भाग-1

लेखक- रेनू मंडल

‘‘21वीं सदी में रातदिन हम अपने को आधुनिक और प्रगतिशील होने का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन समाज में यदि एक विधवा स्त्री के विवाह को ले कर शोर मचाया जाए, अड़चनें डाली जाएं तो मुझे ऐसे समाज पर, लोगों की बौद्धिक परिपक्वता पर शक होता है,’’ आवेश भरे स्वर में मैं बोला था.

‘‘बेटे, ऐसी ऊंचीऊंचीं बातें भाषणों में बोलने के लिए होती हैं, आम जीवन में उतारने के लिए नहीं. क्या कहा तुम ने, शक होता है, लोगों की बौद्धिक परिपक्वता पर, यानी मैं और तुम्हारी मां बौद्धिक रूप से परिपक्व नहीं हैं,’’ पिताजी ने अपनी लाललाल आंखों से मुझे घूरा.

‘‘क्या भैया, आप भी बस, दुनिया की सारी लड़कियां क्या मर गई हैं जो आप एक विधवा से विवाह करना चाहते हैं,’’ मेरी छोटी बहन सीमा भी मुझे ताना मारने से नहीं चूकी थी.

दिल चाहा था कि चिल्ला कर कहूं, विधवा क्या हाड़मांस की बनी नहीं होती, उस के सीने में दिल नहीं होता, उस में भावनाएं और संवेदनाएं नहीं होतीं किंतु प्रकट में मैं खामोश बैठा एकटक उन सब का चेहरा देखता रहा जिन के  मन में मेरी भावनाओं की कोई कीमत नहीं थी.

वहां से उठ कर मैं अपने कमरे में आ गया. मां खाने के लिए बुलाने आईं तो मैं ने सिरदर्द का बहाना बना कर उन्हें वापस भेज दिया. उस रात देर तक मुझे नींद नहीं आई और 2 साल पहले की एक घटना चलचित्र बन कर आंखों के आगे घूम रही थी.

जीवन बीमा निगम में प्रमोशन पा कर मैं देहरादून आया था. रोज की तरह उस सुबह भी मैं बालकनी में बैठ कर चाय पीते हुए कुदरती दृश्यों में खोया था कि सहसा मेरी नजर सामने वाले घर की बालकनी पर पड़ी, जहां मेरी कल्पना की रानी साकार रूप लिए खड़ी थी. मैं मंत्रमुग्ध सा देर तक पौधों में पानी देती उस युवती के रूपसौंदर्य में खोया रहा. तभी कालबेल की आवाज ने मुझे चौंका दिया.

दरवाजा खोला, मेरा मित्र सौरभ, जो अब मेरा बहनोई भी है, आया था. उसे देखते ही मैं ने कहा, ‘तू बिलकुल ठीक समय पर आया है. जल्दी इधर आ. तुझे तेरी होने वाली भाभी से मिलवाऊं,’’ और सामने की ओर मैं ने इशारा किया.

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‘सचमुच तेरी पसंद लाजवाब है. कौन है यह लड़की और तुझे कब मिली?’

‘यह कौन है, नाम क्या है, यह मैं नहीं जानता पर कब मिली…तो भाई, अभी 2 मिनट पहले दिखाई दी है पर सौरभ, तू यह रिश्ता पक्का समझ, यार.’

‘तो भाई, लगेहाथों यह भी बता दो कि शादी का मुहूर्त कब का निकला है?’

‘बस, पंडितजी के आने की देर है, वह भी निकल आएगा,’ इतना कहते- कहते मैं और सौरभ खिलखिला कर हंस पड़े थे.

मैं सामने वाले घर में जाने का कोई मुनासिब बहाना तलाश ही रहा था कि मेरी यह समस्या अपनेआप ही हल हो गई थी. एक सुबह गेट खोल कर एक सज्जन अंदर आए और बोले, ‘बेटा, मेरा नाम शिवकांत है. तुम्हारे सामने वाले घर में रहता हूं और आज तुम्हें एक तकलीफ देने आया हूं.’

‘आप बैठिए, प्लीज,’ प्रसन्न मन से उठ कर उन की ओर कुरसी बढ़ाते हुए मैं बोला, ‘जी, कहिए.’

‘मैं ने सुना है कि तुम जीवन बीमा निगम में काम करते हो. शायद तुम्हें पता हो, 2 माह पहले ही मेरे इकलौते बेटे की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. मेरे बेटे मनीष ने अपना 1 लाख रुपए का बीमा करवा रखा था. मैं चाहता हूं कि तुम उस की पत्नी को जल्दी से जल्दी वह रकम दिलवाने में मेरी मदद करो.’

इतना कह कर उन्होंने एक लिफाफा मेरी ओर बढ़ाया जिस में पालिसी बांड रखा था.

आफिस  जा कर मैं ने मनीष की पालिसी के बारे में पता किया. शाम को शिवकांतजी के घर उन की बहू के हस्ताक्षर करवाने गया तो उन की लड़की को भी करीब से देखने की तमन्ना दिल में कहीं न कहीं छिपी हुई थी.

शिवकांतजी और उन की पत्नी के सामने एक फार्म रख कर मैं बोला, ‘अंकल, इस पर भाभीजी के हस्ताक्षर करवा दीजिए ताकि मैं चेक इश्यू करवा सकूं.’

‘आरती बेटे, जरा यहां आना,’ शिवकांतजी ने आवाज लगाई. अगले ही पल ड्राइंगरूम की तरफ से मुझे कदमों की आहट आती सुनाई दी. परदा हटा और उस खूबसूरत चेहरे को देख कर मेरे मन की वीणा के तार यह सोच कर झंकृत हो उठे कि जरूर यह शिवकांतजी की बेटी होगी लेकिन शिवकांतजी ने जब यह कहते हुए परिचय कराया कि यह मेरी बहू आरती है तो मुझे सहसा उन की बातों पर विश्वास न हुआ.

आरती के हस्ताक्षर करवा कर मैं जल्दी ही वहां से वापस चला आया पर 2 दिनों तक मन बुझाबुझा रहा. आरती की उदास, गमगीन सूरत आंखों में तैरती रही.

तीसरे दिन सौरभ के साथ मैं शाम को मालरोड पर घूम रहा था तो वह पूछ बैठा कि भाई, पंडितजी ने शादी का कब मुहूर्त निकाला है?

उस की तरफ प्रश्न भरी नजरों से देखते हुए मैं ने आरती के बारे में बताया और इस बारे में जो सोचा था वह सब भी बताया तो वह गंभीर हो गया. कुछ देर रुक कर सौरभ बोला, ‘भाई, समाज को देखते हुए तो मैं भी यही कहूंगा कि तुम उस का खयाल छोड़ दो. तुम्हारे परिवार में एक विधवा को कोई भी स्वीकार नहीं करेगा.’

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‘नहीं सौरभ, मैं ने आरती को ले कर जो फैसला किया है वह खूब सोचसमझ कर किया है. विधवा है तो क्या हुआ? मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’

‘मैं हर हाल में तेरे साथ हूं,’ सौरभ ने मेरा हौसला बढ़ाया.

एक सप्ताह बाद बीमा कंपनी का चेक ले कर मैं आरती के घर पहुंचा. चेक थामते ही शिवकांतजी की आंखों में आंसू आ गए. मैं ने उन्हें दिलासा दिया और कुछ देर बाद जाने लगा तो शिवकांतजी बोले, ‘बेटा, कभीकभी आते रहना.’

एक दिन आरती के साथ एक डाक्टर को घर से निकलते देखा तो मैं अपने को रोक न सका और पास जा कर पूछा, ‘क्या बात है, आरती? यह डाक्टर क्यों आया था?’

‘पापा को तेज बुखार है. आप अंदर बैठिए, मैं दवा लेने जा रही हूं.’

‘लाओ, परचा मुझे दो. दवाइयां मैं ला दूंगा,’ मैं अधिकारपूर्वक बोला.

बाद के 3 दिनों तक मैं रोज फल ले कर वहां जाता रहा. मेरे जाने से उन के घर का बोझिल वातावरण हलका हो जाता. कभी मैं उन्हें अपने आफिस के दिलचस्प किस्से सुनाता तो कभी चुटकुले सुना कर उन्हें हंसाता. धीरेधीरे वे लोग इस दुख से उबरने लगे.

एक शाम मैं शिवकांतजी के घर पहुंचा तो पता चला कि वह पत्नी के साथ कहीं गए हैं. मैं ने वहां रुकना मुनासिब नहीं समझा. वापस जाने को ज्यों ही पलटा कि आरती ने यह कहते हुए रोक लिया कि मम्मीपापा आते ही होंगे तबतक आप एक कप कौफी पी लीजिए.

कौफी पीते हुए मैं ने कहा, ‘आरती, क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें अपनी जिंदगी के बारे में गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए?’

‘क्या मतलब?’ बड़ीबड़ी सवालिया नजरें मेरे चेहरे पर टिक गईं.

‘तुम ने एम.फिल कर रखा है. कोई नौकरी क्यों नहीं करतीं. इस तरह घर में पडे़पडे़ तुम जिंदगी को र्बोझिल क्यों बना रही हो?’

‘आप ठीक कह रहे हैं. मेरी भी नौकरी करने की बहुत इच्छा है पर ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि मम्मीपापा ने विवाह के समय ही कह दिया था कि हम लड़की से नौकरी नहीं करवाएंगे.’

‘उस समय की बात दूसरी थी अब स्थिति दूसरी है. मैं बात करूंगा अंकलआंटी से.’

मैं ने प्रयास किया तो आखिर में अंकलआंटी ने आरती को नौकरी करने की इजाजत दे दी. नौकरी लग जाने से आरती की जिंदगी बदल गई और उस का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

6 माह बीत गए थे. मेरे और उस के बीच अब दोस्ती का रिश्ता कायम हो चुका था. अपनी हर छोटीबड़ी समस्या अब वह बेझिझक मुझ से कहने लगी थी.

एक बार बुखार के कारण मैं आरती के घर नहीं जा पाया. तीसरे दिन सुबह शिवकांतजी चले आए और यह जान कर मुझ पर बिगड़ पड़े कि क्यों मैं ने उन्हें बीमारी की खबर नहीं की.

दोपहर में आरती आई. उसे आया देख आश्चर्य के साथ मुझे खुशी भी हुई कि चलो, मेरी कुछ फिक्र उसे भी है.

‘अब कैसी है आप की तबीयत?’ उस ने पूछा.

‘अभी तक तो खराब थी किंतु अब ठीक होने की कुछ उम्मीद हो चली है,’ मैं ने शरारत से उस की आंखों में झांका तो वह कुछ झेंप सी गई थी.

‘तुम आज कालिज नहीं गईं?’ मैं ने पूछा.

‘कालिज तो गई थी पर मन नहीं लगा.’

‘क्यों?’ मैं थोड़ा उस के और करीब आ कर बोला, ‘क्यों मन नहीं लगा. आरती, बोलो न.’

‘रवि, तुम्हारी तबीयत…नहीं, मेरा मतलब है आज लैक्चर नहीं था,’

उस की घबराहट देख मैं मुसकरा दिया. उस की आंखों की तड़प और बेचैनी को देख सहज अंदाजा लगाया जा सकता था कि उस के मन में भी मेरे प्रति कोमल भावनाएं हैं.

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रात में जाग कर आरती के बारे में सोचता रहा और यह सुखद अहसास मन को भिगो जाता कि मेरी तरह वह भी मुझे चाहने लगी थी. ठीक ही तो था, मात्र 26 साल की उम्र थी और इस छोटी सी उम्र में वैधव्य की चादर ओढ़ लेने से ही सभी इच्छाएं मर तो नहीं जातीं. यही तो वह उम्र होती है जिस में हर लड़की आंखों में सतरंगी स्वप्न संजोती है. सिर्फ 6 महीने का ही साथ मिला था उसे पति मनीष का और इन 6 महीनों की सुखद यादें जीवन भर की बैसाखी तो नहीं बन सकतीं. ऐसे में उस का टूटा हृदय मेरे प्रेम की शीतल छांव में आसरा पाना चाहता था तो इस में गलत क्या था?

उस दिन के बाद से मैं आरती से एकांत में बात करने का मौका तलाशने लगा था. और यह मौका मुझे 20 दिन बाद मिला था. उस दिन मैं आफिस से कुछ जल्दी निकल पड़ा था. मौसम खराब था. अत: मैं जल्दी घर पहुंचना चाहता था. तभी मैं ने सड़क के किनारे आरती को बस का इंतजार करते देखा. मैं ने स्कूटर उस के पास ले जा कर रोका तो वह हंस दी.

मैं बोला, ‘अगर एतराज न हो तो मेरे साथ चलो. मैं घर छोड़ दूंगा.’

‘नहीं रवि, हमारा इस तरह जाना ठीक नहीं होगा. महल्ले के लोग क्या सोचेंगे?’

‘तुम ठीक कह रही हो. चलो, फिर नजदीक किसी रेस्तरां में एकएक कप कौफी पीते हैं. मेरे विचार में यह किसी को भी बुरा नहीं लगेगा,’ मैं ने मुसकरा कर कहा और फिर हम एक रेस्तरां में जा पहुंचे.

कौफी का आर्डर दे कर मैं ने एक भरपूर नजर आरती पर डाली और गला साफ कर बोला, ‘आरती, आज मैं तुम से अपने मन की बात कहना चाहता हूं. सच कहूं तो अपनी बात कहने के लिए ही मैं यहां कौफी पीने आया हूं.’

आरती ने बड़ीबड़ी सवालिया नजरों से मुझे देखा.

‘मैं तुम्हारा साथ पाना चाहता हूं, आरती. जिंदगी भर का साथ.’

मेरे इस प्रणय निवेदन पर आरती हैरान हो उठी. चेहरे पर लालिमा आ गई और निगाहें शर्म से झुक गईं. कुछ पल वह यों ही बैठी रही. फिर अचानक उस के चेहरे के भाव बदल गए और आंसू की दो बूंदें गालों पर लुढ़क पड़ीं.

‘क्या बात है, आरती? तुम रो क्यों रही हो?’ बेचैनी से पहलू बदला मैं ने.

‘रवि, तुम जानते हो कि मैं विधवा हूं, फिर भी ऐसी बात…’

‘मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मैं तुम्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं.’

‘किंतु मुझे फर्क पड़ता है रवि, मेरे दोनों परिवारों को फर्क पड़ता है.’

आश्चर्य से उस के दोनों हाथों को पकड़ कर मैं बोला, ‘तुम पढ़ीलिखी हो कर अनपढ़ों जैसी बात क्यों कर रही हो? तुम्हारा परिवार आधुनिक सोच का है,’ उन्हें भला क्या एतराज हो सकता है? अच्छा बताओ, तुम्हारे भैयाभाभी क्या यह जान कर खुश नहीं होंगे कि उन की छोटी बहन का घर फिर से बसने जा रहा है. तुम्हारे सासससुर, वे भी तुम्हारे दुख से कम दुखी नहीं हैं.’

‘हां रवि, दुख तो उन्हें भी है,’ आरती मेरी ओर देख कर बोली, ‘पर बेटी के आंसू और बहू के आंसुओं में अंतर होता है, रवि. बेटी के आंसुओं से मांबाप का हृदय जितना द्रवित होता है बहू के आंसू उतना असर नहीं छोड़ पाते,’ इतना कहतेकहते आरती का स्वर भीग गया.

कुछ देर की खामोशी के बाद मैं ने फिर कहा, ‘आरती, हादसे किसी के भी साथ हो सकते हैं. जीवन इतना सस्ता नहीं कि उसे एक हादसे की भेंट चढ़ा दिया जाए और फिर आज अंकल व आंटी दोनों तुम्हारे साथ हैं, कल जब वे नहीं रहेंगे तब तुम क्या करोगी?’

मैं ने अपनी बात का असर देखने के लिए उस की आंखों में झांका. मुझे संतुष्टि हुई कि मेरी बातों का उस पर अनुकूल असर पड़ा था.

अगली 3-4 मुलाकातों में मैं ने आरती को अपने संपूर्ण पे्रम का विश्वास दिलाना चाहा. उस में साहस पैदा किया ताकि वह विवाह का जिक्र छिड़ने पर हुई अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रतिक्रिया को झेल सके.. अपनी तन्हा जिंदगी को संवारने में वह भी अब पूरी इच्छा से मेरे साथ थी.

अगले हफ्ते आफिस की 2 लगातार छुट्टियां थीं. मैं मां और पिताजी के पास दिल्ली चला गया. हर बार की तरह उन्होंने शाम की चाय पीते हुए मेरे विवाह का जिक्र छेड़ा. मैं ने उन्हें आरती के बारे में बताया. मेरी आशा के विपरीत घर में इस बात को ले कर कोहराम मच गया. मुझे मां और पिताजी की बातों का उतना दुख नहीं हुआ जितना दुखी मैं अपनी छोटी बहन सीमा के व्यवहार को ले कर हुआ था. उस ने मेरे दोस्त सौरभ से प्रेमविवाह किया था और इस विवाह में मैं ने दोनों को अपना भरपूर सहयोग दिया था. अब जबकि मुझे उस के साथ की जरूरत थी, वह मेरा विरोध करने पर तुली हुई थी.

सोचतेसोचते मैं कब सो गया, मुझे पता ही नहीं चला.

अगली सुबह मां कमरे में चाय ले कर आईं, उस समय मैं जूते के फीते बांध रहा था. मुझे तैयार देख वह हैरान हो बोलीं, ‘‘रवि बेटे, इतनी सुबहसुबह तैयार हो कर कहां जा रहा है?’’

‘देहरादून,’ मैं ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

मां मेरे करीब चली आईं और बोलीं, ‘‘रवि, मैं जानती हूं, तू नाराज हो कर जा रहा है पर सोच बेटा, हम क्या तेरे दुश्मन हैं? एक विधवा को अपनी बहू बना कर ले आएगा तो समाज में हमारी क्या इज्जत रहेगी?’’

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‘‘मां, प्लीज, अब खत्म कीजिए इस बात को और अपनी इज्जत संभाल कर रखिए,’’ मैं बैग उठा कर दरवाजे की ओर बढ़ा तो कानों में पिघलते सीसे की तरह पिताजी की कड़कती आवाज पड़ी, ‘‘रवि की मां, यह जाता है तो इसे जाने दो. इस की खुशामद करने की जरूरत नहीं है. हां, जातेजाते तुम यह अच्छी तरह से जान लो कि जब तक मैं जिंदा हूं, यह शादी नहीं हो सकती.’’

पिताजी की बेवजह की कठोरता ने मुझ में हिम्मत पैदा कर दी और मन ही मन सोचा कि आप जिद्दी हो तो मैं महाजिद्दी हूं. आखिर मैं आप का ही

तो खून हूं. पर प्रत्यक्ष में कुछ बोला नहीं. चुपचाप बैग उठा कर घर से बाहर आ गया.

बस स्टैंड पर पहुंच कर मुझे याद आया कि सीमा को भी तो अपने साथ ले कर देहरादून जाना था, सौरभ से यही बात हुई थी. मानसिक तनाव में मैं यह बात बिलकुल भूल गया और अब वापस घर जाने का मेरा मन न हुआ. अत: मैं बस में बैठ गया.    -क्रमश

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