कोरोना के समय ऐसे करें सेफ सेक्स

अगर कोरोना की महामारी के दौरान आपने और आपके साथी ने खुद को एकांतवास में ले लिया है तो ऐसे में आपकी सेक्स लाइफ में रोमांच लाने के कई तरीके हो सकते हैं. कोरोना वायरस के खौफ के साए में हम चेहरे पर तो हाथ का स्पर्श नहीं ले जा रहे हैं लेकिन बदन के अन्य हिस्सों को तो छुआ जा सकता है.

सेक्स सेफ है

यह बीमारी सेक्स से संक्रमित नहीं होती और न ही ऐसा कोई मामला सामने आया है कि किन्ही युगलों के बीच सेक्स के कारण इसका संक्रमण हो गया हो. यह मूल रूप से सांसों के माध्यम से गिरी बारीक बूंदों और किसी संक्रमित सतह को छूने से हो रही है.

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ओरल सेक्स से बचें

इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि कोविड-19 का संक्रमण योनी या गुदा मैथुन से हुआ हो. सेक्स के दौरान चूमना बहुत आम बात है लिहाजा इसका वायरस मुंह की लार के जरिए फैल सकता है. अगर आपका पार्टनर विदेष दौरे से लौटा/लौटी है तो उस स्थिति में चुंबन लेने से बचें! यात्रा करने के दो हफ्ते बाद ऐसा करना सुरक्षित है. कोविड-19 के ओरल-फिकल ट्रांसमिशन के भी सबूत मिले हैं, लिहाज़ा, ओरल सैक्स से बचना चाहिए.

यदि एक भी पार्टनर कोविड-19 का संदिग्ध रोगी है तो बेहतर यही होगा कि आप एक दूसरे से दूर रहे हैं और जांच के नतीजे मिलने तक अलग-अलग कमरों में ही सोएं.

स्ट्रैस रिलीवर

लेकिन अगर आपमें से किसी में भी किसी किस्म का लक्षण दिखायी नहीं दिया है और किसी संक्रमित व्यक्ति या सतह आदि के संपर्क में भी नहीं आए हैं तथा पूरे समय घर पर ही रहे हैं तो सेक्स से अच्छा और कोई तरीका आनंद लेने का नहीं हो सकता. यह तनावपूर्ण समय में बेचैनी दूर करने का सबसे बढ़िया उपाय है.

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फिलहाल यही सलाह है कि जितना हो सके घर पर रहें और रोज़मर्रा की जरूरतों का सामान खरीदने के वक़्त ही दूसरे लोगों के संपर्क में आएं. इस दौरान भी अन्य लोगों से कम से कम दो मीटर की दूरी बनाएं रखें. हालाकि इस स्थिति में कैजुअल सेक्स करना चुनौतीपूर्ण होगा!

हस्तमैथुन

किसी भी किस्म का अंतरर्वैयक्तिक संबंध तभी कायम करें जब ऐसा करना एकदम जरूरी हो. लिहाज़ा, आगामी कुछ हफ्तों में यौन संसर्ग कुछ कम हो सकता है. लेकिन यौन सुख प्राप्त करने के और भी कई तरीके हैं. जो मौजूदा हालात में उपयोगी साबित हो सकते हैं. इनमें सेक्सटिंग, वीडियो कौल, कामोत्तेजक साहित्य पढ़ना और हस्तमैथुन शामिल हैं. याद रखिये, आप अपने सबसे सुरक्षित सेक्स पार्टनर हैं. ऐसे में हस्तमैथुन बढ़िया विकल्प है और यह आपको कोविड-19 से बचाए रखेगा. ऐसे में भी हाथ धोना मत भूलिये और यदि आप सेक्स टौयज का इस्तेमाल करते हैं तो उन्हें भी सेक्स से पहले और बाद में 20 सेकंड अवश्य धो लें.

डा. अनूप धीर, डायरेक्टर अल्फा वन एंड्रोलॉजी ,फेलो औफ यूरोपीयन काउंसिल औफ सेक्सुअल मेडिसिन से बातचीत पर आधारित

क्या सेक्स करने से भी हो सकता है कोरोना!

एक तरफ जहां कोरोना वायरस से बचाव के लिए सोशल डिस्टैंसिंग को जरूरी बताया जा रहा है, वहीं लोगों के मन में यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या सेक्स करने से भी कोरोना वायरस फैल सकता है? जानिए, सेक्स को ले कर जुङे तमाम सवालों के जवाब :

पार्टनर के साथ सेक्स करने से कोरोना वायरस फैलने का डर है क्या?

कोरोना वायरस संक्रमण से ही फैलता है मगर यह सेक्स से फैलता है, इस को ले कर अभी कोई ठोस वजह सामने नहीं आया है. मगर जब कोई सेक्स पार्टनर से इंटिमेट होता है तो इस वायरस के फैलने का खतरा हो सकता है. मगर यह तब होगा जब सेक्स पार्टनर में से कोई एक कोरोना वायरस से संक्रमित होगा.

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क्या सोशल डिस्टैंसिंग सेक्स पार्टनर पर भी लागू होता है?

बिलकुल. अगर सेक्स पार्टनर को सूखी खांसी, छींक अथवा नाक बहने के लक्षण हैं तो उस के साथ सेक्स करने से बचना चाहिए और अलग क्वारेंटीन करना चाहिए.

क्या फेस मास्क लगा कर सेक्स किया जा सकता है? यह कितना सेफ है?

सेक्स पार्टनर अगर कोरोना वायरस से संक्रमित है तो उस के साथ सेक्स संबंध बनाने से परहेज करें. इस दौरान दूसरे पार्टनर को भी इफैक्ट होने का चांस हो सकता है. इस का फेस मास्क से कोई लेनादेना नहीं है.

क्या ओरल सेक्स से भी कोरोना वायरस के फैलने का खतरा है?

कोरोना वायरस से संक्रमित सेक्स पार्टनर से ओरल सेक्स सेफ नहीं माना जा सकता क्योंकि इस प्रकिया में भी डीप टच होता है और पूरी संभावना है कि इस से दूसरा भी संक्रमित हो जाए. इसलिए यह कह सकते हैं कि ओरल सेक्स भी पूरी तरह सेफ नहीं है.

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इस समय सेक्स संबंध बनाने से पहले क्या करना चाहिए?

पार्टनर के साथ सेक्स करने से पहले हाइजीन का ध्यान रखना बेहद जरूरी है. बैडरूम में जाने से पहले कपड़े बदल लें. बेहतर होगा कि बाहर से आने के बाद चप्पलें आदि भी बदल लें. खुद को सैनिटाइज कर नहा लेना चाहिए. सब से जरूरी है कि अगर पार्टनर में कोरोना वायरस के कोई भी लक्षण दिखें तो बेहतर है कि अलगअलग रहें और चिकित्सक से संपर्क करें.

-डा. एल बी प्रसाद एमबीबीएस, एमडी, सीनियर कंसल्टैंट, फिजीशियन ऐंड डाइबेटोलोजिस्ट से बातचीत पर आधारित

#Lockdown: लौक डाउन की पाबन्दी में अनचाही प्रैगनेंसी से कैसें बचें

कोरोना के खतरे को देखते हुए अब आप भी घर से बाहर नहीं निकलेंगें और जब घर से बाहर नहीं निकलेंगे तो निश्चित ही खाली तो बैठेंगे नहीं. आप कहानियां पढेंगे, टीवी देखेंगे, सोसल मीडिया की ख़ाक छानेंगे, कोरोना के बारे में जाननें के लिए इंटरनेट की दुनियां में खो भी जायेंगे. भले ही आप ने आज तक घर में बीबी के साथ खाना पकाने में मदद न की हो लेकिन इस खाली समय में आप अब खाना भी पकाएंगे. यह सब करनें से तो दिन कटने वाला नहीं हैं. इस लिए बीबी के साथ रोमांस भी तो करेंगे.

लेकिन संभल कर क्यों की अगर आप का परिवार पूरा हो चुका है और अब आप और बच्चे नहीं चाहते हैं या अभी आप नें  बच्चे ही की प्लानिंग ही नहीं की है तो कोरोना लौकडाउन में किये जाने वाले रोमांस के दौरान की छोटी सी भी लापरवाही आप के और आपके साथी के लिए मुसीबत बन सकता हैं. क्यों की रोमांस करने को सरकार ने इमरजेंसी में तो रखा नहीं है. ऐसे में हमबिस्तर से होने वाली अनचाही प्रेगनेंसी से बचनें के लिए आप बाहर निकल कर कंडोम, कौन्ट्रसेप्टिव पिल यानी गर्भनिरोधक गोली जैसी कोई चीज नहीं ले सकतें हैं.

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चूंकि आप लौकडाउन के चलते घर में कैद हैं तो कहीं ऐसा न हो की आप की हमबिस्तर होने की चाहत साथी के ऊपर भारी पड़ जाए. तो ऐसे में गर्भनिरोधक की कमी के चलते साथी प्रैग्नेंट भी न हों और लौकडाउन में रोमांस भी हो जाए. इसके लिए इन उपायों को अपना कर आप अनचाही प्रैगनेंसी से बच सकतें हैं.

पुलआउट मैथेड

कोरोना के कहर के बीच और लौकडाउन के दौरान अगर आप के पास कंडोम या गर्भनिरोधक गोलियों का स्टाक ख़त्म हो गया है या उपलब्धता नहीं हो पा रही है तो निश्चित ही यह मैथेड आप के लिए प्रभावी हो सकता है. ऐसे स्थिति में सेक्स के दौरान मेल साथी को सेक्स के अंतिम क्षणों में अपने अंग को वेजाइना से बाहर निकालना होता है. जिससे शुक्राणु गर्भाशय तक नहीं पहुंच पाते है. इस वजह से गर्भधारण की संभवना शून्य हो जाती है. लेकिन पुलआउट कंडीशन में सेल्फ कंट्रोल की बड़ी आवश्यकता होती है. ऐसे में जब आप के पास कोई उपाय नहीं है तो आप के सामने यही एक सहारा हो सकता है .

स्वास्थ्य कर्मियों का ले सहारा – 

लौकडाउन के दौरान भले ही आप के बाहर निकलनें पर पाबन्दी लगी हो लेकिन शहरों से लेकर गाँवों तक में तैनात स्वास्थ्य कर्मियों की इमरजेंसी ड्यूटी लगाईं गई है. जिन्हें परिवार को सीमित करने के साधनों को मुफ्त या बहुत ही मामूली कीमत पर वितरण हेतु उपलब्ध कराया गया है. इन स्वास्थ्य कर्मियों में आशा, ए एन एम जैसे लोग शामिल हैं. जिन्हें महानगरों से लेकर गांवों तक में सभी राज्यों में तैनात किया गया है. इनको आप काल कर घर पर बुला सकते हैं और उनसे आप अनचाही प्रेग्नेसी से बचनें वाले साधनों की मांग कर सकतें हैं. इसके अलावा मेडिकल स्टोर्स के खुलने पर भी पाबंदी नहीं लगाईं गई है और कई जगहों पर मेडिकल स्टोर्स संचालकों को होम डिलेवरी का भी निर्देश दिया गया है. इनको भी आप फोन कर कंडोम , कौन्ट्रसेप्टिव पिल्स मंगा सकतें हैं.

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किन साधनों का करें उपयोग-

हमबिस्तर के दौरान वैसे तो आप अपनें मर्जी से परिवार नियोजन के साधनों का उपयोग कर सकतें हैं. अगर आपने बिना किसी गर्भनिरोधक साधन के ही सम्बन्ध बना लिया है तो इसके लिए आप आशा कर्मी से इमरजेंसी कौन्ट्रसेप्टिव पिल्स की मांग कर सकतें हैं. इसे हमबिस्तर होने के 72 घंटों के भीतर महिला को खाना होता है. यह इमरजेंसी कौन्ट्रसेप्टिव पिल्स आशा के पास केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को भरपूर मात्रा में उपलब्ध कराई गई हैं. इनके पास कंडोम भी मुफ्त वितरण के लिए उपलब्ध कराया गया है. इसके अलावा माला डी, माला एन जैसी गोलियों का उपयोग भी किया जा सकता है. यह गोलियां भी स्वास्थ्य कर्मियों को फोन कर घर पर ही मुफ्त में मंगाया जा सकता है. लेकिन माला डी, माला एन जैसी गोलियां स्टीरौयड होने के कारण हौर्मोनल होती हैं.  जिसके शरीर पर साइड इफेफ्ट भी देखे जा सकतें है लेकिन इस लॉक डाउन के दौरान यह भी आप की साथी बन सकती हैं.

छाया सबसे अच्छा साधन – 

लौकडाउन के बीच लगी पाबंदियों में अनचाहे गर्भ से बच पायें इसके लिए उपलब्ध साधनों में शामिल खाने की गोलियों में छाया को सबसे अच्छा माना गया है. यह नान हार्मोनल गोली है जो सरकार द्वारा मुफ्त वितरण हेतु छाया के नाम से स्वास्थ्य कर्मियों को को उपलब्ध कराई गई है. महिला को इसे माला-एन की तरह प्रतिदिन सेवन नहीं करना पड़ता है. छाया गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन तीन माह तक सप्ताह में दो बार और तीन माह पूरा होने के बाद सप्ताह में केवल एक बार ही करना होता है. इसमें स्टीरॉयड न होने से यह नान हर्मोनल गर्भ निरोधक गोली होती है, जिसका कोई साइड इफेक्ट नहीं होता है. हार्मोनल गोलियों की तरह छाया के सेवन से मोटापा, मतली होना, उल्टी या चक्कर आना, अधिक रक्तस्त्राव, मुहांसे जैसे कोई दुष्प्रभाव नहीं होते.  इस कारण यह अधिक सुरक्षित है.
तो आप भी लॉक डाउन के दौरान निश्चिंत होकर घर पर अपने साथी के साथ रोमांस कर सकतें है, हमबिस्तर हो सकतें हैं. बस ऊपर बताई गई बातों का ख्याल आप को रखना होगा. आप यह न सोचें की आप को इस इमरजेंसी में गर्भनिरोधक साधन कहाँ मिलेंगे. आप इसे स्वास्थ्य कर्मियों से मुफ्त में घर मंगा सकतें हैं इसके अलावा सेल्फ कंट्रोल द्वारा पुलआउट मैथेड का प्रयोग भी कर सकतें हैं. इस लिए इन बातों का ध्यान जरुर रखें नहीं तो लॉक डाउन की पाबंदियां अनचाहे गर्भ के रूप में सामने आ सकतीं हैं.
इन उपायों के अलावा भी अनचाही प्रैग्नेसी से बचनें के कई स्थाई और अस्थाई उपाय हैं जिसका उपयोग किया जा सकता है. लेकिन यह समय बाकी के उपायों के अजमाने का नहीं हैं. इसे लिए इन्हीं उपायों के सहारे आप साथी के साथ को हसीन बना सकतें हैं.

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गहरी पैठ

अच्छे दिनों की तरह प्रधानमंत्री का एक और वादा आखिर टूट ही गया. 24 मार्च, 2020 को उन्होंने वादा किया था कि लौकडाउन के 21 दिनों में वे कोरोना वायरस को हरा देंगे और महाभारत को याद दिलाते हुए कहा था कि 18 दिन के युद्ध की तरह कोरोना की लड़ाई भी जीती जाएगी.

अंधभक्तों ने यह बात उसी तरह मान ली थी जैसे उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, धारा 370 से कश्मीर में बदलाव, राष्ट्रभक्ति, 3 तलाक के कानून में बदलाव, नागरिक कानून में बदलाव मान लिया था. महाभारत के युद्ध की चाहे जितनी वाहवाही कर लो असलियत तो यही?है न कि युद्ध के बाद पांडवों की पूरी जमात में सिर्फ 5 पांडव और कृष्ण बचे थे, बाकी सब तो मारे गए थे.

पिछले 6 सालों से हम हर युद्ध में खुद को मरता देख रहे हैं. कोरोना के युद्ध में भी अब 15 लाख से ज्यादा मरीज हो चुके हैं और 35,000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. कहां है महाभारत का सा वादा?

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कोरोना की लड़ाई में हम उसी तरह हारे हैं जैसे दूसरी झड़पों में हारे. नोटबंदी के बाद करोड़ों देशवासियों को कतारों में खड़ा होना पड़ा पर काला धन वहीं का वहीं है. जीएसटी के बाद भी न तो सरकार को टैक्स ज्यादा मिला, न नकद लेनदेन बंद हुआ.

कश्मीर में धारा 370 को बदलने के बाद पूरा कश्मीर जेल की तरह बंद है. जो लोग वहां प्लौट खरीदने की आस लगा रहे थे या वादा जगा रहे थे अब भी मुंह छिपा नहीं रहे क्योंकि जो लोग रोज झूठे वादे करते हैं उन्हें वादों के झूठ के पकड़े जाने पर कोई गिला नहीं होता.

कोरोना के बारे में हमारी सरकार ने पहले जो भी कहा था वह इस भरोसे पर था कि हम तो महान हैं, विश्वगुरु हैं. हमें तो भगवान की कृपा मिली है. पर कोरोना हो या कोई और आफत वह धर्म और पूजा नहीं देखती. उलटे जो धर्म में भरोसा रखता है वह कमजोर हो जाता है. वह तैयारी नहीं करता. हम ने सतही तैयारी की थी.

हमारा देश अमेरिका और ब्राजील की तरह निकला जहां भगवान पर भरोसा करने वाले बहुत हैं. दोनों जगह पूजापाठ हुए. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के कट्टर समर्थक गौडगौड करते फिरते हैं. कई महीनों तक ट्रंप ने मास्क नहीं पहना. नरेंद्र मोदी भी मास्क न पहन कर अंगोछा पहने रहे जो उतना ही कारगर है जितना मास्क, इस पर संदेह है. देश की बड़ी जनता उन की देखादेखी मास्क की जगह टेढ़ासीधा कपड़ा बांधे घूम रही है.

इस देश में बकबकिए भी बहुत हैं. यहां बोले बिना चैन नहीं पड़ता और बोलने वाले को सांस लेने के लिए मास्क या अंगोछा टेढ़ा करना पड़ता है. यह अनुशासन को ढीला कर रहा है. नतीजा है 15 लाख लोग चपेट में आ चुके हैं और 5 लाख अभी भी अस्पतालों में हैं. जहां साफसफाई हो ही नहीं सकती क्योंकि साफसफाई करने वाले जिन घरों में गायों के दड़बों में रहते हैं वहां गंद और बदबू हर समय पसरी रहती है.

कोरोना की वजह से गरीबों की नौकरियां चली गईं. करोड़ों को अपने गांवों को लौटना पड़ा. जमापूंजी लौटने में ही खर्च हो गई. अब वे सरकारी खैरात पर जैसेतैसे जी रहे हैं. यह जीत नहीं हार है पर हमेशा की तरह हम घरघर पर भी जीत का सा जश्न मनाएंगे जैसे महाभारत पढ़ कर या रामायण पढ़ कर मनाते हैं.

देश में नौकरियों का अकाल बड़े दिनों तक बना रहेगा. पहले भी सरकारी फैसलों की वजह से देश के कारखाने ढीलेढाले हो रहे थे और कई तरह के काम नुकसान के कगार पर थे, अब कोरोना के लौकडाउनों की वजह से बिलकुल ही सफाया होने वाला है. रैस्टोरैंटों का काम एक ऐसा काम था जिस में लाखों नए नौजवानों को रोजगार मिल जाता था. इस में ज्यादा हुनर की जरूरत नहीं होती. गांव से आए लोगों को सफाई, बरतन धोने जैसा काम मिल जाता है. दिल्ली में अकेले 1,600 रैस्टोरैंट तो लाइसैंस वाले थे जो अब बंद हैं और उन में काम करने वाले घर लौट चुके हैं. थोड़े से रैस्टोरैंटों ने ही अपना लाइसैंस बनवाया है क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि कब तक बंदिशें जारी रहेंगी.

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ऐसा नहीं है कि लोग अपनी एहतियात की वजह से रैस्टोरैंटों में नहीं जाना चाहते. लाखों तो खाने के लिए इन पर ही भरोसा रखते हैं. ये सस्ता और महंगा दोनों तरह का खाना देते हैं. जो अकेले रहते हैं उन के लिए अपना खाना खुद बनाना एक मुश्किल काम है. अब सरकारी हठधर्मी की वजह से न काम करने वाले को नौकरी मिल रही है, न खाना खाने वाले को खाना मिल रहा है. यह हाल पूरे देश में है. मकान बनाने का काम भी रुक गया. दर्जियों का काम बंद हो गया क्योंकि सिलेसिलाए कपड़ों की बिक्री कम हो गई. ब्यूटीपार्लर बंद हैं, जहां लाखों लड़कियों को काम मिला हुआ था. अमीर घरों में काम करने वाली नौकरानियों का काम खत्म हो गया.

बसअड्डे बंद हैं. लोकल ट्रेनें बंद हैं. मैट्रो ट्रेनें बंद हैं. इन के इर्दगिर्द सामान बेचने वालों की दुकानें भी बंद हैं और इन में वे लोेग काम पा जाते हैं जिन के पास खास हुनर नहीं होता था. ये सब बीमार नहीं बेकार हो गए हैं और गांवों में अब जैसेतैसे टाइम बिता रहे हैं.

दिक्कत यह है कि नरेंद्र मोदी से ले कर पास के सरकारी दफ्तर के चपरासी तक सब की सोच है कि अपनी सुध लो. नेताओं को कुरसियों की पड़ी है, चपरासियों को ऊपरी कमाई की. ये जनता के फायदेनुकसान को अपने फायदेनुकसान से आंकते हैं. ये सब अच्छे घरों में पैदा हुए और सरकारी दया पर फलफूल कर मनमानी करने के आदी हो चुके हैं. इन्हें आम जनता के दुखदर्द का जरा सा भी खयाल नहीं है. ये गरीबों की सुध लेने को तैयार नहीं हैं. इन के फैसले बकबक करने वाले होते हैं, नारों की तरह होते हैं और 100 में से 95 खराब और गलत होते हैं. अगर देश चल रहा है तो उन लोगों की वजह से जो सरकार की परवाह किए बिना काम किए जा रहे हैं, जो कानून नहीं मानते, जो सड़कों पर घर बना सकते हैं, सड़कों पर व्यापार कर सकते हैं.

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आज अगर भुखमरी नहीं है तो उन किसानों की वजह से जो बिना सरकार के सहारे काम कर रहे हैं. उन कारीगरों की वजह से जो छोटेमोटे कारखानों में काम कर रहे हैं. आज देश गरीबों की मेहनत पर चल रहा है, अमीरों की सूझबूझ और सरकार के फैसलों पर नहीं.

न्याय करता ‘गुंडों का गैंग’

भीड के रूप में ‘गुंडो का गैंग’ बनाकर न्याय देने का चलन नया नहीं है. महाभारत में द्रोपद्री का गुनाह इतना था कि वह अंधेपन पर हंस दी थी. द्रोपदी को दंड देने के लिये जुएं में उसका छलपूर्वक जीता गया और भरी सभा में अपमानित करके दंड दिया गया. सभा भीड का ही एक रूप थी. औरत के अपमान पर मौन थी. ऐसी तमाम घटनायें धार्मिक ग्रंथों में मौजूद है. यही कहानियां बाद में कबीलों में फैसला देने का आधार बनने लगी. देश की आजादी के बाद कबीले खत्म हो गये पर उनकी संस्कृति खत्म नहीं हुई. कबीलों की मनोवृत्ति ‘खाप पंचायतो’ में बदल गई. कानूनी रूप से खाप पंचायतो पर रोक लगी तो भीड के रूप में न्याय देने की शुरूआत हो गई. इनको राजनीति से ताकत मिलती है. भीड के रूप में उमडी जनता ने 1992 में अयोध्या में ढांचा ढहा दिया. जिन पर आरोप लगा वह हीरो बनकर समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे है. मजेदार बात यह है कि ढांचा ढहाने की जिम्मेदारी भी कोई लेने को तैयार नहीं है. कानून के समक्ष चैलेंज यह है कि भीड के रूप में किसको सजा दे ? भीड के रूप को तय करने की उहापोह हालत ही अपराध करने वालों को बचने का मौका दे देती है.

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कन्नौज जिले के कोतवाली क्षेत्र के बनियान गांव में शिवदेवी नामक की महिला अपने मायके में रहती थी. शिवदेवी के पति की मौत हो चुकी थी. उसके अपने 5 बच्चे भी थे. पति की मौत के बाद ससुराल वालों के व्यवहार से दुखी होकर शिवदेवी अपने मायके रहने चली आई थी. यहां भी परिवार के लोग उसका साथ नहीं दे रहे थे. ऐसे में गांव के ही रहने वाले दीपक ने उसकी मदद करनी शुरू की. दीपक दिव्यांग था. वह अक्सर समय बेसमय भी जरूरत पडने पर शिवदेवी के घर आ जाता था. शिवदेवी के चाचा और उनके परिजनों को यह बुरा लगता था. 24 अगस्त 2020 को दीपक शिवदेवी से मिलने उसके घर आया तो शिवदेवी के चाचा और उनके लडको ने उसे और शिवदेवी को कमरे में बंद करके पीटना शुरू कर दिया. इसके बाद अगले दिन बुद्ववार की सुबह दोनो के सिर मुंडवाकर मुंह पर कालिखपोत कर, गले में जूतों की माला पहनाकर, डुगडुगी बजाकर पूरे गांव में जुलूस बनाकर निकालना शुरू कर दिया.

मुंह पर कालिख पोते, गले में जूतों की माला पहने शिवदेवी और दीपक भीड के द्वारा पूरे गांव में घुमाये जा रहे थे. गांव के बच्चे, महिलायें, बडेबूढे इस तमाषें को देख रहे थे. कुछ लोग इसका वीडियों भी बना रहे थे. वीडियों बनाकर वायरल भी कर दिया गया. जिसकी आलोचना षुरू हो गई. इसके बाद पुलिस गांव पहुंची तो भीड से किसी तरह से दोनो को छुडाकर थाने लाई. शिवकुमारी और दीपक को थाने में नजरबंद किया गया. पुलिस ने भीड के खिलाफ मुकदमा कायम करने की बात कही. भीड का यह न्याय केवल कन्नौज भर तक सीमित नहीं है. पूरे देश में भीडतंत्र ‘गुंडो का गैंग’ बनाकर न्याय देने का काम करने लगा है. यही घटना जब हिन्दू मुसिलम के बीच होती है तो ‘मौब लिन्चिग‘ मान लिया जाता है.

जैसा नेता वैसी प्रजा:

कहावत कि ‘जैसा राजा वैसी प्रजा‘ कन्नौज में भी यह कहावत पूरी तरह से फिट बैठती है. कोरोना काल में सही तरह से काम ना करने का आरोप लगाते हुये कन्नौज के भाजपा सासंद सुब्रत पाठक ने कन्नौज के दलित तहसीलदार अरविंद कुमार और लेखपाल को उनके घर में घुसकर पीटा. सांसद अकेले नहीं थे वहां पर 25 से अधिक उनके समर्थक थे. पीटे गये तहसीलदार ने न्याय की गुहार लगाई. विपक्ष के नेता अखिलेश यादव और मायावती भी घटना के विरोध में बयान देने लगे. इसके बाद पुलिस ने मुकदमा कायम कर पूरे मामलें की लीपापोती कर दी. अखिलेश यादव ने कहा कि ‘संासद के द्वारा एक दलित अफसर को पीटा जाना सरकार के चरित्र का बताता है‘.

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मायावती ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कडे कदम उठाने की मांग की. सरकार ने कोई ऐसा कडा कदम उठाया नही. जो नजीर बन सके. इससे भयभीत होकर तहसीलदार अरविंद कुमार कर पत्नी अलका रावत ने कहा कि यहां हमें खतरा है इसलिये हमारा तबादला कहीं और कर दिया जाये. सांसद को किसी भी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ कदम उठाने का अधिकार है. पर इस तरह से किसी अफसर को घुसकर उसके औफिस में पीटना सहीं नहीं है. जब नेता इस तरह से अपने काम करता है तो जनता भी उसी की राह पर चलने लग रही है. उसे भी कानून और पुलिस पर भरोसा नहीं रहा. वह ‘गुंडों का गैंग’ बनाकर खुद की फैसला करने लगी है.

मौब लिन्चिग‘ बनाम ‘गुंडो का गैंग’:

हिन्दू मुसलिम विवाद में भीड तंत्र के काम को ‘मौब लिन्चिग‘ का नाम दिया जाता है. भीड केवल अगल धर्म के लोगों के साथ ही भीड का रूप रखकर न्याय नहीं करती है अपने धर्म में भी यह भीड खूब न्याय करती है. यह न्याय ‘गुंडो का गैंग’ करता है. जिसे प्रषासन और सरकार का समर्थन हासिल होता है. उनको लगता है कि सरकार के बहाने वह प्रषासन को दबा लेगे. दबाव में पुलिस दरोगा उनके खिलाफ कोई काररवाई नहीं कर सकेगी. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आने के बाद ऐसी घटनाओं में ‘गुंडो के गैंग’ द्वारा भगवा कपडे या गमछा ले लिया जाता है. जिससे पुलिस को लगे की यह सरकार के आदमी है.

डायन, बाइक चोर, गौ-तस्कर, बच्चा चोर, हिंदू- मुस्लिम विवाद, धर्म का अपमान न जाने क्या-क्या कारण ढूंढ भीड़ बिना सुनवाई के सड़क पर ‘न्याय‘ करने लगी है. भीड़ आरोपी को बिना किसी सुनवाई के मौत के घाट उतार देती है. लोकतंत्र का अर्थ देश की जनता भूल गई है. झारखंड के खूंटी जिले के पास कर्रा में दिव्यांग व्यक्ति की गोकशी के संदेह में पीटकर हत्या कर दी जाती है. गुजरात के जामनगर जिले में चोर होने के शक में सात लोगों के एक समूह ने एक अज्ञात व्यक्ति की कथित तौर पर लाठी-डंडों से पिटाई कर दी. दरभंगा में चोरी के शक में एक युवक को भीड़ ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया, अस्पताल में उसकी मौत हो गई. झारखंड में तबरेज अंसारी को भीड़ द्वारा चोरी के शक में पकडा गया था, शक चोरी का था लेकिन उससे जय श्रीराम का नारा लगवाया जा रहा था. उसने जय श्री राम भी बोला और जय हनुमान भी, लेकिन मर चुकी मानवीय संवेदना को कहा फर्क पड़ने वाला था. वो उसे घंटों पीटते गए. तबरेज ही नहीं इससे पहले अखलाक और पहलू खान के साथ भी यही हुआ.

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छूट जाते है आरोपी:

भीड में ‘गुंडो का गैंग’ अपना काम कर जाता है और प्रषासन, पुलिस और कोर्ट इनको कोई सजा नहीं दे पाते. जिसके कारण आरोपियों के हौसले बुलंद होते है. भीड के द्वारा मारे गये लोगो के कई मामलों में ऐसा ही हुआ है. षाहजहांपुर में पुलिस के इंसपेक्टर की हत्या भीड के द्वारा की जाती है. आरोपी जमानत पर छूट कर बाहर आता है तो भगवा गैंग के लोग उसको सम्मान करते है. भीड के सामाजिक और मनोविज्ञानिक व्यवहार को देखे तो पता चलता है कि किसी घटना में एक व्यक्ति या संस्था के द्वारा भीड को भडकाया जाता है. भीड को भडकाने के बाद वह दूर से तमाषा देखता है. भीड के रूप में अपराध करने वाले दूसरे लोग होते है. पुलिस भडकाने वाले के खिलाफ मुकदमा कायम करके उसको हीरो बना देती है. कोई सबूत एकत्र नहीं किया जाता जिसकी वजह से भडकाने वाले व्यक्ति को अदालत छोड देती है. भीड के रूप में अपराध करने वाला कभी कानून की पक डमें नहीं आता है.

भीड के रूप में न्याय करने वाले हमेषा बहुसंख्यक होते है. यह जाति, धर्म, भाशा, बोली और क्षेत्रवाद के रूप मे अलग अलग हो सकते है. कहीं उत्तर भारत के रहने वालों पर भीड हमला करती है कहीं नार्थ ईस्ट के रहने वालों पर भीड हमला करती है तो कहीं उत्तर प्रदेश और बिहार के रहने वालों को इसका षिकार बनाया जाता है. जहां जैसी जरूरत होती है वहां वैसा फैसला भीड करती है. भीड के काम का श्रेय लेने वाले भी होते है पर कानून के सामने यह जिम्मेदारी नहीं लेते. देश में राममंदिर विवाद में अयोध्या का ढांचा ढहाया जाना सबसे बडी मिसाल है. भीड को भडकाने वालों ने राजनीति की. उसके बल पर कुर्सी हासिल की. जब अदालत ने पूछा तो सबसे इंकार कर दिया कि उन्होने भीड को भडकाया था.

भीड का बचाव है डायन-बिसाही जैसी प्रथायें:

बिहार और झारखंड से डायन-बिसाही जैसी कुप्रथा और अंधविश्वास की आड में भीड डायन बताकर औरतों को पीटपीट कर मार देती है. इसके तहत मारी गई औरतों की सबसे अधिक संख्या विधवाओं की होती है. इसकी वजह केवल यह होती है कि इनको मार दो जिससे जमीन जायदाद में हिस्सा ना देना पडे. रांची से तकरीबन 10 किलोमीटर दूर नामकुम के हाप पंचायत के बरूडीह में 55 वर्षीय चामरी देवी को डायन बताकर उनके ही परिवारवालों ने मार डाला था. इस मामले में सूमा देवी के परिवार के ही फौदा मुंडा, उनके बेटे मंगल मुंडा और रूसा मुंडा, खोदिया मुंडा समेत पांच लोगों पर आईपीसी की धारा 302 और 34 के तहत मामला दर्ज किया गया है.

इस तरह की एक नहीं तमाम घटनायें है. एनसीआरबी की रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2017 में झारखंड में डायन बताकर हत्या के 19 मामले समाने आए हैं. झारखंड पुलिस के अनुसार 2017 में ऐसी हत्याओं की संख्या 41 थी. 2016 में एनसीआरबी के हिसाब से राज्य में 27 औरतों को डायन बताकर मार दिया गया. झारखंड पुलिस के अनुसार यह आंकड़ा 45 है. साल 2015 में एनसीआरबी ने यह संख्या 32 बताई और झारखंड पुलिस ने 51. इसके बाद भी डायन और बिसाही बताकर भीड के द्वारा औरतों को मारने की आजादी पर रोक लगाने की बात कोई नहीं कर रहा है.

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एनसीआरबी के पांच साल के आंकड़ें बताते है कि भारत भर में डायन-बिसाही के नाम 656 हत्याएं हुई हैं. झारखंड में 2011 से लेकर सितंबर 2019 तक डायन-बिसाही के नाम पर 235 हत्याएं हुई है. सामाजिक संस्थाओं के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 1992 से लेकर अब तक 1800 महिलाओं को सिर्फ डायन, जादू-टोना, चुड़ैल होने और ओझा के इशारे पर मारा गया. झारखंड में डायन-बिसाही का शिकार होने वाली महिलाओं में 35 प्रतिशत आदिवासी और 34 प्रतिशत दलित हैं. बिहार में ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 1999’ लागू होने के बाद वहां घटनायें जारी है. देश में न्याय कानून और संविधान से नहीं भीड के तंत्र और गंुडों के गैंग से चलता है. भीड पर सही फैसला ना होने के कारण हौसला बढता जा रहा है. भीड का न्याय रूकने का नाम नहीं ले रहा है.

मास्क तो बहाना है असल तो वोटरों को लुभाना है

बौलीवुड अभिनेत्री रवीना टंडन के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मधुबनी में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों द्वारा तैयार किए गए मास्क के मुरीद हो गए हैं, मगर आश्चर्य की बात यह है कि देश के प्रधानमंत्री को मधुबनी पेंटिंग्स की तब याद आई जब बिहार विधानसभा चुनाव में कुछ ही दिन शेष रह गए हैं.

यों बिहार का मिथिला अथवा मधुबनी पेंटिंग पूरे विश्व में मशहूर है. कभी शादीविवाह के दौरान दूल्हादुलहन के कोहबर (सुहागरात का कमरा) में गांव की महिलाएं इस पेंटिंग को बना कर कमरे को सजाती थीं, लेकिन धीरेधीरे यह पेंटिंग लोकप्रिय होती गई और अब तो इस पेंटिंग की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है.

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मोदी राज में बेबस बुनकर

प्रधानमंत्री मोदी के मधुबनी पेंटिंग पर बयान के बाद मधुबनी के राष्ट्रीय जनता दल के विधायक समीर कुमार महासेठ कहते हैं,”देखिए, मोदीजी को अब मधुबनी पेंटिंग और इस कला से जुङे कलाकारों की याद आई तो यह अच्छी बात है. देर आए दुरूस्त आए, लेकिन सचाई यही है कि इस कला के कलाकारों, बुनकरों के लिए केंद्र सरकार ने कुछ भी नहीं किया है. पिछले 15 साल से बिहार की कुरसी संभाले नीतीश सरकार ने तो कोई सुध तक नहीं ली.

“आज भी मधुबनी के सैकड़ों बुनकरों को राष्ट्रीयकृत बैंकों में ब्लैक लिस्टेड कर दिया गया है और बैंक वाले उन्हें  लोन तक नहीं देते.”

समीर बताते हैं,”आज देश के कई जगहों पर मधुबनी पेंटिंग के नाम पर पेंटिंग्स बना कर खूब पैसा बनाया जा रहा है मगर यहीं के लोग, खासकर वे जो इस कला से जन्मजात रूप से जुङे हैं बेरोजगार हैं और बाजार में पहचान बनाने के लिए छटपटा रहे हैं.”

अब जबकि देश में कोरोना कहर बरपा रहा है लोगों के लिए मास्क और सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करना जरूरी हो गया है, घरों की

दीवारों से कागज, फिर कपड़े और खिलौनों के बाद मास्क पर पेंटिंग ने इस कला को नई पहचान जरूर दी है.

मछली, फूलपत्ती, पशुपक्षियों की पेंटिंग वाले सूती कपड़े का 2-3 लेयर वाला मास्क लोगों को खूब लुभा रहा है.

साहब मुश्किल से घर चला पाता हूं

मधुबनी जिले के रहने वाले प्रभात बाबा ऐसे कलाकारों में से एक हैं जो एक दुकान ही मधुबनी पेंटिंग्स की चलाते हैं. दुकान में ग्राहक कम ही आते थे. पर अब वे घर से ही मास्क बनाते हैं. डिमांड बढ़ा तो उन्होंने 3-4 बुनकरों को भी रख लिया है जो कपङों से बने मास्क पर मधुबनी पेंटिंग का काम करते हैं.

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प्रभात कहते हैं,”इस काम में मेरे साथ परिवार के अन्य लोग भी सहयोग दे रहे हैं. मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क को लोग बाजार में ₹70 से 100 तक में आसानी से खरीद लेते हैं. इस से कुछ कमाई भी हो जाती है.”

वे बताते हैं,”साहब हम गरीब लोग हैं. हाथों में हुनर है पर सरकार अगर ध्यान दे तो इस कला के माध्यम से लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है.

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“कोरोना से लोग डरे हुए हैं पर इस की वजह से हम आज कुछ कमा भी रहे हैं वरना तो घर चलाना भी मुश्किल होता था.”

वहीं समस्तीपुर के रहने वाले कलाकार अजय कुमार बताते हैं कि एक मास्क तैयार करने में करीब ₹35-50 की लागत आ रही है. एक कलाकार प्रतिदिन 25-30 मास्क तैयार कर लेता है. इस से रोज  ₹1-2 हजार की आमदनी जरूर हो जा रही है.

मधुबनी के ही रहने वाले हीरानंद को खुशी है कि वे मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क लगा कर बाहर निकलते हैं.

वे कहते हैं,”मिथिला की अपनी एक खास पहचान है. फिर मधुबनी पेंटिंग का तो जवाब ही नहीं.

“कोरोना वायरस से बचाव के लिए मास्क पहन कर बाहर निकलने से संक्रमण का खतरा कम होता है. मैं मधुबनी पेंटिंग वाला खास डिजाइनर मास्क पहनता हूं. इस से मैं मिथिला कल्चर से जुङाव महसूस करता हूं.”

दिल्ली सरकार ने मिथिला को नई पहचान दी है

दिल्ली सरकार में मैथिली भोजपुरी अकादमी के वाइस चेयरमैन, नीरज पाठक ने बताया,”दिल्ली सरकार शुरू से ही, चाहे वह लोकसंगीत हो या फिर लोककला, इस क्षेत्र से जुङे लोगों को तवज्जो देती आई है. सरकार समयसमय पर मैथिलीभोजपुरी गीतसंगीत व कला का आयोजन भी करती आई है और यह आगे भी जारी रहेगा. दिल्ली सरकार हाल ही में कई लोगों को सम्मानित भी कर चुकी है.”

नीरज कहते हैं,”मधुबनी पेंटिंग दुनियाभर में मशहूर है. अब तो विदेशों में भी इस कला को नाम और दाम दोनों मिल रहे हैं.

“मधुबनी पेंटिंग कलाकारों द्वारा बनाए जा रहे मास्क फैशन में शुमार हो चुका है. मास्क की लोकप्रियता से इस काम से जुङे लोगों के लिए न सिर्फ रोजगार के अवसर बढेंगे, बल्कि इस से इस पेंटिंग को नई पहचान मिलेगी.”

चौपट रोजगार बेहाल व्यवसायी

यों नोटबंदी, जीएसटी लागू करने और फिर कोरोनाकाल में लागू लौकडाउन के बाद व्यवसायिक क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित है.

एक तो जीएसटी ने व्यवसायियों की कमर तोङ दी व फिर कोरोना वायरस महामारी के बाद बाजार पूरी तरह चौपट हो गया है.

लेकिन सुखद बात यह है कि इसी कोरोनाकाल में मधुबनी पेंटिंग के कलाकारों द्वारा तैयार किए मास्क की बाजार में धूम है.

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पहले से कङकी में जूझ रहे कलाकारों के लिए यह काफी सुखद है कि अब उन के पास नाम और पैसा दोनों है. वैश्विक विपदा यहां के कलाकारों के लिए बङा अवसर बन कर आई है और इस से इस लोककला को भी नई पहचान मिल रही है.

लोकल बाजार से अमेजन तक

मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस की पहुंच आज लोकल बाजार से निकल कर अमेजन तक जा पहुंचा है.

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औनलाइन साइट्स पर मौजूद यह मास्क लोकप्रिय हो चुका है और लोग इसे औनलाइन खरीद भी रहे हैं.

उधर, बिहार में चुनाव है और सियासी पार्टियों के नेता व कार्यकर्ता भी मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क में नजर आने लगे हैं.

क्योंकि अब चुनाव है

हाल ही में जब बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री व राजद नेता तेजस्वी यादव मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क में नजर आए तो उन की देखादेखी लोजपा के नेता भी इन मास्कों को लगा कर घूमते हुए देखे जा रहे हैं.

लोजपा के युवा नेता व रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान भी इस मास्क में अकसर नजर आने लगे हैं और इतना ही नहीं लोजपा अपने कार्यकर्ताओं के लिए 2 लाख मास्क भी बनवा रही है. लोजपा ने इस बार के चुनाव में नारा दिया है,’बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट.’

राजनीति के जानकार, समाजसेवी अजीत कुमार कहते हैं,”देशदुनिया में लगभग 7 करोङ लोग मैथिली बोलते हैं. दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, पुर्णिया, सहरसा, सुपौल आदि जिलों को मिथिलांचल कहा जाता है और यहां की जनता वोटिंग में निर्णायक भूमिका निभाती है. लिहाजा, राजनीतिक दलों के लोगों को लगता है कि इस से वे यहां की जनता से खास जुङाव महसूस करेंगे.

“वैसे, न सिर्फ मास्क बल्कि मिथिला या मधुबनी पेंटिंग का अपना खास इतिहास भी रहा है. अब तो देश के अलगअलग जगहों पर रहने वाले लोग भी मधुबनी पेंटिंग से खूब नाम कमा रहे हैं.”

मधुबनी पेंटिंग का जवाब नहीं

नोएडा की रहने वाली अर्चना झा इन में से ही एक हैं. उन्होंने पश्चिम बंगाल से फाइन आर्ट्स में डिप्लोमा की डिग्री हासिल की है.

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वे कहती हैं,”मैं झारखंड की रहने वाली हूं लेकिन मधुबनी पेंटिंग से गहरा जुङाव रखती हूं. मेरी मां ने मुझे इस पेंटिंग को करना सिखाया और वे ही मेरी गुरू हैं.

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“मैं शुरू से ही देश के कई शहरों में पेंटिंग प्रदर्शनी लगाती रही हूं और इस वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी औनलाइन प्रदर्शनी कर मैं ने खूब वाहवाही बटोरी है.

“मुझे खुशी है कि अब मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क बाजार में खूब बिक रहे हैं. इस से मिथिला के गरीब बुनकरों को नई पहचान जरूर मिलेगी.”

जो भी हो, बिहार विधानसभा चुनाव में भले ही मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क की मांग में इजाफा हो गया है और नेता व कार्यकर्ता इसे पहन कर गलीगली घूम रहे हैं, मगर इतना जरूर है कि इस मास्क की धमक से यहां के कलाकारों, बुनकरों का हौसला काफी बुलंद है.

वायरसी मार के शिकार कुम्हार

लेखक- डा. सत्यवान सौरभ

नोवल कोरोना वायरस  के चलते लागू किए गए लौकडाउन ने  मिट्‌टी बरतन बनाने वाले कारीगरों के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है. इन कारीगरों ने मिट्टी के बरतन बना कर रखे लेकिन बिक्री न होने की वजह से इन के लिए खाने के लाले पड़ गए हैं. लौकडाउन के चलते न तो चाक (बरतन बनाने का उपकरण) चल रहा है और न ही दुकानें खुल रही हैं. घर व चाक पर बिक्री के लिए पड़े मिट्टी के बरतनों की इन्हें रखवाली अलग करनी पड़ रही है. देशभर में प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बरतन बनाने का काम करते हैं.

लौकडाउन ने इन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. इन के बरतनों की बिक्री नहीं हो रही है. महीनों की मेहनत घर के बाहर पड़ी है. इन हालात में परिवार का गुजारा करना मुश्किल हो गया है. गरमी के सीजन को देखते हुए बरतन बनाने वालों ने बड़ी संख्या में मटके बनाए. डिजाइनर टोंटी लगे मटकों के साथ छोटी मटकी और गुल्लक, गमले भी तैयार किए. दरअसल,  आज भी ऐसे लोग हैं जो मटके के पानी को प्राथमिकता देते हैं. मगर इस बार इन को घाटा हो गया. इन का परिवार कैसे गुजरबसर करेगा. कोई भी मटके खरीदने नहीं आ रहा है. धंधे से जुड़े लोगों ने ठेले पर रख कर मटके बेचने भी बंद कर दिए हैं.

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मिट्टी के बरतनों के जरिए अपनी आजीविका चलने वाले कुशल श्रमिकों के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल से देशभर के प्रजापति समाज के लोगों के लिए एक आस जगी है, जिस के अनुसार राज्य के हर प्रभाग में एक माइक्रो माटी कला कौमन फैसिलिटी सेंटर (सीएफसी) का गठन किया जाएगा.  सीएफसी की लागत 12.5 लाख रुपए होगी, जिस में सरकार का योगदान 10 लाख रुपए का होगा. शेष राशि समाज या संबंधित संस्था को वहन करनी होगी. भूमि, यदि संस्था या समाज के पास उपलब्ध नहीं है, तो ग्रामसभा द्वारा प्रदान की जाएगी. हर केंद्र में गैसचालित भट्टियां, पगमिल, बिजली के बरतनों की चक और पृथ्वी में मिट्टी को संसाधित करने के लिए अन्य उपकरण होंगे. श्रमिकों को एक छत के नीचे अपने उत्पादों को विकसित करने के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध होंगी. इन केंद्रों के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा.

खादी और ग्रामोद्योग विभाग का यह बहुत अच्छा प्रयास है. यदि उत्पाद गुणवत्ता के हैं और उन की कीमतें उचित हैं, तो बाजार में उन के लिए अच्छी मांग होगी. इस से व्यापार से जुड़े लोगों के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. इस के अलावा, तालाबों से मिट्टी उठाने से बाद की जलसंग्रहण क्षमता बढ़ जाएगी. इन उत्पादों को पौलिथीन का विकल्प बनने से पौलिथीन संदूषण को भी रोका जा सकेगा. कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए किए गए लौकडाउन से लगभग हर क्षेत्र में कामकाज बिलकुल ठप पड़ा है.

केंद्र सरकार छोटे, मझोले और कुटीर उद्योगों के लिए स्पेशल पैकेज की घोषणा कर के उन को जीवित रखने का प्रयास भले कर रही है. लेकिन, अस्पष्टता और सही दिशानिर्देश के अभाव में बहुत राहत मिलती नहीं दिख रही है. देश में बहुत से ऐसे वर्ग हैं जिन पुश्तैनी धंधा रहा है और कई जातियां ऐसी भी है जो विशेष तरह का काम कर के अपना जीवनयापन करती हैं, जैसे माली, लोहार, कु्म्हार, दूध बेचने वाले ग्वाला, दर्जी, बढ़ई, नाई, पत्तलदोने का काम कर के जीवनयापन करने वाले मुशहर जाति के लोग. ये ऐसे लोग हैं जिन का कामकाज लौकडाउन से सब से अधिक प्रभावित हुआ है. सरकार ने बड़े व मझोले कारोबारियों के लिए तो काफी कुछ दे दिया है, लेकिन उपर्युक्त लोगों के लिए सरकार की तरफ से कोई विशेष राहत का ऐलान नहीं किया गया है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र ने मोदी देश को संबोधित करते हुए आत्मनिर्भर भारत बनाने पर जो दिया. उन्होंने देश को आगे बढ़ाने के लिए एमएसएमई को फौरीतौर पर राहत देने की घोषणा की. लेकिन, बजट का निर्धारण करना वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर छोड़ दिया. साथ ही, उन्होंने लोकल के प्रति वोकल होने की बात जरूर की लेकिन लौकडाउन से प्रभावित होने वाले ऐसे लोगों के बारे में जिक्र नहीं किया जिन की रोजीरोटी खुद के कारोबार और हुनर पर निर्भर है. लौकडाउन से उन के ऊपर गहरा असर हुआ है. ऐसे लोगों के पास बचत भी बहुत अधिक नहीं होती है कि वे अपनी जमापूंजी खर्च कर के घरखर्च चला सकें. ऐसे लोग हर रोज कमाते हैं, जिस से उन के खाने का इंतजाम हो पाता है. अब लौकडाउन हो जाने से उन का कामकाज बिलकुल बंद हो गया है. ऐसे में सरकार को इन लोगों के लिए कुछ न कुछ अलग से उपाय करना चाहिए, ताकि उन का जीवन भी सुचारु रूप से चल सके.

आज जब भारत के गांव बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं तो गांवों के परंपरागत व्यवसायों को भी नया रूप दिए जाने की जरूरत है. गुजरात के राजकोट निवासी मनसुख भाई ने कुछ ऐसा ही नया करने का बीड़ा उठाया है. पेशे से कुम्हार मनसुख ने अपने हुनर और इनोवेटिव आइडिया का इस्तेमाल कर के न सिर्फ अच्छा बिजनेस स्थापित किया, बल्कि नेशनल अवार्ड भी हासिल किया. आज उन के नाम और काम की तारीफ भारत ही नहीं, दुनिया में हो रही है. उन के मिट्टी के बरतन विदेशों में भी बिक रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने उन्हें ‘ग्रामीण भारत का सच्चा वैज्ञानिक’ कहा था. एक अन्य पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उन्हें सम्मानित करते हुए कहा था कि ग्रामीण भारत के विकास के लिए उन के जैसे साहसी और नवप्रयोगी लोगों की जरूरत है. आज वे उद्यमियों के लिए एक मिसाल हैं.

कुछ लोग गांवों के परंपरागत व्यवसाय के खत्म होने की बात करते हैं, जो गलत है. अभी भी हम ग्रामीण व्यवसाय को जिंदा रख सकते हैं, बस, उस में थोड़ी सी तबदीली करने की जरूरत है. भारत के गांव अब नई तकनीक और नई सुविधाओं से लैस हो गए हैं. भारत के गांव बदल रहे हैं, इसलिए अपने कारोबार में थोड़ा सा बदलाव करने की जरूरत है. नई सोच और नए प्रयोग के जरिए ग्रामीण कारोबार को बरकरार रखा जा सकता है और उस के जरिए अपनी जीविका चलाई जा सकती है.

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जब हम गांव में कोई कारोबार शुरू करते हैं, उस से सिर्फ हमें ही फायदा नहीं मिलता, बल्कि हमारी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी होती है. हम आत्मनिर्भर बनते हैं और तमाम बेरोजगारों को रोजगार देते हैं. हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साथ ही दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करे. उन्हें काम करने के प्रति जागरूक करे. इसी से ग्रामीण भारत के सशक्तीकरण का सपना पूरा होगा.

भोजपुरी अभिनेता आनंद ओझा रियल हीरो के रूप में लोगों के लिए बनें मसीहा

Lockdown के चलते देश भर में डौक्टर्स और पुलिस की जिम्मेदारी बढ़ गई है. यह लोग कोरोना प्रकोप के चलते न ही पूरी नींद ले पा रहें हैं और न ही इन्हें भरपेट पेट भोजन मिल रहा है. फिर भी देश के असली हीरो के रूप में यह लोग डटे हुए है.

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इसी में एक नाम आनंद ओझा (Anand Ojha) का भी है. वह भोजपुरी के सफलतम अभिनेताओं में गिने जाते हैं. उन्होंने कई हिट फ़िल्में भी दी हैं. आनंद ओझा सिर्फ फिल्मों के हीरो ही नहीं हैं बल्कि वह रियल हीरो है. इन दिनों वह आगरा जोन में उत्तर प्रदेश सरकार में ट्रैफिक इन्सपेक्टर के रूप में सेवा दे रहें हैं. आनंद ओझा एक पुलिस अधिकारी के रूप में दिन रात लॉक डाउन में सेवा देकर यह साबित कर दिया है की वह रियल लाइफ के भी हीरो हैं.

एक ट्रैफिक इंस्पेक्टर के रूप में वह लोगों की मदद मे दिन-रात लगे हैं. वह आगरा में फंसे लोगों के लिए दिन रात एक कर ना केवल कानून व्यवस्था बनाए रखने में अपनी भूमिका  निभा रहें है. बल्कि वह चप्पे- चप्पे पर अपनी नजर बनाये हुए हैं, ताकी कोई बेसहारा खाली पेट न सो पाये. इसके पहले भी आनंद ओझा नें कोरोना के चलते पलायन करने वालों के लिए आगरा के अलग-अलग हिस्सों में में खुद जाकर राहत सामग्री उपलब्ध कराया. इसके साथ ही उन्होंने उन पलायन करने वालों को सही सलामत उनके घरो तक भेजने मे में मदद भी की.

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अभिनेता और इन्सपेक्टर आनंद ओझा नें बताया की जो भी व्यक्ति आगरा के अंदर फंसा है उसके तत्काल रहने और खाने पीने की व्यवस्था की गई. और जो भी लोग दूसरे राज्यो से पलायन कर आगरा या आगरा के सीमा क्षेत्र मे फंसे है उन्हे घबराने की जरूरत नहीं है. आगरा पुलिस उनकी सेवा के लिए हर वक्त मदद के लिए तत्पर हैं, बस वह अपना धैर्य बनाये रखें.

आनंद ओझा जल्द ही काजल रघवानी के साथ फिल्म  “रण” में नजर आयेंगे. यह फिल्म से जुड़े लोगों का कहना है की यह फिल्म भोजपुरी सिनेमा की बड़ी बजट वाली फिल्मों में शुमार है. इसके अलावा इस साल उनकी दर्जन भरके करीब फ़िल्में रिलीज होने वाली है. आनंद ओझा नें अपनी फिल्म “पुलिसगीरी” में अपने रोल की बदौलत दर्शकों पर अलग ही छाप छोड़ी थी. इस फिल्म में आनंद ओझा के साथ ही काजल राघवानी, मनोज सिंह टाइगर, संजय पाण्डेय, सीपी भट्ट ,रितु पाण्डेय, ने भी अपनी एक्टिंग का जलवा बिखेरा था.

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गहरी पैठ

अपने घर को अपनों ने गिराया है. इस देश की आज जो हालत कोरोना की वजह से हो रही है उस के लिए हमारी सरकार ही नहीं, वे लोग भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने धर्म और जाति को देश की पहली जरूरत समझा और फैसले उसी पर लेने के लिए उकसाया. आज अगर कोरोना के कारण पूरे देश में बेकारी फैल रही है तो इस की जड़ों में ?वे फैसले हैं जो सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी के लिए ही नहीं, बहुत तरीके से छोटेछोटे फैसले भी लिए जिन में धर्म के हुक्म सब से ऊपर थे.

लोगों ने 2014 में अगर सत्ता पलटी तो यह सोच कर कि जो हिंदू की बात करेगा वही राज करेगा तो ही देश सोने की चिडि़या बनेगा. यह देश सोने की चिडि़या केवल तब था जब देश पर कट्टरपंथी हिंदू राज ही नहीं कर रहे थे. 1947 से पहले देश में अंगरेजों का राज था. उस से पहले मुगलों का था. उस से पहले शकों, हूणों, बौद्धों का राज था. हां, घरों पर राज हिंदू सोचसमझ का था और वही देश को आगे बढ़ने से रोकता रहा. 2014 में सोचा गया था कि हिंदू राज मनमाफिक होगा, पर इस ने न केवल सारे मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर दिया, दलित, पिछड़े, औरतें चाहे सवर्णों की क्यों न हों, कमजोर कर दिए गए.

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कोरोना ने तो न सिर्फ जख्मों पर लात मारी है, उन को इस तरह खोल दिया है कि आज सारा देश लहूलुहान है. करीब 6 करोड़ मजदूर शहरों से गांवों की ओर जाने लगे हैं. जो लोग 24 मार्च, 2020 को चल दिए थे उन की छठी इंद्री पहले जग गई थी. उन्होंने देख लिया था कि जिस हिंदू कहर से बचने के लिए वे गांवों से भागे थे वह शहरों में पहुंच गया है. महाराष्ट्र में जो मराठी मानुष का नाम ले कर शिव सेना बिहारियों को बाहर खदेड़ना चाहती थी, वह मराठी लोगों के ऊंचे होने के जिद की वजह से था.

आजादी से पहले भी, पर आजादी के बाद, ज्यादा ऊंची जातियों ने शहरों में डेरे जमाने शुरू किए और अपनी बस्तियां अलग बनानी शुरू कीं. गांवों से तब तक दलितों को निकलने ही नहीं दिया था. काफी राजाओं ने तो दलितों पर इस तरह के टैक्स लगा रखे थे कि एक भी जना भाग जाए तो बाकी सब पर जुर्माना लग जाता था. अब ये लोग गांवों से आजादी पाने के लिए शहरों में आए तो शहरों में मौजूद ऊंची जातियों के लोगों ने इन्हें न रहने की जगह दी, न पानी, न पखाने का इंतजाम किया. ये लोग नालों के पास रहे, पहाडि़यों में रहे, बंजर जमीन पर रहे.

1947 से 2014 तक राजनीति में इन की धमक थी क्योंकि ये पार्टियों के वोट बैंक थे. फिर धार्मिक सोच वालों ने मीडिया, सोशल मीडिया, अखबारों, पुलिस पर कब्जा कर लिया. इन्हीं दलितों, पिछड़ों और इन की औरतों को धार्मिक रंग में रंग दिया और इन्हें लगने लगा कि भगवान के सहारे इन का भाग्य बदलेगा. मुसलमानों को डरा दिया गया और हिंदू दलितों को बहका दिया गया कि उन की नौकरियां उन्हें मिल जाएंगी.

पर हमेशा की तरह सरकारी फैसले गलत हुए. 1947 के बाद भारी टैक्स लगा कर सरकारी कारखाने लगाए गए जिन में पनाह मिली निकम्मे ऊंची जातियों के अफसरों, क्लर्कों, मजदूरों को. वे अमीर होने लगे. सरकारी कारखाने चलाने के लिए टैक्स लगे जो गांवों में भूखे किसानों और उन के मजदूरों के पेट काट कर भरे गए. मरते क्या न करते वे शहरों को भागे.

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शहरों में उन्हें बस जीनेभर लायक पैसे मिले. वे कभी उस तरह अमीर नहीं हो पाए जैसे चीन से गए मजदूर अमेरिका में हुए. जाति का चंगुल ऐसा था कि वह शहरों तक गलीगली में पहुंच गया. गरीबों की झुग्गी बस्तियों में शराब, जुए, बीमारी की वजह से गरीबों की जो थोड़ी बचत थी, लूट ली गई. महाजन शहरों में भी पहुंच गए.

कोरोना ने तो बस अहसास दिलाया है कि शहर उन के काम का नहीं. अगर गांवों में ठाकुरों, उन के कारिंदों की लाठियां थीं तो शहरों में माफियाओं और पुलिस का कहर पनपने लगा. जब नौकरी भी न हो, घर भी न हो, इज्जत भी न हो, आंधीतूफान से बचाव भी न हो तो शहर में रह कर क्या करेंगे?

कोरोना ने तो यही अहसास दिलाया है कि धर्म का ओढ़ना उन्हें इस बीमारी से नहीं बचाएगा क्योंकि वे अमीर जो रातदिन पूजापाठ में लगे रहते हैं, कोरोना से नहीं बच पाए हैं. कोरोना की वजह से धर्म की दुकानें बंद हो गई हैं. चाहे छोटामोटा धर्म का व्यापार घरों में चलता रहे. कोरोना की वजह से ऊंची जातियों की धौंस खत्म हो गई है. शायद इतिहास में पहली बार ऊंची जातियों के लोग निचलों की गुलामी को नकारने को मजबूर हुए हैं कि कहीं वे एक अमीर से दूसरे अमीर तक कोरोना वायरस न ले जाएं. कोरोना इन गरीबों को छू रहा है पर ये उसे ऐसे ही ले जा रहे हैं जैसे कांवडि़ए गंगा जल ले जाते हैं जिसे छूने की मनाही है. कोरोना अमीरों में ही ज्यादा फैल रहा है.

कोरोना ने देश की निचलीपिछड़ी जातियों और ऊंची जातियों की औरतों के काम अब ऊंची जाति वालों को खुद करने को मजबूर किया है. अगर देश में हिंदूहिंदू या हिंदूमुसलिम या आरक्षण खत्म करो, एससीएसटी ऐक्ट खत्म करो की आवाजें जोरजोर से नहीं उठ रही होतीं तो लाखोंकरोड़ों मजदूर अपने गांवों की ओर न भागते. इस शोर ने उन्हें समझा दिया था कि वे शहरों में भी अब बचे हुए नहीं हैं. पुलिस डंडों की मार ये ही लोग खाते रहते हैं. 1,500 किलोमीटर चल रहे इन लोगों को ऊंची जातियों के आदेशों पर किस तरह पुलिस ने रास्ते में पीटा है यह साफ दिखाता है कि देश में अभी ऊंची जातियों का दबदबा कम नहीं हुआ है. गिनती में चाहें ऊंची जातियां कम हों पर उन के पास पैसा है, अक्ल है, लाठियां हैं, बंदूकें हैं, जेलें हैं. जब अंगरेज भारत में थे वे कभी भी 20,000 से ज्यादा गोरी फौज नहीं रख पाए थे, उन्हें जरूरत ही नहीं थी. उन के 1,500 आदमी हिंदुस्तान के 50,000 आदमियों पर भारी पड़ते थे.

देश के दलितों, पिछड़ों, गरीब मजदूरों ने कैसे एकसाथ फैसला कर लिया कि उन की जान तो अब गांवों में बच सकती है, यह अजूबा है. यह असल में एक अच्छी बात है. यह पूरे देश को नया पाठ पढ़ा सकता है. अब शहरों में महंगे मजदूर मिलेंगे तो उन्हें ढंग से ट्रेनिंग दी जाएगी. गांवों में जो शहरी काम करते मजदूर पहुंचे हैं, वे जम कर मेहनत से काम भी करेंगे और अपने को लूटे जाने से भी बचा सकेंगे. गांवों में ऊंची दबंग जातियां तो अब न के बराबर बची हैं. वे काम करेंगी तो इन के साथ.

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कोरोना वायरस दोस्त साबित हो सकता है. शर्त है कि हम धर्म की दुकानों को बंद ही रहने दें. कारखाने खुलें, लूट की पेटियां नहीं.

जानें इस Lockdown में क्या कर रहें हैं भोजपुरी फिल्मों के स्टार विलेन देव सिंह

भोजपुरी फिल्मों में अपनें दमदार अभिनय की बदौलत निगेटिव किरदार निभा कर चर्चित स्टार अभिनेता देव सिंह (Dev Singh) ने अलग ही छवि बनाई है. इस साल उनकी कई फ़िल्में प्रदर्शित होनें वाली हैं और कई फिल्मों का शेड्यूल भी लगा हुआ था. लेकिन कोरोना के चलते लगाये गये Lockdown के चलते चल रही शूटिंग बीच में ही कैंसिल करनी पड़ी तो फिल्मों के शूटिंग के लिए पहले से तय तारीखें भी आगे बढ़ानी पड़ी. इस दशा में अभिनेता देव सिंह भी दूसरे एक्टर्स की तरह घर में अपने पत्नी और बच्चे के बीच इज्वाय कर रहें हैं.

इस Lockdown के बीच उपजी बोरियत को भगाने के लिए देव सिंह बहुत ही फनी तरीकें अपना रहें हैं जिससे जुडी तस्वीरें और वीडियोज वह अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर शेयर करते रहतें हैं.

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Lockdown के बीच हाल ही में उन्होंने अपने इन्स्टाग्राम पर एक वीडियो शेयर किया है जिसमें वह अपने एक साल के बच्चे की तेल मालिश कर रहें हैं. इन्स्टाग्राम पर शेयर इस वीडियो के कैप्सन में उन्होंने लिखा है “अपना लॉक डाउन चालू है,,आंनद है इसमें. सोनम जी ने चोरी से वीडीयो बना दिया”. सोनम उनके पत्नीं का नाम हैं.

 

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तंदूरी चाय ☕ गुड़ वाली, ख़ुद के द्वारा निर्मित

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वहीं इन्स्टाग्राम पर ही शेयर किये गए एक दूसरे वीडियो में वह किचन में कुछ बनाते हुए नजर आ रहें अब क्या बना रहें हैं इसके बारे में उन्होंने खुद ही वीडियो के कैप्सन लिखा है “तंदूरी चाय गुड़ वाली, ख़ुद के द्वारा निर्मित” वैसे इस वीडियो को देख कर भी आप जान जायेंगे की देव क्या कर रहें है क्यों की इस वीडियो मेंवह छलनी से कप में चाय छानते हुए नजर आ रहें हैं.

 

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देवांश बाबू अपना सहयोग करते हुए।।

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शेयर किये गए एक वीडियो में अपने बेटे देवांश को पीठ पर बैठा कर वर्कआउट करते नजर आ रहें है तो एक दूसरे वीडियो में वह बेटे को पैरों पर बैठा कर वर्कआउट कर रहें हैं. इस वर्कआउट वीडियो के कैप्शन में उन्होंने लिखा है “लॉकडाउन का मज़ा लेते हुए,परिवार के साथ टाइम स्पेंड कर रहा हूं. फोन खराब होने की वजह से दूर था, अब फोन आ गया, लेकिन बिना फोन के ज्यादा सुकून था. वक़्त है एन्जॉय करिए परिवार के साथ, सतर्क रहिये सुरक्षित रहिये.”एक वीडियो में उन्होंने नें किसी का चैलेन्ज भी एक्सेप्ट किया है जिसे भी उन्होंने शेयर किया है.

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वह अपने पोस्ट में लोगों को कोरोना से बचाव को लेकर जागरूक करनें वाले पोस्ट भी कर रहें हैं. जिसके जरिये वह लोगों से वह सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखनें की अपील करते नजर आ रहें हैं.

 

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Stay home ,stay safe🙏

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देव सिंह नें भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री मे कई यादगार रोल किये हैं जिसमें मैं सेहरा बांध के आऊंगा, भाई जी, बजरंग, इंडियन मदर, मोकामा जीरो किलोमीटर, जिगर, लागी नहीं छूटे रामा, रब्बा इश्क न होवे, डमरू, पवन राजा , राजा जानी, संघर्ष,  निरहुआ चलल ससुराल 2, पत्थर के सनम, राज तिलक, लल्लू की लैला, स्पेशल इनकाउंटर, कुली नंबर, जिद्दी, के रोल को दर्शकों ने खूब पसंद किया था. इन दिनों वह भोजपुरी इंडस्ट्री के सबसे व्यस्त अभिनेता हैं वह हर साल दर्जन भर से अधिक फ़िल्में करते हैं. यही कारण विलेन के रूप में भोजपुरी बेल्ट में दर्शकों के बीच वह काफी पॉपुलर हैं.

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