बदला : डाक्टर मीता की कशमकश

आपरेशन थियेटर से निकल कर डा. मीता अपने केबिन में आईं. एप्रिन उतारने के बाद उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए पूछा, ‘‘रीना, क्या डा. दीपक का कोई फोन आया था?’’

‘‘जी, मैम, वह 2 बजे तक कानपुर से लौट आएंगे और लंच घर पर ही करेंगे,’’ इंटरकाम पर रिसेप्शनिस्ट रीना की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘ठीक है,’’ कह कर डा. मीता ने फोन रख दिया और घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 12 बजे थे. वह सोचने लगीं कि

डा. दीपक के लौटने में अभी डेढ़ घंटे का समय है और इतनी देर में अस्पताल का एक राउंड लिया जा सकता है.

डा. मीता ने आज अकेले ही 3 आपरेशन किए थे, इसलिए कुछ थकावट महसूस कर रही थीं. तभी अटेंडेंट कौफी दे गया. वह कुरसी की पुश्त से टेक लगा कर कौफी की चुस्कियां लेने लगीं.

मीता और दीपक लखनऊ मेडिकल कालिज में सहपाठी थे. एम.एस. करने के बाद दोनों ने शादी कर ली थी. पहले उन्होंने अपना नर्सिंग होम लखनऊ में खोला था किंतु अचानक घटी एक दुर्घटना के कारण उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ गया था.

उस के बाद वे इलाहाबाद चले आए. उन की दिनरात की मेहनत के कारण 3 वर्षों में ही उन के नए नर्सिंग होम की शोहरत काफी बढ़ गई थी. डा. दीपक आज सुबह किसी जरूरी काम से कानपुर गए थे. आज के आपरेशन पूरा करने के बाद डा. मीता उन की प्रतीक्षा कर रही थीं.

अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा. उन्होंने अटेंडेंट को बुला कर पूछा, ‘‘यह शोर कैसा है?’’

‘‘जी…एक्सीडेंट का एक केस आया है और स्टाफ उन्हें भगा रहा है लेकिन वे लोग भाग नहीं रहे हैं,’’ अटेंडेंट ने हिचकते हुए बताया.

‘‘क्यों भगा रहे हैं? क्या तुम लोगों को पता नहीं कि हमारे नर्सिंग होम में छोटेबड़े सभी का इलाज बिना किसी भेदभाव के किया जाता है,’’ मीता का चेहरा तमतमा उठा. वह जानती थीं कि शहर के कई नर्सिंग होम तो ऐसे हैं जिन में गरीबों को घुसने भी नहीं दिया जाता है.

‘‘जी…वो…’’ अटेंडेंट हकला कर रह गया. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कहना चाह रहा है किंतु साहस नहीं जुटा पा रहा है.

‘‘यह क्या वो…वो…लगा रखी है,’’ डा. मीता ने अटेंडेंट को डांटा फिर पूछा, ‘‘घायल की हालत कैसी है?’’

‘‘खून काफी बह गया है और वह बेहोश है.’’

‘‘तो फौरन उसे आपरेशन थियेटर में ले चलो. मैं भी पहुंच रही हूं,’’

डा. मीता ने खड़े होते हुए आदेश दिया.

अटेंडेंट हक्काबक्का सा चंद पलों तक उन के चेहरे को देखता रहा फिर आंखें झुकाते हुए बोला, ‘‘जी, मैडम, वह विधायक उपदेश सिंह राणा हैं. नर्सिंग होम के पास ही उन की गाड़ी को एक ट्रक ने टक्कर मार दी है.’’

इतना सुनने के बाद डा. मीता को लगा जैसे कोई ज्वालामुखी फट पड़ा हो और पूरी सृष्टि हिल गई हो. वह धम्म से कुरसी पर गिर पड़ीं. अगर उन्होंने कुरसी के दोनों हत्थों को मजबूती से थाम न लिया होता तो शायद चकरा कर नीचे गिर पड़ती होतीं. उन के दिमाग पर हथौड़े बरसने लगे और सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी. अटेंडेंट उन की मनोदशा को समझ गया था अत: चुपचाप वहां से खिसक गया.

लगभग साढ़े 3 वर्ष पहले की बात है. उस दिन भी डा. मीता अपने पुराने नर्सिंग होम में अकेली थीं. तभी कुछ लोग गोली से बुरी तरह घायल एक व्यक्ति को ले कर आए. उस की गोली निकालने के लिए वह आपरेशन थियेटर में अभी जा ही रही थीं कि फोन की घंटी बज उठी :

‘डा. साहिबा, मैं उपदेश सिंह राणा बोल रहा हूं,’ फोन पर आवाज आई.

‘जी, कहिए,’ डा. मीता अचकचा उठीं.

उपदेश सिंह राणा शहर का आतंक था. छोटेबड़े सभी उस के नाम से थर्राते थे. उस का भला उन से क्या काम?

‘डा. साहिबा, वह मेरी गोली से तो बच गया है लेकिन आप के आपरेशन थियेटर से जिंदा वापस नहीं आना चाहिए,’ उपदेश सिंह राणा ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘मैं एक डाक्टर हूं और डाक्टर के हाथ लोगों की जान बचाने के लिए उठते हैं, लेने के लिए नहीं,’ डा. मीता ने स्पष्ट इनकार कर दिया.

‘मैं आप के हाथों को बहकने की कीमत देने के लिए तैयार हूं. आप मुंह खोलिए,’ राणा ने हलका सा कहकहा लगाया.

‘आप अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हैं,’ राणा का प्रस्ताव सुन

डा. मीता का मन कसैला हो उठा.

‘डा. साहिबा, कुछ करने से पहले सोच लीजिएगा कि मैं महिलाओं को सिर्फ उपदेश ही नहीं देता बल्कि…’ इतना कहतेकहते राणा क्षण भर के लिए रुका फिर खतरनाक अंदाज में बोला, ‘अगर आप ने मेरे शिकार को बचाने की कोशिश की तो फिर आप का कुछ भी नहीं बच पाएगा.’

डा. मीता ने बिना कुछ कहे फोन रख दिया और आपरेशन थियेटर में घुस गईं. उस व्यक्ति की हालत बहुत खराब थी. 3 गोलियां उस की पसलियों में घुस गई थीं. 2 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह गोलियां निकाल पाई थीं. अब उस की जान को कोई खतरा नहीं था.

किंतु राणा ने अपनी धमकी को सच कर दिखाया. 2 दिन बाद ही उस ने

डा. मीता का अपहरण कर उन की इज्जत लूट ली. दीपक ने बहुत भागदौड़ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. राणा गिरफ्तार हुआ किंतु 3 दिन बाद ही जमानत पर छूट गया. उस के आतंक के कारण कोई भी उस के खिलाफ गवाही देने के लिए तैयार नहीं हुआ था.

इस घटना ने डा. मीता को तोड़ कर रख दिया था. वह एक जिंदा लाश बन कर रह गई थीं. हमेशा बुत सी खामोश रहतीं. जागतीं तो भयानक साए उन्हें अपने आसपास मंडराते नजर आते. सोतीं तो स्वप्न में हजारों गिद्ध उन के शरीर को नोंचने लगते. उन की मानसिक हालत बिगड़ती जा रही थी.

मनोचिकित्सकों की सलाह पर दीपक ने वह शहर छोड़ दिया था. नए शहर के नए माहौल ने मरहम का काम किया. अतीत की यादों को करीब आने का मौका न मिल सके, इसलिए डा. दीपक अपने साथ

डा. मीता को भी मरीजों की सेवा में व्यस्त रखते. धीरेधीरे जीवन की गाड़ी एक बार फिर पटरी पर दौड़ने लगी थी. दोनों की मेहनत और लगन से इन चंद वर्षों में ही उन के नर्सिंग होम का काफी नाम हो गया था.

इन चंद वर्षों में और भी बहुत कुछ बदल चुका था. अपने आतंक और बूथ कैप्चरिंग के दम पर शहर का दुर्दांत गुंडा उपदेश सिंह राणा दबंग विधायक बन चुका था. अब इसे समय का क्रूर मजाक ही कहा जाए कि डा. मीता की जिंदगी बरबाद करने वाले दरिंदे उपदेश सिंह राणा की जिंदगी बचाने के लिए लोग आज उसे उन की ही शरण में ले आए थे.

डा. मीता की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंध गए जब वह गिड़गिड़ाते हुए उस शैतान से दया की भीख मांग रही थी और वह हैवानियत का नंगा नाच नाच रहा था. वह अपने डाक्टरी पेशे की मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा की दुहाई दे रही थीं और वह उन की इज्जत की चादर को तारतार किए दे रहा था. वह रोती रहीं, बिलखती रहीं, तड़पती रहीं पर उस नरपिशाच ने उन की अंतर आत्मा तक को अंगारों से दाग दिया था.

सोचतेसोचते डा. मीता के जबड़े भिंच गए और आंखों से चिंगारियां फूटने लगीं. बाहर बढ़ रहे शोर के कारण उन की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी. क्रोध की अधिकता के चलते वह हांफने सी लगीं. व्याकुलता जब बरदाश्त से बाहर हो गई तो उन्होंने सामने रखा पेपरवेट उठा कर दीवार पर दे मारा. पर न तो पेपरवेट टूटा और न ही दीवार टस से मस हुई.

पेपरवेट फर्श पर गिर कर गोलगोल घूमने लगा. डा. मीता की दृष्टि उस पर ठहर सी गई. पेपरवेट के स्थिर होने पर उन्होंने अपनी दृष्टि ऊपर उठाई. उन में दृढ़ता के चिह्न छाए हुए थे. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कर गुजरने का फैसला कर चुकी हैं.

इंटरकाम का बटन दबाते हुए डा. मीता ने पूछा, ‘‘रीना, घायल को आपरेशन थियेटर में पहुंचा दिया गया है या नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘जी…वो…दरअसल…स्टाफ कह… रहा है…कि…’’ रिसेप्शनिस्ट झिझक के कारण अपनी बात कह नहीं पा रही थी.

‘‘तुम लोग सिर्फ वह करो जो कहा जा रहा है. बाकी क्या करना है, मैं जानती हूं,’’ डा. मीता ने सर्द स्वर में आदेश दिया और आपरेशन थियेटर की ओर चल दीं.

अचानक उन्हें कुछ याद आया. वापस लौट कर उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए कहा, ‘‘रीना, मैं उस आदमी का चेहरा नहीं देख सकती. नर्स से कहो कि आपरेशन टेबल पर पहुंचाने से पहले उस का मुंह किसी कपड़े से बांध दे या ठीक से ढंक दे.’’

इतना कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए डा. मीता तेजी से आपरेशन थियेटर की ओर चली गईं. घायल के भीतर जाते ही आपरेशन थियेटर का दरवाजा बंद हो गया और उस पर लगा लाल बल्ब जल उठा.

टिक…टिक…टिक…की ध्वनि के साथ घड़ी की सूइयां आगे बढ़ती जा रही थीं. इसी के साथ आपरेशन कक्ष के बाहर खड़े स्टाफ के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. आपरेशन कक्ष के दरवाजे को बंद हुए 2 घंटे से अधिक समय बीत चुका था. भीतर डा. मीता क्या कर रही होंगी इस का अंदाजा होते हुए भी कोई सचाई को अपने होंठों तक नहीं लाना चाहता था.

डा. दीपक 3 बजे लौट आए. भीतर घुसते ही उन्होंने एक वार्ड बौय से पूछा, ‘‘डा. मीता कहां हैं?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उन्होंने एक घायल का आपरेशन किया था. उस के बाद…’’ वार्ड बौय कुछ कहतेकहते रुक गया.

‘‘उस के बाद क्या?’’

‘‘उस के बाद वह उसे अपना खून दे रही हैं, क्योंकि उस का ब्लड गु्रप ‘ओ निगेटिव’ है और वह कहीं मिल नहीं सका,’’ वार्ड बौय ने हिचकिचाते हुए बताया.

‘‘ऐसा कौन सा खास मरीज आ गया है जिसे डा. मीता को खुद अपना खून देने की जरूरत आ पड़ी?’’

डा. दीपक ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी…विधायक उपदेश सिंह राणा हैं.’’

‘‘तुझे होश भी है कि तू क्या कह रहा है?’’ वार्ड बौय का गिरेबान पकड़ डा. दीपक चीख पड़े.

‘‘सर, हम लोग उसे नर्सिंग होम से भगा रहे थे लेकिन मैडम ने जबरन बुला कर उस का आपरेशन किया और अब उसे अपना खून भी दे रही हैं,’’ तब तक  वहां जमा हो चुके कर्मचारियों में से एक ने हिम्मत कर के बताया.

डा. दीपक ने उसे घूर कर देखा फिर बिना कुछ कहे अपने केबिन की ओर चले गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मीता ने ऐसा क्यों किया. क्या किसी ने मीता को इस के लिए मजबूर किया था या कोई और कारण था? सोचतेसोचते डा. दीपक के दिमाग की नसें फटने लगीं लेकिन वह अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज सके.

थोड़ी देर बाद डा. मीता ने वहां प्रवेश किया. उन का चेहरा पत्थर की भांति भावनाशून्य था. डा. दीपक ने आगे बढ़ उन की बांह थाम कांपते स्वर में पूछा, ‘‘मीता…तुम ने… उस की जान क्यों बचाई?’’

‘‘हम लोग डाक्टर हैं. हमारा काम ही लोगों की जान बचाना है,’’ डा. मीता के होंठों ने स्पंदन किया.

डा. दीपक ने पत्नी की बांहों को छोड़ चंद पलों तक उस के चेहरे की ओर देखा फिर मुट्ठियां भींचते हुए बोले, ‘‘लेकिन क्या उस का आपरेशन करते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे थे?’’

‘‘अगर हाथ कांप जाते तो हम में और सामान्य लोगों में क्या फर्क रह जाता,’’ डा. मीता ने धीमे स्वर में कहा. उन का चेहरा पूर्ववत भावनाशून्य था.

‘‘हम इनसान हैं मीता, इनसान,’’ डा. दीपक तड़प उठे.

‘‘मैं ने इनसानियत का ही फर्ज निभाया है,’’ डा. मीता के होंठ यंत्रवत हिले.

‘‘फर्ज निभाने का शौक था तो निभा लेतीं, महानता की चादर ओढ़ने का शौक था तो ओढ़ लेतीं, लेकिन अपना खून चूसने वाले को अपना खून तो न देतीं,’’

डा. दीपक मेज पर घूंसा मारते हुए चीख पड़े.

डा. मीता ने कोई उत्तर नहीं दिया.

दीपक ने आगे बढ़ कर उन के चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया और उन की आंखों में झांकते हुए बोले, ‘‘मीता, प्लीज, मुझे बताओ ऐसी क्या मजबूरी थी जो तुम ने उस दरिंदे की जान बचाई? क्या किसी ने तुम्हें फिर धमकी दी थी?’’

डा. मीता ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था  मानो वह सप्रयास अपने को कुछ कहने से रोक रही हैं.

‘‘मैडम, उस मरीज को होश आ गया,’’ तभी एक नर्स ने वहां आ कर बताया.

डा. मीता के भीतर जैसे कोई शक्ति समा गई हो. दीपक को परे धकेल वह आंधीतूफान की तरह भागते हुए वार्ड की ओर दौड़ पड़ीं. भौचक्के से डा. दीपक अपने को संभालते हुए पीछेपीछे दौड़े.

उपदेश सिंह राणा को अब तक उन के पास खड़े पुलिस वालों ने बता दिया था कि जिस लेडी डाक्टर ने उन का आपरेशन किया था उसी ने उन्हें अपना खून भी दिया है क्योंकि उन के गु्रप का खून किसी ब्लड बैंक में उपलब्ध न था.

‘‘वह महान डाक्टर कौन हैं. मैं उन के दर्शन करना चाहता हूं,’’ राणा ने कराहते हुए कहा.

‘‘लो, वह आ गईं,’’ एक पुलिस वाले ने वार्ड के भीतर आ रही डा. मीता की ओर इशारा किया.

उन पर दृष्टि पड़ते ही राणा को ऐसा झटका लगा जैसे किसी को करंट लग गया हो. घबरा कर उस ने उठना चाहा लेकिन कमजोरी के कारण हिल भी न सका.

‘‘इन्होंने ही आप की जान बचाई है. जीवन भर इन के चरण धो कर पीजिएगा तब भी आप इस ऋण से उऋण नहीं हो सकेंगे,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बताया.

पल भर के लिए राणा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ किंतु सत्य अपने पूरे वजूद के साथ सामने उपस्थित था. राणा की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंधने लगे जब रोती हुई

डा. मीता हाथ जोड़जोड़ कर विनती कर रही थीं कि उन्होंने सिर्फ एक डाक्टर के फर्ज का पालन किया है किंतु वह उन की एक नहीं सुन रहा था.

आज एक बार फिर उन्होंने सबकुछ भुला कर एक डाक्टर के फर्ज को पूरा किया है. तभी उस की सासें शेष बच पाई हैं.  राणा के भीतर उन से आंख मिलाने का साहस नहीं बचा था. उन के विराट व्यक्तित्व के आगे वह अपने को बहुत छोटा महसूस कर रहा था.

बहुत मुश्किल से अपनी पूरी शक्ति को बटोर कर राणा, ने अपने हाथों को जोड़ा और कांपते स्वर में बोला, ‘‘डाक्टर साहिबा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘माफ और तुम्हें,’’ डा. मीता दांत भींचते हुए चीख पड़ीं, ‘‘राणा, तुम ने मेरे साथ जो किया था उस के बाद मैं तो क्या दुनिया की कोई भी औरत मरते दम तक तुम्हें माफ नहीं कर सकती.’’

चीख सुन कर पूरे वार्ड में सन्नाटा छा गया. किसी में भी उसे भंग करने का साहस न था. अपनी ओर डा. मीता को आता देख कर राणा ने एक बार फिर अपनी बिखरती हुई सांसों को बटोरा और लड़खड़ाते स्वर में बोला, ‘‘आप ने जो एहसान किया है मैं उसे कभी…’’

‘‘मैं ने कोई एहसान नहीं किया है तुम पर,’’ डा. मीता राणा की बात को बीच में काट कर फिर चीख पड़ीं, ‘‘तुम क्या समझते हो अपनेआप को? सर्वशक्तिमान? जो जिस की जिंदगी से जब चाहे खेल लेगा? तुम ने मेरी जिंदगी से खेला था, आज मैं ने तुम्हारी जिंदगी से खेला है. मेरे जिस खून को तुम ने अपवित्र किया था आज वही खून तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है. तुम चाह कर भी उसे अपने शरीर से अलग नहीं कर सकते. जब तक जीवित रहोगे यह एहसास तुम्हें कचोटता रहेगा कि तुम्हारी जिंदगी मेरी दी हुई भीख है.

‘‘कमजोर समझ कर जिस नारी के चंद पलों को तुम ने रौंदा था उस के रक्त के चंद कतरे अब हर पल तुम्हारे स्वाभिमान को रौंदते रहेंगे. तुम्हारा रोमरोम तुम्हारे गुनाहों के लिए तुम्हें धिक्कारेगा लेकिन तुम्हें दया की भीख नहीं मिलेगी. जब तक जीवित रहोगे, राणा, तुम प्रायश्चित की आग में जलते रहोगे लेकिन तुम्हें शांति नहीं मिलेगी. यही मेरा प्रतिशोध है.’’

डा. मीता के मुंह से निकला एकएक शब्द गोली की तरह राणा के दिल और दिमाग को छेदे जा रहा था. गुनाहों के बोझ तले दबी उस की अंतर आत्मा में कुछ कहने की शक्ति नहीं बची थी. उस की कायरता बेबसी बन उस की आंखों से छलक पड़ी.

राणा के आंसुओं ने अग्निकुंड में घी का काम किया. डा. मीता गरजते हुए बोलीं, ‘‘इस से पहले कि मेरे अंदर की नारी, डाक्टर को पीछे ढकेल कर सामने आ जाए और मैं तुम्हारा खून कर दूं, दूर हो जाओ मेरी नजरों से. चले जाओ यहां से.’’

हतप्रभ डा. दीपक अब तक चुपचाप खड़े थे. उन्होंने पुलिस वालों को इशारा किया तो वे राणा के बेड को धकेलते हुए बाहर ले जाने लगे.

डा. मीता हिचकियां भरती हुई पूरी शक्ति से डा. दीपक के चौड़े सीने से लिपट गईं. उन्होंने उन्हें अपनी बांहों में यों संभाल लिया जैसे किसी वृक्ष की शाखाएं नन्हे घोंसले को संभाल लेती हैं.

अब कोई नाता नहीं : अतुल-सुमित में से कौन बना अपना – भाग 1

‘‘मुझे माफ करना, अतुल. मैं ने तुम्हारा बहुत अपमान किया है, तिरस्कार किया है और कई बार तुम्हारा मजाक भी उड़ाया है. मगर आज जब मुझे अपने बेटे की सब से ज्यादा जरूरत थी तब तुम ही मेरे करीब थे. अगर आज तुम न होते तो न जाने मेरा क्या हाल होता. मैं शायद इस दुनिया में न होता.

“अतुल बेटा, हम दोनों तो बिलकुल अकेले पड़ गए थे. अब तो मुझे सुमित को अपना बेटा कहने में भी शर्म आ रही है. उसे विदेश क्या भेजा, वह विदेशी हो कर रह गया, मांबाप को भी भूल गया. अब मेरा उस से कोई नाता नहीं,’’ यह कहते हुए कांता प्रसाद फफकफफक कर रो पड़े, उन्होंने अतुल को खींच कर अपने गले से लगा लिया.

अतुल की आंखें भी नम हो गईं. वह अतीत की यादों में खो गया. अतुल के पिता रमाकांत की एक छोटी सी मैडिकल शौप थी जो सरकारी अस्पताल के सामने थी. परिवार की आर्थिक स्थिति विकट होने से अतुल ज्यादा पढ़ नहीं पाया था. कक्षा 12वीं उत्तीर्ण करने के बाद उस ने फार्मेसी में डिप्लोमा किया और अपने पिता के साथ दुकान में उन का हाथ बंटाने लगा.

एक ही शहर में दोनों भाइयों का परिवार रहता था मगर रिश्तों में मधुरता नहीं थी. कांता प्रसाद और छोटे भाई राम प्रसाद के बीच अमीरीगरीबी की दीवार दिनबदिन ऊंची होती जा रही थी. दोनों भाइयों के बीच एक बार पैसों के लेनदेन को ले कर अनबन हो गई थी जिस के कारण उन के बीच कई सालों से बोलचाल बंद थी. होलीदीवाली जैसे त्योहारों पर महज औपचारिकता निभाते हुए उन के बीच मुलाकात होती थी.

अतुल के ताऊजी कांता प्रसाद एक प्राइवेट बैंक में मैनेजर थे जो अपने इकलौते बेटे सुमित की पढ़ाई के लिए पानी की तरह पैसा बहा रहे थे. सुमित शहर के सब से महंगे और मशहूर पब्लिक स्कूल में पढ़ता था. जब कभी अतुल उन से बैंक में या घर पर मिलने जाता था तब वे उस का मजाक उड़ाते हुए कहते थे :

‘अरे अतुल, एक बार कालेज का तो मुंह देख लेता. अभी 20-22 का हुआ नहीं कि दुकानदारी करने बैठ गया. कालेजलाइफ कब एंजौय करेगा? तेरा बाप क्या पैसा साथ ले कर जाएगा?’ ‘नहीं ताऊजी, ऐसी बात नहीं है. मेरी भी आगे पढ़ने की इच्छा है और पापा भी मुझे पढ़ाना चाहते हैं पर मैं अपने घर की आर्थिक स्थिति से अच्छी तरह से अवगत हूं. मैं ने ही उन्हें मना कर दिया कि मुझे आगे नहीं पढ़ना है. निशा और दिशा को पहले पढ़ानालिखाना है ताकि वे पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं जिस से उन के विवाह में अड़चन न आए. एक बार उन के हाथ पीले हो जाएं तो मम्मीपापा की चिंता मिट जाएगी. वे दोनों आएदिन निशा और दिशा की चिंता करते हैं.

‘आजकल के लड़के पढ़ीलिखी और नौकरी करने वाली लड़कियां ही ज्यादा पसंद करते हैं. ताऊजी, आप को तो पता ही है कि हमारी मैडिकल शौप से ज्यादा आमदनी नहीं होती. सरकारी अस्पताल के सामने मैडिकल की पचासों दुकानें हैं. कंपीटिशन बहुत बढ़ गया है. फिर आजकल औनलाइन का भी जमाना है. मेरा क्या है, मैं निशा और दिशा की विदाई के बाद भी प्राइवेटली कालेज कर लूंगा पर अभी परिवार की जिम्मेदारी निभाना जरूरी है.’

अतुल ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा तो कांता प्रसाद को बड़ा ताज्जुब हुआ कि अतुल खेलनेकूदने की उम्र में इतनी समझदारी व जिम्मेदारी की बातें करने लग गया है और एक उन का बेटा सुमित जो अतुल की ही उम्र का है मगर उस पर अभी भी बचपना और अल्हड़पन सवार था, वह घूमनेफिरने और मौजमस्ती में ही मशगूल है. कांता प्रसाद के पास रुपएपैसों की कमी न थी. उन के बैंक के कई अधिकारियों के बेटे विदेशों में पढ़ रहे थे, सो कांता प्रसाद ने भी सुमित को विदेश भेजने के सपने संजो कर रखे थे. वक्त बीत रहा था.

सुमित इंजीनियरिंग में बीई करने के बाद एमएस के लिए आस्ट्रेलिया चला गया. इसी बीच कांता प्रसाद बैंक से सेवानिवृत हो गए. पत्नी रमा के साथ आराम की जिंदगी बसर कर रहे थे.सुमित के लिए विवाह के ढेरों प्रस्ताव आने शुरू हो गए थे. अपना इकलौता बेटा विदेश में है, यह सोच कर ही कांता प्रसाद मन ही मन फूले न समाते थे. अब तो वे जमीन से दो कदम ऊपर ही चलने लगे थे. जब भी कोई रिश्तेदार या दोस्त मिलता तो वे सुमित की तारीफ में कसीदे पढ़ने लग जाते. कुछ दिन तक तो परिवार के सदस्य और यारदोस्त उन का यह रिकौर्ड सुनते रहे मगर धीरेधीरे उन्हें जब बोरियत होने लगी तो वे उन से कन्नी काटने लगे.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. सुमित को आस्ट्रेलिया गए 3 साल का वक्त हो गया था. एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने एमएस की डिग्री हासिल कर ली है और वह अब यूएस जा रहा है जहां उसे एक मल्टीनैशनल कंपनी में मोटे पैकेज की नौकरी भी मिल गई है. कांता प्रसाद के लिए यह बेशक बहुत ही बड़ी खुशी की बात थी.

कांता प्रसाद और रमा अभी खुशी के इस नशे में चूर थे कि एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने अपनी ही कंपनी में नौकरी करने वाली एक फ्रांसीसी लड़की एडेला से शादी कर ली है. सुमित के विवाह को ले कर सपनों के खूबसूरत संसार में खोए हुए कांता प्रसाद और रमा बहुत ही जल्दी यथार्थ के धरातल पर धराशायी हो गए.

अब तो दोनों अपने घर में ही बंद हो कर रह गए. लड़की वालों के फोन आने पर ‘अभी नहीं, अभी नहीं’ कह कर टालते रहे. कांता प्रसाद और रमा ने सुमित के विवाह की बात छिपाने की बहुत कोशिश की मगर जिस तरह प्यार और खांसी छिपाए नहीं छिपती, उसी तरह सुमित के विदेशी लड़की से विवाह करने की बात उन के करीबी रिश्तेदारों के बीच बहुत ही जल्दी फैल गई.

फलक से टूटा इक तारा: सान्या का यह एहसास -भाग 1

‘‘मां तुम समझती क्यों नहीं, आजकल तो सभी मातापिता अपने बच्चों को छूट देते हैं, तुम क्यों नहीं मुंबई जाने देती मुझे?’’ सान्या जिद पर अड़ी थी और उस की मां 2 दिन से उसे समझा रही थी, ‘बेटी, हम मध्यवर्गीय लोग हैं, तुम पढ़ाई में इतनी अच्छी हो कि डाक्टर, इंजीनियर बन सकती हो, क्यों इस फालतू के डांस शो के लिए जिद पर अड़ी हो?’

‘‘नहीं मां, मैं जाऊंगी डांस शो में,’’ पैर पटकते हुए सान्या कमरे की तरफ बढ़ गई और जा कर पलंग पर औंधेमुंह लेट गई. उस की मां दरवाजे पर दस्तक देते हुए बोली, ‘‘बेटी, तुम बात समझने की कोशिश करो, मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं, दरवाजा तो खोलो.’’

सान्या कहां सुनने वाली थी. उसे तो मुंबई जाना था डांस शो के लिए. वह तो मशहूर मौडल बनना चाहती थी. कहां पसंद था उसे यह साधारण लोगों की तरह जीना? वह तो खुले आसमान में उड़ जाना चाहती थी पंछियों की तरह, जहां कोई रोकटोक न हो, जितना चाहो उड़ो. दूरदूर तक खुला आसमान, न तो रीतिरिवाज की बंदिश न ही समाज के बंधन. उस की मां कैसे कह देती, ‘बेटी, तुम जाओ.’ वह बेचारी तो स्वयं संयुक्त परिवार के बंधनों में फंसी थी. यदि वह आज उसे छूट देगी तो यह इस के बाद मौडलिंग में जाने की जिद करेगी. और फिर, वह देवरजेठ समेत अन्य रिश्तेदारों को क्या जवाब देगी? देर तक सान्या की मां इसी उधेड़बुन में उलझी रही और फिर मन ही मन बोली, ‘सान्या के पिताजी घर आएं तो रात को उन से जरूर इस विषय में बात करूंगी.’

रात को खाना खा कर परिवार के सभी सदस्य सोने के लिए अपने कमरे में चले गए और तभी सान्या की मां ने मौका पा कर उस के पिताजी से कहा, ‘‘सुनिए जी, बच्ची का बड़ा मन है डांस शो में जाने के लिए, वैसे हमें उसे रोकना नहीं चाहिए, कितना अच्छा डांस करती है हमारी सान्या. हर वर्ष स्कूल के सालाना कार्यक्रम में भाग लेती है और इनाम भी ले कर आती है हमारी बेटी. हां कह दीजिए न, एक बार मुंबई में डांस शो में जा कर आ जाएगी तो उस का दिल नहीं टूटेगा.’’

सान्या के पिताजी बोले, ‘‘एक बार जाने में तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन वह आगे मौडलिंग के लिए भी तो जिद करेगी, कैसे भेजेंगे उसे?’’

‘‘आप इस डांस शो के लिए तो हां कीजिए, फिर उसे मैं समझा दूंगी,’’ सान्या की मां ने मुसकराते हुए कहा.

अगले दिन जब सान्या की मां व पिताजी ने उसे डांस शो में जाने के लिए हामी भरी तो उसे एक बार को तो विश्वास ही नहीं हुआ. वह कहने लगी, ‘‘मांपिताजी, आप लोग मान गए? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही हूं?’’ मां बोली, ‘‘नहीं बेटी, यह हकीकत है. लेकिन इस के बाद तुम अपनी पढ़ाई में जुट जाओगी, मुझ से वादा करो.’’

‘‘हां मां, पक्का, फिर कभी जिद  नहीं करूंगी,’’ इतना कह सान्या अपनी मां से लिपट गई, ‘‘थैंक्यू मां, थैंक्यू पिताजी, आप दोनों कितने अच्छे हैं.’’ वह खुशी के मारे उछल पड़ी.

अगले ही दिन से डांस शो व मुंबई जाने की तैयारी शुरू हो गई. ऐसा करतेकरते शो का दिन भी आ गया और सान्या अपने मातापिता के साथ मुंबई डांस स्टूडियो में पहुंच गई. उस के मातापिता को दर्शकों में विशिष्ट अतिथि का स्थान मिला था. एकएक

कर सभी कंटैस्टैंट स्टेज पर आए. वे इतने बड़े स्टेज पर अपनी बेटी का डांस शो देखने को उत्सुक थे. स्टेज की साजसजावट, निर्णायक मंडल व दर्शकगण कुल मिला कर सभीकुछ बड़ा ही अच्छा लग रहा था. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि बचपन में 2 चोटियां बना कर घूमने वाली सान्या बड़ी फिल्मी हस्तियों के सामने अपना नृत्य प्रस्तुत करेगी. 3 लोगों का डांस पूरा हुआ और चौथा नंबर सान्या का था.

जैसे ही स्टेज पर उस का नाम पुकारा गया, सान्या के पिताजी का सीना फूल कर चौड़ा हो गया और अगले ही पल सान्या झूम कर स्टेज पर आ पहुंची. उस की नाचने की अदा सब से अलग थी. सभी दर्शकों और निर्णायक मंडल के सदस्यों की तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूंज उठा था. सान्या की मां उस के पिताजी के पास सरक कर मुंह पर हाथ रख कर धीरे से फुसफुसाती हुईर् बोली, ‘‘देखना जी, हमारी सान्या ही प्रथम आएगी, इस का फाइनल्स के लिए जरूर सलैक्शन होगा.’’ जवाब में सान्या के पिताजी ने अपना सिर हामी भरते हुए हिला दिया था.

खैर, शो खत्म हुआ. उस के पिताजी शाम को उसे मुंबई घुमाने के लिए ले कर गए. मरीन ड्राइव पर समुद्र की आतीजाती लहरें सड़क पर ठंडी फुहारें फेंक रही थीं. और हैंगिंग गार्डन में बुड्ढी का जूता देख सान्या बहुत खुश हो गई. कई पुरानी फिल्मों को वहां फिल्माया गया है. सान्या तो अपने सपनों की नगरी में आ पहुंची थी. वह तो सदा के लिए यहां बस जाना चाहती थी. किंतु मांपिताजी तो चाहते हैं कि वह आगे पढ़ाई करे और इस चमकदमक की दुनिया से दूर रहे.

खैर, अगले 2 दिनों में छोटा कश्मीर, नैशनल पार्क, एस्सेल वर्ल्ड आदि सभी जगहों पर घूम कर सान्या अपने मातापिता के साथ घर आ गई. लेकिन आने के बाद वह मुंबई और वहां का बड़ा सा स्टेज ही देखती रही. वह तो चाहती ही न थी कि उस रात की कभी सुबह भी हो. कितनी अच्छी होती है न सपनों की दुनिया. जो सोचो वही हकीकत में रूपांतरित होता नजर आता है. काश, उस का यह सपना हकीकत बन जाए. तभी घड़ी का अलार्म बजा और घर्रघर्र की आवाज ने उसे सोने नहीं दिया. उस ने झट से बटन दबा कर अलार्म बंद कर दिया.

थोड़ी देर में मां की आवाज आई, ‘‘बेटी सान्या, उठो न, तुम्हें कालेज जाने में देर हो जाएगी.’’

‘‘जी मां,’’ कहते हुए सान्या ने अलसाई आंखों से सूर्य को देखा. बाथरूम में जा ठंडे पानी के छींटे अपनी आंखों पर मारे और मां के पास रसोई में जा कर अपने लिए चाय ले कर आई. अखबार पढ़ने के साथ चाय की चुस्कियां लेते हुए सान्या पेज थ्री में फिल्मी हस्तियों के फोटो देख रहे थी. उन्हें देख वह तो रोज ही ख्वाब संजोने लगती कि उसे मुंबई से बुलावा आ रहा है. हर वक्त मुंबईमुंबई, बस मुंबई.

उस की मां उसे समझाती, ‘‘सान्या, हम साधारण लोग हैं, मुंबई में तो बड़बड़े लोग रहते हैं. यह जो फिल्मी दुनिया है न, वास्तविक दुनिया से बहुत अलग है.’’ जवाब में सान्या कहती, ‘‘पर मां, वहां भी तो इंसान ही बसते हैं न. बस, एक बार मैं वहां चली जाऊं, फिर देखना, पैसा, शोहरत सब है वहां. यहां इस छोटे से कसबे में क्या रखा है? आज पढ़ाई पूरी कर भी लूंगी तो कल किसी सरकारी नौकरी वाले डाक्टर, इंजीनियर से तुम मेरा ब्याह कर दोगी और फिर रोज वही चूल्हाचौका. जो जिंदगी तुम ने जी है, वही मुझे जीनी होगी. क्या फायदा मां ऐसी जिंदगी का? मां मैं बड़े शहर में जाना चाहती हूं, मुंबई जाना चाहती हूं, कुछ अलग करना चाहती हूं.’’ मां ने उसे टालते हुए कहा, ‘‘अच्छाअच्छा, अभी तो पहले पढ़ाई पूरी कर ले.’’ लेकिन सान्या का कहां पढ़नेलिखने में मन लगने वाला था. उसे तो फैशन वर्ल्ड अच्छा लगता था, वह तो जागते हुए भी डांस शो और मौडलिंग के सपने देखती थी.

अधूरे प्यार की टीस: क्यों हुई पतिपत्नी में तकरार – भाग 1

राकेशजी अपनी पत्नी सीमा को भरपूर प्यार व सम्मान देते थे और उस की जरूरतों का भी काफी खयाल रखते थे पर सीमा के मन में एक ऐसी शंका ने जन्म ले लिया जिस की वजह से उन की गृहस्थी बिखर गई.

आज सुबह राकेशजी की मुसकराहट में डा. खन्ना को नए जोश, ताजगी और खुशी के भाव नजर आए तो उन्होंने हंसते हुए पूछा, ‘‘लगता है, अमेरिका से आप का बेटा और वाइफ आ गए हैं, मिस्टर राकेश?’’

‘‘वाइफ तो नहीं आ पाई पर बेटा रवि जरूर पहुंच गया है. अभी थोड़ी देर में यहां आता ही होगा,’’ राकेशजी की आवाज में प्रसन्नता के भाव झलक रहे थे.

‘‘आप की वाइफ को भी आना चाहिए था. बीमारी में जैसी देखभाल लाइफपार्टनर करता है वैसी कोई दूसरा नहीं कर सकता.’’

‘‘यू आर राइट, डाक्टर, पर सीमा ने हमारे पोते की देखभाल करने के लिए अमेरिका में रुकना ज्यादा जरूरी समझा होगा.’’

‘‘कितना बड़ा हो गया है आप का पोता?’’

‘‘अभी 10 महीने का है.’’

‘‘आप की वाइफ कब से अमेरिका में हैं?’’

‘‘बहू की डिलीवरी के 2 महीने पहले वह चली गई थी.’’

‘‘यानी कि वे साल भर से आप के साथ नहीं हैं. हार्ट पेशेंट अगर अपने जीवनसाथी से यों दूर और अकेला रहेगा तो उस की तबीयत कैसे सुधरेगी? मैं आप के बेटे से इस बारे में बात करूंगा. आप की पत्नी को इस वक्त आप के पास होना चाहिए,’’ अपनी राय संजीदा लहजे में जाहिर करने के बाद डा. खन्ना ने राकेशजी का चैकअप करना शुरू कर दिया.

डाक्टर के जाने से पहले ही नीरज राकेशजी के लिए खाना ले कर आ गया.

‘‘तुम हमेशा सही समय से यहां पहुंच जाते हो, यंग मैन. आज क्या बना कर भेजा है अंजुजी ने?’’ डा. खन्ना ने प्यार से रवि की कमर थपथपा कर पूछा.

‘‘घीया की सब्जी, चपाती और सलाद भेजा है मम्मी ने,’’ नीरज ने आदरपूर्ण लहजे में जवाब दिया.

‘‘गुड, इन्हें तलाभुना खाना नहीं देना है.’’

‘‘जी, डाक्टर साहब.’’

‘‘आज तुम्हारे अंकल काफी खुश दिख रहे हैं पर इन्हें ज्यादा बोलने मत देना.’’

‘‘ठीक है, डाक्टर साहब.’’

‘‘मैं चलता हूं, मिस्टर राकेश. आप की तबीयत में अच्छा सुधार हो रहा है.’’

‘‘थैंक यू, डा. खन्ना. गुड डे.’’

डाक्टर के जाने के बाद हाथ में पकड़ा टिफिनबौक्स साइड टेबल पर रखने के बाद नीरज ने राकेशजी के पैर छू कर उन का आशीर्वाद पाया. फिर वह उन की तबीयत के बारे में सवाल पूछने लगा. नीरज के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि वह राकेशजी को बहुत मानसम्मान देता था.

करीब 10 मिनट बाद राकेशजी का बेटा रवि भी वहां आ पहुंचा. नीरज को अपने पापा के पास बैठा देख कर उस की आंखों में खिं चाव के भाव पैदा हो गए.

‘‘हाय, डैड,’’ नीरज की उपेक्षा करते हुए रवि ने अपने पिता के पैर छुए और फिर उन के पास बैठ गया.

‘‘कैसे हालचाल हैं, रवि?’’ राकेशजी ने बेटे के सिर पर प्यार से हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया.

‘‘फाइन, डैड. आप की तबीयत के बारे में डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘बाईपास सर्जरी की सलाह दे रहे हैं.’’

‘‘उन की सलाह तो आप को माननी होगी, डैड. अपोलो अस्पताल में बाईपास करवा लेते हैं.’’

‘‘पर, मुझे आपरेशन के नाम से डर लगता है.’’

‘‘इस में डरने वाली क्या बात है, पापा? जो काम होना जरूरी है, उस का सामना करने में डर कैसा?’’

‘‘तुम कितने दिन रुकने का कार्यक्रम बना कर आए हो?’’ राकेशजी ने विषय परिवर्तन करते हुए पूछा.

‘‘वन वीक, डैड. इतनी छुट्टियां भी बड़ी मुश्किल से मिली हैं.’’

‘‘अगर मैं ने आपरेशन कराया तब तुम तो उस वक्त यहां नहीं रह पाओगे.’’

‘‘डैड, अंजु आंटी और नीरज के होते हुए आप को अपनी देखभाल के बारे में चिंता करने की क्या जरूरत है? मम्मी और मेरी कमी को ये दोनों पूरा कर देंगे, डैड,’’ रवि के स्वर में मौजूद कटाक्ष के भाव राकेशजी ने साफ पकड़ लिए थे.

‘‘पिछले 5 दिन से इन दोनों ने ही मेरी सेवा में रातदिन एक किया हुआ है, रवि. इन का यह एहसान मैं कभी नहीं उतार सकूंगा,’’ बेटे की आवाज के तीखेपन को नजरअंदाज कर राकेशजी एकदम से भावुक हो उठे.

‘‘आप के एहसान भी तो ये दोनों कभी नहीं उतार पाएंगे, डैड. आप ने कब इन की सहायता के लिए पैसा खर्च करने से हाथ खींचा है. क्या मैं गलत कह रहा हूं, नीरज?’’

‘‘नहीं, रवि भैया. आज मैं इंजीनियर बना हूं तो इन के आशीर्वाद और इन से मिली आर्थिक सहायता से. मां के पास कहां पैसे थे मुझे पढ़ाने के लिए? सचमुच अंकल के एहसानों का कर्ज हम मांबेटे कभी नहीं उतार पाएंगे,’’ नीरज ने यह जवाब राकेशजी की आंखों में श्रद्धा से झांकते हुए दिया और यह तथ्य रवि की नजरों से छिपा नहीं रहा था.

‘‘पापा, अब तो आप शांत मन से आपरेशन के लिए ‘हां’ कह दीजिए. मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं,’’ व्यंग्य भरी मुसकान अपने होंठों पर सजाए रवि कमरे से बाहर चला गया था.

‘‘अब तुम भी जाओ, नीरज, नहीं तो तुम्हें आफिस पहुंचने में देर हो जाएगी.’’

राकेशजी की इजाजत पा कर नीरज भी जाने को उठ खड़ा हुआ था.

‘‘आप मन में किसी तरह की टेंशन न लाना, अंकल. मैं ने रवि भैया की बातों का कभी बुरा नहीं माना है,’’ राकेशजी का हाथ भावुक अंदाज में दबा कर नीरज भी बाहर चला गया.

नीरज के चले जाने के बाद राकेशजी ने थके से अंदाज में आंखें मूंद लीं. कुछ ही देर बाद अतीत की यादें उन के स्मृति पटल पर उभरने लगी थीं, लेकिन आज इतना फर्क जरूर था कि ये यादें उन को परेशान, उदास या दुखी नहीं कर रही थीं.

अपनी पत्नी सीमा के साथ राकेशजी की कभी ढंग से नहीं निभी थी. पहले महीने से ही उन दोनों के बीच झगड़े होने लगे थे. झगड़ने का नया कारण तलाशने में सीमा को कोई परेशानी नहीं होती थी.

शादी के 2 महीने बाद ही वह ससुराल से अलग होना चाहती थी. पहले साल उन के बीच झगड़े का मुख्य कारण यही रहा. रातदिन के क्लेश से तंग आ कर राकेश ने किराए का मकान ले लिया था.

अलग होने के बाद भी सीमा ने लड़ाईझगड़े बंद नहीं किए थे. फिर उस ने मकान व दुकान के हिस्से कराने की रट लगा ली थी. राकेश अपने दोनों छोटे भाइयों के सामने सीमा की यह मांग रखने का साहस कभी अपने अंदर पैदा नहीं कर सके. इस कारण पतिपत्नी के बीच आएदिन खूब क्लेश होता था.

3 बार तो सीमा ने पुलिस भी बुला ली थी. जब उस का दिल करता वह लड़झगड़ कर मायके चली जाती थी. गुस्से से पागल हो कर वह मारपीट भी करने लगती थी. उन के बीच होने वाले लड़ाईझगड़े का मजा पूरी कालोनी लेती थी. राकेश को शर्म के मारे सिर झुका कर कालोनी में चलना पड़ता था.

फिर एक ऐसी घटना घटी जिस ने सीमा को रातदिन कलह करने का मजबूत बहाना उपलब्ध करा दिया.

उन की शादी के करीब 5 साल बाद राकेश का सब से पक्का दोस्त संजय सड़क दुर्घटना का शिकार बन इस दुनिया से असमय चला गया था. अपनी पत्नी अंजु, 3 साल के बेटे नीरज की देखभाल की जिम्मेदारी दम तोड़ने से पहले संजय ने राकेश के कंधों पर डाल दी थी.

राकेशजी ने अपने दोस्त के साथ किए वादे को उम्र भर निभाने का संकल्प मन ही मन कर लिया था. लेकिन सीमा को यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था कि वे अपने दोस्त की विधवा व उस के बेटे की देखभाल के लिए समय या पैसा खर्च करें. जब राकेश ने इस मामले में उस की नहीं सुनी तो सीमा ने अंजु व अपने पति के रिश्ते को बदनाम करना शुरू कर दिया था.

इस कारण राकेश के दिल में अपनी पत्नी के लिए बहुत ज्यादा नफरत बैठ गई थी. उन्होंने इस गलती के लिए सीमा को कभी माफ नहीं किया.

सीमा अपने बेटे व बेटी की नजरों में भी उन के पिता की छवि खराब करवाने में सफल रही थी. राकेश ने इन के लिए सबकुछ किया पर अपने परिवारजनों की नजरों में उन्हें कभी अपने लिए मानसम्मान व प्यार नहीं दिखा था.

अपनी जिंदगी के अहम फैसले उन के दोनों बच्चों ने कभी उन के साथ सलाह कर के नहीं लिए थे. जवान होने के बाद वे अपने पिता को अपनी मां की खुशियां छीनने वाला खलनायक मानने लगे थे. उन की ऐसी सोच बनाने में सीमा का उन्हें राकेश के खिलाफ लगातार भड़काना महत्त्वपूर्ण कारण रहा था.

उन की बेटी रिया ने अपना जीवनसाथी भी खुद ढूंढ़ा था. हीरो की तरह हमेशा सजासंवरा रहने वाला उस की पसंद का लड़का कपिल, राकेश को कभी नहीं जंचा.

कपिल के बारे में उन का अंदाजा सही निकला था. वह एक क्रूर स्वभाव वाला अहंकारी इनसान था. रिया अपनी विवाहित जिंदगी में खुश और सुखी नहीं थी. सीमा अपनी बेटी के ससुराल वालों को लगातार बहुतकुछ देने के बावजूद अपनी बेटी की खुशियां सुनिश्चित नहीं कर सकी थी.

शादी करने के लिए रवि ने भी अपनी पसंद की लड़की चुनी थी. उस ने विदेश में बस जाने का फैसला अपनी ससुराल वालों के कहने में आ कर किया था.

राकेश को इस बात से बहुत पीड़ा होती थी कि उन के बेटाबेटी ने कभी उन की भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की. वे अपनी मां के बहकावे में आ कर धीरेधीरे उन से दूर होते चले गए थे.

इन परिस्थितियों में अंजु और उस के बेटे के प्रति उन का झुकाव लगातार बढ़ता गया. उन के घर उन्हें मानसम्मान मिलता था. वहां उन्हें हमेशा यह महसूस होता कि उन दोनों को उन के सुखदुख की चिंता रहती है.

इस में कोई शक नहीं कि उन्होंने नीरज की इंजीनियरिंग की पढ़ाई का लगभग पूरा खर्च उठाया था. सीमा ने इस बात के पीछे कई बार कलहक्लेश किया पर उन्होंने उस के दबाव में आ कर इस जिम्मेदारी से हाथ नहीं खींचा था. वह अंजु से उन के मिलने पर रोक नहीं लगा सकी थी क्योंकि उसे कभी कोई गलत तरह का ठोस सुबूत इन के खिलाफ नहीं मिला था.

राकेशजी को पहला दिल का दौरा 3 साल पहले और दूसरा 5 दिन पहले पड़ा था. डाक्टरों ने पहले दौरे के बाद ही बाईपास सर्जरी करा लेने की सलाह दी थी. अब दूसरे दौरे के बाद आपरेशन न कराना उन की जान के लिए खतरनाक साबित होगा, ऐसी चेतावनी उन्होंने साफ शब्दों में राकेशजी को दे दी थी.

पिछले 5 दिनों में उन के अंदर जीने का उत्साह मर सा गया था. वे खुद को बहुत अकेला महसूस कर रहे थे. उन्हें बारबार लगता कि उन का सारा जीवन बेकार चला गया है.

मोबाइल फोन की घंटी बजी तो राकेशजी यादों की दुनिया से बाहर निकल आए थे. उन की पत्नी सीमा ने अमेरिका से फोन किया था.

‘‘क्या रवि ठीकठाक पहुंच गया है?’’ सीमा ने उन का हालचाल पूछने के बजाय अपने बेटे का हालचाल पूछा तो राकेशजी के होंठों पर उदास सी मुसकान उभर आई.

‘‘हां, वह बिलकुल ठीक है,’’ उन्होंने अपनी आवाज को सहज रखते हुए जवाब दिया.

‘‘डाक्टर तुम्हें कब छुट्टी देने की बात कह रहे हैं?’’

समस्या का अंत : बेचारा अंबर, करे तो क्या करे -भाग 2

2 दिन के लिए अंबर फिर घर गया, तो रूपाली का गुस्सा और भी बढ़ा हुआ पाया. भाभी से रूठते हुए बोला,  ‘‘भाभी, तुम कुछ नहीं कर रही हो. मां को समझाओ.’’

‘‘मांजी टेढ़ी खीर हैं भैया, फिरभी देखती हूं, बर्फ को थोड़ाथोड़ा कर के ही पिघलाना होगा. देखती हूं कब तक सफलता मिलती है.’’

अंबर खाली हाथ लौट आया था. इधर घर में दीदी की सासननदों की खातिरदारी का आतंक. वह आराम से अपने गेस्ट हाउस में रह सकता है पर मां की डांट, दीदी के आंसू, जीजाजी का आग्रह, जाए तो कैसे?

कभीकभी अंबर को लगता है कि वह यहां से भाग जाए. उस दिन ऐसे ही भारी मन से आफिस में बैठा काम कर रहा था कि मोबाइल बज उठा :

‘‘क्या कर रहे हो?’’

‘‘इस समय और क्या करूंगा, काम कर रहा हूं.’’

‘‘लंच में निकल पाओगे?’’

‘‘निकल लूंगा पर जाऊंगा कहां?’’

‘‘तुम्हारे दफ्तर के सामने, रेस्तरां है, उस में आ जाओे. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’

‘‘रूपाली, तुम यहां… इंदौर में… कैसे?’’

‘‘मैं ने भी अपना ट्रांसफर करवा लिया है जनाब, और पिछले 1 सप्ताह से मैं यहीं हूं.’’

‘‘और मुझे नहीं बताया.’’

‘‘बता तो दिया, बाकी बातें मिलने के बाद,’’ इतना कह कर रूपाली ने फोन रख दिया.

अंबर का समय मानो काटे नहीं कट रहा था. लंच के समय उस ने आधे दिन की छुट्टी ले ली और महक रेस्तरां पहुंच गया. रूपाली दरवाजे पर खड़ी थी. दोनों कोने की एक सीट पर जा बैठे. बैरा पानी रख गया तो रूपाली ने गिलास उठाया. पानी का घूंट गले के नीचे उतार कर बोली, ‘‘और सुनाओ, क्या हाल है जनाब का.’’

‘‘अभी तक तो बेहाल था पर अब तुम्हारे आने से हाल सुधर जाएगा.’’

‘‘अंबर, तुम ने मुझे क्या समझ रखा है? मैं तमाम उम्र कुंआरी रह कर तुम को इसी तरह रिझाती रहूंगी. अब मैं अपने घर वालों को ज्यादा दिन रोक नहीं पाऊंगी. तुम हमारी शादी को गंभीरता से लो और कुछ करो.’’

‘‘रूपाली, विश्वास करो मेरा, मैं जल्दी ही कुछ करूंगा.’’

‘‘मैं तुम पर पूरा विश्वास करती हूं लेकिन मुझे लगता है तुम पर विश्वास रख कर मुझे कुंआरी ही बूढ़ी होना पड़ेगा.’’

यह सुन कर अंबर का मुंह उतर गया.

‘‘छोड़ो इन बातों को, यह बताओ, बिन्नी दीदी, बच्चे व जीजाजी कैसे हैं?’’

‘‘दीदी पर तरस आता है. सासननद ने मिल कर उन के जीवन को नरक बना दिया है. जीजाजी दुखी तो होते हैं पर बोल कुछ नहीं पाते.’’

इतने में बैरा आया और चाय के साथ पकौड़ों का आर्डर ले गया.

‘‘कुछ दिनों से घर में बड़ी अजीब सी बात हो रही है. मैं परेशान हूं.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘रूपाली, जब मैं यहां आया था तो दीदी के साथसाथ मुझे भी उस की सास के ताने मिलते थे पर अब, अचानक ही दीदी की सास मुझ पर जान छिड़कने लगी हैं.’’

‘‘समझ गई,’’ रूपाली बोली, ‘‘अरे, वह बुढि़या तुम को अपना दामाद बनाना चाहती है.’’

‘‘क्या वो भैंस…असंभव. रूपाली, मुझे तो लगता है कि मुसीबत के साथ मेरा गठबंधन हो गया है.’’

‘‘इतने परेशान क्यों हो रहे हो?’’

‘‘और क्या करूं. कितनी बार तुम को समझाया कि चलो, कोर्ट मैरिज कर लें पर तुम भी सब की आज्ञा, आशीर्वाद ले पारंपरिक विवाह कीजिद पर अड़ी हो. अभी भी मान जाओ तो मैं कल ही अर्जी लगा दूं.’’

‘‘नहीं, कागज की पत्नी बनना मुझे पसंद नहीं. पारंपरिक ढंग से विवाह, हंसीठिठोली, आशीर्वाद, इन सब का मेरे लिए बहुत मूल्य है. भले ही ऊपर से बहुत आधुनिक दिखती हूं.’’

‘‘तब मुझ से अब एक शब्द भी मत कहना. बैठी रहो मेरे इंतजार में या अपने घर वालों की पसंद से कहीं और शादी कर लो.’’

‘‘शांति…शांति…मैं ने तुम को इतना समय दिया, अब तुम भी मुझे थोड़ा समय दो.’’

अंबर घर लौटा तो उसे लगा कहीं कुछ गड़बड़ है. आज जीजाजी की तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए वह घर में ही थे. दीदी की सास का कमरा भी उसे बंद दिखा. आज दीदी ही चायनाश्ता लाई थीं. आंखें सूजी देख कर अंबर को लगा कि वह खूब रोई हैं.

‘‘मुन्ना, चाय ले.’

‘‘दीदी, कुछ हुआ है क्या?’’

दीदी के मुंह खोलने से पहले ही उन की सास आ गईं.

‘‘बहू, अपने भाई से बात की…’’

आज पहली बार देखा कि मां की बात को बीच में काटते हुए जीजाजी ने पत्नी की तरफ मुंह खोला था, ‘‘काम से थक कर लौटा है. दम तो लेने दो.’’

‘‘इसे कौन से पहाड़ ढोने पड़ते हैं. चाय पीतेपीते बात कर लो.’’

‘‘देखो मां, मैं पहले भी कह चुका हूं, फिर कह रहा हूं कि जिस घर से बेटी लाए हैं वहां अपनी बेटी नहीं देंगे.’’

‘‘वह सब परंपरा अब नहीं मानी जाती. फिर कौन सा यह सगा भाई है.’’

‘‘इस के घर में कोई तैयार न हुआ तो?’’

‘‘तेरी सास इस की सगी बूआ है, रिश्ते के लिए उन से दबाव डलवा.’’

जीजाजी भड़के, ‘‘बेटी के लिए मतलब? ब्याह नहीं हुआ तो क्या बिन्नी को मार डालोगी?’’

बिन्नी ने डरतेडरते कहा, ‘‘बूआ को ढेर सारा दहेज चाहिए.’’

‘‘हम से दहेज मांगा तो भतीजी मरी.’’

‘‘होश में तो हो? बिन्नी को कुछ भी हुआ तो मैं ही सब से पहले पुलिस बुलाऊंगा, उस का भाई भी यहां है.’’

मां पैर पटकती, धमकी देती अपने कमरे में चली गईं तो जीजाजी चिंतित से बोले, ‘‘अंबर, मान ही जाओ…दोनों मिल कर बिन्नी का जीवन नरक बना देंगी.’’

बिन्नी दीदी झल्ला कर बोलीं, ‘‘हरगिज नहीं, अगर लाली के साथ मेरे भाई का ब्याह हुआ तो उस का जीवन नरक बन जाएगा. मैं अपने भाई के जीवन को ऐसे बरबाद नहीं होने दूंगी. चाहे मैं मर ही क्यों न जाऊं. आप अपनी बहन को नहीं जानते हैं क्या?’’

समस्या का अंत : बेचारा अंबर, करे तो क्या करे – भाग 1

तबादला हो कर इंदौर आने के बाद अंबर ने कई बार हफ्ते भर की छुट्टी लेने का प्रयास किया पर छुट्टी नहीं मिली. इस बार उस के बौस ने छुट्टी मांगते ही दे दी तो अंबर जैसे हवा में उड़ता हुआ इंदौर से ग्वालियर पहुंचा था. सुबह नाश्ता कर अंबर अपने स्कूटर पर मित्रों से भेंट करने निकल पड़ा तो पीछे से मां चिल्ला कर बोली थीं, ‘‘अरे, जल्दी लौटना. तेरी पसंद का खाना बनाऊंगी.’’

अंबर की मित्रमंडली बहुत बड़ी है और उस के सभी दोस्त उसे बहुत पसंद करते हैं. उसे देखते ही सब उछल पडे़. मित्रों ने ऐसा घेरा कि उसे रूपाली को फोन करने का भी मौका नहीं मिला. बड़ी मुश्किल से समय निकाल पाया और फिर एकांत में जा कर रूपाली को फोन किया. उस का फोन पाते ही वह भी उछल पड़ी.

‘‘अरे, अंबर तुम? इंदौर से कब आए?’’

‘‘आज सुबह ही. सुनो, तुम बैंक से छुट्टी ले लो और अपनी पुरानी जगह पर आ जाओ, वहीं बैठते हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम पहुंचो, मैं आती हूं.’’

अंबर रेस्तरां की पार्किंग में अपना स्कूटर लौक क र जैसे ही गेट पर पहुंचा उस ने देखा रूपाली आटो से उतर रही है. दूर से ही हाथ हिलाती रूपाली पास आई तो दोनों रेस्तरां के एक केबिन में जा बैठे. बैठते ही रूपाली ने प्रश्न किया, ‘‘और सुनाओ, कितनी गर्लफ्रेंड बनीं?’’

‘‘मान गए तुम को…जवाब नहीं तुम्हारा. इतने दिन कैसे रहा, तबीयत कैसी थी, मन लगा कि नहीं? यह सबकुछ पूछने के बजाय मुंह खुला भी तो गर्लफ्रेंड की खोजखबर करने के लिए. निहाल हो गया मैं तो…’’

रूपाली भी गुस्से में थी.

‘‘मैं ही कौन अच्छी थी यहां,’’ गुस्से में तमक कर रूपाली बोली, ‘‘तुम ने कितनी बार पूछा?’’

‘‘अब तुम्हें कैसे समझाऊं कि इंदौर में जिम्मेदारियों के साथसाथ काम भी बहुत है.’’

‘‘प्रमोशन पर गए हो तो दायित्व ज्यादा होगा ही. वैसे अंबर, तुम्हारे जाने के बाद अब मुझे उस शहर में सबकुछ सूनासूना लगता है.’’

‘‘मुझे भी वहां बहुत अकेलापन महसूस होता है. क्या तुम्हारा ट्रांसफर वहां नहीं हो सकता?’’

‘‘मैं कोशिश कर रही हूं. फिर भी काम बनतेबनते 3-4 महीने तो लग ही जाएंगे,’’ अचानक गंभीर हो कर रूपाली बोली.

‘‘अंबर, हंसबोल कर बहुत समय गुजार लिया. अब कहो, तुम अपनी मां से हमारी शादी के बारे में खुल कर बात करोगे या नहीं?’’

‘‘घुमाफिरा कर मैं कई बार मां से कह चुका हूं पर तुम तो जानती हो कि वह कितनी रूढि़वादी हैं. जातिपांति की बेडि़यां तोड़ने को वह कतई तैयार नहीं हैं.’’

‘‘देखो, अगर तुम अम्मां की आज्ञा न ले पाए तो मेरे लिए बस, 2 ही रास्ते हैं कि या तो सब को ठेंगा दिखा कर मैं तुम को घसीट कर अदालत ले जाऊं और वहीं शादी कर लूं, नहीं तो मेरे घर वाले जिस को भी चुनें उस के साथ फेरे ले लूं.’’

‘‘पर डार्लिंग, संतोष का फल मीठा होता है. अभी ऐसा कुछ मत करो, मैं देखता हूं. मुझे कुछ दिनों की मोहलत और दे दो.’’

‘‘तुम को तो 2 वर्ष हो गए पर आज तक देख ही नहीं पाए कुछ.’’

घूमतेफिरते 7 दिन बीत गए पर चाहते हुए भी अंबर मां से अपनी शादी की बात नहीं कर पाया. उस ने भाभी से बात भी की तो भाभी ने यह कह कर रोक दिया कि तुम्हारे  तबादले से अम्मां का मिजाज बिगड़ा बैठा है. वह फौरन समझेंगी कि ठाकुर की बेटी ने योजना बना कर तुम्हें यहां से हटाया है. इस से रहीसही उम्मीद भी हाथ से जाती रहेगी. 3-4 महीने और गुजरने दो, तब बात करेंगे. वैसे भी देवरजी, प्रेम के मजबूत बंधन इतनी जल्दी नहीं टूटते.

अंबर इंदौर लौट आया. यहां वह अपनी दीदी के घर रहता है पर दीदी की दशा देख कर उसे बड़ी दया आती है. असल में बिन्नी दीदी से उस का लगाव बचपन से है. वह अम्मां की चहेती भतीजी महीनों अपनी बूआ के पास आ कर रहती थी. बड़ा हो कर अंबर जब भी अपने मामा के घर जाता, बिन्नी दीदी उस का खूब ध्यान रखती थीं.

जीजाजी तो बहुत ही अच्छे हैं. दीदी का खयाल भी खूब रखते हैं पर उन की बस, यही कमजोरी है कि अपनी मां व बहन के सामने कुछ बोल नहीं पाते, चाहे वे उन की पत्नी पर कितना भी अत्याचार क्यों न करें.

जीजाजी के 2 भाई और भी हैं. दोनों संपन्न हैं. बडे़बड़े घर हैं दोनों के पास पर उन की पत्नियां बिन्नी दीदी की तरह मुंह बंद कर के सारे अत्याचार नहीं सहतीं. मांबेटी के मुंह खोलते ही उन को उन के स्थान पर खड़ा कर देती हैं. चूंकि बिन्नी दीदी सीधी हैं, रोतीबिलखती हैं, सब सह लेती हैं और जीजाजी भी कुछ नहीं कहते, सो दोनों मांबेटी यहीं डेरा डाले रहती हैं.

मामा ने खाली हाथ बिन्नी का ब्याह नहीं किया था. मोटा दहेज दिया था फिर भी उठतेबैठते उसे ताने और गालियां ही मिलती हैं. दोनों मांबेटी दिन भर बैठी, लेटी टीवी देखती हैं, एक गिलास पानी भी खुद ले कर नहीं पीतीं. बेचारी बिन्नी दीदी काम करतेकरते बेहाल हो जाती हैं. उस पर भी दोनों के हुक्म चलते ही रहते हैं.

बिन्नी दीदी पर अंबर जान छिड़कता है. उन की यह दशा देख वह बौखला उठता है. तब दीदी ही झगड़े के भय से उसे शांत करती हैं. दीदी पर भी उसे गुस्सा आता है कि वह बिना विरोध के सारे अत्याचार क्यों सहन करती हैं. एक दिन सिर उठा दें तो मांबेटी को अपनी जगह का पता चल जाएगा पर दीदी घर में क्लेश के भय से चुप ही रहती हैं.

दीदी की ननद अभी तक कुंआरी बैठी है. एक तो कुरूप उस पर से बनावशृंगार  में सलीके का अभाव, चटकीले कपडे़ और चेहरे की रंगाईपुताई कर के तो वह एकदम चुडै़ल ही लगती है. मोटी, नाटी, स्याह काला रंग. अंबर तो देखते ही जलभुन जाता है.

अचानक अंबर ने महसूस किया कि चुडै़ल अब कुछ ज्यादा ही उस का खयाल रखने लगी है. शाम को काम से लौटते ही चायनाश्ते के साथ खुद भी सजधज कर तैयार मिलती है. अंबर आतंकित हो उठा है क्योंकि इन सब बातों का साफ मतलब है कि वह चुडै़ल अंबर को फंसाना चाहती है.

दीदी की सास भी अपनी कर्कश आवाज को नरम कर के  ‘बेटा, बेटा’ करने लगी हैं. अंबर को खतरे की घंटी सुनाई दी. उस रात सब खाने बैठे. पनीर कोफ्ता मुंह में रखते ही जीजाजी चौंके.

‘‘वाह, यह तो तुम्हारे हाथ के कोफ्ते हैं. मां तुम रसोई में कैसे पहुंच गईं?’’

दीदी की सास ने मुंह बनाया और बोलीं, ‘‘चल हट, मैं तो कमर दर्द में पड़ी हूं. लाली ने बनाए हैं कोफ्ते.’’

‘‘अच्छा, लाली को पता है कि रसोई का दरवाजा किधर खुलता है.’’

लाली ने अदा के साथ कंधे झटके और बोली, ‘‘ओह, भइया…’’

‘‘तू क्या जानता है,’’ दीदी की सास बोलीं, ‘‘मुझ से अच्छा खाना मेरी बेटी बनाती है. इस ने तो मन लगा कर पकवान, मिठाई बनाना भी मुझ से सीखा है,’’ फिर अंबर की तरफ मुड़ कर बोलीं, ‘‘अंबर बेटा, मैं इतना काम करती थी कि सब देख कर हैरान होते थे. मेरी सास कहती थीं कि अरी, थोड़ा आराम कर ले, मरेगी क्या काम करतेकरते. अब तो कमर दर्द ने अपाहिज बना दिया है. और अपनी दीदी को देखो, इतनी सुस्त कि 10 मिनट के काम में 2 घंटे लगा देगी.’’

यह सुन कर अंबर की आत्मा जल उठी, स्वादिष्ठ कोफ्ता कड़वा हो गया.

वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई: भाग 1

कभी कभी जिंदगी में कुछ घटनाएं ऐसी भी घटती हैं, जो अपनेआप में अजीब होती हैं. ऐसा ही वाकिआ एक बार मेरे साथ घटा था, जब मैं दिल्ली से हैदराबाद जा रहा था. उस दिन बारिश हो रही थी, जिस की वजह से मुझे एयरपोर्ट पहुंचने में 10 मिनट की देरी हो गई थी और काउंटर बंद हो चुका था. आज पूरे 2 साल बाद जब मैं दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरा और बारिश को उसी दिन की तरह मदमस्त बरसते देखा, तो अचानक से वह भूला हुआ किस्सा न जाने कैसे मेरे जेहन में ताजा हो गया.

मैं खुद हैरान था, क्योंकि पिछले 2 सालों में शायद ही मैं ने इस किस्से को कभी याद किया होगा.

एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर होने के चलते काम की जिम्मेदारियां इतनी ज्यादा हैं कि कब सुबह से शाम और शाम से रात हो जाती है, इस का हिसाब रखने की फुरसत नहीं मिलती. यहां तक कि मैं इनसान हूं रोबोट नहीं, यह भी खुद को याद दिलाना पड़ता है.

लेकिन आज हवाईजहाज से उतरते ही उस दिन की एकएक बात आंखों के सामने ऐसे आ गई, जैसे किसी ने मेरी जिंदगी को पीछे कर उस दिन के उसी वक्त पर आ कर रोक दिया हो. चैकआउट करने के बाद भी मैं एयरपोर्ट से बाहर नहीं निकला या यों कहें कि मैं जा ही नहीं पाया और वहीं उसी जगह पर जा कर बैठ गया, जहां 2 साल पहले बैठा था.

मेरी नजरें भीड़ में उसे ही तलाशने लगीं, यह जानते हुए भी कि यह सिर्फ मेरा पागलपन है. मेन गेट की तरफ देखतेदेखते मैं हर एक बात फिर से याद करने लगा.

टिकट काउंटर बंद होने की वजह से उस दिन मेरे टिकट को 6 घंटे बाद वाली फ्लाइट में ट्रांसफर कर दिया गया था. मेरा उसी दिन हैदराबाद पहुंचना बहुत जरूरी था. कोई और औप्शन मौजूद न होने की वजह से मैं वहीं इंतजार करने लगा.

बारिश इतनी तेज थी कि कहीं बाहर भी नहीं जा सकता था. बोर्डिंग पास था नहीं, तो अंदर जाने की भी इजाजत नहीं थी और बाहर ज्यादा कुछ था नहीं देखने को, तो मैं अपने आईपैड पर किताब पढ़ने लगा.

अभी 5 मिनट ही बीते होंगे कि एक लड़की मेन गेट से भागती हुई आई और सीधा टिकट काउंटर पर आ कर रुकी. उस की सांसें बहुत जोरों से चल रही थीं. उसे देख कर लग रहा था कि वह बहुत दूर से भागती हुई आ रही है, शायद बारिश से बचने के लिए. लेकिन अगर ऐसा ही था तो भी उस की कोशिश कहीं से भी कामयाब होती नजर नहीं आ रही थी. वह सिर से पैर तक भीगी हुई थी.

यों तो देखने में वह बहुत खूबसूरत नहीं थी, लेकिन उस के बाल कमर से 2 इंच नीचे तक पहुंच रहे थे और बड़ीबड़ी आंखें उस के सांवले रंग को संवारते हुए उस की शख्सीयत को आकर्षक बना रही थीं.

तेज बारिश की वजह से उस लड़की की फ्लाइट लेट हो गई थी और वह भी मेरी तरह मायूस हो कर सामने वाली कुरसी पर आ कर बैठ गई. मैं कब किताब छोड़ उसे पढ़ने लगा था, इस का एहसास मुझे तब हुआ, जब मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी.

ठीक उसी वक्त उस ने मेरी तरफ देखा और तब तक मैं भी उसे ही देख रहा था. उस के चेहरे पर कोई भाव नहीं था. मैं सकपका गया और उस पल की नजर से बचते हुए फोन को उठा लिया.

फोन मेरी मंगेतर का था. मैं अभी उसे अपनी फ्लाइट मिस होने की कहानी बता ही रहा था कि मेरी नजर मेरे सामने बैठी उस लड़की पर फिर से पड़ी. वह थोड़ी घबराई हुई सी लग रही थी. वह बारबार अपने मोबाइल फोन पर कुछ चैक करती, तो कभी अपने बैग में.

मैं जल्दीजल्दी फोन पर बात खत्म कर उसे देखने लगा. उस ने भी मेरी ओर देखा और इशारे में खीज कर पूछा कि क्या बात है? मैं ने अपनी हरकत पर शर्मिंदा होते हुए उसे इशारे में ही जवाब दिया कि कुछ नहीं.

उस के बाद वह उठ कर टहलने लगी. मैं ने फिर से अपनी किताब पढ़ने में ध्यान लगाने की कोशिश की, पर न चाहते हुए भी मेरा मन उस को पढ़ना चाहता था. पता नहीं, उस लड़की के बारे में जानने की इच्छा हो रही थी.

कुछ मिनट ही बीते होंगे कि वह लड़की मेरे पास आई और बोली, ‘सुनिए, क्या आप कुछ देर मेरे बैग का ध्यान रखेंगे? मैं अभी 5 मिनट में चेंज कर के वापस आ जाऊंगी.’

‘जी जरूर. आप जाइए, मैं ध्यान रख लूंगा,’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

‘थैंक यू. सिर्फ 5 मिनट… इस से ज्यादा टाइम नहीं लूंगी आप का,’ यह कह कर वह बिना मेरे जवाब का इंतजार किए वाशरूम की ओर चली गई.

10-15 मिनट बीतने के बाद भी जब वह नहीं आई, तो मुझे उस की चिंता होने लगी. सोचा जा कर देख आऊं, पर यह सोच कर कि कहीं वह मुझे गलत न समझ ले. मैं रुक गया. वैसे भी मैं जानता ही कितना था उसे. और 10 मिनट बीते. पर वह नहीं आई.

अब मुझे सच में घबराहट होने लगी थी कि कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया. वैसे, वह थोड़ी बेचैन सी लग रही थी. मैं उसे देखने जाने के लिए उठने ही वाला था कि वह मुझे सामने से आती हुई नजर आई. उसे देख कर मेरी जान में जान आई. वह ब्लैक जींस और ह्वाइट टौप में बहुत अच्छी लग रही थी. उस के खुले बाल, जो शायद उस ने सुखाने के लिए खोले थे, किसी को भी उस की तरफ खींचने के लिए काफी थे.

वह अपना बैग उठाते हुए एक फीकी सी हंसी के साथ मुझ से बोली, ‘सौरी, मुझे कुछ ज्यादा ही टाइम लग गया. थैंक यू सो मच.’

मैं ने उस की तरफ देखा. उस की आंखें लाल लग रही थीं, जैसे रोने के बाद हो जाती हैं. आंखों की उदासी छिपाने के लिए उस ने मेकअप का सहारा लिया था, लेकिन उस की आंखों पर बेतरतीबी से लगा काजल बता रहा था कि उसे लगाते वक्त वह अपने आपे में नहीं थी. शायद उस समय भी वह रो रही हो.

खिलाड़ियों के खिलाड़ी : मीनाक्षी की जिंदगी में कौन था आस्तीन का सांप – भाग 1

विशाल की बातें सुन कर मीनाक्षी अपने सुरक्षित एवं सुखद भविष्य की कल्पना करने लगी थी. उसे लगा कि अब अपनी पुरानी घिनौनी जिंदगी से उसे छुटकारा मिल जाएगा, लेकिन वह खुद के गिरेबां में कहां झांक रही थी, उसे अपनी गलतियों का एहसास ही नहीं था. फिर एक दिन…

राज्यके चीफ सैक्रेटरी विशाल दिल्ली से आए कुछ उच्च अधिकारियों के साथ हाईलेवल और मोस्ट सीक्रेट मीटिंग में अपना मोबाइल साइलैंट तथा वाइब्रेट मोड पर रख कर बैठे हुए थे. मीटिंग की अध्यक्षता राज्य के मुख्यमंत्री कर रहे थे. मीटिंग शुरू हुए आधा घंटा हुआ था कि उन के सामने उन का रखा मोबाइल वाइब्रेट हुआ.

विशाल ने देखा कि मोबाइल की एक्स्ट्रा लार्ज स्क्रीन पर ‘एम एन’ ये 2 अक्षर बारबार उभर रहे थे. विशाल को यह सम?ाने में देर न लगी कि यह मीनाक्षी नाईक की कौल है. एसी रूम होने के बावजूद विशाल के माथे पर पसीने की बूंदें फैल गईं, उस ने धीरे से अपनी जेब से रूमाल निकाल कर माथे पर फेर दिया, फिर सब से नजरें चुराते हुए ‘मैं मीटिंग में हूं’ लिख कर मैसेज भेज दिया.

विशाल की आंखों के सामने ‘एम एन’ अर्थात मीनाक्षी नाईक की मदहोश करने वाली मोहक छवि उभर आई जिस ने पिछले कुछ समय से उस की नींद हराम कर दी थी. शहर के एक कुख्यात गुंडे अरुण नाईक की पत्नी मीनाक्षी अपने पति के मुकदमे के सिलसिले में करीब 4 साल पहले एक दिन उस से मिलने उस के औफिस आई थी जब वह राज्य के सचिव के पद पर आसीन था.

जब मीनाक्षी नाईक पहली बार उस की केबिन में दाखिल हुई थी तब वह उसे देखते ही रह गया था. विशाल की नजरें मीनाक्षी के चेहरे से हटने का नाम नहीं ले रही थीं. उस ने अपनी जिंदगी में पहली बार इतनी खूबसूरत महिला देखी थी. बड़ेबड़े कजरारे नशीले नैन, गुलाब की पंखुडियों से रसभरे होंठ, उफनता वक्षस्थल जहां से साड़ी का पल्लू किंचित नीचे खिसक गया था जिसे वह उचित स्थान पर स्थिर करने की असफल कोशिश कर रही थी. काली और घनी रेशमी जुल्फों की लटें उस के चांद से चेहरे पर अठखेलियां करते हुए कभी आंखों, तो कभी गालों, तो कभी लरजते लबों को छू रही थीं जिन्हें वह बारबार कभी अपने कोमल हाथ से तो कभी अपनी सुराही सी गरदन से झटक कर हटाने की कोशिश कर रही थी लेकिन हर बार उसे नाकामयाबी ही मिल रही थी.

मीनाक्षी ने मुसकराते हुए कहा, ‘गुडमौनिंग सर.’

मीनाक्षी नाईक की मधुर और खनकती आवाज से विशाल की तंद्रा टूटी, वह संभलते हुए बोला, ‘यस, यस वैरी गुडमौर्निंग, प्लीज हैव ए सीट.’

‘थैंक्यू सर,’ कहते हुए मीनाक्षी कुरसी पर बैठ गई. अब मीनाक्षी विशाल के बिलकुल समीप आ गई थी.

‘बोलिए मैडम, मैं आप की क्या सहायता कर सकता हूं,’ मीनाक्षी के चेहरे से नजर हटाते हुए विशाल ने कहा.

‘सर, मैं पहले अपना परिचय देना चाहूंगी. मैं मीनाक्षी नाईक, अरुण नाईक की पत्नी हूं. मैं अपने पति पर चल रहे मुकदमे के सिलसिले में आप से सहायता मांगने आई हूं.’

अरुण नाईक का नाम सुनते ही विशाल की भौंहें तन गईं. वह क्रोधित होते हुए बोला, ‘तो तुम नाईक गैंग के मुखिया अरुण नाईक की पत्नी हो जिस ने पुलिस और सरकार की नाक में दम कर रखा है. शार्पशूटर अरुण नाईक के अपराधों का कोई हिसाब नहीं है. मु?ो माफ करना इस बारे में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता,’ कहते हुए विशाल ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘सर, मेरी बात तो सुनिए. इस मामले को प्रैस ने जरूरत से ज्यादा उछाला है. दरअसल,’ मीनाक्षी अपनी बात पूरी भी न कर पाई थी कि तभी विशाल की केबिन में उन के सहायक ने आ कर बताया कि मुख्यमंत्री ने उन्हें तुरंत बुलाया है. इसी बीच मीनाक्षी ने विशाल का विजिटिंग कार्ड ले लिया और उन से विदा लेते हुए वह केबिन से बाहर आ गई.

मीनाक्षी नाईक केबिन से बाहर जरूर चली गई थी मगर उस की मादक और मोहक छवि युवा अफसर विशाल की नजरों के सामने बारबार आ रही थी. विशाल की पत्नी दिल्ली में थी, वह मायानगरी में अकेला ही रह रहा था. बैठेबैठे न जाने उस के मन में ऐसेवैसे विचार आने लग गए. वह अपनेआप को संयमित रखने की नाकाम कोशिश करता रहा. उस का काम में भी मन नहीं लग रहा था. विशाल सोचने लगा कि राज्य के ज्यादातर मंत्री भी तो भ्रष्ट हैं. वे कई बार उस से अपने रिश्तेदारों या यारदोस्तों के फेवर में काम करवाते रहते हैं. फिर उस के विभाग के छोटेमोटे अफसर भी तो दूध के धुले नहीं हैं.

काश, वह मीनाक्षी की पूरी बात सुन लेता. उसे अपनेआप पर गुस्सा आने लगा. दोचार दिन बीत गए. न तो मीनाक्षी का फोन आया न ही वह दोबारा मिलने औफिस में आई. शिकार खुद चल कर आया था और उस ने सुनहरा मौका गंवा दिया था. उस की फाइल ले कर रख लेता, फिर टिपिकल सरकारी अफसर की तरह ‘अभी देख रहा हूं’, ‘कोशिश कर रहा हूं’, ‘मैं ने ऊपर बात कर ली है’, ‘आगे बात हो रही है’, ‘कुछ वक्त लगेगा’, ‘मामला थोड़ा पेचीदा है मगर तुम्हारा काम हो जाएगा’ आदि जुमलों में तो वह भी माहिर है.

एक दिन दोपहर में विशाल लंच से फारिग हो कर अपनी केबिन में सुस्ताते हुए किसी पत्रिका के पन्ने पलट रहा था. तभी टेबल के एक कोने में रखे मोबाइल की घंटी बजी. उस ने लपक कर मोबाइल उठाया. उधर से आवाज आई-

‘हैलो सर, मैं मीनाक्षी बोल रही हूं.’

मधुर आवाज सुन विशाल की सुस्ती पलभर में फुरती में बदल गई. ‘हां, बोलो मीनाक्षी, उस दिन मु?ो मुख्यमंत्री ने बुला लिया था, इसलिए मैं तुम्हारी बात ध्यान से नहीं सुन सका. फिर औफिस में दिनभर काम का टैंशन भी रहता है.’

‘कोई बात नहीं सर, मैं दोबारा आ जाती हूं. अगर आप बुरा न मानें तो मैं फाइल ले कर शाम को आप के बंगले पर आ जाऊं?’

विशाल मन ही मन खुश होते हुए बोला, ‘नेकी और पूछपूछ.’ फिर उस ने अपने उतावलेपन व उत्साह पर अंकुश रखते हुए गंभीर स्वर में कहा, ‘ठीक है, वैसे मैं बंगले पर किसी को बुलाता नहीं हूं, पर तुम आ जाना.’

‘ओके सर, मैं आज शाम को आती हूं,’ कहते हुए मीनाक्षी ने फोन काट दिया.

बंगले पर पहुंच कर विशाल ने सब से पहले अपने किचन स्टाफ को वीआईपी गैस्ट के आने की सूचना दी. फिर अन्य कर्मचारियों को बारबार यहांवहां न घूमने की सख्त हिदायत दी. रात को 8 बजे मीनाक्षी खूबसूरत गुलदस्ते के साथ विशाल के बंगले पर पहुंच गई.

विशाल ने धन्यवाद देते हुए गुलदस्ता स्वीकार किया. गुलदस्ता लेते वक्त मीनाक्षी के कोमल हाथों का जादुई स्पर्श उस के रोमरोम को रोमांचित कर गया. विशाल ने गुलदस्ता मेज पर रखा और मीनाक्षी को सोफे पर अपने करीब बैठने का इशारा किया. मीनाक्षी ?ाक कर सोफे पर बैठने लगी तो उस की साड़ी का पल्लू उस के उभरे हुए वक्षस्थल से हट गया, जिसे उस ने तुरंत संभाला. पर विशाल की पैनी नजरों ने इस नजारे को कैद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

औपचारिक बातों के बाद मीनाक्षी अपने बैग से मुकदमे से संबंधित फाइल निकालने लगी. तो विशाल ने उस का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘अरे, रहने दो मीनाक्षी. इसे बाद में देख लेंगे. तुम पहली बार हमारे आशियाने में आई हो, पहले डिनर करेंगे, फिर तुम्हारी फाइल देख लेंगे.’

डाइनिंग हौल में डिनर लग चुका था. डिनर करने से पहले हौट डिं्रक की भी व्यवस्था थी. विशाल ने मीनाक्षी को डिं्रक की ओर चलने का इशारा किया तो पहले तो उस ने आनाकानी की, मगर विशाल के खास आग्रह करने पर वह मना नहीं कर सकी और अपने हाथ में पैग ले लिया.

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