2014 के चुनाव के बाद कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए , तो 2018 तक क्षेत्रीय पार्टी के नेताओं को कुछ कमाल नहीं देखा पाए , लेकिन बीते कुछ महीनों के चुनावी नतीजों में इनको शक्ति एक बार फिर उभरने लगी है .
2017 के दिसम्बर में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का शासन कई राज्यों के सत्ता में भी था . भारत के एक वृहद भूभाग पर था , वहीं 2019 के अंत आते आते वह सिमट कर आधे पर आ गया.
इसमें भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी कांग्रेस ने अपने क्षेत्रीय चेहरों के मदद से कई राज्यों में सत्ता में वापसी का रास्ता तय किया, तो दूसरे तरफ कई अन्य राज्यों के क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कई राजनीतिक पार्टी से समझौता कर सत्ता तक पहुंचने का रास्ता साफ किया.
सत्ता में वापसी करें वाले इन क्षत्रपों में हरियाणा के जेजेपी के दुष्यत चौटाला , आंध्र प्रदेश के वी एस आर के जगन मोहन रेड्डी , महाराष्ट्र के शिवसेना के ठाकरे एवम् एन सी पी के पावर फैमली , झारखंड में जे.एम.एम के हेमंत सोरेन हैं.
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हरियाणा में तो भाजपा ने चुनाव परिणामों के बाद जे.जे.पी से गठबंधन के सत्ता को अपने पास ही बरकरार रखने में कामयाबी पाई , जबकि महाराष्ट्र में अपने ही पूर्व सहयोगी दल शिवसेना से टकराव कर सत्ता से बाहर हो गई.
झारखंड में पार्टी का किसी से गठबंधन नहीं हुआ . पार्टी आत्मविश्वास से चुनाव में उत्तरी, लेकिन परिणाम सीटों के नहीं बदल पाया. वोट प्रतिशत में तो बढ़ोतरी हुई लेकिन सीटों के संख्या ने उम्मीद से अधिक गिरावट देखने को मिला.
परिणास्वरूप भाजपा के हाथ से एक और राज्य सत्ता से निकल गया . इन सब के पीछे कहीं ना कहीं क्षेत्रीय दलों के आपसी समझदारी और किसी भी शर्त पर सत्ता में रहेंगी की जिद्द है.
अगर समय रहते अगर केंद्रीय सत्तारूढ़ राजनीतिक दल भाजपा इन बातों पर गौर नहीं करती है, तो एक बार फिर क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां सत्ता में होगी.
झारखंड का चुनावी नतीजे बिहार को भी प्रभावित करेंगे . जहां तक संभव है , आरजेडी जो इस झारखंड के जे.एम.एम के चुनावी गठबंधन में सहयोगी है, वहीं सरकार में भी भूमिका होगी . लंबे समय के बाद सरकार में आने के बाद आरजेडी के लिए यह जीत संजीवनी का काम करेंगी . वहीं इसकी भी पूरी संभावना है कि रिम्स में लालू के अच्छे दिन आ गए हैं . वह वहां अपना दरबार लगा पाएंगे. अगले साल बिहार में चुनाव है , इसका असर साफ तौर पर बिहार में देखने को मिलेगा.
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साथ ही इन इस पराजय के बाद भाजपा से बिहार चुनाव में अपने लिए अधिक सीटों को मांग कर अगर नीतीश कुमार अपने पार्टी के लिए करते है तो उसमें कोई नई बात नहीं होगी. आगामी छह महीनों में भाजपा को इन बातों पर ध्यान देना ही होगा नहीं तो बिहार विधानसभा चुनाव में भी परिणाम अनुकूल नहीं होगा.