‘प्रधानमंत्री आवास योजना’: गरीबों के लिए बनी मुसीबत

गरीबों को लगा था कि उन का पक्का मकान बनाने का सपना पूरा हो जाएगा. पर सरकार का एक कार्यकाल खत्म होतेहोते योजना की कछुआ चाल, नेताओं और अफसरों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार ने साबित कर दिया कि साल 2022 तक देश के सभी गरीबों को पक्का मकान देने का मोदी सरकार का वादा पूरा होने वाला नहीं है.

देश में गरीबों को मकान देने के लिए पहले ‘इंदिरा आवास योजना’ चलती थी, जिस का साल 2015 में नाम बदल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ रख दिया था और ऐलान किया था कि साल 2022 तक सभी के सिर पर छत होगी. इस के लिए यह भी योजना बनी थी कि सरकारी विभागों से घर बना कर देने के बजाय खुद जरूरतमंद के खाते में पैसे जमा कराया जाए.

ये भी पढ़ें- धोनी मामले में बड़ा खुलासा, पीठ दर्द की समस्या के कारण नहीं हैं टीम का हिस्सा

‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के तहत गांवदेहात के इलाकों में एक लाख, 60 हजार की रकम और शहरी इलाकों में 2 लाख, 40 हजार की रकम सीधे जरूरतमंद के बैंक खाते में जमा करने का काम किया गया था. इस रकम से एक कमरा, एक रसोई, एक स्टोररूम का नक्शा भी दिया गया था.

पर हुआ यह कि जिन लोगों के पास पहले से मकान थे, उन्हें रकम मिल गई और जो लोग बिना छत के प्लास्टिक की पन्नी तान कर अपना आशियाना बना कर रह रहे थे, उन्हें पक्का मकान देने के बजाय झुनझुना पकड़ा दिया गया.

ग्राम पंचायतों के सरपंच, सचिव और नगरपालिकाओं की अध्यक्ष, सीएमओ की मिलीभगत से जरूरतमंदों से 10,000 से 20,000 रुपए ले कर योजना की रकम की बंदरबांट कुछ इस तरह हुई कि बिना नक्शे और बिना सुपरविजन के योजना की रकम खर्च कर ली गई.

‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के तहत साल 2022 तक देश में सभी लोगों को छत देने की बात कही जा रही है. इस के लिए लक्ष्य और उस के पूरा होने के आंकड़े भी पेश किए जा रहे हैं, लेकिन हकीकत देख कर आप दंग रह जाएंगे.

ये भी पढ़ें- जेब ढ़ीली कर देगा पान

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले की नगरपरिषद साईंखेड़ा के वार्ड नंबर 14 के लाभार्थी हरिगोपाल श्रीवास्तव की दास्तान ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ की असलियत को उजागर करती है.

हरिगोपाल श्रीवास्तव को मई, 2018 में पक्का घर बनाने के लिए पहली किस्त के रूप में एक लाख की रकम मिली थी. उन्होंने अपने कच्चा मकान तोड़ कर जून महीने में ही पक्का मकान बनाने का काम शुरू कर दिया था. एक महीने में एक लाख रुपए खर्च कर छत तक का काम पूरा हो गया था, लेकिन दूसरी किस्त की रकम उन्हें नहीं दी गई.

हरिगोपाल श्रीवास्तव के परिवार के लोग पूरी बरसात, ठंड और भीषण गरमी में प्लास्टिक की पन्नी तान कर अपना गुजारा कर रहे हैं, लेकिन एक साल के बाद भी उन्हें दूसरी किस्त की रकम नहीं मिली है.

हरिगोपाल श्रीवास्तव ने कई बार इस की शिकायत सरकारी अफसरों के साथसाथ चुने हुए जनप्रतिनिधियों से की, मगर कोई समाधान नहीं निकला. परेशान हो कर जब उन्होंने एसडीएम, गाडरवारा को अनशन पर बैठने की अर्जी दी, तो उन्हें इस की भी इजाजत नहीं दी गई.

नगरपरिषद के अधिकारी विधानसभा और लोकसभा चुनाव की आचार संहिता का बहाना बना कर इसी तरह अनेक लोगों को दूसरी किस्त की रकम देने में आनाकानी कर रहे हैं. वोट का सौदा करने वाली सरकार के नुमाइंदे भी अब चुप्पी साध कर बैठे हैं.

ये भी पढ़ें- गरीबों के अजीब मंदिर

खिरका टोला वार्ड नंबर 8 के दीपक कुशवाहा और बासुदेव अहिरवार बताते हैं कि उन्हें भी जून, 2018 में पहली किस्त की रकम मिल चुकी है, पर दूसरी किस्त की रकम के लिए नगरपरिषद के अधिकारी और पार्षद और रुपयों की मांग कर रहे हैं. पीडि़त परिवार के छोटेछोटे बच्चों ने पूरी गरमी खुले आसमान के नीचे बिताई है और अब बरसात का मौसम है. ऐसे में उन की मुश्किलें और ज्यादा बढ़ गई हैं.

जनता की सेवा के लिए चुने गए पार्षद दूसरी किस्त दिलाने के लिए दलाली कर लाभार्थियों से 10,000 से ले कर 20,000 रुपए की रकम खुलेआम मांग रहे हैं. जो लोग पैसे दे देते हैं, उन्हें दूसरी किस्त का पैसा आसानी से मिल जाता है.

इन की बल्लेबल्ले

‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ का फायदा किसी को मिला हो या न मिला हो, पर ग्राम पंचायतों के सरपंच सचिव की दुकानदारी खूब चल निकली है.

सरपंच सचिव ने गरीबों को रकम दिलाने के एवज में पैसे वसूल तो किए ही हैं, साथ ही मिल कर गांवगांव में अपनी ईंट, गिट्टी, लोहा, सीमेंट की दुकानें खोल ली हैं. अगर इन की दुकान से सामान खरीदा तो समय पर किस्त मिल जाती है, नहीं तो सालों दूसरी किस्त की रकम नहीं मिलती है. कई सरपंचों ने नेताओं के इशारों पर गांव की रेत खदानों पर गैरकानूनी कब्जा कर के करोड़ों रुपए की रेत साफ कर दी है. गांवदेहात के इलाकों में 500 रुपए प्रति ट्रौली मिलने वाली रेत आज 2,000 रुपए प्रति ट्रौली मिल रही है.

मध्य प्रदेश में सरपंच सचिव द्वारा किए भ्रष्टाचार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नरसिंहपुर जिले की हीरापुर ग्राम पंचायत के सचिव भागचंद कौरव के घर आयकर विभाग द्वारा जून, 2019 में मारे गए छापे के दौरान आमदनी से ज्यादा 2 करोड़ रुपए की जायदाद का खुलासा हुआ है.

ये भी पढ़ें- बदहाल सरकारी अस्पताल

गांवदेहात के लोग बताते हैं कि ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के आने से घरघर पक्के मकान बनने से गांव की नदियों की रेत बहुत महंगी हो गई है. जिला प्रशासन के अधिकारी ट्रैक्टरट्रौली जब्त कर उन्हें परेशान करते हैं, जबकि रेत से भरे भारीभरकम डंपर रातदिन शहरों के लिए गैरकानूनी रेत सप्लाई कर रहे हैं. योजना का सुपरविजन कर रहे इंजीनियर मकान के वैल्युएशन के नाम पर लोगों से 10,000 रुपए की वसूली कर रहे हैं.

दूसरा पहलू यह भी

‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ में अकेले नेता, अधिकारी, कर्मचारी ही गड़बड़झाला नहीं कर रहे हैं, बल्कि जनता भी पीछे नहीं है. सरकार मकान बनाने के लिए गरीबों के खाते में पैसे डाल रही है, लेकिन लोग पैसा ले कर उसे दूसरे कामों में खर्च कर लेते हैं. किसी ने उस पैसे से मोटरसाइकिल खरीद ली है तो कोई दूसरी पत्नी ले आया. मकान के नाम पर कहीं पत्थरों का टीला है तो कहीं झोंपडि़यां. किसी ने पैसे बीमारी पर खर्च कर लिए तो कोई शराब और जुए में उड़ा गया.

बांसखेड़ा गांव के मिहीलाल का घर ऐसा है जिन्हें पहली किस्त नवंबर, 2017 में मिली थी और 10 दिन के अंदर ही सारे पैसे निकाल लिए गए. घर बनाने के नाम पर एक ईंट भी नहीं रखी गई.

अब सरकारी अधिकारी मुकदमा दर्ज कराने की धमकी दे रहे हैं तो उन का कहना है कि पैसे रखे हैं, लेकिन ईंटभट्ठों व रेत खनन पर रोक होने के चलते वे मकान नहीं बना पा रहे हैं.

होशंगाबाद जिले के बारछी गांव के चंदन नौरिया के 3 बेटे हैं. तीनों को अलगअलग ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ का पैसा मिल गया. 2 बेटों के पैसों से मकान बना लिया तो तीसरे बेटे के पैसे में मोटरसाइकिल और दूसरा सामान खरीद लिया, जबकि गांव में कटिंगदाढ़ी बना कर अपनी आजीविका चलाने वाले कमलेश को ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ का पैसा नहीं मिला है. वे खपरैल के कच्चे मकान में अपने बूढ़े मांबाप समेत 7 सदस्यों के परिवार के साथ रह रहे हैं.

ये भी पढ़ें- मां के गर्भ में ही टूट चुकी थी 35 हड्डियां, रोंगटे खड़े कर

इसी तरह रायसेन जिले के पटना गांव के अरविंद ने अपना पक्का मकान बनाने के लिए पुराने खपरैल के मकान को तोड़ दिया था. यह सोच कर वे किराए के मकान में रहने लगे थे कि 4 महीने बाद अपने मकान में वापस रहने लगेंगे, लेकिन उन्हें भी सालभर बीत जाने के बाद दूसरी किस्त का पैसा नहीं मिला है और उन का पैसा किराए के मकान में खर्च हो रहा है.

लोगों का मानना है कि ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के जमीनी हकीकत पर सही न उतरने से प्रधानमंत्री की यह योजना कामयाब होती नजर नहीं आ रही है. अगर सरकार एक से नक्शे और डिजाइन के मुताबिक गरीबों को मकान तैयार कर के देती तो उन्हें पक्के मकान भी मिल जाते और सरकारी पैसे की बंदरबांट भी न होती.

पौलिटिकल राउंडअप: ‘आप’ ने पसारे पैर

सभाजीत सिंह ने शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ लंबे समय तक आंदोलन चलाया है और शिक्षा के अधिकार कानून के तहत गरीब बच्चों के दाखिले को ले कर छेड़े गए आंदोलन पर कई सामाजिक संगठनों ने उन्हें सम्मानित भी किया है.

जावड़ेकर की ‘मैं हूं न’

दिल्ली. अरविंद केजरीवाल के चुनावी वादों और ऐलानों से भारतीय जनता पार्टी में खलबली मची हुई है. इस से उन की आपसी खींचतान भी सामने आ रही है. बौखलाहट में नेता अलगअलग बयान दे रहे हैं. पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल का एक कार्यक्रम तक रद्द करा दिया गया.

ये भी पढ़ें- सियासी समोसे से लालू गायब

इसी सिलसिले में बुधवार, 28 अगस्त को दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा की तरफ से नए बने प्रभारी केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, ‘मैं सब संभाल लूंगा.’

यह कहना जितना आसान लग रहा है उतना ही करना मुश्किल होगा, क्योंकि फिलहाल भाजपा अरविंद केजरीवाल के तोहफों वाले सियासी गणित में फंस कर रह गई है.

‘इंदिरा कैंटीन’ के बहाने

बैंगलुरु. कांग्रेस के सिद्धारमैया ने 15 अगस्त, 2017 को ‘इंदिरा कैंटीन’ योजना चलाई थी और आज बैंगलुरु में 173 ‘इंदिरा कैंटीन’ और 18 ‘मोबाइल इंदिरा कैंटीन’ काम कर रही हैं जिन में 5 रुपए में नाश्ता और 10 रुपए में दोपहर और रात का खाना मिलता है.

कांग्रेस सरकार गई तो अब इस योजना पर बंद होने के काले बादल मंडराने लगे हैं जबकि 28 अगस्त को कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने कहा

कि राज्य सरकार की ‘इंदिरा कैंटीन’ बंद करने की कोई योजना नहीं है लेकिन वे उस के काम करने के तरीके की जांच कराना चाहते हैं.

इस से पहले एक रिपोर्ट आई थी जिस में कहा गया था कि पिछली सरकार की पसंदीदा योजना बंद होने के कगार पर है क्योंकि न तो राज्य सरकार ने और न ही वृहद बैंगलुरु महानगरपालिका ने कैंटीन के लिए बजट आवंटित किया है.

मुख्यमंत्री ने बताया कि ऐसी कुछ रिपोर्टें हैं जिन के मुताबिक कई जगह पर बढ़ा कर बिल दिखाया गया. रिकौर्ड में 100 लोगों को दिखाया गया, जबकि 1,000 लोगों का खाना वहां था.

ये भी पढ़ें- अनंत सिंह सरकारी फंदे में

भाजपा अध्यक्ष की बदजबानी

कोलकाता. पश्चिम बंगाल में भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष के पुलिस वालों और तृणमूल कार्यकर्ताओं को पीटने संबंधी बयान के बाद कोलाघाट पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज किया गया.

पूर्वी मेदिनीपुर जिले के मेचेडा में 26 अगस्त की रात पार्टी के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए दिलीप घोष ने कहा था, ‘तृणमूल के गुंडों और पुलिस वालों से डरने की जरूरत नहीं है. राज्य के विभिन्न हिस्सों में भाजपा कार्यकर्ताओं पर अकसर हमले होते हैं. दोषियों को पकड़ने की जगह पुलिस फर्जी मामलों में हमारे लड़कों को फंसा रही है…

‘अगर आप पर हमला होता है तो तृणमूल के कार्यकर्ताओं और पुलिस वालों को पीट दीजिए. डरने की जरूरत नहीं. कोई भी दिक्कत होगी तो हम हैं न, सब संभाल लेंगे. अगर पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम को जेल भेजा जा सकता है तो तृणमूल के ये नेता तो हमारे लिए मच्छर, कीड़ेमकोड़े की तरह हैं.’

हर गांव के नेता के लिए यह संदेशा है कि जाओ, भाजपा के पांव पकड़ो.

मनोहर का सियासी दांव

चंडीगढ़. विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने पांसा फेंक दिया है. उन्होंने 30 अगस्त को हरियाणा में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए नई योजना शुरू की है जिस में उन लोगों को 6,000 रुपए हर साल दिए जाएंगे, जिन की सालाना आमदनी 1.80 लाख रुपए से कम है और 2 हैक्टेयर से कम जोतभूमि है. इस योजना को ‘मुख्यमंत्री परिवार समृद्धि योजना’ नाम दिया गया है.

इस के साथ ही परिवार के सदस्य जीवन बीमा या दुर्घटना बीमा या प्रधानमंत्री मानधन योजना के तहत पैंशन के भी लाभपात्र होंगे.

केपी यादव के बेहूदा बोल

गुना. मध्य प्रदेश की गुना संसदीय सीट से भाजपा सांसद केपी यादव ने महिला कलक्टर के खिलाफ बेहूदा टिप्पणी करते हुए उन्हें चाटुकार बोला और कहा कि कलक्टर सांसदों से मिलने के लिए गांवगांव जाती थीं और उन के चरण चुंबन करती थीं.

ये भी पढ़ें- धारा 370: किस तरफ चली कांग्रेस की धारा

याद रहे कि केपी यादव ने इस साल लोकसभा चुनाव में गुना से कांग्रेस के उम्मीदवार ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ जीत दर्ज की थी.

केपी यादव पहले कांग्रेस में ही थे और ज्योतिरादित्य सिंधिया के सहयोगी रह चुके हैं. पिछले उपचुनाव में अनदेखी का आरोप लगा कर वे कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए थे.

नीतीश बोले जींसटीशर्ट नहीं

पटना. बिहार सरकार ने सचिवालय में काम करने वाले अफसरों और मुलाजिमों के लिए एक फरमान जारी किया है जिस के तहत वे अब दफ्तर में जींसटीशर्ट पहन कर नहीं आ सकेंगे. उन के तड़कभड़क रंगों वाले कपड़ों के पहनने पर भी रोक लगाई गई है.

राज्य सरकार के अवर सचिव शिव महादेव प्रसाद की ओर से जारी आदेश में कहा गया है कि पदाधिकारी और कर्मचारी औफिस संस्कृति के खिलाफ कैजुअल ड्रैस पहन कर दफ्तर नहीं आएंगे. उन्हें फौर्मल ड्रैस पहन कर ही आना होगा.

सुप्रिया ने जताई चिंता

नासिक. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की नेता सुप्रिया सुले ने कहा है कि अपने भंडार से सरकार को नकदी देने का भारतीय रिजर्व बैंक का फैसला संकेत देता है कि देश की माली हालत अच्छी नहीं है.

भारतीय रिजर्व बैंक ने 26 अगस्त को सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपए का लाभांश और अधिशेष भंडार देने को मंजूरी दी थी. इस से वित्तीय घाटे के बढ़े बिना ही अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने में मोदी सरकार को मदद मिलेगी.

इसी मुद्दे को ले कर केंद्र सरकार पर हमला करते हुए सुप्रिया सुले ने कहा, ‘यह दिखाता है कि देश की अर्थव्यवस्था अच्छी नहीं है. विभिन्न औद्योगिक इकाइयां बंद हो चुकी हैं और बेरोजगारी बढ़ रही है.’

ये भी पढ़ें- उर्मिला ने दिया कांग्रेस से इस्तीफा, लोकल नेताओं पर

गहलोत की इच्छा

बाड़मेर. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सरकारी मैडिकल कालेज के लोकार्पण समारोह में कहा कि सरकार राज्य के हर जिले में मैडिकल कालेज खोलना चाहती है ताकि आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं का फायदा जनता को मिल सके.

फिलहाल जैसलमेर, सिरोही, करौली और नागौर जैसे विकासशील जिलों में जल्दी ही मैडिकल कालेज खोलने के प्रयास किए जा रहे हैं.

याद रहे कि एक अस्पताल 8-10 साल में ही बन पाता है. आज कह दो, देखा जाएगा.

सियासी समोसे से लालू गायब

इस के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के जेल में बंद होने की वजह से पार्टी बिखरने के कगार पर है और लालू प्रसाद यादव के दोनों लाड़ले उन की सियासी विरासत को संभालने में फिलहाल तो नाकाम साबित हो रहे हैं.

कभी बिहार की राजनीति की धुरी रहे लालू प्रसाद यादव जानते हैं कि साल 2020 में होने वाला बिहार विधानसभा चुनाव उन के लिए आरपार की लड़ाई साबित होगा. इस के लिए वे अपनी पार्टी को नई सजधज के साथ उतारने की कवायद में जुट गए हैं, पर उन की सब से बड़ी लाचारी है कि वे रांची जेल में बंद हैं. इतना ही नहीं, चारा घोटाला

में कुसूरवार ठहराए जाने की वजह से वे साल 2024 तक चुनाव नहीं लड़ सकते हैं.

लालू प्रसाद यादव की गैरमौजूदगी में उन के लाड़ले बेटे तेजस्वी यादव की अगुआई में लोकसभा 2019 का चुनाव लड़ा गया और वे पूरी तरह से नाकाम रहे.

इस लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली. लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती भी पाटलिपुत्र से चुनाव हार गईं.

साल 1997 में राष्ट्रीय जनता दल के बनने के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि लोकसभा चुनाव में इस पार्टी की मौजूदगी जीरो है.

साल 1997 में नई पार्टी राजद बनाने के बाद लालू प्रसाद यादव ने पूरे दमखम के साथ 1998 का लोकसभा चुनाव लड़ा था, जिस में पार्टी को 17 सीटें हासिल हुई थीं. उस के बाद से लोकसभा में राजद की लगातार दमदार मौजूदगी री है. फिलहाल तो लालू प्रसाद यादव के लिए राहत की बात यह है कि 243 सीट वाली बिहार विधानसभा में उन की पार्टी राजद के 81 विधायक हैं और राजद ही विधानसभा में सब से बड़ी पार्टी है. जद (यू) के 71, भाजपा के 53 और कांग्रेस के 27 विधायक हैं.

विधानसभा में सब से बड़ी पार्टी होने के बाद भी पिछले लोकसभा चुनाव में राजद का खाता नहीं खुल सका. इस की सब से बड़ी वजह बिहार के सियासी अखाड़े से लालू यादव की गैरमौजूदगी होना रही.

बिहार में ज्यादातर नेताओं के बेटे अपने पिता लालू यादव की सियासी विरासत को संभालने और बाप जैसा रसूख पाने में नाकाम ही रहे हैं.

बिहार के पहले मुख्यमंत्री रहे श्रीकृष्ण सिंह के बेटे स्वराज सिंह और शिवशंकर सिंह विधायक तो बने, पर अपने पिता के कद को हासिल नहीं कर सके.

ये भी पढ़ें- अनंत सिंह सरकारी फंदे में

समाजवादी नेता और राज्य के धाकड़ मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर कई बार विधायक और मंत्री तो बने, पर नेतागीरी के मामले में पिता जैसी ऊंचाई नहीं पा सके.

मुख्यमंत्री रहे चंद्रशेखर सिंह की बीवी तो सांसद बनीं, पर उन के बेटे राजनीति में कुछ नहीं कर सके. रेल मंत्री रहे ललित नारायण मिश्रा के बेटे विजय कुमार मिश्रा भी अपने पिता के बराबर की लकीर भी नहीं खींच सके.

भागवत झा आजाद के बेटे कीर्ति आजाद और जगदेव प्रसाद के बेटे नागमणि आज तक पिता के नाम पर ही राजनीति कर रहे हैं. वे अपना खास वजूद बनाने में नाकाम ही रहे हैं.

कांग्रेस के दिग्गज नेता राजेंद्र सिंह के बेटे समीर सिंह और बुद्धदेव सिंह के बेटे कुणाल सिंह ने कई बार विधानसभा का चुनाव लड़ा, पर जीत नहीं पाए. ‘शेरे बिहार’ कहे जाने वाले रामलखन सिंह यादव के बेटे प्रकाश चंद्र पिता जैसी हैसियत पाने को तरसते ही रह गए.

लालू प्रसाद यादव की बात करें तो 5 जुलाई, 1997 को जनता दल से अलग हो कर उन्होंने नई पार्टी राष्ट्रीय जनता दल बनाई थी. उस के बाद साल 2005 तक बिहार पर राजद ने राज किया था. वे 2 दशकों तक बिहार में सरकार और सियासत की धुरी रहे, ऐसे में उन का सत्ता से दूर होना पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन गया है.

गौरतलब है कि जनवरी, 1996 में 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाले का भंडाफोड़ हुआ था. इस घोटाले की जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपा गया था. 17 साल तक की जांच और अदालती सुनवाई के बाद लालू प्रसाद यादव समेत पहले के मुख्यमंत्री और जद (यू) नेता जगन्नाथ मिश्र जो अब नहीं रहे, जद (यू) सांसद जगदीश शर्मा, राजद विधायक आरके राणा समेत 32 आरोपियों को सजा मिली है.

सत्ता और लगातार मिलती कामयाबी ने लालू प्रसाद यादव को बौरा भी दिया था. उन के बदलते तेवरों की वजह से उन के कई भरोसेमंद साथी एकएक कर उन का साथ छोड़ने लगे.

पहली बार उन की पार्टी राजद को सब से बड़ा झटका फरवरी, 2014 में लगा था, जब उन की पार्टी के 13 विधायकों ने उन्हें ‘बायबाय’ कर दिया था और सब उन के प्रतिद्वंद्वी रहे नीतीश कुमार के खेमे में जा बैठे थे.

सम्राट चौधरी, राघवेंद्र प्रताप सिंह, ललित यादव, रामलषण राम, अनिरुद्ध कुमार, जावेद अंसारी जैसे कद्दावर नेताओं ने लालू प्रसाद यादव का साथ छोड़ दिया था. इन नेताओं का आरोप था कि लालू प्रसाद यादव ने राजद को कांग्रेस की बी टीम बना कर रख दिया है.

ये भी पढ़ें- धारा 370: किस तरफ चली कांग्रेस की धारा

इस झटके से लालू प्रसाद यादव उबर भी नहीं पाए थे कि उन के सब से भरोसेमंद सिपहसालार और आंखकान माने जाने वाले रामकृपाल यादव ने उन की ‘लालटेन’ छोड़ कर भाजपा का ‘कमल’ थाम लिया था. उस के बाद दानापुर के कद्दावर नेता श्याम रजक भी उन का साथ छोड़ नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हो गए थे.

लालू प्रसाद यादव की सब से बड़ी कमजोरी यह रही है कि पार्टी के ऊंचे पदों पर वे अपने परिवार के लोगों को ही बिठाना चाहते हैं.

साल 1997 में जब चारा घोटाले में मामले में लालू यादव पहली बार जेल गए थे तो अपनी पत्नी राबड़ी देवी को रसोईघर से निकाल कर मुख्यमंत्री की कुरसी पर बिठा दिया था. उस के बाद वे जेल से ही राजपाट चलाते रहे.

अब कुछ महीने पहले जब चारा घोटाले पर अंतिम फैसला आने की सुगबुगाहट चालू हुई तो पार्टी के बड़े नेताओं के बजाय अपने बेटे तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव को आगे ला कर खड़ा कर दिया.

पिछले लोकसभा चुनाव में भी पाटलिपुत्र सीट से अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती को चुनाव मैदान में उतारा था और उस बाद भी वे चुनाव हार गईं.

पटना यूनिवर्सिटी के प्रोफैसर राजीव रंजन कहते हैं कि बिहार की राजनीति में अब लालू प्रसाद यादव को फिर जीरो से शुरुआत करने की जरूरत होगी.

साल 1990 के विधानसभा चुनाव के समय जन्म लेने वाले बच्चे आज वोटर बन चुके हैं और वे अपने कैरियर के साथ नए बिहार का सपना भी देखबुन रहे हैं. नीतीश कुमार के 19 सालों के काम के सामने सामाजिक न्याय के मसीहा लालू प्रसाद यादव कमजोर नजर आने लगे हैं.

बदलते बिहार और नौजवान वोटरों के मनमिजाज को लालू प्रसाद यादव और उन के लाल अब तक भांप नहीं सके हैं. वे अभी भी सामाजिक न्याय, आरक्षण और लालटेन जैसे चुक गए नारों की ही रट लगाते रहते हैं. समय के साथ उन्होंने न खुद की सोच को बदला और न ही वे नए सियासी नारे ही पढ़ पाए हैं.

गौरतलब है कि बिहार में अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित 38 सीटों के अलावा 60 ऐसी विधानसभा सीटें भी हैं जहां दलित निर्णायक स्थिति में हैं, क्योंकि वहां उन की आबादी 16 से 30 फीसदी है.

राज्य के 38 जिलों व 40 लोकसभा सीटों और 243 विधानसभा सीटों पर जीत उसी की होती है, जो बिहार की कुल 119 जातियों में से ज्यादा को अपने पक्ष में गोलबंद करने में कामयाब हो जाता है.

ये भी पढ़ें- उर्मिला ने दिया कांग्रेस से इस्तीफा, लोकल नेताओं पर

लालू प्रसाद यादव माय समीकरण (मुसलिमयादव) के बूते बिना कुछ काम किए 15 सालों तक बिहार पर राज करते रहे थे. नीतीश कुमार बारबार तरक्की का नारा लगाते रहे हैं, पर चुनाव के समय उन के इस नारे पर जातिवाद ही हावी होता रहा है. टिकट के बंटवारे में हर दल यही देखता है कि उन का उम्मीदवार किस जाति का है और जिस क्षेत्र से वह चुनाव लड़ रहा है, वहां कौनकौन सी जातियों के वोट उसे मिल सकेंगे. बिहार की कुल आबादी 10 करोड़, 50 लाख है और 6 करोड़, 21 लाख वोटर हैं. इन में 27 फीसदी  अतिपिछड़ी जातियां, 22.5 फीसदी पिछड़ी जातियां, 17 फीसदी महादलित, 16.5 फीसदी मुसलिम, 13 फीसदी अगड़ी जातियां और 4 फीसदी अन्य जातियां हैं.

वंचित मेहनतकश मोरचा के अध्यक्ष किशोरी दास कहते हैं कि जाति के नाम पर पिछड़ों और दलितों के केवल वोट ही लिए गए हैं, उन्हें आज तक किसी भी सियासी दल या सरकार ने कुछ नहीं दिया.

बिहार राज्य की राजनीति सामाजिक समीकरण से नहीं, बल्कि जातीय समीकरण से चलती रही है. हर दल का जातीय समीकरण है. कांग्रेस सवर्ण, मुसलिम और दलित वोट को गोलबंद करने में लगी रही है तो लालू प्रसाद यादव मुसलिमों और यादवों के बूते राजनीति चमकाते रहे हैं.

नीतीश कुमार कुर्मी, कुशवाहा, दलित और महादलित के वोट पाते रहे हैं, वहीं रामविलास पासवान दुसाध और महादलितों की बात करते रहे हैं. भाजपा अगड़ी जातियों के साथ वैश्यों और पिछड़ी जातियों को लुभाती रही है.

लालू प्रसाद यादव की ही बात करें तो वे भी हमेशा से पोंगापंथ के जाल में उलझे रहे हैं. पिछड़ों और दलितों को आवाज देने का दावा करने वाले लालू प्रसाद यादव भी चुनाव में जीत के लिए जनता से ज्यादा मंदिर और मजार पर यकीन करते रहे हैं.

चारा घोटाला में फंसने और उस के बाद उस मामले में आरोप साबित होने के बाद से लालू प्रसाद यादव अपनी जिंदगी की सब से बड़ी सियासी और कानूनी मुश्किलों से जूझते रहे हैं. वे चारा घोटाला मामले में जेल में बंद हैं और उन की पार्टी का वजूद खतरे में है.

लालू प्रसाद यादव की सब से बड़ी गलती यही रही है कि उन्होंने अपनी पार्टी में दूसरे नेताओं को ताकतवर नहीं बनाया, ताकि पार्टी हमेशा उन की मुट्ठी में रहे. अपनी पार्टी के एक से 10वें नंबर तक केवल लालू प्रसाद यादव ही रहे. अब जब वे जेल गए हैं तो उन्हें अपनी इस गलती का अहसास हो रहा है, पर अब कुछ किया नहीं जा सकता है.

राष्ट्रीय जनता दल में रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह, अब्दुलबारी सिद्दीकी जैसे कई धाकड़ और असरदार नेता हैं, पर लालू प्रसाद यादव ने कभी उन्हें आगे बढ़ने नहीं दिया. उन की हालत ऐसी कर के रखी कि लालू प्रसाद यादव के बगैर वे बेजार साबित हों. अब जो हालात पैदा हुए हैं, उन में पार्टी के विधायकों को एकजुट रखना सब से बड़ी चुनौती है.

ये भी पढ़ें- प्लास्टिक के बर्तन और जमीन पर बिछौना, जेल में यूं

लालू प्रसाद यादव के स्टाइल की ठेठ गंवई सियासत की कमी बिहार को खल रही है. बिना किसी लागलपट के अपनी धुन में अपने मन की बात और भड़ास मौके बे मौके कह देने वाले लालू प्रसाद यादव के बगैर बिहार का राजनीतिक गलियारा सूना पड़ गया है.

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अकसर हंसीमजाक में कहते थे कि जब तक समोसे में आलू रहेगा, तब तक बिहार की राजनीति में लालू रहेगा. आज बिहार के सियासी समोसे से गायब लालू प्रसाद यादव झारखंड की जेल में बंद हैं, जिस से निश्चय ही पटना से ले कर दिल्ली तक के सियासी समोसे का मजा किरकिरा हो चुका है.

बदहाल सरकारी अस्पताल

गांवदेहात के तमाम इलाकों से राजधानी पटना तक के सरकारी अस्पतालों में इलाज का सही इंतजाम नहीं है. जिला अस्पताल या ब्लौक अस्पताल तो इन गरीबों को बड़े अस्पतालों में रैफर कर देते हैं, जबकि इन के पास राजधानी के अस्पतालों में जाने के लिए भाड़ा तक नहीं होता. मजबूर हो कर ऐसे लोग सूद पर या जेवर गिरवी रख कर इन सरकारी अस्पतालों में इलाज कराते हैं.

औरंगाबाद जिले के कंचननगर के बाशिंदे 25 साला जयप्रकाश का पूरा शरीर लुंज हो गया था. इलाज के लिए आसपड़ोस के लोगों ने चंदा जमा कर उसे एम्स अस्पताल, दिल्ली भिजवाया. एक महीने तक जांच होने पर भी बीमारी का पता नहीं चल सका और जयप्रकाश लौट कर अपने गांव चला आया.

अमीर तबके के लोग तो देशविदेश तक में अपना इलाज करा रहे हैं, पर गरीबों के लिए सरकारी इलाज भी मजाक बन कर रह गया है. सरकारी अस्पतालों में जचगी के लिए आई औरतों को कोई न कोई बहाना बना कर प्राइवेट अस्पतालों में आपरेशन से बच्चा पैदा करने के लिए मजबूर किया जाता है.

सरकारी अस्पताल के बहुत से मुलाजिमों का इन प्राइवेट अस्पतालों से कमीशन बंधा हुआ है और यह खेल पूरे बिहार में बिना डर के खुलेआम चल रहा है.

गरीबों का इलाज

अगर अमीर लोग भी सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने के लिए जाते हैं तो उन का खासा खयाल रखा जाता है. पटना पीएमसीएच जैसे अस्पताल में भी जिन लोगों की पैरवी होती है, उन पर खासा ध्यान दिया जाता है. गरीबों की न तो कोई पैरवी होती है, न ही वे ज्यादा पैसा खर्च कर पाते हैं.

ये भी पढ़ें- मां के गर्भ में ही टूट चुकी थी 35 हड्डियां, रोंगटे खड़े कर देती है स्पर्श शाह की स्टोरी

जांच के नाम पर प्राइवेट और सरकारी अस्पताल के डाक्टरों का कमीशन बंधा हुआ है. जिस जांच का कोई मतलब नहीं होता है, वह भी कमीशन के फेर में कराई जाती है.

प्रदेश का सूरतेहाल

100 कुपोषित जिलों में से 18 जिले बिहार के हैं. इन जिलों में गोपालगंज, औरंगाबाद, मुंगेर, नवादा, बांका, जमुई, शेखपुरा, पश्चिमी चंपारण, दरभंगा, सारण, रोहतास, अररिया, सहरसा, नालंदा, सिवान, मधेपुरा, भागलपुर और पूर्वी चंपारण शामिल हैं.

11 जिलों में औसत से कम लंबाई के बच्चे हैं. उन जिलों में जमुई, मुंगेर, पटना, बक्सर, दरभंगा, खगडि़या, बेगूसराय, अररिया, रोहतास, मुजफ्फरपुर और सहरसा में ठिगनेपन की समस्या है.

सेहत का मतलब शारीरिक और मानसिक रूप से सेहतमंद होना है, लेकिन दोनों लैवलों पर बिहार की हालत ज्यादा चिंताजनक है. गरीबों की जबान पर एक नाम है पटना का पीएमसीएच सरकारी अस्पताल. बिहार के किसी कोने में भी गरीबों को अगर कोई गंभीर बीमारी होती है तो लोग सलाह देते हैं कि पटना पीएमसीएच में चले जाओ. लेकिन बहुत से मरीज यहां आ कर भी बुरी तरह फंस जाते हैं.

इस अस्पताल में बिहार के कोनेकोने से मरीज आते हैं. उन्हें यह यकीन होता है कि यहां अच्छा इलाज होगा, लेकिन यहां भी घोर बदइंतजामी है.

इस अस्पताल में 1,675 बिस्तर हैं लेकिन मरीजों की तादाद दोगुनी है. इमर्जैंसी में 100 से बढ़ा कर 200 बिस्तर किए गए हैं लेकिन स्टाफ की तादाद नहीं बढ़ाई गई है. ओपीडी में तकरीबन रोजाना 1,500 से ले कर 2,500 तक मरीज आते हैं.

इस अस्पताल में 1,258 नर्सों की जगह 1,018 नर्स बहाल हैं. 27 ओटी असिस्टैंट में से महज 19 ही बहाल हैं. 28 ड्रैसर में से महज 11 ही बहाल हैं. 37 फार्मासिस्ट की जगह 31 हैं. 21 लैब टैक्निशियन की जगह 14 हैं.

ये भी पढ़ें- यह पौलिथीन आपके लिए जहर है!

ब्लड बैंक में 6 मैडिकल अफसरों में से महज 2 ही बहाल हैं. सैंट्रल इमर्जैंसी के लिए 25 डाक्टरों का कैडर बनना था जो आज तक नहीं बना है.

मर्द डाक्टरों से जचगी

बिहार के गांवदेहात के क्षेत्रों से ले कर शहर तक के सरकारी अस्पतालों में महिला डाक्टरों की कमी है. इस राज्य में 68 फीसदी महिला डाक्टरों के पद खाली हैं. स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ के 533 फीसदी पद स्वीकृत हैं. इन में से महज 167 पद ही भरे गए हैं और 366 पद खाली हैं. संविदा पर नियुक्ति के लिए राज्य स्वास्थ्य समिति ने 88 महिला डाक्टरों की नियुक्ति की जिस में से महज 48 लोगों ने योगदान किया.

बेगूसराय, जहानाबाद, वैशाली, कैमूर, सारण वगैरह जगहों के पीएचसी में मर्द डाक्टरों द्वारा एएनएम का सहारा ले कर जचगी कराने का सिलसिला जारी है. ऐसे डाक्टरों से औरतों का शरमाना लाजिमी है, पर मजबूरी में वे उन्हीं से जचगी करा रही हैं.

बिहार प्रदेश छात्र राजद के प्रभारी राहुल यादव का कहना है कि स्वास्थ्य सूचकांक के सर्वे में बिहार सब से निचले पायदान पर है. स्वास्थ्य सेवाएं बढ़ने के बजाय इस राज्य में उस की लगातार गिरावट जारी है.

भारत और राज्य सरकार का सेहत से जुड़ा खर्च दुनिया में सब से कम है. बिहार देश में सब से कम खर्च करने वाला राज्य है जो राष्ट्रीय औसत से भी एकतिहाई कम खर्च करता है.

पिछले 12 सालों से सत्ता पर काबिज नीतीश सरकार का ध्यान शायद इस ओर नहीं है. ऐसा लगता है कि हमारा देश और राज्य दुनिया में ताल ठोंक कर परचम लहरा रहा है, लेकिन सचाई कुछ और ही है.

बिहार की सरकार स्वास्थ्य पर खर्च 450 रुपए प्रति व्यक्ति सालाना करती है, जबकि एक बार की डाक्टर की फीस 500 रुपए है. बिहार का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है.

सरकार की उदासीनता की वजह से स्वास्थ्य सुविधाएं इस राज्य के गरीबों की जेब पर भारी पड़ती जा रही हैं और इलाज के लिए लोग घरखेत तक बेचने के लिए मजबूर हैं.

ये भी पढ़ें- पत्नी की डिलीवरी के पैसे नहीं चुकाए तो ससुराल

डाक्टर जब मरीज के परिवार वालों को बोलता है कि 4 लाख रुपए जमा करो या फिर मरीज को मरने के लिए अपने घर ले जाओ, उस समय उन पर क्या गुजरती है, यह सोच कर कलेजा मुंह को आ जाता है. कभीकभार ऐसा भी होता है कि जमीनजायदाद बेचने के बाद भी मरीज की मौत हो जाती है. उस के बाद उस का परिवार सड़क पर आ जाता है.

सच तो यह है कि तरक्की का जितना भी ढोल पीट लिया जाए लेकिन सेहत के मामले में बिहार पूरी तरह फिसड्डी साबित हो चुका है.

अनंत सिंह सरकारी फंदे में

ललन सिंह को लोकसभा चुनाव में चुनौती देना बाहुबली विधायक अनंत सिंह यानी ‘छोटे सरकार’ को महंगा पड़ गया है. उन के पीछे पूरा सरकारी कुनबा पड़ गया है, जिस से उन की मुश्किलों का कोई अंत होता नहीं दिख रहा है.

साल 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के समय से ही नीतीश कुमार और अनंत सिंह के बीच ठनी हुई है. मोकामा से जब जनता दल (यूनाइटेड) ने अनंत सिंह को टिकट नहीं दिया तो उन्होंने 2 सितंबर, 2015 को जद (यू) से नाता तोड़ कर निर्दलीय चुनावी अखाड़े में कूद कर जद (यू) के उम्मीदवार नीरज कुमार को पटकनी दी थी. अनंत सिंह ने साल 2005 और साल 2010 का विधानसभा चुनाव जद (यू) के टिकट पर ही लड़ा और जीता था.

‘सरकार’ से पंगा लेना ‘छोटे सरकार’ को अब काफी महंगा पड़ने वाला है. उन के बाढ़ के लदमां के पुश्तैनी घर पर 16 अगस्त की सुबह 4 बजे पुलिस ने छापा मारा था. पुलिस को सूचना मिली थी कि विधायक और उन के समर्थक घर में छिपा कर रखे गए गैरकानूनी हथियारों को हटाने वाले हैं.

अनंत सिंह के घर की घेराबंदी कर छापामारी की गई. उन के घर से एक एके-47 रायफल, 2 हैंड ग्रैनेड और 26 कारतूस (7.62 एमएम) बरामद किए गए थे. एके-47 को प्लास्टिक के साथ कार्बन से पैक कर के रखा गया था.

कार्बन से पैक करने का मतलब है कि गाड़ी की जांच के दौरान एके-47 रायफल पुलिस और मैटल डिटैक्टर की पकड़ में नहीं आए.

घर के खपरैल वाले कमरे में संदूक के पीछे बड़ी ही चालाकी के साथ उसे छिपा कर रखा गया था. बरामद हैंड ग्रैनेड ऐक्सप्लोसिव-36 का है. एके-47 रायफल असैंबल की हुई?है.

पुलिस का मानना है कि जबलपुर और्डिनैंस फैक्टरी से एके-47 के पार्ट्स चोरी हुए थे. चोरों ने उसे मुंगेर में असैंबल किया था. छापामारी के बाद बाढ़ थाने में विधायक समेत कई अज्ञात लोगों पर केस दर्ज किया गया था.

अनंत सिंह और उन के गुरगों पर आर्म्स ऐक्ट, यूएपीए (अनलौफुल ऐक्टिविटीज प्रिवैंशन ऐक्ट) और विस्फोटक पदार्थ ऐक्ट की धाराएं लगाई गई हैं.

ये भी पढ़ें- धारा 370: किस तरफ चली कांग्रेस की धारा

यूएपीए साल 1967 में बना था. इस ऐक्ट की धारा 13 का आरोपित आरोपपत्र के 180 दिनों तक नजरबंद और 30 दिनों तक पुलिस की हिरासत में रखा जा सकता है. प्रतिबंधित हथियारों को रखने, इस्तेमाल करने और एक जगह से दूसरी जगह ले जाने वाले के खिलाफ इस ऐक्ट का इस्तेमाल किया जाता है.

इसी साल जुलाई माह में इस ऐक्ट की कई धाराओं में संशोधन किया गया है, जिस के तहत किसी को आतंकवादी भी करार दिया जा सकता है.

अनंत सिंह का कहना है कि उन्हें बेवजह परेशान करने की नीयत से यह छापेमारी की गई है. जिस घर में छापा मारा गया है, वहां कोई नहीं रहता है. पुलिस ने उन्हें फंसाने के लिए उन के घर में एके-47 रायफल रख दी है. सरकार के इशारे पर उन के पुश्तैनी घर को तोड़ा जा रहा है. बिना किसी कुर्की और वारंट के घर को खोदा जा रहा है.

गौरतलब है कि कुख्यात भोला सिंह और उस के भाई मुकेश सिंह की हत्या की साजिश रचने के मामले की एक आडियो क्लिप पुलिस के हाथ लगी थी. उस में अनंत सिंह बड़े और कुछ छोटे हथियारों के बारे में बात कर रहे थे. आडियो को सुनने के बाद से ही पुलिस हथियारों की खोज में लगी हुई थी.

आडियो क्लिप में इस बात का भी जिक्र है कि एके-47 रायफल भोला सिंह और उस के भाई की हत्या के लिए मंगाई गई थी.

आडियो क्लिप पुलिस के हाथ लगने के बाद ही अनंत सिंह और उन के गुरगे सतर्क हो गए थे और हथियारों को छिपा कर रख दिया था. आडियो की आवाज से अनंत सिंह की आवाज का मिलान करने के लिए पुलिस उन की आवाज भी रैकौर्ड करा चुकी है.

17 अगस्त को पुलिस ने अनंत सिंह की गिरफ्तारी के लिए कोर्ट में अर्जी दी. उन पर यूएपीए की धारा-13, विस्फोटक ऐक्ट 3/4, आर्म्स ऐक्ट की धारा-25 (1-ए), 25 (1-एए), 25 (1-बी), 26/35 के अलावा आईपीसी की धारा 414, 120 बी के तहत बाढ़ थाने में केस दर्ज किया गया है.

बाढ़ थाने के थानेदार संजीत कुमार के बयान पर केस दर्ज किया गया है. केस का आईओ एएसपी लिपि सिंह को बनाया गया है. पुलिस ने अनंत सिंह के पुश्तैनी गांव के मकान के केयरटेकर सुनील राम को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया है.

अनंत सिंह पर पहले से ही बिहार और झारखंड के अलगअलग थानों में 53 आपराधिक मामले दर्ज हैं. इन में हत्या, हत्या की कोशिश, हत्या के लिए अपहरण, गैरकानूनी तरीके से हथियार और विस्फोटक सामान रखने के मामले शामिल हैं.

साल 2015 में जब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के साथ मिल कर सरकार बनाई थी तो उस समय भी अनंत सिंह को सरकारी आफत का सामना करना पड़ा था. उस समय उन्हें जेल की सलाखों के पीछे भेजना राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की बहुत बड़ी सियासी चाल थी. अनंत सिंह को गिरफ्तार करा कर लालू प्रसाद यादव ने नीतीश कुमार से कई सालों पुराना बदला भी साध लिया था.

ये भी पढ़ें- उर्मिला ने दिया कांग्रेस से इस्तीफा, लोकल नेताओं पर

साल 2005 में सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के करीबी बाहुबली नेता शहाबुद्दीन को जेल में ठूंस दिया था. शहाबुद्दीन आज तक जेल से बाहर नहीं निकल सके हैं.

17 जून, 2015 को बाढ़ में 4 लड़कों के अपहरण और उन में से एक पवन यादव उर्फ पुटुस यादव की हत्या के मामले में अनंत सिंह 24 जून को जेल में ठूंस दिए गए थे. उस समय भी उन के घर की छापेमारी में इंसास रायफल की 6 मैगजीन, खून से सने कपड़े, बुलेटप्रूफ जैकेट वगैरह सामान बरामद किया गया था.

साल 2004 में जब एसटीएफ ने अनंत सिंह के गांव लदमां में छापा मारा था तो इन के गुरगों ने गोलीबारी शुरू कर दी थी, जिस में एसटीएफ के एक जवान की मौत हो गई थी. उस समय भी पुलिस ने अनंत सिंह के घर से ढेर सारे हथियार, कारतूस और गोलाबारूद बरामद किया था.

गौरतलब है कि अनंत सिंह के पनपने में नीतीश कुमार का बहुत बड़ा हाथ रहा है. वे नीतीश कुमार के लिए भीड़ और वोट जुटाने का काम करते थे और चुनाव में हर तरह से मदद करते थे.  पर अब मामला उलट गया है.

पर याद रहे कि भूमिहार जाति से ताल्लुक रखने वाले अनंत सिंह की अपनी जाति और अपने चुनाव क्षेत्र मोकामा में रौबिनहुड जैसी इमेज है. नीतीश कुमार को अगामी चुनावी में भूमिहार वोट का नुकसान हो सकता है.

गौरतलब है कि राज्य में भूमिहारों के 2.9 फीसदी वोट हैं. जमीन के मामले में मजबूत और दबंग भूमिहार जाति के बीच नीतीश कुमार को ले कर काफी नाराजगी है.

‘मगहिया डौन’ और मोकामा

पटना शहर से 90 किलोमीटर दूर बसी मोकामा नगरपालिका पटना जिले में ही आती है. 57 साल के बाहुबली नेता अनंत सिंह 3 बार मोकामा के विधायक रह चुके हैं. साल 2005 में पहली बार उन्होंने जद (यू) के टिकट से मोकामा विधानसभा सीट से चुनाव जीता था. साल 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने जीत हासिल की थी. उस के बाद साल 2015 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने जद (यू) से नाता तोड़ कर निर्दलीय चुनाव लड़ा था और जद (यू) के उम्मीदवार नीरज कुमार को हराया था.

ये भी पढ़ें- प्लास्टिक के बर्तन और जमीन पर बिछौना, जेल में यूं

मर्सडीज बैंज कार और बग्घी के शौकीन अनंत सिंह ‘मगहिया डौन’ के नाम से भी जाने जाते हैं. उन का दावा है कि वे अपने क्षेत्र में 10,000 से ज्यादा गरीब लड़कियों की शादी करा चुके हैं.

धारा 370: किस तरफ चली कांग्रेस की धारा

कश्मीर में धारा 370 के हटने से वहां के लोगों का कितना भला या बुरा होगा, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन कांग्रेस की धारा किस तरफ जा रही है, यह बड़ी चिंता की बात है. उस के नेता एक सुरताल में कतई नहीं दिख रहे हैं.

राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद को छोड़ कर और किसी गैर गांधी परिवार वाले को इस की कमान सौंपने का जो सपना देश की जनता को दिखाया था वह सोनिया गांधी को फिर से अंतरिम अध्यक्ष चुन कर तोड़ दिया गया है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच से लबरेज भारतीय जनता पार्टी मजबूत होती जा रही है.

शनिवार, 10 अगस्त, 2019 को कांग्रेस हैडक्वार्टर में दिनभर मचे घमासान में अध्यक्ष का फैसला नहीं हो सका था. राहुल गांधी को मनाने की पुरजोर कोशिश हुई, पर वे अध्यक्ष न बनने पर अड़े रहे. इस के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी को पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया गया और राहुल गांधी का लंबित चल रहा इस्तीफा भी स्वीकार कर लिया गया.

आज से कई साल पहले भारत की ज्यादातर जनता इस तरह की खबरों पर इतना ज्यादा ध्यान नहीं देती थी, लेकिन राजनीति से जुड़े लोग या विपक्षी दलों वाले ऐसे फेरबदल पर पैनी नजर रखते थे. चूंकि अभी कांग्रेस विपक्ष में है और राहुल गांधी किसी भी तरह से अपनी पार्टी में नई जान नहीं फूंक पा रहे थे इसलिए लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद उन्होंने तकरीबन ऐलान कर दिया था कि अगला अध्यक्ष कोई गैर कांग्रेसी होगा, ताकि जनता यह भरम अपने दिल से निकाल दे कि कांग्रेस का मतलब गांधीनेहरू परिवार ही है.

पर अफसोस, ऐसा हो न सका. पहले तो लोगों ने सोचा कि क्या पता राहुल गांधी ही अपनी जिद छोड़ देंगे या फिर वे प्रियंका गांधी के नाम पर सहमत हो जाएंगे. कुछ के दिमाग में यह भी चल रहा था कि शायद कांग्रेस किसी युवा चेहरे को जनता के सामने ले आए, पर जब कहीं कोई बात नहीं बनी तब सोनिया गांधी को कांटों का हार पहना दिया गया.

ये भी पढ़ें- उर्मिला ने दिया कांग्रेस से इस्तीफा, लोकल नेताओं पर फोड़ा ठीकरा

कभी इंदिरा गांधी को ले कर हवा बनाई गई थी कि ‘इंदिरा इज इंडिया’ और अब आज ऐसा ही कुछ सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष बनने के बाद महसूस हुआ है. लेकिन यह बात कांग्रेस के दोबारा फलनेफूलने में बड़ी बाधा साबित हो सकती है.

ऐसा कहने की एक बहुत बड़ी और खास वजह है. अभी जब भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने जम्मूकश्मीर से धारा 370 को हटाया तो इस ज्वलंत मसले पर भी कांग्रेस बंटी हुई दिखाई दी.

गुलाम नबी आजाद ने इस मुद्दे पर बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखी थी और लगा था कि कांग्रेस अब इस मसले को हवा दे कर लोगों को यह बताने में कामयाब हो जाएगी कि जबरदस्ती के थोपे गए इस फैसले पर वह जनता के साथ है.

लेकिन बाद में इसी पार्टी के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया समेत कई दूसरे नेताओं जैसे जनार्दन द्विवेदी, भुबनेश्वर कलिता, दीपेंद्र हुड्डा, मिलिंद देवड़ा, कर्ण सिंह और रंजीता रंजन ने धारा 370 पर केंद्र सरकार के फैसले का समर्थन कर दिया था.

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ट्वीट कर के कहा था कि जम्मूकश्मीर और लद्दाख को ले कर उठाए गए कदम और भारत देश में उन के पूरी तरह से एकीकरण का समर्थन करता हूं. संवैधानिक प्रक्रिया का पूरी तरह से पालन किया जाता तो बेहतर होता.

कुछ साल पहले तक सोनिया गांधी के बेहद करीबी माने जाने वाले जनार्दन द्विवेदी ने तो दो हाथ आगे बढ़ कर इस मुद्दे पर कहा, ‘मैं ने राम मनोहर लोहियाजी के नेतृत्व में राजनीति शुरू की थी. वे हमेशा इस धारा के खिलाफ थे. आज इतिहास की एक गलती को सुधार लिया गया है.’

ये भी पढ़ें- प्लास्टिक के बर्तन और जमीन पर बिछौना, जेल में यूं

भुबनेश्वर कलिता को कश्मीर मुद्दे को ले कर ह्विप जारी करना था लेकिन उन्होंने इस्तीफा दे दिया और कहा कि सचाई यह है कि देश का मिजाज पूरी तरह से बदल चुका है और यह ह्विप देश की जन भावना के खिलाफ है.

भुबनेश्वर कलिता ने जवाहरलाल नेहरू का भी जिक्र किया और कहा कि पंडितजी तो खुद धारा 370 के खिलाफ थे और उन्होंने कहा था कि एक दिन घिसतेघिसते यह खत्म हो जाएगी. आज कांग्रेस की विचारधारा से ऐसा लगता है कि पार्टी खुदकुशी करना चाहती है और मैं इस का भागीदार नहीं बनना चाहता हूं.

ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह राहुल गांधी के बेहद करीब माने जाने वाले हरियाणा के युवा कांग्रेसी नेता दीपेंद्र हुड्डा ने धारा 370 के मुद्दे पर कांग्रेस को गच्चा दे दिया. उन्होंने जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाने और राज्य को 2 केंद्रशासित प्रदेश के रूप में बांटने के सरकार के कदम का समर्थन करते हुए कहा कि यह फैसला देश की अखंडता और जम्मूकश्मीर के हित में है. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि यह उन की निजी राय है.

कांग्रेस नेता और पूर्व सांसद रंजीता रंजन ने कहा कि कांग्रेस पार्टी विपक्ष में है लेकिन विपक्ष में होने का मतलब यह नहीं है कि सरकार के हर फैसले का विरोध किया जाए. धारा 370 को हटना ही चाहिए. यह तो पहले से तय था कि धारा 370 को हटाना है. आज अगर उसे हटा दिया गया है तो यह सही फैसला है.

कांग्रेस नेता कर्ण सिंह ने धारा 370 के हटाए जाने पर कहा कि निजी तौर पर मैं इस फैसले के विरोध में नहीं हूं. इस के कई फायदे हैं. हालांकि, मैं इस को ले कर संसद द्वारा अचानक लिए गए फैसले से हैरान हूं. इस का अलगअलग लैवलों पर असर होगा, मेरी पूरे हालात पर नजर है. लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने का मैं स्वागत करता हूं.

साल 1965 में मैं ने खुद भी राज्य के पुनर्गठन की बात कही थी. नए परिसीमन के बाद पहली बार जम्मूकश्मीर रीजन में राजनीतिक शक्ति का सही से बंटवारा होगा.

युवा कांग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा ने इस मुद्दे पर कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि धारा 370 को उदार बनाम रूढि़वादी बहस में तबदील कर दिया गया. कांग्रेस पार्टी को अपनी विचारधारा से अलग हट कर इस पर चर्चा करनी चाहिए कि भारत की अखंडता और जम्मूकश्मीर में शांति बहाली कश्मीरी युवाओं को नौकरी और कश्मीरी पंडितों के न्याय के लिए बेहतर क्या है.

भारत पर इतने साल राज करने वाली कांग्रेस की इतनी बुरी हालत कभी नहीं हुई थी. अब जब भाजपा अपना राष्ट्रवादी एजेंडा देश पर थोप देना चाहती है तब अगर इस पार्टी के नेता यों अपने निजी विचार लोगों के सामने रखेंगे तो सोशल मीडिया के इस जमाने में कांग्रेस को और ज्यादा रसातल में जाने से कोई नहीं बचा पाएगा.

ये भी पढ़ें- क्या मायावती उत्तर प्रदेश में विपक्ष को कमजोर करना

नेताओं में विचारों की यह फूट सोनिया गांधी और राहुल गांधी के माथे पर चिंता की लकीरें बढ़ा रही है. सब से अहम सवाल तो यह है कि जो युवा नेता जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, दीपेंद्र हुड्डा राहुल गांधी के साथ जुड़ कर ताकतवर हो रहे थे, क्या वे उन के इस्तीफे के बाद कमजोर तो नहीं पड़ गए हैं या वे अपनेअपने राज्य के लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि देशहित से जुड़े धारा 370 के मुद्दे पर वे जनता की भावनाओं का सम्मान करते हैं, ताकि उन की सियासी जमीन न सरक जाए?

कांग्रेस के साथ दिक्कत यह रही कि जम्मूकश्मीर पुनर्गठन बिल पर वह भाजपा को दमदार तरीके से घेर न सकी. गुलाम नबी आजाद और शशि थरूर ने जरूर पार्टी के विचारों को जनता के सामने रखा था और जता दिया था कि देशभक्ति के नाम पर सरकार की मनमानी नहीं चलेगी, पर कांग्रेस के ही नेता अधीर रंजन चौधरी ने इसे भारत का आंतरिक मामला न कहते हुए पूरा खेल ही बिगाड़ दिया जिस से जनता को पता चलता कि क्यों कांग्रेस इस मसले पर अपना विरोध जाहिर कर रही है.

इस सब में एक बात और बेहद जरूरी है कि अब राहुल गांधी के भविष्य का क्या होगा? जो नेता उन के अध्यक्ष बनने के बाद हाशिए पर चले गए थे, वे सोनिया गांधी के दोबारा मजबूत होने से मन ही मन खुश हो रहे होंगे कि उन को अब दोबारा तवज्जुह मिलने लगेगी. अब तो राहुल गांधी के इस तरह अपने पद को छोड़ने के बाद उन की वापसी की राह भी मुश्किल हो जाएगी.

इस का सब से बड़ा फायदा अब प्रियंका गांधी को मिल सकता है, क्योंकि सोनिया गांधी के पास अब विकल्प के रूप में सिर्फ वे ही कांग्रेस का नया चेहरा बचती हैं. अगर सोनिया गांधी ज्यादा समय तक इसी तरह अंतरिम अध्यक्ष पद पर बनी रहीं तो फिर प्रियंका गांधी के लिए कांग्रेस की कमान संभालने में और ज्यादा आसानी रहेगी.

वैसे, अपने एक इंटरव्यू में कांग्रेस नेता शशि थरूर ने बताया कि किस तरह उन्होंने सुझाव दिया है कि चुनाव से कांग्रेस का अध्यक्ष तय किया जाए. उन्होंने इंगलैंड की कंजर्वेटिव पार्टी का उदाहरण देते हुए कहा कि उस की हालत हमारी पार्टी की हालत से भी कमजोर थी. उस हालत में उन्होंने जब चुनाव किया तो उस प्रक्रिया से लोगों के मन में भी कंजर्वेटिव पार्टी को ले कर दिलचस्पी जगी. कांग्रेस में भी ऐसा ही किया जाएगा तो पूरे देश का ध्यान कांग्रेस पर होगा कि कौन जीत रहा है, कौन हार रहा है. कार्यकर्ताओं को भी लगेगा कि अध्यक्ष उन्होंने तय किया है और इस से उन्हें मोटिवेशन मिलेगा.

इस के अलावा पिछले कुछ समय से कांग्रेस में जो गलतियां हुई हैं, उन से इस के नेताओं ने कोई खास सबक लिया नहीं है. उन्होंने सरकार के खिलाफ तो बहुतकुछ कहा, पर वे जनता तक अपना संदेश पहुंचाने में ज्यादा कामयाब नहीं रहे, जबकि भारतीय जनता पार्टी आज के समय में बहुत ज्यादा प्रोफैशनल हो चुकी है. उस के कार्यकर्ता बहुत ज्यादा संगठित हैं. मजबूत सोशल मीडिया सेल है. फंड भी बहुत ज्यादा बढ़ गया है. नरेंद्र मोदी अपनी मार्केटिंग बड़े जबरदस्त तरीके से करते हैं.

कांग्रेस ने इन बातों को हलके में लिया, जबकि उसे भी यह सब करना चाहिए था, लेकिन शायद कांग्रेस को लगा कि उसे मार्केटिंग की जरूरत नहीं है, क्योंकि उस की जनता में बहुत ज्यादा पैठ है और लोग नरेंद्र मोदी को जुमलेबाज समझ कर इन लोकसभा चुनावों में नकार देंगे, पर ऐसा हो न सका.

अब भारतीय जनता पार्टी ने जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटा कर यह जताने की कोशिश की है कि वह जो कहती है, कर के दिखाती है. यह मुद्दा अब कांग्रेस से हैंडल नहीं हो पा रहा है, क्योंकि उस के कई नेता इस फैसले के पक्ष में दिखाई दिए हैं.

ये भी पढ़ें- क्या इस खुलासे के बाद केजरीवाल की मुश्किलें

कोढ़ पर खाज तो यह है कि कांग्रेस की इस सियासी बेमेल खिचड़ी को सोशल मीडिया भी चटकारे लेले कर खा रहा है. लोगों को भाजपा से उतना प्रेम नहीं है, जितनी कोफ्त कांग्रेस की वैचारिक टूट से हो रही है. मणिशंकर अय्यर और दिग्विजय सिंह जैसे दिग्गजों का मीडिया के सामने बचकाना रुख अपनाना जनता को कतई रास नहीं आ रहा है. कांग्रेस को इस का सब से ज्यादा नुकसान उन जगहों पर उठाना पड़ सकता है जहां आने वाले समय में राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं.

लालबहादुर शास्त्री के बेटे और कांग्रेसी नेता अनिल शास्त्री ने धारा 370 को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस को चेताते हुए कहा, ‘कांग्रेस को अवश्य ही लोगों के मन को भांपना चाहिए और फिर कोई रुख अख्तियार करना चाहिए. इस मुद्दे पर लोग पूरी तरह से सरकार के साथ हैं. हम ने मंडल (कमीशन) का विरोध किया और उत्तर प्रदेश व बिहार को गंवा दिया और अब भारत को खोने का खतरा मोल नहीं लेना चाहिए.’

अनिल शास्त्री की यह देश गंवाने की चिंता जायज भी है क्योंकि अगर भाजपा अगले कुछ साल और इसी तरह देश पर राज करती रही तो वह राष्ट्रभक्ति के नाम पर ऐसेऐसे बड़े फैसले ले लेगी जो जनता को दिवास्वप्न में रखेंगे और जब तक जनता जागेगी तब तक चिडि़या खेत चुग चुकी होगी. शायद तब तक कांग्रेस की सियासी जमीन भी बंजर हो चुकी होगी, इसलिए कांग्रेस को अपने भीतर लगा यह आपातकाल जल्दी ही हटाना होगा.

उंगली पर नीली स्याही से नहीं बदलेगी जिंदगी

लेखक- सुनील शर्मा

अभी हाल ही में किसी ने सोशल मीडिया के एक मजबूत खंभे फेसबुक पर एक मैसेज अपलोड किया था कि आप सभी अपने घरों से निकल कर वोट देने जरूर जाएं. हर वोट कीमती है. ऐसा ही मैसेज किसी और ने भी लिखा था कि वोट देना हमारा हक ही नहीं फर्ज भी है, क्योंकि हर वोट जरूरी है. एक आम नागरिक के लिए वोट की अहमियत इतनी ज्यादा बता दी गई है कि 26 जनवरी यानी ‘गणतंत्र दिवस’ से एक दिन पहले 25 जनवरी को भारत में ‘राष्ट्रीय मतदाता दिवस’ मनाया जाता है. इस दिन को मनाने की वजह यह बताई गई है कि भारत जैसे दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र में वोट डालने को ले कर लोगों का रुझान कम होता जा रहा है.

ये भी पढ़ें- मोदी जी की सेना कहने पर सैनिक हुए खफा

सवाल उठता है कि वोट देना क्यों जरूरी है और जिन लोगों को हम चुन कर लोकसभा या विधानसभा में भेजते हैं, क्या वे हमारी समस्याओं को हल करने में कामयाब रहते हैं? अगर पिछले 5 साल की बात करें तो देश में भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पूरे बहुमत वाली तथाकथित दमदार सरकार रही. नरेंद्र मोदी के रूप में एक कद्दावर प्रधानमंत्री देश को मिला. लेकिन क्या वे देश की समस्याओं को हल कर सके? नहीं. और कभी कर भी नहीं पाएंगे. सच तो यह है कि कोई भी नहीं कर सकता है. इस की एक बहुत बड़ी वजह है और वह यह है कि जनता नेताओं से तो सवाल करती है कि उन्होंने देश की तरक्की के लिए क्या किया, लेकिन कभी वह खुद से भी सवाल करती है कि उस ने देश को आगे बढ़ाने में अपना क्या योगदान दिया है? गांव हों या शहर, कहीं भी नजर दौड़ा कर देख लीजिए, गंदगी के ढेर मिल जाएंगे, सड़कें और गलियां टूटीफूटी मिलेंगी, नालियों में बजबजाता गंदा पानी ओवरफ्लो हो रहा होगा, काम होगा भी तो भी हर जगह निठल्लों की फौज दिखाई देगी, सरकारी हों या प्राइवेट औफिस के लोग टाइमपास करते मिलेंगे, किसी तरह अपनी 8 घंटे की नौकरी हो जाए, बाकी दुनिया जाए फिर भाड़ में. बहुत से लोग दलील देते हैं कि हम ने तो टैक्स भर दिया, अब सारी जिम्मेदारी सरकार की है.

हमारा काम खत्म. लेकिन क्या इस सोच से देश हर मामले में अव्वल हो सकता है? कभी नहीं. वैसे भी अगर किसी देश ने तरक्की की है तो वह उस की जनता की बदौलत ही हुई है. सरकारें तो बस व्यवस्था को बनाए रखने में मददगार साबित हो सकती हैं. जनता अपना काम ईमानदारी से करे तो फिर किसी सरकार, पुलिस, सेना वगैरह की जरूरत ही नहीं होगी. इस बात को उदाहरण से समझते हैं. हमारा मानना है कि किसी गांव या शहर में जनता का असली साथी वहां की ग्राम पंचायत या नगरनिगम होता है. हमारे देश में ऐसे बहुत से गांव हैं जो अपने दम पर कुदरत के साथ खिलवाड़ किए बिना इतनी ज्यादा तरक्की कर चुके हैं कि दुनिया उन्हें देखने आती है. महाराष्ट्र का एक गांव है हिवरे बाजार. वहां के लोग साल 1989 तक बहुत पिछड़े हुए थे. जब कहीं से भी किसी तरह की सरकारी मदद नहीं मिली तो गांव के ही 25-30 नौजवानों ने फैसला लिया कि किसी भी तरह गांव के हालात को बदला जाए. इस के लिए उन्होंने गांव के ही एक जागरूक नौजवान पोपटराव पवार को एक साल के लिए वहां का सरपंच बनवा दिया. पोपटराव पवार ने उन नौजवानों के साथ मिल कर बाकी गांव वालों को अपने साथ जोड़ने का काम शुरू किया. ग्राम पंचायत का कोई भी फैसला तमाम गांव वालों के सामने लिया जाने लगा. बस, फिर क्या था. स्कूल के लिए जमीन चाहिए थी तो कुछ परिवारों ने अपनी जमीन दे दी. स्कूल के लिए कमरा बनवाना था तो सरपंच समेत पूरे गांव के लोगों ने श्रमदान किया. कुछ नौजवानों ने स्कूल में टीचरों की कमी भी पूरी कर दी. जिस के पास जितना समय था, वह स्कूल में पढ़ाने के लिए देने लगा.

ये भी पढ़ें- यूपी ही तय करेगा दिल्ली का सरताज

इन कोशिशों से गांव वालों की समझ में आ गया कि उन के गांव का भविष्य अब ठीक हो सकता है. लेकिन अभी दिल्ली दूर थी. सूखा पड़ता था इसलिए गांव में पानी की बहुत ज्यादा कमी थी. सरपंच पोपटराव पवार की सलाह पर गांव वालों ने चैकडैम बनाए. पानी का लैवल थोड़ा बढ़ा तो फैसला लिया गया कि किसान गन्ना, केला जैसी फसलें नहीं उगाएंगे क्योंकि ये फसलें ज्यादा पानी सोखती हैं. गांव में लोगों के बकरी पालने पर बैन लगाया गया, क्योंकि बकरियां जंगल में पौधे चर जाती थीं. एक और बड़ी समस्या थी कि गांव के कुछ लोगों ने ग्राम सभा की जमीन पर कब्जा कर लिया था. उन से जमीन छुड़वाना आसान काम नहीं था लेकिन ग्राम सभाओं में इस मुद्दे को बिना किसी मुकदमे के सुलझा लिया गया और पूरी जमीन से गैरकानूनी कब्जा हटवा कर उस में से कुछ जमीन गांव के गरीब परिवारों को दे दी गई. इस में सरकार का क्या योगदान रहा? न के बराबर. गांव के लोग और उन का जागरूक सरपंच ही यह बदलाव ले आए. इन्हीं देशी लोगों की मेहनत का ही नतीजा है कि आज यह गांव करोड़पति लोगों का गांव कहा जाता है. इस गांव को कई अवार्ड मिल चुके हैं.

दूसरे गांवों के सरपंच इसे देखने आते हैं कि वे भी सीख ले कर अपने गांव को सुधार सकें. हमारे देश में केवल हिवरे बाजार ही एकलौता गांव नहीं है जहां के सरपंच ने उसे तरक्की की राह दिखाई है. कुछ इसी तरह से उत्तर प्रदेश में नेपाल देश से सटे सिद्धार्थनगर जिले का एक गांव हसुडी औसानपुर आज डिजिटल गांव बन चुका है. वहां के सरपंच दिलीप त्रिपाठी ने अपने खर्चे पर इस पिछड़े गांव को अपनी मेहनत से दुनिया के नक्शे पर ला दिया है. सरपंच दिलीप त्रिपाठी ने बताया, ‘‘गांव वालों को अपने सरपंच पर यकीन करना पड़ेगा और साथ ही सरपंच को भी अपने काम में पारदर्शिता बरतनी होगी. अगर गांव वाले जागरूक होंगे तो वे गांव संबंधी छोटेमोटे काम तो खुद ही निबटा लेंगे. आपसी चंदा इस में बहुत बड़ा योगदान दे सकता है. ‘‘आजकल गांवों में एक बहुत बड़ी समस्या है कि लोग बेहतर जिंदगी की खातिर वहां से शहरों की तरफ भाग रहे हैं. इस से गांवों की तरक्की पर बुरा असर पड़ता है. इस का हल यही है कि वहां के बाशिंदे आपसी तालमेल से गांव को ही बेहतर बनाएं, ताकि उन्हें अपना गांव न छोड़ना पड़े.’’ दिलीप त्रिपाठी और गांव वालों की मेहनत का ही नतीजा है कि आज इस गांव में निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं. इस के अलावा गांव में वाईफाई की भी सुविधा है. गांव का जीआईएस मैपिंग का काम भी पूरा हो चुका है. गांव का हर घर गुलाबी रंग में रंग दिया गया है जो वहां की औरतों की बढ़ती ताकत को दिखाता है. सरकारी स्कूल के तो कहने ही क्या. वहां की दीवारों पर छात्रों को जागरूक करने वाले चित्रों और बातों को देख कर पता चलता है कि सरपंच की सोच किस हद तक मौडर्न है. इसी तरह राजस्थान का पिपलांत्री, गुजरात का पुंसारी, बिहार का धनरई, कर्नाटक का बेक्किनाकेरी, हरियाणा का छप्पर ऐसे आदर्श गांव हैं जहां सरपंच और वहां के लोगों की जुगलबंदी ने गांव की काया ही पलट दी है. यह सब होने में औरतों की भागीदारी को भी नहीं नकारा जा सकता है. मध्य प्रदेश के हरदा जिले की धनवाड़ा ग्राम पंचायत की महिला सरपंच लक्ष्मीबाई जाट ने स्वच्छता मिशन के तहत गांव में न केवल शौचालय बनवाए हैं, बल्कि गांव वालों को उन्हें इस्तेमाल करने के लिए जागरूक भी किया है. इतना ही नहीं, लक्ष्मीबाई जाट ने गांव की दीवारों को सजा कर उन पर पेंटिंग बनवाई हैं.

ये भी पढ़ें- बेहाल कर रही चुनावी डयूटी

इस के अलावा गांव की सभी सड़कों के किनारे नालियां बनवाई गई हैं और कोई भी सड़क पर कचरा नहीं फेंक सकता है. लक्ष्मीबाई जाट की इस लगन और मेहनत के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 फरवरी, 2019 को उन्हें ‘स्वच्छ शक्ति अवार्ड’ से सम्मानित किया था. गांवदेहात में जो काम पंचायत का होता है वही काम शहरों में नगरनिगम करता है. किसी शहर को साफसुथरा रखने में उसी का सब से बड़ा योगदान होता है और नगरनिगम के कर्मठ कर्मचारी अपने शहर के लोगों की मदद ले कर या उन्हें जागरूक कर के यह सब कर पाते हैं. नगरनिगम लोगों के लिए अस्पताल, पानी की सप्लाई, सीवर की सफाई करने, बाजार के लिए जगह, फायर ब्रिगेड, सड़क, पुल, सड़कों पर बिजली का इंतजाम, पार्क, शिक्षा और क्षेत्र में जन्म लेने और मरने वाले लोगों का ब्योरा रखने जैसे काम करता है. ये सब ऐसे काम हैं जिन में अगर जनता का सहयोग मिलता रहे तो नगरनिगम की राह आसान हो जाती है. ऐसे में मुंबई की ही मिसाल लें तो वहां की लोकल जनता अपने शहर को साफसुथरा बनाए रखने की पूरी कोशिश करती है. वैसे भी मुंबई नगरनिगम देश के सब से धनी नगरनिगमों में से एक है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, मुंबई में दिल्ली की तुलना में सेहत पर 3 गुना ज्यादा और शिक्षा पर 2 गुना ज्यादा खर्च पर ध्यान दिया जाता है जबकि मुंबई नगरनिगम के अंदर आने वाली आबादी दिल्ली से कहीं कम है. शहरों में नगरनिगम से भी एक छोटी इकाई होती है जिसे रैजिडैंट वैलफेयर एसोसिएशन कहते हैं.

इस में किसी खास महल्ले के लोग आपस में एक समिति बना कर महीनेवार पैसे जमा कर के अपने इलाके की देखभाल करने का बीड़ा उठाते हैं. अगर ईमानदारी बरती जाए तो यह आपसी सहयोग और काम करने की बड़ी मिसाल होती है. ऐसे बहुत से संगठन बिना किसी सरकारी मदद के अपने इलाके को चमका कर रखते हैं. पर जब ऐसी संस्थाओं पर धार्मिक आडंबर हावी होने लगता है तो महल्ले की भलाई में काम आने वाला पैसा जागरणोंकीर्तनों की भेंट चढ़ने लगता है. जो पैसा सफाई वाले की जेब में जाना चाहिए, वह पुजारी को चढ़ाया जाने लगता है. जब ऐसा होता है तो ऐसे संगठन टूट कर बिखर जाते हैं. कहने का मतलब यह है कि 5 साल में एक बार किसी सियासी दल को अपना वोट दे कर हम यह न समझें कि अब हमारा काम खत्म हो गया है. अब तो सरकार ही हमारे मुंह में निवाला डालेगी. पर ऐसा हकीकत में होता नहीं है. एक उदाहरण से इसे समझते हैं. मान लीजिए, आप शहर में किसी महल्ले में रहते हैं, एक दिन वहां का सफाई वाला नहीं आता है तो क्या आप के साथसाथ यह उस महल्ले के दूसरे लोगों का फर्ज नहीं बनता है कि वे जिस तरह अपने घर की सफाई करते हैं उसी तरह अपने घर के आसपास की 20 फुट की जगह को भी बुहार दें?

ये भी पढ़ें- केजरीवाल को थप्पड़ मारने का मतलब

मुश्किल से 10 मिनट में यह काम हो जाएगा और सभी एकसाथ करेंगे तो चुटकियों में पूरा महल्ला साफ दिखेगा. लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? हमारी इसी काहिली का फायदा तमाम सियासी दल उठाते हैं. वे जानते हैं कि ये सब तो दास मलूका के अजगर हैं, इन का चाकरी से क्या लेनादेना. इन्हें तो वोट के खेल में उलझाए रखो बस, क्योंकि अगर ये खुद सारे काम करने लगेंगे तो सरकार ही बेरोजगार हो जाएगी. और जब सब लोग मिलजुल कर काम करेंगे तो उन में बंधुत्व की भावना बढ़ेगी जिस से समाज में अपराध कम होंगे, तो फिर पुलिस और सेना भी किसी काम की नहीं रहेगी, इसलिए उन्हें हमारा काम करना ही सब से ज्यादा अखरता है जबकि हमारा काम ही देश की सच्ची तरक्की है. लिहाजा, चुनाव के समय नीली स्याही का इस्तेमाल तो करो, पर सियासी दलों की काली करतूतों से भी सावधान रहो. हरियाणा में एक कहावत है कि ‘खाल्ली बाणिया के करै, नून की ईंट नून धरै’. इस कहावत का मतलब है कि बनिया आप को कभी भी खाली नहीं मिलेगा. वह अपनेआप को मसरूफ रखता है. और आप को यह बताने की जरूरत नहीं है कि इस देश में जब अमीरों और पढ़ेलिखों की बात आती है तो उन में बनियों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें