग है. तो आखिर सरकार के  कोशिशों के बाद किसान आत्महत्या क्यों कर लेता है? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब अगर आप गांव के चौराहे और चौपाल पर पहुंचे तो आसानी से मिल सकता है. मगर सरकार का दावा यही रहता है कि इसमें हमारी छोटी सी भी खामी नहीं है. आज हम इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के किसानों के हालात पर और सरकार की नीति की खामियों पर आपको महत्वपूर्ण तथ्य बताने जा रहे हैं-

भूपेश बघेल का सरकारी ढोल..

किसान की आत्महत्या के संदर्भ में कलेक्टर रायपुर द्वारा अधिकारियों की गठित जांच टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया कि कृषक  प्रकाश तारक की आत्महत्या का फसल क्षति, कर्ज और भुखमरी से कोई संबंध नहीं है. मृतक ने मानसिक अवसाद के चलते फांसी लगाकर आत्महत्या की है. अनुविभागीय दण्डाधिकारी अभनपुर, तहसीलदार एवं नायब तहसीलदार अभनपुर ने अपने संयुक्त जांच प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया है. फसल बर्बाद होने से निराश किसान  प्रकाश तारक द्वारा आत्महत्या किए जाने की खबरों को जांच टीम ने बेबुनियाद बताया है नाराजगी व्यक्त करते हुए कड़ी प्रतिक्रिया  व्यक्त की है.

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सनद रहे कि कृषक  प्रकाश तारक द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या किए जाने के मामले की कलेक्टर रायपुर ने एसडीएम अभनपुर के नेतृत्व में एक संयुक्त टीम गठित कर इसकी जांच कराई है. अधिकारियों की संयुक्त टीम ने ग्राम तोरला पहुंचकर मृतक के परिजनों, ग्रामीणों एवं स्थानीय जनप्रतिनिधियों के बयान लिए और मृतक की परिवारिक स्थिति के बारे में भी जानकारी ली.अधिकारियों की संयुक्त टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि मृतक प्रकाश तारक की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी.  अधिकारियों की संयुक्त टीम ने ग्राम तोरला में ग्रामवासियों, हल्का पटवारी, जन प्रतिनिधियों और मृतक परिवार के सदस्यों की उपस्थिति में जांच कर पंचनामा तैयार किया.

अनुविभागीय दण्डाधिकारी अभनपुर और अधिकारियों की संयुक्त टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में मृतक की पत्नी  दुलारी बाई के शपथपूर्वक कथन में बताई गई बातों का उल्लेख करते हुए कहा है कि मृतक को कोई परेशानी नहीं थी न ही उसके उपर कोई कर्ज था, न ही किसी के द्वारा उसको परेशान एवं धमकाया जा रहा था. खेत में लगी फसल की स्थिति सामान्य है। मृतक फसल की कटाई करने के लिए खेत गया हुआ था. मृतक की पत्नी ने अपने बयान में यह भी कहा है कि उसके पति बीते कुछ दिनों से गुमसुम रहा करते थे। तोरला गांव के सरपंच और सचिव ने अपने प्रतिवेदन में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि मृतक की बीते तीन-चार महीनों से मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी. वह गुमसुम रहता था.किसी से कोई बात-चीत नहीं करता था. पूछने पर दवाई लेता हूं, यह कहता था. मृतक के परिवार को शासकीय उचित मूल्य दुकान से नियमित रूप से चावल प्रदाय किया जाता रहा है परिवार में भुखमरी की कोई नौबत नहीं है. हल्का पटवारी ने अपने रिपोर्ट में मृतक  प्रकाश तारक के फसल की स्थिति को सामान्य बताया है. ग्रामीणों एवं जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति में तैयार किए गए पंचनामा के आधार पर जांच अधिकारियों की संयुक्त टीम ने मृतक पर कोई कर्ज न होने, उसके परिवार को नियमित रूप से पीडीएस का राशन मिलने, उसके गुमसुम तथा अवसाद से ग्रसित होने का उल्लेख किया है.

जांच अधिकारियों की संयुक्त टीम ने मृतक की पत्नी  दुलारी बाई, परिवार के अन्य सदस्यों, ग्राम के कोटवार के शपथ पूर्व कथन तथा गोबरा नवापारा थाना में कायम मर्ग तथा विवेचना में इस बात का उल्लेख है कि मानसिक बीमारी से दुखी होकर मृतक प्रकाश तारक ने आत्महत्या की है. वस्तुतः सरकार के कारिंदों द्वारा जारी की गई जांच रिपोर्ट पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि इस तरह किसान की आत्महत्या को झुठलाया जा रहा है.

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सरकार का “सफेद झूठा” होना

यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि किसान प्रकाश के परिजन क्षेत्रीय विधायक व पूर्व मंत्री धनेंद्र साहू से बेहद नाराज हैं जिन्होंने सबसे पहले यह कहा कि प्रकाश मानसिक रूप सेअवसाद ग्रस्त था. और साफ साफ कह रहे हैं कि ऐसी कोई बात नहीं थी. सवाल यह है कि सरकार अपने शासकीय अमले से किसान की आत्महत्या की जांच क्यों करवाती है.क्यों नहीं किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी के द्वारा किसान की आत्महत्या की सच्चाई को जानने का प्रयास किया जाता इसे हेतु “न्यायिक जांच” भी गठित की जा सकती है अथवा विपक्ष को भी जांच का अधिकार दिया जाना चाहिए. मगर कोई भी सरकार किसान आत्महत्या के मामले में सिर्फ अपने अधीनस्थ एसडीएम, कलेक्टर अथवा पटवारी से जांच करवा कर मामले की इतिश्री कर लेती है. और इस तरह किसान की आत्महत्या की सच्चाई को दबा दिया जाता है. अगर सरकार किसानों की हितैषी है जैसा कि वह हमेशा ढोल बजाते जाती है छत्तीसगढ़ में तो प्रति क्विंटल 25 सो रुपए धान का मूल्य दिया जा रहा है करोड़ों रुपए विज्ञापन पर खर्च किए जाते हैं और यह प्रचार प्रसार किया जाता है कि भूपेश बघेल की सरकार किसानों की हितैषी सरकार है, ऐसे में कोई किसान आत्महत्या कर ले तो यह सरकार के सफेद कपड़े पर एक काला दाग बन कर उभर आता है. शायद यही कारण है कि

अनुविभागीय दण्डाधिकारी, अभनपुर ने बताया कि मृतक मृतक के परिवार में उसकी पत्नी और 4 बच्चे है. संयुक्त परिवार बंटवारा में प्राप्त 1.79 हेक्टेयर भूमि में  प्रकाश तारक कृषि करता था. उसे मनरेगा से जॉब कार्ड भी मिला है. पारिवारिक बंटवारा में उसे तीन कमरा और एक किचन वाला मकान मिला है. मृतक के उपर कोई कर्ज नहीं था। उसके परिवार को नियमित रूप से शासकीय उचित मुल्य दुकान से चावल मिल रहा था. परिवार में भुखमरी की नौबत नहीं है. मृतक के घर से 1 कट्टा धान शासकीय उचित मूल्य दुकान से प्राप्त चावल पाया गया. हल्का पटवारी के अनुसार फसल की स्थिति सामान्य है.समिति के माध्यम से पिछले खरीफ धान विक्रय के दौरान मृतक के  सम्मिलात खाते में 105 क्विटल धान बेचा था. जिसके एवज में एक लाख 83 हजार की राशि मिली थी.

गांव गांव के किसान हलाकान!

हमारे संवाददाता की जमीनी रिपोर्ट यह बताती है कि छत्तीसगढ़ के अनेक गांवों में किसान  नकली कीटनाशक दवाइयों के कारण त्रासदी भोग रहे हैं.

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यह पहली बार हुआ है कि 1 एकड़ के कृषि में किसान को पांच हजार रुपए के कीटनाशक दवाइयों की जगह लगभग 12000  रूपए  कीटनाशकों पर खर्च करना पड़ रहा है. मगर इसके बावजूद  कीट रातों-रात खेतों को सफाचट कर रहे हैं, किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि यह सब क्या हो रहा है. हमारे संवाददाता ने रायगढ़ के जोबी गांव के किसान कृपाराम राठिया, कोरबा जिला के ग्राम मुकुंदपुर के शिवदयाल कंवर, राम लाल यादव, तरुण कुमार देवांगन से चर्चा की तो यह तथ्य सामने आया कि सत्र 2019 -20 में किसानों के कीटनाशकों के खरीदी में बेइंतेहा पैसे खर्च हुए हैं इसके बावजूद खेतों में कीट रातो रात फसल को साफ कर रहे हैं. जिससे किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है. जानकार सूत्रों के अनुसार छत्तीसगढ़ में नकली कीटनाशक दवाइयों की बिक्री जोरों पर है जिससे किसान लूटे जा रहे हैं, बर्बाद हो रहे हैैं. सरकार कोई एक्शन नहीं ले  रही है. परिणाम स्वरूप किसान आत्महत्या करने के कगार पर है.

बिहार में का बा : लाचारी, बीमारी, बेरोजगारी बा

जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के नाम अपने संदेश में लोगों को कोरोना से बचने के लिए आगाह कर रहे थे, उसी समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा बिहार विधानसभा चुनाव के सिलसिले में एक रैली को संबोधित कर रहे थे. उस भीड़ में न मास्क था और न ही आपस में 2 गज की दूरी. इसी साल के मार्च महीने में जब कोरोना की देश में आमद हो रही थी, तब 2,000 लोगों के जमातीय सम्मेलन को कोरोना के फैलने की वजह बता कर बदनाम किया गया था, पर अब बिहार चुनाव में लाखों की भीड़ से भी कोई गुरेज नहीं है.

बिहार चुनाव इस बार बहुत अलग है. नीतीश कुमार अपने 15 साल के सुशासन की जगह पर लालू प्रसाद यादव के 15 साल के कुशासन पर वोट मांग रहे हैं. इस के उलट बिहार के 2 युवा नेताओं चिराग पासवान और तेजस्वी यादव ने बड़ेबड़े दलों के समीकरण बिगाड़ दिए हैं.

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बिहार चुनाव में युवाओं की भूमिका अहम है. बिहार में बेरोजगारी सब से बड़ा मुद्दा बन गई है. एक अनजान सी गायिका नेहा सिंह राठौर ने ‘बिहार में का बा’ की ऐसी धुन जगाई है कि भाजपा जैसे बड़े दल को बताना पड़ रहा है कि ‘बिहार में ई बा’ और नीतीश कुमार अपने काम की जगह लालू के राज के नाम पर वोट मांग रहे हैं.

बिहार की चुनावी लड़ाई अगड़ों की सत्ता को मजबूत करने के लिए है. एससी तबके की अगुआई करने वाली लोक जनशक्ति पार्टी को राजग से बाहर कर के सीधे मुकाबले को त्रिकोणात्मक किया गया है, जिस से सत्ता विरोधी मतों को राजदकांग्रेस गठबंधन में जाने से रोका जा सके.

जिस तरह से नीतीश कुमार का इस्तेमाल कर के पिछड़ों की एकता को तोड़ा गया, अब चिराग पासवान को निशाने पर लिया गया है, जिस से कमजोर पड़े नीतीश कुमार और चिराग पासवान पर मनमाने फैसले थोपे जा सकें.

बिहार चुनाव में अगर भाजपा को पहले से ज्यादा समर्थन मिला, तो वह तालाबंदी जैसे फैसले को भी सही साबित करने की कोशिश करेगी. बिहार को हिंदुत्व का नया गढ़ बनाने का काम भी होगा.

बिहार के चुनाव में जातीय समीकरण सब से ज्यादा हावी होते हैं. यह कोई नई बात नहीं है. आजादी के पहले से ही यहां जातीयता और राजनीति में चोलीदामन का साथ रहा है. 90 के दशक से पहले यहां की राजनीति पर अगड़ों का कब्जा रहा है.

लालू प्रसाद यादव ने मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीति की दिशा को बदल दिया था. अगड़ी जातियों ने इस के खिलाफ साजिश कर के कानून व्यवस्था का मामला उठा कर लालू प्रसाद यादव के राज को ‘जंगलराज’ बताया था. उन के सामाजिक न्याय को दरकिनार किया गया था.

पिछड़ी जातियों में फूट डाल कर नीतीश कुमार को समाजवादी सोच से बाहर कर के अगड़ी जातियों के राज को स्थापित करने में इस्तेमाल किया गया था. बिहार की राजनीति के ‘हीरो’ लालू प्रसाद यादव को ‘विलेन’ बना कर पेश किया गया था.

भारतीय जनता पार्टी को लालू प्रसाद यादव से सब से बड़ी दुश्मनी इस वजह से भी है कि उन्होंने भाजपा के अयोध्या विजय को निकले रथ को रोकने का काम किया था. साल 1990 में जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ ले कर भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी निकले, तो उन को बिहार में रोक लिया गया.

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भाजपा को लालू प्रसाद यादव का यह कदम अखर गया था. केंद्र में जब भाजपा की सरकार आई, तो लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में उल झाया गया और इस के सहारे उन की राजनीति को खत्म करने का काम किया गया.

लालू प्रसाद यादव के बाद भी बिहार की हालत में कोई सुधार नहीं आया. बिहार में पिछले 15 साल से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. इस के बाद भी बिहार बेहाल है.

साल 2020 के विधानसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव का ‘सामाजिक न्याय’ भी बड़ा मुद्दा है. लालू प्रसाद यादव भले ही चुनाव मैदान में नहीं हैं, पर उन का मुद्दा चुनाव में मौजूद है.

नई पीढ़ी का दर्द

तालाबंदी के बाद मजदूरों का पलायन एक दुखभरी दास्तान है. नई पीढ़ी के लोगों को यह दर्द परेशान कर रहा है. नौजवान सवाल कर रहे हैं कि 15 साल तक एक ही नेता के मुख्यमंत्री रहने के बाद भी बिहार की ऐसी हालत क्यों है? अब उसी नेता को दोबारा मुख्यमंत्री पद के लिए वोट क्यों दिया जाए?

मुंबई आ कर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग अपनी रोजीरोटी के लिए तिलतिल मरते हैं. अगर उन के प्रदेशों में कामधंधा होता, रोजीरोटी का जुगाड़ होता, तो ये लोग अपने प्रदेश से पलायन क्यों करते?

फिल्म कलाकार मनोज बाजपेयी ने अपने रैप सांग ‘मुंबई में का बा…’ में मजदूरों की हालत को बयां किया है.  5 मिनट का यह गाना इतना मशहूर  हुआ कि अब बिहार चुनाव में वहां की जनता सरकार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’.

दरअसल, बिहार में साल 2005 से ले कर साल 2020 तक पूरे 15 साल नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रहे हैं. केवल एक साल के आसपास जीतनराम मां झी मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ पाए थे, वह भी नीतीश कुमार की इच्छा के मुताबिक.

किसी भी प्रदेश के विकास के लिए 15 साल का समय कम नहीं होता. इस के बाद भी बिहार की जनता नीतीश कुमार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’ यानी बिहार में क्या है?

तालाबंदी के दौरान सब से ज्यादा मजदूर मुंबई से पलायन कर के बिहार आए. 40 लाख मजदूर बिहार आए. इन में से सभी मुंबई से नहीं आए, बल्कि कुछ गुजरात, पंजाब और दिल्ली से भी आए.

ये मजदूर यह सोच कर बिहार वापस आए थे कि अब उन के प्रदेश में रोजगार और सम्मान दोनों मिलेंगे. यहां आ कर मजदूरों को लगा कि यहां की हालत खराब है. रोजगार के लिए वापस दूर प्रदेश ही जाना होगा. बिहार में न तो रोजगार की हालत सुधरी और न ही समाज में मजदूरों को मानसम्मान मिला.

बीते 15 सालों में बिहार की  12 करोड़, 40 लाख आबादी वाली जनता भले ही बदहाल हो, पर नेता अमीर होते गए हैं. बिहार में 40 सांसद और 243 विधायक हैं. इन की आमदनी बढ़ती रही है. पिछले 15 सालों में  85 सांसद करोड़पति हो गए और 468 विधायक करोड़पति हो गए.

मनरेगा के तहत बिहार में औसतन एक मजदूर को 35 दिन का काम मिलता है. अगर इस का औसत निकालें तो हर दिन की आमदनी 17 रुपए रोज की बनती है. राज्य में गरीब परिवारों की तादाद बढ़ती जा रही है.

गरीबी रेखा से नीचे यानी बीपीएल परिवारों की तादाद तकरीबन 2 करोड़, 85 लाख है. नीतीश कुमार के 15 सालों में गरीबों की तादाद बढ़ी है और नेताओं की आमदनी बढ़ती जा रही है.

जंगलराज या सामाजिक न्याय

मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीतिक और सामाजिक हालत में आमूलचूल बदलाव हुआ. लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय के पुरोधा बन कर उभरे. उन के योगदान को दबाने का काम किया गया.

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साल 1990 से साल 2020 के  30 सालों में बिहार पर दलितपिछड़ा और मुसलिम गठजोड़ राजनीति पर हावी रहा है. अगड़ी जातियों का मकसद है कि  30 सालों में जो उन की अनदेखी हुई, अब वे मुख्यधारा का हिस्सा बन जाएं.

भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में अगड़ी जातियां काफीकुछ अपने मकसद में कामयाब भी हो गई हैं. बिहार में भाजपा का युवा शक्ति के 2 नेताओं तेजस्वी यादव और चिराग पासवान से सीधा मुकाबला है.

भाजपा के पास बिहार में कोई चेहरा नहीं है, जिस के बल पर वह सीधा चुनाव में जा सके. सुशील कुमार मोदी भाजपा का पुराना चेहरा हो चुके हैं.

विरोधी मानते हैं कि बिहार में लालू प्रसाद यादव के समय जंगलराज था. जंगलराज का नाम ले कर लोगों को डराया जाता है कि लालू के आने से बिहार में जंगलराज की वापसी हो जाएगी.

राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘मंडल कमीशन के बाद वंचितों को न्याय और उन को बराबरी की जगह दे कर सामाजिक न्याय दिलाने का काम किया गया था. अब आर्थिक न्याय देने की बारी है.

‘जो लोग जंगलराज का नाम ले कर बिहार की छवि खराब कर रहे हैं, वे बिहार के दुश्मन हैं. इन के द्वारा बिहार की छवि खराब करने से यहां पर निवेश नहीं हो रहा. लोग डर रहे हैं. अब हम आर्थिक न्याय दे कर नए बिहार की स्थापना के लिए काम करेंगे.’

वंचितों के नेता

लालू प्रसाद यादव की राजनीति को हमेशा से जातिवादी और भेदभावपूर्ण बता कर खारिज करने की कोशिश की गई. लालू प्रसाद यादव अकेले नेता नहीं हैं, जिन को वंचितों के हक की आवाज उठाने पर सताया गया हो. नेल्सन मंडेला, भीमराव अंबेडकर, मार्टिन लूथर किंग जैसे अनगिनत उदाहरण पूरी दुनिया में भरे पड़े हैं.

लालू प्रसाद यादव सामंतियों के दुष्चक्र के शिकार हुए, जिन की वजह से उन का राजनीतिक कैरियर खत्म करने की कोशिश की गई. इस के बाद भी लालू प्रसाद यादव के योगदान से कोई इनकार नहीं किया जा सकता है.

लालू प्रसाद यादव साल 1990 से साल 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे. साल 2004 से साल 2009 तक उन्होंने केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग सरकार में रेल मंत्री के रूप में काम किया.

बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो अदालत ने 5 साल के कारावास की सजा सुनाई. चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद उन्हें लोकसभा से अयोग्य ठहराया गया.

लालू प्रसाद यादव मंडल विरोधियों के निशाने पर थे. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि साल 1990 में लालू प्रसाद यादव ने राम रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया.

मंडल विरोधी भले ही लालू प्रसाद यादव के राज को जंगलराज बताते थे, पर सामाजिक मुद्दे के साथसाथ आर्थिक मोरचे पर भी लालू सरकार की तारीफ होती रही है.

90 के दशक में आर्थिक मोरचे पर विश्व बैंक ने लालू प्रसाद यादव के काम की सराहना की. लालू ने शिक्षा नीति में सुधार के लिए साल 1993 में अंगरेजी भाषा की नीति अपनाई और स्कूल के पाठ्यक्रम में एक भाषा के रूप में अंगरेजी को बढ़ावा दिया.

राजनीतिक रूप से लालू प्रसाद यादव के जनाधार में एमवाई यानी मुसलिम और यादव फैक्टर का बड़ा योगदान है. लालू ने इस से कभी इनकार भी नहीं किया है.

साल 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री बने. उन के कार्यकाल में ही दशकों से घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई.

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भारत के सभी प्रमुख प्रबंधन संस्थानों के साथसाथ दुनियाभर के बिजनैस स्कूलों में लालू प्रसाद यादव के कुशल प्रबंधन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया.

अगड़ी जातियों की वापसी

राजनीतिक समीक्षक अरविंद जयतिलक कहते हैं, ‘जनता यह मानती है कि राज्य की कानून व्यवस्था अच्छी रहे. यही वजह है कि लालू प्रसाद यादव के विरोधियों ने उन की पहचान को जंगलराज से जोड़ कर प्रचारित किया. उन के प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार के राज को सुशासन कहा गया.

‘इसी मुद्दे पर ही नीतीश कुमार हर बार चुनाव जीतते रहे और 15 साल तक मुख्यमंत्री बने रहे. लालू प्रसाद यादव ने जो सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी और जो आर्थिक सुधारों के लिए काम किया, उस की चर्चा कम हुई.

‘लालू प्रसाद यादव की आलोचना में विरोधी कामयाब रहे. बहुत सारे काम करने के बाद भी लालू यादव को जो स्थान मिलना चाहिए था, नहीं मिला.’

बिहार में तकरीबन 20 फीसदी अगड़ी जातियां हैं. पिछड़ी जातियों में 200 के ऊपर अलगअलग बिरादरी हैं. इन में से बहुत कोशिशों के बाद कुछ जातियां ही मुख्यधारा में शामिल हो पाई हैं. बाकी की हालत जस की तस है. इन में से 10 से 15 फीसदी जातियों को ही राजनीतिक हिस्सेदारी मिली है.

1990 के पहले बिहार की राजनीति में कायस्थ, ब्राह्मण, क्षत्रिय और भूमिहार प्रभावी रहे हैं. दलितों की हालत भी बुरी है. बिहार की आबादी का 16 फीसदी दलित हैं. अगड़ी जातियों ने दलितों में खेमेबंदी को बढ़ावा देने का काम किया है.

साल 2005 में भाजपा और जद (यू) ने अगड़ी जातियों को सत्ता में वापस लाने का काम किया. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अब नीतीश कुमार को भी दरकिनार करने की कोशिश कर रही है.

प्यार की त्रासदी : फिर तेरी कहानी याद आई..!

प्यार की पींगे भरकर  एक व्यक्ति ने एक युवती को ऐसा धोखा दिया कि वह युवती ने घर की रही न घाट की. जैसा कि अक्सर होता है एक बार फिर वही सब कुछ घटित हो गया. जी हां! प्रेम के अगले पायदान में युवक ने विवाह का प्रस्ताव रखा और चालाकी से शारीरिक संबंध स्थापित कर लिया . आगे बड़ी नाटकीयता के साथ नोटरी के शपथपत्र के माध्यम से विवाह रचाकर धोखा देता रहा और अंत में पल्ला झाड़ लिया. युवती को जब एहसास हुआ कि वह तो बर्बाद हो चुकी है, तब प्रेमी युवक के खिलाफ प्रेमिका की शिकायत पर पुलिस द्वारा अपराध दर्ज कर आरोपी को  जेल भेज दिया गया .जी हां! मगर थोड़ा रूकिए पीड़ित लड़की की आपबीती अभी खत्म नहीं हुई है.आगे कहानी में एक बार फिर ट्विस्ट है.

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जमानत पर जेल से छूटने के बाद आरोपी पुनः युवती को मीठी चुपड़ी बातें करके अपनी हवस का शिकार बनाता है. वह अपनी गलतियां स्वीकार करता है और आश्वस्त करता है कि मैं विवाह तो तुम्हीं से करूंगा, युवती उसके प्रेम जाल के भुलावे में फंस जाती है. मगर जब सच्चाई खुलती जाती है तो वह अपने को पुनः लूटा हुआ पाती है.पीड़िता की दोबारा शिकायत पर पुलिस “बलात्कार” का अपराध दर्ज करती है. अब आज की हकीकत यह है कि युवक फरार हो गया है और युवती को फोन पर लगातार जान से मारने की धमकी दे रहा है.पीडिता अपनी आपबीती पुलिस को बताती है थाने के लगातार चक्कर लगा रही है लेकिन पुलिस आरोपी की खोजबीन कर गिरफ्तार करने की कागजी कोशिश कर रही है.भयभीत व परेशान युवती का  कहना है कि यदि पुलिस एक सप्ताह के भीतर आरोपी को गिरफ्तार नही करती है तो वह आत्महत्या करने को मजबूर रहेगी.जिसकी सारी जवाबदारी पुलिस प्रशासन की होगी.

युवती ने “वीडियो” जारी किया

अक्सर इस तरह की घटनाएं सुर्खियों में रहती हैं. युवा वर्ग प्रेम प्यार और शारीरिक आकर्षण में फंस कर एक ऐसे भंवर जाल में फंसते चले जाते हैं कि आगे जीवन में सिर्फ अंधकार होता है. और ताजिंदगी अवसाद के अलावा कुछ नहीं मिलता. अक्सर फिल्मों में कहानियों में यही तथ्य और कथ्य रहता है जिसमें विस्तार से बताया जाता है कि किस तरह कोई युवक ठाट बाट और पैसों की झलक दिखा कर युवतियो को अपने जाल में फांस लेता है और  धोखा देकर शारीरिक संबंध बनाता है. और फिर गायब हो जाता हैं. “हरि अनंत हरि कथा अनंता” की तरह यह बानगी वर्षों वर्षों से चली आ रही है. मगर अब समय आ गया है कि इस आधुनिक 21 वी शताब्दी के समय में जब ज्ञान के अनेक स्रोत हमारे पास हैं पुस्तकें हैं, नेट है अगर आज भी स्त्री और पुरुष का यह छलावा चल रहा है तो ठहर कर सोचने की बात है कि आखिर चूक कहां है?

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भ्रम और मानसिक यंत्रणा की कहानी

ऊपर वर्णित घटनाक्रम छत्तीसगढ़ जिला के कोरबा के कटघोरा थानांतर्गत ग्राम कसनिया का है. जहाँ निवासरत युवती रजनी (बदला हुआ नाम) को  कटघोरा पुरानी बस्ती निवासी आसीम खान पिता अकरम सेठ अपने प्रेमजाल में फंसा लेता है और शादी करने का झांसा देते हुए लगातार लंबे समय तक शारीरिक संबंध स्थापित करता है.इस बीच रजनी द्वारा शादी का दबाव बनाए जाने पर तीन दिसंबर 2019 को आरोपी द्वारा शपथपत्र करके विवाह का भ्रमजाल फैलाया गया. लेकिन शादी के तीन दिन पश्चात छः दिसंबर 2019 को शारीरिक एवं मानसिक यातना देते हुए नाटकीय ढंग से पुनः शपथपत्र के माध्यम से दबावपूर्वक संबंध विच्छेद कर लेता है. पीड़िता इस मामले की शिकायत कटघोरा थाना में करती है. शिकायत के आधार पर पुलिस आरोपी के विरुद्ध भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धाराओं के तहत गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश करती है जहां से आरोपी को जेल चला जाता है.

आरोपी जमानत पर जेल से छूटने पश्चात पीड़िता को बार-बार फोन करके अश्लील गाली-गलौज व मारने- पीटने की धमकी देने लगता है और एक रात  आरोपी प्रेमी, युवती के घर आ धमकता है तथा अकेलेपन का फायदा उठाकर जेल भेजे जाने की बात कहते हुए गाली-गलौज के अलावा मारपीट करते हुए बलपूर्वक शारीरिक संबंध स्थापित करता है.पीड़िता द्वारा  कटघोरा थाना पहुँचकर इस बाबत लिखित शिकायत दी जाती है.लेकिन पुलिस कोई कार्यवाही नही करती. आगे एक जुलाई 2020 को पीड़िता पुलिस अधीक्षक कार्यालय पहुँचकर अपनी शिकायत पत्र सौंप उचित कार्यवाही एवं न्याय की मांग करती है.जिसके बाद आरोपी युवक के विरुद्ध  कटघोरा पुलिस द्वारा  धारा 376, 506 के तहत अपराध दर्ज किया गया है.

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लेकिन अपराध दर्ज होने के बाद आरोपी फरार हो जाता है.जिसे पुलिस अभी तलक फरार बता रही है.जबकि पीड़िता का कथन है कि आरोपी आए दिन फोन पर जान से मारने की धमकी दे रहा है.धमकी से भयभीत हो इस बीच कई बार वह कटघोरा थाना पहुँचकर पुलिस को अपनी आपबीती सुनाते हुए आरोपी की जल्द गिरफ्तारी की मांग भी कर चुकी है.लेकिन फरार आरोपी की खोजबीन कर उसे गिरफ्तार करने की प्रक्रिया को लेकर पुलिस सुस्त बनी  है.मामले में पुलिस के सुस्ती भरे रवैये को लेकर भय के माहौल में जीवन व्यतीत कर रही पीड़िता ने  अब एक वीडियो क्लिप  जारी कर‌ सनसनी  पैदा कर कहा है कि फरार आरोपी कभी भी उसके साथ गंभीर घटना को अंजाम दे सकता है.यदि पुलिस एक सप्ताह के भीतर आरोपी की तलाश कर गिरफ्तार नही करती है तो वह “आत्महत्या” के लिए मजबूर  होगी, जिसकी सारी जवाबदारी  पुलिस प्रशासन की रहेगी.

मरवाही : भदेस राजनीति की ऐतिहासिक नजीर

राजनीति में कहा जाता है, सब कुछ संभव है .मगर छत्तीसगढ़ के बहुप्रतीक्षित और बहुप्रतिष्ठित “मरवाही उपचुनाव” में सत्तारूढ़ कांग्रेस के मुखिया भूपेश बघेल ने जिस राजनीति का चक्रव्यू बुना है, वैसा शायद इतिहास में कभी नहीं देखा गया . आज हालात यह है कि अमित जोगी का मामला देश के उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुका अगर यहां अमित जोगी को किंचित मात्र भी राहत मिल जाती है तो यह मामला देश भर में चर्चा का विषय बनने के साथ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कार्यशैली पर भी एक प्रश्नचिन्ह बन कर खड़ा हो सकता है.

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यह शायद छत्तीसगढ़ की राजनीति में अपने आप में एक नजीर बन जाएगा, क्योंकि चुनाव को  भदेस करने का काम आज तलक किसी भी सत्ता प्रतिष्ठान ने नहीं किया था. सनद रहे, मरवाही विधानसभा अनुसूचित जनजाति प्रत्याशी के लिए सुरक्षित है और विधानसभा उप चुनाव इसलिए हो रहा है क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी का देहांत हो चुका है. अजीत जोगी कभी यहां से कांग्रेस से विधायक हुआ करते थे, बाद में जब उन्होंने अपनी पार्टी बनाई तो उन्होंने मरवाही से चुनाव लड़ा और जीता. मगर कभी भी उनके आदिवासी होने पर कम से कम कांग्रेस पार्टी ने  प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा किया था. आज छत्तीसगढ़ की  राजनीति में तलवारें कुछ इस तरह भांजी जा रही है कि  कांग्रेस पार्टी भूल गई है कि अजीत जोगी कभी कांग्रेस में अनुसूचित जनजाति के सर्वोच्च नेता हुआ करते थे.

राजनीतिक मतभेदों के कारण उन्होंने जनता कांग्रेस जोगी का गठन किया और 2018 के चुनाव में ताल ठोकी थी. मगर उनके देहावसान के पश्चात उनके सुपुत्र और जनता कांग्रेस जोगी के अध्यक्ष अमित जोगी ने यहां ताल ठोकी तो कांग्रेस का पसीना निकलने लगा. अमित जोगी ने नाजुक माहौल को महसूस किया और अपनी पत्नी डाक्टर ऋचा ऋचा जोगी का भी यहां से नामांकन दाखिल कराया. मगर राजनीति की एक काली मिसाल यह की अमित जोगी व उनकी धर्मपत्नी ऋचा जोगी दोनों के जाति प्रमाण पत्र और नामांकन खारिज कर दिए गए. और प्रतिकार ऐसा कि जिन लोगों ने अमित जोगी का आशीर्वाद लेकर डमी रूप में फॉर्म भरा था उनका भी चुन चुन करके नामांकन रद्द कर दिया गया ताकि कोई भी जोगी समर्थक निर्दलीय भी चुनाव मैदान में रहे ही नहीं.

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सभी मंत्री और विधायक झोंक दिए !

कभी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी डॉ रमन सिंह सरकार पर चुनाव के समय सत्ता के दुरुपयोग की तोहमत लगाया करती थी. और यह सच भी हुआ करता था. भाजपा  हरएक चुनाव में पूरी  ताकत लगाकर कांग्रेस पार्टी को हराने का काम करती थी, तब कांग्रेस के छोटे बड़े नेता, भाजपा  पर खूब लांछन लगाते और आज जब कांग्रेस पार्टी स्वयं सत्ता में आ गई है तो मरवाही के प्रतिष्ठा पूर्ण चुनाव में अपने सारे मंत्रियों संसदीय सचिवों, विधायक को चुनाव मैदान में उतार दिया है. स्वयं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल चुनाव पर  पल पल की निगाह रखे हुए थे, ऐसे में जनता कांग्रेस जोगी के अध्यक्ष और मरवाही उपचुनाव में प्रत्याशी अमित जोगी रिचा जोगी को जिस तरह चुनाव से बाहर किया गया. वह अपने आप में एक गलत परंपरा बन गई है और यह इंगित कर रही है कि चुनाव किस तरह सत्ता दल के लिए प्रतिष्ठा पूर्व बन जाता है और सत्ता का दुरुपयोग “खुला खेल फर्रुखाबादी” होता है .

भूपेश बघेल का चक्रव्यूह

दरअसल, अजीत जोगी के जाति के मामले को लेकर भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल के 15 वर्ष में डॉ रमन सिंह सरकार नहीं कर पाई वह काम चंद दिनों में भूपेश बघेल सरकार ने कर दिखाया. कुछ नए नियम कायदे बनवाकर भूपेश बघेल ने पहले अजीत प्रमोद कुमार जोगी के कंवर जाति प्रमाण पत्र को निरस्त करवाया इस आधार पर अमित जोगी का भी प्रमाण पत्र निरस्त होने की कगार पर पहुंच गया जिसका परिणाम अब सामने आया है.

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आज मुख्यमंत्री बन चुके भूपेश बघेल और कभी पूर्व मुख्यमंत्री रहे अजीत प्रमोद कुमार जोगी का  आपसी द्वंद्व छतीसगढ़ की जनता ने चुनाव से पहले लंबे समय तक देखा है. जब भूपेश बघेल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे अजीत जोगी ने कांग्रेस को उसके महत्वपूर्ण नेताओं को   राजनीति की चौपड़ पर हमेशा  घात प्रतिघात करके जताया  कि वे छत्तीसगढ़ के राजनीति के नियंता हैं. मगर अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल मुख्यमंत्री है, ऐसे में भूपेश बघेल ने  यह चक्रव्यूह  बुना और दिखा दिया कि सत्ता को  कैसे साधा और निशाना लगाया जाता है. यहां अजीत जोगी और भूपेश बघेल में अंतर यह है कि अजीत जोगी  के राजनीतिक दांव में एक नफासत हुआ करती थी. विरोधी बिलबिला जाते थे और अजीत जोगी पर दाग नहीं लगता था.अब परिस्थितियां बदल गई हैं अमित जोगी और ऋचा जोगी  नामांकन खारिज के मामले में सीधे-सीधे भूपेश बघेल सरकार कटघरे में है. अमित जोगी अब देश की उच्चतम न्यायालय में अपना मामला लेकर पहुंच चुके हैं आने वाले समय में ऊंट किस करवट बैठेगा यह देश और प्रदेश की जनता देखने को उत्सुक है.

आत्महत्या : तुम मायके मत जइयो!

पति और पत्नी का संबंध कहा जाता है कि सात जन्मों का गठबंधन होता है. ऐसे में जब  आसपास यह देखते हैं कि कोई महिला अथवा पुरुष इसलिए आत्महत्या कर लेता है कि उसके साथी ने उसे समझने से इंकार कर दिया. और प्रताड़ना का दौर कुछ ऐसा बढ़ा की पुरुष हो या फिर स्त्री उसके सामने आत्महत्या के द्वारा अपनी इहलीला समाप्त करने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता.

यह त्रासदी इतनी भीषण है कि आए दिन ऐसी घटनाएं सुर्ख़ियों में रहती है. आज हम इस लेख में यह विवेचना का प्रयास करेंगे कि शादीशुदा पुरुष, ऐसी कौन सी परिस्थितियां होती हैं, जब गले में फंदा लगाकर आत्महत्या कर लेते हैं. हाल ही में छत्तीसगढ़ में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हुई जिसमें पुरुषों ने अपनी पत्नी अथवा सांस पर आरोप लगाकर आत्महत्या कर ली.

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ऐसे ही एक परिवार से जब यह संवाददाता मिला और चर्चा की तो अनेक ऐसे तथ्य खुलकर सामने आ गए जिन्हें समझना और जानना आज एक जागरूक पाठक के लिए बहुत जरूरी है.

प्रथम घटना-

छत्तीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर में हाईकोर्ट के एक वकील ने आत्महत्या कर ली. सुसाइड नोट में लिखा कि वह पत्नी के व्यवहार से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर रहा है. वह अपनी धर्मपत्नी से प्रताड़ित हो रहा है.

दूसरी घटना-

छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिला में एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली और सुसाइड नोट में लिखा कि उसे पत्नी की प्रताड़ना के कारण आत्महत्या करनी पड़ रही है.

तीसरी घटना-

जिला कोरबा के एक व्यापारी ने आत्महत्या कर ली जांच पड़ताल में यह तथ्य सामने आया कि उसका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था. पत्नी के व्यवहार के कारण उसने अपनी जान दे दी.

मैं मायके चली जाऊंगी…!

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के कबीर नगर थाना क्षेत्र में पत्नी और सास से प्रताड़ित होकर एक शख्स द्वारा द्वारा आत्महत्या का मामला सुर्खियों में है. पुलिस द्वारा मिली जानकारी के अनुसार मौके से पुलिस को  दो पन्नों का सुसाइड नोट मृतक के जेब से मिला है. कबीर नगर थाने मैं पदस्थ पुलिस अधिकारी के अनुसार मृतक ने अपनी मौत का जिम्मेदार अपनी पत्नी और सास को बताया है.

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सुसाइड नोट में मृतक ने लिखा है – उसकी पत्नी बार-बार घर में झगड़ा कर के अपने मायके चली जाती थी और  दो साल की बेटी से भी  मिलने नहीं दिया जाता था. जिसके कारण तनाव में आकर उसने आत्महत्या कर ली. मृतक का नाम मनीष चावड़ा है.  इस मामले में अब तक पुलिस अन्य एंगल से भी तहकीकात कर रही है. मगर जो तथ्य सामने आए हैं उनके अनुसार जब पत्नी अक्सर अपने मायके से संबंध रखे हुए थी. दरअसल, जब पत्नी बार-बार पति को छोड़कर चले जाती है तो डिप्रेशन में आकर पुरुष आत्महत्या कर लेते हैं. ऐसी अनेक घटनाएं घटित हो चुकी है. ऐसे में यही कहा जा सकता है कि वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए पति और पत्नी दोनों  एक दूसरे की भावना का सम्मान करते हुए यह जानने और समझने की दरकार है कि पूरी जिंदगी दुख सुख में साथ  निभाना है. अगर यह बात गांठ बांध ली जाए तो आत्महत्या और तलाक अर्थात संबंध विच्छेद के मामलों में कमी आ सकती है.

मां और भाइयों की नासमझी

आत्महत्या और संबंध विच्छेद के मामलों में आमतौर पर देखा गया है कि विवाह के पश्चात भी अपनी बेटी और बहन के साथ मायके वालों  के गठबंधन कुछ ऐसे होते हैं कि पति बेचारा विवश और असहाय  हो जाता है. सामाजिक कार्यकर्ता इंजीनियर रमाकांत श्रीवास कहते हैं- यहां यह बात समझने की है कि बेटी के ब्याह के पश्चात मायके पक्ष को यह समझना चाहिए कि अब बेटी की विदाई हो चुकी है और जब तलक उसके साथ अत्याचार, अथवा प्रताड़ना की घटना सामने नहीं आती, छोटी-छोटी बातों पर उसे प्रोत्साहित करने का मतलब यह होगा कि बेटी के वैवाहिक जीवन में जहर घोलना.

उम्र के इस पड़ाव में परिस्थितियां कुछ ऐसी मोड़ लेती है कि पति बेचारा मानसिक रूप से परेशान होकर आत्महत्या कर लेता है. और इस तरह एक  सुखद परिवार टूट कर बिखर जाता है. कई बार देखा गया है कि बाद में पति की मौत के बाद पत्नी को यह समझ आता है कि उसने कितनी बड़ी भूल कर दी. अतः समझदारी का ताकाजा यही है कि जब हाथ थामा है तो पति का साथ दें और छोटी-छोटी बातों पर कभी भी परिवार को तोड़ने की कोशिश दोनों ही पक्ष में से कोई भी न करें.

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बिहार चुनाव में नौजवान चेहरों ने संभाली कमान

बिहार चुनाव में इस बार नौजवान चेहरों ने धूम मचा रखी है. राजद के तेजस्वी यादव और लोजपा के चिराग पासवान ने तो वर्तमान सत्ता पक्ष की नींद हराम कर दी है. सोशल मीडिया पर नौजवान तबका इस बार के चुनाव में बहुत ज्यादा जोश में है. उम्मीदवारों के साथ नौजवान कार्यकर्ता ज्यादा दिखाई पड़ रहे हैं.

प्लूरल्स पार्टी से इस बार पुष्पम प्रिया चौधरी नौजवान उम्मीदवार हैं. अखबारों में पहले पेज पर इश्तिहार दे कर वे खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी हैं. दिग्गज नेता अपना भविष्य अपने बच्चों में देखने लगे हैं. अपनी राजनीतिक विरासत अपने बच्चों को सौंपने लगे हैं. अपने बच्चों के मोहपाश में फंसे नेता अपने विचार और धारा दोनों भूल कर अपने बच्चों को सियासी गलियारे में उतार चुके हैं.

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पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव की पूरी राजनीति कांग्रेस के खिलाफ रही. वे समाजवादी नेता के रूप में पूरे देश में चर्चित रहे. वे लोकदल, जनता दल से ले कर जद (यू) तक में रहे और कांग्रेस की विचारधारा का विरोध करते रहे. लेकिन इस बार उन की बेटी सुभाषिनी कांग्रेस का दामन थाम कर बिहारीगंज से चुनाव मैदान में उतर चुकी हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान  का राजनीति में प्रवेश राजग के रास्ते हुआ. राजग के जरीए लोजपा से 2014 और 2019 में चिराग पासवान जमुई से सांसद बने. इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने उसी राजग के खिलाफ बिगुल फूंक दिया है. जिस विधानसभा क्षेत्र से जद (यू) के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, चिराग पासवान वहां से लोजपा के उम्मीदवार खड़े कर चुके हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और फिल्म स्टार शत्रुध्न सिन्हा की राजनीति की शुरुआत भाजपा से हुई थी. वे भाजपा के स्टार प्रचारक रहे थे, लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लड़ा. उन की पत्नी पूनम सिन्हा 2019 का लोकसभा चुनाव लखनऊ से समाजवादी पार्टी से लड़ी थीं. इस बार उन के बेटे लव सिन्हा बांकीपुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

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प्लूरल्स पार्टी की प्रमुख पुष्पम प्रिया चौधरी ने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. अपनी पार्टी की वे मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार हैं. उन्होंने साफ कहा है कि चुनाव के बाद उन का किसी दल के साथ गठबंधन नहीं करेगा. उन के पिता विनोद कुमार चौधरी जद (यू) के पूर्व विधानपार्षद रहे हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी 2015 में राजग के साथ रहे. उस के बाद वे महागठबंधन में चले गए. उन के बेटे संतोष कुमार सुमन को राजद ने विधानपार्षद बनाया. इस के बाद वे फिर राजग में शामिल हो गए. इस बार जीतन राम मांझी इमामगंज और उन के दामाद देवेंद्र मांझी मखदूमपुर से चुनाव लड़ रहे हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह पूरी उम्र राजद में रहे. वे राजद का प्रमुख चेहरा थे. अब उन के बेटे सत्यप्रकाश सिंह ने जद (यू) का दामन थाम लिया है. पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह हमेशा जद (यू) में रहे. उन के बड़े बेटे इस बार रालोसपा के टिकट पर जमुई से चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि छोटे बेटे सुमित सिंह चकाई से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतर रहे हैं.

राजनीति की मलाई का स्वाद चख चुके नेता और उन के बच्चे इस बात को अच्छी तरह समझ गए हैं कि राजनीति से अच्छा किसी भी क्षेत्र में स्कोप नहीं है, इसलिए तो नेता अपने बेटाबेटी को जिस भी दल से जैसे भी टिकट मिले, दिला देते हैं और जैसे भी हो चुनाव जिता कर सत्ता सुख का फायदा जिंदगीभर उठाते हैं.

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यही वजह है कि सिद्धांत और अपनी विचारधारा पर अडिग रहने वाले लोग राजनीति की मुख्यधारा से किनारे होते जा रहे हैं.

मध्य प्रदेश : दांव पर सब दलों की साख

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ कर मध्य प्रदेश की जनता और चुनी गई कांग्रेसी सरकार से गद्दारी की थी या फिर अपनी गैरत की हिफाजत की थी, इस का सटीक फैसला अब मीडिया या चौराहों पर नहीं, बल्कि जनता की अदालत में 10 नवंबर, 2020 को होगा जब 28 सीटों पर हुए उपचुनावों के वोटों की गिनती हो रही होगी. इन 28 सीटों में से 16 सीटें ग्वालियरचंबल इलाके की हैं, जहां वोट जाति की बिना पर डलते हैं और इस बार भी भाजपा और कांग्रेस के भविष्य का फैसला हमेशा की तरह एससीबीसी तबके के लोग ही करेंगे, जिन का मूड कोई नहीं भांप पा रहा है.

साल 2018 के विधानसभा के चुनाव में इन वोटों ने भाजपा और बसपा को अंगूठा दिखाते हुए कांग्रेस के हाथ के पंजे पर भरोसा जताया था, लेकिन तब हालात और थे. ये हालात बारीकी से देखें और समझें तो महाराज कहे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का असर कम, बल्कि एट्रोसिटी ऐक्ट से पैदा हुई दलितों और सवर्णों की भाजपा से नाराजगी ज्यादा थी.

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दलित इस बात से खफा थे कि भाजपा सवर्णों को शह दे रही है और इस मसले पर अदालत भी उस के साथ है, इस के उलट ऊंची जाति वाले इस बात से गुस्साए हुए थे कि संसद में अदालत के फैसले को पलट कर मोदी सरकार उन की अनदेखी करते हुए दलितों को सिर चढ़ा रही है, जबकि वे हमेशा उसे वोट देते आए हैं.

इसी इलाके में बड़े पैमाने पर एट्रोसिटी ऐक्ट को ले कर हिंसा हुई थी. इस का नतीजा यह हुआ कि इन दोनों ही तबकों के वोट भाजपा से कट कर कांग्रेस की झोली में चले गए और वह इस इलाके की 36 सीटों में से 26 सीटें ले गई.

भाजपा राज्य में 230 सीटों में से महज 109 सीटें ले जा पाई और कांग्रेस 114 सीटें ले जा कर बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों की मदद से अल्पमत की सही सरकार बना ले गई.

दिग्गज और तजरबेकार कमलनाथ ने बहैसियत मुख्यमंत्री जोरदार शुरुआत की जिस से लोगों को आस बंधी थी कि 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार भाजपा से बेहतर साबित होगी, लेकिन सवा साल में ही कांग्रेस की खेमेबाजी और फूट उजागर हुई तो हुआ वही जिस का हर किसी को डर था.

कमलनाथ और परदे के पीछे से सरकार हांक रहे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की अनदेखी शुरू कर दी नतीजतन वे राम भक्तों की पार्टी से जा मिले जिस के एवज में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा में ले लिया और उन के 22 समर्थक विधायकों की मदद से सरकार बना ली जिस की अगुआई एक बार फिर वही शिवराज सिंह चौहान कर रहे हैं, जिन्हें जनता ने 2018 में खारिज कर दिया था.

इतना ही नहीं, भाजपा ने सिंधिया समर्थक 14 विधायकों को मंत्री पद से भी नवाजा और वादे या सौदे के मुताबिक सभी को उन की सीटों से ही टिकट भी दिए.

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सब की हालत पतली

अब क्या ये सभी कांग्रेसी भाजपा के हो कर दौबारा जीत पाएंगे, यह सवाल बड़ी दिलचस्पी से सियासी गलियारों में पूछा जा रहा है जिस का सटीक जवाब तो 10 नवंबर को ही मिलेगा, पर इन नए भगवाइयों की हालत खस्ता है, जो पहले भाजपा की बुराई करते थकते नहीं थे और अब जनता को बता रहे हैं कि भाजपा क्यों कांग्रेस से बेहतर है. लेकिन ऐसा करते और कहते वक्त उन की आवाज में वह दमखम नहीं रह जाता जो 2018 के चुनाव प्रचार के वक्त हुआ करती था. कांग्रेस इन्हें गद्दार और दागी कह तो रही है, लेकिन उस के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर क्यों वह अपने विधायकों को बांधे रखने में नाकाम रही और क्यों उन्हें अपनी ही पार्टी की सरकार गिराने मजबूर होना पड़ा.

अब ज्यादातर सीटों पर मुकाबला कांग्रेस बनाम कांग्रेस छोड़ चुके नए भाजपाइयों के बीच हो रहा है. भाजपा को बहुमत के लिए 9 सीटें और चाहिए, जबकि कांग्रेस को सरकार बनाने पूरी 28 सीटों पर जीत की दरकार है. लेकिन राह दोनों की ही आसान नहीं है, तो इस की अपनी वजहें भी हैं. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पहले जैसे लोकप्रिय नहीं रह गए हैं और भाजपा कार्यकर्ता सिंधिया खेमे की खातिरदारी में जुटने से बच रहा हैं, क्योंकि उसे मालूम है कि ये जीत भी गए तो उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला. हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया जनता को यह बताने लगे हैं कि वे और उन के समर्थक दिलोदिमाग दोनों से भाजपाई हो चुके हैं. इस के लिए वे जयजय श्रीराम का नारा सड़कों पर आ कर लगाने लगे हैं और भाजपाई उसूलों पर चलते हुए संघ के दफ्तर की भी परिक्रमा करने लगे हैं.

दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को यह एहसास है कि उन के पास खासतौर से इस इलाके में जमीनी कार्यकर्ताओं का टोटा है और 16 में से कोई 10 सीटों पर सिंधिया खेमे के उम्मीदवारों की खुद की अपनी भी साख है जिसे तोड़ पाने के लिए उन के पास काबिल और लोकप्रिय उम्मीदवार नहीं हैं जिस की भरपाई करने वे सिंधिया की गद्दारी को चुनावी मुद्दा बनाने की जुगत में भिड़े हैं.

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भाजपा निगल रही बसपा वोट

कोई मुद्दा न होने और कोरोना महामारी के चलते वोटिंग फीसदी कम होने के डर से भी सभी पार्टियां हलकान हैं. ऐसे में जो पार्टी अपने वोटर को बूथ तक ले आएगी, तय है कि वह फायदे में रहेगी. साफ यह भी दिख रहा है कि कोरोना के डर के चलते बूढ़े वोट डालने नहीं जाएंगे. इस इलाके में कभी मजबूत रही बसपा अब दम तोड़ती नजर आ रही है. 2018 के चुनाव में वह यहां महज एक सीट जीत पाई थी जो अब तक का उस का सब से खराब प्रदर्शन था, इस के बाद भी 6 सीटों पर उस ने भाजपा और कांग्रेस दोनों का खेल बराबरी से बिगाड़ा था. बसपा के वोटरों पर इन दोनों पार्टियों की नजर है, जिस के चलते दोनों का दलित प्रेम उमड़ा जा रहा है.

मायावती का भाजपा के लिए झुकाव किसी सुबूत का मुहताज नहीं है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दलित समुदाय कई फाड़ हो चुका है. सामाजिक समरसता के जरीए भाजपा एससीबीसी तबके में थोड़ीबहुत ही सही सेंध लगा चुकी है. उसे उम्मीद है कि अगर इस तबके के 30 फीसदी वोट भी उसे मिले तो सवर्ण वोटों के सहारे दिनोंदिन मुश्किल होती जा रही इस जंग को वह जीत लेगी. दूसरी तरफ कांग्रेस को उम्मीद है कि पिछली बार की तरह ये वोट उसे ही मिलेंगे. बसपा के खाते में अब वही वोट जा रहे हैं जो 20 साल से उसे मिलते रहे हैं, लेकिन मायावती के ढुलमुल रवैए के चलते दलित नौजवान वोटर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी पार्टी हकीकत में उस की हिमायती है.

साख का सवाल

ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह साबित करने में पसीने आ रहे हैं कि 2018 की तरह वोट उन के नाम पर पड़ेंगे तो शिवराज सिंह भी यह साबित नहीं कर पा रहे हैं कि भाजपा और वे खुद पहले की तरह अपराजेय हैं, इसलिए उन्होंने ‘शिवज्योति ऐक्सप्रेस’ का नारा दिया है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की बूआ कैबिनेट मंत्री यशोधरा राजे भी अपने बबुआ के लिए हाड़तोड़ मेहनत कर रही हैं.

साख मायावती की भी दांव पर लगी है कि बसपा अगर इस बार भी सिमट कर रह गई तो आगे के लिए उस के दामन में कुछ नहीं रहेगा. कमलनाथ को भी साबित करना है कि वे एक बेहतर मुख्यमंत्री थे जो अपनों की ही साजिश का शिकार हुए थे.

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यानी अब जो जीता वह सिकंदर हो जाएगा और हारे के पास हरि नाम भी नहीं बचेगा, इसलिए सारे नेता वोटरों को लुभाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सब का सहारा ले रहे हैं, जिन्हें मालूम है कि यह चुनाव आम चुनाव से भी ज्यादा अहम उन के वजूद के लिए है और जानकारों की दिलचस्पी इस इलाके में बिहार के बराबर ही है. फर्क सिर्फ इतना है कि अगर कांग्रेस वोटर के दिमाग में यह बात बैठा पाई कि भाजपा ने जोड़तोड़ कर सरकार बना कर राज्य का भला नहीं किया है तो बाजी भगवा खेमे को महंगी भी पड़ सकती है, क्योंकि विकास और रोजगार के मुद्दों पर तो वोटर की नजर में दोनों ही पार्टियां नकारा हैं.

खेती जरूरी या मंदिर

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिस दिन (17 सितंबर) जन्मदिन था, भाजपा के कार्यकर्ता सरकार की उपलब्धियां गिनागिना कर जहां एकदूसरे को मिठाइयां बांट रहे थे, वहीं देश की कई जगहों पर किसानों को मारापीटा जा रहा था.

हरियाणा में किसान सरकार के खिलाफ मोरचा खोले बैठे थे. विरोध का आलम यह था कि इस प्रदर्शन से घबरा कर पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा था, जिस में कई किसानों को गंभीर चोटें आई थीं. पुलिस ने बुजुर्गों तक को नहीं छोड़ा था.

दरअसल, यह विरोध प्रदर्शन हरियाणा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसान कृषि क्षेत्रों में सुधार के लिए मोदी सरकार के 3 विधेयकों के खिलाफ कर रहे थे, जिस में उन की मांग थी कि इन कानूनों को तत्काल वापस लिया जाए.

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इस विधेयक के विरोध में हरियाणा में किसानों ने जम कर विरोध किया. यहां के प्रदर्शन कर रहे किसानों का मानना था कि जो अध्यादेश किसानों को अपनी उपज खुले बाजार में बेचने की इजाजत देता है, वह तकरीबन 20-22 लाख किसानों खासकर जाटों के लिए तो एक झटका ही है.

मगर किसानों की आवाज को सरकार दबाना चाहती थी, ताकि इस का असर दूसरे राज्यों में न फैले. इस वजह से प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पुलिस ने लाठियां भांजनी शुरू कर दीं. इस में किसी को गहरी चोटें आईं तो किसी के पैर की हड्डी टूट गई.

हरियाणा के एक किसान अरविंद राणा कहते हैं, “देश का पेट भरण आले किसान, देश की रक्षा करण आले किसान के बेटे, देश के भीतर कानून व्यवस्था बणाण आले सारे किसानों के बेटे, सारे व्यापारी, नेताअभिनेता और सारे अमीर आदमियां की सिक्योरिटी करण आले किसानों के बेटे, वोट दे कर सरकार बणाण आले किसान, देश की नींव किसान… और फिर भी अन्नदाता क लठ मारन का आदेश देते शर्म नहीं आई?”

गुस्सा बेवजह भी नहीं

सरकार के खिलाफ किसानों का गुस्सा बेवजह भी नहीं है, क्योंकि पहले नोटबंदी फिर जीएसटी और फिर कोरोना काल में पूरी तरह फिसड्डी रही सरकार ने एक बार फिर कृषि विधेयक बिल से देश के किसानों को खुश नहीं कर पाई.

किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कौरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इस का नुकसान किसानों को उठाना पड़ेगा.

किसान सौरव कुमार कहते हैं, “देश के किसानों की चिंता जायज है. किसानों को अगर बाजार में अच्छा दाम मिल ही रहा होता तो वे बाहर क्यों जाते? जिन उत्पादों पर किसानों को एमएसपी यानी समर्थन मूल्य ₹ नहीं मिलता, उन्हें वे कम दाम पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं.

“पंजाब में होने वाले गेहूं और चावल का सब से बड़ा हिस्सा या तो पैदा ही एफसीआई द्वारा किया जाता है या फिर एफसीआई उसे खरीदता है.”

वहीं प्रदर्शनकारियों को यह डर है कि एफसीआई अब राज्य की मंडियों से खरीद नहीं पाएगा, जिस से ऐजेंटों और आढ़तियों को तकरीबन 2.5 फीसदी के कमीशन का घाटा होगा.

इस का सब से बड़ा नुकसान आने वाले समय में होगा और धीरेधीरे मंडियां खत्म हो जाएंगी. इस से बेरोजगारी भी बढ़ेगी.

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अब पछता रहा हूं

कृषि मामलों के जानकार व खुद किसान रहे आदेश कुमार को मोदी सरकार से कोफ्त है. वे कहते हैं, “मैं ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भाजपा को वोट किया था, पर अब पछता रहा हूं.

“यह सरकार हर मोरचे पर फेल रही है और किसानों के लिए कभी कुछ नहीं कर पाई. पहले नोटबंदी फिर जीएसटी के बाद सरकार का कृषि का नया कानून देश के किसानों के खिलाफ है.

“अभी पिछले ही साल का एक वाकिआ बताता हूं. पैप्सिको ने भारत में 4 किसानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया. कंपनी का आरोप था कि ये किसान आलू की उस किस्‍म की खेती कर रहे थे, जो कि कंपनी द्वारा अपने लेज पोटेटो चिप्‍स के लिए विशेष रूप से रजिस्‍टर्ड है.

“तब किसान संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पैप्सिको का विरोध किया था. पैप्सिको ने नुकसान की भरपाई के लिए हर किसान से 1-1 करोड़ रुपए की मांग भी की.”

मालूम हो कि पैप्सि‍को भारत की सब से बड़ी प्रोसेस ग्रेड आलू की खरीदार है और यह उन पहली कंपनियों में से एक है जो आलू की विशेष संरक्षित किस्‍म को खुद के लिए उगाने के लिए हजारों स्‍थानीय किसानों के साथ काम कर रही है.

तब किसान संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पैप्सिको के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग की थी और अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि भारतीय कृषि कानून के तहत संरक्षित फसल को उगाना और उसे बेचना किसानों का अधिकार है.

किसानों को इसलिए भी डराया और कानूनी रूप से प्रताड़ित किया गया, ताकि किसान डर जाएं और इस फसल की खेती ही न करें.

किसानों ने सरकार को चिट्ठी भी लिखी थी जिस में उन्होंने आरोप लगाए थे कि पैप्सिको ने तथाकथित आरोपी किसानों के पास प्राइवेट जासूसों को संभावित ग्राहक बना कर भेजा, चुपचाप उन के वीडियो बनाए और आलू के सैंपल हासिल किए.

रोजगार जरूरी मंदिर नहीं

आदेश बताते हैं, “असल में सरकार की मंशा ही सही नहीं है. अगर देश में खुशहाली नहीं रहेगी, बेरोजगारी चरम पर होगी, नौकरियां खत्म हो जाएंगी, किसानों की सुनी नहीं जाएगी तो सरकार पर सवालिया निशान लगना वाजिब है.

“हमें न मंदिर चाहिए न मसजिद, पहले बेरोजगारी तो खत्म करो. किसान, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है उन के लिए तो कुछ करो. पहले से मरे किसानों को सरकार और मार रही है.”

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अपने ही खेत में मजदूर

आदेश कहते हैं, “2 राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के प्रावधान पर भी भरम की हालत है. 80-85 फीसदी छोटे किसान एक जिले से दूसरे जिले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. यह बिल बाजार के लिए बना है, किसानों के लिए नहीं.”

“इस प्रावधान से किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर हो जाएगा. काला बाजारी को बढ़ावा मिल सकता है.”

आखिर क्या है इस बिल में

जिन विधेयकों को मंजूरी मिली है उस में कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य विधेयक 2020 और कृषक कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 शामिल हैं.

कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 के तहत किसान या फिर व्यापारी अपनी उपज को मंडी के बाहर भी दूसरे जरीयों से आसानी से व्यापार कर सकेंगे.

इस बिल के मुताबिक राज्य की सीमा के अंदर या फिर राज्य से बाहर, देश के किसी भी हिस्से पर किसान अपनी उपज का व्यापार कर सकेंगे. इस के लिए व्यवस्थाएं की जाएंगी. मंडियों के अलावा व्यापार क्षेत्र में फौर्मगेट, वेयर हाउस, कोल्डस्टोरेज, प्रोसैसिंग यूनिटों पर भी बिजनैस करने की आजादी होगी.

मगर असल में भारत में छोटे किसानों की तादाद ज्यादा है, तकरीबन 80-85 फीसदी किसानों के पास 2 हैक्टेयर से कम जमीन है, ऐसे में उन्हें बड़े खरीदारों से बात करने में परेशानी होती आई है. इस के लिए वे या तो बड़े किसान या फिर बिचौलियों पर निर्भर होते थे. अब उन्हें फसल बेचने के लिए खुद पहल करनी होगी और यह पूरी संभावना है कि किसानों को इन प्रकियाओं से गुजरने में हिचक होगी या फिर उन्हें समझ ही नहीं आएगा कि वे फसल कहां और कब बेचें.

खुद भाजपा की वरिष्ठ नेता रहीं सुषमा स्वराज ने साल 2012 में सदन में किसानों की दशा और दिशा पर वर्तमान सरकार का ध्यान खींचने की कोशिश की थी.

सुषमा स्वराज ने बताया था कि किस तरह किसान अपने ही फसल को नहीं बेच पाते और आश्चर्य तो यह कि देश में पोटैटो चिप्स बनाने वाली कंपनियां देश के किसानों द्वारा तैयार फसल से चिप्स न बना कर विदेशी आयातित आलूओं से चिप्स बना कर बेचती हैं.

राज्य सरकारों की चिंता

किसानों की इन चिंताओं के बीच राज्‍य सरकारों खासकर पंजाब और हरियाणा को इस बात का डर सता रहा है कि अगर निजी खरीदार सीधे किसानों से अनाज खरीदेंगे तो उन्‍हें मंडियों में मिलने वाले टैक्‍स का नुकसान होगा, इसलिए कई राज्यों के सरकार भी इस का विरोध कर रहे हैं. खुद सरकार की सहयोगी रही अकाली शिरोमणि दल भी सरकार के इस फैसले से सहमत नहीं दिखी और पार्टी की वरिष्ठ नेता हरसिमरन कौर बादल ने केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने बिल को ले कर सवाल उठाए और अपने ट्वीटर हैंडल पर उन्‍होंने लिखा, ‘अगर ये बिल किसान हितैषी हैं तो समर्थन मूल्य का जिक्र बिल में क्यों नहीं है? बिल में क्यों नहीं लिखा है कि सरकार पूरी तरह से किसानों का संरक्षण करेगी? सरकार ने किसान हितैषी मंडियों का नैटवर्क बढ़ाने की बात बिल में क्यों नहीं लिखी है? सरकार को किसानों की मांगों को सुनना पड़ेगा.’

हालांकि जिस समर्थन मूल्य को ले कर किसानों और विपक्ष को एतराज है सरकार ने उस को पूरी तरह साफ नहीं किया है. दरअसल, किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू है. अगर कभी फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल खरीदती है, ताकि किसानों को नुकसान से बचाया जा सके.

किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है और इस के तहत अभी 23 फसलों की खरीद की जा रही है. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिशों के आधार पर एमएसपी तय की जाती है.

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आम आदमी पार्टी के नेता नीरज गुप्ता कहते हैं, “जब आप मजदूरी करने जाते हैं तो सरकार द्वारा मिनिमम भत्ता तय किया हुआ होता है.

“इस को इस तरह से समझना होगा कि प्राइवेट नौकरी में अनुभव और योग्यता के आधार पर पे स्केल तय होता है. सरकारी नौकरियों में पे ग्रेड होता है यानी किसी भी काम में कम से कम आप को क्या मिलेगा यह तय है, तो अकेले किसान का क्या कुसूर है कि उस के लिए उस एमएसपी को ही हटाया जा रहा है?

“प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि एमएसपी नहीं हट रहा तो उसे लिखने में क्या गुरेज है? पिछले कुछ दिनों का इतिहास उठा कर देखिए, ओला व उबर जैसी कंपनियों की वजह से कितनी कारें सड़कों पर आ गईं आज वे सब कौड़ियों के दाम बिकने को तैयार हैं. इस बिल से किसान जो कुछ भी कमाता रहा है, वह भी उसे नहीं मिलेगा.”

नोटबंदी जैसा हश्र होगा

किसान परिवार से संबंध रखने वाले संदीप भोनवाल कहते हैं, “सरकार द्वारा किसानों के लिए लाए हुए अध्यादेश ठीक उसी तरह साबित होंगे जिस तरह सरकार ने कुछ साल पहले नोटबंदी कर के देश को किया था. तब सरकार ने कहा था कि इस से देश को फायदा होगा, लेकिन आज तक एक भी फायदा नोटबंदी से देश को नहीं दिखा.

“ठीक उसी तरह जो ये बिल सरकार किसानों के लिए ले कर आई है, आने वाले समय में इस के नतीजे ठीक नोटबंदी की तरह ही घातक होंगे.

“इस बिल की सब से गलत बात यह भी लगी कि कोई भी किसानों का संगठन सरकार ने अपने दायरे में ले कर उस बिल का निर्माण नहीं कराया. अब आप ही समझें कि जो बिल किसानों के लिए बन रहा है अगर उस में किसानों की ही राय  शामिल न हो तो ऐसे बिल का क्या फायदा?”

किसान कुदरत की मार तो जैसेतैसे झेल जाते हैं लेकिन देश की दोहरी आर्थिक नीतियां उन का मनोबल तोड़ कर रख देती हैं.

किसानों द्वारा खुदकुशी

पिछले दिनों राजस्थान के एक किसान सुरेश कुमार ने इसलिए फांसी लगा ली क्योंकि वह कर्ज से फंसा पड़ा था. बीते कुछ साल से उन की फसल अच्छी नहीं हुई थी और जो हुई उस के भी वाजिब दाम नहीं मिल पाए. इस दौरान सुरेश कुमार पर कर्ज  बढ़ता गया.

मध्य प्रदेश के एक किसान संत कुमार सनोडिया ने इसलिए जहर खा कर जान दे दी, क्योंकि बेची गई फसल के एवज में उसे 4 महीने सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े, मगर फिर भी पैसे नहीं मिले.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक बीते तकरीबन 20 सालों में देशभर के 3 लाख से ज्यादा किसानों को खुदकुशी करने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

एनसीआरबी की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में कृषि क्षेत्र से जुड़े 10,349 लोगों ने खुदकुशी कर ली थी. वहीं साल 2017 में यह आंकड़ा 10,655 था.

राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के एक सर्वे के मुताबिक देश के आधे से ज्यादा किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं और एक स्टडी के मुताबिक हर तरफ से निराश हो चुके देश के 76 फीसदी किसान खेती छोड़ कर कुछ और करना चाहते हैं.

आर्थिक सर्वे 2018-19 के आंकड़े भी बताते हैं कि साल 2016-17 की तुलना में कृषि की सकल मूल्य वृद्धि (जीवीए) में तकरीबन 54 फीसदी की कमी देखी गई है.

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चौपट अर्थव्यवस्था

रहीसही कसर कोरोना ने पूरी कर दी. कोरोना काल में अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लगा तो इस ने 40 साल का रिकौर्ड तोड़ दिया. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. कोरोना काल में पहली तिमाही में देश का सकल घरेलू उत्पादन वृद्धि दर जीरो से 23.9 फीसदी नीचे चली गई है.

इस से बेरोजगारी दर में भी इजाफा हुआ. सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी (सीएमआईई) ने देश में बेरोजगारी पर सर्वे रिपोर्ट जारी किया है. इस सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक 3 मई को खत्म हुए हफ्ते में देश में बेरोजगारी दर बढ़ कर 27.1 फीसदी हो गई है, वहीं अप्रैल, 2020 में देश में बेरोजगारी दर बढ़ कर 23.5 फीसदी पर पहुंच गई थी.

सरकारी उदासीनता की वजह से देश में कई उद्यम बंद हो गए हैं. बेरोजगारी की दर शहरी क्षेत्रों में सब से ज्यादा बढ़ी है.

सीएमआईई ने अंदाजा लगाया गया है कि अप्रैल में दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों और छोटे व्यवसायी सब से ज्यादा बेरोजगार हुए हैं. सर्वे के मुताबिक 12 करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरी गंवानी पड़ी है. इन में फेरी वाले, सड़क के किनारे सामान बेचने वाले, निर्माण उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी और कई लोग शामिल हैं.

मगर सरकार को इन सब से कोई चिंता नहीं. लोगों को रोजगार चाहिए, रोटी चाहिए पर भाजपा शासित राज्यों में वहां की सरकारों को इस से कुछ लेनादेना नहीं.

राम की चिंता किसानों की नहीं

भाजपा शासित राज्य उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बेरोजगारी पर भले कुछ ध्यान न दे रही हो, मगर राज्य में मंदिरों व तीर्थस्थलों में जम कर पैसा बहाया जा रहा है.

योगी सरकार की अयोध्या में राम के नाम पर लगभग 135 करोड़ रुपए खर्च करने की तैयारी है. यह रकम उसे केंद्र सरकार देगी.

इस पैसे से योगी सरकार अयोध्या को सजाएगीसंवारेगी. राम और दशरथ के महल और राम की जलसमाधि वाले घाटों पर रौनक बढ़ाया जाएगा.

योगी सरकार उत्तर प्रदेश में रामलीला स्थलों में चारदीवारी निर्माण के लिए 5 करोड़ रुपए भी खर्च करेगी. मगर भगवा रंग में रंगी सरकार से यही उम्मीद भी है, क्योंकि राम के नाम पर राजनीति तेज है और देश के किसानों की हालत भी राम भरोसे से कम नहीं. अब देश के किसानों को थाली और ताली बजाने के सिवा और कोई रास्ता भी तो नहीं दिख रहा.

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