पत्रकार का स्कूटर

लेखक- सुकुमार महाजन

और उन के पैर सामने पड़ी कमजोर मेज पर बिखरी हुई गंदी फाइलों पर रखे थे. कहानी के उतारचढ़ाव के साथसाथ मेज भी आगेपीछे झूलती जाती थी. छत का पंखा आहिस्ताआहिस्ता घूम रहा था, इस पर भी कड़ी घुटन और गरमी महसूस हो रही थी. शायद कहानी में वह प्रसंग आ रहा था जब हीरो अपनी सहायिका को, जो एक सुंदरी थी, बांहों  में बांध कर यह बताता है कि किस तरह उस ने अकेले निहत्थे ही विदेशी जासूसों के दल का पता लगा कर उस का सफाया कर दिया.

तभी बाहर के कमरे में फोन की घंटी बज उठी. किसी ने फोन उठाया. थानेदार साहब का फोन था. उन्हें एक्सटेंशन दिया गया. पंजाबी में एक भद्दी सी गाली देते हुए उन्होंने किताब मेज पर दे मारी और चोंगे में जोर से ‘हां’ कहा.

‘‘मैं एस.पी. बोल रहा हूं,’’ दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘कितनी बार तुम से कहा कि फोन पर धीरे बोला करो, लेकिन तुम पर असर ही नहीं होता.’’

‘‘सर…जनाब,’’ वह तेजी से उठे और एडि़यां बजाते हुए तन कर सलाम किया, ‘‘साहब, हम लोगों को फोन पर इतना परेशान किया जाता है कि…’’

‘‘चुप रहो और मेरी बात सुनो. तुम्हारे यहां से एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया था. आज शाम तक वह मिल जाना चाहिए.’’

‘‘लेकिन, साहब,’’ थानेदार साहब ने कहना चाहा, ‘‘पहले ही 10 स्कूटरों और मोटर साइकिलों के केस पड़े हैं और…’’

‘‘बकवास मत करो. उन 10 की कोई जल्दी नहीं है. यह पत्रकार का स्कूटर है, फौरन मिलना चाहिए. जल्दी करो!’’ एस.पी. ने फोन रख दिया था.

थानेदार साहब ने गुस्से से चोंगे की तरफ देखा, फिर मेज पर पड़ी किताब की तरफ और फिर जोर से चोंगा पटक दिया.

ये भी पढ़ें- देवी

‘‘मुंशीजी,’’ वह दहाड़े.

बांहों पर 3 पट्टी वाले 6 फुटे मुंशीजी ने फौरन अंदर आ कर सलाम किया.

‘‘क्या किया तुम ने?’’ थानेदार ने पूछा.

‘‘क्या किया, हुजूर?’’

‘‘धत्तेरे की,’’ थानेदार साहब गरजे, ‘‘तुम दूसरे फोन पर सब बात सुन रहे थे. है न?’’

मुंशीजी ने स्वीकार किया.

‘‘फिर क्या किया तुम ने…’’ रुक कर उन्होंने सांस खींची, ‘‘क्या किया उस पत्रकार का स्कूटर शाम तक ढूंढ़ने के लिए?’’

मुंशीजी कोई जवाब दें, इस के पहले ही फोन की घंटी बजी और थानेदार साहब ने चोंगा उठाया.

‘‘जनाब सर,’’ जितना हो सकता था उतनी नम्रता से

वह बोले.

‘‘मैं सेतुरामन हूं, श्रीमान! मैं सरकारी इंजीनियर हूं और पी.वाई.जेड. कारखाने में काम करता हूं. मैं यह जानना चाहता था कि मेरे चोरी गए स्कूटर के संबंध में आप ने क्या काररवाई की है. शायद आप को याद हो, मैं ने 3 महीने पहले रिपोर्ट लिखाई थी.’’

‘‘मिस्टर सेतुरामन,’’ थानेदार ने कुढ़ कर कहा, ‘‘सरकारी नौकर होने का यह मतलब नहीं है कि आप पुलिस वालों पर हुक्म चलाएं. आप का स्कूटर ढूंढ़ने के अलावा हमारे पास और भी काम है. कुछ पता चला तो हम लोग आप को बताएंगे ही. आप बेकार हमारा वक्त क्यों बरबाद करते हैं?’’ अंतिम वाक्य उन्होंने बड़ी जोरदार आवाज में कहा.

‘‘हां, तो…’’ वह फिर मुंशीजी की तरफ मुड़े. तभी फोन की घंटी फिर बजी.

‘‘क्या है?’’ वह चिल्ला कर बोले.

‘‘मैं आई.जी. बोल रहा हूं. गधे, तुम यह कब सीखोगे कि हम प्रजातंत्र में रह रहे हैं और बदतमीजी से बोलना हमें शोभा नहीं देता, खासतौर से फोन पर.’’

थानेदार साहब ने एडि़यां बजाईं और तन कर सलाम किया, ‘‘सर, जनाब…’’ वह कुछ कहना चाहते थे मगर बात बीच में ही काट दी गई.

‘‘सुनो, एक पत्रकार का स्कूटर तुम्हारी तरफ से उठ गया है और…’’

‘‘एस.पी. साहब ने मुझे बताया था, हुजूर और…’’

‘‘गोली मारो उन को, मेरी बात सुनो. तुम्हारे इलाके से एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया है और ब्लिंक अखबार ने तूफान खड़ा कर रखा है. उन्होंने इस बात को ले कर संपादकीय में भी लिखा है, जैसे देश में और कोई समस्या है ही नहीं. जो भी हो, मैं चाहता हूं कि दोपहर को खाने की छुट्टी के पहले ही तुम स्कूटर ढूंढ़ निकालो. मिलते ही सीधे मुझे फोन करो. समझे!’’

ये भी पढ़ें- टूटता विश्वास

थानेदार साहब ने फोन की तरफ गुस्से से देखा फिर मुंशीजी की तरफ मुड़े.

‘‘तुम मेरी तरफ मरियल कुत्ते की तरह क्या घूर रहे हो?’’ वह जैसे फट पड़े, ‘‘जाओ, और जा कर कुछ करो.’’

‘‘लेकिन क्या किया जाए, हुजूर?’’

थानेदार साहब ने कुछ तेज बातें करने के लिए सांस भरी, लेकिन न जाने क्या सोच कर धीरे से छोड़ दी.

‘‘समझने की कोशिश करो, मुंशीजी, मैं तो मुसीबत में पड़ गया हूं. तुम्हारी और इस थाने की भी मुसीबत है. बस, एस.पी. भर की बात होती तो तरफदारी की बात के बहाने अपनी जान बचाई जा सकती थी. लेकिन आई.जी. के आगे…ना बाबा ना, सोचो, कुछ तो सोचो.’’

और आखिर मुंशीजी ने एक बढि़या तरकीब सोच ही निकाली, ‘‘हम लोग उस पत्रकार से लापरवाही से स्कूटर रखने के लिए जवाब तलब क्यों न करें?’’

थानेदार साहब का बस चलता तो वह मुंशीजी को कच्चा ही चबा जाते. लेकिन वह इतना ही कह कर रह गए, ‘‘तुम बुद्धू हो.’’

अचानक उन के चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ गई. उन्होंने पूछा, ‘‘हमारे इलाके में कितने मोटर मिस्त्री हैं? खासतौर से उन के नाम बोलो, जो हमारे इस नंबरी रजिस्टर में दर्ज हैं.’’

मुंशीजी ने मूंछों पर हाथ फेरतेफेरते 2 बार खंखार कर गला साफ किया, जमीन की तरफ देखा और फिर छत की तरफ, थोड़ा सा हिलतेडुलते हुए बोले, ‘‘जी, कांस्टेबल भीमसिंह को पता होगा.’’

‘‘कहां है, वह?’’

‘‘वह अपनी बीवी को लेने स्टेशन गया है. उस के पहला बच्चा लड़का हुआ था. आज वह आ रही है.’’

‘‘मुबारक हो,’’ थानेदार साहब ने तानाकशी के साथ कहा, ‘‘और यहां मुजरिम को थाने में कौन लाएगा? तुम ही लाओगे? जाओ, जो कर सको, करो, नहीं तो आई.जी. साहब से कह दो और भुगतो,’’ फोन की तरफ इशारा करते हुए थानेदार साहब ने अपना अधूरा पढ़ा उपन्यास उठा लिया.

मुंशीजी थोड़ी देर तो खड़े रहे फिर बोले, ‘‘हुजूर…हुजूर, मुझे याद आया, भीमसिंह एक बार एक मिस्त्री के बारे में कह रहा था कि उस का नाम रिकार्ड में है रसिया…रसिया नाम है उस का.’’

निगाह उठा कर थानेदार साहब मुसकराए, ‘‘तो मुंशीजी, इंतजार किस बात का है? उसे पूछताछ के लिए बुलाओ.’’

थोड़ी ही देर में मुंशीजी थानेदार साहब के कमरे में वापस आ गए. उन के पीछे ही पीछे ग्रीस लगे हाथ पाजामे से पोंछता हुआ रसिया आया. अधजली बीडि़यां उस के दोनों कानों पर रखी उस की शोभा बढ़ा रही थीं.

मुंशीजी ने तन कर सलाम किया. जवाब में थानेदार साहब ने जैसे सिर से कोई मक्खी उड़ाई, लेकिन किताब में मशगूल रहे. पीछे जो कुछ हो, लेकिन कम से कम दूसरों के सामने पुलिस वाली औपचारिकता खूब निभाते हैं. मुंशीजी आराम से खड़े हो गए और रसिया भी खड़ा इधरउधर देखता रहा और अपने बालों पर हाथ फेरता रहा.

10 मिनट बाद किताब पढ़ चुकने पर थानेदार साहब ने रसिया की तरफ देखा और बोले, ‘‘पधारिए, रसियाजी, बैठिए, बैठिए. वाह मुंशीजी, आप ने इस बेचारे को बैठाया क्यों नहीं?’’

अपने सारे गंदे दांत निपोरते हुए रसिया कमरे में एक ओर पड़ी बैंच पर बैठ गया और उस का हाथ कान पर लगी बीड़ी पर चला गया. थानेदार साहब ने उसे बीड़ी जला लेने दी. फिर बोले, ‘‘यहां बीड़ी पीना मना है.’’ खिसियाते हुए उस ने बीड़ी बुझा दी और फिर कान पर ही रख ली.

थानेदार साहब ने मेज की दराज में से एक मोटा बेंत निकाल कर मेज पर रखा, फाइलों पर पटक कर उन की धूल साफ की, फिर उठ कर मेज के एक कोने के पास खड़े हो गए और उन्होंने रसिया व रसिया के घर वालों का हालचाल पूछा.

‘‘और धंधा कैसा चल रहा है?’’ घर का हालचाल जानने के बाद उन्होंने पूछा.

‘‘आप की किरपा से ठीक चल रहा है, माईबाप.’’

थानेदार साहब असली बात पर आए. तुम्हें इसलिए तकलीफ दी है कि एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया है. उसे आधे घंटे में ही मिल जाना चाहिए और इतनी जल्दी तो बस, तुम्हीं ढूंढ़ सकते हो.’’

‘‘माईबाप, स्कूटर तो 15 मिनट में थाने आ जाए. लेकिन बात यह है कि हम सब को अच्छा कमीशन मिलना चाहिए. बहुत अच्छी हालत में है वह.’’

‘‘हम सब का कमीशन? क्या मतलब?’’

‘‘माईबाप, जानते होंगे,’’ रसिया व्यंग्य से बोला, ‘‘सरकार, भीमसिंह ने हर चोरी का स्कूटर बिक्री करने के लिए 250 रुपए तय कर रखा है. 150 आप के और 50-50 मुंशीजी और भीमसिंह के. यह कमीशन दे कर ही हमें बेचने का हुक्म है.’’

थानेदार साहब दंग रह गए. उन्होंने मुंशीजी की तरफ देखा, वह शर्माए से खड़े थे. रसिया का कुछ हौसला बढ़ा तो उस ने बीड़ी सुलगाने की फिर कोशिश की.

‘‘बीड़ी नहीं,’’ थानेदार साहब गरजे और डंडा मेज पर पटका, ‘‘कितने स्कूटर इस तरह बेचे गए हैं?’’

‘‘हुजूर, 10, और मैं ने पूरापूरा कमीशन चुका दिया.’’

‘‘हूं, अब जल्दी से पत्रकार का स्कूटर ले आइए.’’

‘‘लेकिन, माईबाप.’’

‘‘अगर 10 मिनट में वह स्कूटर नहीं आया,’’ थानेदार साहब ने हर शब्द पर जोर देते हुए कहा, ‘‘तो तुम्हारी खाल उधेड़ दी जाएगी.’’

ये भी पढ़ें- मंदिर की चौखट

रसिया के पीछे मुंशीजी भी मुड़े, लेकिन थानेदार ने उन्हें वापस बुला लिया. दुनिया में बहुत कुछ होता है जिसे शायद खुदा भी नहीं देख पाता. और इस थाने में भी वही होता है. उन्होंने बड़ी शांति से कहते हुए फोन उठाया, ‘‘हां, तो मुंशीजी, पता है आप को कि मेरा 1,500 रुपए का कर्ज किस पर है?’’

‘‘हां, हुजूर, मुझ पर और भीमसिंह पर.’’

‘‘कितने दिन में चुकेगा?’’

‘‘कुछ ही घंटों में, हुजूर, कांस्टेबल भीमसिंह के आते ही.’’

‘‘ठीक है, तुम जा सकते हो.’’

उन्होंने आई.जी. का नंबर मिलाया. उन के बोलते ही एडि़यां बजाते हुए सलाम किया और कहा, ‘‘हुजूर, मैं ने पत्रकार का स्कूटर ढूंढ़ लिया है.’’

‘‘शाबाश…शाबाश. 3 बजे कंट्रोल रूम में ले आओ. मैं साढ़े 3 बजे पुलिस की मुस्तैदी दिखाने के लिए प्रेस कानफे्रंस बुला रहा हूं.

‘‘तुम्हारी मुस्तैदी के इस मामले को देखते हुए एंटीकरप्शन डिपार्टमेंट में तुम्हारे तबादले की बात पर और अच्छी तरह ध्यान दिया जाएगा.’’

ये भी पढ़ें- कूड़ा नं. 343

खुशीखुशी सीटी बजाते हुए थानेदार साहब ने घड़ी देखी. उस वक्त साढे़ 12 बज रहे थे, ‘कंट्रोल रूम जाने के लिए तैयारी का काफी समय है.’ उन्होंने सोचा, ‘तब तक एक उपन्यास और क्यों न पढ़ लिया जाए?’ और वह पढ़ कर ही गए.

बालमवा नादान

लेखक- लाजपत राय ठाकुर

सिर उठा कर देखा तो लीना जा चुकी थी लेकिन बेडरूम से उस के गाने की आवाज आ रही थी, ‘बालमवा नादान…समझाए न समझे मन की बतियां…’

हमारे माथे पर पसीने की बूंदें फूट पड़ी थीं और दिल भी जोरजोर से धड़क रहा था. पिछले कुछ दिनों से लीना इस तरह की खबरों से हमें लगातार दहला रही थी.

यह सिलसिला तब से शुरू हुआ जब से हमें दीवाली के बोनस की रकम मिली थी. यद्यपि हम ने लीना को बोनस मिलने की हवा तक न लगने दी थी पर उस को जाने कहां से दीवाली का बोनस मिलने की भनक लग गई. और उस ने जेवर व कपड़ों की नित नई फरमाइश करनी शुरू कर दी. हम ने भी हाथ तंग होने का रोना रोेते हुए लीना की फरमाइशों को एक कान से सुन दूसरे से उड़ाना शुरू किया तो उसी दिन से लीना ने समाचारपत्रों से ऐसी खबरें ढूंढ़ कर हमारे सामने रखनी शुरू कर दीं.

पहले दिन की खबर थी कि किसी पतिव्रता ने सब्जी में कोई जहरीला कीड़ा उबाल कर पति को खिलाया और उस का ऊपर का टिकट कटा दिया. कारण, पति ने पत्नी की पसंद की अंगूठी की फरमाइश को अंगूठा दिखा दिया था.

उसी दिन शाम को जब हम आफिस से घर पहुंचे तो बडे़ जोरों की भूख लगी थी उस पर रसोई से आती सब्जी की खुशबू ने मेरी भूख और भी बढ़ा दी थी.

लीना ने मुसकराहट के साथ हमारा स्वागत किया तो हमारे मुंह से निकला, ‘‘लीनाजी, आज बडे़ जोरों की भूख लगी है, आप जल्दी खाना लगा दें. मैं अभी हाथमुंह धो कर आता हूं.’’

‘‘अभी लगाती हूं,’’ लीना ने मुसकरा कर कहा, ‘‘वह मेरी अंगूठी?’’

‘‘भई, क्या बताऊं. बोनस न मिलने के कारण आजकल आफिस के सारे साथी कड़के हैं,’’ कह कर हम हाथमुंह धो खाने की मेज पर आ कर बैठ गए.

मेज पर रखी थाली में एक कटोरी मटरपनीर की सब्जी थी, दूसरी में मूंग की धुली हुई दाल थी. एक प्लेट में पापड़ और दूसरी में गाजर का अचार था. सलाद एक बड़ी प्लेट में सजा हुआ था. थाली में एक तरफ देसी घी से चुपड़ी चपाती रखी थी. लीना दूसरी गरम चपाती लाने को रसोई में गई थी.

ये भी पढ़ें- फ्लौपी

हम ने पहला कौर मुंह में रखा और सलाद की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि नजर पनीर की सब्जी की कटोरी पर जा कर अटक गई. देखा कि कोई कांटेदार चीज उभर कर डूब गई. ‘जहरीला कीड़ा,’ हमारे दिमाग में एकदम से उभरा और इसी के साथ मुंह से रोटी का टुकड़ा फिसल कर खाने की मेज पर आ गिरा.

कहीं लीना ने ‘कनखजूरा’ सब्जी में उबाल कर तो हमें नहीं परोस दिया? हम ने एकदम से अपना हलक पकड़ लिया ताकि कनखजूरे का जहर हलक से नीचे न उतर पाए.

‘‘क्या हुआ?’’ लीना चपाती प्लेट में रखते हुए पास में खड़ी हो कर बोली, ‘‘आप भी खाने के लिए कितने बेसब्र हैं, बिना फूंक मारे बच्चों की तरह गरम ग्रास मुंह में रख लिया.’’

‘‘सब्जी में…कनखजूरे का छौंक लगा है,’’ हम ने मटरपनीर की कटोरी की तरफ इशारा किया.

‘‘हाय राम, ‘‘कहां है भला?’’

‘‘ऊंह, बड़ी भोली बनती हो. लो, अपनी आंखों से देखो,’’ हम ने दोबारा कटोरी की ओर इशारा किया.

लीना ने सब्जी की कटोरी में चम्मच डाला और कुछ निकालते हुए बोली, ‘‘वाकई बहुत जहरीला कनखजूरा है,’’ और इसी के साथ उन के होंठों पर मुसकराहट खिल गई.

‘‘दांत मत निकालो…मुझे जल्दी से डाक्टर के पास ले चलो.’’

‘‘आप अपनी आंखें टेस्ट करवाइए,’’ लीना ने सब्जी से भरा चम्मच हमारे सामने कर दिया, ‘‘आप को यह प्याज का ऊपर वाला हिस्सा कनखजूरा नजर आता है?’’

चम्मच में सचमुच प्याज की जड़ों वाला टुकड़ा था.

‘‘लगता है जल्दी में यह भी तड़के में चला गया,’’ लीना ने प्याज का वह हिस्सा प्लेट में रख दिया.

‘‘मैं अभी सब्जी की दूसरी कटोरी लाती हूं.’’

‘‘रहने दो. भूख खत्म हो गई.’’

इस के कुछ दिन बाद नेल पालिश के घेरे में सजी एक और खबर थी कि किसी सुघड़ सुहागन ने बिना ग्रिल वाली खिड़की में खडे़ अपने ‘सुहाग’ को पीछे से ऐसी लात जमाई कि पति ने तीसरी मंजिल से सड़क पर गिरने के बाद पानी तक नहीं मांगा.

बेचारे पति का कुसूर सिर्फ इतना था कि उस ने पत्नी की पसंद की साड़ी ला कर नहीं दी थी.

आधी रात को लीना ने हमारा कंधा हिला कर हमें जगाया और कहा, ‘‘ सामने वाली खिड़की में जा कर देखना. बाहर से धमाकों की आवाज आ रही है.’’

लीना ने सामने वाली खिड़की की ओर उंगली उठाई. उस खिड़की के ऊपरी आधे भाग में सलाखें नहीं थीं.

बिना ग्रिल की खिड़की की तरफ देखते ही हमारा माथा ठनका. सुबह की सजीसजाई खबर आंखों के सामने नाचने लगी और साथ ही लीना की साडि़यों की फरमाइश कानों में गूंज उठी. तो क्या वह खिड़की में से लात जमा कर हमें नीचे सड़क पर पहुंचा कर अपनी साडि़यों की फरमाइश का बदला लेना चाहती है? यह सोच कर ही हम कांप उठे.

‘‘लीना डार्लिंग, मुझे बड़ी जोरों की नींद आ रही है.’’

‘‘आप को क्या सिर के बल खडे़ होना है? उठिए, मेरा हाथ थामिए,’’ लीना ने हाथ फैला दिया.

लीना का हाथ कस कर थामे हम आधी ग्रिल वाली खिड़की के पास खडे़ हो गए. हमें भरोसा था कि हमारा हाथ पकडे़ लीना हमें पीछे से ऐसी लात न जमा पाएगी कि हम सड़क पर पहुंच पानी की फरमाइश भी न कर सकें और अगर लीना ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की तो हम खबरदार हो जाएंगे और खिड़की से एक तरफ हट कर अपना बचाव करेंगे.

ये भी पढ़ें- महावर की लीला

दूर कहीं रंगबिरंगी रोशनियां आकाश की ओर उठ रही थीं और धमाके हो रहे थे.

‘‘ऊंह, ख्वाहमख्वाह नींद खराब कर दी. आतिशबाजी हो रही है. शायद किसी की शवयात्रा है,’’ हम ने लीना का हाथ छोड़ दिया.

‘‘शवयात्रा,’’ लीना चौंक पड़ी.

‘‘मेरा मतलब, किसी की बरात है.’’ सुबह का सफेद साड़ी…शवयात्रा वाला समाचार हमारे दिमाग में चकरा रहा था. हम ने जल्दी से भूल को सुधारा.

बाकी की रात लीना डबल बेड के एक ओर पड़ी खर्राटे भरती रही और हम बरात में फटने वाले पटाखों के धमाकों का लेखाजोखा करते रहे.

कुछ दिनों से लीना अपनी छोटी बहन की शादी में जाने और वहां पर शगुन देने के लिए काफी भारी भरकम रकम का तकाजा करती आ रही थी. हम ने लीना को बोनस का कुछ हिस्सा, उधार उठा कर लाने के नाम पर देने की बात कही थी. मगर इतनी छोटी रकम बहन की शादी में खर्च करना उस की शान के खिलाफ था और इस से उसे हमारे खानदान की नाक कटती महसूस होती थी.

हम ने और ज्यादा उधार न मिलने का रोना रोते हुए लीना को इतनी रकम से ही काम चलाने को कहा था और यह भी बताया था कि हमारे खानदान की नाक बहुत ऊंची है अगर थोड़ीबहुत कट भी गई तो कोई फर्क न पडे़गा. मगर लीना ने ब्याह में जाने का प्रोग्राम कैंसल करने में अपनी शान समझी थी.

आज डिनर पर लीना ने जो समाचार हमें परोसा था वह रोंगटे खडे़ कर देने वाला था. लाल लिपस्टिक से सजाई गई इस खबर में एक पत्नी ने अपने प्रेमी से मिल कर अपने पति के नाम की सुपारी किसी पेशेवर हत्यारे को दी थी और उस ने पति का रामनाम सत्य कर दिया था.

वजह पत्नी की भतीजी की शादी थी और कम अकल पति उसे शादी में जा कर दिल खोल कर शगुन करने में नानुकुर कर रहा था. सो पत्नी ऐसे कगार पर पहुंच गई थी कि मायके में अपमान करवाने के बजाय आत्महत्या कर ले या फिर पति को ऊपर का टिकट थमा दे.

पत्नी ने आत्महत्या के पाप से बचने के लिए अपने प्रेमी से मिल कर पति के लिए स्वर्ग की सीट बुक करा कर पुण्य कमा लिया था.

हम ने इस समाचार को एक आंख से पढ़ कर दूसरी आंख से उड़ा दिया था क्योंकि हम जानते थे कि लीना केवल हमें दहला कर बोनस की पूरी रकम हथियाना चाहती है, हत्या करवाना नहीं.

डबल बेड के गुदगुदे गद्दे पर लीना आंखें बंद किए लेटी थी और साथ ही हम भी पैर पसारे आराम से सो रहे थे.

सोने से पहले हम लीना वाले गद्दे को उठा कर तसल्ली कर चुके थे कि बोनस के नोटों वाला लिफाफा बिलकुल सुरक्षित तो है न. हम ने लक्ष्मी को वहां इसलिए सुरक्षित समझा था क्योंकि हमें यकीन था कि लीना बोनस की रकम की तलाश में पूरे घर में छापामारी करेगी फिर भी उसे यह खयाल न आएगा कि लिफाफा उस के ही बेड पर बिछे गद्दे तले छिपा है.

आधी रात के बाद अचानक हमारी नींद खुल गई. अधखुली आंखों से बल्ब की धुंधली रोशनी में देखा कि लीना ने अपने तकिए में हाथ डाल कर मोबाइल निकाल कर लेटेलेटे कान से लगाया.

‘‘मैं दरवाजे पर खड़ा हूं, दरवाजा खोल दो,’’ लीना के मोबाइल से किसी मर्द की भारी आवाज उभरी…

लीना ने एक बार हमारी ओर देखा तो हम ने झट से आंखें बंद कर लीं और गहरी नींद में होने का नाटक किया. वह बेड से उठ कर दबे पांव दरवाजे की ओर बढ़ी. इस समय लीना ने किस की काल रिसीव की? यह सोच कर हमारे कान खडे़ हो गए.

बाहर वाले दरवाजे की कुंडी खुलने के साथ ही कोई दबे कदम अंदर आया और फिर दरवाजे के हलके से बंद होने की आवाज आई. थोड़ी देर तक लीना और किसी मर्द की फुसफुसाहट आती रही मगर बात हमारे पल्ले न पड़ी.

आने वाला कौन हो सकता है? यह सवाल हमारे जेहन में उभरा. ‘प्रेमी हत्यारा,’ सवाल का जवाब भी साथ ही उभरा था.

ये भी पढ़ें- मेरो मदन गोपाल

तो क्या बोनस के इन रुपयों की खातिर आज के समाचार की तरह लीना भी अपने किसी हत्यारे प्रेमी से मिल कर हमें यमपुरी पहुंचाने की ठान चुकी थी? इतने सालों का वैवाहिक जीवन गुजारने के बाद वह आज बहन की शादी में जाने की रुकावट बनने वाले कांटे को, यानी हमें अपने जीवन से निकाल फेंकेगी?

‘लानत है ऐसी पत्नी पर…और…और थू है हम पर भी,’ हमारी अंतरात्मा की आवाज आई, ‘जो बोनस के कुछ हजार रुपए की खातिर पत्नी को हत्यारिन बनाने पर तुला है, और अगले ही पल हम ने पूरा बोनस लीना के हवाले करने का फैसला कर लिया.

लीना दरवाजे पर आई और धीरेधीरे डबल बेड की ओर बढ़ी.

‘‘लीनाजी,’’ हम ने कहना शुरू ही किया था कि एक झटके में ही उन्होंने अपना हाथ हमारे मुंह पर रख दिया ताकि हम शोर न मचा पाएं.

‘‘मत मारो मुझे…मेरी हत्या…मत करो,’’ हम ने घुटी हुई आवाज में कहते हुए बेड से उठने की कोशिश की.

‘‘शोर मत मचाओ,’’ लीना सख्त मगर सांप की फुंकार जैसी आवाज में बोली. और उस ने हमारे मुंह को जकड़ कर हमारे उठने की कोशिश को विफल कर दिया.

हमारे बेडरूम के दरवाजे की ओर भागते हुए कदमों की आवाजें आईं.

हम ने लेटेलेटे ही तिरछी नजरों से बेडरूम के दरवाजे की तरफ देखा.

जीरो पावर के बल्ब की नीली रोशनी कमरे में बिखरी थी. हमें बेडरूम के दरवाजे पर कोई लंबातगड़ा आदमी, हाफ पैंट और बनियान पहने खड़ा दिखाई दिया. उस के हाथ में एक फंदा झूल रहा था और यह फंदा एक झटके में हमारा गला घोंट देगा.

‘‘ब…चा…ओ…ब…चा…ओ’’ हत्यारे को सामने पा कर हमारे गले से जोरजोर की चीखें निकल रही थीं.

‘‘क्यों आधी रात में शोर मचा कर महल्ले को जगा रहे हैं,’’ लीना ने अपने दोनों हाथ हमारे मुंह पर रख हमारी आवाज को हलक में घोंटने का यत्न किया.

‘‘मेरी हत्या मत करो…यह लो…यह लो.’’ और हम ने बोनस वाला लिफाफा लीना को पकड़ाते हुए दूसरे हाथ से अपने मुंह को छुड़ाने की आखिरी कोशिश की.

हत्यारा जल्दी से कमरे में आ गया और उस ने फंदे वाले हाथ को ऊपर उठाया. फंदा हमारी आंखों के सामने लहरा गया.

‘हिच’ की आवाज के साथ बेडरूम ट्यूब की रोशनी से भर गया.

हम ने फटी आंखों से सुपारी ले कर हत्या करने वाले उस गुंडे की ओर देखा तो दीवार के पास बिजली के स्विच पर हाथ रखे बलदेव भैया खडे़ थे. उन के दूसरे हाथ में अधखुली टाई लहरा रही थी.

‘‘बलदेव भैया आप?’’ हम बेड पर बैठ गए.

‘‘हां, मैं, लीना ने फोन किया था कि वह किसी कारणवश शादी में न पहुंच पाएगी. हम लोग समझ गए कि लीना शादी में न आने पर मजबूर है. शायद हम ने तुम्हें ठीक से न्योता न दिया था. सो मैं खुद ही उसे लेने चला आया.’’

आधी रात को दरवाजे की घंटी से तुम्हारी नींद खराब न हो इस के लिए मैं ने लीना के मोबाइल पर अपने पहुंचने और दरवाजा खोल देने की बात की.

एक पल को रुक  कर बलदेव भैया ने कहा, ‘‘मनोज, तुम्हें क्या हो गया है? ऐसे क्यों चिल्ला रहे थे कि जैसे कोई तुम्हारी जान ले रहा है. मैं कपडे़ बदलते बदलते भागा चला आया.’’

‘‘शायद सोते में कोई भयानक सपना देखा है…’’ लीना ने बोनस वाले लिफाफे में झांका. उस के चेहरे पर खुशी फूट पड़ी थी.

‘‘हां हां, सोते में डर गया था,’’ हम ने जल्दी से बात बनाई और लीना के हाथ में पकडे़ नोटों वाले लिफाफे को हसरत भरी नजरों से देखा.

अगली सुबह शादी में जाने के लिए अपना सामान पैक करते हुए लीना वही ‘बलमा नादान, समझाए न समझे मन की बतिया’ गा रही थी और हम ड्राइंग रूम में बैठे सोच रहे थे कि हम कितने बडे़ नादान बल्कि मूर्ख, पाजी और जाने क्याक्या हैं.

ये भी पढ़ें- जेनेरेशन गैप

बालम नादान…हो नादान…हां नादान, लीना तान बदलबदल गाए जा रही थी और हम अपना सिर पीट कर तबले पर संगत करना चाह रहे थे.

रावण की शक्ल

लेखक-परशीश

रावण जलने में कुल 10 दिन ही बचे हैं. शफ्फू भाई के हाथ तेजी से चल रहे हैं कि कुंभकर्ण और मेघनाद की तरह रावण का पुतला भी बन कर तैयार हो जाए.

शफ्फू भाई ने कल ही कुंभकर्ण का पुतला बनाने का काम खत्म किया है. उस से कुछ दिन पहले मेघनाद का काम खत्म हुआ था, पर शफ्फू यह भी जानते थे कि रावण का पुतला तैयार करना आसान नहीं है क्योंकि पुतले की कदकाठी को उस के नाम के अनुरूप बनाना बड़ी मेहनत और जीवट का काम है. हर साल उसे बनाने में शफ्फू भाई को पसीने छूट जाते हैं.

मेले में आए हर देखने वाले की निगाह रावण के पुतले पर ही तो टिकी रहती है. कैसा बना है इस बार का रावण. उस के चेहरे में, आंखों में कैसा भाव लाया गया है…फिर वही मक्कारी झलकती है उस की आंखों में या ढीठ, जिद्दी नजर आता है.

इस तरह के हजारों भाव लोग रावण के चेहरे में ढूंढ़ते हैं. इसी से उस के मुंह को बनाते समय इन बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है.

रावण एक, भाव अनेक…जैसा समाज वैसा रावण…शफ्फू भाई सोच रहे हैं कि होंठों को किस तरह का कोण दें, भौहों का तिरछापन कितना हो ताकि देखने वाले देखें और संतोष से कहें कि हां, ऐसा ही होना चाहिए था रावण का मुंह.

ये भी पढ़ें- बताएं कि हम बताएं क्या

तकरीबन 2 दशकों से रामपुर महल्ले के लोग रावण दहन का आयोजन कर रहे हैं. शुरुआत की छोटी भीड़ धीरेधीरे बड़ी भीड़ में बदल चुकी है. अब तो लोगों की भीड़ संभालने के लिए कई पुलिस वाले भी जमा रहते हैं.

रामपुर महल्ले के दशहरे को देखने के लिए लोग दूरदूर से आते हैं और महीनों तक चर्चा का प्रमुख विषय होता है शफ्फू भाई के हाथों से बनाया गया रावण का मुंह. जाने उस के मुंह में वह कौन सी विशेषता भर देते थे कि लोग देख कर हैरान रह जाते.

रावण के अंदर की मक्कारी को दिखाने में शफ्फू  भाई का जवाब नहीं था इसीलिए हर साल रावण बनाने का जिम्मा शफ्फू भाई पर ही होता था. हर साल आयोजक आ कर हिदायत भी दे कर जाते कि रावण का पुतला तो सिर्फ तुम्हारे ही हाथ का बना होना चाहिए. अब तो रावण का पुतला बनाने में वह इतने सिद्धहस्त हो चुके हैं और इतना नाम हो चुका है कि पर्वों का मौसम शुरू हुआ नहीं कि उन का आतिशबाज दिमाग रावण निर्माण में लग जाता.

शफ्फू भाई शहर के बहुत बड़े आतिशबाज हैं. उन की आतिशबाजी देखते ही बनती है. रावण दहन के समय उस के पेट और दसों सिर से चमक के साथ जो धमाके होते हैं और उन के साथ जिस तरह की रंगीन रोशनियां निकलती हैं उन्हें देख कर भीड़ दांतों तले उंगली दबा लेती है.

वैसे तो शफ्फू भाई शादी, विवाह, ईद, दीवाली सब में अपनी आतिशबाजी का कमाल दिखाते हैं पर रावण की देह में पटाखों की जो कला वह ‘फिट’ करते हैं, उस का कोई जवाब नहीं होता. अपनी इस कला के बारे में वह हंस कर बस, इतना ही कहते हैं कि मैं तो कुछ नहीं जानता, बस, इन हाथों से जो कुछ बन पड़ता है कर देता हूं. लोगों को पसंद आता है तो मुझे भी खुशी होती है.

रावण दहन से शफ्फू भाई को खास लगाव सा था क्योंकि उन के पूर्वज कभी हिंदू रहे थे और वे रामलीला में बहुत बढ़चढ़ कर भाग लिया करते थे. शायद यही वजह रही हो कि सबकुछ छूटतेछूटते भी रावण दहन से उन का प्रेम बचा रह गया हो और उसी प्रेम के वशीभूत हो रावण के पुतले के निर्माण में लगे रहते हैं.

वही शफ्फू भाई अब रावण बनाना तो दूर रावण दहन हो इस के भी खिलाफ हो चले हैं, बिलकुल खिन्न…बिलकुल अनमने.

पर क्यों? उन का मन कुरेदकुरेद कर उन से पूछता, फिर समझाता, यह तो बुराई पर अच्छाई की जीत है. इस से आज के बिगड़ते समाज को सही दिशा मिलती है. अब तो ऐसी लीलाओं की समाज को और भी जरूरत है. कारण, समाज ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के दलदल में धंसा पड़ा है. देश के बड़े नेता से ले कर पंडित, मुल्लामौलवी, यहां तक कि छोटेछोटे कर्मचारी भी भ्रष्टाचार के कुंभ में डुबकियां लगा रहे हैं. कुआरी मांएं बेखौफ घूम रही हैं. खुद ही खुद पर फिल्में बनवा रही हैं. जब तक डी.एन.ए. टेस्ट नहीं होता अवैध बच्चे का बाप राम बना खड़ा रहता है.

ये भी पढ़ें- देवी

समाज जो कुछ झेल रहा है उसे झेलना शफ्फू भाई जैसे लोगों के वश की बात नहीं है. राम के चरित्र को निभाने वाले पात्र अपने निजी जीवन में कई औरतों के साथ बलात्कार कर चुके हैं. वे रेप करने के तरीकों पर भी अनेक प्रयोग करते हैं. कभी ट्रेन में, कभी चलती कार में.

कई बार शफ्फू भाई का मन चीख- चीख कर कहता, नहीं, मैं रावण नहीं बनाना चाहता. मुझे बख्श दो मेरे भाई… मेरे रावण का मजाक मत उड़ाओ. मेरे रावण ने तो सीता को सिर्फ कैद कर रखा था. वह उस से नित्य विवाह प्रस्ताव करता था. प्रणय निवेदन भी करता था, मगर यह सब भी आग्रह के साथ करता था, कोई जोरजबरदस्ती नहीं. आज के राम तो रावण जैसे पात्र पर पलीता लगाने के बजाय खुद अपने पर ही पलीता लगा रहे हैं.

इस बार के रावण दहन के मुख्य अतिथि का नाम सुन कर शफ्फू भाई और भी जमीन में गड़ गए थे.

भोला बाबू अभी 2 माह पहले ही वार्ड का चुनाव जीत कर जनता के नए हमदर्द बने हैं. शफ्फू भाई के मुंह से अनायास ही बोल फूटे, कल का चोर आज का नेता है. अरे, इस के बारे में जो न जानता हो उस के लिए तो यह मजाक हो सकता है पर आश्चर्य तो यह है कि अतीत में जिनजिन को इस ने डंसा है वे भी अब इसे महान समाज सुधारक कहते नहीं थकते हैं.

यहां के लोग तो यह भी भूल चुके हैं कि यही भोला बाबू कुछ दिन पहले ही 2 समुदायों में झगड़ा करा कर खुद हाथ सेंक रहे थे. जाने कितने घरों को लूटा कि देखतेदेखते उस की छोटी सी झोंपड़ी विशाल बंगले में बदल गई.

शफ्फू भाई ने दंगों के दौरान ही भोला के असली चेहरे को देखा था और तभी वह समझ भी गए थे कि गुंडा और नेता दोनों की जात और धर्म एक होता है. उस सांप्रदायिक आग की लपटों में जलते शहर को बचाने के बजाय भोला ने सीता और सलमा दोनों को लूटा था. रात में खून की होली खेली थी. हर सुबह यही आदमी गिरगिट की तरह रंग बदल कर समाज सुधारक बना और सब की मदद करता था.

वह रावण दहन के लिए भी बड़ी मुश्किल से तैयार हुए हैं. वह भी इसीलिए कि रावण के माध्यम से भोला बाबू समाज को बताना चाहते हैं कि देखो, कितना दुष्ट था रावण. इसी के कारण सोने की लंका नष्ट हो गई. इस ने लात मार कर अपने छोटे भाई विभीषण का अनादर किया. सीता माता का अपहरण कर कैद कर लिया. अबलाएं कितनी असुरक्षित थीं उस के राज में. तभी तो राम को अपना बल प्रयोग करना पड़ा. आप सभी राम बन कर समाज में पनप रहे रावणों को जला कर खत्म कर दें…

शफ्फू भाई को लगता है कि भोला बाबू रावण से भी बड़े महारावणों की कतार में खड़े हैं. अगर कोई तौले तो रावण का सारा अपराध उन के कुकर्मों के आगे बहुत कम वजन का होगा.

शफ्फू भाई को गुस्सा आता है पर वह कर भी क्या सकते हैं? किसे मना करें कि रावण दहन मत करो, ऐसे कलयुगी रावण का दहन करो. पर जनता तो भेड़चाल चलती है. जो देखेगी बस, वही करती जाएगी. जिस हाथ से चाबुक की मार खाती है उसी हाथ को प्यार करती है.

शफ्फू भाई अब पूरे मनोयोग के साथ रावण का मुंह बना रहे हैं, यह सबकुछ सोचतेसोचते आधा मुंह बन कर तैयार हो गया था, पर जब पूरा हुआ तो वे चौंक उठे.

उन्हें लगा, अनजाने में यह तो भोला बाबू का चेहरा उतर गया है.

वह तो सिर्फ सोच रहे थे और मन ही मन भोला बाबू को कोस रहे थे. उन की आकृति बनाने का उन का कोई इरादा नहीं था. पर अब बन ही गया है तो क्या किया जाए. हां, यह हो सकता है कि इस बार रावण का मुंह यही रहने दिया जाए. इस तरह उन का अपना अपराध कम हो जाएगा. और भोला बाबू अनजाने में रावण का नहीं खुद का दहन कर देंगे. आगे की ऊंचनीच पर गौर करने के बाद कि कहीं आयोजक किसी मुसीबत में न फंस जाएं, शफ्फू भाई ने झब्बू मूंछ वाले भोला बाबू की इस मुखाकृति में बदलाव के लिए तीरनुमा मूंछ बना दी ताकि देखने वालों की आंखों को धोखा हो जाए. यही नहीं, आंखों को नीला कर दिया और दांतों को थोड़ा बाहर निकाल दिया जबकि पहले वे अंदर थे.

अब शफ्फू भाई ने ध्यान से देखा तो उन्हें ऐसा लगा कि यह चेहरा भोला का तो नहीं लगता पर इस में भी झलक किसी नाम वाले नेता की ही है.

ये भी पढ़ें- टूटता विश्वास

मक्कार कहीं का. रावण दहन का उद्घाटन करने आ रहे हैं. देश, राज्य, शहर, महल्ले, घरघर में रावणों की फौज खड़ी है. फिर बेचारे इस रावण का दहन कैसा और वह भी ऐसे हाथों से जिस के हाथ खुद खून से रंगे हों.

इस रावण ने तो एक ही सीता पर बुरी निगाह डाली थी. आज का रावण तो इतना गिर गया है कि महल्ले की हर बहूबेटी को रात के अंधेरे में लूट लेना चाहता है.

4 दिन बाद भोला बाबू रावण दहन का उद्घाटन कर रहे थे और रावण को देखते हुए मन ही मन सोच रहे थे कि रावण के रूप वाले इस चेहरे को उन्होंने कहीं देखा है पर कहां यह याद नहीं आ रहा था.

नेताओं को भी तो चेहरा तभी याद आता है जब वह किसी एक का हो. भीड़ का चेहरा किसे याद आता है और शफ्फू भाई ने इस बार ‘कामन’ शक्ल का रावण बनाया था.           द्य

टूटता विश्वास

भाग-1

लेखक- रेनू मंडल

‘‘21वीं सदी में रातदिन हम अपने को आधुनिक और प्रगतिशील होने का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन समाज में यदि एक विधवा स्त्री के विवाह को ले कर शोर मचाया जाए, अड़चनें डाली जाएं तो मुझे ऐसे समाज पर, लोगों की बौद्धिक परिपक्वता पर शक होता है,’’ आवेश भरे स्वर में मैं बोला था.

‘‘बेटे, ऐसी ऊंचीऊंचीं बातें भाषणों में बोलने के लिए होती हैं, आम जीवन में उतारने के लिए नहीं. क्या कहा तुम ने, शक होता है, लोगों की बौद्धिक परिपक्वता पर, यानी मैं और तुम्हारी मां बौद्धिक रूप से परिपक्व नहीं हैं,’’ पिताजी ने अपनी लाललाल आंखों से मुझे घूरा.

‘‘क्या भैया, आप भी बस, दुनिया की सारी लड़कियां क्या मर गई हैं जो आप एक विधवा से विवाह करना चाहते हैं,’’ मेरी छोटी बहन सीमा भी मुझे ताना मारने से नहीं चूकी थी.

दिल चाहा था कि चिल्ला कर कहूं, विधवा क्या हाड़मांस की बनी नहीं होती, उस के सीने में दिल नहीं होता, उस में भावनाएं और संवेदनाएं नहीं होतीं किंतु प्रकट में मैं खामोश बैठा एकटक उन सब का चेहरा देखता रहा जिन के  मन में मेरी भावनाओं की कोई कीमत नहीं थी.

वहां से उठ कर मैं अपने कमरे में आ गया. मां खाने के लिए बुलाने आईं तो मैं ने सिरदर्द का बहाना बना कर उन्हें वापस भेज दिया. उस रात देर तक मुझे नींद नहीं आई और 2 साल पहले की एक घटना चलचित्र बन कर आंखों के आगे घूम रही थी.

जीवन बीमा निगम में प्रमोशन पा कर मैं देहरादून आया था. रोज की तरह उस सुबह भी मैं बालकनी में बैठ कर चाय पीते हुए कुदरती दृश्यों में खोया था कि सहसा मेरी नजर सामने वाले घर की बालकनी पर पड़ी, जहां मेरी कल्पना की रानी साकार रूप लिए खड़ी थी. मैं मंत्रमुग्ध सा देर तक पौधों में पानी देती उस युवती के रूपसौंदर्य में खोया रहा. तभी कालबेल की आवाज ने मुझे चौंका दिया.

दरवाजा खोला, मेरा मित्र सौरभ, जो अब मेरा बहनोई भी है, आया था. उसे देखते ही मैं ने कहा, ‘तू बिलकुल ठीक समय पर आया है. जल्दी इधर आ. तुझे तेरी होने वाली भाभी से मिलवाऊं,’’ और सामने की ओर मैं ने इशारा किया.

ये भी पढ़ें- कूड़ा नं. 343

‘सचमुच तेरी पसंद लाजवाब है. कौन है यह लड़की और तुझे कब मिली?’

‘यह कौन है, नाम क्या है, यह मैं नहीं जानता पर कब मिली…तो भाई, अभी 2 मिनट पहले दिखाई दी है पर सौरभ, तू यह रिश्ता पक्का समझ, यार.’

‘तो भाई, लगेहाथों यह भी बता दो कि शादी का मुहूर्त कब का निकला है?’

‘बस, पंडितजी के आने की देर है, वह भी निकल आएगा,’ इतना कहते- कहते मैं और सौरभ खिलखिला कर हंस पड़े थे.

मैं सामने वाले घर में जाने का कोई मुनासिब बहाना तलाश ही रहा था कि मेरी यह समस्या अपनेआप ही हल हो गई थी. एक सुबह गेट खोल कर एक सज्जन अंदर आए और बोले, ‘बेटा, मेरा नाम शिवकांत है. तुम्हारे सामने वाले घर में रहता हूं और आज तुम्हें एक तकलीफ देने आया हूं.’

‘आप बैठिए, प्लीज,’ प्रसन्न मन से उठ कर उन की ओर कुरसी बढ़ाते हुए मैं बोला, ‘जी, कहिए.’

‘मैं ने सुना है कि तुम जीवन बीमा निगम में काम करते हो. शायद तुम्हें पता हो, 2 माह पहले ही मेरे इकलौते बेटे की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. मेरे बेटे मनीष ने अपना 1 लाख रुपए का बीमा करवा रखा था. मैं चाहता हूं कि तुम उस की पत्नी को जल्दी से जल्दी वह रकम दिलवाने में मेरी मदद करो.’

इतना कह कर उन्होंने एक लिफाफा मेरी ओर बढ़ाया जिस में पालिसी बांड रखा था.

आफिस  जा कर मैं ने मनीष की पालिसी के बारे में पता किया. शाम को शिवकांतजी के घर उन की बहू के हस्ताक्षर करवाने गया तो उन की लड़की को भी करीब से देखने की तमन्ना दिल में कहीं न कहीं छिपी हुई थी.

शिवकांतजी और उन की पत्नी के सामने एक फार्म रख कर मैं बोला, ‘अंकल, इस पर भाभीजी के हस्ताक्षर करवा दीजिए ताकि मैं चेक इश्यू करवा सकूं.’

‘आरती बेटे, जरा यहां आना,’ शिवकांतजी ने आवाज लगाई. अगले ही पल ड्राइंगरूम की तरफ से मुझे कदमों की आहट आती सुनाई दी. परदा हटा और उस खूबसूरत चेहरे को देख कर मेरे मन की वीणा के तार यह सोच कर झंकृत हो उठे कि जरूर यह शिवकांतजी की बेटी होगी लेकिन शिवकांतजी ने जब यह कहते हुए परिचय कराया कि यह मेरी बहू आरती है तो मुझे सहसा उन की बातों पर विश्वास न हुआ.

आरती के हस्ताक्षर करवा कर मैं जल्दी ही वहां से वापस चला आया पर 2 दिनों तक मन बुझाबुझा रहा. आरती की उदास, गमगीन सूरत आंखों में तैरती रही.

तीसरे दिन सौरभ के साथ मैं शाम को मालरोड पर घूम रहा था तो वह पूछ बैठा कि भाई, पंडितजी ने शादी का कब मुहूर्त निकाला है?

उस की तरफ प्रश्न भरी नजरों से देखते हुए मैं ने आरती के बारे में बताया और इस बारे में जो सोचा था वह सब भी बताया तो वह गंभीर हो गया. कुछ देर रुक कर सौरभ बोला, ‘भाई, समाज को देखते हुए तो मैं भी यही कहूंगा कि तुम उस का खयाल छोड़ दो. तुम्हारे परिवार में एक विधवा को कोई भी स्वीकार नहीं करेगा.’

ये भी पढ़ें- मान अपमान

‘नहीं सौरभ, मैं ने आरती को ले कर जो फैसला किया है वह खूब सोचसमझ कर किया है. विधवा है तो क्या हुआ? मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’

‘मैं हर हाल में तेरे साथ हूं,’ सौरभ ने मेरा हौसला बढ़ाया.

एक सप्ताह बाद बीमा कंपनी का चेक ले कर मैं आरती के घर पहुंचा. चेक थामते ही शिवकांतजी की आंखों में आंसू आ गए. मैं ने उन्हें दिलासा दिया और कुछ देर बाद जाने लगा तो शिवकांतजी बोले, ‘बेटा, कभीकभी आते रहना.’

एक दिन आरती के साथ एक डाक्टर को घर से निकलते देखा तो मैं अपने को रोक न सका और पास जा कर पूछा, ‘क्या बात है, आरती? यह डाक्टर क्यों आया था?’

‘पापा को तेज बुखार है. आप अंदर बैठिए, मैं दवा लेने जा रही हूं.’

‘लाओ, परचा मुझे दो. दवाइयां मैं ला दूंगा,’ मैं अधिकारपूर्वक बोला.

बाद के 3 दिनों तक मैं रोज फल ले कर वहां जाता रहा. मेरे जाने से उन के घर का बोझिल वातावरण हलका हो जाता. कभी मैं उन्हें अपने आफिस के दिलचस्प किस्से सुनाता तो कभी चुटकुले सुना कर उन्हें हंसाता. धीरेधीरे वे लोग इस दुख से उबरने लगे.

एक शाम मैं शिवकांतजी के घर पहुंचा तो पता चला कि वह पत्नी के साथ कहीं गए हैं. मैं ने वहां रुकना मुनासिब नहीं समझा. वापस जाने को ज्यों ही पलटा कि आरती ने यह कहते हुए रोक लिया कि मम्मीपापा आते ही होंगे तबतक आप एक कप कौफी पी लीजिए.

कौफी पीते हुए मैं ने कहा, ‘आरती, क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें अपनी जिंदगी के बारे में गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए?’

‘क्या मतलब?’ बड़ीबड़ी सवालिया नजरें मेरे चेहरे पर टिक गईं.

‘तुम ने एम.फिल कर रखा है. कोई नौकरी क्यों नहीं करतीं. इस तरह घर में पडे़पडे़ तुम जिंदगी को र्बोझिल क्यों बना रही हो?’

‘आप ठीक कह रहे हैं. मेरी भी नौकरी करने की बहुत इच्छा है पर ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि मम्मीपापा ने विवाह के समय ही कह दिया था कि हम लड़की से नौकरी नहीं करवाएंगे.’

‘उस समय की बात दूसरी थी अब स्थिति दूसरी है. मैं बात करूंगा अंकलआंटी से.’

मैं ने प्रयास किया तो आखिर में अंकलआंटी ने आरती को नौकरी करने की इजाजत दे दी. नौकरी लग जाने से आरती की जिंदगी बदल गई और उस का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

6 माह बीत गए थे. मेरे और उस के बीच अब दोस्ती का रिश्ता कायम हो चुका था. अपनी हर छोटीबड़ी समस्या अब वह बेझिझक मुझ से कहने लगी थी.

एक बार बुखार के कारण मैं आरती के घर नहीं जा पाया. तीसरे दिन सुबह शिवकांतजी चले आए और यह जान कर मुझ पर बिगड़ पड़े कि क्यों मैं ने उन्हें बीमारी की खबर नहीं की.

दोपहर में आरती आई. उसे आया देख आश्चर्य के साथ मुझे खुशी भी हुई कि चलो, मेरी कुछ फिक्र उसे भी है.

‘अब कैसी है आप की तबीयत?’ उस ने पूछा.

‘अभी तक तो खराब थी किंतु अब ठीक होने की कुछ उम्मीद हो चली है,’ मैं ने शरारत से उस की आंखों में झांका तो वह कुछ झेंप सी गई थी.

‘तुम आज कालिज नहीं गईं?’ मैं ने पूछा.

‘कालिज तो गई थी पर मन नहीं लगा.’

‘क्यों?’ मैं थोड़ा उस के और करीब आ कर बोला, ‘क्यों मन नहीं लगा. आरती, बोलो न.’

‘रवि, तुम्हारी तबीयत…नहीं, मेरा मतलब है आज लैक्चर नहीं था,’

उस की घबराहट देख मैं मुसकरा दिया. उस की आंखों की तड़प और बेचैनी को देख सहज अंदाजा लगाया जा सकता था कि उस के मन में भी मेरे प्रति कोमल भावनाएं हैं.

ये भी पढ़ें- प्रश्न

रात में जाग कर आरती के बारे में सोचता रहा और यह सुखद अहसास मन को भिगो जाता कि मेरी तरह वह भी मुझे चाहने लगी थी. ठीक ही तो था, मात्र 26 साल की उम्र थी और इस छोटी सी उम्र में वैधव्य की चादर ओढ़ लेने से ही सभी इच्छाएं मर तो नहीं जातीं. यही तो वह उम्र होती है जिस में हर लड़की आंखों में सतरंगी स्वप्न संजोती है. सिर्फ 6 महीने का ही साथ मिला था उसे पति मनीष का और इन 6 महीनों की सुखद यादें जीवन भर की बैसाखी तो नहीं बन सकतीं. ऐसे में उस का टूटा हृदय मेरे प्रेम की शीतल छांव में आसरा पाना चाहता था तो इस में गलत क्या था?

उस दिन के बाद से मैं आरती से एकांत में बात करने का मौका तलाशने लगा था. और यह मौका मुझे 20 दिन बाद मिला था. उस दिन मैं आफिस से कुछ जल्दी निकल पड़ा था. मौसम खराब था. अत: मैं जल्दी घर पहुंचना चाहता था. तभी मैं ने सड़क के किनारे आरती को बस का इंतजार करते देखा. मैं ने स्कूटर उस के पास ले जा कर रोका तो वह हंस दी.

मैं बोला, ‘अगर एतराज न हो तो मेरे साथ चलो. मैं घर छोड़ दूंगा.’

‘नहीं रवि, हमारा इस तरह जाना ठीक नहीं होगा. महल्ले के लोग क्या सोचेंगे?’

‘तुम ठीक कह रही हो. चलो, फिर नजदीक किसी रेस्तरां में एकएक कप कौफी पीते हैं. मेरे विचार में यह किसी को भी बुरा नहीं लगेगा,’ मैं ने मुसकरा कर कहा और फिर हम एक रेस्तरां में जा पहुंचे.

कौफी का आर्डर दे कर मैं ने एक भरपूर नजर आरती पर डाली और गला साफ कर बोला, ‘आरती, आज मैं तुम से अपने मन की बात कहना चाहता हूं. सच कहूं तो अपनी बात कहने के लिए ही मैं यहां कौफी पीने आया हूं.’

आरती ने बड़ीबड़ी सवालिया नजरों से मुझे देखा.

‘मैं तुम्हारा साथ पाना चाहता हूं, आरती. जिंदगी भर का साथ.’

मेरे इस प्रणय निवेदन पर आरती हैरान हो उठी. चेहरे पर लालिमा आ गई और निगाहें शर्म से झुक गईं. कुछ पल वह यों ही बैठी रही. फिर अचानक उस के चेहरे के भाव बदल गए और आंसू की दो बूंदें गालों पर लुढ़क पड़ीं.

‘क्या बात है, आरती? तुम रो क्यों रही हो?’ बेचैनी से पहलू बदला मैं ने.

‘रवि, तुम जानते हो कि मैं विधवा हूं, फिर भी ऐसी बात…’

‘मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मैं तुम्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं.’

‘किंतु मुझे फर्क पड़ता है रवि, मेरे दोनों परिवारों को फर्क पड़ता है.’

आश्चर्य से उस के दोनों हाथों को पकड़ कर मैं बोला, ‘तुम पढ़ीलिखी हो कर अनपढ़ों जैसी बात क्यों कर रही हो? तुम्हारा परिवार आधुनिक सोच का है,’ उन्हें भला क्या एतराज हो सकता है? अच्छा बताओ, तुम्हारे भैयाभाभी क्या यह जान कर खुश नहीं होंगे कि उन की छोटी बहन का घर फिर से बसने जा रहा है. तुम्हारे सासससुर, वे भी तुम्हारे दुख से कम दुखी नहीं हैं.’

‘हां रवि, दुख तो उन्हें भी है,’ आरती मेरी ओर देख कर बोली, ‘पर बेटी के आंसू और बहू के आंसुओं में अंतर होता है, रवि. बेटी के आंसुओं से मांबाप का हृदय जितना द्रवित होता है बहू के आंसू उतना असर नहीं छोड़ पाते,’ इतना कहतेकहते आरती का स्वर भीग गया.

कुछ देर की खामोशी के बाद मैं ने फिर कहा, ‘आरती, हादसे किसी के भी साथ हो सकते हैं. जीवन इतना सस्ता नहीं कि उसे एक हादसे की भेंट चढ़ा दिया जाए और फिर आज अंकल व आंटी दोनों तुम्हारे साथ हैं, कल जब वे नहीं रहेंगे तब तुम क्या करोगी?’

मैं ने अपनी बात का असर देखने के लिए उस की आंखों में झांका. मुझे संतुष्टि हुई कि मेरी बातों का उस पर अनुकूल असर पड़ा था.

अगली 3-4 मुलाकातों में मैं ने आरती को अपने संपूर्ण पे्रम का विश्वास दिलाना चाहा. उस में साहस पैदा किया ताकि वह विवाह का जिक्र छिड़ने पर हुई अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रतिक्रिया को झेल सके.. अपनी तन्हा जिंदगी को संवारने में वह भी अब पूरी इच्छा से मेरे साथ थी.

अगले हफ्ते आफिस की 2 लगातार छुट्टियां थीं. मैं मां और पिताजी के पास दिल्ली चला गया. हर बार की तरह उन्होंने शाम की चाय पीते हुए मेरे विवाह का जिक्र छेड़ा. मैं ने उन्हें आरती के बारे में बताया. मेरी आशा के विपरीत घर में इस बात को ले कर कोहराम मच गया. मुझे मां और पिताजी की बातों का उतना दुख नहीं हुआ जितना दुखी मैं अपनी छोटी बहन सीमा के व्यवहार को ले कर हुआ था. उस ने मेरे दोस्त सौरभ से प्रेमविवाह किया था और इस विवाह में मैं ने दोनों को अपना भरपूर सहयोग दिया था. अब जबकि मुझे उस के साथ की जरूरत थी, वह मेरा विरोध करने पर तुली हुई थी.

सोचतेसोचते मैं कब सो गया, मुझे पता ही नहीं चला.

अगली सुबह मां कमरे में चाय ले कर आईं, उस समय मैं जूते के फीते बांध रहा था. मुझे तैयार देख वह हैरान हो बोलीं, ‘‘रवि बेटे, इतनी सुबहसुबह तैयार हो कर कहां जा रहा है?’’

‘देहरादून,’ मैं ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

मां मेरे करीब चली आईं और बोलीं, ‘‘रवि, मैं जानती हूं, तू नाराज हो कर जा रहा है पर सोच बेटा, हम क्या तेरे दुश्मन हैं? एक विधवा को अपनी बहू बना कर ले आएगा तो समाज में हमारी क्या इज्जत रहेगी?’’

ये भी पढ़ें- कारवां के साथ भी, कारवां के बाद भी…

‘‘मां, प्लीज, अब खत्म कीजिए इस बात को और अपनी इज्जत संभाल कर रखिए,’’ मैं बैग उठा कर दरवाजे की ओर बढ़ा तो कानों में पिघलते सीसे की तरह पिताजी की कड़कती आवाज पड़ी, ‘‘रवि की मां, यह जाता है तो इसे जाने दो. इस की खुशामद करने की जरूरत नहीं है. हां, जातेजाते तुम यह अच्छी तरह से जान लो कि जब तक मैं जिंदा हूं, यह शादी नहीं हो सकती.’’

पिताजी की बेवजह की कठोरता ने मुझ में हिम्मत पैदा कर दी और मन ही मन सोचा कि आप जिद्दी हो तो मैं महाजिद्दी हूं. आखिर मैं आप का ही

तो खून हूं. पर प्रत्यक्ष में कुछ बोला नहीं. चुपचाप बैग उठा कर घर से बाहर आ गया.

बस स्टैंड पर पहुंच कर मुझे याद आया कि सीमा को भी तो अपने साथ ले कर देहरादून जाना था, सौरभ से यही बात हुई थी. मानसिक तनाव में मैं यह बात बिलकुल भूल गया और अब वापस घर जाने का मेरा मन न हुआ. अत: मैं बस में बैठ गया.    -क्रमश

कूड़ा नं. 343

लेखक- असित कुमार

एक नए मेयर ने नगर महापालिका की मखमली और मुलायम कुरसी पर खुद को बैठाने की पूरी तैयारी कर रखी थी. कुरसीमान होते ही नए मेयर ने शहरियों को अपनी नीतियों से अवगत कराया. उन की नीतियां नई तो क्या खाक होतीं बस, तेवर कुछकुछ नए थे. पिछले मेयर निहायत ही आलसी थे. वह कोशिश यही करते थे कि ज्यादातर काम बैठेबैठे ही करें. मसलन, भाषण देना, शहर की खूबसूरत औरतों के साथ फोटो खिंचवाना आदि. इसीलिए उन का नारा था : ‘‘हमें अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा रह कर महापालिका को एक आदर्श निकाय के रूप में स्थापित करना है.’’

अब इस दावे की सचाई यह रही कि उन के कार्यकाल के समाप्त होने तक महापालिका की हालत इतनी पतली हो गई थी कि खुद मेयर साहब को तनख्वाह से महफूज रहना पड़ गया था.

यह अलग बात थी कि मेयर के बेटे ने बाप के कार्यकाल के दौरान नगर की सफाई, प्रकाश व्यवस्था आदि के ठेकों में 9 करोड़ बना लिए थे. खैर, यह सब तो नए मेयर का दोषारोपण था और इस तरह की टांग खिंचाई राजनीति में चलती रहती है. किसी पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाना, जांच कराने के लिए शोर मचाना आदि. फिलहाल तो पुराने मेयर साहब भूमिगत हैं जब बाहर निकलेंगे तो स्वयं ही निबट लेंगे.

हां, तो मसला यह था कि शहर गंदगी से बजबजा रहा था क्योंकि         97 प्रतिशत सफाई कर्मचारी वेतन न मिलने की वजह से हड़ताल पर थे और जो 3 प्रतिशत सफाईकर्मी पुराने मेयर के चहेते थे वे उन के साथ लपेटे में फंसे होने की वजह से छिपे हुए थे. शहर के लोग इधरउधर जमा गंदगी के ढेर से भयभीत थे. एक खतरा आवारा घूमते चौपाए जानवरों से भी था कि पता नहीं कब उन का मूड खराब हो जाए और किसी दोपाए इनसान को लपेटे में ले लें.

ये भी पढ़ें- बोया पेड़ बबूल का…

कुरसी पर बैठते ही नए मेयर ने जनता के उद्धार का बीड़ा उठाया और आननफानन में सारी औपचारिकताएं पूरी कर के नगर के दौरे पर निकल पड़े.

मेयर साहब के साथ उन का पूरा स्टाफ कलमकागज ले कर उन के काफिले में शामिल था और उन की हर टिप्पणी को उसी समय नोट कर रहा था. इस तरह नगर प्रमुख का यह काफिला अभी शहर का चौथाई रास्ता ही तय कर पाया था कि उसे रुकना पड़ा क्योंकि गली के हर मोड़ पर पड़े कूड़े के ढेर से उठती दुर्गंध इस कदर दमघोंटू थी कि नाकमुंह पर मास्क पहनने के बाद भी बदबू हलक में उतर रही थी.

उस पर सूअरों के एक झुंड ने मेयर साहब की जम कर अगवानी की और कूड़े के ढेर नंबर 343 से ले कर ढेर नंबर 357 तक आगेआगे सूअर व पीछेपीछे मेयर साहब का अमला दौड़ रहा था.

दौरा स्थगित हो गया. उस बदबूदार और कीचड़ से लथपथ मेयर रूपी मानवाकृति को वापस अपनी पुरानी स्थिति में लाने के लिए एक टैंकर पानी के साथसाथ आधा दर्जन साबुन की टिकियाएं अपने ऊपर खर्च करनी पड़ीं. साथ ही अपने 5 फुट 10 इंच लंबे शरीर पर मेयर ने एक पूरी शीशी परफ्यूम की स्प्रे कर दी. इस के बाद भी उन का दम घुटता रहा और अपनी सही स्थिति पाने में उन्हें 3 दिन लग गए.

स्वास्थ्य लाभ के बाद अपनी कुरसी पर बैठते ही मेयर ने जोरदार शब्दों में शहर को सूअर और कूड़े के ढेर से आजाद करने की घोषणा की और आने वाले सोमवार से सफाई कार्यक्रम शुरू करने का बिगुल बजा दिया.

सभी न्यूज चैनलों, रेडियो स्टेशन और अखबार वालों को इस की खबर दे दी गई. नगर प्रमुख की पार्टी के कार्यकर्ताओं से अपील की गई कि वे भरपूर मात्रा में झाड़ू, डंडे और सफाई की आवश्यक सामग्री ले कर महापालिका के दफ्तर पर सुबह 6 बजे जमा हों.

शहर भर के बड़े ढाबे वालों एवं होटल वालों को मौखिक आदेश दे दिया गया कि वे कार्यकर्ताओं के स्तर के हिसाब से अपने अपने यहां लंच पैकेट तथा कोल्ड ड्रिंक का प्रबंध रखें.

वह दिन भी आ गया. चुस्त जींस, रंगीन टीशर्ट और सफेद टोपी पहन कर मेयर साहब ने अपने आवास के बाहर कदम रखा. बाहर पहले से ही तैनात टीवी और समाचारपत्र संवाददाताओं ने अपने कैमरे चालू किए और विभिन्न मुद्राओं में उन के चित्र उतारे. नंगे सिर, टोपी के साथ, एक हाथ में झाड़ू तथा दूसरे में सूअर पकड़ने का विशेष जाल लिए मेयर साहब के फोटो खींचे गए.

इस तमाशेबाजी के साथ मेयर साहब ने कूड़े के कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान किया और शीघ्र ही वह कूड़े के ढेर नंबर 343 के पास पहुंच गए जहां सूअर के एक झुंड से उन का वास्ता पड़ा था और जिस ने उन के सफेद कपड़ों पर कीचड़ के छींटे मारने की गलती की थी.

जुलूस वहां पहुंचा और अचानक ही नारे लगने बंद हो गए क्योंकि सामने से वैसे ही जुलूस के साथ विपक्षी पार्टी के सदस्य सूअर बचाओ आंदोलन के बैनर लिए पहले से ही मौजूद थे.

ये भी पढ़ें- चिंता की कोई बात नहीं

किसी प्रकार का असमंजस या कन्फ्यूजन न हो इस के लिए वे सभी अपने सिरों पर सूअर के मुंह के आकार वाली टोपियां पहने थे. कूड़े के ढेर के चारों ओर एक गोलाकार घेरा बना कर सूअर बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता हाथों में लाठियां और डंडे लिए खड़े थे. उन के पीछे कूड़े के ढेर में दूसरे चौपाए जानवरों के साथ सूअरों का झुंड बड़े इत्मीनान के साथ विहार कर रहा था.

मेयर अपने दलबल के साथ जैसे ही वहां पहुंचे दूसरी ओर से यह नारा लगा :

‘‘मेयर नहीं कसाई है, सूअर हमारा भाई है.’’

जोश में एक महिला ने कूड़े के ढेर पर खड़े हो कर लोगों को यह जताने का प्रयास किया कि सूअर वास्तव में पर्यावरण के संरक्षक…इस के आगे के शब्द अनसुने ही रह गए क्योंकि तब तक वह कूड़े के ढेर में धंस कर अदृश्य हो चुकी थी.

इस के बाद तो सूअर बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता अपनेअपने बैनर और झंडे छोड़ कर कूड़े के ढेर पर पिल पड़े. इस अप्रत्याशित हमले से घबरा कर चौपाए जानवर इतने बौखला गए कि अपनी ही जाति के लोगों से भिड़ गए.

‘अरे, मार डाला रे,’ के जोरदार चीत्कार को सुन कर मीडिया वालों ने अपने कैमरे उधर घुमाए तो पाया कि शहर के जानेमाने रंगकर्मी चुरुल बाबू एक बिदके सांड के सींगों के बीच

टंगे लोगों से जरा बचाने की गुहार कर रहे हैं.

तभी लोगों ने देखा कि सांड ने चुरुल बाबू को किसी राकेट लांचर की तरह उछाल कर कूड़े के ढेर की

ओर फेंका तो वह अपने साथसाथ 2 और लोगों को ले कर कूड़े के ढेर में समा गए.

मीडियाकर्मियों की हंसी उड़ाती निगाहों ने मेयर साहब को मजबूर कर दिया कि वह कूड़ा रणक्षेत्र से पीछे न हटें बल्कि ऐसा कुछ करें कि सब का मुंह बंद हो जाए. वह जानते थे कि मीडिया वाले सुरक्षित स्थानों पर डटे हुए दूर से ही कैमरे का फोकस करेंगे और अनापशनाप बोलना शुरू कर देंगे, क्योंकि यही तो उन की रोजीरोटी का जरिया है.

चुरुल बाबू और सूअर बचाओ आंदोलन की नेत्री अभी भी कूड़े के ढेर में गुम थे और इन दोनों को बचाने के लिए की जा रही कोशिशों को सूअर, कुत्तों और सांडों के गठबंधन ने पूरी तरह विफल कर डाला था.

इस सारे दृश्य का एक सीधा अर्थ था कि अब वहां मौजूद जनसमूह की निगाहें मेयर साहब के रूप में अपने नए तारनहार को देख रही थीं. ऐसे में कोई भी गलत कदम उन की कुरसी को हिला सकता था. मेयर साहब ने असमंजस से अपनी टोपी उतार कर सिर खुजलाया.

उधर जुगाली करते हुए एक बैल को 2 सूअरों ने थूथन मार कर राह से हटाने का प्रयास किया. बैल को ताव आ गया और उस ने सिर झुका कर दोनों सूअरों को दौड़ा लिया.

दोनों सूअर जान बचाने के लिए उधर की तरफ भागे जिधर मेयर साहब पीठ किए खड़े थे. वह अपने एक हाथ में जाल को लटकाए हुए थे तो दूसरे हाथ में टोपी और झाड़ू थामे थे. एक सूअर गोली की रफ्तार से उन के पैरों के बीच से निकल भागा तो दूसरा उन की एक टांग पर थूथन मारता हुआ निकल गया.

घबराहट और अचंभे की मिलीजुली चीत्कार मेयर के मुख से निकली. उन के समर्थकों ने पलट कर देखा तो पाया कि बैल के दोनों सींग मेयर के हाथ में लटके जाल में उलझ गए थे. वह जाल लिए भागता चला गया और साथ में शहर के मेयर भी.

बैल से बचने और जाल को छुड़ाने की कोशिश में कब मेयर बैल की पीठ पर सवार हो गए पता ही नहीं चला और आश्चर्य से आंखें फाडे़ प्रत्यक्षदर्शियों ने देखा कि बड़ी बहादुरी से बैल को जाल में फांसे मेयर दनादन झाड़ू बरसाने में लगे हैं.

यह देख कर उन के समर्थकों के होंठों पर प्रशंसा के शब्द वाहवाह ‘आ’ गए. मीडियाकर्मी फटाफट कैमरे चालू कर के तसवीरें खींचने लगे और टेलीविजन पर उन की इस वीरता का आंखों देखा हाल प्रसारित होने लगा.

ये भी पढ़ें –  साधना कक्ष

मेयर समर्थक आकाशभेदी नारे बुलंद करने लगे, ‘‘देखो, फंसा शिकंजे में, बैल मेयर के पंजे में.’’

उधर इस  सब से अनजान मेयर साहब अपनी जान बचाने के लिए संघर्षरत थे. दोनों पैरों को बैल के पेट पर चिमटे की तरह फंसाए, सींगों को साइकिल के हैंडिल की तरह कभी इस हाथ से तो कभी उस हाथ से पकड़ने के चक्कर में उन की टोपी एक सींग में इस तरह फंस गई कि कोल्हू के बैल की तरह उस की एक आंख ही बंद हो गई.

बैल बेतहाशा उछलकूद कर के उस नामाकूल टोपी से छुटकारा पाने की जुगत में लगा था लेकिन सब बेकार इधर चक्कर, उधर घुमाव लेते हुए आखिर में उस की हिम्मत ने साथ छोड़ दिया और वह कूड़े के ढेर पर ढेर हो गया.

दूर खड़े प्रत्यक्ष- दर्शियों ने जोरदार नारे लगा कर मेयर की बहादुरी का स्वागत किया. 2-3 उत्साही पार्टी कार्यकर्ताओं ने आगे बढ़ कर मेयर साहब को बैल पर से उतारा और कंधों पर लाद कर विजयी उद्घोष करते हुए कूड़े के चारों ओर चक्कर काटने लगे.

अपने थके हाथपांवों और भयंकर पीड़ा से दुखते शरीर के बावजूद मेयर साहब हंसहंस कर इस जयजयकार को स्वीकार करने लगे.

दूसरे हाथ से उस  पर ‘छुट्टा पशु पकड़ो’ दल के कर्मचारियों ने विजय नारे लगाते हुए जाल में फंसे बैल को उठा कर ट्रक में डाला और सरपट निकल चले. उन के जाते ही डंपर, ट्रक और कूड़ा उठाने वाली क्रेन और मशीनें आ गईं, युद्धस्तर पर काम होने लगा और ट्रकों में कूड़ा भरभर कर नगर के बाहर सूखे पड़े एक तालाब पर ले जाया जाने लगा. वहां एक नई कालोनी बनाने का इरादा था.

इन सब के बीच किसी युद्ध विजेता की तरह सीना फुलाए मेयर साहब हाथ में लंबी जमादारी झाड़ू, जाल लिए तिरछी टोपी लगाए एक ओर खड़े मुसकरा रहे थे.

17 घंटे चले इस सफाई अभियान के बाद महल्ले की सड़कें ऐसे जगमगा उठीं जैसे कभी कूड़ा वहां रहा ही न हो. इस प्रकार मेयर ने ढेर नंबर 343 पर उस सूअर द्वारा की गई अपनी फजीहत का बदला ले लिया था.            द्य

मंजिल: धारावाहिक उपन्यास

लेखक- माया प्रधान

पूर्व कथा

पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं.

सुहास व्यापार शुरू कर देता है, लेकिन कई बार काम के लिए बंध कर बैठना उस के लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि किसी भी जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था.

अंतत: श्वेता के विवाह का दिन आ जाता है और कुछ ही महीने बाद पुरवासुहास का भी विवाह हो जाता है. पुरवा महसूस कर रही थी कि सुहास का ध्यान समाजसेवा में अधिक रहता है. वह दूसरों की मदद के लिए दुकान पर भी ध्यान न देता.

पुरवा अब निरंतर सुहास को उस की जिम्मेदारी का एहसास कराने की कोशिश करती. शीघ्र ही वह दिन भी आता है जब पुरवा को पता चलता है कि वह मां बनने वाली है. सुहास पापा बनने के सुखद एहसास से झूम उठता है.

थोड़े दिनों बाद पुरवा को पता चलता है कि सुहास पुराना कारोबार खत्म कर कंप्यूटर का कार्य आरंभ करना चाहता है तो वह हैरान हो जाती है और बेचैनी से सुहास के घर लौटने की प्रतीक्षा करने लगती है. लेकिन वह बेला भाभी के पति सागर को अस्पताल ले जाने के कारण रात देर से घर आता है. पुरवा की तबीयत खराब होने पर अस्पताल में भरती कराया जाता है. उस का हालचाल पूछने बेला घर आती है तो पुरवा उस से थोड़ी तीखी बात करती है, तब सुहास पुरवा पर बिगड़ता है. सुहास से नाराज पुरवा अपने मातापिता के साथ मायके चली जाती है. सुहास के व्यवहार को ले कर वह विचारमंथन करती है.

आखिरकार, एक दिन सुहास पुरवा को मनाने ससुराल पहुंच जाता है. पुरवा वापस जाने की शर्त रखती है कि वह घर के गैराज में बुटीक खोलेगी और इस काम में वह उस की मदद करेगा. बुटीक की शुरुआत करने में  सुहास से ज्यादा रजनीबाला पुरवा की मदद करती है. बुटीक निर्माण जोरशोर से शुरू हो जाता है. एक दिन सागर और बेला आते हैं और बताते हैं कि सुहास ने राजनीति ज्वाइन कर ली है, सुन कर सब चौंक जाते हैं.

ये भी पढ़ें- करामात

सुहास घर आता है तब मां राजनीति ज्वाइन करने की बात को ले कर उस से नाराज होती है. लेकिन सुहास सब को समझाता है, पुरवा भी यह सोच कर संतोष कर लेती है शायद सुहास इसी क्षेत्र में सफल हो जाए.

पुरवा के ‘पुरवाई बुटीक’ का उद्घाटन होता है. सुहास वक्त पर नहीं पहुंचता लेकिन देर से आने की माफी मांगते हुए बुटीक के लिए एक बड़ा आर्डर ले कर आता है तो सभी खुश हो जाते हैं.

राजनीति के कार्यक्षेत्र में सुहास का रोमांच बढ़ता जा रहा था. उधर वह दिन भी आता है जब पुरवा प्रसव के लिए अस्पताल में भरती होती है. उसी वक्त पार्टी के नेता भाईजी को चुनावी सरगर्मियों के चलते दूसरी पार्टी के साथ हुई झड़प में गोली लग जाने के कारण सुहास को उन्हें देखने जाना पड़ता है. वापस जब लौटता है तो एक बच्ची का पिता बनने की खुशखबरी मिलती है.

अब सुहास राजनीति में सक्रिय होने लगा था. पुरवा उस का उत्साह व काम करने की लगन देख खुश थी.

सुहास कार्यालय के चौकीदार नारायण, जिस के बेटे की एक किडनी फेल हो गई थी, का दुख देख कर दुखी होता है. पुरवा, सुहास की परेशानी देख रही थी लेकिन सुहास उसे अपने मन के भीतर चल रही उथलपुथल के बारे में कुछ नहीं बताता. अब आगे…

गतांक से आगे…

सुहास ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘आज मैं आकाश के साथ एड्स के मरीजों की खोजखबर लेने गया…’’

‘‘क्या?’’ पुरवा ने बीच में ही उसे टोक दिया, ‘‘तुम ऐसी जगह भी जाते हो, जरा भी डर नहीं लगता.’’

‘‘मुझे माफ कर दो पुरवा कि मैं ने पहले तुम्हें नहीं बताया. पर तुम जानती हो कि वहां जाने से मुझे कुछ नहीं होगा. यह तो बस, लोगों का वहम है कि उन्हें छूने से ही एड्स हो जाएगा,’’ पुरवा चुप हो गई पर उस के चेहरे पर परेशानी झलक उठी थी. बोली, ‘‘अच्छा, बताओ कि बात क्या है?’’

‘‘पुरवा, वहां एक मरीज की मृत्यु मेरी आंखों के सामने हुई. उस की पत्नी, कैसे बिलखबिलख कर रो रही थी और कह रही थी, ‘क्यों लगाया यह रोग, जनम भर का साथ देने का वादा कर के मुझे अकेला छोड़ गए.’’’

पुरवा लगातार सुहास को देख रही थी और उस के स्वरों के कंपन से उस के भय को महसूस कर रही थी. सुहास बच्चों की तरह बिलख सा रहा था.

‘‘पुरवा, उसी पल मैं ने पहली बार यह महसूस किया कि जीवनसाथी का बिछड़ना कैसा होता है. अकेले ही जाने का दर्द कितना भयानक होता है.’’

यह सब सुन कर पुरवा कुछ सोचने लगी. सुहास निरंतर बोल रहा था, ‘‘जानती हो पुरू, उसी पल सब से पहली बात क्या मेरे मन में उठी, जब तक हम एकदूसरे के साथ होते हैं तो एकदूसरे की परवा नहीं करते हैं. जब बिछड़ जाते हैं तो जीवनसाथी के साथ होने का महत्त्व समझ में आता है.’’

‘‘हां, सुहास, किसी भी दंपती के लिए यह सब से दुखद स्थिति होती है,’’ पुरवा ने कहा.

अचानक सुहास ने उस की हथेली थाम कर कहा, ‘‘पुरवा, वादा करो कि तुम मुझे अकेला छोड़ कर नहीं जाओगी.’’

पुरवा ने उसे एकटक देखा. सामने एक प्रेमी, एक पति सहमे हुए बच्चे की भांति बिलख रहा था. कैसा अंजाना भय था. वह बोली, ‘‘सुहास, यह मिलने- बिछड़ने की बातें कर के तुम अपने उद्देश्य से क्यों भटक रहे हो आज.’’

दोनों की कौफी समाप्त हो गई थी, पर अभी दोनों को और बैठना था अत: सुहास ने कुछ नए स्नैक्स का आर्डर कर दिया. अपनी बात भी धीरेधीरे कहता रहा, ‘‘पुरवा, आज मैं जो इतनी दिशाएं खोज पाया हूं ये सब तुम्हारे ही कारण. जीवन से निरुत्साहित प्राणी को तुम ने नए सपने, नई मंजिल दिखा दी.’’

‘‘ऐसा मत कहो, सुहास. तुम्हारे अंदर कुछ करने का उत्साह तो बराबर था. बस, दिशा निर्धारित करने में समय लग रहा था,’’ पुरवा ने अपनी हथेली से उस की हथेली को सहला दिया. नए स्नैक्स आ चुके थे चीज फिंगर्स और चिकनबर्गर. सुहास ने अपनी प्लेट से पहले पुरवा को खिलाया और फिर स्वयं खाना आरंभ किया.

‘‘मुझे यह नहीं मालूम है कि मैं कितना बड़ा व्यवसायी बन पाऊंगा.  राजनीति में कोई स्थान बना सकूंगा या नहीं पर मेरी सब से बड़ी चाहत किसी के काम आने की आज भी मेरे अंदर पूरे उत्साह से हिलोरे ले रही है.’’

‘‘मैं जानती हूं, सुहास. तुम्हारा यह गुण ही तुम्हें औरों से एकदम अलग एक विशिष्ट व्यक्ति बनाता है. मुझे तुम पर गर्व है.’’

‘‘पुरवा, आज मैं एक बार फिर तुम से वादा करता हूं कि अब मैं तुम्हें कभी निराश नहीं करूंगा. जीवन की किसी भी राह पर तुम्हें शिकायत का अवसर नहीं मिलेगा.’’

पुरवा ने उस के मुख में चीज फिंगर्स रखते हुए कहा, ‘‘एक वादा मैं भी तुम से करती हूं कि प्रत्येक रविवार को बुटीक से और घर से समय निकाल कर मैं भी तुम्हारे साथ ऐसे लोगों की सेवा में साथ चलूंगी जहां आज तक जा नहीं सकी हूं.’’

ये भी पढ़ें- कबूतरों का घर

‘‘सच,’’ सुहास की आंखों में अनोखी चमक कौंध उठी. यह कैसा प्यारा साथ दिया था उसे पुरवा ने. आज तक जिन बातों से प्राय: वह नाराज भी हो जाती थी, आज उसी राह पर वह भी साथ चलना चाहती है. अगर वह एकांत में होता तो अवश्य ही उसे बांहों में भर लेता. प्रसन्नता से झूम कर वह बोला, ‘‘तुम ने तो बिन पिए ही एक नशा सा दे दिया है. इसीलिए अब मुझे अपनी वह बात जिसे बहुत देर से कहना चाह रहा हूं, कहने में बहुत सोचना नहीं पड़ेगा.’’

‘‘कौन सी बात?’’ पुरवा ने अपना स्नैक्स समाप्त करते हुए आश्चर्य से कहा.

‘‘मैं ने तुम्हें नारायण के बेटे के बारे में बताया था न,’’ सुहास ने कहा.

‘‘हां, पर उस के लिए तो तुम चंदा जमा कर रहे थे,’’ पुरवा ने चिंतित सुहास को ध्यान से देखा. लगा कि कुछ गहरी बात उस के मन में उथलपुथल मचा रही है. क्या बात होगी.

सुहास ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘वह चंदा इतना नहीं हो पाया है पुरवा कि उस के बेटे को नई किडनी लगाई जा सके. इकलौता बेटा है उस गरीब का, उस के बुढ़ापे की आशा है वह.’’

‘‘पर सुहास, ऐसे तो जाने कितने लोग होंगे जिन्हें भरी जवानी वाला पुत्र खोना पड़ा होगा, जिन की नईनवेली बहू विधवा हो गई होगी.’’

‘‘हां पुरवा, हजारों, लाखों होंगे. क्या उन में से किसी एक का दुख हम कम नहीं कर सकते हैं? किसी एक को अकाल मृत्यु से हम बचा नहीं सकते हैं?’’

‘‘क्या करना चाहते हो?’’

पुरवा ने व्याकुलता से उसे देखा.

‘‘नाराज मत होना पुरवा, मैं अपनी किडनी उसे देना चाहता हूं.’’

‘‘क्या?’’ पुरवा चौंक पड़ी और स्तब्ध दृष्टि से उसे देखने लगी. बोली, ‘‘तुम्हें क्या हो गया है, सुहास? किसी की जान बचाने के लिए क्या अपनी जान पर खेल जाओगे?’’

‘‘पुरवा, एक किडनी दान करने से कोई समाप्त नहीं हो जाता है. थोड़ी देर पहले तुम ने हर राह पर मेरा साथ देने का वादा किया है.’’

सुहास की बात पर पुरवा की आंखें नम हो गईं. वह निराशा से बोली, ‘‘मानती हूं सुहास कि मैं भी हर राह पर तुम्हारे साथ चलना चाहती हूं पर इस के अतिरिक्त भी तो किसी तरह से उस की सहायता की जा सकती है.’’

‘‘नहीं पुरवा, देख तो लिया कि चंदा तक इकट्ठा नहीं हो पाया,’’ सुहास उदासी से बोला, ‘‘जब मैं ने उस व्यक्ति की पत्नी को बिलखबिलख कर रोते देखा तब सब से पहले तुम्हारा खयाल आया, फिर रोते हुए नारायण का, और तभी मैं ने यह निर्णय ले लिया कि अब मैं अपनी एक किडनी देवेंद्र को दान कर दूंगा.’’

पुरवा की विस्फारित दृष्टि सुहास के चेहरे पर अटक गई. संपूर्ण शरीर पीड़ा की तीव्र लहर से ऐंठने लगा. बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हो, सुहास?’’

‘‘मैं बहुत सोचसमझ कर यह बात तुम से कह रहा हूं,’’ सुहास ने अपनी ही धुन में उत्तर दिया.

‘‘नहीं सुहास, तुम सोचसमझ कर नहीं कह रहे हो. तुम ने सब के बारे में सोचा पर अपने, मेरे और झंकार के बारे में नहीं सोचा. फिर मां व पापाजी…’’

सुहास ने उस की हथेलियां कस कर पकड़ लीं, ‘‘तुम ने हर कदम पर मेरा साथ देने का वादा किया है पुरवा.’’

‘‘मैं अपना वादा नहीं तोड़ रही हूं सुहास पर किसी की सहायता करने के और भी बहुत से उपाय हैं,’’ पुरवा अपनी पीड़ा से उबरने का प्रयास कर रही थी.

‘‘तुम ने देख तो लिया पुरवा. इतने पैसे इकट्ठे नहीं हो पाए कि उस के लिए किडनी खरीदी जा सके,’’ सुहास अपने निर्णय पर अडिग लग रहा था.

थोड़ी देर पहले जहां फूलों की सुगंध से भरपूर सर्द हवाएं प्यार के झूले पर गुनगुना रही थीं, वहीं दर्द, निराशा की ऊष्मा में डूबी आंधी के आसार उमड़ने लगे थे. पुरवा ने अचानक कहा, ‘‘सुनो सुहास, एक रास्ता है,’’ शायद वह बवंडर को बढ़ने से पहले ही रोकने का प्रयास कर रही थी.

सुहास ने भी किसी उतावले शिशु की तरह उस पर अपनी दृष्टि टिका दी.

पुरवा आगे बोली, ‘‘हम एक चैरिटी शो करेंगे और उस से जो भी आय होगी वह नारायण को दे देना.’’

सुहास के चेहरे पर व्यंग्य की रेखा कौंध उठी, बोला, ‘‘कोई भी कार्यक्रम करने के लिए भी तो पैसा चाहिए और यदि पैसा होता तो मुझे वैसा निर्णय लेना ही नहीं पड़ता,’’ सुहास उठ कर खड़ा हो गया. मेज पर उस ने बिल के रुपए रख दिए तो मजबूरन पुरवा को भी उठना पड़ा.

पुरवा निरंतर कुछ सोच रही थी. वह कार में बैठने से पहले बोली, ‘‘सुहास, चंदे से जो रुपए तुम लोगों ने एकत्र किए थे वे कहां हैं?’’

‘‘वे तो अभी पार्टी आफिस में ही हैं,’’ सुहास ने कार में बैठते हुए कहा.

पुरवा भी अपनी सीट पर बैठ गई और बोली, ‘‘सुनो, सुहास. जब मैं अंधविद्यालय में पढ़ाती थी तब कई बार ऐसे कार्यक्रम करवाए हैं. वहां के प्रिंसिपल साहब का बहुत अच्छेअच्छे कलाकारों से परिचय था. कुछ सहायता हमें वहां से मिल जाएगी, बाकी उन रुपयों से भी सहायता मिल जाएगी.’’

सुहास चुपचाप सुनता रहा. घर पर उतरने के साथ ही पुरवा ने अपनी प्रश्न- वाचक दृष्टि उस पर टिका दी, ‘‘क्या सोच रहे हो, सुहास?’’

बिना कुछ बोले वह अंदर चला गया. मां ने देखते ही कहा, ‘‘आ गए तुम दोनों.’’

‘‘झरना सो गई क्या?’’ सुहास ने तुरंत पूछा. पुरवा ने देखा, सुहास के चेहरे पर वही व्याकुलता थी जो शाम को उस ने देखी थी. जाने क्यों वह मन ही मन मुसकरा उठी. सोचा, बिलकुल बच्चों जैसा स्वभाव है. मां ने कुछ चिंता से कहा, ‘‘कुछ गरम लग रही है.’’

‘‘अरे, मैं फोन करता हूं डाक्टर को.’’

सुहास बोला तो मां ने कहा, ‘‘कर दिया है तुम्हारे पापा ने. अभी आ जाएंगे डाक्टर साहब.’’

पुरवा जा कर झरना के सिरहाने बैठ गई. सुहास ने बेटी के सिर पर प्यार से हाथ फेरा. बोला, ‘‘कैसे हो गया इसे बुखार?’’

‘‘इस तरह परेशान मत हो, सुहास. बच्चों को तो कुछ न कुछ चलता ही रहता है,’’ मां ने समझाया.

उस रात सुहास बहुत ही व्याकुल रहा. जाने कितनी बातें उसे आंदोलित कर रही थीं. परेशान तो पुरवा भी थी पर कुछ कह नहीं पा रही थी. कमरे में गहरी खामोशी थी. उस रात झरना को पालने में नहीं सुलाया था उस ने. दोनों के बीच में वह गहरी नींद सो रही थी. स्याह अंधेरे कमरे में 4 आंखें पलक झपकाना भूल गई थीं. बस, दोनों की व्याकुल सांसें कई एहसास जगा रही थीं.

पुरवा अचानक सुहास के स्पर्श से चौंक गई, सुहास की मद्धिम आवाज स्पर्श में घुलने लगी, ‘‘झरना को हम लोग क्या बनाएंगे?’’

पुरवा अंधेरे में ही मुसकरा दी.

‘‘यह हम उसी पर छोड़ देंगे. अभी से यह सब सोच कर क्यों परेशान हों.’’

शाम की व्यग्रता सुहास के स्पर्श में एक नए रंग में डूबी जा रही थी.

‘‘पुरवा, नाराज हो मुझ से?’’

‘‘नहीं तो,’’ पुरवा समझ गई थी कि उस की बात का उत्तर न दे पाने से भी सुहास व्याकुल है. सुहास कह रहा था, ‘‘मैं तुम्हारी तरह दूरदर्शी नहीं हूं, पुरवा. शायद हर निर्णय मैं बहुत घबराहट में लेता हूं्.’’

‘‘पता नहीं सुहास, पर इतना कह सकती हूं मैं कि भावुकता से भरे हुए फैसले बहुधा ठीक नहीं होते हैं,’’ पुरवा ने प्यार से कहा.

ये भी पढ़ें- दंश

‘‘शायद तुम ठीक कह रही हो. इस तरह भावुकता में बह कर मैं कितनों की जान बचा पाऊंगा.’’

दोनों उठ कर बैठ गए थे. पुरवा ने साइड टेबल की बत्ती जलाई तो सुहास बोला, ‘‘रहने दो, पुरवा. अंधकार में रोशनी की जो किरण तुम ने दिखाई है उसे महसूस करने दो,’’ उस ने सोई हुई झरना के सिर पर प्यार से हाथ फेरा, ‘‘मैं सचमुच भूल गया था कि तुम दोनों के लिए भी मेरा जीवन कितना महत्त्वपूर्ण है.’’

पुरवा ने दोनों हथेलियों में उस के कपोल भर लिए और बोली, ‘‘मैं जानती हूं सुहास, तुम धीरेधीरे अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे हो और एक दिन बहुत सफल भी होगे.’’

सुहास उस के प्यार भरे स्पर्श से भावविभोर हो उठा, ‘‘तुम्हारा विश्वास ही तो मेरी शक्ति है पुरवा. जबजब मैं दिशाहीन हुआ हूं तुम ने मुझे सही राह दिखाई है.’’

‘‘मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं सुहास. मैं कल सुबह ही अंधमहाविद्यालय जाऊंगी और हम कल से ही चैरिटी शो के लिए अभियान शुरू कर देंगे,’’ उस एक पल में 2 खामोश दिलों ने जाने कितने सतरंगे सपनों को अपने स्पर्श से जी लिया था.

‘‘मुझे कभी भटकने नहीं देना, पुरवा,’’ सुहास की फुसफुसाहट प्यार की खिलती पंखडि़यों में ओस की बूंद सी समा गई थी.

‘कौन कहता है कि सुहास से प्यार कर के मैं ने कुछ गलत किया,’ पुरवा ने मन ही मन दोहराया और एक नई सुबह की प्रतीक्षा में अंधेरे में छिपे सातों रंगों को महसूस करने का प्रयास करने लगी.

-समाप्त द्य

रथयात्रा के यात्री

लेखक- संजय अय्या

हम ने कहा, ‘‘भैया, अब ऐसी भी क्या व्यस्तता जो घड़ी दो घड़ी खड़े हो कर पान भी नहीं खा सकते? कम से कम एक पान तो खाते जाइए.’’

अब पान ठहरा नेताजी की कमजोरी, कमजोरी भी ऐसी जिस के लिए वह अपने सारे जरूरी काम किनारे कर सकते हैं. अत: कुछ सोच कर बोले, ‘‘अब आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो आप की बात को रखते हुए पान तो मैं खा लेता हूं पर इस से ज्यादा समय मैं आप को बिलकुल नहीं दे पाऊंगा.’’

हम ने कहा, ‘‘ठीक है, पहले आप पान तो खाइए फिर बाद में देखते हैं.’’

इतना कह कर हम ने रामचरण को 2 पान लगाने का आर्डर दे कर नेताजी से पूछा, ‘‘क्या बात है, बहुत जल्दी में दिखाई दे रहे हैं?’’

वह बोले, ‘‘मत पूछिए, बहुत व्यस्त हूं. रात में 2 बजे तक जागने पर भी अभी तक काम पूरा नहीं हुआ है, आज उन का नगर आगमन होना है और अभी भी इतने सारे काम बाकी हैं, जाने क्या होगा?’’

हम ने अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘तो क्या उन की रथयात्रा हमारे यहां से हो कर भी गुजरेगी?’’

उन्हें जोर का झटका लगा. बोले, ‘‘ भाईजी कैसी बात कर रहे हैं? यह सब स्वागत द्वार, झंडे, बैनर्स, पोस्टर्स अब उसी रथयात्रा का स्वागत करने के लिए ही तो लगाए गए हैं. यहां तो काम करकर के जान निकली जा रही है और आप पूछ रहे हैं कि यहां से भी रथयात्रा गुजरेगी?’’

हम ने सहलाने के अंदाज में कहा, ‘‘नाराज मत होइए, सबकुछ ठीकठाक हो जाएगा, निश्चिंत रहिए. आप ने चाहे राम का भला किया हो या न किया हो लेकिन राम आप का भला अवश्य करेंगे.’’

नेताजी फिर उखड़ गए, ‘‘कैसी बात कह गए आप? हमारे प्रयत्नों (रथयात्रा) से ही विवादित ढांचा ढहा और राममंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ. हम ने ही राम को मुगलकालीन दासता से मुक्ति दिला कर आजाद किया है, तो फिर आप कैसे कह सकते हैं कि हम ने राम का भला नहीं किया?’’

हम ने उन्हें शांत करते हुए बातों का रुख दूसरी ओर मोड़ा, ‘‘इन रथयात्राओं पर तो आप की पार्टी को अच्छा- खासा व्यय करना पड़ रहा होगा?’’

हमारी बात की सहमति में सिर हिलाते हुए नेताजी ने कहा, ‘‘लेकिन हमारी भी मजबूरी है. राष्ट्र की सुरक्षा से जो खिलवाड़ केंद्र सरकार कर रही है और इस सरकार की अदूरदर्शिता भरी नीतियों से राष्ट्र की सुरक्षा को जो गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है उसी के विरोध में जनभावना जगाना, जनजागृति का विकास करना हमारी इस यात्रा का प्रमुख उद्देश्य है. इसलिए हम ने इस यात्रा का नाम ही ‘भारत सुरक्षा यात्रा’ रख दिया है. वैसे आप की जानकारी के लिए बता दूं कि अपने क्षेत्र में इस यात्रा का मैं ही प्रभारी हूं.’’

ये भी पढ़ेें- सब से बड़ा रुपय्या

हम ने उन्हें बधाई दे कर अपनी तरफ से औपचारिकता की रस्म अदायगी की. हमारी बधाई को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए नेताजी बोले, ‘‘आश्चर्य है जिन यात्राओं के बारे में इतना कुछ लिखा, पढ़ा, सुना जा रहा है उस के बारे में मुझे आप को बताना पड़ रहा है.’’

अपनी अनभिज्ञता पर बिना किसी संकोच या शर्मिंदगी के हम ने कहा, ‘‘अब इतने सारे लोग, इतनी सारी यात्राएं निकाल रहे हैं तो व्यक्ति किसकिस को याद रखे, जब रोज ही कोई न कोई यात्रा निकल रही हो तो यह याद रखना भी तो मुश्किल हो जाता है कि किस ने किस उद्देश्य से यात्रा निकाली?’’

वह बोले, ‘‘फिर भी हमारी यात्राएं सब से अलग, सब से खास होती हैं, यही नहीं हमारी महान संस्कृति का एक अंग होती हैं.’’

‘‘सब से अलग तो आप हैं ही,’’ हमारे यह कहने पर वह बोले, ‘‘कैसे?’’

हम ने कहा, ‘‘समझते रहिए, यह पहेली. वैसे आप क्या सोचते हैं आप के यात्रा निकालने से राष्ट्र की सुरक्षा मजबूत होगी? क्या राष्ट्र सुरक्षा की भावना को बल प्रदान होगा?’’

वह बोले, ‘‘इन यात्राओं के पीछे उद्देश्य तो यही है.’’

‘‘इस के पहले भी तो आप के नेताओं ने कईकई उद्देश्यों से कईकई यात्राएं की हैं,’’ हम ने कहा, ‘‘कभी राम मंदिर निर्माण के लिए तो कभी भारत की एकता के लिए, कभी सांप्रदायिक सद्भावना के लिए तो कभी तिरंगे के सम्मान के लिए, इस बीच कुछ उपयात्राएं भी आप लोगों ने कर डाली हैं. हमेशा नएनए मुद्दों पर आप के नेता यात्रा करते हैं लेकिन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के बाद वे उन्हें भूल जाते हैं, जिन के लिए उन्होंने यात्रा की थी. मजाक में अब तो कुछ लोगों ने आप की पार्टी को ‘भारतीय यात्रा पार्टी’ कहना शुरू कर दिया है. इधर कोई घटना घटी नहीं उधर आप की पार्टी के नेता तैयार हो जाते हैं उस के विरोध में यात्रा निकालने के लिए.’’

कुछ तैश में आ कर नेताजी बोले, ‘‘आप को हमारी इन यात्राओं पर इतनी आपत्ति क्यों है? एक राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते हमारा अधिकार है अलगअलग राष्ट्रीय समस्याओं पर अपने विचारों से जनता को अवगत कराना, अपना विरोध जाहिर करना, अपनी नीतियों का प्रचार और उसे सर्वव्यापक, सर्वस्वीकार्य बनाना.’’

हम ने कहा, ‘‘वह सब तो ठीक है लेकिन इन यात्राओं के पीछे आप का छिपा हुआ उद्देश्य भी होता है.’’

‘‘यह तो लोगों की गलतफहमी है,’’ वह आराम से बोले. ‘‘हम तो शुरू से ही ‘साफ दिशा, स्पष्ट नीति’ वाले लोग हैं, राष्ट्रवाद का प्रचार करना और लोगों में राष्ट्रीयता की भावना भरना ही हमारी यात्राओं का एकमात्र उद्देश्य होता है.’’

हम ने कहा, ‘‘यदि आप के उद्देश्य जनहित के हैं तो विरोधी आप की यात्राओं पर इतना बवाल, विरोध क्यों करते हैं?’’

पान की पीक एक ओर को थूकते हुए नेताजी बोले, ‘‘भाईजी, यह सब तो हमारे विरोधियों की टुच्ची राजनीति है, उन की क्षुद्र मानसिकता है. वे हमारे हर अच्छे काम में राजनीति देखते हैं, उन की सोच राजनीति से ऊपर उठ ही नहीं सकती. यह सब कुप्रचार वही लोग करते हैं जो हमारी यात्राओं की सफलता देख नहीं सकते, हमारी लोकप्रियता से जलते हैं वे सब.’’

फिर भी यदि लोगों को परेशानी है तो आप क्यों नहीं इन रथयात्राओं को रोक देते? क्यों व्यर्थ में एक नए विवाद को जन्म देते हैं? आखिर क्या हासिल होता है आप को इन सब से?’’

ये भी पढ़ेें- कौन जाने

हमारे इस सवाल पर गहरी नजर से उन्होंने हमें देखा फिर बोले, ‘‘आप कौन होते हैं, हमें सलाह देने वाले. अपना भलाबुरा हम बेहतर समझते हैं और जहां तक रथयात्राओं की बात है तो हमारी एक सफलता तो आप देख ही चुके हैं कि रथयात्रा की ही बदौलत हम जमीन से सीधे आसमान पर पहुंचे थे.’’ फिर कुछ तेज आवाज में कहने लगे, ‘‘क्या हासिल नहीं हुआ हमें रथयात्राओं से? सत्ता, धन, पावर सबकुछ तो हमें इन्हीं से मिला है तो क्यों छोड़ें हम अपनी रथयात्राएं? हमारी रथयात्राएं तो जारी रहेंगी चाहे कोई कुछ कहे, कोई कैसा भी विरोध करे हमारे रथ का पहिया अपने लक्ष्य पर पहुंच कर ही थमेगा.’’

हम पूछना चाह रहे थे कि आप को तो रथयात्राओं से सबकुछ हासिल हुआ पर जनता को…लेकिन हमारा प्रश्न गले में ही अटक कर रह गया क्योंकि नेताजी रथयात्रा की शेष तैयारियां देखने निकल पड़े थे.

मंजिल- धारावाहिक उपन्यास

लेखक- माया प्रधान

पूर्व कथा

पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं. सुहास की बहन श्वेता को देखने लड़के वाले आते हैं. इंजीनियर लड़के गौरव से श्वेता का विवाह तय हो जाता है. मिठाई  के डब्बे के साथ बहन की सगाई का निमंत्रण ले कर सुहास सहाय साहब के घर जाता है. घर पर बीमार सहाय साहब का हालचाल पूछने उन के मित्र आए होते हैं. सहाय साहब सुहास की तारीफ करते हुए सब को बताते हैं कि वह उस के लिए मोटरपार्ट्स की दुकान खुलवा रहे हैं. सुहास अपनी तारीफ सुन कर खुश होता है.

श्वेता की सगाई पर आए सहाय साहब के परिवार से मकरंद वर्मा परिवार के सभी सदस्य उत्साहपूर्वक मिलते हैं. दोनों परिवार वाले सुहास और पुरवा के रिश्ते से खुश थे.

समय तेजी से गुजरता रहा. सुहास व्यापार शुरू कर देता है, लेकिन कई बार काम के लिए बंध कर बैठना उस के लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि किसी भी जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था.

अंतत: श्वेता के विवाह का दिन आ जाता है. उस दिन पुरवा का सजाधजा रूप देख कर सुहास दीवाना हो जाता है. पुरवा से शीघ्र विवाह करने के लिए सुहास दुकान पर मन लगा कर काम करने लगता है. यह सब देख सहाय साहब खुश थे. आखिरकार वह एक दिन वर्मा साहब के घर पुरवा का रिश्ता ले कर पहुंच जाते हैं. सभी की मौजूदगी और खुशी से पुरवासुहास का रिश्ता पक्का हो जाता है और शीघ्र ही धूमधाम से विवाह हो जाता है.

सुहागसेज पर दोनों हजारों सपने संजोते हैं और हनीमून पर ऊटी जाते हैं. वापस आने पर घर में सब उन का स्वागत करते हैं. इधर श्वेता से बात करने पर पुरवा को पता चलता है कि बड़े परिवार के कारण वह ससुराल में नाखुश है. उधर अपनी व्यवहारकुशलता से पुरवा ससुराल में जल्द ही सब से घुलमिल जाती है.

पुरवा महसूस कर रही थी कि सुहास का ध्यान समाजसेवा में अधिक रहता है. वह दूसरों की मदद के लिए दुकान पर भी ध्यान न देता.

एक दिन श्वेता ससुराल से लड़झगड़ कर मायके आती है. पुरवा के समझाने पर वह उलटा पुरवा को ही सुहास द्वारा कुछ न कमाने का ताना देती है. यह बात सच थी इसीलिए पुरवा सब चुपचाप सुन लेती है लेकिन अब उस के दिमाग में श्वेता के शब्द गूंज रहे थे. अब आगे…

गतांक से आगे…

श्वेता तो अपने मम्मीपापा के बहुत समझानेबुझाने पर वापस ससुराल चली गई पर पुरवा का मन अशांत कर गई थी. ऊपर से वह निरंतर ठीकठाक दिखने का प्रयास कर रही थी पर मन के तहखाने में चुपके से कोई विषैला जंतु जैसे घुस कर बैठ गया था.

अपनेआप से पुरवा तर्कवितर्क करती कि क्या श्वेता ने सच कहा था? मन उत्तर देता, नहीं, वह अलग रहने की बात सोच भी नहीं सकती. अपने मम्मीपापा के घर में भी उसे नितांत अकेलापन लगता था. इसीलिए यहां की हलचल उसे अच्छी लगती है. ऐसे में अलग रहने की बात वह कभी नहीं सोच सकती थी, पर दंश तो श्वेता की दूसरी बात का चुभा था.

सुहास क्या सचमुच पैसा कमाना नहीं चाहता है? क्या इसीलिए समाजसेवा का बहाना कर के इधरउधर भागता रहता है? इतने दिनों में एक बार भी तो उस ने अपनी कमाई रकम का कुछ भी हिस्सा पुरवा के हाथों में नहीं रखा. कहता है सारी कमाई व्यापार बढ़ाने में जा रही है, तो क्या सदा वह अपने पिता के पैसे के सहारे ही जीवन व्यतीत करेगा?

वह बारबार अपने को समझाती थी कि यह सब व्यर्थ की बातें नहीं सोचे, पर मन है जो बारबार समझाने पर भी स्थिर होना ही नहीं चाहता है.

इसी ऊहापोह में एक दिन वह सुहास से कह बैठी, ‘‘सब के पति माह की पहली तारीख को अपनी पत्नी के हाथ पर अपनी आय रखते हैं पर तुम ने अभी तक मुझे कुछ भी नहीं दिया.’’

सुहास ने पहले तो उसे ध्यान से देखा फिर हंस कर बोला, ‘‘मैं ने अपनेआप को ही तुम्हारे कदमों में रख दिया है फिर रुपएपैसे की क्या औकात है.’’

‘‘तुम मजाक के मूड में हो पर मैं गंभीर हूं. सुहास, हर पत्नी की यह चाहत होती है कि उस का पति उसे गृहलक्ष्मी समझ कर अपनी आय का कुछ अंश तो अवश्य सौंपे.’’

‘‘लगता है कि श्वेता की बात को तुम दिल से लगा बैठी हो,’’ सुहास भी अचानक गंभीर हो उठा.

‘‘चाहे यह सच हो पर विचारणीय भी है,’’ पुरवा ने कहा.

ये भी पढ़ें- बहादुर लड़की मिसाल बनी

सुहास ने पत्नी को मनाने के उद्देश्य से बहुत प्यार से उस के गाल थपथपा दिए और बोला, ‘‘देखो, पुरवा, यह शौक मुझे भी है कि मैं अपनी पत्नी को अपनी सारी कमाई दूं पर अभी इतनी आय तो है नहीं और जो आय है वह किराए में, नौकर के वेतन में और नया माल लाने में चली जाती है. कुछ अधिक आय होगी तब मैं फैक्टरी भी डालना चाहूंगा,’’ सुहास ने उसे प्यार से बांहों में भर लिया, ‘‘क्या तुम सदा एक दुकानदार की पत्नी बनी रहना पसंद करोगी?’’

पुरवा उस की बात समझ गई थी, धीरे से बोली, ‘‘मैं सब समझ गई हूं पर सुहास, यहां मां से अपने खर्च के लिए रुपए लेते भी मुझे शर्म आती है.’’

‘‘मां से कैसी शर्म. मुझे भी तो वही अभी तक जेबखर्च देती रही हैं. मेरी मम्मी बहुत अच्छी हैं, इन सब बातों में अपना मन खराब मत करो,’’ सुहास ने समझाया.

अचानक पुरवा बोली, ‘‘सुनो, सुहास, मुझे नौकरी मिल सकती है, अंध महाविद्यालय में एक जगह खाली है. बस, यही होगा कि फिर मुझे नियम से जाना पड़ेगा,’’  पुरवा ने सुहास को और मां को अपने खर्च से बचाने का सुझाव सा दिया.

सुहास फिर गंभीर हो उठा और बोला, ‘‘मम्मी से बात करनी पड़ेगी तभी बताएंगे.’’

कई दिनों से मां सुहास से कह रही थीं कि पुरवा को कहीं घुमा लाए या सिनेमा दिखा लाए. पुरवा को महसूस हो रहा था कि कुछ दिनों से मां कुछ अधिक ही उस का ध्यान रख रही हैं. कहीं इसलिए तो नहीं कि उस ने नौकरी की बात कर के उन के सम्मान को ठेस पहुंचाई है.

सोमवार को दुकान बंद रहती थी इसीलिए वह सारा दिन सुहास ने पुरवा के नाम लिख दिया था. सुबह ही कह दिया था कि आज का दिन वह घर से बाहर पुरवा के साथ ही व्यतीत करेगा. पुरवा को भी घूमने का यह प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा था. इसीलिए अपनी साडि़यां खोल कर उस ने सुहास से पूछा, ‘‘सुहास, मैं कौन सी साड़ी पहनूं?’’

सुहास उसी समय नहा कर आया था. तौलिया पलंग पर फेंक कर पुरवा को बांहों में भर लिया और बोला, ‘‘तुम्हारे ऊपर तो सभी कुछ खिलता है. कुछ भी पहन लो.’’

‘‘नहीं, तुम जो बताओगे वही पहनूंगी,’’ पुरवा ने जिद की तो सुहास ने एक नारंगी रंग की साड़ी पर हाथ रख दिया फिर बोला, ‘‘आज एक नई साड़ी भी खरीद लेना.’’

‘‘क्यों?’’ पुरवा ने उस की पसंद की साड़ी अलग करते हुए कहा, ‘‘बहुत साडि़यां हैं, क्या होगा और ले कर.’’

सुहास ने फिर अपनी नाक उस के गालों पर रगड़ते हुए हंस कर कहा, ‘‘क्योंकि हर अच्छे पति और प्रेमी को अपनी पत्नी को हमेशा अच्छीअच्छी भेंट देते रहना चाहिए.’’

‘‘ताकि उस की पत्नी, पति की किसी भी गलत बात पर उंगली न उठाए,’’ पुरवा ने मुसकराते हुए शरारत से कहा.

सुहास कुछ कहने ही जा रहा था कि द्वार पर दस्तक हुई और बेला अंदर आ गई.

‘‘अरे, भाभी आप,’’ सुहास जो लगातार पुरवा को छेड़ रहा था, लजा कर बोला. पुरवा भी झेंप कर अलग हो गई.

‘‘आइए, भाभीजी,’’ पुरवा ने अपनी साडि़यां समेटते हुए कहा.

बेला पलंग पर ही बैठ गई. बहुत थकीथकी सी लग रही थी पर हंसते हुए बोली, ‘‘लगता है कहीं जाने का कार्यक्रम है?’’

‘‘हां भाभी, आज इसे बहुत दिनों बाद घुमाने ले जाने का कार्यक्रम है,’’ सुहास बोला, ‘‘और आप सुनाइए. घर पर सब ठीक- ठाक है न?’’

बेला कुछ संकोच में भर उठी, जैसे सोच रही हो कि कहे या न कहे, बोली, ‘‘हां, ठीक ही हैं.’’

‘‘मैं चाय लाती हूं,’’ पुरवा अचानक कमरे से बाहर चली गई. जाने क्यों बेला को देखते ही उसे लगा था कि अब वह कहीं नहीं जा पाएगी, इसीलिए चाय का बहाना कर के बाहर चली गई थी.

सुहास ने फिर कहा, ‘‘भाभी, लगता है कुछ परेशानी है.’’

‘‘नहीं सुहास, हमारे यहां तो कुछ न कुछ चलता ही रहता है. मैं तो बस, मिलने ही आई थी,’’ बेला का उन दोनों के कार्यक्रम में खलल डालने का कोई विचार नहीं था.

सुहास, बेला के निकट बैठ गया और उस की हथेली प्यार से अपनी हथेलियों में थाम कर बोला, ‘‘भाभी, शादी हो जाने से क्या मैं इतना पराया हो गया हूं कि आप अपनी परेशानी मुझ से छिपा रही हैं.’’

ये भी पढ़ें- अनोखी तरकीब

‘‘नहीं सुहास, तुम सब का तो हमें बहुत सहारा है,’’ बेला बोली.

‘‘तो बताइए न भाभी. आप भी बहुत कमजोर सी लग रही हैं.’’

बेला अचानक रोंआसी हो उठी. बोली, ‘‘भैया, बात यह है कि एक सप्ताह पहले मां को मैं अपने पास ले आई थी. तब तो ठीकठाक थीं. तुम्हारे भाई साहब को टूर पर जाना था सो 2 दिन पहले वह चले गए.’’

‘‘अच्छा. आजकल मैं जल्दी पहुंच नहीं पाता हूं तो पता ही नहीं चला,’’ सुहास बोला, ‘‘फिर क्या हुआ, भाभी?’’

बेला की घबराहट स्पष्ट दिखाई दे रही थी. बोली, ‘‘कल रात मां की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई. उन्हें अस्पताल में भरती किया तो पता चला कि अपेंडिक्स है और आपरेशन करना पड़ेगा.’’

‘‘अरे, आप रात ही फोन कर देतीं,’’ सुहास ने दोबारा सांत्वना देने के लिए बेला की हथेलियां थाम लीं.

‘‘नहीं भैया, हर समय आप को कष्ट देना अच्छा नहीं लगता है. बस, इतना कर दो कि कुछ रुपए का प्रबंध करवा दो. आज बैंक की भी हड़ताल है. आपरेशन के लिए पैसे जमा करवाने हैं.’’

‘‘वह तो सब हो जाएगा, भाभी,’’ सुहास ने कहा. तभी पुरवा चाय ले कर आ गई. पुरवा को देखते ही सुहास ने बेला की हथेलियों की पकड़ छोड़ दी. बेला अनायास ही संकोच से भर उठी थी. पुरवा को कुछ अच्छा नहीं लगा था पर अपने मन को संयत रखते हुए उस ने कहा, ‘‘क्या बात है भाभीजी, आप बहुत परेशान हैं.’’

बेला के बोलने से पहले ही सुहास बोला, ‘‘हां पुरवा, हमें अभी भाभी के साथ जाना होगा. भाई साहब टूर पर गए हैं और भाभी की मां का आपरेशन है.’’

‘‘नहींनहीं, सुहास भैया,’’ बेला पुरवा के चेहरे को देख कर कुछ घबरा सी गई, ‘‘तुम पुरवा के साथ घूमने का कार्यक्रम मत बिगाड़ो. हमें तो बस, रुपए की समस्या आ पड़ी है.’’

‘‘वह भी हो जाएगा भाभी, अभी मम्मी से कह कर लाता हूं पर आपरेशन के समय किसी पुरुष का होना भी बहुत जरूरी है,’’ वह निश्ंिचत हो कर उठ खड़ा हुआ और पुरवा की तरफ देख कर बोला, ‘‘भाभी, हमारी पुरवा बहुत समझदार है. उस के साथ का कार्यक्रम फिर किसी दिन बन जाएगा.’’

पुरवा शांत भाव से खड़ी रही. उसे कुछ कहनेसुनने का अवसर ही कहां दिया था सुहास ने. उस ने संयत स्वर में बेला को चाय देते हुए कहा, ‘‘आप हमारे कार्यक्रम की चिंता मत कीजिए, लीजिए, चाय पी कर ताजा हो लीजिए, तब तक ये रुपए ले कर आ जाएंगे.’’

बेला उस की इन बातों से कुछ संतुष्ट दिखी. थोड़ी देर में दोनों ही चले गए और पुरवा अपनी साडि़यां संभालती वहीं खड़ी रह गई. तभी मां वहां पर आ गईं. पुरवा को उदास देख कर धीरे से बोलीं, ‘‘किसी को मुसीबत में देख नहीं सकता है वह. इनसानियत का तकाजा भी यही था बेटा. तुम तैयार हो जाओ, आज हम दोनों शौपिंग के लिए जाएंगे.’’

‘‘लेकिन मुझे कुछ खरीदना नहीं है, मम्मीजी,’’ पुरवा ने उदासी से कहा.

‘‘लेकिन मुझे तो बहुत कुछ खरीदना है. तैयार हो जाओ, मैं ड्राइवर को गाड़ी निकालने को कहती हूं.’’

मां कमरे से बाहर चली गईं और उदास पुरवा फिर से एक साड़ी खींचने लगी.

कई दिनों तक सुहास बहुत व्यस्त रहा. उसे अपनी दुकान पर जाने का समय भी कम ही मिलता था. पुरवा एकांत में अकसर सोचती थी कि अभी तो हमारे विवाह को कुछ ही महीने गुजरे हैं. सुहास के पास कोई नौकरी भी नहीं है, व्यापार में भी उस का मन नहीं लगता है, फिर भी मेरे लिए उस के पास समय नहीं है.

व्यथित हृदय जाने किनकिन दिशाओं में विचरण करता रहता है. पुरवा का मन भी बहुत भटकने लगा था. कभी सोचती कि सुहास भी तो उन्हीं पतियों की तरह नहीं है जो पत्नी को बस, एक जरूरत की वस्तु मानते हैं पर सुहास जब भी उस के निकट होता तो मन फिर उमंगों से भर उठता. अपनी उलटीसीधी सोच पर स्वयं ही उसे पछतावा भी होता.

उस दिन मां ने बाजार में उस से पूछपूछ कर बहुत सी वस्तुएं उस के लिए खरीद दी थीं. साडि़यां, मेकअप का सामान और कई तरह के इत्र. पुरवा को वह सब पा कर बहुत खुश होना चाहिए था पर वैसा हुआ नहीं. उसे बराबर लगता रहा कि यह सब उसे बहलाने का प्रयास है या शायद सुहास की कमी पर परदा डाला जा रहा है. फिर स्वयं ही चौंक उठती, यह क्या होता जा रहा है उसे. सुहास को उस ने सबकुछ जानतेबूझते प्यार किया है और अब उस में कमी खोजने बैठ जाती है. आखिर, एक दिन उस ने सुहास से फिर कहा, ‘‘मैं नौकरी करना चाहती हूं.’’

सुहास कुछ देर अनसुनी करता रहा, फिर पुरवा ने कुछ क्रोध से कहा, ‘‘सुहास, मैं इतनी देर से तुम से कुछ कह रही हूं.’’

‘‘बहुत फालतू सी बात कह रही हो. मम्मा और पापा नहीं मानेंगे, यह तुम जान चुकी हो,’’ सुहास ने यह बातें जिस ढंग से कही थीं उस से पुरवा एक पल को स्तंभित रह गई. उस आवाज में प्रेमी सुहास का स्वर नहीं था, बल्कि एक पति का दर्प बोल रहा था. सुहास ने ही आगे कहा, ‘‘तुम लगातार यह दिखाना चाहती हो कि हम लोग तुम्हारा खर्च नहीं उठा पा रहे हैं, इसलिए तुम खुद नौकरी कर के अपना जेबखर्च निकालोगी.’’

‘‘यह गलत है. मैं बस, तब तक नौकरी करना चाहती हूं जब तक तुम अपने व्यापार में जम नहीं जाते,’’ पुरवा ने दृढ़ शब्दों में कहा.

‘‘यानी कि तुम मेरी सहायता करना चाहती हो, तो फिर मम्मी और पापा का क्या, जो हर समय मुझे सहायता करना चाहते हैं.’’

‘‘काश, तुम अपने इस सहारे पर लज्जा महसूस करते और अपनी जिम्मेदारी को पहचान पाते,’’ पुरवा ने भी क्रोध में कहा.

‘‘औरत का चरित्र पहचानना बहुत ही कठिन है,’’ सुहास कुछ खीज से बोला, ‘‘अपने मातापिता से सहायता लेने में कैसा आदर्शवाद. ऐसा दंभ पालने का मैं शौकीन नहीं हूं.’’

सुहास कमरे से बाहर चला गया और पुरवा परेशान सी उसे देखती रह गई. यह पति के साथ उस की पहली झड़प थी. उस का मन बहुत व्याकुल हो उठा. यह अचानक जो हो गया, क्या उस ने इतनी गलत बात कह दी थी, इसलिए ऐसा हो गया.

वह सोच में डूब गई. आजकल तो सभी स्त्रियां नौकरी करती हैं. कोई बुरा नहीं मानता तो सुहास क्यों इतना परेशान हो जाता है. मानव जीवन में स्वाभिमान का भी कुछ महत्त्व होता है. यह क्या रस्मों की जंजीरों से जकड़ने की बात होती है. और स्वाभिमान व घमंड तो एकदम अलगअलग भावनाएं हैं.

उस दिन पुरवा दिन भर बहुत व्याकुल रही. सुहास बिना बताए ही कहीं चला गया था. मां ने खाने के समय दुकान पर फोन किया पर वह वहां भी नहीं था. मां ने परिहास करते हुए कहा, ‘‘लग गया होगा कहीं जगत सेवा में. उस का सब से बड़ा शौक तो यही है.’’

पुरवा को जाने क्यों वह परिहास अच्छा नहीं लगा. मन में अनजाने ही एक प्रश्न उभरा, ‘यह शौक है या जीवन के उत्तरदायित्व से दूर भागने का बहाना,’ पर ऊपर से वह शांत रही.

ये भी पढ़ें- कल हमेशा रहेगा- अंतिम भाग

शाम को अचानक ही श्वेता आ गई. गौरव भी साथ में था, दोनों बहुत प्रसन्न लग रहे थे. श्वेता हंसहंस कर बता रही थी कि वह दोनों एक लंबे ट्रिप पर सिंगापुर जा रहे हैं. गौरव को आफिस की तरफ से जाना है और वह श्वेता को भी घुमाने के विचार से ले जा रहा है.

श्वेता को खुश देख कर सभी संतुष्ट थे. बहुत दिनों बाद श्वेता को सब ने इस तरह से हंसतेबोलते देखा था. उस की प्रसन्नता देख कर पुरवा भी अपनी उदासी भूल गई थी. एकांत में मिलते ही पुरवा ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘आज तो हमारी ननद रानी एकदम आकाश में उड़ रही हैं.’’

‘‘हां भाभी, मैं बहुत खुश हूं. आप ने मुझे बहुत अच्छी सीख दी थी. जानती हैं भाभी, सिंगापुर मैं किस तरह जा पा रही हूं.’’

श्वेता की इस खुशी में भी पुरवा को शंका सी कौंध गई थी फिर भी धैर्य से बोली, ‘‘सुनूं तो जरा कि कैसे जा पा रही हो.’’

‘‘हाय भाभी, मेरी सास बहुत अच्छी हैं,’’ श्वेता पुरवा के गले लग गई.

‘‘सास तो मेरी भी बहुत अच्छी हैं,’’ पुरवा ने सहर्ष कहा. श्वेता की खुशी सहज ही है, यह पुरवा जान चुकी थी.

श्वेता पलंग के ऊपर पालथी मार कर बैठ गई और बोली, ‘‘ये मुझे ले थोड़े ही जा रहे थे. वह तो मम्मीजी ने इन से जोर दे कर कहा कि इतना अच्छा मौका है, उसे भी घुमा कर लाओ.’’

पुरवा मुसकरा दी, बोली, ‘‘मां तो मां ही होती हैं, चाहे वह सास का रूप ले लें या मां ही हों. जानती हो श्वेता, तुम्हारे भैया जब बहुत दिनों तक मुझे कहीं घुमाने नहीं ले जाते हैं तब मम्मीजी स्वयं ही मुझे अपने साथ बाहर ले जाती हैं.’’

‘‘हां भाभी, ऐसा ही होता है. अब मैं भी सोचती हूं, यदि सब साथ नहीं होते और ये मुझे कभी पूछना कम कर देते तो कौन इन्हें इन के कर्तव्य की याद दिलाता.’’

पुरवा हंस दी. सोचने लगी, पता नहीं यहां पर मम्मी व पापा सुहास को उस की जिम्मेदारियों के प्रति कितना सतर्क करते हैं कितना नहीं. पर पत्नी होने के नाते यदि वह सुहास का संबल बनना चाहती है तो उसे घर की मर्यादा की डोर से वह क्यों बांधना चाहता है.

कई दिनों से पुरवा का मन बहुत खराब सा हो रहा था. न कुछ खाने की इच्छा होती थी न कुछ काम करने की. समय मिलते ही निढाल हो कर पड़ जाती थी. सुहास ने 1-2 बार पूछा, ‘‘क्या बात है, हरदम उदास बनी रहती हो.’’

पुरवा का मन हुआ कि कहे, हमारे प्यार का मौसम जो इतनी जल्दी बीत गया तो अब उदास तो रहना ही है, पर कहा कुछ नहीं. सुहास ने ही पुन: कहा, ‘‘कुछ दिन को तुम अपने मम्मीपापा के पास क्यों नहीं हो आतीं, मन बदल जाएगा.’’

तभी मां कमरे में आ गईं और बोलीं, ‘‘सुहास, तुम्हें पुरवा के लिए बिलकुल समय नहीं मिलता है, यह अच्छी बात नहीं है.’’

‘‘देखती तो हैं मम्मी, कितना व्यस्त रहता हूं.’’

‘‘कहां व्यस्त रहता है, यही तो पूछ रही हूं. दुकान पर तो अकसर गायब ही रहता है,’’ मां के स्वर में झुंझलाहट थी जो पुरवा को अच्छी लगी.

सुहास मां की बात पर हंस दिया और बोला, ‘‘अब मम्मा, इतनी जल्दी आदतें थोड़े ही बदल जाती हैं. मेरे पड़ोसी दुकानदार सूर्यभानजी को दिल का दौरा पड़ा था, अस्पताल में हैं, उन के लिए भी समय निकालना पड़ता है न.’’

‘‘क्यों, तुम्हारे सिवा उन का और कोई नहीं है जो उन की व उन की दुकान की देखभाल कर सके.’’

मां के स्वर की तल्खी पुरवा पहली बार सुन रही थी. वह जानती है कि सुहास दया का सागर है, पर कई बार अनावश्यक दया भी नई मुसीबतों को जन्म दे जाती है. मां ने ही आगे कहा, ‘‘उन के 2 बेटे हैं, नौकरचाकर हैं, 3 भाई हैं, तुम्हें लगातार अपनी दुकान छोड़ वहीं जमे रहने की क्या जरूरत है?’’

‘‘सौरी, मम्मा,’’ सुहास मां को मनाने का उपक्रम करने लगा, ‘‘अभी जाता हूं न, सीधा दुकान पर ही जाऊंगा.’’

‘‘चलो, नाश्ता कर लो,’’ मां ने दोनों को आदेश दिया और कमरे से बाहर निकल गईं.

नाश्ते की मेज पर एक हादसा और हो गया. पुरवा ने जैसे ही आमलेट का पहला टुकड़ा मुंह में रखा, उस का जी मिचलाने लगा. उस ने कांटा चुपचाप प्लेट में रख कर दलिया का डोंगा अपनी तरफ खींचा तो मां का ध्यान उधर चला गया. बोलीं, ‘‘क्या हुआ पुरवा, आमलेट अच्छा नहीं है?’’

पुरवा ने कुछ परेशानी से उन की तरफ देखा और बोली, ‘‘पता नहीं मम्मीजी, इसे खा कर जी सा मिचला रहा है.’’

मां ने बहुत ध्यान से पुरवा को देखा. तब तक पुरवा एक चम्मच दलिया खा चुकी थी, पर दलिया खा कर भी उसे उबकाई महसूस हुई तो वह सीधा वाश- बेसिन की ओर भागी.

मां ने अर्थपूर्ण दृष्टि सुहास पर टिका दी और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘सुहास, दुकान पर बाद में जाना, पुरवा को पहले डाक्टर के पास ले जाओ.’’

‘‘लेकिन उसे क्या हुआ, अच्छीभली तो है,’’ सुहास टोस्ट कुतरते हुए बोला.

‘‘कुछ खाया नहीं जा रहा है उस से. देखो तो जा कर, शायद उलटी आई है उसे,’’ मां ने सुहास को उठने पर जोर दिया और मजाक के स्वर में बोलीं, ‘‘सारी सेवा बाहर वालों की ही नहीं की जाती है, घर के लोगों के लिए भी कभी भागदौड़ करनी पड़ती है.’’

सुहास परेशान सा वाशबेसिन की ओर बढ़ गया और मां ने वर्मा साहब से मुसकराते हुए कहा, ‘‘बधाई हो आप को, घर में शायद नया मेहमान आने वाला है.’’

सुहास जब से पुरवा को डाक्टर के पास से दिखा कर लाया था तब से ही जानपहचान वालों में उत्साह सा फैल गया था. पुरवा को बहुत आश्चर्य भी हो रहा था कि इतनी जल्दी बाहर वालों को कैसे पता चल गया कि वह गर्भवती है.

सब नातेरिश्तेदार एक के बाद एक कर घर आ रहे थे और मिठाई का शोर मचा रहे थे. कोई कहता, ‘‘आंटी, खाली मिठाई नहीं चलेगी, हमें तो पूरी दावत चाहिए.’’

कोई कहता, ‘‘मिसेज वर्मा, एक बात है. साल के अंदर ही पोता आने वाला है. यह बहुत शुभ शगुन है. बड़ी भाग्यशाली है आप की बहू.’’

पुरवा सोच में डूब जाती, इस में भाग्यशाली होने की क्या बात है, जिन्हें कुछ वर्षों के बाद होता है, भाग्यशाली तो वह ही होते हैं. यह क्या कि जीवन अभी शुरू हुआ और ठीक से संभलना भी नहीं आया कि जिम्मेदारी सिर पर आ पड़ी.

सब से आश्चर्यजनक बात तो पुरवा को तब सुनने में आई जब उस के मम्मी और पापा फलमिठाई ले कर आए. मम्मी प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही थीं. मां से वे अत्यंत गद्गद भाव से कह रही थीं, ‘‘बहनजी, हमारे यहां तो इस तरह की खुशी पहली बार हो रही है. एक बेटा रहा नहीं, दूसरा विदेश में बैठा है. जाहिर है, पुरवा की शादी के बाद अब पहली बार ही हम नानानानी बनने का सौभाग्य प्राप्त करेंगे.’’

‘‘आप ठीक कह रही हैं मिसेज सहाय, हम तो पहले भी दादादादी बन चुके हैं पर फिर भी सुहास छोटा बेटा है. लाडला भी बहुत रहा है, तो इस की खुशी भी कम नहीं है,’’ मां ने भी उत्साह से कहा.

पापा और मम्मी का उत्साह देख कर पुरवा को भी अपने अंदर एक विचित्र सी प्रसन्नता की अनुभूति हो रही थी. तभी मम्मी ने एकदम नई सी बात सुनाई. मां से बोलीं, ‘‘आप को क्या बताऊं मिसेज वर्मा. हमारे एक जानपहचान वाले के यहां उन की बेटी का विवाह है. जब से उन्हें पता चला कि पुरवा गर्भवती है, वह बारबार कहती हैं, ‘बहनजी, आप की बेटी के विवाह में जो हलवाई बैठा था, वही हमें चाहिए. कितना भाग्यवान है वह कि जिस बेटी की शादी में मिठाइयां बनाईं वही बेटी साल के अंदर ही मां बनने वाली है,’’’ सुहास इस बात पर बहुत जोर से हंसा था और पुरवा इस बात पर हैरान भी थी और खुश भी हो रही थी. सुहास ने तभी पुरवा के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘मेहनत किसी की और भाग्यवान कोई और कहला रहा है.’’

ये भी पढ़ें- बेटियां

‘‘हिश…’’ पुरवा लजा कर उठ गई. जब मम्मीपापा एकांत में मिले तो उस ने पूछा, ‘‘आप सब को यह इतनी जल्दी पता कैसे चल गया?’’

पापा मंदमंद मुसकराने लगे. मम्मी ने हंस कर कहा, ‘‘तुम्हें यह भी नहीं मालूम. सुहास ही तो सब को फोन पर बता रहा है.’’

‘‘क्या?’’ पुरवा आश्चर्य से भर उठी.

सुहास के अंतर्मन में यह कैसा बालक छिपा बैठा है. अपना सुख, अपना दुख मन के अंदर छिपा नहीं पाता है. इसी तरह दूसरों का दुख भी उस से सहन नहीं होता है. किसी के भी सुख में सुहास सब से अधिक खुश हो उठता है. पुरवा जब भी इन बातों को सोचती है तब सुहास का भोलापन उसे सुखद आश्चर्य से भर देता है.            -क्रमश:

चिंता की कोई बात नहीं

लेखक-प्रतिमा डिके

औसत से कुछ अधिक ही रूप, औसत से कुछ अधिक ही गुण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा, अच्छी नौकरी, अच्छा पैसा, मनपसंद पत्नी, समझदार, स्वस्थ और प्यारे बच्चे, शहर में अपना मकान.अब बताइए, जिसे सुख कहते हैं वह इस से अधिक या इस से अच्छा क्याक्या हो सकता है? यानी मेरी सुख की या सुखी जीवन की अपेक्षाएं इस से अधिक कभी थीं ही नहीं. लेकिन 6 माह पूर्व मेरे घर का सुखचैन मानो छिन गया.

सुकांता यानी मेरी पत्नी, अपने मायके में क्या पत्र लिखती, मुझे नहीं पता. लेकिन उस के मायके से जो पत्र आने लगे थे उन में उस की बेचारगी पर बारबार चिंता व्यक्त की जाने लगी थी. जैसे :

‘‘घर का काम बेचारी अकेली औरत  करे तो कैसे और कहां तक?’’

‘‘बेचारी सुकांता को इतना तक लिखने की फुरसत नहीं मिल रही है कि राजीखुशी हूं.’’

‘‘इन दिनों क्या तबीयत ठीक नहीं है? चेहरे पर रौनक ही नहीं रही…’’ आदि.

शुरूशुरू में मैं ने उस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया. मायके वाले अपनी बेटी की चिंता करते हैं, एक स्वाभाविक बात है. यह मान कर मैं चुप रहा. लेकिन जब देखो तब सुकांता भी ताने देने लगी, ‘‘प्रवीणजी को देखो, घर की सारी खरीदफरोख्त अकेले ही कर लेते हैं. उन की पत्नी को तो कुछ भी नहीं देखना पड़ता…शशिकांतजी की पसंद कितनी अच्छी है. क्या गजब की चीजें लाते हैं. माल सस्ता भी होता है और अच्छा भी.’’

कई बार तो वह वाक्य पूरा भी नहीं करती. बस, उस के गरदन झटकने के अंदाज से ही सारी बातें स्पष्ट हो जातीं.

सच तो यह है कि उस की इसी अदा पर मैं शुरू में मरता था. नईनई शादी  हुई थी. तब वह कभी पड़ोसिन से कहती, ‘‘क्या बताऊं, बहन, इन्हें तो घर के काम में जरा भी रुचि नहीं है. एक तिनका तक उठा कर नहीं रखते इधर से उधर.’’ तो मैं खुश हो जाता. यह मान कर कि वह मेरी प्रशंसा कर रही है.

लेकिन जब धीरेधीरे यह चित्र बदलता गया. बातबात पर घर में चखचख होने लगी. सुकांता मुझे समझने और मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं थी. फिर तो नौबत यहां तक आ गई कि मेरा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ाने लगा.

अब आप ही बताइए, जो काम मेरे बस का ही नहीं है उसे मैं क्यों और कैसे करूं? हमारे घर के आसपास खुली जगह है. वहां बगीचा बना है. बगीचे की देखभाल के लिए बाकायदा माली रखा हुआ है. वह उस की देखभाल अच्छी तरह से करता है. मौसम में उगने वाली सागभाजी और फूल जबतब बगीचे से आते रहते हैं.

लेकिन मैं बालटी में पानी भर कर पौधे नहीं सींचता, यही सुकांता की शिकायत है, वह चाहे बगीचे में काम न करे. लेकिन हमारे पड़ोसी सुधाकरजी बगीचे में पूरे समय खुरपी ले कर काम करते हैं. इसलिए सुकांता चाहती है कि मैं भी बगीचे में काम करूं.

मुझे तो शक है कि सुधाकरजी के दादा और परदादा तक खेतिहर मजदूर रहे होंगे. एक बात और है, सुधाकरजी लगातार कई सिगरेट पीने के आदी हैं. खुरपी के साथसाथ उन के हाथ में सिगरेट भी होती है. मैं तंबाकू तो क्या सुपारी तक नहीं खाता. लेकिन सुकांता इन बातों को अनदेखा कर देती है.

ये भी पढ़ें- कल हमेशा रहेगा- अंतिम भाग

शशिकांत की पसंद अच्छी है, मैं भी मानता हूं. लेकिन उन की और भी कई पसंद हैं, जैसे पत्नी के अलावा उन के और भी कई स्त्रियों से संबंध हैं. यह बात भी तो लोग कहते ही हैं.

लेदे कर सुकांता को बस, यही शिकायत है, ‘‘यह तो बस, घर के काम में जरा भी ध्यान नहीं देते, जब देखो, बैठ जाएंगे पुस्तक ले कर.’’

कई बार मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन वह समझने को तैयार ही नहीं. मैं मुक्त मन से घर में पसर कर बैठूं तो उसे अच्छा नहीं लगता. दिन भर दफ्तर में कुरसी पर बैठेबैठे अकड़ जाता हूं. अपने घर में आ कर क्या सुस्ता भी नहीं सकता? मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ने पर, मेरे द्वारा शास्त्रीय संगीत सुनने पर उसे आपत्ति है. इन्हीं बातों से घर में तनाव रहने लगा है.

ऐसे ही एक दिन शाम को सुकांता किसी सहेली के घर गई थी. मैं दफ्तर से लौट कर अपनी कमीज के बटन टांक रहा था. 10 बार मैं ने उस से कहा था लेकिन उस ने नहीं किया तो बस, नहीं किया. मैं बटन टांक रहा था कि सुकांता की खास सहेली अपने पति के साथ हमारे घर आई.

पर शायद आप पूछें कि यह खास सखी कौन होती है? सच बताऊं, यह बात अभी तक मेरी समझ में भी नहीं आई है. हर स्त्री की खास सखी कैसे हो जाती है? और अगर वह खास सखी होती है तो अपनी सखी की बुराई ढूंढ़ने में, और उस की बुराई करने में ही उसे क्यों आनंद आता है? खैर, जो भी हो, इस खास सखी के पति का नाम भी सुकांता की आदर्श पतियों की सूची में बहुत ऊंचे स्थान पर है. वह पत्नी के हर काम में मदद करते हैं. ऐसा सुकांता कहती है.

मुझे बटन टांकते देख कर खास सखी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘हाय राम, आप खुद अपने कपड़ों की मरम्मत करते हैं? हमें तो अपने साहब को रोज पहनने के कपड़े तक हाथ में देने पड़ते हैं. वरना यह तो अलमारी के सभी कपड़े फैला देते हैं कि बस.’’

सराहना मिश्रित स्वर में खास सखी का उलाहना था. मतलब यह कि मेरे काम की सराहना और अपने पति को उलाहना था. और बस, यही वह क्षण था जब मुझे अलीबाबा का गुफा खोलने वाला मंत्र, ‘खुल जा सिमसिम’ मिल गया.

मैं ने बड़े ही चाव और आदर से खास सखी और उस के पति को बैठाया. और फिर जैसे हमेशा ही मैं वस्त्र में बटन टांकने का काम करता आया हूं, इस अंदाज से हाथ का काम पूरा किया. कमीज को बाकायदा तह कर रखा और झट से चाय बना लाया.

सच तो यह है कि चाय मैं ने नौकर से बनवाई थी और उसे पिछले दरवाजे से बाहर भेज दिया था. खास सखी और उस के पति ‘अरे, अरे, आप क्यों तकलीफ करते हैं?’ आदि कहते ही रह गए.

चाय बहुत बढि़या बनी थी, केतली पर टिकोजी विराजमान थी. प्लेट में मीठे बिस्कुट और नमकीन थी. इस सारे तामझाम का नतीजा भी तुरंत सामने आया. खास सखी के चेहरे पर मेरे लिए अदा से श्रद्धा के भाव उमड़ते साफ देखे जा सकते थे. खास सखी के पति का चेहरा बुझ गया.

ये भी पढ़ें- बेटियां

मैं मन ही मन खुश था. इन्हीं साहब की तारीफ सुकांता ने कई बार मेरे सामने की थी. तब मैं जलभुन गया था, आज मुझे बदला लेने का पूरापूरा सुख मिला.

कुछ दिन बाद ही सुकांता महिलाओं की किसी पार्टी से लौटी तो बेहद गुस्से में थी. आते ही बिफर कर बोली, ‘‘क्यों जी? उस दिन मेरी सहेली के सामने तुम्हें अपने कपड़ों की मरम्मत करने की क्या जरूरत थी? मैं करती नहीं हूं तुम्हारे काम?’’

‘‘कौन कहता है, प्रिये? तुम ही तो मेरे सारे काम करती हो. उस दिन तो मैं यों ही जरा बटन टांक रहा था कि तुम्हारी खास सहेली आ धमकी मेरे सामने. मैं ने थोड़े ही उस के सामने…’’

‘‘बस, बस. मुझे कुछ नहीं सुनना…’’

गुस्से में पैर पटकती हुई वह अपने कमरे में चली गई. बाद में पता चला कि भरी पार्टी में खास सखी ने सुकांता से कहा था कि उसे कितना अच्छा पति मिला है. ढेर सारे कपड़ों की मरम्मत करता है. बढि़या चाय बनाता है. बातचीत में भी कितना शालीन और शिष्ट है. कहां तो सात जनम तक व्रत रख कर भी ऐसे पति नहीं मिलते, और एक सुकांता है कि पूरे समय पति को कोसती रहती है.

अब देखिए, मैं ने तो सिर्फ एक ही कमीज में 2 बटन टांके थे, लेकिन खास सखी ने ढे…र सारे कपड़े कर दिए तो मैं क्या कर सकता हूं? समझाने गया तो सुकांता और भी भड़क गई. चुप रहा तो और बिफर गई. समझ नहीं पाया कि क्या करूं.

सुकांता का गुस्सा सातवें आसमान पर था. वह बच्चों को ले कर सीधी मायके चली गई. मैं ने सोचा कि 15 दिन में तो आ ही जाएगी. चलो, उस का गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा. घर में जो तनाव बढ़ रहा था वह भी खत्म हो जाएगा. लेकिन 1 महीना पूरा हो गया. 10 दिन और बीत गए, तब पत्नी की और बच्चों की बहुत याद आने लगी.

सच कहता हूं, मेरी पत्नी बहुत अच्छी है. इतने दिनों तक हमारी गृहस्थी की गाड़ी कितने सुचारु रूप से चल रही थी, लेकिन न जाने यह नया भूत कैसे सुकांता पर सवार हुआ कि बस, एक ही रट लगाए बैठी है कि यह घर में बिलकुल काम नहीं करते. बैठ जाते हैं पुस्तक ले कर, बैठ जाते हैं रेडियो खोल कर.

अब आप ही बताइए, हफ्ते में एक बार सब्जी लाना क्या काफी नहीं है? काफी सब्जी तो बगीचे से ही मिल जाती है. जो घर पर नहीं है वह बाजार से आ जाती है. और रोजरोज अगर सब्जी मंडी में धक्के खाने हों तो घर में फ्रिज किसलिए रखा है?

लेकिन नहीं, वरुणजी झोला ले कर मंडी जाते हैं, तो मैं भी जाऊं. अब वरुणजी का घर 2 कमरों का है. आसपास एक गमला तक रखने की जगह नहीं है. घर में फ्रिज नहीं है, इसलिए मजबूरी में जाते हैं. लेकिन मेरी तुलना वरुणजी से करने की क्या तुक है?

बच्चे हमारे समझदार हैं. पढ़ने में भी अच्छे हैं, लेकिन सुकांता को शिकायत है कि मैं बच्चों को पढ़ाता ही नहीं. सुकांता की जिद पर बच्चों को हम ने कानवेंट स्कूल में डाला. सुकांता खुद अंगरेजी के 4 वाक्य भी नहीं बोल पाती. बच्चों की अंगरेजी तोप के आगे उस की बोलती बंद हो जाती है.

यदाकदा कोई कठिनाई हो तो बच्चे मुझ से पूछ भी लेते हैं. फिर बच्चों को पढ़ाना आसान काम नहीं है. नहीं तो मैं अफसर बनने के बजाय अध्यापक ही बन जाता. अपना अज्ञान बच्चों पर प्रकट न हो इसीलिए मैं उन की पढ़ाई से दूर ही रहता हूं. शायद इसीलिए उन के मन में मेरे लिए आदर भी है. लेकिन शकीलजी अपने बच्चों को पढ़ाते हैं. रोज पढ़ाते हैं तो बस, सुकांता का कहना है मैं भी बच्चों को पढ़ाऊं.

पूरे डेढ़ महीने बाद सुकांता का पत्र आया. फलां दिन, फलां गाड़ी से आ रही हूं. साथ में छोटी बहन और उस के पति भी 7-8 दिन के लिए आ रहे हैं.

मैं तो जैसे मौका ही देख रहा था. फटाफट मैं ने घर का सारा सामान देखा. किराने की सूची बनाई. सामान लाया. महरी से रसोईघर की सफाई करवाई. डब्बे धुलवाए. सामान बिनवा कर, चुनवा कर डब्बों में भर दिया.

2 दिन का अवकाश ले कर माली और महरी की मदद से घर और बगीचे की, कोनेकोने तक की सफाई करवाई. दीवान की चादरें बदलीं. परदे धुलवा दिए. पलंग पर बिछाने वाली चादरें और तकिए के गिलाफ धुलवा लिए. हाथ पोंछने के छोटे तौलिए तक साफ धुले लगे थे. फ्रिज में इतनी सब्जियां ला कर रख दीं जो 10 दिन तक चलतीं. 2-3 तरह का नाश्ता बाजार से मंगवा कर रखा, दूध जालीदार अलमारी में गरम किया हुआ रखा था. फूलों के गुलदस्ते बैठक में और खाने की मेज पर महक रहे थे.

इतनी तैयारी के बाद मैं समय से स्टेशन पहुंचा. गाड़ी भी समय पर आई. बच्चों का, पत्नी का, साली का, उस के पति का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया. रास्ते में सुकांता ने पूछा, (स्वर में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं था) ‘‘क्यों जी, महरी तो आ रही थी न, काम करने?’’

ये भी पढ़ें- वंश बेल

मैं ने संक्षिप्त में सिर्फ ‘हां’ कहा.

बहन की तरफ देख कर (उसी रूखे स्वर में) वह फिर बोली, ‘‘डेढ़ महीने से मैं घर पर नहीं थी. पता नहीं इतने दिनों में क्या हालत हुई होगी घर की? ठीकठाक करने में ही पूरे 3-4 दिन लग जाएंगे.’’

मैं बिलकुल चुप रहा. रास्ते भर सुकांता वही पुराना राग अलापती रही, ‘‘इन को तो काम आता ही नहीं. फलाने को देखो, ढिकाने को देखो’’ आदि.

लेकिन घर की व्यवस्था देख कर सुकांता की बोलती ही बंद हो गई. आगे के 7-8 दिन मैं अभ्यस्त मुद्रा में काम करता रहा जैसे सुकांता कभी इस घर में रहती ही नहीं थी. छोटी साली और उस के पति इस कदर प्रभावित थे कि जातेजाते सालीजी ने दीदी से कह दिया, ‘‘दीदी, तुम तो बिना वजह जीजाजी को कोसती रहती हो. कितना तो बेचारे काम करते हैं.’’

सालीजी की विदाई के बाद सुकांता चुप तो हो गई थी. लेकिन फिर भी भुनभुनाने के लहजे में उस के कुछ वाक्यांश कानों में आ ही जाते. इसी समय मेरी बूआजी का पत्र आया. वह तीर्थयात्रा पर निकली हैं और रास्ते में मेरे पास 4 दिन रुकेंगी.

मेरी बूआजी देखने और सुनने लायक चीज हैं. उम्र 75 वर्ष. कदकाठी अभी भी मजबूत. मुंह के सारे के सारे दांत अभी भी हैं. आंखों पर ऐनक नहीं लगातीं और कान भी बहुत तीखे हैं. पुराने आचारव्यवहार और विचारों से बेहद प्रेम रखने वाली महिला हैं. मन की तो ममतामयी, लेकिन जबान की बड़ी तेज. क्या छोटा, क्या बड़ा, किसी का मुलाहिजा तो उन्होंने कभी रखा ही नहीं. मेरे पिताजी आज तक उन से डरते हैं.

मेरी शादी इन्हीं बूआजी ने तय की थी. गोरीचिट्टी सुकांता उन्हें बहुत अच्छी लगी थी. इतने बरसों से उन्हें मेरी गृहस्थी देखने का मौका नहीं मिला. आज वह आ रही थीं. सुकांता उन की आवभगत की तैयारी में जुट गई थी.

बूआजी को मैं घर लिवा लाया. बच्चों ने और सुकांता ने उन के पैर छुए. मैं ने अपने उसी मंत्र को दोहराना शुरू किया. यों तो घर में बिस्तर बिछाने का, समेटने का, झाड़ ू  लगाने का काम महरी ही करती है, लेकिन मैं जल्दी उठ कर बूआजी की चाकरी में भिड़ जाता. उन का कमरा और पूजा का सामान साफ कर देता, बगीचे से फूल, दूब, तुलसी ला कर रख देता. चंदन को घिस देता. अपने हाथ से चाय बना कर बूआजी को देता.

और तो और, रोज दफ्तर जातेजाते सुकांता से पूछता, ‘‘बाजार से कुछ मंगाना तो नहीं है?’’ आते समय फल और मिठाई ले आता. दफ्तर जाने से पहले सुकांता को सब्जी आदि साफ करने या काटने में मदद करता. बूआजी को घर के कामों में मर्दों की यह दखल देने की आदत बिलकुल पसंद नहीं थी.

सुकांता बेचारी संकोच से सिमट जाती. बारबार मुझे काम करने को रोकती. बूआजी आसपास नहीं हैं, यह देख कर दबी आवाज में मुझे झिड़की भी देती. और मैं उस के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए, बूआजी आसपास हैं, यह देख कर उस से कहता, ‘‘तुम इतना काम मत करो, सुकांता, थक जाओगी, बीमार हो जाओगी…’’

बूआजी खूब नाराज होतीं. अपनी बुलंद आवाज में बहू को खूब फटकारतीं, ताने देतीं, ‘‘आजकल की लड़कियों को कामकाज की आदत ही नहीं है. एक हम थे. चूल्हा जलाने से ले कर घर लीपने तक के काम अकेले करते थे. यहां गैस जलाओ तो थकान होती है और यह छोकरा तो देखो, क्या आगेपीछे मंडराता है बीवी के? उस के इशारे पर नाचता रहता है. बहू, यह सब मुझे पसंद नहीं है, कहे देती हूं…’’

ये भी पढ़ें- सोच

सुकांता गुस्से से जल कर राख हो जाती, लेकिन कुछ कह नहीं सकती थी.

ऐसे ही एक दिन जब महरी नहीं आई तो मैं ने कपड़ों के साथ सुकांता की साड़ी भी निचोड़ डाली. बूआजी देख रही हैं, इस का फायदा उठाते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘कपड़े मैं ने धो डाले हैं. तुम फैला देना, सुकांता…मुझे दफ्तर को देर हो रही है.’’

‘‘जोरू का गुलाम, मर्द है या हिजड़ा?’’ बूआजी की गाली दनदनाते हुए सीधे सुकांता के कानों में…

मैं अपना बैग उठा कर सीधे दफ्तर को चला.

बूआजी अपनी काशी यात्रा पूरी कर के वापस अपने घर पहुंच गई हैं. मैं शाम को दफ्तर से घर लौटा हूं. मजे से कुरसी पर पसर कर पुस्तक पढ़ रहा हूं. सुकांता बाजार गई है. बच्चे खेलने गए हैं. चाय का खाली कप लुढ़का पड़ा है. पास में रखे ट्रांजिस्टर से शास्त्रीय संगीत की स्वरलहरी फैल रही है.

अब चिंता की कोई बात नहीं है. सुख जिसे कहते हैं, वह इस के अलावा और क्या होता है? और जिसे सुखी इनसान कहते हैं, वह मुझ से बढ़ कर और दूसरा कौन होगा?      द्य

 

मंजिल

लेखिका- माया प्रधान

पूर्व कथा

पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं.

सुहास की बहन श्वेता को देखने लड़के वाले आते हैं. इंजीनियर लड़के गौरव से श्वेता का विवाह तय हो जाता है. मिठाई  के डब्बे के साथ बहन की सगाई का निमंत्रण ले कर सुहास सहाय साहब के घर जाता है. घर पर बीमार सहाय साहब का हालचाल पूछने उन के मित्र आए होते हैं. सहाय साहब सुहास की तारीफ करते हुए सब को बताते हैं कि वह उस के लिए मोटरपार्ट्स की दुकान खुलवा रहे हैं. सुहास अपनी तारीफ सुन कर खुश होता है.

श्वेता की सगाई पर आए सहाय साहब के परिवार से मकरंद वर्मा परिवार के सभी सदस्य उत्साहपूर्वक मिलते हैं. दोनों परिवारवाले सुहास और पुरवा के रिश्ते से खुश थे.

समय तेजी से गुजरता रहा. सुहास व्यापार शुरू कर देता है, लेकिन कई बार काम के लिए बंध कर बैठना उस के लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि किसी भी जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था.

अंतत: श्वेता के विवाह का दिन आ जाता है. उस दिन पुरवा का सजाधजा रूप देख कर सुहास दीवाना हो जाता है. पुरवा से शीघ्र विवाह करने के लिए सुहास दुकान पर मन लगा कर काम करने लगता है. यह सब देख सहाय साहब खुश थे. आखिरकार वह एक दिन वर्मा साहब के घर पुरवा का रिश्ता ले कर पहुंच जाते हैं. सभी की मौजूदगी और खुशी से पुरवासुहास का रिश्ता पक्का हो जाता है और शीघ्र ही धूमधाम से विवाह हो जाता है.

सुहागसेज पर दोनों हजारों सपने संजोते हैं और हनीमून पर ऊटी जाते हैं. वापस आने पर घर में सब उन का स्वागत करते हैं. इधर श्वेता से बात करने पर पुरवा को पता चलता है कि बड़े परिवार के कारण वह ससुराल में नाखुश है. उधर अपनी व्यवहारकुशलता से पुरवा ससुराल में जल्द ही सब से घुलमिल जाती है. अब आगे…

ये भी पढ़ें-  साधना कक्ष

गतांक से आगे…

पुरवा टोकती, ‘‘तुम दुकान पर क्यों नहीं जाते हो, मुझे भी अंधमहाविद्यालय जाना है.’’

‘‘पुरवा, दुकान और विद्यालय तो अपनी जगह पर स्थिर हैं, कहीं भाग नहीं जाएंगे पर यह सुनहरे दिन फिर कभी लौट कर नहीं आएंगे,’’ सुहास उसे बांहों में भर कर उत्तर देता.

पुरवा को लगता कि सुहास ठीक ही कह रहा है, यह नयानया उत्साह फीका पड़ने से पहले ही इन पलों को जी भर कर जी लेना चाहिए. उसे सुहास के प्यार पर गर्व होने लगता.

एक शाम सागर और बेला आ धमके और आते ही बेला सुहास के कमरे में पहुंच गई. सुहास उस समय शीशे के सामने संवरती हुई पुरवा के बालों में बड़े प्यार से ब्रश फेर रहा था.

‘‘वाह देवरजी वाह, यहां अचानक न आती तो आप का यह अनोखा प्यार कैसे देख पाती,’’ बेला ने अंदर आते हुए कहा.

सुहास लजा कर हंस दिया और बोला, ‘‘आइए भाभी, आज हम आप के घर ही आने वाले थे.’’

‘‘आप ने याद किया और हम हाजिर हो गए,’’ बेला ने मुसकरा कर कहा. पुरवा ने भी हंसने का प्रयास किया पर उस के चेहरे पर हल्का सा तनाव साफ दिखाई दे रहा था. बेला का यों निसंकोच उस के निजी कमरे में घुस आना उसे अच्छा नहीं लगा था. बेला ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया और दोनों से ही हनीमून को ले कर चुहल करती रही.

सागर ड्राइंगरूम में ही बैठे थे अत: सब को वहीं जाना पड़ा. चाय के बीच अचानक सागर ने कहा, ‘‘सुहास, थोड़ा समय निकाल पाओगे क्या?’’

‘‘क्यों भाई साहब, कोई खास बात?’’ सुहास ने पूछा.

‘‘वह मेरे ताऊजी का छोटा बेटा है न तरुण, उसे कैंसर अस्पताल ले जाना है,’’ सागर ने उदासी से कहा.

‘‘अरे, उसे कैंसर है?’’ सुहास आश्चर्य से बोला.

‘‘है या नहीं, यही तो सही से मालूम नहीं पड़ रहा है. डाक्टर कहते हैं कि ठीक से पता चल जाए तो अभी इलाज संभव है. अभी तो उस की दशा देख कर डाक्टरों को कैंसर का शक है,’’ बेला ने भी बुझे स्वर में कहा.

‘‘मैं जरूर चलूंगा भाई साहब. आप जितना जल्दी हो सके उन्हें ले चलिए,’’ सुहास ने बहुत आतुरता से कहा.

पुरवा ने देखा कि सुहास कैसे दूसरों के दुख में व्याकुल हो उठता है. कुछ अच्छा लगा और कुछ उदास भी हो गई. इतनी देर से वह इस माहौल में अपनेआप को अपरिचित सा अनुभव कर रही थी. सागर व बेला के साथ सुहास घर से जो गया तो रात को ही वापस लौटा. पुरवा को उस समय उस का जाना बुरा नहीं लगा था, पर जब सारा दिन उस की प्रतीक्षा में बीत गया तो उस के मन में विचित्र सी खिन्नता भर गई. क्या सुहास समाजसेवा के आगे बाकी सारी जिम्मेदारियां भूल जाता है?

ये भी पढ़ें- एक नंबर की बदचलन

कहां तो उस के प्यार में डूब कर वह अपनी दुकान पर जाना भी भूल गया था, कहां सारा दिन उस की याद भी नहीं आई. सुहास ने अपनी थकान जाहिर करते हुए उसे देखा और बोला, ‘‘बहुत देर हो गई न. अंकल का दुख देखा नहीं जा रहा था. सागर भैया के साथ मैं बराबर बना रहा तो उन सब को भी बहुत तसल्ली थी.’’

पुरवा चुपचाप उस के उतारे कपड़े तह करती रही और सुहास अपने वहां होने के महत्त्व पर भाषण देता रहा.

रात में सोने से पहले पुरवा ने कहा, ‘‘सुहास, तुम्हें कुछ समय अपने व्यापार को भी देना चाहिए. कोई भी काम नौकरों के भरोसे ठीक से नहीं होता है.’’

‘‘मुझे पता है पुरु. कल मैं दुकान पर भी जाऊंगा. अभी तो बस, हमारे प्यार की घड़ी को याद करने दो,’’ और इसी के साथ सुहास ने पुरवा को अपनी बांहों में खींच लिया.

एक दोपहर श्वेता अचानक ही अपना सूटकेस उठाए घर आ गई. रजनीबाला उसे देख कर खिल उठीं.

‘‘अरे श्वेता, अचानक…’’

‘‘हां,’’ श्वेता के चेहरे पर खीज भरी हुई थी. वह कुछ कहना चाह रही पर बिना कुछ कहे ही वह अपने पहले के कमरे में घुस गई. पुरवा मेज पर खाना लगा रही थी. श्वेता को विचित्र स्थिति में कमरे की तरफ जाते देखा तो पीछेपीछे हो ली और हंसते हुए बोली, ‘‘यह क्या ननद रानी, सूटकेस तो कोई भी नौकर अंदर रख देता, तुम तो हमें देखे बिना ही अंदर भाग आईं.’’

श्वेता बनावटी हंसी के साथ बोली, ‘‘नहीं भाभी, किसी के ऊपर गुस्सा चढ़ा हुआ था, सो इधरउधर कहीं ध्यान ही नहीं दिया.’’

‘‘अच्छा,’’ पुरवा ने प्यार से उस की ठुड्डी उठाई, ‘‘कहीं यह गुस्सा हमारे ननदोईजी पर तो नहीं है?’’

श्वेता हंस दी, तभी मां रजनी वहां आ गईं. पुरवा ने हंस कर कहा, ‘‘कल से मम्मी तुम्हें बहुत याद कर रही थीं. चाहत तुम्हें खींच ही लाई.’’

पुरवा ने मां के सामने प्यार की  चादर डाल स्थिति को सहज बना दिया था.

उस दिन बहुत कहने पर सुहास अपनी दुकान पर गया था. पुरवा ने उसे फोन किया और कहा, ‘‘सुहास, डाइनिंग टेबल पर खाना लग गया है और इत्तेफाक से श्वेता भी आई है. तुम भी आ जाओ.’’

सुहास के आसपास उस समय कोई नहीं था इसलिए परिहास करता हुआ बोला, ‘‘आखिर तुम भी हर पल मुझे देखे बिना रह नहीं सकतीं न?’’

श्वेता खाना खाते समय भी बहुत अनमनी रही. पुरवा ने मलाई कोफ्ते का डोंगा उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘श्वेता, मुझे बहुत अच्छा खाना बनाना तो नहीं आता पर कोशिश की है, यह मलाई कोफ्ता बनाने की. जरा चख कर बताना कि अभी और क्या कमी है इस में.’’

श्वेता उस की इस बात पर शायद चिढ़ गई थी. एक कोफ्ता निकाल कर बोली, ‘‘बस यही तो कमी है मुझ में भाभी कि तुम्हारी तरह मैं लच्छेदार बातें नहीं कर पाती. तभी तो वहां मुझ में सभी मीनमेख निकालते रहते हैं.’’

सब ने एकसाथ श्वेता को देखा था. सुहास को शायद बुरा लगा था, झट से बोला, ‘‘श्वेता, वहां का गुस्सा तुम क्या पुरवा पर निकाल रही हो?’’

पुरवा ने हाथ से उसे रोका और बोली, ‘‘कहने दो सुहास, अपनों से ही मन का दुख कहा जाता है.’’

‘‘बस, यही तो…’’ श्वेता चिढ़ कर उठ गई, ‘‘हर समय बहुत अच्छे बने रहने का स्वांग, न मुझ से होता है न पसंद है.’’

श्वेता दनदनाती हुई कमरे में चली गई. रजनी ने क्रोध से पुकारा, ‘‘श्वेता यह क्या, खाने पर से ऐसे ही उठ कर जाते हैं?’’

बुरा तो पुरवा को भी लगा था पर उसे श्वेता के बचकाने स्वभाव के बारे में थोड़ाबहुत पहले से ही अंदाजा था.

‘‘असल में हम लोगों के लाड़प्यार ने ही इसे बिगाड़ दिया. इकलौती बेटी जो है, इसीलिए इस की हर बात हम दोनों तुरंत मान लेते थे,’’ मां रजनी ने पुरवा को जैसे सफाई दी. उन की आंखों में वेदना भी थी और ममता भी. बोलीं, ‘‘लगता है इस का जिद्दी स्वभाव ससुराल में भी इस के आड़े आ रहा है.’’

पुरवा और सुहास चुपचाप खाना खाते रहे. मां ने एक प्लेट में कुछ चीजें परोसीं और प्लेट ले कर श्वेता को मनाने चल दीं. सुहास धीरे से बोला, ‘‘अब भी तो बिगाड़ ही रही हो मां. ससुराल में कोई खाना ले कर यों पीछे थोड़े ही भागता होगा.’’

‘‘जानती हूं रे, पर मां का दिल मानता नहीं. जब तक वह नहीं खाएगी, मुझ से भी नहीं खाया जाएगा.’’

शाम को अचानक गौरव आ गया. मां खुश हो गईं और बोलीं, ‘‘हम लोग तुम्हें ही याद कर रहे थे बेटा. श्वेता तो बच्ची है, अभी तक नासमझ. आई है तब से तुम्हें फोन भी नहीं किया.’’

‘‘वह तो रूठती ही रहती है मम्मीजी, मैं मना लूंगा उसे,’’ उस ने हंस कर कहा.

पुरवा चाय की तैयारी करने लगी. गौरव श्वेता के कमरे में था. रजनी ने पुरवा से कहा, ‘‘कितना अच्छा लड़का ढूंढ़ा है पर जब देखो नादानियां दिखाती रहती है.’’

‘‘कुछ दिन में समझदार हो जाएगी, फिर नादानी नहीं करेगी,’’ पुरवा ने जैसे मां को सांत्वना देने के लिए हंस कर कहा.

‘‘तुम भी तो नई हो, पर कितनी समझदार हो,’’ मां ने कहा तो पुरवा गद्गद हो उठी. केतली में चाय का पानी डालते हुए वह बोली, ‘‘कभी ऐसी भूलचूक हो जाए मम्मीजी तो कान पकड़ लीजिएगा.’’

पुरवा फिर से यदाकदा अंध महाविद्यालय जाने लगी थी. मां ने भी आज्ञा दे दी थी कि यह तो समाज कल्याण का काम है, बंद मत करो. बहुत दिनों से पुरवा ने बस यात्रा नहीं की थी. उस दिन अपने पुराने रूट वाली बस में बैठी तो पुरानी यादों में खो गई. यादों की तंद्रा तो तब टूटी जब कानों में यह सुनाई पड़ा, ‘‘ए मिस्टर, आप ठीक से खड़े नहीं हो सकते?’’

आवाज सुन कर पुरवा चौंक उठी. दरवाजे के पास की भीड़ में चेहरे दिखाई नहीं दे रहे थे, पर आवाज तो पहचानी हुई थी. पुरवा सोच में पड़ गई कि वह सुहास बस में क्या कर रहा है. इस समय तो उसे अपनी दुकान में होना चाहिए था.

बड़ी कठिनाई से जगह बनाती हुई पुरवा आगे बढ़ी तो देखा कि सुहास बेला के साथ बस के दरवाजे पर खड़ा है और एक नवयुवक से उलझ रहा है. शायद उस ने बेला के साथ कुछ शरारत की होगी. एकदम निकट पहुंच कर पुरवा ने आवाज दी तो सुहास चौंक पड़ा, ‘‘अरे, तुम.’’

‘‘हां,’’ पुरवा ने अधिक बात नहीं की, बस रुकी तो तीनों ही उतर गए. सुहास की गोद में बेला का बच्चा था. सफाई देता सा वह झट से बोला, ‘‘मैं दुकान के लिए निकलने ही वाला था कि सागर भैया का फोन आ गया. उन्हें जरूरी मीटिंग में जाना था और इसे आज डाक्टर के पास चेकअप के लिए ले जाना था.’’

पुरवा सोचने लगी कि अभी थोड़ी देर पहले ही तो वह सुहास को घर पर छोड़ कर आई थी. तब वह दुकान के कुछ काम के सिलसिले में किसी से मिलने जाने वाला था. इतनी जल्दी वह बेला को ले कर डाक्टर के पास भी चल दिया, उस ने लगभग 45 मिनट ही तो बस की प्रतीक्षा की थी, बसें भरी हुई आ रही थीं इसीलिए उस ने दो बसें छोड़ दी थीं. शायद सुहास दो बसें बदलता हुआ आया है तभी यहां दोनों की टक्कर हो गई.

जाने क्यों पुरवा के मन में कुछ चुभ सा रहा था. लाख मन को समझाया कि सुहास की इस सहायता करने वाली भावना के कारण ही तो वह स्वयं सुहास के जीवन में आई है, पर मन इसे सोच कर भी संतुष्ट नहीं हो पा रहा था. एक पत्नी का अधिकार निरंतर पुरवा के मन को भरमा रहा था, पर ऊपर से वह संयत बनी हुई खुद भी साथ चलने का आग्रह करने लगी थी. इस पर सुहास ने कहा, ‘‘तुम बहुत दिनों बाद अंध विद्यालय जा रही हो, वहीं जाओ, मैं इस बच्चे को दिखा कर और भाभी को बस में बैठा कर सीधा अपने काम पर चला जाऊंगा.’’

सुहास जैसेजैसे अपने काम की देखभाल करने लगा था पुरवा उतनी ही खुश रहने लगी थी. मां व पापा भी खुश हो कर कहते, ‘‘बहू के आने से सुहास का काम में भी मन लगने लगा है.’’

पुरवा एक अच्छी पत्नी की तरह सुहास का पूरा ध्यान रखती और घर की पूरी व्यवस्था संभालने के साथ मां व पापा का भी ध्यान रखती. कभी अपने मम्मीपापा के पास जाती तो उत्साह से भरी रहती. सहाय साहब भी यह जान कर संतुष्ट होते कि सुहास अब व्यापार की तरफ ध्यान देने लगा है.

एक दोपहर हाथ में अटैची उठाए हुए श्वेता फिर आ धमकी. रजनीबाला ने चौंक कर देखा और बोलीं, ‘‘कैसी हो श्वेता, सब ठीक तो है न?’’

मां के मुख से यह शब्द निकलते ही श्वेता उन के गले लग कर रोने लगी और बोली, ‘‘मैं वापस नहीं जाऊंगी मम्मी, अब की मुझे वापस भेजने की जिद मत करना.’’

तब तक पुरवा भी वहां आ गई थी और श्वेता को मां के गले से अलग करती हुई बोली, ‘‘चलो, अपने कमरे में चलो श्वेता, सब ठीक हो जाएगा.’’

उस समय किसी ने श्वेता से कोई प्रश्न नहीं किया. पुरवा भी समझ चुकी थी कि जब श्वेता क्रोध में होती है तब उस से कुछ भी कहनासुनना व्यर्थ होता है.

पुरवा तुरंत उस के लिए ठंडा जूस बना कर ले आई और बहुत प्यार से उस के आंसू पोंछती रही. मां बहुत परेशान थीं पर इस समय कुछ भी पूछना उन्हें भी उचित नहीं लग रहा था, अत: उस दिन श्वेता से किसी ने कोई प्रश्न नहीं पूछा और न ही श्वेता के ससुराल से कोई फोन आया.

पुरवा ने एकांत में सुहास से कहा, ‘‘गौरव का कोई फोन नहीं आया, कहीं उन से तो लड़ कर नहीं आई है श्वेता?’’

ये भी पढ़ें- बहादुर लड़की मिसाल बनी

सुहास उस दिन बहुत थका हुआ था. अपने व्यापार के सिलसिले में उस ने काफी भागदौड़ की थी. पुरवा की बात पर हंस कर बोला, ‘‘तुम चिंता मत करो, यह लड़की बचपन से ही थोड़ी नकचढ़ी है. कुछ दिनों में फिर शांत हो कर गौरव से दोस्ती कर लेगी.’’

2 दिन बीत गए थे. गौरव नहीं आया था और न ही उस का कोई फोन आया तो रजनीबाला को चिंता होने लगी. वह श्वेता से पूछतीं, ‘‘ऐसी क्या बात है जो न तू खुद फोन करती है और न गौरव का फोन आता है.’’

श्वेता नाश्ता करते हुए कहने लगी, ‘‘मम्मा, यह बताओ कि क्या अब मैं यहां रह नहीं सकती हूं?’’

‘‘यह तेरा घर है, तुझे रहने के लिए कौन मना कर रहा है,’’ रजनीबाला बोलीं, ‘‘लेकिन इस तरह से तेरा रूठ कर आना और उन लोगों की तरफ से भी सन्नाटा खिंचे रहना, यह परेशान तो करता ही है न.’’

‘‘तुम सब को परेशान होने की जरूरत नहीं है. हम पतिपत्नी आपस में ही निबट लेंगे,’’ श्वेता ने निश्चिंतता से कहा.

‘‘पर बिना आपस में मिले और बात किए कैसे निबट लोगी?’’ यह स्वर पापा का था जो बहुत देर से चुपचाप नाश्ता कर रहे थे. वह फिर बोले, ‘‘ठीक है, आज मैं गौरव को फोन कर के घर पर बुलाता हूं.’’

श्वेता शांत रही. सब को लगा कि शायद यही ठीक है.

शाम को 6 बजे गौरव आया तो श्वेता को छोड़ कर सभी अंदर ही अंदर यह सोच कर बहुत भयभीत थे कि पता नहीं श्वेता क्या गलती कर के आई है. गौरव के मन में क्या होगा, यह सब जानने की उत्सुकता भी थी और भय भी था पर ऊपर से सब शांत थे और गौरव का स्वागत करते हुए निरंतर हंसने का प्रयास कर रहे थे. पापा ने तुरंत कहा, ‘‘आओ बेटा गौरव, आओ. मैं ने सोचा कि आज सब एकसाथ ही रात्रिभोज पर गपशप करते हैं.’’

गौरव भी हंस दिया और बोला, ‘‘अच्छा है पापाजी, एकसाथ मिल कर बैठने से बड़ी से बड़ी परेशानियां और समस्याएं हल हो जाती हैं.’’

कुछ देर ड्राइंगरूम में इधरउधर की गपशप चलती रही. नौकर ट्राली में चाय ले कर आ गया था और पुरवा सब को चाय बना कर दे रही थी. पापा ने चाय पकड़ते हुए गौरव से कहा, ‘‘श्वेता हमारी इकलौती बेटी है, इसी से थोड़ी जिद्दी हो गई है. गौरव बेटा, उस की नादान बातों का बुरा मत माना करो.’’

यद्यपि श्वेता ने क्रोध से पापा की ओर देखा था. फिर भी वह बेटी की नादानियों की सफाई सी देते रहे. तब गौरव ने कहा, ‘‘पापाजी, मैं सब समझता हूं, मैं इसे बहुत प्यार भी करता हूं, पर इस के लिए मैं अपने बूढ़े मातापिता और भाईबंधु के परिवार को नहीं छोड़ सकता.’’

गौरव की बात सुन कर सभी अचानक चौंक पड़े थे. चाय बनाती पुरवा भी ठिठक गई थी, गौरव ने आगे कहा, ‘‘आप श्वेता से ही पूछिए कि इस ने मेरे साथ रहने की क्या शर्त रखी है.’’

गौरव के शब्दों में अथाह दुख था. वह बोला, ‘‘यह चाहती है कि मैं अपना अलग घर ले कर रहूं. एक ही शहर में पिता की उतनी बड़ी कोठी छोड़ कर मैं एक किराए का मकान लूं.’’

ये भी पढ़ें- अनोखी तरकीब

श्वेता सिर झुकाए बैठी थी. मां ने कहा, ‘‘यह गलत है श्वेता, तुम्हें ऐसी बातें शोभा नहीं देती हैं.’’

‘‘लेकिन मैं उस भीड़ के साथ नहीं रह सकती, सब अपनीअपनी चलाते हैं, वहां मेरा अपना कुछ भी नहीं है.’’

‘‘अपने ससुराल वालों को भीड़ कहते हुए तुम्हें शर्म आनी चाहिए श्वेता. वे सब तुम्हारे सुखदुख के साथी हैं. अकेले की जिंदगी भी कोई जिंदगी है,’’ पापा ने क्रोध से कहा.

मां की आंखों में भी अपार दुख छा गया था. बोलीं, ‘‘ऐसा सोचना ही गलत है बेटा. अगर इसी तरह पुरवा भी सोचने लगे तो तुम्हें या हम सब को कैसा लगेगा.’’

मां की बात पर श्वेता और भी भड़क उठी, ‘‘भाभी, कैसे यह सब सोच सकती हैं. सुहास भैया कमाते ही क्या हैं जो वह अलग रहने की बात करेंगी.’’

श्वेता की बात पर अचानक ही वहां खामोशी छा गई थी. गौरव भी हैरान था और सुहास लज्जित हो उठा था. मां व पापा अपना क्रोध दबाने का प्रयास कर रहे थे. पुरवा वहां रुकी नहीं और सिर झुका कर अपने कमरे में चली गई.

-क्रमश:

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें