क्या क्षेत्रीय दल के वापसी का समय आ गया है !

2014 के चुनाव के बाद कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए , तो 2018 तक क्षेत्रीय पार्टी के नेताओं को कुछ कमाल नहीं देखा पाए , लेकिन बीते कुछ महीनों के चुनावी नतीजों में इनको शक्ति एक बार फिर उभरने लगी है .

2017 के दिसम्बर में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का शासन कई राज्यों के सत्ता में भी था . भारत के एक वृहद भूभाग पर था , वहीं 2019 के अंत आते आते वह सिमट कर आधे पर आ गया.

इसमें भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी कांग्रेस ने अपने क्षेत्रीय चेहरों के मदद से कई राज्यों में सत्ता में वापसी का रास्ता तय किया, तो दूसरे तरफ कई अन्य राज्यों के क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कई राजनीतिक पार्टी से समझौता कर सत्ता तक पहुंचने का रास्ता साफ किया.

सत्ता में वापसी करें वाले इन क्षत्रपों में हरियाणा के जेजेपी के दुष्यत चौटाला , आंध्र प्रदेश के वी एस आर के जगन मोहन रेड्डी , महाराष्ट्र के शिवसेना के ठाकरे एवम् एन सी पी के पावर फैमली , झारखंड में जे.एम.एम के हेमंत सोरेन हैं.

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हरियाणा में तो भाजपा ने चुनाव परिणामों के बाद जे.जे.पी से गठबंधन के सत्ता को अपने पास ही बरकरार रखने में कामयाबी पाई , जबकि महाराष्ट्र में अपने ही पूर्व सहयोगी दल शिवसेना से टकराव कर सत्ता से बाहर हो गई.

झारखंड में पार्टी का किसी से गठबंधन नहीं हुआ . पार्टी आत्मविश्वास से चुनाव में उत्तरी, लेकिन परिणाम सीटों के नहीं बदल पाया. वोट प्रतिशत में तो बढ़ोतरी हुई लेकिन सीटों के संख्या ने उम्मीद से अधिक गिरावट देखने को मिला.

परिणास्वरूप भाजपा के हाथ से एक और राज्य सत्ता से निकल गया . इन सब के पीछे कहीं ना कहीं क्षेत्रीय दलों के आपसी समझदारी और किसी भी शर्त पर सत्ता में रहेंगी की जिद्द है.

अगर समय रहते अगर केंद्रीय सत्तारूढ़ राजनीतिक दल भाजपा इन बातों पर गौर नहीं करती है, तो एक बार फिर क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां सत्ता में होगी.

झारखंड का चुनावी नतीजे बिहार को भी प्रभावित करेंगे . जहां तक संभव है , आरजेडी जो इस झारखंड के जे.एम.एम के चुनावी गठबंधन में सहयोगी है, वहीं सरकार में भी भूमिका होगी . लंबे समय के बाद सरकार में आने के बाद आरजेडी के लिए यह जीत संजीवनी का काम करेंगी . वहीं इसकी भी पूरी संभावना है कि रिम्स में लालू के अच्छे दिन आ गए हैं . वह वहां अपना दरबार लगा पाएंगे. अगले साल बिहार में चुनाव है , इसका असर साफ तौर पर बिहार में देखने को मिलेगा.

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साथ ही इन इस पराजय के बाद भाजपा से बिहार चुनाव में अपने लिए अधिक सीटों को मांग कर अगर नीतीश कुमार अपने पार्टी के लिए करते है तो उसमें कोई नई बात नहीं होगी. आगामी छह महीनों में भाजपा को इन बातों पर ध्यान देना ही होगा नहीं तो बिहार विधानसभा चुनाव में भी परिणाम अनुकूल नहीं होगा.

शिव सेना का बड़ा कदम

हिंदुत्व को देश पर एक बार फिर से थोप कर पंडेपुजारियों को राजपाट देने की जो छिपी नीति अपनाई गई थी उस में शिव सेना एक बहुत बड़ी पैदल सेना थी जिस के कट जाने का भाजपा को बहुत नुकसान होगा और हो सकता है कि महाराष्ट्र को बहुत फायदा हो.

कोई भी देश या समाज तब बनता है जब कामगार हाथों को फैसले करने का भी मौका मिले. पश्चिमी यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान, कोरिया की सफलता का राज यही रहा है कि वहां गैराज से काम शुरू करने वाले एकड़ों में फैले कारखानों के मालिक बने थे. महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई देश के पैसे वालों की राजधानी है पर जो बदहाली वहां के कामगारों की है कि वे आज भी चालों, धारावी जैसी झोपड़पट्टियों में, पटरियों पर रहने को मजबूर हैं.

महाराष्ट्र और मुंबई का सारा पैसा कैसे कुछ हाथों में सिमट जाता है, यह चालाकी समझना आसान नहीं, पर इतना कहा जा सकता है कि शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन इस के लिए वर्षों से जिम्मेदार है, चाहे सरकार भाजपा की हो या कांग्रेस की. यह बात पार्टी के बिल्ले की नहीं पार्टियों की सोच की है.

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शिव सेना से उम्मीद की जाती है कि वह अब ऐसे फैसले लेगी जो आम कामगारों की मेहनत को झपटने वाले नहीं होंगे. जमीन से निकल कर आए, छोटी सी चाल में जिन्होंने जिंदगी काटी, सीधेसादे लोगों के बीच जो रहे, वे समझ सकते हैं कि उन पर कैसे ऊंचे लोग शासन करते हैं और कैसे चाहेअनचाहे वे उन्हीं के प्यादे बने रहने को मजबूर हो जाते हैं.

पिछड़ों की सरकारें उत्तर प्रदेश व बिहार में भी बनी थीं, पर उस का फायदा नहीं मिला, क्योंकि तब पिछड़ों की कम पढ़ीलिखी पीढ़ी को सत्ता मिली थी. अब उद्धव ठाकरे, उन के बेटे आदित्य ठाकरे, शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले जैसों को उन बाहरी सहायकों की जरूरत नहीं जो जनमानस की तकलीफों को पिछले जन्मों के कर्मों का फल कह कर अनदेखा कर देते हैं. वे रगरग पहचानते होंगे, कम से कम उम्मीद तो यही है.

मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल आदि में भगवाई लहर मंदी हो गई है और महाराष्ट्र का झटका अब फिर मेहनती, गरीबों को पहला मुद्दा बनाएगा. ऐसा नहीं हुआ तो समझ लें कि देश को कभी भूख और बदहाली से आजादी नहीं मिलेगी.

शौचालय का सच

भारत सरकार ने बड़े जोरशोर से शौचालयों को ले कर मुहिम शुरू की थी, पर 5 साल हुए भी नहीं कि शौचालयों की जगह मंदिरों ने ले ली है. अब सरकार को मंदिरों की पड़ी है. कहीं राम मंदिर बन रहा है, कहीं सबरीमाला की इज्जत बचाई जा रही है. कहीं चारधाम को दोबारा बनाया जा रहा है, कहीं करतारपुर कौरिडोर का उद्घाटन हो रहा है.

भाजपा सरकार के आने से पहले 19 नवंबर को 2013 से संयुक्त राष्ट्र संघ ‘वर्ल्ड टौयलेट डे’ मनाने लगा है, जब नरेंद्र मोदी का अतापता भी न था. दुनियाभर में खुले में पाखाना फिरा जाता है, पर भारत इस में उसी तरह सब से आगे है जैसे मंदिरों, मठों में सब से आगे है. भारत की 60-70 करोड़ से ज्यादा आबादी खुले में पाखाना फिरने जाती है और कहने को लाखों शौचालय बन गए हैं, पर पानी की कमी की वजह से अब तो वे जानवरों को बांधने या भूसा भरने के काम में आ रहे हैं.

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शहरों के आसपास कहींकहीं चमकदार शौचालय बन गए हैं, पर अभी पिछले सप्ताह से दिल्ली के ही अमीर बाजारों कनाट प्लेस और अजमल खां रोड पर दीवारों पर पेशाब के ताजे निशान दिख रहे थे. ये दोनों इलाके भाजपा समर्थकों से भरे हैं. हर दुकानदार ने अपनी दुकान में एक छोटा मंदिर बना रखा है, हर सुबह बाकायदा एक पंडा पूजा करने आता है. हर थोड़े दिन के बाद लंगर भी लगता है. पर वर्ल्ड टौयलेट और्गेनाइजेशन बनी थी सिंगापुर में जहां के एक व्यापारी ने ही 2001 में इसे शुरू किया था. सिंगापुर दुनिया का सब से ज्यादा साफ शहर माना जाता है. वहां हर जने की आय दिल्ली के व्यापारियों की आय से भी 30 गुना ज्यादा है. वहां मंदिर न के बराबर हैं. हिंदू तमिलों के मंदिर जरूर दिखते हैं और उन के सामने बिखरी चप्पलें भी और जमीन पर तेल की चिक्कट भी.

सड़क पर पड़ा पाखाना कितना खतरनाक है, इस का अंदाजा इस बात से लगाइए कि 1 ग्राम पाखाने में 10 लाख कीटाणु होते हैं और जहां पाखाना खुले में फिरा जाता है, वहां बच्चे ज्यादा मरते हैं.

भारत सरकार ने खुले में शौच पर जीत पा लेने का ढोल पीट दिया है पर लंदन से निकलने वाली पत्रिका ‘इकौनोमिस्ट’ ने इस दावे को खोखला बताया है. अभी 2 माह पहले ही तो मध्य प्रदेश में 2 बच्चों की पिटाई घर के सामने पाखाना फिरने पर हुई है, वह भी भरी बस्ती में जहां पिछड़ी और दलित जातियों के लोग रहते हैं. मारने वाले का कहना था कि दलितों की हिम्मत कैसे हुई कि उन से ऊंचे पिछड़ों के घरों के सामने फिरने जाए. पिछड़ों की हालत भी ज्यादा बेहतर नहीं हुई है, क्योंकि लाखों बने शौचालयों में पानी ही नहीं है.

यह ढोल जो 2 अक्तूबर को पीटा गया था, यह तो 5,99,000 गांवों के खुद की घोषणा पर टिका था. अब जब शौचालय के मिले पैसे सरपंच ने डकार लिए हों तो वह कैसे कहेगा कि खुले में पाखाना हो रहा है.

जब तक गांवों में घरघर पानी नहीं पहुंचेगा, जब तक सीवर नहीं बनेंगे, खुले में पाखाना होगा ही. दिल्ली की ही 745 बस्तियों में अभी भी सीवर कनैक्शन नहीं है तो 5,99,000 गांवों में से कितनों में सीवर होगा?

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क्या नागरिकता संशोधन कानून को लागू करने से बच सकती हैं गैर भाजपाई सरकारें ?

असम में विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया है. यहां कई इलाकों में कर्फ्यू लगाना पड़ा है. कर्फ्यू के बाद भी प्रदर्शकारी सड़कों पर आए. असम से उठे विरोध प्रदर्शन की आग बंगाल तक पहुंच गई. बंगाल में शनिवार को पांच रेलगाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया. कई जगहों पर आगजनी की गई. दिल्ली में भी जामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने प्रदर्शन किया. प्रदर्शनकारियों और पुलिस को बीच हिंसक झड़पें भी हुईं.

केंद्र सरकार ने इस कानून को रुप तो दे दिया लेकिन एक प्रश्न सबके दिमाग में आ रहा है. वो ये हैं कि क्या गैर भाजपाई सरकारें इस बिल को अपने प्रदेश में लागू करेंगी या नहीं. क्योंकि पं बंगाल की सीएम ममता बनर्जी, मध्य प्रदेश में सीएम कमलनाथ, पंजाब की कैप्टन की सरकार सभी ने इसको लागू करने से मना कर दिया है लेकिन गृह मंत्रालय के अधिकारी ने इसका राज बताया है. उनका दावा है कि राज्य सरकारों को इसे लागू करना पड़ेगा.

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गृह मंत्रालय के एक उच्च अधिकारी बताया कि क्योंकि इसे संविधान की 7वीं अनुसूचि के तहत सूचिबद्ध किया गया है, इसलिए राज्य सरकारों के पास इसे अस्वीकार करने का अधिकार नहीं है.गृह मंत्रालय के अधिकारी ने यह बयान उस समय दिया, जब पश्चिम बंगाल, पंजाब, केरल, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ने इस कानून को असंवैधानिक बताया और अपने राज्यों में इसे लागू नहीं करने की बात कही. गृह मंत्रालय के अधिकारी ने बताया, ‘केंद्रीय कानूनों की सूची में आने वाले किसी भी कानून को लागू करने से राज्य सरकार इनकार नहीं कर सकती हैं.’ उन्होंने बताया कि यूनियन सूची के 7वें शेड्यूल के तहत 97 चीजें आती हैं, जैसे रक्षा, बाहरी मामले, रेलवे, नागरिकता आदि.

संशोधित विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद कानून बन चुका है लेकिन, इस पर देशव्यापी स्तर पर सवाल उठाए जा रहे हैं। कई मुख्यमंत्रियों ने इसे असंवैधानिक बताया है. पंजाब के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अमरिंदर सिंह इस संबंध में अपने रुख को स्पष्ट करने वाले पहले व्यक्तियों में से हैं. उन्होंने गुरुवार को कहा कि उनकी सरकार राज्य में कानून को लागू नहीं होने देगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे मुखर आलोचकों में से एक पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनर्जी ने यह स्पष्ट किया है कि वह अधिनियम को अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगी. उन्होंने इससे पहले कहा था कि एनआरसी को पश्चिम बंगाल में अनुमति नहीं दी जाएगी.

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चुनावी रणनीतिकार व जद (यू) उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने शुक्रवार को लगातार तीसरे दिन ट्वीट कर नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की. उन्होंने अपनी पार्टी के रुख के खिलाफ जाते हुए ट्वीट किया, “बहुमत से संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक पास हो गया. न्यायपालिका के अलावा अब 16 गैर भाजपा मुख्यमंत्रियों पर भारत की आत्मा को बचाने की जिम्मेदारी है, क्योंकि ये ऐसे राज्य हैं, जहां इसे लागू करना है.”

उन्होंने आगे लिखा, “तीन मुख्यमंत्रियों (पंजाब, केरल और पश्चिम बंगाल) ने सीएबी और एनआरसी को नकार दिया है और अब दूसरे राज्यों को अपना रुख स्पष्ट करने का समय आ गया है.”

लोकवाणी: भूपेश चले रमन के पथ पर!

छत्तीसगढ़ में 15 वर्षों की डॉक्टर रमन सिंह, भाजपा सरकार के पश्चात कांग्रेस की भूपेश सरकार सत्तासीन हुई है. मगर कुछ फिजूल बेकार के मसले ऐसे हैं जिन पर भूपेश बघेल चाह कर भी  नकार नहीं पा रहे. अगर वह लीक तोड़कर नया काम करते हैं तो पता चलता कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ को नई दिशा दे सकते हैं, उनमें नई ऊर्जा है, कुछ नया करने का ताब है.

इसमें सबसे महत्वपूर्ण है डॉ रमन सिंह का रेडियो और आकाशवाणी से प्रतिमाह छत्तीसगढ़ की आवाम को संदेश देना और बातचीत करना. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी डॉ रमन सिंह की तर्ज पर “लोकवाणी” कार्यक्रम के माध्यम से आवाम से बात करते हैं जो सीधे-सीधे डॉ रमन सिंह की नकल के अलावा कुछ भी नहीं है.

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क्या यह अच्छा नहीं होता कि भूपेश बघेल और तरीका आम जनता से बातचीत करने के लिए  ईजाद करते. क्योंकि लोकवाणी का यह कार्यक्रम पूरी तरह फ्लाप और बेतुका  है. इसकी सच्चाई को जानना हो तो जिस दिन लोकवाणी का कार्यक्रम प्रसारित होता है उसे ग्राउंड पर जाकर, आप अपनी आंखों से देख लें . यह पूरी तरह से एक सरकारी आयोजन बन चुका है शासकीय पैसे पर, जिले के चुनिंदा जगहों पर व्यवस्था करके लोग सुनते हैं. आम आदमी का इससे कोई सरोकार दिखाई नहीं देता.

भूपेश बघेल की ‘लोकवाणी’!

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की मासिक रेडियो वार्ता लोकवाणी की पांचवी कड़ी का प्रसारण  आगामी 8 दिसम्बर, रविवार को होगा. व्यवस्था यह बनाई गई है कि लोकवाणी का प्रसारण छत्तीसगढ़ स्थित आकाशवाणी के सभी केन्द्रों, एफ.एम.चैनलों और राज्य के क्षेत्रीय न्यूज चैनलों से सुबह 10.30 से 10.55 बजे तक हो.

जिस तरह डॉ रमन सिंह के  समय में  सरकारी अमला  जनसंपर्क,  संवाद  प्रचार प्रसार करता था,  वैसा ही  नकल पुन:भदेस रुप, ढंग से  अभी किया जा रहा है.  कहा जा रहा है “-उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने समाज के हर वर्ग की भावनाओं, सवालों, और सुझावों से अवगत होने तथा अपने विचार साझा करने के लिए लोकवाणी रेडियोवार्ता शुरू की है.”

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लोकवाणी में इस बार का विषय ‘आदिवासी विकास: हमारी आस‘ रखा गया है. अच्छा होता लोकवाणी के नाम पर जो पैसा समय बर्बादी हो रही है और हाथ कुछ नहीं आ रहा, उससे अच्छा होता भूपेश बघेल अचानक कहीं पहुंच जाते और आम जन से चुपचाप बात कर निकल जाते!ऐसे मे उन्हें पता चल जाता कि जमीनी हकीकत क्या है. किसान, गरीब, मजदूर और मध्यमवर्ग का आदमी उनसे क्या कहना चाहता है उसे समझ कर  और बेहतरीन तरीके से छत्तीसगढ़ को आगे ले जा सकते हैं.

श्रेष्ठतम सलाहकार कहां है?

भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री शपथ लेने के पश्चात जो पहला काम किया था उनमें उनके संघर्ष के समय के सहयोगी  पत्रकार  विनोद वर्मा, रुचिर गर्ग  जैसे बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों को “मुख्यमंत्री का सलाहकार” नियुक्त करना था. इस सब के बाद ऐसा महसूस हुआ था कि डॉक्टर रमन सरकार की अपेक्षा भूपेश सरकार जमीन से ज्यादा जुड़ी होगी.

आम आदमी के जीवन संघर्ष, त्रासदी को भूपेश बघेल की सरकार संवेदनशीलता के साथ समझेगी और दूर करेंगी. जिस की सबसे पहली पहल किसानों के कर्ज माफी और 25 सौ रुपए क्विंटल धान खरीदी को लेकर की भी गई. मगर इसके पश्चात और इसके परिदृश्य में देखा जाए तो छत्तीसगढ़ के हालात अच्छे नहीं हैं, इस संवाददाता ने छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला के कृषि मंडी के कुछ किसानों से बात की, किसानों ने बताया कि” हालात ऐसे हैं कि जबरा मारता है और रोने भी नहीं देता” जैसे हालात छत्तीसगढ़ में किसानों के साथ  बन चुके हैं.

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जो धान पहले पंद्रह सौ 1600 रुपये कुंटल  में गांव में बिक जाता था अब पुलिसिया प्रशासनिक एक्शन के कारण कोई खरीदने को तैयार नहीं है . यह हालात देखकर लगता है कहां है मुख्यमंत्री महोदय के सलाहकार, कहां है अभी एक डेढ़ वर्ष पूर्व  के संघर्षकारी भूपेश बघेल, टी एस सिंह देव और उनकी टीम.

राम मंदिर पर फैसला मंडल पर भारी पड़ा  कमंडल

अयोध्या में राम मंदिर बनने से देश में अंधआस्था का कारोबार बढ़ेगा. इस से देश और समाज का लंबे समय तक भला नहीं होगा, क्योंकि जिन देशों में धार्मिक कट्टरपन हावी रहा है, वहां गरीबी और पिछड़ापन बढ़ा है. भारत की जीडीपी बढ़ोतरी 8 सालों में सब से नीचे के पायदान पर है. बेरोजगारी सब से ज्यादा बढ़ी है.

80 के दशक में अयोध्या में राम मंदिर की राजनीति गरम होनी तेज हो गई थी. उस समय केंद्र में सरकार चला रही कांग्रेस धर्म की राजनीति के दबाव में आ गई थी. तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पहले अयोध्या में राम मंदिर में पूजा के लिए ताला खुलवा दिया था, इस के साथ ही राम मंदिर शिलान्यास के लिए भी कोशिश तेज कर दी थी.

धर्म की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी को अपने लिए यह सही नहीं लग रहा था. ऐसे में भाजपा ने कांग्रेस से अलग हुए राजीव गांधी के करीबी विश्वनाथ प्रताप सिंह को समर्थन दिया और उन्होंने केंद्र में अपनी सरकार बनाई.

प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस बात का अंदाजा हो चुका था कि भाजपा धर्म की राजनीति कर रही है. ऐसे में वह बहुत दिन सरकार की सहयोगी नहीं रह पाएगी. भाजपा की धर्म की राजनीति को मात देने के लिए उन्होंने पिछड़ों और वंचितों को इंसाफ दिलाने के लिए मंडल कमीशन लागू कर दिया.

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मंडल कमीशन के लागू होने से अगड़ों बनाम पिछड़ों की गुटबाजी सामने आ गई. ऐसे में पिछड़े धर्म का साथ छोड़ कर मंडल कमीशन के फैसले के साथ खड़े हो गए. पिछड़ा वर्ग अब मुख्यधारा में आ गया. 40-50 फीसदी पिछड़े वर्ग को भाजपा भी छोड़ने को तैयार नहीं थी. ऐसे में पार्टी ने पिछड़े वर्ग के नेताओं को आगे किया.

30 अक्तूबर, 1990 को जब राम मंदिर बनाने के लिए कारसेवा आंदोलन की नींव पड़ी तो धर्म की राजनीति ने उत्तर प्रदेश में अपना गढ़ बना लिया. हिंदुत्व का उभार तेजी से शुरू हुआ.

धर्म की इस राजनीति को रोकने का काम पिछड़ी जातियों के नेता मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसों के कंधों पर आ गया. कारसेवा को सख्ती के साथ रोकने के चलते मुलायम सिंह यादव को मुसलिमों का मजबूत साथ मिला.

इस के बाद ‘मंडल’ और ‘कमंडल’ की राजनीति के बीच दलितों में भी जागरूकता आई. दलितों की अगुआ बहुजन समाज पार्टी द्वारा की गई दलित और पिछड़ा वर्ग की राजनीति ने सवर्ण राजनीति को प्रदेश से बाहर कर दिया.

साल 1990 से साल 2017 के बीच यानी 27 साल में केवल 2 मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह और राम प्रकाश गुप्ता ही सवर्ण जाति के मुख्यमंत्री बने. इन का कार्यकाल केवल 3 साल का रहा. बाकी के 24 साल उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ी जाति के मुख्यमंत्री राज करते रहे.

‘मंडल’ से उभरे पिछड़े

मंडल कमीशन लागू होने का सब से बड़ा असर हिंदी बोली वाले प्रदेशों दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ. यहां की राजनीति में पिछड़ों का बोलबाला दिखने लगा.

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सवर्ण जातियों की अगुआई करने वाली भाजपा को अपने जातीय समीकरण ‘ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया’ को छोड़ कर दलित, पिछड़ों और अति पिछड़ों को आगे करना पड़ा, तो भाजपा को मध्य प्रदेश में उमा भारती, उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को आगे कर के मंदिर की राजनीति को अहमियत देनी पड़ी.

मंदिर के बहाने इन पिछड़े नेताओं ने धर्म की राजनीति के सहारे भाजपा में खुद को मजबूत किया. आगे चल कर भाजपा में लंबे समय तक पिछड़ों की बादशाहत कायम रही.

साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा में पिछड़े नेताओं को दोबारा किनारे किया गया. अयोध्या के नायक कहे जाने वाले कल्याण सिंह को भाजपा छोड़ कर बाहर तक जाना पड़ा.

लेकिन, भाजपा से अलग देश की राजनीति में पिछड़ों को दरकिनार करना मुमकिन नहीं रह गया था.

उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पिछड़ी जातियों का उभार कुछ इस कदर हुआ कि सवर्ण जातियां पीछे चली गईं. राम के प्रदेश अयोध्या में तो दलित और पिछड़ा गठजोड़ पूरी तरह से हावी हो गया. इस में मुसलिमों के मिल जाने से प्रदेश में ऊंची जातियों की राजनीति खत्म सी हो गई थी.

नतीजतन, भाजपा ने दलितों और पिछड़ों को पार्टी से जोड़ना शुरू किया. यहां दलितों और पिछड़ों की अगुआई करने वाली बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी अपने लोगों को जोड़ने से चूक गई और भाजपा ने मौके का फायदा उठा कर दलितपिछड़ों को धर्म से जोड़ कर मुसलिम वोट बैंक को हाशिए पर डाल दिया.

धर्म के घेरे में दलितपिछड़े

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपने जनाधार को मजबूत करने के लिए साल 2014 से दलितपिछड़ों को पार्टी से जोड़ना शुरू किया. धीरेधीरे दलित और पिछड़े धर्म की ओर झुकने लगे. ऐसे में दलित और पिछड़ी जातियां ‘मंडल’ के मुद्दों को दरकिनार कर ‘कमंडल’ की धर्म की राजनीति पर भरोसा जताना शुरू करने लगीं. यहीं से प्रदेश की राजनीतिक दिशा कमजोर होने लगी.

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धर्म को केंद्र में रख कर राजनीति करने वाली भाजपा को उत्तर प्रदेश में जबरदस्त समर्थन हासिल होने लगा. लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वोट का धार्मिक धु्रवीकरण शुरू किया. प्रदेश में हिंदुत्व का उभार साल 1992 के समय चक्र में वापस घूम गया. ऐसे में लोकसभा चुनाव के बाद साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला.

साल 2017 के विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व के उभार को देखते हुए भाजपा ने विकास के मुद्दे को वापस छोड़ कर धर्म के मुद्दे को हवा देना शुरू किया.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा को यह उम्मीद नहीं थी कि हिंदुत्व का मुद्दा कारगर साबित होगा, इसलिए चुनाव के पहले योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया गया था.

चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को जब मुख्यमंत्री बनाया, तो भी हिंदुत्व के मुद्दे पर इतना भरोसा नहीं था. यही वजह थी कि उपमुख्यमंत्री के रूप में भाजपा ने ब्राह्मण जाति से डाक्टर दिनेश शर्मा और अति पिछड़ी जाति से केशव प्रसाद मौर्य को चुना.

पर, बाद में उत्तर प्रदेश में जिस तरह से योगी आदित्यनाथ को लोगों ने पसंद किया और 2019 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में भाजपा की वापसी हुई, उस के बाद हिंदुत्व को हिट फार्मूला मान लिया गया.

हिंदुत्व की गोलबंदी

हिंदुत्व की कामयाब गोलबंदी करने के बाद भाजपा राम मंदिर की राह पर आगे बढ़ गई. अब भाजपा को यह सम झ आ चुका था कि दलित और पिछड़े जाति नहीं धर्म के मुद्दे पर चल रहे हैं. ऐसे में भाजपा को उत्तर प्रदेश में पकड़ बनाए रखने के लिए राम मंदिर पर बड़ा फैसला लेना जरूरी हो गया था.

भाजपा पर यह आरोप लग रहा था कि वह राम मंदिर की राजनीति कर के खुद तो सत्ता की कुरसी हासिल कर चुकी है और अयोध्या में रामलला तंबू में रह रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद भाजपा की अब रणनीति यह है कि साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले राम मंदिर बनना शुरू हो जाए और साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर बन कर तैयार हो जाए. इस बीच अयोध्या को भव्य धर्मनगरी बनाने के लिए काम चलता रहे.

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मोदी और योगी

नरेंद्र मोदी भी अयोध्या मसले से चर्चा में आए थे. साल 2002 में अयोध्या से शिलादान कार्यक्रम से वापस आते कारसेवकों पर ट्रेन के डब्बे पर हमला हुआ था. इस को गोधरा कांड के नाम से जाना जाता है. गोधरा कांड के बाद ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के नए सियासी नायक के रूप में उभरे.

दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में धार्मिक आस्था को जनजन तक पहुंचाने के लिए हिंदू त्योहारों को बड़े रूप में मनाने का काम किया. कुंभ ही नहीं, बल्कि कांवड़ यात्रा तक को अहमियत दी गई. अयोध्या में भव्य दीपोत्सव और राम की मूर्ति लगाने का संकल्प भी इस का हिस्सा बना.

साल 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद जब नरेंद्र मोदी दोबारा केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हुए तो राम मंदिर आंदोलन को पूरा करने की कोशिश तेज कर दी.

अब अयोध्या के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद केंद्र सरकार के लिए मंदिर बनाना कामयाब हो गया है.

साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव भी राम मंदिर के मुद्दे पर लड़े जाएंगे.

हाशिए पर धर्मनिरपेक्षता

धर्म की राजनीति ने देश में कट्टरपन को बढ़ावा दिया है. धार्मिक कट्टरता के असर में धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्र विरोधी मान लिया गया है.

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धार्मिक निरपेक्षता की बात करने वाले राजनीतिक दल मुखर विरोध करने की हैसियत में नहीं रह गए हैं. 80 के दशक में जो हालत भाजपा की थी, उस में अब बाकी दल शामिल हो गए हैं. कट्टरपन ने देश के माहौल को बिगाड़ा है. धर्म की राजनीति इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है. धर्म की राजनीति देश के भविष्य के लिए खतरनाक है.

पूरी दुनिया के देशों को देखें तो विकास वहीं हुआ है, जहां कट्टरपन कम रहा है. भारत के 2 पड़ोसी देश पाकिस्तान और बंगलादेश की तुलना करें तो कम कट्टर बंगलादेश ने ज्यादा तरक्की की है.

हालांकि सोवियत संघ में कम्यूनिस्ट कट्टरपन तानाशाही में बदल गया था, जिस के बाद वहां बंटवारे के हालात बन गए. जो सोवियत संघ एक समय में अमेरिका के साथ खड़ा हो कर दुनिया की नंबर वन की रेस में शामिल था, पर अपने कट्टरपन के चलते अमेरिका से विकास की दौड़ में कई साल पीछे चला गया.

मिडिल ईस्ट के देशों में इराक, ईरान, सीरिया, लेबनान जैसे देश धार्मिक कट्टरपन में सुलग रहे हैं. माली तौर पर मजबूत होने के बाद भी वे पिछड़े हुए हैं. इस की वजह यही है कि वहां धार्मिक कट्टरपन आगे नहीं बढ़ने दे रहा है.

भारत अपने धार्मिक कट्टरपन में जिस राह पर चल रहा है, वहां से वापस आना आसान नहीं है.

धार्मिक कट्टरपन के बहाने विकास, रोजगार के मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया गया है.

इतना ही नहीं, देश की माली हालत और बेरोजगारी सब से खराब हालत में है. चुनाव जीतने के लिए जहां तरक्की और रोजगार की बात होनी चाहिए, वहां धर्म के आधार पर वोट लेने के लिए धार्मिक मुद्दों का सहारा लिया जाता है. करतारपुर कौरिडोर और राम मंदिर को ही विकास का रोल मौडल माना जा रहा है.

साल 1992 के बाद उत्तर प्रदेश में रोजगार की हालत पर अगर सरकार एक श्वेतपत्र जारी कर दे तो हालात पता चल जाएंगे. उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहरों में शामिल कानपुर, आगरा, फिरोजाबाद, अलीगढ़, मुरादाबाद, वाराणसी और सहारनपुर में चमड़ा, कांच, ताला, पीतल, बनारसी साड़ी और लकड़ी का कारोबार बुरे दौर में है.

ये उद्योगधंधे कभी प्रदेश की पहचान हुआ करते थे. सरकार अब इन को आगे बढ़ाने के बजाय धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दे रही है.

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आज यह बात आम लोगों को सम झाई जा रही है कि राम मंदिर बनने से प्रदेश में पर्यटन बढ़ जाएगा, बेरोजगारी खत्म हो जाएगी. यह बात वैसे ही है, जैसे नोटबंदी के बाद यह कहा जा रहा था कि इस से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा.

पौलिटिकल राउंडअप: भाजपा की बढ़ी मुसीबत

लोक जनशक्ति पार्टी के ताजातरीन राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद चिराग पासवान ने सुर बदलते हुए ऐलान किया कि लोजपा आगामी झारखंड विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ेगी और पार्टी 50 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम की लिस्ट जारी कर देगी.

इस ऐलान से पहले लोजपा ने झारखंड में राजग के सहयोगी के तौर पर 6 सीटें मांगी थीं, लेकिन 10 नवंबर को भाजपा ने अपने 52 उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर दी थी.

झारखंड में राजग के एक और सहयोगी दल आल झारखंड स्टूडैंट यूनियन ने बिना भाजपा से चर्चा किए 12 सीटों पर अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया था.

वैसे, भाजपा को जिद पर न अड़े रहने की कला अच्छी तरह आती है. यदि दक्षिणा कम मिले तो वह कम से भी काम चला लेती है.

हवा में उड़ते विजय रूपाणी

अहमदाबाद. जहां एक तरफ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल महिलाओं को सरकारी बसों में मुफ्त सफर करवा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ गुजरात की भाजपा सरकार ने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और दूसरे वीवीआईपी लोगों की यात्रा के लिए तकरीबन 191 करोड़ रुपए का हवाईजहाज खरीदा है.

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इस हवाईजहाज में एकसाथ 12 लोग सफर कर सकते हैं और इस की फ्लाइंग रेंज तकरीबन 7 हजार किलोमीटर है. इसे कनाडा के क्यूबेक इलाके की बोम्बार्डियर कंपनी ने बनाया है.

191 करोड़ रुपए कोई मामूली रकम नहीं है. अगर इसे जनता की भलाई के लिए खर्च किया जाता तो ज्यादा बेहतर रहता. जब पुजारियों के लिए अरबोंखरबों रुपए के मंदिर बन सकते हैं तो पुजारियों के रखवाले मुख्यमंत्री के लिए यह बड़ी रकम नहीं है, चाहे मेहनतमजदूरी करने वालों की जेब से जाए.

‘आप’ ने किया हमला

नई दिल्ली. विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आते ही आम आदमी पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी को घेरना शुरू कर दिया है. उस ने आरोप लगाया है कि भाजपा दिल्ली की कच्ची कालोनियों में रहने वाले लोगों को धोखा दे रही है. उस का कच्ची कालोनी में रहने वाले लोगों को रजिस्ट्री देने का कोई इरादा नहीं है, जबकि मनोज तिवारी मानते हैं कि ‘आप’ गुमराह कर रही है.

इस मसले पर आप नेताओं संजय सिंह और गोपाल राय ने कहा कि केंद्र सरकार का यह ऐलान पुरानी सरकारों के वादों की तरह ही छलावा साबित होता नजर आ रहा है, जबकि पिछले 4 साल में दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने कच्ची कालोनियों को पक्का करने के लिए केंद्र सरकार पर खूब दबाव बनाया है और केंद्र को प्रस्ताव भी भेजा था, लेकिन कच्ची कालोनियों में रजिस्ट्री करने का भाजपा का कोई इरादा ही नहीं है.

रजिस्ट्री कार्यालय गरीब पिछड़ों को मुफ्त में पक्के मकान की पक्की रजिस्ट्री कभी देगा, यह भूल जाएं. हर मामले में बीसियों अड़चनें लगा कर दोष आधे पढ़ेलिखे बैकवर्डों और दलितों पर मढ़ दिया जाएगा कि कागज पूरे नहीं.

दिया सुप्रीम फैसला

बैंगलुरु. मामला कर्नाटक का है, पर फैसला दिल्ली में हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल सैक्युलर के 17 अयोग्य विधायकों को राहत देते हुए उन्हें 5 दिसंबर को होने वाला उपचुनाव लड़ने की इजाजत दे दी है.

बता दें कि विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार ने विधानसभा में एचडी कुमारस्वामी सरकार के विश्वास प्रस्ताव से पहले ही 17 बागी विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया था. इस के बाद विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने में नाकाम रहने पर कुमारस्वामी की सरकार ने इस्तीफा दे दिया था. नतीजतन, भाजपा के बीएस येदियुरप्पा की अगुआई में राज्य में नई सरकार बनी थी.

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इस नए फैसले से भाजपा की चुनौतियां बढ़ गई हैं. येदियुरप्पा सरकार को सत्ता में बने रहने के लिए 17 में से 15 सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव में हर हाल में 6 सीटें जीतना जरूरी हो गया है, चाहे 15 बागी विधायक उस के पाले में आ गए हैं.

अक्तूबर में हुए उपचुनावों में आमतौर पर दलबदलुओं की हार हुई है. गुजरात तक में अल्पेश ठाकुर हार गया, जो कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में चला गया था.

ओवैसी के खिलाफ शिकायत

भोपाल. हैदराबाद के तेजतर्रार मुसलिम नेता और सांसद असदुद्दीन ओवैसी बाबरी मसजिद और राम मंदिर मसले पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाखुश दिखे. 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के मंदिर के पक्ष में लिए गए फैसले के बाद उन्होंने कहा था कि यह मेरी निजी राय है कि हमें मसजिद के लिए  5 एकड़ की जमीन के औफर को खारिज कर देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम जरूर है, लेकिन इनफिलेबल यानी अचूक नहीं है. मेरा सवाल है कि अगर 6 दिसंबर, 1992 को मसजिद न ढहाई जाती तो क्या सुप्रीम कोर्ट का यही फैसला होता?

असदुद्दीन ओवैसी के ऐसे बयान के खिलाफ वकील पवन कुमार यादव ने जहांगीराबाद पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई और आरोप लगाया कि ओवैसी ने अयोध्या मसले पर उकसाने वाला बयान दिया और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की.

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इस शिकायत से ओवैसी का कुछ बिगड़े या न बिगडे़, पर ये वकीलजी जरूर सुर्खियों में आ गए.

जयराम रमेश की चिंता

गुवाहाटी. कांग्रेस के ‘थिंक टैंक’ और दिग्गज नेता जयराम रमेश बड़ी चिंता में हैं और भाजपा सरकार की कारगुजारियों से इतने नाराज हो गए हैं कि उन्होंने 13 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर आरोप लगाया कि वे ‘प्रवर्तन निदेशालय’, ‘सीबीआई’ और ‘आयकर विभाग’ के ‘त्रिशूल’ का इस्तेमाल अपने विरोधियों पर कर रहे हैं.

जयराम रमेश का मानना है, ‘मोदी और अमित शाह को अपने विरोधियों के खिलाफ नया शस्त्र ‘त्रिशूल’ मिल गया है. उस ‘त्रिशूल की 3 नोकें ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग हैं. वे अपने विरोधियों पर चोट करने के लिए इन्हीं 3 नोकों का इस्तेमाल करते रहते हैं.’

भाजपा ने जयराम रमेश को नेहरू मैमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी से निकाल दिया था. तब उन्होंने केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए कहा था कि यह लाइब्रेरी अब नागपुर मैमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी बन गई है.

मच गया बवाल

कोलकाता. ‘बुलबुल’ नाम के चक्रवाती तूफान की मार खाए पश्चिम बंगाल में सियासी तूफान भी जोर मार रहा है. वहां ममता बनर्जी और अमित शाह के बीच छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है. इसी सियासी बवाल में 13 नवंबर को कोलकाता में पुलिस और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच दोबारा तनातनी हो गई. भीड़ को तितरबितर करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा और भाजपा नेता रिमझिम मित्रा को हिरासत में ले लिया.

इतना ही नहीं, जब केंद्रीय मंत्री और भाजपा सांसद बाबुल सुप्रियो चक्रवात ‘बुलबुल’ से प्रभावित इलाकों का दौरा करने निकले तो तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने उन्हें काले झंडे दिखाए.

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एक-एक कर बिखरता जा रहा एनडीए गठबंधन, 1999 में पहली बार देश में बनाई थी सरकार

महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन चल रहा है. जबकि जनता ने शिवसेना और बीजेपी के गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिया. लेकिन सीएम पद की खींचतान के बीच महाराष्ट्र की जनता को इनाम स्वरूप राष्ट्रपति शासन मिल गया जबकि जनता का इसमे कोई दोष नहीं है. राजनीति के इतिहास में जाकर खोजना होगा कि आखिरकार गठबंधन की राजनीति का सूर्योदय कब हुआ और आखिरकार क्या ये वही एनडीए है जिसने कभी 24 दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी और सफलतापूर्वक पांच साल भी पूरे किए थे.

देश में गठबंधन की राजनीति 1977 में ही शुरू हो गई थी, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा था और इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा दिया था. इस गठबंधन ने इंदिरा को कुर्सी से हटा दो दिया लेकिन गठबंधन सरकार चलाने में असफल रहे और 1980 में दोबारा इंदिरा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापिस काबिज हो गईं.

गठबंधन को सफल राजनीति करने के मामले में सबसे पहले नाम आता है पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का. वाजपेयी ने 24 दलों को साथ लाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए बनाया और पांच साल तक सरकार चलाई. अटल की यह उपलब्धि इसलिए भी खास थी क्योंकि उनसे पहले कोई भी गठबंधन सरकार पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी.

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उन 24 दलों में कुछ प्रमुख पार्टियों के नाम में यहां लेना चाहूंगा. जनता दल (यूनाइटेड), शिवसेना, तेलगू देशम पार्टी, एआईडीएमके या अन्नाद्रमुक, अकाली दल. ये वो सहयोगी थे जिन्होंने बीजेपी को समर्थन दिया था और पहली बार 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पांच साल गठबंधन हुआ था. लेकिन अब वक्त कुछ बदल गया. एनडीए के ज्यादातर सहयोगी उससे दूर होते जा रहे हैं.

इसका प्रमुख कारण है सत्ता का एकाधिकार. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी ने सभी सहयोगियों को समान अधिकार दिए और सभी की बात सुनी. 2004 में हुए चुनावों में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. उसके बाद सबसे बड़ा राजनीतिक बदलाव तब आया जब 2014 में बीजेपी पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई. देखते ही देखते कई राज्यों में बीजेपी की सरकार बनती चली गई. नॉर्थ ईस्ट में कभी भाजपा एक-एक सीट को मोहताज रहती थी लेकिन बाद में वहां भी सरकार बनाई.

आखिरकार क्यों एनडीए लगातर बिखरता जा रहा है

मेरे अनुसार दो बातें हो सकती हैं. पहली बात बीजेपी का बढ़ता जनाधार जिसकी वजह से बीजेपी को ये लगता है कि वो बिना की सहयोगी के भी चुनाव जीत  सकती है और  सरकार बना सकती है. दूसरी बात बीजेपी को अब गठबंधन पसंद ही नहीं है. क्योंकि उसमें दूसरे दल का भी बराबर से दखल होता है. शिवसेना इसका जीता जागता उदाहरण है.

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बीजेपी-शिवसेना सबसे पक्के दोस्त माने जाते थे. लेकिन राजनीतिक लालच से दोनों को जुदा कर दिया है. शिवसेना को लग रहा था कि बीजेपी को अगर दोबारा चांस मिला था राज्य से उसकी सियासी जड़ें समाप्त हो जाएंगी. शिवसेना अपनी सियासी जमीन को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी इसी वजह से शिवसेना ने ऐसी मांग रख दी जो बीजेपी को नागवार गुजरी.

बिहार में जनता दल (युनाइटेड)

एनडीए में शामिल दूसरी पार्टी जद(यू) है. यहां भी बीजेपी और जदयू के बीच सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है. एकबार तो दोनों का गठबंधन टूट भी चुका था और नीतीश कुमार ने अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाया और सरकार का गठन किया लेकिन ये बेमेल जोड़ी नहीं चल सकी और नीतीश कुमार ने बीजेपी से हाथ मिला ही लिया. लेकिन अब क्या हो रहा है. बेगूसराय से भाजपा सांसद गिरिराज सिंह समय-समय पर नीतीश कुमार को घेरते रहते हैं. नीतीश की पार्टी के भी कई नेता बीजेपी पर अपना गुस्सा जाहिर करते रहते हैं. दोनों के बीच मनमुटाव चर रहा है. जनता दल बीजेपी से अपनी नाराजगी भी व्यक्त कराती रहती है.

अब यहां हम बात कर लेते हैं झारखंड की. यहां पर भाजपा आजसू के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है.  सीटों के बंटवारे के मसले पर भाजपा के बैकफुट पर न आने के बाद पार्टी से जुड़े सूत्र इस सवाल का जवाब हां में दे रहे हैं. राज्य की कुल 81 सीटों में भाजपा अब तक 71 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है. सिर्फ 10 सीटें छोड़कर भाजपा ने गेंद आजसू के पाले में डाल रखी है.

अगर इन सीटों पर आजसू ने रुख साफ नहीं किया तो भाजपा अपने दम पर सभी सीटों पर लड़ने की तैयारी में है. भाजपा को लगता है कि चुनाव पूर्व गठबंधन से ज्यादा बेहतर है जरूरत के हिसाब से चुनाव बाद गठबंधन करना.

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2014 में भाजपा को सबसे ज्यादा 37 सीटें मिलीं थीं. भाजपा ने स्थिर सरकार देकर जनता के दिल में जगह बनाई है. भाजपा मजबूत है और अकेले लक्ष्य हासिल कर सकती है.” झारखंड में सहयोगी आजसू ने कुल 19 सीटें मांगीं थीं, जबकि पिछली बार भाजपा ने उसे आठ सीटें दीं थीं, जिसमें से उसे पांच सीटों पर जीत मिली थी.

भाजपा को लगा कि महाराष्ट्र की तरह अगर झारखंड में भी उसने गठबंधन में अधिक सीटों पर समझौता किया तो फिर मुश्किल हो सकती है. चुनावी नतीजों के बाद जब शिवसेना साथ छोड़ सकती है तो फिर झारखंड में सहयोगी दल आजसू भी आंख दिखा सकती है.

इसी वजह से पार्टी ने पिछली बार से दो ज्यादा यानी अधिकतम 10 सीट ही आजसू को ऑफर की है. यही वजह है कि भाजपा ने 10 सीटें फिलहाल छोड़ी हैं. मगर आजसू ने भी सीटों के बंटवारे पर झुकने का फैसला नहीं किया. नतीजा रहा कि आजसू ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा के खिलाफ भी चक्रधरपुर से अपना प्रत्याशी उतार दिया.

भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्य के विधानसभा चुनाव प्रभारी ओम माथुर सीटों के बंटवारे और गठबंधन के भविष्य की गेंद फिलहाल आजसू के पाले में डाल चुके हैं. पत्रकारों से बातचीत में वह कह चुके हैं, “भाजपा ने कुछ सीटें छोड़ी हैं, अब हम आजसू के रुख का इंतजार कर रहे हैं.”

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कमलेश तिवारी हत्याकांड खुलासे से खुश नहीं परिवार

लखनऊ में हिंदू समाज पार्टी के नेता कमलेश तिवारी की हत्या के बाद शुरुआती जांच में पुलिस ने मामले को निजी दुश्मनी से जोड़ा था. उस समय कमलेश तिवारी की मां कुसुमा देवी ने भी सीतापुर के भाजपा नेता शिवकुमार गुप्ता पर इस हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया था. लेकिन अचानक हत्या वाली जगह पर गुजरात के सूरत की धरती मिठाई शौप की आधा किलो काजू बरफी की 650 रुपए की रसीद और उस दुकान का कैरी बैग मिलने के बाद जांच का रुख बदल गया.

जिस रसीद को पुलिस अपनी जांच का आधार बना कर आगे बढ़ी, वह 16 अक्तूबर, 2019 की थी. 16 अक्तूबर को सूरत से चल कर 17 अक्तूबर की रात में आरोपी लखनऊ कैसे पहुंचे, यह पुलिस को पक्के तौर पर नहीं पता है. सूरत से लखनऊ आने वाली रेलगाड़ी उस दिन लेट थी.

यही नहीं, खुद कमलेश तिवारी ने इस हत्याकांड से कुछ दिन पहले अपने एक बयान में कहा था कि योगी सरकार उन की सिक्योरिटी हटा कर उन के ऊपर हमला करने वालों को मदद देने का काम कर रही है. मरने वाले कमलेश तिवारी और उन की मां कुसुमा देवी के बयान के बाद भी प्रदेश पुलिस ने बयान की दिशा में जांच को एक कदम आगे बढ़ाने लायक नहीं सम झा.

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उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने कमलेश तिवारी की हत्या के पहले भले ही उन की सिक्योरिटी में कटौती की हो, पर हत्या के बाद उन के परिवार को 15 लाख रुपए नकद और सीतापुर में एक मकान देने के साथ उन के परिवार को ऐसी सिक्योरिटी दी कि खुद परिवार के लोग खुल कर बोल नहीं पा रहे हैं.

लखनऊ के जिला प्रशासन ने कमलेश तिवारी की मां, पत्नी और बेटों को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलवाने का काम किया.

मुख्यमंत्री से मिलने के बाद भी मां कुसुमा देवी संतुष्ट नहीं थीं. उन का कहना था कि उन्हें सरकार की मदद नहीं चाहिए. पत्नी किरन ने 15 लाख रुपए का चैक अफसरों से लिया जरूर है, पर वे इस राहत से खुश नहीं थीं. यही नहीं, किरन तिवारी ने अपने पति कमलेश तिवारी द्वारा बनाई गई हिंदू समाज पार्टी के अध्यक्ष पद को खुद संभाल लिया.

किरन तिवारी ने कहा कि हिंदू समाज को जगाने का जो काम उन के पति ने शुरू किया था, अब वे खुद उस को आगे बढ़ाने का काम करेंगी.

उत्तर प्रदेश पुलिस ने 48 घंटे के अंदर कमलेश तिवारी हत्याकांड को सुल झाने का दावा भले ही किया हो, पर खुद कमलेश तिवारी का परिवार इस खुलासे से रजामंद नजर नहीं आ रहा है.

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ऐसे बढ़ी परेशानी

हिंदू समाज पार्टी के अध्यक्ष कमलेश तिवारी की हत्या को उत्तर प्रदेश की सरकार भले ही धार्मिक कट्टरपन से जोड़ कर देख रही हो, लेकिन कमलेश तिवारी का परिवार इस खुलासे से खुश नहीं है. ऐसे में यह सवाल बारबार उठ रहा है कि परिवार के सीधे आरोप लगाने के बाद भी पुलिस जांच के लिए आरोपी नेता से पूछताछ करने को भी तैयार नहीं है, जबकि वह नेता भाजपा से जुड़ा हुआ बताया जाता है.

असल में इस की एक बड़ी वजह हिंदू राजनीति में कमलेश तिवारी का बढ़ता कद मानी जा रही है.

50 साल के कमलेश तिवारी खुद की पहचान हिंदूवादी नेता के तौर पर बनाए रखना चाहते थे. इस वजह से दिसंबर, 2015 में उन्होंने मुसलिम पैगंबर हजरत मोहम्मद को निशाने पर लिया था.

दिसंबर, 2015 में कमलेश तिवारी ने ऐलान किया था कि वे हजरत मोहम्मद पर एक फिल्म बनाएंगे, जिस में उन के चरित्र को उजागर किया जाएगा. तब कमलेश तिवारी ने हजरत मोहम्मद के बारे में कई और एतराज जताने वाली बातें कही थीं.

इस के बाद पूरी दुनिया के मुसलिमों ने कमलेश तिवारी का तीखा विरोध किया था. सहारनपुर के रहने वाले मुसलिम मौलाना मुफ्ती नवीम काजमी और इमाम मौलाना अनवारूल हक द्वारा कमलेश तिवारी का सिर काट कर लाने वाले को डेढ़ करोड़ रुपए और हीरों का इनाम देने का वादा किया गया था. इस बात का वीडियो भी पूरे सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था.

मुसलिम समाज का जिस तरह कमलेश तिवारी को ले कर बड़े लैवल पर विरोध शुरू हुआ तो उसी की प्रतिक्रिया में हिंदुओं में उन का समर्थन शुरू हो गया. कमलेश तिवारी को पता था कि उन की कही बातों की कड़ी प्रतिक्रिया होगी, जिस के चलते उन की कट्टर हिंदूवादी नेता की इमेज बन सकेगी. वे अपनी इस योजना में कामयाब हो गए थे.

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उस समय की अखिलेश सरकार ने कमलेश तिवारी को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून  (रासुका) के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था. जेल में कमलेश तिवारी को इस बात का मलाल हो रहा था कि हिंदू महासभा के लोग उन की मदद को नहीं आए.

अब तक कमलेश तिवारी सोशल मीडिया पर कट्टरवादी हिंदू का चेहरा बन कर उभर चुके थे. सोशल मीडिया पर उन के चाहने वाले बढ़ चुके थे.

जेल से बाहर आने के बाद अखिलेश सरकार ने 12-13 सिपाहियों का एक सिक्योरिटी दस्ता कमलेश तिवारी की हिफाजत में लगा दिया था. ऐसे में अब कमलेश तिवारी बड़े हिंदूवादी नेता के रूप में उभरने लगे थे. उन का कद बढ़ने से हिंदू महासभा में उन को ले कर मतभेद शुरू हो गए थे. तब कमलेश तिवारी ने खुद की एक पार्टी हिंदू समाज बना कर प्रदेश में हिंदू राजनीति को धार देनी शुरू की थी.

बढ़ता गया विरोध

जैसेजैसे हिंदू राजनीति में कमलेश तिवारी का कद बढ़ रहा था, हिंदूवादी लोग ही उन का विरोध करने लगे थे.

कमलेश तिवारी ने अपने कैरियर की शुरुआत हिंदू महासभा से की थी. वे इस के प्रदेश अध्यक्ष भी बने थे. कमलेश तिवारी ने हिंदू महासभा प्रदेश कार्यालय के इलाके खुर्शीदबाग का नाम बदल कर ‘वीर सावरकर नगर’ रखा था.

वे नाथूराम गोडसे को अपना आदर्श मानते थे. उन के घर पर नाथूराम गोडसे की तसवीर लगी थी. उन की सीतापुर के अपने गांव में नाथूराम गोडसे के नाम पर मंदिर बनाने की योजना थी. हिंदूवादी लोगों ने ही इस का विरोध शुरू कर दिया था.

कमलेश तिवारी मूल रूप से सीतापुर जिले के संदना थाना क्षेत्र के पारा गांव के रहने वाले थे. साल 2014 में उन्होंने अपने गांव में नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने का काम शुरू किया, तो वहां पर उन का विरोध तेज हो गया. ऐसे में वे मंदिर की नींव नहीं रख पाए.

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कमलेश तिवारी पारा गांव छोड़ कर परिवार के साथ महमूदाबाद रहने चले गए थे. उन के पिता देवी प्रसाद

उर्फ रामशरण महमूदाबाद कसबे के रामजानकी मंदिर में पुजारी थे. कमलेश यहीं पारा गांव में नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाना चाहते थे. 30 जनवरी, 2015 को उन को मंदिर की नींव रखनी थी.

महमूदाबाद में कमलेश तिवारी के पिता रामशरण, मां कुसुमा देवी, भाई सोनू और बड़ा बेटा सत्यम तिवारी रहते हैं.

कमलेश तिवारी हिंदू महासभा के जिस प्रदेश कार्यालय से संगठन का काम देखते थे, वहीं वे खुद भी सपरिवार रहने लगे. कमलेश के बढ़ते कद को कम करने के लिए उन को हिंदू महासभा के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया भी गया था.

इस के बाद कमलेश तिवारी अपनी ‘हिंदू समाज पार्टी’ के प्रचारप्रसार में लग गए थे. अपनी कट्टर छवि को निखारने के लिए वे ज्यादा समय भगवा कपड़े ही पहनने लगे थे.

वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर धार्मिक कट्टरपन के अपने बयानों से वे चर्चा में आने लगे थे, जिस से उन की अपनी इमेज बनने लगी थी. हिंदू समाज पार्टी को तमाम लोग धन और बल से मदद भी करने लगे थे. उत्तर प्रदेश के बाहर कई प्रदेशों में हिंदू समाज पार्टी का संगठन बनने लगा था. कई प्रदेशों में रहने वाले लोग भी पार्टी के साथ काम करने को तैयार होने लगे थे.

हिंदू समाज पार्टी को सब से ज्यादा समर्थन गुजरात से मिला था. वहां पर कमलेश तिवारी ने पार्टी संगठन का गठन कर जैमिन बापू को प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया था.

भगवा राजनीति का भय

उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद योगी आदित्यनाथ प्रदेश में हिंदुत्व का चेहरा बन कर उभरे थे. एक तरफ जहां पूरा प्रदेश हिंदू राजनीति को ले कर योगी आदित्यनाथ के पीछे खड़ा था, वहीं कमलेश तिवारी उन की खिलाफत करते रहते थे. ये लोग हिंदू राजनीति के नाम पर केवल सत्ता हासिल करना चाहते थे.

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कमलेश तिवारी राम मंदिर पर भाजपा की राजनीति से खुश नहीं थे. इस के बाद उन्होंने अयोध्या को अपनी राजनीति का केंद्र बना कर आगे बढ़ना शुरू किया. राम मंदिर पर वे भारतीय जनता पार्टी के कट्टर आलोचक बन गए. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में वे अयोध्या से लोकसभा का चुनाव भी लड़े थे. इस चुनाव में उन को करारी हार का सामना करना पड़ा था.

हिंदू समाज पार्टी की मीटिंग में ‘2022 में एचएसपी की सरकार’ के नारे लगने लगे थे. हिंदू समाज पार्टी को गति देने के लिए कमलेश तिवारी ने देश के आर्थिक हालात, पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचार, पश्चिम बंगाल में हिंदुओं की हत्या, नए मोटर कानून में बढ़े जुर्माने का विरोध, जीएसटी जैसे मुद्दों पर भाजपा की आलोचना करनी शुरू कर दी थी. इन मुद्दों को ले कर वे प्रदेश की राजधानी लखनऊ में धरनाप्रदर्शन भी देने लगे थे.

कमलेश तिवारी अपनी पार्टी का एक बड़ा राष्ट्रीय अधिवेशन कराने की योजना में थे. इस बहाने वे अपनी पार्टी की ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे.

हिंदू राजनीति में कमलेश तिवारी का बढ़ता कद भाजपा सरकार को चुभने लगा था. योगी सरकार ने कमलेश तिवारी की सिक्योरिटी में कटौती कर उन के कद को छोटा करने का काम किया. अब 13 सिपाहियों के सिक्योरिटी दस्ते की जगह केवल 2 सिपाही ही रखे गए. वे सिपाही भी मनमुताबिक सिक्योरिटी करते थे. वारदात वाले दिन भी सिक्योरिटी वाले उन के पास नहीं थे.

कमलेश तिवारी के लगातार कहने के बावजूद भी उन की सिक्योरिटी मजबूत नहीं की गई थी. इस पर कमलेश तिवारी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर खुला आरोप भी लगाया था कि वे चाहते हैं कि मैं मार दिया जाऊं. इस के बाद भी कमलेश तिवारी की बात नहीं सुनी गई.

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कमलेश तिवारी की हत्या के बाद गुजरात एटीएस ने बताया कि वहां पहले भी कमलेश तिवारी पर हमले की बात आतंकवाद फैलाने वालों ने कबूल की थी.

सवाल उठता है कि जब गुजरात एटीएस और उत्तर प्रदेश की इंटैलिजैंस को यह जानकारी थी, तो कमलेश तिवारी को सिक्योरिटी क्यों नहीं दी गई.

मां की नाराजगी

उत्तर प्रदेश सरकार कमलेश तिवारी की जिस बात को पहले नहीं मान रही थी, हत्या के बाद उसी बात को कबूल कर उन की मां कुसुमा देवी की बात मान कर उन के आरोप की जांच तक नहीं करना चाहती है.

पुलिस ने पहले कमलेश तिवारी की बात नहीं मानी. इस के बाद उन की हत्या हो गई. अब कमलेश तिवारी की मां कुसुमा देवी की बात नहीं मान रही है जिस से उन की हत्या का खुलासा शक के घेरे में है. इस से पुलिस के काम करने के तरीके पर सवाल उठते हैं.

पुलिस मानती है कि कमलेश तिवारी की हत्या 34 साल के अशफाक शेख और 27 साल के मोईनुद्दीन पठान ने उन का धार्मिक कट्टरपन से भरा भाषण सुन कर की है. पुलिस ने इस की कड़ी से कड़ी मिला दी है. हत्या के 48 घंटे के अंदर उत्तर प्रदेश और गुजरात पुलिस ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और नेपाल सीमा तक जांच कर ली, पर लखनऊ से 90 किलोमीटर दूर सीतापुर की तरफ जाने की तकलीफ नहीं उठाई.

पूरे मामले को देख कर ऐसा लगता है कि जैसे पुलिस ने पहले कमलेश तिवारी हत्याकांड में अपनी कहानी बना ली. इस के बाद एकएक कर वह उस के किरदार फिट करती गई.

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पुलिस एक तरफ यह कहती है कि हत्यारों ने बड़ी योजना बना कर काम किया, वहीं दूसरी तरफ उस के पास इस बात का कोई ठोस जवाब नहीं है कि ऐसे मास्टरमाइंड हत्यारे वारदात वाली जगह पर सूरत की मिठाई शौप की रसीद और बैग सुबूत के तौर पर छोड़ने की गलती कैसे कर गए?

वहीं दूसरी तरफ पुलिस कहती है कि हत्यारे बेहद शातिर थे. साथ ही, वह यह भी कहती है कि अपने ही वार से हत्यारे घायल हो गए थे. उन के हाथों में चोट लग गई थी.

पुलिस कहती है कि वारदात में पूरी साजिश पहले से तैयार थी, वहीं पुलिस यह भी कहती है कि हत्यारों के पास पैसे खत्म हो गए थे. इस की वजह से वे पकड़ में आ गए.

पुलिस के खुलासे में ऐसे कई छेद हैं जिन के जवाब नहीं मिल रहे हैं. पुलिस के खुलासे से जनता को भले ही राहत मिली हो, पर कमलेश तिवारी की मां कुसुमा देवी खुद खुश नहीं हैं. वे इंसाफ न मिलने की दशा में खुद तलवार उठाने तक की बात कह रही हैं.

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राज्य में चौटाला राजनीति का सूर्योदय, 11 महीने में बदल दी हरियाणा की राजनीति

हरियाणा में बीजेपी ने 75 पार का सपना देखा था लेकिन महज 40 सीटों पर सिमट गई. जबकि 2014 में बीजेपी को 47 सीटें हासिल हुईं थी. यानी की बीजेपी को सात सीटों का नुकसान हुआ है. कांग्रेस को यहां बढ़त मिली है. कांग्रेस ने यहां 31 सीटें जीती हैं. इन सबके के बीच 11 महीने पहले बनी पार्टी जेजेपी ने दमदार प्रदर्शन करते हुए 10 सीटें जीती हैं. इस पार्टी के मुखिया हैं दुष्यंत चौटाला. इनेलो से निकाले जाने के बाद दुष्यंत चौटाला ने नई पार्टी जननायक जनता पार्टी बनाई और अब हरियाणा की राजनीति में दमदार एंट्री की है.

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हरियाणा विधानसभा चुनाव में दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) को 11 सीटें मिलती दिख रही हैं. जेजेपी पिछले साल दिसंबर में जब आईएनएलडी (इंडियन नेशनल लोक दल) से निकलकर जेजेपी बनी तो पहले ही लिटमस टेस्ट में हरियाणा की जनता ने दिखा दिया था कि उसका रुख किधर है. जेजेपी ने अपनी ताकत का एहसास पहली बार तब कराया जब जींद विधानसभा के लिए इस वर्ष 28 जनवरी को उपचुनाव हुए.

बीजेपी, कांग्रेस, आईएनएलडी के साथ लड़ाई में दुष्यंत के छोटे भाई दिग्विजय ने जेजेपी कैंडिडेट के तौर पर 37,631 वोट हासिल किए जबकि 2014 में इस सीट पर जीत हासिल करने वाली आईएनएलडी को महज 3,454 वोटों से संतोष करना पड़ा. 2014 के विधानसभा चुनावों में आईएनएलडी को पूरे हरियाणा में 19 सीटें मिली थीं.

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हरियाणा की राजनीति में चौटाल परिवार सबसे मजबूत माना जाता है. पिछले साल इस परिवार में अनबन हो गई थी. जिसका अजय चौटाला की अपने पिता और आईएनएलडी के मुखिया ओमप्रकाश चौटाला और भाई अभय चौटाला के साथ अनबन हो गई. उसके बाद नवंबर 2018 में अजय चौटाला और हिसार से उनके सांसद पुत्र दुष्यंत चौटाला को आईएनएलडी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. उसके अगले ही महीने दिसंबर 2018 में दुष्यंत चौटाला ने जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) का गठन कर लिया. जेजेपी के बनने से आईएनएलडी को तगड़ा झटका लगा और उसके ज्यादातर पदाधिकारियों ने जेजेपी का रुख कर लिया.

इंडियन नेशनल लोकदल ने हरियाणा पर 2000 से 2004 के बीच आखिरी बार राज किया था और ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री बने थे. उस वक्त पार्टी को 90 में से 47 सीटें हासिल हुई थीं. 2005 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को सिर्फ 9 सीटें मिलीं. 2009 में कुछ राहत मिली और आईएनएलडी ने 31 सीटों पर जीत दर्ज की.

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आईएनएलडी प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में 10 साल की सजा काटने के लिए तिहाड़ जेल में बंद हैं. चौटाला अगर जेल से छूट भी जाते हैं तो उनसे पार्टी में दोबारा जान फूंकने की उम्मीद नहीं के बराबर है क्योंकि वह 84 वर्ष के हो चुके हैं. अभय चौटाला अच्छे मैनेजर बताए जाते हैं, लेकिन वह अपने पिता की तरह जनता के बीच उतने लोकप्रिय नहीं हैं. इस चुनाव ने यह साबित कर दिया है.

पौलिटिकल राउंडअप: ओवैसी ने लताड़ा

हैदराबाद, अपने कड़वे बोलों के लिए बदनाम एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘फादर औफ इंडिया’ बताए जाने पर कहा कि डोनाल्ड ट्रंप एक जाहिल आदमी हैं और पढ़ेलिखे भी ज्यादा नहीं हैं. न तो उन को हिंदुस्तान के बारे में कुछ मालूम है और न ही उन को महात्मा गांधी के बारे में कुछ पता है. ट्रंप को दुनिया के बारे में भी कुछ मालूम नहीं है.

असदुद्दीन ओवैसी ने 25 सितंबर को कहा, ‘‘अगर ट्रंप को मालूम होता तो इस तरह की जुमलेबाजी नहीं करते. महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का खिताब इसलिए मिला, क्योंकि लोगों ने उन की कुरबानी को देख कर उन्हें यह उपाधि दी थी. इस तरह के खिताब दिए नहीं जाते, हासिल किए जाते हैं.’’

हाईकोर्ट हुआ सख्त

अहमदाबाद. हाईकोर्ट ने सरकारी जमीनों को धार्मिक संप्रदायों को दान देने पर बेहद कड़ी टिप्पणी करते हुए 25 सितंबर को कहा कि गुजरात सरकार किसी शख्स या किसी खास धार्मिक संप्रदाय को सार्वजनिक इस्तेमाल की जमीन को दान न दे. जब पूरा देश धर्मस्थलों से भरा पड़ा है, तो राज्य सरकार को किसी खास संप्रदाय पर दरियादिली नहीं दिखानी चाहिए.

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हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी 3 पक्ष वाले एक जमीन के  झगड़े में की जिस में राजकोर्ट नगरनिगम, एक कोऔपरेटिव सोसाइटी और एक धार्मिक ट्रस्ट शामिल हैं. नगरनिगम एक जमीन को धार्मिक ट्रस्ट को बेचना चाहता है लेकिन कोऔपरेटिव सोसाइटी का दावा है कि यह उस की जमीन है.

संजय सिंह को मिली कमान

दिल्ली. अपनी तेजतर्रार इमेज और बेबाक राय के लिए मशहूर आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह को आगामी विधानसभा के लिए प्रभारी बनाया गया है.

इस के साथ ही 26 सितंबर को ‘आप’ की ओर से जारी बयान के मुताबिक, ‘पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव अपनी सरकार के ऐतिहासिक कामकाज के आधार पर लड़ेगी जिस ने चहुंमुखी विकास से राष्ट्रीय राजधानी की तसवीर बदल दी है. हमारे स्वयंसेवी स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली और जलापूर्ति क्षेत्र में दिल्ली सरकार के कामकाज की जानकारी घरघर तक पहुंचाएंगे.’

पिछले कुछ समय से आम आदमी पार्टी दिल्ली में अपनी इमेज बनाने में ज्यादा कामयाब हुई है. अब संजय सिंह को देखते हैं कि वे चुनाव में वोटरों को अपने पक्ष में कैसे लाएंगे.

मांझी का तीर

कटिहार. बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके और हिंदुस्तानी अवाम मोरचा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतनराम मां झी ने 26 सितंबर को राजद नेता तेजस्वी यादव पर आरोप लगाया कि भाजपा के प्रति उन के दिल में ‘सौफ्ट कौर्नर’ है. बिहार विधानसभा के मानसून सत्र के बाद से ही उन के लक्षण सही नहीं हैं.

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यह चिनगारी छोड़ने के साथ ही अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के नेता के चेहरे के सवाल पर जीतनराम मां झी ने कहा कि निजी तौर पर तेजस्वी उन्हें पसंद हैं, लेकिन इस का आखिरी फैसला महागठबंधन को करना है.

फट गए बादल

चंडीगढ़. भाजपा के करीबी रहे शिरोमणि अकाली दल के अब तेवर बदल गए हैं. उस के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने हरियाणा में अपनी पार्टी के एकमात्र विधायक के भाजपा में शामिल होने को गलत बताया.

कलांवली के विधायक बलकौर सिंह 26 सितंबर को नई दिल्ली में भाजपा में शामिल हो गए. उन्होंने मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की राज्य को ‘ईमानदारी’ सरकार देने के लिए तारीफ की.

इस बात से नाराज सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि हर रिश्ते की एक मर्यादा होती है और अकाली दल के मौजूदा विधायक को अपने खेमे में शामिल करने से उन के गठबंधन की मर्यादा टूट रही है.

भाजपा हर जगह मर्यादा की दुहाई देती है, लेकिन किसी दूसरी पार्टी के नेता को अपनी तरफ मिलाने से भी नहीं चूकती है.

परेड की डिमांड

भोपाल. यह किसी सेना की परेड की बात नहीं हो रही है, बल्कि मध्य प्रदेश के हाई प्रोफाइल हनी ट्रैप स्कैंडल में कई नेताओं और अफसरों के शामिल होने पर वहां के एक मंत्री गोविंद सिंह ने कहा है कि अपराधियों के खिलाफ केस दर्ज होना चाहिए. पुलिस को आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज करना चाहिए और उन की पब्लिक में परेड करानी चाहिए.

27 सितंबर को मध्य प्रदेश कांग्रेस दफ्तर के बाहर एक बड़ा बिलबोर्ड लगाया गया जिस में लिखा था कि ‘चाल चरित्र चेहरे’ का दावा करने वाले शिवराज सिंह चौहान अपनी पार्टी के नेताओं के नाम हनी ट्रैप में आने के बाद भी चुप क्यों हैं? इस से पता चलता है कि कुछ तो गड़बड़ है.

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जोड़ीदारों का बंटवारा

मुंबई. एकजैसी विचारधारा के हिमायती रहे भाजपाइयों और शिव सेना वालों में काफी उठापटक के बाद सीटों का बंटवारा तकरीबन हो गया है. भारतीय जनता पार्टी राज्य में 144 सीटों पर और शिव सेना 126 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. दूसरे सहयोगी दलों के लिए 18 सीटें रखी गई हैं.

यही नहीं, भाजपा की तरफ से शिव सेना को उपमुख्यमंत्री पद भी दिया जा सकता है. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस खुद कई बार कह चुके हैं कि वे आदित्य ठाकरे को उपमुख्यमंत्री बना सकते हैं.

सवाल उठता है कि अगर पिछले कुछ सालों में भाजपा ताकतवर हुई है तो उसे ऐसे गठबंधन की जरूरत ही क्यों पड़ती है?

प्रधानमंत्री की उम्मीद

चेन्नई. काफी दिनों के बाद भारत लौटे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 30 सितंबर को कहा कि दुनिया की भारत से ‘बहुत उम्मीदें’ हैं और उन की सरकार देश को ‘महानता’ के उस रास्ते पर ले जाएगी जहां वह पूरी दुनिया के लिए फायदेमंद साबित होगा. इस के साथ ही उन्होंने एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के खिलाफ अपनी मुहिम को दोहराया.

लेकिन प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया कि देश में धर्म, जाति, इलाके के नाम पर जिस तरह लोगों को बांटा जा रहा है, उन में जहर भरा जा रहा, उस से कैसे छुटकारा मिलेगा?

बढ़ी सियासी रार

कोलकाता. भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ममता सरकार पर हमला करते हुए कहा था कि बंगाल में जंगलराज है. इस पर तृणमूल वाले बिदक गए और उन्होंने 28 सितंबर को कहा कि जेपी नड्डा राज्य में विकास नहीं देख सकते, क्योंकि वे खुद जंगल से आए हैं.

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तृणमूल के नेता फरहाद हकीम ने कोसते हुए कहा कि नड्डा को केंद्र में ‘जंगलराज’ क्यों नहीं दिखा, क्योंकि भाजपा की दोष से भरी नीतियों के चलते अर्थव्यवस्था कमजोर हुई है और पूरे देश में नौकरियां गई हैं.

जितेंद्र सिंह के बोल बचन

जम्मू. केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह 29 सितंबर को कटरा में नवरात्रि उत्सव का उद्घाटन करने गए थे. वहां उन्होंने लोगों से कहा कि वे माता वैष्णो देवी का धन्यवाद करें कि जम्मूकश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर दिया गया है.

याद रहे कि केंद्र सरकार ने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधानों को खत्म कर दिया था और राज्य को 2 केंद्रशासित क्षेत्रों जम्मूकश्मीर और लद्दाख में बांट दिया था.

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