शहीद सिपाही रतन लाल क्यों रखते थे अभिनंदन जैसी मूंछें

दिल्ली के गोकुलपुरी (Gokulpuri) में तैनात दिल्ली पुलिस (Delhi Police) के कौंस्टेबल रतन लाल (Ratan Lal) न सिर्फ जिंदादिली में जीते थे, उन में गजब का साहस था.

24 फरवरी को वे अपने अन्य पुलिस कर्मियों के साथ ड्यूटी पर थे. दिल्ली के गोकुलपुरी क्षेत्र में तब सीएए के विरोध में प्रदर्शन चल रहा था. तभी उपद्रवियों ने तोङफोङ और पत्थरबाजी शुरू कर दी.

डटे रहे पर हटे नहीं

रतन लाल मुस्तैदी से डटे रहे. उन्होंने शांति से काम लिया और गुस्साई भीङ को समझाने की असफल कोशिश की. तभी एक उपद्रवी ने पीछे से उन के ऊपर पत्थर से हमला कर दिया. इस पत्थरबाजी में रतन लाल शहीद हो गए.

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हमला इतना सुनियोजित था कि उन्हें संभलने का मौका तक नहीं मिला.

इस घटना में अनेक पुलिसकर्मी घायल हुए हैं और एसीपी को गंभीर अवस्था में अस्पताल में भरती कराया गया है.

एक जाबांज सिपाही

नौर्थ ईस्ट, दिल्ली के ऐडिशनल डीसीपी बिजेंद्र यादव ने कहा,”रतन एक जाबांज सिपाही थे. वे साहसी थे और कठिन परिस्थितियों में भी मुसकराते रहते थे.”

राजस्थान के सीकर में जन्मे रतन लाल अपने 3 भाईबहनों में सब से बङे थे. उन्होंने साल 1998 में दिल्ली पुलिस में बतौर कौंस्टेबल जौइन किया था.

अपने बच्चों के काफी करीब थे

अपने परिवार के साथ वे दिल्ली के बुराङी स्थित अमृत विहार कालोनी में रहते थे. रतन लाल की 2 बेटियां और 1 बेटा है. उन्होंने अपने बच्चों से वादा किया था कि इस होली में वे सब के साथ राजस्थान अपने गांव जाएंगे पर बच्चों को क्या मालूम कि उन के पिता अब इस वादे को पूरा करने के लिए कभी नहीं आएंगे.

घर में गृहिणी बीवी का रोरो कर बुरा हाल है.

अभिनंदन जैसी ही रखते थे मूंछें

रतन लाल के भाई दिनेश लाल बताते हैं,”भैया देशभक्त थे और जब से अभिनंदन वर्धमान ने पाकिस्तान का जेट विमान मार गिराया था तब से भैया अभिनंदन के जबरदस्त फैन बन गए थे. उन्होंने अपनी मूंछें भी अभिनंदन की तरह ही रख ली थीं.”

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रतन लाल के मूछों की तारीफ कोई करता तो वे फूले नहीं समाते और मूंछों पर ताव देना नहीं भूलते.

दिल्ली पुलिस के ही उन के एक करीबी दोस्त ने बताया,”रतन को अभिनंदन पर नाज था, जिस ने पाकिस्तान के लड़ाकू विमान को मार गिराने के बाद पाकिस्तान से भी सकुशल लौट आए थे. रतन अकसर कहता था कि एक जाबांज सिपाही को देश के लिए समर्पित रहना चाहिए.”

वे कहते हैं,”रतन अपने परिवार के काफी नजदीक था और अकसर गांव भी आताजाता रहता था. बच्चों के लिए वह हमेशा कुछ न कुछ ले कर जरूर जाता था.”

परिवार के एक सदस्य ने बताया,”रतन भैया शहीद हुए तो इस बात की जानकारी मां को नहीं दी जल्दी. वे पूछती रहीं पर हम बताते भी तो कैसे?”

दम तोड़ते सरकारी स्कूल

मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी बढ़ाने के लिए पिछले 15-20 सालों में नएनए प्रयोग तो खूब किए गए, पर इन स्कूलों में टीचरों की कमी दूर करने के साथ ही इन में पढ़ने वाले बच्चों की जरूरतों को पूरा करने की दिशा में कोई ठोस उपाय सरकारी तंत्र द्वारा नहीं किए गए.

नतीजतन, स्कूलों में पढ़ाईलिखाई का लैवल बढ़ने के बजाय दिनोंदिन गिरा है और छात्रों के मांबाप भी प्राइवेट स्कूलों की ओर खिंचे हैं.

प्राइवेट स्कूलों में आज भी काबिल टीचर मुहैया नहीं हैं. इस की वजह उन को मिलने वाली तनख्वाह है. सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचरों को जहां आज 50,000 रुपए से 70,000 रुपए तक मासिक तनख्वाह मिलती है, वहीं इस की तुलना में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा रहे टीचर बमुश्किल 10,000 रुपए से 15,000 रुपए मासिक कमा रहे हैं.

पढ़ेलिखे नौजवान भी टीचिंग जौब में आना चाहते हैं. वे शिक्षक पात्रता परीक्षा पास कर सरकारी स्कूलों में सिलैक्ट हो जाते हैं और जो परीक्षा पास नहीं कर पाते, तो वे प्राइवेट स्कूलों में नौकरी करने लगते हैं.

नरसिंहपुर जिले के आदित्य पब्लिक स्कूल में इंगलिश पढ़ाने वाले सचिन नेमा बताते हैं कि वे साल 2011 की शिक्षक पात्रता परीक्षा 2 अंक से पिछड़ने के चलते प्राइवेट स्कूल में 15,000 रुपए मासिक तनख्वाह पर 5 पीरियड पढ़ाते हैं. इस के अलावा स्कूल मैनेजमैंट द्वारा उन्हें छात्रों के मांबाप से मेलजोल करने का ऐक्स्ट्रा काम भी दिया जाता है.

प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने का तरीका रटाने वाला हो गया है. छोटेछोटे बच्चों को भारी होमवर्क दिया जाता है, जिसे बच्चों के मांबाप ही ज्यादा करते हैं.

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साहित्यकार और शिक्षाविद डाक्टर सुशील शर्मा कहते हैं कि प्राइवेट स्कूलों में भी अब पढ़ाईलिखाई के बेहतर रास्ते नहीं हैं. उन्होंने निजी तौर पर शहर के कई प्राइवेट स्कूलों में जा कर यह देखा है कि वहां बच्चों को हर बात रटाई जा रही है. इन स्कूलों में ट्रेनिंग पाए टीचरों की कमी इस की खास वजह है.

काम का बोझ

शिक्षा संहिता के नियमों के मुताबिक और शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के तहत राष्ट्रीय महत्त्व के काम चुनाव और जनगणना को छोड़ कर टीचरों की सेवाएं गैरशिक्षकीय कामों में नहीं ली जा सकतीं, पर अधिनियम को धता बताते हुए टीचरों से बेगारी कराई जा रही है. वोटर लिस्ट अपडेट करने से ले कर बच्चों के जाति प्रमाणपत्र बनवाने तक का काम टीचरों को करना पड़ता है.

पिछले साल मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में सरकार द्वारा कराए जा रहे सामूहिक विवाह आयोजन में बाकायदा कलक्टर के निर्देश पर जिला शिक्षा अधिकारी ने 28 टीचरों की ड्यूटी पूरी, दाल, सब्जी परोसने में लगा दी.

इसी तरह विभिन्न जिलों में गांवों व शहरों को बाह्य शौच मुक्त (ओडीएफ) करने के लिए वार्डवार्ड जा कर खुले में शौच करने वाले लोगों को रोकने में टीचरों की ड्यूटी लगाई गई.

मध्य प्रदेश के ही 83,969 प्राइमरी स्कूल पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी में भारी कमी, टीचरों के खाली पदों पर भरती न होने और बुनियादी जरूरतों की कमी में दम तोड़ते नजर आ रहे हैं.

प्रदेश के सरकारी स्कूल केवल सरकारी योजनाओं का ढिंढोरा पीटते नजर आ रहे हैं. एयरकंडीशंड कमरों में बैठे अफसर व मंत्री सरकारी स्कूलों में नए प्रयोग कर पढ़ाईलिखाई को गड्ढे की ओर ले जा रहे हैं.

टीचर भी हैं कुसूरवार

पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी में भारी गिरावट के लिए सरकारी नीतियों के साथ टीचर भी कम कुसूरवार नहीं हैं. छात्र पढ़ाईलिखाई करने के लिए स्कूल जाते हैं, लेकिन वहां टीचर ही नदारद रहते हैं.

मध्य प्रदेश में साल 2018 के हाईस्कूल इम्तिहान में 30 फीसदी से कम रिजल्ट देने वाले स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचरों का सरकार द्वारा इम्तिहान लिया गया. इस इम्तिहान में ज्यादातर टीचर फेल हो गए.

बाद में इन टीचरों को इम्तिहान का एक और मौका दिया गया, जिस में किताब खोल कर इम्तिहान का प्रश्नपत्र हल करने को कहा गया. इस के बावजूद प्रदेश के 16 फीसदी टीचर इस में फेल हो गए.

दक्षिण कोरिया पर दांव

पिछले कुछ सालों में दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने सरकारी स्कूलों की तसवीर बदलने का काम किया है, पर मध्य प्रदेश सरकार के अफसरों को दक्षिण कोरिया की शिक्षा पद्धति रास आ रही है. वहां की शिक्षा पद्धति को देखने प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग के अफसर, बाबू और प्रिंसिपलों के दल 3 बार दक्षिण कोरिया की यात्रा का मजा लूट चुके हैं.

कभी टीचर रहे भाजपा के पूर्व विधायक मुरलीधर पाटीदार ने इस यात्रा पर सवाल खड़े किए हैं. उन का कहना है कि प्रदेश के स्कूलों में टीचरों की कमी दूर करने और स्कूलों में बुनियादी समस्याओं को हल करने में बजट का रोना रोने वाले अफसर करोड़ों रुपए दक्षिण कोरिया की यात्रा पर खर्च कर चुके हैं, जबकि दक्षिण कोरिया की जिस शिक्षा पद्धति को लागू करने की बात कही जा रही है, वह तो हमारे प्रदेश में बहुत पहले से ही चल रही है.

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जब से देश में शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत 5वीं और 8वीं जमात की बोर्ड परीक्षाओं को खत्म कर हर बच्चे को अगली जमात में पास करने का नियम बना है, छात्रों की दिलचस्पी पढ़ने में और टीचरों की दिलचस्पी पढ़ाने में नहीं रह गई है. आज किसी भी टीचर, मुलाजिम, अफसर के बच्चे इन सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ रहे हैं, जिस से सरकारी स्कूलों पर किसी का कंट्रोल भी नहीं रह गया है.

प्राइवेट स्कूलों की मनमानी

प्राइवेट स्कूल तालीम को प्रोडक्ट की तरह बेच रहे हैं. नया शिक्षा सत्र शुरू होते ही प्राइवेट स्कूल वाले मांबाप की जेब हलकी करने में लग जाते हैं. इस के लिए उन्होंने अनेक तरीके खोज लिए हैं. पहले मनमाने तरीके से स्कूल की फीस बढ़ा दी जाती है और हर स्कूल अपनी अलगअलग किताबें चलाते हैं.

कोर्स की किताबों और यूनिफौर्म पर दुकानदारों से बाकायदा कमीशन तय कर लेते हैं, जिस के चलते दुकानदरों द्वारा मनमाने दामों पर इन्हें बेच कर मांबाप की जेब ढीली की जाती है.

यहां तक कि स्कूल का नाम और मोनोग्राम छपी कौपियों की भी मांबाप से मनमानी कीमत वसूल की जाती है. अगर वे बिना मोनोग्राम की कौपी खरीद कर बच्चों को दे भी देते हैं, तो स्कूल में इन कौपियों को नकार दिया जाता है और बच्चों को परेशान किया जाता है.

अनेक प्राइवेट स्कूल वाले अपने यहां बाकायदा काउंटर लगा कर बस्ता समेत पूरा कोर्स बेचने का धंधा भी करते हैं, जिस में कौपी, किताब समेत स्टेशनरी का पूरा सामान खुलेआम बेचा जाता है. इन प्राइवेट स्कूलों द्वारा दाखिले के समय पर भी डोनेशन के नाम पर मांबाप से मोटी रकम वसूल की जाती है.

प्राइवेट स्कूलों पर शिक्षा विभाग के अफसरों का कोई कंट्रोल नहीं रहता है, क्योंकि नामीगिरामी प्राइवेट स्कूलों का संचालन विधायक, सांसदों के अलावा बड़ेबड़े उद्योगपतियों द्वारा किया जा रहा है.

बस्ते का बढ़ता बोझ

स्कूली बच्चों की पीठ पर बस्ते के बो झ को कम करने के लिए भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अक्तूबर, 2018 में नई गाइडलाइन जारी की गई है, जिस के मुताबिक क्लास के आधार पर बच्चों के बस्ते का वजन तय किया गया है.

मसलन, पहली और दूसरी जमात के लिए बस्ते का वजन डेढ़ किलो, तो तीसरी से 5वीं जमात के बच्चों के बस्ते का वजन 2 से 3 किलो है. 6वीं और 7वीं जमात के लिए 4 किलो और 8वीं, 9वीं जमात के लिए साढ़े 4 किलो और 10वीं जमात के लिए 5 किलो वजन तय किया गया है.

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दरअसल, बच्चों की पीठ पर लदे बस्ते का बो झ सरकार द्वारा तय सिलेबस के बोझ से सीधा संबंध रखता है. हमारे सिलेबस की यही खामी है कि यह बच्चों की उम्र व दिमागी सोच के मुताबिक तय नहीं है. कम उम्र के बच्चोंको कई विषयों के ज्यादा सिलेबस को पढ़ना पड़ता है.

उत्कृष्ट विद्यालय नरसिंहपुर के टीचर डाक्टर अशोक उदेनियां मानते हैं कि स्कूली सिलेबस बनाने वाली समिति में यूनिवर्सिटी के कुलपति, कालेज के प्रिंसिपल और प्रोफैसर होते हैं, जो स्कूली बच्चों का सिलेबस तैयार करते हैं. इन्हें स्कूली बच्चों के मनोविज्ञान और गांवदेहात के इलाकों के हालात का कोई खास तजरबा नहीं होता है.

अजब और गजब बिहार पुलिस

बिहार राज्य के मुख्यमंत्री रहे जगन्नाथ मिश्र की मौत के बाद उन की लाश को सरकारी सम्मान के साथ अंतिम संस्कार के लिए गंगा किनारे लाया गया. मुख्यमंत्री समेत कई मंत्री और अफसर वहां मौजूद थे. 21 राइफलों से हवाई फायरिंग कर उन्हें सलामी देने के लिए पुलिस वाले कतार लगा कर खड़े थे.

कई सरकारी ताम झाम के बाद हवाई फायरिंग करने का इशारा किया गया. इशारा मिलते ही पुलिस के जवानों ने एकसाथ अपनीअपनी राइफल का ट्रिगर दबा दिया. पर यह क्या, राइफलों की गरज के बजाय सन्नाटा पसर गया. पुलिस के जवानों की राइफलों से गोली ही नहीं चल सकी. राइफलों के फुस होने के साथ ही बिहार पुलिस के सुरक्षा के दावों की हवा भी निकल गई.

मौके पर मौजूद सरकार और उस के  झंडाबरदारों को मानो सांप सूंघ गया. पुलिस के आला अफसर एकदूसरे का मुंह ताकते हुए बगलें  झांकने लगे.

आननफानन पुलिस मकहमा हरकत में आ गया और जांच का ऐलान कर दिया गया. पुलिस ने मामले की जांच की तो पता चला कि सभी राइफल में बेकार कारतूस भरे थे. ऐसे हथियारों से अगर पुलिस का अपराधियों से मुकाबला हो जाए, तो पुलिस वालों की जान जाने का पूरा डर है.

जांच में यह भी पता चला कि कारतूसों की जांच पिछले कई सालों से नहीं हुई है. कारतूस एक तय समय के बाद बेकार हो जाते हैं.

एसएसपी ने पुलिस हैडर्क्वाटर को लिखी चिट्ठी में कहा है कि पुलिस लाइन का शस्त्रागार जर्जर हालत में है. बारिश होने पर उस में पानी भी भर जाता है.

पटना जिले में ही तैनात 7,000 जवानों, 1,000 एसआई और 150 इंस्पैक्टरों को पिछले 10 सालों में एक बार भी फायरिंग रेंज में प्रैक्टिस नहीं कराई गई है, जबकि नियम के मुताबिक हर साल फायरिंग प्रैक्टिस की जानी है.

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साल 2010 से साल 2019 के बीच 5,000 सिपाहियों की बहाली हुई, पर टे्रनिंग के बाद कभी भी उन्हें फायरिंग प्रैक्टिस के लिए नहीं भेजा गया.

बिहार में प्रति एक लाख की आबादी की सुरक्षा के लिए महज 70 पुलिस वाले तैनात हैं. राज्य में कुल 70 लाख पुलिस वाले हैं, वहीं दूसरी ओर राज्य में कुल 3,600 वीआईपी हैं और उन की हिफाजत के लिए 13,000 पुलिस के जवान लगाए गए हैं.

नैशनल लैवल पर प्रति एक लाख की आबादी पर 147 पुलिस के जवानों की तैनाती होनी चाहिए. बिहार में हर मंत्री की हिफाजत के लिए 2-8 का ऐस्कौर्ट दस्ता लगाया गया है. इन में से 1 से 4 पुलिस वाले हर समय मंत्री के साथ रहते हैं और उतने ही उन के बंगले की हिफाजत में तैनात रहते हैं.

इस के अलावा 3 बौडीगार्ड और स्पैशल ब्रांच के 3 सिपाही भी मंत्री के इर्दगिर्द लगे रहते हैं. हर विधायक और विधान पार्षद को 3-3 बौडीगार्ड दिए गए हैं.

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बिहार के 11 बड़े नेताओं को केंद्रीय जैड और वाई श्रेणी की सुरक्षा दी है. इस में 5 नेताओं को वाई प्लस की सुरक्षा दी गई है. केवल मुख्यमंत्री को जैड प्लस श्रेणी की सुरक्षा दी गई है. जैड प्लस श्रेणी में 36 सुरक्षाकर्मी होते हैं, जिस में 10 एनएसजी के जवान होते हैं, वहीं जैड श्रेणी में 22 सुरक्षाकर्मी और 5 एनएसजी के जवान होते हैं. वाई श्रेणी में 11 सुरक्षाकर्मी रहते हैं, जिस में 1-2 कमांडो होते हैं. ऐक्स कैटीगरी में 2 से 5 पुलिस वाले लगाए जाते हैं.

वहीं आम आदमी की हिफाजत को ले कर सरकार का रवैया भी पूरी तरह लापरवाही का है. हालत यह है कि बिहार पुलिस में सिपाही के 22,655 पद, सबइंस्पैक्टर के 4,546 पद और ड्राइवर (सिपाही) के 2,039 पद खाली हैं. इस से कानून व्यवस्था को कायम रखने में काफी परेशानी हो रही है.

अगस्त, 2019 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पटना हाईकोर्ट ने सरकार की इस लापरवाही पर खरीखरी सुनाई. कोर्ट ने कहा कि इस से साफ लगता है कि सरकार को आम नागरिकों की हिफाजत का जरा भी खयाल नहीं है.

राज्य सरकार के वकील ने कहा कि इन खाली पदों को भरने में 4 साल लग जाएंगे. इस से नाराज हाईकोर्ट ने मुख्य सचिव और गृह सचिव से पूछा है कि इन खाली पदों को कम से कम कितने  समय में भरा जा सकता है.

गौरतलब है कि अप्रैल, 2017 में बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि साल 2020 तक सभी पद भर लिए जाएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की मौनिटरिंग का जिम्मा पटना हाईकोर्ट को सौंपा था. अब वह हाईकोर्ट में कह रही है कि इसे भरने में साल 2023 तक का समय लग जाएगा.

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गरीबों से घूस

देशभर में पुलिस वालों के घूस लेने के हजारों अजबगजब किस्से मशहूर हैं, लेकिन इस मामले में भी बिहार पुलिस की अदा ही निराली है. बिहार पुलिस को घूस में कुछ भी चलेगा. पैसे नहीं हैं, तो जूता ही खरीद कर भिजवा दो. सब्जी ही दे दो. चिकन या बकरे का मांस ही पहुंचा दो. मोमोज भी चलेंगे यानी भागते भूत की लंगोटी ही सही.

पिछले दिनों पटना के दीघा थाना के दारोगा पंकज कुमार ने केस डायरी हलका करने के बदले पीडि़त से 7,000 रुपए की मांग की. जब पीडि़त ने अपनी गरीबी का हवाला देते हुए पैसा देने में आनाकानी की, तो दारोगा का मन पसीज गया और उन्होंने एक ब्रांडेड जूते की डिमांड कर डाली. पीडि़त ने 2,500 रुपए का जूता ला कर दारोगाजी को भेंट किया, तब जा कर उस का काम बना. उस के बाद इस पूरे मामले का वीडियो वायरल हो गया और दारोगाजी सस्पैंड हो गए यानी मियां की जूती मियां के सिर वाली कहावत सच साबित हो गई.

मार्च, 2019 में पटना कोतवाली पुलिस ने रात को पैट्रोलिंग के दौरान एक पिकअप वैन को रोका. वैन में बकरे पाए गए. साथ ही, बकरे का कारोबारी शराब के नशे में चूर था. पुलिस वालों की बांछें खिल गईं.

शराबबंदी वाले राज्य में शराबी के पकड़े जाने पर पुलिस वालों को मानो लौटरी लग जाती है. पिकअप वैन समेत कारोबारी को पकड़ कर थाने लाया गया.

कारोबारी को तो जेल भेज दिया गया, पर पिकअप वैन वाले ने जब पुलिस वालों से छोड़ देने की गुहार लगाई तो पुलिस वालों ने आजादी के बदले मटन पार्टी का इंतजाम करने को कहा.

पटना के मौर्यलोक कमर्शियल कौंप्लैक्स में एक दारोगा ने सड़क के किनारे गाड़ी लगा कर मोमोज बेचने वालों को गाड़ी हटाने की धौंस दिखा कर मुफ्त के मोमोज पर हाथ साफ कर डाला.

दारोगा के चटोरेपन की रामकहानी एसएसपी तक पहुंच गई. एसएसपी ने दारोगा को इस कदर फटकार लगाई कि मोमोज का स्वाद ही किरकिरा हो गया.

राज्य में साइबर अपराध तेजी से बढ़ते जा रहे हैं और ठग आम आदमी को करोड़ों रुपए का चूना लगा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर बिहार पुलिस के लिए साइबर ठगी के मामले काला अक्षर भैंस बराबर हैं. साइबर फ्रौड के मामले सामने आने पर पुलिस भी प्राइवेट जानकारों की मदद लेने को मजबूर है.

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अब सरकार इस मामले में संजीदा होती नजर आ रही है. बिहार के थानों में तैनात इंस्पैक्टर और दारोगा को साइबर ऐक्सपर्ट बनाने की कवायद शुरू की गई है. पटना पुलिस कार्यालय में इस के लिए वर्कशौप का आयोजन किया जाएगा.

सिटी एसपी (मध्य) विनय तिवारी ने बताया कि आजकल आम लोगों को साइबर क्राइम की वजह से सब से ज्यादा परेशानी और नुकसान हो रहा है. शिकायतों के जल्द निबटारे के लिए जरूरी है कि इंस्पैक्टर और दारोगा साइबर ऐक्सपर्ट हों. थानों के चुने गए एसआई और एएसआई को साइबर मामलों में ऐक्सपर्ट बनाया जाएगा. उन्हें बताया जाएगा कि क्राइम के सीन और सुबूत को कैसे सुरक्षित रखा जाएगा.

इस के अलावा सोशल साइट, सीडीआर, एनालिसिस, एटीएम और बैंकों के बारे में जानकारी दी जाएगी.

आईएएस अफसरों का भी टोटा

बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था आईएएस अफसरों की कमी से जू झ रही है. बिहार में आईएएस अफसरों की तादाद तय कोटे से 25 फीसदी कम है. राज्य में आईएएस अफसरों के कुल 342 पद हैं, लेकिन फिलहाल 248 अफसर ही तैनात हैं. 94 पद खाली हैं. इस का असर बिहार से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए तय कोटे पर भी पड़ रहा है. राज्य से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए 74 आईएएस का कोटा तय है, जबकि अभी 34 अफसर ही केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर हैं.

आईएएस अफसरों की कमी की वजह से कई अफसरों के कंधे पर एक से ज्यादा महकमे का बो झ है. राज्य में मुख्य सचिव लैवल के 10, प्रधान सचिव लैवल के 18 और सचिव, विशेष सचिव, अपर सचिव और संयुक्त सचिव लैवल के 159 पद हैं.

केंद्र सरकार हर 5 साल में आईएएस अफसरों का कोटा बढ़ाती है. पिछली बार साल 2014 में रिविजन हुआ था. राज्य सरकार ने 14 पद को बढ़ाने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है. राज्य में आईएएस के कुल 342 पद में से 104 पद राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसरों को प्रमोशन दे कर भरा जाता है. फिलहाल साल 2016 बैच के 15, साल 2017 बैच के 17 और साल 2018 बैच के 15 पदों को प्रमोशन के जरीए भरा जाना है.

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क्या कैरेक्टर लेस पत्नी गुजारा भत्ते की हकदार होनी चाहिए

भोपाल के फैमिली कोर्ट में तलाक का एक ऐसा दिलचस्प मामला पिछले तीन महीने से चल रहा है जिसमें बीबी की बदचलनी साफतौर पर उजागर हो चुकी है और काउन्सलिन्ग में वह अपने बौयफ्रेंड से नाजायज सम्बन्धों की बात भी मान चुकी है लेकिन इसके बाद भी पति से गुजारा भत्ता मांग रही है . पति विष्णु ( बदला नाम ) ने काउन्सलर सरिता राजानी से गुहार लगाई है कि वह ऐसी बदचलन औरत के साथ नहीं रहना चाहता जो उसके भरोसे का खून करती रही है.

विष्णु की शादी साल 2014 में तुलसी ( बदला नाम ) से हुई थी.  तब वह खूबसूरत बीबी पाकर बहुत खुश था लेकिन जल्द ही उसके रंग ढंग सामने आने लगे तो वह सकते में आकर अपनी किस्मत को झींकने लगा. तुलसी अक्सर मोबाइल फोन पर अपने बौय फ्रेंड से घंटो रोमांटिक बातें किया करती थी जो विष्णु और उसके घर बालों सी छिपी नहीं रह सकीं . एक दिन हद तो उस वक्त हो गई जब सास ने बहू की बातें सुन लीं कि वह बौय फ्रेंड से हाय जानू , हाय जानू कहते बात कर रही थी .

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माँ ने बेटे से शिकायत की तो वह बिफर गया क्योंकि यह किसी भी शौहर के लिए नागवार गुजरने बाली बात थी. इस पर मियां बीबी में कहा सुनी हुई और गुस्साया विष्णु तुलसी को उसके मायके छोड़ आया. इस दौरान उन्हें एक बेटी भी हो चुकी थी जो अब डेढ़ साल की है. विष्णु ने सास ससुर को उनकी बेटी की करतूतों के बारे में बताया और यह भी कहा कि तुलसी अगर अपने बॉय फ्रेंड से मोबाइल पर बतियाना छोड़ दे वह उसे साथ रख लेगा.

6 महीने बीत जाने पर भी ससुराल बालों का फोन या कोई खबर नहीं आई तो वह समझ गया कि तुलसी अपनी हरकतों से बाज नहीं आएगी लिहाजा उसने संजीदगी से तलाक के बारे में सोचना शुरू कर दिया.

लगा जोर का झटका

तलाक का फैसला कोई हंसी खेल नहीं होता विष्णु अभी इस बारे में सोचा विचारी कर ही रहा था कि एक दिन उसके मोबाइल पर अंजान नंबर से कुछ फोटो और वीडियो आए. विष्णु ने जब ये वीडियो डाउनलोड कर के देखे तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गई क्योंकि इनमें तुलसी एक नौजबान के साथ लगभग ब्लू फिल्मों की सी हालत में दिख रही थी. कुछ फोटो भी इसी तरह के थे जिनहे देख किसी भी शौहर का माथा चटकना लाजिमी बात थी.

भन्नाए विष्णु ने जब इस नंबर पर फोन कर पूछा कि यह सब क्या है तो दूसरी तरफ से बेशर्मी भरा जबाब यह मिला कि तेरी बीबी से मेरे संबंध पहले भी थे और आज भी हैं. उसने तुझ से शादी तो दिखावे के लिए की थी.

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बेबसी और बेइज्जती की आग में जलता विष्णु ससुराल पहुंचा और ससुराल बालों से तुलसी के बारे में पूछा तो जबाब यह मिला कि वह अपने पांवो पर खड़े होना चाहती है इसलिए ब्यूटी पार्लर का काम सीखने गई है. इस पर उसने वे वीडियो और फोटो ससुराल बालों को दिखाये तो वे भी हक्का बक्का रह गए .

चोरी और सीनाजोरी

बात या हकीकत अब उजागर हो गई थी यानि तुलसी की पोल खुल चुकी थी लेकिन सच कबूलने के बजाय उसने विष्णु के सर ही अपनी बदचलनी का ठीकरा यह कहते फोड़ कर अपना बचाव करने की नाकाम कोशिश की कि असल में विष्णु ही उससे तलाक लेना चाहता है इसलिए उसने ही इस लड़के को उसके पीछे लगा दिया था. बात में दम नहीं था इसलिए किसी ने उससे हमदर्दी नहीं राखी जिसकी शायद तुलसी जैसी बीबियों को जरूरत भी नहीं रहती .

विष्णु ने अब तलाक का मुकदमा दायर कर दिया इधर तुलसी के बॉय फ्रेंड ने सारे फोटो और वीडियो वायरल कर दिये जिन्हें देखने बालों ने चटखारे लेकर देखा उनके लिए तो यह मुफ्त का मनोरंजन था लेकिन इससे किसी की गृहस्थी उजड़ रही है या एक शौहर का खून जल रहा है इससे कोई वास्ता क्यों रखता.

सुनवाई के पहले अदालत ने दोनों की काउन्सलिन्ग का हुक्म दिया तो विष्णु ने जो कहा वह ऊपर बताया जा चुका है लेकिन कौउन्स्लर्स भी उस वक्त हैरान रह गए जब तुलसी ने अपने बौय फ्रेंड से नाजायज सम्बन्धों की बात तो मंजूर कर ली लेकिन विष्णु से गुजारा भत्ता चाहने की जिद पर वह अड़ी रही.

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अब मामला अदालत में है जिसमें विष्णु की जीत तय दिख रही है क्योंकि तुलसी की बदचलनी के सबूत उसके पास हैं लेकिन दिलचस्पी की बात यह रहेगी कि क्या अदालत एक बदचलन बीबी को गुजारा भत्ता देने पति को कहेगी .

बेरोजगारी का आलम

देश में बेरोजगारी का हाल यह है कि महाराष्ट्र में 8,000 कौंस्टेबलों की भरती के लिए 12,00,000 अर्जियां आई हैं. सरकार तो चाहती थी कि उन का एग्जाम भी औनलाइन हो जिस में इन अधपढ़े नौजवानों को किसी साइबर कैफे में जा कर सैकड़ों घंटे और सैकड़ों रुपए बरबाद करने ही थे और सरकार के पास मनमाने ढंग से फैसले करने का हक रहता. हो सकता है अब कागजपैन पर ही कौंस्टेबलों का एग्जाम हो.

कौंस्टेबलों का वेतन कोई ज्यादा नहीं होता. काम के घंटे बहुत ज्यादा होते हैं. वर्षों तक अफसरों की चाकरी करनी पड़ती है. रहने की सुविधा बहुत ही घटिया होती है, पर फिर भी नौकरी लग जाने पर रोब भी रहता है और ऊपरी कमाई भी होती है, इसीलिए 12 लाख दांव लगा रहे हैं.

इस तरह की भरतियों में सरकारी आदमियों की खूब मौज होती है. अर्जी देने वालों को लूटने का सिलसिला चालू हो जाता है. तरहतरह के सर्टिफिकेट औनलाइन एप्लीकेशन के साथ लगवाए जाते हैं जिन्हें जमा करने में खर्च होता है. जो रिजर्व कोटों से होते हैं उन्हें एससी, ओबीसी का सर्टिफिकेट बनवा कर लाने के लिए चक्कर काटने पड़ते हैं.

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अर्जी ढंग से गई या नहीं, यह पता करना भी मुश्किल होता है. उस के बाद एकदम चुप्पी छा जाती है. महीनों पता ही नहीं चलता कि इन भरतियों का क्या हुआ. जिस ने अर्जी दी, वह आराम से बैठ कर सपने देखने लगता है जबकि उसे यह मालूम ही नहीं होता कि औनलाइन गड़बडि़यों का धंधा अलग चालू हो गया है.

अगर गलती से इंटरव्यू और फिजिकल का बुलावा आ जाए तो खुशी तो होती है पर लाखों की रिश्वत की मांग आने लगती है. देश में कानून बनाए रखने के लिए जो बेईमानी भरती

में हाती है वह अपनेआप में एक अचंभा है. इस बेईमानी पर वे मंत्री चुप रहते हैं जो दिन में 10 बार में सच बोलने की कसम खाते हैं. उन्हीं कौंस्टेबलों के बल पर देश में हिंदूहिंदू, मुसलिममुसलिम किया जाता है. सरकार अगर उछलती है तो उन कौंस्टेबलों के बल पर जिन के वीडियो जामिया और उत्तर प्रदेश में गाडि़यों, स्कूटरों को तोड़ते हुए खूब वायरल हुए हैं. यही कौंस्टेबल सड़क चलतों से मारपीट कर सकते हैं, ये सरकार के असल हाथ हैं पर इन की भरती बेहद घिनौनी है.

महाराष्ट्र में औनलाइन एग्जाम को न करने की जो अपील की जा रही है वह सही है, क्योंकि चाहे औनलाइन में स्काइप से फोटो चालू रहे, बेईमानी की गुंजाइश कई गुना है. कौंस्टेबलों की भरती साफसुथरी हो, यह देश की जनता की आजादी के लिए जरूरी है. उन्हें निचले पद पर तैनात अदना आदमी न सम झें, असल में वही सरकार की आंख व हाथ हैं. अगर दलितों, पिछड़ों, मुसलिमों को अपनी जगह बनानी है तो जम कर इस भरती में हिस्सा लेना चाहिए और पुलिस फोर्स को भर देना चाहिए, ताकि उन पर जुल्म न हों.

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किसान हुए बेहाल

आम आदमी की जरूरत की चीजों जैसे प्याज, आलू, दूध के दाम बढ़ने पर सरकार लगातार मौसम को दोष दे रही है. कभी कहते हैं कि सूखा पड़ गया है तो कभी कहते हैं कि बेमौसम की बारिश हो गई. पर जिस भी किसान को जिस आलू से 5 रुपए किलो न मिलते हों और प्याज से 2 रुपए किलो न मिलते हों वह आलू बाजार में 30 रुपए से 50 रुपए और प्याज 75 से 125 रुपए तक हो जाए, एक बड़ी बेवकूफी और साजिश का नतीजा होने के अलावा कुछ और नहीं.

बेवकूफी यह है कि पिछले 2 सालों में भारतीय जनता पार्टी ने किसानों के युवा बच्चों को बड़ी गिनती में भगवा दुपट्टे पहना कर सड़कों पर दंगे करवाने के लिए उतार दिया है. किसानी दोस्तों के साथ नहीं की जाती. यह उबाऊ होती है. मेहनत का काम होती है. जिन लड़कों के पास पहले बाप के साथ खेत पर काम करने के अलावा कुछ और नहीं होता था, उन्हें चौराहे पर खड़ा कर के हिंदू राष्ट्र बनाने के भाषण देने पर लगा दिया है. वे ट्रकों में बैठ कर सैकड़ों मीलों दूर मंदिरों में घंटे बजाने भी जाने लगे और भगवा आंदोलन में भी.

बाप बेचारा बेटे को पाले भी, जेबखर्च का पैसा भी दे और खेत पर काम भी करे. पहले जब 12-13 साल के लड़के किसान का हाथ बंटाने आ जाते थे, आज खेतों में सफेद बालों वाले कमर तोड़ते आदमीऔरत नजर आते हैं.

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साजिश यह है कि जरा सी फसल कम होने पर दाम 4-5 गुना तक बढ़ सकते हैं. किसान से हमेशा की तरह पुराने दामों पर माल खरीद कर गांवों, कसबों और शहरों के गोदामों में भरा जाने लगा है. व्यापारीआढ़ती जानते हैं कि किसान निकम्मा होने लगा है और न वह कम फसल होने पर फसल जमा कर के रख सकता है, न उस के पास फसल बढ़ाने का तरीका है. वह यह भी जानता है कि उस का थोड़ा पढ़ालिखा बेटा तो हिंदू धर्म को बचाने में लगा है, खेत की फसल से उसे क्या लेनादेना?

व्यापारीआढ़ती का बेटा पढ़ कर बाप को कंप्यूटर चलाना सिखाता है, किसान का बेटा बाप को मुसलमान और दलित से नफरत का पाठ पढ़ाने लगा है या गांव में अपनी जाति का मंदिर बनाने के लिए उकसाने लगा है.

देश की उपजाऊ जमीन पर अब पूजापाठी नारों की फसल लहलहा रही है. भला आलूप्याज की क्या औकात कि वे मुकाबला कर सकें.

मजहब गरीबों का सब से बड़ा दुश्मन

बिहार में बहुत ज्यादा गरीबों की हालत कमोबेश वही है, जो आजादी के पहले थी. आज भी निहायत गरीब रोटी, कपड़ा, मकान, तालीम और डाक्टरी सेवाओं जैसी बुनियादी जरूरतों से कोसों दूर है. समाज में पंडेपुजारियों, मौलाना और नेताओं के गठजोड़ ने आम लोगों को धार्मिक कर्मकांड, भूतप्रेत, यज्ञहवन के भरमजाल में उल झा कर रख दिया है.

पंडेपुजारियों द्वारा दलित और कमजोर तबके के बीच इस तरह का माहौल बना दिया है कि ये लोग अपना कामकाज छोड़ कर धार्मिक त्योहारों, पूजापाठ, पंडाल बनवाने के लिए चंदा करने, नाचगाने, यज्ञहवन कराने में अपने समय को गंवा रहे हैं. कसबों और गांवों में भी महात्माओं के प्रवचन, रामायण कथा पाठ, पुत्रेष्टि यज्ञ समेत कई तरह के धार्मिक आयोजन आएदिन कराए जाते हैं. इन कार्यक्रमों का फायदा साधुसंन्यासी, पंडेपुजारी वगैरह उठाते हैं.

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गांवों में यज्ञ का आयोजन किया जाता है. उस यज्ञ की शुरुआत जलभरी रस्म के साथ होती है. नदी से हजारों की तादाद में लड़कियां और औरतें सिर पर मिट्टी के बरतन में नदी का जल ले कर कोसों दूरी तय कर आयोजन की जगह तक पहुंचती हैं. इस काम में ज्यादातर लड़कियां और औरतें दलित और पिछड़ी जाति की होती हैं और साथ में घोड़े और हाथी पर सवार लोग अगड़ी जाति के होते हैं.

जहां पर यह यज्ञ होता है, वहां अगलबगल के गांव के दलित और पिछड़ी जाति के लोग अपना सारा कामधंधा छोड़ कर इन कार्यक्रमों में बिजी रहते हैं यानी अगड़े समुदाय के लोग मंच संचालन, पूजापाठ और यज्ञहवन कराने में और दलित व पिछड़े तबके के लोग यज्ञशाला बनाने, पानी का इंतजाम करने यानी शारीरिक मेहनत वाला काम करते हैं.

दलित और पिछड़े तबके के बच्चे अपनी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर इन्हीं कार्यक्रम में बिजी रहते हैं. गांव में भी अगड़े समुदाय के बच्चे पढ़ाई में लगे रहते हैं. इन कार्यक्रमों में करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं.

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हर गांवकसबे में शिव चर्चा की बाढ़ सी आ गई है. औरतें, मर्द अपने घर का काम छोड़ कर शिव चर्चा में हिस्सा लेते हैं. इन लोगों द्वारा अपने घरों में शिव चर्चा कराने की परंपरा का प्रचलन जोरों पर है. इन्हें नहीं मालूम कि बेटे की नौकरी उस की मेहनत से मिली है, न कि ‘ओम नम: शिवाय’ का जाप करने से. अगर जाप करने से ही सारा काम होने लगे, तो कामधंधा, पढ़ाईलिखाई छोड़ कर लोग जाप ही करते रहें.

धर्म का महिमामंडन

इन धार्मिक आयोजनों के उद्घाटन समारोहों में नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, उपेंद्र कुशवाहा, सुशील कुमार मोदी समेत दूसरे नेता, जो अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित समाज से आते हैं, शिरकत करते हैं, इस का महिमामंडन करते हैं. वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जड़ों में खादपानी देने का काम अपनी कुरसी बचाए रखने के लिए गाहेबगाहे करते रहते हैं.

पंडेपुरोहितों द्वारा लोगों के दिमाग में भर दिया गया है कि उन की गरीबी की वजह पिछले जन्म में किए गए पाप हैं. अगर इस जन्म में अच्छा काम करोगे यानी पंडेपुजारियों और धर्म पर खर्च करोगे, तो अगले जन्म में स्वर्ग मिलेगा.

बच्चों की जन्मपत्री, कुंडली, उन के बड़े होने पर मुंडन, उस से बड़े होने पर शादीब्याह, नए घर में प्रवेश करने पर, किसी की मौत होने पर इन ब्राह्मणों को आज भी इज्जत के साथ बुलाया जाता है और दानदक्षिणा भी दी जाती है. ये लोग मजदूर तबके की कमाई का एक बड़ा हिस्सा बिना मेहनत किए किसी परजीवी की तरह सदियों से लोगों को जाहिल बना कर लूटते रहे हैं.

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गुलाम बनाने की साजिश ‘शोषित समाज दल’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके रघुनीराम शास्त्री ने बताया कि हमारे लिए मुक्ति का मार्ग धर्मशास्त्र और मंदिरमसजिद नहीं हैं, बल्कि ऊंची पढ़ाईलिखाई, रोजगार अच्छा बरताव और नैतिकता है. तीर्थयात्रा, व्रत, पूजापाठ और कर्मकांड में कीमती समय बरबाद करने की जरूरत नहीं है. धर्मग्रंथों का अखंड पाठ करने, यज्ञ में आहुति देने, मंदिरों में माथा टेकने से हमारी गरीबी कभी दूर नहीं होगी.

भाग्य और ईश्वर के भरोसे नहीं रहें. आप अपना उद्धार खुद करें. जो धर्म हमें इनसान नहीं सम झता, वह धर्म नहीं अधर्म है. जहां ऊंचनीच की व्यवस्था है, वह धर्म नहीं, बल्कि गुलाम बनाने की साजिश है.

स्वर्ग का मजा

पेशे से इंजीनियर सुनील कुमार भारती ने बताया कि सभी धर्म गरीबों को महिमामंडित करते हैं, पर वे गरीबी खत्म करने की बात नहीं करते हैं. कोई फतवा या धर्मादेश इस को खत्म करने के लिए क्यों नहीं जारी किया जाता?

इस धार्मिकता की वजह से साधुओं, फकीरों, मौलवियों, पंडेपुजारियों, पादरियों की फौज मेहनतकश लोगों की कमाई पर पलती है. परलोक का तो पता नहीं, पर इन धार्मिक जगहों के लाखों निकम्मे और कामचोर इस लोक में ही स्वर्ग का मजा ले रहे हैं.

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आतंकवाद की दुनिया से वापस लौटा माजिद

दुनिया भर में आतंकवाद अपने चरम पर है. आश्चर्य की बात यह है कि आतंकवाद से घिरा पाकिस्तान कुछ आतंकियों की फैक्ट्री है. पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकवादी चोरीछिपे सीमा पार आ कर कश्मीर में न केवल आतंक फैलाते हैं, बल्कि स्थानीय युवकों को भड़का कर उन्हें आतंकवादी बनने को प्रेरित करते हैं. कई युवक बहक कर आतंकवादी बन भी जाते हैं. ऐसे ही युवकों में था कश्मीरी युवा माजिद इरशाद खान. गनीमत रही कि आतंकवादियों की तरह उस की अंतरात्मा नहीं मरी थी, जिस की वजह से वह मां की पुकार सुन कर घर लौट आया.

माजिद ने आतंकी संगठन में शामिल होने का इरादा 29 अक्तूबर को एक फेसबुक पोस्ट में किया था. उस ने पोस्ट में लिखा, ‘जब शौक-ए-शहादत हो दिल में, तो सूली से घबराना क्या.’ बताते हैं कि माजिद अपने खास दोस्त यावर निसार शेरगुजरी की वजह से आतंकी बना. यावर जुलाई में एक आतंकवादी संगठन में शामिल हुआ था, लेकिन एक महीने में ही सुरक्षाबलों की गोलियों ने उस के प्राण लील लिए. दोस्त की मौत से माजिद इतना दुखी हुआ कि आतंकी बनने का फैसला कर लिया. ऐसा उस ने किया भी. वह लश्करएतैयबा में शामिल हो गया. लेकिन यह आतंकी संगठन उसे रोक नहीं पाया.

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दरअसल, माजिद की मां, पिता और दोस्तों ने उस से घर लौट आने की अपील की थी. उस की मां ने एक वीडियो में उसे संदेश देते हुए भावुक हो कर कहा था, ‘माजिद बेटे, लौट आओ और हमारी जान ले लो, फिर चले जाना. हमें यहां किस के लिए छोड़ गए हो?’

माजिद के दोस्तों ने उस के मातापिता का हवाला दे कर घर लौट आने को कहा था. माजिद के एक दोस्त ने फेसबुक पर बेहद भावुक पोस्ट डाली, ‘आज मैं ने तुम्हारी मां और अब्बू को देखा. वे पूरी तरह टूट चुके हैं. प्लीज लौट आओ. इस तरह अपनी अम्मी और अब्बू को मत छोड़ो. प्लीज लौट आओ, तुम अपने मांबाप की एकलौती उम्मीद हो. वे तुम्हारा बिछुड़ना नहीं सह पाएंगे. जब मैं ने देखा तब वे रो रहे थे. प्लीज, माजिद उन के लिए लौट आओ. हम सब तुम्हें बहुत प्यार करते हैं.’

दरअसल, 9 नवंबर, 2017 को अचानक माजिद गायब हो गया था. इस के अगले ही दिन सोशल मीडिया पर उस की एक तसवीर घूमने लगी, जिस में वह हाथों में एके 47 थामे हुआ था. उस के परिवार को भी यह खबर सोशल मीडिया से ही पता चली कि उन के एकलौते बेटे ने फुटबौल छोड़ कर बंदूक थाम ली है. बहरहाल, मांबाप और दोस्तों की भावुक अपील से माजिद का दिल पिघल गया और उस ने 16 नवंबर को सेना के अधिकारियों के सामने सरेंडर कर दिया.

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सेना और पुलिस अधिकारियों का कहना है कि माजिद से कोई पूछताछ नहीं की जाएगी. उसे मुख्यधारा में लाया जाएगा. इतना ही नहीं, अगर आतंक की राह पर चलने वाले अन्य युवक भी घर लौटना चाहें तो लौट सकते हैं. उन के खिलाफ कोई काररवाई नहीं होगी.

वल्लरी चंद्राकर : एमटेक क्वालीफाई महिला किसान

वल्लरी चंद्राकर ने कंप्यूटर साइंस से एमटेक किया था. इस शिक्षा के बूते पर अच्छी नौकरी भी मिल गई. लेकिन 27 साल की वल्लरी का मन नौकरी में नहीं लगा. उन्होंने नौकरी छोड़ कर खेती करने का निश्चय किया, जो एक महिला के लिए मुश्किल काम था. लेकिन वल्लरी पर खेती का जुनून सवार था. इस की एक वजह यह भी थी कि उन के पिता ने फार्महाउस बनाने के लिए 27 एकड़ जमीन खरीदी थी, जो यूं ही पड़ी थी.

वल्लरी चंद्राकर ने इंटरनेट की मदद से अत्याधुनिक खेती की टेक्नोलौजी सीखी और 2016 में 15 एकड़ जमीन से खेती की शुरुआत की. वह स्वयं ट्रैक्टर चला कर खेत जोतती हैं और मजदूरों की मदद से बीजारोपण से ले कर फसल तैयार होने तक सारे काम करती हैं. खेती के लिए उन्होंने पारंपरिक की जगह हाई टेक्नोलौजी अपनाई थी.

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अब वल्लरी 27 एकड़ में खेती करती हैं और उन्होंने अपनी मेहनत के बूते पर मार्केट में भी अच्छी जगह बना ली है. उन के फार्महाउस में पैदा होने वाली सब्जियां दिल्ली, भोपाल, इंदौर, ओडिसा, नागपुर, बेंगलुरु तक जाती हैं. जल्दी उन के फार्म में लौकी और टमाटर की फसल तैयार होने वाली है, जिसे वह दुबई और इजरायल निर्यात करने की तैयारी कर रही हैं.

शाम 5 बजे वल्लरी के खेतों में काम बंद हो जाता है. इस के बाद वह गांव की लड़कियों के लिए क्लास लगाती हैं, जिस में वह हर रोज 2 घंटे अंगरेजी और कंप्यूटर पढ़ाती हैं ताकि गांव की लड़कियां आत्मनिर्भर बन सकें. उन की इस क्लास में 40 लड़कियां नियमित अध्ययन करती हैं. वल्लरी खेतों में काम करने वाले किसानों के लिए भी वर्कशौप का आयोजन करती हैं, जिस में उन्हें खेती के नए तौरतरीकों के बारे में बताया जाता है. वर्कशौप में किसानों के सुझाव भी लिए जाते हैं.

वल्लरी बताती हैं, ‘शुरुआत में बहुत मुश्किल हुई. नौकरी छोड़ कर खेती करनी शुरू की तो लोगों ने पढ़ीलिखी बेवकूफ कहा. पिछली 3 पीढि़यों से हमारे यहां किसी ने खेतीबाड़ी नहीं की थी. किसान, बाजार और मंडी वालों के साथ डील करना मेरे लिए बहुत मुश्किल होता था. लोग लड़की समझ कर मेरी बात को गंभीरता से नहीं लेते थे.

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खेतों में काम करने वाले लोगों से बेहतर ढंग से बात करने के लिए छत्तीसगढ़ी बोली सीखी. खेती को और उन्नत बनाने के लिए इंटरनेट से सीखा कि इजरायल, दुबई और थाइलैंड जैसे देशों में किस तरह से खेती की जाती है. मेरे फार्म में पैदा हुई सब्जियों की क्वालिटी देख कर धीरेधीरे खरीदार भी मिलने लगे. अब तक वल्लरी चंद्राकर के खेतों में करेला, खीरा, बरबरी और हरीमिर्च की खेती होती थी. इस बार उन्हें लौकी और टमाटर का और्डर मिला है. इन सब्जियों की फसल जल्दी ही आने वाली है, जिसे वल्लरी दुबई और इजरायल निर्यात करेंगी.

अच्छीभली नौकरी छोड़ कर वल्लरी ने जिस समर्पण भाव से खेती की है, उन्हें सफलता मिलनी ही थी. यूं तो तमाम औरतें खेती का काम करती हैं, लेकिन वल्लरी ने खेती के लिए जो हाईटेक तकनीक अपनाई है, उस ने उन्हें देश भर में मशहूर कर दिया है. वल्लरी का गांव सिरी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 88 किलोमीटर दूर जिला महासमुंद की तहसील बागबाहरा में है. द्य

नींदड़ जमीन समाधि सत्याग्रह हक के लिए जमीन में गडे़ किसान

पूरे देश में 6 साल पहले नया भूमि अधिग्रहण कानून लागू हो चुका है, इस के बावजूद राजस्थान की राजधानी जयपुर में तरक्की के लिए काम करने वाला जयपुर विकास प्राधिकरण किसानों को नए कानून के तहत मुआवजा देने को तैयार नहीं है.

इसी को ले कर राजधानी जयपुर के बिलकुल पास सीकर रोड पर गांव नींदड़ में नींदड़ आवास योजना के तहत जयपुर विकास प्राधिकरण द्वारा ली गई 1,350 बीघा जमीन पर किसान जमीन समाधि सत्याग्रह करने पर मजबूर हो गए हैं.

गांव नींदड़ में जयपुर विकास प्राधिकरण द्वारा बिना किसानों से बातचीत किए व सूचना दिए अचानक ही जमीन पर कब्जा कर के काम शुरू कर दिया गया. इस के खिलाफ किसान गुस्से में हैं और जमीन समाधि सत्याग्रह चला रहे हैं.

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तकरीबन 2 साल पहले भी सैकड़ों किसान जमीन को ले कर धरना प्रदर्शन कर चुके हैं. किसानों का कहना है कि उन को नए जमीन अधिग्रहण कानून के मुताबिक मुआवजा नहीं मिला है.

जयपुर विकास प्राधिकरण की इस तानाशाही के खिलाफ गांव नींदड़ के किसानों ने डाक्टर नगेंद्र सिंह शेखावत की अगुआई में ‘नींदड़ बचाओ युवा किसान संघर्ष समिति’ के कहने पर जमीन समाधि सत्याग्रह शुरू किया.

इस आंदोलन की अगुआई कर रहे डाक्टर नगेंद्र सिंह शेखावत का कहना है कि जयपुर विकास प्राधिकरण अपने अडि़यल रवैए पर उतरते हुए 1 जनवरी, 2020 को इस जमीन पर अपना कब्जा लेने के लिए आदेश जारी कर चुका है.

किसानों का कहना है कि नया जमीन अधिग्रहण कानून लागू हो चुका है, इस के बावजूद सरकार उन को पुराने कानून के मुताबिक मुआवजा देने का गलत काम कर रही है, जिस को किसान स्वीकार नहीं करेंगे.

इसी सिलसिले में नींदड़ आवासीय योजना में किसानों का हाल जानने की कोशिश की गई और यहां पर किसानों की अगुआई कर रहे जमीन समाधि सत्याग्रह में शामिल राजस्थान यूनिवर्सिटी के छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके डाक्टर नगेंद्र सिंह शेखावत से बातचीत की गई. पेश हैं, उसी के खास अंश:

यहां के हालात कैसे हैं? जयपुर विकास प्राधिकरण के क्या हालात हैं? आप की डिमांड क्या है?

देखिए, यह आंदोलन लगातार पिछले 10 सालों से चल रहा है. जिस दिन जयपुर विकास प्राधिकरण ने नोटिफिकेशन डाला, तब से किसान आंदोलन कर रहे हैं. वे लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन कर रहे हैं. सरकार के मुख्यमंत्री के पास हम ने अपना पक्ष रखा, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.

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जयपुर विकास प्राधिकरण यहां पर आवासीय कालोनी बसाना चाहता है और यहां पर पहले से ही 18 कालोनियां बसी हुई हैं. उन को उजाड़ कर और नए लोगों को बसाने की यह प्रक्रिया है, जिस का हम लोग पूरी तरीके से विरोध कर रहे हैं. यहां के मूल निवासियों को उजाड़ेंगे, नए लोगों को बसाएंगे, यह कहां का इंसाफ है?

जयपुर विकास प्राधिकरण किसान परिवारों की 3,500 करोड़ की जमीन हड़पना चाहता है, जबकि किसान नए कानून के हिसाब से मुआवजा चाहते हैं.

इस से कितने परिवार प्रभावित हुए हैं?

यह 1,350 बीघा जमीन का मामला है. यहां पर हजारों की आबादी है. इस के अलावा किसानों की अपनी खेती की जमीन है और सब से बड़ी बात है कि देश में नया भूमि अधिग्रहण कानून लागू हो चुका है. पुराने कानून के तहत हम जमीन नहीं देना चाहते हैं.

क्या यहां के स्थानीय विधायक नरपत सिंह राजवी से कोई बात हुई है?

वे पिछले 10 साल से यहां लगातार विधायक हैं. उन को इस बारे में सबकुछ पता है और उन्होंने कितना सहयोग किया है या नहीं, यह किसान भी जानते हैं, और वे खुद भी जानते हैं, पर हमारा तो उन से भी और सरकार से भी निवेदन है कि किसानों की लोकतांत्रिक मांग को देखते हुए और वर्तमान में जो कानून इस देश में लागू है, उस के मुताबिक मुआवजा दिलवाएं, जिस से किसानों के साथ नाइंसाफी न हो.

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राजस्थान सरकार और मुख्यमंत्री से कोई बातचीत हुई या उन की तरफ से कोई मैसेज आया?

मुख्यमंत्री संवेदनशील हैं, वे किसानों के दर्द को समझते हैं और किसानों के प्रति उन्होंने इस देश में बहुत काम किया है. नई सरकार बनने के बाद 5 जनवरी, 2019 को हम ने इस मामले को ले कर उन को ज्ञापन दिया था. हमारे पिछले आंदोलन में भी उन का समर्थन मिला था, तो मुझे पूरा विश्वास है कि वे किसानों की जायज मांग को समझेंगे.

मर्दों की विरासत को नया नजरिया देती गांव की बिटिया

लेखक- देवांशु तिवारी

हाथ में तलवार, आंखें तिरछी और तेज आवाज में क्या कोई आप के दिल को छू सकता है? कई लोग कहेंगे कि दिल को छूने का तो नहीं पता, पर दिल में छेद जरूर कर सकती है ऐसी शख्सीयत, लेकिन आप को इतना सोचने की जरूरत नहीं है, क्योंकि शीलू यह सबकुछ करती है और लोग उस को इस अंदाज में देख कर दंग रह जाते हैं.

उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में एक छोटे से इलाके गुरुबक्शगंज की रहने वाली शीलू सिंह राजपूत एक आल्हा गायिका हैं.

याद रहे कि आल्हा गीत पुराने समय में राजामहाराजाओं के लड़ाई पर जाने से पहले गाया जाता था. इस गीत को केवल मर्द ही गाते थे.

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पर, शीलू तो एक लड़की है, फिर भला वह क्यों गाने लगी वीर रस से भरा मर्दों का यह आल्हा? यही एक सवाल कभी समाज ने उस से पूछा था, जब छोटी सी उम्र में शीलू ने अपने हाथ में पहली बार तलवार थामी थी और आल्हा गाना शुरू किया था.

शीलू रायबरेली जिले के जिस हिस्से से आती है, वह बेहद पिछड़ा हुआ इलाका है. यहां ज्यादातर लड़कियों के हाथों में जिस उम्र में किताबें होनी चाहिए, वे चूल्हे में पड़ी लकडि़यों को जलाने वाली फुंकनी और गोलगोल रोटी बनाने वाला बेलन लिए हुए नजर आ जाएंगी. इन देहाती हालात के बीच शीलू ने अपनी अलग राह खुद चुनी है और इस में सब से बड़ी बात यह रही कि उस के पिता भगवानदीन ने उस का हर कदम पर साथ दिया.

आल्हा गायक लल्लू बाजपेयी का आल्हा सुन कर शीलू बड़ी हुई और आज एक जानीपहचानी आल्हा गायिका बन चुकी है. उस के इस हुनर को आज केवल उस के गांव वाले ही नहीं, बल्कि कई राष्ट्रीय व राजकीय मंच भी सराह चुके हैं. पहले गांव के जो लोग उस को ऐसा करते देख आंखें टेढ़ी कर लिया करते थे, आज वही अपनी लड़कियों को शीलू का आल्हा दिखाने लाते हैं.

शीलू ने आल्हा गायन के साथसाथ हाल ही में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की है. लेकिन जब भी वह आल्हा गाने मंच पर आती है, तो उस की मासूमियत कहीं ऐसे छिप जाती है मानो दोपहर का चमचमाता सूरज अचानक बदली में कहीं गुम हो जाता है.

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चेहरे पर वही तेज, हाथों में धारदार तलवार और तिरछी आंखें. चारों ओर बैठे लोग उसे इस अंदाज में देख कर दंग रह जाते हैं.

लोग कहते हैं कि शीलू जब अपने हाथों में तलवार नचाते हुए आल्हा गाती है, तो मंच पर एक अजीब सा कंपन महसूस होता है और शरीर में अपनेआप रोमांच हो जाता है. उस का आल्हा दिल को ऐसे छू लेता है कि अगले दिन तक वह आवाज कानों में गूंजती रहती है.

शीलू का यह हुनर उस के परिवार को अब हर लमहा गर्व का अहसास कराता है और सीना ठोंक के चुनौती देता है समाज की हर उस रूढि़वादी सोच को, जो औरतों को हमेशा चारदीवारी के अंदर रहने को मजबूर करती है.

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