बिहार चुनाव में नौजवान चेहरों ने संभाली कमान

बिहार चुनाव में इस बार नौजवान चेहरों ने धूम मचा रखी है. राजद के तेजस्वी यादव और लोजपा के चिराग पासवान ने तो वर्तमान सत्ता पक्ष की नींद हराम कर दी है. सोशल मीडिया पर नौजवान तबका इस बार के चुनाव में बहुत ज्यादा जोश में है. उम्मीदवारों के साथ नौजवान कार्यकर्ता ज्यादा दिखाई पड़ रहे हैं.

प्लूरल्स पार्टी से इस बार पुष्पम प्रिया चौधरी नौजवान उम्मीदवार हैं. अखबारों में पहले पेज पर इश्तिहार दे कर वे खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी हैं. दिग्गज नेता अपना भविष्य अपने बच्चों में देखने लगे हैं. अपनी राजनीतिक विरासत अपने बच्चों को सौंपने लगे हैं. अपने बच्चों के मोहपाश में फंसे नेता अपने विचार और धारा दोनों भूल कर अपने बच्चों को सियासी गलियारे में उतार चुके हैं.

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पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव की पूरी राजनीति कांग्रेस के खिलाफ रही. वे समाजवादी नेता के रूप में पूरे देश में चर्चित रहे. वे लोकदल, जनता दल से ले कर जद (यू) तक में रहे और कांग्रेस की विचारधारा का विरोध करते रहे. लेकिन इस बार उन की बेटी सुभाषिनी कांग्रेस का दामन थाम कर बिहारीगंज से चुनाव मैदान में उतर चुकी हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान  का राजनीति में प्रवेश राजग के रास्ते हुआ. राजग के जरीए लोजपा से 2014 और 2019 में चिराग पासवान जमुई से सांसद बने. इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने उसी राजग के खिलाफ बिगुल फूंक दिया है. जिस विधानसभा क्षेत्र से जद (यू) के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, चिराग पासवान वहां से लोजपा के उम्मीदवार खड़े कर चुके हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और फिल्म स्टार शत्रुध्न सिन्हा की राजनीति की शुरुआत भाजपा से हुई थी. वे भाजपा के स्टार प्रचारक रहे थे, लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लड़ा. उन की पत्नी पूनम सिन्हा 2019 का लोकसभा चुनाव लखनऊ से समाजवादी पार्टी से लड़ी थीं. इस बार उन के बेटे लव सिन्हा बांकीपुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

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प्लूरल्स पार्टी की प्रमुख पुष्पम प्रिया चौधरी ने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. अपनी पार्टी की वे मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार हैं. उन्होंने साफ कहा है कि चुनाव के बाद उन का किसी दल के साथ गठबंधन नहीं करेगा. उन के पिता विनोद कुमार चौधरी जद (यू) के पूर्व विधानपार्षद रहे हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी 2015 में राजग के साथ रहे. उस के बाद वे महागठबंधन में चले गए. उन के बेटे संतोष कुमार सुमन को राजद ने विधानपार्षद बनाया. इस के बाद वे फिर राजग में शामिल हो गए. इस बार जीतन राम मांझी इमामगंज और उन के दामाद देवेंद्र मांझी मखदूमपुर से चुनाव लड़ रहे हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह पूरी उम्र राजद में रहे. वे राजद का प्रमुख चेहरा थे. अब उन के बेटे सत्यप्रकाश सिंह ने जद (यू) का दामन थाम लिया है. पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह हमेशा जद (यू) में रहे. उन के बड़े बेटे इस बार रालोसपा के टिकट पर जमुई से चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि छोटे बेटे सुमित सिंह चकाई से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतर रहे हैं.

राजनीति की मलाई का स्वाद चख चुके नेता और उन के बच्चे इस बात को अच्छी तरह समझ गए हैं कि राजनीति से अच्छा किसी भी क्षेत्र में स्कोप नहीं है, इसलिए तो नेता अपने बेटाबेटी को जिस भी दल से जैसे भी टिकट मिले, दिला देते हैं और जैसे भी हो चुनाव जिता कर सत्ता सुख का फायदा जिंदगीभर उठाते हैं.

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यही वजह है कि सिद्धांत और अपनी विचारधारा पर अडिग रहने वाले लोग राजनीति की मुख्यधारा से किनारे होते जा रहे हैं.

मध्य प्रदेश : दांव पर सब दलों की साख

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ कर मध्य प्रदेश की जनता और चुनी गई कांग्रेसी सरकार से गद्दारी की थी या फिर अपनी गैरत की हिफाजत की थी, इस का सटीक फैसला अब मीडिया या चौराहों पर नहीं, बल्कि जनता की अदालत में 10 नवंबर, 2020 को होगा जब 28 सीटों पर हुए उपचुनावों के वोटों की गिनती हो रही होगी. इन 28 सीटों में से 16 सीटें ग्वालियरचंबल इलाके की हैं, जहां वोट जाति की बिना पर डलते हैं और इस बार भी भाजपा और कांग्रेस के भविष्य का फैसला हमेशा की तरह एससीबीसी तबके के लोग ही करेंगे, जिन का मूड कोई नहीं भांप पा रहा है.

साल 2018 के विधानसभा के चुनाव में इन वोटों ने भाजपा और बसपा को अंगूठा दिखाते हुए कांग्रेस के हाथ के पंजे पर भरोसा जताया था, लेकिन तब हालात और थे. ये हालात बारीकी से देखें और समझें तो महाराज कहे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का असर कम, बल्कि एट्रोसिटी ऐक्ट से पैदा हुई दलितों और सवर्णों की भाजपा से नाराजगी ज्यादा थी.

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दलित इस बात से खफा थे कि भाजपा सवर्णों को शह दे रही है और इस मसले पर अदालत भी उस के साथ है, इस के उलट ऊंची जाति वाले इस बात से गुस्साए हुए थे कि संसद में अदालत के फैसले को पलट कर मोदी सरकार उन की अनदेखी करते हुए दलितों को सिर चढ़ा रही है, जबकि वे हमेशा उसे वोट देते आए हैं.

इसी इलाके में बड़े पैमाने पर एट्रोसिटी ऐक्ट को ले कर हिंसा हुई थी. इस का नतीजा यह हुआ कि इन दोनों ही तबकों के वोट भाजपा से कट कर कांग्रेस की झोली में चले गए और वह इस इलाके की 36 सीटों में से 26 सीटें ले गई.

भाजपा राज्य में 230 सीटों में से महज 109 सीटें ले जा पाई और कांग्रेस 114 सीटें ले जा कर बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों की मदद से अल्पमत की सही सरकार बना ले गई.

दिग्गज और तजरबेकार कमलनाथ ने बहैसियत मुख्यमंत्री जोरदार शुरुआत की जिस से लोगों को आस बंधी थी कि 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार भाजपा से बेहतर साबित होगी, लेकिन सवा साल में ही कांग्रेस की खेमेबाजी और फूट उजागर हुई तो हुआ वही जिस का हर किसी को डर था.

कमलनाथ और परदे के पीछे से सरकार हांक रहे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की अनदेखी शुरू कर दी नतीजतन वे राम भक्तों की पार्टी से जा मिले जिस के एवज में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा में ले लिया और उन के 22 समर्थक विधायकों की मदद से सरकार बना ली जिस की अगुआई एक बार फिर वही शिवराज सिंह चौहान कर रहे हैं, जिन्हें जनता ने 2018 में खारिज कर दिया था.

इतना ही नहीं, भाजपा ने सिंधिया समर्थक 14 विधायकों को मंत्री पद से भी नवाजा और वादे या सौदे के मुताबिक सभी को उन की सीटों से ही टिकट भी दिए.

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सब की हालत पतली

अब क्या ये सभी कांग्रेसी भाजपा के हो कर दौबारा जीत पाएंगे, यह सवाल बड़ी दिलचस्पी से सियासी गलियारों में पूछा जा रहा है जिस का सटीक जवाब तो 10 नवंबर को ही मिलेगा, पर इन नए भगवाइयों की हालत खस्ता है, जो पहले भाजपा की बुराई करते थकते नहीं थे और अब जनता को बता रहे हैं कि भाजपा क्यों कांग्रेस से बेहतर है. लेकिन ऐसा करते और कहते वक्त उन की आवाज में वह दमखम नहीं रह जाता जो 2018 के चुनाव प्रचार के वक्त हुआ करती था. कांग्रेस इन्हें गद्दार और दागी कह तो रही है, लेकिन उस के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर क्यों वह अपने विधायकों को बांधे रखने में नाकाम रही और क्यों उन्हें अपनी ही पार्टी की सरकार गिराने मजबूर होना पड़ा.

अब ज्यादातर सीटों पर मुकाबला कांग्रेस बनाम कांग्रेस छोड़ चुके नए भाजपाइयों के बीच हो रहा है. भाजपा को बहुमत के लिए 9 सीटें और चाहिए, जबकि कांग्रेस को सरकार बनाने पूरी 28 सीटों पर जीत की दरकार है. लेकिन राह दोनों की ही आसान नहीं है, तो इस की अपनी वजहें भी हैं. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पहले जैसे लोकप्रिय नहीं रह गए हैं और भाजपा कार्यकर्ता सिंधिया खेमे की खातिरदारी में जुटने से बच रहा हैं, क्योंकि उसे मालूम है कि ये जीत भी गए तो उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला. हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया जनता को यह बताने लगे हैं कि वे और उन के समर्थक दिलोदिमाग दोनों से भाजपाई हो चुके हैं. इस के लिए वे जयजय श्रीराम का नारा सड़कों पर आ कर लगाने लगे हैं और भाजपाई उसूलों पर चलते हुए संघ के दफ्तर की भी परिक्रमा करने लगे हैं.

दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को यह एहसास है कि उन के पास खासतौर से इस इलाके में जमीनी कार्यकर्ताओं का टोटा है और 16 में से कोई 10 सीटों पर सिंधिया खेमे के उम्मीदवारों की खुद की अपनी भी साख है जिसे तोड़ पाने के लिए उन के पास काबिल और लोकप्रिय उम्मीदवार नहीं हैं जिस की भरपाई करने वे सिंधिया की गद्दारी को चुनावी मुद्दा बनाने की जुगत में भिड़े हैं.

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भाजपा निगल रही बसपा वोट

कोई मुद्दा न होने और कोरोना महामारी के चलते वोटिंग फीसदी कम होने के डर से भी सभी पार्टियां हलकान हैं. ऐसे में जो पार्टी अपने वोटर को बूथ तक ले आएगी, तय है कि वह फायदे में रहेगी. साफ यह भी दिख रहा है कि कोरोना के डर के चलते बूढ़े वोट डालने नहीं जाएंगे. इस इलाके में कभी मजबूत रही बसपा अब दम तोड़ती नजर आ रही है. 2018 के चुनाव में वह यहां महज एक सीट जीत पाई थी जो अब तक का उस का सब से खराब प्रदर्शन था, इस के बाद भी 6 सीटों पर उस ने भाजपा और कांग्रेस दोनों का खेल बराबरी से बिगाड़ा था. बसपा के वोटरों पर इन दोनों पार्टियों की नजर है, जिस के चलते दोनों का दलित प्रेम उमड़ा जा रहा है.

मायावती का भाजपा के लिए झुकाव किसी सुबूत का मुहताज नहीं है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दलित समुदाय कई फाड़ हो चुका है. सामाजिक समरसता के जरीए भाजपा एससीबीसी तबके में थोड़ीबहुत ही सही सेंध लगा चुकी है. उसे उम्मीद है कि अगर इस तबके के 30 फीसदी वोट भी उसे मिले तो सवर्ण वोटों के सहारे दिनोंदिन मुश्किल होती जा रही इस जंग को वह जीत लेगी. दूसरी तरफ कांग्रेस को उम्मीद है कि पिछली बार की तरह ये वोट उसे ही मिलेंगे. बसपा के खाते में अब वही वोट जा रहे हैं जो 20 साल से उसे मिलते रहे हैं, लेकिन मायावती के ढुलमुल रवैए के चलते दलित नौजवान वोटर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी पार्टी हकीकत में उस की हिमायती है.

साख का सवाल

ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह साबित करने में पसीने आ रहे हैं कि 2018 की तरह वोट उन के नाम पर पड़ेंगे तो शिवराज सिंह भी यह साबित नहीं कर पा रहे हैं कि भाजपा और वे खुद पहले की तरह अपराजेय हैं, इसलिए उन्होंने ‘शिवज्योति ऐक्सप्रेस’ का नारा दिया है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की बूआ कैबिनेट मंत्री यशोधरा राजे भी अपने बबुआ के लिए हाड़तोड़ मेहनत कर रही हैं.

साख मायावती की भी दांव पर लगी है कि बसपा अगर इस बार भी सिमट कर रह गई तो आगे के लिए उस के दामन में कुछ नहीं रहेगा. कमलनाथ को भी साबित करना है कि वे एक बेहतर मुख्यमंत्री थे जो अपनों की ही साजिश का शिकार हुए थे.

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यानी अब जो जीता वह सिकंदर हो जाएगा और हारे के पास हरि नाम भी नहीं बचेगा, इसलिए सारे नेता वोटरों को लुभाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सब का सहारा ले रहे हैं, जिन्हें मालूम है कि यह चुनाव आम चुनाव से भी ज्यादा अहम उन के वजूद के लिए है और जानकारों की दिलचस्पी इस इलाके में बिहार के बराबर ही है. फर्क सिर्फ इतना है कि अगर कांग्रेस वोटर के दिमाग में यह बात बैठा पाई कि भाजपा ने जोड़तोड़ कर सरकार बना कर राज्य का भला नहीं किया है तो बाजी भगवा खेमे को महंगी भी पड़ सकती है, क्योंकि विकास और रोजगार के मुद्दों पर तो वोटर की नजर में दोनों ही पार्टियां नकारा हैं.

खेती जरूरी या मंदिर

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिस दिन (17 सितंबर) जन्मदिन था, भाजपा के कार्यकर्ता सरकार की उपलब्धियां गिनागिना कर जहां एकदूसरे को मिठाइयां बांट रहे थे, वहीं देश की कई जगहों पर किसानों को मारापीटा जा रहा था.

हरियाणा में किसान सरकार के खिलाफ मोरचा खोले बैठे थे. विरोध का आलम यह था कि इस प्रदर्शन से घबरा कर पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा था, जिस में कई किसानों को गंभीर चोटें आई थीं. पुलिस ने बुजुर्गों तक को नहीं छोड़ा था.

दरअसल, यह विरोध प्रदर्शन हरियाणा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसान कृषि क्षेत्रों में सुधार के लिए मोदी सरकार के 3 विधेयकों के खिलाफ कर रहे थे, जिस में उन की मांग थी कि इन कानूनों को तत्काल वापस लिया जाए.

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इस विधेयक के विरोध में हरियाणा में किसानों ने जम कर विरोध किया. यहां के प्रदर्शन कर रहे किसानों का मानना था कि जो अध्यादेश किसानों को अपनी उपज खुले बाजार में बेचने की इजाजत देता है, वह तकरीबन 20-22 लाख किसानों खासकर जाटों के लिए तो एक झटका ही है.

मगर किसानों की आवाज को सरकार दबाना चाहती थी, ताकि इस का असर दूसरे राज्यों में न फैले. इस वजह से प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पुलिस ने लाठियां भांजनी शुरू कर दीं. इस में किसी को गहरी चोटें आईं तो किसी के पैर की हड्डी टूट गई.

हरियाणा के एक किसान अरविंद राणा कहते हैं, “देश का पेट भरण आले किसान, देश की रक्षा करण आले किसान के बेटे, देश के भीतर कानून व्यवस्था बणाण आले सारे किसानों के बेटे, सारे व्यापारी, नेताअभिनेता और सारे अमीर आदमियां की सिक्योरिटी करण आले किसानों के बेटे, वोट दे कर सरकार बणाण आले किसान, देश की नींव किसान… और फिर भी अन्नदाता क लठ मारन का आदेश देते शर्म नहीं आई?”

गुस्सा बेवजह भी नहीं

सरकार के खिलाफ किसानों का गुस्सा बेवजह भी नहीं है, क्योंकि पहले नोटबंदी फिर जीएसटी और फिर कोरोना काल में पूरी तरह फिसड्डी रही सरकार ने एक बार फिर कृषि विधेयक बिल से देश के किसानों को खुश नहीं कर पाई.

किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कौरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इस का नुकसान किसानों को उठाना पड़ेगा.

किसान सौरव कुमार कहते हैं, “देश के किसानों की चिंता जायज है. किसानों को अगर बाजार में अच्छा दाम मिल ही रहा होता तो वे बाहर क्यों जाते? जिन उत्पादों पर किसानों को एमएसपी यानी समर्थन मूल्य ₹ नहीं मिलता, उन्हें वे कम दाम पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं.

“पंजाब में होने वाले गेहूं और चावल का सब से बड़ा हिस्सा या तो पैदा ही एफसीआई द्वारा किया जाता है या फिर एफसीआई उसे खरीदता है.”

वहीं प्रदर्शनकारियों को यह डर है कि एफसीआई अब राज्य की मंडियों से खरीद नहीं पाएगा, जिस से ऐजेंटों और आढ़तियों को तकरीबन 2.5 फीसदी के कमीशन का घाटा होगा.

इस का सब से बड़ा नुकसान आने वाले समय में होगा और धीरेधीरे मंडियां खत्म हो जाएंगी. इस से बेरोजगारी भी बढ़ेगी.

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अब पछता रहा हूं

कृषि मामलों के जानकार व खुद किसान रहे आदेश कुमार को मोदी सरकार से कोफ्त है. वे कहते हैं, “मैं ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भाजपा को वोट किया था, पर अब पछता रहा हूं.

“यह सरकार हर मोरचे पर फेल रही है और किसानों के लिए कभी कुछ नहीं कर पाई. पहले नोटबंदी फिर जीएसटी के बाद सरकार का कृषि का नया कानून देश के किसानों के खिलाफ है.

“अभी पिछले ही साल का एक वाकिआ बताता हूं. पैप्सिको ने भारत में 4 किसानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया. कंपनी का आरोप था कि ये किसान आलू की उस किस्‍म की खेती कर रहे थे, जो कि कंपनी द्वारा अपने लेज पोटेटो चिप्‍स के लिए विशेष रूप से रजिस्‍टर्ड है.

“तब किसान संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पैप्सिको का विरोध किया था. पैप्सिको ने नुकसान की भरपाई के लिए हर किसान से 1-1 करोड़ रुपए की मांग भी की.”

मालूम हो कि पैप्सि‍को भारत की सब से बड़ी प्रोसेस ग्रेड आलू की खरीदार है और यह उन पहली कंपनियों में से एक है जो आलू की विशेष संरक्षित किस्‍म को खुद के लिए उगाने के लिए हजारों स्‍थानीय किसानों के साथ काम कर रही है.

तब किसान संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पैप्सिको के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग की थी और अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि भारतीय कृषि कानून के तहत संरक्षित फसल को उगाना और उसे बेचना किसानों का अधिकार है.

किसानों को इसलिए भी डराया और कानूनी रूप से प्रताड़ित किया गया, ताकि किसान डर जाएं और इस फसल की खेती ही न करें.

किसानों ने सरकार को चिट्ठी भी लिखी थी जिस में उन्होंने आरोप लगाए थे कि पैप्सिको ने तथाकथित आरोपी किसानों के पास प्राइवेट जासूसों को संभावित ग्राहक बना कर भेजा, चुपचाप उन के वीडियो बनाए और आलू के सैंपल हासिल किए.

रोजगार जरूरी मंदिर नहीं

आदेश बताते हैं, “असल में सरकार की मंशा ही सही नहीं है. अगर देश में खुशहाली नहीं रहेगी, बेरोजगारी चरम पर होगी, नौकरियां खत्म हो जाएंगी, किसानों की सुनी नहीं जाएगी तो सरकार पर सवालिया निशान लगना वाजिब है.

“हमें न मंदिर चाहिए न मसजिद, पहले बेरोजगारी तो खत्म करो. किसान, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है उन के लिए तो कुछ करो. पहले से मरे किसानों को सरकार और मार रही है.”

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अपने ही खेत में मजदूर

आदेश कहते हैं, “2 राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के प्रावधान पर भी भरम की हालत है. 80-85 फीसदी छोटे किसान एक जिले से दूसरे जिले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. यह बिल बाजार के लिए बना है, किसानों के लिए नहीं.”

“इस प्रावधान से किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर हो जाएगा. काला बाजारी को बढ़ावा मिल सकता है.”

आखिर क्या है इस बिल में

जिन विधेयकों को मंजूरी मिली है उस में कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य विधेयक 2020 और कृषक कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 शामिल हैं.

कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 के तहत किसान या फिर व्यापारी अपनी उपज को मंडी के बाहर भी दूसरे जरीयों से आसानी से व्यापार कर सकेंगे.

इस बिल के मुताबिक राज्य की सीमा के अंदर या फिर राज्य से बाहर, देश के किसी भी हिस्से पर किसान अपनी उपज का व्यापार कर सकेंगे. इस के लिए व्यवस्थाएं की जाएंगी. मंडियों के अलावा व्यापार क्षेत्र में फौर्मगेट, वेयर हाउस, कोल्डस्टोरेज, प्रोसैसिंग यूनिटों पर भी बिजनैस करने की आजादी होगी.

मगर असल में भारत में छोटे किसानों की तादाद ज्यादा है, तकरीबन 80-85 फीसदी किसानों के पास 2 हैक्टेयर से कम जमीन है, ऐसे में उन्हें बड़े खरीदारों से बात करने में परेशानी होती आई है. इस के लिए वे या तो बड़े किसान या फिर बिचौलियों पर निर्भर होते थे. अब उन्हें फसल बेचने के लिए खुद पहल करनी होगी और यह पूरी संभावना है कि किसानों को इन प्रकियाओं से गुजरने में हिचक होगी या फिर उन्हें समझ ही नहीं आएगा कि वे फसल कहां और कब बेचें.

खुद भाजपा की वरिष्ठ नेता रहीं सुषमा स्वराज ने साल 2012 में सदन में किसानों की दशा और दिशा पर वर्तमान सरकार का ध्यान खींचने की कोशिश की थी.

सुषमा स्वराज ने बताया था कि किस तरह किसान अपने ही फसल को नहीं बेच पाते और आश्चर्य तो यह कि देश में पोटैटो चिप्स बनाने वाली कंपनियां देश के किसानों द्वारा तैयार फसल से चिप्स न बना कर विदेशी आयातित आलूओं से चिप्स बना कर बेचती हैं.

राज्य सरकारों की चिंता

किसानों की इन चिंताओं के बीच राज्‍य सरकारों खासकर पंजाब और हरियाणा को इस बात का डर सता रहा है कि अगर निजी खरीदार सीधे किसानों से अनाज खरीदेंगे तो उन्‍हें मंडियों में मिलने वाले टैक्‍स का नुकसान होगा, इसलिए कई राज्यों के सरकार भी इस का विरोध कर रहे हैं. खुद सरकार की सहयोगी रही अकाली शिरोमणि दल भी सरकार के इस फैसले से सहमत नहीं दिखी और पार्टी की वरिष्ठ नेता हरसिमरन कौर बादल ने केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने बिल को ले कर सवाल उठाए और अपने ट्वीटर हैंडल पर उन्‍होंने लिखा, ‘अगर ये बिल किसान हितैषी हैं तो समर्थन मूल्य का जिक्र बिल में क्यों नहीं है? बिल में क्यों नहीं लिखा है कि सरकार पूरी तरह से किसानों का संरक्षण करेगी? सरकार ने किसान हितैषी मंडियों का नैटवर्क बढ़ाने की बात बिल में क्यों नहीं लिखी है? सरकार को किसानों की मांगों को सुनना पड़ेगा.’

हालांकि जिस समर्थन मूल्य को ले कर किसानों और विपक्ष को एतराज है सरकार ने उस को पूरी तरह साफ नहीं किया है. दरअसल, किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू है. अगर कभी फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल खरीदती है, ताकि किसानों को नुकसान से बचाया जा सके.

किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है और इस के तहत अभी 23 फसलों की खरीद की जा रही है. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिशों के आधार पर एमएसपी तय की जाती है.

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आम आदमी पार्टी के नेता नीरज गुप्ता कहते हैं, “जब आप मजदूरी करने जाते हैं तो सरकार द्वारा मिनिमम भत्ता तय किया हुआ होता है.

“इस को इस तरह से समझना होगा कि प्राइवेट नौकरी में अनुभव और योग्यता के आधार पर पे स्केल तय होता है. सरकारी नौकरियों में पे ग्रेड होता है यानी किसी भी काम में कम से कम आप को क्या मिलेगा यह तय है, तो अकेले किसान का क्या कुसूर है कि उस के लिए उस एमएसपी को ही हटाया जा रहा है?

“प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि एमएसपी नहीं हट रहा तो उसे लिखने में क्या गुरेज है? पिछले कुछ दिनों का इतिहास उठा कर देखिए, ओला व उबर जैसी कंपनियों की वजह से कितनी कारें सड़कों पर आ गईं आज वे सब कौड़ियों के दाम बिकने को तैयार हैं. इस बिल से किसान जो कुछ भी कमाता रहा है, वह भी उसे नहीं मिलेगा.”

नोटबंदी जैसा हश्र होगा

किसान परिवार से संबंध रखने वाले संदीप भोनवाल कहते हैं, “सरकार द्वारा किसानों के लिए लाए हुए अध्यादेश ठीक उसी तरह साबित होंगे जिस तरह सरकार ने कुछ साल पहले नोटबंदी कर के देश को किया था. तब सरकार ने कहा था कि इस से देश को फायदा होगा, लेकिन आज तक एक भी फायदा नोटबंदी से देश को नहीं दिखा.

“ठीक उसी तरह जो ये बिल सरकार किसानों के लिए ले कर आई है, आने वाले समय में इस के नतीजे ठीक नोटबंदी की तरह ही घातक होंगे.

“इस बिल की सब से गलत बात यह भी लगी कि कोई भी किसानों का संगठन सरकार ने अपने दायरे में ले कर उस बिल का निर्माण नहीं कराया. अब आप ही समझें कि जो बिल किसानों के लिए बन रहा है अगर उस में किसानों की ही राय  शामिल न हो तो ऐसे बिल का क्या फायदा?”

किसान कुदरत की मार तो जैसेतैसे झेल जाते हैं लेकिन देश की दोहरी आर्थिक नीतियां उन का मनोबल तोड़ कर रख देती हैं.

किसानों द्वारा खुदकुशी

पिछले दिनों राजस्थान के एक किसान सुरेश कुमार ने इसलिए फांसी लगा ली क्योंकि वह कर्ज से फंसा पड़ा था. बीते कुछ साल से उन की फसल अच्छी नहीं हुई थी और जो हुई उस के भी वाजिब दाम नहीं मिल पाए. इस दौरान सुरेश कुमार पर कर्ज  बढ़ता गया.

मध्य प्रदेश के एक किसान संत कुमार सनोडिया ने इसलिए जहर खा कर जान दे दी, क्योंकि बेची गई फसल के एवज में उसे 4 महीने सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े, मगर फिर भी पैसे नहीं मिले.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक बीते तकरीबन 20 सालों में देशभर के 3 लाख से ज्यादा किसानों को खुदकुशी करने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

एनसीआरबी की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में कृषि क्षेत्र से जुड़े 10,349 लोगों ने खुदकुशी कर ली थी. वहीं साल 2017 में यह आंकड़ा 10,655 था.

राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के एक सर्वे के मुताबिक देश के आधे से ज्यादा किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं और एक स्टडी के मुताबिक हर तरफ से निराश हो चुके देश के 76 फीसदी किसान खेती छोड़ कर कुछ और करना चाहते हैं.

आर्थिक सर्वे 2018-19 के आंकड़े भी बताते हैं कि साल 2016-17 की तुलना में कृषि की सकल मूल्य वृद्धि (जीवीए) में तकरीबन 54 फीसदी की कमी देखी गई है.

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चौपट अर्थव्यवस्था

रहीसही कसर कोरोना ने पूरी कर दी. कोरोना काल में अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लगा तो इस ने 40 साल का रिकौर्ड तोड़ दिया. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. कोरोना काल में पहली तिमाही में देश का सकल घरेलू उत्पादन वृद्धि दर जीरो से 23.9 फीसदी नीचे चली गई है.

इस से बेरोजगारी दर में भी इजाफा हुआ. सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी (सीएमआईई) ने देश में बेरोजगारी पर सर्वे रिपोर्ट जारी किया है. इस सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक 3 मई को खत्म हुए हफ्ते में देश में बेरोजगारी दर बढ़ कर 27.1 फीसदी हो गई है, वहीं अप्रैल, 2020 में देश में बेरोजगारी दर बढ़ कर 23.5 फीसदी पर पहुंच गई थी.

सरकारी उदासीनता की वजह से देश में कई उद्यम बंद हो गए हैं. बेरोजगारी की दर शहरी क्षेत्रों में सब से ज्यादा बढ़ी है.

सीएमआईई ने अंदाजा लगाया गया है कि अप्रैल में दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों और छोटे व्यवसायी सब से ज्यादा बेरोजगार हुए हैं. सर्वे के मुताबिक 12 करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरी गंवानी पड़ी है. इन में फेरी वाले, सड़क के किनारे सामान बेचने वाले, निर्माण उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी और कई लोग शामिल हैं.

मगर सरकार को इन सब से कोई चिंता नहीं. लोगों को रोजगार चाहिए, रोटी चाहिए पर भाजपा शासित राज्यों में वहां की सरकारों को इस से कुछ लेनादेना नहीं.

राम की चिंता किसानों की नहीं

भाजपा शासित राज्य उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बेरोजगारी पर भले कुछ ध्यान न दे रही हो, मगर राज्य में मंदिरों व तीर्थस्थलों में जम कर पैसा बहाया जा रहा है.

योगी सरकार की अयोध्या में राम के नाम पर लगभग 135 करोड़ रुपए खर्च करने की तैयारी है. यह रकम उसे केंद्र सरकार देगी.

इस पैसे से योगी सरकार अयोध्या को सजाएगीसंवारेगी. राम और दशरथ के महल और राम की जलसमाधि वाले घाटों पर रौनक बढ़ाया जाएगा.

योगी सरकार उत्तर प्रदेश में रामलीला स्थलों में चारदीवारी निर्माण के लिए 5 करोड़ रुपए भी खर्च करेगी. मगर भगवा रंग में रंगी सरकार से यही उम्मीद भी है, क्योंकि राम के नाम पर राजनीति तेज है और देश के किसानों की हालत भी राम भरोसे से कम नहीं. अब देश के किसानों को थाली और ताली बजाने के सिवा और कोई रास्ता भी तो नहीं दिख रहा.

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राजनीति के मंजे खिलाड़ी साबित हो रहे हैं तेजस्वी यादव

बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही चुनावी सरगर्मी बढ़ गई है. एक तरफ राजग गठबंधन है, तो दूसरी तरफ महागठबंधन. महागठबंधन की अगुआई नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश के उपमुख्यमंत्री रह चुके तेजस्वी यादव के हाथ में है. एक तरफ राजग गठबंधन में मंजे हुए राजनीतिबाज हैं तो दूसरी तरफ 30 साल का नौजवान नेता तेजस्वी यादव उन्हें चुनौती देने के लिए मुस्तैदी के साथ खड़ा है.

तेजस्वी यादव वर्तमान में बिहार विधायक दल के नेता प्रतिपक्ष हैं. वे बिहार विधानसभा में राघोपुर से विधायक हैं. वे खासकर नौजवानों के चहेते नेता के रूप में उभरे हैं. उन के ट्विटर हैंडल पर 20 लाख से भी जायद फालोअर हैं. तेजस्वी यादव जैसे नौजवान चेहरे से बिहार के लोगों में एक नई उम्मीद जगी है.

तेजस्वी यादव वर्तमान सरकार के मुखिया नीतीश कुमार और उन के सहयोगी दल भाजपा को हर मुद्दे पर घेरने की कोशिश कर रहे हैं. इस कोरोना काल में हो रहे चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर वे काफी ऐक्टिव हैं. लोगों को अपनी बात सोशल मीडिया और अपने कार्यकर्ताओं के जरीए जनजन तक ले जाने की कोशिश कर रहे हैं.

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कृषि सुधार बिल और बेरोजगारी जैसे मुद्दे को तेजस्वी यादव चुनावी मुद्दा बनाने जा रहे हैं. तेजस्वी यादव का कहना है कि किसानों ने बड़ी उम्मीद के साथ केंद्र में भाजपा की सरकार बनाई थी, लेकिन अब उन के पेट पर ही प्रहार होने लगा है. शिक्षा, स्वास्थ्य के बाद कृषि को भी पूंजीपतियों के हाथों बेचा जा रहा है. किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बाध्यता खत्म की जा रही है. किसान पूंजीपतियों के खिलाफ कोर्ट नहीं जा सकते. राज्य सरकार ने इस बिल का समर्थन कर के यह साबित कर दिया है कि वह राज्य के 70 फीसदी किसानों का भला नहीं चाहती है. इस सरकार को किसान तबके की जान की रत्तीभर भी परवाह नहीं है.

तेजस्वी यादव ने यह ऐलान कर दिया है कि किसानों के हकों की हिफाजत के लिए राजद का कृषि बिल के खिलाफ संसद से सड़क तक विरोध जारी रहेगा. नए कृषि बिल के जरीए सरकार किसानों को बरबाद करना चाहती है. उन की पार्टी इसे बरदाश्त नहीं करेगी. किसान विरोधी बिल का विरोध करते हुए उन्होंने ट्रैक्टर का स्टेयरिंग थामे हुए विरोध प्रदर्शन किया.

बेरोजगारी जैसे मुद्दे पर तेजस्वी यादव का कहना है कि बिहार में हर जातिधर्म के नौजवान बेरोजगारी से बेहाल हैं. राजग के लोग नौजवानों और बेरोजगारों को जातिधर्म के जाल में उलझाए रखना चाहते हैं, ताकि उन का सत्ता रूपी रोजगार चलता रहे. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थक चुके हैं. उन पर उम्र का असर साफ दिखाई पड़ रहा है. वे रूढ़िवादी और अहंकारी सोच के चलते बिहार के करोड़ों नौजवानों के सपनों को साकार करने में नाकाम साबित हो रहे हैं.

पिछले दिनों तेजस्वी यादव ने एक मंजे हुए नेता की तरह लोगों से अपील की थी कि अगर 15 साल के लालूराबड़ी शासनकाल में गलतियां हुईं तो वे उस के लिए माफी चाहते हैं. एक बार उन्हें मौका दे कर देखें. अगर मौका मिला तो वे किसी को निराश नहीं होने देंगे.

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बिहार के अवाम से उन्होंने अपील की कि अगर वह एक कदम आगे बढ़ेंगी तो वे चार कदम आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं. उन्हें एक मौका दे कर देखें.

युवा राजद के राष्ट्रीय महासचिव ऋषि कुमार ने दिल्ली प्रैस को बताया कि वर्तमान सरकार से इस प्रदेश की जनता तंग आ चुकी है. वह इसे हर हाल में बदलेगी. तेजस्वी यादव की अगुआई में बिहार का कायाकल्प होगा. तेजस्वी यादव उत्साही, लगनशील और कर्मठ नौजवान हैं. बिहार को आगे बढ़ाने के लिए उन का एक अलग विजन है. बिहार को आगे बढ़ाने में वे हर हाल में खरा उतरेंगे.

न्याय करता ‘गुंडों का गैंग’

भीड के रूप में ‘गुंडो का गैंग’ बनाकर न्याय देने का चलन नया नहीं है. महाभारत में द्रोपद्री का गुनाह इतना था कि वह अंधेपन पर हंस दी थी. द्रोपदी को दंड देने के लिये जुएं में उसका छलपूर्वक जीता गया और भरी सभा में अपमानित करके दंड दिया गया. सभा भीड का ही एक रूप थी. औरत के अपमान पर मौन थी. ऐसी तमाम घटनायें धार्मिक ग्रंथों में मौजूद है. यही कहानियां बाद में कबीलों में फैसला देने का आधार बनने लगी. देश की आजादी के बाद कबीले खत्म हो गये पर उनकी संस्कृति खत्म नहीं हुई. कबीलों की मनोवृत्ति ‘खाप पंचायतो’ में बदल गई. कानूनी रूप से खाप पंचायतो पर रोक लगी तो भीड के रूप में न्याय देने की शुरूआत हो गई. इनको राजनीति से ताकत मिलती है. भीड के रूप में उमडी जनता ने 1992 में अयोध्या में ढांचा ढहा दिया. जिन पर आरोप लगा वह हीरो बनकर समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे है. मजेदार बात यह है कि ढांचा ढहाने की जिम्मेदारी भी कोई लेने को तैयार नहीं है. कानून के समक्ष चैलेंज यह है कि भीड के रूप में किसको सजा दे ? भीड के रूप को तय करने की उहापोह हालत ही अपराध करने वालों को बचने का मौका दे देती है.

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कन्नौज जिले के कोतवाली क्षेत्र के बनियान गांव में शिवदेवी नामक की महिला अपने मायके में रहती थी. शिवदेवी के पति की मौत हो चुकी थी. उसके अपने 5 बच्चे भी थे. पति की मौत के बाद ससुराल वालों के व्यवहार से दुखी होकर शिवदेवी अपने मायके रहने चली आई थी. यहां भी परिवार के लोग उसका साथ नहीं दे रहे थे. ऐसे में गांव के ही रहने वाले दीपक ने उसकी मदद करनी शुरू की. दीपक दिव्यांग था. वह अक्सर समय बेसमय भी जरूरत पडने पर शिवदेवी के घर आ जाता था. शिवदेवी के चाचा और उनके परिजनों को यह बुरा लगता था. 24 अगस्त 2020 को दीपक शिवदेवी से मिलने उसके घर आया तो शिवदेवी के चाचा और उनके लडको ने उसे और शिवदेवी को कमरे में बंद करके पीटना शुरू कर दिया. इसके बाद अगले दिन बुद्ववार की सुबह दोनो के सिर मुंडवाकर मुंह पर कालिखपोत कर, गले में जूतों की माला पहनाकर, डुगडुगी बजाकर पूरे गांव में जुलूस बनाकर निकालना शुरू कर दिया.

मुंह पर कालिख पोते, गले में जूतों की माला पहने शिवदेवी और दीपक भीड के द्वारा पूरे गांव में घुमाये जा रहे थे. गांव के बच्चे, महिलायें, बडेबूढे इस तमाषें को देख रहे थे. कुछ लोग इसका वीडियों भी बना रहे थे. वीडियों बनाकर वायरल भी कर दिया गया. जिसकी आलोचना षुरू हो गई. इसके बाद पुलिस गांव पहुंची तो भीड से किसी तरह से दोनो को छुडाकर थाने लाई. शिवकुमारी और दीपक को थाने में नजरबंद किया गया. पुलिस ने भीड के खिलाफ मुकदमा कायम करने की बात कही. भीड का यह न्याय केवल कन्नौज भर तक सीमित नहीं है. पूरे देश में भीडतंत्र ‘गुंडो का गैंग’ बनाकर न्याय देने का काम करने लगा है. यही घटना जब हिन्दू मुसिलम के बीच होती है तो ‘मौब लिन्चिग‘ मान लिया जाता है.

जैसा नेता वैसी प्रजा:

कहावत कि ‘जैसा राजा वैसी प्रजा‘ कन्नौज में भी यह कहावत पूरी तरह से फिट बैठती है. कोरोना काल में सही तरह से काम ना करने का आरोप लगाते हुये कन्नौज के भाजपा सासंद सुब्रत पाठक ने कन्नौज के दलित तहसीलदार अरविंद कुमार और लेखपाल को उनके घर में घुसकर पीटा. सांसद अकेले नहीं थे वहां पर 25 से अधिक उनके समर्थक थे. पीटे गये तहसीलदार ने न्याय की गुहार लगाई. विपक्ष के नेता अखिलेश यादव और मायावती भी घटना के विरोध में बयान देने लगे. इसके बाद पुलिस ने मुकदमा कायम कर पूरे मामलें की लीपापोती कर दी. अखिलेश यादव ने कहा कि ‘संासद के द्वारा एक दलित अफसर को पीटा जाना सरकार के चरित्र का बताता है‘.

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मायावती ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कडे कदम उठाने की मांग की. सरकार ने कोई ऐसा कडा कदम उठाया नही. जो नजीर बन सके. इससे भयभीत होकर तहसीलदार अरविंद कुमार कर पत्नी अलका रावत ने कहा कि यहां हमें खतरा है इसलिये हमारा तबादला कहीं और कर दिया जाये. सांसद को किसी भी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ कदम उठाने का अधिकार है. पर इस तरह से किसी अफसर को घुसकर उसके औफिस में पीटना सहीं नहीं है. जब नेता इस तरह से अपने काम करता है तो जनता भी उसी की राह पर चलने लग रही है. उसे भी कानून और पुलिस पर भरोसा नहीं रहा. वह ‘गुंडों का गैंग’ बनाकर खुद की फैसला करने लगी है.

मौब लिन्चिग‘ बनाम ‘गुंडो का गैंग’:

हिन्दू मुसलिम विवाद में भीड तंत्र के काम को ‘मौब लिन्चिग‘ का नाम दिया जाता है. भीड केवल अगल धर्म के लोगों के साथ ही भीड का रूप रखकर न्याय नहीं करती है अपने धर्म में भी यह भीड खूब न्याय करती है. यह न्याय ‘गुंडो का गैंग’ करता है. जिसे प्रषासन और सरकार का समर्थन हासिल होता है. उनको लगता है कि सरकार के बहाने वह प्रषासन को दबा लेगे. दबाव में पुलिस दरोगा उनके खिलाफ कोई काररवाई नहीं कर सकेगी. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आने के बाद ऐसी घटनाओं में ‘गुंडो के गैंग’ द्वारा भगवा कपडे या गमछा ले लिया जाता है. जिससे पुलिस को लगे की यह सरकार के आदमी है.

डायन, बाइक चोर, गौ-तस्कर, बच्चा चोर, हिंदू- मुस्लिम विवाद, धर्म का अपमान न जाने क्या-क्या कारण ढूंढ भीड़ बिना सुनवाई के सड़क पर ‘न्याय‘ करने लगी है. भीड़ आरोपी को बिना किसी सुनवाई के मौत के घाट उतार देती है. लोकतंत्र का अर्थ देश की जनता भूल गई है. झारखंड के खूंटी जिले के पास कर्रा में दिव्यांग व्यक्ति की गोकशी के संदेह में पीटकर हत्या कर दी जाती है. गुजरात के जामनगर जिले में चोर होने के शक में सात लोगों के एक समूह ने एक अज्ञात व्यक्ति की कथित तौर पर लाठी-डंडों से पिटाई कर दी. दरभंगा में चोरी के शक में एक युवक को भीड़ ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया, अस्पताल में उसकी मौत हो गई. झारखंड में तबरेज अंसारी को भीड़ द्वारा चोरी के शक में पकडा गया था, शक चोरी का था लेकिन उससे जय श्रीराम का नारा लगवाया जा रहा था. उसने जय श्री राम भी बोला और जय हनुमान भी, लेकिन मर चुकी मानवीय संवेदना को कहा फर्क पड़ने वाला था. वो उसे घंटों पीटते गए. तबरेज ही नहीं इससे पहले अखलाक और पहलू खान के साथ भी यही हुआ.

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छूट जाते है आरोपी:

भीड में ‘गुंडो का गैंग’ अपना काम कर जाता है और प्रषासन, पुलिस और कोर्ट इनको कोई सजा नहीं दे पाते. जिसके कारण आरोपियों के हौसले बुलंद होते है. भीड के द्वारा मारे गये लोगो के कई मामलों में ऐसा ही हुआ है. षाहजहांपुर में पुलिस के इंसपेक्टर की हत्या भीड के द्वारा की जाती है. आरोपी जमानत पर छूट कर बाहर आता है तो भगवा गैंग के लोग उसको सम्मान करते है. भीड के सामाजिक और मनोविज्ञानिक व्यवहार को देखे तो पता चलता है कि किसी घटना में एक व्यक्ति या संस्था के द्वारा भीड को भडकाया जाता है. भीड को भडकाने के बाद वह दूर से तमाषा देखता है. भीड के रूप में अपराध करने वाले दूसरे लोग होते है. पुलिस भडकाने वाले के खिलाफ मुकदमा कायम करके उसको हीरो बना देती है. कोई सबूत एकत्र नहीं किया जाता जिसकी वजह से भडकाने वाले व्यक्ति को अदालत छोड देती है. भीड के रूप में अपराध करने वाला कभी कानून की पक डमें नहीं आता है.

भीड के रूप में न्याय करने वाले हमेषा बहुसंख्यक होते है. यह जाति, धर्म, भाशा, बोली और क्षेत्रवाद के रूप मे अलग अलग हो सकते है. कहीं उत्तर भारत के रहने वालों पर भीड हमला करती है कहीं नार्थ ईस्ट के रहने वालों पर भीड हमला करती है तो कहीं उत्तर प्रदेश और बिहार के रहने वालों को इसका षिकार बनाया जाता है. जहां जैसी जरूरत होती है वहां वैसा फैसला भीड करती है. भीड के काम का श्रेय लेने वाले भी होते है पर कानून के सामने यह जिम्मेदारी नहीं लेते. देश में राममंदिर विवाद में अयोध्या का ढांचा ढहाया जाना सबसे बडी मिसाल है. भीड को भडकाने वालों ने राजनीति की. उसके बल पर कुर्सी हासिल की. जब अदालत ने पूछा तो सबसे इंकार कर दिया कि उन्होने भीड को भडकाया था.

भीड का बचाव है डायन-बिसाही जैसी प्रथायें:

बिहार और झारखंड से डायन-बिसाही जैसी कुप्रथा और अंधविश्वास की आड में भीड डायन बताकर औरतों को पीटपीट कर मार देती है. इसके तहत मारी गई औरतों की सबसे अधिक संख्या विधवाओं की होती है. इसकी वजह केवल यह होती है कि इनको मार दो जिससे जमीन जायदाद में हिस्सा ना देना पडे. रांची से तकरीबन 10 किलोमीटर दूर नामकुम के हाप पंचायत के बरूडीह में 55 वर्षीय चामरी देवी को डायन बताकर उनके ही परिवारवालों ने मार डाला था. इस मामले में सूमा देवी के परिवार के ही फौदा मुंडा, उनके बेटे मंगल मुंडा और रूसा मुंडा, खोदिया मुंडा समेत पांच लोगों पर आईपीसी की धारा 302 और 34 के तहत मामला दर्ज किया गया है.

इस तरह की एक नहीं तमाम घटनायें है. एनसीआरबी की रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2017 में झारखंड में डायन बताकर हत्या के 19 मामले समाने आए हैं. झारखंड पुलिस के अनुसार 2017 में ऐसी हत्याओं की संख्या 41 थी. 2016 में एनसीआरबी के हिसाब से राज्य में 27 औरतों को डायन बताकर मार दिया गया. झारखंड पुलिस के अनुसार यह आंकड़ा 45 है. साल 2015 में एनसीआरबी ने यह संख्या 32 बताई और झारखंड पुलिस ने 51. इसके बाद भी डायन और बिसाही बताकर भीड के द्वारा औरतों को मारने की आजादी पर रोक लगाने की बात कोई नहीं कर रहा है.

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एनसीआरबी के पांच साल के आंकड़ें बताते है कि भारत भर में डायन-बिसाही के नाम 656 हत्याएं हुई हैं. झारखंड में 2011 से लेकर सितंबर 2019 तक डायन-बिसाही के नाम पर 235 हत्याएं हुई है. सामाजिक संस्थाओं के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 1992 से लेकर अब तक 1800 महिलाओं को सिर्फ डायन, जादू-टोना, चुड़ैल होने और ओझा के इशारे पर मारा गया. झारखंड में डायन-बिसाही का शिकार होने वाली महिलाओं में 35 प्रतिशत आदिवासी और 34 प्रतिशत दलित हैं. बिहार में ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 1999’ लागू होने के बाद वहां घटनायें जारी है. देश में न्याय कानून और संविधान से नहीं भीड के तंत्र और गंुडों के गैंग से चलता है. भीड पर सही फैसला ना होने के कारण हौसला बढता जा रहा है. भीड का न्याय रूकने का नाम नहीं ले रहा है.

मास्क तो बहाना है असल तो वोटरों को लुभाना है

बौलीवुड अभिनेत्री रवीना टंडन के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मधुबनी में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों द्वारा तैयार किए गए मास्क के मुरीद हो गए हैं, मगर आश्चर्य की बात यह है कि देश के प्रधानमंत्री को मधुबनी पेंटिंग्स की तब याद आई जब बिहार विधानसभा चुनाव में कुछ ही दिन शेष रह गए हैं.

यों बिहार का मिथिला अथवा मधुबनी पेंटिंग पूरे विश्व में मशहूर है. कभी शादीविवाह के दौरान दूल्हादुलहन के कोहबर (सुहागरात का कमरा) में गांव की महिलाएं इस पेंटिंग को बना कर कमरे को सजाती थीं, लेकिन धीरेधीरे यह पेंटिंग लोकप्रिय होती गई और अब तो इस पेंटिंग की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है.

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मोदी राज में बेबस बुनकर

प्रधानमंत्री मोदी के मधुबनी पेंटिंग पर बयान के बाद मधुबनी के राष्ट्रीय जनता दल के विधायक समीर कुमार महासेठ कहते हैं,”देखिए, मोदीजी को अब मधुबनी पेंटिंग और इस कला से जुङे कलाकारों की याद आई तो यह अच्छी बात है. देर आए दुरूस्त आए, लेकिन सचाई यही है कि इस कला के कलाकारों, बुनकरों के लिए केंद्र सरकार ने कुछ भी नहीं किया है. पिछले 15 साल से बिहार की कुरसी संभाले नीतीश सरकार ने तो कोई सुध तक नहीं ली.

“आज भी मधुबनी के सैकड़ों बुनकरों को राष्ट्रीयकृत बैंकों में ब्लैक लिस्टेड कर दिया गया है और बैंक वाले उन्हें  लोन तक नहीं देते.”

समीर बताते हैं,”आज देश के कई जगहों पर मधुबनी पेंटिंग के नाम पर पेंटिंग्स बना कर खूब पैसा बनाया जा रहा है मगर यहीं के लोग, खासकर वे जो इस कला से जन्मजात रूप से जुङे हैं बेरोजगार हैं और बाजार में पहचान बनाने के लिए छटपटा रहे हैं.”

अब जबकि देश में कोरोना कहर बरपा रहा है लोगों के लिए मास्क और सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करना जरूरी हो गया है, घरों की

दीवारों से कागज, फिर कपड़े और खिलौनों के बाद मास्क पर पेंटिंग ने इस कला को नई पहचान जरूर दी है.

मछली, फूलपत्ती, पशुपक्षियों की पेंटिंग वाले सूती कपड़े का 2-3 लेयर वाला मास्क लोगों को खूब लुभा रहा है.

साहब मुश्किल से घर चला पाता हूं

मधुबनी जिले के रहने वाले प्रभात बाबा ऐसे कलाकारों में से एक हैं जो एक दुकान ही मधुबनी पेंटिंग्स की चलाते हैं. दुकान में ग्राहक कम ही आते थे. पर अब वे घर से ही मास्क बनाते हैं. डिमांड बढ़ा तो उन्होंने 3-4 बुनकरों को भी रख लिया है जो कपङों से बने मास्क पर मधुबनी पेंटिंग का काम करते हैं.

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प्रभात कहते हैं,”इस काम में मेरे साथ परिवार के अन्य लोग भी सहयोग दे रहे हैं. मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क को लोग बाजार में ₹70 से 100 तक में आसानी से खरीद लेते हैं. इस से कुछ कमाई भी हो जाती है.”

वे बताते हैं,”साहब हम गरीब लोग हैं. हाथों में हुनर है पर सरकार अगर ध्यान दे तो इस कला के माध्यम से लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है.

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“कोरोना से लोग डरे हुए हैं पर इस की वजह से हम आज कुछ कमा भी रहे हैं वरना तो घर चलाना भी मुश्किल होता था.”

वहीं समस्तीपुर के रहने वाले कलाकार अजय कुमार बताते हैं कि एक मास्क तैयार करने में करीब ₹35-50 की लागत आ रही है. एक कलाकार प्रतिदिन 25-30 मास्क तैयार कर लेता है. इस से रोज  ₹1-2 हजार की आमदनी जरूर हो जा रही है.

मधुबनी के ही रहने वाले हीरानंद को खुशी है कि वे मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क लगा कर बाहर निकलते हैं.

वे कहते हैं,”मिथिला की अपनी एक खास पहचान है. फिर मधुबनी पेंटिंग का तो जवाब ही नहीं.

“कोरोना वायरस से बचाव के लिए मास्क पहन कर बाहर निकलने से संक्रमण का खतरा कम होता है. मैं मधुबनी पेंटिंग वाला खास डिजाइनर मास्क पहनता हूं. इस से मैं मिथिला कल्चर से जुङाव महसूस करता हूं.”

दिल्ली सरकार ने मिथिला को नई पहचान दी है

दिल्ली सरकार में मैथिली भोजपुरी अकादमी के वाइस चेयरमैन, नीरज पाठक ने बताया,”दिल्ली सरकार शुरू से ही, चाहे वह लोकसंगीत हो या फिर लोककला, इस क्षेत्र से जुङे लोगों को तवज्जो देती आई है. सरकार समयसमय पर मैथिलीभोजपुरी गीतसंगीत व कला का आयोजन भी करती आई है और यह आगे भी जारी रहेगा. दिल्ली सरकार हाल ही में कई लोगों को सम्मानित भी कर चुकी है.”

नीरज कहते हैं,”मधुबनी पेंटिंग दुनियाभर में मशहूर है. अब तो विदेशों में भी इस कला को नाम और दाम दोनों मिल रहे हैं.

“मधुबनी पेंटिंग कलाकारों द्वारा बनाए जा रहे मास्क फैशन में शुमार हो चुका है. मास्क की लोकप्रियता से इस काम से जुङे लोगों के लिए न सिर्फ रोजगार के अवसर बढेंगे, बल्कि इस से इस पेंटिंग को नई पहचान मिलेगी.”

चौपट रोजगार बेहाल व्यवसायी

यों नोटबंदी, जीएसटी लागू करने और फिर कोरोनाकाल में लागू लौकडाउन के बाद व्यवसायिक क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित है.

एक तो जीएसटी ने व्यवसायियों की कमर तोङ दी व फिर कोरोना वायरस महामारी के बाद बाजार पूरी तरह चौपट हो गया है.

लेकिन सुखद बात यह है कि इसी कोरोनाकाल में मधुबनी पेंटिंग के कलाकारों द्वारा तैयार किए मास्क की बाजार में धूम है.

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पहले से कङकी में जूझ रहे कलाकारों के लिए यह काफी सुखद है कि अब उन के पास नाम और पैसा दोनों है. वैश्विक विपदा यहां के कलाकारों के लिए बङा अवसर बन कर आई है और इस से इस लोककला को भी नई पहचान मिल रही है.

लोकल बाजार से अमेजन तक

मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस की पहुंच आज लोकल बाजार से निकल कर अमेजन तक जा पहुंचा है.

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औनलाइन साइट्स पर मौजूद यह मास्क लोकप्रिय हो चुका है और लोग इसे औनलाइन खरीद भी रहे हैं.

उधर, बिहार में चुनाव है और सियासी पार्टियों के नेता व कार्यकर्ता भी मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क में नजर आने लगे हैं.

क्योंकि अब चुनाव है

हाल ही में जब बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री व राजद नेता तेजस्वी यादव मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क में नजर आए तो उन की देखादेखी लोजपा के नेता भी इन मास्कों को लगा कर घूमते हुए देखे जा रहे हैं.

लोजपा के युवा नेता व रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान भी इस मास्क में अकसर नजर आने लगे हैं और इतना ही नहीं लोजपा अपने कार्यकर्ताओं के लिए 2 लाख मास्क भी बनवा रही है. लोजपा ने इस बार के चुनाव में नारा दिया है,’बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट.’

राजनीति के जानकार, समाजसेवी अजीत कुमार कहते हैं,”देशदुनिया में लगभग 7 करोङ लोग मैथिली बोलते हैं. दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, पुर्णिया, सहरसा, सुपौल आदि जिलों को मिथिलांचल कहा जाता है और यहां की जनता वोटिंग में निर्णायक भूमिका निभाती है. लिहाजा, राजनीतिक दलों के लोगों को लगता है कि इस से वे यहां की जनता से खास जुङाव महसूस करेंगे.

“वैसे, न सिर्फ मास्क बल्कि मिथिला या मधुबनी पेंटिंग का अपना खास इतिहास भी रहा है. अब तो देश के अलगअलग जगहों पर रहने वाले लोग भी मधुबनी पेंटिंग से खूब नाम कमा रहे हैं.”

मधुबनी पेंटिंग का जवाब नहीं

नोएडा की रहने वाली अर्चना झा इन में से ही एक हैं. उन्होंने पश्चिम बंगाल से फाइन आर्ट्स में डिप्लोमा की डिग्री हासिल की है.

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वे कहती हैं,”मैं झारखंड की रहने वाली हूं लेकिन मधुबनी पेंटिंग से गहरा जुङाव रखती हूं. मेरी मां ने मुझे इस पेंटिंग को करना सिखाया और वे ही मेरी गुरू हैं.

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“मैं शुरू से ही देश के कई शहरों में पेंटिंग प्रदर्शनी लगाती रही हूं और इस वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी औनलाइन प्रदर्शनी कर मैं ने खूब वाहवाही बटोरी है.

“मुझे खुशी है कि अब मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क बाजार में खूब बिक रहे हैं. इस से मिथिला के गरीब बुनकरों को नई पहचान जरूर मिलेगी.”

जो भी हो, बिहार विधानसभा चुनाव में भले ही मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क की मांग में इजाफा हो गया है और नेता व कार्यकर्ता इसे पहन कर गलीगली घूम रहे हैं, मगर इतना जरूर है कि इस मास्क की धमक से यहां के कलाकारों, बुनकरों का हौसला काफी बुलंद है.

मोहन भागवत और छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हलचल

राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रमुख डॉक्टर मोहन भागवत का छत्तीसगढ़ में आगमन हुआ है. वैसे तो आम भाषा में यह कहा जाता है कि संघ एक सामाजिक हिंदुत्ववादी जागृति मंच है उसका राजनीति से कोई सरोकार नहीं है.

मगर सभी जानते हैं कि उसका एजेंडा देश  प्रदेश में भाजपा को सत्ता सिंहासन  तक पहुंचाना है. अब जब छत्तीसगढ़ में भाजपा की चूले  हिली हुई हैं. उसकी बुरी स्थिति है. संघ प्रमुख का छत्तीसगढ़ दौरा अनेक अर्थों को बयां करता है. आम आदमी किसी भी विशिष्ट  जन के आगमन को सामान्य रूप से लेता है. मगर राजनीतिक दुकानदारी में हर एक राजनीतिक दल ऐसे मौकों पर अपनी पैनी निगाह रखता है.

संघ प्रमुख के दौरे पर भी कांग्रेस और भाजपा दोनों ही अपने-अपने तरकश के तीर चलाते रहे हैं. जहां कांग्रेस अपनी तीक्ष्ण नजर  डॉक्टर मोहन भागवत की दौरे पर रखे हुए थी वहीं भाजपा में भी अंदरखाने घात प्रतिघात का दौर चलता रहा. इस रिपोर्ट में डॉक्टर मोहन भागवत के छत्तीसगढ़ प्रवास की हलचल को समझने का प्रयास किया गया है.

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यहां यह बताना लाजिमी होगा कि डॉक्टर मोहन भागवत के छत्तीसगढ़ प्रवास को प्रारंभ से ही राजनीति से दूर बताया गया और उद्घोषणा की गई थी की भागवत किसी भी राजनीतिक शख्स से नहीं मिलेंगे. जो सिरे से ही एक सफेद झूठ है. तीन दिवसीय दौरे की सच्चाई यह है कि कोरोना वायरस के इस संक्रमण काल में भी सारे नियम कायदों को धता बताते हुए डॉक्टर मोहन भागवत कथित रूप से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए संघ और भाजपा के दिग्गज  जनों से अलग-अलग बैठक करते रहे. भाजपा के प्रथम पंक्ति के नेता डॉ रमन सिंह, धरमलाल कौशिक बृजमोहन अग्रवाल ने कोई  बयां जारी नहीं किया मगर भीतर कि आग आखिर धुआं बनकर संपूर्ण राजनीतिक फिज़ा में फैल गई. जब संघ के दाएं हाथ कहे जाने वाले भाजपा के उपाध्यक्ष सच्चिदानंद उपासने ने अपना दृष्टिकोण मीडिया में  रखकर भाजपा की खामियां गिना दी.

कांग्रेस के भागवत पर तीक्ष्ण बाण!

इधर, डॉक्टर मोहन भागवत के छत्तीसगढ़ आगमन को कांग्रेस भला कैसे पचा सकती थी. संघ प्रमुख आए और कांग्रेस  मौन रहकर  दिखती यह भला कैसे हो सकता था.  ऐसे में  कांग्रेस पार्टी ने  डॉक्टर मोहन भागवत व भाजपा से  तीन यक्ष प्रश्न पूछे हैं  जो छत्तीसगढ़ की राजनीतिक फिज़ा में तैर रहे हैं  और जिनका जवाब दे पाना भाजपा व संघ के लिए संभव नहीं लगता .

कांग्रेस प्रवक्ता आरपी सिंह ने एक वीडियो जारी कर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत से तीन सवाल पूछे हैं, जो इस प्रकार है-

1- छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार ने “गौ धन न्याय योजना” प्रारंभ की है जिसका संघ की स्थानीय इकाई ने स्वागत करते हुए मुख्यमंत्री जी को शुभकामनाएं और बधाई पत्र प्रदान किया था.

क्या मोहन भागवत,भूपेश बघेल सरकार की इस योजना का समर्थन करते हैं? अगर हां तो क्या केंद्र सरकार के स्तर पर इस योजना को पूरे देश में प्रारंभ करने की कोई पहल करेंगे ?

2- कांग्रेस पार्टी और छत्तीसगढ़ राज्य की जनता यह जानना चाहती है की राम जन्म भूमि पूजन और कार्यारंभ के अवसर पर अयोध्या जाने वाले मोहन भागवत क्या छत्तीसगढ़ में बने हुए मंदिर मे “माता कौशल्या” का दर्शन  करने  जाएंगे ?

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3- छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार लगभग 135 करोड़ रुपए खर्च करके “राम वन गमन पर्यटन परिपथ” का निर्माण करवा रही है.

इस कांसेप्ट प्लान को केंद्र की स्वदेश दर्शन योजना में शामिल करने हेतु पत्र भेजा गया है. क्या मोहन भागवत राम वन गमन परिपथ को केंद्र की इस योजना में शामिल कराने हेतु कोई ठोस पहल करेंगे ?

काग्रेस प्रवक्ता आरपी सिंह ने यह विश्वास जताया है कि खुद को सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन कहलाने वाले संघ के प्रमुख मोहन भागवत अवश्य इन प्रश्नों का जवाब देंगे. जिससे राज्य की जनता यह जान सके की गोवंश और प्रभु राम के प्रति उनका प्रेम दिखावा है या फिर वास्तविकता!

भाजपा में बड़ा ऑपरेशन करने आए भागवत

संघ प्रमुख मोहन भागवत दो वर्ष पूर्व जब छत्तीसगढ़ में  जब प्रदेश में विधानसभा चुनाव का माहौल था और डॉक्टर रमन सिंह की भाजपा सरकार थी उस दरमियान छत्तीसगढ़ आए थे. अभी वर्तमान में कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार छत्तीसगढ़ में सत्ता सिहासन पर काबिज है. अतः 2 वर्ष बाद संघ प्रमुख आजादी के महापर्व 15 अगस्त  शनिवार शाम को रायपुर पहुंचे. माना जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में भाजपा का बड़ा ऑपरेशन करने मोहन भागवत आए हुए हैं. संघ प्रमुख के इस दौरे से बडे बदलाव के संकेत हैं. वहीं संघ और भाजपा संगठन के बीच तालमेल बढ़ाने की भी चर्चा  है. बैठक में विभिन्न सामयिक मसलों पर संघ की ओर से विभिन्न क्षेत्रों में किये जा रहे कार्यों की समीक्षा की गई.

इसी बीच प्रदेश भाजपा के उपाध्यक्ष सच्चिदानंद उपासने ने बड़ा बयान देते हुए संघ और पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा पर नाराजगी जताई है. यह सीधे-सीधे संकेत है कि भाजपा में  काबिज डॉ रमन सिंह के “पर” अब कटने जा रहे हैं. उपासने ने कहा कि 15 साल सरकार में रहने के बाद हमारी स्थिति ऐसी क्यों बनी है ? इस पर चिंतन करने की जरूरत है. उन्होंने सलाह दी है कि निर्णय की प्रक्रिया में ज्यादा लोगों को शामिल किया जाए. तभी स्वस्थ और अच्छा निर्णय हो पाएगा. उपासने ने कहा कि हम बैठकर आपस में संवाद करें. निर्णय में अधिक से अधिक लोगों को शामिल करें. तभी स्वस्थ निर्णय, अच्छा निर्णय होगा. जनसंघ की पहचान थी कि जो कार्यकर्ता काम करते थे उन्हें महत्व मिलता था.उन्होंने कहा कि पराक्रम और परिश्रम को महत्व मिलता था, लेकिन जब से परिक्रमा को महत्व मिलने लगा उस दिन से हमारा पतन होने लगता है. छत्तीसगढ़ में हमें सरकार विरासत में नहीं मिली थी. कांग्रेस के गढ़ को तोड़कर सत्ता पाई थी. हजारों कार्यकर्ताओं ने मान अपमान सहा, जेल गए, हत्या हुई, तब जाकर सरकार मिली. अभी वक्त है हमारे निष्ठावान कार्यकर्ता उत्साहित हैं. कोई उसे प्यार करे, स्नेह करे, उसकी पीठ पर हाथ रखे, वह पद का भूखा नहीं है स्नेह का भूखा है. यदि उन्हें अपना कर चलें तो 15 साल की पहचान फिर से वापस पा सकते हैं. सारी बातों पर गौर करें तो यह साफ हो जाता है कि संघ प्रमुख छत्तीसगढ़ क्यों आए हुए हैं?

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छत्तीसगढ़ दौरे पर आए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने  संघ के बड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं की बैठक ली. इस दौरान बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं ने भी भागवत से मुलाकात की. बैठक के बाद संघ कार्यालय से जो बात कही  गई है वह गौरतलब है कहा गया है कि इस  भागवत ने आत्मनिर्भर भारत विषय पर जोर दिया है. जो सीधे-सीधे समझने वाली बात है कि यह निशाना कहीं पर और नजर  कहीं  पर कही जाने वाली बात चरितार्थ करती है.

सरकार भी कोरोना की गिरफ्त में

मध्यप्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने धार्मिक आडंबरों के बहाने कभी नर्मदा यात्रा, तो कभी आदि शंकराचार्य की पादुका पूजन करके भगवा ब्रिगेड की कमान संभालते रहे हैं. यही बजह है कि अब उनके कोविड 19 से प्रभावित होने पर उनके भक्तों द्वारा भी हवन ,पूजन,पाठ का सिलसिला शुरू कर दिया गया है.

देश की भोली भाली जनता को भावनाओं में बहलाकर कभी हिन्दू मुस्लिम रंग देकर, तो कभी कश्मीर में धारा 370 और अयोध्या में राम मंदिर बनाने की दुहाई देने वाले भगवा ब्रिगेड के लोग असली मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाना बखूबी जानते हैं.

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जब कोरोना ने भारत में कदम रखा ,तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार को गिराने के चक्कर में इसकी परवाह किसी ने नहीं की.22 मार्च को कोरोना वायरस की चैन तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री ने जनता कर्फू का ऐलान कर जनता को यह दकियानूसी संदेश दिया  कि अपने घरों की बालकनी में खड़े होकर ताली और थाली पीटने से कोरोना भाग जायेगा. इतने ढोंग करने के बाद भी जब कोरोना का संक्रमण नहीं थमा ,तो  घरो की लाईट बुझा कर दिया जलाने का टोटका भी कर डाला.  भगवा ब्रिगेड ने तर्क दिया कि दिये की लौ से कोविड19 समाप्त हो जाएगा. मुख्यमंत्री के कोरोना से प्रभावित होने के बाद भोपाल की सांसद साध्वी  प्रज्ञा ठाकुर  हनुमान चालीसा के पाठ से वायरस भगाने की सलाह भक्तो को देती नजर आईं. कोरोना वायरस   यदि किसी धर्म,जाति, संप्रदाय में आस्था रखने वाला होता,तो इन टोने टोटकों से कभी का भाग गया होता.

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से बचने के लिए दी गई डब्लूएचओ की गाइडलाइंस और डाक्टरी सलाह मानने की बजाय सरकार में बैठे जनता के चुने हुए प्रतिनिधि रोज नये नये जुमले उछालते रहे हैं , जबकि यह एक यैसी संक्रामक बीमारी है जो नेताओं के जुमलों से दूर होने वाली नहीं है.

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी रोज टीवी चैनलों पर किसी पंडे पुजारी की तरह कोरोना से सावधान रहने के प्रवचन तो देते रहे , लेकिन खुद उन पर अमल करना भूल गए.इसी बजह से वे 25 जुलाई को आई रिपोर्ट में  कोविड 19 पाज़ीटिव पाये गए हैं. हालांकि यह अप्रत्याशित खबर  नहीं है. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री जिस तरह कोरोना के बचाव की गाइडलाइंस को दरकिनार कर रोज ‌क‌ई विधायकों और मंत्रियों से मिलते रहे हैं.

मंत्री अरविंद भदौरिया , भाजपा अध्यक्ष बीडी शर्मा के साथ मुख्यमंत्री 21 जुलाई को प्रदेश के राज्यपाल लालजी टंडन को श्रृद्धांजलि देने लखनऊ गये थे. 21 से 24 जुलाई तक मुख्यमंत्री प्रदेश के 33 मंत्रियों से वन टू वन चर्चा में शामिल रहे .जिस तरह से मुख्यमंत्री और उनके करीबियों द्वारा गाइड लाइन का खुला उल्लंघन किया जा रहा था,उससे यह पहले ही तय हो गया था कि कोरोना के संक्रमण को सीएम हाउस तक पहुंचने में देर नहीं लगेगी.  अब हालात ये हैं कि दर्जनों विधायक और मंत्री भी कोरोना की चपेट में आ चुके हैं.

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25 जुलाई को  शिवराज सिंह चौहान भोपाल के प्राइवेट हास्पिटल चिरायु में एडमिट हुए तो सोशल मीडिया पर खूब ट्रोल भी हुए. वजह साफ थी कि प्रदेश में कोरोना से निपटने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं का गुणगान तो करते रहे,मगर खुद के कोरोना पाज़ीटिव होने पर कोई सरकारी अस्पताल उन्हें इलाज के लिए उपयुक्त नहीं लगा.

जमीनी हकीकत यही है कि चार महिने से भी अधिक समय बीतने के बाद पूरे प्रदेश में कोरोना की जंग सुबिधाओं की बजाय भाषणों से लड़ी जा रही है. आज भी कोविड टेस्ट के लिए पर्याप्त संख्या में किट या मशीन और‌ वेंटिलेटर की कमी से अस्पताल जूझ रहे हैं.

डब्लूएचओ की नई एडवायजरी में कोरोना के लक्षण पाये गए व्यक्ति को कम से कम 10 दिन की गहन चिकित्सकीय देखभाल में रखा जाता है. इस पीरियड में कोविड पाज़ीटिव को किसी से मिलने और छूने की इजाजत नहीं होती है. यैसे में सियासी हलकों में यह चर्चा भी  जोरों पर थी कि आगामी दिनों तक मध्यप्रदेश के शासन प्रशासन की जिम्मेदारी  कौन संभालेगा?वह भी जब प्रदेश में पूर्णकालिक राज्यपाल भी नहीं है.मुख्यमंत्री को कई अहम् दस्तावेजी फैसलों पर दस्तखत करने होते हैं.कई गोपनीय प्रतिवेदनों पर  टीप लिखनी होती है,साथ ही कानून व्यवस्था के मामले पर हस्तक्षेप करना होता है.

कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनने के सपने टूटे

कोरोना बीमारी से संक्रमित हुए शिवराज सिंह चौहान देश के पहले मुख्यमंत्री हैं,लिहाजा प्रदेश में भाजपा के कुछ नेता कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनने के सपने भी देखने लगे थे.  सत्ता के खेल के चतुर खिलाड़ी और अपने आपको जनता का मामा कहने वाले शिवराज सिंह चौहान ने पिछले 13 वर्षों के दौरान भी देश से बाहर रहने पर भी किसी भी अपने सहयोगियों को कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाने की मुसीबत मोल नही ली थी. कांग्रेस के हाथों से सत्ता छीनने वाले शिवराज को इस वार मुख्यमंत्री बनने से लेकर , मंत्री मंडल के गठन और विभागों के बंटवारे में  भारी अंतर्विरोध और सिंधिया खेमे का दबाव झेलना पड़ा  है.

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प्रदेश के एक कद्दावर नेता नरोत्तम मिश्रा, नरेंद्र सिंह तोमर ने भी मुख्यमंत्री बनने लाबिंग की थी. यही कारण है कि शिवराज अपने इसी डर की वजह से ही किसी को कार्यवाहक मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहते.वैसे भी उमा  भारती की गद्दी को बाबूलाल गौर  को सौंपने के बाद हुए राजनैतिक बदलाव के घटनाक्रम से शिवराज भी वाकिफ हैं,शायद इसी नियति को टालने वे चूकने के मूड में दिखाई नहीं दिखाई दे रहे. तभी तो चिरायु हास्पिटल से भी अपना कामकाज संभाल रहे हैं. उन्होंने  अस्पताल से ही आला अधिकारियों के साथ न‌ई शिक्षा नीति की समीक्षा भी  कर ली .मौजूदा दौर में मध्यप्रदेश में जिस तरह की राजनीतिक उठा-पटक और विधायकों की अदला-बदली हो रही है,यैसे में  सत्ता के लोभी नेताओं से घिरे शिवराज को कोविड 19 से बड़ा खतरा अपनों से ही लग रहा है.इसलिए कोरोना को भूलकर वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गड़ाए अपने को फिटफाट साबित करने में लगे हुए हैं.

नेपाल-भारत रिश्तों में दरार डालता चीन

नेपाल ने भारत के 3 इलाकों को अपने नक्शे में शामिल कर भारत के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है. नेपाली सरकार ने इस सिलसिले में एक विधेयक संसद में पेश किया था, जिस पर 18 जून, 2020 को नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने दस्तखत कर दिए.

इस बिल को नेपाल के मुख्य विरोधी दल नेपाली कांग्रेस ने भी समर्थन दिया है. नए नक्शे में नेपाल ने भारत के कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा इलाके को अपना दिखाया है. इन इलाकों के अलावा भारत के गुंजी, नाभी और कुटी गांव को भी नेपाली नक्शे में दिखाया गया है.

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नेपाल ने भारत के जिन इलाकों को अपने नक्शे में दिखाया है, वह तकरीबन 395 वर्गकिलोमीटर का इलाका है. नेपाली संविधान का यह दूसरा संशोधन है, जिस में राजनीतिक नक्शे और राष्ट्रीय प्रतीक को बदला गया है.

गौरतलब है कि जब भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने लिपुलेख से कैलाश मानसरोवर जाने वाली लिंक रोड का उद्घाटन किया था, तो नेपाल ने उस का विरोध किया था. उस के बाद ही 18 मई, 2020 को नेपाल ने नए नक्शे में भारत के इस हिस्से को अपने में दिखाने का बखेड़ा खड़ा कर दिया. भारत कालापानी को उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का हिस्सा मानता है, जबकि नेपाल उसे अपने धरचुला जिले का हिस्सा बताता है.

भारत का मानना है कि चीन के बहकावे में आ कर नेपाल ने अपने नक्शे में बदलाव किया है. गौरतलब है कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली वामपंथी हैं और भारत विरोधी सियासत और सोच के लिए जाने जाते हैं.

पिथौरागढ़ और नेपाल की सीमा पर तकरीबन 80 किलोमीटर की छोटी सड़क ने ही बड़ा बवाल मचा दिया है. यह सड़क लिपुलेख के कालापानी से होती हुई कैलाश मानसरोवर तक जाती है. इस कच्ची सड़क को भारत ने पक्का कर दिया और राजनाथ सिंह ने उद्घाटन किया तो नेपाल में सियासी हलचल मच गई.

वैसे, इस मसले को ले कर नेपाल में भी प्रदर्शन शुरू हो चुका है. नेपाल के सत्तारूढ़ दल के सहअध्यक्ष पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ भारत विरोधी प्रदर्शन को हवा दे रहे हैं. ‘प्रचंड’ ने दहाड़ लगाई कि भारत को सबक सिखाना जरूरी हो गया है. वहीं प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने नेपाल में कोरोना वायरस के फैलाव के लिए भी भारत को जिम्मेदार ठहराया है और चीन को क्लीनचिट दी है.

गौरतलब है कि साल 1981 में भारत और नेपाल के बीच सीमा तय करने के लिए एक जौइंट कमेटी बनाई गई थी. इस कमेटी ने 98 फीसदी सीमा तय कर ली थी, केवल सुस्ता और कालापानी का मसला लटका रह गया था.

जब भारत ने कैलाश मानसरोवर तक सड़क बनाई, तो नेपाल ने भारत से बातचीत कर मामले को सुल झाने के बजाय आननफानन नया नक्शा छाप कर भारत के कई हिस्से को अपना साबित करने की कोशिश की है.

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साल 1962 के भारत और चीन की लड़ाई के समय भी नेपाल ने इस सड़क पर अपना दावा ठोंका था, पर नेपाल को कामयाबी नहीं मिली और उस हिस्से पर भारत का कब्जा अब तक बरकरार रहा है.

साल 2015 में जब भारत और चीन ने लिपुलेख इलाके से व्यापार रास्ते का करार किया, तो उस समय भी नेपाल ने विरोध जताया था.

इसी बीच नेपाल की केपी शर्मा ओली की सरकार को उन की ही पार्टी के नेता ‘प्रचंड’ उखाड़ने में लगे हुए हैं. ‘प्रचंड’ खुद प्रधनमंत्री बनने की ताक में हैं और ओली की जड़ें खोद रहे हैं. इसी वजह से उन्होंने भारत विरोध के अपने पुराने हथकंडे को फिर से सुलगा दिया है और नेपाल की सियासत को कंटीले तारों में उल झा दिया है.

पौलिटिकल राउंडअप : चिराग पासवान का ऐलान

पटना. लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान ने 3 मार्च को कहा था कि उन की पार्टी किसानों के मुद्दे पर बिहार विधानसभा चुनाव में उतरेगी.

याद रहे कि बिहार में इस साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होने वाले?हैं. इसी को ध्यान में रख कर 14 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में होने वाली रैली में लोक जनशक्ति पार्टी का चुनाव घोषणापत्र ‘विजन डौक्यूमैंट 2020’ जारी किया जाएगा. इस में जातपांत मुद्दा नहीं रहेगा, बल्कि प्रदेश का विकास मुख्य मुद्दा होगा.

रजनीकांत का खुलासा

चेन्नई. फिल्म सुपरस्टार रजनीकांत ने 12 मार्च को साफ किया कि तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनने की उन की ख्वाहिश कभी नहीं थी और राजनीति की उन की योजना में भावी पार्टी और उस की अगुआई वाली संभावित सरकार के अलगअलग प्रमुख होंगे.

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याद रहे कि रजनीकांत ने 31 दिसंबर, 2017 को राजनीति में आने का ऐलान किया था और अपनी पहली आधिकारिक प्रैस कौंफ्रैंस में यह भी कहा कि उन की योजना है कि मुख्यमंत्री के तौर पर किसी पढ़ेलिखे नौजवान को आगे किया जाए.

केजरीवाल ने नकारा एनआरसी

नई दिल्ली. केंद्र सरकार के ‘कागज दिखाओ मिशन’ को नकारते हुए दिल्ली विधानसभा में 13 मार्च को एनपीआर और एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव पास कर दिया गया.

इस प्रस्ताव पर हुई चर्चा में हिस्सा लेते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्र सरकार से पूछा कि कोरोना से देश में चिंता बढ़ी है और अर्थव्यवस्था का बुरा हाल हो चुका है. इन समस्याओं से किनारा कर सीएए, एनपीआर, एनआरसी पर जोर क्यों दिया जा रहा है?

उन्होंने केंद्र सरकार पर तंज कसते हुए कहा कि अगर सरकार हम से दस्तावेज मांगे तो दिल्ली विधानसभा के 70 में से 61 विधायकों के पास जन्म प्रमाणपत्र नहीं है, तो क्या उन्हें डिटैंशन सैंटर में रखा जाएगा?

जिन्हें लग रहा था कि केजरीवाल सरकार के प्रति मुलायम हो गए हैं, उन्हें थोड़ा संतोष हुआ होगा कि वे फिलहाल तो सिर्फ मुठभेड़ी माहौल से बच रहे हैं.

योगी के तीखे तेवर

लखनऊ. नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ किए गए प्रदर्शनों में हुई हिंसा में सार्वजनिक संपत्तियों के नुकसान की भरपाई के लिए आरोपियों की तसवीर वाली

होर्डिंग्स प्रदेश सरकार द्वारा लखनऊ में अलगअलग चौराहों पर लगाई गईं. इस पर नाराज होते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन होर्डिंग्स को हटवाने का आदेश दिया. इस के बाद योगी सरकार सुप्रीम कोर्ट गई, पर सुप्रीम कोर्ट ने भी पूछा था कि किस कानून के तहत यह कार्यवाही की गई?

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इस के जवाब में योगी सरकार 13 मार्च को उत्तर प्रदेश रिकवरी औफ डैमेज टू पब्लिक ऐंड प्राइवेट प्रोपर्टी अध्यादेश 2020 ले कर आई, जिसे कैबिनेट से मंजूरी भी मिल गई. इस के तहत आंदोलनोंप्रदर्शनों के दौरान सार्वजनिक या निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने पर कुसूरवारों से वसूली भी होगी और उन के पोस्टर भी लगाए जाएंगे.

यह कानून नितांत लोकतंत्र विरोधी है. भाजपा को पुराणों से मतलब है, संविधान से नहीं. जहां राजा राम शंबूक का गला मरजी के अनुसार काट सकते हैं.

कांग्रेस है डूबता जहाज

रांची. भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता और कभी केंद्रीय मंत्री रहे शाहनवाज हुसैन ने 14 मार्च को कहा कि कांग्रेस की बदहाली के लिए खुद कांग्रेस पार्टी जिम्मेदार है और आज इस की दशा डूबते हुए उस जहाज की तरह हो गई है, जिस पर सवार लोग अपनी जान बचाने के लिए उस में से कूद कर भाग रहे हैं.

शाहनवाज हुसैन ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि कांग्रेस के नौजवानों को यह समझ में आ गया है कि पार्टी नेता राहुल गांधी की अगुआई में न तो उन का भला होने वाला है और न ही देश का भला होने वाला है. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की घर वापसी हुई है. दूसरे प्रदेशों में भी कांग्रेस में भगदड़ मची है.

कांग्रेस में ऊंची जाति वालों या अंधभक्तों की कमी नहीं जो भाजपा के वर्णव्यवस्था वाले फार्मूले में पूरा भरोसा रखते हैं. ये विभीषण हैं.

गहलोत ने केंद्र को कोसा

जयपुर. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 14 मार्च को राजसमंद जिले में आरोप लगाया कि केंद्र सरकार की गलत नीतियों के चलते देश में अभी मंदी का दौर है. भारत सरकार की गलत नीतियों की वजह से नौकरियां लग नहीं रही हैं… नौकरियां जा रही हैं. ऐसे माहौल में अगर हम लोग ऐसे फैसले करेंगे, जिन का फायदा सब को मिले तो मैं समझता हूं कि आने वाले वक्त में हम लोग स्वावलंबन की तरफ बढ़ सकेंगे.

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अपनी सरकार की तारीफ करते हुए अशोक गहलोत ने कहा कि सरकार राज्य में ढांचागत विकास के साथसाथ पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, सड़कों, ऊंची पढ़ाईलिखाई पर खास ध्यान दे रही है.

यूट्यूब चैनल और साजिश

चंडीगढ़. कांग्रेस विधायक नवजोत सिंह सिद्धू ने 14 मार्च को अपना यूट्यूब चैनल ‘जीतेगा पंजाब’ शुरू किया था, पर इस के 2 दिन बाद ही 16 मार्च को चैनल के चीफ एडमिन स्मित सिंह ने दावा किया कि कुछ ‘पंजाब विरोधी ताकतें’ इसी नाम की फर्जी आईडी बना कर लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रही हैं. ‘जीतेगा पंजाब’ की लौंच के कुछ ही मिनटों के भीतर इसी नाम की सैकड़ों फर्जी यूट्यूब आईडी बन गईं. कुछ पेशेवर लोग जनता के साथ नवजोत सिंह सिद्धू के सीधे जुड़ाव को कम करने में लगे हैं.

इसी गरमागरमी में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने 16 मार्च को ही एक बयान दिया कि उन का अमृतसर के विधायक (नवजोत सिंह सिद्धू) के साथ कोई मसला नहीं है और वे पार्टी में किसी के साथ भी किसी भी मामले पर चर्चा कर सकते हैं.

कांग्रेस हुई कड़ी

अहमदाबाद. राज्यसभा चुनाव से पहले गुजरात कांग्रेस ने 16 मार्च को अपने उन 5 विधायकों को पार्टी से सस्पैंड कर दिया, जिन्होंने हाल ही में विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था. कांग्रेस ने जहां इसे भाजपा की साजिश बताया, वहीं भाजपा ने इन इस्तीफों के पीछे कांग्रेस के कलह को जिम्मेदार बताया. सस्पैंड होने वाले विधायकों में मंगल गावित समेत 4 दूसरे विधायक शामिल थे.

गुजरात की 182 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा के पास 103 सीटें हैं, जबकि कांग्रेस के पास 73 विधायक हैं. भारतीय जनता पार्टी अब देशभर में दूसरे दलों के विधायकों को खरीदने में लग गई है.

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