प्यार की राह में : क्या पूरा हुआ अंशुला- सुनंदा का प्यार – भाग 2

सुनंदा भी पढ़ने में तेज थी और वह खुद भी कुछ करना चाहती थी, कुछ बनना चाहती थी, इसलिए 12वीं क्लास पास करने के बाद उस ने एक सरकारी कालेज में दाखिला ले लिया था. उस दिन सड़क की सफाई करने के बाद अपनी मां के लिए दवाएं ले कर जब सुनंदा घर पहुंची थी, तो उस ने देखा कि उस के महल्ले के एकलौते सरकारी नल के आगे लंबी कतार लगी थी. इतनी बड़ी आबादी वाले महल्ले में केवल एक ही नल था. समय पर पानी भरना भी जरूरी था,

नहीं तो पानी ही नहीं मिलेगा. ऐसी हालत में लोग आपस में लड़ेंगे नहीं तो और क्या करेंगे. सरकारी नल के सामने लगी कतार में आधा घंटा खड़े होने के बाद सुनंदा को पानी मिला. पानी भरने और घर के दूसरे काम निबटाने के बाद सुनंदा अपनी बीमार मां को दवा खिला कर कालेज पहुंची थी. कालेज में सुनंदा की ज्यादा सहेलियां नहीं थीं, क्योंकि कोई भी एक ऐसी लड़की से दोस्ती करना पसंद नहीं करता, जिस की मां या वह लड़की खुद सड़क पर झाड़ू लगाने का काम करती हो. इस कालेज में सुनंदा की बस एक ही सहेली थी सरोज, जिस ने सुनंदा की सारी सचाई और उस के घर की हालत को जानते हुए सुनंदा से दोस्ती की थी, लेकिन उस दिन सरोज भी कालेज नहीं आई थी.

कालेज में सारे लैक्चर अटैंड करने के बाद जब सुनंदा घर के लिए निकली, तो कालेज के बाहर ही उसे अंशुल मिल गया था और उस ने पूछा था, ‘अरे, आप यहां…? क्या आप इस कालेज में पढ़ती हैं?’ सुनंदा अपने कदम बिना रोके ही बोली थी, ‘जी, मैं बीए फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट हूं.’ ‘अरे वाह… मतलब, आप काम भी करती हैं और पढ़ाई भी,’ अंशुल ने हैरान होते हुए कहा था. जवाब में सुनंदा ने कहा था, ‘मेरी मां सड़क पर झाड़ू लगाने का काम करती हैं. किसी वजह से जब वे काम पर नहीं जा पाती हैं, तभी मैं उन के बदले काम पर जाती हूं.’ ‘ओह… मगर, आप पढ़ाई और काम दोनों साथसाथ कैसे कर लेती हैं?’ यह सुन कर एक पल के लिए सुनंदा के कदम ठहर गए थे और वह होंठों पर थोड़ा व्यंग्यात्मक मुसकान लाते हुए बोली थी, ‘गरीबी, जरूरतें और कुछ करने की चाह इनसान से कुछ भी करा सकती है.’

इतना कह कर सुनंदा तेज कदमों से आगे बढ़ गई थी और सुनंदा से ऐसा जवाब सुन कर अंशुल पलभर के लिए वहीं ठहर गया था. अंशुल और सुनंदा का कालेज भले ही एक नहीं था, लेकिन दोनों का कालेज रूट एक ही था. सुनंदा के गर्ल्स कालेज से कुछ ही दूर अंशुल का बौयज कालेज था और कालेज का समय भी एक ही था. इस वजह से वे दोनों अकसर रास्ते में टकरा जाते थे और उन के बीच बातें होने लगी थीं. धीरेधीरे सुनंदा के दिल में अंशुल के प्रति प्रेम के अंकुर फूटने लगे थे, लेकिन सुनंदा अपने और अंशुल के बीच जो जाति और हैसियत का फासला था, उसे भी जानती थी, इसलिए वह अंशुल से हमेशा एक दूरी बना कर रखती थी. इस तरह एक साल बीत गया था. एक दिन जब सरोज कालेज पहुंची, तो उस की आंखें सूजी हुई थीं. यह देख कर सुनंदा ने उस से पूछा था,

‘अरे, तुझे क्या हुआ…? तेरी आंखें ऐसी क्यों लग रही हैं?’ इस पर सुनंदा के गले लग कर सरोज फूटफूट कर रोने लगी थी. सुनंदा उसे शांत कराते हुए बोली थी, ‘बात क्या है? कुछ तो बता. या यों ही रोती रहेगी?’ इस पर सरोज सिसकारियां भरते हुए बोली थी, ‘इस हफ्ते मेरी सगाई है और अगले महीने शादी.’ यह सुन कर सुनंदा हैरानी से बोली थी, ‘और तेरी पढ़ाई का क्या होगा?’ ‘पापा कह रहे हैं कि अब जो करना है, अपनी ससुराल में जा कर ही करना,’ सरोज रोते हुए बोली थी. इधर सुनंदा अपनी पक्की सहेली सरोज की शादी और उस की पढ़ाई को ले कर परेशान थी, उधर अंशुल का दिल भी सुनंदा के लिए धड़कने लगा था, जिसे छिपा पाना अब अंशुल के लिए मुश्किल हो गया था. इसी बीच एक दिन सरोज अपनी शादी से 15 दिन पहले कालेज में अपनी शादी का कार्ड देने आई थी. वह सुनंदा से हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए बोली थी, ‘मैं तुझे अपनी शादी में नहीं बुला पाऊंगी,

क्योंकि पापा ने तुझे शादी में बुलाने से मना किया है.’ यह सुन कर सुनंदा को बहुत दुख हुआ कि वह अपनी एकलौती सहेली की शादी में शामिल नहीं हो पाएगी, लेकिन उसे जरा भी बुरा नहीं लगा, क्योंकि वह जातिवाद, ऊंचनीच का भेदभाव और लोगों का अपने प्रति इस तरह का बरताव बचपन से झेलती आई थी. अब तो वह इस की आदी हो चुकी थी. सरोज की शादी हो गई और सुनंदा अकेली रह गई. ऐसे समय में अंशुल बना सुनंदा का साथी और फिर यही साथी सुनंदा का हमसफर बनने का भी दम भरने लगा था. धीरेधीरे सुनंदा को भी अंशुल पर यकीन होने लगा था और वे दोनों साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे थे. सुनंदा पटिया पर बैठी टकटकी लगाए आसमान को देखती यही सब सोच रही थी. रहरह कर उस के मन में बस यही सवाल आ रहा था कि अंशुल सहीसलामत तो होगा न और यह खत उसे किस ने भेजा होगा? जिस ने भी भेजा है, वह खुद अब तक क्यों नहीं आया है? थर्ड ईयर का फाइनल एग्जाम देने और यूपीएससी इम्तिहान की तैयारी के लिए कोचिंग इंस्टीट्यूट में एडमिशन लेने के बाद अंशुल दिल्ली से कानपुर अपने घर चला गया था,

लेकिन उस के बाद न कभी वह कानपुर से लौटा और न ही कभी उस का कोई फोन आया. सुनंदा ने अंशुल के कुछ दोस्तों और उस के रूममेट से जानने की कोशिश की थी कि आखिर अंशुल है कहां, पर किसी के पास कोई जवाब नहीं था. सुनंदा ने कई बार उसे फोन भी किया, पर हर बार अंशुल का फोन स्विच औफ ही बताता था. सुनंदा पूरी तरह से निराश हो चुकी थी, लेकिन इस के बावजूद उसे अंशुल और अपने प्यार पर पूरा यकीन था. उसे यह भी यकीन था कि अंशुल उसे इस तरह अकेले छोड़ कर कभी नहीं जाएगा, वह जरूर लौटेगा. अचानक 6 महीने के बाद सुनंदा को यह गुमनाम खत मिला, जिसे पढ़ कर अंशुल के बारे में जानने के लिए सुनंदा यहां आ गई. सुनंदा अपने ही विचारों में गुम थी कि तभी वहां एक लंबी कार आ कर रुकी,

जिस में से तकरीबन सुनंदा के उम्र से थोड़ी सी बड़ी एक शादीशुदा औरत उतरी. माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, मांग में सिंदूर, गले में लंबा सा मंगलसूत्र… उस औरत को देख कर सुनंदा हैरत में पड़ गई. उस औरत ने बिलकुल वैसी ही साड़ी पहनी थी, जैसी साड़ी सुनंदा ने दिल्ली के कमला मार्केट से पसंद कर के अंशुल को दी थी… जब अंशुल ने कहा था कि ‘मुझे एक साड़ी खरीदनी है अपने किसी खास के लिए’. उस समय सुनंदा अंशुल से यह पूछ नहीं पाई थी कि उसे साड़ी किस के लिए खरीदनी है. वह औरत सुनंदा के एकदम सामने आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘लगता है कि तुम अंशुल और उस के प्यार को अब तक भूली नहीं हो और आज भी उसे पाने की चाह रखती हो, तभी तो खत पढ़ते ही यहां दौड़ी चली आई. ‘‘तुम्हें क्या लगता है कि तुम जैसी सड़कों पर झाड़ू लगाने वाली लड़की किसी ऊंचे खानदान की बहू बन सकती है? या फिर यह लगता है कि अंशुल पूरे परिवार से बगावत कर के अपने घर की इज्जत ताक पर रख कर तुम से शादी कर लेगा? अगर ऐसा कोई भी विचार तुम्हारे मन में है, तो अंशुल का यह खत पढ़ लो… अब वह कभी भी तुम्हारे पास लौट कर नहीं आएगा,’’ इतना कह कर उस औरत ने खत सुनंदा की ओर बढ़ा दिया. सुनंदा कंपकंपाते हाथों से वह खत खोल कर पढ़ने लगी, जिस में लिखा था: ‘मुझे माफ कर दो सुनंदा

हृदय परिवर्तन : क्या सुनंदा अपने सौतेले बच्चों को मां जैसा प्यार दे पाई- भाग 2

सुनंदा ने अतीत को भुला दिया और विनय को अपनाने में ही भलाई समझी. विनय उस के रूपरंग का इस कदर दीवाना हो गया कि न तो उसे बच्चों की सुध रही न ही रिश्तदारों की. सब से कन्नी काट ली. और तो और सुनंदा के रूपसौंदर्य को ले कर इस कदर शंकित हो गया कि उसे छोड़ कर औफिस जाने में भी गुरेज करता. मैं अब उस के घर कम ही जाता. मुझे लगता विनय को मेरी मौजूदगी मुनासिब नहीं लगती. वह हर वक्त सुनंदा के पीछे साए की तरह रहता. उस के रंगरूप को निहारता. सुनंदा अपने पति की इस कमजोरी को भांप  गई. फिर क्या था अपने फैसले उस पर थोपने लगी. विनय के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से सब से ज्यादा परेशान अमन और मोनिका थे. वे दोनों एकदम से अलगथलग पड़ गए. विनय कहीं से आता तो सीधे सुनंदा के कमरे में जा कर उसे आलिंगनबद्ध कर लेता. बच्चों का हालचाल लेना महज औपचारिकता होती.

सुनंदा के रिश्ते में शादी थी. विनय व सुनंदा अपनी बेटी के साथ वहां जा रहे थे. अमन भी जाना चाहता था. उस ने दबी जबान से जाने की इच्छा जाहिर की तो विनय ने उसे डांट दिया, ‘‘जा कर पढ़ाई करो. कहीं जाने की जरूरत नहीं.’’ अमन उलटे पांव अपने कमरे में आ कर अपनी मां की तसवीर के सामने सुबकने लगा. तभी राधिका आ गई. उस को समझाबुझा कर शांत किया. विनय वही करता जो सुनंदा कहती. विनय का सारा ध्यान सुनंदा की बेटी शुभी पर रहता. बहाना यह था कि वह बिन बाप की बेटी है. विनय सुनंदा के रंगरूप पर इस कदर फिदा था कि उसे अपने खून से उपजे बच्चों का भी खयाल नहीं था. अमन किधर जा रहा है, क्या कर रहा है, उस की कोई सुध नहीं लेता. बस बच्चों के स्कूल की फीस भर देता, उन की जरूरत का सामान ला देता. इस से ज्यादा कुछ नहीं. अमन समझदार था. पढ़ाईलिखाई में अपना वक्त लगाता. थोड़ाबहुत भावनात्मक सहारा उसे अपनी बूआ राधिका से मिल जाता, जो विनय की उपेक्षा से उपजी कमी को पूरा कर देता.

अब विनय अपने पुश्तैनी मकान को छोड़ कर शारदा के मकान में रहने लगा. यह वही मकान था जिसे शारदा की मां अपने मरने के बाद अपने नाती अमन के नाम कर गई थीं. पुश्तैनी मकान में संयुक्त परिवार था, जहां उस की निजता भंग होती. भाईभतीजे उस के व्यवहार में आए परिवर्तन का मजाक उड़ाते. अब जब वह अकेले रहने लगा तो सुनंदा के प्रति कुछ ज्यादा ही स्वच्छंद हो गया. राधिका कभीकभार बच्चों का हालचाल लेने आ जाती. मुझे अमन से विनय का हालचाल मिलता रहता. विनय के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से मैं भी आहत था. सोचता उसे राह दिखाऊं मगर डर लगता कहीं अपमानित न होना पड़े. अमन से पता चला कि सुनंदा मां बनने वाली है तो विश्वास नहीं हुआ. 2 बच्चे पहली पत्नी से तो वहीं सुनंदा से एक 8 वर्षीय बेटी. और पैदा करने की क्या जरूरत थी? अमन इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने चला गया. मोनिका बी.ए. में थी. वह खुद 45 की लपेट में था. ऐसे में बाप बनने की क्या तुक? यहीं से मेरा मन उस से तिक्त हो गया. मुझे दोनों घोर स्वार्थी लगे. मैं ने राधिका से पूछा. पहले तो उस ने आनाकानी की, बाद में हकीकत बयां कर दी. कहने लगी कि इस में मैं क्या कर सकती हूं. यह उन दोनों का निजी मामला है. उस ने पल्लू झाड़ लिया, जो अच्छा न लगा. कम से कम विनय को समझा तो सकती थी. दूसरी शादी करते वक्त मैं ने उसे आगाह किया था कि यह शादी तुम दोनों सिर्फ एकदूसरे का सहारा बनने के लिए कर रहे हो. तुम्हें अकेलेपन का साथी चाहिए, वहीं सुनंदा को एक पुरुष की सुरक्षा. जहां तुम्हारे बच्चों की देखभाल करने के लिए एक मां मिल जाएगी, वहीं सुनंदा की बेटी को एक बाप का साया. विनय मुझ से सहमत था. मगर अचानक दोनों में क्या सहमति बनी कि सुनंदा ने मां बनने की सोची?

सुनंदा ने एक लड़के को जन्म दिया. वह बहुत खुश थी. विनय की खुशी भी देखने लायक थी मानों पहली बार पिता बन रहा हो. राधिका को सोने की अंगूठी दी. वह बेहद खुश थी. कुछ दिनों के बाद एक होटल में पार्टी रखी गई. मैं भी आमंत्रित था. रिश्तेदार पीठ पीछे विनय की खिल्ली उड़ा रहे थे मगर वह इस सब से बेखबर था. सुनंदा से चिपक कर बैठा अपने नवजात शिशु को खेला रहा था. अमन और मोनिका उदास थे. उदासी का कारण था उन की तरफ से विनय की बेरुखी. रुपयापैसा दे कर बच्चों को बहलाया जा सकता है, मगर उन का दिल नहीं जीता जा सकता. अमन और मोनिका को सिर्फ मांबाप का प्यार चाहिए था. मां नहीं रहीं, मगर पिता तो अपने बच्चों को भावनात्मक संबल दे सकता था. मगर इस के उलट पिता अपनी नई पत्नी के साथ रासरंग में डूबा था. जबकि दूसरी शादी करने के पहले उस ने अमन व मोनिका को विश्वास में लिया था. अब उन्हीं के साथ धोखा कर रहा था. पूछने पर कहता कि मैं ने दोनों की परवरिश में कया कोई कमी रख छोड़ी है? उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ाया और अब क्व10 लाख दे कर अमन को इंजीनियरिंग करवा रहा हूं.

अब विनय से कौन तर्क करे. जिस का जितना बौद्धिक स्तर होगा वह उतना ही सोचेगा. राधिका भी दोनों बच्चों की तरफ से स्वार्थी हो गई थी. परित्यक्त राधिका को विनय से हर संभव मदद मिलती रहती सो वह अमन और मोनिका में ही ऐब ढूंढ़ती.मेरे जेहन में एक बात रहरह कर शूल की तरह चुभती कि आखिर सुनंदा ने एक बेटे की मां बनने की क्यों सोची? अमन मौका देख कर मेरे पास आया और व्यथित मन से बोला, ‘‘क्या आप को यह सब देख कर अच्छा लग रहा है? यह मेरे साथ मजाक न हीं कि इस उम्र में मेरे पिता बाप बने हैं.’’ गुस्सा तो मुझे भी आ रहा था. मैं ने उस के मुंह पर विनय पर कोई टीकाटिप्पणी करने से बचने की कोशिश की पर ऐसे समय मुझे शारदा की याद आ रही थी. वह बेचारी अगर यह सब देख रही होती तो क्या बीतती उस पर. किस तरह से उस के बच्चों को बड़ी बेरहमी के साथ उस का ही बाप हाशिये पर धकेल रहा था. कैसे पुरुष के लिए प्यारमुहब्बत महज एक दिखावा होता है. शारदा से उस ने प्रेम विवाह किया था. कैसे इतनी जल्दी उसे भुला कर सुनंदा का हो गया. तभी 2 बुजुर्ग दंपती मेरे पास आ कर खड़े हो गए. उन की बातचीत से जाहिर हो रहा था कि सुनंदा के मांबाप हैं. बहुत खुश सुनंदा की मां अपने पति से बोली, ‘‘अब सुनंदा का परिवार संपूर्ण हो गया. 1 लड़का 1 लड़की.’’

तो इसका मतलब विनय के परिवार से अमन और मोनिका हटा दिए गए, मेरे मन में यह विचार आया. घर आ कर मैं ने गहराई से चिंतनमनन किया तो पाया कि सुनंदा द्वारा एक बेटे की मां बनना विनय के साथ रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने का जरीया था. ऐसे तो विनय की 2 संतानें और सुनंदा की 1. लेकिन आज तो विनय उस के रूपजाल में फंसा हुआ है, कल जब उस का अक्स उतर जाएगा तब वह क्या करेगी? हो सकता है वह अपने दोनों बच्चों की तरफ लौट जाए तब तो वह अकेली रह जाएगी. यही सब सोच कर सुनंदा ने एक पुत्र की मां बनने की सोची ताकि पुत्र के चलते विनय खून के रिश्ते से बंध जाए. साथ ही पुत्र के बहाने धनसंपत्ति में हिस्सा भी मिलेगा वरना अमन और मोनिका ही सब ले जाएंगे, उस के हिस्से में कुछ नहीं आएगा. औसत बुद्धि का विनय सुनंदा की चाल में आसानी से फंस गया यह सोच कर मुझे उस की अक्ल पर तरस आया.

वो नीली आंखों वाला : वरुण को देखकर क्यों चौंक गई मालिनी- भाग 3

आप… आप हैं …मिस्टर वरुण शर्मा.”

वरुण बोला, “इफ आई एम नोट रौंग, यू आर छुटकी.”

“एंड… आप वो नीली आंखों वाले लड़के…” यह बोलतेबोलते मालिनी की जबान पर ताला सा लग गया… उस की आंखों के नीले समुंदर में, वो फिर से ना खो जाए,

“हां, हां…”

मालिनी उन्हें पुष्पगुच्छ दे कर उन का स्वागत करने के साथसाथ दिल की गहराइयों से मन ही मन धन्यवाद ज्ञापन करती है, जो इतने बरसों में ना कर सकी.

जैसे आज भगवान उस पर मेहरबान हो गए हो और कोई बरसों पुराना काम आज पूरा हो गया हो. आज उस के दिल से उस नीली आंखों वाले लड़के को धन्यवाद ना कर पाने का अपराधबोध समाप्त हो चुका था.

“क्या आप एकदूसरे को जानते हैं…?” शशांक ने पूछा.

“जी… मालिनी जी मेरी जूनियर थीं…”

आज मालिनी का “समय पर किसी का अधिकार नहीं, किंतु समय की दयालुता पर विश्वास” पेड़ की जड़ों की तरह गहरा हो गया था.

“ओह दैट्स ग्रेट…” इतना कह कर मिस्टर शशांक दूसरे कामों में व्यस्त हो गए, जैसे उन्होंने मन ही मन स्वीकार कर लिया था कि अब उन के मेहमान मालिनी के भी हैं, तो वह उन की बढ़िया आवभगत कर लेगी.

मालिनी और वरुण की आंखों में न जाने कितने मूक संवाद तैर रहे थे, जिन में अनेकों प्रश्न, उत्तर की नोक पर भटक रहे थे. जैसे नदी का बांध खोल देने पर सबकुछ प्रवाहित होने लगता है.

दोनों इतने वर्षों बाद भी औपचारिक बातों के अलावा और कुछ नहीं कह पा रहे थे. शायद वह माहौल उन के अंतर्मन में उठते प्रश्नों के जवाब के लिए उपयुक्त ना था, किंतु वर्षों बाद वरुण के मन की तपती बंजर भूमि पर आज मालिनी से मिलन एक बरखा समान बरस रहा था और साथ ही वरुण इस के विपरीत भाव मालिनी के चेहरे पर पढ़ रहा था.

पूरे कार्यक्रम के दौरान वरुण ने अनेकों बार चोर निगाहों से मालिनी को निहारा. उस के दिल का वायलिन जोरजोर से बज रहा था, किंतु उस की भनक सिर्फ शशांक को ही महसूस हो रही थी.

कार्यक्रम के उपरांत सभी ने रात्रिभोज एकसाथ किया और तभी बारिश होने लगी. वरुण की फ्लाइट खराब मौसम के कारण कुछ घंटों के लिए स्थगित कर दी गई.

मिस्टर वरुण शशांक से एयरपोर्ट के लिए विदा लेने लगे, तो शशांक ने उन्हें कुछ देर घर पर ही चल कर आराम करने को कहा.

वरुण तो जैसे अपने प्रश्नों के जवाब हासिल करने को बेताब हुआ जा रहा था और ऐसे में शशांक के घर पर रुकने का न्योता… पर, इस बात से मालिनी कुछ असहज सी होने लगी, जिसे वरुण ने भांप लिया.

खैर, सभी घर पहुंचे और वरुण को मेहमानों के कमरे में शशांक ही पहुंचा कर आया और यह भी कहा कि इसे अपना ही घर समझें. कुछ चीज की आवश्यकता हो तो मुझे या मालिनी को अवश्य बताएं.

“जी, जरूर… आप बेतकल्लुफ हो रहे हैं.”

शशांक अपने कमरे में आते ही मालिनी से कहता है कि आज मैं सब देख रहा था…

“जी, क्या?”

“वही…”

“क्या..?”

“ज्यादा भोली न बनो. मिस्टर वरुण तुम्हें टुकुरटुकुर निहार रहे थे. पर, मैं तो नहीं…”

“क्या इस का अंदाजा तुम्हें नहीं कि वह तुम्हें…”

“छी:.. छी:, कैसी बात करते हैं आप? मेरे जीवन में आप के सिवा कोई दूसरा नहीं.”

“अरे, मैं ने कब कहा ऐसा… मैं तो पहले की बात कर रहा हूं.”

मालिनी गुस्से से तमतमाते हुए…. “नहीं, हमारे बीच पहले भी कभी ऐसी कोई बात नहीं हुई.”

“तो फिर मिस्टर वरुण की आंखों में मैं ने जो देखा, वह क्या…?”

शशांक की इन बातों ने मालिनी के दिल में नश्तर चुभो दिए और वह चुपचाप जा कर सो गई.

वह सुबह उठी, तो मिस्टर वरुण जा चुके थे और शशांक अपने औफिस. तभी हरिया चाय के साथ मालिनी के कमरे में दाखिल होता है.

“बीवीजी… वह साहब जो रात को यहां ठहरे थे, आप के लिए यह चिट्ठी छोड़ गए हैं. बोले, मैं आप को दे दूं…”

मालिनी की आंखों में छाई सुस्ती क्षणभर के लिए जिज्ञासा में परिवर्तित हो गई कि क्या है इस में… ऐसा क्या लिखा है…” मालिनी ने कांपते हाथों से वह चिट्ठी खोली और पढ़ने लगी.

‘प्रिय छुटकी,

‘मैं जानता हूं कि तुम्हारे मन में अनगिनत सवाल उमड़ रहे होंगे कि मैं तुम्हें कभी कालेज के बाद क्यों नहीं मिला?

‘क्यों तुम से कभी अपने दिल की बात नहीं कही. जबकि मैं ने कई बार महसूस किया कि तुम मुझ से कुछ कहना चाहती थी.

‘किंतु वह शब्द हमेशा तुम्हारे गले में ही अटके रहे. उन्हें कभी जबान का स्पर्श नसीब नहीं हुआ. मैं वह सुनना चाहता था, किंतु मेरी किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. मैं आशा करता हूं कि मेरे इस पत्र में तुम्हें अपने सभी सवालों के जवाब के साथसाथ मेरे दिल का हाल भी पता लग जाएगा.

‘मालिनी, मैं तुम्हारे काबिल ही नहीं था, इसलिए तुम से बाद में चाह कर भी नहीं मिला, क्योंकि मैं तुम्हें वह सारी खुशियां देने में शारीरिक रूप से पूर्ण नहीं था. मेरे साथ तुम तो क्या कोई भी लड़की खुश नहीं रह सकती.’

पढ़तेपढ़ते मालिनी की आंखों से गिरते आंसू इन अक्षरों को अपने साथ बहाव नहीं दे पा रहे थे. वह फिर पढ़ने लगी.

‘मेरी उस कमी ने मुझे तुम से दूर कर दिया, किंतु तुम आज भी मेरे मनमंदिर में विराजमान हो. तुम्हारे अलावा आज तक उस का स्थान कोई और नहीं पा सका है.

‘बचपन में क्रिकेट खेलते वक्त गेंद इतनी तेजी से मेरे अंग में लगी, जिस ने मेरे पौरूष को जबरदस्त चोट पहुंचाई और मेरे आत्मविश्वास को भी… किंतु मेरा तुम से वादा है कि मैं तुम्हें यों ही बेइंतहा चाहता रहूंगा और एक दिन तुम्हें भी अपने प्यार का एहसास करा कर रहूंगा….

‘तुम्हारा ना हो सका

वरुण.’

मालिनी कुछ पछताते हुए सोचने लगी, “तुम ने मुझ से कहा तो होता… क्या सैक्स ही एक खुशहाल जिंदगी की नींव होता है? क्या एकदूसरे का साथ और असीम प्यार जीवन के सफर को सुहाना नहीं बना सकता?”

आज फिर से वह सवालों के घेरे में खुद को खड़ा महसूस कर रही है.

मालिनी की नजर बगीचे में पड़ी तो देखा…

अनगिनत टेसू के फूल झड़े पड़े थे और संपूर्ण वातावरण केसरिया नजर आ रहा था.

Bigg Boss 17: शो से बाहर आकर रिंकु धवन ने किया रिएक्ट, अंकिता और विक्की के थप्पड़ कांड पर कहीं ये बात

कलर्स टीवी का चर्चित शो बिग बॉस में आए दिन ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. जिससे दर्शकों का भरपूर एंटरटेनमेंट हो रहा है. शो के लेटेस्ट एपिसोड में दिखाया गया कि इस हफ्ते रिंकू धवन इविक्ट हो गई हैं. दरअसल, शो में रिंकू का कम बोलना निगेटिव प्वाइंट बन गया था.

 

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रिंकू धवन ने कई मुद्दों पर रखीं अपनी बात

शो से बाहर आकर रिंकू धवन ने कई मुद्दों पर अपनी बातें रखनी शुरु की हैं. उन्होंने अपनी जर्नी के बारे में भी बताया है. रिंकु ने अंकिता लोखंडे  (Ankita Lokhande) और विक्की जैन (Vicky Jain) के झगड़े के बारे में भी बात की.

विक्की जैन और अंकिता लोखंडे के झगड़े को लेकर दिया ये बयान

शो में विक्की जैन और अंकिता लोखंडे के बीच किसी बात पर बहस चल रही थी., इस दौरान विक्की इरिटेट हो गए थे और इसी बात पर दोनों के बीच झगड़ा बढ़ा.

हालांकि अंकिता पहले मना करती दिखी कि विक्की ने उन पर हाथ नहीं उठाया है, लेकिन बाद में वह खुद अकेले में विक्की से इस बारे में बात करती दिखीं.

एक इंटरव्यू के अनुसार, जब रिंकी धवन से पूछा गया कि शो में विक्की ने अंकिता लोखंडे पर हाथ उठाने की कोशिश की थी. इस पर आप क्या कहेंगी? रिंकु ने बेहद ही दिलचस्प अंदाज में इस सवाल का जवाब दिया.

 

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रिंकू धवन ने कहा कि मुझे सबसे पहले इस एपिसोड को देखना होगा. जब यह घटना घटी, तो मैं वहां नहीं थी, लेकिन जो लोग वहां मौजूद थे, उन्होंने इस बारे में बात की. मुझे लगता है कि मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहती. यह कपल की निजी बात है, मैं इस पर कोई कमेंट नहीं करना चाहती.

आपको बता दें कि इस बार बिग बॉस में बेहद ही दिलचस्प मोड़ देखने को मिला है, शो में पहली बार एक साथ तीन इविक्शन हुए हैं. शो को लेकर यह भी अपडेट है कि जल्द ही पुराने और नए कैप्टन को यह पावर दी जाएगी कि वह घर के एक-एक सदस्य को नॉमिनेट कर सकते हैं.

शहीद – देशभक्ति का जनून – भाग 1

ऊबड़खाबड़ पथरीले रास्तों पर दौड़ती जीप तेजी से छावनी की ओर बढ़ रही थी. इस समय आसपास के नैसर्गिक सौंदर्य को देखने की फुरसत नहीं थी. मैं जल्द से जल्द अपनी छावनी तक पहुंच जाना चाहता था.

आज ही मैं सेना के अधिकारियों की एक बैठक में भाग लेने के लिए श्रीनगर आया था. कश्मीर रेंज में तैनात ब्रिगेडियर और उस से ऊपर के रैंक के सभी सैनिक अधिकारियों की इस बैठक में अत्यंत गोपनीय एवं संवेदनशील विषयों पर चर्चा होनी थी अत: किसी भी मातहत अधिकारी को बैठक कक्ष के भीतर आने की इजाजत नहीं थी.

बैठक 2 बजे समाप्त हुई. मैं बैठक कक्ष से बाहर निकला ही था कि सार्जेंट रामसिंह ने बताया, ‘‘सर, छावनी से कैप्टन बोस का 2 बार फोन आ चुका है. वह आप से बात करना चाहते हैं.’’

मैं ने रामसिंह को छावनी का नंबर मिलाने के लिए कहा. कैप्टन बोस की आवाज आते ही रामसिंह ने फोन मेरी तरफ बढ़ा दिया.

‘‘हैलो कैप्टन, वहां सब ठीक तो है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां सर, सब ठीक है,’’ कैप्टन बोस बोले, ‘‘लेकिन अपनी छावनी के भीतर भारतीय सैनिक की वेशभूषा में घूमता हुआ पाकिस्तानी सेना का एक लेफ्टिनेंट पकड़ा गया है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि वह पाकिस्तानी सेना का लेफ्टिनेंट है? वह छावनी के भीतर कैसे घुस आया? उस के साथ और कितने आदमी हैं? उस ने छावनी में किसी को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाया?’’ मैं ने एक ही सांस में प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘सर, आप परेशान न हों. यहां सब ठीकठाक है. वह अकेला ही है. उस से बरामद पहचानपत्र से पता चला कि वह पाकिस्तानी सेना का लेफ्टिनेंट है,’’ कैप्टन बोस ने बताया.

‘‘मैं फौरन यहां से निकल रहा हूं तब तक तुम उस से पूछताछ करो लेकिन ध्यान रखना कि वह मरने न पाए,’’ इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया.

श्रीनगर से 85 किलोमीटर दूर छावनी तक पहुंचने में 4 घंटे का समय इसलिए लगता है क्योंकि पहाड़ी रास्तों पर जीप की रफ्तार कम होती है. मैं अंधेरा होने से पहले छावनी पहुंच जाना चाहता था.

मेरे छावनी पहुंचने की खबर पा कर कैप्टन बोस फौरन मेरे कमरे में आए.

‘‘कुछ बताया उस ने?’’ मैं ने कैप्टन बोस को देखते ही पूछा.

‘‘नहीं, सर,’’ कैप्टन बोस दांत भींचते हुए बोले, ‘‘पता नहीं किस मिट्टी का बना हुआ है. हम लोग टार्चर करकर के हार गए लेकिन वह मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं है.’’

‘‘परेशान न हो. मुझे अच्छेअच्छों का मुंह खुलवाना आता है,’’ मैं ने अपने कैप्टन को सांत्वना दी फिर पूछा, ‘‘क्या नाम है उस पाकिस्तानी का?’’

‘‘शाहदीप खान,’’ कैप्टन बोस ने बताया.

इन 2 शब्दों ने मुझे झकझोर कर रख दिया था.

मैं ने अपने मन को सांत्वना दी कि इस दुनिया में एक नाम के कई व्यक्ति हो सकते हैं किंतु क्या ‘शाहदीप’ जैसे अनोखे नाम के भी 2 व्यक्ति हो सकते हैं? मेरे अंदर के संदेह ने फिर अपना फन उठाया.

‘‘सर, क्या सोचने लगे,’’ कैप्टन बोस ने टोका.

‘‘वह पाकिस्तानी यहां क्यों आया था, यह हर हालत में पता लगाना जरूरी है,’’ मैं ने सख्त स्वर में कहा और अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ.

कैप्टन बोस मुझे बैरक नंबर 4 में ले आए. उस पाकिस्तानी के हाथ इस समय बंधे हुए थे. नीचे से ऊपर तक वह खून से लथपथ था. मेरी गैरमौजूदगी में उस से काफी कड़ाई से पूछताछ की गई थी. मुझे देख उस की बड़ीबड़ी आंखें पल भर के लिए कुछ सिकुड़ीं फिर उन में एक अजीब बेचैनी सी समा गई.

मुझे वे आंखें कुछ जानीपहचानी सी लगीं किंतु उस का पूरा चेहरा खून से भीगा हुआ था इसलिए चाह कर भी मैं उसे पहचान नहीं पाया. मुझे अपनी ओर घूरता देख उस ने कोशिश कर के पंजों के बल ऊपर उठ कर अपने चेहरे को कमीज की बांह से पोंछ लिया.

खून साफ हो जाने के कारण उस का आधा चेहरा दिखाई पड़ने लगा था. वह शाहदीप ही था. मेरे और शाहीन के प्यार की निशानी. हूबहू मेरी जवानी का प्रतिरूप.

मेरा अपना ही खून आज दुश्मन के रूप में मेरे सामने खड़ा था और उस के घावों पर मरहम लगाने के बजाय उसे और कुरेदना मेरी मजबूरी थी. अपनी इस बेबसी पर मेरी आंखें भर आईं. मेरा पूरा शरीर कांपने लगा. एक अजीब सी कमजोरी मुझे जकड़ती जा रही थी. ऐसा लग रहा था कि कोई सहारा न मिला तो मैं गिर पड़ूंगा.

‘‘लगता है कि हिंदुस्तानी कैप्टन ने पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट से हार मान ली, तभी अपने ब्रिगेडियर को बुला कर लाया है,’’ शाहदीप ने यह कह कर एक जोरदार कहकहा लगाया.

यह सुन मेरे विचारों को झटका सा लगा. इस समय मैं हिंदुस्तानी सेना के ब्रिगेडियर की हैसियत से वहीं खड़ा था और सामने दुश्मन की सेना का लेफ्टिनेंट खड़ा था. उस के साथ कोई रिआयत बरतना अपने देश के साथ गद्दारी होगी.

मेरे जबड़े भिंच गए. मैं ने सख्त स्वर में कहा, ‘‘लेफ्टिनेंट, तुम्हारी भलाई इसी में है कि सबकुछ सचसच बता दो कि यहां क्यों आए थे वरना मैं तुम्हारी ऐसी हालत करूंगा कि तुम्हारी सात पुश्तें भी तुम्हें नहीं पहचान पाएंगी.’’

‘‘आजकल एक पुश्त दूसरी पुश्त को नहीं पहचान पाती है और आप सात पुश्तों की बात कर रहे हैं,’’ यह कह कर शाहदीप हंस पड़ा. उस के चेहरे पर भय का कोई निशान नहीं था.

मैं ने लपक कर उस की गरदन पकड़ ली और पूरी ताकत से दबाने लगा. देशभक्ति साबित करने के जनून में मैं बेरहमी पर उतर आया था. शाहदीप की आंखें बाहर निकलने लगी थीं. वह बुरी तरह से छटपटाने लगा. बहुत मुश्किल से उस के मुंह से अटकते हुए स्वर निकले, ‘‘छोड़…दो मुझे…मैं…सबकुछ…. बताने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘बताओ?’’ मैं उसे धक्का देते हुए चीखा.

‘‘मेरे हाथ खोलो,’’ शाहदीप कराहा.

कैप्टन बोस ने अपनी रिवाल्वर शाहदीप के ऊपर तान दी. उन के इशारे पर पीछे खड़े सैनिकों में से एक ने शाहदीप के हाथ खोल दिए.

हाथ खुलते ही शाहदीप मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘‘क्या पानी मिल सकता है?’’

मेरे इशारे पर एक सैनिक पानी का जग ले आया. शाहदीप ने मुंह लगा कर 3-4 घूंट पानी पिया फिर पूरा जग अपने सिर के ऊपर उड़ेल लिया. शायद इस से उस के दर्द को कुछ राहत मिली तो उस ने एक गहरी सांस भरी और बोला, ‘‘हमारी ब्रिगेड को खबर मिली थी कि कारगिल युद्ध के बाद हिंदुस्तानी फौज ने सीमा के पास एक अंडरग्राउंड आयुध कारखाना बनाया है. वहां खतरनाक हथियार बना कर जमा किए जा रहे हैं ताकि युद्ध की दशा में फौज को तत्काल हथियारों की सप्लाई हो सके. उस कारखाने का रास्ता इस छावनी से हो कर जाता है. मैं उस की वीडियो फिल्म बनाने यहां आया था.’’

इस रहस्योद्घाटन से मेरे साथसाथ कैप्टन बोस भी चौंक पड़े. भारतीय फौज की यह बहुत गुप्त परियोजना थी. इस के बारे में पाकिस्तानियों को पता चल जाना खतरनाक था.

‘‘मगर तुम्हारा कैमरा कहां है जिस से तुम वीडियोग्राफी कर रहे थे,’’ कैप्टन बोस ने डपटा.

शाहदीप ने कैप्टन बोस की तरफ देखा, इस के बाद वह मेरी ओर मुड़ते हुए बोला, ‘‘आज के समय में फिल्म बनाने के लिए कंधे पर कैमरा लाद कर घूमना जरूरी नहीं है. मेरे गले के लाकेट में एक संवेदनशील कैमरा फिट है जिस की सहायता से मैं ने छावनी की वीडियोग्राफी की है.’’

इतना कह कर उस ने अपने गले में पड़ा लाकेट निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. वास्तव में वह लाकेट न हो कर एक छोटा सा कैमरा था जिसे लाकेट की शक्ल में बनाया गया था. मैं ने उसे कैप्टन बोस की ओर बढ़ा दिया.

उस ने लाकेट को उलटपुलट कर देखा फिर प्रसंशात्मक स्वर में बोला, ‘‘सर, भारतीय सेना के हौसले आप जैसे काबिल अफसरों के कारण ही इतने बुलंद हैं.’’

‘काबिल’ यह एक शब्द किसी हथौड़े की भांति मेरे अंतर्मन पर पड़ा था. मैं खुद नहीं समझ पा रहा था कि यह मेरी काबिलीयत थी या कोई और कारण जिस की खातिर शाहदीप इतनी जल्दी टूट गया था. मेरे सामने मेरा खून इस तरह टूटने के बजाय अगर देश के लिए अपनी जान दे देता तो शायद मुझे ज्यादा खुशी होती.

‘‘सर, अब इस लेफ्टिनेंट का क्या किया जाए?’’ कैप्टन बोस ने यह पूछ कर मेरी तंद्रा भंग की.

‘‘इसे आज रात इसी बैरक में रहने दो. कल सुबह इसे श्रीनगर भेज देंगे,’’ मैं ने किसी पराजित योद्धा की भांति सांस भरी.

शाहदीप को वहीं छोड़ मैं कैप्टन बोस के साथ चल पड़ा था कि उस ने आवाज दी, ‘‘ब्रिगेडियर साहब, मैं आप से अकेले में कुछ बात करना चाहता हूं.’’

मैं असमंजस में पड़ गया. ऐसी कौन सी बात हो सकती है जो वह मुझ से अकेले में करना चाहता है. कैप्टन बोस ने मेरे असमंजस को भांप लिया था अत: वह सैनिकों के साथ दूर हट गए.

New Year 2024: नई आस का नया सवेरा

New Year Special: नया साल (New Year) आ गया है. सब एक दूसरे को बधाई (Greetings) दे रहे हैं और कह रहे हैं कि साल 2024 (Year 2024) आपके लिए खुशियां लाए. आप बाहर से कितने ही उपाय कर लें, सकारात्मक सोच की पचास किताबें पढ़ लें, सोचसोच कर पचासों वस्तुएं संगृहीत कर लें जो आप के लिए सुखदायक हैं, परंतु यदि आप की आंतरिक विचारणा अनर्गल, आत्मपीड़ित व निंदक है, आप ढुलमुल नीति के हैं, तब आप के जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आने वाला नहीं. हमारे व्यवहार के गलत तरीके हमारे जीवन में तनाव लाते हैं, दुख से ही हमें अधिक परिचित कराते हैं. हम हर सुखात्मक स्थिति में भी तकलीफ ही तलाश करते हैं. क्या हो चुका है, यह हमें प्रीतिकर नहीं लगता, पर जो नहीं हुआ है उस पर हमारी दृष्टि लगी रहती है. हम स्वयं शांति चाहते हैं, हर काम में परफैक्शन तलाश करते हैं, तब हमारी निगाह हमेशा कमियां तलाश करने में चली जाती है और हम तो दुखी होते ही हैं, दूसरे के लिए भी दुखात्मक भावनाएं पैदा करते हैं. चाहे घर पर हों या कार्यालय में, हम कहीं भी खुश नहीं रह सकते, हम जीवन को दयनीय और दुखात्मक बनाते चले जाते हैं.

शेखर साहब बड़े अफसर रहे हैं. कार्यालय में आते ही वे पहले अपनी नाक पर उंगली रख कर सगुन देते. तब कुरसी पर बैठते. बजर बजाते, पीए अंदर आता तो सगुन देखते, सगुन चला तो अंदर आने देते, वरना वापस भेज देते. पूरा कार्यालय परेशान था. वे मेहनती व ईमानदार भी थे. पर न वे खुश रह पाते थे न किसी और को रहने दे सकते थे. एक बार उन के बड़े साहब आए. उन्हें यह पता था. वे अपने साथ नसवार से रंगा लिफाफा लाए थे. उन्हें दिया तो वे अचानक छींकने लग गए. शेखर साहब घबरा गए. सगुन जो बिगड़ गया था. बड़े साहब ने समझाया, सगुन की बात नहीं है, कागज में नसवार लगी है. छींक आएगी ही. सगुन को पालना बंद करो. तुम ने सब को दुखी कर रखा है.

जिंदगी चलने का नाम है

आप ने नट का खेल अवश्य देखा होगा. नट अपने संतुलन से बांस के सहारे रस्सी पर कुशलता से चलता है. यह जीवन जीने की वह कला है, जो बिना धन दिए प्राप्त की जा सकती है. कुछ रास्ते हैं, जहां आप खुशहाल जीवन को दुखी बना देते हैं जबकि दुखी जीवन को भी खुशी से जीने लायक बना सकते हैं.

हम अकसर आदर्शवादी विचारों से प्रभावित होते हैं. हमें बाहर यह बताया जाता है कि हम गलत बातों को छोड़ दें, यह समझाया जाता है कि जहां तक हो सके गलत विचारधारा को कम करते जाएं, इस से धीरेधीरे आप नकारात्मक सोच के प्रवाह से बाहर आते जाएंगे. पर यह भी उतना प्रभावशाली नहीं है.

हमारे भीतर नकारात्मकता का पहला वेग तेज उफान की तरह तब आता है, जब हम अपनेआप को दूसरों के साथ तुलना कर के देखते हैं. बचपन में यह सिखाया गया है, तुम्हें क्लास में फर्स्ट आना है. मातापिता हमेशा अपने बच्चे की दूसरों के साथ तुलना कर के उस का मूल्यांकन करते हैं.

क्या कभी हम ने अपनेआप से, अपनी कार्यकुशलता को, अपनी उत्पादकता को सराहा है? हमें यह सिखाया गया है कि इस से अहंकार पैदा हो जाता है. पर यह सोचना उचित नहीं है.

तुलना अपनेआप से करें

अपनी उपलब्धियों से तुलना करें. कल घूमने नहीं गया, व्यायाम नहीं किया, ब्लडशुगर बढ़ गई है आदि. अपनेआप अपने स्वास्थ्य के प्रति ध्यान जाएगा. ऐसे ही, कल बगीचे में पानी दिया था. पौधे अच्छे लग रहे हैं. आप हमेशा अपने आज की अपने कल से तुलना कर, बेहतर खुशी पा सकते हैं, अपनी कार्यकुशलता को बढ़ा सकते हैं. सुबह उठते ही समय अपनेआप को दें, आज यह काम करना है, टारगेट जो संभव हो उस से कम ही रखें. रात को एक बार अवश्य सोचें, कितना हो गया, क्या कमी रही, बस नींद गहरी आएगी. अपनेआप पर विश्वास आना शुरू होगा. खुश रहने की यह पहली सीढ़ी है.

खुद चुनें अपनी राह

आप बीमार हैं, अस्वस्थ हैं. अकसर आप पाएंगे कि पचासों लोग आप को देखने आ रहे हैं, वे सब के सब आप को सलाह दे रहे हैं. जहां खुशी होती है, वहां लोग नहीं जाते, पर जहां कहीं अभाव या कमी होती है, वहां सलाह देने वालों की जमात जमा हो जाती है. तो क्या हम सब को सुनने के लिए तैयार बैठे हैं? हम हमेशा सब को खुश नहीं कर सकते, सब की बातों को मान कर अपना रास्ता नहीं बना सकते.

माना सलाह और सलाहकार जीवन में महत्त्वपूर्ण हैं, पर रास्ता हमें स्वयं ही तय करना है. हर व्यक्ति को उस के सामर्थ्य की पहचान है. जो व्यक्ति, इस राह पर चले हों, उन की सफलता या असफलता के अनुभव ही आप के लिए सहायक हो सकते हैं. यह याद रहे. जिस किसी ने अपने अनुभव को बताया है, वह अतीत की घटना हो चुकी है. वर्तमान में हर घटना नई होती है. यहां दोहराव नहीं होता. चुनौती का सामना मात्र वर्तमान में ही रह कर होता है. हो सकता है, जो निर्णय लिया है, उस में कमी रह गई हो, वांछित लाभ न मिला हो पर यह असफलता आगे की रणनीति बनाने में सहायक होगी. जो कहा गया है, उसे सुनें. परंतु अपनी आंतरिक विचारणा का आधार न बनने दें.

तू दुख का सागर है

फिल्म ‘सीमा’ में मन्ना डे द्वारा गाया गीत ‘तू प्यार का सागर है’…आज उल्टा हो गया है. चारों ओर नकारात्मकता के सागर हिलोरे लेते रहते हैं. आज टैलीविजन, समाचारपत्र, नकारात्मकता के भंडार हो गए हैं. सुबह से ही टीवी पर राशियों व 9 ग्रहों का नकारात्मक मेला करोड़ों लोगों को नकारात्मक कर के कमजोर बनाने में लग जाता है. रोजाना पचासों ज्योतिषी, बारह खाने और 9 ग्रह की रामलीला बेच कर करोड़ों रुपए कमाते हैं. टीवी का रिमोट अपने हाथ में है. अपने मन को सजग रखें. ऐसी परिस्थितियों से नकारात्मकता बढ़ती है और आशावाद की जगह निराशावाद जन्म लेता है. इस से बचें. मन को सृजनात्मक कार्यों से जोड़ने का प्रयास करें.

कल ही की बात है शर्माजी बता रहे थे. उन्हें रात के 11 बजे उन की बेटी ने नींद से जगा कर फोन पर बताया कि दामाद के पिता का पुराने प्रेमसंबंध का पता लगने पर दोनों पितापुत्र बहुत झगड़ रहे थे. यह बात परिवार में घटी पुरानी घटना थी. घटना भी हजारों मील दूर की थी. यह बात अगले दिन भी तो बताई जा सकती थी. इस बात से शर्माजी रात भर बेचैन रहे. नकारात्मक लहरों में डूबे रहे.

लोगों का काम है कहना

मेरी एक परिचित मेरे पास आई हुई थीं. उन्होंने बताया कि वे कुछ दूरी पर शनि मंदिर में गई थी. वहां पूजा करवाई थी. ‘पूजा…’ मैं चौंक गया. क्या शनि की भी पूजा होती है? हमारा मन इसीलिए इतना नकारात्मक हो गया है कि हम सब तरफ भय को ही देख पाते हैं. थोड़ी सी भी कठिनाई आई नहीं कि हम पंडित, ज्योतिषी, बाबा की शरण में पहुंच जाते हैं.

हमारा मन जैसा होता जाता है, वह उन्हीं बातों को संगृहीत करने लग जाता है. यह उस की आदत है. हम जब निरंतर चाहे अपने परिवार में हों या पड़ोस में, इन नेगेटिव लोगों से घिरे रहते हैं तो वे सचमुच हमारी रचनात्मकता को सोख लेते हैं. आप आशावादी कैसे होंगे जब आप के वातावरण में नकारात्मक लहरें चारों ओर से धक्के मार रही हों.

खुश रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. हम खुश रहें तो दवाओं का आधा खर्चा कम हो जाता है साथ ही, हमारी कार्यकुशलता भी बढ़ जाती है. वाणिज्य की भाषा में इस से बड़ा कोई इन्वेस्टमैंट नहीं है, जहां मुनाफा बहुत ज्यादा है.

आखिर हम हर मामूली बात को भी ज्यादा गंभीरता से क्यों लेते हैं? आम बोलचाल में अधिक कहना, बतियाना, हमारा स्वभाव हो गया है. पहले टैलीफोन पर बात करना कठिन था, महंगा बहुत था. बाहर की कौल सुबह से शाम तक नहीं लग पाती थी. तनाव कम था. अब मोबाइल क्रांति है. खाने वाली बाई फोन कर कहती है, ‘मैं शाम को नहीं आऊंगी.’ पूछा जाता है, ‘क्यों? 3 दिन पहले भी छुट्टी ली थी.’ वह फोन काट देती है. गृहिणी नाराज हो जाती है. वह फिर फोन करती है. वह फोन नहीं उठाती है. संघर्ष शुरू हो गया, परिवार अचानक तनाव में चला जाता है.

आज हालत यह है कि आप कहीं भी हों, मोबाइल हमेशा आप को जोड़े रखता है. सगाइयां विवाह के पहले टूट जाती हैं. आप को बतियाने का शौक है. पैसे कम लगते हैं, जो कहना…नहीं कहना है…सब कह दिया जाता है.

चुप रहने का अपना मजा है, अपने को बोलते हुए भी सुनें और खुश रहना एक बार आदत में आ गया तो कैसी भी कठिनाई आए, आप की सामना करने की ताकत बढ़ जाएगी. क्या आप यह नहीं चाहते हैं?

एक क्राइम ऐसा भी, क्यों निकले मजबूर डोर के कच्चे रिश्ते

Crime News in Hindi: उत्तर प्रदेश (Uttarpradesh) के गोरखपुर (Gorakhpur) जिले का एक गांव है उमरपुर. यह गांव थाना चिलुआताल के अंतर्गत आता है. गांव के बाहर आम का एक बड़ा बाग स्थित है. 21 नवंबर, 2018 को करीब 10 बजे गांव के ही विकास, राजन और अमन नाम के लड़के इस बाग में खेलने के लिए गए थे. वहां पहुंच कर वे अपने खेल की दुनिया में रम गए थे. खेल के दौरान ही राजन चिल्लाता दौड़ता हुआ विकास और अमन के पास जा पहुंचा. उसे चिल्लाता देख दोनों परेशान हो गए. तभी विकास ने उस से पूछा, ‘‘अबे तू चिल्ला क्यों रहा है? वहां झाड़ी में क्या कोई भूत देख लिया जो चीख रहा है और तेरे माथे पर पसीना आ गया.’’

‘‘भूत नहीं, वहां झाड़ियों में एक लड़की की लाश पड़ी है.’’ लंबी सांसें भरता हुआ राजन बोला, ‘‘तुम्हें मेरी बातों पर यकीन न हो रहा हो तो आओ मेरे साथ, तुम्हें भी दिखाता हूं.’’ कह कर राजन झाड़ी की ओर बढ़ा तो उत्सुकतावश उस के दोस्त भी उस के पीछेपीछे चल दिए.

जब वह झाडि़यों के पास पहुंचे तो वास्तव में वहां एक लड़की की लाश पड़ी थी. लाश देख कर वे अपना खेल खेलना भूल गए और सभी सिर पर पैर रखे चिल्लाते हुए गांव की ओर भागे.

गांव पहुंच कर उन्होंने इस की सूचना गांव वालों को दी. बच्चों की सूचना पर गांव के कई लोग लाश देखने के लिए आम के बाग में पहुंच गए. थोड़ी देर में वहां तमाशबीनों का मजमा जमा हो गया. सूचना पा कर गांव का चौकीदार आफताब आलम भी मौके पर पहुंच गया था.

लड़की की लाश देख कर चौकीदार आफताब आलम ने सूचना चिलुआताल के थानाप्रभारी अरुण पवार को फोन द्वारा दे दी. सूचना मिलते ही थानाप्रभारी अरुण पवार मय फोर्स उमरपुर में घटनास्थल पर पहुंच गए.

उन्होंने बारीकी से लाश का मुआयना किया. लाश की दशा देख कर वह दंग रह गए. हत्यारों ने मृतका को 5 गोलियां मारी थीं. कनपटी और सीने में एकएक और पेट में 3 गोलियां मार कर उस की हत्या की थी. शरीर पर कई जगह नुकीले हथियार से गोदे जाने के निशान भी थे. खून भी सूख कर पपड़ी के रूप में जम गया था.

लाश से थोड़ी दूर पर कारतूस के 2 खोखे भी पड़े मिले. पुलिस ने वह कब्जे में ले लिए. मौके से कोई ऐसी चीज नहीं मिली, जिस से शव की पहचान हो सके. शव की शिनाख्त के लिए थानाप्रभारी पवार ने मौके पर जुटे ग्रामीणों से पूछताछ की लेकिन कोई भी उसे नहीं पहचान सका.

इस का मतलब साफ था कि मृतका चिलुआताल की रहने वाली नहीं थी. यानी वह कहीं और की रहने वाली थी. थानाप्रभारी ने घटना की सूचना सीओ रोहन प्रमोद बोत्रे, एसपी (उत्तरी) अरविंद कुमार पांडेय और एसएसपी डा. सुनील गुप्ता को भी दे दी.

सूचना मिलने के कुछ ही देर बाद सभी अधिकारी मौके पर पहुंच गए थे. उन्होंने भी घटनास्थल की छानबीन कर वहां मौजूद लोगों से मृतका के बारे में पूछताछ की लेकिन मौजूद लोगों ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया.

घटनास्थल की सारी काररवाई पूरी कर थानाप्रभारी ने लाश पोस्टमार्टम के लिए बीआरडी मैडिकल कालेज, गुलरिहा भेज दी. थाने लौट कर उन्होंने चौकीदार आफताब आलम की तहरीर पर अज्ञात हत्यारों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया और विवेचना शुरू कर दी.

थानाप्रभारी इस बात पर गौर कर रहे थे कि मासूम सी दिखने वाली युवती की भला किसी से क्या दुश्मनी हो सकती थी, जो उसे 5 गोलियां मार कर मौत के घाट उतार दिया.

हत्यारे का जब इस से भी जी नहीं भरा तो उस ने किसी नुकीली चीज से उस पर अनगिनत वार कर के अपनी भड़ास निकाली. इस से साफ पता चल रहा था कि हत्यारा मृतका से काफी खुन्नस खाया हुआ था. पुलिस को मामला प्रेम संबंधों का लग रहा था.

अगले दिन एसएसपी डा. सुनील गुप्ता ने एसपी (नार्थ) अरविंद कुमार पांडेय, सीओ रोहन प्रमोद बोत्रे और थानाप्रभारी अरुण पवार को अपने औफिस बुला कर हत्या के इस केस के बारे में चर्चा की और जल्द से जल्द केस का खुलासा करने के निर्देश दिए.

घटना को एक सप्ताह बीत गया लेकिन न तो मृतका की शिनाख्त हो पाई थी और न ही किसी थाने में इस उम्र की किसी लड़की की गुमशुदगी दर्ज होने की सूचना मिली. जबकि मृतका की शिनाख्त के लिए जिले के सभी 26 थानों को मृतका का फोटो भेज दिया गया था. जांच टीम के लिए यह मामला काफी पेचीदा होता जा रहा था. तब थानाप्रभारी ने अपने खास मुखबिर लगा दिए.

7 दिनों बाद यानी 4 दिसंबर, 2018 को प्रमिला और सरिता नाम की 2 सगी बहनें थानाप्रभारी अरुण पवार से मिलीं. उन्होंने बताया कि उन की छोटी बहन 15 वर्षीय रागिनी जो गुलरिहा थाने के शिवपुर सहबाजगंज में रहती है. 20 नवंबर, 2018 की शाम को घर से साइकिल ले कर निकली थी, वह अभी तक घर नहीं लौटी है. मांबाप ने कई दिनों तक रागिनी को इधरउधर तलाशा. लेकिन जब कहीं पता नहीं चला तो वह चुप हो कर बैठ गए. उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि वह कहां चली गई और किस हाल में है. भाई सिकंदर पाल भी रागिनी को तलाशने में कोई रुचि नहीं ले रहा. वह भी चुपी साधे बैठा है.

यह बात दोनों बहनों प्रमिला और सरिता को बड़ी अजीब लगी कि जिस की सयानी बेटी घर से लापता हो जाए, वह बाप हाथ पर हाथ धरे भला कैसे बैठा रह सकता है. कहीं न कहीं कोई पेंच जरूर है. तब से दोनों बहनों ने अपने स्तर से रागिनी की तलाश शुरू कर दी. उन्हें जब पता लगा कि उमरपुर गांव के आम के एक बाग में एक सप्ताह पहले पुलिस ने एक लड़की की लाश बरामद की थी, तो वे यहां चली आईं.

थानाप्रभारी ने अपने फोन में मौजूद उस लाश की फोटो और कपड़े दिखाए तो दोनों बहनों ने वह पहचानते हुए बताया कि यह फोटो और कपड़े उन की बहन रागिनी के हैं. लाश की शिनाख्त होने के बाद प्रमिला और सरिता ने बताया कि रागिनी की हत्या के पीछे उसे अपने घर वालों पर शक है. उन्होंने कहा कि उस के मांबाप और भाई सिकंदर पाल से पूछताछ की जाए तो सारी सच्चाई सामने आ जाएगी.

प्रमिला और सरिता के बयानों को आधार बना कर पुलिस टीम ने 5 दिसंबर, 2018 को शिवपुर सहबाजगंज गांव में स्थित पारसनाथ पाल के घर पर सुबहसुबह दबिश दी. संयोग से उस समय घर पर पारसनाथ पाल, उस की पत्नी और बेटा सिकंदर पाल तीनों मिल गए. पूछताछ के लिए पुलिस तीनों को थाने ले आई.

पुलिस ने तीनों से अलगअलग पूछताछ की तो पारसनाथ पाल ने कहा, ‘‘हां साहब, रागिनी मेरी ही बेटी थी. लेकिन उस ने हमें समाजबिरादरी में कहीं जीने लायक नहीं छोड़ा था. उस के कारण लोग हम पर थूथू कर रहे थे. लेकिन उस की हत्या मैं ने नहीं की है. उसे मेरे बेटे सिकंदर पाल ने अपने किसी दोस्त के साथ मिल कर मार डाला है.’’

इस के बाद एसओ अरुण पवार ने सिकंदर पाल से पूछताछ की तो उस ने बिना किसी हीलाहवाली के अपना जुर्म कबूल कर लिया. उस ने बताया कि रागिनी की हत्या में उस के मांबाप की कोई भूमिका नहीं थी.

उस ने अपने दोस्त कामदेव सिंह निवासी व्यासनगर जंगल के साथ मिल कर उसे ठिकाने लगाया था. उस के बाद पुलिस ने व्यासनगर जंगल स्थित कामदेव के घर दबिश दी. कामदेव घर पर नहीं मिला. वह घटना के बाद से ही फरार चल रहा था. 2 दिनों के अथक प्रयास के बाद पुलिस ने उसे शाहपुर से गिरफ्तार कर लिया. उस ने भी अपना जुर्म कबूल कर लिया. सिकंदर पाल और कामदेव से की गई पूछताछ के बाद रागिनी पाल की हत्या की जो कहानी सामने आई, चौंकाने वाली निकली—

रागिनी पाल मूलरूप से गोरखपुर के गुलरिहा इलाके की शिवपुर सहबाजगंज की रहने वाली थी. उस के पिता पारसनाथ पाल एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करता था. पारसनाथ के परिवार में पत्नी के अलावा 3 बेटियां और एक बेटा सिकंदर था. अपनी सामर्थ्य के अनुसार उस ने सभी बच्चों को पढ़ाया. समय बीतने के साथ जैसेजैसे बच्चे जवान होते गए, वह उन की शादी करता गया. बड़ी बेटियों प्रमिला और सरिता के उस ने हाथ पीले कर दिए थे. सब से छोटी बेटी रागिनी अभी पढ़ रही थी.

उसी दौरान उस के पांव बहक गए. गांव के ही राकेश नाम के युवक के साथ उस के अवैध संबंध हो गए थे, जिस की चर्चा पूरे गांव में थी. किसी तरह यह खबर रागिनी की मां निर्मला के कानों में पड़ी तो उस ने इस की जानकारी अपने पति पारसनाथ को दी.

इतना सुनते ही पारसनाथ बोला, ‘‘क्या बक रही हो, तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है न?’’
‘‘मैं बिलकुल ठीक कह रही हूं.’’ निर्मला ने कहा.

‘‘तो तुम ने इस बारे में रागिनी से पूछा या नहीं?’’

‘‘नहीं, अभी तो नहीं. सयानी बेटी है, पूछने पर कहीं कुछ कर न बैठे, इसलिए चुप थी.’’

‘‘ऐसे चुप्पी साधे ही बैठे रहना, कहीं ऐसा न हो कि बेटी मुंह पर कालिख पोत कर फुर्र हो जाए.’’ पारसनाथ पत्नी निर्मला पर गुस्से से चिल्लाया, ‘‘क्या अब मुझे ही कुछ करना पड़ेगा?’’

‘‘नहीं, तुम अभी उस से कुछ नहीं कहना. मैं उस से बात कर के समझाती हूं.’’ निर्मला ने कहा.

इत्तफाक से अगले दिन रागिनी स्कूल नहीं गई थी. पति भी अपनी ड्यूटी जा चुके थे. तभी निर्मला ने अप्रत्यक्ष रूप से रागिनी से बात शुरू की, ‘‘पढ़ाई कैसी चल रही है बेटा?’’

‘‘ठीक, एकदम फर्स्ट क्लास. क्यों मां, क्या बात है जो आज मेरी पढ़ाई के बारे में पूछ रही हो.’’ रागिनी ने मां से पूछा.

‘‘कुछ नहीं बेटा, बस ऐसे ही पूछ रही थी. अच्छा बेटा, मैं तुम से एक बात पूछती हूं क्या सच बताओगी?’’ निर्मला ने कहा.

‘‘हां मां, पूछो, क्या पूछना चाहती हो?’’ रागिनी ने उत्तर दिया.

‘‘तुम कल किस लड़के के साथ घूम रही थी?’’ निर्मला ने पूछा तो रागिनी के चेहरे का रंग उड़ गया. वह एकदम से सकपका गई.

‘‘किसी भी लड़के के साथ नहीं. यह तुम क्या कह रही हो?’’ रागिनी हकलाते हुए बोली, ‘‘लगता है किसी ने तुम्हें गलत जानकारी दी है. यह बात सरासर झूठी है.’’ रागिनी नजरें चुराते हुए बोली, ‘‘क्या मां, तुम्हें अपनी बेटी पर भरोसा नहीं है?’’

‘‘मुझे तुम पर पूरा भरोसा है बेटा. तुम ऐसीवैसी हरकत नहीं कर सकती, जिस से तुम्हारे मांबाप की जगहंसाई हो.’’ निर्मला ने समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटा, इज्जतआबरू और मानमर्यादा एक औरत के कीमती गहने हैं. बेटा, यदि कोई बात हो तो मुझे खुल कर बता दो. मैं किसी से नहीं कहूंगी.’’

‘‘नहीं मां, ऐसी कोई बात नहीं है.’’ रागिनी विश्वास दिलाते हुए बोली. बेटी के इतना कहने पर मां निर्मला उस के कमरे से चली गई.

मां के कमरे से जाने के बाद रागिनी इस बात से हैरान थी कि मां को सच्चाई का पता कैसे चल गया. उसे किस ने बताया होगा? वह इस बात से भी डर रही थी कि पापा और भाई को जब इस बारे में पता चलेगा तो घर में कयामत ही आ जाएगी.

जब से पत्नी ने पारसनाथ को बेटी के बारे में बताया था, वह परेशान हो गया था. अत: वह भी बेटी के बारे में उड़ रही खबर की सच्चाई पता लगाने में जुट गया. उसे पता चला कि पड़ोस के राकेश से रागिनी का काफी दिनों से चक्कर चल रहा है. यह जानकारी रागिनी के भाई सिकंदर को भी हो चुकी थी.

बहन के बारे में सुन कर उस का तो खून खौल उठा. उस ने रागिनी को समझाया कि वह अपनी हरकतों से बाज आ जाए, समाज बिरादरी में बहुत बदनामी हो रही है. नहीं तो इस का अंजाम बहुत बुरा हो सकता है. रागिनी ने किसी तरह भाई सिकंदर को विश्वास दिलाया कि कोई उसे बदनाम करने के लिए उस के बारे में उलटीसीधी बातें कर रहा है.

बात घटना से एक साल पहले की है. एक दिन अचानक रागिनी घर से गायब हो गई. जवान बेटी के अचानक गायब होने से घर वाले परेशान हो गए. बेटी को तलाशते हुए वह उस के प्रेमी राकेश के घर पहुंच गए तो पता चला कि राकेश भी उसी दिन से घर से गायब है.

फिर उन्हें समझते देर नहीं लगी कि रागिनी राकेश के साथ ही भाग गई है. चूंकि मामला नाबालिग बेटी का था, इसलिए बदनामी को देखते हुए पारसनाथ ने पुलिस में भी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई.

पारसनाथ अपने बेटे सिकंदर के साथ मिल कर बेटी को अपने स्तर से तलाशते रहा. आखिर अपने स्रोतों से उन दोनों ने रागिनी को ढूंढ ही लिया. वह राकेश के साथ ही थी. घर ला कर सिकंदर ने रागिनी पर अपना सारा गुस्सा निकाल दिया था. कमरे में बंद कर के उस ने उस की डंडे से पिटाई शुरू कर दी. लेकिन पिता ने उसे बचा लिया था. तब सिकंदर ने बहन को हिदायत दी कि अगर आइंदा राकेश से मिलने की कोशिश की या उस के बारे में सोचा भी तो जान से हाथ धो बैठेगी. इस के बाद से घर वालों की उस पर नजरें जमी रहतीं.

कुछ दिनों तक तो सब ठीक चलता रहा. घर वालों का रागिनी से धीरेधीरे ध्यान हटने लगा था. फिर मौका देख कर रागिनी अपने प्रेमी राकेश से मिलने लगी. उस ने राकेश से कह दिया कि वह उस के बिना जी नहीं सकती. वह उसे यहां से कहीं दूर ले चले, जहां हमारे सिवाय कोई और न हो. राकेश ने उसे भरोसा दिया कि वह परेशान न हो, जल्द ही वह कोई बीच का रास्ता निकाल लेगा.

रागिनी इस बात से पूरी तरह मुतमईन थी कि अब तो घर वाले भी उस की ओर से बेपरवाह हो चुके हैं. लिहाजा वह पहले की तरह ही चोरीछिपे प्रेमी राकेश से मिलने लगी. यह रागिनी की सब से बड़ी भूल थी. उसे यह पता नहीं था कि घर वाले केवल दिखावे के तौर पर उस की तरफ से बेपरवाह हुए थे. लेकिन उन की नजरें हर घड़ी उसी पर जमी रहती थीं.

सिकंदर को पता चल गया था रागिनी फिर से राकेश से मिलने लगी है. इस बार सिकंदर ने रागिनी को राकेश के साथ बतियाते हुए रंगेहाथ पकड़ लिया था. फिर क्या था, वह उसे वहीं से पकड़ कर घर ले आया और उस की खूब पिटाई की. इस बार पारसनाथ ने बेटे को पिटाई करने से नहीं रोका, बल्कि उस ने बेटी को सुधारने के लिए बेटे को पूरी आजादी दे दी थी.

पानी अब सिर से ऊपर गुजरने लगा था. डांट या मार का रागिनी पर अब कोई असर नहीं होता. रागिनी की करतूतों से घर वालों की इज्जत तारतार हो रही थी. बहन के चलते परिवार की हो रही बदनामी को देख सिकंदर भी ऊब गया, इसलिए उस ने रागिनी की हत्या करने की ठान ली. इस बाबत उस के मांबाप में से किसी को कुछ भी नहीं बताया.

सिकंदर का एक जिगरी दोस्त था कामदेव सिंह. वह शाहपुर थानाक्षेत्र के व्यासनगर जंगल में रहता था. उस पर कई आपराधिक केस भी चल रहे थे. सिकंदर जानता था यह काम कामदेव आसानी से कर सकता है. दोस्त होने के नाते वह उस की बात कभी नहीं टालेगा. वैसे सिकंदर खुद भी इस काम को अकेला कर सकता था लेकिन वह खून के मजबूत रिश्तों की डोर से बंधा हुआ था. ऐसा करते हुए उस के हाथ कांप सकते थे.

सिकंदर ने कामदेव को रागिनी की करतूतें बता कर उसे रास्ते से हटाने की बात कही तो वह उस का साथ देने के लिए तैयार हो गया. दोनों ने दीपावली के दिन रागिनी की हत्या करने की योजना बना ली ताकि पटाखों के शोर में रागिनी की मौत की आवाज दब कर रह जाए.

लेकिन दोनों को दीपावली के दिन किसी वजह से यह मौका नहीं मिला. तब कामदेव ने सिकंदर को भरोसा दिया कि वह अकेला ही इस काम को अंजाम दे देगा. 20 नवंबर, 2018 की शाम रागिनी घर से साइकिल से कहीं जा रही थी. घर से थोड़ी दूर पर रास्ते में उसे कामदेव मिल गया.

कामदेव ने रागिनी को अपनी बातों में उलझा लिया और उसे प्रेमी राकेश से मिलाने की बात कह कर अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा लिया. घंटों तक वह उसे इधरउधर घुमाता रहा. रागिनी के कुछ भी पूछने पर वह गोलमोल उत्तर दे कर उसे बहलाता रहा. रात करीब 10 बजे वह उसे चिलुआताल थाने से कुछ दूर उमरपुर गांव के बाग की ओर ले गया. तब तक चारों ओर गहरा सन्नाटा पसर गया था.

उस ने मोटरसाइकिल बाग में रोक दी और वे दोनों बाइक से नीचे उतर गए. रागिनी ने उस से फिर पूछा कि राकेश कहां है? तो कामदेव ने कहा, ‘‘बस कुछ देर और ठहर जाओ. वह आता ही होगा.’’ इतना कहते ही कामदेव ने कमर में खोंसा हुआ पिस्टल निकाला. पिस्टल देख कर रागिनी के होश उड़ गए.

अब वह समझ गई कि कामदेव ने उस के साथ बड़ा धोखा किया है. वह कुछ कह पाती, उस से पहले ही कामदेव ने उस के शरीर में पिस्टल से 5 गोलियां उतार दीं. गोलियां लगते ही रागिनी ने मौके पर दम तोड़ दिया. कहीं वह जीवित न रह जाए, इसलिए कामदेव ने साथ लाए पेचकस से उस के शरीर को गोद डाला.
उसे ठिकाने लगा कर वह वहां से इत्मीनान से घर चला गया. फिर सिकंदर को फोन कर के काम हो जाने की जानकारी दे दी. जिस पिस्टल से उस ने रागिनी की हत्या की थी, वह उस ने अपने कमरे की अलमारी में छिपा दी.

अगले दिन सिकंदर ने अफवाह फैला दी कि रागिनी फिर से अपने प्रेमी के साथ घर से भाग गई. 2 दिनों बाद पारसनाथ को सच्चाई का पता चल गया था. सच जान कर उस ने चुप्पी साध ली थी लेकिन उस की दोनों बेटियों ने राज से परदा उठा कर उन्हें बेनकाब कर दिया. नहीं तो सिकंदर और कामदेव ने मिल कर जो खतरनाक योजना बनाई थी, शायद पुलिस उन तक नहीं पहुंच पाती.

मामले का खुलासा हो जाने के बाद थानाप्रभारी ने पारसनाथ और उस की पत्नी को बेकसूर मानते हुए घर भेज दिया. पुलिस ने अभियुक्त सिकंदर और उस के दोस्त कामदेव को गिरफ्तार कर लिया. 7 दिसंबर, 2018 को एसपी (नार्थ) अरविंद कुमार पांडेय और सीओ रोहन प्रमोद बोत्रे ने पुलिस लाइन में प्रैस कौन्फ्रैंस कर पत्रकारों को केस के खुलासे की जानकारी दी. दोनों हत्याभियुक्तों को पुलिस ने कोर्ट में पेश किया, जहां से उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित॒॒

मैं अपने बॉयफ्रेंड से इमोशनली अटैच नहीं हूं, क्या करूं?

सवाल

मेरे बौयफ्रैंड और मेरी रिलेशनशिप को एक साल से ज्यादा हो चुका है. फिर भी हम ने कभी साथ बैठ कर आम लोगों की तरह इमोशनल बातें नहीं की हैं. हमने कभी एकदूसरे को गाने डेडिकेट नहीं किए हैं. कभी शांति से साथ बैठ कर एकदूसरे की आंखों में नहीं झांका है. हम फिजिकली तो कई बार क्लोज आए हैं लेकिन यह क्लोजनैस कोई माने नहीं रखती है. इतना करीब हो कर भी मैं मन से करीबी महसूस नहीं करती तो क्या फायदा है ऐसे प्यार का. लेकिन, उस से दूर होने की हिम्मत भी नहीं होती मेरी. क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा.

जवाब

आप की रिलेशनशिप अलग रही है और उस में इमोशंस एक्सप्रैस करने के तरीके भी अलग रहे हैं. आप अगर इमोशनली अटैच्ड नहीं हैं लेकिन होना चाहती हैं तो इस के लिए आप को अपने बौयफ्रैंड से बात करने की जरूरत है. अपनी रिलेशनशिप कंपेयर करते रहने से आप को कोई हल नहीं मिलेगा.

आप अपने बौयफ्रैंड को बताइए कि आप क्या फील करती हैं और उस से क्या उम्मीदें रखती हैं. हो सकता है वह भी यही सब चाहता हो और आप से कह न पा रहा हो. अगर आप के बात करने के बावजूद कोई हल न निकले बात का या वह कहे कि उसे यह सब पसंद नहीं है या वह फिजिकल क्लोजनैस को ही रोमांस मानता है, तो फिर यह आप पर डिपैंड करता है कि आप इस रिलेशनशिप के साथ आगे बढ़ना चाहती हैं या नहीं. वह भी आप से उतना ही प्यार करता होगा जितना कि आप, तो वह कुछ एफर्ट्स करने की कोशिश तो जरूर करेगा.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
सब्जेक्ट में लिखे…  सरस सलिल- व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

आखिर क्यों जरूरी है सेक्स का कारोबार, क्या झूठ की है भरमार

Sex News in Hindi: पहले गिनीचुनी कंपनियां सेक्स की ताकत (Sex Power) बढ़ाने वाली गोलियां, टौनिक(Sex Tonic) और स्प्रे (Sex Spray) बनाती थीं, पर बहुत लुकेछिपे ढंग से इस का प्रचार होता था. कुछ खास छोटी गुमनाम दुकानों पर ही यह सामान मिलता था. अब डिपार्टमैंटल दुकानों और दवा बेचने वालों के पास इस तरह की दवाओं के तमाम ब्रांड मिल जाते हैं. सेक्स (Sex) की दवाओं के इस कारोबार पर बहुत बड़ा हिस्सा उन लोगों के कब्जे में है जो दवाएं बेच रहे हैं. वे अपना नामपता तक गुप्त रखते हैं, पर बहुत से लोग जड़ीबूटी बता कर पता नहीं क्याक्या बेच रहे हैं. अपने प्रचार में ये लोग नामर्दी (Impotency) और बच्चा पैदा करने के लिए शुक्राणुओं की तादाद बढ़ाने के लिए इलाज का दावा करते हैं. पर हकीकत में इस तरह का इलाज इन झोलाछाप डाक्टरों के पास नहीं होता है. ये केवल भ्रामक प्रचार के जरीए ही लोगों को फंसाते हैं.

भ्रामक से मतलब है दवा के नाम पर डर को बेचना. अगर नामर्दी से जुड़ी कोई समस्या है तो किसी माहिर डाक्टर से ही अपना इलाज कराएं. उस डाक्टर द्वारा दी गई दवाओं का ही सेवन करें जो आसपास की कैमिस्ट की दुकान से आसानी से मिल जाती हैं.

मर्दाना ताकत बढ़ाने वाले स्प्रे या गोलियां कितनी कारगर होती हैं, इसे भी डाक्टर बता देते हैं और उन को इस्तेमाल करने की हिदायत भी दे देते हैं.

साल 1986 में एक स्प्रे पहली बार बाजार में आया था. तब यह कहींकहीं ही दिखता था. हालात ये हो गए थे कि इस को बनाने वाली कंपनी ने इस स्प्रे को बनाना बंद कर दिया था.

1990 में नामर्दी को ठीक करने का कारोबार जब बढ़ने लगा तो 1995 में इस स्प्रे को फिर से बाजार में उतारा गया. इस के बाद तो कंपनी ने इसी नाम से गोलियां भी बनानी शुरू कर दीं. यही नहीं, मुख मैथुन में मदद के लिए फलों के कई स्वादों वाला स्प्रे भी बाजार में आने लगा.

‘पुरुषों में चरम शक्ति बढ़ाने’ के नाम पर तमाम तरह की दवाओं का प्रचार किया जाता है. इन में हर्बल दवाओं का नाम भी दिया जाता है.

जब एलोपैथिक दवा वियाग्रा को बाजार में उतारा गया तो उस ने अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ दिए. 500 रुपए की यह गोली हर आदमी की जेब को सूट नहीं कर रही थी, इस वजह से वियाग्रा का देशी संस्करण भी बाजार में आ गया.

नामर्दी के इस कारोबार ने जब अपना जलवा दिखाया तो टैलीविजन भी इस के जाल में फंस गया. टैलीविजन के जरीए इन दवाओं का प्रचार बैडरूम तक पहुंचने लगा.

नामर्दी को दूर करने का कारोबार करने के लिए पत्रपत्रिकाओं और टैलीविजन पर इश्तिहार दिए जाते हैं. इस के अलावा दूरदराज की जगहों पर वाल राइटिंग कराई जाती है. दवा की दुकानों पर पोस्टर लगवाए जाते हैं. कई तरीके से पंपलैट बांटे जाते हैं. एलोपैथिक दवाओं को बनाने वाले डाक्टरों के जरीए भी प्रचार किया जाता है.

इस धंधे में होने वाले मुनाफे का अंदाजा प्रचार में खर्च की जाने वाली रकम से लगाया जा सकता है. सब से पहले नामर्दी का शिकार सेक्स का इलाज करने वाले झोलाछाप डाक्टरों के पास जाता है. अपने इलाज पर जब वह कई हजार रुपए खर्च कर लेता है तब उस को डाक्टरों का खयाल आता है.

एक सर्वे के मुताबिक, भारत में 10 में से 2 आदमी को सेक्स की परेशानी होती है. यह परेशानी अंग में तनाव न आने की होती है. ज्यादातर लोग लुकछिप कर ही अपना इलाज कराने की कोशिश करते हैं. इसी में वे ठगे जाते हैं.

सेक्स रोगों के जानकार और सर्जन, लखनऊ के डाक्टर गिरीश मक्कड़ कहते हैं, ‘‘नामर्दी 2 तरह की होती है. एक, विवाह की शुरुआत में ही सामने आ जाती है. दूसरी, एक निश्चित उम्र के बाद आती है. इस में अंग में तनाव नहीं आता है. इस के शारीरिक और मानसिक 2 कारण होते हैं. कारण का पता लगा कर ही सही ढंग से उस का उपचार किया जा सकता है.’’

ज्यादा उम्र हो जाने पर किसी बीमारी के चलते या फिर मधुमेह, तनाव, एलर्जी या दिल की बीमारी के चलते यह परेशानी आ सकती है. शुरुआती समय में अगर इस का सही ढंग से इलाज हो जाए तो परेशानी से बचा जा सकता है.

अच्छी नौकरियां कर रहे लोग तनाव में फंस कर रह जाते हैं, जिस के चलते अंग में तनाव की कमी आ जाती है. वे इस को दूर करने के लिए महंगी से महंगी दवाओं को लेने लग जाते हैं.

एक मैडिकल स्टोर चलाने वाले दीपक कुमार कहते हैं कि नामर्दी दूर करने की दवाओं को खरीदने वाले हर उम्र के लोग होते हैं. ज्यादातर 20 से 30 साल और इस के बाद 40 से 45 साल की उम्र के लोग होते हैं.

अब महिलाएं भी इस तरह के मामलों में अपनी राय देने लगी हैं. कभीकभी वे खुद पहल कर के पतियों को डाक्टरों के पास लाती हैं. जरूरत इस बात की है कि नामर्दी का इलाज सही ढंग से माहिर डाक्टरों से कराया जाए. बहुत सारे मामलों में इस तरह की दवाओं का फायदा मनोवैज्ञानिक असर के चलते ही दिखता है. झोलाछाप डाक्टर इसी बात का फायदा उठा कर अपना कारोबार चलाते रहते हैं.

नामर्दी का कारोबार ज्यादातर गलतफहमी पर टिका हुआ है. अगर सही ढंग से इलाज कराया जाए तो नामर्दी का यह इलाज सस्ता भी है और इस में किसी तरह की कोई परेशानी भी नहीं होती है.

सभी तरह की नामर्दी का इलाज हो सकता है और इस में कामयाबी की गारंटी 80 से 100 फीसदी तक होती है. इस तरह के मामलों में पत्नी और अनुभवी डाक्टरों का इलाज में खास रोल होता है.

कचरे वाले : गंदगी फैलाने वाले लोग हैं कौन

मंगलवार की सुबह औफिस के लिए निकलते वक्त पत्नी ने आवाज दी, ‘‘आज जाते समय यह कचरा लेते जाइएगा, 2 दिनों से पड़ेपड़े दुर्गंध दे रहा है.’’ मैं ने नाश्ता करते हुए घड़ी पर नजर डाली, 8 बजने में 10 मिनट बाकी थे. ‘‘ठीक है, मैं देखता हूं,’’ कह कर मैं नाश्ता करने लगा. साढ़े 8 बज चुके थे. मैं तैयार हो कर बालकनी में खड़ा मल्लपा की राह देख रहा था. कल बुधवार है यानी सूखे कचरे का दिन. अगर आज यह नहीं आया तो गुरुवार तक कचरे को घर में ही रखना पड़ेगा.

बेंगलुरु नगरनिगम का नियम है कि रविवार और बुधवार को केवल सूखा कचरा ही फेंका जाए और बाकी दिन गीला. इस से कचरे को सही तरह से निष्क्रिय करने में मदद मिलती है. यदि हम ऐसा नहीं करते तो मल्लपा जैसे लोगों को हमारे बदले यह सब करना पड़ता है. मल्लपा हमारी कालोनी के कचरे ढोने वाले लड़के का नाम था. वैसे तो बेंगलुरु के इस इलाके, केंपापुरा, में वह हमेशा सुबहसुबह ही पहुंच जाता था लेकिन पिछले 2 दिनों से उस का अतापता न था. मैं ने घड़ी पर फिर नजर दौड़ाई, 5 मिनट बीत चुके थे. मैं ने हैलमैट सिर पर लगाया और कूड़ेदान से कचरा निकाल कर प्लास्टिक की थैली में भरने लगा. कचरे की थैली हाथ में लिए 5 मिनट और बीत गए, लेकिन मल्लपा का अतापता न था.

मैं ने तय किया कि सोसाइटी के कोने पर कचरा रख कर औफिस निकल लूंगा. दबेपांव मैं अपने घर के बरामदे से बाहर निकला और सोसाइटी के गेट के पास कचरा रखने लगा. ‘‘खबरदार, जो यहां कचरा रखा तो,’’ पीछे से आवाज आई. मैं सकपका गया. देखा तो पीछे नीलम्मा अज्जी खड़ी थीं. ‘‘अभी उठाओ इसे, मैं कहती हूं, अभी उठाओ.’’

‘‘पर अज्जी, मैं क्या करूं, मल्लपा आज भी नहीं आया,’’ मैं ने सफाई देने की कोशिश की. ‘‘जानती हूं, लेकिन सोसाइटी की सफाई तो मुझे ही देखनी होती है न. तुम तो यहां कचरा छोड़ कर औफिस चल दोगे, आवारा कुत्ते आ कर सारा कचरा इधरउधर बिखेर देंगे, फिर साफ तो मुझे ही करना होगा न,’’ उन का स्वर तेज था. मैं ने कचरा वापस कमरे में रखने में ही भलाई समझी.

‘‘तुम तो गाड़ी से औफिस जाते हो, इस कूड़े को रास्ते में किसी कूडे़दान में क्यों नहीं फेंक देते,’’ उन्होंने सलाह दी. ‘‘बात तो ठीक कहती हो अज्जी, घर में रखा तो यह ऐसे ही दुर्गंध देता रहेगा,’’ यह कह कर कचरे का थैला गाड़ी की डिग्गी में डाल लिया, सोचा कि रास्ते में किसी कूड़े के ढेर में फेंक दूंगा. सफाई के मामले में वैसे तो बेंगलुरु भारत का नंबर एक शहर है, लेकिन कूड़े का ढेर ढूंढ़ने में ज्यादा दिक्कत यहां भी नहीं होती. मैं अभी कुछ ही दूर गया था कि सड़क के किनारे कूड़े का एक बड़ा सा ढेर दिख गया. मैं ने कचरे से छुटकारा पाने की सोच, गाड़ी रोक दी. अभी डिग्गी खोली भी नहीं थी कि एक बच्ची मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई. ‘‘अंकल, क्या आप मेरी हैल्प कर दोगे, प्लीज.’’

‘‘हां बेटा, बोलो, आप को क्या हैल्प चाहिए,’’ मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. उस ने झट से अपने साथ के 2 बच्चों को बुलाया जो वहां सड़क के किनारे अपनी स्कूलबस का इंतजार कर रहे थे. उन में से एक से बोली, ‘‘गौरव, वह बोर्ड ले आओ, अंकल हमारी हैल्प कर देंगे.’’

गौरव भाग कर गया और अपने साथ एक छोटा सा गत्ते का बोर्ड ले आया. उस के साथ 3-4 बच्चे और मेरी गाड़ी के पास आ कर खड़े हो गए. छोटी सी एक बच्ची ने वह गत्ते का बोर्ड मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘अंकल, आप यह बोर्ड यहां ऊपर टांग दीजिए, प्लीज.’’

‘‘बस, इतनी सी बात,’’ कह कर मैं ने वह बोर्ड वहां टांग दिया. बोर्ड पर लिखा था, ‘कृपया यहां कचरा न फेंकें, यह हम बच्चों का स्कूलबस स्टौप है.’

बोर्ड टंगा देख सभी बच्चे तालियां बजाने लगे. मैं ने एक नजर अपनी बंद पड़ी डिग्गी पर दौड़ाई और वहां से निकल पड़ा. कोई बात नहीं, घर से औफिस का सफर 20 किलोमीटर का है, कहीं न कहीं तो कचरे वालों का एरिया होगा, यह सोच मैं ने मन को धीरज बंधाया और गाड़ी चलाने लगा.

आउटर रिंग रोड पर गाड़ी चलते समय कहीं भी कचरे का ढेर नहीं दिखा तो हेन्नुर क्रौसिंग से आगे बढ़ने पर मैं ने लिंग्रज्पुरम रोड पकड़ ली. मैं ने सोचा कि रैजिडैंशियल एरिया में तो जरूर कहीं न कहीं कचरे का ढेर मिलेगा या हो सकता है कि कहीं कचरे वालों की कोई गाड़ी ही मिल जाए. अभी थोड़ी दूर ही चला था कि रास्ते में गौशाला दिख गई. साफसुथरे कपड़े पहने लोगों के बीच कुछ छोटीमोटी दुकानें थीं और पास ही कचरे का ढेर भी लगा था, लेकिन यह क्या, वहां तो गौशाला के कुछ कर्मचारी सफाई करने में लगे थे.

मैं ने गाड़ी की रफ्तार और तेज कर दी और सोचने लगा कि इस कचरे को आज डिग्गी में ही ढोना पड़ेगा. लिंग्रज्पुरम फ्लाईओवर पार करने के बाद मैं लेजर रोड पर गाड़ी चला रहा था. एमजी रोड जाने के लिए यहां से 2 रास्ते जाते थे. एक कमर्शियल स्ट्रीट से और दूसरा उल्सूर लेक से होते हुए. उल्सूर लेक के पास गंदगी ज्यादा होगी, यह सोच कर मैं ने गाड़ी उसी तरफ मोड़ दी.

अनुमान के मुताबिक मैं बिलकुल सही था. रोड के किनारे लगी बाड़ के उस पार कचरे का काफी बड़ा ढेर था. थोड़ा और आगे बढ़ा तो 2-3 महिलाएं कचरे के एक छोटे से ढेर से सूखा व गीला कचरा अलग कर रही थीं. उन्हें नंगेहाथों से ऐसे करते देख मुझे बड़ी घिन्न आई. थोड़ी ग्लानि भी हुई. हम अपने घरों में छोटीछोटी गलतियां करते हैं सूखे और गीले कचरे को अलग न कर के. यहां इन बेचारों को यह कचरा अपने हाथों से बिनना पड़ता है.

मुझे डिग्गी में रखे कचरे का खयाल आया, जो ऐसे ही सूखे और गीले कचरे का मिश्रण था. मन ग्लानि से भर उठा. धीमी चल रही गाड़ी फिर तेज हो गई और मैं एमजी रोड की तरफ बढ़ गया. एमजी रोड बेंगलुरु के सब से साफसुथरे इलाकों में से एक है.

चौड़ीचौड़ी सड़कें और कचरे का कहीं नामोनिशान नहीं. सफाई में लगे कर्मचारी वहां भी धूल उड़ाते दिख रहे थे. लेकिन मुझे जेपी नगर जाना था. इसीलिए मैं ने बिग्रेड रोड वाली लेन पकड़ ली. सोचा शायद यहां कहीं कूड़ेदान मिल जाए, लेकिन लगता है, इस सूखेगीले कचरे के मिश्रण की लोगों की आदत सुधारने के लिए नगरनिगम ने कूड़ेदान ही हटा दिए थे.

शांतिनगर, डेरी सर्किल, जयदेवा हौस्पिटल होते हुए अब मैं अपने औफिस के नजदीक वाले सिग्नल पर खड़ा था. सामने औफिस की बड़ी बिल्ंिडग साफ नजर आ रही थी. वहां कचरा ले जाने की बात सोच कर मन में उथलपुथल मच गई. आसपास नजर दौड़ाई तो सामने कचरे की एक छोटी सी हाथगाड़ी खड़ी थी और गाड़ी चलाने वाली महिला कर्मचारी पास में ही कचरा बिन रही थी. यह सूखे कचरे की गाड़ी थी.

मैं ने मन ही मन सोचा, ‘यही मौका है, जब तक वह वहां कचरा बिनती है, मैं अपने कचरे की थैली को उस की गाड़ी में डाल के निकल लेता हूं,’ था तो यह गलत, क्योंकि उस बेचारी ने सूखा कचरा जमा किया था और मैं उस में मिश्रित कचरा डाल रहा था, लेकिन मेरे पास और कोई उपाय नहीं था. मैं ने साहस कर के गाड़ी की डिग्गी खोली, लेकिन इस से पहले कि मैं कचरा निकाल पाता, सिग्नल ग्रीन हो गया.

पीछे से गाडि़यों का हौर्न सुन कर मैं ने अपनी गाड़ी वहां से निकालने में ही भलाई समझी. अब मैं औफिस के अंदर पार्किंग में था. कचरा रखने से कपड़े की बनी डिग्गी भरीभरी दिख रही थी.

मैं ने गाड़ी लौक की और लिफ्ट की तरफ जाने लगा, तभी सिक्योरिटी गार्ड ने मुझे टोक दिया, ‘‘सर, कहीं आप डिग्गी में कुछ भूल तो नहीं रहे,’’ उस ने उभरी हुई डिग्गी की तरफ इशारा किया. ‘‘नहींनहीं, उस में कुछ इंपौर्टेड सामान नहीं है,’’ मैं ने झेंपते हुए कहा और लिफ्ट की तरफ लपक लिया.

औफिस में दिनभर काम करते हुए एक ही बात मन में घूम रही थी कि कहीं, कोई जान न ले कि मैं घर का कचरा भी औफिस ले कर आता हूं. न जाने इस से कितनी फजीहत हो. बहरहाल, शाम हुई. मैं औफिस से जानबूझ कर थोड़ी देर से निकला ताकि अंधेरे में कचरा फेंकने में कोई दिक्कत न हो.

गाड़ी स्टार्ट की और घर की तरफ निकल लिया, फिर से वही रास्ता. फिर से वही कचरे के ढेर. इस बार कोई बंदिश न थी और न ही कोई रोकने वाला, लेकिन फिर भी मैं कचरा नहीं फेंक पाया. कचरे के ढेर आते रहे और मैं दृढ़मन से गाड़ी आगे बढ़ाता रहा. न जाने क्या हो गया था मुझे.

अब कुछ ही देर में घर आने वाला था. सुबह निकलते वक्त पत्नी की बात याद आई, ‘अंदर से आवाज आई, छोड़ो यह सब सोचना. एक तुम्हारे से थोड़े न, यह शहर इतना साफ हो जाएगा.’ मैं ने सोसाइटी के पीछे वाली सड़क पकड़ ली. लगभग 1 किलोमीटर दूर जाने के बाद एक कचरे का ढेर और दिखा. मैं ने गाड़ी रोकी, डिग्गी खोली और कचरा ढेर के हवाले कर दिया.

सुबह से जो तनाव था वह अचानक से फुर्र हो गया. मन को थोड़ी राहत मिली. रास्तेभर से जो जंग मन में चल रही थी, वह अब जीती सी लग रही थी.

तभी सामने एक औटोरिकशा आ कर रुका, देखा तो मल्लपा अपनी बच्ची को गोद में लिए उतर रहा था. ‘‘नमस्ते सर, आप यहां.’’

‘‘नहीं, मैं बस यों ही, और तुम यहां? कहां हो इतने दिनों से, आए नहीं?’’ ‘‘मेरा तो घर यहीं पीछे है. क्या बताऊं सर, मेरी बच्ची की तबीयत बहुत खराब है. बस, इसी की तिमारदारी में लगा हूं 2 दिनों से.’’

‘‘क्या हुआ इसे?’’ ‘‘संक्रमण है, डाक्टर कहता है कि गंदगी की वजह से हुआ है.’’

‘‘ठीक तो कहा डाक्टर ने, थोड़ी साफसफाई रखो,’’ मैं ने सलाह दी. ‘‘अब साफ जगह कहां से लाएं. हम तो कचरे वाले हैं न, सर,’’ यह कह कर मुसकराता हुआ वह अपने घर की ओर चल दिया.

सामने उस का घर था, बगल में कचरे का ढेर. वहां खड़ा मैं, अब, हारा हुआ सा महसूस कर रहा था.

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