पोर्न स्टार : क्या सुहानी को खूबसूरती के कारण जॉब मिली?- भाग 1

“पर सुहानी, जरा देख तो… तू जो यह कपड़ा खरीद रही है… कितना हलका है… मेरा मतलब है कि तू अगर इस का सूट बनवाएगी, तो अंदर का पूरा जिस्म बाहर से ही दिखाई देगा,” रिचा ने फुसफुसाते हुए कहा.

“तू उस की चिंता मत कर रिचा. मुझे इन मर्दों को अपना बदन दिखाना भी है और छिपाना भी है, तभी असली मजा आता है. जब इस महीन कपड़े का कुरता मेरे बदन पर कसेगा और मेरा गोरा बदन इस में से झांकेगा, तब देखना कि सारे मर्द कैसे किसी कुत्ते की तरह लार टपकाते हुए मेरे आगेपीछे घूमते नजर आएंगे,” सुहानी ने एक आंख दबाते हुए कहा.

“कितनी बेशर्म हो गई है तू… कैसी बदतमीजी की बातें करने लगी है,” रिचा ने कहा.

“इस में मैं क्या करूं, मैं हूं ही इतनी खूबसूरत. मेरी गली के लड़के मुझे सनी लियोनी कहते हैं,” यह कहते हुए सुहानी बड़ी तेज हंसने लगी.

“सनी लियोनी… छी… वह जो गंदी फिल्मों की हीरोइन… छी… कितना गंदा काम करती है वह.”

“अपनी सोच बदल रिचा… वह एक पोर्न स्टार है पोर्न स्टार… वह भले ही अपने जिस्म की नुमाइश फिल्म के परदे पर करती है, पर इस में कुछ गलत तो नहीं. उस ने किसी की हत्या नहीं की, किसी का रेप नहीं किया, बल्कि वह तो एक ऐसा काम करती है, जिसे सभी मर्द देखना पसंद करते हैं…

“पैसा कमाने के लिए कोई भी रास्ता गलत नहीं होता… कल को अगर मुझे पोर्न फिल्मों में काम करने का मौका मिला, तो मैं भी जरूर करना चाहूंगी… आखिर ये मेरे दोनों ‘अबलूडबलू’ किस दिन काम आएंगे,” इतना कह कर सुहानी ने अपने बड़े उभारों की तरफ देखा और सीने को थोड़ा सा बाहर उचका सा दिया. उस की बोल्डनैस देख कर रिचा दंग रह गई.

“अब तुझ से क्या छिपाना रिचा… मैं आजकल ‘इंगलिश स्पीकिंग कोर्स’ भी कर रही हूं, क्योंकि बिना इंगलिश बोले अच्छे लोगों के बीच में आप की कोई पूछ नहीं है… तुझे भी सीखना हो तो बताना,” सुहानी ने कहा.

सुहानी महज 18 साल की थी, पर उस के सपने बहुत ऊंचे थे. वह ढेर सारा पैसा कमाना चाहती थी और उस के लिए भले ही उसे कुछ भी करना पड़ जाए. जितनी बोल्डनैस उस की बातों में थी, उतनी ही बोल्ड वह अपने शरीर और हावभाव से भी नजर आती थी. लंबा शरीर, गोरा रंग, चेहरे पर सुतवां नाक और बड़े उभार जो तने हुए रहते और लोगों की नजरों का केंद्र बनते.

सुहानी अपनी इस खूबसूरती का फायदा उठा कर अपने शहर में नौकरी के लिए आवेदन करने लगी, पर जिस खूबसूरती को सुहानी अपनी सब से बड़ी ताकत मानती थी, वही खूबसूरती उस के लिए परेशानी खड़ी करने लगी. जहां भी वह इंटरव्यू देने जाती, लोग उस के बड़े और खूबसूरत उभारों को निहारते रह जाते और इंटरव्यू में बड़े अजीब से सवाल भी पूछते. मसलन… ‘आप हमारे लिए अलग से ऐसा क्या करेंगी जो हम आप को यह नौकरी दें? या ‘लाइफ एक कंप्रोमाइज है, तो आप किस तरह से कंप्रोमाइज करेंगी?’

पहलेपहल तो सुहानी ऐसे सवालों का मतलब समझ नहीं पाई और उसे कई जगह से नौकरी देने के लिए मना भी कर दिया गया, पर अब बारबार ठोकर खा कर सुहानी खूब समझ गई थी कि बौस और मालिक लोग उस से क्या उम्मीद करते हैं, इसलिए वह पूरी तरह से अपनेआप को तैयार कर के इस इंटरव्यू के लिए औफिस में घुसी थी.

“हमारे यहां नाइट शिफ्ट करने में आप को या आप के घर वालों को कोई परेशानी तो नहीं होगी?” बौस ने पूछा.

“जी, मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. और रही बात मेरे घर वालों की तो उन का पूरा सपोर्ट मुझे मिलता है,” सुहानी ने जवाब दिया.

“आप आगे बढ़ने के लिए क्याक्या कर सकती हैं?”

“जी सर… आगे बढ़ने के लिए हमें मेहनत करने के साथ और भी बहुत तरह के समझौते करने पड़ते हैं. मैं ऐसे किसी भी समझौते के लिए तैयार हूं,” सुहानी बेबाक हो कर बोल रही थी.

“पर फिर भी मिस सुहानी, हम आप को यह जौब क्यों दें, जबकि हमारे पास आप से भी ज्यादा पढ़ेलिखे लोगों ने आवेदन किया है?” बौस ने सवाल किया.

“सर, मैं कोई भी काम उन सब लोगों से बेहतर ढंग से कर सकती हूं… आप एक बार मुझे मौका दें, मैं आप को वे सारी सेवाएं दूंगी, जिन की उम्मीद कंपनी एक अच्छे मुलाजिम से करती है,” और इस जवाब के साथ सुहानी ने बौस का भरोसा तो जीत ही लिया, साथ ही साथ यह नौकरी भी हासिल कर ली.

सुहानी जैसी कम उम्र की लड़की के लिए इतनी बड़ी कंपनी में किसी भी तरह का जौब पाना एक बड़ी बात थी, क्योंकि यह कंपनी अपने यहां काम करने वालों को अच्छी तनख्वाह देती थी.

सुहानी खूबसूरत तो थी ही और जब वह नाभि दिखाती साड़ी और उस पर बड़े गले का कट स्लीव ब्लाउज पहन कर औफिस आती तो सारे मर्द मुलाजिम आहें भरते रह जाते.

यह सुहानी के जिस्म की खूबसूरती और उस के हिंदी और इंगलिश को मिला कर बात करने का तरीका ही था, जिस ने उसे औफिस में बहुत जल्दी तरक्की दिला दी और वह अपने बौस के काफी करीब होती गई.

“क्या तुम अच्छा खाना बना लेती हो सुहानी?” एक दिन बौस ने सुहानी को अपने केबिन में बुला कर पूछा.

“हां सर, कामचलाऊ तो बना ही लेती हूं, पर आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?” सुहानी ने पूछा.

“दरअसल, बात ऐसी है कि मेरी पत्नी कुछ दिनों के लिए मायके गई है और मुझे बाहर का खाना रास नहीं आता है, इसलिए अगर तुम मेरे घर आ कर रात का खाना बना सको, तो मुझे बाहर का खाना नहीं खाना पड़ेगा,” बौस ने सुहानी के सीने की तरफ देखते हुए कहा.

“बिलकुल सर, मैं आप के लिए बहुत मजेदार खाना बना दूंगी,” सुहानी ने भी हामी भर दी.

शाम को जब बौस के रसोईघर में सुहानी खाना बना रही थी, तभी बौस ने सुहानी को पीछे से आ कर अपनी बांहों में भर लिया और उसे बेतहाशा चूमने लगा.

सुहानी ने थोड़ाबहुत विरोध किया, पर वह सिर्फ दिखावे के लिए था. सुहानी ने अपने मन को समझा रखा था कि अगर इस दुनिया में पैसा कमाना है तो यह सब तो करना ही पड़ेगा. कितनी सारी फिल्मी हीरोइनें हैं, जो इसी दम पर आगे बढ़ी हैं.

इसी बीच बौस ने सुहानी के सारे कपड़े उतार फेंके और वे दोनों बिस्तर पर थे. सुहानी ने अपने बौस को सैक्स में भी निराश नहीं किया. यह देख कर बौस बहुत खुश हुआ.

कंवल और केवर की प्रेम कहानी- भाग 3

कैद में पड़ी कंवल को रहरह कर केवर की याद सताए जा रही थी. चिंता में डूबी जमीन पर पड़ी कंवल के सामने एकदम से टुन्ना मानो कहीं से प्रकट हो गई. कंवल ने उसे देख कर हैरानी से पूछा, ‘‘तुम यहां कैसे आई?’’ टुन्ना ने हड़बड़ी में कंवल से कहा, ‘‘मैं और सां झी यहां दासदासी बन कर आए हैं.

कल ही मैं ने यहां दासी की नौकरी ली है. केवर सिंह को भी बंदी बनाया गया है. मैं तु झ तक सारे संदेश पहुंचाती रहूंगी, तू बस सब्र रखना. हम तुम दोनों को जल्द ही छुड़ा कर ले जाएंगे.’’ केवर के बंदी बनाए जाने की खबर सुन कंवल को खूब चोट पहुंची.

उसे अब यह महसूस होने लगा कि शायद दोनों की कहानी यहीं इसी कैद में सिमट कर खत्म हो जाएगी कि तभी कुछ सोचविचार कर टुन्ना ने इधरउधर नजरें दौड़ा कर माहौल का मुआयना करते हुए कंवल के कान में एक योजना सुनाते हुए कहा, ‘‘देख कंवल, मैं और सां झी एक बहुत बड़ी योजना के साथ यहां आए हैं, तो सुन…’’ टुन्ना ने सारी योजना कंवल को कह सुनाई. उस रात ही टुन्ना खाना ले कर केवर सिंह की कोठरी में पहुंची. खाने की थाली के नीचे टुन्ना ने एक कटार को ठीक से पकड़ रखा था.

जैसे ही टुन्ना ने थाली को केवर सिंह की ओर सरकाया, साथ में कटार भी सरका दी.  केवर सिंह टुन्ना को वहां देख कर अवाक से रह गया. टुन्ना ने आंखें बड़ी करते हुए केवर को चुप रहने का इशारा किया और बाहर खड़े सिपाही फालूदा खां को एक गिलास भांग पकड़ाते  हुए बोली, ‘‘यह तुम्हारे लिए है  फालूदा खां.’’ ‘‘मेरे लिए… पर क्यों?’’ ‘‘नहीं चाहिए, तो लाओ वापस ले जाती हूं.’’

‘‘अरे, नहींनहीं अब पी ही लेता हूं,’’ फालूदा खां ने एक सांस में सारी भांग गटकते हुए टुन्ना को धन्यवाद दिया, पर इतना कहते ही वह सिपाही खूनी उलटी करता हुआ वहीं ठंडा पड़ गया.

कोठरी में बैठा हुआ केवर सबकुछ देख रहा था. सिपाही के दम तोड़ते ही वह इस सब का मतलब सम झ चुका था. उन्होंने वह कटार उठाई और किसी तरह से उस कोठरी से निकल गया.

अ गले दिन केवर के कोठरी से भाग जाने की खबर पूरे दरबार में फैल गई. बादशाह ने अब केवर को जिंदा या मुरदा लाने का आदेश दे डाला.  आदेश मिलते ही औसाफ खां नामक दरबारी ने केवर को मारने का जिम्मा उठा लिया. उधर केवर मेवाड़ के एक सरहदी गांव के मुखिया गंगो भील से मदद की संधि करने पहुंचा.  गंगो भील ने उसे भरोसा दिया कि अगर लड़ाई हुई तो उसे 60 गांवों के भीलों का पूरा समर्थन रहेगा.  औसाफ खां केवर की तलाश कर के थक चुका था.

उस ने बड़े भारी मन से महमूद को जा कर अपनी नाकामी की खबर सुनाई.  महमूद ने पूरे गुजरात में केवर की धर पकड़ शुरू करवा दी. बाहर से आने वाली हर पालकी, हर घुड़सवार, व्यापारी, हर किसी की तलाशी ले कर ही उसे सरहद के भीतर आने दिया जाता.  योजना के मुताबिक दूसरी पारी खेलने की बारी कंवल की थी. कंवल ने महमूद से कहा, ‘‘बादशाह, मैं अब केवर का इंतजार करकर के थक चुकी हूं. मैं नामसम झ थी जो आप के शादी के प्रस्ताव को ठुकरा कर केवर के पीछे पागल थी, पर अब इस बेवकूफ कंवल को सम झ आ चुका है कि उस ने कितनी बड़ी भूल की है.

आप मु झे माफ कर दीजिए और एक बार मु झे अपनी गलती सुधारने का मौका दीजिए.’’ ‘‘तुम ने सही सम झा. अब तक उस केवर की लाश कहीं पड़ी सड़ रही होगी. बस एक सपना अधूरा रह गया हमारा कि हम उस के सामने तुम से निकाह करना चाहते थे,’’ बादशाह महमूद खुद को काफी नरमदिल और महान दिखाने की कोशिश में लगा था, पर अंदर ही अंदर वह भी कंवल जैसी खूबसूरत लड़की  को जल्द से जल्द अपनी बेगम बनाना चाहता था.  कंवल धीरे से बोली, ‘‘लेकिन मेरी कुछ शर्तें हैं.’’ ‘‘कैसी शर्तें?’’ कंवल ने शर्तें बतानी शुरू कीं, ‘‘पहली, हमारी शादी एकादशी वाले दिन ही होगी.

दूसरी, विवाह हिंदू रीतिरिवाज से ही होगा. तीसरी, शादी के दिन जब आप बुलंद गुंबज में पधारें तो खूब आतिशबाजियां हों और आखिरी शर्त यह कि हमारी शादी देखने का हक सब को होना चाहिए. मेरी मां भी पालकी में बैठ कर बुलंद गुंबज में आएं.’’

‘‘हमें तुम्हारी सारी शर्तें मंजूर हैं,’’ महमूद उस दिन काफी खुश था. कंवल को मालूम था कि सां झी और केवर मेवाड़ में उस का अगला संदेशा आने का इंतजार कर रहे होंगे.

अब टुन्ना को महल से निकालने की बारी थी, सो उसी के हाथ यह आखिरी संदेशा भिजवाना रह गया था.  कंवल ने टुन्ना से कहा, ‘‘केवर से कहना कि एकादशी को मारवाड़ के व्यापारी मूंदड़ा की बरात अजमेर से अहमदाबाद आएगी. रास्ते में आप उसी बरात में वेश बदल कर शरीक हो जाना, ताकि बरात के साथसाथ आप भी दरबार में प्रवेश कर सकें.

‘‘यही एक रास्ता है अहमदाबाद में घुसने का, क्योंकि अब भी यहां आप की छानबीन खूब जोरशोर से चल रही है. आगे की योजना अहमदाबाद पहुंचने  के बाद.’’ जाने से पहले टुन्ना ने कंवल को एक बार गले लगा कर कहा, ‘‘अब कुछ ही दिनों की बात है कंवल…’’

एकादशी का दिन भी नजदीक था, उधर टुन्ना के मुंह से यह संदेशा सुन कर केवर और सां झी ने अपने दूसरे दोस्तों के साथ अहमदाबाद में घुसने की तैयारियां शुरू कीं. महमूद भी कंवल से अपनी शादी की तैयारियों में दिल से जुटा हुआ था. वह आखिरी घड़ी आज आ चुकी थी और हथियारों से लैस केवर और उस के साथी तयशुदा समय और योजना के मुताबिक बरात में जा मिले.

उधर महमूद के लिए हाथी सजाया जा चुका था. बरात के आगेपीछे शहनाई वादक थे, नगाड़े बज रहे थे, ढोल की थाप सब के जी में खड़े हो कर नाचने की उमंग भर रही थी. बीच मे हाथी पर सवार महमूद के आगे सिपाहियों के घोड़े और हाथी थे.

उधर कंवल की मां जवाहर पातुर के घर पर अपनी योजना के मुताबिक केवर तैयार बैठा था. पालकी वाले जवाहर पातुर को बुलंद गुंबज में ले जाने को आ चुके थे.  टुन्ना ने पालकी वालों का ध्यान भटकाए रखा और उधर केवर साड़ी पहने पालकी के भीतर जा बैठा.

बुलंद गुंबज पहुंचते ही कंवल पालकी देख खुशी से  झूम उठी. सैनिकों ने पालकी को जमीन पर रखा कि टुन्ना ने उन्हें बाहर भेज दिया. केवर बाहर निकला. साड़ी में होने के चलते उस पर किसी को कोई शक नहीं हुआ.  सैनिक बाहर जा चुके थे. अब अंदर सिर्फ केवर और कंवल ही थे. इतने दिनों बाद एकदूसरे को आमनेसामने देख दोनों के सब्र का बांध टूट गया.

कंवल से रहा न गया और वह दौड़ती हुई केवर से जा मिली. दोनों ने खूब आंसू बहाए. तभी टुन्ना के कानों में पटाकों की आवाज सुनाई पड़ी.  कंवल ने कहा, ‘‘महमूद शाह आ गया है.’’ केवर जा कर पीछे वाली एक मीनार के पीछे छिप गया. कंवल सहजता के भाव लिए अपनी जगह पर पहुंच गई.

अब थोड़ी ही देर में गुंबज के भीतर सिर्फ 4 जने ही थे टुन्ना, कंवल, केवर और बादशाह महमूद.  महमूद अपनी बेगम से मिलने को उतावला उस के कमरे में जाने ही वाला था कि उधर से केवर ने महमूद की गरदन को अपनी बगल में भींचते हुए उस का दम निकलना चाहा.

महमूद का चेहरा अब पीला पड़ने लगा था. उस की आंखें बाहर को निकल आईं कि तभी महमूद अपनी तलवार तक अपना हाथ पहुंचाने में कामयाब हो गया, पर उस की तलवार का वार केवर के सिर के ऊपर से गुजर गया.  क ेवर दांवपेंच में कुशल था, सो निहत्था ही चंद मिनटों की गहमागहमी के बाद महमूद पर काबू पा गया.  महमूद की चीखें सुनने वाला कोई न था.

बाहर आतिशबाजी और कारतूसों के धमाके उस की चीखें दबा रहे थे. अपनी ही तलवार के वार से महमूद के प्राण पखेरू उड़ गए.  टुन्ना ने किसी के अंदर आने से पहले ही कंवल और केवर को पालकी में बैठा दिया और पालकी वालों को बुला कर कहा, ‘‘लो जवाहर पातुर को उन के घर छोड़ दो. आज बादशाह  रानी कंवल के साथ यहीं रुकेंगे तो  उन्हें परेशान न कीजिएगा,’’ कह कर टुन्ना भी फटाफट जवाहर पातुर के घर पहुंच गई. जवाहर पातुर के घर पहुंच कर कंवल और केवर ने उन के चरणों में गिर कर आशीर्वाद मांगा. बाहर सां झी  3 घोड़े लिए तैयार खड़ा था.  सां झी ने टुन्ना और केवर ने कंवल को अपने साथ अपने घोड़े पर बैठाया और पीछेपीछे जवाहर पातुर भी अपनी नई आजाद जिंदगी इज्जत से जीने की चाह लिए घोड़े पर चली जा रही थी.

कंवल और केवर की प्रेम कहानी- भाग 2

केवर सिंह के नाम के जयकारे लगाने वाली एक तरफ की प्रजा जैसे शांत सी हो गई हो, वहीं दूसरी तरफ वाली प्रजा की रगों में जैसे अपने साथी हुक्काम को जीतता देख खून बिजली की रफ्तार से दौड़ने लगा.  अब चारों ओर ‘हुक्काम’ का शोर था, पर आखिर में एक विचित्र से दांव के साथ हुक्काम को रेतीली जमीन पर पटकनी देते हुए केवर सिंह ने खेल का सारा नतीजा ही बदल दिया.

केवर के हुक्काम को पटकने की देरी ही थी कि प्रजा अखाड़े में कूद कर केवर सिंह को कंधों पर चढ़ाए मस्ती से ?ामने लगी. नगाड़े बजने लगे और लोग मस्ती से ?ामने लगे.  केवर सिंह की नजर कंवल पर पड़ी ही थी कि वह एक मुसकान के साथ शरमा कर रह गई.  ‘‘अरे कंवल, तुम यहां. आज भी…’’ केवर और कंवल अभी कल ही मिले थे. आज भी उसे यहां देख कर केवर ने कंवल से पूछा. ‘‘हां, मैं ने सुना कि आप रोजरोज ही अपना बलप्रदर्शन कर रहे हैं, तो आज भी देखने चले आई,’’ कंवल ने अल्हड़पने में जवाब दिया. ‘‘अरे नहीं, ऐसा कुछ नहीं,’’ केवर ने ?ोंपते हुए कहा और कंवल को अपने गले लगा लिया.

सारा दिन सैरसपाटे और बाग में घूमने के बाद शाम हो चली थी. कंवल की सहेली टुन्ना ने अब कंवल से वापस चलने को कहा.  कंवल केवर सिंह को छोड़ कर यों जाना तो नहीं चाहती थी, पर उसे भी रात होने से पहले घर पहुंचना था.  क ेवर सिंह ने कंवल और टुन्ना से कहा कि उन्हें अब जल्द ही निकलना चाहिए. सां?ा ने केवर सिंह से कहा, ‘‘केवर, अब अंधेरा होने ही वाला है, इसलिए मु?ो लगता है कि हमें इन के साथ एक सिपाही भी भेजना चाहिए.’’

टुन्ना और कंवल ने इस के लिए इनकार किया, पर केवर ने हामी भरी और दोनों सहेलियों के लिए एक हथियारबंद सिपाही को बुलाया गया और कहा कि तुम्हें इन दोनों लड़कियों के साथ जाना है. इन को महफूज पहुंचाना तुम्हारी जिम्मेदारी है.

वह सिपाही अपने प्यासे घोड़े को तुरंत पानी पिलाने ले गया और जाने  की तैयारी करने लगा. उतने में ही केवर सिंह ने कंवल को अपने बाहुपाश में भरते हुए आखिरी बार उस के माथे को चूमते हुए उसे घोड़े पर बैठाया और  उधर सां?ा और टुन्नी का भी फिलहाल अपने प्यार को विराम देने का समय  आ चुका था. सब चलने को तैयार थे.

आगे दोनों लड़कियां और पीछे हथियारबंद सिपाही. जवाहर पातुर आज कंवल को बादशाह के संग शादी करने के लिए मनाने की सोच कर घर के लिए निकली थी, पर घर पर कंवल को न देखने के बाद उस के कानों में महमूद की वह बात गूंजने लगी, ‘तुम दिनभर यहां रहती हो. तुम्हारी बेटी सुबह से शाम तक कहां जाती है, क्या करती है, इस की तुम्हें क्या खबर…’  पातुर को अब लगने लगा था कि शायद महमूद की बात ठीक थी.  अब कंवल की शादी कर देना ही  ठीक रहेगा.

कंवल और टुन्ना के घोड़े कंवल के दरवाजे पर आ कर रुके. टुन्ना का घर अभी और आगे था, सो वह वहां से चलती बनी.  जवाहर पातुर घर से बाहर निकली तो तैश में थी, पर साथ में सिपाही को देख कर बेटी को उस के सामने डांटना ठीक न सम?ा.  सिपाही जाने की तैयारी करने लगा, तो जवाहर पातुर ने सामने से कहा, ‘‘रात काफी हो चुकी है.

अभी मीलों का सफर तय करना खतरे से खाली नहीं और  तुम्हें भूख भी लगी होगी, तो आज  रात यहीं रुको. कल सवेरे जल्दी  निकल जाना.’’ कंवल ने भी कहा, तो वह सिपाही रुकने को तैयार हो गया. रात को भोजन करने के बाद आरामकक्ष में उस के सोने का इंतजाम कर दिया गया.

रात को मौका देख कर जवाहर पातुर ने बेटी कंवल से आज हुई सारी घटना सुना दी.   मां की बात सुन कर कंवल ने कहा, ‘‘क्या… मैं उस महमूद से शादी कर लूं… उस अधेड़ से. मां, तुम ने देखा नहीं कि वह किस गलत नजर से वह मेरी तरफ देख रहा था.

मैं तो उस के हावभाव से  ही पहचान गई थी कि यह इनसान ठीक नहीं है.  ‘‘और क्या 2 लाख रुपए मैं वह आप से मेरा सौदा करना चाहता है. अरे, उस से कहना कि केवर सिंह के सामने उस का सारा साम्राज्य कम है.’’ ‘‘बेटी, तू सम झ नहीं रही है… तू जवाहर पातुर की बेटी है. तू इतने बड़े सपने न देख. खेलकूद अलग चीज है और जिंदगी अलग.’’ ‘‘उस महमूद से कहना कि जिस ने शेर केवर सिंह को गले लगाया हो वह गीदड़ महमूद को अपना पति नहीं बना सकती,’’

कंवल बोली. कंवल की बेपरवाही पर जवाहर पातुर ने एक जोर का तमाचा उस के गाल पर जड़ दिया. कंवल अपनी मां की कठोरता पर फूटफूट कर रोने लगी.  करुणा के आगे क्रोध कहां ठहर पाता है. अपने प्रेम के लिए तड़पती बेटी का दुख मां से न देखा गया.

उसे याद आया कि कैसे उसे भी उस जालिम महमूद ने अपने प्रेमजाल में फांस कर बड़ेबड़े सपने दिखाए थे, उसे अपने दरबार में जगह दी थी, पर इस सब की कीमत  उस महमूद ने उसे वेश्या बना कर वसूल की थी.  जवाहर पातुर को सम झ आ चुका था कि यही गलती वह इस बार फिर करने जा रही है. उस ने अपनी बेटी कंवल को हिम्मत देते हुए कहा, ‘‘बेटी, तू उसी घराने में शादी करेगी जहां तेरी इच्छा है. तु झे मेरी ओर से पूरी छूट है. तु झे अपनी जिंदगी को अपने मनमुताबिक जीने का पूरा हक है.’’

अगले दिन अपने विवाह प्रस्ताव के ठुकरा दिए जाने की खबर सुन कर बादशाह महमूद शाह की आंखों में मानो खून उतर आया. उस ने कंवल और केवर को कैद करने का हुक्म देते हुए कहा, ‘‘तुम लोगों में से जो भी केवर को बंदी बना कर मेरे पास लाएगा,

उसे केवर की जागीर का नया मालिक बना दिया जाएगा.’’ क ंवल को तो कैद कर लिया गया पर केवर को कैदी बनाने की हिम्मत हर किसी में न थी. पर बादशाह महमूद को खुश करने के लिए और केवर की जागीर के लालच में जलाल नामक दरबारी ने केवर को कैद करने का वचन दे डाला. जलाल को मालूम था कि हिंदुओं में होली का त्योहार बहुत धूमधाम से बनाया जाता है.

होली के दिन जलाल केवर की जागीर में होली का  झूठा निमंत्रण ले कर केवर के महल पहुंच गया.  केवर सिंह ने भी बादशाह महमूद का निमंत्रण स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘बादशाह से कहना कि हमारी इस बार की होली हम उन्हीं के साथ मनाएंगे.’’ होली में अब कुछ ही दिन बाकी थे.

उधर कंवल को महल में रख बादशाह ने बहुत बड़ी गलती की थी. बादशाह चाहता था कि वह केवर के सामने ही कंवल से शादी करेगा.  होली का दिन आ चुका था. बादशाह के यहां केवर सिंह को लाया गया, पर महल में घुसते ही उस के गले और हाथों में लोहे की भारीभारी बेडि़यां डाल दी गईं. केवर की सम झ में नहीं आया कि यह सब क्या हो रहा है. बादशाह ने केवर सिंह को कैद में डाल दिया. उधर उस की जागीर पूरी तरह से बादशाह के कब्जे में ली जा चुकी थी.

कंवल और केवर की प्रेम कहानी- भाग 1

जवाहर पातुर ने कई बार कंवल को चेताया… तू इस महल में नहीं आएगी. कोई बात होगी तो तभी बताना, जब मैं घर आ जाया करूं…’’ कंवल का रूपरंग भी अपनी मां से कहीं ज्यादा बढ़ कर था. जवाहर पातुर यह कभी नहीं चाहती थी कि उस की फूल सी बच्ची पर उस नामुराद महमूद शाह की काली छाया पड़े. उन दिनों बादशाह महमूद शाह के राजघराने में वेश्याओं का अच्छाखासा तांता लगा रहता था. बादशाह के हरम में हुस्न की कोई कमी न थी. उन्हीं में से एक रूपवती थी जवाहर पातुर. बादशाह महमूद शाह के साम्राज्य में वेश्या जवाहर पातुर की खूबसूरती का बोलबाला था.

सब ने यही सुना था कि बादशाह के हरम में कई आईं और गईं, पर एक जवाहर पातुर ही है, जिसे हरम में रानी के समान ही सारी सहूलियतें मुहैया थीं.  जवाहर पातुर की बेटी कंवल भी कभीकभी अपनी मां से मिलने महल में आ जाया करती थी, पर पातुर को यह पसंद न था. वैसे अब तक ऐसा नहीं हुआ कि महमूद और कंवल ने एकदूसरे को आमनेसामने देखा हो, पर आज वह महमूद की नजरों से बच न सकी.  महमूद ने इस से पहले ऐसी बला की खूबसूरती न देखी थी.

कंवल अपनी सहेली टुन्ना के साथ अपनी मां के कमरे में बैठ बाटिया के जागीर कुंवर केहर सिंह चौहान के मल्लयुद्ध में बड़ेबड़े पहलवानों को पस्त करने के दांवपेंचों का शब्दचित्र खींच कर अपनी मां को सुना ही रही थी कि उसी वक्त महमूद का मन पातुर के साथ समय बिताने को किया, तो वह दनदनाते हुए उस के कमरे में चला आया. उस दिन यह कंवल और महमूद शाह की पहली मुलाकात थी.

दोनों ने पहली बार एकदूसरे को आमनेसामने देखा था.  महमूद ने बड़ी गर्मजोशी से कंवल का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘अरे पातुर, तुम ने आज तक बताया क्यों नहीं कि तुम्हारी बेटी इतनी बड़ी हो गई है और इन्हें महल भी इतने दिन बाद ले कर आई हो. कभी हम से तो मिलवाने के लिए ले आती.’’ ‘‘जी हुजूर, पर यह हाथ ही कहां आती है. दिनभर तो अपनी सहेलियों के साथ मटरगश्ती में लगी रहती है,’’ जवाहर पातुर ने चापलूसी वाली हंसी हंसते हुए टुन्ना की ओर देखते हुए कहा.  ‘‘चलिए, कोई बात नहीं. अब आप को यहां आते रहना है. कभी किसी चीज की कमी हो, तो बे?ि?ाक बता देना. और तुम्हें हम से मिलने के लिए किसी की इजाजत लेने की भी जरूरत नहीं है,’’ महमूद ने कंवल की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा.  कंवल हड़बड़ी में अपनी मां और महमूद से विदा ले कर अपनी सहेली टुन्ना के संग वहां से निकल गई. महमूद ने कंवल को थोड़ी देर और रोकना चाहा, पर फिर कुछ सोच कर रुक गया.

उस दिन सारी रात महमूद शाह किसी गहरी सोच में डूबा रहा. वह कभी इस ओर करवट लेता, तो कभी उस ओर. और कभी बारबार एक ?ाटके से उठ कर बैठ जाया करता.  अगले दिन किसी अनमनी सी सोच में उल?ा महमूद फिर जवाहर पातुर के कमरे में गया और थोड़ी देर इधरउधर की बात करने के बाद उसे बाजुओं से पकड़ता हुआ बोला, ‘‘देखो पातुर, मैं तुम्हें कुछ बताने के लिए आया हूं…’’ मानो महमूद के मन में क्या है, उस का अंदाजा वह लगा पा रही हो, पर फिर भी अपने अंदेशे को अपने ही अंदर छिपाते हुए बोली, ‘‘हुजूर, कुछ कहना था तो मु?ो बुला लिया होता.

अब बादशाह  को किसी को कुछ कहने के लिए  उस के पास जाना पड़े, यह तो कोई बात नहीं हुई.’’ ‘‘तुम वह सब छोड़ो पातुर और यह बताओ कि क्या तुम अपनी बेटी कंवल को मेरी रानी बनाना चाहोगी?’’ पातुर मानो यही सुनने के लिए रुकी थी. उसे मालूम था कि कल जिस तरह से महमूद ने उस की बेटी की पीठ को हाथ से सहलाया था, वह उस का दिखावा मात्र था.

वह बोली, ‘‘लेकिन हुजूर, वह अभी काफी छोटी है. उस के लिए अभी भी राजपाठ ऐशोआराम से कहीं ज्यादा बढ़ कर अपनी सहेलियां और दोस्त हैं. उसे अभी इस हरम में न डालिए.

मैं आप को मना नहीं कर रही हूं, बस थोड़ा रुकने को कह रही हूं.’’ जवाहर पातुर को जो अंदेशा था, ठीक वही हुआ. वह कल ही सम?ा चुकी थी कि महमूद की आवारा नजर उस की बेटी पर पड़ चुकी है और कभी भी महमूद की यह मांग हो सकती है कि उसे अब कंवल से निकाह करना है. ‘‘देखो, मां को अपने बच्चे हमेशा छोटे ही लगते हैं, पर किसी और से पूछो तो वह बताएगा कि कंवल अब कितनी बड़ी हो चुकी है. तुम समाज के बारे में सोचो… दिनभर तुम यहां रहती हो, उधर वह पूरे दिन क्या करती है, किस से मिलती है, कौन जानता है. इधर एक रानी की हैसियत से इस महल में रहेगी, तो तुम सोच ही सकती हो कि क्या शान होगी तुम लोगों की.  ‘‘खैर, चलो छोड़ो. अभी फिलहाल उस से कहना कि बादशाह ने उसे 2 लाख रुपए सालाना जागीर देने का फैसला किया है,’’ महमूद घेरने में माहिर था. वह अपना काम निकलवाने के लिए अपनी जबान का इस्तेमाल करना बखूबी जानता था.

2 लाख रुपयों का लालच पातुर की आन को तोड़ने लगा था. उस ने बादशाह से कहा, ‘‘ठीक है हुजूर, मैं बात करूंगी कंवल से.’’ ‘‘मैं जानता हूं पातुर कि तुम मेरी ख्वाहिश पूरी करने में जान लगा दोगी. आज तक तुम ने यही तो किया है,’’ कहते हुए बादशाह पातुर के कमरे से बाहर आ गया.

उधर सूरज को आसमान में चढ़े थोड़ी ही देर हुई थी कि कंवल अपनी सखी टुन्ना के संग घोड़ों पर सवार हो कर गुजरात की छोटी सी जागीर बारिया के मालिक कुंवर केवर सिंह चौहान के बाहुबल का कारनामा देखने उन की जागीर में जा रही थी.

आज केवर सिंह की हुक्काम से कुश्ती की प्रतियोगिता थी. यह जागीर बादशाह महमूद शाह के साम्राज्य के अधीन ही थी.  कंवल को महल पहुंचने में थोड़ी देर हो गई थी. उधर कुश्ती का खेल शुरू हो चुका था. कंवल और उस की सहेली टुन्ना को आता देख कुंवर केवर सिंह के दोस्त सां?ा ने उन्हें दर्शकों की भीड़ में रास्ता बना कर आगे की ओर ला कर अलग जगह पर बैठा दिया, जहां से सिर्फ राजघराने के लोगों को ही कार्यक्रम देखने की इजाजत थी.

केवर सिंह को हुक्काम सिंह पर भारी पड़ते देख कंवल खुशी के मारे सभी के साथ जोर से शोर मचाती, तालियां पीटती. उस की सहेली टुन्ना और सां?ा कंवल की यह बचकानी हरकत को देख उस पर ठहाके लगाते और उस का मजाक बनाते.  खेल के मिजाज से यह साफ जाहिर था कि आज केवर सिंह का दिन ठीक नहीं है.

हिकमत- क्या गरीब परिवार की माया ने दिया शादी के लिए दहेज?- भाग 1

दावतों में जाना माया को पसंद नहीं था क्योंकि वह बदले में किसी को दावत नहीं दे सकती थी, खासकर उस घर में जहां यह इंतजार रहता था कि कब वह शादी कर के विदा हो और उस की चारपाई की जगह पर उस के भतीजे की पढ़ने की मेज लग सके. लेकिन यह दावत विभागाध्यक्ष मनोरमाजी ने अपने पति मनोज की तरक्की होने की खुशी में दी थी, न जाने पर मनोरमाजी नाराज हो जातीं और उन्हें नाराज करना जल में रह कर मगर से बैर मोल लेना था.

दावत में मनोरमाजी के ही नहीं मनोज के औफिस के लोग भी थे. परस्पर परिचय के बाद, सदाबहार विषय देश की वर्तमान स्थिति पर बहस छिड़ गई.

‘‘वर्तमान स्थिति तो बहुत ही हास्यास्पद है भई, सुबह के समय सरेआम यानी खुले में फारिग होते लोग मोबाइल पर बतिया रहे होते हैं, कहीं और मिलेगी पिछड़ेपन और आधुनिकीकरण की ऐसी मिसाल?’’ मिर्जा साहब की बात पर जोरदार ठहाका लगा.

‘‘एक मिसाल और भी है, हमारे समाज में एक ओर तो लिव इन रिलेशनशिप जीरो है और दूसरी ओर आधुनिक उच्च जातियां अभी भी जातिबिरादरी और दहेज के लेनदेन में बुरी तरह पिछड़ी हुई हैं. उन के उत्थान के आसार मुझे अपनी जिंदगी में तो नजर नहीं आ रहे,’’ एक युवक ने उत्तेजित स्वर में कहा.

‘‘ऐसी क्या नाराजगी है अपनी उच्च जाति से, विद्याधर, साफसाफ बताओ बंधु?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘आप सब अकसर पूछते रहते हैं न कि शादी कब कर रहे हो तो सुनिए, मेरी शादी इस जन्म में तो होने से रही क्योंकि हमारे श्रीपंथ समाज में लड़कों का मूल्य निर्धारित है यानी उतनी मोटी रकम दहेज में लिए बगैर मेरे मांबाप  मेरी शादी नहीं करेंगे, बिरादरी में इज्जत का सवाल है और मेरे जैसे मामूली सूरतशक्ल, नौकरी और परिवार यानी हर तरह से औसत लड़के के लिए कोई उतनी रकम क्यों देगा जबकि उतने में मुझ से बेहतर घरवर मिल सकता है.

‘‘अपनी पसंद की या दूसरी जाति में शादी करने का मतलब है, अपनी जाति से बहिष्कार और आजकल जो यह औनर किलिंग का चलन शुरू हो गया है, वह सोच कर तो बिरादरी से बगावत करते हुए भी डर लगता है. कहिए, क्या यह सब पिछड़ापन नहीं है?’’ विद्याधर ने पूछा, ‘‘अगर अपनी बिरादरी की लड़की से भी कम दहेज ले कर शादी कर लूं तो इसे बगावत समझा जाएगा और इस के अलावा मेरी मां, बहनें और मामीचाची वगैरह ताने देदे कर उस लड़की का जीना दुश्वार कर देंगी कि सस्ते में हमारा लाखों का बेटा फंसा लिया. सो, मेरे लिए तो बेहतर यही है कि शादी ही न करूं.’’

माया को लगा जैसे विद्याधर उसी की भावनाएं या व्यथा व्यक्त कर रहा था.

‘‘मूल्य निर्धारण या औनर किलिंग छोटे कसबों की बातें हैं विद्याधर, देश की राजधानी में रहने वाले तुम पर लागू नहीं होतीं,’’ मनोरमाजी बोलीं.

‘‘बात कसबे या राजधानी की नहीं, पिछड़ेपन की हो रही है भाभीजी. और वह तो राजधानी में भी घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है, खासकर दहेज और जाति के मामले में.’’

किसी अन्य की टिप्पणी पर माया की हिम्मत बढ़ी और वह बोली, ‘‘आप लोग ठीक कह रहे हैं, औनर किलिंग का तो मालूम नहीं लेकिन राजधानी में भी श्रीपंथ संप्रदाय में तो लड़कों का मूल्य या दहेज की रकम तय है. लड़की चाहे कितनी भी अच्छी हो उस राशि से कम में उस की शादी का सवाल ही नहीं उठता और लड़का चाहे लूलालंगड़ा भी हो, बिकेगा फिक्स्ड रेट पर ही.’’

‘‘तुम्हें यह सब कैसे मालूम है?’’ मनोरमाजी ने पूछा.

‘‘क्योंकि मैं भी श्रीपंथ समाज से ही हूं. मेरी योग्यता और तगड़ी तनख्वाह से दहेज की रकम में कोई रियायत करने को तैयार नहीं है.’’

‘‘तो तनख्वाह से दहेज की रकम जोड़ लो…’’

‘‘और उस के लिए बरसों मन मार कर जीओ,’’ माया ने उस की बात काटी, ‘‘यह सुझाव अकसर मिलता रहता है मगर मुझे यह सौदा मंजूर नहीं है.’’

‘‘होना भी नहीं चाहिए,’’ विद्याधर ने सराहना के स्वर में कहा, ‘‘अगर युवा वर्ग इस प्रथा के सामने घुटने न टेके तो समाज के ठेकेदार स्वयं ही इस प्रथा को समाप्त करने पर मजबूर हो जाएंगे.’’

‘‘हमारे समाज में एक नहीं, कई कुरीतियां ऐसी हैं जिन के सामने घुटने टेकने बंद कर दिए जाएं तो यह जहान जन्नत बन जाए. तुम्हारे से पहले न जाने कितने लोग यह सपना देख चुके हैं विद्याधर…’’

‘‘और न जाने कितने देखेंगे, मिश्राजी,’’ मनोज ने मिश्राजी की बात काटी, ‘‘पत्तागोभी के छिलके छीलने के बजाय आप फूलगोभी के पकौड़े खाइए.’’

मनोज ने तो बात बदल दी लेकिन मनोरमाजी के दिमाग में यह बात जैसे घर कर गई. सब के जाने के बाद उन्होंने मनोज से कहा, ‘‘माया और विद्याधर दोनों जब एक ही जाति के हैं तो क्यों न हम कोशिश कर के दोनों की शादी करवा दें?’’

‘‘विद्याधर से यह सुनने के बाद भी कि दहेज लाने वाली सजातीय लड़की का भी उस की मांबहनें जीना दुश्वार कर देंगी?’’ मनोज ने कहा, ‘‘उन दोनों ने अपने हालात से समझौता कर के जीना सीख लिया है, सो तुम भी उन्हें चैन से जीने दो.’’

लेकिन मनोरमाजी जानती थीं कि दोनों चैन से नहीं बड़ी बेचैनी से जी रहे थे. माया की तनख्वाह से जुटाई गई सुखसुविधाओं का मजा लूटने वाले भाईभाभी उसे परिवार का अनचाहा सदस्य समझते थे और मां भी उन का साथ देती थीं.

यही हाल तकरीबन विद्याधर का भी था, मां उसे चायखाना देते हुए यह याद दिलाना नहीं भूलती थीं कि उन की उमर अब काम करने की नहीं, बहू से सेवा करवाने की है और अकसर आने वाली बहनें भी यह कह कर बिसूरती रहती थीं कि वे अपने पतियों को इसलिए साथ नहीं ला सकतीं कि मां पर काम का बोझ बढ़ जाएगा. जैसे माया जानबूझ कर ससुराल नहीं जा रही थी और विद्याधर शादी से मना कर रहा था. मनोरमाजी ने सोच लिया कि वह माया और विद्याधर को अकसर मिलवाया करेंगी. जल्दी ही संयोग भी बन गया. मनोज को औफिस के काम से कुछ सप्ताह के लिए विदेश जाना पड़ा. औफिस में बकाया काम तो रहता ही है सो, उसे निबटाने के बहाने मनोरमाजी ने एक रोज माया को देर तक रुकने को कहा.

अनोखी जोड़ी: विशाल ने अवंतिका को तलाक देने से क्यों मना कर दिया? -भाग 1

दिल्ली की एक अदालत में विशाल अपनी मुसीबतों का बखान कर रहा था और इस में भी वह अपने को कठिनाइयों में घिरा पा रहा था, क्योंकि कहानी 8 वर्षों से चली आ रही थी.

विशाल मुंबई की एक मशहूर तेलशोधक कंपनी में अधिकारी था. किसी काम से दिल्ली आया तो चांदनी चौक में अवंतिका से मुलाकात हो गई…वह भी रात के 1 बजे.

खूबसूरत अवंतिका रात में सीढ़ी पर खड़ी हो कर दीवार पर ‘कांग्रेस गिराओ’ का एक चित्र बना रही थी. नीचे खड़ा विशाल उस की दस्तकारी को देख रहा था. तभी बड़ी तूलिका ने अवंतिका के हाथ से छूट कर विशाल के चेहरे को हरे रंग से भर दिया.

उस छोटी सी मुलाकात ने दोनों के दिलों को इस कदर बेचैन किया कि उन्होंने ‘चट मंगनी पट ब्याह’ कहावत को सच करने के लिए अगले ही दिन अदालत में जा कर अपने विवाह का पंजीकरण करवा लिया.

प्रेम में कई बार ऐसा भी होता है कि वह पारे की तरह जिस तेजी से ऊपर चढ़ता है उसी तेजी से नीचे भी उतर जाता है. अवंतिका के 2 कमरों के मकान में दोनों का पहला सप्ताह तो शयनकक्ष में बीता किंतु दूसरे सप्ताह जब जोश थोड़ा ठंडा हुआ तो विशाल को लगा कि उस से शादी करने में कुछ जल्दी हो गई है, क्योंकि अवंतिका का आचरण घरेलू औरत से हट कर था. नईनवेली पत्नी यदि पति व घर की परवा न कर अपनी क्रांतिकारी सक्रियता पर ही डटी रहे तो भला कौन पति सहन कर पाएगा.

विवाह के 10वें दिन से ही विवाद में घर के प्याले व तश्तरियां शहीद होने लगे तो स्थिति पर धैर्यपूर्वक विचार कर विशाल ने पत्नी को छोड़ना ही उचित समझा.

8 वर्ष बीत गए. इस बीच विशाल की कंपनी ने कई बार उसे शेखों से सौदा करने के लिए सऊदी अरब व कुवैत भेजा. अपनी वाक्पटुता व मेहनत से विशाल ने लाखों टन तेल का फायदा कंपनी को कराया तो कंपनी के मालिक मुंशी साहब बहुत खुश हुए और उसे तरक्की देने का निर्णय लिया, किंतु अफवाहों से उन्हें पता चला कि विशाल का पत्नी से तलाक होने वाला है. कंपनी के मालिक नहीं चाहते थे कि उन के किसी कर्मचारी का घर उजडे़. अत: विशाल के टूटते घर को बचाने के लिए उन्होंने उस के मित्र विवेक को इस काम पर लगाया कि वह इस संबंध  विच्छेद को बचाए. जाहिर है कहीं न कहीं कंपनी की प्रतिष्ठा का सवाल भी इस से जुड़ा था.

विशाल से मिलते ही विवेक ने जब उस के तलाक की खबर पर चर्चा शुरू की तो वह तमक कर बोला, ‘‘यह किस बेवकूफ के दिमाग की उपज है.’’

‘‘खुद मुंशी साहब ने फरमान जारी किया है. प्रबंध परिषद चाहती है कि कंपनी के सब उच्चाधिकारी पारिवारिक सुखशांति से रहें, कंपनी की इज्जत बढ़ाएं.’’

‘‘क्या बेवकूफी का सिद्धांत है. कंपनी को अधिकारियों की निपुणता से मतलब है कि उन के बीवीबच्चों से?’’‘‘भैया, वातानुकूलित बंगला, कंपनी की गाड़ी, नौकरचाकर आदि की सुविधा चाहते हो तो परिषद की बात माननी ही होगी. वार्षिक आम सभा में केवल 1 महीना ही बाकी है. तुम अवंतिका को ले कर आम बैठक में शक्ल दिखा देना, पद तुम्हारा हो जाएगा. बाद में जो चाहे करना.’’

‘‘अवंतिका इस छल से सहमत नहीं होगी…विवेक और मैं उसे मना नहीं सकता. औंधी खोपड़ी की जो है,’’ इतना कह कर विशाल अपने तलाक को अंतिम रूप देने के लिए निकल पड़ा.

अदालत में दोनों के वकील तलाक की शर्तों पर आपस में बहस करते रहे जबकि वे दोनों भीगी आंखों से एकदूसरे को देखते रहे. पुराना प्रेम फिर से दिल में उमड़ने लगा, बहस बीच में रोक दी गई क्योंकि जज उठ कर जा चुके थे. मुकदमे की अगली तारीख लगा दी गई.

अदालत के बाहर बारिश हो रही थी. एक टैक्सी दिखाई दी तो विशाल ने उसे रोका. अवंतिका का हाथ भी उठा हुआ था. दोनों बैठ गए. रास्ते में बातें शुरू हुईं:

‘‘क्या करती हो आजकल?’’

‘‘ड्रेस डिजाइनिंग की एक कंपनी में काम करती हूं और सामाजिक सेवा के कार्यक्रमों से भी जुड़ी हूं…जैसे पहले करती थी.’’

‘‘अच्छा, किस के साथ?’’

‘‘हेमंतजी के साथ. वह मेरे अधिकारी भी हैं. वैसे तो उन से मेरी शादी भी होने वाली थी किंतु अचानक तुम मिले और मेरे दिलोदिमाग पर छा गए. याद है न तुम्हें?’’

‘‘कैसे भूल सकता हूं उन हसीन पलों को,’’ विशाल पुरानी यादों में खो गया. फिर बोला, ‘‘तुम अभी भी उसी घर में रहती हो?’’

एक नई दिशा : क्या अपना मुकास हासिल कर पाई वसुंधरा – भाग 1

पोस्टमैन के जाते ही वसुंधरा ने जैसे ही लिफाफा खोला वह खुशी से उछल पड़ी और जोर से आवाज लगा कर मां को बुलाने लगी.

मां गायत्री ने कमरे में प्रवेश करते हुए घबरा कर पूछा, ‘‘क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘मां, आप की बेटी बैंक में अफसर बन गई. यह देखो, मेरा नियुक्तिपत्र आया है,’’ और इसी के साथ वसुंधरा मां से लिपट गई.

‘‘क्या…’’ कहने के साथ गायत्री का मुंह विस्मय से खुला का खुला रह गया.

‘‘मां, मैं न कहती थी कि मैं एक दिन अपने पैरों पर खड़े हो कर दिखाऊंगी. बस, आप मुझे सहयोग दो. देखो, मां, आज वह दिन आ गया,’’ वसुंधरा भावुक हो कर बोली.

मां की आंखों से खुशी के छलकते आंसू पोंछते हुए उस ने गले में चुन्नी डाली और बैग उठाते हुए बोली, ‘‘मां, मैं ममता मैडम के घर जा रही हूं, उन्हें अपना नियुक्तिपत्र दिखाने. मैडम कालिज से अब वापस आ चुकी होंगी.’’

वसुंधरा का बस चलता तो वह उड़ कर ममता मैडम के पास चली जाती, जो बी.एससी. में पहले साल से ले कर तीसरे साल तक उस को फिजिक्स पढ़ाती रहीं और उस का मार्गदर्शन भी करती रहीं. आज खुशी का यह दिन उन के मार्गदर्शन का ही नतीजा है.

वसुंधरा को याद हैं अतीत के वे दिन जब प्राइमरी स्कूल के अध्यापक और 4 बेटियों के पिता दीनानाथ को अपनी बेटी वसुंधरा का सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आना भी कोई तसल्ली नहीं दे पा रहा था. उन्होंने हड़बड़ाहट में उस का विवाह वहां तय कर दिया जहां के बारे में वसुंधरा कभी सोच भी नहीं सकती थी. वह भी उस समय जब वह बी.एससी. द्वितीय वर्ष में थी.

राजू उस की सहेली मंजू की मौसी का लड़का था. मंजू ने उस के बारे में सबकुछ बता दिया था. अपार संपत्ति ने राजू को गैरजिम्मेदार ही नहीं विवेकहीन भी बना दिया था. कोई ऐसा व्यसन न था जिस का वह आदी न हो. बड़ों का सम्मान करना तो वह जानता ही न था.

वसुंधरा को यह जान कर घोर आश्चर्य और दुख हुआ कि राजू के बारे में सबकुछ जानने के बाद भी उस के पिता वहां उस के रिश्ते की बात चला रहे हैं.

‘पिताजी, मैं अभी शादी नहीं करना चाहती और उस लड़के से तो हरगिज नहीं जिस से आप मेरा रिश्ता करना चाहते हैं,’ वसुंधरा ने पिता से स्पष्ट शब्दों में अपने विचार रखते हुए कहा.

‘तुम कौन होती हो यह फैसला लेने वाली? मैं पिता हूं और यह मेरा अधिकार व जिम्मेदारी है कि मैं तुम्हारा विवाह समय से कर दूं,’ दीनानाथ गरजते हुए बोले.

‘पिताजी, मैं अभी पढ़ना चाहती हूं, जिंदगी में कुछ बनना चाहती हूं,’ वसुंधरा गिड़गिड़ाते हुए बोली.

‘तुम्हारी 3 बहनें और भी हैं. मुझे उन के बारे में भी सोचना है.’

‘वसु, तू तो हमारी स्थिति जानती है बेटी, वह एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार है, फिर उन्होंने खुद ही तेरा हाथ मांगा है. तू खुद सोच, हम कैसे मना कर दें,’ मां ने वसुंधरा को प्यार से समझाते हुए कहा.

‘अरे, जवानी में थोड़ी नासमझी तो सभी दिखाते हैं लेकिन परिवार की जिम्मेदारी पड़ते ही सब ठीक हो जाते हैं,’ दीनानाथ ने लड़के का बचाव करते हुए कहा.

‘पिताजी, वह  खुद अपनी जिम्मे- दारी उठाने के काबिल तो है नहीं, फिर परिवार की जिम्मेदारी क्या उठाएगा?’ वसुंधरा ने आवेश में आ कर कहा.

‘खामोश…अपने पिता से बात करने की तमीज भी भूल गई. मैं ने फैसला ले लिया है, तुम्हारा विवाह वहीं होगा,’ दीनानाथ चिल्लाते हुए बोले.

वसुंधरा समझ गई कि उस के विरोध का कोई फायदा नहीं है. वह सोचने लगी कि वादविवाद प्रतियोगिताओं में निर्णायकगण और अपार जन समूह को अपने प्रभावशाली वक्तव्यों से प्रभावित करने वाली लड़की आज अपने विचारों से अपने ही मातापिता को सहमत नहीं करा पा रही है.

घर पर उस के पिताजी ने सगाई की सभी तैयारियां शुरू कर दी थीं. वसुंधरा का मन बहुत बेचैन रहने लगा. किसी भी काम में उस का मन नहीं लग रहा था.

‘वसुंधरा, तुम्हारी फाइल पूरी हो गई?’ ममता मैडम ने ऊंची आवाज में पूछा.

‘मैडम, बस थोड़ा सा काम रह गया है,’ वसुंधरा ने झेंपते हुए कहा.

‘क्या हो गया है तुम्हें आजकल? प्रैक्टिकल की डेट आने वाली है और अभी तक तुम्हारी फाइल पूरी नहीं हुई. अभी फाइल पूरी कर के स्टाफ रूम में ले आना,’ मैडम ने जातेजाते आदेश दिया.

वसुंधरा ने जल्दीजल्दी फाइल पूरी की और सीधे स्टाफरूम की ओर भागी. संयोग से ममता मैडम उस समय वहां पर अकेली बैठी फाइलें चेक कर रही थीं. जैसे ही वसुंधरा ने अपनी फाइल मैडम को दी उन्होंने उस की परेशानी को भांपते हुए कहा, ‘क्या बात है, वसुंधरा, आजकल तुम कुछ परेशान लग रही हो. टेस्ट में भी तुम्हारे नंबर अच्छे नहीं आए. तुम तो बहुत होशियार लड़की हो और हमें तुम से बहुत उम्मीदें हैं.’

इसी को कहते हैं जीना : कैसा था नेहा का तरीका – भाग 1

‘‘नेहा, क्या तुम ने कभी यह सोचा है कि तुम अकेली क्यों हो? हर इनसान तुम से दूर क्यों भागता है?’’

नेहा चुपचाप मेरा चेहरा देखने लगी.

‘‘किसी भी रिश्ते को निभाने में तुम्हारा कितना योगदान होता है, क्या तुम ने कभी महसूस किया है? जहां कहीं भी तुम्हारी दोस्ती होती है वहां तुम्हारा समावेश उतना ही होता है जितना तुम पसंद करती हो. कोई तुम्हारे काम आता है तो उसे तुम अपना अधिकार ही मान कर चलने लगती हो. जिन से तुम दोस्ती करती हो उन्हें अपनी जरूरत के अनुसार इस्तेमाल करती हो और काम हो जाने के बाद धन्यवाद बोलना भी जरूरी नहीं समझती हो…लोग तुम्हारे काम आएं पर तुम किसी के काम आओ यह तुम्हें पसंद नहीं है, क्योंकि तुम्हें लोगों से ज्यादा मिलनाजुलना पसंद नहीं है. जो तुम्हारे काम आते हैं उन से तुम हफ्तों नहीं मिलतीं तो सिर्फ इसलिए कि स्कूल के बाद तुम्हें अपने घर को साफ करवाना जरूरी होता है.

‘‘अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारे घर में कितने लोग हैं जो रोज इतनी साफसफाई करवाती हो. साफ घर हर रोज इस तरह साफ करती हो मानो दीवाली आने वाली हो. आता कौन है तुम्हारे घर पर? न तुम्हारे मांबाप आते हैं न सासससुर…पति न जाने किस के साथ कहां चला गया, तुम खुद भी नहीं जानतीं.’’ आंखें और भी फैल गईं नेहा की.

‘‘जरा सोचो, नेहा, तुम कब किसी के काम आती हो. कब तुम अपने कीमती समय में से समय निकाल कर किसी का सुखदुख पूछती हो…कितना बनावटी आचरण है तुम्हारा. मुंह पर जिस की तारीफ करती हो पीठ पीछे उसी की बुराई करने लगती हो. क्या तुम्हें प्रकृति से डर नहीं लगता? सोने से पहले क्या कभी यह सोचती हो कि आज रात अगर तुम मर जाओ तो क्या तुम कोई कर्ज साथ नहीं ले जाओगी?’’

‘‘किस का कर्ज है मेरे सिर पर? मुझे तो किसी का कोई रुपयापैसा नहीं देना है.’’

‘‘रुपएपैसे के आगे भी कुछ होता है, जो कर्ज की श्रेणी में आता है.

‘‘रुपएपैसे के एहसान को तो इनसान पैसे से चुका सकता है मगर उन लोगोें का बदला कैसे चुकाया जा सकता है जहां  लगाव, हमदर्दी और अपनत्व का कर्ज हो. जिस ने मुसीबत में तुम्हें सहारा दिया उस का कभी हालचाल भी नहीं पूछती हो तुम.’’

‘‘किस की बात कर रहे हो तुम?’’

‘‘इस का मतलब तुम पर किस के एहसान का कर्ज है यह भी तुम्हें याद नहीं.’’

मैं नेहा का मित्र हूं और हमारी मित्रता का कोई भी भविष्य मुझे अब नजर नहीं आ रहा. मित्रता तो एक तरह का निवेश है. प्यार दो तो प्यार मिलेगा. आज तुम किसी के काम आओ तो कल कोई तुम्हारे काम आएगा. नेहा तो सूखी रेत है जिस पर चाहो तो मन भर पानी बरसा दो वह फिर भी गीली नहीं हो सकती.

अफसोस हो रहा है मुझे खुद पर और नेहा पर भी. खुद पर इसलिए कि मैं  नेहा का मित्र हूं और नेहा पर इसलिए कि क्या उसे कोई किनारा मिल पाएगा कभी? क्या वह रिश्ता निभाना सीख पाएगी कभी?

नेहा से मेरी जानपहचान शर्माजी के घर हुई थी. शर्माजी हमारे विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं और बड़े सज्जन पुरुष हैं. शर्माजी की पत्नी ललिताजी भी बड़ी मिलनसार और ममतामयी महिला हैं. मैं कुछ फाइलें उन्हें दिखाने उन के घर गया था, क्योंकि वह कुछ दिन से बीमार चल रहे थे.

हम दोनों के सामने चाय रख कर ललिताजी जल्दी से निकल गई थीं. टिफिन था उन के हाथ में.

‘‘भाभीजी बच्चों को टिफिन देने गई हैं क्या?’’

‘‘अरे, बच्चे कहां हैं यहां हमारे,’’ शर्माजी बोले, ‘‘दोनों बेटे अपनीअपनी नौकरी पर बाहर हैं. यहां तो हम बुड्ढाबुढि़या ही हैं. तुम्हें क्या हमारी उम्र इतनी छोटी लग रही है कि हमारे बच्चे स्कूल जाते होंगे.

‘‘मेरी पत्नी समाज सेवा में भी विश्वास करती है. यहां 2 घर छोड़ कर कोई बीमार है…उसी को खाना देने गई है. अकेली लड़की है. बीमार है, बस, उसी की देखभाल करती रहती है. क्या करे बेचारी? अपने बच्चे तो दूर हैं न. उन की ममता उसी पर लुटा कर खुश हो लेती है.’’

तब पहली बार नेहा के बारे में जाना था. स्कूल में टीचर है और पति कुछ समय पहले कहीं चला गया था. शादी को 2-3 साल हो चुके हैं. कोई बच्चा नहीं है. अकेली रहती है, इसलिए ललिताजी उस से दोस्ती कर के उस की मदद करती रहती हैं और समय का सदुपयोग भी.

अपने जैसे लोग : नीरज के मन में कैसी थी शंका – भाग 1

इस नए फ्लैट में आए हमें 6 महीने हो गए हैं. आते ही जैसे एक नई जिंदगी मिल गई है. कितना अच्छा लग रहा है यहां. खुला व स्वच्छ वातावरण, एक ही डिजाइन के बने 10-12 पंक्तियों में खड़े एक ही रंग से पुते फ्लैट. सामने लंबाचौड़ा खुला पार्क, जिस में शाम के समय खेलने के लिए बच्चों की भीड़ लगी रहती है. पार्क से ही लगती हुई दूरदूर तक फैली सांवली, नई बनी चिकनी नागिन सी सड़क, जिस पर एकाध कार के सिवा अधिक भीड़ नहीं रहती. कितना अच्छा लगता है यह सब. हंसतेखेलते हम दूर तक घूम आते हैं. इन 6 महीनों से पहले जिस जगह 3 महीने गुजार कर आई थी, वहां तो ऐसा लगता था जैसे बदहाली में कोई एक कोना हमें रहने के लिए मिल गया हो.

पुरानी दिल्ली में दोमंजिले मकान के नीचे के हिस्से में कमरा रहने को मिला था. धूप का तो वहां नामोनिशान नहीं था. प्रकाश भी नीचे की मंजिल तक पहुंचने में असमर्थ था. आधे कमरे में मैं ने रसोई बनाईर्र्र् हुई थी, आधे में सोना होता. एक छोटी सी कोठरी में नल लगा था, जिसे बरतन साफ करने व कपड़े धोने के अलावा नहाने के काम लाया जाता था. यह तो अच्छा हुआ कि दिल्ली आने के कुछ महीनों बाद ही ये सरकारी फ्लैट बन कर तैयार हो गए, नहीं तो शायद जीवन या तो उसी बदहाली में बिताना पड़ता या नीरज को नौकरी ही कहीं और तलाश करनी पड़ती.

अपने इस नए मकान को मैं और नीरज थोड़ाथोड़ा कर के इस तरह सजाते रहते जैसे हमें अपने सपनों का महल मिल गया हो और हम अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उस में अपनी संपूर्ण कल्पनाओं को साकार होते हुए देखना चाहते हों. हम दोनों बहुत खुश थे. पर एक दिन शाम को नीरज ने पीछे वाले बरामदे में खड़े हो कर अपने सामने की विशाल कोठियों पर नजर गड़ाते हुए कहा, ‘‘यहां और तो सबकुछ ठीक ही है, लेकिन अपनी पिछली तरफ की ये जो बड़ेबड़े लोगों की कोठियां हैं न, इतनी बड़ीबड़ी… न जाने क्यों आंखों से उतर कर मन के भीतर कहीं चुभ सी जाती हैं. इन के सम्मुख रह कर हीनता का आभास सा होने लगता है. इन के अंदर झांक कर देखने की कल्पना मात्र से बदन सिहर उठता है, सोचता हूं कि कहां हम और कहां ये लोग.’’

मैं आश्चर्य से नीरज के मुंह की ओर ताकती रह गई, ‘‘अरे, ये विचार कैसे आए आप के दिमाग में कि हम इन लोगों से हीन हैं? बड़ी कोठी में रहने और धनवान होने को ही आप महत्त्व क्यों देते हैं? असली महत्त्व तो इस बात का है कि हम जीवन को किस प्रकार से जीते हैं और थोड़ा पा कर भी किस तरह अधिक से अधिक सुखी रह सकते हैं.’’ ‘‘आज के युग में धन का महत्त्व बहुत अधिक है, शीला. कई बार तो यही सोच कर मुझे बहुत दुख होता है कि हमें भी किसी बड़े धनवान के यहां जन्म क्यों नहीं मिला या फिर हम इतने योग्य क्यों नहीं हो सके कि हम इतना पैसा कमा सकते कि दिल खोल कर खर्च करते.’’

‘‘यह सब आप के दिल का वहम है. यह सोचना ही निरर्थक है कि हम किसी से कम हैं. देखिए, हमारे पास सबकुछ तो है. हमें इस से अधिक और क्या चाहिए? आराम से गुजर हो रही है.’’

मुझे लगा मैं नीरज को आश्वस्त करने में काफी सफल हो गई हूं. क्योंकि उस के चेहरे पर संतोष के भाव दिखाई देने लगे थे. हम दोनों प्रसन्नतापूर्वक शाम की चाय पीने लगे. इतने में 5 वर्षीय बेटा पंकज दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘‘मम्मी, देखो यह सामने वाली कोठी का सनी है न. उस के लिए आज उस के पापा एक नई साइकिल लाए हैं 3 पहियों वाली. हमें भी ला दोगी न?’’

चाय का घूंट मेरे गले में ही अटक गया. मैं नीरज की आंखों में झांकने लगी. उस की जीभ तैयार मिली, ‘‘अब ला दो न, सौ रुपए की साइकिल या अभी जो लैक्चर झाड़ रही थीं उस से खुश करो अपने लाड़ले को. कह रही थीं सबकुछ है हमारे पास.’’ पंकज अनुनयभरी दृष्टि से मेरी ओर निहारे जा रहा था, ‘‘सच बताओ मम्मी, लाओगी न मेरे लिए भी साइकिल?’’

मैं ने खींच कर उसे गले से लगा लिया, ‘‘देखो बेटा, तुम राजा बेटा हो न? दूसरों की नकल नहीं करते. हां, जब हमारे पास रुपए होंगे, हम जरूर ला देंगे.’’ मैं ने उसे बहलाना चाहा था. ‘‘क्यों हमारे पापा भी तो दफ्तर में काम करते हैं, रुपए लाते हैं. फिर आप के पास क्यों नहीं हैं रुपए?’’ वह अपनी बात पूरी करवाना चाहता था.

‘‘अच्छा, ज्यादा नहीं बोलते, कह तो दिया ला देंगे. अब जाओ तुम यहां से,’’ मैं ने क्रोधभरे शब्दों में कहा और पंकज धीरेधीरे वहां से खिसक गया. इधर नीरज का चेहरा ऐसे हो रहा था जैसे किसी ने थप्पड़ मारा हो उस के मुंह पर. अपमान और क्रोध से झल्लाते हुए बोला, ‘‘देखूंगा डांटडपट कर कब तक तुम चुप करवाओगी उसे. आज तो यह पहली फरमाइश है. आगे देखना क्याक्या फरमाइशें होती हैं.’’ मैं चुप रही. बात सच ही थी. पहली वास्तविकता सामने आते ही दिमाग चक्कर खा गया था. कैसे गुजारा होगा ऐसे अमीर लोगों के बीच. हमारे सामने पूरी 6 कोठियां हैं. उन में दर्जन से भी ऊपर बच्चे हैं. सभी नित्य नई वस्तुएं व खिलौने लाते रहेंगे और पंकज देख कर जिद करता रहेगा. कहां तक मारपीट कर उस की भावनाओं को दबाया जाएगा. मैं पंकज के भविष्य के बारे में चिंतित हो उठी. कितने ही अक्ल के घोड़े दौड़ाए, पर कहीं कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया.

अगले ही दिन शाम को नीरज ने सुझाव दिया, ‘‘एक बात हो सकती है. पंकज को उधर खेलने ही न जाने दो. पीछे से जाने वाला दरवाजा हर समय बंद ही रखा करो. सामने वाले फ्लैट हैं न, उन में सब अपने ही जैसे लोग रहते हैं. उन्हीं के बच्चों के साथ सामने के पार्क में खेलने दिया करो पंकज को.’’ बात मेरी भी समझ में आ गई, न इन बड़े लोगों के बच्चों में खेलेगा न, जिद करेगा. मैं ने पिछला दरवाजा खोलना ही छोड़ दिया. लेकिन पंकज सामने की ओर कभी न निकलता. ऊपर बरामदे में खड़ा हो कर, पीछे की कोठियों वाले उन्हीं लड़कों को देखता रहता, जिन में से कोई तो अपनी नई साइकिल पर सवार होता, कोई रेसिंग कार पर, तो कोई लकड़ी के घोड़े पर. कई बार वह पीछे का दरवाजा खोलने की भी जिद करता और मुझे उसे डांट कर चुप कराना पड़ता. अजीब मुसीबत थी बेचारे की.

अपनी ही दुश्मन : जिस्म और पैसे की भूखी कविता – भाग 1

कविता भी एकदम गजब लड़की थी. उसे हर बात की जल्दी रहती थी. बचपन में उसे जितनी जल्दी खेल शुरू करने की रहती थी, उतनी ही जल्दी उस खेल को खत्म कर के दूसरा शुरू करने की रहती थी. लड़कों को तो बेवकूफ बना कर वह खूब खुश होती थी. युवा होने पर लड़कों की टोली उस के इर्दगिर्द घूमा करती थी. उस टोली में हर महीने एकदो सदस्य बढ़ जाते थे. कविता उन से खुल कर बातें करती थी.

लेकिन उस की यही स्वच्छंदता उस के वैवाहिक जीवन में बाधक बन गई थी. बचपन गया, किशोरावस्था आई, तब तक तो सब कुछ ठीक था. लेकिन जवानी की ड्यौढ़ी पर कदम रखते ही उसे जीवन के कठोर धरातल पर उतरना पड़ा. उस की शादी सुरेश के साथ कर दी गई. भूल या गलती किस की थी, यह तो नहीं पता, लेकिन एक दिन कविता अपने बेटे मोनू को गोद में थामे, हाथ में ट्रौली बैग खींचती आंगन में आ खड़ी हुई.

आंगन के तीनों ओर कमरे बने थे. आवाज सुनते ही तीनों ओर से दादी, बड़की अम्मा, छोटी अम्मा, भाभी, पापा और चचेरे भाईबहन बाहर निकल कर आंगन में एकत्र हो गए. कविता की शादी को अभी कुल डेढ़ साल ही हुआ था. उसे इस तरह आया देख कर सभी हैरत में थे. खुशी किसी के चेहरे पर नहीं थी. मम्मी पापा ने घबरा कर एक साथ पूछा, ‘‘क्या हुआ बिटिया, तू इस तरह…?’’

‘‘इसे संभालो.’’ कविता मोनू को मां की गोद में थमाते हुए बोली, ‘‘मैं अब सुरेश के साथ वापस नहीं जा सकती.’’ इसी के साथ वह ट्रौली बैग को आंगन में ही छोड़ कर एक कमरे की ओर बढ़ गई.

‘‘अरी चुप कर, जो मुंह में आया बक दिया. शर्म नहीं आती अपने मर्द का नाम लेते.’’ दादी ने नाराजगी दिखाई. लेकिन कविता ने उन की बात पर ध्यान नहीं दिया. भाभी ने मोनू को मां की गोद में से ले कर सीने से लगा लिया.

अंदर जाते ही कविता ने इस तरह जूड़ा खोला मानो चैन की सांस लेना चाहती हो. लंबे घने काले बाल उस की पीठ पर इस तरह पसर गए, जैसे उस के आधे अस्तित्व को ढंक लेना चाहते हों. सब लोग बाहर से अंदर आ गए थे. कविता पर सवालों की बौछार होने लगी. लेकिन कविता ने सब को 2 शब्दों में चुप करा दिया, ‘‘मुझे थकान भी है और भूख भी लगी है. पहले मैं नहाऊंगीखाऊंगी, उस के बाद बात करना.’’

चचेरा भाई कविता का ट्रौली बैग अंदर ले आया था. उस ने उठ कर बैग खोला और अपने कपड़े ले कर इस तरह नहाने के लिए बाथरूम में चली गई, जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो. इस बीच भाभी और बच्चे मोनू को हंसाने और खेलाने में लग गए थे. जबकि कविता के मातापिता दूसरे कमरे में एकदूसरे पर कविता को बिगाड़ने का दोषारोपण कर रहे थे.

तभी उन की बातें सुन कर दादी अंदर आ गई और आते ही बोलीं, ‘‘अरे चुप करो दोनों. तुम दोनों ने ही बिगाड़ा है इसे. मैं तो इस के लच्छन पहले ही जानती थी. सुरेश शादी न हुई होती तो अब तक पता नहीं क्या गुलखिलाती. न सुनने की तो आदत ही नहीं है इसे. हर जगह मनमानी करती है. देखो 20-22 साल की हो गई और ससुराल से बच्चा लटका कर मायके लौट आई.’’

‘‘अरे अम्मा, बेकार परेशान हो रही हो, सुरेश को यहीं बुला कर दोनों का समझौता करा देंगे.’’ मोहन ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘मियांबीबी में छोटेमोटे झगड़े तो चलते ही रहते हैं. कविता को तो जानती ही हो, सुरेश ने कुछ कह दिया होगा और यह तैश में आ कर भाग आई.’’

कविता नहा कर आ गई तो भाभी उस की बांह पकड़ कर छत पर ले गईं. ऊपर जा कर भाभी ने पूछा, ‘‘लाडो, दामादजी से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘अब तुम से क्या छिपाना भाभी, अब सुरेश मुझ से पहले की तरह प्यार नहीं करते.’’ कहते हुए कविता के आंसू छलक आए.

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