गांवदेहात के तमाम इलाकों से राजधानी पटना तक के सरकारी अस्पतालों में इलाज का सही इंतजाम नहीं है. जिला अस्पताल या ब्लौक अस्पताल तो इन गरीबों को बड़े अस्पतालों में रैफर कर देते हैं, जबकि इन के पास राजधानी के अस्पतालों में जाने के लिए भाड़ा तक नहीं होता. मजबूर हो कर ऐसे लोग सूद पर या जेवर गिरवी रख कर इन सरकारी अस्पतालों में इलाज कराते हैं.
औरंगाबाद जिले के कंचननगर के बाशिंदे 25 साला जयप्रकाश का पूरा शरीर लुंज हो गया था. इलाज के लिए आसपड़ोस के लोगों ने चंदा जमा कर उसे एम्स अस्पताल, दिल्ली भिजवाया. एक महीने तक जांच होने पर भी बीमारी का पता नहीं चल सका और जयप्रकाश लौट कर अपने गांव चला आया.
अमीर तबके के लोग तो देशविदेश तक में अपना इलाज करा रहे हैं, पर गरीबों के लिए सरकारी इलाज भी मजाक बन कर रह गया है. सरकारी अस्पतालों में जचगी के लिए आई औरतों को कोई न कोई बहाना बना कर प्राइवेट अस्पतालों में आपरेशन से बच्चा पैदा करने के लिए मजबूर किया जाता है.
सरकारी अस्पताल के बहुत से मुलाजिमों का इन प्राइवेट अस्पतालों से कमीशन बंधा हुआ है और यह खेल पूरे बिहार में बिना डर के खुलेआम चल रहा है.
गरीबों का इलाज
अगर अमीर लोग भी सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने के लिए जाते हैं तो उन का खासा खयाल रखा जाता है. पटना पीएमसीएच जैसे अस्पताल में भी जिन लोगों की पैरवी होती है, उन पर खासा ध्यान दिया जाता है. गरीबों की न तो कोई पैरवी होती है, न ही वे ज्यादा पैसा खर्च कर पाते हैं.
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जांच के नाम पर प्राइवेट और सरकारी अस्पताल के डाक्टरों का कमीशन बंधा हुआ है. जिस जांच का कोई मतलब नहीं होता है, वह भी कमीशन के फेर में कराई जाती है.
प्रदेश का सूरतेहाल
100 कुपोषित जिलों में से 18 जिले बिहार के हैं. इन जिलों में गोपालगंज, औरंगाबाद, मुंगेर, नवादा, बांका, जमुई, शेखपुरा, पश्चिमी चंपारण, दरभंगा, सारण, रोहतास, अररिया, सहरसा, नालंदा, सिवान, मधेपुरा, भागलपुर और पूर्वी चंपारण शामिल हैं.
11 जिलों में औसत से कम लंबाई के बच्चे हैं. उन जिलों में जमुई, मुंगेर, पटना, बक्सर, दरभंगा, खगडि़या, बेगूसराय, अररिया, रोहतास, मुजफ्फरपुर और सहरसा में ठिगनेपन की समस्या है.
सेहत का मतलब शारीरिक और मानसिक रूप से सेहतमंद होना है, लेकिन दोनों लैवलों पर बिहार की हालत ज्यादा चिंताजनक है. गरीबों की जबान पर एक नाम है पटना का पीएमसीएच सरकारी अस्पताल. बिहार के किसी कोने में भी गरीबों को अगर कोई गंभीर बीमारी होती है तो लोग सलाह देते हैं कि पटना पीएमसीएच में चले जाओ. लेकिन बहुत से मरीज यहां आ कर भी बुरी तरह फंस जाते हैं.
इस अस्पताल में बिहार के कोनेकोने से मरीज आते हैं. उन्हें यह यकीन होता है कि यहां अच्छा इलाज होगा, लेकिन यहां भी घोर बदइंतजामी है.
इस अस्पताल में 1,675 बिस्तर हैं लेकिन मरीजों की तादाद दोगुनी है. इमर्जैंसी में 100 से बढ़ा कर 200 बिस्तर किए गए हैं लेकिन स्टाफ की तादाद नहीं बढ़ाई गई है. ओपीडी में तकरीबन रोजाना 1,500 से ले कर 2,500 तक मरीज आते हैं.
इस अस्पताल में 1,258 नर्सों की जगह 1,018 नर्स बहाल हैं. 27 ओटी असिस्टैंट में से महज 19 ही बहाल हैं. 28 ड्रैसर में से महज 11 ही बहाल हैं. 37 फार्मासिस्ट की जगह 31 हैं. 21 लैब टैक्निशियन की जगह 14 हैं.
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ब्लड बैंक में 6 मैडिकल अफसरों में से महज 2 ही बहाल हैं. सैंट्रल इमर्जैंसी के लिए 25 डाक्टरों का कैडर बनना था जो आज तक नहीं बना है.
मर्द डाक्टरों से जचगी
बिहार के गांवदेहात के क्षेत्रों से ले कर शहर तक के सरकारी अस्पतालों में महिला डाक्टरों की कमी है. इस राज्य में 68 फीसदी महिला डाक्टरों के पद खाली हैं. स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ के 533 फीसदी पद स्वीकृत हैं. इन में से महज 167 पद ही भरे गए हैं और 366 पद खाली हैं. संविदा पर नियुक्ति के लिए राज्य स्वास्थ्य समिति ने 88 महिला डाक्टरों की नियुक्ति की जिस में से महज 48 लोगों ने योगदान किया.
बेगूसराय, जहानाबाद, वैशाली, कैमूर, सारण वगैरह जगहों के पीएचसी में मर्द डाक्टरों द्वारा एएनएम का सहारा ले कर जचगी कराने का सिलसिला जारी है. ऐसे डाक्टरों से औरतों का शरमाना लाजिमी है, पर मजबूरी में वे उन्हीं से जचगी करा रही हैं.
बिहार प्रदेश छात्र राजद के प्रभारी राहुल यादव का कहना है कि स्वास्थ्य सूचकांक के सर्वे में बिहार सब से निचले पायदान पर है. स्वास्थ्य सेवाएं बढ़ने के बजाय इस राज्य में उस की लगातार गिरावट जारी है.
भारत और राज्य सरकार का सेहत से जुड़ा खर्च दुनिया में सब से कम है. बिहार देश में सब से कम खर्च करने वाला राज्य है जो राष्ट्रीय औसत से भी एकतिहाई कम खर्च करता है.
पिछले 12 सालों से सत्ता पर काबिज नीतीश सरकार का ध्यान शायद इस ओर नहीं है. ऐसा लगता है कि हमारा देश और राज्य दुनिया में ताल ठोंक कर परचम लहरा रहा है, लेकिन सचाई कुछ और ही है.
बिहार की सरकार स्वास्थ्य पर खर्च 450 रुपए प्रति व्यक्ति सालाना करती है, जबकि एक बार की डाक्टर की फीस 500 रुपए है. बिहार का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है.
सरकार की उदासीनता की वजह से स्वास्थ्य सुविधाएं इस राज्य के गरीबों की जेब पर भारी पड़ती जा रही हैं और इलाज के लिए लोग घरखेत तक बेचने के लिए मजबूर हैं.
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डाक्टर जब मरीज के परिवार वालों को बोलता है कि 4 लाख रुपए जमा करो या फिर मरीज को मरने के लिए अपने घर ले जाओ, उस समय उन पर क्या गुजरती है, यह सोच कर कलेजा मुंह को आ जाता है. कभीकभार ऐसा भी होता है कि जमीनजायदाद बेचने के बाद भी मरीज की मौत हो जाती है. उस के बाद उस का परिवार सड़क पर आ जाता है.
सच तो यह है कि तरक्की का जितना भी ढोल पीट लिया जाए लेकिन सेहत के मामले में बिहार पूरी तरह फिसड्डी साबित हो चुका है.