तू आए न आए – भाग 3: शफीका का प्यार और इंतजार

निश्चित दिन, निश्चित समय, उन के घर की डौरबैल बजाने से पहले, क्षणभर के लिए हाथ कांपा था, ‘तुम शफीका के भतीजे के बेटे हो. गेटआउट फ्रौम हियर. वह पृष्ठ मैं कब का फाड़ चुका हूं. तुम क्या टुकड़े बटोरने आए हो?’ कुछ इस तरह की ऊहापोह में मैं ने डौरबैल पर उंगली रख दी.

‘‘प्लीज कम इन, आई एम वेटिंग फौर यू.’’ एक अनौपचारिक स्वागत के बाद उन के द्वारा मेरा परिचय और मेरा मिलने का मकसद पूछते ही मैं कुछ देर तो चुप रहा, फिर अपने ननिहाल का पता बतलाने के बाद देर तक खुद से लड़ता रहा.

अनौपचारिक 2-3 मुलाकातों के बाद वे मुझ से थोड़ा सा बेबाक हो गए. उन की दूसरी पत्नी की मृत्यु 15 साल पहले हो चुकी थी. बेटों ने पाश्चात्य सभ्यता के मुताबिक अपनी गृहस्थियां अलग बसा ली थीं. वीकैंड पर कभी किसी का फोन आ जाता, कुशलता मिल जाती. महीनों में कभी बेटों को डैड के पास आने की फुरसत मिलती भी तो ज्यादा वक्त फोन पर बिजनैस डीलिंग में खत्म हो जाता. तब सन जैसी सफेद पलकें, भौंहें और सिर के बाल चीखचीख कर पूछने लगते, ‘क्या इसी अकेलेपन के लिए तुम श्रीनगर में पूरा कुनबा छोड़ कर यहां आए थे?’

हालांकि डाक्टर खालिद अनवर की उम्र चेहरे पर हादसों का हिसाब लिखने लगी थी मगर बचपन से जवानी तक खाया कश्मीर का सूखा मेवा और फेफड़े में भरी शुद्ध, शीतल हवा उन की कदकाठी को अभी भी बांस की तरह सीधा खड़ा रखे हुए है. डाक्टर ने बुढ़ापे को पास तक नहीं फटकने दिया. अकसर बेटे उन के कंधे पर हाथ रख कर कहते हैं, ‘‘डैड, यू आर स्टिल यंग दैन अस. सो, यू डौंट नीड अवर केयर.’’ यह कहते हुए वे शाम से पहले ही अपने घर की सड़क की तरफ मुड़ जाते हैं.

शरीर तो स्वस्थ है लेकिन दिल… छलनीछलनी, दूसरी पत्नी से छिपा कर रखी गई शफीका की चिट्ठियां और तसवीरों को छिपछिप कर पढ़ने और देखने के लिए मजबूर थे. प्यार में डूबे खतों के शब्द, साथ गुजारे गिनती के दिनों के दिलकश शाब्दिक बयान, 63 साल पीछे ले जाता, यादों के आईने में एक मासूम सा चेहरा दिखलाई देने लगता. डाक्टर हाथ बढ़ा कर उसे छू लेना चाहते हैं जिस की याद में वे पलपल मरमर कर जीते रहे. बीवी एक ही छत के नीचे रह कर भी उन की नहीं थी. दौलत का बेशुमार अंबार था. शानोशौकत, शोहरत, सबकुछ पास में था अगर नहीं था तो बस वह परी चेहरा, जिस की गरम हथेलियों का स्पर्श उन की जिंदगी में ऊर्जा भर देता.

मेरे अपनेपन में उन्हें अपने वतन की मिट्टी की खुशबू आने लगी थी. अब वे परतदरपरत खुलने लगे थे. एक दिन, ‘‘लैपटौप पर क्या सर्च कर रहे हैं?’’

‘‘बेटी के लिए प्रौपर मैच ढूंढ़ रहा हूं,’’ कहते हुए उन का गला रुंधने लगा. उन की यादों की तल्ख खोहों में उस वक्त वह कंपा देने वाली घड़ी शामिल थी, जब उन की बेटी का पति अचानक बिना बताए कहीं चला गया. बहुत ढूंढ़ा, इंटरनैशनल चैनलों व अखबारों में उस की गुमशुदगी की खबर छपवाई, लेकिन सब फुजूल, सब बेकार. तब बेटी के उदास चेहरे पर एक चेहरा चिपकने लगा. एक भूलाबिसरा चेहरा, खोयाखोया, उदास, गमगीन, छलछला कर याचना करती 2 बड़ीबड़ी कातर आंखें.

किस का है यह चेहरा? दूसरी बीवी का? नहीं, तो? मां का? बिलकुल नहीं. फिर किस का है, जेहन को खुरचने लगे, 63 साल बाद यह किस का चेहरा? चेहरा बारबार जेहन के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. किस की हैं ये सुलगती सवालिया आंखें? किस का है यह कंपकंपाता, याचना करता बदन, मगर डाक्टर पर उस का लैशमात्र भी असर नहीं हुआ था. लेकिन आज जब अपनी ही बेटी की सिसकियां कानों के परदे फाड़ने लगीं तब वह चेहरा याद आ गया.

दुनियाभर के धोखों से पाकसाफ, शबनम से ज्यादा साफ चेहरा, वे कश्मीर की वादियां, महकते फूलों की लटकती लडि़यों के नीचे बिछी खूबसूरत गुलाबी चादर, नर्म बिस्तर पर बैठी…खनकती चूडि़यां, लाल रेशमी जोड़े से सजा आरी के काम वाला लहंगाचोली, मेहंदी से सजे 2 गोरे हाथ, कलाई पर खनकती सोने की चूडि़यां, उंगलियों में फंसी अंगूठियां. हां, हां, कोई था जिस की मद्धम आवाज कानों में बम के धमाकों की तरह गूंज रही थी, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी खालिद, हमेशा.

लाहौर एयरपोर्ट पर अलविदा के लिए लहराता हाथ, दिल में फांस सी चुभी कसक इतनी ज्यादा कि मुंह से बेसाख्ता चीख निकल गई, ‘‘हां, गुनहगार हूं मैं तुम्हारा. तुम्हारे दिल से निकली आह… शायद इसीलिए मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद हो गई. मेरे चाचा के बहुत जोर डालने पर, न चाहते हुए भी मुझे उन की अंगरेज बेटी से शादी करनी पड़ी. दौलत का जलवा ही इतना दिलफरेब होता है कि अच्छेअच्छे समझदार भी धोखा खा जाते हैं.

‘‘शफीका, तुम से वादा किया था मैं ने. तुम्हें लाहौर ला कर अपने साथ रखने का. वादा था नए सिरे से खुशहाल जिंदगी में सिमट जाने का, तुम्हारी रातों को हीरेमोती से सजाने का, और दिन को खुशियों की चांदनी से नहलाने का. पर मैं निभा कहां पाया? आंखें डौलर की चमक में चौंधिया गईं. कटे बालों वाली मोम की गुडि़या अपने शोख और चंचल अंदाज से जिंदगी को रंगीन और मदहोश कर देने वाली महक से सराबोर करती चली गई मुझे.’’

अचानक एक साल बाद उन का दामाद इंगलैंड लौट आया, ‘‘अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा. आप की बेटी के साथ ही रहूंगा. वादा करता हूं.’’

दीवानगी की हद तक मुहब्बत करने वाली पत्नी को छोड़ कर दूसरी अंगरेज औरत के टैंपरेरी प्यार के आकर्षण में बंध कर जब वह पूरी तरह से कंगाल हो गया तो लौटने के लिए उसे चर्चों के सामने खड़े हो कर वायलिन बजा कर लोगों से पैसे मांगने पड़े थे.

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पति की अपनी गलती की स्वीकृति की बात सुन कर बेटी बिलबिला कर चीखी थी, ‘‘वादा, वादा तोड़ कर उस फिनलैंड वाली लड़की के साथ मुझ पत्नी को छोड़ कर गए ही क्यों थे? क्या कमी थी मुझ में? जिस्म, दौलत, ऐशोआराम, खुशियां, सबकुछ तो लुटाया था तुम पर मैं ने. और तुम? सिर्फ एक नए बदन की हवस में शादी के पाकीजा बंधन को तोड़ कर चोरों की तरह चुपचाप भाग गए. मेरे यकीन को तोड़ कर मुझे किरचियों में बिखेर दिया.

‘‘तुम को पहचानने में मुझ से और मेरे बिजनैसमैन कैलकुलेटिव पापा से भूल हो गई. मैं इंगलैंड में पलीपढ़ी हूं, लेकिन आज तक दिल से यहां के खुलेपन को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकी. मुझ से विश्वासघात कर के पछतावे का ढोंग करने वाले शख्स को अब मैं अपना नहीं सकती. आई कांट लिव विद यू, आई कांट.’’ यह कहती हुई तड़प कर रोई थी डाक्टर की बेटी.

आज उस की रुलाई ने डाक्टर को हिला कर रख दिया. आज से 50 साल पहले शफीका के खामोश गरम आंसू इसी पत्थरदिल डाक्टर को पिघला नहीं सके थे लेकिन आज बेटी के दर्द ने तोड़ कर रख दिया. उसी दम दोटूक फैसला, दामाद से तलाक लेने के लिए करोड़ों रुपयों का सौदा मंजूर था क्योंकि बेटी के आंसुओं को सहना बरदाश्त की हद से बाहर था.

डाक्टर, शफीका के कानूनी और मजहबी रूप से सहारा हो कर भी सहारा न बन सके, उस मजलूम और बेबस औरत के वजूद को नकार कर अपनी बेशुमार दौलत का एक प्रतिशत हिस्सा भी उस की झोली में न डाल सके. शफीका की रात और दिन की आह अर्श से टकराई और बरसों बाद कहर बन कर डाक्टर की बेटी पर टूटी. वह मासूम चेहरा डाक्टर को सिर्फ एक बार देख लेने, एक बार छू लेने की चाहत में जिंदगी की हर कड़वाहट को चुपचाप पीता रहा. उस पर रहम नहीं आया कभी डाक्टर को. लेकिन आज बेटी की बिखरतीटूटती जिंदगी ने डाक्टर को भीतर तक आहत कर दिया. अब समझ में आया, प्यार क्या है. जुदाई का दर्द कितना घातक होता है, पहाड़ तक दरक जाते हैं, समंदर सूख जाते हैं.

मैं यह खबर फूफीदादी तक जल्द से जल्द पहुंचाना चाहता था, शायद उन्हें तसल्ली मिलेगी. लेकिन नहीं, मैं उन के दिल से अच्छी तरह वाकिफ था. ‘मेरे दिल में डाक्टर के लिए नफरत नहीं है. मैं ने हर लमहा उन की भलाई और लंबी जिंदगी की कामना की है. उन की गलतियों के बावजूद मैं ने उन्हें माफ कर दिया है, बजी,’ अकसर वे मुझ से ऐसा कहती थीं.

मैं फूफीदादी को फोन करने की हिम्मत जुटा ही नहीं सका था कि आधीरात को फोन घनघना उठा था, ‘‘बजी, फूफीदादी नहीं रहीं.’’ क्या सोच रहा था, क्या हो गया. पूरी जिंदगी गीली लकड़ी की तरह सुलगती रहीं फूफीदादी.

सुबह का इंतजार मेरे लिए सात समंदर पार करने की तरह था. धुंध छंटते ही मैं डाक्टर के घर की तरफ कार से भागा. कम से कम उन्हें सचाई तो बतला दूं. कुछ राहत दे कर उन की स्नेहता हासिल कर लूं मगर सामने का नजारा देख कर आंखें फटी की फटी रह गईं. उन के दरवाजे पर एंबुलैंस खड़ी थी. और घबराई, परेशान बेटी ड्राइवर से जल्दी अस्पताल ले जाने का आग्रह कर रही थी. हार्टअटैक हुआ था उन्हें. हृदयविदारक दृश्य.

मैं स्तब्ध रह गया. स्टेयरिंग पर जमी मेरी हथेलियों के बीच फूफीदादी का लिखा खत बर्फबारी में भी पसीने से भीग गया, जिस पर लिखा था, ‘बजी, डाक्टर अगर कहीं मिल जाएं तो यह आखिरी अपील करना कि वे मुझ से मिलने कश्मीर कभी नहीं आए तो मुझे कोई शिकवा नहीं है लेकिन जिंदगी के रहते एक बार, बस एक बार, अपनी मां की कब्र पर फातेहा पढ़ जाएं और अपनी सरजमीं, कश्मीर की खूबसूरत वादियों में एक बार सांस तो ले लें. मेरी 63 साल की तपस्या और कुरबानियों को सिला मिल जाएगा. मुझे यकीन है तुम अपने वतन से आज भी उतनी ही मुहब्बत करते हो जितनी वतन छोड़ते वक्त करते थे.’

गुनाहों की सजा तो कानून देता है, लेकिन किसी का दिल तोड़ने की सजा देता है खुद का अपना दिल.

‘तू आए न आए,

लगी हैं निगाहें

सितारों ने देखी हैं

झुकझुक के राहें…’

इस गजल का एकएक शब्द खंजर बन कर मेरे सीने में उतरने लगा और मैं स्टेयरिंग पर सिर पटकपटक कर रो पड़ा.

सहारा – पार्ट 2

‘क्योें? उन से क्यों पूछें? यह हमारा व्यक्तिगत मामला है, इस बच्चे को हम ही तो पालेंगेपोसेंगे.’

‘फिर भी, यह बच्चा उन के ही परिवार का अंग होगा न, उन्हीं का वंशज कहलाएगा न?’

यह सुन कर अर्चना बुरा सा मुंह बना कर बोली, ‘वह सब मैं नहीं जानती. तुम्हारे मातापिता से तुम्हीं निबटो. यह अच्छी रही, हर बात में अपने मांबाप की आड़ लेते हो. क्या तुम अपनी मरजी से एक भी कदम उठा नहीं सकते?’

रजनीश के मांबाप ने अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेने के प्रस्ताव का जम कर विरोध किया इधर अर्चना भी अड़ गई कि वह दीपू को गोद ले कर ही रहेगी.

‘‘रजनीश…’’ मोहिनी ने आवाज दी, ‘‘खाना खाने नीचे, डाइनिंग रूम में चलोगे या यहीं पर कुछ मंगवा लें?’’

यह सुन कर रजनीश की तंद्रा टूटी. एक ही झटके में वह वर्तमान में लौट आया. बोला, ‘‘यहीं पर मंगवा लो.’’

खाना खाते वक्त रजनीश ने पूछा, ‘‘कल शाम को तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘सोच रही थी यहां की जौहरी की दुकानें देखूं. मेरी एक सहेली मुझे ले जाने वाली है.’’

‘‘ठीक है, मैं भी शायद व्यस्त रहूंगा.’’

रजनीश ने अर्चना को फोन किया, ‘‘अर्चना, हमारा कल का प्रोग्राम तय है न?’’

‘‘हां, अवश्य.’’

फोन का चोंगा रख कर अर्चना उत्तेजित सी टहलने लगी कि रजनीश अब क्यों उस से मिलने आ रहा है. उसे अब मुझ से क्या लेनादेना है?

तलाकनामे पर हुए हस्ताक्षर ने उन के बीच कड़ी को तोड़ दिया था. अब वे एकदूसरे के लिए अजनबी थे.

‘अर्चना, तू किसे छल रही है?’ उस के मन ने सवाल किया.

रजनीश से तलाक ले कर वह एक पल भी चैन से न रह पाई. पुरानी यादें मन को झकझोर देतीं. भूलेबिसरे दृश्य मन को टीस पहुंचाते. बहुत ही कठिनाई से उस ने अपनी बिखरी जिंदगी को समेटा था, अपने मन की किरिचों को सहेजा था.

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उस का मन अनायास ही अतीत की गलियों में विचरने लगा.

उसे वह दिन याद आया जब नन्हे दीपू को ले कर घर में घमासान शुरू हो गया था.

उस ने रजनीश से कहा था कि वह दफ्तर से जरा जल्दी आ जाए ताकि वे दोनों अनाथाश्रम जा कर बच्चों में मिठाई बांट सकें. आश्रम वालों ने बताया है कि आज दीपू का जन्मदिन है.

यह सुन कर रजनीश के माथे पर बल पड़ गए थे. वह बोला, ‘यह सब न ही करो तो अच्छा है. पराए बालक से हमें क्या लेना.’

‘अरे वाह…पराया क्यों? हम जल्दी ही दीपू को गोद लेने वाले जो हैं न?’

‘इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं.’

‘तुम जल्दीबाजी की कहते हो, मेरा वश चले तो उसे आज ही घर ले आऊं. पता नहीं इस बच्चे से मुझे इतना मोह क्यों हो गया है. जरूर हमारा पिछले जन्म का रिश्ता रहा होगा,’ कहती हुई अर्चना की आंखें भर आई थीं.

यह देख कर रजनीश द्रवित हो कर बोला था, ‘ठीक है, मैं शाम को जरा जल्दी लौटूंगा. फिर चले चलेंगे.’

रजनीश को दरवाजे तक विदा कर के अर्चना अंदर आई तो सास ने पूछा, ‘कहां जाने की बात हो रही थी, बहू?’

‘अनाथाश्रम.’

यह सुन कर तो सास की भृकुटियां तन गईं. वह बोली, ‘तुम्हें भी बैठेबैठे पता नहीं क्या खुराफात सूझती रहती है. कितनी बार समझाया कि पराई ज्योति से घर में उजाला नहीं होता, पर तुम हो कि मानती ही नहीं. अरे, गोद लिए बच्चे भी कभी अपने हुए हैं, खून के रिश्ते की बात ही और होती है,’ फिर वह भुनभुनाती हुई पति के पास जा कर बोली, ‘अजी सुनते हो?’

‘क्या है?’

‘आज बहूबेटा अनाथाश्रम जा रहे हैं.’

‘सो क्यों?’

‘अरे, उसी मुए बच्चे को गोद लेने की जुगत कर रहे हैं और क्या. मियांबीवी की मिलीभगत है. वैद्य, डाक्टरों को पैसा फूंक चुके, पीरफकीरों को माथा टेक चुके, जगहजगह मन्नत मान चुके, अब चले हैं अनाथाश्रम की खाक छानने.

‘न जाने किस की नाजायज संतान, जिस के कुलगोत्र का ठिकाना नहीं, जातिपांति का पता नहीं, ला कर हमारे सिर मढ़ने वाले हैं. मैं कहती हूं, यदि गोद लेना ही पड़ रहा है तो हमारे परिवार में बच्चों की कमी है क्या? हम से तो भई जानबूझ कर मक्खी निगली नहीं जाती. तुम जरा रजनीश से बात क्यों नहीं करते.’

‘ठीक है, मैं रजनीश से बात करूंगा.’

‘पता नहीं कब बात करोगे, जब पानी सिर से ऊपर हो जाएगा तब? जाने यह निगोड़ी बहू हम से किस जन्म का बदला ले रही है. पहले मेरे भोलेभाले बेटे पर डोरे डाले, अब बच्चा गोद लेने का तिकड़म कर रही है.’

रजनीश अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर निढाल पड़ गया. अर्चना उस के पास खिसक आई और उस के बालों में उंगलियां चलाती हुई बोली, ‘क्या बात है, बहुत थकेथके लग रहे हो.’

‘आज अम्मां व पिताजी के साथ जम कर बहस हुई. वे दीपू को गोद लेने के कतई पक्ष में नहीं हैं.’

‘तो फिर?’

‘तुम्हीं बताओ.’

‘मैं क्या बताऊं, एक जरा सी बात को इतना तूल दिया जा रहा है. क्या और निसंतान दंपती बच्चा गोद नहीं लेते? हम कौन सी अनहोनी बात करने जा रहे हैं.’

‘मैं उन से कह कर हार गया. वे टस से मस नहीं हुए. मैं तो चक्की के दो पाटों के बीच पिस रहा हूं. इधर तुम्हारी जिद उधर उन की…’

‘तो अब?’

‘उन्होंने एक और प्रस्ताव रखा है…’

‘वह क्या?’ अर्चना बीच में ही बोल पड़ी.

‘वे कहते हैं कि चूंकि तुम मां नहीं बन सकती हो. मैं तुम्हें तलाक दे कर दूसरी शादी कर लूं.’

‘क्या…’ अर्चना बुरी तरह चौंकी, ‘तुम मेरा त्याग करोगे?’

‘ओहो, पूरी बात तो सुन लो. दूसरी शादी महज एक बच्चे की खातिर की जाएगी. जैसे ही बच्चा हुआ, उसे तलाक दे कर मैं दोबारा तुम से ब्याह कर लूंगा.’

‘वाह…वाह,’ अर्चना ने तल्खी से कहा, ‘क्या कहने हैं तुम लोगों की सूझबूझ के. मेरे साथ तो नाइंसाफी कर ही रहे हो, उस दूसरी, निरपराध स्त्री को भी छलोगे. बिना प्यार के उस से शारीरिक संबंध स्थापित करोगे और अपना मतलब साध कर उसे चलता करोगे?’

‘और कोई चारा भी तो नहीं है.’

‘है क्यों नहीं. कह दो अपने मातापिता से कि यह सब संभव नहीं. तुम पुरुष हम स्त्रियों को अपने हाथ की कठपुतली नहीं बना सकते. क्या तुम से यह कहते नहीं बना कि मैं ने शादी से पहले गर्भ धारण किया था? यदि तुम ने अबार्शन न करा दिया होता तो…’ कहतेकहते अर्चना का गला भर आया था.

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एक जहां प्यार भरा: भाग 2

“पर यह कैसे हो सकता है?” उसे विश्वास नहीं हो रहा था.

“क्यों नहीं हो सकता?”

“आई मीन मुझे बहुत से लोग पसंद करते हैं, कई दोस्त हैं मेरे. लड़कियां भी हैं जो मुझ से बातें करती हैं. पर किसी ने आज तक मुझे आई लव यू तो नहीं कहा था. क्या तुम वाकई…? आर यू श्योर ?”

“यस इत्सिंग. आई लव यू.”

“ओके… थोड़ा समय दो मुझे रिद्धिमा.”

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“ठीक है, कल तक का समय ले लो. अब हम परसों बात करेंगे,” कह कर मैं औफलाइन हो गई.

मुझे यह तो अंदाजा था कि वह मेरे प्रस्ताव पर सहज नहीं रह पाएगा. पर जिस तरह उस ने बात की थी कि उस की बहुत सी लड़कियों से भी दोस्ती है. स्वाभाविक था कि मैं भी थोड़ी घबरा रही थी. मुझे डर लग रहा था कि कहीं वह इस प्रस्ताव को अस्वीकार न कर दे. सारी रात मैं सो न सकी. अजीबअजीब से खयाल आ रहे थे. आंखें बंद करती तो इत्सिंग का चेहरा सामने आ जाता. किसी तरह रात गुजरी. अब पूरा दिन गुजारना था क्योंकि मैं ने इत्सिंग से कहा था कि मैं परसों बात करूंगी. इसलिए मैं जानबूझ कर देर से जागी और नहाधो कर पढ़ने बैठी ही थी कि सुबहसुबह अपने व्हाट्सएप पर इत्सिंग का मैसेज देख कर मैं चौंक गई.

धड़कते दिल के साथ मैं ने मैसेज पढ़ा. लिखा था,”डियर रिद्धिमा, कल पूरी रात मैं तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा. तुम्हारा प्रस्ताव भी मेरे दिलोदिमाग में था. काफी सोचने के बाद मैं ने फैसला लिया है कि हम चीन में अपना घर बनाएंगे पर एक घर इंडिया में भी होगा. जहां गरमी की छुट्टियों में बच्चे नानानानी के साथ अपना वक्त बिताएंगे.”

“तो मिस्टर इन बातों का सीधासीधा मतलब भी बता दीजिए,” मैं ने शरारत से पूछा तो अगले ही पल इत्सिंग ने बोल्ड फौंट में आई लव यू टू डियर लिख कर भेजा. साथ में एक बड़ा सा दिल भी. मैं खुशी से झूम उठी. वह मेरी जिंदगी का सब से खूबसूरत पल था. अब तो मेरी जिंदगी का गुलशन प्यार की खुशबू से महक उठा था. हम व्हाट्सएप पर चैटिंग के साथ फोन पर भी बातें करने लगे थे.

कुछ महीने के बाद एक दिन मैं ने इत्सिंग से फिर से अपने दिल की बात की,”यार, जब हम प्यार करते ही हैं तो क्यों न शादी भी कर लें.”

“शादी?”

“हां शादी.”

“तुम्हें अजीब नहीं लग रहा?”

“पर क्यों? शादी करनी तो है ही न इत्सिंग या फिर तुम केवल टाइमपास कर रहे हो?” मैं ने उसे डराया था और वह सच में डर भी गया था.

वह हकलाता हुआ बोला,”ऐसा नहीं है रिद्धिमा. शादी तो करनी ही है पर क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह फैसला बहुत जल्दी का हो जाएगा? कम से कम शादी से पहले एक बार हमें मिल तो लेना ही चाहिए,”कह कर वह हंस पड़ा.

इत्सिंग का जवाब सुन कर मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाई.

अब हमें मिलने का दिन और जगह तय करना था. यह 2010 की बात थी. शंघाई वर्ल्ड ऐक्सपो होने वाला था. आयोजन से पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी में इंडियन पैविलियन की तरफ से वालंटियर्स के सिलैक्शन के लिए इंटरव्यू लिए जा रहे थे. मैं ने जरा सी भी देर नहीं की. इंटरव्यू दिया और सिलैक्ट भी हो गई.

इस तरह शंघाई के उस वर्ल्ड ऐक्सपो में हम पहली दफा एकदूसरे से मिले. वैसे तो हम ने एकदूसरे की कई तसवीरें देखी थीं पर आमनेसामने देखने की बात ही अलग होती है. एकदूसरे से मिलने के बाद हमारे दिल में जो एहसास उठे उसे बयां करना भी कठिन था. पर एक बात तो तय थी कि अब हम पहले से भी ज्यादा श्योर थे कि हमें शादी करनी ही है.

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ऐक्सपो खत्म होने पर मैं ने इत्सिंग से कहा,”एक बार मेरे घर चलो. मेरे मांबाप से मिलो और उन्हें इस शादी के लिए तैयार करो. उन के आगे साबित करो कि तुम मेरे लिए परफैक्ट रहोगे.”

इत्सिंग ने मेरे हाथों पर अपना हाथ रख दिया. हम एकदूसरे के आगोश में खो गए. 2 दिन बाद ही इत्सिंग मेरे साथ दिल्ली एअरपोर्ट पर था. मैं उसे रास्ते भर समझाती आई थी कि उसे क्या बोलना है और कैसे बोलना है, किस तरह मम्मीपापा को इंप्रैस करना है.

मैं ने उसे समझाया था,”हमारे यहां बड़ों को गले नहीं लगाते बल्कि आशीर्वाद लेते हैं. नमस्कार करते हैं.”

मैं ने उसे सब कुछ कर के दिखाया था. मगर एअरपोर्ट पर मम्मीपापा को देखते ही इत्सिंग सब भूल गया और हंसते हुए उन के गले लग गया. मम्मीपापा ने भी उसे बेटे की तरह सीने से लगा लिया था. मेरी फैमिली ने इत्सिंग को अपनाने में देर नहीं लगाई थी मगर उस के मम्मीपापा को जब यह बात पता चली और इत्सिंग ने मुझे उन से मिलवाया तो उन का रिएक्शन बहुत अलग था.

उस के पापा ने नाराज होते हुए कहा था,”लड़की की भाषा, रहनसहन, खानपान, वेशभूषा सब बिलकुल अलग होंगे. कैसे निभाएगी वह हमारे घर में? रिश्तेदारों के आगे हमारी कितनी बदनामी होगी.”

इत्सिंग ने उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा था,”डोंट वरी पापा, रिद्धिमा सब कुछ संभाल लेगी. रिद्धिमा खुद को बदलने के लिए तैयार है. वह चाइनीज कल्चर स्वीकार करेगी.”

“पर भाषा? वह इतनी जल्दी चाइनीज कैसे सीख लेगी?” पापा ने सवाल किया.

“पापा वह चाइनीज जानती है. उस ने चाइनीज लैंग्वेज में ही ग्रैजुएशन किया है. वह बहुत अच्छी चाइनीज बोलती है,” इत्सिंग ने अपनी बात रखी.

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यह जवाब सुन कर उस के पापा के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई. थोड़ी नानुकर के बाद उस के मांबाप ने भी मुझे अपना लिया. उस के पिता हमारी शादी के लिए तैयार तो हो गए मगर उन्होंने हमारे सामने एक शर्त रखते हुए कहा,” मैं चाहता हूं कि तुम दोनों की शादी चीनी रीतिरिवाज के साथ हो. इस में मैं किसी की नहीं सुनूंगा.”

“जी पिताजी,” हम दोनों ने एकसाथ हामी भरी.

बाद में जब मैं ने अपने मातापिता को यह बात बताई तो वे अड़ गए. वे मुझे अपने घर से विदा करना चाहते थे और वह भी पूरी तरह भारतीय रीतिरिवाजों के साथ. मैं ने यह बात इत्सिंग को बताई तो वह भी सोच में डूब गया. हम किसी को भी नाराज नहीं कर सकते थे. पर एकसाथ दोनों की इच्छा पूरी कैसे करें यह बात समझ नहीं आ रही थी.

तभी मेरे दिमाग में एक आईडिया आया,” सुनो इत्सिंग क्यों न हम बीच का रास्ता निकालें. ”

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हिमशैल: भाग 3

‘‘हम लोगों के जाने न जाने से वहां किसी को क्या फर्क पड़ रहा है? एक बार भी किसी को इस परिवार की याद आई?’’ आरती कह ही रही थी कि…उस के कानों में नेहा के ये शब्द पड़े, ‘‘चाचीजी मुझे तो आप की बहुत याद आ रही थी…आना तो मैं बहुत पहले ही चाहती थी पर…बस…सोचती ही रह गई…अब तो जल्द ही मैं यह घर छोड़ कर चली जाऊंगी. मुझ से कैसी शिकायत?’’ नेहा की आवाज सुन कर सब चौंक कर दरवाजे की तरफदेखने लगे.

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सितारों जड़ी गुलाबी साड़ी में सजी नेहा बेहद सुंदर लग रही थी. अचानक उसे यों अपनी छोटी बहन के साथ आया देख सब हतप्रभ रह गए थे.

‘‘पगली…तुझ से कैसी शिकायत. तुम तो हमारी बच्ची ही हो. पर तुम इस समय यहां…घर में तुम्हारी ससुराल वाले आते ही होंगे,’’ आरती ने प्यार से नेहा को अंदर ला कर सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘नहीं, चाचीजी, उन को बता कर आई हूं, सब आप लोगों का ही इंतजार कर रहे हैं. पापा अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकते तो मैं भी अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकती. जब तक आप लोग नहीं आएंगे, मैं भी गोदभराई पर नहीं बैठूंगी,’’ नेहा ने अपना निर्णय सुनाते हुए पास ही खड़े छोटे चचेरे भाईबहन को गले से लगा लिया, ‘‘और तुम भी तैयार हो जाओ. फेरों पर जीजाजी के जूते नहीं चुराओगी?’’

आकांक्षा व अंशुल आशा भरी नजरों से अजय व आरती को देखने लगे जो असमंजस में थे. तभी कमल उत्साहित हो कर बोल उठा, ‘‘ये हुई न बात. अब तो भैया आप को चलना ही होगा.’’

नेहा के प्यार व अपनत्व ने सब के दिलों को झकझोर दिया था. एकाएक नेहा कितनी समझदार व बड़ी लगने लगी थी. उस के आत्मविश्वास व प्यार भरे अधिकार ने एकबारगी सब को अभिभूत कर दिया था, कोई भी नफरत की दीवार अपनों के रिश्तों के प्यार से ज्यादा मजबूत नहीं होती, ढह ही जाती है. जरूरत केवल समय पर एक ईमानदार प्रयास करने की होती है. वर्षों तक हिमाच्छादित हिमखंड के अंदर बहते निर्मल जल के सोते जैसे अचानक राह मिलते ही बह निकलते हैं, यत्नपूर्वक अब तक रोके गए बहते आंसू ही उन के प्यार की अभिव्यक्ति बन गए थे.

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‘‘हां, तुम लोगों को आना ही होगा,’’ तभी दरवाजे से अंदर आते चाचाजी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘जाने- अनजाने तुम लोगों के साथ बहुत अन्याय हुआ है. मुझे इस का दुख है. खैर, अब दिल में कुछ न रखो. यह सबकुछ ठीक नहीं हो रहा है. याद रखो. बंद मुट्ठी ही सवा लाख की होती है.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, बहू,’’ चचिया सास पश्चात्ताप भरे स्वर में कह रही थीं, ‘‘नेहा ने मेरी आंखें खोल दी हैं. ईर्ष्या ने मुझे विवेकहीन बना दिया था…कहो तो मैं तुम दोनों के पैर भी…’’

सकपका कर आरती पीछे हट गई, ‘‘अरे, अरे, आप यह क्या कर रही हैं. आप तो हमारी बड़ी हैं.’’

‘‘हां, बड़ी तो हैं पर इन्हें बड़ों के फर्ज नहीं केवल अधिकार ही याद रहे,’’ पहली बार सब ने चाचाजी को गरजते सुना, ‘‘बड़प्पन बनाए रखने के लिए आचरण भी तो मर्यादित होना चाहिए.’’

चाचाजी के और अधिक उग्र क्रोध का लक्ष्य बनने से चाचीजी को बचाते हुए अजय बोला, ‘‘अब छोडि़ए भी, चाचाजी. पश्चात्ताप का एक आंसू ही सारे गिलेशिकवे दूर कर देता है. अपनी गलती का एहसास कर के क्षमाप्रार्थी होना ही सब से बड़ा बड़प्पन है. आप लोगों ने मेरे लिए इतना सोच लिया यही पर्याप्त है.’’

शाम का अंधेरा घिर आया था. कुरसी से जल्दी उठ कर उस ने स्विच आन किया तो कमरा दूधिया प्रकाश से नहा उठा. रात्रि के 9 बज रहे थे. बाहर शाम से चीख रहे लाउडस्पीकर शांत हो चुके थे. सपनों की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर आने में उसे कुछ ही पल लगे थे. तब तक टेलीविजन देख रहे बच्चों ने दरवाजा खोल दिया था. अजय अंदर आते हुए उसे उनींदा सा देख पूछ रहे थे, ‘‘क्या हुआ…सो रही थीं?’’

‘‘हां…शायद झपकी सी आ गई थी…पर अब जाग गई हूं. आइए, खाना लगाती हूं.’’

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रसोई की तरफ बढ़ती आरती सोच रही थी कि अवचेतन ने स्वप्न में उन की आशाओं को मूर्तरूप तो दे दिया था पर यथार्थ कितने कठोर होते हैं…बिलकुल हिमशैल की तरह जिस का केवल एकचौथाई भाग ही नजर आता है, शेष जलमग्न रहता है. जिंदगी स्लेट पर लिखी इबारत तो नहीं जिसे पसंद न आने पर मिटा कर पुन: लिख दें. यह तो अमिट शिलालेख है, जिसे चाहते न चाहते हुए भी हमें पढ़ना ही है.

अज्ञातवास: भाग 2

‘‘यह तो मुझे पता था, उस के बाद तुम लोग भोपाल आ गए, यह तो मैं ने सुना था. पर हम आपस में मिल नहीं पाए. मेरा भोपाल आना बहुत कम हो गया था.’’

‘‘भैया ने मुझसे कह दिया, मैं तुम्हें 10वीं के बाद आगे नहीं पढ़ा सकता क्योंकि मेरी अपनी भी 2 लड़कियां हैं. मुझे उन की भी शादी करनी है. तुम्हें ज्यादा पढ़ाऊंगा तो उस लायक लड़का भी देखना पड़ेगा? मैं तुम्हारी शादी कर देता हूं. लड़का देखने की प्रक्रिया शुरू हो गई. हमारी जाति में दहेज की मांग बहुत ज्यादा होती है, तुझे पता है. इस के अलावा कभी लड़का मुझे पसंद नहीं आता, कभी लड़के को मैं पसंद नहीं आती. न कुछ बैठना था, न बैठा. मैं 35 साल की हो गई.’’

‘‘इस बीच अर्चना, तुम ने कुछ नहीं किया, बैठी रहीं?’’

‘‘नहीं नीरा, मैं कैसे बैठी रहती. पहले सिलाई वगैरह सीखी. उस के बाद म्यूजिक सीखने लगी. बीए तो मैं ने म्यूजिक से कर लिया पर आगे कुछ करने के लिए मुझे ग्रेजुएट होना जरूरी था. भाभी से मैं ने कहा. उन्होंने कहा, प्राइवेट भर दो. इंटर किया, फिर बीए भी कर लिया. एमए करने के लिए यूनिवर्सिटी जौइन की. गाने के साथ एमए भी करने लगी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है अर्चना. तू ने तो अच्छा काम किया.’’

‘‘यहीं से तो मेरी बरबादी के दिन शुरू हो गए. मैं ने सबकुछ खो दिया.’’

‘‘क्या कह रही है अर्चना?’’

‘‘सही कह रही हूं. अभी तक तो सब सही चल रहा था, पता नहीं कैसे एक सज्जन मुझसे से टकरा गए और उन का व्यक्तित्व इतना आकर्षित था कि मैं उन की ओर आकर्षित हो गई.’’

‘‘अर्चना, यह तो कोई बुरी बात नहीं है.’’

‘‘सही कह रही हो नीरा. पहले मुझे भी ऐसा ही लगा था. इस में क्या बुराई है. वैसे भी तुम्हें पता है, मैं जातिधर्म, छुआछूत इन सब से बचपन से ही दूर रहती थी पर हमारा समाज तो ऐसा नहीं है. उस ने कहा, मंदिर में शादी कर लेते हैं. मैं ने अज्ञानता में उसे स्वीकार कर लिया और अपने को भी पूरी तरह से समर्पित कर दिया. उस ने भी कहा, मैं कुछ नहीं मानता हूं, मानवता ही सबकुछ है. पर मुझे  बरबाद करने के बाद वह कहता है, मांबाप से पूछना पड़ेगा. बोल, मैं ने कहा, पहले क्यों नहीं पूछा? लेकिन पूछूंगापूछूंगा कहता रहा. मेरे पेट में गर्भ ठहर गया. ‘अभी भैयाभाभी से मत कहना. पहले मैं अपने मांबाप से कह देता हूं, फिर तुम कहना.’ लेकिन अब तो मेरे लिए रुकने का सवाल ही नहीं. भैयाभाभी से कहना पड़ा.’’

‘‘फिर?’’

‘‘लड़का तो उन्हें भी पसंद था पर उस की बातें बड़ी अनोखी थीं. बारबार बेवकूफ बना रहा था. अब रुकने का तो सवाल ही नहीं था. भैया ने कहा, लड़के पर कार्यवाही करते हैं, जिस के लिए मैं राजी नहीं हुई. जिस को मैं ने एक बार चाहा उस के लिए ऐसी बात कैसे सोच सकती हूं?’’

‘‘अर्चना, यह क्या मूर्खता हुई? अबौर्शन करवा लेतीं.’’

‘‘भैयाभाभी ने भी इसी की सलाह दी थी. अर्चना, तू बता इन सब के चक्कर में मैं 38 साल की हो गई. अबौर्शन करवाना भी रिस्की था. इस के अलावा मुझे बच्चा चाहिए था. उस के जैसे आकर्षित व्यक्तित्व, सर्वगुण संपन्न और बुद्धिमान लड़का ही मुझे चाहिए था. जो मुझे सिर्फ एक बार मिला. सोचा, यही मेरी जिंदगी है. इस से लड़का या लड़की जो होगा, वैसा ही होगा, वही मुझे चाहिए था. कब मेरी शादी होती? कब बच्चा होता? इन सब बातों ने मुझे व्यथित कर दिया था. जो एक बार मुझे मिल गया, उसे मैं खोना नहीं चाहती थी. औरत अपने को तब तक संपूर्ण नहीं मानती जब तक वह मां नहीं बन जाती. तू कुछ भी कह नीरा, यह बात मेरे अंदर बहुत गहराई से बैठ गई थी. इस के लिए मैं कोई भी रिस्क उठाने को तैयार थी. सब तकलीफ बरदाश्त कर सकती थी. मैं तुझे बेवकूफ, मूर्ख, पागल या पिछड़ी हुई लग सकती हूं पर मैं बच्चा चाहती थी. मैं ने भैया से साफसाफ कह दिया. मुझे बच्चा चाहिए.’’

‘‘फिर?’’

‘‘भैया ने कहा, ‘यदि तू यही चाहती है तो समाज वाले तुझे स्वीकार नहीं करेंगे? यही नहीं, मुझे भी अपनी लड़कियों की शादी करनी है. फिर मेरी लड़कियों की शादी कैसे होगी? यदि तू बच्चा ही चाहती है तो इस के लिए तुझे बहुत सैक्रिफाइस करना पड़ेगा. क्या तू इस के लिए राजी है?’ मैं ने कहा, मैं इस के लिए तैयार हूं.’’

‘‘क्या भैया ने तुझे घर से निकल जाने को कहा?’’

‘‘नहीं, उन्होंने कहा जहां तुझे कोई नहीं जानता हो ऐसी जगह तुझे जाना पड़ेगा और किसी भी पहचान के लोगों से संबंध नहीं रखना होगा? क्या इस के लिए तू तैयार है? मैं बच्चे के लिए यह शर्त मानने को तैयार हो गई.’’

‘‘यार अर्चना, तू तो पागल हो गई थी.’’

‘‘अब नीरा, तू कुछ भी कह सकती है. पर मुझे जो समझ में आया, मैं ने वही किया. अब मैं कल तुम्हें बाकी बातें बताऊंगी क्योंकि मेरी एक सहेली आ गई है, उस को कुछ जरूरी काम है. बाय, बाय.’’

‘‘बाय, बाय अर्चना, कल 8 बजे इंतजार करूंगी?’’

‘‘बिलकुल, बिलकुल.’’

कह तो दिया मैं ने, पर दूसरे दिन रात के 8 बजे तक बड़े अजीबअजीब खयाल मेरे दिमाग में आए. क्या अच्छे घर की लड़की थी और आज एक अनाथाश्रम में रह रही है? वक्त कब, किस के साथ, कैसा खेल खेल जाए, कुछ पता नहीं चलता. मन उमड़घुमड़ कर अर्चना के आसपास ही घूम रहा था. सारा दिन मेरा मन किसी काम में नहीं लगा.

बारबार घड़ी की तरफ देखने लगती. अरे, यह क्या, अर्चना के फोन की घंटी है. मैं ने देखा, क्या 8 बज गए, नहीं अभी तो 7 ही बज रहे थे. मैं ने उठाते ही बोला, ‘‘व्हाट्स अ ग्रेट सरप्राइस, अभी तो 7 ही बजे हैं अर्चना.’’

‘‘तुझे काम है नीरा तो मैं बाद में करती हूं.’’

‘‘अरे नहीं रे, मैं तो तेरे फोन का इंतजार कर रही थी पर तुम ने कहा था 8 बजे, इसीलिए अभी तो 7 ही बज रहे हैं. मैं तो फ्री हूं तुम्हारी कथा सुनने के लिए. कल क्या बात हो गई थी? तुम क्यों चली गईं?’’

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मोह का जाल – भाग 3 : क्यों लड़खड़ाने लगा तनु के पैर

‘माफ कीजिएगा, आप तनुजा हैं न?’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने पूछा.

‘‘क्यों, आप को कुछ शक है क्या?’’ तेज निगाहों से देखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ कठोर व्यवहार व अन्याय किया है, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाया. कल तुम्हें देखने के बाद से ही मैं पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा हूं. मुझे माफ कर दो, तनु.’’

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा कहिए और बाहर आप मेरे नाम की तख्ती देख लीजिए,’’ निर्विकार मुद्रा में बोली थी मैं. ‘‘आप की पत्नी की तबीयत अब कैसी है? उन का खयाल रखिएगा और हो सके तो प्रत्येक 15 दिन बाद परीक्षण करवाते रहिएगा,’’ कह कर मैं ने घंटी बजा दी, ‘‘मरीजों को अंदर भेज दो,’’ चपरासी को निर्देश देती हुई बोली.

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं, तनु,’’ मनुज ने मेरी ओर आग्रहपूर्वक देखते हुए कहा.

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा,’’ मैं ने कुमारी शब्द पर थोड़ा जोर देते हुए तीव्र स्वर में कहा. और लड़खड़ाते कदमों से मनुज चले गए.

मैं देखती रह गई. क्या यह वही व्यक्ति है जिस ने मुझे मझधार में डूबने के लिए छोड़ दिया था. किंतु यह इस समय इतना निरीह क्यों? इतना दयनीय क्यों? क्या यह सिर्फ मेरे पद के कारण है या इस के जीवन में कोई अभाव है? मुझे स्वयं पर हंसी आने लगी थी. इसे क्या अभाव होगा, जिस की इतनी प्यारी पत्नी है, पद है, मानसम्मान है.

तब तक मरीजों ने आ कर मेरी विचार शृंखला को भंग कर दिया और मैं कार्य में व्यस्त हो गई.

अतीत ने मुझे कुरेदा जरूर था किंतु अनजाने सुख भी दे गया था, क्योंकि वह व्यक्ति जिस ने मुझे अपमानित किया था, मानसिक पीड़ा दी थी, वह मेरे सामने निरीह व दयनीय बन कर खड़ा था. इस से अधिक सुख क्या हो सकता था? मेरे जीवन में एक और परिवर्तन आ गया था, वह तसवीर जिसे शादी के दूसरे दिन दोनों ने बड़े प्रेम से खिंचवाया था उसे देखे बिना मुझे नींद नहीं आती थी. उस तसवीर में उस का निरीह चेहरा मेरे आत्मसम्मान को सुख पहुंचाता था. इसलिए, अब वह तसवीर मेरे बेडरूम में लग गई थी.

ऋचा हर 15 दिन पश्चात आती रही, किंतु उस के साथ वह चेहरा देखने को नहीं मिला. 2 माह पश्चात लड़का हुआ. उस ने आ कर आभार प्रदर्शन करते हुए कहा था, ‘‘तनुजाजी, मैं आप का गुनाहगार हूं. किंतु, आप ने बेटे के रूप में उपहार दे कर अनिर्वचनीय आनंद प्रदान किया है. शायद, आप नहीं जानती कि यह मेरी और ऋचा की तीसरी संतान है. अन्य 2 जन्म से पूर्व ही काल के गाल में समा गईं.’’

मनुज चला गया, किंतु हृदय में सुलगते दावानल को मेरे सामने प्रकट कर गया. शायद वह अपनी पूर्व 2 संतानों की असमय ही मौत का कारण तनु के साथ पूर्व में किए गए अपने गलत व्यवहार को ही समझ बैठा था, तभी इतना निरीह व कातर लगने लगा है.

कुछ दिन पश्चात ही मेरा वहां से स्थानांतरण हो गया. अतीत से संबंध कट गया. किंतु कभीकभी मेरा दिल अपने ही हाथों से मात खा जाता था. तब तड़प उठती थी, क्या मेरे जीवन में यही एकाकीपन लिखा है? मम्मीपापा का देहांत हो गया था. भाई अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त था.

कितने वर्ष यों ही बीत गए. अपने को बेसहारा पा कर मैं ने एक अनाथ बेसहारा लड़की को गोद ले लिया ताकि जीवन की शून्यता को भर सकूं. लड़की पढ़ने में तेज थी. डाक्टरी पढ़ कर अनाथ बेसहाराजनों की सेवा करना चाहती थी.

करीब 5 वर्ष पूर्व न्यूमोनिया बीमारी से पीडि़त हो कर अस्पताल में भरती हुई थी. उस की मासूम नीली आंखों में न जाने क्या था कि मन उसे अपनाने को मचल उठा था. अनाथाश्रम से उठा कर घर लाई तो सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था. पिछले वर्ष ही मैडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में उस का चयन हुआ और पढ़ाई के लिए उसे इलाहाबाद जाना पड़ा और मैं फिर एक बार अकेली हो गई थी.

जीवन मेरे साथ आंखमिचौली खेल रहा था. सुखदुख एक ही सिक्के के 2 पहलू हो चले थे. एक दिन अपने कमरे में बैठी अपने संस्मरण लिख रही थी कि नौकर ने आ कर बताया कि एक आदमी आप से मिलना चाहता है. मैं बाहर निकल कर आई तो वह बोला, ‘‘डाक्टर साहब, शर्मा साहब का लड़का बेहद बीमार है. आप शीघ्र चलिए.’’

अपना बैग उठाया तथा कार में उस अनजान आदमी को बैठा कर चल पड़ी. ऐसे अवसरों पर अनजान व्यक्ति के साथ जाते समय मन में बेहद उथलपुथल होती थी, किंतु यह सोच कर चल पड़ती कि हर आदमी बुरा नहीं होता, फिर किसी पर अविश्वास क्यों और किसलिए, इंसान को अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए. हमारा कर्तव्य हमारे साथ, उस का कर्तव्य उस के साथ. यही तो मेरी विचारधारा थी, जीवनदर्शन था.

कार के पहुंचते ही एक आदमी तेजी से उधर से बाहर आया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप को तकलीफ हुई होगी, लेकिन मजबूर था. प्रतीक्षित को 104 डिगरी बुखार है.’’

‘‘चलिए,’’ तब तक हम रोशनी में पहुंच चुके थे.

‘‘अरे तनु, तुम. ओह, माफ कीजिएगा तनुजाजी, मुझ से गलती हो गई,’’ मनुज एकदम हड़बड़ा कर बोले.

मैं भी एकदम चौंक उठी थी. इस जिंदगी में यह दोबारा अप्रत्याशित मिलन किसलिए? सोच ही नहीं पा रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘प्रतीक्षित कहां है?’’

अंदर गए तो देखा वह बुखार में तप रहा था. आंखें बंद थीं, किंतु मुंह से कुछ अस्फुट स्वर निकल रहे थे. नब्ज देखी तो टायफायड के लक्षण नजर आए. ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए दवा बैग से निकाल कर खिला दी. अन्य दवाइयां परचे पर लिख कर देते हुए बोली, ‘‘ये दवाएं बाजार से मंगवा लीजिए तथा ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखिए और हाथ, पैर व तलवे की भी मालिश कीजिए.’’

मनुज उस के हाथों को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगे तथा चिंतित व घबराए स्वर में बोले, ‘‘डाक्टर साहब, मेरा प्रतीक्षित बच जाएगा न? यही मेरा जीवन है. मेरे जीवन की एकमात्र पूंजी.’’

लगभग एक घंटे पश्चात बंद पलकों में हलचल हुई तथा होंठ बुदबुदा उठे, ‘‘प…पानी… पानी…’’

मनुज ने तत्काल उठ कर उस के मुंह में चम्मच से पानी डाला. दवा के असर के कारण वह पानी पी कर फिर सो गया.

‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए. आवश्यकता पड़ने पर बुला लीजिएगा,’’ घड़ी पर निगाह डालते हुए मैं ने कहा.

‘‘चलिए, मैं आप को छोड़ आता हूं,’’ मनुज ने मेरा बैग उठाते हुए कहा.

रातभर बेचैन रही. प्रतीक्षित के लिए न जाने क्यों अनजाने ही लगाव हो गया था. मैं जितना ही उस की भोली व मासूम सूरत से भागने का प्रयास करती वह उतनी ही और करीब आती जाती. ऋचा नजर नहीं आ रही थी, लेकिन पूछने का साहस भी नहीं कर पाई.

सांप सीढ़ी – भाग 1 : प्रशांत के साथ क्या हुआ था?

जब से फोन आया था, दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था. सब से पहले तो खबर सुन कर विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन ऐसी बात भी कोई मजाक में कहता है भला.

फिर कांपते हाथों से किसी तरह दिवाकर को फोन लगाया. सुन कर दिवाकर भी सन्न रह गए.

‘‘मैं अभी मौसी के यहां जाऊंगी,’’ मैं ने अवरुद्ध कंठ से कहा.

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं जाओगी. और फिर हर्ष का भी तो सवाल है. मैं अभी छुट्टी ले कर आता हूं, फिर हर्ष को दीदी के घर छोड़ते हुए चलेंगे.’’

दिवाकर की बात ठीक ही थी. हर्ष को ऐसी जगह ले जाना उचित नहीं था. मेरा मस्तिष्क भी असंतुलित हो रहा था. हाथपैर कांप रहे थे, मन में भयंकर उथलपुथल मची हुई थी. मैं स्वयं भी अकेले जाने की स्थिति में कतई नहीं थी.

पर इस बीतते जा रहे समय का क्या करूं. हर गुजरता पल मुझ पर पहाड़ बन कर टूट रहा था. दिवाकर को बैंक से यहां तक आने में आधा घंटा लग सकता था. फिर दीदी का घर दूसरे छोर पर, वहां से मौसी का घर 5-6 किलोमीटर की दूरी पर. उन के घर के पास ही अस्पताल है, जहां प्रशांत अपने जीवन की शायद आखिरी सांसें गिन रहा है. कम से कम फोन पर खबर देने वाले व्यक्ति ने तो यही कहा था कि प्रशांत ने जहर इतनी अधिक मात्रा में खा लिया है कि उस के बचने की कोई उम्मीद नहीं है.

जिस प्रशांत को मैं ने गोद में खिलाया था, जिस ने मुझे पहलेपहल छुटकी के संबोधन से पदोन्नत कर के दीदी का सम्मानजनक पद प्रदान किया था, उस प्रशांत के बारे में इस से अधिक दुखद मुझे क्या सुनने को मिलता.

उस समय मैं बहुत छोटी थी. शायद 6-7 साल की जब मौसी और मौसाजी हमारे पड़ोस में रहने आए. उन का ममतामय व्यक्तित्व देख कर या ठीकठीक याद नहीं कि क्या कारण था कि मुझे उन्हें देख कर मौसी संबोधन ही सूझा.

यह उम्र तो नामसझी की थी, पर मांपिताजी के संवादों से इतना पता तो चल ही गया था कि मौसी की शादी हुए 2-3 साल हो चुके थे, और निस्संतान होने का उन्हें गहरा दुख था. उस समय उन की समूची ममता की अधिकारिणी बनी मैं.

मां से डांट खा कर मैं उन्हीं के आंचल में जा छिपती. मां के नियम बहुत कठोर थे. शाम को समय से खेल कर घर लौट आना, फिर पहाड़े और कविताएं रटना, तत्पश्चात ही खाना नसीब होता था. उतनी सी उम्र में भी मुझे अपना स्कूलबैग जमाना, पानी की बोतल, अपने जूते पौलिश करना आदि सब काम स्वयं ही करने पड़ते थे. 2 भाइयों की एकलौती छोटी बहन होने से भी कोई रियायत नहीं मिलती थी.

उस समय मां की कठोरता से दुखी मेरा मन मौसी की ममता की छांव तले शांति पाता था.

मौसी जबतब उदास स्वर में मेरी मां से कहा करती थीं, ‘बस, यही आस है कि मेरी गोद भरे, बच्चा चाहे काला हो या कुरूप, पर उसे आंखों का तारा बना कर रखूंगी.’

मौसी की मुराद पूरी हुई. लेकिन बच्चा न तो काला था न कुरूप. मौसी की तरह उजला और मौसाजी की तरह तीखे नाकनक्श वाला. मांबाप के साथसाथ महल्ले वालों की भी आंख का तारा बन गया. मैं तो हर समय उसे गोद में लिए घूमती फिरती.

प्रशांत कुशाग्रबुद्धि निकला. मैं ने उसे अपनी कितनी ही कविताएं कंठस्थ करवा दी थीं. तोतली बोली में गिनती, पहाड़े, कविताएं बोलते प्रशांत को देख कर मौसी निहाल हो जातीं. मां भी ममता का प्रतिरूप, तो बेटा भी उन के स्नेह का प्रतिदान अपने गुणों से देता जा रहा था. हर साल प्रथम श्रेणी में ही पास होता. चित्रकला में भी अच्छा था. आवाज भी ऐसी कि कोई भी महफिल उस के गाने के बिना पूरी नहीं होती थी. मैं उस से अकसर कहती, ‘ऐसी सुरीली आवाज ले कर किसी प्रतियोगिता के मैदान में क्यों नहीं उतरते भैया?’ मैं उसे लाड़ से कभीकभी भैया कहा करती थी. मेरी बात पर वह एक क्षण के लिए मौन हो जाता, फिर कहता, ‘क्या पता, उस में मैं प्रथम न आऊं.’

‘तो क्या हुआ, प्रथम आना जरूरी थोड़े ही है,’ मैं जिरह करती, लेकिन वह चुप्पी साध लेता.

सत्यकथा: मददगार बने यमदूत

रात 9 बजे संध्या की अपने पति रंजीत खरे से मोबाइल पर बात हुई. संध्या ने पति से पूछा, ‘‘पार्टी से कितने बजे तक घर आ जाओगे?’’

‘‘अभी पार्टी शुरू होने वाली है, थोड़ा टाइम लगेगा. जैसे ही मैं यहां से निकलूंगा, फोन कर के बता दूंगा,’’ रंजीत ने बताया.

आगरा के सिकंदरा हाईवे स्थित सनी टोयोटा कार शोरूम में बौडी शौप मैनेजर रंजीत खरे 18 अक्तूबर, 2021 की रात को दोस्तों के साथ पार्टी मनाने सिंकदरा में एक दोस्त के यहां गए थे. उन्होंने घर वालों से फोन पर रात में घर आने की बात कही थी.

आगरा के मोती कटरा निवासी 45 वर्षीय रंजीत खरे के कार शोरूम के एक कर्मचारी दुर्गेश को दूसरी कंपनी में नौकरी मिल गई थी. उस ने ही कारगिल पैट्रोल पंप के पास स्थित एक रेस्टोरेंट में विदाई पार्टी रखी थी. रंजीत उसी में शामिल होने के लिए गए थे.

देर रात तक जब रंजीत मोती कटरा स्थित अपने घर नहीं पहुंचे तो पत्नी व अन्य भाइयों को चिंता हुई. इस पर छोटे भाई अमित ने रात पौने 12 बजे रंजीत को फोन लगाया. बातचीत में रंजीत ने बताया कि 20 मिनट में घर पहुंच जाएगा.

घर वाले रंजीत का इंतजार करते रहे. जब साढ़े 12 बजे तक रंजीत घर नहीं आए तो चिंता बढ़ गई. अमित ने फिर फोन लगाया, लेकिन फोन स्विच्ड औफ मिला. मोबाइल बंद होने पर घर वाले परेशान हो गए.

उस ने रंजीत के मित्र दुर्गेश को जब फोन मिलाया तो उस ने बताया, ‘‘रंजीत खाना खा कर लगभग 2 घंटे पहले ही अपनी कार से चले गए थे.’’

लेकिन वह घर नहीं पहुंचे थे. आखिर रंजीत बिना बताए कहां चले गए? घर वाले सारी रात बेचैनी से रंजीत का इंतजार करते रहे. बारबार वह रंजीत को फोन मिला रहे थे, लेकिन उन का फोन बंद मिल रहा था.

इस से घर वालों की चिंता बढ़ रही थी. अगली सुबह रंजीत को तलाशने के लिए घर वाले निकल पड़े. शोरूम के साथ ही सभी दोस्तों, यहां तक कि रिश्तेदार व अन्य परिचितों के यहां उन्हें तलाशा. लेकिन रंजीत कहीं नहीं मिले.

परिवार के लोग 19 अक्तूबर, 2021 मंगलवार को रंजीत के लापता होने की सूचना थाने में दर्ज कराने की तैयारी कर रहे थे. इसी दौरान दोपहर 12 बजे उन्हें मुरैना (मध्यप्रदेश) के सराय छौला थाने से सूचना दी गई कि रंजीत खरे का शव चंबल नदी के पास हाईवे किनारे पड़ा मिला है.

मृतक रंजीत आगरा में ही सनी टोयोटा कार के शोरूम में पदस्थ थे. 4 भाइयों में वे सब से बड़े थे. आगरा में ही पैतृक मकान में अपने तीनों छोटे भाइयों विक्रांत खरे, सुरजीत खरे व सब से छोटे भाई अमित खरे के साथ रहते थे. भाइयों ने इस संबंध में पुलिस से जानकारी ली.

पुलिस के अनुसार शव की पहचान शर्ट पर लगे टोयोटा के बैज (लोगो) से हुई थी. मृतक रंजीत की कार, मोबाइल, सोने की अंगूठी, पर्स, एटीएम कार्ड आदि लाश के पास नहीं मिले थे. सूचना मिलते ही मृतक रंजीत खरे के तीनों भाई अमित, विक्रांत और सुरजीत मुरैना पहुंच गए.

मृतक के गले, चेहरे व सिर पर धारदार हथियारों के निशान दिखाई दे रहे थे. घटनाक्रम से लग रहा था कि हत्यारों ने रंजीत का घर आते समय रास्ते से किसी तरह कार सहित अपहरण कर लिया. उन की कार के साथ सभी सामान भी लूट लिया और उन की हत्या कर शव को मुरैना फेंक कर फरार हो गए.

मृतक के भाइयों के अनुसार रंजीत की हत्या सिकदंरा में ही की गई थी. हत्या के बाद हत्यारे उन के शव को मुरैना फेंक आए थे. क्योंकि रात को जब रंजीत से उन की बात हुई थी, तब उन्होंने कहा था कि वह 20 मिनट में घर पहुंच जाएंगे. इस के बाद उन का फोन बंद हो गया था.

चंबल नदी के पास मिला था शव

थानाप्रभारी सराय छौला जितेंद्र नागाइच के अनुसार अल्लाबेली चौकी के पास मंदिर से 15-20 कदम दूर चंबल नदी के पास हाईवे पर रंजीत का शव मिला था. शव की शिनाख्त मृतक की शर्ट पर टोयोटा के लोगो से हुई. लोगो देख कर पुलिस ने कार कंपनी से संपर्क किया, तब पता चला कि मृतक आगरा निवासी रंजीत खरे हैं. थानाप्रभारी के अनुसार इस संबंध में जांच की जा रही है.

मुरैना पुलिस ने मृतक के शव का पोस्टमार्टम कराने के बाद शव परिजनों के सुपुर्द कर दिया था, लेकिन मुकदमा दर्ज नहीं किया. परिजनों ने जब आगरा में थाना सिकंदरा में मुकदमा दर्ज कराना चाहा, तो घटनास्थल मुरैना का होने के कारण वहां की पुलिस भी मुकदमा लिखने को तैयार नहीं हुई.

इसी बीच 20 अक्तूबर बुधवार की दोपहर को रकाबगंज पुलिस चौकी क्षेत्र में आगरा फोर्ट स्टेशन के बाहर लावारिस हालत में एक कार पुलिस को खड़ी मिली. कार टैक्सी स्टैंड की पार्किंग के पास खड़ी थी. उस पर नंबर प्लेट नहीं थी. कार कौन और कब ले कर आया, पता नहीं चला.

कार का पिछला हिस्सा क्षतिग्रस्त भी था. तलाशी में नंबर प्लेट कार के अंदर ही मिल गई. नंबर प्लेट से कार मालिक की जानकारी हुई. तब देर रात परिजनों को चौकी इंचार्ज संतोष गौतम ने कार के बारे में जानकारी दी.

मुकदमा लिखाने को भटकते रहे घर वाले

मुकदमा लिखाने के लिए परिजन फुटबाल बन गए. रंजीत के परिजनों का रोरो कर हाल बेहाल हो रहा था.

जब मुरैना पुलिस और थाना सिकंदरा पुलिस भी मुकदमा लिखने को तैयार नहीं हुई तो मृतक के भाई विक्रांत खरे 22 अक्तूबर शुक्रवार को एडीजी (जोन) राजीव कृष्ण से मिले और कहा कि यदि मुकदमा नहीं लिखा जाएगा तो हत्यारे कैसे पकड़े जाएंगे.

जब राजीव कृष्ण के संज्ञान में यह मामला आया, तब उन्होंने थाना सिकंदरा पुलिस को हत्या का मुकदमा दर्ज करने के आदेश दिए. शाम को अज्ञात के खिलाफ हत्या और साक्ष्य मिटाने की धारा में मुकदमा थाना सिकंदरा में दर्ज कर लिया गया.

मुकदमा दर्ज होने के बाद सिकंदरा पुलिस ने तेजी से जांच शुरू कर दी. इस संबंध में घर वालों से पूछताछ की गई. उन्होंने बताया कि सिकदंरा क्षेत्र में रंजीत का मित्र दुर्गेश रहता है. उस ने पार्टी दी थी शाम को साढ़े 5 बजे रंजीत उसी पार्टी में शामिल होने शोरूम से सीधे चले गए थे.

पत्नी संध्या ने पुलिस को बताया, ‘‘पति सोमवार की सुबह 9 बजे शोरूम गए थे. रात में करीब 9 बजे फोन पर बात हुई. इस के बाद भाई अमित से रात लगभग पौने 12 बजे बात हुई. उन्होंने अमित से 20 मिनट में घर आने की बात कही. लेकिन नहीं आए. इस के बाद मोबाइल भी बंद हो गया.’’

जांच में पुलिस को पता चला कि रंजीत शाम साढ़े 5 बजे शोरूम से पार्टी के लिए निकले थे. वह रात पौने 12 बजे तक जीवित थे. इस के बाद ही उन का अपहरण कर हत्या कर दी गई. लाश को कार से ले जा कर मुरैना में फेंका गया. इस के बाद हत्यारों ने कार आगरा ला कर लावारिस छोड़ दी.

जांच में कार के अंदर खून के निशान भी मिले थे. पुलिस इस बात की भी जांच कर रही थी कि क्या रंजीत की हत्या कार में करने के बाद उन की लाश को किसी अन्य वाहन से मुरैना ले जाया गया था अथवा उन्हीं की कार से शव को ले जा कर वहां फेंका गया था?

पुलिस ने दुर्गेश से भी इस संबंध में पूछताछ की. दुर्गेश ने पुलिस को बताया, ‘‘रंजीत लगभग साढ़े 9 बजे रात में पार्टी से चले गए थे.’’

पार्टी रेस्टोरेंट की जगह दुर्गेश के फ्लैट पर ही आयोजित की गई थी. पुलिस द्वारा अब तक की गई छानबीन में रंजीत द्वारा 4 दोस्तों के साथ पार्टी करने की जानकारी सामने आई थी. पुलिस उन चारों की काल डिटेल्स और लोकेशन की जांच में जुट गई. पुलिस ने क्षेत्र के सीसीटीवी कैमरे भी चैक किए.

काफी हाथपैर मारने के बाद भी पुलिस को कोई सुराग नहीं मिल रहा था. पुलिस कयास लगा रही थी कि रंजीत के हत्यारे आगरा के ही निवासी हैं. वे हत्या व लूट की घटना को अंजाम देने के बाद शव को ठिकाने लगा कर वापस आगरा आ गए होंगे. कार से उन्हें अपने पकड़े जाने का खतरा होगा, इसलिए उसे लावारिस हालत में छोड़ गए.

जांच में सीसीटीवी कैमरे की फुटेज में सामने आया कि घटना वाली रात 1 बज कर 13 मिनट पर रंजीत की कार ने सैंया टोल पार किया था.

इस से इतना तो साफ हो गया कि रंजीत की कार में ही हत्या की गई थी. क्योंकि कार में खून के निशान मिले थे. पहले उसी कार से शव को मुरैना ले जा कर ठिकाने लगाया गया. उस के बाद वापस लौट कर कार को लावारिस छोड़ दिया गया. मतलब साफ था कि हत्यारे आगरा के ही हैं.

पुलिस मृतक के मोबाइल नंबर की काल डिटेल्स खंगालने में जुट गई, जिस से यह पता चल सके कि हत्या वाले दिन रंजीत की किनकिन लोगों से बात हुई थी. वहीं दोस्तों के बारे में भी जानकारी जुटाने में पुलिस लग गई.

एसएसपी सुधीर कुमार सिंह ने सिकंदरा थाने के इंसपेक्टर विनोद कुमार के नेतृत्व में गठित टीम को कुछ दिशानिर्देश दे कर इस मामले में लगाया. पहले दिन यह नहीं पता था कि हत्या क्यों हुई है, किस ने की है? कार मिल गई है. इस कारण यह लगने लगा है कि मामला कार लूट के लिए हत्या का नहीं है. पुलिस को सर्विलांस से भी कुछ सुराग मिले.

एसएमएस से खुला राज

रंजीत खरे के मोबाइल की काल डिटेल्स की जांच के दौरान पुलिस के हाथ एक महत्त्वपूर्ण सुराग लगा. हुआ यह कि जांच के दौरान रंजीत खरे के मोबाइल पर एक एसएमएस आया था कि जिस नंबर पर उन्होंने मिस काल दी थी, वह नंबर चालू हो गया था.

हुआ यह था कि जिस नंबर को रंजीत ने मिलाया था, उस समय वह स्विच्ड औफ था. जब वह मोबाइल चालू किया गया तो रंजीत के मोबाइल पर उस नंबर से एसएमएस आ गया.

जांच में पुलिस ने इस नंबर की काल डिटेल्स निकाली. जिस रास्ते से रंजीत की कार को ले जाया गया था, उसी रास्ते पर उस की लोकेशन मिली.

इस केस से जुड़े रहस्य की तब परतें खुलनी शुरू हो गईं. यह मोबाइल नंबर आगरा में हौस्पिटल रोड पर स्थित शिवपुरी कालोनी निवासी अर्जुन शर्मा का था. पुलिस ने उस की फोटो से उसे पहचान लिया.

अर्जुन का नाम सामने आते ही पुलिस के कान खड़े हो गए. थाना में उस का पुराना आपराधिक रिकौर्ड था. पुलिस उस के घर पहुंची, वह फरार था. उस का मोबाइल भी बंद था. अर्जुन शर्मा 2 बार पहले भी हत्या के आरोप में जेल जा चुका है. हत्या की दोनों वारदातों के समय वह नाबालिग था. लेकिन वह इस समय 20 साल का हो चुका था.

पुलिस सरगर्मी से उस की तलाश में जुट गई. घटना के 5 दिन बाद यानी 23 अक्तूबर को जैसे ही अर्जुन अपने घर पहुंचा, मुखबिर ने पुलिस को जानकारी दे दी. पुलिस ने उसे व उस के साथी रोशन विहार, सिकंदरा निवासी अमन शर्मा को भी गिरफ्तार कर लिया.

थाने ला कर उन से पूछताछ की गई तो दोनों ने रंजीत खरे की हत्या करने का जुर्म कुबूल कर लिया. उन की निशानदेही पर पुलिस ने एक .315 बोर का तमंचा व कारतूस के साथ ही रंजीत की हत्या के बाद उन का लूटा हुआ कुछ सामान भी बरामद कर लिया.

अभियुक्तों की गिरफ्तारी पर एसएसपी सुधीर कुमार सिंह ने प्रैस कौन्फ्रैंस आयोजित कर हत्यारोपियों की गिरफ्तारी की जानकारी देते हुए रंजीत खरे हत्याकांड का परदाफाश कर दिया. हत्याकांड के पीछे रंजीत खरे की कार, नकदी, आभूषण आदि लूटना था.

मददगारों को पार्टी देना पड़ा भारी

पकड़े गए आरोपियों में अर्जुन शर्मा शातिर बदमाश था. अर्जुन ने 2017 में हत्या की थी इस के बाद वर्ष 2019 में भी हत्याकांड को अंजाम दिया. वह जेल से जमानत पर आया था. अब उस ने तीसरी हत्या को अंजाम दिया है. अर्जुन और अमन दोस्त हैं. दोनों ने एक साथ इंटरमीडिएट तक पढ़ाई की थी.

हत्याभियुक्त अमन का किरावली में बाइक का शोरूम है. अभियुक्तों से पूछताछ के बाद इस सनसनीखेज हत्याकांड व लूट की कहानी जो सामने आई, वह इस तरह थी—

रंजीत की कार घटना से एक दिन पहले ककरैठा के पास नाले में फंस गई थी. कार के अगले 2 पहिए नाले में फंस जाने से कार बाहर नहीं निकल पा रही थी. रंजीत ने कार को नाले से निकलवाने में रास्ते से बाइक पर जा रहे 2 युवकों से मदद मांगी थी.

युवकों ने नाले से रंजीत की कार को बाहर निकलवाने में मदद कर दी. मदद करने के कारण दोस्ती जैसा माहौल हो गया.

उस समय रंजीत नशे में थे. उन्होंने अपना नाम रंजीत खरे बताया और जानकारी दी कि वह कार शोरूम का मैनेजर है. रंजीत जिंदादिल इंसान थे. उन्होंने दोनों युवकों को इसी बातचीत के दौरान शराब की पार्टी का औफर दिया. इस पर उन में से एक युवक का रंजीत ने मोबाइल नंबर ले लिया.

कार निकलवाने में मदद के दौरान अर्जुन और अमन को लगा कि इस के पास बहुत पैसे होंगे. जो मामूली मदद पर शराब की पार्टी देने को तैयार हो गया. रहनसहन देख कर दोनों की नीयत में खोट आ गई.

दूसरे दिन यानी 18 अक्तूबर, 2021 को पार्टी की बात तय हुई. रंजीत ने सोचा कि वह दोस्त दुर्गेश की पार्टी में जाने की कह कर आया है, इसी बहाने दोनों नए दोस्तों को भी पार्टी दे दी जाए.

शराब में मिला दी थीं नींद की गोलियां

रंजीत अपने दोस्त दुर्गेश की पार्टी में शामिल होने के बाद रात साढ़े 9 बजे घर जाने की बात कह कर वहां से निकल गए. इस के बाद तय स्थान पर दोनों मददगार अनजान दोस्त अर्जुन और अमन मिल गए.

रंजीत ने दोनों को अपनी कार में बैठा लिया. दोनों युवक कार को हाईवे पर ले गए. कार को रास्ते में रुकवा कर कार में ही पार्टी शुरू हो गई.

दोनों दोस्तों ने शराब में नींद की गोलियां मिला कर रंजीत को शराब पिला दी. कुछ ही देर में रंजीत पर बेहोशी छाने लगी. दोनों ने इसी दौरान रंजीत को दबोच लिया और उन के सिर, गरदन व चेहरे पर कार के व्हील पाना से प्रहार कर हत्या कर दी.

रंजीत के पर्स में रखे 4 हजार रुपए, अंगूठी, चैकबुक, एटीएम, मोबाइल आदि लूट लिए. शव को कार की डिक्की में डाल कर ठिकाने लगाने के लिए मुरैना की ओर जा रहे थे. सैंया टोल क्रास कर गए. हड़बड़ी में यह ध्यान नहीं रहा कि कार में लगे फास्टटैग से कार की एंट्री हो गई थी.

दोनों घबरा गए कि अब पकड़े जाएंगे. इसलिए लाश को ठिकाने लगाने के बाद पुलिस की नजरों से बचने के लिए कार की नंबर प्लेट निकाल कर कार में डाल दी और फास्टटैग को हटा दिया ताकि पहचान न हो सके.

टोल पर गाड़ी का गलत नंबर बता कर नकद भुगतान कर परची कटाई. कार को लूटने पर पकड़े जाने का खतरा था, इसलिए कार फोर्ट स्टेशन पर खड़ी कर दी. कार की चाबी भावना एस्टेट के पास फेंक दी.

पुलिस ने दोनों हत्यारोपियों अर्जुन शर्मा व अमन शर्मा को न्यायालय में पेश किया, जहां से उन्हें जिला जेल दिया गया.

अनजान व्यक्तियों से मदद लेना रंजीत के लिए जानलेवा साबित हुआ. मददगारों ने दोस्त बन कर रंजीत के ठाठ देख कर बड़ा आदमी समझा और लालच में हत्या व लूट की घटना को अंजाम दे कर एक हंसतेखेलते परिवार को उजाड़ दिया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

बरसों की साध: भाग 2

‘‘तो फिर आप मेरी मम्मी को समझा दीजिएगा.’’ आंसू पोंछते हुए सुधा ने कहा.

‘‘ऐसी बात है तो अब हम चलेंगे. जब कभी हमारी जरूरत पड़े, आप हमें याद कर लीजिएगा. हम हाजिर हो जाएंगे.’’ कह कर प्रशांत उठने लगे तो सुधा की सास ने कहा, ‘‘हम आप को भूले ही कब थे, जो याद करेंगे. कितने दिनों बाद तो आप मिले हैं. अब ऐसे ही कैसे चले जाएंगे. मैं तो कब से आप की राह देख रही थी कि आप मिले तो सामने बैठा कर खिलाऊं. लेकिन मौका ही नहीं मिला. आज मौका मिला है. तो उसे कैसे हाथ से जाने दूंगी.’’

‘‘आप कह क्या रही हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है?’’ हैरानी से प्रशांत ने कहा.

‘‘भई, आप साहब बन गए, आंखों पर चश्मा लग गया. लेकिन चश्मे के पार चेहरा नहीं पढ़ पाए. जरा गौर से मेरी ओर देखो, कुछ पहचान में आ रहा है?’’

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प्रशांत के असमंजस को परख कर सुधा की सास ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप तो ज्ञानू बनना चाहते थे. मुझ से अपने बडे़ होने तक राह देखने को भी कहा था. लेकिन ऐसा भुलाया कि कभी याद ही नहीं आई.’’

अचानक प्रशांत की आंखों के सामने 35-36 साल पहले की रूपमती भाभी का चेहरा नाचने लगा. उस के मुंह से एकदम से निकला, ‘‘भाभी आप…?’’

‘‘आखिर पहचान ही लिया अपनी भाभी को.’’

गहरे विस्मय से प्रशांत अपनी रूपमती भाभी को ताकता रहा. सुधा का रक्षाकवच बनने की उन की हिम्मत अब प्रशांत की समझ में आ गई थी. उन का मन उस नारी का चरणरज लेने को हुआ. उन की आंखें भर आईं.

रूपमती यानी सुधा की सास ने कहा, ‘‘देवरजी, तुम कितने दिनों बाद मिले. तुम्हारा नाम तो सुनती रही, पर वह तुम्हीं हो, यह विश्वास नहीं कर पाई आज आंखों से देखा, तो विश्वास हुआ. प्यासी, आतुर नजरों से तुम्हारी राह देखती रही. तुम्हारे छोड़ कर जाने के बरसों बाद यह घर मिला. जीवन में शायद पति का सुख नहीं लिखा था. इसलिए 2 बेटे पैदा होने के बाद आठवें साल वह हमें छोड़ कर चले गए.

‘‘बेटों को पालपोस कर बड़ा किया. शादीब्याह किया. इस घर को घर बनाया, लेकिन छोटा बेटा कुपुत्र निकला. शायद उसे पालते समय संस्कार देने में कमी रह गई. भगवान से यही विनती है कि मेरे ऊपर जो बीती, वह किसी और पर न बीते. इसीलिए सुधा को ले कर परेशान हूं.’’

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प्रशांत अपलक उम्र के ढलान पर पहुंच चुकी रूपमती को ताकता रहा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. रूपमती भाभी के अतीत की पूरी कहानी उस की आंखों के सामने नाचने लगी.

बचपन में प्रशांत की बड़ी लालसा थी कि उस की भी एक भाभी होती तो कितना अच्छा होता. लेकिन उस का ऐसा दुर्भाग्य था कि उस का अपना कोई सगा बड़ा भाई नहीं था. गांव और परिवार में तमाम भाभियां थीं, लेकिन वे सिर्फ कहने भर को थीं.

संयोग से दिल्ली में रहने वाले प्रशांत के ताऊ यानी बड़े पिताजी के बेटे ईश्वर प्रसाद की पत्नी को विदा कराने का संदेश आया. ताऊजी ही नहीं, ताईजी की भी मौत हो चुकी थी. इसलिए अब वह जिम्मेदारी प्रशांत के पिताजी की थी. मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घर वालों से रिश्ता लगभग तोड़ सा लिया था. फिर भी प्रशांत के पिता को अपना फर्ज तो अदा करना ही था.

ईश्वर प्रसाद प्रशांत के ताऊ का एकलौता बेटा था. उस की शादी ताऊजी ने गांव में तब कर दी थी. जब वह दसवीं में पढ़ता था. तब गांव में बच्चों की शादी लगभग इसी उम्र में हो जाती थी. उस की शादी उस के पिता ने अपने ननिहाली गांव में तभी तय कर दी थी, जब वह गर्भ में था.

देवनाथ के ताऊजी को अपनी नानी से बड़ा लगाव था, इसीलिए मौका मिलते ही वह नानी के यहां भाग जाते थे. ऐसे में ही उन की दोस्ती वहां ईश्वर के ससुर से हो गई थी.

अपनी इसी दोस्ती को बनाए रखने के लिए उन्होंने ईश्वर के ससुर से कहा था कि अगर उन्हें बेटा होता है तो वह उस की शादी उन के यहां पैदा होने वाली बेटी से कर लेंगे.

उन्होंने जब यह बात कही थी, उस समय दोनों लोगों की पत्नियां गर्भवती थीं. संयोग से ताऊजी के यहां ईश्वर पैदा हुआ तो दोस्त के यहां बेटी, जिस का नाम उन्होंने रूपमती रखा था.

प्रशांत के ताऊ ने वचन दे रखा था, इसलिए ईश्वर के लाख मना करने पर उन्होंने उस का विवाह रूपमती से उस समय कर दिया, जब वह 10वीं में पढ़ रहा था. उस समय ईश्वर की उम्र कम थी और उस की पत्नी भी छोटी थी. इसलिए विदाई नहीं हुई थी. ईश्वर की शादी हुए सप्ताह भी नहीं बीता था कि उस के ससुर चल बसे थे. इस के बाद जब भी विदाई की बात चलती, ईश्वर पढ़ाई की बात कर के मना कर देता. वह पढ़ने में काफी तेज था. उस का संघ लोक सेवा आयोग द्वारा प्रशासनिक नौकरी में चयन हो गया और वह डिप्टी कलेक्टर बन गया. ईश्वर ट्रेनिंग कर रहा था तभी उस के पिता का देहांत हो गया था.

संयोग देखो, उन्हें मरे महीना भी नहीं बीता था कि ईश्वर की मां भी चल बसीं. मांबाप के गुजर जाने के बाद एक बहन बची थी, उस की शादी हो चुकी थी. इसलिए अब उस की सारी जिम्मेदारी प्रशांत के पिता पर आ गई थी.

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लेकिन मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घरपरिवार से नाता लगभग खत्म सा कर लिया था. आनेजाने की कौन कहे, कभी कोई चिट्ठीपत्री भी नहीं आती थी. उन दिनों शहरों में भी कम ही लोगों के यहां फोन होते थे. अपना फर्ज निभाने के लिए प्रशांत के पिता ने विदाई की तारीख तय कर के बहन से ईश्वर को संदेश भिजवा दिया था.

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मोह का जाल – भाग 2 : क्यों लड़खड़ाने लगा तनु के पैर

‘‘पिताजी, मैं इस के साथ नहीं रह सकता. मैं ने एक सर्वगुणसंपन्न व स्वस्थ जीवनसाथी की तलाश की थी न कि रोगी की. क्या मैं इस की लाश को जीवनभर ढोता रहूंगा? अभी यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ कड़कती मुद्रा में ये बोले.

‘‘पापा, भैया ठीक ही तो कह रहे हैं,’’ स्नेहा, मेरी ननद ने भाई का समर्थन करते हुए कहा.

‘‘तुम चुप रहो. अभी छोटी हो, शादीविवाह कोई बच्चों का खेल नहीं है जो तोड़ दिया जाए,’’ पितासमान ससुरजी ने स्नेहा को डांटते हुए कहा.

‘‘मैं कल ही अपने काम पर लौट रहा हूं.’’ कुछ कहने को आतुर अपने पिता को चुप कराते हुए, मनुज घर से चले गए.

मनुज की बातों से व्याकुल सास मेरे पास आईं. मेरी आंखों से बहते आंसुओं को अपने आंचल से पोंछते हुए बोलीं, ‘‘बेटी घबरा मत, सब ठीक हो जाएगा. बेवकूफ लड़का है, इतना भी नहीं समझता कि बीमारी कभी भी किसी को भी हो सकती है. इस की वजह से विवाह जैसे पवित्र संबंध को तोड़ा नहीं जा सकता. हां, इतना अवश्य है कि राजेंद्र भाईसाहब को बीमारी के संबंध में छिपाना नहीं चाहिए था.’’

‘‘मांजी, मम्मीपापा ने छिपाया अवश्य था, किंतु मैं ने इन्हें सबकुछ सचसच लिख दिया था. इन का पत्र प्राप्त कर मैं समझी थी कि इन्होंने मेरी बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया है, वरना मैं विवाह ही नहीं करती,’’ कहतेकहते आंचल में मुंह छिपा कर मैं रो पड़ी थी.

डाक्टर भी आ गए थे. रोग की तीव्रता को देख कर इंजैक्शन दिया तथा दवा भी लिखी. रोग की तीव्रता कम होने लगी थी, किंतु इन के जाने की बात सुन कर मन अजीब सा हो गया था. सारी शरम छोड़ कर सासूजी से कहा, ‘‘मम्मी, क्या ये एक बार, सिर्फ एक बार मुझ से बात नहीं कर सकते?’’

सासुमां ने मनुज से आग्रह भी किया, किंतु कोई भी परिणाम न निकला. जाते समय मैं भी सब के साथ बाहर आई. इन्होंने मां और पिताजी के पैर छुए, बहन को प्यार किया और मेरी ओर उपेक्षित दृष्टि डाल कर चले गए. सासुमां ने दिलासा देते हुए मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मैं विह्वल स्वर में बोल उठी, ‘‘मां, मेरा क्या होगा?’’

आदमी इतना तटस्थ हो सकता है, मैं ने स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था. विगत एक हफ्ते में हम ने कुछ अंतरंग क्षण व्यतीत किए थे, कुछ सपने बुने थे, सुखदुख में साथ रहने की कसमें खाई थीं, क्या वह सब झूठ था?

डैडी को पता चला तो वे भी आए. उन के उदास चेहरे पर मैं नजर भी न डाल सकी. कितने प्रयत्न, कितनी खुशी से संबंध तय किया था, क्या सिर्फ एक हफ्ते के लिए?

‘‘दिवाकरजी, आप मनुज को समझा कर देखिए. यह रोग भयंकर रोग तो है नहीं, मैं सच कहता हूं, हमारे यहां न मेरी तरफ और न ही इस की मां की तरफ किसी को यह रोग है. सो, यदि प्रयास किया जाए तो ठीक हो सकता है,’’ गिड़गिड़ाते हुए डैडी बोले.

‘‘भाईसाहब, अपनी तरफ से तो मैं पूर्ण प्रयास करूंगा पर नई पीढ़ी को तो आप जानते ही हैं, यह सदा अपने मन की ही करती है,’’ मेरे ससुरजी डैडी को दिलासा देते हुए बोले.

मैं डैडी के साथ अपने घर वापस लौट आई. इस तरह एक हफ्ते में सारे सुख और दुख मेरे आंचल में आ गिरे थे. इस जीवन का क्या होगा? यह प्रश्न बारबार जेहन में उभर रहा था. मां मेरे लौट आने के बाद गुमसुम हो गई थीं. डैडी अब देर से घर लौटते थे. शायद कोई भी एकदूसरे से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था.

मैं विश्वविद्यालय की पढ़ाई करना नहीं चाहती थी. 2 बार प्रीमैडिकल परीक्षा में असफल होने के पश्चात एक बार फिर प्रीमैडिकल परीक्षा में सम्मिलित होने का निर्णय सुनाया तो सभी ने स्वागत किया. परीक्षा का फौर्म भरते समय नाम के आगे कुमारी शब्द देख कर मम्मी व डैडी बिगड़ उठे, किंतु, भाई रंजन ने मेरे समर्थन में आवाज उठाई, बोले, ‘‘ठीक ही तो है. उस संबंध को लाश की तरह उठाए कब तक फिरेगी?’’

एक महीने पश्चात मनुज ने अपने वकील के माध्यम से तलाक के लिए नोटिस भिजवाया. मांपिताजी ने हस्ताक्षर करने से मना किया, किंतु मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘पतिपत्नी का संबंध मन व आत्मा से होता है. यदि मन ही एकाकार नहीं हुए तो टूटी डोर में गांठ बांधने से क्या फायदा,’’ और कागज पर हस्ताक्षर कर दिए.

जीवन में अब न कोई उमंग थी और न ही तरंग. किसी पर भार बन कर रहना नहीं चाहती थी. सो, प्रीमैडिकल में सफल होना प्रथम और अंतिम ध्येय बन गया था. समय कम था. मन को पढ़ाई में एकाग्र किया. परीक्षा हुई और परिणाम निकला. सफल प्रतियोगियों में मैं अपना नाम देख कर खुशी से झूम उठी.

मम्मीडैडी के उदास चेहरों पर एक बार फिर खुशी झलकने लगी थी और मुझे मेरी मंजिल मिल गई थी.

5 वर्ष की पढ़ाई पूरी हुई. मैं लड़कियों में प्रथम रही थी. योग्यता के कारण सरकारी सेवा में नियुक्ति हो गई. पूरे दिन रोगियों की सेवा करती तो अलग तरह के आनंद की प्राप्ति होती. कभीकभी लगता वह जीवन क्षणमात्र के लिए था. मेरा जन्म तो इसी के लिए हुआ है. कभी फ्लोरेंस नाइटिंगेल से अपनी तुलना करती तो कभी जौन औफ आर्क से, मन में छाया कुहासा पलभर में दूर हो जाता और कर्तव्यपथ पर कदम स्वयं बढ़ने लगते.

एक दिन अस्पताल में बैठी रोगियों को देख रही थी कि एक युगल ने कमरे में प्रवेश किया. मैं उस जोड़े को देख कर चौंक गई, किंतु चेहरे पर आए परिवर्तन पर यथासंभव अंकुश लगा लिया.

‘‘कहिए, क्या तकलीफ है आप को?’’ मैं ने सामान्य होते हुए पूछा.

‘‘आप इन का चैकअप कर लीजिए. चलनेफिरने में तकलीफ होती है, पैरों में सूजन भी है,’’ युवक ने कहा.

‘‘चलिए,’’ उठते हुए मैं ने कहा व बगल के कमरे में ले जा कर युवती का पूरा चैकअप किया और फिर बताया, ‘‘कोई परेशानी की बात नहीं है, इन्हें उच्च रक्तचाप है. इसी कारण पैरों में सूजन है. दवा लिख रही हूं, समय पर देते रहिएगा. बच्चा होने तक लगातार हर 15 दिन बाद चैकअप करवाते रहिएगा.’’

‘‘जी, डाक्टर.’’

‘‘नाम?’’ दवाई का परचा लिखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘ऋचा शर्मा,’’ उत्तर युवती ने दिया.

परचे पर नाम लिखते समय न जाने क्यों हाथ कांप गया था. कुछ दवाएं व टौनिक लिख कर दिए. साथ में कुछ हिदायतें भी. वे दोनों उठ कर चले गए, किंतु दिल में हलचल मचा गए. उस दिन, दिनभर व्यग्र रही. बारबार अतीत आ कर कुरेदने लगा. जो चीज मैं पीछे छोड़ आई थी, वह क्यों फिर से मुझे बेचैन करने लगी थी. मैं ने अलमारी से वह फोटो निकाली जो विवाह के दूसरे दिन जा कर खिंचवाई थी. देख कर मैं बुदबुदा उठी थी, ‘तुम क्यों मेरे शांत जीवन में हलचल मचाने आ गए. मैं ने तुम से कुछ नहीं मांगा. तुम ने साथ चलने से इनकार कर दिया तो मैं ने अपनी राह स्वयं बना ली. तुम इस राह में फिर क्यों आ गए. कितना त्याग और बलिदान चाहते हो?’ रात अशांति में, बेचैनी में गुजरी. सुबह उठी तो रातभर जागने के कारण आंखें बोछिल थीं. अस्पताल जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, किंतु फिर भी यह सोच कर तैयार हुई कि कार्य में व्यस्त रहने पर मन शांत रहता है.

अस्पताल में कमरे के बाहर मनुज को प्रतीक्षारत पाया तो कदम लड़खड़ा गए. किंतु सहज बनने का अभिनय करते हुए उन्हें अनदेखा कर अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गई. मनुज भी मेरे पीछेपीछे आए थे.

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