लेखक- लाज ठाकुर
‘उई मां, मैं लुट गई’ के आर्तनाद के साथ वह दीवार के साथ लग कर फर्श पर बैठ गई.
कई दिनों से मुझे बुखार ने अपने लपेटे में ले रखा था और लीना आज डाक्टर के पास मेरी ब्लड रिपोर्ट लेने गई थी. मैं ने सोचा रास्ते में जाने उस ने किस रिश्तेदार के बारे में कौन सी मनहूस खबर सुन ली कि घर आते ही दुख को बरदाश्त न कर पाई और बिलख पड़ी.
तभी मेरे दिमाग की घंटियां बजीं कि अपने हाथों की चूडि़यां तोड़ना तो सीधे अपने सुहाग पर अटैक है. मैं ने जल्दी से अपने दिल की धड़कन को जांचा फिर नब्ज टटोली तो मुझे अपने जीवित होने पर कोई शक न रहा.
पलंग से उतर कर मैं लीना के पास पहुंचा और शब्दों में शहद घोल कर पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’
‘‘दूर रहिए मुझ से,’’ लीना खुद ही थोड़ी दूर सरक गई और बोली, ‘‘आप को एड्स है.’’
‘‘मुझे... और एड्स...’’ मैं ने जल्दी से दीवार का सहारा लिया और गिरतेपड़ते बड़ी मुश्किल से अपने को संभाल कर पलंग तक ले गया.
‘‘हांहां, आप को एड्स है,’’ लीना ने सहमे स्वर में कहा, ‘‘मै
डा. गुप्ता के रूम में आप की ब्लड रिपोर्ट लेने बैठी थी. उन्होंने रिपोर्ट देखी और कहा कि पोजिटिव है. तभी उन का कोई विदेशी दोस्त आ गया. मुझे बाहर भेज कर वे दोनों आप के केस के बारे में विचार विमर्श करने लगे. बाहर बैठेबैठे मैं ने सुना कि वह इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आप को एड्स है.’’
‘‘लीनाजी, मगर मुझे एड्स कैसे हो सकता है?’’ मैं ने थोड़ा संभल कर कहा, ‘‘मैं न तो बाहर दाढ़ी बनवाता हूं कि मुझे किसी एड्स रोगी के ब्लेड से कट लगा है. न ही आज तक किसी को अपना खून दियालिया कि किसी एड्स रोगी का खून मेरे शरीर में गया. यहां तक कि वर्षों से मुझे इंजेक्शन भी नहीं लगा है और वैसे भी आजकल डिसपोजेबल इंजेक्शन इस्तेमाल किए जाते हैं. यहां तक कि मेरे परिवार में भी किसी को यह बीमारी नहीं थी.’’