लेखक- डा. सत्यकुमार

आप के मित्रों में, संबंधियों में और पड़ोसियों में अनेक ऐसे व्यक्ति होंगे जिन को हर बात का ज्ञान होता है. ताल ठोंक कर वे अपनी बात कहते हैं और आप को पसोपेश में डाल देते हैं.

‘‘जी, हां, इन्हें ही मैं रायचंद कहता हूं. इन से आप पूछें या न पूछें, मांगें न मांगें, यह अपनी राय जरूर देंगे. उस शाम मैं उदास बैठा था. सीताराम आया तो मुंह से निकल गया, ‘‘पिताजी का पत्र आया है, माताजी अस्वस्थ हैं. सोचता हूं, घर का चक्कर लगा आऊं.’’

सीताराम तपाक से बोला, ‘‘यार, मां आखिर बूढ़ी हैं, पता नहीं क्या हाल हो. तुम ऐसा करो भाभीजी को भी साथ ले जाओ. अगर कहीं ऐसीवैसी बात हो गई तो...’’

महीने की 28 तारीख थी. मैं अकेले जाने में ही खर्च का प्रबंध नहीं कर पा रहा था और वह कह रहा था कि भाभीजी को भी ले जाओ, और फिर बच्चे? बच्चों की परीक्षा सिर पर आ रही थी.

तभी विजय आ गया. उस का कोई परिचित टेलीफोन एक्सचेंज में था. बोला, ‘‘चलो, फोन से सही हाल पता करते हैं.’’

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मैं ने कहा, ‘‘भाई, वहां टेलीफोन नहीं है.’’

वह बोला, ‘‘कहीं पड़ोस में तो होगा? कुछ न कुछ सिलसिला निकल आएगा, चलो तो.’’

मुझे घर फोन करने की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी थी. पासपड़ोस क्या, मुझे तो अपने कसबे के भी किसी व्यक्ति का टेलीफोन नंबर पता नहीं था.

उसे जैसेतैसे टाला तो कमल आ गया. रास्ते में विजय ने उसे बता दिया था. बोला, ‘‘एक्सप्रेस टेलीग्राम कर दो. मेरी मानो तो जवाबी तार कर दो. घर बैठे कल हाल मालूम हो जाएगा.’’

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