लेखक-  माया प्रधान

गतांक से आगे...

मांपापा भी बहुत चिंतित थे, कम से कम फोन ही किया होता. मां ने पुरवा को बच्चे का वास्ता दे कर जबरन खाना खिला दिया था. पापा बारबार कह रहे थे, ‘‘बहुत ही लापरवाह होता जा रहा है.’’ पुरवा के मन में भी उथलपुथल थी. प्रतीक्षा करतेकरते ही उस की आंख लग गईं. रात 11 बजे के बाद सुहास आया तो मां व पापा ने प्रश्नों की बौछार कर दी. पुरवा कमरे में थी पर ऊंची आवाज से उस की नींद टूट गई. मन ही मन में विचित्र सी शंका उसे भयभीत करने लगी. वह कौन से कारण अब जन्म ले रहे हैं जिन की वजह से यहां के शांत वातावरण में अकसर भूचाल सा आने लगा है.

सुहास जब कमरे में आया तो पुरवा के कुछ पूछने से पहले ही बोला, ‘‘अब तुम भी मत शुरू हो जाना. मैं कोई डिस्को करने नहीं गया था, न दोस्तों के साथ जुआ खेलने और शराब पीने गया था.’’

‘‘मुझे मालूम है,’’ पुरवा ने सीधा उस की आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘खाना लगाऊं?’’

सुहास ने पलंग पर बैठते हुए जूते और मोजे इधरउधर उछाल दिए और थके हुए स्वर में बोला, ‘‘तुम ने खाया या नहीं?’’

‘‘मां बिना खाए रहने कहां देती हैं, उन का पोता भूखा नहीं रहना चाहिए,’’ पुरवा ने उस की उदासी दूर करने के विचार से मुसकरा दिया, पर सुहास उलझन में था. बोला, ‘‘कुछ थोड़ा सा यहीं ला दो, बाहर जाने का मतलब है फिर से भाषण सुनना.’’

पुरवा ने चकित दृष्टि से उसे देखा. ऐसी भाषा मां व पापा के लिए कब से सीख ली सुहास ने. धीरे से बोली, ‘‘एक फोन कर देते तो कोई चिंता नहीं होती किसी को.’’

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