हर कदम दर्द से कराहती बाल विधवाएं

उस पर भी विडंबना यह है कि ऐसी लड़कियों का दोबारा ब्याह नहीं किया जाता, बल्कि इन का किसी भी उम्र के मर्द से ‘नाता’ कर दिया जाता है. इस के बाद भी इन की जिंदगी में कोई खास सुधार नहीं आता. ये उन मर्दों की पहली पत्नियों के बच्चों का लालनपालन करते हुए अपनी जिंदगी का बो झ ढो रही होती हैं.

गरीबी व परिवार की तंगहाली और पुरातन परपंराओं ने बाल विवाह को बढ़ावा दिया और बड़े लैवल पर बाल विधवाओं को जन्म दिया. राजस्थान के हजारों गांवों में अब भी ऐसी विधवाएं बदकिस्मती का बो झ उठाए अनाम सी जिंदगी जी रही हैं.

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पहले बाल विवाह, अब बाल विधवा, आखिर किस से कहें अपना दर्द… न परिवार ने सुनी और न सरकार ने कोई मदद की… उस पर भी समाज की ‘आटासाटा’ और ‘नाता’ जैसी प्रथाओं ने जिंदगी को नरक बना दिया… पेश हैं बाल विधवाओं की सच्ची दास्तान:

‘आटासाटा’ ने छीना बचपन

नाम सुनीता. 4 साल की उम्र में शादी. एक साल बाद ही विधवा और अब जिंदगीभर विधवा के नाम से ही पहचान बने रहने की पीड़ा.

इस समय 11 साल की सुनीता अजमेर जिले के सरवाड़ गांव के सरकारी स्कूल में 7वीं जमात में पढ़ती है. स्कूल में भी उस की पहचान बाल विधवा के रूप में ही है.

सुनीता के इस हाल के पीछे बाल विवाह जैसी कुप्रथा तो है ही, लेकिन ‘आटासाटा’ का रिवाज भी इस का जिम्मेदार है. इस रिवाज के चलते परिवार बेटे के लिए बहू मांगते हैं और वहीं बेटी के बदले दामाद की फरमाइश करते हैं. जहां यह मांग पूरी होती है, वहीं शादी तय होती है. सुनीता भी इसी रिवाज के जाल में फंस गई.

सुनीता के दादा रामप्रताप 8 साल के पोते की जल्दी शादी कराने के लिए उतावले थे. लड़की भी मिल गई, लेकिन लड़की के घर वाले चाहते थे कि इस के बदले में लगे हाथ परिवार के 7 साल के मुकेश को भी दुलहन मिल जाए.

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सुनीता की बड़ी बहन जसोदा मुकेश से काफी बड़ी थी, इसलिए मुकेश की दुलहन बनने का जिम्मा 4 साल की सुनीता के सिर आ पड़ा. शादी होने के कुछ महीने बाद ही सुनीता विधवा भी हो गई.

शादी के बाद से ही मांबाप के घर रह रही सुनीता को तुरतफुरत उस की ससुराल ले जाया गया, जहां विधवा होने की सारी रस्में उस के साथ पूरी की गईं. उस की नाजुक कलाइयों में मौजूद चूडि़यों को बेरहमी से तोड़ा गया और मांग का सिंदूर मिटा दिया गया.

हर कदम पर पहरा

राजसमंद जिले के रतनाड़ा गांव की 15 साला सुमन की गांव में बाल विधवा के रूप में पहचान है. उसे विधवा हुए 9 साल हो चुके हैं.

रतनाड़ा गांव के पास वाले गांव में रहने वाले उस के पति की मौत तालाब में डूबने से हो गई. पति की मौत के बाद उस के घर वालों ने उसे विधवा का मतलब सम झाया. उसे रंगीन कपड़े और जेवर पहनने से मना किया गया, हंसनेखेलने से मना किया गया, पेटभर खाना खाने से रोका गया. तीजत्योहारों पर सजनेसंवरने और मेलों में घूमने पर पाबंदी लगा दी गई.

इतना ही नहीं, उसे अकेले रहने के लिए जबरन मजबूर किया गया. इन नियमकायदों का पालन नहीं करने पर उसे मारापीटा तक जाने लगा.

शादी और विधवा का मतलब भी नहीं सम झी होगी कि सुमन को फिर किसी दूसरे मर्द के यहां ‘नाते’ पर बैठा दिया गया. जहां वह ‘नाता’ के तहत गई, इस की कोई गारंटी नहीं है कि वहां कितने दिन उसे रखा जाएगा.

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इस पर भी विडंबना यह है कि इस बाल विधवा के ‘नाता’ जाने के दौरान दुलहन को रंगीन जोड़ा तक पहनने की इजाजत नहीं होती है. दूल्हा भी घोड़ी नहीं चढ़ सकता है.

दिलचस्प बात तो यह भी है कि राजस्थान के कई इलाकों में इतना घोर अंधविश्वास है कि नई ससुराल में ‘नाते’ आई बाल विधवाओं का प्रवेश भी रात के अंधेरे में पिछले दरवाजे से कराया जाता है.

‘नाता’ भी नहीं महफूज

टोंक जिले के कल्याणपुरा गांव की रहने वाली प्रेमा का ब्याह कब हुआ, उसे खुद मालूम नहीं. कब वह विधवा हुई, यह भी उसे याद नहीं. ये घटनाएं जिंदगी में तभी घटित हो गईं, जब वह मां की गोद में रहती थी.

20 साल की होने पर प्रेमा के पिता को उस के लिए दूसरा साथी मिला. उस के साथ प्रेमा का ‘नाता’ कर दिया गया. एक साल बाद उस ‘नाते’ के पति ने प्रेमा को अपने साथ नहीं रखा और उसे पिता के पास छोड़ गया.

आज प्रेमा फिर अपने पिता व भाई के साथ रह कर अपनी जिंदगी काट रही है. अब प्रेमा को न तो बाल विधवा कहा जा सकता है और न ही छोड़ी हुई, क्योंकि ‘नाता’ की कहीं कोई मंजूरी नहीं है. ऐसे में सरकार भी उस की कोई मदद नहीं कर सकती. समाज ही आगे आए तो कोई बात बने.

बेघर होने का डर

टोंक जिले के ही दूनी गांव की रहने वाली 22 साला केशंता की शादी 11 साल की उम्र में कर दी गई थी. पड़ोस के ही धारोला गांव के रहने वाले उस के पति रामधन को सांप ने काट लिया था, जिस से उस की मौत हो गई थी. इस से 15 साल की उम्र में ही केशंता बाल विधवा बन गई.

तालीम से दूर केशंता अब अपने पिता के साथ खेतों में काम करती है. बाल विवाह की गलत परंपरा ने केशंता का बचपन छीन लिया. सारी खुशियां और मौजमस्ती से उसे दूर कर दिया.

केशंता को ‘नाता’ भेजने से उस का पिता भी डरता है. केशंता के पिता का मानना है कि ‘नाता’ प्रथा में बेटी  की जिंदगीभर की हिफाजत की गारंटी नहीं है. लड़की को कभी भी बेघर किया जा सकता है.

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बावजूद इस के, केशंता को भी एक न एक दिन ‘नाता’ भेज दिया जाएगा. समाज के तानों और दबाव के आगे पिता भी बेबस है, भले ही बेटी की जिंदगी नरक बन रही हो.

बेटी जीने का सहारा

5 साल की उम्र में शादी हुई और 15 साल की उम्र में मां बन गई. और तो और 17 साल की उम्र में विधवा.

यह बाल विधवा बूंदी जिले के देवली गांव की संतोष तंवर है. उस पर अपनी जिंदगी के साथसाथ एक बेटी की भी जिम्मेदारी समाज की इस गलत परंपरा ने डाल दी है.

संतोष की बेटी अभी डेढ़दो साल की हुई थी कि उस के पति की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. इस समय उम्र के 23वें पड़ाव पर चल रही संतोष जब भी चटक रंग के कपड़े या गहने पहनती है तो गांव की औरतें ताने मारती हैं.

संतोष न दोबारा शादी कर सकती है और न ही ‘नाता’ जा सकती है. ऐसा करने पर उसे अपनी बेटी को ससुराल या अपने पिता के घर छोड़ना पड़ता है. मायके में 3 साल रहने के बाद अब वह ससुराल में ही एक कमरे में रहती है. खेतों में काम करते हुए वह अपना गुजारा कर रही है.

फिलहाल संतोष अपनी बेटी को ही बेटा मान कर तालीम दिला रही है. वह सपना देखती है कि बेटी जब बड़ी हो जाएगी तो उसे जिंदगी में थोड़ा सुकून मिलेगा. मगर सामाजिक तानाबाना ही उसे बदकिस्मती से बाहर आने नहीं देगा. विधवा होने के चलते उसे अपनी ही बेटी की शादी की रस्मों में शामिल नहीं होने दिया जाएगा.

दर्द यहां भी कम नहीं

ऐसा नहीं है कि बाल विवाह के दर्द से नीची व पिछड़ी सम झी जाने वाली जातियों की औरतें ही पीडि़त हैं, बल्कि ऊंची सम झी जाने वाली ब्राह्मण जैसी जातियों की औरतें भी इस गलत परंपरा से पीडि़त हैं.

ब्राह्मण समाज में औरतों के दोबारा ब्याह करने का प्रचलन वैसे ही कम है. शहरी समाज में भले ही बदलाव आ गया हो, लेकिन गंवई इलाकों के हालात जस के तस हैं.

टोंक जिले के पीपलू गांव की रहने वाली 24 साल की खुशबू तिवारी की शादी 15 साल की उम्र में ही हो गई थी और 17 साल की उम्र में विधवा भी हो गई. इस उम्र में वह एक बेटी की मां भी बनी थी. पति की मौत के बाद ससुराल में वह बेटे के साथ अलग रह रही है.

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समाजजाति कोई भी हो, यह समाज  विधवा औरतों का जीना दूभर कर देता है. सम्मान व सहारा देने के बजाय उस का शोषण करने के तरीके खोजता है. खुशबू जिस घर में बहू बन कर गई थी, आज उसे अपनी बेटी के साथ उसी घर में अलग एक कमरे में रहना पड़ रहा है.

अपने ही हुए पराए

सवाई माधोपुर जिले के बौली गांव की रहने वाली 26 साला ममता कंवर का ब्याह 12 साल की उम्र में महिपाल सिंह से हुआ. साल 2017 में उस के पति की मौत थ्रेशर मशीन में फंसने से हो गई. इस से उस पर एक बेटे और 2 बेटियों को पालने की जिम्मेदारी आ गई.

राजपूत समाज में भी विधवाओं को दोबारा ब्याह करने की इजाजत नहीं है. ममता को संतुलित भोजन नहीं दिया जाता, दूधसब्जी पर रोक है.

इतना ही नहीं, ममता के घर से निकलने पर भी पाबंदी लगा दी गई है. राजपूत विधवाओं को काला व कत्थई रंग के कपड़े ही पहनने की इजाजत है.

अपने ही लोगों के बीच एक कैदी की तरह रहने को ये विधवाएं मजबूर हैं. इन के दोबारा ब्याह करने के बारे में सोचना भी परिवार व समाज को गवारा नहीं है.

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चिंता में युवा

मकान बनने बंद हो गए हैं. मोबाइलों की बिक्री में ठहराव आ गया है. सरकार को तो पास्ट सुधारना है, इसलिए वह कश्मीर के पीछे पड़ी है और सुरक्षा पर खरबों रुपए खर्च कर रही है. वहां की एक करोड़ जनता आज गुलामी की जेल में बंद है.

सरकार का निशाना तो पी चिदंबरम, शरद पंवार, राहुल गांधी हैं, सदियों पुराने देवीदेवता हैं, भविष्य नहीं. युवाओं को सुधरा हुआ कल चाहिए. घरघर में तकनीक का लाभ उठाने के लिए गैजेट मौजूद हों. सिक्योर फ्यूचर हो. जौब हो. मौज हो. पर सरकार तो टैक्स लगाने में लगी है. वह महंगे पैट्रोल के साथ युवाओं को बाइक से उतारने में लगी है. यहां तक कि एग्जाम की फीस बढ़ाने में भी उसे हिचक नहीं होती.

देश का कल आज से अच्छा होगा, यह सपना अब हवा हो रहा है. नारों में कल की यानी भविष्य की बड़ी बातें हैं पर अखबारों की सुर्खियां तो गिरते रुपए, गिरते स्टौक मार्केट और बंद होती फैक्ट्रियों की हैं. सरकार भरोसा दिला रही है कि हम यह करेंगे वह करेंगे, पर हर युवा जानता व समझता है कि कल का भरोसा नहीं है.

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फ्लिपकार्ट और अमेजन, जो बड़ी जोरशोर से देश में आई थीं और जिन्होंने युवाओं को लुभाया था, अब हांफने लगी हैं. उन की बढ़ोतरी की दर कम होने लगी है जो साफ सिग्नल दे रही है कि आज के युवाओं के पास अब पैसा नहीं बचा.

दोष युवाओं का भी है. पिछले 8-10 सालों में युवाओं ने खुद अपने भविष्य को आग लगा कर फूंका है. कभी वे धार्मिक पार्टियों से  जुड़ कर मौज मनाते तो कभी रेव पार्टियों में. हर शहर में हुक्का बार बनने लगे, फास्टफूड रैस्तरांओं की भरमार होने लगी. लोग लैब्स में नहीं, अड्डों पर जमा होने लगे. जिन्हें रातदिन लाइब्रेरी और कंप्यूटरों से ज्ञान बटोरना था वे सोशल मीडिया पर बासी वीडियो और जोक्स को एक्सचेंज करने में लग गए.

युवाओं का फ्यूचर युवाओं को खुद भी बचाना होगा. हौंगकौंग के युवा डैमोक्रेसी बचाने में लगे हैं. इजिप्ट, लीबिया, ट्यूनीशिया में युवाओं ने सरकारों को पलट दिया. वहां जो नई सरकारें आईं वे मनमाफिक न निकलीं. पर आज वहां के युवाओं से वे भयभीत हैं. 25 साल पहले चीन के बीजिंग शहर में टिनामन स्क्वायर पर युवाओं ने कम्युनिस्ट शासकों को जो झटका दिया उसी से चीन की नीतियां बदलीं और आज चीन अमेरिका के बराबर खड़ा है. भारत पिछड़ रहा है, क्योंकि यहां का युवा या तो कांवड़ ढो रहा है या गले में भगवा दुपट्टा डाले धर्मरक्षक बन जाता है, जब उसे तरहतरह की पार्टियों से फुरसत होती है.

काम की बात आज युवामन से निकल चुकी है. घरों में पिज्जा, पास्ता खाने वाली जनरेशन को पिसना भी सीखना होगा.

तमिलनाडु

छात्रों के बीच पनपता भेदभाव के कुछ स्कूलों में छात्रछात्राएं अपनी जाति के हिसाब से चुने रंगों के रबड़ के या रिबन के बैंड हाथ में पहन कर आते हैं ताकि वे निचली जातियों वालों से दूर रहें. जातिवाद के भेदभाव का यह रंग तमिलनाडु में दिख रहा है हालांकि यह हमारे देश के कोनेकोने में मौजूद है. असल में हिंदू धर्म किसी जमात का नहीं, यह जातियों का समूह है जिस के झंडे के नीचे जातियां फलफूल रही हैं.

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भारत में मुसलमान इतनी संख्या में हैं तो इसलिए नहीं कि कभी विदेशी शासकों ने लोगों को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया बल्कि इसलिए हैं कि तब बहुत से लोग अपने आसपास मौजूद ऊंची जातियों वालों के कहर से बचना चाहते थे. देशी शासक जब भी जहां भी आए, उन्होंने जातियज्ञ में और घी डाल कर उसे तेज दिया. पिछली कुछ सदियों में अगर फर्क हुआ तो बस इतना कि कुछ शूद्र जातियां अपने को राजपूत तो कुछ वैश्य समझने लगीं. कुछ नीची जातियों के लोगों ने भगवा कपड़े पहन कर व साधु या स्वामी का नाम रख कर अपने को ब्राह्मण घोषित कर डाला. इस के बावजूद इन सब जातियों में आपस में किसी तरह का कोई लेनदेन नहीं हुआ.

स्कूलों, कालेजों, निजी व सरकारी संस्थानों में यह भेदभाव बुरी तरह पनप रहा है और छात्रछात्राएं जाति का जहर न केवल पी रहे हैं, दूसरों को पिला भी रहे हैं. जहां बैंड या रिबन पहने जा रहे हैं वहां तो अलगथलग रहा ही जाता है, जहां नहीं पहना हो वहां कोई दूध और शक्कर को मिलाया नहीं जा रहा. यह वह गंगा, कावेरी है जहां रेत और पानी कभी नहीं मिलते.

भेदभाव का असर पढ़ाई पर पड़ रहा है. स्कूलोंकालेजों में प्रतियोगिता के समय कभी आरक्षण का नाम ले कर कोसा जाता है तो कभी ऊंची जाति के दंभभरे नारे लगाए जाते हैं. लड़कों ने बाइकों पर गर्व से अपनी जाति का नाम लिखना शुरू कर दिया है ताकि झगड़े के समय राह चलता उन की जाति का व्यक्ति भी उन्हें सपोर्ट करने आ जाए.

हमारी आधुनिक, वैज्ञानिक, तार्किक, लिबरल पढ़ाईलिखाई सब भैंस गई पानी में की हालत में है. हम सब भंवर में फंस रहे हैं. सरकार को उस का लाभ मिल रहा है और आज के नेता इसी बल पर जीत कर आते हैं. वे कतई इंट्रैस्टेड नहीं हैं कि यह भेदभाव खत्म हो. उलटे, हर स्टूडैंट यूनियन चुनाव में हर पोस्ट पर जाति के हिसाब से कैंडीडेट लड़वाए जाते हैं ताकि बहुमत पाने के लिए 40-50 परसैंट विद्यार्थियों का सपोर्ट मिल सके.

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यह एक महान देश बन पाएगा, इस की उम्मीद क्या रखें, क्योंकि जाति का मतलब यहां क्या काम करोगे, कितना करोगे, कैसे करोगे तक पहुंचता है. और स्कूलकालेज से चल कर यह कारखानों, खेतों, दफ्तरों, बैंकों तक पहुंचता है.

चावल घोटाले की पकती खिचड़ी

अब तक रामदास एग्रो इंडस्ट्री के पुरुषोत्तम जैन, प्रीति राइस मिल के पंकज कुमार, मौडर्न राइस मिल के राजेश लाल और पावापुरी राइस मिल के दिनेश गुप्ता की तकरीबन 8 करोड़ की जायदाद जब्त की जा चुकी है.

बिहार राज्य खाद्य आपूर्ति निगम हर साल चावल मिलों को चावल निकालने के लिए सरकारी धान देता है. निगम द्वारा दिए गए कुल धान से निकलने वाले चावल का 67 फीसदी चावल निगम को लौटाना होता है. आरोपी मिल मालिकों ने निगम को चावल नहीं लौटाया और खुले बाजार में उसे बेच दिया.

बिहार में चावल मिल मालिकों की धांधली पर रोक लगाने में सरकार नाकाम रही है. पिछले 5 सालों से चावल मिल मालिकों के पास बिहार राज्य खाद्य निगम के 1,200 करोड़ रुपए बकाया हैं. राज्य में 1,300 चावल मिलें ऐसी हैं, जिन्होंने धान ले कर सरकार को चावल नहीं लौटाया, इस के बाद भी धान कुटाई के लिए उन मिलों को दोबारा धान दिया जा रहा है.

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गौरतलब है कि पटना की 64 चावल मिलों पर 55.61, नालंदा की 84 मिलों पर 55.34, सीतामढ़ी की 52 मिलों पर 55.83, मुजफ्फरपुर की 33 मिलों पर 66.51, भोजपुर की 90 मिलों पर 72.05, पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण की 153 मिलों पर 63, बक्सर की 152 मिलों पर 101, औरंगाबाद की 207 मिलों पर 62.15, कैमूर की 357 मिलों पर 220, रोहतास की 191 मिलों पर 111, गया की 49 मिलों पर 40, वैशाली की 25 मिलों पर 23.66, दरभंगा की 34 मिलों पर 39.83, शिवहर की 8 मिलों पर 17.78, नवादा की 23 मिलों पर 20.48 करोड़ रुपए की रकम बकाया है.

इस के अलावा सिवान, अरवल, शेखपुरा, मधुबनी, सारण, समस्तीपुर, लखीसराय,  गोपालगंज वगैरह जिलों की सैकड़ों छोटीमोटी चावल मिलों पर तकरीबन 90 करोड़ रुपए बकाया हैं.

चावल घोटाले का यह खेल पिछले 8 सालों से चल रहा था. साल 2011-12 में राज्य खाद्य निगम ने 17 लाख, 6 हजार टन धान किसानों से खरीदा था. सारा धान चावल मिलों को दे दिया गया था. चावल मिलों से 14 लाख, 47 हजार टन चावल सरकार को मिलना था, पर उन्होंने केवल 8 लाख, 56 हजार टन चावल ही लौटाया है. बाकी चावल चावल मिलों ने आज तक नहीं लौटाया. उस चावल की कीमत 1,200 करोड़ रुपए है.

बिहार महालेखाकार ने पिछले साल की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि धान को ले कर मिलरों ने सरकार को 434 करोड़ रुपए का चूना लगाया है. इस के बाद भी राइस मिल मालिकों पर कानूनी नकेल कसने में सरकार पता नहीं क्यों सुस्त रही?

बिहार राज्य खाद्य निगम के सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, केवल 50 हजार रुपए की गारंटी रकम पर ही 3 से 6 करोड़ रुपए के धान चावल मिलों को सौंप दिए जाते रहे.

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चावल मिलों को धान देने के बारे में नियम यह है कि भारतीय खाद्य निगम मिलों से एग्रीमैंट करता है, जिस के तहत मिलर पहले निगम को 67 फीसदी चावल देते हैं, जिस के बदले में उन्हें रसीद मिलती है. उस रसीद को दिखाने के बाद ही निगम द्वारा मिलों को 100 फीसदी धान दिया जाता है. इस मामले में हेराफेरी के बाद भी राइस मिलों को सरकारी धान कुटाई के लिए मिलता रहा और वे घोटाले का खेल साल दर साल खेलते रहे

चावल घोटाले के मामले में 1,300 बड़े बकायादार मिल मालिकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा चुकी है. गौरतलब है कि पिछले 5 सालों से चावल मिलों के मालिक 1,342 करोड़ रुपए बकाया देने में टालमटोल करते रहे हैं.

गहरी पैठ

उन की औरतों को नंगा किया जाता था, उन को देह व्यापार में धकेला जाता था, उन से गुलामों से बदतर काम कराया जाता था. मुसलमानों के साथ यह व्यवहार न मुसलमानों के राज में हो पाया था, न ब्रिटिश राज में. मुसलिम राजाओं के और ब्रिटिशों के जमाने में भी पिछड़े व दलित ही शिकार हो रहे थे.

1947 के बाद भक्तों की बन आई. शुरू में उन्होंने मंदिरों को बनवाया. हर छोटा मंदिर बड़ा बन गया है. दलितों और पिछड़ों को छोटे देवता, जो आमतौर पर बड़े देवताओं के दास, वाहक या किसी और तरह पैदा हुए बच्चे थे, पकड़ा दिए गए और उन से दुश्मनी कम हो गई. उन की जगह मुसलमानों में दुश्मन खोजा गया जो पाकिस्तान बनाने के लिए जिम्मेदार थे. भक्त यह भूल जाते हैं कि अगर भारत के टुकड़े नहीं हुए होते तो पूरे हिंदुस्तान की करीब 160-170 करोड़ जनता में 60 करोड़ मुसलमान होते. लेकिन भक्तों को सच की फिक्र कहां होती है. वे तो झूठों पर जिंदा रहते हैं.

बाबरी मसजिद की पूरी नौटंकी मुसलमानों को देश का दुश्मन बनाने के लिए रची गई और उस में दलितों और पिछड़ों ने भी आहुति दे डाली कि शायद इस से उन को ऊंचा स्थान मिल जाए. लेकिन न 1998 से 2004 तक और न 2014 से अब तक के भक्तों के राज में दलितों और पिछड़ों को राज में बराबर का हिस्सेदार बनाया जा रहा है. उन से दुश्मनी है पर उस पर परदा डाला हुआ है. छिपेतौर पर आरक्षण की जम कर खिंचाई होती है. दलितों को मारापीटा जाता है.

भक्तों को पुलवामा के बहाने कश्मीरी मुसलमानों से बदला लेने का मौका मिला क्योंकि उन्हें तो दुश्मन चाहिए. भक्ति का एक बड़ा सुबूत दुश्मनी ही है. राम हो, कृष्ण हो, शिव हो, इंद्र हो, विष्णु हो, दुर्गा हो, हमारे ज्यादातर भगवान दुश्मनों के सहारे बने हैं. दुश्मनी भक्ति की जड़ में है. भक्तों को कश्मीरी मुसलमानों से दुश्मनी दिखाने का मौका मिला और सारे देश से कश्मीरियों को चुनचुन कर भगाया गया. जब यह मामला ठंडा पड़ जाएगा तो कोई और दुश्मन ढूंढ़ना पड़ेगा. मैदानी इलाकों के मुसलमानों को आतंकवाद की वजह फिलहाल नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे ऐसा कुछ नहीं कर रहे.

भक्तों को मीडिया में भी दुश्मन नजर आने लगे क्योंकि वह उन की भक्ति के अंधेपन की पोल खोल रहा था. भक्त दिमाग से इतने अंधे हैं कि उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि मीडिया उन की आंखें खोलना चाहता है जबकि उन का इस्तेमाल कर रहे उन्हें अंधा बनाए रखना चाहते हैं.

दुश्मनी से बढ़ कर अंधभक्तों के लिए कोई बड़ा वरदान नहीं है. तभी आप ने देखा होगा कि जिन घरों में पूजापाठ ज्यादा होता है वहां कलह भी ज्यादा होती है. अंधे बनिए, लाठी को सहारा नहीं, ऐरेगैरे पर चलाने के लिए इस्तेमाल करिए. जय बोलो देवीदेवता की. चुनावों के बाद थोड़ी शांति है, पर भक्त जल्दी ही किसी दुश्मन को ढूंढ़ लेंगे, यह गारंटी है.

मोटरबाइकों, गाडि़यों और बसों की बिक्री एक पैमाना है जिस में पता चलता है कि देश की माली हालत कैसी सुधर रही है. पिछले 3 माहों में इन की बिक्री 12 फीसदी से कम हो गई है क्योंकि शहरी खरीद के साथसाथ गांवकसबों में भी खरीदी कम हो गई है. यह गिरावट 2008 के बाद सब से ज्यादा है. जो लोग सोच रहे थे कि रामनाम दुपट्टा पहनने और जय श्रीराम के नारों से उन को नई ऊंचाइयां मिलेंगी, वे थोड़े परेशान तो होंगे ही.

यह तब है जब दुनियाभर में तेल की बहुतायत की वजह से पैट्रोलडीजल के दाम हाल के बजट के टैक्स से पहले बढ़ नहीं रहे थे. जब देश में न सड़कों की कमी हो, न वाहन बनाने वालों की, न लोहे की तो वाहन क्यों कम बिक रहे हैं? जवाब है कि लोगों को कामधाम से हटा कर बेमतलब के गुणगान में लगाया जा रहा है.

मेहनत करना एक सामाजिक आदत है. कुछ समाज हैं जहां 10-12 घंटे काम करना आम समझा जाता है. कहीं 2-3 घंटे के काम पहाड़ तोड़ना समझा जाता है. हमारे यहां पहले चौराहों पर चाय पीते या तंबाकू फांकने बकबक करने को काम करना समझा जाता था. बीच के सालों में यह कुछ बदला था और युवा लोग नारे लगाने की जगह नौकरियों की खोज में लगने लगे थे, बल्कि उलटा हो रहा था. रोजगार देने वालों को लोग नहीं मिल रहे थे. हर वर्कर अकड़ रहा था.

अब फिर इस पुराने ढर्रे पर आ गए हैं जहां सड़क पर जमा हो कर जय श्रीराम का नारा लगाना और लगवाना बड़ा काम हो गया है. गौरक्षकों की एक बड़ी जमात पैदा कर दी गई है जो काम नहीं करती, बल्कि दूध, चमड़े का व्यापार करने वालों के आड़े आ रही है. मंदिरों में पूजापाठ जोरशोर से होने लगा है.

ऐसे में वाहन खरीदने लायक कमाई कैसे होगी? किसी भी युवा से पूछ लें, वह ऐसा काम चाहता है जिस में उसे हाथ न हिलाने पड़ें. बदन से काम करना न पड़े. वैसे भी अब जाति का सवाल बड़ा हो गया है इसलिए छोटे काम को करना एक बार फिर अपनी जाति का अपमान माना जाने लगा है. एक समय ब्राह्मणों ने कारखानों में मशीनों पर खूब काम करना शुरू किया था जिस का फायदा पूरे देश को हुआ था. आज तो दलित व पिछड़ा भी पंडागीरी चाहता है ताकि उस की जाति का नहीं तो उस के परिवार का उद्धार तो हो जाए.

वाहनों की ही नहीं और बहुत सी चीजों की बिक्री सरकारी फैसलों की वजह से कमजोर हो रही है. जब देश में बेरोजगार बढ़ रहे हों, तो यह खतरनाक है. एक ऐसा लावा पैदा हो रहा है जो ज्वालामुखी की तरह फूटेगा और तहसनहस कर डालेगा.

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